नीलाभ का आलेख ‘अब्दुल करीम खां साहब और किराना घराना’।

नीलाभ

अदम्य जिजीविषा के धनी नीलाभ का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे जितने अच्छे कवि थे उतने ही अच्छे आलोचक भी थे। नीलाभ द्वारा किये गए अनुवाद भी उत्कृष्ट कोटि के माने जाते हैं। हिन्दी, उर्दू, पंजाबी के साथ-साथ नीलाभ का अंग्रेजी और स्पेनिश पर भी अच्छा अधिकार था। अरुन्धती राय के चर्चित उपन्यास ‘गाड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ का उनका अनुवाद ‘मामूली चीजों का देवता’ को आज भी याद किया जाता है।
16 अगस्त 1945 को मुम्बई में जन्मे नीलाभ की मशहूर काव्य-कृतियाँ हैं – ‘अपने आप से लम्बी बातचीत’, ‘जंगल खामोश है’, ‘उत्तराधिकार’, ‘चीजें उपस्थित हैं’, ‘शब्दों से नाता अटूट है’, ‘खतरा अगले मोड़ के उस तरफ है’, ‘शोक का सुख’ और ईश्वर को मोक्ष’। 1980 में बी. बी. सी. की विदेश प्रसारण सेवा की हिन्दी सेवा बतौर प्रोड्यूसर लन्दन चले गए और वहाँ उन्होंने 4 वर्षों तक काम किया। नीलाभ ने लेर्मोंतोव के उपन्यास का ‘हमारे युग का एक नायक’ नाम से और शेक्सपियर के उपन्यास ‘किंग लियर’ का अनुवाद ‘पगला राजा’ नाम से किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने जीवनानन्द दास, सुकान्त भट्टाचार्य, एजरा पाउंड, ब्रेख्त, तादयुश, रोज्श्विच, नाज़िम हिकमत, अरनेस्तो कादेनाल, निकानोल पार्रा और नेरुदा की कविताओं का भी अनुवाद किया। ‘हिन्दी साहित्य का मौखिक इतिहास’ उनका एक यादगार काम हाल ही में सम्पन्न हुआ जिसकी सराहना व्यापक स्तर पर हुई। इलाहाबाद में रहने के दौरान नीलाभ का ‘नीलाभ प्रकाशन’ साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र निरन्तर बना रहा। बीते दिनों इब्ने सफ़ी के चुनिन्दा उपन्यासों का उन्होंने सम्पादन कर इब्ने सफ़ी के रचना संसार को रेखांकित करने का महत्वपूर्ण प्रयास किया। आजकल वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका ‘रंग-प्रसंग’ का सम्पादन कर रहे थे। साथ ही वे अपने ब्लॉग ‘नीलाभ का मोर्चा’ नियमित रूप से लिख रहे थे। लम्बी बीमारी के बाद कल 23 जुलाई को दिल्ली में नीलाभ का निधन हो गया।
नीलाभ ने ‘अनहद’ के पिछले अंक से यह वादा किया था कि वे उसके हर अंक में संगीत पर जरुर लिखेंगे। उसी क्रम में उन्होंने ‘सरगम’ कालम के अंतर्गत यह आलेख लिखा था। नीलाभ को पहली बार की तरफ से श्रद्धांजलि देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं यह आलेख ‘अब्दुल करीम खां साहब और किराना घराना’।    

