बलभद्र की किताब पर सुमन कुमार सिंह की समीक्षा ‘कब कहलीं हम : समय पर समय का सच’

                  

कवि एवं आलोचक बलभद्र का भोजपुरी में एक नया कविता संग्रह आया है ‘कब कहलीं हम’। हिन्दी में लिखने के बावजूद बलभद्र को ऊर्जा उनकी अपनी बोली-बानी भोजपुरी से मिलती है बलभद्र मूलतः गंवई संवेदना या और स्पष्ट कहें तो किसान संवेदना के कवि हैं गंवई संवेदना जिसमें सहकारिता है। जहाँ पर मन में सबके लिए सम्मान है। जहां अन्याय का सीधा प्रतिकार कर सकने का साहस है। तमाम खामियों के बावजूद जिसमें आत्मीयता बची हुई है। लेकिन बदलते समय, शहरीकरण और भूमंडलीकरण ने गाँवों को भी बहुत गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। अब गाँव नवहों से खाली होने लगे हैं। अब गाँवों के किसानों के खेत पूंजीपतियों के हाथ में बिकते जा रहे हैं। बलभद्र में गंवई रोमान नहीं है बल्कि खांटीपन है, जो अन्यत्र बहुत दुर्लभ हैप्रकाश उदय सरीखे भोजपुरी के कवियों ने इस खांटीपन को बचाए रखा है। बलभद्र के इस संग्रह पर सुमन कुमार सिंह ने एक समीक्षा लिखी है, जो खुद भी भोजपुरी क्षेत्र के मर्म को बखूबी जानते-बूझते है तो आ आज पढ़ते हैं सुमन कुमार सिंह की यह समीक्षा ‘कब कहलीं हम : समय पर समय का सच’         

कब कहलीं हम : समय पर समय का सच

सुमन कुमार सिंह 
 

नवें दशक से शुरू हो कर निरंतर रचनारत व अध्ययनरत रहे कवि-आलोचक बलभद्र अपनी गम्भीर वैचारिक पक्षधरता के लिए जाने जाते रहे हैं इन्होंने हिन्दी और भोजपुरी दोनों भाषाओं में अपनी कविताओं, निबंधों व आलोचनाओं से पाठकों को प्रभावित किया है, अपनी विशेष पहचान बनाई है।
   
‘कब कहलीं हम’ के रूप में बलभद्र का पहला भोजपुरी काव्य-संग्रह प्रकाश में आया है। तुक व छंदों में उलझी भोजपुरी कविता की दुनिया में यह संग्रह दृष्टि व शिल्प के नए प्रतिमान स्थापित करता है। लोक गीतों के दबाव से मुक्त ये कविताएँ लोक विमर्श को नया आयाम देती हैं। यहाँ तेजी से बदलते परिवेश, टूटती–बिखरती संवेदनाओं और इन सब के बीच के आत्मीय परिवेश को ढूँढने–बचाने की जिद्द दर्ज है। संग्रह में शामिल कविता ‘सफर के खूँट में’ के सहारे कवि ने अपनी भाव-संपदा के संबंध में स्पष्ट लिखा है कि –
“सूरूज के, चनरमा के
तरई-तरेगन आ बुनी-बतास के
मिलन के आधार हम धरती- आकाश के
मिलन के एह सब मोहान पर
मिलल हमार भाव कुल्हि
झूठि हो गइल इन्द्रधनुष
एहिजे से शुरू भइल सफर हमरा गीतन के।”
तो ऐसी भाव-संपदा से पूर्ण इस संग्रह के आरम्भ में कुल आठ गीत प्रस्तुत किये गए हैं। इन गीतों के सहारे कई मार्मिक यथार्थ व्यक्त किए गए हैं। ये गीत रूढ़ सामंती समाज व्यवस्था की जड़ों को कुरेदने वाले हैं। संग्रह का पहला गीत जिसमें सामाजिक अलगाव में जा कर भी कवि सामंती परिवेश को तोड़ने की बात कहता है, काफी प्रासंगिक है –
“भलहीं जे रहबो कुजतिया, ना ढोअले-ढोआला इजतिया
बड़े-बड़े लोगवा से नेवता-हकारी
बड़का कहाए के बड़की बेमारी
जतिये भइल जहमतिया
न ढोवले-ढोवाले इजतिया।”
इसके अलावे ‘रावल मुनिया’ तथा ‘गम काथी के बा’ शीर्षक गीतों में भी कवि की यह चेतना देखी जा सकती है। बलभद्र के इन गीतों में वह पारम्परिक पुरुषवादी समाज भी है जिसके झूठे मान-मर्याद के भीतर शोषित-दमित स्त्री पारिवारिक संतुलन के नाम पर छली जा रही है। ‘कवने गुमाने’, ‘घरी छने आवे जे बिजुरिया’ एवं ‘ख़त अगिला में शेष’ जैसे गीतों का वैविध्य जितना मनोरम है उतना हीं मारक भी। यह भी कि ये गीत भारतीय कृषि-संस्कृति का स्याह-सच भी लय-वद्ध करते हैं। ‘ख़त अगिला में शेष’ भोजपुरी के पाठकों के बीच पहले से हीं प्रशंसा पा चुका है। संग्रह के ये गीत एक स्वतंत्र चर्चा की माँग करते हैं।
गीतों के अलावे संग्रह की कविताएँ भी आधुनिक विमर्शों को आगे बढ़ाने में सक्षम दिखती हैं। इन कविताओं में श्रमशील समाज की विविध चिंताओं व उद्यमों की नैसर्गिक उपस्थिति है। नाम मात्र को भी अतिरेक नज़र नहीं आता। कवि की दृष्टि में कहीं रोजी-रोजगार के लिए उम्मीदपूर्वक दिल्ली जाता नौजवान है तो कहीं अपनी हलवाही के सहारे सूरज को लजवा देने वाला हलवाहा है। इन कविताओं में आदिम समाज व्यवस्था के बरक्श इस प्रकार के अविजित संघर्षों की कई गाथाएँ दर्ज हैं। ‘लजा गइलें’ की पंक्तियों में यह यूँ है-
“हर खाड़ क के
पेशाब ऊ कइलें
सरेह में दउरवलें आपन नज़र
माथ के गमछा से पोछ के पसीना
खइनी बनवलें
खइनी जमाके
माथ प बान्ह के फेरु से गमछा
बैलन के टिटकरलें फेरु से जसहीं
माथ प आग उगलत सूरूज
लजा गइलें।” 

