चिन्तामणि जोशी की कविताएँ



चिन्तामणि जोशी

चिन्तामणि जोशी
जन्म   : 3 जुलाई 1967 , ग्राम – बड़ालू, पिथौरागढ (उत्तराखण्ड)
शिक्षा   : एम. ए. (अंग्रेजी), बी. एड.
प्रकाशन : ‘दैनिक जागरण’, अमर उजाला’, कृति ओर’, गाथांतर’, अटूट बंधन’ तथा
         अन्य हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख प्रकाशित
प्रकाशित पुस्तक  : ‘क्षितिज की ओर’ (कविता-संग्रह)- 2013
संपादन  : ‘कुमांयू सूर्योदय’ साप्ताहिक -1986
          ‘लोक विमर्श’ काव्य स्मारिका- 2015
सम्प्रति  : अध्यापन
कवि समाज का एक सजग सचेत प्रहरी होता है। अपनी रचनाओं के माध्यम से वह सामाजिक समस्याओं और विडंबनाओं को उजागर करता रहता है। आज के समय में यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि जिस मीडिया के ऊपर यह सब दायित्व था (और जिस दायित्व को आजादी के आन्दोलन के दौरान उसने बखूबी निभाया भी) वह अब पूरी तरह बदल चुकी है। उसका पूरा चरित्र बदल चुका है। चूंकि मीडिया का स्वामित्व पूंजीपतियों के हाथ में है इसलिए इनसे अधिक अपेक्षाएँ भी नहीं की जा सकतीं। कवि चिंतामणि जोशी अपने दायित्व बोध से पूरी तरह परिचित दिखायी पड़ते हैं। उनकी कविताओं में पहाड़ पूरी तरह शामिल है। वह पहाड़ जो हमारी प्रगति और विकास की तथाकथित महत्वाकांक्षाओं का अधिकाधिक शिकार बना है। इस से पहाड़ के पूरे परिवेश वहाँ के जीवन, वहाँ की संस्कृति पर बहुत अधिक बदलाव आया है। कवि की चिंताओं में यह सब शामिल है। कवि की ऐसी कई कविताएँ हैं जिनमें ये चिंताएँ स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। प्रतिनिधि तौर पर पानी’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं। ‘गजब ताकत है/ पानी में… / पानी से/ जीवन चलता है…/ धुंध है/ व्यवस्था विद्रूप है/ आँखें फटीं हैं/ पानी भर चुका है/ अब रहने भी दे/ तू नहीं दिखा पाएगा राह/ ए खैरख्वाह/ तेरी आँखों का/ पानी मर चुका है।’ आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवि चिंतामणि जोशी की कुछ नयी कविताएँ। 
चिन्तामणि जोशी की कविताएँ
            
आड़ू-बेड़ू-घिङारू
चूल्हा सुलगते ही
घेर लेते थे माँ को
और चूल्हे को भी
लेकिन माँ के पास
आटा ही कितना होता था
बमुश्किल
आधी रोटी हिस्से आती थी
मडुवे की
आड़ू ने कभी
भूख का अहसास नहीं होने दिया
खेलते थे बचपन में
घंटों-घंटों तक
भूल कर सब कुछ
जब थक जाते
टूट पड़ते थे उस पर
बेड़ू ने कभी
ऊर्जा का ह्रास नहीं होने दिया
नापते थे
नन्हे-नन्हे कदम
दुपहरी में
स्कूल से घर तक
पथरीली राहों को
सूख जाते थे
होंठ-जीभ-गला
घिङारू ने कभी
प्यास का आभास नहीं होने दिया
इसीलिए
तम्हारा
मुझे
आड़ू-बेड़ू-घिङारू कहना
उतना आहत नहीं करता
जितना
अपने आड़ू-बेड़ू-घिङारूका
अपनी जमीन से
विलुप्त होते जाना
और
उदार आयातित
पॉलिश्ड सेबका
गली-गाँव-कूचे तक
छा जाना।
(आड़ू-बेड़ू-घिङारू – पर्वतीय क्षेत्र में पाये जाने वाले गरीब के फल और व्यक्ति को हेय दर्शाने वाला लोक प्रचलित मुहावरा।)
गोपू का कीड़ा
गाँव में पैदा हुआ गोपू
पला-बढा
ठीक से न लिखा
न पढा