अब्दुल करीम ख़ां साहब और किराना घराना
नीलाभ
बया उरीद गर ईं जा बुवद ज़बाँदाने
ग़रीबे-शहर सुख़नहा-ए-गुफ़्तनी दारद
((ज़बानें जानता हो जो बुला के लाओ उसे
शहर में एक परदेसी बताना चाहे बहुत कुछ))
                   ग़ालिब
दोस्तो,
जैसेजैसे हम साठेतोपाठे की मसल पर पाठे होने के बाद बाइबल के तीन कोड़ी और दस बरस की तरफ़ बढ़ते गये हैं, हम देख रहे हैं कि दिमाग़ का ख़लल और दिल का जुनून उसी रफ़्तार से बढ़ता गया है उम्र कम होती देख कर ग़ैब ने भी, हमारे साईं ने जैसे कहा था, ख़यालों में मज़ामीन भेजने की कुछ ज़ियादा ही ठान ली है मगर ऐसा तो हमारे साईं के साथ भी हुआ था (हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले) बहरहाल, चूंकि आजकल रात बहुत देर हो जाती है, ज़िन्दगी कुछ ठीक नहीं चल रही, चुनांचे सुबह कुछ अजीबग़रीब ख़याल आते हैं
आज ग़ैब ही से आया एक नाम उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां साहब हमने यूट्यूब खोला और अपनी पसन्दीदा दो रचनाएं सुनींएक भैरवी और एक मराठी जिसके दो रूप मिले फिर जाने क्या सूझी साहेबो, हमने विकीपीडिया पर उस्ताद साहब का पेज खोला पढ़ने से पहले दायीं तरफ़ नज़र डाली देखा जन्म और मौत की तारीख़ों के नीचे औलाद के नाम पर लिखा था सुरेशबाबू माने हम एकबारगी चकरा गये ख़ान साहब की ज़िन्दगी के बारे में पढ़ा पैदाइश सन 1872 में कैराना, मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश एक क़दीमी मूसिकारों के ख़ानदान में तालीम अपने वालिद उस्ताद काले ख़ां साहब से और चचा अब्दुल्ला ख़ां से और कुछ रहनुमाई एक और चचा नन्हे ख़ां से पहले सारंगी में शुरुआत, फिर वीणा, तबला और सितार को आज़माने के बाद गायन का फ़ैसला अपने भाई अब्दुल हक़ के साथ गाने की शुरुआत और जगहजगह राहपैमाई आख़िर पहुंचे बड़ौदा जहां दोनों को दरबारी संगीतकार का दर्जा मिला
यहीं से क़िस्मत ने अपना खेल दिखाना शुरू किया राजमाता के भाई थे मराठा गोमान्तक सरदार मारुति राव माने, जिनकी बेटी तारा बाई को सिखातेसिखाते कब दोनों इतने क़रीब गये कि पता भी चला और दोनों शादी की ठान बैठे ख़ूब बावेला मचा मगर सरदार सरदार थे तो तारा बाई दुख़्तरेसरदार देश निकाला मिला उस्ताद को भी, उनकी नयी ब्याही बीवी को भी और भाई को भी अब्दुल करीम ख़ां साहब बम्बई चले आये और वहां बस गये 1902-1922 के बीच पांच बच्चे हुएअब्दुल रहमान, कृष्ना, चम्पा कली, गुलाब और सक़ीना 1922 में ताराबाई ने पति से अलग होने का फ़ैसला किया और बच्चों का फिर से नामकरण किया और अब्दुल रहमान, कृष्ना, चम्पा कली, गुलाब और सक़ीना बन गये (रुकिये और दिल थाम कर बैठिये, क्योंकि यहीं से इस क़िस्से का सबसे बड़ा मोड़ आने वाला है) सुरेशबाबू माने, हीरा बाई बड़ोदकर, कृष्ण राव माने, कमला बाई बड़ोदकर और सरस्वती राणे जी, वही हीरा बाई बड़ोदकर जिन्हें सरोजिनी नायडू ने गान कोकिला कहा था और वही सरस्वती राणे जिन्होंने अपने पार्श्व गायन से धूम मचा दी थी
इसके बाद उस्ताद का गाना भी बदल गया, उसमें ज़्यादा अवसाद आया, गहराई आयी वे और दक्षिण उतरे और संगीतकारों की स्वाभाविक जन्मभूमि कोल्हापुर, धारवाड़ और मैसूर आनेजाने के क्रम में मिरज में बस गये इससे पहले वे 1913 में पूना में आर्य संगीत विद्यालय खोल चुके थे जहां वे अन्य उस्तादों के उलट सबको तालीम देते थे यही सिलसिला आगे चल कर मिरज में भी चलता रहा जब उन्होंने अपने चचेरे भाई उस्ताद वहीद ख़ां के साथ किराना घराना की शाख़ वहां जमायी और करनाटकी शैली के मेल से एक क्रान्ति पैदा कर दी
आर्य संगीत विद्यालय में 1920 में उस्ताद साहब से संगीत की तालीम हासिल करने के लिए आयी 1905 में गोआ में जन्मी सरस्वतीबाई मिरजकर नाम की शिष्या भी थी ख़ान साहब और ताराबाई के सम्बन्धविच्छेद के बाद उस्ताद साहब ने सरस्वतीबाई से शादी कर ली जिन्होंने अपना नाम बानूबाई लत्कर रख लिया और दोनों मिरज जा कर बस गये और मद्रास और मिरज में समय गुज़ारने लगे बानूबाई के पहलेपहले रिकार्ड 1937 में रिलीज़ हुए, ख़ान साहब के गुज़रने के बाद मिरज में ख़ान साहब की दुनियावी विरासत उन्हीं को मिली और वे मिरज ही में रहीं धीरेधीरे उन्होंने अपने को संगीत की दुनिया से पीछे खींच लिया और एक नितान्त निजी ज़िन्दगी जीती रहीं 1970 में मिरज में उनका इन्तेक़ाल हुआ और वहीं उस्ताद साहेब की क़ब्र के बग़ल में उन्हें दफ़्नाया गया
लेकिन हज़रात और ख़वातीन, हमारा मक़सद सिर्फ़ उस्ताद साहब की ज़िन्दगी का बयान करना ही नहीं था. यह तो असली तरंगग़ैब की भूमिका थी. हमारी दिलचस्पी का सबब यह था कि वो कौनसी बात थी जिससे ताराबाई लगभग पच्चीस साल की शादीशुदा ज़िन्दगी को छोड़ कर अलग हो गयीं और उन्होंने बच्चों के दोबारा नामकरण भी कर डाले. ख़याल रहे कि अलहदगी के समय बड़े बेटे की उमर थी बीस और सबसे छोटी की नौ. क्या सरस्वतीबाई मिरजकर का भी कोई दख़ल इसमें था?
चूंकि इस प्रसंग का हमारी ज़ाती ज़िन्दगी से भी कुछ कांटा भिड़ता है, चुनांचे: हमें इसमें एक बड़े उपन्यास की सम्भावना नज़र आयी मज़े की बात यह है कि बेटे को तालीम बाप ने दी और बड़ी बेटी को उसके चचा उस्ताद वहीद ख़ां साह्ब ने उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां के सबसे बड़े शिष्य थे सवाई गन्धर्व और शिष्या सुरश्री केसर बाई केरकर यह वही किराना घराना था जो सवाई गन्धर्व, रोशन आरा बेगम और केसरबाई केरकर से होते हुए बेगम अख़्तर, हीराबाई बड़ोदकर, वसवराज राजगुरु, गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी और मुहम्मद रफ़ी जैसे गायकों और राम नारायण जैसे सारंगियों तक चला आया
याद रहे यह वो ज़माना था, जब सामने बैठ कर सुनने की सहूलत ही थी, छोटी महफ़िलों से ले कर बड़ेमझोले सम्मेलनों तक फिर आया गिरामोफ़ोन का युग पहलेपहले 78 RPM (revolutions per minute) रिकार्ड बने मीयाद 3-3.30 मिनट अब सोचिये, पक्के राग जो रातरात भर गाये जाते थे, 3-3.30 मिनट में पेश करने पड़े यहीं उस्ताद अब्दुल करीम ख़ान साहब की प्रतिभा के दर्शन होते हैं यही गुण बहुत बाद में चल कर हमें रवि शंकर और विलायत ख़ां और अमीर ख़ां साहब में नज़र आता है
इसी मुक़ाम पर पहुंच कर इस कहानी में गौहर जान की कहानी भी जोड़ी जा सकती है जो अब्दुल करीम ख़ान साहब से एक साल बाद 1873 में पैदा हुईं और उस्ताद साहब से सात साल पहले 1930 में गुज़र गयीं गौहर जान का जन्म पटना में ऐन्जेलीना येओवर्ड के रूप में हुआ था पिता विलियम राबर्ट येओवर्ड आर्मीनियाई यहूदी थे जो आज़मगढ़ में बर्फ़ फैक्टरी में इन्जीनियर थे जिन्होंने 1870 में एक आर्मीनियाई यहूदी लड़की ऐलन विक्टोरिया हेमिंग से शादी की थीविक्टोरिया का जन्म और लालनपालन हिन्दुस्तान में हुआ था और उन्हें संगीत और नृत्य की तालीम मिली थी  दुर्भाग्य से, 1879 में यह शादी नाकाम साबित हुई और मांबेटी पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा विक्टोरिया अपनी बेटी को ले कर 1881 में एक मुस्लिम सामन्त ख़ुर्शीद के साथ, जो विक्टोरिया के संगीत को उनके पति की बनिस्बत ज़्यादा सराहते थे, बनारस चली आयीं आगे चल कर विक्टोरिया ने इस्लाम अपना लिया और अपना नाम मलिका जान और बेटी का नाम गौहर जान रख दिया
1902 में हिन्दुस्तानी संगीत के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना हुई इसी सालग्रामोफ़ोन कम्पनीने गौहर जान को आमन्त्रित किया कि वो कम्पनी के लिए गानों की एक श्रृंखला रिकार्ड कर दें ये रिकार्ड बरसों तक कम्पनी की शान बने रहे गौहर जान को हर रिकार्ड के लिए 3000 रु. दिये गये थे जो उस समय के हिसाब से एक शाहाना रक़म थी 1902-1920  तक गौहर जान ने दस भाषाओं में  600 से ज़्यादा गाने रिकार्ड कराये वे हिन्दुस्तान की पहलीरिकार्डिंग सिताराबनीं, जिन्होंने बहुत जल्द ही रिकार्डों की अहमियत समझ ली थी इसे भी दर्ज किया जाना चाहिये कि गौहर जान ही ने शास्त्रीय टुकड़ों को 3-3.30 मिनट में पेश करने की हिकमत विकसित की थी, क्योंकि 78 RPM वाले तवों की बन्दिश के चलतेग्रामोफ़ोन कम्पनीने इस पाबन्दी पर ज़ोर दिया था और यह मानदण्ड तब तक क़ायम रहा जब तक कि कई दशकों बाद एक्स्टेण्डेड प्ले और लौंग प्ले रिकार्ड नहीं बनने लगे
चूंकि अब्दुल करीम ख़ान साहब ख़ुद ग्रामोफ़ोन तवों की अहमियत से वाक़िफ़ थे और 78 RPM के रिकार्डों की बन्दिश के अन्दरअन्दर शास्त्रीय राग पेश करने का एक मेआर क़ायम कर रहे थे, चुनांचे वे गौहर जान से नावाक़िफ़ तो नहीं ही होंगे
कौन लिखेगा यह कहानी जो खां साहब के माध्यम से किराना घराने और जयपुर अतरौली घरानों को जा कर जोड़ती है धारवाड़कोल्हापुरमिरज में? जिससे सवाई गन्धर्व, केसरबाई केरकर और आगे चल कर वसवराज राजगुरु, गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदकर, बेगम अख़्तर और मुहम्मद रफ़ी जैसे गायक और रामनारायण जैसे सारंगी वादक निकले कौन लिखेगा ख़ां साहब की अपनी व्यथा और तारा बाई की और बच्चों की. और गौहर जान और उनके योगदान की आह ! साहबो, हमें तो उमर ने इस लायक़ नहीं रखा कि बिना अच्छी तरह पड़ताल और जानकारी के ये क़िस्सा लिख सकें वरना क़सम अपनी देवी सरस्वती की, पच्चीस का सिन होता तो जाते, पांच बरस पता लगाने में लगाते और पांच लिखने में मगर तब तक क्या हमारी ज़िन्दगी मे वो ज़लज़ला चुका होता जो खां साहब की ज़िन्दगी में पचास बरस और हमारी ज़िन्दगी में इक्यावन बरस की उमर में आया जिसने हमें इस क़िस्से की कुछ बारीक़ियां समझने की सलाहियत दी? है कोई मर्दमैदां, कोई जीवट वाली ख़ातून जो इस काम को ख़ुशअसलूबी से करे वैसे, जब हम ये सब लिख चुके थे तो हमें इत्तफ़ाक़ से  जानकी बाखले की किताब Two Men And Music: Nationalism In The Making Of An Indian Classical Tradition का पता चला जो थोड़ाबहुत अंश फ़्लिपकार्ट वालों ने बतौर झलक दिखाया उससे अन्दाज़ा हुआ कि इस घराने की काफ़ी कुछ जानकारी वहां से मिल सकती है उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां और ताराबाई वाला प्रसंग भी प्रसंगवश उसमें आया है मगर बहुत कुछ ऐसा है जिसके लिए कैराना, बड़ोदा, बम्बई, पूना, कोल्हापुर, धारवाड़, मिरज, मैसूर और मद्रास की यात्रा करने, संगीत के प्रति दिलचस्पी होने, संगीत सीखनेसिखाने और रियाज़ करने की  और उस ज़माने की रिकौर्डिंग तकनीक और माहौल की जानकारी हासिल करने और थोड़ासा उस ज़माने के इतिहास को जानने की दरकार पड़ेगी काम मुश्किल ज़रूर है, पर नामुमकिन नहीं और यह तो हमारा उस महान साझी हिन्दुस्तानी परम्परा को हमारा ख़िराजअक़ीदत होगा, बशर्ते कि हम इस महान परम्परा और उसके वुजूद को तस्लीम करें आज तो हालात ने हमें बहुत मजबूर कर दिया है, पर अगर हमारे पास ज़राएहोते तो आज के हिसाब से हम दो लाख रुपये इस काम के लिए वक़्फ़ कर देते कल अगर हालात ने पलटा खाया और हम इस क़ाबिल हुए तो हम ये रक़म देने में उज्र करेंगे पैसे का ज़िक्र हमने इसलिए किया कि जज़्बे और मेहनत और लगन का कोई मोल नहीं  दिया जा सकता, वह अनमोल है, पर जो यात्राएं हमने तजवीज़ की हैं, उनमें पैसा लगता है, मय किरायेभाड़े के, अगर सेकेण्ड क्लास भी जाया जाये कुछ किताबें जुगाड़नी पड़ेंगी एक सफ़री टेप रिकौर्डर और कैसेट लेने होंगे और भी कुछ अख़राजात हो सकते हैं. हम महात्मा गान्धी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए कुछ इसी क़िस्म का काम कर चुके हैं, चुनांचे तजरुबे से बोल रहे हैं एहतियात रहे कि अगर इस पर उपन्यास भी बन पड़े, तो कमअज़कम एक बेहतरीन क़िस्से का मज़ा ज़ुरूर रहे, जिसका मेआर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने अपने तवील क़िस्सेकई चांद थे सरेआस्मांमें क़ायम कर दिया है.  है कोई मर्दमैदां, कोई जीवट वाली ख़ातून?
(तमामशुद)   
नोट :
तीन भैरवियां और एक शुद्ध कल्याण पिता उस्ताद अब्दुल करीम ख़ान साहब और उनके बेटेसुरेशबाबू माने और बेटियांहीराबाई बड़ोदकर और सरस्वती राणे
Ustad Abdul Kareem Khan bhairavi jamuna ke teer
Sureshbabu Mane – son of Ustad Abdul karim Khan – singing Bhairavi
Hirabai Barodekar Thumri Bhairavi
Mondar baju – rag shuddha kalyan – khan sahiba Abdul karim khan
MONDAR BAJU RE….”-Raga Shuddha Kalyan from Hindi film: BHUMIKA
Raag Dvesh Ko Chod Ke Manwa – Saraswati Rane – MAHARISHI VALMIKI – Prithviraj Kapoor, Shanta Apte
ugich ka kanta different version