बलभद्र
आज जब मनुष्य स्मृतिजीवी हो कर भी स्मृतियों को सँभालने-सहेजने में अक्षम साबित हो रहा है वहीं बलभद्र अपनी स्मृति गाथाओं को नई भावभूमि पर रूपाकार करते हैं। इनकी कविताओं में घर-परिवार, गाँव-समाज, खेती-बाड़ी, पशु-पक्षी सब के सब उपस्थित हैं। यह उपस्थिति एक समृद्ध लोक की उपस्थिति है। भोजपुरी कविताओं में ऐसी समृद्धि, ऐसी पूर्णता बहुत कम देखने को मिल रही है। हमारी कृषि संस्कृति और किसान–मजदूरों के ऊपर नित नए अनचाहे संकट घिरते जा रहे हैं। कर्ज-अभावों से त्रस्त किसान एक ओर जहाँ आजीविका हेतु पलायन कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आत्म-हत्या तक को विवश हैं। यह संकट जितना किसानों का है उतना हीं उनकी धरती का भी होते जा रहा है/ प्रकृति और पर्यावरण का भी होते जा रहा है। धरती लगातार अनुर्वर होते जा रही है। कवि चिंतित है। ‘कब कहलीं हम’ शीर्षक कविता में यहीं चिंता दिखती है-
“गाँव जइसे खाली होत जा रहल बा नवहन से
खाली होत जा रहल बा खेतो-बधार
एह जिया-जन्तुवन से
हमनी के चहला,न चहला के
नइखे रह गइल कवनो माने-मतलब
कवना तरह के विकास के दौर में आ फँसलीं जा
कि सरसों के फूल से डेराये लगली स तितली
कि जनेरा के बालियन से गायब होखे लागल दाना
केकर हउए ई सराप
कि हमनी के खेतन के तोपले जा रहल बा बेहिसाब
मल्टीनेशनल घास।”
कविता के अंत में कवि कहता है कि –
“कब कहली हम
कि आवअ, आवअ ए मल्टीनेशनल घास!
ए अमरीकी खर-पतवार!
आवअ, हमरा खेतन के तोपअ, पसरअ
पछाड़अ हमरा फसलन के
हमरा घासन के पछाड़अ
आवअ आ हमरा मुलुक के छाती प जमअ
जमअ आ राज करअ
कब कहली हम
कब कहली।”
ऐसे अवांछित संकटों के बावजूद भी ‘फेनु डटइहें’ का भूमिहीन किसान रामकिसुन दस कट्ठे खेत के लिए भी उतना हीं समर्पित दिखता है, जितना दस बिगहा वाले जंगी बाबू। कवि रामकिसुन की इस जीवटता को रेखांकित करता है।
संग्रह की कविताओं का एक पक्ष स्त्रियों से जुड़ता है। यहाँ कई कविताओं में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनकी उपस्थिति है। कहीं माँ, कहीं इया, कहीं पत्नी तो कहीं बहन के रूप में। ये स्त्रियाँ वर्जनाओं की व्यूह में खुद ढाल बनी दिखती हैं। इनका ममत्व, इनका त्याग व समर्पण किसी करुण कथा से कम नहीं। इसके लिए उन्हें किसी से कोई शिकायत भी नहीं। हद बाड़ी स, मधुर राग में, माई के नावे, शिवपतो से जैसी कविताएँ हमारी कृषि संस्कृति के अनकहे को भी कह देने में सक्षम हैं। कवि को किसान-मजदूरों, बेरोजगारों, स्त्रियों आदि की जो पीड़ा परेशान करती है, उसके लिए वह किसी एक को दोषी नहीं मानता। वह इसे व्यवस्थागत दोष मानता है और इसीलिए वर्तमान व्यवस्था को बदलने की बात करता है। ‘कब ले सउनइब’ में वह स्पष्ट कहता है-
“एह लोकतंत्र में
कहंवा बा कवनो सिस्टमसलूकत
साबुत एगो आदमी के हक़ में
कहअ भाई सीताराम
उठअ भाई राजाराम
कबले सउनाएके एह घोर माठा में
बोलअ भाई गंगाराम
बिना बोलले-बतियवले कतना कठिन बा जिनिगी
दीन-दुनिया।”
कवि इस सिस्टम पर सवाल हीं नहीं उठाता बल्कि उससे लड़ने का आग्रह भी करता है। कवि इन्ही चिंतावों की भाव-भूमि पर पला-बढ़ा है। इसलिए अपनी जड़ों से जुड़ा नज़र आता है। संग्रह का महत्त्व इसलिए भी है कि इसकी कविताएँ इस समय की सतरंगी चकाचौंध से भिन्न मौलिक चुनौतियों को चिह्नित करती हैं। उम्मीद है यह संग्रह अपनी विशिष्ट पहचान बनाएगा।
         
