अमीर चन्द वैश्य का आलेख ‘सूखे में बादल और वर्षा के बिम्ब’

कवि त्रिलोचन


प्रकृति में मानव के बढ़ते हस्तक्षेप के दुष्परिणाम अब स्पष्ट तौर पर दिखायी पड़ने लगे हैं। बारिश जब होनी चाहिए तब नहीं होती। होती भी है तो बस नाम की। किसान आसमान निहारते रह जाते हैं। जब हम उम्मीद नहीं करते तब लगातार बारिश होती है। बादल भी जैसे हमसे आँख मिचौली करते हैं।  इसी बादल और बारिश को ले कर कवियों ने एक से बढ़ कर एक कविताएँ लिखी हैं। अमीर चंद वैश्य ने इसे ले कर एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा है – सूखे में बादल और वर्षा के बिम्ब।आइए पढ़ते हैं यह आलेख। 

      
सूखे में बादल और वर्षा के बिम्ब

अमीर चन्द वैश्य
25 अगस्त, 20014, आज भादो मास की सोमवती अमावस है। कछला में गंगा के तट पर अपार जन-समुद्र उमड़ेगा। चिलचिलाती हुई धूप में। जेठ की धूप को परास्त करती हुई भादों की धूप। यह कैसा विपर्यय है। अभी-अभी देखा है तारों- भरा आसमान। आँखों को चुभ रहा था।ऐसा आकाश तो शरद् ऋतु की अनुपम शोभा होता है। प्रेमचन्द ने मनुष्य के सौन्दर्य-बोध को उपयोगिता की कसौटी पर कसा था। चैत के बादल सुहावने नहीं लगते हैं। ऐसे बादलों की गड़गड़ाहट किसान की बेचैनी बढ़ा देती है। उसे अपनी पकी सोनिल फसल की चिन्ता सताने लगती है। लेकिन सावन-भादों में तो काले-कजरारे और घुमड़ते हुए बादल ही आँखों को ठंडक पहुंचाते हैं। कालिदास ने मेघदूत में कहा है-  हे मेघ, खेती का फल तुम्हारे अधीन है, इस उमंग से ग्राम -वधूटियां भौंहें चलाने में भोले,  पर प्रेम से गीले अपने नेत्रों में तुम्हें भर लेंगीं। मालक्षेत्र के ऊपर इस प्रकार उमड़-घुमड़ कर बरसना कि हल से तत्काल खुरची हुई भूमि गंधवती हो उठे। फिर कुछ देर बाद चटक गति से पुनः उत्तर की ओर चल पड़ना।
सावन-भादों के बादल किसानों के प्राण हैं। लेकिन इस बार सावन तो किसी कंजूस की तरह थोड़ा सा पानी बरसा कर विदा हो गया। लेकिन भादों आज तक नहीं बरसा है। किसान टकटकी लगाए आसमान की ओर देख रहा है। उसकी फसल सूख रही है। धान पानी के बिना मर गया है। घोषणा की गई थी कि अच्छे दिन आने वाले है। क्या अच्छे दिन ऐसे ही होते हैं। भाई जी, एक बार अपनी खोखली वाणी से देवराज इन्द्र को ललकारिए तो। आपसे डर कर पानी अवश्य बरसाएगा। भाई जी, कोताही क्यों कर रहे हैं। वचने का दरिद्रता। अभद्र भाद्रपद ने आँखों को तरसा दिया है। बिना पानी के कण-कण व्याकुल है। जन-जन बेचैन है। अरे निष्ठुर बादलो, कहां छाए हुए हो। सभी के चातक प्राण तरस रहे हैं। कब आओगे हमारे जनपद में। हम तो तुम्हारे रास्ते में पलके बिछाए बैठे हैं।
बहुत कष्ट है। गर्मी से मन बेचैन रहता है। धूप में जाने की इच्छा नहीं होती। क्या किया जाए। मुझे महाकवि निराला याद आ रहे हैं। उन्हें बादलों का कवि कहा जाता है। आधुनिक कवियों में बादलों पर उन्होंने अनेक कविताएं रची हैं। गीत सिरजे हैं। एक गीत में वे कहते हैं-
‘‘पथ पर मेरा जीवन भर दो
बादल हे अनन्त अम्बर के
बरस सलिल
गति उर्मिल कर दो।‘‘
आकाश में बादल तो हैं ही नहीं बरसेगा कौन। अरे, यह क्या। बाबा नागार्जुन याद आ रहे हैं। उन्होंने भीषण ग्रीष्म के बाद के बाद बरसने वाली पहली बारिश का गतिशील शव्द-चित्र अंकित किया है-
‘‘और आज
ऊपर-ऊपर ही तन गये हैं
तुम्हारे तम्बू
और आज
छमका रही है
पावस रानी
बूँदों-बूँदों बून्दियों की अपनी पायल
और आज चालू हो गई है
झींगुरों की शहनाई अविराम
और आज जोरों से कूक पड़े
नाचते-थिरकते मोर
और आज
आ गई वापस जान
दूब की झुलसी शिराओं के अन्दर
और आज
विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म
समेटकर अपने लाव-लश्कर।‘‘
लेकिन हाय,  इस साल तो भीषण ग्रीष्म भादों में पुनः लौट आया है। अपने लाव-लश्कर के साथं। अब क्या किया जाए। बादलों को धमकाया जाए?  भाजपाइयों की तरह, जो आजकल ‘लव जेहाद’ का प्रखर विरोध कर रहे हैं। धमकियां दे रहे हैं। लेकिन बादलों पर उनकी धमकी का कोई असर नहीं होगा। और वे बादलों को क्यों धमकाएंगे। इस सूखे के मौसम में उनकी तो चांदी ही चांदी है। पांचों उंगलियाँ घी में हैं। सिर कड़ाही में। आप पूछ रहे हैं क्यों? तो सुनो सूखे से मंहगाई बढ़ेगी। खाद्यान्न की कृत्रिम कमी होगी। भाजपाई व्यापारी मनमाने भाव पर माल बेचेंगे। ग्राहकों की गांठ काटेंगे। अपना घर भरेंगे। जमाखोरी करेंगे। लेकिन सरकार जनता से कहेगी कि सूखे से निबटने के लिए सभी प्रबंध कर लिए हैं। इस घोषणा से अधिकारी और कर्मचारी खुश हो जाऐंगे। वें सूखा राहत का इंतजार करेंगे। और उसमें से आधा भाग अपने पेट में भरेंगे।
भादों में वर्षा न होने से हम वे सब गीत और कविताएं भूलते जा रहे हैं जिनमें बादलों के अनेक रूप हैं। रिमझिम की ध्वनियां हैं। आजकल वर्षाकालीन ऐसे दृश्य नहीं दिखाई पड़ रहे हैं-
घेरइं हेरइं गरजइं बरसइं जाइं,
बदर भुइं कर ताप ताकि अफनाइं।
गम्हिरानेन बादर भुइं ले नियराइ,
ऊपर घटा हरिअरी तरे लहराइ।
बहइ बतास, मेघ झूमइ बंसवारि,
जइसे परछन करइ उआरि उआरि।     (अमोला, पृष्ठ-11)
त्रिलोचन जी, अमोला के उपुर्युक्त गतिशील वर्षा बिम्ब आजकल दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। आप ही समझाओ कि धरती की प्यास कैसे बुझेगी। आप शायद यह कहेंगे-
‘‘आए न बहुत दिन बादल
बरसा न बहुत दिन पानी
मिलकर वे दोनों प्रानी
दे रहे खेत में पानी।‘‘
लेकिन आजकल तो धरती का जलस्तर निरंतर कम होता जा रहा है। भू-जल से धरती का पेट नहीं भरा जा सकता। बिन पानी सब कुछ सूना-सूना हो गया है। लोक संत्रस्त है। तंत्र मस्त है। अच्छे दिन किसानों के लिए तो नहीं आए हैं। आए हैं तो केवल भाजपाइयों के लिए।
मालूम नहीं कि आज के वरिष्ठ-कनिष्ठ एवं युवा कवियों में कितने ऐसे हैं, जो ऋण के बोझ से दबे किसान की दुर्दशा का वर्णन कर रहे हैं। बाढ़ और सूखे की दुधारी मार से घायल किसान को कौन कवि अपना नायक बना रहा है। एक मात्र वरिष्ठ कवि विेजेन्द्र ऐसा कर रहे हैं। उनकी कविता का लोकनायक किसान है। चर्चित कविता इस प्रकार है-
‘‘अन्न ही में है बल, वीर्य 
सूर्य के ताप का 
हवा के वेग का
जल की लहर का
कृषक के प्राण क
अन्न ही ईश्वर है
कण-प्रतिकण में 
बसी है गति 
जो उगाता है खेत को कमाकर 
वही है नायक लोक का।‘‘ (बनते मिटते पांव रेत में, पृष्ठ-16)
इस लयात्मक लघु कविता में छह वाक्य हैं। कवि ने निपुणता से पृथ्वी-जल-अग्नि-वायू-आकाश का समावेश किया है। इन पंच तत्वों के बिना न तो हमारा जीवन सम्भव है, न ही दैनिक जीवन के कामकाज। एक तत्व की कमी से ही जीवन का संतुलन बिगड़ जाता है। इसीलिए रहीम ने कहा है-
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
लेकिन आज की युवा कविता में इन पंच तत्वों के गतिशील चित्र लगभग नहीं हैं। लेकिन विजेन्द्र की कविता में हैं। उन्होंने क्रियाशील किसान को उसके प्राकृतिक परिवेश के मध्य उपस्थित करके उसके क्रियाशील रूप का वर्णन किया है। उनका किसान सूखे की मार से निराश तो होता है लेकिन हताश नही। वह बार-बार खेत कमाता है। फसल उगाता है। विजेन्द्र ने जनपद का वृक्ष कविता में किसान का आत्मविश्वास वृक्ष के द्वारा व्यक्त करवाया है। जनपद का वृक्ष कहता है-
‘‘नहीं सुखा पाओगे मुझको
ओ सप्त अश्वधारी भगवान भास्कर
$$$ जब चाहो
तब आना जनपद मेरे
अगले बसन्त में
तुमको दूंगा पत्ते अपने
तन ढकने को
भरी बालियां फसलों की
मीठा रस गन्ने का
हरी मटर की फलियां।‘‘
जीवन के प्रति ऐसी आस्था और आशा किसान और कवि को निष्क्रिय नहीं करती है। दोनों सतत् परिश्रम करते रहते हैं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने ‘अकाल में सारस’ की चर्चा की है। काल में दूब की भी। लेकिन अकाल की मार से पीडि़त किसान के दुख-दर्द का चित्र अंकित नहीं किया है। इसका क्या कारण है। ऐसा अभास होता है कि किसान के प्रति उनकी वैसी गहरी संवेदना नहीं है जैसी विजेन्द्र की कविता में लक्षित होती है। जागरूक कवि विजेन्द्र ने उनकी इस संवेदनक्षीणता का प्रमाण उनकी एक कविता में देखा है। शीर्षक है ‘फसल’ जो वागर्थ के नवंवर 2008 के अंक में छपी थी। इस कविता में डॉ0 सिंह कहते हैं 

