विजेंद्र की कविता पर हुई एक गोष्ठी की रपट

हाल ही में “कवि  विजेंद्र की  कविता और  आज  के समय में  कविता की जरुरत ” विषय  पर  लखनऊ  में  एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी की एक रपट हमें भेजी है अशोक चन्द्र ने। प्रस्तुति आशीष सिंह की है। तो आइए पढ़ते हैं इस गोष्ठी  की यह रपट”
विजेन्द्र  की  सतत  अग्रगामी काव्य यात्रा

अशोक  चन्द्र

लखनऊ।  23  अगस्त 2015.। “बातचीत'”  के  तत्वाधान  में  आयोजित  विचार  गोष्ठी   में  कवि  अशोक  श्रीवास्तव ने वरिष्ठ  जनकवि विजेन्द्र  की  कविता व जीवन  के बहुआयामी पहलुओं पर विस्तार से रोशनी  डालते  हुए कहा कि  “विजेन्द्र  की रचना  यात्रा  सतत  अग्रगामी  है। उनमें पुनरावृत्ति नहीं  होती ‘।  मालूम   हो  कि अशोक  जी  विजेन्द्र  के  कविताओं  को केन्द्र में  रख कर  “आज  का  समय  और  कविता की  जरुरत”  विषय  पर  बीज वक्तव्य रख  रहे  थे। कार्यक्रम  की शुरूआत विजेन्द्र  के सक्रिय अस्सीवें  जन्म-दिवस  पर  सबने  अपने प्रिय कवि  को  प्रफुल्लित  हृदय  से  बधाइयाँ  दी। और  साथ  ही  कवि संपादक  एकांत  श्रीवास्तव द्वारा “वागर्थ” पत्रिका  के विजेन्द्र के  सम्मान  में  निकाले   गये  अंक  के  लिए   धन्यवाद  दिया।  
कार्यक्रम  का संचालन  करते  हुए आशीष ने  कवि विजेंद्र  के  जीवन  यात्रा से  परिचित  कराते  हुए कहा कि हमारी साहित्यिक  दुनिया  में  बड़े रचनाकारों  के प्रति  जिस प्रकार का उपेक्षा  भाव रहा  है वही रवैया  हम  विजेन्द्र  जी के साथ  कर  रहे  हैं। खासकर वे नामावर  विश्लेषक जो जनविरोधी, जातिवादी -साम्प्रदायिक  शख्सियतों  के  रोजनामचों  का प्रशस्तिवाचन  करने का  समय  निकाल लेंगे  लेकिन  जनता की मुक्ति के साथ अपने  रचनाकर्म  में  लगे  सर्जकों  की ओर  इन  जैसे आलोचकों  का ध्यान भूल से भी  नहीं जाता है। क्या  यह अनायास  है कि शील, निराला,  कुमारेंद्र  पारसनाथ  सिंह  आदि  तमाम कृतिकार  रहे  हैं  जिनकी  समय  रहते  उपेक्षा  हुई। यह  उपेक्षा  उन  रचनाकारों  की  नहीं  बल्कि हिंदी  जनता  और  उसके  वास्तविक  जरुरतों  की भी उपेक्षा  है। विजेन्द्र  इन  सफेदपोश  यानि  बात जनता  की  करते  हैं  व्यवहार ठीक  विपरीत   नज़र  आता  है; ऐसे छदम आलोचकों  को  धिक्कारते  हैं  जब वे कहते हैं  कि  —

मैं  अंगरक्षकों को पहनकर
जिंदा  नहीं  रह सकता
नहीं  रह  सकता
शत्रु  को  पहचानो
यह  एक  शर्त   है
कविता  सबसे  पहले  यह प्रश्न   उठाती  है
अब आदमी   की  पहचान  मिट  रही  है
शत्रु  को  पहचानो 
रचना  आँख  है।

इस  प्रकार  विजेन्द्र  के  कविता कर्म  का  मकसद   स्पष्ट है। वे  जनमुक्ति  का पक्ष चुनते  हैं। इसीलिए  वे  मुक्तिकामी जनता के कवि है।
कवि  अशोक  चन्द्र  ने  बीज  वक्तव्य   में  कहा कि   विजेन्द्र   के   पहले   कविता  संकलन  “त्रास”   से   लेकर   हाल   ही   मे    प्रकाशित   “ढल रहा है दिन” तक देखे तो कुल जमा दो   दर्जन  पुस्तकें आ चुकी  हैं।   इन्हें पढ़ने पर  हम   पाते  हैं कि उनकी रचना  अग्रगामी  रही  है। उनकी कविता  में  पुनरावृत्ति नहीं  होती। यह  जनसरोकारो   से  जुडे  कवि  की आन्तरिक गठन को  भी  प्रदर्शित  करता   है।

अशोक  चन्द्र  जी  ने  विजेन्द्र  के  काव्य साधना  और  चित्रांकन  के  बारे  में  कहा  कि उनका  जीवन  बहुत   ही  अनुशासित  और सुगठित रहा  है। अगर  एक पंक्ति में  कहा  जाय  तो  वे well composed   personality   हैं।  समय, प्रबंधन, आदि  सबमें  वे  व्यवस्थित रहते  हैं। उन से  मिल कर उनके व्यक्तित्व  से  प्रभावित   हुए  बगैर   कोई  रह  नही  सकता।  जब  वे  बोलते  है  मानो  ज्ञान का झरना अजस्र प्रवाहित हो  रहा  हो। कवि विजेंद्र   ‘खिलोगे  तो  देखेंगे’ के बजाय  खिलते   हुए  देखना  पसन्द  करते  हैं। यह  उनके  व्यक्तित्व    की  आभा ही  है  कि सुदूर  अंचल  के  युवा उनसे जुड़ना व परामर्श  लेना  आवश्यक  समझते  हैं। वे  सदैव     लिखने-रचने  को प्रेरित करते   हैं।
 अशोक  जी  ने  सत्तर  के   दशक  से कविता को  केन्द्र में  रख कर  विजेन्द्र  के  सम्पादन में निकलने  वाली “”ओर”  और ‘कृति ओर’ के  बारे  में  बताते  हुए  कहा  कि  उन्होंने रचना  के  उत्खनन  का  विचार रखा है।      प्रकाशन सम्बन्धी तमाम  दिक्कतों के बावजूद कभी  भी रचना  या  विचार के धरातल पर  समझौता नहीं  किया। वह  आज हमारे वरेण्य जनकवि हैं,  जीवन  के  स्तर पर  भी  व कविता के स्तर पर  भी।

 “जा रहा  हूँ जयपुर  छोड़ कर'”  कविता   पढते  हुए अशोक  जी  ने  बताया  कि  प्रकृति  की   मामूली  सी चीजों  के  साध  भी  कवि  का  गहरा   अपनापन  दिखता  है। उनकी कविता  में प्रकृति   से  एक  जैविक  संवाद, रिश्ता दिखता  है।  “लोक” और  “जन”  उनकी  कविता के  बीज शब्द  हैं।

कविता  की  आयातित  आलोचना पद्धति  के  बहुत  बड़े  आलोचक  रहे हैं विजेंद्र। अपनी  परंपरा   से  जुड़ कर   वे जीवन को  देखने  की  दृष्टि विकसित   करते   रहे  हैं।  कवियो  में निराला  उनके अपने  प्रिय कवि हैं लेकिन  काव्यशास्त्र   में  वे तुलसी को  अपना आदर्श मानते रहे  हैं। तुलसी की काव्य  चिंताओं  को  लेकर वे  विचार करते रहे  हैं। सौंदर्यशास्त्र :   भारतीय चित्त और  कविता” नाम से सौंदर्यशास्त्र पर  उनकी एक  बहुत   महत्वपूर्ण  किताब   भी आयी  है।  स्थापत्य   को  लेकर  उनकी   कवितायें  काफी  सजग  हैं।

वे  एक  अच्छे  चित्रकार हैं। एक  चित्र  रोज बनाते हैं। कविता   की रचना  प्रक्रिया में  चित्र   और   चित्र  के    सघन  बिम्बों  में  कविता सहायता करती है।  “आधी रात के  रंग’  संग्रह   इसका बढ़िया   उदाहरण है। इसमें चित्र कविता  और अंग्रेजी  कविता उच्चतम  धरातल  पर  प्रकट  होते हैं ।  अशोक जी  ने  विजेंद्र के  बारे  में  बताया कि  वे  डायरी  नियमित  लिखते  हैं  वह  भी रोजनामचा के  तौर पर  नहीं बल्कि वे  एक प्रश्न उठाते  हैं   और उसके  विस्तार   में  जाते  हैं । उनके  पत्र  भी संवाद करते  हैं।  वे  लोगो  को  सक्रिय करते  हैं।  एक   सुक्तिपरक वाक्य में  कहें  तो वे  लोगो  को ‘खिलोगे  तो  देखेंगे की बजाय वे  खिलते  हुए देखना पसंद   करते   हैं।
कवि-कथाकार  राजेन्द्र  वर्मा ने  अपने  वक्तव्य   में कहा  कि  विजेन्द्र  जी   की  छवि  एक  विद्वान  सर्जक  की  है। लेकिन   उनका   लेखन  जनभाषा  में   है, लोकजीवन  उसमें   मौजूद   है, जीवन  का  ठाठ है। उनकी काव्य  भाषा और छन्द में जीवन  का गठन है।  स्थानीय  शब्दों  से  युक्त काव्य  भाषा  हमें  जनता के पास     ले  जाती है। यही  उनकी कविता की  ताकत  है।          
संवेदन   पत्रिका  के  संपादक  और  युवा कवि  राहुल  देव   ने  विजेन्द्र  की  कविता   और  चित्रकारी   के  बीच गहरा  रिश्ता चिन्हित किया।  उन्होनें  कहा  कि  विजेंद्र  एक  चित्रकार कवि   हैं।  उनकी  कविता  में एक  चित्रकार की आत्मा समाई  हुई है।  उनकी  कविताओं  का परिवेश  लोकनिसृत  है,  अनकेकानेक तहों  के साथ। वहाँ रंगो का  बहुरंगी संसार है जीवंत-जाग्रत।  जो उनकी सूक्ष्म  बनावट में  विन्यस्त है। वह    प्रगतिशील चेतना में निराला, नागार्जुन,  केदार  और त्रिलोचन की  परम्परा  के   कवि  हैं । विचारधारा  के स्तर  पर विजेन्द्र  की  कविता काफ़ी प्रभावी  है।  उनका   समग्र   व्यक्तित्व  हमें   प्रभावित   करता  है।  उनके रचनात्मक  व्यक्तित्व और  जीवन  में काफ़ी  साम्य है।
कथाकार  प्रताप  दीक्षित  ने  कहा  कि  कविता   मनुष्य   की  आदिम  रागात्मक  वृति   की  समानान्तर   यात्रा है। उन्होंने आगे  अपनी   बात   को  विस्तार   देते  हुए  कहा  कि कोई  रचना अपने   समय  और  समाज की  समसामयिक  गतिविधियों  से  असंपृक्त होकर  कालजयी  नहीं  हो  सकती।  इस  परिप्रेक्ष्य    में  विजेन्द्र  की  कवितायें  एक  ओर  समय  और  परिवेश   से  साक्षात्कार   कराती हैं  दूसरी  ओर  उनमें  अन्तरमन  की  वह  बेचैनी  है  जिसके  बिना  कविता का  सृजन   दुष्कर  है।

कवि  अनिल श्रीवास्तव ने  कवि  की  विश्व दृष्टि  और  अपने  परिवेश  से  गहरा परिचय  इन  दो महत्वपूर्ण आधारों को  केन्द्र  में  रखकर  विजेन्द्र  की कविता  को  परखने  की बात  कही। उन्होंने विजेन्द्र  के  एक  वक्तव्य के मार्फत अपनी भावना  प्रकट  करते  हुए  कहा  कि  “कवि  इस  दुनिया  को  अपनी   इन्द्रियों  से अनुभव  करके  ही  उसे  मानवीय  बनाता  है  जिसे वे कविता में  रुपान्तरित  करते हैं। श्रेष्ठ कविता   मानवीय  गुणों  से  परिपूर्ण   होती  है।उसकी नसों  में  क्रांति  का  जैसे  रक्त   प्रवाहित होता  है।”

कथाकार भानु श्रीवासतव  ने  ‘कृति ओर’  पत्रिका  की  काव्य कर्म  को  लेकर  समर्पण   को  बड़े   महत्व  का  काम  माना।  उनके  मुताबिक  इस   बर्बर  समय  में  हमें कविता ही  बचायेगी।
प्रसिद्ध  कथाकार  अवधेश  श्रीवास्तव ने  कहा  कि  विजेन्द्र  प्रभुलोक के  बरक्स  लोकधर्मी  कवि हैं। उनकी  कविता  में  प्रभुलोक’  से  सदा  द्वन्द चलता   रहता  है।  पूंजी व्यक्तिवादी  और  स्वार्थी बनाती  है।  समस्त  उत्पीड़ित जन के  साथ ही  स्त्री की  मुक्ति  निहित है।

साहित्यकार   श्री  बन्धु  कुशावर्ती  ने  विजेन्द्र  के  काव्य  नाटक   क्रौंच वध  को  “अंधा  युग”  व   “उर्वशी ” से  आगे  की  कडी   का  नाटक बताया।  इसी क्रम में उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यवश  इस  पर  ठीक से  ध्यान   नहीं   दिया   गया। हमारा लेखन  क्या इतना  जीवंत है  कि  इस  बर्बर   समाज  में  लोगो को  बांध   पाता।  लोकधर्मिता  वहाँ   तक  ले  जाती है जहाँ   तक  साहित्य   बचा  रहता  है। विजेन्द्र  जी  के  लेखन   में जो जीवन्तता  आती है वह   उन्हें  लोकधर्मी बनाती  है। और संवाद की  स्थिति बनाती  है।
युवा   कथाकार  दीपक   श्रीवास्तव ने  वर्तमान   दौर   मे  उनकी   महत्ता  को  चिन्हांकित   किया।  उनके   मुताबिक  विजेन्द  को   उनका  अवदान  नहीं   मिला।  साथ  ही  दीपक ने   विजेन्द्र के   बिम्बो, प्रतीकों  को  लेकर  बात  करते हुए  उनको   समझने  के  लिए  किन  काव्य  उपकरणों  का प्रयोग  किया   जाय  इस  पर  विचार की  जरुरत है।  गांव बदल  रहे  हैं ऐसे   में  बदलते  संवेदन स्रोतों व  दैनंदिन  क्रिया-व्यापार के  बरक्स  पुरानी  भाषा  और  उन  अनुभवों  से  दूर  इन्हें  किन  अहसास  के  धरातल  पर  महसूस  पायेंगे  यह  भी  एक सोचने का बिंदु  हो सकता  है। ऐसे  में  पुरानी  भाषा  छूट चुके  जीवन  व्यवहार  के  अनुभव  के  अभाव  में  ये  कवितायें  नयी   पीढ़ी  को कैसे  सम्बोधित  कर  पायेंगी।  क्या  ये  नई  पीढ़ी  को  अहसास  के धरातल  पर   दुर्बोध  व असम्मप्रेषणीय  नहीं   हो  जायेंगी।
   
वरिष्ठ  कथाकार -आलोचक  दामोदर  दीक्षित  ने  कवि  विजेंद्र  के  बारे  बात  करते  हुए  कहा   कि विजेंद्र  ने अंग्रेज़ी  के विद्वान  होने  बावजूद  अपने लेखन का माध्यम  अपने  परिवेश , प्रकृति के  बिंब  को पूरी शिद्दत   से  प्रकट करने वाली  अपनी  मातृभाषा  को  चुना। उसी में अपने “संवेदनात्मक ज्ञान  और  ज्ञानात्मक  संवेदना” को  शब्दचित्रों  में व्यक्त   किया।  यह   कवि की सृजनात्मकता  का मूल उत्स  है। यह अपनी भाषा व  जन  से गहरे  तौर  पर  जुड़ा  है।  अभिजात्य  लेखन  से दूर  लड़ती -जूझती  जन की अभिलाषाओं  – उम्मीदों  के कवि  है विजेन्द्र। हर मायने में दु: खी   शोषित   जनता  के  पक्षधर  कवि  हैं। उन्होंने प्रकृति से जुडी ; जनसामान्य   से  जुड़ी कवितायें लिखी।  विचार का बिन्दु  यह  है  कि  क्यों   गांव खतम   होते  जा  रहे  है।  क्यों   लेखकगण जनसाधारण तक की  भाषा  परिवेश   या  उस  तक   पहुंच  कम   होती  जा  रही  है।  विजेन्द्र की  कविता  में जनसामान्य  की ज़िन्दगी की  विविध  प्रकार  की  सच्चाईयां   देखने  को मिलती  हैं। जनसाधारण ही  प्रकृति  को ज्यादा   झेलता  है।  विजेन्द्र  की  कविता की  प्रकृति   से  सचेतन  साह्चर्य  उनकी कविता  की  शक्ति   को  द्विगुणित  कर  देती  है। परिवेश   के अनुरूप   भाषा  का  स्वरुप   बदलता  रहता  है।

सामाजिक  कार्यकर्ता   कौशल   किशोर  ने  आज  के  बर्बर   समय  पर   टिप्पणी करते  हुए  कहा  कि  यह  तंत्र   मानवता   को  कुचल  कर  रख  देना   चाहता  है।  भूमि   अधिग्रहण  कानून   लोगो की  अस्मिता   को   तबाह  बर्बाद  करके मुट्ठी   भर  जमात  की  हितू  बनी   हुई   है।  इस समय  बदलाव   की  शक्तियां ही बर्बर   समय  के  खिलाफ   लड़    सकती  हैं।   मानवीय   मूल्य  की  लड़ाई   में साहित्य  को  भी   खड़ा   होना   होगा।  विजेंद्र की  कविता श्रेष्ठ   मानव  मूल्य   की  स्थापना   में  सहायक   जनपक्षके कवि   की कवितायें  हैं ।

विजेंद्र  की कविता  के विविध  पहलू  को  अपनी दृष्टि   से  साझा  करते  हुए  साहित्य प्रेमी   धनंजय  व  उग्रनाथ  नागरिक   आदि  ने  भी   अपने   विचार   रखे।   कार्यक्रम   की  अध्यक्षता   “निष्कर्ष ‘  पत्रिका के  संपादक  व  वरिष्ठ   कथाकार  गिरीश  चन्द्र    श्रीवासतव  ने किया।  अपने   अध्यक्षीय   वक्तव्य  में   गिरीश  जी  ने  कवि  विजेंद्र   के साथ  के  पुराने  अनुभवों  को  साझा   किया।  उन्होंने ने  कहा कि  विजेंद्र  अनुभव  को  वरीयता   देते   हैं।  उनका  मानना    है  कि  अनुभव   हमारे   दिमाग़   पर  असर  डालते  हैं। विचारधारा   उनकी   कविता   में  अनुस्यूत मिलती  है।  रचना   अपनी   भाषा   खुद  लेकर  आती  है।  यह  सीख  हमें  प्रेमचंद  और   विजेंद्र  से  सीखने  की  जरुरत  है।   इस  समय  कविता   लिखना   बहुत जरूरी है। क्योंकि   पूंजीवादी  तंत्र   झूठ   को  सच  बनाकर  सप्लाई  करता  है  और  साहित्य ऐसे   झूठ का  पर्दाफ़ाश   करता है  वह  प्रतिरोध करता है।  इसीलिए  शासक  साहित्य  से  डरते हैं।   वे  लोगो  की स्मृति   को ध्वंस   करते  हैं,  संवेदनाओं  को  भोंथरा  करने  की  कोशिश   में  लगे  है  जिसे  लोग  प्रतिरोध   न  कर  सकें। अतैव,  संवेदनाओं  को बचाना होगा।  जब  संवेदनाओं  को  बचायेंगें  तभी कविता   बचेगी।  कवि  मनुष्यता  की  बात  करता  है। आज  रचना  में  मौजूद   छद्म  के  खिलाफ  लिखना जरूरी   है।  जहाँ   छद्म  होगा  वहाँ   अच्छी  रचना  नहीं   रह  सकती  है।  विजेन्द्र  ने  अपनी   कविताओं  के  माध्यम   से  छद्म  को   नकारा  और जनमुक्ति  के  सपने  को  दिखाया  है।

कार्यक्रम   में   विजेंद्र  की   कवितायें   ‘कविता  के प्रश्न’  “रेलवे   पोस्टर” व  ‘छोड़   आया  हूं जयपुर’   आदि  का  पाठ व  उन परिचर्चा  की  गयी। विजेंद्र  केन्द्रित   इस  कार्यक्रम   में  विजेन्द्र  की   कविता   के  पोस्टर   व  विजेंद्र  केन्द्रित   “वागर्थ”  पत्रिका  व”  कृतिओर”  की प्रदर्शनी   भी   लगाई  गई।                   
                                                         
प्रस्तुति — आशीष  सिंह

विजेन्द्र जी की किताब ‘आधी रात के रंग’ पर रश्मि भारद्वाज की समीक्षा

विजेन्द्र जी

पाब्लो पिकासो ने कभी कहा था कि ‘कुछ पेंटर सूरज को एक पीले धब्बे में बदल देते हैं जबकि अन्य पेंटर एक पीले धब्बे को सूरज में।’ यानी कला जितनी आसान दिखती है वह अपने में उतनी ही मुश्किल होती है। लेकिन कवि जो वस्तुतः एक कलाकार ही होता है इस मर्म को भलीभांति जानता-समझता है। और वह हुनर जानता है जिसके द्वारा वह पीले धब्बे को भी सूरज में ढाल देता है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी उम्दा कवि होने के साथ-साथ एक चित्रकार भी हैं। उनकी पेंटिंग में रेखाओं और रंगों का अद्भुत संयोजन जैसे दर्शक को अपने में डूबने के लिए विवश कर देता है। सारी पेंटिंग्स अपने आप में जैसे एक स्वतन्त्र कविता लगती हैं। विजेन्द्र जी की एक अनूठी कृति है ‘आधी रात के रंग।’ आधी रात में रंग के चितेरे ने इसमें पेंटिंग्स के साथ-साथ कविताओं के रंग भी बिखेरे हैं। कविताएँ हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी हैं जिसे स्वयं विजेन्द्र जी ने ही अनुवादित किया है। कवयित्री रश्मि भारद्वाज ने इस कृति की एक समीक्षा लिखी है जो वागर्थ (अगस्त 2015) के विजेन्द्र पर केन्द्रित हालिया अंक में प्रकाशित हुई है। आज रश्मि का जन्मदिन भी है। रश्मि को जन्मदिन की बधाईयाँ देते हुए हम प्रस्तुत कर हैं उनकी लिखी यह समीक्षा।  
            
आधी रात के रंग लेकर कैनवास पर लिखा जाता समय : कवि विजेंद्र का रंग संसार
रश्मि भारद्वाज
  
आधी रात जब दुनिया नींद की ख़ुमारी में डूबी सुख-स्वप्नों में खोयी रहती है, कोई साधक कहीं जाग रहा होता है। वह गहन तिमिर में भी रंगों की एक दुनिया देखता है। वह उस अनिर्वचनीय शांति के पलों में हमारे जीवन में व्याप्त विसंगतियों के तम को चीर कर उजास बुनना चाहता है। वह अपने मन की उद्विग्नता तथा परिवेश की विषमताओं से व्यथित होने के बाद भी परिवर्तन के लिए आशान्वित है और कुछ ऐसी ही धुन,कुछ ऐसी ही साधना के साथ उपजती है,एक अद्भुत रंगों की दुनिया जिसे *मिडनाइट कलर्स का नाम दिया जाना बहुत सार्थक लगता है। कवि विजेंद्र जी की एक दुनिया वह रेखाएँ, वह रंगों का अपरिमित प्रवाह है, जिनमें जितना डूबा जाए, एक नया अर्थ,जीवन की एक नयी दृष्टि से साक्षात्कार होता है। ज्यों जीवन कई रंगों की परतों में स्पंदित हो और हर परत अपने समय को,अपने परिवेश और मानव मन की गहन जटिलताओं को सूक्ष्मता से कैनवास पर बयां कर रही हो।

कविता जिनके जीवन में कुछ ऐसी रही हो,ज्यों कि साँसें लेना होता है,जैसे कि हृदय का स्पंदन होता है। वह एक स्थिति है जिसके हम इतने अभ्यस्त होते हैं कि उसे अलग से याद नहीं करना पड़ता है। एक ऐसा सत्य जीवन का, जो नहीं हो तो जीवन ही नहीं रहे। कविता को अपने जीवन का कुछ ऐसा पर्याय मान बैठे यह कवि जब रंगों की ओर मुड़ते हैं तो वहाँ कागजों पर धड़कती है कविता। वहाँ काले अक्षर विभिन्न रंगों का आकार ले एक समानान्तर दुनिया रचने लगते हैं। लियोनार्डो दा विंची ने कहा है “चित्र कविता है जो महसूस करने से ज्यादा देखने की वस्तु है और कविता वह चित्र है जो देखने से ज्यादा महसूस की जाती है।
  
विजेंद्र जी के रंग संसार में रंगों और शब्दों का यही तारतम्य देखने को मिलता है। जहां शब्द चुप होते हैं,वहाँ से रंग बोलने लगते है और जो अनकहा रह उठता है,शब्द उसके पूरक बन जाते हैं। उनकी अपने आप में अनूठी पुस्तक मिडनाइट कलर्स में यह संयोजन,रंगों और शब्दों का यह विलक्षण साहचर्य हर पन्ने पर स्पंदित है। अनूठी किताब इसलिए कि चित्रों का साथ देते यहाँ जीवंत शब्द भी हैं और साथ ही हिन्दी नहीं जानने वाले कलाप्रेमियों के लिए उन कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी।
विजेंद्र ख़ुद कहते हैं “चित्रकर्म मेरे लिए कविता का पूरक है। कविता में शब्द–बिम्ब और रूपक बनते हैं। चित्र में रंग,रेखाएँ, टेक्स्चर और स्थापत्य मिलकर बिंबों और रूपकों को रचते हैं। मेरे लिए वही चित्र आकर्षित करता है जो मुझे एक बौद्धिक चुनौती के रूप में सोचने को प्रेरित करे। मेरे सरल सामान्य भावों को औदात्य देकर मेरे मन को नया विस्तार दे। चित्र मुझे वही नहीं बताता जो मेरे सामने घटित हुआ है। बल्कि वह भी जो बार बार घटित हो सकता है। यानि होने से होने की संभावना जगा पाना किसी भी रचना की बड़ी सार्थकता है।“
फेसबुक पर जब पहली बार विजेंद्र जी के चित्रों को देखा तो जिस चीज़ ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया,वह था उनका अद्भुत रंग संयोजन। रंगों का प्रवाह और उन पर बेधड़क चले ब्रश स्ट्रोक्स जो चित्रों की गहन समझ नहीं रखने वालों को अनियंत्रित भी लग सकते हैं और अगर भावों की गहनता नहीं या विचारशून्यता है तो एक अबूझ पहेली से। वस्तुतः ये चित्र उन चित्रों की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते जो आँखों के जरिए मन में स्थान बनाते हैं। इसके विपरीत ये चित्र एक चुनौती की तरह विचारों को आलोड़ित करते हैं और रंगों के पीछे छिपी उद्दात संवेदनाओं तक पहुँचने का आह्वान करते से प्रतीत होते हैं। बिना इनमें डूबे, इसके अर्थ तक पहुँच पाना नामुमकिन। साथ ही यह भी कहना लाज़िमी होगा कि जो अर्थ किसी एक मस्तिष्क ने ग्रहण किए हों,वह अंतिम और अकाट्य सत्य की तरह प्रस्तुत नहीं किए जा सकते। मेरी दृष्टि में विजेंद्र जी के चित्रों का सबसे सक्षम और सकारात्मक पहलू यही है कि हर व्यक्ति यहाँ अपनी समझ और परिस्थिति के अनुसार अर्थ ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र है। सार्थक कला उसे ही माना जाना चाहिए जो अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को कुछ उत्प्रेरक देकर अपना संदेश, अपना समाधान खोजने के लिए प्रेरित करे। विज्ञान की तरह कला चीज़ों और परिस्थितियों को किसी परिभाषा या किसी दायरे में नहीं बांधती बल्कि जीवन की तरह एक बहाव,एक लय देकर छोड़ देती है ताकि आगे का सफ़र ख़ुद तय किया जा सके। यह चित्र भी हमारे विचारों, हमारी भावनाओं,हमारी संवेदनाओं को सोच की एक दिशा,एक प्रवाह देते हैं और यही वजह है कि हरेक चित्र अपने आप में कई अर्थ और कई परिभाषाएँ समाहित किए हुए हैं। 20 वीं सदी के मशहूर फ्रेंच चित्रकार और मूर्तिकार जार्ज ब्रेक की बात इन चित्रों के संदर्भ में पूरी तरह लागू होती लगती है कि कला वही उल्लेखनीय है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। अगर उनमे कोई रहस्य नहीं,तो उनमें कोई कला, कोई कविता भी नहीं और इस एक तत्व को कला में मैं सबसे ज्यादा महत्व देता हूँ।“
विजेंद्र के चित्र मूलतः एब्स्ट्रैक्ट शैली के हैं जहां अमूर्त आकारों और रेखाओं द्वारा अपनी बात कही जाती है लेकिन ब्रश स्ट्रोक्स की महीन और दक्ष कारीगरी और रोशनी को उसके विभिन्न आयामों द्वारा मुख्यता से प्रस्तुत करना इन्हें कहीं–कहीं 19वीं सदी के फ्रेंच इंप्रेशनिस्ट शैली के करीब भी ला खड़ा करता है। गहन अमूर्तन होने की उपरांत भी इन चित्रों पर कलाकार के अपने लोक,अपने वातावरण का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। लोकधर्मी कवि विजेंद्र तमाम विषम परिस्थितियों में भी आशा और उत्साह का दामन नहीं छोडते। यह मात्र संयोग नहीं कि इनके अधिकांश चित्र भूरे रंगों के विविध शेड्स,धूसर और स्याह रंगों की बहुलता लिए होते हैं। यह उस साधारण जन और उसके जीवन की विषमताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जो हर क्षण इस विसंगतियों से भरे जीवन में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। यह उस पूंजीवादी शक्ति का प्रतीक है जो जीवन की हरीतिमा को लीलता जा रहा है। यह विज्ञान और तकनीक के उस स्याह पक्ष की ओर भी संकेत करता है जिसने दुनिया को परमाणु युद्ध की आशंकाओं में हमेशा के लिए असुरक्षित छोड़ दिया है। कई बार रंगों से बुनी गयी यह स्याह दुनिया डराती हैं लेकिन यह बस हम सबके अंदर बैठा वह डर, वह असुरक्षा मात्र है जो हमारे समय की सबसे वीभत्स देन है और जिसे कलाकार ने बहुत ही संवेदनशीलता से जीवंत कर दिया है।
लेकिन रंगों से कविता की संगति देने का अनुरोध करते कवि इनसे “आत्मा का आरोह–अवरोह” सुनते रह सकने की स्वायत्तता भी चाहते हैं। जो व्यक्ति अपनी आत्मा से संवाद करते रहने के लिए प्रयासरत होगा,कठिन से कठिन हालातों में भी वह उम्मीद की एक लौ रौशन पाएगा। यही उम्मीद की लौ उनके रंग बिंबों में बार उभर-उभर आती है। कहीं भूरे रंग की चट्टान के अतल से एक जलधारा फूटती सी प्रतीत होती है तो कहीं स्याह रंगों के बीच खिले फूल सृजन की उर्वरता,अवसाद के बीच भी जिजीविषा की रौशनी को दर्शाते नज़र आते हैं। कहीं अमूर्त मानवाकृतियाँ समय और परिवेश के आघातों से उबरने के लिए संघर्षरत दिखती हैं तो कहीं स्वयं प्रकृति इंसानों द्वारा रची जा रही आपदा से ख़ुद को बचाने के लिए आतुर नज़र आती है। संघर्ष, उत्साह,जिजीविषा और विषाक्त होते समय में अपने हृदय में बहती अविरल स्नेह जलधारा को बचा लेने का प्रयत्न इन चित्रों का मूल स्वर है। यह चित्र उस समय को रच रहे जो घटित हो रहा है और जो भविष्य के गर्भ में हैं। यह चित्र मानवीय संभावनाओं को एक अपरिमित कैनवास देते हैं जहां रंगों और संवेदनाओं के मेल से से एक नयी दुनिया सृजित कर सकने का आश्वासन है। यहाँ यह उम्मीद जीवित दिखती है कि जीवन ही है सतत चढ़ना और पृथ्वी के गर्भ में पिघलती चट्टानें और जल प्रवाहित धाराएँ भी हैं।


·        आधी रात के रंग (मिडनाइट कलर्स) विजेंद्र जी का का 2006 में आया चित्रों और कविताओं का ऐसा संकलन है जिसमें चित्रों और कविताओं का सुंदर समन्वय है। अहिंदी भाषियों के लिए कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी कवि ने स्वयं कर के किताब में संकलित किया है। यहाँ उद्धृत कविताओं की सभी पंक्तियाँ इसी किताब से ली गयी हैं।
रश्मि भारद्वाज

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129, 2nd फ्लोर,  
ज्ञानखंड-3, इंदिरापुरम
गाजियाबाद
उत्तरप्रदेश-201014

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ब्लॉग: जाणा जोगी दे नाल (www.rashmibhardwaj.blogspot.in)

(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

विजेंद्र के संग्रह "आधी रात के रंग" पर शाहनाज़ इमरानी की समीक्षा

कवि  या कलाकार होने की पहली ही शर्त है  अपनी जमीन और अपने लोक से जुड़ाव। विजेन्द्र जी ऐसे कवि हैं जो आज भी अपने जमीन और लोक से पूरी तरह जुड़े हुए हैं। उनकी कविता हो या उनके चित्र इस बात की स्पष्ट रूप से ताकीद करते हैं‘आधी रात के रंग’ उनकी एक अलग तरह की किताब है जिसमें हर पेंटिंग के साथ उसे जुडी हुई एक कविता लिखी गयी है। इस अनूठे प्रयोग का व्यापक स्तर पर स्वागत किया गया। किताब का शीर्षक ही अपने आप में बहुत कुछ बयाँ कर देता है। हमें यहाँ कबीर की याद आ रही है जो कहते हैं – ‘सुखिया सब संसार है खावै और सोवै। दुखिया दास कबीर है जागे और रोवै।’ यहाँ भी आधी रात का वक्त है। एक ऐसा समय जिसमें प्रायः लोग गहरी नींद के आगोश में होते हैं। लेकिन कवि की आँखों में नींद कहाँ, चैन कहाँ। दुःख, उदासी, गरीबी के जीवंत चित्र उसे परेशान किये रहते हैं वह आधी रात के रंग निहारने लगता है जिसमें उसे वे तमाम चेहरे और चित्र दिखाई पड़ते हैं जिसे उसने देखा और महसूस किया होता है। उसका मन भर आता है और कवि तत्क्षण इस आधी रात के रंग को अपनी कविता और पेंटिंग में गहरे तौर पर रेखांकित करता है। यह कवि उस समय भी जागता दिखाई पड़ता है जिस समय अधिकाँश लोग सोये होते हैं। इसलिए तो यह कवि औरों से बिल्कुल अलग रूप-रंग और बनक वाला है, प्रतिबद्धता  ही इस कवि की अपनी थाती है। 

अपनी तरह के अनूठे इस ‘आधी रात के रंग’ संग्रह पर पहली बार के लिए एक आलेख लिख भेजा  है युवा कवियित्री शाहनाज इमरानी ने तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख               

आधी रात के रंग” 