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समीक्ष्य काव्य संकलन : कब कहलीं हम (भोजपुरी)
कवि : बलभद्र
प्रकाशक : लोकायत प्रकाशन,
सत्येन्द्र कुमार गुप्त नगर, लंका, वाराणसी (उ. प्र.)        
मूल्य : 100 रू. 

सुमन कुमार सिंह

सम्पर्क – 

सुमन कुमार सिंह
द्वारा, प्रो. टी. एन. चौधरी,
फ्रेंड्स कॉलोनी, बजाज  शोरूम की गली में,
कतीरा, आरा – 802301, बिहार। 

        

सुमन कुमार सिंह की कविताएँ

सुमन कुमार सिंह



परिचय

जन्म : 23 जनवरी, 72

शिक्षा : एम. ए., पी-एच. डी. (हिंदी)

रचनाएँ : हिंदी तथा भोजपुरी के स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कवितायेँ, कहानियां, समीक्षाएं आदि प्रकाशित.

सम्प्रति: डीएवी पब्लिक स्कूल, आरा में अध्यापन 

अगर आपको किसी भी समय का प्रतिरोध देखना हो तो इधर-उधर भटकने की बजाय उस समय के कवियों की कविताओं को पढ़िए. आपको सब कुछ वहाँ स्पष्ट रूप से दिख जाएगा. जी, मैं कवि की बात कर रहा हूँ. उनकी नहीं जो अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं. और सत्ता के चाकर की तरह काम करते हैं. इतिहास गवाह है कि फासीवादी शक्तियों के सत्तासीन हो जाने के बावजूद प्रतिरोध की यह परम्परा अबाध रूप से हर जगह चलती रही. सुखद है कि इस परम्परा को हमारे युवा कवियों ने आज भी बचाए-बनाए रखा है. सुमन कुमार सिंह ऐसे ही कवि हैं जिनके यहाँ यह प्रतिरोध स्पष्ट रूप से दिख जाएगा. छपने-छपाने और चर्चा में बने रहने की कलाओं से दूर सुमन आरा जैसी समृद्ध धरती पर लेखन कार्य में सतत लगे हुए हैं. आज पहली बार पर प्रस्तुत हैं सुमन कुमार सिंह की कुछ नयी कविताएँ     