नीलाभ

इस दौर में

हत्यारे और भी नफ़ीस होते जाते हैं
मारे जाने वाले और भी दयनीय

वह युग नहीं रहा जब बन्दी कहता था
वैसा ही सुलूक़ करो मेरे साथ
जैसा करता है राजा दूसरे राजा से

अब तो मारा जाने वाला
मनुष्य होने की भी दुहाई नहीं दे सकता
इसीलिए तो वह जा रहा है मारा

अनिश्चय के इस दौर में
सिर्फ़ बुराइयाँ भरोसे योग्य हैं
अच्छाइयाँ या तो अच्छाइयाँ नहीं रहीं
या फिर हो गयी हैं बाहर चलन से
खोटे सिक्कों की तरह

शैतान को अब अपने निष्ठावान पिट्ठुओं को
बुलाना नहीं पड़ता
मौजूद हैं मनुष्य ही अब
यह फ़र्ज़ निभाने को
पहले से बढ़ती हुई तादाद में

एक विफल आतंकवादी का आत्म-स्वीकार- 1

परधान मन्तरी जी,
बहुत दिनों से कोशिश कर रहा हूँ मैं
आतंकवादी बनने की
मगर नाकाम रहा हूँ।
(यह इक़बाले-जुर्म कर रहा हूँ
इस रिसाले के शुरू ही में
ताकि कोई परेशानी न हो आपको
और आपकी सुरक्षा-सेवाओं को)

कई बार कोशिश करने पर भी विफलता ही
जीवन की कथा रही
शायद वजह यह हो कि जिस तरह
आपने टेके घुटने उसी हुकूमत के सामने
जिसे अपने मुल्क से निकालने में
हज़ारों-हज़ार कुरबानियाँ दी थीं
मेरे पुरखों ने
उसने खींच ली ताक़त मेरे अन्दर से
क़ुरबान हो जाने की
या शायद मैं उम्र के उस दौर में हूँ
जब ज़िन्दगी और भी हसीन
और भी पुरलुत्फ़ लगती है
मौत और भी ख़ौफ़नाक