सारा बचपन बह गया
गोपू गरीब रह गया
शादी हुई
गरीब की बीबी ठहरी
कुछ दिन सभी की भाभी हुई
दबंगों की उंगलियों पर नहीं नाची
छिनाल कहाई
कुलटा कहाई
दागी कहाई
गोपू ठहरा मेहनतकश
रोज रोजी कमाता
गरीबी धोनी थी पसीने से
हड्डी-पसली तपाता
अचानक
भटक गये उसके डग
न जाने कब
कच्ची शराब के अड्डों की तरफ
एक दिन मैंने कहा
तुम तो ऐसे न थे गोपू
कहने लगा-
भाई
दिन भर बहुत थकता हूँ
शाम को
दो गिलास गरम-गरम चखता हूँ
गम गलत करता हूँ
बचपन में
गोपू ग्वाला आता था
बूढी गोपुली आमा को बताता था-
आमा
आदमी के शरीर में तीन कीड़े होते हैं
एक दिमाग में
एक दिल में
एक पेट में
एक भी कीड़ा मर गया
तो आदमी मर जाता है
आज गोपू की निष्प्राण देह को
घेर कर खड़े हैं ग्रामीण
मैं समझ नहीं पा रहा
किसने मारा गोपू का कीड़ा
कौन सा कीड़ा मरा
दिमाग का
दिल का
या फिर पेट का ?
रधुली नहीं जायेगी स्कूल
माँ को बुखार है
खटिया पकड़ी है दो दिन से
गाय ने भी दूध मार दिया है
माँ चिंतित है
राहुल पढ़ने वाला लड़का हुआ
उसके बाबू कैते हैं
इसे इंजीनर बनायेंगे
ये तो कैती है
मैं मेडम बनूंगी
लगे से बचा दूध राहुल के लिए 
आज रधुली नहीं पिएगी दूध
कैसे होगा घर का सारा काम
गाय-बच्छी धूप में बांधना
घास-पानी देना
गोबर निकालना
घास काटना
दाल-रोटी बनाना
ये तो मुंह-अंधेरे ही
दूध लेकर निकल जायेंगे
बगड़ पर हाट की ओर
घनियां की दुकान के बाहर
खड़े हो जायेंगे
जुआरियों की जुट के पीछे
दोपहर तक आयेंगे
वैसे राहुल की आज छुट्टी  है
उसका स्कूल इंगलिश मीडम हुआ
अब राहुल लड़का हुआ
गोबर भी क्या निकालेगा
एक दो पूली घास तो काटनी ही होगी
कल ही आँसियां कारकर दे गया है कीड़ू ल्वार
बड़ी तेज धार होगी
घास भी क्या काटेगा
कहीं उंगली कट जायेगी
आज रधुली स्कूल नहीं जायेगी।
मजदूर
सुबह काम पर जाते हुए
गुजरता हूँ मिस्त्री-मजदूरों की भीड़ से
बस अड्डे के फुटपाथ पर
पिच्च-पीच पान, फट-फटाक तमाखू
जल्दी-जल्दी बतियाना
मोबाइल पर
सब ठीक बा
अच्छे दिन आएंगे
तो फुर्सत से बतियाएंगे
अभी टैम नहीं
परदेश में कमाना है
टैम खराब है
मुनियां का खयाल रखना
अच्छा लगता है
भीड़ से उठती श्रम की सुगन्ध
गुजरती है नाक के पास से
कान में कह जाती है 
निर्माण पलता है इनके हाथों में
और तेरी गोद में
उनकी जेब में सूता-फीता
हाथों में छैनी-हथोड़ी, करनी, गिरमाला, गल्ता
देख कर टटोलता हूँ
अपने कंधे का झोला
लाल-काली स्याही की कलमें
रंगीन चॉक, किताब, डायरी,
मार्कर, स्टेप्लर, कटर
सब तो है मेरे पास भी
लेकिन पत्नी का रखा
दो पराठे, थोड़ा साग, अचार की फाँक
वाला खाने का डिब्बा
और छने पानी की बोतल
फर्क करते हैं
उसमें और मुझमें
दोपहर में
फीकी चाय के प्याले में
पाँच रुपए का बिस्किट
मिट्टी सने हाथों से डुबो कर खाता मजदूर
चोटी पर होता है
मैं तलहटी में
उसे देखने के लिए
गरदन पूरी पीछे खींचनी पड़ती है
सीने में सिकुड़ा सम्मान
उर्ध्वगमन करता है
आंखें बड़ी हो जातीं हैं।
अघोरी का नाटक
हड्डी का टुकड़ा हाथ में लिये
तथाकथित अघोरी
भावनाओं में बह रहा था
और
नाटकीय अंदाज में
कह रहा था-
यह संसार एक रंगमंच है- बच्चा!