शाहनाज़ इमरानी 
आज के वक़्त में एक अलग आवाज़ की रंगत है “आधी रात के रंग” चित्रों पर रची गई कविताएं और कवि के द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद अपने आप में एक अनोखा संग्रह है। 
विजेंद्र कविताओं, नाटकों, डायरियों, चित्रों के साथ-साथ “कृति ओर” पत्रिका के प्रधान सम्पादक भी हैं। बहुआयामी लेखन के साथ वे नये कवियों और लेखकों को मार्गदर्शन देते रहते हैं। 
लोकधर्मी कविता के धनी विजेंद्र ने “मुक्त छंद” में कविता लिखी। छंद में लय क़ायम रखना आसान काम नहीं है लकिन विजेंद्र इस में कामियाब हैं। 
कविता बदलाव ला सकती है संवेदना, समझ और सहानुभूति में किसी हद तक। कविता उन जगहों पर ले जाती हैं, जहाँ हम पहले कभी नहीं गए होते। विजेंद की कविता का सम्बंध देश की मिट्टी से है उनकी कविताओं में गाँव की धड़कन है किसानों और श्रमिकों की ज़िन्दगी का संघर्ष उनकी कविताओं में नज़र आता है। उनका रहन-सहन, वेषभूषा, उत्सवों, खेती-बाड़ी आदि उनकी कविताओं से जुड़ी है। विजेंद्र का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के एक गाँव धरमपुर के एक सामंत परिवार  में हुआ। आम, जामुन, अमरुद, कटहल, नीबू, के बाग़-बगीचे बैलघोड़े और शिकार पिता अपने शौकों में ढालना चाहते थे। शिक्षा की  शुरूआत घर में हुई एक मौलवी सहाब ने उर्दू की तालीम दी। माँ ने पिता से लड़-झगड़ कर अंग्रेजी स्कूल में उझियानी भिजवा दिया। अब विजेंद्र का मन पढ़ने में लगने लगा। आगे कि पढ़ाई के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पहुंचे। कविता की फ़िज़ा में कवि केदारनाथ सिंह जैसे सहपाठी थे और कवि नामवर सिंह ने पढ़ाया साथ ही कवि त्रिलोचन काव्य गुरू थे। कवि त्रिलोचन से उन्होंने बहुत कुछ जाना और सीखा एक ऐसा ज्ञान जो किताबों से नहीं मिल सकता था। 
चीज़ों और इंसानो की दुनियाँ में अकेलापन सब कुछ को नामहीन करते और बहुत कुछ छोड़ देने के बाद कवि विजेंद्र  आज भी कविता को अपने साथ जिन्दा रखे हुए हैं। आज भी उनके मन में एक बैचेनी है कि जितना करना चाहिए था उतना नहीं कर पाया हूँ। विजेंद्र को भव्यता पसंद नहीं है एक बेहतर इंसान जो अपने नैतिक मूल्यों के साथ कविता के रूप में साधना जारी रखे हुए हैं। उनके मिज़ाज के अनुरूप उनकी कविताओं में कोई उत्तेजित अभिवयक्ति नहीं मिलती। विजेंद्र की कविता गरिमापूर्ण है एक तरह कि छांदिकता उनके व्यक्तित्व की गरिमा के सरोकार के अनुकूल ही है। विजेंद्र को अपने कलाकार होने का एहसास है और वो एक ख़ास आवाज़ उनकी कविताओं में मिलती है। 
कवि विजेंद्र की कविताओं का संग्रह “आधी रात के रंग” पढ़ कर और खूबसूरत चित्रों  को देख कर कुछ ऐसा ही एहसास हुआ। अपनी रचनात्मकता दुनियां में कवि ने ज़िन्दगी के रंग, फ़ितरतज्ज़बात, चीज़ों, रिश्तों, लोगों आदि को मिला कर बनाई गई ज़मीन पर चित्र से कविता का चेहरा बनाया हैं। आपा-धापी के इस वक़्त में वक़्त ही कविता है जो इतिहास बोती है और इस समय में जब  इंसान को कई तरह से छला जा रहा है कविता आज भी उनके साथ है। कवि विजेंद ने अपने लम्बे काव्य जीवन में बहुत कुछ लिखा है और खुद को बहुत सी मुश्किलों के बाद भी लगातार कविता से जोड़े रखा है।
 “आधी रात के रंग” (The midnight colors) हिंदी और अंग्रेजी दोनों ज़ुबानों में ऐतिहासिक और अपने आप में एक बेमिसाल पेशकश है। 
विजेंद्र की कविताओं में आम आदमी का अक्स नज़र आता है। हमारे प्राचीन काव्य शास्त्रों मे कहा गया है कि प्रतिभाहीन कवि को सामने वाली चीज़ भी दिखाई नहीं देती और 
प्रतिभाशाली कवि को न दिखने वाली चीज़ भी दिखती है और इस को कवि की तीसरी आँखकहते है। कवि विजेंद्र मामूली से मामूली चीज़ों मे सौंदर्य देखते हैं। विजेंद्र ने प्राकृतिक सौंदर्य और समाज में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक विषमता के कारण सर्वहारा वर्ग की तकलीफों को ख़ास तौर पर अपनी कविताओं में जगह दी है। कविता में जब जीवन की अभिव्यक्ति होती है तो प्रकृति अपनी जगह बना लेती है प्रकृति और मैंशिखर की ओर, अँधेरे से उजाले में,  अंकुरण कवितायेँ प्रकृति से जोड़ती हैं। विजेंद्र की कविताओं की ख़ास बात इनकी विविधता है इन कवितों में विजेंद्र के जीवन के तजुर्बों को देखा जा सकता है।
विजेंद्र कवि के लिबास में एक चित्रकार हैं जो अपने विचारों, सरोकारों, और चिंताओं का दायरा बड़ा करते हुए कविताएँ लिखता है। चित्रात्मक कविताओं को देखा जाए तो यह बात साफ़ हो जाती है। कवि ने अपनी बात कहने के लिए एक दृश्य बुना है जो उनकी रचनात्मकता का एहम पहलू है। कविता और चित्र कला की खूबी है कि उसके बारे में कोई अंतिम बात कह देना मुश्किल होता है । अच्छी कविता और चित्र कला यदि एक बार में ही समझ ली जाती तो वे “use and throw” जैसी वस्तुएं हो जाती हैं। 
कविता लिखने या चित्र बनाने का कोई तयशुदा वक़्त नहीं होता। जैसे परिंदे और इंसान एक ढर्रे से काम करते हैं। परिंदे सुबह  जागते हैं। शाम को अपने घोंसलों में आ जाते हैं। इंसान भी अपना काम एक ढर्रे पर करता रहता है। इसीलिए उन्होंने कहा है, “मेरे लिए कविता रचने का / कोई खास क्षण नही।” कवि और चित्रकार दौनों ही काल और समाज निरपेक्ष नही होते। अत: कल के अनुसार दौनों को ही अपने उपकरण बदलने होते हैं। कवि अपने कथ्य और मुहावरा बदलता है। काव्य रूपों में परिवर्तन करता हे। छंद में परिवर्तन करता है। चित्रकार अपने चित्रांकन के ढंग और शैली में परिवर्तन करता है। रंग संयोजन, स्ट्रोक्स, बुनावट, अपनी टोन्स में तबदीली करता है। 


पहले चित्र पर “कवि” कविता में कवि और चित्रकार दौनों की रचना प्रक्रिया के संकेत हैं। 
पहली कविता “कवि में कहा है – “समय ही ऐसा है /कि मैं जीवन की लय बदलूँ / छंद और रूपक भी”। कवि हो या चित्रकार दोनों ही अपने समाज से संवाद करते हैं। जब कोई रचना लिखी जाती है रचनकर के सबसे खास और आत्मीय क्षण होते है। दोनों ही अपने मन को पूरी तरह व्यक्त करने के लिए आत्मा की परतें खोलते है। यानि समाज से कुछ छुपाते नही। कविता हो या चित्र दोनों ही एक मुक्त संवाद हैं। कहा है – “एक मुक्त   संवाद/ आत्मीय क्षणों में  कविता ही है/ जहां मैं तुमसे कुछ छिपाऊँ नही। इस कविता में कुछ बातें ऐसी है जिन के ऊपर ध्यान जाना जरूरी है। कवि की मंशा क्या है? वो कविता से क्या कहना चाहता है? कला साधना कैसे होइसी कविता में कहा है – सुंदर चीजों को अमरता प्राप्त हो /यही मेरी  कामना है /मनुष्य अपने उच्च लक्ष्य की और प्रेरित हो। कवि कर्म हर समय त्याग की मांग करता है। बिना उसके हम बड़े लक्ष्य को नही पा सकते। कवि जानता है कि कविता रचना तो आसान हो सकता है। पर उसे जीवित रखना बहुत कठिन है। उसके लिए कवि “जीवन तप” की मांग करता है। आखिर एक कवि को चित्र कला की ओर क्यों आना पड़ा? कवि ने कहा है कि जो कुछ कविता में व्यक्त नही कर पाया उसे रंग, बुनावट, रेखाओं, और दृश्य बिंबों में रचने की कोशिश की है। कवि का संकेत है कि कवि हो या चित्रकार धरती से जुड़ाव पहली शर्त है। वही उसके खनिज दल का स्रोत है। यह वरदान उसे प्रकृति से प्राप्त हुआ है । कवि अपने रचना कर्म से जीवन और प्रकृति का इस प्रकार रूपान्तरण करना चाहता है जिससे वो निराश और थके मांदे लोगो को नई उम्मीद दे सके। वे जीवन को सुंदर और जीने योग्य समझें। अंत में यह भी कहा है कि स्वत: स्फूर्त मन से उमड़े भाव हमारी आत्मा का वैभव व्यक्त करते है – हृदय से उमड़े शब्द/ आत्मा का उजास कहते हैं। “इस कविता और चित्र को बिना समझे हम कवि और चित्रकार के मन को नही समझ पाएंगे।
                                “आधी रात के रंग” में रंगों की खुद मुख्तारी (स्वतंत्रता) है हर चित्र में उनका यह प्राकृतिक गुण है। आज़ाद होकर भी वे एक दूसरे से जुड़े है। यानि एक रंग दूसरे से निरपेक्ष होकर अपना अर्थ और लय खोने लगते है। अत: किसी भी चित्र में रंगों की आज़ादी और उनका एक दूसरे से जुड़ाव ही उन्हें अर्थवान बनाता है। यहाँ रंगो की स्वतन्त्रता को भी कविता इसलिए कहा है क्यों कि रंग बिंबों की तरह ही अनेक भाव मन में जागते है। उनमे संगीत के स्वर तथा उनमे छूपी लय भी सुनाई पढ़ती है। 
रंगों की स्वायत्वता” में भी/ कविता है /रंग उन रूपों कि तरह हैं /जो कैनवस को स्पंदित करते है।”  रंगो का महत्व समझने के लिए यह वैज्ञानिक तथ्य जानना जरूरी है कि आकाश में व्याप्त ईथर के कारण ही रंगों में एक तरह का की कंपकंपी होती है। इसी से उनमे प्रभाव पैदा होता है। यह इतनी बारीक है कि आँखों को दिखाई नही देती। रंगों कि विविधता हमारी आँखों को आज़ाद करती है। यानि हम कोई भी रंग चुन सकते है। कवि कि इच्छा है कि रंगों के माध्यम से वो अपने अन्दर के गान का आरोह-अवरोह सुन सके।-
कैनवास पर  बिखर कर ….  ओ रंगो 
दृश्य – क्षितिज रच कर 
मुझे कविता कि ऐसे संगति  दो 
जहां मै अपनी आत्मा का 
आरोह – अवरोह सुन सके ।    
 “रंगों की  स्वायत्तता “autonomy of colors” कविता से लगता है की कवि चित्रों के रंग जैसे रात में देख रहा हो। उनसे बातें  कर रहा हो। कवि-चित्रकार अकेला है। लगता है यह चित्र ही रात में बनाया गया है –
यह आधी रात है 
मै बिलकुल अकेला हूँ
आधीरात के रंग देखने को
वे मेरे साथ संवाद करते है
चुप चाप। 
आधी रात के रंग” तीसरी कविता है। यह कवि के लिये जैसे खामोश कविता है। यही नही कवि रंगो को इतना आत्मपरक बना चुका है कि वे ज़िंदगी से उत्खनित उसकी आत्मा के बिम्ब दिखाई पड़ते है। इस कविता और चित्र की ख़ास बात है रंगों का मानवीकरण (personification) रंग जैसे उसके लिये किरदार हो गए हैँ। हर रंग की अलग -अलग पहचान है। जैसे सुर्ख रंग की वो चीख सुनता है। भूरे रंग की आहिस्तगी। काले रंग का क्रोध। गुलाबी रंग की खुशी। रंग तो चित्रों में हैं। पर कवि-चित्रकार आधी रात में उन्हें महसूस करता है। सारे रंग मिल कर चित्रकार की ख़ामोशी तोड़ा करते है। यही नही बल्कि वह जैसे रात को संवार रहे हों। पूरी कविता में रात के रंगों का रूपक ही कविता की लय बनता है। चित्र की टोन, उसकी लय, स्ट्रोकस, छाया-प्रकाश तथा रंग संयोजन, रेखाएँ, रंगों की गहराई सभी से आधी रात का अंदाजा  होने लगता है। चित्र में जैसे सन्नाटा भी बुन दिया गया हो। कवि ने कहा भी है –
नीरवता की क्षुब्ध लहरें 
खाली दीवारों से टकराती है 
कवि-चित्रकार को इस लम्हें में साये गहरे और खुरदुरे लगते हैं। लगता है रात के रंग और चित्रों के रंग ज़िन्दगी के आयाम है। यह जड़ नहीं हैं और न ही ठहरे हुए हैं। हमारी तरह ही उनका भी अपना अस्तित्व है । उनकी अपनी बनावट है। यानि यहाँ जीवनचित्र और कविता तीनों के जुड़ाव की आवाज़ है। 
शिखर की ओर” कविता और चित्र आदमी के उस एहसास को बयां करते हैं। जिस से वो अपनी मुश्किल परिस्थितयों में संघर्ष करता है। उन्हें अपने समय के अनुरूप बनाने के लिये अपनी क्षमताओं को काम में लेता है। यह काम जोखिम भरा है। चित्र और कविता की आवाज़ है  कि हर जागे हुए आदमी को अपने लक्ष्य निर्धारित करने होते है। फिर उन्हें पाने को अमल में लाना होता है। यह काम ज़िंदगी में चट्टान पर चढ़ने जैसा ही है। जो सत्ता में एकाधिकारवादी है वो किसी आम आदमी को अपनी बराबरी करने से रोकते है। यहीं से वर्ग संघर्ष का जन्म होता है। आदमी की आदत है आगे बढ़ना। पर कोई भी उपलब्धि बिना संघर्ष के मुमकिन नही है। इस कविता के अर्थ का दूसरा स्तर भी है। जब आदमी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ता  है तो उसी के दिल में बनी इंसानी हदें उसका विरोध करने लगती है। 
जब भी मै ने देखा
शिखर की ओर
तुमने त्यौरियां बदली 
जब मै चढ़ा
तुम ने चट्टानों के खण्ड
मेरी तरफ धकेले। 
कविता और चित्र यह भी इशारा करते है कि इस संघर्ष में हार भी होती है। कई बार अपनी रणनीति बदलने के लिए पीछे भी हटना पड़ सकता है। पर मक़सद को हासिल करने के लिए संघर्ष जारी रहता है। ऐसे वक़्त में हर पल अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ सकता है। आदमी के पास पक्षियों की तरह डैने नही जो आसमान में उड़ सके। कुछ वक़्त के लिये वो अपनी सृजनशील कल्पना के सहारे इस दुनियाँ से निजात पा भी ले। पर वापसी उसकी इसी सख़्त ज़मीन पर ही होती है –
मेरे पंख कहाँ 
जो आकाश में उड़ूँ 
ऊबड़-खाबड़ 
पृथ्वी पर चल कर ही 
चढ़ूँगा पहाड़ और मंगरियां। 
जो इंसान की कामियाबी में रोड़े अटकाता है उसे कवि- चित्रकार ने दैत्य की संज्ञा दी है। उसका स्वभाव है इंसानी सफ़र के रास्ते में रूकावटें पैदा करना। 
ओ दैत्य
हर बार तू 
मुझे धकेलेगा नीचे। 
पर न तो इन रूकावटों से ज़िन्दगी का संघर्ष रुकता है। और न मक़सद हासिल करने कि कोशिश में कमी आती है। मक़सद हासिल करने की कोशिश। ज़िन्दगी इस संघर्ष का ही दूसरा नाम है –
जीवन ही है सतत चढ़ना
और मेरे जीवन में 
कभी नही हो सकती 
अंतिम चढ़ाई। 
इस तरह कविता और चित्र इंसान के उस बड़े एहसास को व्यक्त करते है जिस से वो अपने मक़्सद हासिल करने के लिए अटूट संघर्ष करता है। इशारा यह भी है कि मक़सद हासिल न हो मगर जिन्दगी में उस पाने के लिए संघर्ष बना रहना चाहिए। 
अगली कविता और चित्र है, “अंधेरे से उजाले में”। चित्र में पुरुष और स्त्री की धुँधली आकृतियाँ दिखती है। यह भी की दोनों अंधेरे में हैं। तैज़ हवा ने उनकी झौंपड़ी अस्त-व्यस्त कर दी है। चित्र से लगता है गरीब लोग है। दोनों सोचते है कि ऐसे अंधेरी तूफानी रात में आखिर कहाँ जा सकते है! उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नही जिस से अपने छप्पर और दरकी दीवारों को दुरुस्त कर सकें। आखिर अब उनके पास ऐसे मुश्किल में विकल्प क्या है। कविता इशारा देती है ऐसे वक्त में हिम्मत से कम लें। सब्र करें । कवि संकेत देता है –
भोर की रश्मियां
अंधेरे के मर्म को
भेद रही है 
घबराओ मत
दृढ़ होकर प्रकाश की तरफ 
बढ़ चलो। 
कवि को उम्मीद है कि वक़्त कभी एक जैसा नही रहता। रात के बाद सुबह तो होगा ही । 
हम भरी मन से 
प्रभात का स्वागत करें 
इस उम्मीद में
कि धूप खिलेगी।
कविता और चित्र तूफानी वातावरण को संकेत से बताते हैं कि कितनी भी कठिन परिस्थिति हो हम साहस न छोड़ें। वक़्त का इंतज़ार करें। अँधेरे से रोशनी की तरफ देखें । हताशा न हों बल्कि उम्मीद का सहारा लें। पूरी कविता चित्र की लय और उसमे व्याप्त अंतर्ध्वनि को व्यक्त करती है । 
मिथक का सच:-
मिथक भी एक सृजन क्रिया है। जो काम हम ज़िन्दगी में नहीं कर पाते उसे मिथक द्वारा पूरा करते है। यह एक प्रकार से अपनी कल्पना का वो रूप है जो कविता में असंभव को संभव बनाता है। इस से यथार्थ को अपने अनुसार बदल लेते हैं। मसलन, जब हनुमान को विशाल पर्वत पर संजीवनी बूटी का कोई अता पता नही लगा तो वो पूरा पहाड़ ही उठा कर ले आए। उन्हें सूर्य निकलने से पहले पहुँचना था। सूर्य जब उदय होने लगा तो सूर्य को मुँह में ही छिपा लिया। यह सब कवि की कल्पना का ही कमाल है। मिथक की रचना के पीछे मनुष्य की अदम्य शक्ति तथा चिरंतन सौंदर्य व्यक्त करने का मनोविज्ञान छुपा है। मिथकीय मनुष्य और स्त्रियाँ बड़े शक्तिशाली और असरदार होते है। पौराणिक गाथाओं में मिथक भरे पड़े है। “रामचरितमानस” का पूरा  काव्य ढांचा मिथक पर ही टिका है। यही वजह है मिथकों के रूप और अर्थ कई जटिल और दोहराये हुए हो जाते है। मिथक हमारे अचेतन में व्याप्त होते है। समाज के दिल में बसे हुए हैं। उन्हें आसानी से भूलाया नही किया जा सकता  –
तुम्हें मै ने ही रचा  है 
वह  सच  जो  आँखों  को 
दिखाई नही देता
जो मेरे ही नही 
मुझ जैसे असंख्य लोगों के मन  में
चित्र की तरह
अंकित  है। 
कवि और चित्रकार भी – मिथक सौंदर्य देखता है –
जब मै तुम्हारे पास आया 
मै ने देखी वहाँ 
चिरंतन सौंदर्य तथा महान क्रियाओं की 
सजीव और जटिल छवियाँ। 
मिथक का अर्थ रूपकीय होता है। यानि जितना ऊपर से दिखता है उस से कहीं अधिक उस के अर्थों में छुपा होता हैं। मिथक कवि चित्रकार को सृजन के लिये प्रेरित भी करते है –
उन्होंने मुझे कविता तथा चित्र के लिए प्रेरित किया
 
जो तुम दिखती हो ऊपर से 
जैसे पृथ्वी का धरातल 
उतना भर सच 
बहुत उथला है 
जब तक  मै 
यह न जानू
कि पृथ्वी के गर्भ में 
पिघली चट्टानें 
और जल प्रवाहित धाराएँ भी है।
यह चित्र मिथक की आंतरिक जटिलता तथा उसमे निहित अर्थ को व्यक्त करता है। हमें मिथक की रूकीय ध्वनि समझने के लिये अपनी कल्पना को भी काम में लेना पड़ता है। दूसरे मिथक बुद्धि के तर्क से नही समझे जा सकते। उसके लिये हमें काव्य तर्क का ही सहारा लेना होगा। मिथक सदियों से मन में छिपे है। ज्यों ज्यों विज्ञान का विकास होगा – मनुष्य के मन में वैज्ञानिक सच जड़ें पकड़ेंगी। मिथक अपना प्रभाव खोते जाएंगे। पर उनका ऐतिहासिक महत्व कभी काम नही होगा। उनसे हम आदमी और उसके वक़्त के बारीक रेशों को समझने में दिलचस्पी लेते रहेंगे।  
यक्ष” भी एक मिथक है। इसे लोक देवता कहा गया है। कवि विजेंद्र ने भरतपुर के एक बहुत छोटे गाँव नोह में यक्ष की एक खंडित मूर्ति देखी। उसे गाँवके एक सिरे पर गंदगी में एक टूटी फूटी मठिया में रखा गया था। उसे सिंदूर से पोत दिया था। गाँव के लोग उस पर दूध चढ़ाते थे। अपनी अच्छी फसल के लिए उस से दुआ मांगते थे। उसे माथा टेकते है। पर उसकी देह पर जमी धूल की परतों की उन्हें चिंता नहीं है। जब नई फसल उठ के आती है तो नया अनाज भी अर्पित करते है। उन्हें विश्वास है की लोक देवता की कृपा से अच्छी फ़सल होगी –
, यक्ष 
ओ लोक देवता 
तुम्हें अलग थलग  गाँव के कींच – कांद  भरे 
उपेक्षित कोने में 
प्रतिष्ठित किया गया है 
भोर में 
वे  तुम्हारे ऊपर दूध चढ़ाते है। 
उन्हें इसकी चिंता नही 
की तुम्हारी हृष्ट पुष्ट देह पर 
धूल की मोटी परत जमी है 
कवि – चित्रकार जब यक्ष के चेहरे पर  क्षति चिन्ह देखता है तो दुखी होता है –
मै ने तुम्हारी देह 
सिंदूर से पुती देखी 
मै भोचक्का रहा
ओह मै दुखी हूँ 
तुम्हारे हँसते चेहरे पर 
क्षति चिन्ह देख कर। 
पूरी कविता यक्ष की खंडित प्रतिमा को बताते हुये चित्र की छबियाँ उकेरती है। गाँव वालों का लोक देवता में यकीन एक प्रकार से अंधविश्वास ही कहा जाएगा। दूसरे वे उस से दुआ तो मांगते है। पर उसकी प्रतिमा पर जमी धूल की चिंता नही करते। कविता और चित्र दोनों में एक व्यंग्य भी है। 
अर्धनारीश्वर” को भारत में शिव और पार्वती की मिथ से जोड़कर देखा जाता है। चित्र में शिव और पार्वती को एकाकार दिखाया गया है। यह संकेत है कि पत्नी पुरुष का जिस तरह अर्ध भाग है ठीक उसी तरह पुरुष स्त्री का। दोनों को समान स्तर पर समझने का संकेत है। दूसरी बात एक के बिना दूसरे का जीवन अधूरा है। शिव को विश्व मूर्ति भी कहते है। शिव ही अकेले देवता है जिन्होंने अपने को स्त्री-पुरुष में विभक्त किया है। इस से स्त्री पुरुष के बीच सहज आकर्षण का संकेत भी है। इस से ही सृजन होता है। अर्धनारीश्वर स्त्री और पुरुष के बीच सनातन प्रेम का भी संकेत देता है। इस कविता में चित्र को भी एक रूपक की तरह ही व्यक्त किया गया है। 
नागफनी” चित्र भी प्रतीक के रूप में है। नागफनी ज़िन्दगी की उस जिन्दा ताक़त का प्रतीक है जो सारी तकलीफ़ों और मुश्किलों को झेल कर अपने को बनाए रखता है। दूसरे, नागफनी कुलीन सौंदर्यबोध को तोड़ता है। नागफनी को गुलाब पसंद करने वाले कुलीन जन पसंद नही करते। यदि करते भी है तो अपनी आधुनिकता दिखाने को। नागफनी कहती है व्यंग्य से –
ओ मेरी करम रेख 
प्रकृति ने मुझे 
कैसा जड़ प्रतीक बना दिया है 
जबकि मै इस पथरीले उजाड़ में
एक जीवंत पौधा हूँ। 
वसंत चित्र और कविता हमें फिर एक अंतर्विरोधी दुनिया में ले जाता है। अक्सर वसंत को हम रूमानी और सौंदर्य भाव से जोड़ कर देखते है। पर वसंत अपने तारीफ़ करने वालों से कहता है –
तुम मुझे  
मेरी  आँखों से भी देखो 
– – –
जैसा तुम सोचते हो 
वैसा सब कुछ पुष्पमय नही है
न दीप्तिमान। 
वसंत कहता है कि उसके चेहरे पर स्याह और डरावने धब्बे है। तेज धूप में उसकी भौंहें जल गई है। त्वचा पर झुर्रियां हैं। वो कहता है कि इन्हें भी देखो। वसंत आगाह भी करता है –
तुम्हारे ड्राइंग रूम में 
फूलदान भरे है
पर मै हृदय से उदास हूँ 
मुझे अपने ही आगे 
काला क्षितिज दिखाई देता है। 
वसंत के पास गाने को कोई रूमानी गीत नही है। उपजाऊ ज़मीन पर गहरे लाल धब्बे दिखाई देते है –
मेरे पास गाने को कोई गीत नही है 
पर अशुभ समय को 
कहने के लिए त्रासदी का सच है। 
पूरी कविता चित्र की खुरदरी लय और आवाज़ को व्यक्त करती है। यहाँ कुलीन सौन्दर्यबोध पर गहरा व्यंग्य है।
गायक” चित्र में सांकेतिक अमूर्तन है। वैसे ही जैसे इस किताब के अन्य चित्रों में। इन चित्रों का अमूर्तन हमे चमत्कृत न कर सोचने को मजबूर करता है। अमूर्तन का अर्थ चित्र काला में शायद है भी यही। आज फोटोग्राफी बहुत  विकसित हो गई है। उसने चित्रकला के सामने नई चुनौती खड़ी की है। अगर कैमरे के चित्रों से हम अपने चित्रों को आगे नही ले जा पाते तो यह चित्रकार की सीमा निर्धारित हो जाती है। चित्र से लगता है कि गायक बूढ़ा है। उसका सितार भी पुराना है। कवि रात में अपने दर्द को झेल रहा है। गायक पूरे जोश में गा रहा है। इस से कवि की नींद टूटती है। उसे गायन राहत नहीं देता। बल्कि उसके अकेलेपन को और बढ़ा देता है। वो गायक को संकेत से बताता है की गायन ऐसा हो की जिस में आम लोगों के दुख और तकलीफों का भी इज़हार हो सकें
तुम वे गीत भी गाओ
जो मनुष्य की यंत्रणा भी बताते है। 
शिल्पी” चित्र  में भी सांकेतिक अमूर्तन है। कवि-चित्रकार अपने शब्द और रंगों को छोड़ कर मूर्ति शिल्पकार का पास आया है। चित्रकार इंसान की जिन नसों, मांसपेशी, वक्रताओं को रंगों और शब्दों में नही दिखा पाया उन्हें मूर्ति शिल्पी ने छेनी और हथोड़ी से व्यक्त कर दिया है। लगता है कवि-चित्रकार विनम्रता वश अपनी कलाओं की हद स्वीकारता है। शिल्पी के कला माध्यम बड़े स्थूल है। कवि और चित्रकार के कला माध्यमों से। फिर भी वो मनवायी सौंदर्य को ऊबड़-खाबड़ पत्थरों में  कुशलता से तराश देता है। यही नही वो गंदी और सकरी गलियों में बैठ कर अपनी कला को अंजाम देता है। कवि-चित्रकार ने उसे कठिन स्थितियों में मूर्तियाँ तराशते देखा है-
वो गली  कितनी गंदी और संकरी है
जहां धूप और वर्षा में 
तुम्हें सुंदर मूर्तियाँ गढ़ते 
मै ने देखा है 
तुम्हारे हर तरफ अंधेरा है 
लेकिन तुम ऊबड़-खाबड़ पत्थरों  में
मानवीय  सौंदर्य तराशने
और उकेरने में लगे हो। 
कवि-चित्रकार शिल्पी को याद दिलाता है कि वो देवी देवताओं की मूर्तियो के साथ उन लोगों की भी मूर्तियाँ तराशे जिन्हें कोई नहीं जानता। जो अपनी पहचान बिना ही इस दुनिया से चले गए । 
चट्टानों में लहरें” कैसा  विरोधाभास है ….चट्टानें और लहरें। यह फिर एक रूपकीयप्रतीक चित्र है। इसे दो स्तरों पर समझ जा सकता है। एक तो वह चट्टानें जो हमें बाहर दिखती हैं। दूसरे हमारे अंदर की चट्टानें जो आँखों से नही दिखती। कविता में कहा भी है –
धरती की सतह पर फैल कर 
ठंडा होता है लावा 
ग्रेनाइट चट्टानें बनती है 
धरती की अतल गहराइयों में 
जैसे वे मेरे अन्दर भी है शांत 
जिस से मेरी धड़कने टकराती है 
उन्हे कोमल और हरा बनाने को। 
समुंदर की लहरों का चट्टानों से बार बार टकरा कर लौटना। यह प्रक्रिया लगातार और अटूट होती है जिस से अहसास होता है की चट्टानों से ही लहरें पैदा हुई है । चित्र और कविता दोनों को इन दोनों स्तरों पर समझना होगा। तभी रूपकीय प्रतीक खुल पाएगा। 
ओह  – चट्टानों 
तुम अपने मर्म तक पिघलो 
जिस से इस विषाक्त दुनिया को 
सहज बनाया जा सके 
ओ चट्टानों, सुनो
उन लहरों को भी सुनो। 
चट्टान पुरुष” यह चित्र भी एक प्रतीक के रूप में है। चट्टान पुरुष उस जनशक्ति का प्रतीक है जो आज अर्द्ध सामंती तथा पूंजीवादी क्रूर व्यवस्था के उत्पीड़न तथा शोषण से दबी पड़ी है। सारी व्यवस्था जैसे एक विशाल चट्टान हो। कवि ने उसे दैत्य भी कहा है। जनता इस राक्षस से सदियों से लड़ती रही है। आज भी लड़ रही है। आज उसकी शक्ति में इज़ाफ़ा हुआ है। वो उसे पछाड़ना चाहती है। चित्र में चट्टान पुरुष को राक्षस के पिछले हिस्से को ऊपर खींचते दिखाया है। कवि कहता है कि इस राक्षस को मारने के बाद ही तुम मुक्त हो जाओगे –
इसे मारने के  बाद 
तुम  अपने समय के 
मुक्त नायक बनोगे। 
कवि तब उसी जनशक्ति से प्रेरित होकर कविता रचेगा। पूरी कविता में चट्टान पुरुष को एक रूपक की तरह चित्रित किया गया है।
इसे मारने के  बाद  
तुम अपने समय  के
मुक्त नायक बनोगे 
कवितायें रचने को
मै तुमसे प्रेरणा  लूँगा 
उठाओ , उठाओ –
इस भरी चट्टान को उठाओ। 
अंकुरण” कविता पर एक चित्र है। अंकुर बीज में छुपी  उस शक्ति का प्रतीक है जो धरती को तोड़ कर गुरुत्वाकर्षण के नियम को भंग करता है। चित्र में बीज के अंकुरित होने से लेकर फल आने तक की प्रक्रिया को बारीकी से दिखाया गया है। बीज के वृक्ष बनने का रिश्ता पृथ्वी की निरंतर गति से भी है। वृक्ष के उगने में ऋतुओं का आना जाना बहुत जरूरी है –
जब तू अपनी धुरी पर घोंटी है
तब बसंत उदित होता है 
प्रतीक्षा करो। 
मै खिलूँगा तुम्हें भविष्य के फल देने के लिए। पूरा चित्र बीज के अंकुरित होने की प्रक्रिया भी बता रहा है। यह भी कि बीज किस तरह हवा और रोशनी पाकर उगता और बड़ा होता है। बीज में दरख़्त होने की ख़्वाहिश छिपी रहती है चित्र में इस तरफ भी इशारा है। किसी भी बड़ी कामियाबी के लिए कोशिश प्रतीक्षा और धीरज की ज़रूरत होती है। 
 
प्रकृति और मै” इस चित्र और कविता में कवि मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों का संकेत देता है। पूँजीवादी व्यवस्था में प्रकृति के साधनों का अधाधूंध इस्तेमाल की वजह से प्रकृति और मनुष्य के बीच एक जैविक खाई Metabolic Rift पैदा हो गई है। हमारी नदियां नालियों में तब्दील होने को है । जंगलों में दरख्तों को काटा जा रहा हैं। पहाड़ डाइनामाइट से उड़ाए जा रहे है । ओज़ोन परत क्षतिग्रस्त हो रही है। इस से बहुत अधिक प्रदूषण पैदा हो रहा है। कवि ने इसे कचरा संस्कृति dustbin culture  का नाम दिया है –
सदानीरा पवित्र नदियों को  
मै ने कीचड़ भरी नालियाँ 
बनाया है। 
– – –
समाज  में 
किस ने मेरे और प्रकृति के बीच
मेटाबोलिक दरार 
बनाई है।  
चित्र रंगों के सम्मिश्रण से प्रदूषण तथा उजड़ती प्रकृति का संकेत देता है। काल्पनिक  भय” चित्र अपनी शैली, रंग संयोजन में सब से अलग है। काल्पनिक भय एक मानसिक स्थिति है। ऐसे अमूर्त विषय को रंग संयोजन, बारीक रेखांकन तथा हिंसक पशु आकृति से व्यक्त किया गया है। लोगों का कहना है कि काल्पनिक भय वास्तविक भय से अधिक खतरनाक होता है। कवि ने काल्पनिक भय का अनुभव करके ही अपनी कल्पना से उसका रूप निश्चित किया है –

लेकिन चित्र में 
तुम्हारा वही रूप दे पाया हूँ 
जिस से मै 
अपने विषम समय में
बहुत परेशान रहा हूँ। 
काल्पनिक भय का रूप किसी ने देखा नहीं। अत: कल्पना ही की जा सकती है। कल्पना से ऐसा चित्र बनाया है जिसे देख कर हिंसक पशु का ध्यान आने लगता है। काल्पनिक भय की खसलत हिंसक और डरावनी ही होती है। 
तुम अंधेरे में” कविता और चित्र दोनों नारी संघर्ष की बात कहते है। स्त्रियों पर आज भी अत्याचार होते हैं। चित्र में स्त्री के कई बिम्ब हैं। यह उसकी विभिन्न जीवन दशाओं का संकेत देते हैं। चित्र में श्वेत -श्याम टोन्स स्त्री की मन: स्थितियाँ का संकेत है। चित्र उसकी नग्नता को भी बताता है। संकेत है कि उसके साथ क्रूरता का व्यवहार हुआ है। चित्र में यह भी संकेत है कि वो अमानवीय सामाजिक नियमों को तोड़ना चाहती है । दिशाहीन होने की वजह से तोड़ नही पाती। चित्र में संकेत है कि वो संघर्षशील हो कर भी विवश है। कविता इन्ही बातों को बिम्बों के माध्यम से कहती है –
अँधेरा सघन है 
और हवा तैज़ 
जबकि तुम –
धारा के विरुद्ध जाना चाहती हो। 
प्रतीक्षा”  चित्र एक ऐसी स्त्री का चित्र है जो बोझ लिए किसी की प्रतीक्षा कर रही है। चित्रकार-कवि उसके सौंदर्य को देखता है। स्त्री उसकी तरफ न देख कर भी आकर्षित होती है

जैसे एक मूक संवाद चल रहा है। कवि-चित्रकार उसके सौंदर्य तथा मन की गहराई नापने की कोशिश करता सा लगता है। स्त्री अकेली है। उसके मन में रूमानियत का कोई भाव है ही नहीं। पर चित्रकार इक तरफा ऐसा सोचता रहता है। कई बार ऐसा होता है कि हम किसी से बहुत प्रभावित होते है। जिस से प्रभावित होते है वो भले ही उस बात को न जाने। उसका वजूद हमारे दिल में उतर  जाता है –

उसका बिना नाम जाने 
मै ने उसे 
अपने चित्त पर उकेर दिया। 
क्रौंच मिथुन” एक मिथकीय चित्र है। कहा जाता है कि जब शिकारी ने क्रौंच के जोड़े में से नर को मार दिया। तो आदि कवि वाल्मीकि ने क्रुद्ध हो कर उसे शाप दिया। क्रौंच मिथुन उस समय रति क्रीडा में मग्न था। चित्र उसी अवस्था का संकेत देता है। यह एक सृजन क्षण भी है। चित्र में अंडे भी दिखाये है। जो नव जीवन का संकेत हैं। चित्र में जो बिखरापन दिखता हैअँग्रेजी में इसे  ecstasy कहते है।
औ क्रौंच-मिथुन 
तुम वाल्मीकि की कविता में 
अमर हो। 
ध्वस्त घर” चित्र में जो बिखराव दिखाई देता है वो एक टूटे फूटे घर का नज़ारा है। अतिक्रमण हटाने के लिए नगर निगम के दस्ते आकर घरों को तोड़ते है । चित्र की रंग योजना तथा लय से लगता है कि घर का मलवा अपनी दर्दनाक कहानी कह रहा है।  जब उसे तोड़ा गया तो मनुष्य असहाय देखते रहे। क्रेन्स अपना काम करती रहीं। मलवे का ढेर एक अजब किस्म की तकलीफ पैदा करता है। यह भी कि टूटा फूटा घर अपनी त्रासदी कह रहा है। रंग संयोजन, लय, टोन्स तथा स्ट्रोक्स से एक रूपकीय ध्वनि पैदा होती है। यही चित्र का सौंदर्य है। कविता इस भाव को बड़ी जीवंतता से व्यक्त करती है। कवि घर का मानवीकरण कर चित्र को और असरदार बना देता है। 
दोबारा लौह हाथ रेंगता आया 
इस बार उसने  मेरी रीढ़ 
और कूल्हों को चटकाया
मै पूरी तरह ध्वस्त था। 
खण्डहर” चित्र सिर्फ एक रंग से ही रचा गया है। काला रंग खण्डहर के बिम्ब रचता है और उसकी मूकता और त्रासद स्मृतियों का संकेत देता है। खण्डहर के जड़ पत्थर चाहते है कि उसे हवा कुछ स्पंदित कर सके। यह चित्र एक उदासी और अवसाद का वातावरण भी पैदा करता है। 
तुम आओ 
इन जड़ पत्थरों में 
स्पन्द देने को, आओ। 
आशा” इस पुस्तक का अंतिम चित्र है। चित्र में अंधेरा है। पर अंधेरे में मानवीय सक्रियता भी प्रतिबिम्बित हैं। सफ़ेद रंग अंधेरे में उस आशा का प्रतीक है जो किसी भी इंसान को जिंदा रखने की बड़ी वजहा है।  पूरे चित्र में रंग संयोजन एक ऐसी लय पैदा करता है जिस से नई उम्मीद पैदा होती है। और उम्मीदें जीवन को नया रंग देती हैं। 
इसी अँधेरे में उगेंगे 
पंखधारी प्रकाश कण 
जो दिखाएंगे मुझे 
मेरा जीवन पथ। 
कोई भी कविता या चित्र को समझने के लिये उसमें उतरना ज़रूरी है। कविता के मर्म को समझना आसान नही होता। कविता लिखने से अधिक मुश्किल है उसके मर्म और निहितार्थ को समझना। अपने चारों तरफ़ के जीवन को समझना और अनुभव से कला भवाना को जगाना। कवि विजेंद्र अपनी कला चेतना को जगा कर जीवन की सच्चाई और सौन्दर्य को अपनी कला में सजीव रुप देते हैँ।
 