मैं उसे वर्षों से पहचानता हूं

एक अधेडं किसान
थोड़ा झुका
किसी बोझ से नहीं
सिर्फ धरती के गुरूत्वाकर्षण से
जिसे वो इतना प्यार करता है।‘‘ 

अब इस पर विजेन्द्र की टिप्पणी पढि़ए- ‘‘ यहां अभावग्रस्त किसान की दैनिक पीड़ाएं न बता कर गुरूत्वाकर्षण शव्द से सिर्फ चमत्कार पैदा किया गया है। लाखों किसानों ने आत्महत्याएं कीं। क्योंकि वे गुरूत्वाकर्षण के बोझ से दबे हुए थे। यदि कोई किसान इस कविता को पढ़ेगा तो कवि पर थूकेगा और कविता पर भी। अपने खेत में रात-दिन वो अपना खून पसीना बहाकर जो श्रम करता है उसका मार्मिक चित्र चमत्कार से ढक दिया गया है। यही है कुत्सित सौन्दर्यशास्त्र जो, हमें जीवन की कठिन स्थितियों से परिचित नहीं होने देता।‘‘ (विजेन्द्र जी की फेस बुक वाल से) लेकिन डा0 हरीश निगम ने अपने गीत में किसान के दर्द का चित्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है- 

‘‘घाटों पर कर लेना गौर 
नदिया री
चढ़ना न और।
सूखे ने
फेर दिया पानी
पहले ही 
डूब गए
खेत-वेत धानी
हाथों से छिनते हैं कौर।
चिथड़े दिन ओढ़ते-बिछाते
कमर झुकी
घुन खाए धूप -छांव नाते
ढूंढेंगे
और कहां ठौर।‘‘ (दैनिक जागरण, 25 अगस्त 2014)
इस गीत में बाढ़ और सूखे दोनों की मार की ओर संकेत किया गया है। ऐसे भीषण और त्रासद सूखे ने वर्षाकालीन अनेक दृश्यो-परिदृश्यों-उल्लासों-मुसकानों-क्रियाओं-परेशानियों को आंख-ओट कर दिया है। जायसी ने अपने बारहमासा में कहा है- 

तपन मृगशिरा जे सहैं थे अद्रा पलुहन्त।
लेकिन एसा दृश्य आजकल नहीं दिखाई पड़ रहा है। सब कुछ सूख रहा है। इस बार बादल का उल्लास से भरा रूप नहीं देखा गया-