यह कोई सामान्य अस्थि नहीं
विगत दशक की
दुर्दान्त ट्रेजेडीका अवशेष है
मैं साफ देख रहा हूँ –
इस अस्थि का अतीत
इसका धारक तो जैसे
गुणों की खान था
बाँका जवान था
सौम्यता का प्रतीक था
नीतिरत, निर्भीक था
उसने उच्च लक्ष्य निर्धारित कर
परोपकार का जामा पहना
लक्ष्य प्राप्ति हेतु –
वणिक का जामा पहन
धनवृद्धि की
गरीबों के मसीहा का
ढोंग रच कर
झोपड़ों में घुसा
फोड़े का दर्द
मवाद साफ कर
दूर करने का नाटक किया 
और रक्त चूसा
भ्रष्टाचार के पर्वत से
टकराने का नाटक किया
पर्वत फटा
वह अन्दर धँसा
भ्रष्टाचारी शैल की
गर्म पर्तों के बीच
उसकी त्वचा झुलस गयी
मुँह काला हो गया
एक दिन
भ्रष्टता की गर्त में धँसा
उसका सिर
ऊपरी पर्त से
ऊपर उठा तो
भयंकर ट्रेजेडीहुई
धर्म के ठेकेदारों ने उसे
शिवलिंग का संज्ञा दी
ढोंगियों का विरोधी
चिता में झोंक आया
तुम भी धोखा खा गये बच्चा!
इसे अधजली लकड़ी समझ कर
उठा लाये
खैर –
नाटक का शेषांश अभिनीत करो
ले जाओ इसे
चूल्हे पर धरो
कल इसकी राख को
मानव कल्याणार्थ आयोजित
यज्ञ की भस्म बताएंगे
जन सामान्य के माथे पर लगाएंगे
मोटी रकम कमाएंगे
कीमा-कलेजी-कबाब
सब आएगा –
आत्मा ही परमात्मा है बच्चा!
इम्पोर्टेड विदेशी शराब
हलक से नीचे उतरेगी
आह! मन बाग-बाग होगा
आत्मा तृप्त होगी हमारी
और उसे शान्ति मिलेगी।
तेरे खिलाफ
फुटपाथ पर
झोपड़पट्टी में
पेट में घुटने सिकोड़े
चीथड़े से टाट ओढ़े
ठंड से ठिठुरती
जनता को
नजर अन्दाज कर
गर्म-गर्म कमरों में
नर्म-नर्म गद्दों पर
सोने वाले अय्यास
व्यवस्था के नुमाइन्दे
आज उद्वेलित
जी चाहता है
कि तेरे खिलाफ
बिच्छुओं के डंक सी
कविता लिखूँ
और जिसे तू
कुचल देना चाहेगा
पैरों तले
तुझे वह
गंदे नाले का
कीड़ा दिखूँ।
दद्दा और राजा
दद्दा गंवार नहीं था
गाँव में रहता था जरूर
जानता था उसके ही वोट से
बनता है राजा
उसके सुख की व्यवस्था के लिए
वह हमेशा देता आया था वोट
राजा के लिए
पहाड़ों पर
चौमास की गलती-धसकती पगडंडियों से फिसल कर
अषाढ़ की उफनती नदी में
आर-पार जाते तार पर
जान हथेली में ले कर
मीलों दूर बने पोलिंग बूथ पर
राजा भी दद्दा का हाथ
हाथ में लेता
और मुस्करा कर कह देता
नदी किनारे बिखरे
तमाम टुकड़ों में ही कहीं है
सुख का गर्म टुकड़ा
और दद्दा
एक-एक टुकड़े को गाल से छुआ कर
नदी में फेंकता रहता
वक्त गुजरा
दद्दा के सुख का अहसास
गुम गया
दद्दा डाल आया
अचानक हाथ आये गर्म टुकड़े को
दरिया में
अब शांत है
जैसे फूंक कर आया हो
गुजरी व्यथा की लाश।
पूस आया
सुन बे
सपनों के सौदागर