सम्पर्क-
ई-मेल :
shahnaz.imrani@gmail.com

‘प्लाजमा’ कविता पर अमीरचंद वैश्य का आलेख


  
विजेन्द्र जी की लोक के प्रति प्रतिबद्धता से हम सब वाकिफ हैं. इसी क्रम में उन्होंने कई लम्बी कविताएँ भी लिखी हैं जिनमें प्लाजमा उल्लेखनीय है. इस लम्बी कविता की पड़ताल की है अमीर चन्द्र वैश्य ने. तो आईये पढ़ते हैं अमीर जी का यह आलेख ‘समर जारी है बदस्तूर’  

समर जारी है बदस्तूर
अमीर चन्द वैश्य

प्लाजमा’  उल्लेखनीय लम्बी कविता है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की। संवेद’ पत्रिका के अंक (जंनवरी, 2011) में इसका प्रकाशन पहली बार हुआ था। इसका रचना-काल है जनवरी, 2011। इस मास की 15वी तारीख को यह पूरी हुई थी। अतएव कह सकते हैं कि इस कविता की अन्तर्वस्तु विजेन्द्र के मानस में आकार ग्रहण करती रही होगी। पूर्णता से पूर्व। प्रत्येक कृति पहले मानसिक स्तर पर अमूर्त आकार निर्मित करती है। फिर वह सायास अनायास प्रत्यक्ष रूप में सामने आती है। पहले नक्शा बनता है। फिर आलीशान इमारत। ताजमहल’  की भव्य निर्मिति इसका प्रमाण है। गोस्वामी जी ने लिखा है कि रामचरितमानस’  की रचना सर्वप्रथम शंकर जी ने की थी। उसे अपने मानस में धारण कर लिया था। इसीलिए राम-कथा का नाम रामचरितमानस’ प्रसिद्ध हुआ। तुलसी ने रचना का श्रेय शंकर को प्रदान करके अपनी विनम्रता व्यक्त की है। महापुरूष का एक लक्षण है अपर मानप्रद आप अमानी’।

विजेन्द्र भी विनयशील हैं। लेकिन अपनी काव्य मान्यताओं पर तुलसी के समान सुट्टढ़ रहते हैं। तुलसी ने अपने निन्दक आलोचकों की खरी आलोचना की हैं। काक कहहिं कल कण्ठ कठोरा अर्थात् अपने आलोचकों को काक बताया है। स्वयं को कलकण्ठ’। अर्थात् कोकिल। विजेन्द्र ने भी अपने सफेदपोश आलोचकों’ की खिंचाई की है। निर्भीकता से। आधुनिकतावादी कवियों का पुनर्मूल्यांकन करवाया है। शायद यही कारण है कि मैग्मा’ एवं ‘प्लाजमा’ जैसी ताजी टटकी लम्बी कविताओं पर नामवर आलोचकों ने एक भी वाक्य तक न तो बोला है। और न ही लिखा है। हाँ, घटिया लम्बी कविता की प्रशंसा अवश्य की है। यथा-कुँवर नारायण के तथाकथित प्रबन्ध काव्य वाजश्रवा के बहाने’ को प्रकाशन वर्ष की उपलब्धि बताया गया है। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि वह अमूर्तन से ग्रस्त है। उस में सक्रिय लोक के जीवन-व्यापारों का अभाव है।

विजेन्द्र की नई लम्बी कविता प्लाजमा’ अब उनके नवीन काव्य-संकलन बनते मिटते पाँव रेत में’ (सन् 2013) में संकलित है।

प्लाजमा’ शीर्षक पढ़ते ही जिज्ञासा जागती है कि इसका क्या अर्थ है। और कविता से इसका क्या सम्बन्ध है। विजेन्द्र ने अपने पाठक की इस जिज्ञासा का उत्तर कविता से पहले’ शीर्षक के पूर्वकथन में दिया है। यह प्लाजमा’ शब्द मेरे चित्त में बहुत दिनों तक कौंधता रहा है। इसके बारे में जब कुछ जाना तो उत्सुकता जागी। क्या यह भी काव्य-कथ्य हो सकता है।

 प्लाजमा’ के दो रूप हैं। एक तो भौतिकी में, तो दूसरा जैविकी में। दोनों रूपों की द्वन्द्वात्मकता से ही जीवन-जगत् बना है। भौतिकी में उच्च ताप की गैस का नाम प्लाजमा है, जैविकी में प्लाजमा वह तरल द्रव्य है, जिसमें कोशिकाएँ रहती है। इस तरह ‘प्लाजमा’ के भौतिक तथा जैविक के द्वन्द्व (द्वन्द्वात्मक) रिश्तों को बताते हैं। जीवन, प्रकृति तथा संसार के विकास और रूपान्तरण को जानने के लिए दोनों तरह के प्लाजमा को समझना ही बेहतर होगा। द्रव्य का प्लाजमा द्रव्य-जगत् का सार तत्व है। दोनो तरह के प्लाजमा मिल कर मनुष्य तथा संसार के विकास को बताते हैं। सार तत्व को जानने के लिए छाया प्रतीति को जानना जरूरी है। छाया प्रतीति को मूलतः समझने के लिए हमें सार तत्व तक जाना पड़ता है (बनते मिटते पाँव रेत में, पृ० 120,121)

उपर्युक्त लम्बे उदाहरण से स्पष्ट है कि जीवन-जगत् के प्रति विजेन्द्र की समझ भौतिकवादी है, जो विज्ञान सम्मत है। और इतिहास सम्मत भी। वह जीवन-जगत् एवं इतिहास की समीक्षा मार्म्सवादी दृष्टि से करते हैं। प्रत्येक घटना के मूल में द्वन्द्वात्मकता होती है। परस्पर विरोधी तत्व अपनी गतिशीलता के कारण नवीनता उपस्थित करते हैं। भाववादी दार्शनिक भी द्वन्द्व’ का अस्तित्व स्वीकरते हैं। गोस्वामी जी की उक्ति है कि जड़ चेतन गुन दोष मय,बिस्व कीन्ह करतार’। सृष्टि का विकास द्वन्द्वात्मक गति से हुआ है। विकास का मूल कारण एक तत्व है। अर्थात् पदार्थ। जड़ से चेतन अस्तित्व में आया है। असत् से सत्। प्रसादजी ने कामायनी’ के प्रारम्भिक सर्ग चिन्ता’ में कहा है। – नीचे जल था ऊपर हिम था /एक तरल था एक सघन/ एक तत्व की ही प्रधानता/ कहो उसे जड़ या चेतन’।

विजेन्द्र अपनी रचना-प्रक्रिया के अनुसार वस्तु जगत् का सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित करते हैं। इन्द्रियों के घोड़े मुक्त छोड़ कर दृश्य के अदृश्य को भी जानने की चेष्टा करते हैं कि सतह के नीचे क्या छिपा है। छाया प्रतीति से सार तत्व तक यात्रा करते रहते है। अपने ज्ञान को संवेदनाओं में रूपांयित करके उसे आत्मपरक ढंग से आकर्षक बिम्बों एव रूपकों के साँचे में ढालते हैं। प्लाजमा’ रचना भी ऐसी ही है, जो मै के एकालाप के रूप में है। यथा, कविता का प्रारम्भिक अंश पढिए, जो सर्जनशील मनुष्य की सतत सक्रियता से साक्षात्कार कराता है-

धरती की परत-दर-परत पर

लिखा है मेरा जीवन

क्रियाओं का अंश-अंश रोमिल इतिहास है मेरा

खोजे है मैने जीवन स्त्रोत जहाँ-तहाँ

चट्टानों में टीलों में, बीहड़ों में खदानों में

दाखिल हुआ हूँ ज्ञान विज्ञान के

नये रचे द्वारों में

खिला हूँ, पला हूँ उन्हीं के बीच। (वही, पृ० 121)

इसी प्रकार इस प्रदीर्घ कविता की अन्तर्वस्तु क्रमशः अपने प्रयोजन की ओर अग्रसर होती है। अन्ततः अपने चरम बिन्दु पर पहुँचती है। इस कविता के केन्द्र में सक्रिय मनुष्य है, जिसने अपने हाथों और मस्तिष्क का यथासमय प्रयोग करते हुए सभ्यता-संस्कृति की विकास-कथा समय की शिला पर असंख्य रंगो में उत्कीर्णित की है। सम्पूर्ण कविता छह हिस्सों में विभक्त है। छहों हिस्से स्वतंत्र हैं। और परस्पर सम्बद्ध भी हैं। प्रत्येक हिस्से के बाद अन्तराल है, जो पाठक को वर्तमान क्षण से अनायास जोड़ देता है। 

विजेन्द्र की प्रत्येक लम्बी कविता में स्थानीय वैशिष्ट्य के साथ-साथ आत्म-कथात्मक अंश अनायास आते है। दोआबे के मूल निवासी विजेन्द्र मरू भूमि के दहकते पलाश’ रोहिड़ा का उल्लेख करने के बाद खिन्न मन से अपनी दोआबी जन्म-भूमि धरमपुर (जि बदायूँ) को अनायास याद करने लगते हैं-

होता हूँ विचलित।

विमूढ़ कई बार

कहाँ आ गया दोआब से खँदकर यहाँ

नहीं है कोई जोति स्तम्भ

न वृक्ष फलदार

कैसे चल पाऊँगा निर्बाध आगे तक।(वही, पृ०122)

और फिर आगे वाचक अतीत और वर्तमान के वास्तविक चित्र अंकित करने लगता है। अपने ज्ञान को संवेदना में बदलते हुए और संवदेना को ज्ञान में। वर्तमान के विषमता-ग्रस्त समाज का लघु चित्र देखिए-

चाहिए अन्न-जल करोड़ों-करोड़ को

भूखों को आहार, प्यासों को स्वच्छ जल

आकाश तले छत मेघ-धूप से बचने को

सदियों से तरस रहे जो पौष्टिक भोजन को

अच्छी चीजों को

करता उपभोग जिनका रात दिन

बिना किसी लज्जा के, आत्म ग्लानि के

बिना किसी ड़र के आखिर क्यों

बिना पश्चाताप के। (वही, पृ०123 )

उद्धृत अंश में जो आत्मालोचन व्यक्त हुआ है, वह सुविधा-सम्पन्न वर्गो की तीखी आलोचना से सम्बद्ध है। बीज भाव करूणा है, जो पीड़ित मानवता के रक्षण को प्रेरित करती है। स्वयं की आत्म-भर्त्सना है। अवसरवादी और रीढ़-विहीन मध्यम वर्ग एवं शोषक उच्च वर्ग की भी।

फलता फूलता जैवमण्ड़ल चारों ओर देख कर विजेन्द्र पुनः आपबीती कह कर मानवीय स्वभाव की दुर्बलता की ओर इशारा करते हैं-

सहे हैं आघात जीवन में

मिले जो अपनों से

औरों से

अभी तक हरी हैं खरोचें चित्त-भूमि पर।  (वही, पृ०123 )

और फिर अनुभव-प्रसूत ज्ञान को प्रत्यक्षता प्रदानते हैं-

हर दिन होता है सोच अगौंहा

गतिशील वेगवान

गुँथा-बिंधा रंगों में।(वही, पृ०123)

बहुत कुछ जानने के बाद भी ऐसा मालूम होता है कि

फिर भी क्या जान सका

अब तक कण भर संज्ञान मिनख का। (वही, पृ०124)

अतः कवि की जिज्ञासा उचित है कि 

कैसे जान पाऊँगा आत्मा की एन्थ्रोज्योग्राफी
बिना जाने प्लाजमा के अलग-अलग रूप।(वही, पृ०124)

मनुष्य विश्व में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अपनी सर्जनशीलता के कारण उस ने सामूहिक श्रम से उत्पादन किया है। नाना प्रकार के निर्माण किए हैं। आविष्कार किए हैं। इसीलिए विजेन्द्र कविता को श्रम-सौन्दर्य से जोड़ कर कहते है-  

कविता का जन्म हुआ उत्पादक क्रिया से
श्रमी ही है पहला कवि। (पृ०127)  

लेकिन श्रम करने के बाद भी वह प्यासा है। दुखी है। असहाय है। क्यों। विषमता की लूट के कारण। अतः वाचक ठीक कहता है- 

लड़ने को आगे का सतत समर
तोड़ना होगा ब्रह्म पाश। (पृ०128) 

 ब्रह्म-पाश’ क्या है। इस का उत्तर भाववादी दर्शन की वह मान्यता है, जो ब्रह्म’ को सत्य मानती है और जगत् को मिथ्या। इसी ने साधारण जनों को भाग्यवादी बना कर सामाजिक बदलाव की सोच से दूर रखा है। लेकिन अब यह सत्य उजागर हो गया है कि जगत् मिथ्या नहीं है। मनुष्य स्वयं भाग्य-निर्माता है। विज्ञान के ज्ञान ने समझाया है कि 

भौतिकी सिरजती है देखी-अनदेखी घटनाओं के 
पल-नखत। (पृ०126)

इस कविता के पहले हिस्से में अतीत-वर्तमान, श्रम एवं प्रकृति-सौन्दर्य, बिम्बों-रूपकों अदृश्य दृश्यों की कांत मैत्री है। निर्भीक आदमी की भीतरी दहक है। हाथों के कौशल के अनेक रूप हैं। हाथ ही ने बनाया है मानव को कवि, चित्रकार, गायक, शिल्पी, स्थापत्कार। और नृत्य मंगिमाओं मे झलकता है उल्लास जीवन में। उँगलियों के लयात्मक संचालन से ही नृत्य के भाव-अनुभाव सम्प्रेषित होते हैं।

कविता के दूसरे हिस्से में विजेन्द्र ने प्राकृतिक जगत् के प्रस्फुटन एवं विकास की कथा चित्रात्मक रूपों में वर्णित की है। साथ-ही-साथ प्राणि-जगत् की भी। प्राणियों एंव प्राकृतिक परिवेशों का मनमोहक-आश्चर्यजनक विकास परस्पर जुड़ा है। दूसरे हिस्से के प्रारम्भ में कवि का कहना है कि

क्या यूँ ही उपज आया भूतल से

जैसे उगता है बीज द्विपत्र हो जुती धरती से

सूर्य के उजीते में, हवा में, ताप में, जल की बूँदों में भीग कर

नहीं नहीं, मै नहीं हूँ पृथ्वी का अबोध शिशु मात्र

धूल कणों से उछरा एक कण

पिसी रज काली, चट्टान का खुरदरापन
कहता रहा हूँ पृथ्वी को जननी

खुली है मेरी आँख अन्न से

जल से, हवा से, रबेदार उजीते से
लेता हूँ साँस नथौरों से

सुनता हूँ कानों से

रचा गया है शब्द बड़े ही जतन से

अर्थ के लिए नापी है लम्बी डगर। (पृ०129)

तात्पर्य यह है कि मनुष्य ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों से सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान प्राप्त किया है। रूप-रंग देखे हैं। वन और वनस्पतियाँ देखी हैं। कोमल-कठोर ध्वनियाँ सुनी है। भोजन के कई स्वाद चखे है। त्वचा से कोमलता और कठोरता का संस्पर्श किया है। और इन्हीं के आधार पर उसने नाना प्रकार की कृतियों की रंगिल सर्जना की है। इसीलिए मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह प्रकृति से कृति एवं संस्कृति की ओर अग्रसर हुआ है। जांगलिकता से मागलिकता की ओर। तमस से प्रकाश की ओर। मृत्यु से अमृतत्व की ओर। कर्म करते हुए दीर्घ जीवन की ओर। उस की मनीषा ने कभी विश्राम नहीं किया हैं। 

ऐेसे सर्जनशील और कर्मठ मनुष्य की शक्ति और सहिष्णुता का वर्णन विजेन्द्र ने आत्मीय भाव से किया है-

जो वे समझते हैं

पशु पक्षी डराने का बिजूका नहीं हूँ

खेत में

नहीं हो पाया मुक्त आज तक भीगता रहा हूँ

रात की टपकती बूँदों में

धूप की बर्छियों को सहता हूँ

उभरी पसलियों पर

कहाँ हुआ शिखरस्थ मुकुटधारी

ओ हठी जन

पूर्णता मेरा कोई विकल्प नहीं

कहाँ खोज पाया हूँ आकाशगंगाओं का

ज्वलित छोर। (पृ०129,130)

इस उद्धरण से यह बात स्पष्ट हो रही है कि जब से समाज समता से विषमता की ओर बढ़ा है, तब से श्रमशील जन अनिवार्य आवश्कताओं के अभाव का दंश झेलते रहे हैं। उन्हें राजाओं-महाराजाओं के समान शिखरस्थ मुकुटधारी’ सर्वोच्च सम्मान प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन उस श्रमी मानव की अदम्य सिसृक्षा एवं अन्वेषण-वृत्ति शान्त नहीं हुई हैं। वह नित नवीन आविष्कार करता रहा हैं। अभिनव कृतियों की रचना करता रहा है। लोकतांत्रिक समाज में तो वही नायक’ है। कविता के केन्द्र में भी वही है। राजाओं-महाराजाओं और उच्च वर्ग के आमिजात्य जनों का युग समाप्त हो चुका है। और हो रहा हैं। अब होरी’, ‘धनिया’, ‘गोबर’ का युग है। अतः विजेन्द्र कहते है-

ओह रात के स्याह सघन आकाश में

उजाले की क्षीण रेख

क्यों कौंधती है आँखों में

गड़ती भीतर तक

एक पैनी नौक सुर्ख

खतम हुआ लगता है महान पुरूषों का

उज्ज्वल समय

सामान्य से चुनना है अपना काव्य-नायक।‘  (पृ० 130)

आज का जिज्ञासु और स्रष्टा मनुष्य द्रष्टा रूप में धरती से अन्तरिक्ष तक, इस ग्रह से उस ग्रह तक, सतह से नीचे और ऊपर निरन्तर निरीक्षण-परीक्षण करता रहता है। नवीन ज्ञान के नव्य द्वार खोलता है। अभिनव आविष्कारों से दिन-प्रतिदिन साक्षात्कार करता रहता है। विजेन्द्र ने जिज्ञासु मानव के स्वभाव और उसकी सतत् साधना का आत्मीय वर्णन किया है-

ओ कवि मैं ने कहा था

जब रचा गया सौरमण्डल

मैं वहाँ नहीं था

कैसे पहचानूँ इन कणों में बजती

भिन्न भिन्न ध्वनियाँ अनुररणन

तेज लय तीखी

रोज आता हूँ यहाँ जानने रहस्य

इस मगरमच्छी चट्टान के

सतत् फुदकते तारे के नाभि-बिन्दु। (पृ० 131)

और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नष्ट नहीं होता कुछ भी’। सिर्फ रूप बदलते रहते हैं। पानी जम कर बर्फ में बदल जाता है। लावा ठण्ड़ा होकर स्याह चट्टान बन जाता है। वह सौर जगत् के राजकुमार सूर्य से कहते हैं कि

तेरे तेज घूमते मसकले पै

रख कर के देखूँगा आदमी की जिजीविषा को

उसके कठोर यत्न को

पृथ्वी की धुरी कैसे जान पाऊँगा

वो है तेरी दुहिता बेचैन

बाहर से, भीतर से,नहीं है चैन

एक पल। (पृ० 132)

प्रश्न खड़ा होता है कि सूर्य ही दुहिता’ पृथ्वी बेचैन क्यों है। इसलिए कि वर्तमान क्रूर पूँजीवादी व्यवस्था उसका विदोहन निरन्तर कर रही है। जो सबका पेट भरती है, उसी का पेट चीरा-काटा जा रहा है। कविता में इसका प्रतिरोध अनिवार्य है। भौतिकवादी दर्शन की आँख से देखकर विजेन्द्र स्पष्ट बात कहते है कि

यह अदृश्य अणु जीवित द्रव्य

रूप है काल का, गति का,

जिसे बाँधने को

आज तक रचे शब्द, लय, ध्वनि, छन्द

तुझे दिखाने आऊँगा कभी

कविता का दहकता अन्तःकरण। (पृ० 132,133)

तात्पर्य यह हैं कि सदा जीवित द्रव्य और अदृश्य अणुओं से काल गतिशील है। इसी गतिशीलता को लयात्मक वाक्यों में बाँधने का प्रयत्न कवि करता हैं। प्रकृति-निरीक्षण से कृति की रचना करता है, जिसके केन्द्र में सक्रिय मानव की श्रम-संस्कृति के अनेक रूप अपने सौन्दर्य से पाठक को आकृष्ट करते है। अन्य ललित कलाओं में भी मानवीय सौन्दर्य की आभा लक्षित होती हैं।

प्रसंगवश यहाँ एक नई बात अनिवार्यतः उल्लेखनीय है। अन्तरिक्ष के वैज्ञानिकों ने अनेक प्रयत्नों के बाद सूर्यपृथ्वीमंगलशनि आदि कई ग्रहों की कोमल-कठोर, तीव्र-मन्द भयंकर ध्वनियाँ रिकार्ड की हैं। प्रत्येक ग्रह में हलचल भरी हुई हैं। अतः विजेन्द्र की यह मान्यता ठीक मालूम होती है कि अभी तक मनुष्य ने पूर्ण ज्ञान आत्मसात नहीं किया है। लेकिन उसके प्रत्यन और प्रयोग निरन्तर जारी हैं।

कविता का तीसरा हिस्सा सूर्य-सम्बोधन से प्रारम्भ होता है। वह पृथ्वी का जीवन-स्त्रोत है। विश्व की खुली आँख है। मनुष्य उसी का पुत्र हैं। कविता का वाचक साम्राज्यवादी शक्तियों का प्रतिरोध करते हुए संघर्षशील राष्टृों से ओजपूर्वक स्वर में कहता है-

बोलो अपनी जुबान

देखो मेरी आँखों से

यह समय है महापुनर्जागरण का

कौन से ब्रह्मा ने रचा है

यह विराट् शिरोमणि जीवन

विरल सुन्दर उपहार निसर्ग का।  (पृ० 133, 134)

यहाँ यह बात स्पष्ट हो रही है कि भौतिकवादी दर्शन के अनुसार सृष्टि का विकास आद्य द्रव्य की गतिशीलता के कारण हुआ है। यह किसी ब्रह्मा की रचना नहीं है। अब समय आ गया है कि पिछडे-अगड़े राष्ट्र एकजुट हो कर प्रतिरोध का गगन-भेदी उद्घोष करें।

कवि विचारों को संवेदानात्मक साँचे में ढालकर कथ्य का शनैः-शनैः विस्तार करता है। वह जल-थल-नभ के अनेकानेक चित्र अंकित करते हुए विज्ञान-सम्मत सत्य का उद्घाटन करता है –

एक दिन पृथ्वी ने अलग शुरू की यात्रा

दहकते सूर्य से

द्रव्य ही था प्रथम सत्य चेतन कहाँ था

बनती गई ठोस परतें, परतें, परतें

भाप से जन्मते रहे जल-कण

महाकाल का प्रथम उत्सव था भैरव राग

ताण्डव नृत्य

एक कोषीय जीव में जन्मा मैं

उसी से फूटा है कल्ला सुर्ख

बहुकोषीय जीवन का महाजागरण

चट्टानों की परतों में बचे रहे है निशान

जीवधारियों की हड्डियों के

वनस्पतियों के

बडे़ संघर्ष से मिली है मुझे रीढ़

रगें, मस्तिष्क का लिसलिसा द्रव्य।

यह है मानव के विकास का क्रम, जिसे भौतिकवादी दर्शन की आँख से देखा-समझा जा सकता है। रीढ़ के निर्माण में हाथों का योगदान अविस्मरणीय है। अन्य प्राणियों की तुलना में मानव इसीलिए श्रेष्ठ है कि वह सोच सकता है। अपनी आवश्कताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन के साधनों का निर्माण कर सकता है। उसके पास भाषा का प्रकाश है। वह अपनी कल्पना से अदृश्य को दृश्यता प्रदान कर सकता है। आकाश में पक्षियों को उड़ते हुए देख कर उसने वायुयान की कल्पना को यथार्थ में बदल दिया। अग्नि की खोज उसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। अग्नि के प्रकट रूप के अभाव में विकास का रथ आगे बढ़ सकता था? इसीलिए कविता का वाचक कहता है कि

पहुँचा अग्नि-भट्टियों के ताप में

खोजने तेज के उद्गार तत्व

रेडियम, थोरियम, यूरोनियम

रेडियो सक्रिय खनिज जहाँ-तहाँ। (पृ० 139)

विजेन्द्र के काव्य-निबद्ध चिन्तन का सार तत्व यह है कि

विपरीत तत्वों की एकरूपता

ही सत्य है, गति है

अन्त ही उसका, मृत्यु है। (पृ० 139)

प्रकृति-जगत् में पंच तत्वों का सन्तुलित मेल निर्माण करता है। उन का भैरव मिश्रण विनाश एवं विध्वंस। उल्कापात होने लगते हैं। शम्पाओं के भीषण निपात भी समुद्र अपनी मर्यादा त्याग कर धरती को जल-मग्न कर देता है। मानव शरीर में पानी की कमी शरीर को रोगग्रस्त कर देती है। शरीर में जल भी है और अग्नि भी। एक का अभाव शरीर को रोगी बना देता है। धरती यदि माँ है तो आकाश पिता। दोनो आपस में सम्बद्ध हैं। धरती पर बरसा पानी भाप बन कर मेघों का रूप धारण कर लेता है। पानी बरसा कर धरती की प्यास बुझाता है। लेकिन अतिवृष्टि धरती पर बाढ़ का भयंकर परिदृश्य उपस्थित कर देती है। सूर्य अपने ताप से हिमालय पर जमी बर्फ को जल में बदल कर उसे नदियों की धाराओं में परिवर्तित कर देता है। सूर्य ही हरी-भरी फसल पर सोने का पानी चढ़ाता है। शरीर में परस्पर विरोधी पंच तत्वों के विघटन से वह मृत घोषित कर दिया जाता है। अतएव विपरीत तत्वों की एकरूपता जीवन है। उनका अभाव मृत्यु। यह वैज्ञानिक सत्य है, जिसकी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति विजेन्द्र ने निपुणता से की है।

चौथे हिस्से का प्रारम्भ प्रश्न से होता है –

कौन थे गोंड, कौन थे भील, कौन हैं आदिवासी

आदिम संतान भारत की

मेरे पूर्वज कठोर बलवान। (पृ० 139) 

उस निषादराज को भी याद किया था, जिसने अथवा उसके पूर्वज ने क्रौंच-वध किया था। लाचार हो कर अपनी आजीविका के लिए। द्रविड़ भारत के मूलजनों को भी याद किया गया है, जिन्हें अनार्य घोषित किया गया था। लेकिन अब यह सत्य उजागर हो गया है कि आर्य-आक्रमण मिथक है। इसलिए मूल निवासियों का पलायन भी मिथ्या है। वस्तुतः यह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का कपटपूर्ण व्यवहार था, जिसके फलस्वरूप उत्तर भारत और दक्षिण भारत में आज भी मन-मुटाव है।

विजेन्द्र ने अपनी व्यापक मानवीय करूणा से प्रेरित होकर भारत के, विशेषतः छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की दयनीय दशा का प्रत्यक्षीकरण किया हैं। उन्हें इस महादेश की अपराजेय जनशक्ति कहा है। विजेन्द्र लड़ाकू जनशक्ति पर भरोसा करते हुए ठीक कहते हैं – 

‘इस महादेश की अपराजेय जनशक्ति

जिन्दा है इन्हीं से

सिंहभूमि, मयूरभंज, मानभूमि

नदियों से घिरी मझोले कद की पहाड़ियाँ

उनकी लाल आँखें भरी हैं आक्रोश से

कह नहीं पाते जो अपना ताप

बहुत भीतर छिपी है यातना की ज्वाला। (पृ० 143)

सहृदय कवि विजेन्द्र इस ज्वाला को प्रतिरोध में बदलना चाहते हैं। उन्हें खेद है कि

‘सोनभद्र कितना प्यारा नाम है दोआब का

यहाँ के कोल, गोंड, पहरिया

आज भी अछूत हैं

इनका कौन सा वर्ण हो सकता है

कभी नहीं सोचा

श्रमी का क्या सम्प्रदाय, क्या वर्ण क्या कौम। (पृ० 144)

यह उद्धरण कवि की वर्गीय दृष्टि का प्रमाण है। शोषित वर्गो के प्रति उसकी व्यापाक हार्दिक संवेदना उसे अभिजात वर्ग के रस-रंजन-अनुरागी तथाकथित बड़े कवियों से नितान्त भिन्न करती है। वह लोकधर्मी है, जो श्रम का सम्मान करती है। दिल की गहराई से।

शम्भू बादल जैसे समर्थ कवियों ने झारखण्ड़ के श्रमजीवी जनों और उनके परिवेश पर अच्छी कविताएँ रची हैं। अब हाशिये के साधारण जन केन्द्र में आ रहे हैं। समकालीन कविता की यह प्रशंसनीय विशेषता हैं।

पाँचवे हिस्से में विजेन्द्र ने मरू-भूमि के भू-दृश्य अंकित किए हैं। सतत पर्यवेक्षण निरीक्षण के आधार पर। आत्मीय ढंग से। प्यासे थार को निरख कर विजेन्द्र खिन्न मन से कहते हैं कि

‘क्यों होता हूँ रिक्त अन्दर तक

मरूस्थलीय जीवन का पुंज

पत्थरों को फोड़ उपजता ऊँटकटीला

चमकाता पैने दाँत

कब तक खड़ा रहूँगा यहाँ

चूमने नम हवाओं को

किरणों के अन्नवान मुख

खड़े हैं आगे पथ में बालुका स्तूप घने ऊँचे

आगे तक फैली हैं नई मरोड़दार

अरावली की भ्रंश ऋंखलाएँ

क्रूर विदोहन होता है प्रकृति का दिन रात

मेरे साथ अन्धाधुन्ध

आगे बढ़ता मेरा देश

क्या बन पाएगा

सुन्दर स्वस्थ

ऐसे डरावने उजाड़ में। (पृ० 144, 145, 146, 147,)

कविता का यह अंश स्थानीय परिवेश के प्रति विजेन्द्र के गहरे अनुराग एवं उनकी लोक मंगालिक चिन्ता का प्रमाण है।

लोकधर्मी कवि अपने काव्य में स्थानीयता का अथवा जनपदीयता के सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के अनेक बिम्ब, वर्णन और पात्रों के चरित्रों का निरूपण अवश्य करता है। कविता का पाँचवाँ हिस्सा विजेन्द्र के लोकधर्मी कवि का प्रमाण है।

कविता का छठा हिस्सा आत्मा’ के अनस्तित्व से प्रारम्भ होता है। विजेन्द्र की भौतिकवादी जीवन-दृष्टि आत्मा’ का अस्तित्व नकारती है –

क्या है आत्मा

सदियों से पड़े हो जिसके पीछे तुम

एक सूक्ष्म अग्निकण का चिन्मय रूप

कहते जिसे अष्टधातु का सारकण

झिलमिलाता है उसमें यह पूरा विश्व-वृक्ष। (पृ० 148)

आत्मा’ की अवधारणा भाववादी दर्शन की मिथ्या देन है। प्राण निकल जाने के बाद शरीर मृत हो जाता है। और चेतन’ तत्व भी लुप्त हो जाता है। आत्मा’ की अवधरणा से पुनर्जन्म का सम्बन्ध जुड़ता है। मनुष्य की गरीबी का कारण पूर्व जन्म के पाप माने जाते है। यह अवधारणा वर्ण
-व्यवस्था एवं उससे जनमी जाति-व्यवस्था को भी उचित ठहराती है। यह कोई ईश्वरीय विधान नहीं है। लोकतन्त्र की व्यवस्था ने इसे अस्वीकार कर दिया हैं। क्या पहले के राजतन्त्र को पुनः उचित ठहरा कर आज लागू किया जा सकता है। नहीं। आजकल तो वंशवाद और परिवारवाद’ की कटुतम आलोचना हो रही है। अतः आत्मा’ को चेतना के रूप में स्वीकारना अधिक तर्कसंगत है। सर्जनशील कवि एंव कलाकार की चेतना के दर्पण में सम्पूर्ण जगत् झिलमिलाता रहा है। वह उसी की कलात्मक पुनः सृष्टि करता है। ललित कलाओं के सौन्दर्य-रूप में।

विजेन्द्र अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से इतिहास की समीक्षा करते हुए पुनः कहते हैं। –

ओ मेरी विकासमान चेतना के गति कण

द्रव्य  ही सच है

गति ही जीवन है

आदि अन्त

उस का सार तत्व

यही है मेरी आत्मा की एन्थ्रोज्योग्राफी। अर्थात मानव भूगोल।

विजेन्द्र जितने आत्मचेतस हैं, उतने ही विश्वचेतस। अतः वह अपने युग की सामाजिक गति की एंव आर्थिकी के शोषक रूप की तीखी आलोचना करते हैं। निरीह-निरन्न-निर्वस्त्र लोगों से रागात्मक सम्बन्ध जोड़ते है। और फिर अमरीका के दिलेर लेखक नाम चोमस्की एंव वेनेजुएला के दबंग राष्टृपति हयूगो शावेज से अपना रिश्ता जोड़ते है। साम्राज्यवादी क्रूर शक्तियों की निर्भीक आलोचना करते हैं। उनके चिन्तन के अनुसार अब तमसो मा सद्गमय जैसे उपदेशमूलक वाक्य दुनिया नहीं सुनती है। अब तो विश्व को समझने के लिए वैज्ञानिक चिन्तन आत्सात् करना अनिवार्य है। अतः कवि बेचैन भाव से कहता है-

द्रव्य की चौथी भुजा

यह प्लाजमा, पिघलते ताप से फूटा जो

गैस का अँखुआ

सूर्य की कोख से

अभी अन्त नहीं सूर्य गाथा का

क्या है रिश्ता कविता से

मेरे मन के मन से

रोयों से, पलकों और आँख के कोयों से

ओह, छिपे गहन आँसुओं से

महाप्रयोग बिग बैग से

कैसे जोड़ पाऊँगा इसे रोटी से, भूख से

क्या रूक पाएगी इससे महाविनाश लीला

मनुष्य की, प्रकृति की, सुन्दर सृष्टि की

पूछता हूँ तुमसे

हाँ तुम्ही से। (पृ० 151,152)

कविता का प्रश्नात्मक समापन विजेन्द्र की उदग्र चिन्ता व्यक्त कर रहा है कि सदियों से शोषित मानव और उसके परिवेश का कल्याण एवं रक्षा कैसे होगी। यह बैचेनी कवि को काव्य के महान प्रयोजन शिवेतरक्षतये से जोड़ रही है। अन्त में सम्पूर्ण कविता का भरत वाक्य है –

समर अभी बदस्तूर जारी है

यह रहेगा बहुत आगे तक

पराजय ही विजय की जननी है (पृ० 152)

निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि प्लाजमा’ विज्ञान-बोध से युक्त लम्बी कविता है। इसकी कथन-भंगिमा नाटकीय एकालाप है। अन्तर्वस्तु वस्तुपरक है। और आत्मपरक भी। इसमें लयात्मक वाक्यों का कलात्मक विन्यास है। गतिशील बिम्बों की मालाएँ हैं। आकर्षक रूपक है। यथास्थिति के विरूद्ध प्रतिरोधी स्वर मुखरित है। इतिहास और वर्तमान की कान्त मैत्री है। यह कविता निराला की शक्ति पूजा और मुक्तिबोध की अँधेरे में की तुलना में कुछ अलग है। इसमें ‘शक्ति पूजाजैसा दैवी चमत्कार नहीं है। और न ही अँधेरे में विन्यस्त दुरूह फैन्टेसी। भाषिक संरचना लगभग समास-रहित है। हिन्दी की प्रकृति के अनुसार प्रचलित तत्सम शब्दों के साथ-साथ बोल-चाल के प्रचुर शब्दों का प्रयोग किया गया हैं। इसका मुखर पाठ करते हुए पाठक को कवित्त छन्द की लय का आभास होता रहता हैं। अतः यह कविता मुक्त छन्द में है, जो समकालीन अन्य कविताओं में अलक्षित हैं। इस मुक्त छन्द ने विजेन्द्र को अपने आदर्श कवि निराला के मुक्त छन्द से जोड़ दिया है। निराला का मुक्त छन्द’ कवित्त की लय पर आधारित है। इस कविता ने समकालीन हिन्दी कविता के सामने नवीन काव्य-मार्ग प्रस्तुत किया है। आशा है कि समकालीन कवि स्वयं को विज्ञान-बोध से जोड़कर कविता और अधिक समृद्ध करेंगे।

हाँ, प्रूफ्र की त्रुटियों ने अर्थ-बोध में बाधाएँ उपस्थित कर दी हैं। लेकिन इससे कविता का महत्व कम नहीं होता है।

सम्पर्क

अमीर चन्द वैश्य

चूना मण्डी, बदायूँ

(उत्तर प्रदेश)                       

243601

मोबाईल- 09897482597

विजेन्द्र जी की किताब ‘सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता’ पर सुशील कुमार की समीक्षा