यह तो मामूली इन्सानी फ़ितरत है
दिखती है दूसरे जीवों में भी
मगर इतनी बेशर्मी से नहीं

एक विफल आतंकवादी का आत्म-स्वीकार- 2

हिन्दुस्तान के चमचा सरताज!
मैं एक अदना-सा चमचा
तुम्हारा इस्तक़बाल करता हूँ
गो सारी कोशिश मेरी
अपना वुजूद बदल कर
ख़ंजर में तब्दील हो जाने की है
जिसमें मैं रहता हूँ बारम्बार नाकाम

यह बारम्बार भी एक उम्दा लफ़्ज़ है
अपनी देसी ज़बान का
मेहरबानी करके उसे हिन्दी, उर्दू या हिन्दुस्तानी न कहें
तीन सिरों वाले अजदहे को पैदा करते हुए

हाँ, तो डियर पी.एम.
मैं हरचन्द कोशिश करके भी
ख़ंजर में, आर.डी.एक्स में, टी.एन.टी. में,
किसी जंगजू मरजीवड़े में, किसी लड़ंके में,
किसी युद्धलाट में
तब्दील नहीं हो पाया
ताहम कोशिश मेरी अव्वल से आख़िर तक
आतंकवादी बनने की थी
ताकि जी न सकूं इस सरज़मीं पर
इन्सान की तरह
तो कम-अज़-कम मर तो सकूं
इन्सान की मानिन्द
आपकी इस महान भारत भूमि पर

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
वहाँ से बहुत कुछ ओझल है

ओझल है हत्यारों की माँद
ओझल है संसद के नीचे जमा होते
किसानों के ख़ून के तालाब
ओझल है देश के सबसे बड़े व्यापारी की टकसाल
ओझल हैं ख़बरें
और तस्वीरें
और शब्द
जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
वहाँ से ओझल हैं
सम्राट के आगे हाथ बाँधे खड़े फ़नकार
ओझल हैं उनके झुके हुए सिर,
सिले हुए होंठ,
मुँह पर ताले,
दिमाग़ के जाले

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
वहाँ एक आदमी लटक रहा है
छत की धन्नी से बँधी रस्सी के फन्दे को गले में डाले
बिलख रहे हैं कुछ औरतें और बच्चे
भावहीन आँखों से ताक रहे हैं पड़ोसी
अब भी बाक़ी है
लेनदार बैंकों और सरकारी एजेन्सियों की धमकियों की धमक

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
वहाँ दूर से सुनायी रही हैं
हाँका लगाने वालों की आवाज़ें
धीरे-धीरे नज़दीक आती हुईं
पिट रही है डुगडुगी, भौंक रहे हैं कुत्ते,
जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
भगदड़ मची हुई है आदिवासियों में,
कौंध रही हैं संगीनें वर्दियों में सजे हुए जल्लादों की
जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
चारों तरफ़ फैली हुई है रात
ख़ौफ़ की तरह —
चीख़ते-चिंघाड़ते निशाचरी दानव हैं
शिकारी कुत्तों की गश्त है
बिच्छुओं का पहरा है
कोबरा ताक लगाये बैठे हैं

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ
वहाँ एक सुगबुगाहट है
आग का राग गुनगुना रहा है कोई
बन्दूक को साफ़ करते हुए,
जूते के तस्मे कसते हुए,
पीठ पर बाँधने से पहले
पिट्ठू में चीज़ें हिफ़ाज़त से रखते हुए
लम्बे सफ़र पर जाने से पहले
उस सब को देखते हुए
जो नहीं रह जाने वाला है ज्यों-का-त्यों
उसके लौटने तक या न लौटने तक
इसी के लिए तो वह जा रहा है
अनिश्चित भविष्य को भरे अपनी मैगज़ीन में
पूरे निश्चय के साथ

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
जल उठा है एक आदिवासी का अलाव
अँधेरे के ख़िलाफ़
जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
ऐसी ही उम्मीदों पर टिका हुआ है जीवन

क्यों खोयी पहचान साथी

पाया है धन मान साथी
अब तो तजो गुमान साथी
छोड़ो सब अभिमान
बड़े-बड़े हैं गले लगाते
जी भर कर गुन तेरे गाते
उज्ज्वल है दिनमान
फिर क्यों तेरे मन में भय है
कैसा यह दिल में संशय है
क्यों साँसत में जान साथी
सब सुख है तेरे जीवन में
कलुष भरा क्यों तेरे मन में
जग सारा हैरान साथी
जनता तुझ से आस लगाये
तू धन दौलत में भरमाये
कैसा यह अज्ञान साथी
हत्यारों में जा कर हरसे
अपनों पर तू नाहक बरसे
क्यों खोयी पहचान साथी

उड़ीक

मेरे दिल में अब भी उसकी उड़ीक बाक़ी है
जो मेरे कानों में कह गयी थी
मैं आऊँगी, ज़रुर आऊँगी
और काख़-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिलाऊँगी
एक कर दूँगी ये महल-माडि़याँ
दिन चमकीले हो जायेंगे
शीशे पर पड़ते सूरज के लिश्कारे की तरह
साफ़ पानी से भरे गिलास की तरह
रातें प्रेम में सराबोर होंगी
पसीना बहेगा
पर तेज़ाब की तरह चीरेगा नहीं आँखों को
नयी खिंची शराब की तरह मदहोश कर देने वाले दिन होंगे
नये ख़ून के दिन
नये ख़ून के दिनों की तरह

गीत

लाल लाल हो चला है, हो चला है आसमान
लपटों की लाली है, रात भले काली है, लाली है रक्त की
लायेगी नव विहान
रक्त बोले, लपट बोले, गाये
भीषण गान,

लाल लाल हो चला है, हो चला है आसमान
आओ साथी सुर मिलाओ,
बारुदी राग गाओ,
छेड़ो समर तान, साथी गाओ भीषण गान

लाख लाख कण्ठ से उठ रही है ये पुकार
मुक्ति चाई, जीवन चाई, चाई स्वाभिमान
लाल लाल हो चला है, हो चला है आसमान

यह ऐसा समय है

यह ऐसा समय है
जब बड़े-से-बड़े सच के बारे में
बड़े-से-बड़ा झूठ बोलना सम्भव है
सम्भव है अपने हक़ की माँग बुलन्द करने वालों को
देश और जनता से द्रोह करने वाले क़रार देना
सम्भव है
विदेशी लुटेरों के सामने घुटने टेकने वाले प्रधान को
सन्त और साधु बताना
यह ऐसा समय है
जब प्रेम करने वाले मारे जाते हैं
पशुओं से भी बदतर तरीके से
इज़्ज़त के नाम पर
जब बेटे की लाश को
सूखी आँखों से देखती हुई माँ
कहती है
ठीक हुआ यह इसके साथ

अन्तिम प्रहर

है वही अन्तिम प्रहर
सोयी हुई हैं हरकतें
इन खनखनाती बेडि़यों में लिपट कर

है वही अन्तिम प्रहर
है वही मेरे हृदय में एक चुप-सी
कान में आहट किसी की
थरथराती है
किसी भूले हुए की
मन्द स्मिति ख़ामोश स्मृति में