‘‘बादल अभिनव बरस रहा है
बीजा भीतर तड़क रहा है
भीज गए सब
पेड़ रूख
घर अंगनारे
कुछ बैठे हैं
बौछारों में
कुछ फिरते हैं
मारे-मारे 
इतनी नदियां
इतने निर्झर
इतने बाँगर
पांव पसारे
जो लगते थे 
भीषण योद्धा 
लगते हैं
अब हारे-हारे
चलती हवा झकोरा लेती
डर भारी है
बिछे न खेती
गिरते देखे
आंसू खारे
बस छिपा लिया है 
दुख को हमने 
हिला लिया है
हमने उसको
फिर भी 
नेहा, तुमने देखा
पाग लिये जस सक्करपारे।‘‘ (बनते-मिटते पांव रेत मे, पृष्ठ-7, 8)
विजेन्द्र की यह बादल कविता आदि से अन्त तक लयात्मक है। इसमें किसान की ओर से कवि स्वयं बोल रहा है। उत्तम पुरूष के रूप में। लोकधर्मी होने के नाते कवि ने भाषा का रचाव लोक की शव्दावली से किया है। इसके भाषिक रचाव में लोच है। वर्ण-संगीत है। हर्ष-उल्लास है। खेती की चिंता है। प्रसन्नता का भाव है। वर्षा जल के वेग की प्रबलता है। बीज का बीजा रूप और आंगन का अंगनारे रूप कवि की भाषा के लोच के सबूत हैं। गीत न होते हुए भी संपूर्ण कविता लोकगीत के निकट है। प्रसाद गुण इसका प्राणतत्व है।

निराला

ऐसी लयात्मक कविताएं न तो केदारनाथ सिंह ने रची हैं। न विनोद कुमार शुक्ल ने। न राजेश जोशी और अरूण कमल ने। न उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल ने। न वीरेन्द्र डंगवाल ने। इन कवियों ने न तो निराला के मुक्त छन्द से कुछ सीखा। न ही शमशेर और मुक्तिबोध के शिल्प विधान से। न काव्य-मर्मज्ञ त्रिलोचन शास्त्री से। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अॅंधेरे में’ का संपूर्ण रचना-विधान कवित्त छन्द की लय पर आधारित है। अपने मुक्त रूप में। उनकी ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता का आधार है तुलसी का प्रिय छन्द हरिगीतिका। मुक्तिबोध ने इसे मुक्त छन्द के रूप ढाला है। त्रिलोचन की प्रसिद्ध कविता ‘चम्पा काले अच्छर नहीं चीन्हती’ रोला छन्द में रची गई है। मुक्त रूप में। वस्तुतः समकालीन कविता में लय का तिरस्कार कविता के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है। उसके पाठक कम हो रहे हैं। यदि गद्य रूप में कविता रचनी है तो शमशेर की उत्कृष्ट कविता अम्न का राग बार-बार पढ़नी चाहिए। सुननी चाहिए। और गुननी चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि बड़े कवियों की नकल नहीं की जा सकती।

ऊपर लोकगीत की चर्चा हुई है। मुझे लोकगीत की भाव-भूमि पर रचा हुआ महाकवि निराला का वर्षा गीत याद आ रहा है। अलि, घिर आए घन पावस के। यह उत्तम गीत है, जिसमें निराला ने वियोगिनी की वेदना यथार्थ के धरातल पर वर्णित की है। पावस के संपूर्ण वैभव का चित्रांकन करते हुए। इस गीत का ध्वनि-सौन्दर्य पाठक अथवा श्रोता को अनायास अपनी ओर खींच लेता है। खेद की बात तो यह है कि ऐसा उत्कृष्ट गीत न तो किसी गायक ने गाया है। और न किसी नामवर आलोचक ने इसकी आस्वादपरक व्याख्या की है। निराला काव्य के मर्मज्ञ आलोचक डॉ0 रामविलास शर्मा ने इस गीत की प्रशंसा तो की है, लेकिन व्याख्या नही। आपकी उत्सुकता बढ़ रही होगी। अतः संपूर्ण गीत आपके पाठ के लिए प्रस्तुत है और उसकी आस्वादपरक व्याख्या भी।
अलि, घिर आये घन पावस के।
लख ये काले-काले बादल, नील सिन्धु में खुले कमल-दल
हरित ज्योति,  चपला अतिचंचल,  सौरभ के रस के
अलि, घिर आये घन पावस के।
द्रुत समीर-कंपित  थर थर थर, झरतीं धाराएं झर झर झर
जगती के  प्राणों में स्मर-शर वेध गए, कसके
अलि, घिर आये घन पावस के। 
हरियाली ने, अलि, हर ली श्री, अखिल विश्व के नव यौवन की
मन्द- गन्ध  कुसुमों  में  लिख दी, लिपि  जय  की हंस के
अलि, घिर आये घन पावस के। 
              छोड़  गये  गृह जब से प्रियतम, बीते अपलक दृश्य मनोरम
क्या   मैं  हूं  ऐसी  ही अक्षम, क्यों    रहे बस के
अलि, घिर आये घन पावस के। 
यह गीत 4 मई 1929 में प्रकाशित हुआ। मतवाला, साप्ताहिक, कलकत्ता में। परिमल में संकलित है। निराला रचनावली के पहले खण्ड पृष्ठ-186-87 पर पढ़ा जा सकता है। 
    
ऐसा संगीतमय उत्कृष्ट गीत अन्य किसी छायावादी कवि ने नहीं रचा। न ही किसी छायावादोत्तर कवि ने। और न ही किसी साठोत्तरी कवि ने। यह गीत लोकधर्मी कविता के निकट है। इसमें उस ग्रामीण वियोगिनी की वेदना व्यक्त है जिसका, पति परदेस चला गया है। लौट कर घर नहीं आया है। एक ग्रामीण महिला कहती है कि जो तुम आम का पौधा रोप कर गए थे, वह अब पेड़ बन गया है। लेकिन तुम अभी तक नहीं लौटे हो। यह बात ग्रामीण महिला कहती नहीं है। अवधि की अभिव्यक्ति आम का पेड़ कर रहा है।

इस गीत में चार बन्ध हैं। प्रारम्भिक पंक्ति है- अलि, घिर आये घन पावस के। यह टेक वाली पंक्ति हर बन्ध के बाद दुहराई जाती है। भाव को सघनता प्रदान करने के लिए। वियोग की बात किसी अंतरंग व्यक्ति से ही कही जाती है। सभी से नहीं। यहां वियोगिनी की अंतरंग है उसकी सखी। सूर और मीरा के पदों में सखी को संवोधित अनेक पद हैं। जैसे-सखीइन नैनन ते घन हारे। प्रारम्भिक पंक्ति यह भाव व्यक्त कर रही है कि पावस की ऋतु फिर आ गई है लेकिन प्रियतम परदेस से आज तक नहीं आए। वर्षा प्रेमियों के आकर्षण की ऋतु है। कालिदास ने ‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ में यही भाव व्यक्त किया है। घन आए घनश्याम न आए में भी यही भाव है। घन घमंड गरजत नभ घेरा/प्रियाहीन दरपत मन मोरा।वियोगी राम के इस कथन में भी उपरोक्त भाव है।
गीत के पहले बन्ध में वर्षा ऋतु के काले-काले बादलों के विराट बिम्ब की रचना की गई है। ऐसे बादल देखकर लगता है कि नील वर्णी समुद्र में असंख्य कमलों के दल अर्थात पंखुरियां खुल गईं हैं। यह कल्पना बहुत सार्थक है और बादलों का विराट् रूप प्रस्तुत कर रही है। वर्षा जल के कारण चारों ओर हरियाली ही हरियाली छा गई है। अर्थात् हरित ज्योति चतुर्दिक चमक रही है। आकाश में काले बादल हैं और उनमें रह-रह कर अत्यन्त चचंल चपला चमक रही है। बादलों को देख कर ऐसा लगता है कि वे जल से भरे हुए है और सुगन्ध से परिपूर्ण हैं। तात्पर्य यह है कि हवा के झकोरों के साथ पानी की बौछारें गिर रही हैं। उनमें धरती की सुगन्ध घुलमिल गई है। साथ ही साथ अनेक फूलों की गन्ध भी।
इस बन्ध की भाषिक संरचना लगभग समास-रहित है। केवल दो लघु समास हैं। काले-काले और कमल-दल। भाषिक संरचना में तद्भव और तत्सम पदों का सुन्दर मेल है। अर्थ-वोध की दृष्टि से प्रसाद गुण है। भ,,,,,,,, स – व्यंजन वर्णों की आवृत्ति से कोमलकान्त पदावली का संयोजन किया गया है।