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किसी भी कवि को गद्य जरुर लिखना चाहिए. उसकी पहचान उसके गद्य से की जा सकती है. कवि का गद्य अन्ततः उसके कवि-कर्म को ही और निखारता है. विजेन्द्र जी हमारे समय के ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्होंने प्रचुर मात्रा में गद्य लेखन के साथ-साथ अद्भुत पेंटिंग्स भी बनाये हैं. कविता में सौन्दर्य दृष्टि को केन्द्र में रख कर विजेन्द्र जी की अभी-अभी एक महत्वपूर्ण किताब आई है सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता’ इस किताब पर एक बेहतरीन समीक्षा लिखी है हमारे कवि मित्र सुशील कुमार ने. तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा   
कविता में सौंदर्य-दृष्टि (कवि विजेंद्र के बहाने)
पहले से बनी धूसर पगडंडियों पर
चलने वालों ने
मुझे करुणा भरी हिकारत से देखा
वे मेरे नाम से चौंके
मेरे उगान को रौंदा।
मैं चीजों को उलट-पुलट कर ही
आगे बढा़ हूँ।****
बडे़ इरादे वालों को
लाल पत्थर की चौहद्दियाँ नहीं रोकतीं
दूर चली आयी लीकों पर 
चलकर ही
मैंने अपनी राह खोजी है।
मुझे अब जाल समटने दो
अमरता की बूँदों के लिये
बेचैन चातक का कंठ चाहिए।”


(‘प्यार का कोई नाम नहीं कविता से‘/विजेंद्र)
लगभग अस्सी के वय पार कर चुके कविवर विजेंद्र के लगभग चार दशकों से उपर के दीर्घ कालखंड में समाये कविकर्म और सौंदर्यदृष्टि को देखकर यह सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है कि हिन्दी-काव्याकाश में निराला और त्रिलोचन की परंपरा के एक अत्यंत दृष्टिसंपन्न कवि के रुप में उनका अभ्युदय हुआ है जो आज अन्यत्र विरल है, और जिसकी दीप्ति एक लंबे अरसे तक कवियों और उनके पाठकों को आलोकमान करेगी।
       उनकी कविताओं के पीछे उनकी काव्यमीमांसा का अपना ठोस सैद्धांतिक पक्ष है जिसकी जडे़ इस देश की लोक-परम्परा में हैं। यहाँ विचारणीय बात यह है कि उनके चिंतन में विचार एक कवि के निकष पर कस कर आते हैं जो हमारे कवियों, खासकर युवा कवियों का सही और सटीक मार्गदर्शन करता है। विजेंद्र जी का सौंदर्यचिंतन मूलत: मार्क्सवादी सौंदर्यचिंतन ही है, पर भारतीय भावभूमि पर एकदम निरखा-परखा हुआ। वे अपने सौंदर्यचिंतन के समर्थन में जो कुछ भी कहते हैं, उसे साथ-साथ अपनी परम्परा और जातीय साहित्यनिष्ठा से प्रमाणित भी करते चलते हैं। इसलिये उनकी सोच बहुत साफ़ और बोधगम्य रही है। वे अंग्रेजी भाषा सहित्य के विद्वान भी हैं और उन्हें पाश्चात्य सौंदर्य-शिल्प का सघन ज्ञान है। पर यहाँ वे उन्हीं विचारों का आश्रय लेते हैं या समर्थन करते हैं जिनका अपना भारतीय मूल्य जीवित रह सकता है। इसलिये कहा जा सकता है कि विजेंद्र एक संस्कारवान सर्जक-चिंतक हैं जिनके यहाँ सौंदर्य-चिंता में विचार और उनकी कविता का स्वभाव सदैव एकमेक रहा है और जो किसी तृष्णा या लोभ में फँस कर अपने आसन से कभी च्युत नहीं हुए। उनके चिंतन में जो गहन पार्थिवता है उसका संकेत इस बात से भी मिलता है कि उनका शब्दकर्म शुरु से ही जन का पक्षधर रहा है न कि अभिजन का। वे लोक और जन के प्रतिबद्ध रचनाकार रहे हैं। उनकी सौंदर्यदृष्टि में मार्क्सवादी सौंदर्यचिंतन लोक के सौंदर्यबोध के साथ इतना घुल-मिल कर पाठक के समक्ष प्रस्तुत होता है कि ऐसा विरल संयोग विजेंद्र और उन जैसे कुछ ही कवियों के यहाँ ही विपुलता से गोचर होता है, जबकि बुर्जुआ सौंदर्यशास्त्री भाषा की बात भाषा से शुरु करके भाषा पर ही समाप्त कर देना चाहते हैं यानि जीवन. प्रकृति, समाज से वंचित करके विचार को यथास्थिति की हद तक ही रखना चाहते हैं जिससे उनका विरोध है। वे सौंदर्यशास्त्र में गहनता से जीवन. प्रकृति और समाज का संस्पर्श करते हैं। और सिर्फ़ संस्पर्श ही नहीं करते, उसके भीतर आत्यांतिक सहजता और निस्पृहता से प्रवेशकर सौंदर्य का खनिज भी ढूँढते हैं। साथ ही एक चित्रकार होने के कारण उनकी चित्रात्मक सोच-शैली का प्रभाव भी उनके पूरे साहित्य पर पड़ा है। उनके चित्रों की तुलना उनकी कविता से करने से यह सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है कि कि उनके सारे चित्र भी एक तरह से अनबोलती कविताएँ ही हैं जिसमें लिपिहीन सौंदर्य का झलक मिलता है, जहाँ कहें कि इसकी सौंदर्यशास्त्रीयता में उनकी कविता के सौंदर्य का ही प्रतिरुप भासित होता है। अतएव उनके सौंदर्यशास्त्र की अवधारणा का दायरा वृहत्तर और गहरा है जो उनकी सतत अध्ययनशीलता, निरंतर विकसित होती लोकपरक सौंदर्यदृष्टि और विचारप्रक्रिया की क्रमिक सुदृढता का परिणाम है।
       त्रास‘ (1966) से अपनी काव्ययात्रा आरंभ करने वाले इस मनीषी कवि की अब तक कुल तेरह कविता-पुस्तकें आ चुकी हैं । और गद्यकृति कविता और मेरा समय (2000) के बाद अब उनकी नई कृति सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता’ आयी है जो न सिर्फ़ कविता को गहराई से समझने का मर्म बतलाती है, बल्कि कवि-मन में आधुनिक भावबोध की लोकचेतना का संस्कार उत्पन्न करने का उपक्रम भी करती है जो मानसपटल पर देर तक टिक कर हमें रचना से जीवन तक सर्वत्र, उत्कृष्टता और उसमें जो कुछ सुहै उसकी ओर मोड़ता है जिसमें लोक-जीवन के सत्य-शिव-सुन्दर का प्रभूत माधुर्य भासित होता है। यहाँ पाश्चात्य जीवन शैली से उद्भूत बुर्जुआ सौंदर्य-दृष्टि नहीं, वरन एक भारतीय मन की ऑंख से देखा-परखा गया विरासत में मिला वह लोकसौंदर्य है जहाँ भारत की आत्मा शुरु से विराजती रही है पर उसको देखने-गुनने वालों को पिछडा़ और दकियानूस कह कर दुत्कारा गया है।
       एक ऐसे जनविरोधी समय में जबकि, कुंठा-संत्रास-तनाव के वातावरण में मध्यमवर्गीय विचार से सृजित सौंदर्यशास्त्र के निकषों पर रची जा रही कविताएं दृश्य में देर तक नहीं ठहर पा रहीं और बाजारवाद की ऑंधी में बिखर जा रही हैं, विजेंद्र की सौंदर्यदृष्टि और उनकी कविताओं की अलग पहचान होनी स्वाभाविक ही है जो हमें तन्मयता से काव्यसौंदर्य के उन नये प्रतिमानों से जुडे़ सवालों की ओर ले चलते हैं जिसका अर्थपूर्ण अवगाहन उनकी पुस्तक सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कवितामें हुआ है जहाँ लोकजीवन के स्पंदन और आवेग को गहराई से महसूसने की बिलकुल चैतन्य नवदृष्टि प्राप्त होती है, हालॉकि लेखक ने बडे़ विनयभाव से पुस्तक के आमुख में ही स्पष्ट कर दिया है कि ये बातें न तो पूर्ण हैं, न निष्कर्षमूलक। यह सब एक तरह से स्वयं से संवाद है। कुछ जानने का प्रयास। कुछ खोजने की ललक। कुछ को फिर से जानने-समझने की कोशिश। पर यह लेखक का प्रांजल अहोभाव ही है। यानि कि यह कृति एक तरह से एक कवि का स्वयं से संवाद है जिसे कवि विजेंद्र के स्वयं के द्वारा सृजनप्रक्रिया में आत्मगत हुए अनुभवों से कविता के स्वभाव को परखने की एक सार्थक पहल भी कही जा सकती है।
       सौंदर्यशास्त्र की इस आलोच्यकृति में उनके कुल उन्नीस लेख दृष्टिगत हैं जो आद्योपांत लगभग दो सौ पृष्ठों में कविता के सौंदर्यशास्त्र से जुडे़ विविध विषय-पक्षों को क्रमवार उद्घाटित करते चलते हैं। पहला आलेख जिसके शीर्षक से पुस्तक का नामकरण भी हुआ है, भारतीय चित्त की प्रकृति की मौलिक सूझ-समझ प्रस्तुत करता है। वस्तुत: इस आलेख की मौलिक संकल्पना की टेक पर ही पुस्तक में अन्य सारे विचार प्रस्तुत हुए हैं। इस आलेख में भारतीय चित्त की विशेषताओं का निरुपण जिस व्यापकता और गहराई से किया गया है कि उसके मूल में काव्यलोक की अपनी लंबी परम्परा से प्रसंगवश जुडने की प्रक्रिया की खोजबीन ही लक्षित होती है जहाँ क्रियाशील भारतीय जीवन की गतिकी हर किसी को मूर्तमान और अनुभवनीय रुप में दिखाई पडे़गी।
       यहाँ बात आदिकवि बाल्मिकि और आचार्य भरत से लेकर कालिदास, भवभूति, फिर मध्यकालीन संत कवियों से लेकर निराला, मुक्तिबोध और समानधर्मा कई आधुनिक कवियों तक हुई है जिसमें यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थापना की गयी है कि संपूर्ण भारतीय वाडँमय ही सदा लोक का पक्षधर रहा है जिसके समूचे साहित्य का आधार ही लोकधर्म है क्योंकि बकौल विजेंद्र जी के जिस लोक की बात भरत ने की है जिसे अलग-अलग प्रसंगों में कवि कालिदास और भवभूति ने कहा है -इससे लगता है कि भारतीय चित्त सदा लोकानुरागी, लोकसजग, तथा किन्हीं अर्थों में लोकपक्षधर भी रहा है। इसीलिये आज लोक की बात उठाकर हम न केवल कविता में समकालीनता को सही परिप्रेक्ष्य में परख रहे हैं बल्कि उसके बहाने हम अपनी परम्परा को भी आज के सन्दर्भ में नवीकृत और व्याख्यायित कर रहे हैं। परम्परा का वह सबल पक्ष जो सदा कविता में विद्यमान रहा है रहता है और कविता को जिन्दा रहना है तो वह आगे भी इसी तरह वहाँ बना रहेगा (पृ. 6)।”
       इस प्रकार इस लेख में गहन विचार हिन्दी कविताओं की भारतीय पृष्ठभूमि स्पष्ट करके उस प्रच्छन्न पार्श्व की परतें खोलता है जिसके संज्ञान से हम सौंदर्यशास्त्रीय अवधारणा के देशज पक्ष की मूल्यवत्ता और योरोप के भाववादी बुर्जुआ चिंतकों की चालाकी को सरलता से समझ सकते हैं और ठीक यहीं, पाठक का वह प्रस्थानविन्दु भी शुरु होता है जहाँ से वह लोक की ओर श्रद्धापूर्वक स्वविवेक से मुड़ सकता है क्योंकि उसके मन में लोकसंस्कार के बीज फलित होने लगते हैं, फलत: उसके सोचने की क्रिया में व्यापक सकारात्मक बदलाव आने लगता है और उसका चिंतन गहन पार्थिव और दृष्टि, दूरदर्शी बन पाने को क्रियाशील होने लगते हैं क्योंकि संस्कृति के उद्भवकाल से ही हमारी लोकपरम्परा अत्यंत समृद्ध रही है जिसकी भाषा, मुहावरा, शब्दसंपदा अत्यंत जीवंत हैंऔर जिसके काव्य में भावों की सबल संश्लिष्टता हैजो संघर्षपूर्ण भारतीय जीवन की उदात्तता के परिणामस्वरुप मानवीय भावों के एक पृथक मूर्त संवेदना से उत्पन्न सौंदर्यबोध से जन्मते हैं क्योंकि कवि के शब्दों में सौंदर्यशास्त्र कविता पर कोई अंकुश न लगाकर उसे ज्यादा मानवीय, सुन्दर, पूर्ण, यथार्थपरक और हर प्रकार से असरदार बनाने के लिये कुछ रचनात्मक सूझाव प्रस्तुत करता है (पृ. 51) इसलिये कवियों को अपनी परम्परा से नि:सृत सौंदर्यशास्त्र का गहन-गंभीर ज्ञान होना ही चाहिए। हाँ, यह बात अलग है कि सौंदर्यशास्त्र एक जटिल और संश्लिष्ट विषय है । जैसा कि स्वयं विजेंद्र कहते हैं, कविता और यथार्थ, कविता और संज्ञान, विचारधारा, राजनीतिक चेतना, कवि की प्रतिबद्धता, काव्यबिंब, कविता का संरचनात्मक स्थापत्य, काव्यप्रक्रिया, कविता में वस्तुगत और आत्मगत की द्वंद्वात्मक स्थिति, वस्तु, भाव, संवेग, और कल्पना के परस्पर संबंध, काव्यसत्य और वस्तुसत्य का फर्क, सामाजिक यथार्थ के विविध स्तर, अंतर्वस्तु और रुप के द्वंद्वात्मक रिश्ते, कलात्मक संस्कृति, प्रकृति और कविता, सौंदर्य का सार, सौंदर्यशास्त्र और विचारधारा आदि पर भी विचार होता है (पृ.23)।” सचमुच ये ही सौंदर्यशास्त्र के दार्शनिक आधार की ज़मीन देते हैं जो कि इस पुस्तक के दूसरे लेख का वर्ण्य-विषय है। उपर्युक्त विश्लेषण में यह भी अंकनीय है कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को व्यापक प्रतिष्ठा दी गयी है और लेनिन के प्रतिबिंबन-सिद्धांत की व्याख्या कठोपनिषद के सर्वम् जगत् प्राणे एजतिअर्थात यह सारा भौतिक जगत हमारे प्राण में कंपित होता है, चमकता है की भारतीय पृष्ठभूमि से करके यह बता दिया है कि यह इतिहास की उस वस्तुगत अवधारणा से भिन्न नहीं है जो हमारे यहाँ काफी पहले ही विकसित थी। यही कारण है कि उनके सौंदर्यशास्त्र को पढ़ कर पाठक के भीतर जिस भावमानस का सृजन होता है उसमें भारतीयता का संश्लिष्ट रुप विद्यमान रहता है।
       तीसरे आलेख में विजेंद्र जी ने कविता में जैविक रुप के स्वभाव की चर्चा की है जिसे वे कविता के सौंदर्यशास्त्र का एक बहुत जरुरी पक्ष मानते हैं। इसे बिना समझे हम अपनी कविता के लिये सममितिमूलक जड़-सौंदर्यका रुप चुन लेते हैं जिससे कविता स्वस्फूर्तता और तेजस्विता खो देती है। विजेंद्र जी का कहना है कि यह समय और समाज में निहित द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से निरंतर विकसित होता है जिसे कवि अपने आसपास जीवन, प्रकृति और समाज को व्यापक यथार्थ की गहराई से टटोलकर और अपने समय की रुढि़यों को तोड़ कर, यानि कि समय का अतिक्रमण कर प्राप्त करता है जो उसके द्वारा उपयोग में लाये गये रुपकों, पदविन्यास, लय, छन्द, शब्द-गठन, संरचना और कविता के पूरे स्थापत्य की पुनर्रचना में दृष्टिगोचर होता है।
       चौथे आलेख का शीर्षक है – सौंदर्यशास्त्र और हमारी परम्परा। हमारे सौंदर्यशास्त्र के खनिज अपनी जातीय संस्कृति और परम्परा से ही प्राप्त होते हैं। इस मार्फत विजेंद्र ने कई अर्थपूर्ण सवाल उठाये हैं जो स्वयं सौंदर्यशास्त्र की दिशा-दशा तय करते नजर आते हैं, यथा- “आखिर अपने अतीत से कैसे जुडे़? उससे जुडे़ या नहीं? क्या उससे अलग रह पाना हमारे लिये संभव है? क्या अपने अतीत को विस्मृत कर हम किसी महान रचनाकर्म की कल्पना कर सकते हैं? ….भारतीय सन्दर्भ में जब भी सौंदर्यशास्त्र का सवाल उठायें तो देखें कि मुहावरा खंडित तो नहीं।…क्या कविता में हम उसे दिखा पा रहे हैं? सौंदर्यशास्त्र का सवाल कैसे हल हो? (पृ.39/40)।” कुल मिलाकर ये सारे सवाल हमें हमारे लोकधर्मी सौंदर्य की ओर ले चलते हैं जिसका एक कवि को अपने शब्दकर्म में अर्थपूर्ण अवगाहन करना चाहिए ताकि उसकी रचना उत्कृष्टता का कीर्तिमान बन सके।
       पाँचवा आलेख सौंदर्य की मूर्तता पर है। इस अध्याय का अभिप्राय किसी कृति की समृद्धि में सौंदर्य की मूर्तता से है, अर्थात जो जितनी मूर्त और सामाजिक सरोकारों से युक्त होगी, वह कृति उसी अनुपात में महानता के सोपान का प्राप्त करेगी। इसी प्रकार छठा अध्याय सौंदर्यशास्त्र के विविध आयामों को लेकर है। यहाँ कविता में सौंदर्य की उदात्तता के लिये विजेंद्र ने कवि को कविता में रुपकों की खोज कर जीवन के पैटर्न को मूर्त और अर्थगर्भित बिंबों से सजीव बनाने और बाहरी दुनिया यानि वस्तु जगत के यथार्थ को कविता में लाने पर जोर दिया है। कवि के शब्दों में ही इससे लगता है कि कविता में औदात्य अर्थस्फीति और भावबोध के गौरव से ही रचा जाता है।”
       इसके बाद के लेख का शीर्षक है ‘मुक्त कविकर्म और सौंदर्यशास्त्र’। हम यह अनुभव करते हैं कि स्वत:स्फुर्त चित्त से रचना करना तभी संभव है जब कविकर्म पर कोई बाहरी (या आंतरिक भी) दबाव न हो अर्थात कवि स्वायत्त और मुक्त हो। इस अध्याय में कवि के मुक्ति के सवाल को विजेंद्र जी ने बेहद गंभीर कविमन से उठाया है जो एक बहुत विचारणीय स्थापना है।
       अगले आलेख का शीर्षक है-काव्य उपकरण और सौंदर्यशास्त्र। विजेंद्र कहते हैं कि काव्य-उपकरणों के सांगतिक संयोजन से कविता में जादू पैदा होता है। कविता से काव्य-उपकरणों के खो जाने को वे कविता की त्रासदी समझते हैं और कविता की लय को कविता का जैविक हिस्सा मानते हैं। आजकल कविता में नवीनता लाने की होड में काव्य लय, रुपक,उपमा आदि को नकारने का जो फैशन चल पड़ा है उससे कविता निष्प्राण ही हुई है। यह कविता में आवेग और भाव लाने के अनिवार्य साधन हैं। इसलिये उनका मानना है कि जो कविता अपने देश की सुदीर्घ और समृद्ध काव्यपरम्परा को आत्मसात करके विकसित नहीं होती वह न केवल संस्काररहित होती है, अपितु उसमें उच्च कोटि का सौंदर्यबोध भी नहीं होता। (पृ.72)”यह आलेख हमें हमारी सुदीर्घ और समृद्ध काव्यपरम्परा में काव्य-उपकरणों की महत्ता को समझाते हुए उसकी प्रासंगिकता पर प्रकाश डालता है।
       इसके आगे लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र पर बडी़ विशद चर्चा हुई है। यहाँ ऐतिहासिक विकास-क्रम से पुन: जोड़कर लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्रको देखा गया है और यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि किस तरह पूँजी का समाज में सकेंद्रण होने से कविता का लोकधर्मी सौंदर्यबोध प्रभावित हुआ है और वह कुलीनता की ओर गया है जहाँ न कोई बडा़ संकल्प है न विजन। बाहर के काव्य-प्रतिमानों की नकल से कविता में रुपवाद और दुरुहता ही दिखाई पडे़ हैं, वह आत्मप्रलाप जैसा होता है। विजेंद्र इसके अनेक कारणों में एक प्रमुख कारण हमारे चित्त की रिक्तता मानते हैं। यह पैदा होती है अपने इतिहास, अपनी परम्परा और अपनी जनता से बहुत दूर चले जाने से। (पृ,88)”
       इस पुस्तक का दसवाँ आलेख है- ‘वस्तु का पुनस्सृजन।’ यह सौंदर्यशास्त्र का बहुत ही महत्वपूर्ण पाठ है। हम जानते हैं कि पुनस्सृजन की प्रक्रिया संश्लिष्ट होती है। पर दु:खद बात यह है कि वास्तव में कई कवि नकल को ही पुनस्सृजन मानते हैं। यहाँ पुनस्सृजन के सौंदर्यशास्त्रीय सिद्धांत का प्रतिपादन विजेंद्र ने भारतीय सौंदर्यशास्त्र को नज़र में रख कर किया है। उनके अनुसार पुनस्सृजन का सिद्धांत समाज और प्रकृति की आंतरिक गतिकी से जुडा़ है। कविता इसी व्यापक अर्थ में जीवन, प्रकृति और संसार का पुनस्सृजन है। सामाजिक गतिकी उसकी प्रेरणा है। दूसरे, पुनस्सृजन का गहरा रिश्ता कवि की आंतरिक बनक से भी है। कवि की विश्वदृष्टि उसका सोच यह सब प्रमुख है।(पृ,95)”
       पुस्तक का ग्यारहवाँ अध्याय है- ‘नैतिक आचरण और सौंदर्यशास्त्र’, जो बताता है कि कविता का मामला कवि के आचरण के मसले से भी गहरे जुडा़ है। विजेंद्र जी ने लैटिन भाषा के सौंदर्यशास्त्री होरेस और जर्मन सौंदर्यशास्त्री रिल्के के विचार को लेकर यहाँ कविता के मार्क्सवादी और बुर्जुआवादी, दोनों के आचरणों की विवेचना की है कि किस तरह पंत, अज्ञेय जैसे रुपवादी कवियों की रचनाएं हमारे निराला, नागार्जुन, केदार बाबू, त्रिलोचन, अरुण कमल, एकांत श्रीवास्तव जैसे कवियों की रचनाओं से अलग हैं जिसकी नैतिकता ही उन्हें कमतर महान बनाती है। उनका कहना है कि पूँजी केंद्रित व्यवस्था न केवल कवियों-लेखकों की बल्कि श्रमिक की भी मौलिकता और सृजनशक्ति को नष्ट करती है। वह सब मानवीय उच्च नैतिक मूल्यों को कुचल कर नष्ट कर देती है। ऐसी हालत में जनपक्षधर लेखकों का महत दायित्व है कि वे जनवादी मूल्यों का सृजन करके समानांतर जनसंस्कृति की रचना करें। एक नया सौंदर्यशास्त्र रचें।”
       सौंदर्यशास्त्र के प्रसंग में यह बात बार-बार उठाई गई है, उठाई जानी चाहिए कि मेरे सामाजिक व्यवहार और नैतिक आचरण का गहरा प्रभाव मेरी रचना पर पड़ता है। कबीर ने तो यहाँ तक कहा है किजैसा हम खाते हैं वैसा ही हमारा मन बनता है। जैसा हम पानी पीते हैं वैसी हमारी वाणी होती है। (पृ.109)”
       अगला लेख भाषा और सौंदर्यबोध पर है। यह कविवर विजेंद्र के अनेक मूल्यवान विचारों में से एक है जिसमें भाषा के साथ सौंदर्यबोध के समानांतर उससे तादात्म्य का संधान किया गया है। वे भाषा में गहरी बिंबात्मकता को रचना की गतिशीलता और आवेग-सृजन के लिये जरुरी मानते हैं। इसलिये वे भाषा से रचना में बडी़ जिम्मेदारी का कार्य लेते हैं, वे सिर्फ़ भाषा में ऐसा यथार्थ ही नहीं कहना चाहते जो उन्हें वैचारिक अवधारणाओं से ही परिचित कराये, बल्कि भावबोध के उच्च स्तर पर समाज-सापेक्ष सौंदर्यचेतना और यथार्थपरक संवेदना की भी सृष्टि करना चाहते हैं। उनका विचार है कि “इसी से भाषा की रचनात्मकता के नये क्षितिज खुलते हैं। इससे भाषा के सही रिश्ते की पहचान होती है।… दरअसल भाषा और यथार्थ का गहरा रिश्ता उसके द्वारा सौंदर्यबोध, संवेदना, संस्कृति और अपने समय के संज्ञान का मूर्त स्थापत्य रचे जाने में है।( पृ.122)”
       और भी कई आलेख हैं इस पुस्तक में, जैसे कविता में मूल्यदृष्टि, वस्तु की रुपमयता, भाषा और यथार्थ के आयाम, ‘आखर, अरथ, अलंकृति नाना ,विचारधारा और सांस्कृतिक कर्म, संस्कृति और समाज। इन सभी लेखों में प्रस्तुत विचार वीथियाँ सौंदर्यशास्त्र के विविध पक्षों पर विचार करते हुए जनपदीय-जातीय-लोक सौंदर्यचेतना के विकास में नये प्रतिमान को रचते हुए आगे बढ़ती है। उनका अंतिम विचारलेख तुलसी:जातीय क्लैसिक की पहचानहै जहाँ वे तुलसी की कविता में शिल्प और सौंदर्य को भारतीय कविता का अत्यंत विकसित, बदला हुआ, सार्थक और जातीय स्वरुप पाते हैं जिसकी काव्य-प्रक्रिया और काव्य-प्रतिमान आज भी अनुकरणीय और शलाध्य प्रतीत होते हैं।
       यहाँ मुख्य रुप से यह लक्ष्य किया जाना चाहिए कि अपनी परम्पराबोध के मौलिक,सूक्ष्म ज्ञान से ही विजेंद्र जी काव्य के नये सौंदर्य और प्रतिमान की खोज करते है, उसको दरकिनार कर पाश्चात्य काव्यसौंदर्य के चिंतन से नहीं।
       हम जिस आलोचना-समय में जी रहे हैं,वहाँ हिंदी आलोचना के पास चिंतन की मौलिकता का अभाव है। नये मानक और प्रतिमान रचने के जोखिम उठाने का न तो साहस है हमारे आलोचकों के पास, न बुद्धि-वैभव और न परम्परागत ज्ञान ही। कुछ को छोड़ कर, अधिकतर आलोचकों की स्थिति यह है कि वे अब तक न तो अपने जातीय साहित्य का अवगाहन कर पाये हैं, न पश्चिम को भारतीयता और लोक की कसौटी पर परख पाये हैं। सिर्फ़ भारतीय वाड़मय को एक खंडित मानसिकता से समझने का प्रयास किया गया है, जिस कारण उनके मन में लोक-वस्तु का सम्यक आत्मसाक्षात्कार नहीं हो पाया है। हाँ, उन लोगों ने एक हिंदी-मानस जरुर रचा है, पर समालोचना के समुचित विकास के लिए यह जरुरी है कि अपनी परंपरा को न सिर्फ़ समझा जाय, वरन उसे अपने संस्कृति-सूत्र से जोड़ कर उससे सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन की ऐसी अवधारणा विकसित की जाय जो साहित्य और जन की समृद्धि के काम आ सके। साथ ही श्रम की भाव=भूमि पर जन और लोक की प्रतिष्ठा के लिये मार्क्सवाद के भारतीय संस्करण को विकसित किया जा सके और पश्चिम की उन अतियों की तीव्र निंदा भी, जो हमारे साहित्य को खोखला, वक्र और भावहीन बनाते हैं। ऐसे समय में विजेंद्र जी नई पुस्तक सौंदर्यशास्त्र: भारतीय चित्त और कविताका बड़ा महत्व है, कारण कि उनके पास न सिर्फ़ परम्परा की सही और परिमार्जित विपुल समझ है, बल्कि उससे अपनी कविता को विकसित करने की व्यापक सोच-शैली और पश्चिम की उस सौंदर्यशास्त्रीय अवधारणा की काट भी मौजूद है जो हमें भारतीय चिंतन-क्षेत्र से अपह्रतकर निरे कलावाद-रुपवाद की दुनिया में घसीट ले जाते हैं जहाँ हमारी अपनी समृद्ध विरासत के खो जाने और समकालीनता के जड़ हो जाने का खतरा बराबर बना रहता है। पूरे पुस्तक में उनके काव्य-चिंतन और मीमांसा का पक्ष जितना सप्रमाण, ठोस,तार्किक, सहज और अर्थवान है उतना ही प्रगतिशील और वैज्ञानिक भी है। इससे भारतीय सौंदर्यचिंतन के विकास के नये क्षितिज तो खुले ही हैं, लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र को नई दशा-दिशा भी मिली है और विरासत में हस्तगत परम्परा का भाव समृद्ध हुआ है। साथ ही इसने भारतीय सौंदर्यशास्त्र में गहरे जड़ जमा रही निर्मूल मान्यताओं को झटका दे कर उसमें सकारात्मक हस्तक्षेप भी किया है जिससे भविष्य में जनपदीय साहित्य और लोक-साहित्य के दिन बहुरने के प्रबल आसार नज़र आने लगे हैं। इसीलिए विजेंद्र अपने सौंदर्यचिंतन की उदात्तता के कारण हमें भविष्य के कवि भी लगते हैं।
       जो पाठक जयपुर से निकलने वाली लोकचेतना की बहुप्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका कृति ओर’ नियमित पढ़ते हैं, उन्हें मालुम होगा कि संपादकीय के बहाने विजेंद्र जी भारतीय सौंदर्यशास्त्र पर महत्वपूर्ण कार्य वर्षों से कितने मनोयोग से करते आ रहे हैं ! यह पुस्तक उसी का परिणाम है।
       कुछ दिन पहले मैं देहरादून की मासिक पत्रिका लोक गंगा’ के जनवरी 2008 अंक में समीक्षक रेवती रमण जी की एक समीक्षा पढ़ रहा था। वैसे तो पूरी समीक्षा ही विजेंद्र जी के रचनाकर्म के पार्श्व में जो शास्त्रीयता और सौंदर्यदृष्टि विद्यमान है, उसकी अन्यतम प्रस्तुति लगी, पर जो मन को सबसे अधिक भा गया वे उनके दो विचार हैं जिनका जिक्र यहाँ लाजिमी है। एक तो रेवती रमण जी ने यह कहा कि मेरा खयाल है, हिन्दी के वे पाठक जिन्होंने मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का विधिवत अध्ययन नहीं किया है, संक्षेप में विजेंद्र की इस किताब से अपना एक भावमानस बना सकते हैं। बल्कि यह प्रयास अधिक सर्जनात्मक है। दूसरे किजो कार्य कविता के नये प्रतिमान से अपेक्षित था, विजेंद्र ने उस दिशा में पहलकदमी कर दिखाई है।… एक पंक्ति में यही कहना है कि जो कार्य कविता के नये प्रतिमानके लेखक से अपेक्षित था, विजेंद्र ने चुपचाप कर दिखाया।
       वास्तव में यहाँ इस वक्तव्य के बडे़ मायने हैं। रमण जी वस्तुत: विनयशील भाव से यह बतलाना चाह रहे हैं कि सौंदर्यशास्त्र पर इतना महत्वपूर्ण कार्य पहले ही दिग्गज आलोचकों के द्वारा हो जाना चाहिए था पर आज तक आलोचना के पुरोधाओं का ध्यान शिद्दत और गंभीरता से इधर नहीं गया,या कहें कि पूर्व में रचे गये कविता के प्रतिमान पर अब पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
       खैर, मैं अपने विचार की इतिश्री इस बात से करना चाहूँगा कि विजेंद्र जी के सौंदर्यशास्त्र की इस पुस्तक को पढ़ते हुए न मात्र मेरी कई जड़ धारणाएँ ध्वस्त हुई हैं बल्कि हृदय से यह महसूस हुआ है कि कवियों और कविता के पाठकों के लिये उनकी यह पुस्तक मणिकांचन योगसाबित होगा क्योंकि इस पुस्तक में काव्यसौंदर्य के नये प्रतिमान की गहन खोज हो चुकी है जो विजेंद्र जी के अपने दीर्घ समय की कविता के आत्मसंघर्ष और उसकी विचारणा की कार्यसिद्धि का फल है–
तुमने मेरी काव्य प्रेरणा को
उजडी़ फसलें, उखडे़ पेड़, बूचड़खाने
और भ्रंश चट्टानें छोडी़ हैं।
ओ मेरे कवि
निरझरों के गान कहाँ से लाऊँ
उगती फसल के सूर्योदय
उन्होंने हड़प लिये हैं।
कितनी पीडा़ सह कर
मैंने साँसों की नमी को बचाया है। (ओ मेरे प्रिय जन कविता से/ विजेंद्र)” 
समीक्ष्य पुस्तक:
सौंदर्यशास्त्र : भारतीय चित्त और कविता‘  : विजेन्द्र
अभिषेक प्रकाशन, 5824, जवाहर नगर (निकट शिव मंदिर)
न्यू चंद्रावल, दिल्ली 110007, मोबाईल- 09811167357, 09899274796
प्रथम संस्करण 2006   
पृष्ठ: 196, मूल्य: रु. 350
 

सुशील कुमार 
जन्म-13/09/1964. पटना सिटी (बिहार) में। 
सम्प्रति दुमका में निवास और मानव संसाधन विकास विभाग,झारखंड में कार्यरत|   

शिक्षा-बीएड।

संपर्क  
 हंस निवास, कालीमंडा
हरनाकुंडी रोड, पोस्ट-पुराना दुमका
झारखंड – 814 101

    ईमेल – sk.dumka@gmail.com
    मोबाईल- 09431310216 / 09006740311

‘कृति ओर’ (65-66) के ‘पूर्वकथन’ पर आशीष कुमार सिंह की टिप्पणी

विजेन्द्र जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे ‘कृति ओर’ पत्रिका में अपने पूर्वकथन के लिए भी जाने जाते हैं। इसमें वे अपने बेबाक विचार तत्कालीन समाज राजनीति और साहित्य के मद्देनजर रखते हैं। ‘कृति ओर’ का अधिकांश पाठक वर्ग इसकी प्रतीक्षा ‘पूर्व कथन’ के लिए करता है। इसी ‘पूर्व कथन’ पर हमारे युवा साथी आशीष ने पहली बार के लिए एक टिप्पणी लिखी है जिसे हम आप सब के लिए प्रस्तुत कर रहे है।
 

साथ न होना। छूटेगा उर का सोना…..।
(मध्यवर्गीय कवि नुमा जीव बनाम ‘प्रगतिशीलता’ का तमगा)

आशीष कुमार सिंह

    ‘कृति ओर’ (65-66) हमारे सामने हैं। इस अंक का ‘पूर्वकथन’ काबिले गौर है। इसमें विजेन्द्र जी ने प्रगतिशील आन्दोलन की संघर्षशील परम्परा का पुनर्स्मरण कराया है। इसे पढ़ते हुए हमारे सामने आज के तमाम ‘प्रगतिशील’ बिजूके अनायास कदम-ब-कदम दीखने लगते हैं। मध्यवर्गीय धुंध का प्रसरण करते इन कवि-कहानीकारों की नकली एवं उधारी बौद्धिकता साहित्य जगत के व्यापक हिस्से पर छाई है। ऐसे में निराला-मुक्तिबोध सदृश कवि व्यक्तित्वों की अटूट जनपक्षधरता का स्मरण समयाचीन है। साथ ही ‘मौकापरस्त सड़क छाप’ मध्यमवर्गीय बौद्धिक जमात की खोज-खबर लेना भी जरूरी है।