कौन था वह
जो अभी
अपनी कथा कह कर
हुआ रुख़सत
व्यथा थी वह
अभी तक
थरथराती है
समय की फाँक में ख़ामोश

ले रहे तारे विदा
नभ हो रहा काला
भोर से पहले
क्षितिज पर
काँपती है
एक झिलमिल आभ नीली
हो वहीं तुम
रात के अन्तिम प्रहर में
लिख रहे कुछ पंक्तियाँ
सिल पर समय की
टूटना है जिसे आख़िरकार
होते भोर

वहाँ

जहाँ से शुरु होती है
ज़िन्दगी की सरहद
अभी तक वहाँ
पहुँच नहीं पा रहे हैं शब्द
जहाँ कुंवारे कपास की तरह
कोरे सफ़ेद पन्नों पर
दर्ज कर रहे हैं
कवि
अपने सुख-दुख
वहाँ से बहुत दूर हैं
दण्डकारण्य में बिखरे
ख़ून के अक्षर
दूर बस्तर और दन्तेवाड़ा में
नौगढ़ और झारखण्ड में
लिखी जा रही है
एक और ही गाथा
रात की स्याही को
घोल कर
अपने आँसुओं में
आँसुओं की स्याही को
घोल कर बारुद में
लोहे से
दर्ज कर रहे हैं लोग
अपना अपना बयान
बुन रहे हैं
अपने संकल्प और सितम से
उस दुनिया के सपने
जहाँ शब्दों
और ज़िन्दगी की
सरहदें
एक-दूसरे में
घुल जायेंगी

संपर्क-

नीलाभ
219/9, भगत कालोनी
वेस्ट संत नगर
बुराड़ी, दिल्ली ११००८४

मोबाइल- 09910172903

फ़ोन – 011 27617625

नीलाभ

गढ़ी सराय की औरतें

साँप की तरह लहरदार और ज़हरीली थी वह सड़क
जिससे हो कर हम पहुँचते थे
बीच शहर के एक बड़े चौक से
दूसरे बड़े चौक तक
जहाँ एक भीमकाय घण्टाघर था
जो समय बताना भूल गया था
आने-जाने वालों को 1947 के बाद से
गो इसके इर्द-गिर्द
अब भी वक़्तन-फ़-वक़्तन सभाएँ होतीं
नारे बुलन्द करने वालों की
जुलूस सजते और कचहरी तक जाते
अपने ही जैसे एक आदमी को अर्ज़ी देने
जो बैठ गया था गोरे साहब की कुर्सी पर

अँधेरी थी यह सड़क
जिस पर कुछ ख़स्ताहाल मुस्लिम होटल थे
और उनसे भी ख़स्ताहाल कोठरियों की क़तारें
जिन पर टाट के पर्दे पड़े होते
जिनके पीछे से झलक उठती थीं
रह-रह कर
कुछ रहस्यमय आकृतियाँ
राहगीरों को लुभाने की कोशिश में

ये नहीं थीं उस चमकते तिलिस्मी लोक की अप्सराएँ
जो सर्राफ़े के ऊपर मीरगंज में महफ़िलें सजाती थीं,
थिरकती थीं, पाज़ेब झनकारतीं

ये तो एक ख़स्ताहाल सराय की
ख़स्ताहाल कोठरियों की
साँवली छायाएँ थीं
जाने अपने से भी ज़ियादा ख़स्ताहाल
कैसे-कैसे जिस्मों को
जाने कैसी-कैसी लज़्ज़तें बख़्शतीं

बचपन में
’बड़े’ की बिरयानी या सालन और रोटियाँ खाने की
खुफ़िया क़वायद में किसी होटल में बैठ कर
हम चोर निगाहों से देखते थे
उनकी तरफ़
जो हम से भी ज़ियादा चोर निगाहों से
परख रही होतीं हर आने-जाने वाले को

वक़्त बीता
ज़मीनों की क़ीमतें बढ़ीं
जिस्मों की क़ीमतें पहले भी कोई ज़ियादा न थीं
अब तो और भी कम हो गयीं
सर्राफ़े के ऊपर की रौनकें ख़त्म हुईं
बन्द हो गयीं पाज़ेबों की झनकारें
’नाज़ टाकी’ में जलवा क़ायम हुआ
कुक्कू और हेलेन का
सर्राफ़े में भी पर्दे नज़र आने लगे
घण्टाघर को घेर लिया प्लास्टिक की पन्नियाँ और
सस्ते रेडी-मेड कपड़े बेचने वालों
और फ़ुटपाथिया बिसातियों ने
नारे लगाने वाले भी जा लगे
दूसरे हीलों से

इधर सराय में
धीरे-धीरे क़दम-दर-क़दम
बढ़ती चली आयीं दुकानें
बिस्कुट, जूते, प्लास्टिक की पन्नियाँ,
मोमजामे, फ़ोम और रेक्सीन, कपड़ा, रेडीमेड परिधान
होटलों ने बदले चोले
अँधेरा दूर हुआ
दूर हो गयीं वे रहस्यमय आकृतियाँ
और उनका वह रहस्यमय लोक
कुछ बम फूटे, कुछ सुपारियाँ दी गयीं
एक दिन विदा हो गयीं
गढ़ी सराय की औरतें

एक बाज़ार ने उन्हें वहाँ ला बैठाया था
दूसरे ने फेंक दिया उन्हें बेआसरापन के घूरे पर

भगत सिंह

एक आदमी
अपने अंशों के योग से
बड़ा होता है

ठहरिए!
इसे मुझको
ठीक से कहने दीजिए।

एक ज़िन्दा आदमी
बड़ा होता है
अपने अंशों के योग से

अपन बाक़ी तो
उससे कम ही
ठहरते आये हैं।

नालन्दा

एक हज़ार साल पहले उजाड़े गये
ज्ञान के केन्द्र को
फिर से बनाया जा रहा है
फिर से खड़ा किया जा रहा है वह गौरव
जो नष्ट हो गया था सदियों पहले

यह जीर्णोद्धार का युग है
नये निर्माण का नहीं

कैसा था वह ज्ञान
जिसे बचाने के लिए कोई सामने नहीं आया ?
कोई सत्यान्वेषी नहीं ? कोई सत्य साधक नहीं ?

इस निपट निचाट उजाड़ में
सिर्फ़ खँडहर हैं –
ग्रीष्म की हू-हू करती लू में
या शिशिर की हाड़ कँपाती धुन्ध में
या मूसलों की तरह बरसती बूँदों में –
या फिर एक बस्ती
कनिंघम से पुरानी, कुमार गुप्त,
अशोक, पुष्यमित्र शुंग और बुद्ध से भी पुरानी
अपने रोज़मर्रा के संघर्ष जितने ज्ञान से
काम चलाती हुई

यहाँ बुद्ध ने भोजन किया
यहाँ तथागत ने शयन किया
शास्ता ने यहाँ दिये उपदेश
जो किसी को याद नहीं
ताक में रखे सुत्त पिटक और मज्झिम निकाय को
ढँक लिया है धूल की परत ने

उधर बुहारे जा रहे हैं खँडहर
आतशी शीशे और ख़ुर्दबीन से हो कर
आँखें ढूँढती हैं निशान खोये हुए गौरव के

पास की झुग्गियों में रहने वाले कृष्णकाय किसान
ढूँढते हैं किसी तरह शरीर से प्राणों के
जोड़े रखने के साधन
इस जुगत में किसी काम नहीं आता
नष्ट हुआ ज्ञान, चूर-चूर हुआ गौरव

पीरियॉडिक चेक

जब लगातार तीसरे साल 7 अगस्त को मोबाइल पर एसएमएस
आया कि आप से सम्पर्क न हो जाने के कारण सेवाएँ प्रतिबन्धित
की जाती हैं तो अहमद हुसैन ने कहा ऐसी-की-तैसी मोबाइल
कम्पनी की। सालों ने ऊधम जोत रखा है। तीन साल में दो
कम्पनियाँ बदलने पर भी वही ढाक के, समझ गये न क्या…?