कवि विजेन्द्र

दूसरे बन्ध में महाकवि निराला ने अपने स्वभाव के अनुसार ध्वनि -सौन्दर्य की सृष्टि की है। वर्षा हो रही है। तेज समीर से सभी वनस्पतियां और पेड़-पौधे थर थर थर कांप रहे हैं। अर्थात् पवन इतना तीव्र गतिवाला है कि पेड़-पौधे, घास के मैदान आदि सभी आंदोलित हो रहे हैं। और जल-धाराएं झर झर झर करके निरंतर झड़ रही हैं। अर्थात् वर्षा की झड़ी लगी हुई है। ऐसे सुखद वातावरण में संसार के सभी प्राणियों के प्राण कामदेव के वाणों से कसकर बिंध गए हैं। अर्थात् प्रेमी जनों और अन्य प्राणियों में मिलन की उत्कंठा जाग उठी है। कालिदास ने ‘मेघदूत’ के पहले भाग पूर्व मेघ के श्लोक में यही भाव व्यक्त किया है। यक्ष बादलों से कहता है कि मेघ को देख कर प्रिया के पास सुखी जन का चित्त भी और तरह का हो जाता है। कंठालिंगन के लिए भटकते हुए विरही जन का तो कहना ही क्या?

जितना वास्तविक कथन कालिदास का है, उतना ही वास्तविक भाव निराला का है। उन्होंने कालिदास की नकल नहीं की है। लेकिन प्रेमी जनों की प्रबल उत्कंठा का संकेत अवश्य किया है। थर थर थर और झर झर झर की आवृत्ति से वर्षाकालीन दृश्यों और ध्वनियों को प्रत्यक्ष और कर्णगोचर कर दिया है। इस बन्ध में भी दो समास हैं और शेष वाक्य समास रहित। भाषा का रचाव अंतर्वस्तु के अनुरूप है अर्थात् वस्तु और रूप दोनों में चारूता की कान्त मैत्री है।
तीसरे बन्ध में वियोगिनी अपनी सखी को संबोधित करती हुई कहती है- देखो, चारो ओर कितनी मनोहर हरियाली छाई हुई है। उसने अपनी सुन्दरता से संपूर्ण विश्व के नवीन यौवन की श्री एवं शोभा का हरण कर लिया है। अर्थात् हरियाली के सामने सुन्दर नव यौवन भी कम सुन्दर लगता है। मुझे तो ऐसा लगता है कि सौन्दर्य की प्रतियोगिता में हरियाली ने अपनी अभूतपूर्व शोभा से संपूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त कर ली है। और अपनी विजय की बात हंसकर मन्द गन्ध से युक्त कुसुमों की पंखुरियों पर लिख दी है। कहने का आशय यह है कि वर्षा काल में मन्द मन्द गन्ध से युक्त फूल वर्षा जल की बूंदों से झिलमिलाते रहते हैं। ऐसे फूल देख कर आभास होता है कि मानो हरियाली ने अपनी विजय की लिपि जल-विन्दुओं के रूप में अंकित कर दी है। 
इस बन्ध में निराला जी ने हरियाली को मानवीकरण रूप में प्रस्तुत किया है। कल्पना के संस्पर्श से उसकी अभूतपूर्व शोभा की व्यंजना की है। इस बन्ध में भी मात्र एक सामासिक पद है। मन्द-गन्ध शेष वाक्य समासरहित हैं। ग,,,, ,,,,, ल -व्यंजनों की आवृति से कोमलकान्त पदावली सिरजी गई है। 
चैथे बन्ध में वियोगिनी की वेदना-अभिव्यक्ति है। यह संपूर्ण गीत को भावोत्कर्ष से युक्त कर रही है। अपनी चिरकालिक वेदना की बात कहती हुई वियोगिनी कहती है- हे सखी, जब से मेरे प्रियतम घर छोड़ कर गए हैं, तब से लौट कर नहीं आए हैं। उनकी अनुपस्थित में मैंने सभी ऋतुओं के मनोरम दृश्य अपलक देखते हुए अपने दिन बिताए हैं। मैंने दृश्यों के साथ साथ अपने प्रियतम की बाट भी अपलक भाव से हमेशा देखी है। लेकिन सफलता कभी नहीं मिली। निराशा ही हाथ लगी है। सोचती हूं कि क्या मैं ही इतनी अक्षम हूं जो अपने प्रियतम को प्रेम की डोर से नहीं बांध सकी। मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठता है कि मेरे प्रियतम मेरे बस में क्यों नहीं रहे। क्या मुझमें ही कुछ कमी है। क्या मैं असुन्दर हूं। लगता तो ऐसा ही है। यदि ऐसा न होता तो मेरे प्रियतम लौट कर अवश्य आते। क्योंकि वर्षा ऋतु में सभी प्रवासी अपने-अपने घर पहुंचने का प्रयास करते हैं। कुशल-क्षेम के लिए। वर्षा ऋतु में गरीवों के छप्पर या कच्चे मकान टपकते जरूर हैं। तो ऐसे मौसम में मैं अकेली घर की देखभाल कैसे कर सकती हूं। यही बात जायसी की नागमती भी कहती है कि पुष्य नक्षत्र सिर पर आ गया। मैं घर में बिना पति के हूं। मेरा मंदिर कौन छाएगा। वियोगिनी को यह भी लगता है कि उसका प्रवासी पति अब किसी और का हो गया है। किसी अन्या ने उसे अपने बस में कर लिया है। तभी तो उसे मेरी याद नहीं आती है। प्रसंगवश यहां उल्लेखनीय है कि प्रवासी जनों की पत्नियां प्रायः अशिक्षित होती थीं। वे किसी शिक्षित से अपने प्रियतम के नाम पाती लिखवाती थीं। जिस युवती का पति परदेस चला जाता है, उसकी दशा दयनीय हो जाती है। ससुराल वाले भी उसका तिरस्कार करने लगते हैं।\
इस प्रकार यह वियोग प्रधान गीत लोक-जीवन से अनायास जुड़ जाता है। इस गीत में प्रकृति के दोनों रूप हैं। आलम्बन रूप और उद्दीपन रूप। आज के संदर्भ में देखें तो इस गीत की एक और व्यंजना भी है। आजकल अनेक युवक ऐसे हैं जो अपनी व्याहता पत्नी को घर छोड़कर दिल्ली की ओर दौड़ पड़ते हैं। सुख-सुविधाओं की तलाश में। पढ़ने-लिखने के बाद नौकरी भी पा जाते हैं। संयोग से किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो जाते हैं और किसी आधुनिक एवं सुशिक्षित युवती से व्याह रचाकर दिल्ली के हो कर ही रह जाते हैं। जायसी ने ठीक ही लिखा है कि दिल्ली ऐसा देश है, जो वहां जाता है, वहीं का होकर रह जाता है। अपने देश लौट कर नहीं जाता। और उधर उसकी जन्म-भूमि अर्थात गांव में रहने वाली उसकी परित्यक्ता पहली पत्नी उसका रास्ता ही देखती रहती है। यह बड़ी विकट समस्या है। आज का शिक्षित मध्य वर्ग इस समस्या से ग्रस्त है। इस प्रकार यह गीत हमारी समकालीन सामाजिक गतिकी से अनायास जुड़ जाता है। और हमारी सामाजिक विसंगति की ओर संकेत करता है। यह भी बताता है कि नारी आज भी पराधीन है। इक्कीसवीं सदी के प्रथम चरण में।
इस बन्ध में कोई सामासिक पद नहीं है। छोड़ना क्रिया का बहुत ही सार्थक प्रयोग किया गया है। त्रिलोचन शास्त्री कहा करते थे कि छोड़ना सबसे अधिक खतरनाक क्रिया है। इसका प्रयोग सोच समझ कर करना चाहिए। रिश्तेदार छोड़े नहीं जाते हैं। विदा किए जाते हैं। सांप छोड़े जाते हैं। सांड़ छोड़े जाते हैं। निष्ठुर पति अपनी पत्नी छोड़ देता है। प्रेमी प्रेमिका को छोड़ देता है। ऐसा आचरण समाज के लिए अमंगलकारी है। हां, शराब छोड़ना ठीक है। चोरी छोड़ना ठीक है।
अंत में इतना ही कहना पर्याप्त है कि अर्थ-गौरव से पूर्ण यह गीत निराला की श्रेष्ठ रचना है। संगीतकारों और गायकों को इसे संगीतबद्व करके शास्त्रीय ढंग से गाना चाहिए। यह निराला के प्रति सबसे बड़ी श्रद्धा होगी। जब वांग्ला भाषा में रवीन्द्र संगीत है तब हिन्दी में भी निराला संगीत होना चाहिए। इस अभाव का कारण यह है कि बंगालियों के समान हिन्दी भाषी लोगों में अपने बड़े कवियों के प्रति श्रद्धा और समादर की भावना नहीं है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं हिन्दी जाति के साहित्य के प्रति उनका लगाव बहुत कम है। हिन्दी भाषी लोग केवल कवियों और नेताओं की प्रतिमा स्थापित करना जानते हैं। उन्हें न तो ठीक ढ़ंग से पढ़ते हैं। न समझते हैं। न गुनते हैं। इस सदी में तो उल्टी गंगा बह रही है। बीसवीं सदी में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, पन्त सभी हिन्दी और उसके साहित्य को अग्रसर करने में लगे थे। लेकिन आजकल भारत अमरीकी साम्रराज्यवाद के दबाव के कारण अपनी जड़ों से कट रहा है। भारतीय भाषाओं का तिरस्कार किया जा रहा है। अंग्रेजी का बोलबाला सर्वत्र है। इसलिए आज की नई पौध अपनी भाषा और संस्कृति से निरंतर दूर हो रही है। धीरे-धीरे मानसिक गुलामी की ओर बढ़ रही है। यह प्रवृत्ति भारत जैसे बहुजातीय राष्ट्र के लिए खतरनाक है। निराला जी बहुत अच्छे गायक थे। अतः उनके गीतों का मर्म समझने के लिए आलोचनात्मक प्रयास होते रहने चाहिए। और संगीतात्मक प्रस्तुति भी।