    जिन दिनों मुल्क में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का दौर दौरा था, मुल्क के कोने-कोने से उठने वाली तमाम आवाजें एक दूसरे की हमराही बन रही थीं। जिनका घुल-मिल स्वर एक समवेत स्वर में ढल कर, जयनाद में, गान में निःसृत हो रहा था। अवाम की आत्मिक ऊर्जा में पर्यवसित होते ये गान मुल्क के हजारों-हजार हृदयों को तरंगित-संवेदित कर रहे थे। आम-अवाम मुक्ति की चाहत में छटपटा रहा था। समूचे मुल्क में यत्र-तत्र-सर्वत्र सफल-असफल प्रतिरोध संघर्षों का क्रम जारी रहा। लहरों के मानिन्द जनउफान का यह क्रम कभी धीमा तो कभी तेज होता बस कि ठहरा नहीं। उतार-चढ़ाव भरे तमाम दौरों के बहुविध रंग-रूपों से, नेतृत्वकारी बुर्जुआ वर्ग की कमजोरियों और क्षमताओं का गहन रिश्ता है। फलतः औपनिवेशिक कोख में पला-बढ़ा यहाँ का बौद्धिक वर्ग जो खास ऐतिहासिक वजहों से आन्दोलनों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा मिलता है, वह अपने ऊर्जावान विगत अतीत का वाजिब ध्वजवाहक नहीं बन सका। उसका जन्मांकित चिन्ह ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करता था जो उसे खण्डित, पराभूत, परमुखापेक्षी, नायकत्व ही प्रदान कर सकता था। वर्तमान से असंतुष्ट व अतीत से विछिन्न कौम पराजय बोध से ग्रस्त नजर आती थी। यह एक तरफ अपने अतीत को तमाम कमियों का भण्डार मानती, दूसरी तरफ वैदेशिक ज्ञान आभा से आतंकित होने के हद तक अभिभूत। यह उसी में ज्ञान का सर्वोत्तम रूप महसूस करता। वहीं एक धारा बिछुड़े अतीत में अपने गौरवशाली क्षणों की खोज-बीन करती हुई अपने पराजय बोध का सामना करती मिलती है। अतीतग्रस्तता व अतीतान्धविरोध का सम्मिलित स्वर जो दोनों रूपों में अपने जमीन से कटे होने के चलते अपने ‘आत्म’ व ‘स्व’ की तलाश ही करते लगते हैं। अपने होने की वजह साबित करने की हरचन्द कोशिश। तथैव हम पाते हैं कि विविध लय व रंगमयी विरोधाभासी व्यक्तित्व हमारे आजादी की लड़ाई का नेतृत्वकारी तबका बनता है। वह चाहे सामाजिक-राजनीतिक ऐरिना में उपस्थित बौद्धिक वर्ग हो या साहित्यिक सांस्कृतिक क्षेत्र में रचनारत कवियों-कलाकारों की आबादी। यहाँ एक सिरे पर स्वामी दयानन्द सरस्वती हैं तो दूसरे पर राजाराममोहन राय। जमीन एक हैं लेकिन दृष्टि और समस्याओं के निदान की दिशा दोनों में अलहिदा है। उग्र राष्ट्रवादी तिलक अपनी ओजमयी आभा के बावजूद अपनी मजबूत दावेदारी पेश करने के लिए अतीत के रणांगन से वीरत्वपूर्ण कृत्यों वाले नायकों का आह्वान करने को विवश हैं। दूसरी ओर गोपाल कृष्ण गोखले हैं जो ‘औपनिवेशिक आधुनिकता’ के रंग में रंगे हुए राजनीतिक रंग मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। शनैः-शनैः भारतीय पूंजीपति वर्ग ज्यों-ज्यों अपना आधार विस्तारित करता है। तदनुरूप उसके चरित्र में परिवर्तन होता चलता है। कालान्तर में समझौता-दबाव-समझौता के रूप में उभरी अलहदा अभिव्यक्तियां एक दूसरे में समाहित होती नज़र आने लगती है। भारतीय मध्य वर्ग की सम्पूर्णतम विकास यात्रा व उतार-चढ़ाव का प्रतिबिम्बन करती कांग्रेस मिलती हैं तो हमें उसके प्रतिनिधि नायक महात्मा गाँधी भी मिलते हैं। जिनमें तिलक की उग्रता, पुनरुत्थानवादी दृष्टि एवं गोखले की धारा एक साथ घुलमिल जाती है। जय-पराजय भरी विगत अतीत का सिंहावलोकन व सम्यक् समाहार आज हमारी फौरी जरूरत है, क्योंकि अतीत का सर्वथा नकार या अनालोचनात्मक स्वीकार दोनों घातक हैं। आज पुनरुत्थान व विपर्यय के घटाटोप से जूझने के लिए भविष्योन्मुखी तार्किक दृष्टि नितान्त जरूरी उपकरण है। साहित्याकाश में अपने डैने पसारे ठण्डी कुत्सित निगाहों से घूरते मध्यवर्गीय कविनुमा जीवों के किंकियांध से निबटने की जरूरत है। यह तभी सम्भव है जब हमारे पास अपनी सम्यक् इतिहास दृष्टि हो व आज के जीवित सवालों से जूझने का माद्दा हो। मूल सवाल पर आने के पहले की यह लम्बी प्रस्तावना इसी योजना का एक हिस्सा है।

    दोस्तों, जिस प्रकार भारतीय राजनीति का विस्तृत वितान बहुरंगी विचार-व्यवहार से पुष्पित-पल्लवित मिलता है  वैसा ही हिन्दी का लेखक जमात कहीं उग्र तो कहीं समर्पणवादी मानसिकता से लैस मिलता है। भारतेन्दु का लेखन हो या मैथिलीशरण गुप्त का। वह कहीं ‘भारत दुर्दशा’ देख कर विलाप करता मिलता है, तो कहीं राजभक्ति में कसीदे पढ़ता नजर आता है। ये राष्ट्रकवि का गौरव वरण करने के साथ ‘हिन्दू पुनरुत्थानवादी’ दिशाबोध से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। यही इनकी विवशता है, यही इनकी त्रासदी भी। हिन्दी साहित्य के कई एक विद्वतजनों ने अंग्रेजों की भक्ति साधना में लीन कवित्व रचते कवियों और उनके राष्ट्रीय मुक्ति की आकांक्षा से संवलित रचनाकर्म पर पर्याप्त रोशनी डाली है। तथैव इस पहलू पर विस्तार से, विधिवत् विचार करने की जरूरत है जिससे राष्ट्रीय नवजागरण व तत्कालीन साहित्य के अन्तर्सम्बन्धों की जांच पड़ताल की जा सके।

    यदा-कदा, समुन्दर की सतह पर प्रवाहमान शान्त जल धाराओं से समुन्दर के अन्तस्तल में हहराती पीड़ामयी हिलकोरों का अंदाजा नहीं लगता। वैसा ही राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में उफनाती-हहराती दबी-कुचली गरीब आवाजें हिलकोंरे मार रही थीं। यह महज ब्रितानी हुकूमत से नहीं वरन् हर प्रकार की दासता से मुक्ति की कामना कर रही थी। इसीलिए इस आबादी का आक्रोश ज्यादा तीखा व वास्तविक वीरत्व का स्वर लिए हुए मिलता है। वह चाहे सन् सत्तावनी क्रान्ति में बढ़-चढ़कर भागीदारी करने वाले किसानों-मजदूरों के बेटे हों या कांधे पर बंदूक ढोते बागी सिपाही हों। राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की लम्बी संघर्ष यात्रा में यही वह जीवन्त धारा है जो हारने के बाद भी पस्तहिम्मत नहीं हुई। वह चाहे क्रमवार चलने वाली तमाम आदिवासियों के ‘ऊलगुलान’ हों, सन्यासी विद्रोह हो या मजदूरों की लड़ाई। जो कमोवेश लगातार तमाम रूपों में जारी रही। जिसने आगे चलकर सड़े-गले मूल्य-मान्यताओं को धता बताते हुए विदेशी हुकूमत को उखाड़ फेंकने वाली उग्र परम्परा भंजक विद्रोही पीढ़ी को पैदा किया, जिनमें राधामोहन गोकुल जी, विष्णु पराड़कर, भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी व राहुल सांकृत्यायन आदि का नाम अग्रगण्य है। जनसंघर्षों की यह वो तापमयी श्रृंखला है जो आज भी हमें गौरवान्वित और आन्तरिक आवेग से आपूरित करती है। जिन दिनों ब्रितानी हुकूमत के विरुद्ध जन-मन की आवाज कविता-कहानी, गीत व नारों में ढल रही थी। आत्मिक ऊर्जा से लबरेज तमाम सृजनधर्मीजनों की एक ही मंशा थी कि यह कुहासा छंटे, ‘सुब्हे आजादी’, हमें जल्दी नसीब हो। गुलामी की बेडि़याँ टूटे। चूंकि गुलामी दोतरफा थी, एक देशी, एक विदेशी। और गुलामी के विरुद्ध जंग भी दोतरफा थी। देश का उत्पादक वर्ग, मेहनतकश वर्ग, जमींदारों की खातिर बेगार भाटते हुए, आए दिन महसूल वसूलते कारिंदों की मार से कराह रहा था। लूट-खसूट कर ऐश्वर्य की मीनारें खड़ी करते, धन पशुओं के खिलाफ नफरत खदबदा रही थी। तभी तो ‘तोड़ती पत्थर’ की मज़दूरिन इस व्यवस्था के प्रतीक ‘अट्टालिका प्राकार’ को ध्वस्त करने का जज़्बा पाले ‘गुर हथौड़ा हाथ’ ले ‘बार-बार प्रहार’ कर रही थी। सामाजिक विषमता के शिकार ‘हीरा डोम’ की अन्तर्वेदना को अन्दर तक महसूस करनेवाले कवियों में अग्रणी महाप्राण निराला ने जाति-पांत, छुआ-छूत का दंश झेलती आबादी का आह्वान किया। समाज की क्रूर विडम्बनापूर्ण जीवन को कथा-कविता का विषय बनाया। उन्होंने यूँ ही नहीं कहा होगा-

    जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ, आओ।
    आज अमीरों की हवेली,
    होगी गरीबों की पाठशाला।
    धोबी, पासी, चमार, तेली
    खोलेंगे अंधेरे का ताला।।

समाज में विषैले वृक्ष के रूप में आच्छादित वर्ण-दंभ को निराला ने अपनी तीखी कटु-उक्तियों का निशाना बनाया। ‘गर्म पकौड़ी व‘ मैं बम्हन का लड़का’ एक तरफ है तो दूसरी तरफ देवी, विधवा, कुकुरमुत्ता आदि रचनाएं हैं जो यथास्थितिवादी समाज व्यवस्था की जड़े उतकने का काम कर रही थी। जाहिर है कि तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक लड़ाई का नेतृत्वकारी तबके का चरित्र दो-रंगा था। निराला जैसे जनता के कवि की नजरों में ‘दो रंगे’ चरित्र वाले कागजी लीडरान खटक रहे थे, वह चाहे ‘मास्को डायलाग्स’ के ‘श्रीयुत गिडवानी जी’ हों या ‘कांग्रेसी बचुआ’। जो गाँधी टोपी धारे आम जनसभा में जमींदारों-साहूकारों का बगलगीर बना दिखता है। किसान-मजदूर आन्दोलनों के प्रति गाँधी, नेहरू व पटेलों का उपेक्षा भाव छुपाए नहीं छुप रहा था। ‘सोये हुए शेरों’ को जगाने से इनकी रूह काँपती थी क्योंकि ये ‘शेर’ आगे तक की यात्रा करते जो इनके लिए, जिनकी नुमाइन्दगी ये नेतागण करते थे उनके हित सुरक्षित न रख पाते। बाबा रामचन्दर दास, स्वामी सहजानन्द सरस्वती सदृश अन्यान्य तमाम किसान नेताओं को तथाकथित बड़े ‘लीडरों’ ने किन-किन मौकों पर धचका दिया, यानि ‘सहयोग’ का वायदा तो किया, सहयोग नहीं किया, यह जग जाहिर है तभी शायद निराला ‘काले-काले बादल आए, न आए वीर जवाहरलाल’ कहने को मजबूर हुए थे।

    निराला का रचना जगत काफी मोड़ो घुमाओ और उतार-चढ़ाव से विन्यस्त है, वैसा ही उनका औदात्यपूर्ण उत्तमता व पराभूत खण्डित व्यक्तित्व है। निराला के अन्तरविरोधी व्यक्तित्व के आइने में आजादी की लड़ाई का वर्ग चरित्र व उसके उन्नति-अवनति रूपों को परखा जा सकता है। यहाँ हम निराला के दूसरे तमाम पहलुओं पर चर्चा करने का लोभ संवरण करते हुए प्रमुखतम पहलू पर ध्यान केन्द्रित कराना चाहेंगे। मुझे कभी-कभी लगता है कि निराला का गद्य व पद्य उस संघर्षमयी वेला का अन्यतम उदाहरण है। इसमें उनके चिंतन की गहरायी व व्यवहारिक कार्य भारों को अमली जामा पहनाने के लिए जो उत्कट आकांक्षा दिखती है वह काबिलेगौर है। निराला का काव्य संग्रह ‘नये पत्ते’ और संस्मरणात्मक रेखाचित्र ‘कुल्लीभाट’ एक साथ रखकर पढ़ा जाय तो उस जमाने की जो तस्वीर उभरती है वह बहुत कुछ बयां कर देती है। यहाँ निम्नतम कोटि के व्यक्ति के व्यक्तित्वान्तरण की जो तस्वीर उभरती है वह तो है ही उससे भी बड़ी बात है तमाम सामाजिक अवरोधों से जूझते एक नये मनुष्य का जन्म। जिसकी आकांक्षा आत्ममुक्ति में नहीं अपने आस-पास की दबी-कुचली आबादी के साथ एकाकार होकर उनमें उजास भरने में है। उसी प्रकार ‘नये पत्ते’, अनागत कल के जिन दुर्निवार बन्धनों को तोड़ना है उनका आगाज करता है। यहीं क्या ऐसा नहीं लगता है कि कुछ एक मायने में दलित मुक्ति की समझौताहीन चेतना जो निराला में परिलक्षित होती है उसके बरक्स प्रेमचन्द थोड़ा कम गहरे में उतरते मिलते हैं? यहाँ सवाल तुलना का नहीं, न ही किसी छोटाई-बड़ाई को साबित करने से है-यह बात महज दीठि की उजास के तौर पर कही जा रही है। बावजूद इसके कि- ‘‘…………..प्रेमचन्द का समग्र साहित्य ही मुक्ति संग्राम की मूलचेतना को बहुत बड़े फलक पर प्रतिबिंबित करता है।’’ (पूर्व कथन, कृति ओर-65-66) सामंती शक्तियों का अनमनीय विरोध और साम्राज्यवादी हुकुमत के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति का प्रखरतम स्वर हमें निराला, प्रेमचन्द, गणेशशंकर विद्यार्थी, राधामोहन गोकुल जी व राहुल सांकृत्यायन सरीखे तमाम रचनाकारों में देखने को मिलता है। इन सभी वरेण्य रचनाकारों का लेखन अपने समय व समाज की मांग से अनुपूरित है, इनका लेखन महज कर्मभर नहीं वरन् जीवन जीने का ढंग-ढर्रा भी है जो कृतसंकल्प होकर बामकसद रणक्षेत्र में उतरते दिखते हैं।

    आजादी के बाद निराला की परम्परा के वाहक के रूप में नागार्जुन, त्रिलोचन, शील व केदारनाथ अग्रवाल का नाम अग्रगण्य है। वहीं गजानन माधव मुक्तिबोध भारतीय जन के स्वप्न भंग यथार्थ व मध्यमवर्गीय जमात के ऊहा-पोह को व्यंजित करने वाले प्रखरतम रचनाकार के रूप में सामने आते हैं। निराला व मुक्तिबोध में प्रत्यक्षतः गर कोई एक बात कामन मिलती है तो वह है अपने समय की नब्ज पर गहरी पकड़, अपने जन पर अविचल आस्था। इसी में इनकी समूची रचना शक्ति निहित है। इन दोनों में ऊपरी तौर पर शिल्प, कला, भाषा में वह निरन्तरता भी नहीं दिखती जैसी सटीक निरन्तरता अन्य जनकवियों व निराला में देखने को मिलती है। यहाँ एक बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि- आखिर क्यों और किन मूलभूत जरूरतों के चलते निराला और मुक्तिबोध दोनों का गद्य-केवल इन्हीं दोनों का गद्य-कई बार कविता में विचार को अमली जामा न पहना पाने का या कविता में अपनी बात अधूरी रह जाने का बायस बनता है। काव्य व गद्य इनके यहाँ एक-दूसरे का पूरक बनकर प्रस्तुत रहते हैं। विचार का तनाव अपने तमाम तन्तुओं के सुलझने व असुलझने के रूप में बरकरार रह जाता है। तनी हुई रस्सी सा यह वैचारिक तनाव हीं ‘अभी न होगा मेरा अंत’ के रूप में है तो कहीं ‘मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं’, के रूप में ध्वनित होता है। ‘मैंने मैं शैली अपनायी’ से ‘आत्मसंभवा’ परम अभिव्यक्ति की तलाश क्या अपने समय के मूलवजूद की तलाश है? अपने काल का द्वन्द्व है या व्यक्ति और समाज के द्वन्द्व की धनीभूत अभिव्यक्ति है? कदाचित यह अपने समय का द्वन्द्व ही है जो बारम्बार अपने वस्तु तथ्य के साथ प्रकट होता है। काव्य और गद्य के बीच की यह आवाजाही इन कविद्वय में बराबर दिखती है। जहाँ सतत आत्मसंघर्ष है। ‘कोशिश करो, कोशिश करो/ जमीन में धंसकर, मनुष्य बनने की कोशिश करो।’ अपने आपको बार-बार वक्त की तुला पर जोखने की ऐसी कोशिशें अन्यत्र कम ही मिलती हैं। इसीलिए हमें ये (मुक्तिबोध व निराला)- ‘‘. . . अन्तर्वस्तु के स्तर पर ही नहीं वरन् काव्य भाषा के स्तर पर भी परम्परा के जिस गहन संवेग और ज्ञानात्मकता से सम्बद्ध कवि हैं वैसा सभी युगों में विरल है।’’ (जीवन सिंह, कृति ओर-51) अपने जन के प्रति यह समर्पण और अपनी चेतना का सर्वोत्तम ‘नये मनुष्य’ बनाने की प्रतिज्ञा उनके कविकर्म का उद्घोष बनकर प्रकट होता है-

हमारे पास
तुम्हारे पास
सिर्फ
एक चीज़ है
बुद्धि का बल्लम है
हृदय की तगारी है
बनाने के लिए भवन
आत्मा के, मनुष्य के नये-नये—

सम्भवतः इसी कारण अपने समय के सवालों से जूझना और फिर-फिर जूझना इनकी पहचान बन जाती है। इनके गहरे भाव-बोध और ‘पार्टनर आपकी पालिटिक्स क्या है?’ का निर्णायक सवाल इन्हें सामान्य से विशेष बना देता है। क्योंकि जो व्यक्ति जितना ही जन-मन के सुख-दुःख से एकाकार होगा उतने ही स्पष्ट भंगिमा में औरों के दोगलेपन व किन्तु-परन्तु भरी दृष्टि को प्रश्नांकित करने वाले नैतिक स्वर से लैस होगा। इन कवियों ने अपनी स्पष्टपक्षधरता की कीमत अलगाव, बहिष्कार आदि तमाम तोहमतों के तौर पर चुकाई। लगातार विरोध। फिर भी अनथक अग्रसर। ‘धिक-धिक जीवन जो सदा पाता ही आया विरोध’। और जहाँ तक मुक्तिबोध के अन्र्तद्वन्द्व को समझने का सवाल है उस पर अति संक्षेप में यही कहना उचित होगा कि उनके रचना जगत में मध्यवर्गीय मानस की पीड़ा और वैषम्य को टटोलने की जरूरत है। बारम्बार जिन यथास्थितियों, विद्रुपताओं की चर्चा वे अपनी कविता में करते हैं वह ‘जन-संग-ऊष्मा से लैस’ हृदय में चल रहे द्वन्द्ध को अभिव्यक्त करती मिलती है। स्वयं के मध्यवर्गीय मानस से टकराने के साथ ही ‘सफलता की गिलौरियां’ खाते हुए सत्तातुर कैरियर बाज जमात को तरेरते हुए कहते हैं कि ‘जो तुम्हारे लिए अन्न है, हमारे लिए विष है’। ‘सफलता’ के ‘चक्करदार’ जीने पर चढ़ने की कीमत कितनी भयावह, कितनी यंत्रणादायी है, यह वही जान सकता है जो मनुष्य बने रहना चाहता है। दो पायों, मानुष जाति के मध्यवर्गीय बेरीढ़ ‘उदरम्भरि’ जीव को धिक्कारते हुए कवि विजेन्द्र की प्रस्तुत काव्य पंक्तियां गौरतलब हैं-

 मैं कई बार
अपने इंसान होने पर
शक करता हूँ
कई बार
बेवजह पेट के बल रेंगता हूँ
मैं कौन से वर्ग समूह का नुमायंदा हूं।

    यहाँ चचा गालिब अनायास स्मरण में आ जाते हैं। जब वे ‘इंसा’ बने रहने की मुश्किलातों को बयां करते नज़र आते हैं। थोड़ी-थोड़ी सहूलियतों व सुविधाओं को सहेजने के लिए ‘ईमान बेचते फिरते’ लिक्खाड़ो की खोज खबर लेते हुए ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के निम्न दो उद्धहरण बेहद मौजू हैं- ”अगर मैं उन्नति के उस जीने पर चढ़ने के लिए ठेलमठेल करने लगूँ तो शायद मैं भी सफल हो सकता हूँ। लेकिन ऐसी सफलता किस काम की जिसे प्राप्त करने के लिए आदमी को आत्म गौरव खोना पड़ें, चतुरता के नाम पर बदमाशी करने पड़े, शालीनता के नाम पर बिल्कुल एकदम सफेद, झूठी खुशामदी बातें करनी पड़ें। जिन व्यक्तियों को क्षण भर टालरेट (सहन) नहीं कर सकते, उनके दरबार का सदस्य बनना पड़े। हाँ, जो लोग यह सब कर लेते हैं, वे अपनी यशोपताकाएँ फहराते हुए घर में लौटते हैं और कितने आत्मविश्वास से बात करते हैं। मानो उन्हीं का राज्य है। बहुरूपिया शायद पुराना हो गया। लेकिन उनकी कला इनदिनों अत्यन्त परिष्कृत होकर भभक उठी है।” और ऊपर और ऊपर जाने की ठेलमठेल में जो लगे हैं उनकी स्थिति पर मुक्तिबोध कहते हैं कि – “उन्नति की तिमंजिल इमारत में घूम कर ऊपर तक जाने के लिए सिर्फ़ एक ही जीना है, वह भी चक्करदार। उस पर बहुत भीड़ है। बड़ी ठेलमठेल है। लेखक कहता है मैं उसके साथ रहूँगा, उसके साथ नहीं। लेकिन परिस्थिति ने उसको यह विकल्प दिया ही कहाँ है? वह परिस्थिति से जबरदस्ती यह विकल्प लेना चाहता है। इसका परिणाम यह होता है कि ठेलमठेल करती हुई भीड़ के नीचे वह कुचला जाता है या उस इमारत से बाहर उसको एकदम जाना पड़ता है; या वह ठेल दिया जाता है और साधारणतः ऐसे लोग अपनी वर्ग श्रेणी से गिरे हुए होते हैं। वर्ग-श्रेणी से गिरे हुए मनः स्थिति हमेशा खराब रहती हैं …………..।”

    इस प्रकार ‘पूनो की चाँदनी’ में विचरण करते, करने को आतुर मध्यवर्गीय रचनाकर्मियों की मुक्तिबोध तिक्त-कटु आलोचना करते हैं। साथ स्वयं की वर्गीय कमजोरियों से सतत संघर्ष भी करते हैं। कभी-कभी यह आत्मसंघर्ष हमें निराला के द्वन्द्व का विकसित रूप लगता है-‘साथ न होना। गाँठ खुलेगी, छूटेगा उर का सोना। साथ न होना।’ इसे उन लोगों-जिनने जनता का पक्ष चुना है- को ताकीद करता बयान भी कह सकते हैं।

    आज के कठिन और बेहद ठण्डे दौर में जब प्रगति पर ठहराव की शक्तियां हावी हैं.  पूंजी के बूटों तले श्रम कुचला जा रहा है। मुक्तिकामी संघर्ष की लौ थोड़ी मद्धिम पड़ी है। ऐसे में ही ‘ज्ञान भिन्न, कुछ क्रिया भिन्न’ की मानसिकता से ग्रस्त तमाम मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय पिद्दी पहलवान साहित्य-समाज के मुख्य ध्वजवाहक बन बैठे है। ये ‘प्रगतिशील’ अपने कर्म-व्यवहार में इतने ओछे हैं कि इनमें विगत काल की जाज्वल्यमान प्रगतिकामी परम्परा की छाया भी नज़र नहीं आती। अखबार की कतरनों में नाम तलाशते, किसिम-किसिम की गोटियाँ भिड़ाते, गोष्ठी दर गोष्ठी मुखौटे बदलते इन लिक्खाड़ों की स्थिति देखकर महज हँसा ही जा सकता है। यह साहित्य समाज के रथ पर सवार बहरूपिया है बौद्धिक तौर पर बौना है, कर्म व्यवहार में विदूषक है। जो भाँति-भाँति का बाना धारण कर अपनी अर्थवत्ता साबित करने में मुब्तिला है। नयी पीढ़ी को अपने चौक-चमत्कार से दिग्भ्रमित ही कर सकता , रोशनी नहीं दे सकता क्योंकि इसके दिये का तेल चुका गया है।

    ऐसे चुनौती पूर्ण समय में जनजीवन की हालात को बदलाव की दिशा में मोड़ने को कटिबद्ध सृजनकर्मियों का दायित्व बढ़ जाता है। नयी वस्तुगत सच्चाइयों को उभारने के साथ-साथ तमाम उग आई खर-पतवार की साफ-सफाई जरूरी है। गुजरे अतीत पर निगाह डालते हैं तो हम पाते हैं कि ”लेखकों ने मुक्तिसंग्राम में संघर्षरत अपने तत्काल पूर्व के लेखकों द्वारा बनाई गई संघर्षधर्मी परम्परा को विकसित किया। उसे धारदार बनाया। सही दिशा दी। अग्रगामी साहित्य की प्रक्रिया को सुनिश्चित कर और आगे बढ़ाया।“ (विजेन्द्र) उस दौर के जीवन-रस के भरपूर रचनाकार ‘सुर्ख सबेरा’ लाने की जद्दोजहद में , ‘नए गगन में, नया सूर्य’ उगाने की आशा में आहलादित मिलते हैं। यहाँ नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, शील आदि बहुविधि रूप में जन-आलोड़न-विलोड़न में गोता लगाते अपनी कविता की धार को पैनाने में लगे रहे। इनसे इतर ‘औपनिवेशिक आधुनिकता’ से खाद-पानी ग्रहण करती जन-जीवन से दूर आत्ममुग्ध कवि जमात के झण्डाबरदार सामने आते हैं। कदम-दर-कदम नफासत तलाशते फूँ-फाँ करते इन मध्यवर्गीय कवियों की मुक्तिबोध ने अच्छी खोज-खबर ली है। जरा सोंचे कि रघुवीर सहाय जैसों की मध्यवर्गीय पिनपिनाहट और धूमिल के महज नकारवादी बयानों का कोई न कोई तो आत्मगत-वस्तुगत कारण होगा? इनकी वर्गीय कमजोरियों व सीमाओं की इन्दराजी करने के बजाय नयी कविता के सुविज्ञ आलोचक इनसे ही  ‘नयी कविता का प्रतिमान’ गढ़ने का काम लेने लगे। आखिर क्यों? अभिजात्यपूर्ण सादगी की इस रूपवादी व्याख्या में सब ‘अहो रूपम, अहो धन्यम’ ही है इसके अलावा ‘कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं’। साहित्य में प्रगतिशीलता का बाना ओढ़े यह दृष्टि बुर्जुआ दृष्टि है, सर्वहारा दृष्टि नहीं। जो प्रतिगामी विचार का वाहक बनती है। जबकि ”हर जाति के सांस्कृतिक रूप के समानांतर उसका एक संघर्षधर्मी रूप भी होता है। पर बुर्जुआ अपने हित के लिए उसके मनोरंजक रूप को सामने लाता है। संघर्षधर्मी रूप को नहीं। प्रगतिशीलता या जनवाद बिना ‘लोक’ के क्रियाहीन और निष्प्राण होंगे।“ (विजेन्द्र) वस्तुतः गर कोई रचनाकार अपने दौर की वास्तविकताओं का सामना करने से झिझकता है, वास्तविक इतिहास निर्मात्री शक्तियों को स्वीकारने की बजाय तमाम किन्तुओं-परन्तुओं का धूम्रावरण खड़ा करता है, ऐसी कोई भी रचना कितने ही सुन्दर शिल्प के कलेवर में प्रस्तुत की जाये हमारे किस काम की!

     दरअसल जब हम अपने समय की चुनौतियों से दो-चार होते हैं, तो सामाजिक अन्तरविरोधों व वर्गीय टकराहटों के मूल मन्तव्यों को खंगालने की कोशिश करते हुए हमें अपने अन्दर भी झांकना पड़ता है, आत्मिक जगत की हलचल हमें उद्धेलित करती है। यह उद्वेलन परस्पर हितों की टकराहटों के समाज की प्रतिच्छाया या प्रतिध्वनि होती है जिसकी अनुगंूज साहित्य में प्रवहमान होती है। चूंकि हर रचनाकार किसी न किसी वर्ग की छाप लिए होता है। उसकी वर्गदृष्टि व्यापक सामाजिक बदलाव की ओर क्रियारत भविष्योन्मुखी शक्तियों के पक्ष में है या निहित संकुचित वर्गीय क्रोड में आबद्ध। यही वह द्वन्द्व है जो लेखन में अपना अक्स छोड़ता है। यहीं वह अपना पक्ष तय करता है जाने या अनजाने हम जानते है कि जिन साहित्यकजनों का पेण्डुलम सतत दोलायमान है, ढुलमुलयकीनी है वे ही अधिकांशतः कला, रूप और शाश्वत साहित्य का राग अलापते पाये जाते है। जिन्हे कला-शिल्प व शब्द के गंुजलक में न इधर न उधर होने का भ्रम रचते ‘सचमुच’ का ‘सच’ कहने का आनन्द प्राप्त करते पाया जा सकता है। ‘तटस्थ’ दृष्टा’। ऐसे तमाम जीवधारी ‘प्रगतिशीलों’ की जमात में ‘काँख भी दबी रहे, मुट्ठी भी तनी रहे’ की भंगिमा बनाए मिल सकते हैं। ये आत्म स्वीकार व समर्पणवादी जिरह करते-करते, जो है नहीं, उसके लिए रोते-झींकते हैं। इन कवियों में हम केदार नाथ सिंह, असद जैदी, अनामिका और संजय चतुर्वेदी जैसों को नामांकित करें तो कोई गुनाह नहीं है। पलायन जीवी, इन कवियों और उनके मुरीद आलोचकों की वर्ग-दृष्टि का विश्लेषण किया जाना चाहिए। क्योंकि आज इन ‘प्रगतिशीलों’ के हाथों में दिशाबोधक जलती मशाल नहीं धुंवाती लुकाठी है जो हमारी निगाहों में महज धुंध ही भरती है। प्रगतिशील साहित्य की विकासमान परम्परा का वह हिस्सा जो क्षरित-विघटित होते-होते सड़े बीमार विचारों का प्रसारक बन गया है। उनका संगी-साथी बनना आत्मघाती है। तथैव ”प्रगतिशील जनवादी महान गौरवशाली संघर्षशील परम्परा को पुनः व्यापक तथा असरदार बनाने के लिए हमें ‘प्रगतिशील पुनर्जागरण’ की बेहद जरूरत है। ………… हमें अपनी संघर्षशील जनता की अपराजेय शक्ति पर भरोसा करने के लिए उससे एकात्म होना जरूरी है।” (विजेन्द्र)

 परिचय-

आशीष कुमार सिंह

30 जुलाई 1977 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म।
हिन्दी साहित्य से एम.ए. करने के बाद सामाजिक-राजनीतिक  बदलाव की मुहिम में अपनी भा
गीदारी शुरू की।
मूलतः सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता की भूमिका का निर्वहन करते हुए छिट-पुट साहित्यिक लेखन। ‘जनचेतना’ से संबद्ध।

सम्पर्कः

आशीष कुमार सिंह
ई-2/653, सेक्टर-एफ
जानकीपुरम, लखनऊ-226021

मो0नं0- 08739015727  
ईमेलः singhk.ashish@yahoo.com

विजेन्द्र की कविता ‘ओ एशिया’ पर अमीर चन्द वैश्य का आलेख


यह विडम्बना ही है कि दुनिया का सबसे बड़ा महाद्वीप होने के बावजूद एशिया एक लम्बे समय से साम्राज्यवादी शक्तियों के उत्पीड़न का शिकार रहा है। पहले यूरोपीय शक्तियों ने एशिया के देशों को गुलाम बना कर शोषण किया और अब अमरीका अपने निहित स्वार्थों के चलते एशिया के ही विभिन्न हिस्सों कभी ईराक, कभी अफगानिस्तान तो कभी ईरान को अपना शिकार बनाता रहा है। एशिया का पश्चिमी हिस्सा जिसे हम ‘मध्य-पूर्व’ के नाम से जानते हैं आज भी इन शक्तियों के उत्पीडन का शिकार होता रहता है। लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं। विशेषज्ञों की राय है कि इक्कीसवीं सदी एशिया के वर्चस्व की सदी होगी। भारत और चीन जैसे देशों ने आर्थिक स्तर पर अपने को बड़ी शक्तियों में शामिल कर लिया है। आज उनकी उपेक्षा कर सकना संभव नहीं है। जापान पहले से ही विश्व राजनीति और अर्थव्यवस्था में अपनी अग्रणी भूमिका निभाता आ रहा है। इसी एशिया को ले कर वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने एक लम्बी कविता ‘ओ एशिया’ लिखी है। दुर्भाग्यवश यह कविता आलोचकों के नज़रों से एक लम्बे समय ओझल रही। वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य ने इस कविता पर हमें पहली बार के लिए एक लंबा आलेख लिख भेजा है। दस जनवरी को विजेन्द्र जी के उन्यासीवें जन्मदिन के अवसर पर उन्हें बधाईयाँ देते हुए जन्मदिन विशेष की दूसरी कड़ी में हम प्रस्तुत कर रहे हैं अमीर जी का यह आलेख ‘विजेन्द्र की सर्जना का शतदल कमल’
विजेन्द्र की सर्जना का शतदल कमल
अमीर चन्द वैश्य
                

वरिष्ठ कवि विजेन्द्र द्वारा रचित चार लम्बी कविताओं कठफूला बाँस’ (1977), ‘संवाद स्वयं से’ (2011), ‘ओ एशिया’ (2012), और कौतूहल’ (2013) का संकलन सन् 2013 में प्रकाश में आया है। संकलन का शीर्षक है कठफूला बाँस। विजेन्द्र सन् उन्नीस सौ सत्तर के दशक से यथार्थमूलक एवं लोकधर्मी लम्बी कविताओं की सृष्टि करनते रहे हैं। आज भी कर रहे हैं। सन् 1974 में प्रकाशित जनशक्तिऔर सन् 1977 में पक्षपत्रिका में प्रकाशित कठफूला बाँसविजेन्द्र की प्रारम्भिक एवं महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं। इन्हीं कविताओं के नाम से उनके दो संकलन प्रकाश में आए हैं। दोनों में लम्बी कविताएँ संकलित हैं।

कठफूला बाँसमें संकलित पहली-दूसरी कविताओं पर आलेख लिख चुका हूँ। इस आलेख में तीसरी कविता ओ एशियाका वैशिष्ट्य समझने-समझाने के प्रयास किया गया है।

सेवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए हैं। दुनिया एक ध्रुवीय हो गई है। अब साम्राज्यवादी अमरीका का वर्चस्व बढ़ गया है। अपने समय और समाज के प्रति जागरूक कवि विजेन्द्र ने वर्तमान विश्व को एक ध्रुवीयता से बचाने के लिए एशिया को दूसरी महाशक्तिके रूप में रूपायित करके मांगलिकता के लिए बेहतर भविष्य की कल्पना की है। शिवेतरक्षतयेकाव्य-प्रयोजन के समर्थक विजेन्द्र की यह कविता सुखद स्वप्न है, जो भविष्य में साकार हो सकता है। वह एशिया महाद्वीप को संगठित रूप में देखना चाहते हैं। इससे अमरीकी साम्राज्यवाद का विजय-रथ रुक सकता है। अतः वह एशिया को जगाते हुए सम्बोधित करते हैं-
                                ‘‘ओ एशिया के विशाल महाद्वीप तुम जागो
                                दुनिया देखती है तुम्हारी तरफ, जागो
                                बोलने दो लाखों कंठों को एक साथ
                                ये दबी-कुचली आवाज़ें धरती के गर्भ में
                                क्या कहना चाहती हैं
                                उन्हें सुनो
                                उनका उत्तर दो
                                उन्हें भरोसा दो
                                ज्योतिस्तम्भ बुझे पड़े हैं
                                कहाँ है वो रोशनी
                                तुम्हारी छिपी विद्रोही तड़प।   (कठफूला बाँस, पृ0 91, 92)
ज्योतिस्तम्भविजेन्द्र का प्रिय बिम्ब है। लेकिन वह बुझा पड़ा है। अतएव अंधकार का साम्राज्य है। यह अँधेरा क्रूर पूँजी के वर्चस्व के कारण परिव्याप्त है। मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता का शीर्षक सभी जानते हैं। उन्होंने अपने जीवन-काल में सभ्यता-समीक्षा करते हुए अँधेरे मेंआशंका के अनेक द्वीप देखे थे। आशंकाओं के द्वीप कम नहीं हुए हैं। विजेन्द्र भी अपने समय-समाज में पसरे हुए अँधेरे को देख-देख कर गहरे सोच में डूब जाते हैं-
‘‘ये अंधेरा कब छटेगा
सभी तो लगते हैं एक से
पथ-क्षीण, पथ-भ्रष्ट
केले का पात ढुल-मुल
देखा एक दिन कुछ कवियों को
उड़ते पतझरे पत्तों की तरह हवा में
मेरी तरफ देख कर वे हँसे
उनकी आँखों ने बताया
कहते हों जैसे पड़े रहो इस खल्लड़ में
गढ़लीकों में
डामर पुते राजमार्ग जाते हैं राजभवनों में।’’ (पृ0 92, 93)
इस काव्यांश में विजेन्द्र का साधक कवि-व्यक्तित्व झलक रहा है, जो सत्ता-समर्थक कवियों/लेखकों पर व्यंग्य का प्रहार भी है। खल्लड़बदायूँनी बोली का शब्द है। यह लोहे से बनता है। मिर्च-मसाला कूटने के काम में आता है। आशय यह सच्चे कवि को कष्टों में पड़े रह कर विरोधियों के प्रहार झेलने पड़ते हैं। सत्तामुखी कवियों/लेखकों की प्रखर आलोचना करते हुए शमशेर ने भी कहा था-
‘‘ राह तो इक थी हम दोनों की
आप किधर से आए गए
हम जो लुट गए पिट गए
आप जो राजभवन में पाए गए।’’
विजेन्द्र ने भी शमशेर के समान राजभवन का त्याग करके अपना सम्पूर्ण जीवन काव्य-सर्जना के लिए समर्पित कर दिया है। अपनी प्रत्येक साँस कविता के लिए अर्पित कर दी है। अपने समय-समाज की गहरी पीर आत्मसात करके कहा है-