सो, वह पहुँचा कम्पनी के शो रूम में –
शीशे और स्टील का अत्याधुनिक गोरखधन्धा
ग्राहकों में आतंक की सृष्टि करता हुआ
भरता हुआ उनमें कमतरी का मध्यवर्गीय एहसास –
वहाँ एक चुस्त, टाईशुदा, अंग्रेज़ीदाँ, चिकना और
मतलब-से-मतलब रखने वाला ग्राहक-सेवी बैठा था
मशीनी निर्विकारता से शिकायतों को निपटाता हुआ,
मछलियों जैसी भावहीन आँखों से निहारता
मोबाइल कम्पनी में आने वाले शिकायतियों के मुखारविन्द

‘सर, यह तो पीरियॉडिक चेक है,’ उसने कहा,
‘आपका प्रीपेड कनेक्शन है। 15 अगस्त के लिए
सरकार प्रीपेड कनेक्शन वालों से उनका फ़ोटो और
पहचान-पत्र माँग रही है। यह रहा फ़ार्म, भरिए और
वहाँ फ़ोटो सहित जमा कर दीजिए।’

‘लेकिन मैं तो यह सब कनेक्शन लेते वक्त ही
दाख़िल कर चुका था।’

अहमद हुसैन की बात पर ध्यान दिये बग़ैर
उस युवक ने वही राग अलापा।
इस बार मद्धम में।

पैंतीस बार ‘सर’ कहने और पंचम तक पहुँचने के बाद
मोबाइल कम्पनी के ग्राहक-सेवी युवक ने अहमद हुसैन से कहा,
‘सर, 15 अगस्त है। आपका मोबाइल प्रीपेड है।
आप तो जानते हैं न आप कौन हैं।
सरकार आतंकवादियों पर निगरानी रखने की कोशिश में है।’

‘लेकिन मोबाइल मेरे पास पिछले तीन साल से है।
दो कनेक्शन बदल चुका हूँ। हर साल 26 जनवरी और
15 अगस्त के आस-पास यह जानकारी मैं दाख़िल कर चुका हूँ।
बमय फ़ोटो और पहचान पत्र और आतंकवादी नहीं हूँ।’

‘ठीक है सर, लेकिन यह आठ अगस्त है।
अगली 26 जनवरी तक आप आतंकवादी नहीं बन जायेंगे
यह जानने का और कोई ज़रिया मोबाइल कम्पनी के पास नहीं है।
और न सरकार के पास।’

इस बस्ती में

ख़्वाब भी अब नहीं आते इस बस्ती में
आते हैं तो बुरे ही आते हैं
सोने को जाता हूँ मैं घबराहट में
आँख मूँदने में भी लगता है डर
जाने कैसी दीमकों की बाँबी बनी है मस्ती में
हवा हो गये हैं नीले शफ़्फ़ाफ़ दिन,
लो देखो, गद्दियों पर आ बैठे वही हत्यारे,
इस बार तो नक़ाबें भी नहीं है उनके चेहरों पर।
ज़िन्दगी मँहगी होती जाती है, मौत सस्ती,
मरना अब एक मामूली-सी लाचारी है
अक्सर दिन में कई-कई बार पड़ता है मरना

जलौघमग्ना सचराचराधरा

धूमनगंज और घूरपुर थानों से
सँड़सी की तरह जकड़ा हुआ यह शहर
जहाँ गंगा अब बन गयी है ज़हर की नदी
अशोक सिंघल का सारा धरम-करम और
मुरारी बापू का सारा पुण्य-बल भी
उसे साफ़ करने के लिए नाकाफ़ी है
और जमुना की छातियाँ काट ली हैं
बालू के ठेकेदारों ने
अब उनसे दूध नहीं लहू बहता है
सरस्वती गैंग-रेप का शिकार है
इसकी एफ़.आई.आर. किस थाने में दर्ज होगी
कोई नहीं जानता
दुनिया की सारी नेमतों पर
जो कुदरत ने दीं या इन्सान ने बनायीं
रोटी, कपड़ा, मकान, दवा-दारु, शिक्षा, रोज़गार
सब पर माफ़िया का क़ब्ज़ा है या कॉरपोरेट घरानों का,
अन्धा हो चुका है क़ानून,
हरकारे बाँट रहे हैं भाँग की पकौड़ी या
घोटालेबाज़ों के सच्चरित्रता प्रमाण-पत्र टीवी पर,
डूब चुकी है पृथ्वी आपाद-मस्तक जल में
और वराह चला गया है लम्बी एल.टी.सी. पर

जादूई यथार्थवाद और खद्योत प्रकाश

क्या आपने खद्योत प्रकाश का नाम सुना है ?
एक ही समय में, एक ही शरीर में, बयकवक़्त मौजूद
बच्चा, किशोर, नौजवान और वृद्ध।
कहानी की अति प्राचीन विधा का सबसे नया,
सबसे अनोखा जादूगर जो तब्दील कर देता है
क़िस्सों को ज़िन्दगी में और ज़िन्दगी को कहानियों में
और दोनों को सपनों या दुःस्वप्नों में
(जैसा उस वक़्त उसका मूड हो)
ऐसी कुशलता से कि आप जान नहीं पाते सच क्या है,
है भी या नहीं।

वैसे खद्योत प्रकाश के मुताबिक़ सच का कहानी से क्या ताल्लुक़
और क्या ताल्लुक़ उसका ज़िन्दगी से;
आख़िर सब कुछ माया ही तो है न।

तो समझ लीजिए, खद्योत प्रकाश ने
माया की महिमा के महामन्त्र को सिद्ध कर लिया है।
वह छली है, छलिया है, परम मायावी है,
भूत और वर्तमान के कन्धों पर सवार भावी है
इस सब को मिला कर अपना अलौकिक अंजन तैयार करता हुआ
जिससे वह आपका मनोरंजन भी करता है ज्ञानरंजन भी,
आपको शोकग्रस्त भी करता है अशोकग्रस्त भी।
इस अंजन को अब वह पेटेण्ट कराने की साच रहा है
जब से भारत के बड़े-बड़े भारद्वाजों से भी उसने
अपने दर पर मत्था टेकवा लिया है।