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विजेन्द्र की कविता ‘ओ एशिया’ पर अमीर चन्द वैश्य का आलेख


यह विडम्बना ही है कि दुनिया का सबसे बड़ा महाद्वीप होने के बावजूद एशिया एक लम्बे समय से साम्राज्यवादी शक्तियों के उत्पीड़न का शिकार रहा है। पहले यूरोपीय शक्तियों ने एशिया के देशों को गुलाम बना कर शोषण किया और अब अमरीका अपने निहित स्वार्थों के चलते एशिया के ही विभिन्न हिस्सों कभी ईराक, कभी अफगानिस्तान तो कभी ईरान को अपना शिकार बनाता रहा है। एशिया का पश्चिमी हिस्सा जिसे हम ‘मध्य-पूर्व’ के नाम से जानते हैं आज भी इन शक्तियों के उत्पीडन का शिकार होता रहता है। लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं। विशेषज्ञों की राय है कि इक्कीसवीं सदी एशिया के वर्चस्व की सदी होगी। भारत और चीन जैसे देशों ने आर्थिक स्तर पर अपने को बड़ी शक्तियों में शामिल कर लिया है। आज उनकी उपेक्षा कर सकना संभव नहीं है। जापान पहले से ही विश्व राजनीति और अर्थव्यवस्था में अपनी अग्रणी भूमिका निभाता आ रहा है। इसी एशिया को ले कर वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने एक लम्बी कविता ‘ओ एशिया’ लिखी है। दुर्भाग्यवश यह कविता आलोचकों के नज़रों से एक लम्बे समय ओझल रही। वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य ने इस कविता पर हमें पहली बार के लिए एक लंबा आलेख लिख भेजा है। दस जनवरी को विजेन्द्र जी के उन्यासीवें जन्मदिन के अवसर पर उन्हें बधाईयाँ देते हुए जन्मदिन विशेष की दूसरी कड़ी में हम प्रस्तुत कर रहे हैं अमीर जी का यह आलेख ‘विजेन्द्र की सर्जना का शतदल कमल’
विजेन्द्र की सर्जना का शतदल कमल
अमीर चन्द वैश्य
                

वरिष्ठ कवि विजेन्द्र द्वारा रचित चार लम्बी कविताओं कठफूला बाँस’ (1977), ‘संवाद स्वयं से’ (2011), ‘ओ एशिया’ (2012), और कौतूहल’ (2013) का संकलन सन् 2013 में प्रकाश में आया है। संकलन का शीर्षक है कठफूला बाँस। विजेन्द्र सन् उन्नीस सौ सत्तर के दशक से यथार्थमूलक एवं लोकधर्मी लम्बी कविताओं की सृष्टि करनते रहे हैं। आज भी कर रहे हैं। सन् 1974 में प्रकाशित जनशक्तिऔर सन् 1977 में पक्षपत्रिका में प्रकाशित कठफूला बाँसविजेन्द्र की प्रारम्भिक एवं महत्त्वपूर्ण कविताएँ हैं। इन्हीं कविताओं के नाम से उनके दो संकलन प्रकाश में आए हैं। दोनों में लम्बी कविताएँ संकलित हैं।