‘‘अकेला, बिल्कुल अकेला
समूह में बजती हैं एकान्त की सुनें
सुनता हूँ अपने अन्दर बजती
धातुक खनक
समुद्र-लहरों में हिलती-डुलती प्रवाल भित्तियाँ
गहरे त्रास का ध्रुपद
दुखती उदासी का मालकोश
शोकाकुल उठते हैं चाहे जब दर्द के
तिरछट आरोह-अवरोह
जलतरंग ढलते सूर्य का
सुनता हूँ अँधेरे गर्त में।’’ (वही, पृ0 93)

यह काव्यांश पढ़ कर पाठक अनायास समझ सकता है कि कवि विजेन्द्र ने दलित-शोषित मानवता की वेदना आत्मसात कर ली है। अपने अभिजात व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर लिया है। वह स्वयं को नदी का द्वीपन मानकर जन-गण की दुख-धारा में प्रतिपल बहना चाहते हैं। अन्य सत्तामुखी कवियों के समान वह प्रदूषित धारा में बहना नहीं। अपने बारे में वह लिखते हैं-

‘‘ यंत्रणाएँ झेलने से ही बनी है
मेरी चित्त भूमि उर्वर
$ $ $ $ लाल पत्थरों की खदानों के खाली पेट
शाम के झुटपुटे में
लौटते खनिक बुझी-बुझी आँखें लिये
पत्थरों की खुरदरी देह पर
खिंची-तिरछी गहरी खपारें
कहाँ हो तुम
आओ मेरे पास साम्राज्य का खुलना जबड़ा
निगलना चाहता है मेरे देश को
राजभवन से उतर कर
इन्हें देखो
यहाँ आओ जनता के बीच।’’ (पृ0 95)

फिर एक और सवाल सामने आकर खड़ा होता है। आखिकर साम्राज्य का खुला जबड़ाका बिम्ब किसकी ओर संकेत कर रहा है। अमरीकी साम्राज्यवाद की ओर? हाँ, अमरीका ही सम्पूर्ण विश्व पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है।

इसीलिए विजेन्द्र अपनी कविता में साम्राज्यवाद का मुखर विरोध करते हैं। ऐसा प्रखर प्रतिरोध उनके हम उम्र बड़े कवियों के काव्य में लक्षित नहीं होता है। हाँ, इतना ज़रूर है कि विनोद कुमार शुक्ल अपनी कुछ कविताओं में श्रमशील जनों के पसीने पर दृष्टिपात अवश्य करते हैं, लेकिन मुक्ति-संग्राम के हेतु उन्हें संगठित होने के लिए प्रेरित नहीं करते हैं। शुक्ल-काव्य में अमूर्तन और कलात्मक चमत्कार भी कम नहीं हैं। आचार्य शुक्ल कविता में चमत्कारवाद का विरोध किया करते थे। यदि आचार्य शुक्ल हमारे मध्य में होते तो वह विजेन्द्र-काव्य के पक्ष में खड़े होते। क्यों। इसलिए कि विजेन्द्र काव्य की प्रधान भावना मानवीय करुणा है, जो लोक की रक्षा करती है। शुक्ल जी के प्रिय कवि तुलसी के लोक-नायक राम की करुणायतन हैं। खिन्नजन उन्हें परमप्रिय हैं। लोक-मंगल की स्थापना के लिए वह प्रबल खलनायक का संहार करते हैं। उनका सात्त्विक क्रोध कालाग्नि के सदृश हैं।
आज के कवि विजेन्द्र अपनी उपर्युक्त परम्परा का अनुसरण समकालीन वर्गीय जीवन-दृष्टि से करते हैं। सामाजिक गतिकी की आलोचना करके श्रमजीवी वर्गों के प्रतिनिधि साधारण जनों-श्रमिकों-कृषकों को अपना काव्य-नायक मानकर उन्हें रूपायित करते हैं। वह मानते हैं कि संस्कृति का सौन्दर्य श्रम पर निर्भर हैं। उन्हें यह धरती कामधेनुसे भी अधिक प्यारी लगती है। अतः वह कहते हैं-

‘‘जहाँ भी गया धरती ने बुलाया
बड़े दुलार से
बीज बोने को
रोपने को धान
जब हल ने उसके वक्ष को चीरा
वह न कराही
न चीखी, न चिल्लाई
अँधेरे में फाड़ती रही अपने रोयें
$ $ $ $
देखा तपते किसान का कठोर तँबई चेहरा
जल, हवा, हिम, धूप, छायाएँ
जोतते रहे वे घटित गोखरू क्षण
मेरे चित्त के दोआबा को।’’ (पृ0 96)

यह है सच्चा और निश्छल अनुराग अपनी धरती के प्रति कवि का।

                विजेन्द्र की मान्यता है कि समुद्र की अथाह गहराई और धरती के गर्भ में जो अपार सम्पदा विद्यमान है, उसकी खोज श्रमीजन ही करते हैं। लेकिन लोभी पूँजी उसका विदोहन अपने स्वार्थ के लिए करती है। अतः वह आत्मविश्वास भरे सुर में कहते हैं-

‘‘अधिरचना में खोजता हूँ रजकण, रेखे, पुंसकेसर में झाँकता भविष्य
सुन्दर विश्व का स्वप्न
बिना जनता के बल सम्भव कहाँ
समुद्र की कोख में छिपी
अंतरंग जलधाराएँ
फणिधर लहरें पटकती सिर
आदिम विशाल चट्टानों पर
 $ $ $ $ सत्य की शक्ल क्या देखी तुमने
उसका रंग जागते अफ्रीका जैसा
उसका चेहरा
धमनपट्टी के आगे खड़े श्रमी का
उस की चमकी आँखें
उसे ढका है झूठे पाखण्ड से।’’ (पृ0 97)

                प्रबल जन-शक्ति के प्रति आस्थावान् विजेन्द्र अपने जनपद- अपने देश, अपने प्राकृतिक परिवेश के प्रति अनुरक्त रहते हुए शोषण से पीड़ित विश्व के अन्य देशों के प्रति अपनी हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। उनकी उर्वर चित्त-भूमि अत्यंत्य व्यापक है। अतः अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए वह कहते हैं-

‘‘जलता है मध्य पूर्व
लीबिया का विक्षोभ
सिर उठाता नव फासीवाद योरुप में
ओह क्यों चुप हैं
जल-विज्ञानविद्
क्यों नहीं रोक पाते
नदियों का प्रदूषण
सूखते जाते उनके स्रोत
क्यों बनती जातीं
रक्तवाहिकाएँ गन्दी नालियाँ।’’ (पृ0 98)

                कहते की आवश्यकता नहीं है कि उपर्युक्त ज्वलंत प्रश्न विजेन्द्र की कविता को समय-समाज और जीवन के बड़े सरोकारों से जोड़ते हैं। उनकी चिन्ता स्वाभाविक है। मानवता के मंगल के लिए।

                विजेन्द्र की यह सुदृढ़ मान्यता है कि अब 21वीं सदी मार्क्स की है। लोग वर्तमान दौर के शोषक पूँजीवाद और साम्राज्यवाद से ऊब गए हैं। वे बदलाव चाहते हैं। इसलिए अब विरोध में आवाज़ बुलन्द होने लनगी हैं। विरोध करने के लिए हाथ एक साथ उठने लगे हैं। भारत में बुनियादी परिवर्तन के लिए मजदूरों और किसानों के मजबूत गठबंधन की परम आवश्यकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि विजेन्द्र की कविता के केन्द्र में यही दोनों उत्पादक वर्ग हैं। केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता में डंके की चोट पर यह घोषणा की है कि यह धरती उस किसान की है, जो इसे जोतता है। बीज बोता है। और फसल उगाता है। विजेन्द्र ने अपने इस अग्रज कवि की मान्यता स्वीकारते हुए लिखा है-

‘‘ओ जलधर
किया है तुझे किस ने नग्न भूमिहीन
बोलो, बोलो, बोलो
संगठित जवान बोलो
कौन छीनता है
तुम्हारा आत्मीय भेस
कौन हड़पता है
तुम्हारी भूमि
पहचाना उसे हिये आँख से भी
कौन छीनता तुम से
तुम्हारी मातृभाषा
जनपदों की रससिक्त अनुगूँजें।’’ (पृ0 98)

                उपर्युक्त काव्यांश में ओजपूर्ण प्रश्नात्मक शैली के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लूट एवं अपसंस्कृति की प्रखर आलोचना की गई है। विदेशी पूँजी ने स्वदेशी वस्तुओं और स्वदेशी भाषाओं को किनारे कर दिया है। बड़े-बड़े कारखानों के निर्माण अथवा भवन-निर्माण के लिए किसानों की भूमि मिट्टी के भाव खरीद कर सोने के भाव बेची जा रही है। भारत में भूमि अधिग्रहण का वही कानून काम कर रहा है, जो ब्रिटिश शासकों ने पारित किया था। अब प्रखर विरोध के बाद वह पुराना कानून समाप्त करने की बात की जा रही है। देखना तो यह कि नया कानून कब और केसे लागू किया जाएगा। यहाँ यह बात याद रखना अनिवार्य है कि जब तक सम्पूर्ण भारत में भूमि-वितरण न्याय संगत ढंग से नहीं होगा, तब तक किसान बदहाल रहेगा। याद कीजिए कि बिहार में भूमि-हीनों को कितनी बार भूस्वामियों की सेना ने मौत के घाट उतारा है। समाज में समानता का प्रसार करने के लिए सम्पत्तिपर नियंत्रण परम अनिवार्य है।

                वर्तमान पूँजीवाद का विरोध उस अमरीका में भी हो रहा है, जो सम्पूर्ण विश्व को एक ध्रुवीयबनाना चाहता है। वहाँ के लोग भी अब बेहतर व्यवस्था की कामना करने लगे हैं। मंदी के दौर ने वहाँ हजारों लोगों को बेरोजगार कर दिया। और अब तो अमरीका और बड़े संकट से गुज़र रहा है।

विजेन्द्र शोषित जनों से खिन्न होकर पूछते हैं-

‘‘क्यों, क्यों, क्यों
नहीं बोल पाते खरी भाषा
अमरीका की जनता प्रदर्शन करती है वालस्ट्रीट पर
क्यों डरते हो सत्य बोलने से, बोलो
पथरीला सन्नाटा टूटता है
बोलने से।’’

                कौन नहीं जानता है कि विश्व में शान्ति और सौहार्द परम अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं है तो प्रत्येक वर्ष अक्टूबर महीने में शान्तिके लिए नोवोल पुरस्कार की घोषणा क्यों की जाती है। शान्तिको खतरा है परमाणु युद्धसे। ऐसा युद्ध सम्पूर्ण विश्व विनष्ट कर देगा। कौन है वह जो युद्धके लिए पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। उत्तर है आयुध-व्यापारी साम्राज्यवादी राष्ट्र, जिनमें अमरीका अग्रगण्य है। अपार धनराशि विनाशक अस्त्रों के निर्माण पर व्यय की जाती है। यदि एशियासंगठित हो जाए तो आयुध-व्यापार पर अंकुश लगा सकता है। विश्व मानवता की सुरक्षा के लिए यह सामूहिक प्रयास अनिवार्य है। कवि विजेन्द्र कविता के माध्यम से यही संदेश देना चाहते हैं-

‘‘विश्वविनाशक आयुधों का व्यापारी
थोपना चाहता है युद्ध
शान्तिप्रिय देशों पर
पहचानो एशिया की शक्ति का तुमुल घोष
पहचानो साम्राज्य के ऋण में छिपी
संज्ञामारक कूटनीति
 $ $ $ बढ़ते जाते हैं अमरीकी सामरिक अड्डे हर जगह।’’ (पृ0 99, 100)

                इतिहास साक्षी है कि भारत में जन्मे महात्मा बुद्ध के शिष्यों ने दक्षिण एशिया में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। चीन और जापान बौद्ध धर्म के प्रमुख अनुयायी हैं। भारत ने ही शान्ति-सन्देश विश्व के कोने-कोने तक फैलाया है। मानवता का यह उज्ज्वल इतिहास पुनः दुहराया जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि आदिमानव ने जांगलिकता से मांगलिकता की ओर प्रयाण किया है। आर्थिक विषमता शक्तिशाली राष्ट्र को प्रेरित करती है कि वह अपने स्वार्थों के लिए दुर्बल राष्ट्रों को गुलाम बनाए अथवा अपना उपनिवेश। इसी भाव-भूमि से सम्बन्धित एक कविता गिरिजाकुमार माथुर ने भी लिखी है- एशिया का जागण24 मई, 1946 को रची गई इस लम्बी कविता में माथुर जी ने अपना आक्रोश इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-

‘‘मेरी छाती पर रखा हुआ
साम्राज्यवाद का रक्त कलश
मेरी छाती पर फैला है
मन्वन्तर बनकर मृत्यु दिवस।’’

                उस समय ब्रिटिश साम्राज्य का वर्चस्व छाया हुआ था। कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। लेकिन काल-चक्र ने उसका सूर्यास्त कर दिया। अतः माथुर जी ने कविता के अन्त में कहा है-

‘‘मुड़ गए समय के चपल चरण
आया कृतान्त बन मुक्ति काल
मिट्टी का हर कन सुलग उठा
जल उठी एशिया की मशाल।’’
(मुझे और अभी कहना है, पृ0 78)

जागरूक कवि विजेन्द्र आज के सम्पूर्ण विश्व का परिदृश्य देखकर श्रमजीवियों को उद्बोधित करते हैं-

‘‘अनुप्राणित हैं अरब देश
देख कर
मिस्र और ट्यूनिशिया के जनविद्रोह
जागो कोलम्बिया, जागो
लैटिन अमरीका का नया सूर्योंदय देखो।’’ (पृ0 101)

                इस उद्धरण से स्पष्ट है कि विजेन्द्र की कविता राजनीति-सापेक्ष है। हिन्दी के अन्य कवियों के समान राजनीति-निरपेक्ष नहीं है। वह तटस्थ कवि नहीं हैं। हिन्दी के तथाकथित बड़े कवियों के समान। वह विदेशों के जन-विद्रोहों का स्वागत करते हैं। और अपने जनपदीय श्रमजीवियों को, जो पत्थर तोड़ा करते हैं, निकट से देखकर उनके जीवन की व्यथा-कथा अंकित करते हैं-

‘‘अतीत का पका खनिज
मेरी रिक्त निर्जनता कभरता रहा है
मैंने देखे बंधबरौठा की
लाल पत्थर खानों के खाली पेट
बुझी आँखें
इन्होंने पी ली हैं श्रमियों की सृजन शक्ति
ये हर रोज़ माँगती हैं नया खून
नया पसीना।’’ (पृ0 101, 102)

                विजेन्द्र उस पस्तहिम्मत कविको समझाते हैं कि वह साम्राज्यवादियों के कुचक्र और षडयंत्र समझे। वह अपनी कविता में श्रम-सौन्दर्य की सृष्टि करे। इतिहास हमें यही सिखाता है कि श्रम-बल से सभ्यता और संस्कृति का क्रमशः विकास हुआ है। मानव ने सामूहिक रूप से सतत संघर्ष किया है। वस्तुतः इतिहास वर्ग-संघर्ष की उज्ज्वल गाथा है, जो आज भी गूँज रही है।

                सभ्यता संस्कृति के विकास-क्रम में मानवीय श्रम की भूमिका अविस्मरणीय है। श्रम से ही भाषा का विकास हुआ है। यदि भाषा का प्रकाश नहीं होता तो मनुष्यता अँधेरे में भटक रही होती। दक्षिण हस्त से काम करते-करते मानव दक्ष हुआ है। उसने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नाना प्रकार के उपकरणों-औजारों का आविष्कार किया है। और वह आज भी कर रहा है। श्रम को सर्वोपरि मानने वाले विजेन्द्र ठीक कहते हैं-

‘‘करोड़ों धड़कनों से निर्मित हुए हैं शब्द
खनकती क्रियाओं के रजत सिक्के हैं।’’ (पृ0 104)

दूसरी पंक्ति में प्रशंसनीय ध्वनि बिम्ब हैं, जो खनकतीक्रियापद से कर्णगोचर होता है।

                यह महिमा है मानव के हाथों की, जो मस्तिष्क से प्रेरित होकर और उसे प्रेरित करके नाना प्रकार के आविष्कार करते रहे हैं। धरती पर गंगा की धारा उतार लाए हैं। खेत लहलहाएँ हैं। वनों को उपवन बनाया है तो हाथों ने। कलाओं का सम्पूर्ण सोन्दर्य निपुण हाथों का ही तो कमाल है। मुझे कैफ़ी आज़मी की कविता याद आ रही है, जिसमें हाथों की महिमा समझाई गई है-
‘‘मूरख, इनमें हैं भगवान मुझ पर, तुझ पर, सब ही पर, इन दोनों हाथों का एहसान।’’

                लेकिन सबसे अधिक दुखद सत्य यही है कि क्रूर व्यवस्था ने हाथोंका महत्त्व इतना घटा दिया है कि उन्हें अपना पूरा पारिश्रमिक मिल ही नहीं पाता है। ऐसे हाथरात-दिन पसीना बहा कर भी अपने परिवार का पेट मुश्किल से भर पाते हैं। इसके विपरीत प्रभु लोकधन-बल से सब कुछ अनायास प्राप्त कर लेता है। यह व्यवहार सामाजिक सुषमाका हनन करता है। इसीलिए वर्गों का द्वन्द्वात्मक संघर्ष इतिहास का परम सत्य है।

                विजेन्द्र ने अपने काव्य में इसी वर्ग-संघर्ष का रूपायन कर के उसे परिवर्तन के अनिवार्य बताया है। दूसरी ओर बुद्धि-विरोधी तथाकथित कवि-लेखक और इतिहासकार इतिहास के अन्त की घोषणा कर चुके हैं। यह सब मिथ्या प्रचार है। काल का प्रवाह कभी रुकता है ? वह अपने साथ सारा कचरा बहा कर ले जाता है। भविष्य के लिए नई उर्वरता अपने पीछे छोड़ जाता है।

                इस लम्बी कविता में विजेन्द्र काल-प्रवाह को इसी रूप में देखते हैं। अतः वह वर्तमान से अतीत की ओर यात्रा करते हुए श्रम-सौन्दर्य के प्रति आज के मानव की आस्था जगाते हैं। एशिया को महाशक्तिके रूप में देखने के लिए वह कहते हैं-

‘‘जागते देश की उभरती जनशक्ति को
देखता रहा हूँ
$ $ $ यहाँ से वहाँ तक फैली हैं
भावों की आकाश गंगाएँ
एशिया महाद्वीप का उदित होता
नव जागरण का नया क्षितिज
खोजता हूँ उन शिल्पियों को
जिन्होंने बनाये पहली बार कुल्हाड़े
हथौड़े, निहाई, बसूले
बनाया कड़ा नाथने को
काल का अनड्वान
कहाँ गए वे सब
दुखी हैं उनके अनुज।’’ (पृ0 104)

                विजेन्द्र का कथन सत्य है। आज भारतीय समाज का कड़वा यथार्थ है कि अधिसंख्य श्रमजीवी रात-दिन भूख की ज्वाला में जल रहे हैं। तुलसी ने ठीक लिखा है कि पेट की अग्नि बड़वाग्नि से अधिक प्रबल होती है। भारत में आज तक यह आग शान्त नहीं की गई है। अब भोजन की गारंटी के लिए सरकार द्वारा अधिकार प्रदान किया गया हे। भविष्य बताएगा कि यह अधिकार जनता को सस्ता अनाज कैसे पहुँचाएगा। करोड़ों निरन्न जनों तक।

विजेन्द्र श्रमजीवी जनों के कल्याण के बारे में पूछते हैं-

‘‘उजले-धुले गवाक्ष
स्वर्ण जड़ित द्वार
इस्पात ढाल कर
जो रचते हैं समय का स्थापत्य
सुन्दर भविष्य के कँगूरे
उनसे पूछता हूँ कैसे बनता जा रहा सुरक्षा परिषद् संत्रास-घर
उनके अग्रज कहाँ है
जिनकी हड्डियों से चुने गये
भव्य भवन।’’ (पृ0 105)

                ऐसे श्रमजीवियों में अपार जिजीविषा होती है। वे जीवन भर श्रम ही करते हैं। श्रम ही उनके जीवन का आधार होता है। ऐसे श्रम-निर्भर श्रमजीवियों के प्रति विजेन्द्र की आस्था अडिग है। अपनी पूर्ववर्ती लम्बी कवितआों- जन-शक्तिऔर कठफूला बाँसमें भी ऐसी ही आस्था व्यक्त हुई है। हाँ, यह दूसरी खेदजनक बात यह है कि हिन्दी के मूर्धन्य नामवर आलोचकों ने इन लम्बी कविताओं की उपेक्षा अधिक की है। डा0 जीवन सिंह के अलावा डा0 कमला प्रसाद, डा0 रेवती रमण एवं युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने जन-शक्तिकी सार्थकता बताने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। लेकिन कठफूला बाँसआलोचकों की आँखों से ओझल रही है।

ओ एशियाकविता में भी विजेन्द्र ने श्रम-शक्ति की अदम्य जिजीविषा का उल्लेख किया है-

‘‘ओह! वे समर से थक कर भी थके नहीं
उनकी जिजीविषा- लपटें शान्त नहीं
यहाँ आया उनके बीच
सुनने उनकी कराहटें बे-आवाज़
जानने लकड़ी और धातु के द्वन्द्वमय अन्तर को
देखो इतिहास का फूटता नया
लाल अंकुर
विजय नहीं
अपराजेयता का शिरोभूषण ही सच है
जो पहने खड़े हैं वे आज तक
रचकर श्रम से सौन्दर्य।’’ (पृ0 105)

                सौन्दर्यक्या है? कैसा है? उसकी रचना कैसे होती है? अनेक प्रश्न हैं। उनके उत्तर भी अनेक हैं। प्रकृति स्वयं सौन्दर्य रूपा है। प्रत्येक पौधे अथवा पेड़ में अपना निजी संतुलन होता है। उसी में सौन्दर्य निहित रहता है। हरे-भरे खेत दूर से कितने आकर्षक लगते हैं। लगभग एक बराबर लम्बाई की बालियाँ अपने सौन्दर्य से किसका मन मुग्ध नहीं करती हैं। पतझर के बाद प्रकृति पुनः नवयौवना हो जाती है। मानव भी सौन्दर्य की सृष्टि करता है। कलाओं के रूप में। प्रत्येक कला में संतुलन अनिवार्य है। सोचिए विश्वविख्यात इमारत ताजमहलके चारो कोनों पर चार मीनारें नहीं बनाई जातीं, तो वह दर्शकों के लिए आश्चर्यजनक कला का स्मारक महसूस होता ? शायद नहीं। उत्कृष्ट कविता का सौन्दर्य उसमें विन्यस्त क्रियाशील बिम्बों में निहित होता है।

लोकधर्मी सौन्दर्यशास्त्र के मर्मज्ञ विजेन्द्र श्रम से सौन्दर्य का अटूट सम्बन्ध जोड़कर कहते हैं-

‘‘मुझे देखने दो
पहले-पहल कुम्हार को
पकाते कच्चे बर्तन अवाँ में
कितनी सुन्दर है कलाकृति
रची गई सधे हाथों से
ओ कवि, यह भी जानो
पहले मिट्टी भीगकर गारा बनी
अब पानी सेंतने को चित्रोपम घड़ा
खून चूसने वालों को
सुन्दर कृति दिखाई देती है।
उसमें रचा गया श्रम नहीं
कैसे किया है काबू में
मिट्टी और आँच को
यह नहीं है कोई जादू टोना
मैंने ही दी हैं नई-नई शक्लें श्रम से
हर बार मिट्टी को
लोहे को
मिश्र धातुओं को
जाने कितनी बार झुलसा है हाथ
भभकती आँच में
किसी ने जाना नहीं
भीगा है अंग-अंग पानी में
तिरछी मेह बौछारों में।’’ (पृ0 108)

                यह अंश पढ़ कर आभास होता है कि विजेन्द्र के कवि ने स्वयं को श्रमीजनों से एकात्म कर लिया है। उनका मैं’ ‘हममें बदलता रहता है। निराला के समान। वह भी निराला के समान देखनाक्रिया का प्रचुर प्रयोग करते हैं। इससे उनके सजग इन्द्रिय-बोध का प्रमाण मिलता है। निरीक्षण-परीक्षण के उपरान्त अनुभव की राशि समृद्ध होती है। बाहर की दुनिया का सम्बन्ध कवि के मानस से जुड़ता है। और मानसकी सीपों में अनुभव काव्य-मोतियों के रूप में परिवर्तित होते हैं। सम्पूर्ण जगत् कवि के मानव-जगत् में विचरण करता है।

                पहले संकेत किया जा चुका है कि इस कविता में मानवीय सभ्यता और संस्कृति की प्रदीर्घ-कथा लयात्मक रूप में वर्णित की गई है। इस कथा का प्रमुख नायक श्रमशील जन है, जिसने अपने सामूहिक प्रयास से विश्व को अभिराम कृति का रूप प्रदान किया है। उसी ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अग्निदेवका आविर्भाव किया, जिन्होंने दुनिया का रूप ही बदल दिया। उनके ताप से कच्चा माल पक कर ठोस रूप में सामने आया। मानव ने उसका सदुपयोग किया। और यह भी सत्य है कि मानव-इतिहास वर्ग-संघर्ष की गौरव गाथा है। इतिहास का पहिया हमेशा आगे की ओर बढ़ा हे। बढ़ता रहेगा। अपने इस इतिहास-बोध को कविता की प्रभावपूर्ण भाषा में अभिव्यक्त किया है-

‘‘पहली बार अवतरित हुआ
शब्द कागज़ पर
यही था मेरी यात्रा का पुनर्जागरण महाकाल
स्पात को गला देख
हुई है रीढ़ मजबूत
रसायन चख इन्द्रियाँ सजग
हाँ, वही पहला कुम्हार है
जो बना था साक्षी
अग्नि देव का।’’

और

‘‘अब चकमक की कुदाल कहाँ
इस्पात की तेज धार देख
अन्न पीसने की हथचक्की छोड़
बिजली से घूमते बड़े-बड़े पाट देख
ओह, कहाँ से कहाँ आ गया।’’

लेकिन

‘‘देखता हूँ आज भी
मछुवारे जागते हैं रात-रात भर
समुद्री मणिधर लहरों पर
आज भी वे पीसती हैं चक्कियाँ गाँव में
लापता होते हैं मछुवारे अंधड़ तूफान में
आदिवासियों के वनों में आखेटक।’’ (पृ0 112)

                मानव-इतिहास साक्षी है कि आदि मानव निरन्तर विकास करते हुए आज की आश्चर्यजनक दुनिया तक पहुँचा है। अब जल-थल-नभ और अन्तरिक्ष में मानव का विजय-केतु लहरा रहा है। लेकिन वैश्विक समाज में सुषमा नहीं हे। समानता नहीं है। आज भी श्रमी जन अभावग्रस्त जीवन बिता रहे हैं। भाग्य और भगवान के सहारे। लेकिन भगवान न तो देख रहा है और न ही सुन रहा है। धरती पर विनाश का ताण्डव हो रहा है। कौन करेगा रक्षा। कोई दैवी शक्ति। नहीं। केवल जनशक्ति मानव को संकट-मुक्त कर सकती है। यही सोचकर विजेन्द्र का श्रम का गुण-गान करते हुए लिखते हैं-

‘‘हाथ मेरी आँख भी है
आँखें हाथ हैं
ओ अन्न देवता
अब मैं प्रार्थना कर
तुझे धरती में दफनाता नहीं
ट्रैक्टर की ली से
बोता हूँ कूँड में
तू किसी परलोक का देवता नहीं है
मेहनत से कमाया श्रीफल है
भारतीय किसान का लाड़ना शिशु
एशिया का महाबली हाथ
पकती फसल का सिरमौर
असंख्य कर्मठ भुजाओं का
जन-शक्ति ही लोक की आत्मा है।’’ (पृ0 112, 113)

                हमारे मनीषियों ने अन्न को ब्रह्म माना है। उसी से मानव का पोषण होता है। अन्न उत्पादक किसान यदि अभावों से ग्रस्त रहे तो क्या देश को खुशहाल कहा जाएगा।

                उपर्युक्त प्रश्नों का एक उत्तर है समतामूलक समाज का गठन, जिसमें प्रत्येक श्रम का समुचित पारिश्रमिक प्राप्त हो और जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव हो सके। पूँजीवादी व्यवस्था में न तो सभी को रोजगार प्राप्त हो सकता है। न महँगाई कम हो सकती है। न भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकता है। सभी को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध नहीं हो सकती हैं। और न ही विद्युत का प्रकाश। अतः सुखद व्यवस्था के लिए वर्तमान व्यवस्था का समापन अनिवार्य है। सम्पूर्ण सम्पत्ति का राष्ट्रीकरण परम अनिवार्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति जन-शक्ति ही कर सकती है।

                इस कविता के अन्तिम अंश में विजेन्द्र ने सौन्दर्य से श्रम का रागात्मक सम्बन्ध कलात्मक ढंग से रूपायित किया है-

‘‘बनाये हैं मैंने अपने घर में
सूर्योन्मुख नये द्वार
नई खिड़कियाँ, गवाक्ष
नये मेहराब, नये गुम्बद
इसी तरह खड़ा हुआ है
नये स्थापत्य का ढाँचा
वास्तुशिल्प संरचना में
दमकता है उँगलियों का सौन्दर्य।’’

और

‘‘नयापन, मुक्तिसंग्राम लड़ने का
नये मनुष्य के मान का।’’ (पृ0 114)

                उपर्युक्त काव्यांश पढ़ कर राजस्थानी स्थापत्य कला के रूप प्रत्यक्ष होने लगते हैं। और मुक्ति-संग्राम हेतु प्रक्रियाएँ भी।

                विजेन्द्र ने पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कारों के लिए जोड़-तोड़ छोड़ कर काव्य-सर्जना को साधा है। बड़े प्रयत्न से। बड़े सरोकारों की अभिव्यक्ति के लिए। उनकी कविता वैयक्तिक भी है और निर्वैयक्तिक भी। दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।यह उक्ति विजेन्द्र के कवि रूप का वैशिष्ट्य है। कविता रच कर व बड़े-से-बड़ा और गहरे-से-गहरा दर्द भुलाया करते हैं। इसीलिए वह कहते हैं-

‘‘अग्नि-परीक्षा है हर क्षण कवि की
हर साँस आहुति है जीवन-यज्ञ में
ओ हठी समय
तू भी हो ले क्रूर चाहे जितना
नहीं छोडूँगा उम्मीद फिर भी
अच्छे भविष्य की
एशिया में उगते नये सूर्य की।’’

और

‘‘कहूँगा नहीं जीवन भार है
इसी गाढ़े अँधेरे में
ओ मेरे दर्द!
सुनने दे अतल से उठी मर्माहत आहटें।’’ (पृ0 115)

                अब समय आ गया है कि विगत वर्षों में और वर्तमान काल में अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्था-विरोधी जन आन्दोलन हुए हैं और हो रहे हैं, उन पर गम्भीरता से सोच-विचार किया जाए। वैश्विक शान्ति और सद्भाव के लिए एशिया महाद्वीप सभी राष्ट्र आपस में संवाद करें। स्वयं को एकजुट करें। अपने ही संसाधनों का ही प्रयोग करके लोक-कल्याण के लिए विकास-कार्य विवेक से करें। पर्यावरण की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए। यह सुनिश्चित है कि अब लोकतांत्रिक व्यवस्था ही रहेगी। लेकिन उसका रूप अवश्य बदलेगा। लोकतंत्र को धनतंत्रबनने से रोकना होगा। दबंग और बाहुबलियों का सामाजिक बहिष्कार कराना ही पड़ेगा। सवाल खड़ा होता है कि ये नियंत्रण कौर लगाएगा। जवाब है जनशक्ति। जनशक्ति को संगठित और जागरूक कैसे किया जाएगा। किस भाषा में किया जाएगा। उत्तर है कि श्रमजीवी वर्गों के नेता अपने सार्थक बल पर नेतृत्व करें और ढुलमुल चरित्र वाले मध्यम वर्ग के बुद्धिवादियों को अपने नेतृत्व से जोड़ें। गाँधी जी के समान जन-गण-मन को जन-भाषा में संबोधित करें। अँग्रेजी के प्रति अंध अनुराग को त्यागना होगा। भारत की वामपंथी पार्टियों की अपनी भाषा-नीति पर पुनः विचार करना होगा।
                हिन्दी भाषा और कविता के लिए समर्पित कवि विजेन्द्र भी यही सोचते हैं। रंग-भेद के विरोधी नेल्सन मंडेला अपने नेतृत्व से अश्वेतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। और विजेता भी हुए; गाँधी के समान महात्मा भी। विश्व-विख्यात नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। एशिया के नेता भी ऐसा कर सकते हैं। जन-गण को अपने पक्ष में कर सकते हैं। आतंकवाद पर अंकुश लगा सकते हैं। अल्पसंख्यकों के अधिकारों, महिलाओं के संरक्षण, दलित-शोषित जनों का जीवन-स्तर ऊँचा उठा सकते हैं। यही सब सोचकर विजेन्द्र श्रमशील लोक से एकात्म होकर कहते हैं-

‘‘जाना होगा मुझे
कोत गलियों गलियारों में
वहीं मिलेगी मुझे नये पथ की
नव आँख, नव जल, नव पाँख
नया लोक, नई आँच।’’

अपनी बेचैनी भी व्यक्त करते हैं-

‘‘ओ प्रजापति
मेरे काव्य-मन
मुझे बता कैसे सिरज पाऊँगा
मनुष्य का अजेय संघर्ष
अदम्य इच्छाएँ नये मानव की।’’ (पृ0 116, 117)

                मुझे कृपया समझाइए कि आजकल के हिन्दी कवियों में ऐसे और कवि कितने हैं जो मनुष्य का अजेय संघर्षका अपना प्रयोजन बना रहे हैं।

                प्रसाद जी ने कामायनीमें लिखा है कि विजयिनी मानवता हो जाए। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ऐसे लोक की कल्पना की थी कि जहाँ एक भी व्यक्ति भय से संत्रस्त न हो। मस्तिष्क भय रहित हो। विभेद तिरोहित रहें। विजेन्द्र भी ऐसा ही सोचते हैं लेकिन वह यथार्थ और इतिहास-बोध से प्रेरित होकर यह भी कहते हैं-

‘‘रोटी और समर का रिश्ता अटूट है
वही रहेगा कविता के केन्द्र में।’’

अपने ढलने जीवन की सूर्य-आभा निरख कर भी वह अपनी अदम्य सिसृक्षा के प्रति भी आस्थावान् हैं।’’ (पृ0 118)

                ओ एशियाकी काव्य-भाषा कथ्य के अनुरूप है। लोक-जीवन के निकट है। अर्न्तवस्तु के अनुरूप रूपतामक और इन्द्रिय-बोध से संवलित नाना प्रकार के बिम्बों से युक्त। तुलसी की भाषा के समान रूपकात्मक। सम्पूर्ण कविता निश्छंद में है। लेकिन वाक्य-रचना में आन्तरिक लय आदि से अन्त है। मंथर गति से पाठ करते समय लय का आभास होने लगता है। कथ्य के अनुरूप भाषा में उद्बोधन और सम्बोधन अनायास आए हैं। ओज से संयुक्त हो कर। ओ एशियाका स्थापत्य कठफूला बाँससे बेहतर है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि यह लम्बी कविता विजेन्द्र की प्रारम्भिक कृति है। कोई भी कृति निर्दोष नहीं होती है। वस्तुतः विजेन्द्र की कविता तुलसी का अनुसरण करती है। अपने युग-बोध के अनुरूप। भनिति भदेस वस्तु भल बरनीविजेन्द्र का काव्यादर्श है। लोक-मंगल उनकी काव्य-सृष्टि का प्रमुख प्रयोजन है।

                एक और वैशिष्ट्य भी उल्लेखनीय है। कविता में जनपदीयता की प्रमुखता रचने वाले विजेन्द्र ने ओ एशिया का प्रारम्भ इस प्रकार किया है-

‘‘ओ एशिया महाद्वीप महान
तुझे अपने जनपद की धरती से देखता हूँ
देखता हूँ हर साँस
सुनता हूँ धड़कने
हर रोयाँ, जल की दमकती बूँद दूर्वा की नोक पै
आकाश का टुकड़ा एक
ओ हिन्द महासागर में होता सूर्यास्त
सूर्योदय देखूँगा नया तेरी धरती से।’’ (पृ0 91)

                यह काव्यांश विजेन्द्र के प्रकृति-अनुराग का द्योतक है। वैदिक वाङ्मय में प्रार्थना की गई है कि हम सौ शरदों तक जीवित रहें। सविता देव का तेज धारण करें। वह हमारे लिए वरेण्य है। उक्त अंश का अन्तिम वाक्य विजेन्द्र के अभीष्ट भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। प्रतिदिन सूर्योदय नया संदेश और नई प्रेरणा लेकर आता है। विजेन्द्र को भी अपने अभिनव सूर्य-सन्देश की आशा और विश्वास दोनो है।

                इस कविता के मध्य भाग में वर्तमान काल की सामाजिक गतिकी के निरूपण के साथ-साथ मानव के श्रम-सौन्दर्य का विकास कलात्मक ढंग से वर्णित किया गया है। इतिहास-सम्मत दृष्टि से। सम्पूर्ण कविता में बाहरी जगत् के साथ-साथ निजी संघर्ष एवं संकल्प की भी अभिव्यक्ति की गई है। और कविता का समापन अपनी सतत काव्य-साधना, सिसृक्षा और अदम्य जिजीविषा के आत्मीय निरूपण से सम्पन्न हुआ है-

‘‘वे मनुष्य मेरी लड़ती हुई जनता
यदि खोऊ भरोसा उसमें
सबसे बड़ी पराजय है कवि की
क्या करूँगा उनके साथ का
जो हैं निरे जड़-हीन
रीढ़ हीन
जो सह नहीं पाते बलाघात जीवन के
ओ ढले सूर्य की
पंख छितराई साँझ
अभी रूक
टहनियों के अमलतास के छोरों पर
रूक ठहर
जिजीविषा का शतदल
मुरझाने में अभी देर है।’’ (पृ0 118)