बहरहाल, वापस आयें,
अगर आपने इस यातुधान का नाम नहीं सुना
तो आप जादूई यथार्थवाद के बारे में भी नहीं जानते होंगे।
लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं,
जादूई यथार्थवाद कुछ-कुछ ईश्वर की तरह है,
आप ईश्वर को जानें या न जानें, या फिर मानें या न मानें,
अगर वह है तो आप कुछ नहीं कर सकते,
नहीं है तो भी आप कुछ नहीं कर सकते,
लिहाज़ा जादूई यथार्थवाद एक क़िस्म का जादू है,
ईश्वर की तरह, हमारे संसार के बिम्ब की तरह,
एक प्रति-संसार की तरह।

इस जादूई संसार में सब कुछ सम्भव है।
सम्भव है एक ही आदमी के भीतर,
एक ही समय में मौजूद हों
सन्त और सौदागर, कवि और क़ातिल,
क़यामतसाज़ और क़यामत का मसीहा,
जैसे हर विकास के पेटे में होता है विनाश,
हर विनाश लिये चलता है अपनी नाभि में
नये ब्रह्माण्ड की सम्भावना।

इस जादूई संसार में सम्भव है जो कौर आप खा रहे हों
वह पुष्ट कर रहा हो आपके हत्यारे को, ,
जो निवाला बना रहा हो अपने ही लोगों को
वह निवाला हो किसी और भी बड़े पेटू का।

और यह समय परीकथाओं वाला, बहुत दिन हुए वाला,
एक बार की बात है वाला समय नहीं है,
अपना यही हैरतअंगेज़, लेकिन परम विश्वसनीय समय है,
जिसमें पाखण्ड का पर्दाफ़ाश करने वाले शिकार हुए
अपनी करनी का नहीं, बल्कि अपनी कथनी का।
जो अपने शान्त शरण्यों में बैठे प्रलय का प्राक्कथन लिख रहे थे,
वे इस तरह प्रलयंकारियों के प्रिय पात्र बन गये
जैसे बन जाता है प्रिय पात्र एक सिंह दूसरे सिंह का
जब हिरनों और बकरियों को खाने की बारी आती है।

मिट रहे हैं हम, मिट रहे हैं हम की गुहार लगाते कवि,
आहिस्ता से दाख़िल हो गये उसी समय के ऐसे हिस्से में
जहाँ उन्हें चीख़ें भी नहीं सुनायी देती थीं मिट रहे लोगों की।

शास्त्रीय फ़नकारी के बीच हरमुनिया के सुरों पर
बचाओ बचाओ का शोर मचाते हुए वे बचा लिये जाते थे
उनकी कृपा से जिनसे बच नहीं पा रहे थे
इस देश के जंगल, नदियाँ, खेत और किसान।

मलयेशियाई लकड़ी के फ़र्निचर और
सारे आधुनिक उपकरणों से सज्जित
अपने तीसरे नये मकान में कवि की नींद
बार-बार टूट जाती थी गद्दे पर बिछी रेशमी चादर पर भी
जब किसान-मज़दूर नहीं, किसान-मज़दूरों का कोई आवारा ख़याल
भटकता हुआ चला आता था अतीत के किसी गुमगश्ता गोशे से।

अनिद्रा और ऊब के बीच ऊभ-चूभ करता
वह सोचता क्यों हैं, आख़िर क्यों हैं ये लोग अब भी
अम्बानी और अज़ीम प्रेमजी, मोनटेक और मनमोहन की
इस भारत भूमि में, कील की तरह गड़-गड़ जाते हुए
जब वह बाँहों में लिये प्रियंका चोपड़ा या कैटरीना कैफ़ को
चुम्बन लेने जा रहा होता। सपने में।

इस दौर में

हत्यारे और भी नफ़ीस होते जाते हैं
मारे जाने वाले और भी दयनीय

वह युग नहीं रहा जब बन्दी कहता था
वैसा ही सुलूक़ करो मेरे साथ
जैसा करता है राजा दूसरे राजा से

अब तो मारा जाने वाला
मनुष्य होने की भी दुहाई नहीं दे सकता
इसीलिए तो वह जा रहा है मारा

अनिश्चय के इस दौर में
सिर्फ़ बुराइयाँ भरोसे योग्य हैं
अच्छाइयाँ या तो अच्छाइयाँ नहीं रहीं
या फिर हो गयी हैं बाहर चलन से
खोटे सिक्कों की तरह

शैतान को अब अपने निष्ठावान पिट्ठुओं को
बुलाना नहीं पड़ता
मौजूद हैं मनुष्य ही अब
यह फ़र्ज़ निभाने को
पहले से बढ़ती हुई तादाद में

संपर्क-

नीलाभ
219/9, भगत कालोनी
वेस्ट संत नगर
बुराड़ी, दिल्ली ११००८४

मोबाइल- 09910172903
फ़ोन – 011 27617625

नीलाभ

नीलाभ का जन्म १६ अगस्त १९४५ को मुम्बई में हुआ. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम ए. पढाई के दौरान ही लेखन की शुरूआत. आजीविका के लिए आरंभ में प्रकाशन. फिर ४ वर्ष तक बी बी सी की विदेश प्रसारण सेवा में प्रोड्यूसर. १९८४ में भारत वापसी के बाद लेखन पर निर्भर.
‘संस्मरणारंभ’, ‘अपने आप से लम्बी बातचीत’, ‘जंगल खामोश हैं’, ‘उत्तराधिकार’, ‘चीजें उपस्थित हैं’. ‘शब्दों से नाता अटूट हैं’, ‘शोक का सुख’ , ‘खतरा अगले मोड़ की उस तरफ हैं’,’ईश्वर को मोक्ष’ नीलाभ  के अब तक प्रकाशित कविता संग्रह हैं.

शेक्सपियर, ब्रेख्त तथा लोर्का के नाटकों के रूपांतर – ‘पगला राजा’, ‘हिम्मत माई’, ‘आतंक के साये’, ‘नियम का रंदा’, ‘अपवाद का फंदा’, और ‘यर्मा’ बहुत बार मंच पर प्रस्तुत हुए हैं. इसके अलावा मृच्छकटिक का रूपांतर ‘तख्ता पलट दो’ के नाम से. रंगमंच के अलावा टेलीविजन, रेडियो, पत्रकारिता, फिल्म, ध्वनि प्रकाश कार्यक्रमों तथा नृत्य नाटिकाओं के लिए पटकथाएं तथा आलेख.

जीवनानन्द दास, सुकांत भट्टाचार्य, एजरा पाउंड,ब्रेख्त, ताद्युस रोदेविच, नाजिम हिकमत, अर्नेस्तो काडिनल, निकानोर पार्रा, और नेरुदा की कविताओं के अलावा अरुंधती राय के उपन्यास ‘डी गाड ऑफ़ स्माल थिन्ग्स’ का अनुवाद ‘मामूली चीजों का देवता’, नेरुदा की लम्बी कविता ‘माच्चू पिच्चू के शिखर’ का अनुवाद बहुचर्चित. मंटो की कहानियो के प्रतिनिधि चयन ‘मंटो की ३० कहानियाँ’ का संपादन, २ खंडो में गद्य ‘प्रतिमानों की पुरोहिती’ और ‘पूरा घर है कविता’, हिंदी के साहित्यिक विवादों, साहित्यिक केंद्रो, और मौखिक इतिहास पर शोधपरक परियोजना स्मृति संवाद (४ खण्डों में) फिल्म, चित्र कला, जैज, तथा भारतीय कला में ख़ास दिलचस्पी.