रात के अंतिम पहर
मढैया की दीवारों पर सनसनाती
तीखी हवा की थपक से
वह उठ गई है अचकचा कर
उधड़ी छत पर तनी चादर
टाट वाली झटक डाली
फैला रही है
पेट में घुटने घुसेड़े
तीनों के तन पर
पलायित है कंत
लाने को वसंत
प्राण की लेने परीक्षा
इस बरस भी पूस आया
सबसे पहले
उसी के घर।

खड़ी हैं स्त्रियां
पहाड़ जांच रहा है
अपनों की जिजीविषा
परख रहा है
अपने से अपनत्व
बदल रहा है रंग
दरक रहा है
धधक रहा है
बुला रहा है
तबाही के बादलों को
घटा रहा है
अपने सीढ़ीनुमा खेतों की उर्वरा
सुखा रहा है
फलदार पेड़ों की प्रजातियां
भेज रहा है
जंगलों से जानवरों के झुंड
आबादी में
पुरुष हार रहा है
भाग रहा है
लेकिन अभी भी
फाड़ रही हैं
जंगली भालू के जबड़े को
अपने होंसले-हंसिये से
दिखती हैं
भीमल, खड़क, बांज के पेड़ों पर
धान, मड़वा, चींणा के खेतों में
स्त्रियां
स्त्रियां
अभी भी जातीं हैं समूह में
लाती हैं-चारा बटोर कर
अपने डंगरों के लिए
कांठों की जिबाली और
चढ़ती उतरती ढलानों पर जिन्दा
जंगलों से
स्त्रियां
अभी भी खड़ी हैं
पलायन के पहाड़ के सम्मुख
सीना तान कर
जब तक खड़ी हैं स्त्रियां
तब तक खड़ा है पहाड़।
पानी
गजब ताकत है
पानी में
बूँदों से नाला
नाले से दरिया
दरिया से सागर
सागर से बादल
बादल से बूँदों में
बदलता है
बीजों को पौधों
पौधों को वृक्षों
कलियों को पुष्पों
पुष्पों को फल-फसल
फसलों को सरस व्यंजन में
बदलता है
पानी से
जीवन चलता है
धुंध है
व्यवस्था विद्रूप है
आँखें फटीं हैं
पानी भर चुका है
अब रहने भी दे
तू नहीं दिखा पाएगा राह
ए खैरख्वाह
तेरी आँखों का
पानी मर चुका है। 
एक बेटी की मौत पर
करोड़ों दिलों की
दुआ हार गई
कितने गहरे होंगे
दरिंदगी के वो जख्म
कि तुम्हारा संघर्ष हारा
देश-विदेश के
डॉक्टरों की कोशिश
बेकार गई
रक्त-मज्जा-अंग का
सह ह्रास
मन मजबूत था
क्या खास
तेरह दिनों की
जीवटता के बाद
पसरी मायूसी
टूटी आस
रण छोड़ गई तुम
देश को
देश के दिल
दिल्ली को
दुनियाँ को
झकझोर गई तुम
बेटी!
कैसा है वहाँ
अब तुम हो जहाँ
क्या वहाँ भी
जगह-जगह बार
और नशे का कारोबार है?
क्या वहाँ भी
अश्लील सोच
अपसंस्कृति का प्रसार है?
क्या वहाँ भी
दरिन्दों और
शोहदों की भरमार है?
क्या वहाँ की सत्ता में भी
दोहरे चरित्र वाले
नीति-नियंताओं का अधिकार है?
क्या वहाँ भी कोई पुरुष
मातृ-रूपी बेटी-बहिन के
अंग-भंग कर शर्मसार है?
नहीं ना …
तब तो वहाँ
तुम्हारी चोटिल आत्मा
शायद शांति पा सके
क्षमा करना बिटिया!
वहाँ पर खोलना मत
इस जहाँ की
घिनौने कृत्यों की पेटियाँ
हाँ ..