                उद्धत अंश की रेखांकित पंक्तियों में उकेरे गए चाक्षुष बिम्ब विजेन्द्र के चित्रकार कवि व्यक्तित्व को उजागर कर रहे हैं। साथ-ही-साथ उनकी आश्वस्त सर्जना को भी। उद्धृत अंश पढ़ कर निराला याद आ रहे हैं-

‘‘मैं अकेला
देखता हूँ
आ रही मेरे दिवस की सांध्य वेला।’’

ध्यान देने की जरूरत है कि निराला के गीत में नैराश्य की अधिकता है, लेकिन विजेन्द्र के यहाँ इसका अभाव है। यह विजेन्द्र की निजता है।

                संक्षेप में बेहिचक घोषित किया जा सकता है कि लोकधर्मी वरिष्ठ कवि विजेन्द्र यह कविता अद्वितीय कृति, जिसमें स्थानीय वैशिष्ट्य के साथ-साथ वर्तमान काल की स्वदेशी-विदेशी प्रतिरोधमूलक घटनाओं के अनेक प्रसंग विकासशील इतिहास-दृष्टि से वर्णित किए गए हैं। मांगलिक भविष्णु विकल्प की प्रस्तुति सहित। ओ एशियाविजेन्द्र की सर्जना का ऐसा शतदल कमल है, जो श्रम-सुगन्ध से सुवासित है। यह ऐसी कृति है जो सहृदय पाठक को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सरोकारों से अनायास जोड़ती है। यह इस कृति की बहुत बड़ी उपलब्धि है।

                यह कविता पढ़ते हुए एक कविता बार-बार याद आती रही है। अम्न का राग। कवि शमशेर की श्रेष्ठ कृति। छह पृष्ठों वाली महान कृति में शमशेर ने अपनी व्यापक जीवन-दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व में अम्न का राग प्रतिध्वनित कर दिया है। अपनी जादुई कल्पना से एशिया, यूरोप, अमरीका को महान् कवियों और कलाकारों के सांस्कृतिक सम्बन्धों से विश्व को एकता के सूत्र में बाँध दिया है। वैश्विक शान्ति की सुरक्षा के लिए मैं शमशेर की इस कृति को उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानता हूँ, जिसमें कोई उलझाव नहीं है। कवि ने अपनी उदात्त और अभिनव भाषिक संरचना से गद्यात्मकता को उच्च काव्य के स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया है। लेकिन इस कविता की सबसे बड़ी सीमा यह है कि इसमें साम्राज्यवादी विरोधी सुर कहीं भी मुखरित नहीं हुआ है। साम्राज्यवादी वर्चस्व के मध्य विश्व-शान्ति कैसे सम्भव हो सकती है। इस कमी को विजेन्द्र ने ओ एशियामें पूरा किया है। अमरीकी साम्राज्यवाद की आलोचना करके। संघर्षशील जनों के प्रतिरोध का उल्लेख करके। सन् 1945 में रचित अम्न का रागकी विश्वव्यापी अनुगूँज ओ एशिया’ (2012) के तुमुल घोष से मिलकर अधिक प्रभावपूर्ण प्रतीत होती है।

ओ एशियाऐसी कृति भी है, जो अम्न का रागसे चार कदम आगे है।
सम्पर्क –
चूना मण्डी, बदायूँ
मो0नं0 8533968269
                               

विजेन्द्र जी के संग्रह ‘आँच में तपा कुंदन’ पर जीतेन्द्र जी की समीक्षा


वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी दस जनवरी को अपनी उम्र का अट्ठाहत्तरवाँ पड़ाव पूरा कर रहे हैं। इस उम्र में भी जिस प्रतिबद्ध ढंग से वे लेखन कार्य में जुटे हैं वह हमें अचंभित करता है। उनका अध्ययन क्षेत्र व्यापक है। विश्व साहित्य पर उनकी पकड़ तो है ही वे बिल्कुल नए से नए रचनाकारों की रचनाओं पर भी नजर रखते हैं। बहरहाल, पिछले साल उनका एक और कविता संग्रह ‘आँच में तपा कुंदन’ प्रकाशित हो कर आया है। इस संग्रह का चयन एवं संपादन डॉ0 रमाकान्त शर्मा ने किया है। इस संग्रह पर एक समीक्षा हमारे लिए लिखी है कवि-कथाकार जीतेन्द्र जी ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा ‘प्रेम, सौन्दर्य और उल्लास के कवि विजेन्द्र जी’
प्रेम, सौन्दर्य और उल्लास के कवि विजेन्द्र जी
जितेन्द्र कुमार
                हमारा समय निष्करूण हो रहा है। हमारा हृदय संकुचित हो रहा है। बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं से भी हम संवेदित नहीं होते। हमारे अंतः का मरुथल पसर रहा है। ऐसे संकटकाल का प्रतिरोध कोई कवि कैसे करे? वरिष्ठ कवि-चित्रकार विजेन्द्र जी को प्रेम पर भरोसा है। प्रेम कविताएँ लिख कर संवेदनहीन समय का रचनात्मक प्रतिरोध संभव है। ‘‘आँच में तपा कुंदन’’ की कविताओं से कवि के रचनात्मक प्रतिरोध की भाषा को समझा जा सकता है। दुनिया बहुत बड़ी हैसहित अनेक कविताओं में नाटकीय संलाप है। इस कविता का मूल कथ्य है कि मैंको तुम के प्रेम पर पूरा भरोसा है। कवि प्रगीत की लय में खूब रमते हैं। मैं तुम्हें एक बार में/ नहीं देख सकता’, की आवृत्ति कविता में तीन बार होती है। इस आवृत्ति से कविता में गति पैदा होती है। तुमउस विराट संसार में समाहित है जिसके क्रिया -व्यापार की ओर कवि का ध्यान बार-बार आकर्षित होता है। कवि की सामाजिकता इतनी व्यापक है कि वह एक बार में अपनी जीवन-संगिनी को भी सम्पूर्णता में नहीं देख सकता। कविता में कुछ काव्य-बिंब हैं जो कवि की जीवन-दृष्टि और सौंदर्यबोध को आलोकित करते हैं। कविता का स्थापत्य संश्लिष्ट है। मैंऔर तुमके संलाप में मेहनकश किसान की छवि के अतिरिक्त ऋतु के आगमन की दस्तक है, पूर्वजों के चेहरों पर पड़ी झुर्रियाँ हैं, नीम की खुरदरी छाल है, झुरमुटों से दिखता बाल रवि और उसके उर्वर इलाके का गौरव आम का पेड़ है। यानी प्रकृति और समाज अपने तमाम वैभव और स्मृतियों के साथ प्रस्तुत हैं। इस प्रस्तुत को कोई संवेदनहीन ही नकार सकता है। कवि की ज्ञानात्मक संवेदना ईमानदारीपूर्वक अपनी सहचरी से कहता है कि मैं तुम्हें-एक बार में नहीं देख सकता। क्योंकि प्रेम में भी मैं उतना संकीर्ण नहीं कि मेरा प्रेम स्वकीया तक सीमित रहे। जनता के मुक्ति-संघर्ष के रास्ते सरल नहीं हैं, एक रेखीय नहीं हैं, वहाँ कई मोड़ हैं। नई-नई चुनौतियाँ हैं। कविता में रमने पर कविता में जो तुमहै वह जनता की प्रतीक लगती है। लंबे संघर्ष के कारण, संघर्षशील जनता थोड़ी विचलित है, अपने अंदर का भेद नहीं खोलना चाहती। संघर्षशील जनता की आँखों में भरोसे के बिम्ब हैं जो सारे वृक्षों के तनों से ज्यादा पुख्ता है। इन सटीक काव्य-बिम्बों के माध्यम से कवि संघर्षशील जनता में असीम भरोसा व्यक्त करते हैं। भरोसा शब्द विश्वास की अपेक्षा ज्यादा सम्प्रेषणीय है क्योंकि यह लोक का है। विजेन्द्र जी को लाल रंग बहुत पसंद है। यह रंग जोश और जवानी का रंग है, यह क्रांति का रंग है। इस यांत्रिक समय में बाल रवि का लाल रंग झुरमुटों के पार दिखता है। कवि को भरोसा है कि बाल रवि शीघ्र ही झुरमुटों के ऊपर उठकर आकाश में दीप्त होगा। बबूलों के इलाके में कवि को अकस्मात् आम का पेड़ दिखता है। उसका भरोसा और दृढ़ हो जाता है। ऐसे में कवि जीवन-संघर्ष में एक और मोड़ चुनता है।

संग्रह में कई कविताएँ हैं जिसमें विजेन्द्र जी की जीवन-संगिनी उषा जी तुमके रूप में उपस्थित हैं। इनमें दाम्पत्य-जीवन की सहज छवियाँ हैं। दाम्पत्य-जीवन की इन छवियों के माध्यम से वे उन तमाम मध्यवर्गीय स्त्रियों में संवेदनात्मक ज्ञान का आलाके दीप्त करना चाहते हैं जो अपने पति से, विशेषकर सामाजिक ऐक्टीविस्ट पति से छोटी-छोटी निजी आकांक्षाएँ रखती हैं। इन छोटी-छोटी प्रगीतात्मक कविताओं का ध्वन्यात्मक संदेश सामाजिक एक्टीविस्टों के लिए भी है कि दाम्पत्य-जीवन की गाड़ी सहज ढ़ंग से चले, इसके लिए वे भी थोड़ा जिम्मेवार बनें। उषा जी कवि के प्रेम का आलंबन हैं, जीवन-संगिनी के रूप में घर-गृहस्थी की संचालिका भी हैं। आतिथ्य उनके स्वभाव में है। कवि-मित्रों को हाथ का बना खाना खिलाती हैं। लेखक भोजन के स्वाद को भूल नहीं पाते। गृह-कार्य में वे पसीने से तरबतर रहती हैं। उनके बच्चे उन्हें अन्नपूर्णाकहते हैं। विजेन्द्र जी इतना विपुल लेखन कार्य कर सके, इसमें अन्नपूर्णा का सहयोग भुलाया नहीं जा सकता। लेकिन अन्नपूर्णा हर हाल में प्रसन्न नहीं रह पातीं। वे अपना विरोध मौन रह कर, कवि जी से एक दूरी बनाकर प्रकट करती हैं। कई कविताओं में इस मौन विरोध की आत्मपरक छवियाँ हैं। इन मौन विरोधों के चट्टानों की चुप्पी को विजेन्द्र जी ज्ञानात्मक संवेदना के ताप से पिघलाने की कोशिश करते हैं, यहाँ मुझे ताप शब्द की जगह आँच लिखना चाहिए क्योंकि वह लोकधर्मी शब्द है। ‘‘पानी बरस रहा है’’ में मौसम बड़ा खुशगवार है। उषा जी कवि को सामने दीखती हैं। लेकिन चुप्प हैं। कवि जब घर आते हैं तो दरवाजा खोलने के बाद उनकी ओर देखती तक नहीं। हँसती नहीं। कुशल नहीं पूछतीं। बच्चे इस तनाव को भाँप जाते हैं। वे भी हँसने की जगह तलाशते हैं। कवि तब ज्ञानात्मक संवेदना का हथियार उठाते हैं। वे समझाते हैं कि हम सामाजिक संवेदना से अलग निजी संवेदना कैसे बनायेंगे? पश्चिमी राजस्थान अकाल ग्रस्त है और ऐसे समय में पानी बरस रहा है। पानी का बरसना ऐसे अकाल ग्रस्त प्रदेश में सबकी प्रसन्नता की बात होनी चाहिए। इस तरह विजेन्द्र जी लोक की संवेदना से उषा जी को जोड़ते हैं। तब कविता निजी प्रेम की नहीं, बल्कि लोक से प्रेम की कविता बन जाती है।

इस क्रम में उपहारकविता की चर्चा की जा सकती है। उपहारशीर्षक कविता संग्रह में दूसरी कविता भी है। कवि राजधानी से लौटे हैं घर। पत्नी के लिए अथवा बच्चों के लिए कोई उपहार नहीं लाये। कविता में सूचना है कि राजधानी का बाजार उपहारों से पटा पड़ा था। तब उन्होंने कोई उपहार क्यों नहीं खरीदा? क्या वे बाजार का इस तरह प्रतिरोध कर रहे थे कविता में प्रतिरोध की बात दर्ज नहीं है। कवि मूर्ति शिल्पियों की गली में घूम रहे थे। वहाँ उन्होंने एक रंगरेजिन को चटक रंगों में कच्चा सूता खूबसूरती से रँगते देखा। कवि ने श्रम के सौंदर्य को सराहा। कवि-पत्नी की चिंता कवि के सेहत की है। कवि की चिंता है कि पूरा मरूथल पूर्वी राजस्थान की तरफ बढ़ने को आतुर है। यह सामान्य रूपक नहीं है। कवि विचलित है कि बहुतों का (कविता में सिर्फ तुम्हारा) भरोसा टूट रहा है। कवि इतना कठोर नहीं है कि पानी बरसने से (बूँद गिरने से) उनमें स्फुरण नहीं हो। यह मरुथल संवेदनहीनता का मरुथल है, मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन का मरुथल है। सपाट शब्दों से ढली यह कविता बहुत अच्छी कविता का आस्वाद देती है। प्रेम सिर्फ करूणा नहीं है, प्रेम एक मानवीय मूल्य है, प्रेम संवेदनहीन समय में प्रतिरोध है। प्रेम का आयतन बहुत बड़ा है।

                इस कड़ी में अनेक कविताओं की चर्चा की जा सकती है। आइये, ‘रजत धूपको देखें, इसमें उषा जी की गृहिणी की छवि आलोकित है। हालाँकि इसमें मुझे भारतीय स्त्री की बहुसंख्या की छवि दिखती है जो गृहिणियाँ हैं। गृहिणी रूपी उषा जी गृह कार्य की व्यस्तता में अस्त-व्यस्त और पसीने से तरबतर हैं। कपड़े फींचते समय उनकी अँगुली में चोट लगी है। वे अखबार में कवि का नाम छपने से कोई विशेष खुश नहीं होतीं। वे काव्य-चर्चा पसंद नहीं करतीं। तीन रूपकों के अतिरिक्त कविता का स्थापत्य अभिधात्मक है। कविता से पता चलता है कि गृह-कार्य में अस्त-व्यस्त इस गृहिणी को उसके कार्यों को सम्पन्न करने में किसी आदमी का कोई सहयोग नहीं है। ऐसी गृहणियों से हम कवि काव्य-चर्चा में भागीदारी खोजते हैं। उषा जी या अन्य गृहिणियाँ अपनी सघन भौंहों को वक्र कर अपना प्रतिरोध जताती हैं। इसी कड़ी में ‘‘उन्हें पहचानो’’ को भी पढ़ें! कवि और उनकी जीवन-संगिनी के वैचारिक धरातल में फर्क है। उनकी ज्ञानात्मक संवेदना का स्तर एक नहीं है। इसकी नाटकीय संरचना के संलाप में मैंउर्फ सामाजिक ऐक्टिविस्ट कवि का वैचारिक आग्रह है जीवन सहचरी से कि गंदी बस्तियों में रहनेवाले लोगों की धड़कनों को सुनो/उन्हें पहचानो/उनकी आँखें कहाँ देखती हैं। उनके कान कहाँ सुनते हैं। (देखो) गृहिणी रूपी तुमका आग्रह है कि चलो, यहाँ से निकल चलें। कवि की ज्ञान संवेदना आहत होती है। वह अपने कानों में अपनी आत्मा की आवाज सुनता हैः कहाँ, कहाँ चलें। आगे भी/ कोई बेहत्तर हालात नहीं। कवि महसूस करता है कि यहाँ मैं (वह) बिल्कुल अकेला हूँ (है)। यहाँसिर्फ स्थलका बिम्ब नहीं है, बल्कि यहाँमें वह काल-खंडभी समाहित है जिसमें मैंऔर तुमका संवाद जारी है। मैं की त्रासद स्थिति को महसूस कीजिये कि संवेदना को बचाने में उसकी जीवन-संगिनी साथ निभाने को तैयार नहीं है। प्रेम को बचाने के आत्मसंघर्ष में प्रेयसी पर से भरोसा टूट रहा है। संवेदनहीनता का मरुथल क्षण-क्षण पसर रहा है और संकट में लोगों को छोड़कर तुम (यह समाज) भाग रहा है। इससे बढ़िया यथार्थ का अक्स क्या होगा?

                विजेन्द्र जी के प्रगीतात्मक कविताओं का मूल स्वर प्यार है। इस कडी़ में संग्रह (आँच में तपा कुंदन) की चिनग आँच कीसच्चा मोती, अन्न भरी पृथ्वी, कुंदन, ओ चन्द्रमा, तँबई चेहरा, ओ कवि, चौड़ती जड़ें, तुम्हारी बातें सच हैं, समय को पहचानो, प्रिय सुनो, नमन, भरा बादल, उगान, आँच का फूल, तुम यहाँ नहीं हो, तुम्हारी याद, रजत धूप, उपहार, पानी बरस रहा है, अन्नपूर्णा, उर्वर भूमि आदि उल्लेखनीय प्रेम कविताएँ हैं। प्रेम सबसे बड़ा मानवीय मूल्य है। कविता में प्रेम को श्रम से संबद्ध करना जनसंस्कृति को समृद्ध करना है। मनुष्य की नियति केवल श्रम करना नहीं जैसा गीता में महाकवि वेदव्यास ने कृष्णा के मुख से कहलवाया है, अपितु अपने श्रम के फल पर पूर्ण अधिकार के लिए संघर्ष करना और उसे प्राप्त करना उसका मानवाधिकार है। मनुष्य जीवन सिर्फ दासता के लिए नहीं है। साम्राज्यवादी शक्तियों के नियंत्रण और निर्देशन में बाजार की संस्कृति संवेदनहीन, निष्करूण एवं मानव विरोधी हुई है। बाजार की जनविरोधी दलाल संस्कृति का सांस्कृतिक प्रतिरोध रचनात्मक साहित्य से संभव है। पूँजी द्वारा सृजित दुष्काल में प्यार करना कठोर पत्थर उठाने के सदृश है। इस दुष्काल में प्यार भरे संस्पर्श से सिहरन नहीं होता। फूलों की गंध में देशी बबूल की कसैली छाल का आस्वाद है। विजेन्द्र जी के लिए प्रेम की आकृति बीहड़ जैसी होती है (घने बादलों के बीच) 1.पद, प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य में कोई पहाड़ जैसी ऊँचाई प्राप्त कर सकता है, लेकिन मूल चीज है हृदय की उर्वरता। प्रेम उसी हृदय में पनप सकता है जिसकी हृदय भूमि उर्वर हो। प्रेम की तलाश में विजेन्द्र जी श्रम-सौंदर्य को स्थापित करते हैं। श्रम-सौंदर्य के अनूठे रूपक उनकी कविताओं में कतार में खड़े मिलते हैं। श्रमशील किसान एवं मेहनतकश कामगार का जीवन उन्हें बेहद आकर्षित करता है। आसपास के परिवेश से उनका गहरा परिचय है। उनकी कविताओं में स्थानीय भूदृश्य के बिंबों का चित्रण यात्रावृतांत के शिल्प में व्यंजित मिलते हैं। किसान जीवन के चित्रण में वे खूब रमते हैं, खूब जमते हैं। उनकी कविताएँ पढ़ते हुए बाबा नागार्जुन और केदार नाथ अग्रवाल की कविताएँ याद आती हैं। कहा जाता है कि आरम्भ से ही नागार्जुन की कविताओं का एक बड़ा हिस्सा प्रकृति से सम्बन्धित रहा है। प्रकृति उन्हें आकर्षित करती रही और उनका यात्री मन उसमें रमता रहा। पौड़ी गढ़वाल के पर्वतीय ग्रामांचल जहरी खाल प्रवास में रहकर लिखी गई उनकी कविताओं में प्रकृति का महज दृश्य वर्णन नहीं है बल्कि उसे वे मानवीय संवेदना से सीधे जोड़कर देखते हैं। उनकी कविताएँ सुन रहा हूँ, बाघ आया उस रात, जंगलों में; ध्यानमग्न वक-शिरोमणि, डियर तोताराम, क्रंदन भी भा सकता है आदि ध्यातव्य हैं।

जीवन में थिर कुछ भी नहीं है। यथार्थ गतिशील है। ऋतुएँ गतिशील है। विजेन्द्र जी लिखते हैं-

पतझर के बाद

वसंत जरूर आयेगा

थिर कुछ नहीं

न तिनका, न सूर्यकण

न बूँदें

न हवा

वे कहते हैं कि संघर्षरत जीवन में प्यार और गति का यही रिश्ता है।

                एक उल्लेखनीय प्रगीत हैः ढ़लान! कविता के नीचे फूट-नोट में लिखा है कि विजेन्द्र जी चुरू (राजस्थान) में एक वर्ष तक उपाचार्य के पद पर आसीन थे। एक वर्ष की छोटी अवधि में वे राजस्थान के परिवेश और भू-दृश्य से बहुत शीघ्र आत्मीय संबंध स्थापित कर लेते हैं। ढ़लानमें वे पत्नी के साथ अरावली के ढ़लान से उतर रहे हैं। अरावली के ढ़लान का आकर्षक चित्रण है। यह चित्रण शुद्ध भू-दृश्य का चित्रण नहीं है। इस चित्र में सूखी घास, कटीली झाड़ियों और हरी बेलों पर खिले पीले फूलों के साथ चितकबरी बकरियाँ हैं, ढ़ोरों (घोरों) के साथ चरवाहे हैं, ऊन उतारी हुई काली, सफेेद, भुक्सैली भेड़ें हैं जो इठलाती हुई ढ़लान से उतर रही हैं। स्पष्ट है यहाँ अरावली के पहाड़ी इलाकों में बसे किसानों और गड़ेरियों का चित्र भू-दृश्य में आलोकित है। विजेन्द्र जी का स्थानीय मानव जीवन के साथ तादात्म्य संबंध का यह साक्ष्य है।

                विजेन्द्र जी की मार्क्सवादी जनपक्षधरता असंदिग्ध है। वे द्वंद्वात्मक पद्धति से प्रकृति के रहस्यों का विश्लेषण, अवलोकन एवं चित्रण करते हैं। इस संवेदनहीन समय की पहचान यांत्रिक समय के रूप में करते हैं। इस यांत्रिक समय का मुकाबला वे ज्ञानात्मक संवेदना (प्यार) से करना चाहते हैं। पराजय उन्हें स्वीकार नहीं। जीवन की अनुभूतियाँ और विचार-धारा उन्हें सतत् संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं। एक छोटी कविता है; ‘‘उठी लहरें’’। इसमें कवि जीवन में उल्लास के स्त्रोत को प्रकृति और समाज की वस्तुगत स्थितियों में देखते हैं।

जीवन के ढ़लान पर भी

सूर्योदय ने

मुझको बुलाया

……………..

जो अधपेट सोते हैं

सूखे कंदमूल खा कर

फिर भी जीवित हैं

कवि की ज्ञानात्मक संवेदना हजारों किसानों और मजूरों से तादात्म्य संबंध स्थापित करती जिनका जीवन बहुत संघर्षमय एवं कठिन है। जिस उपज के उत्पादन में उनका श्रम लगा है, उस उपज का एक छोटा हिस्सा ही उन्हें मिलता है (ताप को सह कर)।. कठिन जीवन के ऐसे बिम्ब संग्रह में भरे पड़े हैं। इन दारूण वस्तुगत स्थितियों को देखकर विजेन्द्र जी तड़प उठते हैं। ऐसे में संघर्ष के उन साथियों से किसी भी प्रकार का समझौता करने के लिए वे तैयार नहीं जो संधर्ष के रास्ते से अलग हो गये, उनके साथ कपट किया, उन्हें अपमानित किया और उन्हें भी जनसंघर्ष के पथ से विमुख करने की कोशिश की। ऐसे कटु क्षणों का उल्लेख वे कई कविताओं में करते हैं। ‘‘इकतारा बजाता समय’’ में वे कहते हैं-

आज भी धूमता हूँ

वैशाली की सड़कों पर

उनसे अपने को अलग किये हूँ।

जिनकी हँसी के पीछे

विषाक्त कपट छिपा है।

एक अन्य कविता ‘‘जो पक गया है अब’’ में लिखते हैं-

मैंने हर बूँद

जीवन को कड़वाहट के साथ पी है।

हर विष-दंश को

शतदल की नाभि में सहेजा है

जिन्होंने अपने इरादे बदले

वे मुझसे अलग हुए

जिनके आलोक वलय टूटे

उन्होंने मुझे धिक्कारा

एक और कविता ‘‘प्यार का कोई नाम नहीं” में मित्रों के कपट के कुछ बिंब हैः

मुझे कपट से खुरचने वाले मित्र खुश रहें!

उन्होंने दंश सहने को उम्र दी है।

बहुत से आए

मेरी देह से छाल उपाट कर ले गये।

टहनियाँ काट मुझे उगने से रोका

मेरी जड़ों पर प्रहार किये।

ये भाव चित्र और कई कविताओं में हैं। पूरी तस्वीर उभर नहीं पाती। विरोधी मित्र रहे हैं। आखिर उनका पक्ष क्या था, बहरहाल जनसंघर्ष के पथ में तीखे मोड़ आते हैं। विजेन्द्र जी ने खुले मन से उन स्थितियों की ओर संकेत कर दिया। कविता में दो पंक्तियों के बीच काफी स्पेस होता है। संवेदनशील पाठक के लिए संकेत काफी है।

                एक छोटी सी कविता हैः ‘अमोला।‘ यह मात्र 24 शब्दों की कविता है। शब्दों के अनुपात में पंक्तियाँ भी कम हैं- सात सबसे छोटी पंक्ति मात्र दो शब्दों की, सबसे बड़ी पंक्ति छह शब्दों की/ कविता का कथ्य हैः कवि का आजीविका के लिए दोआबा से मरुथल में विस्थापन। यह विस्थापन सिर्फ कवि का नहीं है। (भारतीय) निम्न वर्ग से मध्यवर्ग तक आजीविका के लिए विस्थापित है। इस कविता में सुंदर देखना विन्यस्त है। देखने में अस्पष्टता है। विस्थापन में भी देखा-सुंदर।

देखा तुम्हें हर बार

आँख भर कर

यह प्यार का आग्रह है।

एक अन्य कविता‘‘सौदा’’ मात्र 27 शब्दों की है। एक आत्मालाप है। इसमें प्रथम पुरूष अप्रस्तुत है। मध्यम पुरूष भी अनुपस्थित। बाजार के प्रभाव में व्यक्तित्व की पहचान खो गई है। कविता सहृदय को बेचैन करती है। और कई छोटे-छोटे प्रगीत हैं-उगान, आँच के फूल, फूल की आभा खिली, क्या फर्क है, वे समझते है; उन आँखों से, भरा बादल, शब्द, आँच में कुंदन तपा है, उठो जागो, त्रासदी, कंटीली टहनियाँ, नमन, तुम आओ, काली आँख आदि। विजेन्द्र जी बिंबों और रूपकों के कवि हैं। उनके रुपक प्रगीत में गति और लय पैदा करते हैं। उगान में मैं’ ‘तुमको पहली बार देखता है। यह पहली बार का देखना कैसा है? रूपकों की ऐन्द्रिकता देखें-एक महकते कटहल की तरह, जैसे चैत की फसल पर चढ़ा सुनहरापन, जैसे आँख का कालापन, एक फल की तरह पकते देखा, एक मछली की तरह बेचैन, एक चिड़िया की तरह नर की खोज में उदास और भारी। सभी रूपक प्रकृति और किसान-जीवन से संबद्ध हैं।

‘‘पौड़ती जड़ें’’ मालारूप निरंग रूपक के प्रयोग की दृष्टि से उल्लेखनीय है। तुम्हारा प्यारके लिए इतने रूपक हैं-

तुम्हारा प्यार

गुड़हल का सुर्ख-बड़ा-फूल

मेरी खिड़की की रोशनी है (है)

वह मेरी धड़कनों की लय है(है)

आकाश में-रसमय शब्द का विस्तार

और साँसों की नमी है।

सारे रूपक जीवन और प्रकृति से।

इस संग्रह में कई कविताओं में जीवन-साक्ष्य के अनूठे बिंब हैं। इन बिंबों को पढ़ते हुए मुझे बार-बार याद आता रहा कि विजेन्द्र जी पचहत्तर पार के हैं। ऐसा लगता है जैसे कवि ने अपने जीवन का मिशन पूरा कर लिया हो और अब वे कार्यक्षेत्र से रात्रि विश्राम के लिए लौट जाना चाहते हैं। ‘‘समय को पहचानो’’प्रगीत को देखें। चलो, चलें पंक्ति की आवृति चार बार होती है। मैं चुप है। मैं के माथे पर चिंताओं की गहरी लकीरें हैं। तुम का प्रस्ताव है कि चलो, चलें। क्यों? क्योंकि संध्या ढ़लने को है। पेड़ अपनी छायायें/समेट रहे हैं। मैं का कथन है कि (अभी) सड़कें भरी हैं/भरे कोलाहल में सुनता हूँ। कोइल को कुकते/ तुम कहती है कि पक्षी लौट रहे हैं-घोंसलों को /चलो चलें /वैशाली की सड़कें पार करते मैं को डर लगता है। मैं कहता है कि वाहनों को जाने दो। अभी ठहरो जल्दी नहीं है। लेकिन मैं की सहमति है कि संध्या वृक्षों के झुरमुटों में/ अपने थके डैनें खुजलाती है। समय को पहचानने के साथ तुम भरोसा भी देती है कि निराश होने की जरूरत नहीं है। अंतिम कथन तुम का ही हैः चलो, चलें। ताप को सहकरमें एक बिंब हैः अब साँझ घने पेड़ों मे/पंख तोल रही है। …….मुझे निराशा के गान भी/ गाने दो/‘‘उठी लहरें’’ में एक बिंब हैः जीवन के इस ढ़लान पर भी/ सूर्योदय ने/ मुझको बुलाय ‘‘सागर मेरे अंदर’’ में बिम्ब हैः इस ढ़लती साँझ के रक्ताभ द्वार पर/ ‘‘नवा काल की डाली’’ कविता आरंभ होती हैः हम दोनों थक कर/शिथिल हुए हैं/ झरे फूल मुर्झाए/डालें निर्यात हुई हैं। ‘‘ दो पात’’ का मुख्य कथ्य जीवन-सांध्य ही है।

एक ही डाल पर

हम दोनों

दो बात-पीले अधपीले

रात है गाढ़ी

…… हुआ है हल्दिया रंग फीका

हुए हैं पटसनी

जो थे कमर तक बाल काले

पोटुए हैं खुरदरे

घिसे लगते नाखून

दरकती खाल

झुर्रियाँ बेतरतीब

आँखों में पकती उदासी

हवा चलती तेज जब भयभीत होते हैं।……….

.

लेकिन विजेन्द्र जी प्रबल द्वंद्वात्मक आत्मविश्वास और भरोसे के कवि हैं। उनकी जिजीविषा कहती है कि –

जनता है सूर्य

अभी और तपना है हमें

वह होगा अस्त

हमें जगते देखने को सुबह।

संदर्भः-

आँच में तपा कुंदन (कविता-संग्रह), विजेन्द्र,

चयन एवं संपादन, डॉ0 रमाकान्त शर्मा,

रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुरः-342011 (राजस्थान)

सम्पर्क-

मदन जी का हाता, आरा-802301

मो0-09931171611

विश्व लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला-3: माइकोव्स्की

                                                                    (मायकोव्स्की)

पहली बार पर हमने जनवरी में ‘विश्व के लोकधर्मी कवियों की एक श्रृंखला’ का आरम्भ किया था। वरिष्ठ कवि एवं आलोचक विजेन्द्र जी ने हमारे आग्रह पर इस श्रृंखला पर लिखने की अपनी सहमति दी थी। इस कड़ी में आप पहले ही व्हिटमैन और बाई जुई के बारे में पढ़ चुके हैं। तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है मायकोव्स्की पर यह आलेख।      
       

माइकोव्स्की   लोकधर्मी  क्रांतिकारी कवि      

विजेन्द्र

     माइकोव्स्की की एक प्रसिद्ध कविता है , ‘आयकर वसूलने वाले से संवाद ’। कवि कहता है आयकर वसूलने वाले से कि आपके काम में थोड़ा व्यवधान डालने के लिये आप मुझे क्षमा करेंगे। क्योंकि कवि जानना चाहता है कि ‘श्रमियों के समाज में आखिर कवि का दर्जा क्या होगा! व्यवसायिओं और धनिकों की तरह वह भी तो आयकर देता है। जुरमाना भी। तुम मुझ से चाहते हो ज्यादा वसूलना क्योंकि मैंने अग्रिम नहीं भेजा आय का अपना ब्यौरा। कहाँ हैं दूसरों से भिन्न मेरा काम । आगे कवि उसको आगाह करते हुये कहते हैं –

मैं अपनी प्रजा का नायक हूँ
उसका शिष्य भी
हमारे मुहावरे में ही बोलता है
हमारा वर्ग
हम हैं कलम के श्रमिक
सर्वहारा

इन पंक्तियों की ध्वनि है कवि का सामान्य जन होना। वह सर्वहारा के साथ है। समाज से वह सीखता है। पर उसे उजाला भी देता है। कवि ने संकेत दिया है कि  धनिको और शोषकों की वजह से वह कभी नही चुका पायेगा कर्ज। यह  कि कवि इस पूरी दुनिया का कर्जदार होता है। और यह कर्ज उसे सूद सहित चुकाना पड़ता है। कई बार जुरमाना भी देना पड़ सकता है –

कर्जदार होता है कवि सदा
इस दुनिया का
मैं हूँ कर्जदार राजपथ के उजाले का
बगदाद के आकाश का
अपनी लाल सेना का
जापान में फलते चेरी के वृक्षों का
उन सबका भी
जिनके विषय में लिखने का
वह न पा सका समय 

अंत में कवि कहते हैं आयकर सूलने वाले से कि ‘वह’ सिर्फ अपने समय का ही आदमी है। उसे सरकारी परिवहन विभाग ही अमरता का प्रमाण पत्र दे सकता है। कवि का महत्व इसलिये ही नहीं है कि उसे बाद में लोग बड़े आदर से याद करें। बल्कि अपने समय में भी उसकी कविता जनता की सेवा में अर्पित रहे –


कवि का प्रत्येक शब्द
आज भी एक चुम्बन है
एक उदघोष है
एक  संगीन है
एक कोड़ा भी 

ध्यान देने की बात है कि कवि यहाँ कविता को लोक के हित में हथियार  भी बना रहे है। प्रेमचंद ने अपने को ‘कलम का सिपाही’ कहा है। हमारी काव्यशास्त्रीय परम्परा में भी  कविता को हथियार  की तरह प्रयोग करने की अनुमति दी है। काव्य प्रयोजनों को बताते हुये आचार्य मम्मट ने ‘शिवेतर क्षतये’ को भी एक प्रयोजन बताया है। यानि जो जन विरोधी है – जो लोक का अहित करता है – कविता उसका क्षरण करे। उसे विनष्ट करे। वाल्मीकि रामायण का ‘युद्ध काण्ड’ वेदव्यास के महाभारत में व्यक्त ‘संघर्ष और युद्ध’ , तुलसी  का  ‘लंका काण्ड ’ निराला की ‘राम की शक्ति पूजा‘  नागार्जुन की ‘हरिजन गाथा’, केदारनाथ अग्रवाल की ‘ ‘काटो काटो करवी’ आदि कवितायें ‘शिवेतर क्षतये’ की ओर संकेत करती हैं। आज कविता को जो लोग ‘आत्मसाक्षात्कार’ या अपनी ‘अस्मिता की खोज’ भर मानते हैं  वे उसके लोकधर्मी स्वभाव को भौंथराते हैं। लोकधर्मी कवि कविता को जनता के पक्ष में उसे एक हथियार की तरह भी प्रयोग में लाने से नहीं हिचकता। मायकोव्स्की इसी भारतीय परंपरा के कवि है। ठीक इसी तरह वाल्ट ह्विटमैंन, ब्रेख्त, लोर्का, नेरूदा, नाजिम हिकमत, वाइ जुई, वोले शोयिंका आदि सभी लोकधर्मी कवि जनता के पक्ष में कविता को हथियार की तरह इस्तैमाल करने में अग्रगामी रहे हैं। इन सभी कवियों से सत्ता त्रस्त रही है। उसने इन्हें मनमानी यातनायें भी दी है। ब्रेख्त ने अपनी कविता के बारे में कहा ही है –

तुम्हारे पंजे देख कर
डरते हैं बुरे आदमी ।

 वोले शयिंका कहते हैं –

तो आओ , करें हम एक समझौता
चोट खाये लोगों के साथ
उनके खिलाफ
जो नहीं हैं किसी भी तरह कम
मौत के गिरोहवाज़ों से
उड़ा देते हैं जो परखचे
दिमाग के

एक लोकधर्मी कवि को जनता के पक्ष में अपना दायित्व निर्वाह करने के लिये कविता से मुठभेड़ का भी काम लेना पड़ता है। मायकोव्स्की  एक जनप्रतिबध्द लोकधर्मी कवि हैं । वह कविता को अन्य किसी मानवीय कर्म से अलग नहीं मानते। उन्हीं के शब्दों में  ‘यदि कविता को श्रेष्ठकोटि की गुणात्मक ऊँचाइयों तक ले जाना है, यदि उसे आगे भी जीवंत बना रहना है तो जरूरी है कि उसे सामान्य काम समझ कर और सभी तरह के मानवीय काम से अलगाना छोड़ दें’। हमें लगेगा कि मायकोव्स्की जनता से इतनी नज़दीकी बनाने पर जोर क्यों दे रहे हैं! क्योकि लोकधर्मी कवि का पहला दायित्व यही है कि वह अपने देश की जनता से एकात्म हो। उसके संघर्ष में शिरकत करने को जोखिम उठाये। सत्ता को बराबर चुनौतियाँ खड़ी करे।