कठफूला बाँसमें संकलित पहली-दूसरी कविताओं पर आलेख लिख चुका हूँ। इस आलेख में तीसरी कविता ओ एशियाका वैशिष्ट्य समझने-समझाने के प्रयास किया गया है।

सेवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए हैं। दुनिया एक ध्रुवीय हो गई है। अब साम्राज्यवादी अमरीका का वर्चस्व बढ़ गया है। अपने समय और समाज के प्रति जागरूक कवि विजेन्द्र ने वर्तमान विश्व को एक ध्रुवीयता से बचाने के लिए एशिया को दूसरी महाशक्तिके रूप में रूपायित करके मांगलिकता के लिए बेहतर भविष्य की कल्पना की है। शिवेतरक्षतयेकाव्य-प्रयोजन के समर्थक विजेन्द्र की यह कविता सुखद स्वप्न है, जो भविष्य में साकार हो सकता है। वह एशिया महाद्वीप को संगठित रूप में देखना चाहते हैं। इससे अमरीकी साम्राज्यवाद का विजय-रथ रुक सकता है। अतः वह एशिया को जगाते हुए सम्बोधित करते हैं-
                                ‘‘ओ एशिया के विशाल महाद्वीप तुम जागो
                                दुनिया देखती है तुम्हारी तरफ, जागो
                                बोलने दो लाखों कंठों को एक साथ
                                ये दबी-कुचली आवाज़ें धरती के गर्भ में
                                क्या कहना चाहती हैं
                                उन्हें सुनो
                                उनका उत्तर दो
                                उन्हें भरोसा दो
                                ज्योतिस्तम्भ बुझे पड़े हैं
                                कहाँ है वो रोशनी
                                तुम्हारी छिपी विद्रोही तड़प।   (कठफूला बाँस, पृ0 91, 92)
ज्योतिस्तम्भविजेन्द्र का प्रिय बिम्ब है। लेकिन वह बुझा पड़ा है। अतएव अंधकार का साम्राज्य है। यह अँधेरा क्रूर पूँजी के वर्चस्व के कारण परिव्याप्त है। मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता का शीर्षक सभी जानते हैं। उन्होंने अपने जीवन-काल में सभ्यता-समीक्षा करते हुए अँधेरे मेंआशंका के अनेक द्वीप देखे थे। आशंकाओं के द्वीप कम नहीं हुए हैं। विजेन्द्र भी अपने समय-समाज में पसरे हुए अँधेरे को देख-देख कर गहरे सोच में डूब जाते हैं-
‘‘ये अंधेरा कब छटेगा
सभी तो लगते हैं एक से
पथ-क्षीण, पथ-भ्रष्ट
केले का पात ढुल-मुल
देखा एक दिन कुछ कवियों को
उड़ते पतझरे पत्तों की तरह हवा में
मेरी तरफ देख कर वे हँसे
उनकी आँखों ने बताया
कहते हों जैसे पड़े रहो इस खल्लड़ में
गढ़लीकों में
डामर पुते राजमार्ग जाते हैं राजभवनों में।’’ (पृ0 92, 93)
इस काव्यांश में विजेन्द्र का साधक कवि-व्यक्तित्व झलक रहा है, जो सत्ता-समर्थक कवियों/लेखकों पर व्यंग्य का प्रहार भी है। खल्लड़बदायूँनी बोली का शब्द है। यह लोहे से बनता है। मिर्च-मसाला कूटने के काम में आता है। आशय यह सच्चे कवि को कष्टों में पड़े रह कर विरोधियों के प्रहार झेलने पड़ते हैं। सत्तामुखी कवियों/लेखकों की प्रखर आलोचना करते हुए शमशेर ने भी कहा था-
‘‘ राह तो इक थी हम दोनों की
आप किधर से आए गए
हम जो लुट गए पिट गए
आप जो राजभवन में पाए गए।’’
विजेन्द्र ने भी शमशेर के समान राजभवन का त्याग करके अपना सम्पूर्ण जीवन काव्य-सर्जना के लिए समर्पित कर दिया है। अपनी प्रत्येक साँस कविता के लिए अर्पित कर दी है। अपने समय-समाज की गहरी पीर आत्मसात करके कहा है-

‘‘अकेला, बिल्कुल अकेला
समूह में बजती हैं एकान्त की सुनें
सुनता हूँ अपने अन्दर बजती
धातुक खनक
समुद्र-लहरों में हिलती-डुलती प्रवाल भित्तियाँ
गहरे त्रास का ध्रुपद
दुखती उदासी का मालकोश
शोकाकुल उठते हैं चाहे जब दर्द के
तिरछट आरोह-अवरोह
जलतरंग ढलते सूर्य का
सुनता हूँ अँधेरे गर्त में।’’ (वही, पृ0 93)

यह काव्यांश पढ़ कर पाठक अनायास समझ सकता है कि कवि विजेन्द्र ने दलित-शोषित मानवता की वेदना आत्मसात कर ली है। अपने अभिजात व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर लिया है। वह स्वयं को नदी का द्वीपन मानकर जन-गण की दुख-धारा में प्रतिपल बहना चाहते हैं। अन्य सत्तामुखी कवियों के समान वह प्रदूषित धारा में बहना नहीं। अपने बारे में वह लिखते हैं-

‘‘ यंत्रणाएँ झेलने से ही बनी है
मेरी चित्त भूमि उर्वर
$ $ $ $ लाल पत्थरों की खदानों के खाली पेट
शाम के झुटपुटे में
लौटते खनिक बुझी-बुझी आँखें लिये
पत्थरों की खुरदरी देह पर
खिंची-तिरछी गहरी खपारें
कहाँ हो तुम
आओ मेरे पास साम्राज्य का खुलना जबड़ा
निगलना चाहता है मेरे देश को
राजभवन से उतर कर
इन्हें देखो
यहाँ आओ जनता के बीच।’’ (पृ0 95)

फिर एक और सवाल सामने आकर खड़ा होता है। आखिकर साम्राज्य का खुला जबड़ाका बिम्ब किसकी ओर संकेत कर रहा है। अमरीकी साम्राज्यवाद की ओर? हाँ, अमरीका ही सम्पूर्ण विश्व पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है।