सुमन कुमार सिंह की कविताएँ

तुम्हारे ठिये से मैं 
पता नहीं
यह देश मेरा है
कि तुम्हारा ठिया
जहाँ अपने ही गोश्त की
बोली लगाते-लगाते
थका जा रहा मैं

मेरे बच्चों के चिप्स व कुरकुरे में
नमक सी घुली
तुम्हारी कुटिल मुस्कान
अब एक जरुरी स्वाद में
तब्दील हो चुकी

उस्ताद, अब तो
अठारह इंच के अपने
साधारण टी. वी. स्क्रीन पर
तुम्हारी असाधारण उपस्थिति में
नाच उठता मेरा भी
जमूरा मन,

हर बार तो
यहीं हुआ कि मेरी
कविता के पूरी होने तक
बढ़ गए दाम
गैस, नमक, तेल, चीनी, दूघ
सब्जी व कपड़ों के संग
अनाज के दानों पर लगी
तुम्हारी मुहर
मुँह चिढ़ाने लगी

यूँ  लग रहा है कि घोषित
युवाओं का यह देश
उलटे पाँव भागते–भागते
आ खड़ा हो गया
मध्यकाल की दहलीज पर

पता नहीं
खेती के अत्याधुनिक औजारों
के साथ
मैं तोड़ रहा बंजर जमीन
कि खोद रहा कब्र
अपनी व अपने बीज़ों के लिए,

पता नहीं
मैं कविता लिख रहा
कि साजिश कर रहा 
अपने व अपनों के खिलाफ..? 

निरुत्तर 
अब तुम्हीं बताओ जरा
कैसे समझाऊँ
आँखों की
अपनी जुबान को

चीख रहे
जिसके प्रत्येक शब्द
“चुक गए–चुक गए
हाथ ये कानून के,
धुल गए–धुल गए
दाग सारे खून के,
फुट गए–फुट गए
ढोल सब विकास के,
बिक गए-बिक गए
आश सारे न्याय के,”

जरा बताओ तो सही
क्या करूँ
अपने उस आकाश का
वर्षों से सहेजे रखा जिसे
अपनी फाइलों में

रचे जा रहे उस विधान का
क्या करूँ मैं
जिसकी खुलती रही पोल
प्रत्येक बार
प्रत्येक लोक सभा में

मैं अपने उस आकाश के
ऊपर के आकाश का क्या करूँ
जहाँ चंद लोगों की बैठकी व कहकहे
बदल रहे इस देश की सूरत

बूढी हो रही माँ

मंद–मंद मुस्कुराती
दाव देती
चिंताओं–चतुराइयों को
बूढी हो रही माँ

सहज ही छू लेने को
धरती
वह कमान हुई जा रही

वह बूढी हो रही
मुझे चलते देख तन कर
विश्वासपूर्वक
वो अविरल गंगे
श्रद्धा और भक्ति की
कल–कल करती तुम्हारी
अविरल धाराएँ
क्या कुछ नहीं जानती

जिसने भी कहा तुम्हें
वैतरणी/ मोक्षदायिनी
छला और सिर्फ छला,
जिसने भी जलाए दीप
तना तनोवा
फूंके शंख / बजाये घंटे–घड़ियाल
फैलाया अंधकार गहन

जानती हो तुम
स्वच्छता की सीमाएँ
उनके धरना–प्रदर्शन व
आमरण अनशन की
सर्वहितकारी कामनाएँ
वे पहले रोग गिनाते हैं
फिर रोग का कारण
‘मिनरल वाटर’ – सा
“गंगाजल” के रैपर तले
बोतलों में भर दी जाती हो
तुम व तुम–सी कई और

गंगे, जलती चिताओं और
भष्म होती आत्माओं के
मोक्ष के प्रण
कैसे पूरेंगे?
सिर्फ ऋषियों के होते तो
अलग बात थी,
दुनिया का उतरन आखिर

किस घाट लगेगा?

संपर्क:

C/o प्रो. टी एन चौधरी
बजाज शो रूम की गली.
फ्रेंड्स कॉलोनी
कतिरा, आरा – भोजपुर
802301 बिहार
Mob: 8051513170

Email: singhsuman.ara@gmail.com 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)