अनवरत आवाज देना
इस जहाँ को –
कब महफूज होंगी बेटियाँ?‘
कदाचित
मेरे समाज में
नई क्रांति आ सके
और
तुम्हारी चोटिल आत्मा
शायद
शांति पा सके।
आपदा 2013… हिमालयन सुनामी
कबीर
तुमने कहा-
सुत अपराध करे दिन केते
जननी के चित रहे न तेते…
और तुम चले गये
धरती-पुत्र के लिए
कुछ पुष्प छोड़कर
कबीर
तब से अब तक
उच्छृंखल होता गया
दिन-ब-दिन
धरती-पुत्र का व्यवहार
वह नोंचता रहा
धरती के केश
लतियाता रहा
धकियाता रहा
धरती  को
छेदता रहा
भेदता रहा
उसकी देह
कबीर
सदियों की पीड़ा
और आक्रोश को समेटे
धरती  के
धैर्य का तटबंध
आँखिर आज टूट ही गया
और बह निकली
हिमालयन सुनामी
खंड-खंड हो गया
केदारखंड।
लालसिंह पहाड़है
(आपदा 2013 की प्रथम बरसी पर)
आपदा पर
चल रही है राजनीति
लग रहे हैं
आरोप-प्रत्यारोप
बन रही है
योजना-परियोजना
गढ़ी जा रहीं हैं
कविताएं-कहानियाँ
छप रहे हैं
समाचार-विचार
लेकिन उसे
इन सबसे
अब नहीं है सरोकार
जानता है
उलझता नहीं कभी कालचक्र
निरर्थक बहस-मुबाहिसे में
फिर आयेगा आषाड़
फटेंगे बादल
भरभराएंगे पहाड़
उफान पर होगी नदी
तूफान पर छोटी गाड़
उसे पता है
हकीकत योजनाओं की
जो ठीक समय पर
सिद्ध होतीं हैं भोंथरी
और उसे चाहिये होती है
सिर छुपाने के लिए
एक अदद कोठरी
राजा भाग्यवान ठहरा
चुना उसने
फिर चुनेगा
चुनना पड़ेगा
भाग्यवान के लिए तो
खोदी हुई ही खाड़ है
कहता रहा है
कहता रहेगा
उस पर भरोसा झाड़ है
इसीलिए
पत्थर तोड़ रहा है
रोड़ी फोड़ रहा है
तख्ता-बल्ली जोड़ रहा है
कर रहा है
नमक-तेल का भी जुगाड़
दरक चुके घर के आजू-बाजू
तलाश कर
तराश रहा है सुरक्षित जमीन
तपा रहा है हाड़
दरकता है बार-बार
फिर भी खड़ा है
पुरुषार्थ उसकी आड़ है
लालसिंह पहाड़है।
विकास हो रहा है बल
कट रहे हैं जंगल
क्यूंकि कट रही है सड़क
उड़ रही है धूल
क्यूंकि उड़ रही हैं चट्टानें
डायनामाइट से
हिल रहे हैं पहाड़
बुलावा दे रहा है तबाही को
घाटियों से उठता हुआ गुबार
बचा रहा है मनुष्य पेशीय बल
विकास हो रहा है बल
कट रही हैं लड़कियां
क्यूंकि कट रही हैं गर्भ की दीवारें
अल्ट्रा ध्वनि से
विज्ञान दृष्टि भटकी
गड्ड-मड्ड संतुलन
आंखों में गिद्ध घुस आये हैं
पिट रही है इंसानियत
घिस-पिट चुके संस्कार
चरम पर है बाजार का बल
विकास हो रहा है बल
कट रहे हैं दिन
अपने कल्लू किसान के
क्यूंकि कट गया है
उसका अकेला बचा खेत
चंद रुपयों की एवज में
बहाता था पसीना अच्छा खासा
उगाता था सुबह-शाम आशा
उसके ढाबे के पास से गुजरती है अब
नौ फिटा कंक्रीट की सड़क
धूल फांकता, ताकता रहता है
आती-जाती, उनकी चमचमाती कारों को
वह हो गया निर्बल
विकास हो रहा है बल।
शब्द की खनक
छलकते श्रम कणों का स्वाद
जो चख न पाई
वह जीभ कैसी
गौशाला-गोबर की गंध
जो सह न पाई
वह नाक कैसी
देख पाई नहीं
अपने अ्रंतस का भूदृष्य
वह आँख कैसी
ठिठक गए
देख कुचले दबे व्यक्ति का हाथ
वह हाथ कैसे
रुक गए अनायास
पथरीली राह के पास
वह पाँव कैसे
सुन न पाये
टनों मिटटी उलट
सतह के नीचे से निकले
शब्द की खनक
वह कान कैसे
मैं निहारूंगा सदा
चोटियों पर टँगी
फरफराती झंडियाँ    
मैं सुनुंगा जरूर
लहरों में बजती
सितारों की घंटियाँ