इसीलिए विजेन्द्र अपनी कविता में साम्राज्यवाद का मुखर विरोध करते हैं। ऐसा प्रखर प्रतिरोध उनके हम उम्र बड़े कवियों के काव्य में लक्षित नहीं होता है। हाँ, इतना ज़रूर है कि विनोद कुमार शुक्ल अपनी कुछ कविताओं में श्रमशील जनों के पसीने पर दृष्टिपात अवश्य करते हैं, लेकिन मुक्ति-संग्राम के हेतु उन्हें संगठित होने के लिए प्रेरित नहीं करते हैं। शुक्ल-काव्य में अमूर्तन और कलात्मक चमत्कार भी कम नहीं हैं। आचार्य शुक्ल कविता में चमत्कारवाद का विरोध किया करते थे। यदि आचार्य शुक्ल हमारे मध्य में होते तो वह विजेन्द्र-काव्य के पक्ष में खड़े होते। क्यों। इसलिए कि विजेन्द्र काव्य की प्रधान भावना मानवीय करुणा है, जो लोक की रक्षा करती है। शुक्ल जी के प्रिय कवि तुलसी के लोक-नायक राम की करुणायतन हैं। खिन्नजन उन्हें परमप्रिय हैं। लोक-मंगल की स्थापना के लिए वह प्रबल खलनायक का संहार करते हैं। उनका सात्त्विक क्रोध कालाग्नि के सदृश हैं।
आज के कवि विजेन्द्र अपनी उपर्युक्त परम्परा का अनुसरण समकालीन वर्गीय जीवन-दृष्टि से करते हैं। सामाजिक गतिकी की आलोचना करके श्रमजीवी वर्गों के प्रतिनिधि साधारण जनों-श्रमिकों-कृषकों को अपना काव्य-नायक मानकर उन्हें रूपायित करते हैं। वह मानते हैं कि संस्कृति का सौन्दर्य श्रम पर निर्भर हैं। उन्हें यह धरती कामधेनुसे भी अधिक प्यारी लगती है। अतः वह कहते हैं-

‘‘जहाँ भी गया धरती ने बुलाया
बड़े दुलार से
बीज बोने को
रोपने को धान
जब हल ने उसके वक्ष को चीरा
वह न कराही
न चीखी, न चिल्लाई
अँधेरे में फाड़ती रही अपने रोयें
$ $ $ $
देखा तपते किसान का कठोर तँबई चेहरा
जल, हवा, हिम, धूप, छायाएँ
जोतते रहे वे घटित गोखरू क्षण
मेरे चित्त के दोआबा को।’’ (पृ0 96)

यह है सच्चा और निश्छल अनुराग अपनी धरती के प्रति कवि का।

                विजेन्द्र की मान्यता है कि समुद्र की अथाह गहराई और धरती के गर्भ में जो अपार सम्पदा विद्यमान है, उसकी खोज श्रमीजन ही करते हैं। लेकिन लोभी पूँजी उसका विदोहन अपने स्वार्थ के लिए करती है। अतः वह आत्मविश्वास भरे सुर में कहते हैं-

‘‘अधिरचना में खोजता हूँ रजकण, रेखे, पुंसकेसर में झाँकता भविष्य
सुन्दर विश्व का स्वप्न
बिना जनता के बल सम्भव कहाँ
समुद्र की कोख में छिपी
अंतरंग जलधाराएँ
फणिधर लहरें पटकती सिर
आदिम विशाल चट्टानों पर
 $ $ $ $ सत्य की शक्ल क्या देखी तुमने
उसका रंग जागते अफ्रीका जैसा
उसका चेहरा
धमनपट्टी के आगे खड़े श्रमी का
उस की चमकी आँखें
उसे ढका है झूठे पाखण्ड से।’’ (पृ0 97)

                प्रबल जन-शक्ति के प्रति आस्थावान् विजेन्द्र अपने जनपद- अपने देश, अपने प्राकृतिक परिवेश के प्रति अनुरक्त रहते हुए शोषण से पीड़ित विश्व के अन्य देशों के प्रति अपनी हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। उनकी उर्वर चित्त-भूमि अत्यंत्य व्यापक है। अतः अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए वह कहते हैं-

‘‘जलता है मध्य पूर्व
लीबिया का विक्षोभ
सिर उठाता नव फासीवाद योरुप में
ओह क्यों चुप हैं
जल-विज्ञानविद्
क्यों नहीं रोक पाते
नदियों का प्रदूषण
सूखते जाते उनके स्रोत
क्यों बनती जातीं
रक्तवाहिकाएँ गन्दी नालियाँ।’’ (पृ0 98)

                कहते की आवश्यकता नहीं है कि उपर्युक्त ज्वलंत प्रश्न विजेन्द्र की कविता को समय-समाज और जीवन के बड़े सरोकारों से जोड़ते हैं। उनकी चिन्ता स्वाभाविक है। मानवता के मंगल के लिए।

                विजेन्द्र की यह सुदृढ़ मान्यता है कि अब 21वीं सदी मार्क्स की है। लोग वर्तमान दौर के शोषक पूँजीवाद और साम्राज्यवाद से ऊब गए हैं। वे बदलाव चाहते हैं। इसलिए अब विरोध में आवाज़ बुलन्द होने लनगी हैं। विरोध करने के लिए हाथ एक साथ उठने लगे हैं। भारत में बुनियादी परिवर्तन के लिए मजदूरों और किसानों के मजबूत गठबंधन की परम आवश्यकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि विजेन्द्र की कविता के केन्द्र में यही दोनों उत्पादक वर्ग हैं। केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता में डंके की चोट पर यह घोषणा की है कि यह धरती उस किसान की है, जो इसे जोतता है। बीज बोता है। और फसल उगाता है। विजेन्द्र ने अपने इस अग्रज कवि की मान्यता स्वीकारते हुए लिखा है-

‘‘ओ जलधर
किया है तुझे किस ने नग्न भूमिहीन
बोलो, बोलो, बोलो
संगठित जवान बोलो
कौन छीनता है
तुम्हारा आत्मीय भेस
कौन हड़पता है
तुम्हारी भूमि
पहचाना उसे हिये आँख से भी
कौन छीनता तुम से
तुम्हारी मातृभाषा
जनपदों की रससिक्त अनुगूँजें।’’ (पृ0 98)

                उपर्युक्त काव्यांश में ओजपूर्ण प्रश्नात्मक शैली के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लूट एवं अपसंस्कृति की प्रखर आलोचना की गई है। विदेशी पूँजी ने स्वदेशी वस्तुओं और स्वदेशी भाषाओं को किनारे कर दिया है। बड़े-बड़े कारखानों के निर्माण अथवा भवन-निर्माण के लिए किसानों की भूमि मिट्टी के भाव खरीद कर सोने के भाव बेची जा रही है। भारत में भूमि अधिग्रहण का वही कानून काम कर रहा है, जो ब्रिटिश शासकों ने पारित किया था। अब प्रखर विरोध के बाद वह पुराना कानून समाप्त करने की बात की जा रही है। देखना तो यह कि नया कानून कब और केसे लागू किया जाएगा। यहाँ यह बात याद रखना अनिवार्य है कि जब तक सम्पूर्ण भारत में भूमि-वितरण न्याय संगत ढंग से नहीं होगा, तब तक किसान बदहाल रहेगा। याद कीजिए कि बिहार में भूमि-हीनों को कितनी बार भूस्वामियों की सेना ने मौत के घाट उतारा है। समाज में समानता का प्रसार करने के लिए सम्पत्तिपर नियंत्रण परम अनिवार्य है।

                वर्तमान पूँजीवाद का विरोध उस अमरीका में भी हो रहा है, जो सम्पूर्ण विश्व को एक ध्रुवीयबनाना चाहता है। वहाँ के लोग भी अब बेहतर व्यवस्था की कामना करने लगे हैं। मंदी के दौर ने वहाँ हजारों लोगों को बेरोजगार कर दिया। और अब तो अमरीका और बड़े संकट से गुज़र रहा है।