 मायकोव्स्की का जीवन अत्यंत नाटकीय रहा है। जोखिमों और  चुनौतियों से भरा पूरा। 14 साल की उम्र में ही कवि  ने समाजवादी प्रदर्शनों में भाग लेना शुरू कर दिया था। उस समय वह  ‘ग्रेमर स्कुल’ के छात्र भी थे। 1906 में उनके पिता की सहसा और समय पूर्व मृत्यु हो गई। कवि अपनी माता तथा दो बहनों के साथ मास्को चले गये। मास्को में रह कर उनके मन में माक्र्सवादी साहित्य पढ़ने की जिज्ञासा पैदा हुई। साथ ही वह ‘सामाजिक लोकतांत्रिक श्रमिक दल’ की गतिविधियों में सक्रिय हुये। बाद में वह बोल्शविक पार्टी के सदस्य बन गये।  उनकी माता पर उनकी पढ़ाई की फीस के लिये धन नहीं था। अतः उन्हें ‘ग्रेमर स्कूल’ से निकाल दिया गया। इसी समय के आस पास कवि को उनकी विद्रोह राजनीतिक गतिविधियों की वजह से तीन बार जेल जाना पड़ा।  नावालिग होने की वजह से वह निर्वासन से तो बच गये। 1909  में बुतीरका जेल में एकाकी होकर उन्होंने काव्य रचना शुरू की। पता लगने पर उनकी कविताओं को जब्त कर लिया गया। जेल से रिहा होने पर भी वह समाजवादी आंदोलनों में बराबर सक्रिय रहे। 1911 में उन्होंने  मास्को के ‘आर्ट स्कूल’ में प्रवेश लिया। वहाँ कवि रूस के ‘भविष्यवादी आंदोलन’ से जुड़े सदस्यों के संपर्क में आये।  थोड़े ही समय में वह इस समूह के प्रवक्ता बन गये। डेविड बल्र्यूक उनके अनन्य मित्र बने। एक अच्छे परामर्शदाता भी। मास्को में रहकर कवि ने ‘रूसी राज्य टेलीग्राफ एजेन्सी’ के लिये काम किया। 1919 में  उनका प्रथम काव्य संचयन (1909 – 1919) प्रकाशित हुआ । प्रारंभिक सोवियत संघ के सांस्कृतिक  माहौल में कवि की लोकप्रियता तेजी से विकसित हुई। 1922 से 1928 तक मायकोव्स्की ‘वाम कला मोर्चा’ ( Left Art Front ) के प्रमुख सदस्य थे। वह लगातार सामाम्यवादी भविष्यवाद ( Communist Futurism ) की व्याख्या करते रहे ।
अमरीका की एक व्याख्यान  यात्रा में उनका परिचय ऐली जोन्स से हुआ। बाद में उनसे एक पुत्री  जन्मी । कवि को इसका पता 1929 में लगा। यह वह समय था जब दोनों छिप कर फ्रांस में मिले। दोनों के संबंधों को बहुत ही गुप्त रखा गया था। 1920 के अंतिम दिनों में कवि के तात्याना याकोवलेवा से प्रेम संबंध विकसित हुये। उन्होंने अपनी एक कविता ‘तात्याना याकोवलेवा के लिये एक पत्र’ उसी के लिये समर्पित की है।

        मायकोव्स्की की काव्य यात्रा अत्यंत नाटकीय रही है। 1912 में उनके भविष्यवादी काव्य का प्रकाशन हुआ। नाम है, –A Slap In The Face Of Public‘ इसमें शुरू की कवितायें हैं जैसे (Night and Morning)। पर कवि की राजनीतिक गतिविधियों  की वजह से उन्हें मास्को ‘आर्ट स्कूल’ से भी निकाला गया।

     1914 तक कवि भविष्यवादी आंदोलन के असर में लगातार सक्रिय रहे। बाद में उनकी कविता में ‘वर्णना शैली’ की प्रचुरता रही। रूसी क्रांति से पहले इस तरह की कविताओं ने उन्हें रूस का महत्वपूर्ण कवि स्वीकार किया। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर भी उनकी काव्य दीप्ति निखरने लगी।

   1915 में उनकी एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता ‘पैंट पहने हुये बादल’ (A Cloud In Trousers) प्रकाशित हुई। यह उनकी पहली प्रमुख कविता है जो पर्याप्त लंबी भी है। इसका कथ्य भी संश्लिष्ट है। इस कविता का तेवर मूर्ति भंजक है। कवि पहले से चली आई काव्य रूमानियत को कई तरह से ध्वस्त करते हैं

पिलपिले भेजे में
तुम्हारे विचार देखते हैं स्वप्न
लेटे लेटे
$         $         $
उनकी धज्जियाँ उड़ानी ही हैं मुझे ।
सामंती प्रेम पर भी यहाँ तीखे प्रहार हैं –
यदि चाहा तुमने
खाल उचेल के रख दूँगा

सब रूमानी प्रेम प्रसंगों की  – इसका अर्थ यह नहीं लगाना चाहिये कि क्रांतिकारी कविता में प्रेम निषिद्ध है। उसके प्रसंग, ध्वनि और अर्थ व्याप्ति अलग और भिन्न हो सकते है। कवि ने अपने जीवन में प्रेम किया ही है। उसकी उसे तल्ख अनुभूति भी हृई होगी। नेरुदा ने अपनी काव्य यात्रा शुरू ही प्रेम कविताओं से की थी। नाजि़म कारावास की काल कोठरियों में भी प्रेम कवतायें अपनी पत्नी को संबोधित करते रहे। अतः लोकधर्मिता तथा प्रेम से कोई बैर नहीं है। मायकोव्स्की कहते हैं –

मैं प्रेम में आह्लादित
दूसरी बार हिस्सा लूँगा
इस खेल में
अपनी भ्रूभंगिमा से

छिटकूँगा नरक की आँच –

कवि ने कविता और कवि दोनों की अवधारणा बदलने की कोशिश की है –

तुम्हें कवि कहलाने का कोई अधिकार नहीं है
तुम्हारी चहक गौरैयों की तरह

विरस और थकाऊ  है –

कवि को पुरानी सामंती या कुलीन प्रेम कवितायें रूग्ण लगती हैं । उनमें उन्हें कवि का रुदन दिखाई पड़ता है –

अपनी रुग्ण कविता में ही
तुम भावविभेर रहो
तुम रोते हो मोटे आँसुओं से
तुमसे मैं अलग होता हूँ।

उन्होंने एक जगह कहा भी है कि ‘प्राचीनता के उत्साही पुजारी नयी कला से बचने के लिये स्मारकों के पीछे शरण लेते हैं’। साथ में उन्होंने अतीत के साहित्य के महत्व को स्वीकारते हुये यह भी कहा है कि ‘हमें अतीत के काव्य से झगड़ना नहीं चाहिये । यह तो हमारी पाठ्य सामग्री है’।

सब मानते हैं माइकोव्स्की एक क्रांतिकारी कवि हैं। वह सर्वहारा के पक्षधर भी है। पर उनकी दृष्टि स्त्रियों के प्रति  सामंती क्यों दिखाई देती है। अपनी इसी प्रदीर्घ कविता में अपने शौर्य के सामने इस पूरी दुनिया को वह एक विवश स्त्री की तरह पैरों पर पड़ा आखिर क्यों दिखाते हैं! स्त्री को इस दशा में दिखाने के लिये यह रूपक माइकोव्स्की को अनुचित क्यों नही लगा

पूरी दुनिया –
मेरे पावों पर पड़ी होगी
एक स्त्री की तरह
रिझाने को मुझे

लुटा के अपना सारा सौंदर्य – यहाँ मुझे लगा कि कवि अति उत्साह में अपनी क्रांतिकरी हदों को त्याग रहे हैं। स्त्रियों के प्रति इस तरह कर अराजक तथा सामंती दृष्टिकोण हमारे यहाँ कवि धूमिल का भी है। वह भी स्त्री को माँ बन जाने के बाद उसे ‘धर्मशाला’ की संज्ञा देते हैं। स्त्री के प्रति यदि स्वस्थ जनवादी दृष्टि देखना है तो हमें नागार्जुन की  ‘ सिंदूर तिलकित भाल ’ कविता देखनी चाहिये –

 घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल

याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल
$                $         $
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिये न समाज
चाहिये किसको नहीं सहयोग
चाहिये किसको नहीं सहवास
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यहाँ है दुख सुख का अवबोध
यहाँ तुम्हारी स्मृति -विस्मृति के सभी के साथ
तभी तो तुम याद आती प्राण
हो गया हूँ मैं नहीं निष्प्राण – 

व्यक्ति प्रेम कितना स्वस्थ तथा व्यापक बनता है – इसकी ध्वनि लय सहाँ सुनी जा सकती है। ऐसा ही स्वस्थ जनवादी प्रेम हमें निराला, केदार बाबू तथा त्रिलोचन में भी मिलता  है। स्त्री प्रेम तथा उसके प्रति मनुष्य के दृष्टिकोण को लेकर  कम्युनिस्ट नैतिकता क्या है – इस प्रसंग में प्रसिद्ध पत्रकार क्लैरा जैट्किन तथा लेनिन के बीच हुई बात चीत अत्यंत महत्वपूर्ण है। कुछ लोग आज भी यह मानते हैं कि कम्युनिस्ट होने का अर्थ है कि मनुष्य पर किसी तरह का कोई बंधन नहीं है। अर्थात उसे अपने निजी आचरण तथा सामाजिक नैतिकता से कुछ लेना देना नहीं है। इसी संदर्भ में क्लैरा जैट्किन ने लेनिन से लंबी बात चीत की है। लेनिन का मत है कि कम्युनिस्ट के जीवन में नैतिक आचरण  महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि हर तरह से जरूरी भी है। स्त्री के प्रति हमारी दृष्टि स्वस्थ तथा समानता की होनी चाहिये। जीवन में नैतिक संयम तथा अनुशासन कम्युनिस्ट होने की पहली शर्त है।  मायकोव्स्की ने शायद इधर ध्यान नहीं दिया! इस लंबी पूरी कविता में प्रेम, क्रांति, धर्म तथा कला पर  टिप्पणियाँ हैं। मुझे लगा मायकोव्स्की एक तिरस्कृत प्रेमी की भाषा बोलते हैं। इस कविता की भाषा बहुत ही सामान्य तथा आम आदमी के लिये जैसे संबोधित है। उन्होंने कवियों के  रूमानी विचारों तथा आदर्शो की  तीखी आलोचना की है ।

      1915 के ग्रीष्म में कवि पुनः एक विवाहित महिला से प्रेम करने लगे थे। उसका नाम था लिलिया ब्रिक। उनकी 1916 में रचित कविता ‘ (The Backbone Flute) इसी महिला को समर्पित है। मज़े की बात यह कि महिला उनके प्रकाशक की पत्नी थी जिसका नाम ओसिप ब्रिक था। कहा जाता है कि कवि के प्रेम प्रसंग, युद्ध  तथा समाजवाद के विचार ने इस दौर की कविताओं को बहुत प्रभावित किया है। यहाँ फिर कोई भी कवि के नैतिक आचरण पर प्रश्न खड़े कर सकता है ! जिस समाजवाद के वह पक्ष में हैं क्या उस समाजवाद में ऐसे ही नैतिक प्रतिमान होंगे! कवि की इस दुर्बलता ने उन्हें अंत तक अराजक बनाये रखा है ! 1916 में ही उन्होंने एक और कविता रची -(War And The World.)। यह कविता युद्ध की विभीषिका को व्यक्त करते हुए  प्रेम की मनोव्यथा को व्यक्त करती है।

         प्रथम युद्ध  के समय माइकोव्स्की को सेना में एक स्वयं सेवक के रूप में नहीं लिया गया। उसके बाद उन्होंने ‘Petrograd Military Automobile School में मानचित्रक के रूप में कार्य किया। रूसी क्रांति के समय कवि पैट्रोग्राड के आस पास ही थे। वहाँ उन्होंने अक्टूबर क्रांति को करीब से देखा। उस समय उन्हों ने Left March’ कविता का पाठ भी किया।

मायकोव्स्की ने कुछ नाटक भी लिखे हैं। पर उनकी प्रमुख छवि  एक क्रांतिकारी कवि की ही है –

मैं  कवि  हूँ
वही मुझे रुचिकर बनाता है
उसी के बारे मे कवितायें
रचता हूँ

इस तरह माइकोव्स्की  क्रांति के अग्रदूत तथा उसके गायक के रूप में विश्व में प्रख्यात हुए ।   कविता के साथ कवि का एक रूप चित्रकार, प्रचारक, अभिनेता तथा व्यंग्यकार का भी है । रूसी कविता का उनको ‘क्रोधोन्मादी बैल’ भी कुछ लोग कहते हैं। कुछ ने  उन्हें ’तुकांत कविता का जादूगर’ बताया है। कुछ उन्हें रूस में  ‘यथार्थपरक क्रांतिकारी कविता का प्रवर्तक’ मानते हैं। कुछ ने उन्हें ‘व्यक्तिनिष्ठ कवि’ की भी संज्ञा दी है। पर वह सत्ता तथा प्रतिष्ठान द्वारा रचे गये प्रतिमानों के  विरुद्ध विद्रोही कवि सुविख्यात हैं। यह सही है कि  रूसी क्रांति के सार को कविता में व्यक्त करने वाला अन्य कोई कवि नहीं था। वह रूसी अक्टूबर क्राति के अग्रदूत कवि हैं। उनकी मृत्यु के बाद स्टालिन तक ने उनके लिये ‘सोवियत काल का उत्कृष्ट तथा प्रतिभा संपन्न कवि’ कहा है। ये शब्द उनकी कविता के लिये एक प्रकार से प्रतिमान बन चुके हैं।  कवि के अन्य पहलू भी हैं जिन्हें जानना जरूरी है। वह असुरक्षित रूप से  ‘भावोन्मादी’ कवि हैं। वह ‘निराशोन्मत्त’ होकर  प्रेम करते थे। और चाहते थे कि लोग उन्हें चाहें, प्यार करें। दुर्भाग्य से यह हो नहीं पाया। मायकोव्स्की का जन्म और मृत्यु दोनों ही रहस्यमय बनी रही हैं।  सर्वहारा के पक्षधर  प्रख्यात कवि कुछ इस तरह दिखते हैं जैसे वह अंदर से शायद वैसे वह  हैं भी या  नहीं। किसी कवि के लिये इससे बड़ी त्रासदी और कोई हो नहीं सकती। यदि हमारे दोहरे चरित्र के बारे में कोई उँगली उठाये तो समझें कि हम से कविता की गरिमा छीनी जा रही है। जब हम लोक को उजाला देने की बात करते हैं तो हमें अपने आचरण और नैतिक आदर्शों पर कड़ी निगाह रखनी ही होगी।

       1920 के प्रारंभ में ही सोवियत समाज में अफसरशाही हावी होने लगी थी । इस के असर में कवि ने एक तीखी व्यंग्य कविता रची ‘Re Conferences’ अफसरशाही पर यहाँ तीखे व्यंग्य हैं। ‘आयकर वसूलने वाला’ उनकी ऐसी ही कविता है –

मैं ज़ोर देकर कहता हूँ
इन शब्दों का मूल्य
धन से कहीं ज़्यादा है
अपने शब्दों में कहें तो
एक ‘तुक’
डाइनामाइट के एक भरे कनस्तर के बराबर है
पलीता है एक पंक्ति
पूरे नगर को उड़ा सकता है
मेरा छंद

उनकी एक और कविता है ‘पेपर का आतंक’-

बिखरते फिरते हैं कागज़ ही कागज़
बुरी तरह भरी फाइल से
दाँत निपोरते और गुर्राते हुये
बहुत शीघ्र ही आदमी
इन फालों में सरकेंगे
बिलों को खोजने के लिये
फिर रहने चले जायेंगे कागज़
घरों में आदमियों के

इसी कविता में कवि को मनुष्य की आंतरिक रिक्तता तथा उसका अमानवीय होना  परेशान करता दिखता है। आफिसों में चारों तफ  कागज़ों का ही साम्राज्य है। कवि भविष्यवाणी के लहज़े में कहते हैं कि कागज़ ही मेज़ पर बैठकर अपना खाना खायेंगे। जबकि आदमी एक तोलिया की तरह गुड़ी मुड़ी होकर मेज़ के नीचे पडे़ होंगे –

मेज़ पर बैठेंगे कागज़
खना खाने के लिये
जबकि आदमी तोलिया की तरह
पड़े होंगे गुड़ी मुड़ी
मेज़ के नीचे

कवि सर्वहारा को संबोधित करते हुये उसे सजग करता है कि वह इस हृदयहीन अफसर शाही की यांत्रिकता से नफरत करे। यह उनका शत्रु है बरवाद करने को तत्पर –

कागजों की पुर्जी पुर्जी करके उड़ा दूँगा
ओ सर्वहारा
तुम नफरत करो
व्यर्थ के
हर छोटे से छोटे कागज़ से
नफरत करो
उसी तरह जेसे
तुम नफरत करते हो अपने शत्रु से

  कहते हैं उन्ही दिनों लेनिन ने एक व्याख्यान में कहा था कि वह ‘मायकोव्क्सी से बहुत कुछ सहमत’ है। क्यों कि ‘अफसरशाही श्रमियों की राज्य को खा’ रही है। 1924 में मायकोव्स्की ने अपने महान नेता लेनिन की मृत्यु पर एक सुदीर्घ कविता रची। कहा जाता है कि सोवियत संघ के तमाम स्कूलों में उस कविता को बच्चों ने कंठस्थ कर लिया था। इस कविता में लेनिन की महानता के साथ क्रांति तथा उसके अनेक पहलुओं को व्यक्त किया है। प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं –

समय आ चुका है
मैं शुरू करता हूँ लेनिन की कहानी
इसलिये नहीं क्योंकि अवसाद ढलने को है
बल्कि उस क्षण की तीखी मनोव्यथा
हुई है और तीक्ष्ण
पीड़ा
गहन हुई है
ओ समय
गतिमय रहो
लेनिन के नारों को फेलने दो त्वरित
कुछ भी हो आँसुओं में डूबना नहीं है
लेनिन से ज्यादा जीवंत
और नहीं है कोई
हमारी शक्ति
हमारा ज्ञान
अचूक हमारे अस्त्र-शस्त्र

इसमें संदेह नहीं यह एक महान कविता है। लेनिन एक महानायक की तरह इसके केंद्र में होते हुये भी कविता में उस समय का समय जीवंत हुआ है। टी0एस0एलियट की ‘वेस्ट लैण्ड’ लिखी गई 1920 के आसपास। दोनों कवितायें दो ध्रुवों पर खड़ी दिखती है। एलियट विश्व संकट का समाधान धार्मिक पुनरुत्थान तथा नृपतंत्र की बहाली में देखते हैं। मायकोव्स्की सर्वहारा की मुक्ति तथा समाजवाद में। इसी अर्थ मे मायकोव्स्की की ‘लेनिन’ कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है। क्योंकि आज पूँजीवाद का संकट और साम्राज्यवाद का आतंक न तो धर्म से उलझाये जा सकते हैं। न नृपतंत्र की बहाली से  उसके लिये एक ही विकल्प शेष है कि सर्वहारा की मुक्ति  हो। समतामूलक समाज बने। विश्वभर मे असंतोष है कि पूँजीकेंद्रित व्यवस्था अंदर से सड़ चुकी है। अमरीका में  ‘वालस्ट्रीट घेरो’ आंदोलन के साथ योरुप के सभी देशों में एक समतामूलक वयवस्था के लिये नई पीड़ी आंदोलित है।

1922 से 1928 तक मायकोव्स्की (Left Art Front) के प्रमुख सदस्य रहे। इसी के माध्यम से वह  (Communist Futurism) की व्याख्या करते रहे। उनका लेखन बराबर जारी रहा। उन्होंने कहने को नाटक भी लिखे । विज्ञापन के लिये पोस्टर्स भी बनाये । लेकिन बाद में बोल्श्विक पार्टी सख्त हुई। नये प्रयोगों तथा  दिशाहीन अग्रगामिता को उसने स्वीकृति नहीं दी। मायकोव्स्की अपने देश के सर्व प्रसिध्द कवि होने पर भी कुछ लोग उनकी कविता का विरोध करते थे । खासतौर पर उनका व्यंग्य नाटक ( The Bath House ) की सर्वहारा लेखकों के संगठन ने कड़ी आलोचना की । 1928 में कवि के 20 वर्ष के रचना कर्म की उन्हीं के साथियों तथा दल  के नेताओं  द्वारा उपेक्षा हुई । 9 अप्रैल , 1930 को उनहेंने छात्रों के समक्ष अपनी कविता (At the Top Of My Voice ) का पाठ किया । छात्रों ने उन्हें यह कहते हुये हूट किया कि कविता दुरूह है । एक सर्वहारा  से प्रतिबद्ध  कवि में ऐसी दुरूहता क्यों आई। जो उसके ही साथी उसका विरोध करने लगे। कहीं इसका गहरा तथा अचेत रिश्ता कवि के गिरते आचरण से तो नहीं है! इससे कवि को गहरा आघात पहुँचा होगा।

 मायकोव्स्की उन कुछ ही कवियों में से एक हैं जिन्हें बाहर जाने के लिये मुक्त रखा गया था। उन्होंने योरुप, मैक्सिको, क्यूबा, तथा अमरीका का भ्रमण किया । बाद में अपने अनुभवों को उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक (My Discovery Of America) में अंकित किया है। कहा जाता है यात्रा से लौटते समय उनके बक्से किताबों  , पत्रिकाओं ,कला की प्रतिलिपियों से भरे थे । उन्होंने इस सामग्री को अपने मित्रों में वितरित किया । उन्हें यात्रा में अनेक उपहार भी मिले थे ।

     1925 के ग्रीष्म में उन्होंने न्यूआर्क की यात्रा की। जैसा कि पहले बताया है कि ऐल्ली जोन्स से यहाँ उनकी भेंट हुई।  ऐल्ली रूसी मूल की ही थी। लेकिन क्रांति के बाद वह अमरीका आ गई थी। एक अंग्रेज से उसने विवाह किया। बाद में दोनों का तलाक हो गया। मायकोव्स्की और ऐल्ली का प्रेम संबंध बहुत ही गुप्त रखा गया। क्योंकि सोवियत कवि को किसी  आप्रवासी से प्रेम में उलझना उचित न था। कवि को पता न था कि वह एक पुत्री के पिता बनने को हैं। 1928 में फ्रांस में उन्होंने उसे एक बार देखा था। उस समय वह तीन साल की थी। उनकी पत्नी लिली को जब इस बात की भनक पड़ी तो वह बहुत दुखी हुई। उसने एक समाधान सोचा। 22 वर्षीय सुंदर अपनी बहन तात्याना से उसने कवि का परिचय कराया। तात्याना प्रसिद्ध  माडल तथा पिरल सुंदरी थी। फैशन के चैनल में काम करती थी। मायकोव्स्की ने दो कवितायें लिखीं (‘Letter to Comrade Kostrov On The Essence Of Love) तथा (Letter to Tatiana)। दोनों कवितायें तात्याना को  ही समर्पित है। लगता है कवि प्रेमोन्मादी और भावावेश में हैं। बाद में उनकी पत्नी ने उन्हें फटकारते हुये लिखा कि ‘तुमने मुझे पहली बार धोखा  दिया है’। मायकोव्स्की प्रेमोन्मादी की तरह तात्याना से विवाह के लिये निवेदन करते रहे। वह उसके साथ पेरिस जाने के लिये भी तत्पर थे। किसी तरह उन्हें वीज़ा प्राप्त नहीं हुआ। उसी दौरान लिली ने कवि को पत्र लिखा कि तात्याना का विवाह होने को है। जबकि शादी का ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं था। जनवरी 1929 में  मायकोव्स्की ने बताया कि वह तात्याना से बेहद प्रेम करते हैं। यदि उनका विवाह उससे नहीं हुआ तो अपने अपने सिर में पिस्तौल से गोली मार लेंगे। 14 अप्रैल 1930 को उन्होंने अपने सिर में गोली दाग ही ली।

      मायकोव्स्की ने एक मृत्यु पत्र छोड़ा था। उसमें कहा है, ‘आप सबको मैं संबोधित करता हूँ। मैं आत्महत्या कर रहा हूँ। इसके लिये कोई भी दोषी न ठहराया जाये। कृपया अफवाह न उड़ायें। क्यों कि मरने वाला इन बातों को कतई पसंद नहीं करता। माँ, बहने, साथियो मुझे क्षमा करना। इस मृत्यु का कोई अच्छा तरीका नहीं है। मैं दूसरों को इसे प्रस्तावित नहीं करता। पर मेरे लिये अब कोई अन्य रास्ता नहीं है। लिली मुझे पयार करती है। साथी सरकार, मेरे परिवार में लिली ब्रिक, मेरी माँ,  मेरी बहने आदि हैं। यदि तुम उन्हें एक अच्छा जीवन प्रदान कर सको तो मैं आभार मानूँगा। जो कवितायें मैंने शुरू की हुई हैं उन्हें ब्रिक्स को दे दें। वे उन्हें समझते हैं। कवि की एक मर्म भेदक पंक्ति है –

प्रेम नौका हर दिन के विरुद्ध
टकरा के तवाह हुई है

आज भी कवि की मृत्यु को लेकर विवाद तथा रहस्य बनें हैं। रहस्य इस अर्थ में कि कवि को आत्म हत्या के लिये किस कारक ने प्रेरित किया। विवाद इसलिये क्योंकि कवि ने आत्म हत्या असफल प्रेम या गृहस्थ जीवन में उपजी निराशा से की। अथवा कवि को वह सब नहीं मिल पाया जिस की उन्होंने अपना समाज, राज्य तथा साथियों से बड़ी अपेक्षा की थी।

कहते हैं अपनी मृत्यु के समय कवि आसमानी रंग की कमीज़ पहने थे । अच्छे किस्म की पेंट थी । बोल्श्विक उनकी जैविक जड़ों का अध्ययन करना चाहते थे । उनका मस्तिष्क निकाला गया । उसका वज़न 1700 ग्राम था । लेनिन के मस्तिष्क से भी भरी जो 360 ग्राम का था। कहा जाता है उनके पार्थिव शरीर को राजकीय सम्मान से तीन दिन तक रखा गया था। एक लाख पचास हज़ार विलापियों ने उनके अंतिम दर्शन किये।

        आज  अनेक शंकामय सवाल उठाये जाते हैं कि  क्या कवि ने सच मुच आत्महत्या की! मृत्यु पत्र आत्महत्या से दो दिन पहले क्यों लिखा गया! मृत्यु से कुछ ही देर पहले उनके करीबी मित्रों, लिली तथा ओसिप ब्रिक को  जल्दी-जल्दी बाहर क्यों भेज दिया गया! उनके शरीर से गोलियाँ मिलान करने के लिये क्यों नहीं निकाली गई ! उनके पड़ौसियों ने दो बार गोली चलने की आवाज सुनी!  उनकी जीवनी लिखने वालों ने संकेत दिये हैं कि वह ऐसे व्यक्ति न थे कि आत्म हत्या करें!

मायकोव्स्की की पुत्री  एलेना ब्लादमीरोवना मायकोव्स्किया न्यूआर्क शहर के एक महाविद्यालय में  अध्यापन करती है। उनका मानना है कि उनके पिता की मृत्यु अब भी अनेक रहस्यों से घिरी हुई है। जब तक कोई ठोस सबूत न हो वह उसके बारे में कोई निश्चित बात नहीं कह सकती। पर इतना वह मानती है कि उन्होंने आत्म हत्या नहीं की! और किसी स्त्री के लिये तो उन्होंने आत्महत्या की ही नहीं जैसा कि ज्यादातर माना जाता है। जो भी हो मायकोव्स्की के पूरे जीवन क्रम को देखकर लगता है वह अतियों मे जीने के अभ्यासी हो चुके थे। ऐसे लोग कोई भी अतिवादी कदम उठा सकते हैं।  दूसरे, उनका जीवन विक्षोभों से भरा था।  धरती में जैसे लावा खैाल रहा हो। बहुत बड़ी बड़ी महत्वाकांक्षायें यदि पूरी न हों तो भी हमें अवसाद आ घेरता है। पर एक मार्क्सवादी  को इन सब बातों से उवरने के लिये उसके पास वैज्ञानिक दृष्टि होती है। क्या  इसका अर्थ यह लगायें कि विचारधारा कवि का जैविक हिस्सा नहीं बन पाई! हमारे यहाँ भी कवि गोरख पाण्डेय का एक ज्वलंत उदाहरण है।
    
कविता रचने के साथ साथ मायकोव्स्की ने कविता, कवि कर्म, काव्य प्रक्रिया, कविता के प्रयोजन आदि के बारे में कुछ ऐसी खास तथा महत्वपूर्ण बातें कहीं है जो हर समय के कवि को उसकी रचना के लिये मददगार हो सकती है। कवि का मानना है कि उनकी ‘स्थाई और प्रमुख घृणा’ का रुख उन के विरुद्ध है जो ‘भावुकतापूर्ण दृष्टि वाले कूपमंडूक आलोचक’ हैं। या जो कविता में ‘द्वंद्ववाद’ को नकारते हैं। उनके अनुसार ‘नियमों को जान कर ही कविता नहीं’ लिखी जा सकती। बल्कि वही ‘कवि समर्थ तथा भविष्णु’ है जो ‘काव्य  नियमों’ को रचता है। ‘नीरस और निरर्थक तुक्कड़पन’ व्यर्थ है। कवि चाहते हैं कि नये समय में ‘आविष्कृत नई भाषा’ को  ‘तत्काल नागरिकता का अधिकार‘ प्राप्त होना जरूरी है। कविता में ‘लययुक्त गान’ के बजाय ‘चित्कार’ लोरी के बजाय  ‘नगाड़े की गर्जन’ चाहिये. जैसे प्रसिद्ध ब्लोक की पंक्ति है –

‘साधो  क्रांति-कदम अपने’।

 या मायकोव्स्की स्वयं की पंक्ति है -‘कूच करो ! मोर्चे पर डटे रहो’। ‘शत्रु घात में है ! सावधानी से चलो’ इतना बताना ही काफी नहीं है। हमें शत्रु का ऐसा विस्तृत चित्रण करना चाहिये जिस से पाठक उसका सटीक अनुमान लगा सके। मायकोव्स्की की कुछ पंक्तियाँ हैं –

अनन्नास खाओ बुर्जुआओ
तीतर के लो स्वाद चटकारे

समय तुम्हारा है निकट आखिरी। उनका कहना है कि कुलीन शास्त्रीय काव्यशास्त्र शायद ही ऐसी कविता को सही कविता के रूप में स्वीकारेगा। उनके अनुसार कविता में  ‘नवीनता बहुत जरूरी है’।  पर यह नवीनता जरूरी नहीं कि ‘निरंतर ही अभूतपूर्व सत्य प्रकट’ करे।  कवि मानते हैं कि , ‘कविता सबसे पहले ‘प्रवृत्तिमूलक’ होती है । यानि उसमें चिंतन दिशा तथा कवि की विश्वदृष्टि साफ झलकती है। मायकोव्स्की ने कविता रचने के लिये कुछ मूलभत बातों पर जोर दिया है – समाज में ऐसे ‘कार्य भार’ जो काव्य सृजन से ही पूरे किये जा सकें। यानि एक सामाजिक माँग। इसके लिये हमें अपने ‘वर्ग की मनोदशा’ तथा उसकी ‘इच्छाओं का ज्ञान’ होना चाहिये। हमारे पास एक जरूरी, अर्थवान,विरल, खोजा हुआ, ‘नया मुहावरा’ भी हो। हमारे पास ऐसी दृष्टि हो जिस से हम ‘सटीक शब्द संशोधन’ कर ‘मौलिक तकनीक’ का प्रयोग कर सकें। यह ‘कठोर श्रम’ के बाद ही अर्जित की जा सकती है जैसे ‘संतुलित तथा अर्थवान’ तुकों का प्रयोग। ‘शिल्प तथा शैलीगत’ वैशिष्ट्य। उनका मानना है कि ‘उत्कृष्ट कविता’ तभी सिरजी जा सकती है जब उसके लिये ‘काव्य विषयक पूरी तैयारी’ पहले से की जा चुकी हो। कवि के लिये उसकी ‘डायरी’ बड़ी महत्वपूर्ण होती है।  हर भेंट, प्रत्येक सार्वजनिक विज्ञापन  तथा किसी भी तरह की स्थितियों में होने वाली ‘हर घटना’ कविता का ‘कथ्य’ होती है । कवि मानते हैं कि  ‘कविता सबसे कठिन’ चीज़ों में से एक चीज़ है । और यह सत्य है’। अगर सार्थक तथा सही कविता रचना है तो  ‘समय या संविधान में बदलाव जरूरी है‘ । कवि ने अपनी बात साफ करने के लिये चित्रकला से  दृष्टांत दिया है। अगर हम किसी चीज़ का रेखा चित्र खींच रहे हैं तो हमें उस वस्तु के आकार की तीन गुनी दूरी पर चले जाना चाहिये। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक हमें पता न होगा कि हम किस चीज़ का चित्रांकन कर रहे हैं। जितनी बड़ी वस्तु या घटना होगी उतनी ही ‘अधिक दूरी’ तक हमें पीछे हटना होगा। कमज़ोर कवि ‘जहाँ के तहाँ’ बने रह कर यह इन्तज़ार करते हैं कि घटना अतीत की वस्तु हो जाये जिससे वे उका चित्रण कर सकें। जो कवि समर्थ है वह ‘समय पर काबू पाने’ के लिये आगे निकल जाता है। ध्यान रहे कविता सिरजने में ‘जल्दवाजी’ से हम ‘काव्य कथ्य’ को चौपट कर देंगे। तात्कालिक विषयों पर लिखी कवितायें जल्दी की एकांगी, सामान्य तथा विरस लग सकती हैं।  उनमें सुधार जरूरी है। पर यह नहीं समझ लेना ‘ यही ‘करना चाहिये । जो कवितायें हल्की या प्रचारात्म्क लगने लगें तो समझो  कि कवि ने अपेक्षित श्रम नहीं किया। या उसके गहन रियाज़ में कमी है । उसने पूरे समर्पण के साथ  अभी कवि कर्म में दक्षता अर्जित नहीं की है। कवि में ‘समय का सुसंगठन’ तथा उसका ‘गहन अनुभव’ करने की क्षमता के बारे में बार बार चेताया जाना जरूरी है । लय सारे काव्य का आधार है। लय के स्रोत अनेक हो सकते हैं। जैसे शब्दों या पंक्तियों की पुनरावृत्ति।  ध्वनियों को बार बार लाना। किसी परिघटना के दोहराव से । समुद्र के तट पर खड़े होकर लहरों में होते दोलन से भी लय पैदा होती है। यदि कोई हमारे दरवाज़े की कुण्डी बार बार खटखटाये उससे भी लय पैदा हो सकती है।  मायकोव्स्की लय को अपने ‘भीतर किसी आवाज़, शोर दोलन की पुनरावृत्ति‘ मानते हैं । कवि को छंद तब अर्जित होते हैं जब वह ‘लयात्मक गूँज’ को शब्दों का रूप देकर रचता है – उन शब्दों को जो कविता का पूर्वनिश्चित लक्ष्य मुझे सुझाता है। मायकोव्स्की के लिये कविता को अभिव्यंजना की परम ऊँचाई तक ले जाना बेहतर है। इसके लिये, ‘सबसे महत्वपूर्ण साधन बिंब है ’। कवि के लिये कविता एक उत्पादन कार्य है । बहुत कठिन और बहुत ही पेचीदा। पर है उत्पादन कार्य। कवि को रियाज़ करना बहुत जरूरी है। कविता का उत्पादन उस समय तक नहीं जब तक कवि को सामाजिक माँग का गहरा एहसास न हो जाये। इस माँग को बेहतर समझने के लिये कवि को ‘समय की मूल चिंताओं’ के केंद्र में होना जरूरी है। कला रूपवादीं कवि से अलग और भिन्न जनवादी- अग्रगामी कवि को प्रत्येक दिन की वस्तुस्थिति के ज्ञान के साथ आर्थिक सिद्धांत  तथा वैज्ञानिक इतिहास में भी रुचि लेना बेहतर है । मायकोव्स्की के अनुसार कवि को सभी मोर्चों पर लड़ना जरूरी है। अराजनीतिक कविता – कला की कपोल – कल्पना की धज्जियाँ उड़ा देनी चाहिये। अन्य सभी तत्वों की तरह प्रतिदिन का काव्यात्मक वातावरण भी वास्तविक कृति की रचना को असर देता है।

इस प्रकार मायकोव्स्की रूसी क्रांति से पूर्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि हैं। वे निरर्थक हुई रूढि़यों को ढहाते ही नहीं बल्कि नया पथ निर्माण कर विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं। कहते हैं कि पुश्किन के बाद कविता को नया लय पैटर्न तथा भाषा को सर्वहारा की ऊर्जा देने वाले वह अन्यतम कवि हैं। उनकी कविता ने प्रतीकवाद, बिंबवाद, कलावाद, रूपवाद आदि जैसे पतनशील काव्यान्दोलनों के कुप्रभाव को कम करके कविता को संघर्षशील जनता से जोड़ा। सही अर्थों में वह एक क्रांतिकारी लोकधर्मी कवि हैं। उन्ही की पंक्तियों से बात खत्म होती है

मेरे साथियों –

बहुत खुलकर कहता हूँ तुम से
नहीं चाहिये कुछ भी मुझे
एक साफ धुली कमीज़ के अतिरिक्त
जाऊँगा जब मैं
भविष्य के उज्ज्वल वर्षों में
सोवियत संध के साम्यादी दल  के समक्ष
केंद्रीय निंयत्रक आयोग के आगे
वंचक तथा बहुरूपिये कवियों की भीड़ को  चीरता
पार्टी कार्ड के मानिन्द
मैं चुनूँगा
सौ पुस्तकें
अपनी जनपक्षधर कविताओं की ।

            –0–

(विजेन्द्र जी हमारे समय के वरिष्ठ कवि, आलोचक एवं चित्रकार है। साथ ही महत्वपूर्ण लघु पत्रिका ‘कृतिओर’ के संस्थापक सम्पादक भी हैं।)

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