टटोलूंगा अंतर्यात्रा के पड़ाव
सहेज लूंगा लब्ध को
मैं सुनुंगा जरूर
तुम्हारे खनकते शब्द को।
सम्पर्क:                                        
देवगंगा‘, जगदम्बा कालोनी, पिथौरागढ़-262501
मोबाईल – 09410739499
ई-मेल  : cmjoshi_pth@rediffmail.com
                                                                             
 (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)

शैक्षिक दखल पर चिन्तामणि जोशी की टिप्पणी


शिक्षा किसी भी समाज के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाती है. दुर्भाग्यवश हमारी शिक्षा व्यवस्था न केवल राजनीतिज्ञों द्वारा बल्कि हमारे समय के बुद्धिजीवियों द्वारा भी नजरअंदाज की जाती रही है. इसका महत्व इसी से समझा जा सकता है कि स्वतंत्रता संग्राम के समय हमारे सेनानियों और साहित्यकारों के पास शिक्षा को ले कर एक सुचिन्तित सोच थी और अपने प्रयासों से उन्होंने इसे यथार्थ रूप में बदलने का भी महत्वपूर्ण प्रयास किया. वे जानते थे कि आजादी के बाद शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम हो सकती है जो देश को सही राह दिखा सकती है. उत्तराखण्ड के कुछ शिक्षकों  द्वारा सामाजिक भूमिका निभाने के क्रम में ‘शैक्षिक दखल’ नामक एक महत्वपूर्ण पत्रिका निकाली जा रही है. इसका नया अंक अभी-अभी आया है जिसकी एक पड़ताल की है हमारे मित्र चिंतामणि जोशी ने.      
शैक्षिक दखल’  का नया अंक
चिन्तामणि जोशी 

माध्यम-भाषा विमर्श पर केन्द्रित शैक्षिक दखल’  का ताजा अंक वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत सीखने-सिखाने की प्रक्रिया की दुखती रग पर हाथ रखने में सफल हुआ है। परिचर्चा, आलेखों, शैक्षिक जीवन के अनुभवों एवं अन्य स्थायी स्तम्भों से होकर चिन्तन-मंथन के साथ चलते हुए सीखने की प्रक्रिया में परिवेशीय भाषा का महत्व शुद्ध, धवल एवं उपयोगी नवनीत की तरह उभर आता है।
      प्रारम्भ में जहाँ महेश पुनेठा ने विविध तथ्यों एवं अनुभवजनित सत्य के आलोक में इस बात का प्रभावशाली रेखांकन किया है कि बच्चे की सीखने की गति अपने परिवेश की भाषा में ही सबसे अधिक होती है और इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि परिवेश से दूर की भाषा शिक्षण का माध्यम होने पर उसका प्रभाव बच्चे के बौद्धिक विकास पर पड़ता है-एतदर्थ कम से कम प्रारम्भिक शिक्षा तो उसके परिवेश की भाषा में ही होनी चाहिए वहीं अंत में दिनेश कर्नाटक ने दूसरी भाषा को शिक्षण माध्यम बनाने के विचार की विवेचना आसान लगने वाले ऐसे रास्ते के रूप में किया है जिसमें भटकाव ही भटकाव है। वास्तव में भाषा सीखना और भाषा का सीखने का माध्यम होना दो अलग-अलग बातें हैं जिन पर वर्तमान में गहन विमर्श की आवश्यकता महसूस होती है।
      हमारी अपनी भाषा हमारे स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान, हमारी संस्कृति के पोषण का एक सशक्त अभिकरण होती है। उसके प्रति हीन ग्रंथि का विकास हमें पतनोन्मुख करता है। जीवन सिंह ने अपने आलेख अंग्रेजी का राज एवं भारतीय भाषाएं’  में उपरोक्त तथ्य को पूर्ण व्यापकता के साथ उद्घाटित किया है।