नीलाभ जी की कविताये आप ‘पहली बार’ पर नियमित अंतराल पर पढ़ते रहेंगे.

संपर्क – २१९/९, ब्लोक- ए २, भगत कालोनी,  वेस्ट संत नगर, बुराड़ी, दिल्ली, ११००८४.


मोबाइल- ०९९१०१७२९०३, फोन: आवास- ०११- २७६१७६२५,

गुज़ारिश

मैं अँधेरे का दस्तावेज़ हूँ
राख को चिडि़या में बदलने की तासीर हूँ
मीर हूँ अपने उजड़े हुए दयार का
परचम हूँ प्यार का

मैं आकाश के पंख हूँ
समन्दर में पलती हुई आग हूँ
राग हूँ जलते हुए देश का
धरती की कोख तक उतरी जड़ें हूँ
अन्तरतारकीय प्रकाश हूँ

मैं लड़ाई का अलम हूँ
सम हूँ मैं ज़ुल्म को रोकने वाला
हर लड़ने वाले का हमदम हूँ
बड़े-बड़ों से बहुत बड़ा
छोटे-से-छोटे से बहुत कम हूँ

हिजरत – 1

हिजरत में है सारी कायनात
एक मुसलसल प्रवास, एक अनवरत जलावतनी

पेड़ जगह बदल रहे हैं, हवाएँ अपनी दिशाएँ,
वर्षा ने रद्द कर दिया है आगमन और प्रस्थान का
टाइमटेबल, वनस्पतियों ने
चुका दिया है आख़िरी भाड़ा पर्वतों को
और बाँध लिये हैं होल्डॉल,
पर्वत भी अब गाहे-बगाहे अलसायी आँखें खोल
अन्दाज़ने लगे हैं समन्दर का फ़ासला
समन्दर सुनामी में बदल रहा है
बदल रहे हैं द्वीप अद्वीपों में

एक हरारत-ज़दा हरकत-ज़दा हैरत-ज़दा कायनात है यह

सबको मिल ही जायेंगे नये ठिकाने मनुष्यों की तरह
और अगर कुछ बीच राह सिधार भी गये तो भी
वे अनुसरण कर रहे होंगे मनुष्यों का ही
जिनके किये से वे हुए थे बेघर

हिजरत – 2

सब लौट कर जाने को तैयार बैठे हैं

पहाड़ से आये कवि, पूरब से आये पत्रकार,
बिहार से आये अध्यापक, केरल से आयी नर्सें,
तमिलनाडु के अफ़सर, तेलंगाना के बाबू,
कर्नाटक के संगीतकार, अवध के संगतकार
यहाँ तक कि छत्तीसगढ़ से आयी रामकली भी
पिछले बीस बरस नेहरू प्लेस की झुग्गी में
गुज़ारने के बाद बिलासपुर जाने को तैयार है

बाबर को समरकन्द याद आता है,
महमूद को ग़ज़नी, अफ़नासी निकेतिन को ताशकन्द
हरेक को याद हैं अपनी जड़ें या जड़ों के रेशे
या रेशों की स्मृतियाँ या स्मृतियों का लोक
हरेक के दिल में है हिजरत का शोक
लेकिन मैं अब भी सफ़र में हूँ

बम्बई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से लन्दन,
लन्दन से दिल्ली
शहरों के नाम कौंधते हैं रेलगाड़ी से देखे
स्टेशनों की तरह

बस दो नाम ग़ायब हैं इनमें
जहाँ मुझे होना था, जहाँ मैं हो सकता था

लाहौर जहाँ जली हुई शक्ल में
अब भी मौजूद है मेरा ननिहाल
और जालन्धर जहाँ पुरखों के घर में आ
बसे हैं ज़मीनों के सौदागर

सीकरी

हमेशा सुनाई देती थी
पैसे की आवाज़

बजता रहता था
लगातार
व्यवसाय का हॉर्न,
या बाज़ार का शोर,
या सिक्कों का संगीत

टूटती थी पनहिया
हमेशा
सीकरी आते-जाते
बिसर जाता था
नाम ही नहीं घर का पता भी

मोतियों से भरे मुँह लिये
लौटते थे कवि अपने देस
फिर गा नहीं पाते थे
अपने गान

सपनों के बारे में कुछ सूक्तियाँ

1.

कुछ सपने कभी पूरे नहीं होते
आते हैं वे हमारी नींद में
पूरे न होने की अपनी नियति से बँधे

इस सच्चाई को हम जीवन भर नहीं जान पाते
नहीं जान पाते अपनी असमर्थता,
अपनी विवशताएँ, अपना निष्फल दुस्साहस

सपने जानते हैं इसे
आते हैं इसीलिए वे
ठीक हमारे जग पड़ने से पहले

2.

कुछ सपने दूसरों के होते हैं
जिन्हें पूरा करने के फेर में
हम देख नहीं पाते अपने सपने

3.

सपने अक्सर जन्म देते हैं
दूसरे सपनों को
इसी तरह वे रखते हैं
अपनी गिरफ़्त में आदमी को

4.

कुछ सपने मालिक होते हैं
कुछ होते हैं, ग़ुलाम

एक सपना पूरा करता है
दूसरे सपने की ख़्वाहिशें
दूसरा सपना तीसरे की

इसी तरह क़ायम होता है
सपनों का साम्राज्य

5.

कुछ सपने पीछा करते हैं हमारा
शिकारियों की तरह
बना लेते हैं हमें पालतू
अगर पकड़ पाते हैं हमें

6.

कुछ सपने याद नहीं आते
देखे जाने के बाद
वही होते हैं सबसे ज़रूरी

7.

सपने बेहद अराजक और निरंकुश होते हैं
तरह-तरह के छुपे हुए दरवाज़ों, ढँके गलियारों,
गुप्त द्वारों, भेद-भरी गलियों, रहस्यमय खाइयों,
तिलिस्मी फन्दों, गोरखधन्धों और पेचीदा प्रकोष्ठों से भरे
वे नहीं पूरा करने देते आपको अपनी दबायी गयी इच्छाएँ
ला खड़े करते हैं अबूझ अवरोध,
बदल देते हैं पटकथा की दिशा
अधबीच पहुँच कर कई बार भरते हुए आकुलता प्राणों में
नींद की निरापदता में आतंक की सृष्टि करते हुए

8.

सपनों को समझने का दावा करने वाले
छले जाते हैं
सबसे पहले
सपनों से
कोशिश बेकार है सपनों से
भविष्य बाँचने की
इन्सान का नसीबा तय हो चुका है
सपनों से बाहर

9.

अचानक झटके से टूटती है नींद
जैसे टूटता है काँच का गिलास
फ़र्श पर गिर कर
उठ कर बैठते-बैठते भी
गूँज बाक़ी होती है चीख़ की कानों में

किस का चीत्कार है यह
किस आकुल अन्तर का, मारे जा रहे
निरपराध का, चला आया है जो
इस तरह स्वप्न के बाहर
एक और भी अजीबो-ग़रीब जगत में
जहाँ गूँजता है अहर्निश
उससे भी तीखा हाहाकार

फ़र्क करना मुश्किल है अब
स्वप्न और वास्तविकता में
काया और माया में
आलोक और अन्धकार में
हुलास और हुंकार में