      परिचर्चा’  स्तम्भ शैक्षिक दखल रूपी साझा मंच के अन्दर अपने आप में एक ऐसा महत्वपूर्ण मंच है जो देश भर से छात्रों, शिक्षकों, अभिभावकों, कवियों, लेखकों, विचारकों, पत्रकारों, कलाकारों के इतने बड़े जमावड़े को मुद्दा विशेष पर विचार-विमर्श एवं बहस के माध्यम से एक दूसरे को जानने समझने का सुअवसर प्रदान करता है। एक शिक्षक की दृष्टि से देखा जाय तो कक्षा शिक्षण में संबोध विशेष को प्रारम्भ करने से पूर्व ब्रेन स्टॉर्मिंग के लिए एक रोचक-महत्वपूर्ण गतिविधि।
      अनुभव अपने-अपने’  एक और उपयोगी स्तम्भ है अनुभवों एवं सरोकारों को साझा करने के लिए। अस्मुरारीनन्दन मिश्र, चिन्तामणि जोशी, दिनेश भट्ट, उमेश चमोला, हेमलता तिवारी के रोचक अनुभव परिवेशीय भाषा के महत्व को स्वीकारते ही नहीं साबित भी करते हैं यह बताते हुए कि भाषा सीखना तभी हो सकता है जब शब्दों को अर्थ मिले, जब शब्द अंतस को छू सकें। डॉ इसपाक अली का आलेख दक्षिण भारत में हिन्दी की विकास यात्रा’  हिन्दी की राष्ट्रीय स्थिति को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण आलेख है।
      वरिष्ठ साहित्यकार बटरोही के उपन्यास गर्भगृह में नैनीताल’  से चयनित अंश भी प्रस्तुत अंक के उद्देश्यों को समझने में सटीक सहयोग प्रदान करता है। अपनी भाषा तथा संस्कृति के प्रति आत्महीनता से भरे और अंग्रेजी को सभी विषयों का निचोड़ मानने वाले ठुलदा अन्ततोगत्वा जब दर्द से कराहते हैं तो उनके गाँव की जीती-जागती परिवेशीय भाषा अनायास ही उनके अन्दर प्रवाहित होकर इस तथ्य को सिद्ध कर देती है कि बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।‘
      यात्रा, नजरिया, मिसाल, किताब के बहाने भी बेशक शिक्षा के क्षेत्र में गहरी दखल देने में समर्थ हुये हैं। दिनेश जोशी ने एक बार पुनः सन्दर्भ के अनुकूल अखबारों से ऐसी कतरनें एकत्र कीं हैं जिन पर चिन्तन एवं चिन्ता करना समय की मांग है। भाषा पर भगवत रावत, नरेश सक्सेना एवं राजेश जोशी की कविताओं का चयन सम्यक है। पत्रिका के कलेवर को सौन्दर्य प्रदान करने के साथ ही ये कविताएं फ्रांस के उपन्यासकार अलफांस डॉडेट द्वारा लिखित द लास्ट लेशन’  के कथ्य की यादें ताजा करतीं हैं।  फ्रेंच शिक्षक हमेल के पास अलसॉस प्रांत पर जर्मनों के अधिकार एवं जर्मन भाषा थोपने के बाद अपने अंतिम पाठ में अपने प्रांतवासियों के लिए ऐसा शब्द नहीं है जो उन्हें दे सके कि संकट के समय काम आयेगा फिर भी वह कहता है- फ्रेंच विश्व की सुन्दरतम भाषा है। उसे हमें अपने बीच संरक्षित रखना चाहिए क्योंकि जब देश गुलाम हो जाता है, जब तक उसके वासी अपनी भाषा से जुड़े रहते हैं उनके पास हर प्रकार के जेल की चाबी होती है। वाइव ला फ्रांस’  (फ्रांस जिन्दाबाद)।
      कुल मिलाकर वर्तमान अंक उपयोगी, पठनीय एवं अनुकरणीय है। लोकमंगल की कामना के साथ संकलित शैक्षिक साहित्य के रूप में संग्रहणीय है। श्रमसाध्य सामग्री संकलन, सम्यक् चयन एवं प्रकाशन हेतु सम्पादक द्वय एवं शैक्षिक दखल टीम को साधुवाद।

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