विजेन्द्र शोषित जनों से खिन्न होकर पूछते हैं-

‘‘क्यों, क्यों, क्यों
नहीं बोल पाते खरी भाषा
अमरीका की जनता प्रदर्शन करती है वालस्ट्रीट पर
क्यों डरते हो सत्य बोलने से, बोलो
पथरीला सन्नाटा टूटता है
बोलने से।’’

                कौन नहीं जानता है कि विश्व में शान्ति और सौहार्द परम अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं है तो प्रत्येक वर्ष अक्टूबर महीने में शान्तिके लिए नोवोल पुरस्कार की घोषणा क्यों की जाती है। शान्तिको खतरा है परमाणु युद्धसे। ऐसा युद्ध सम्पूर्ण विश्व विनष्ट कर देगा। कौन है वह जो युद्धके लिए पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। उत्तर है आयुध-व्यापारी साम्राज्यवादी राष्ट्र, जिनमें अमरीका अग्रगण्य है। अपार धनराशि विनाशक अस्त्रों के निर्माण पर व्यय की जाती है। यदि एशियासंगठित हो जाए तो आयुध-व्यापार पर अंकुश लगा सकता है। विश्व मानवता की सुरक्षा के लिए यह सामूहिक प्रयास अनिवार्य है। कवि विजेन्द्र कविता के माध्यम से यही संदेश देना चाहते हैं-

‘‘विश्वविनाशक आयुधों का व्यापारी
थोपना चाहता है युद्ध
शान्तिप्रिय देशों पर
पहचानो एशिया की शक्ति का तुमुल घोष
पहचानो साम्राज्य के ऋण में छिपी
संज्ञामारक कूटनीति
 $ $ $ बढ़ते जाते हैं अमरीकी सामरिक अड्डे हर जगह।’’ (पृ0 99, 100)

                इतिहास साक्षी है कि भारत में जन्मे महात्मा बुद्ध के शिष्यों ने दक्षिण एशिया में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। चीन और जापान बौद्ध धर्म के प्रमुख अनुयायी हैं। भारत ने ही शान्ति-सन्देश विश्व के कोने-कोने तक फैलाया है। मानवता का यह उज्ज्वल इतिहास पुनः दुहराया जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि आदिमानव ने जांगलिकता से मांगलिकता की ओर प्रयाण किया है। आर्थिक विषमता शक्तिशाली राष्ट्र को प्रेरित करती है कि वह अपने स्वार्थों के लिए दुर्बल राष्ट्रों को गुलाम बनाए अथवा अपना उपनिवेश। इसी भाव-भूमि से सम्बन्धित एक कविता गिरिजाकुमार माथुर ने भी लिखी है- एशिया का जागण24 मई, 1946 को रची गई इस लम्बी कविता में माथुर जी ने अपना आक्रोश इस प्रकार अभिव्यक्त किया है-

‘‘मेरी छाती पर रखा हुआ
साम्राज्यवाद का रक्त कलश
मेरी छाती पर फैला है
मन्वन्तर बनकर मृत्यु दिवस।’’

                उस समय ब्रिटिश साम्राज्य का वर्चस्व छाया हुआ था। कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। लेकिन काल-चक्र ने उसका सूर्यास्त कर दिया। अतः माथुर जी ने कविता के अन्त में कहा है-

‘‘मुड़ गए समय के चपल चरण
आया कृतान्त बन मुक्ति काल
मिट्टी का हर कन सुलग उठा
जल उठी एशिया की मशाल।’’
(मुझे और अभी कहना है, पृ0 78)

जागरूक कवि विजेन्द्र आज के सम्पूर्ण विश्व का परिदृश्य देखकर श्रमजीवियों को उद्बोधित करते हैं-

‘‘अनुप्राणित हैं अरब देश
देख कर
मिस्र और ट्यूनिशिया के जनविद्रोह
जागो कोलम्बिया, जागो
लैटिन अमरीका का नया सूर्योंदय देखो।’’ (पृ0 101)

                इस उद्धरण से स्पष्ट है कि विजेन्द्र की कविता राजनीति-सापेक्ष है। हिन्दी के अन्य कवियों के समान राजनीति-निरपेक्ष नहीं है। वह तटस्थ कवि नहीं हैं। हिन्दी के तथाकथित बड़े कवियों के समान। वह विदेशों के जन-विद्रोहों का स्वागत करते हैं। और अपने जनपदीय श्रमजीवियों को, जो पत्थर तोड़ा करते हैं, निकट से देखकर उनके जीवन की व्यथा-कथा अंकित करते हैं-

‘‘अतीत का पका खनिज
मेरी रिक्त निर्जनता कभरता रहा है
मैंने देखे बंधबरौठा की
लाल पत्थर खानों के खाली पेट
बुझी आँखें
इन्होंने पी ली हैं श्रमियों की सृजन शक्ति
ये हर रोज़ माँगती हैं नया खून
नया पसीना।’’ (पृ0 101, 102)

                विजेन्द्र उस पस्तहिम्मत कविको समझाते हैं कि वह साम्राज्यवादियों के कुचक्र और षडयंत्र समझे। वह अपनी कविता में श्रम-सौन्दर्य की सृष्टि करे। इतिहास हमें यही सिखाता है कि श्रम-बल से सभ्यता और संस्कृति का क्रमशः विकास हुआ है। मानव ने सामूहिक रूप से सतत संघर्ष किया है। वस्तुतः इतिहास वर्ग-संघर्ष की उज्ज्वल गाथा है, जो आज भी गूँज रही है।

                सभ्यता संस्कृति के विकास-क्रम में मानवीय श्रम की भूमिका अविस्मरणीय है। श्रम से ही भाषा का विकास हुआ है। यदि भाषा का प्रकाश नहीं होता तो मनुष्यता अँधेरे में भटक रही होती। दक्षिण हस्त से काम करते-करते मानव दक्ष हुआ है। उसने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नाना प्रकार के उपकरणों-औजारों का आविष्कार किया है। और वह आज भी कर रहा है। श्रम को सर्वोपरि मानने वाले विजेन्द्र ठीक कहते हैं-

‘‘करोड़ों धड़कनों से निर्मित हुए हैं शब्द
खनकती क्रियाओं के रजत सिक्के हैं।’’ (पृ0 104)

दूसरी पंक्ति में प्रशंसनीय ध्वनि बिम्ब हैं, जो खनकतीक्रियापद से कर्णगोचर होता है।

                यह महिमा है मानव के हाथों की, जो मस्तिष्क से प्रेरित होकर और उसे प्रेरित करके नाना प्रकार के आविष्कार करते रहे हैं। धरती पर गंगा की धारा उतार लाए हैं। खेत लहलहाएँ हैं। वनों को उपवन बनाया है तो हाथों ने। कलाओं का सम्पूर्ण सोन्दर्य निपुण हाथों का ही तो कमाल है। मुझे कैफ़ी आज़मी की कविता याद आ रही है, जिसमें हाथों की महिमा समझाई गई है-
‘‘मूरख, इनमें हैं भगवान मुझ पर, तुझ पर, सब ही पर, इन दोनों हाथों का एहसान।’’

                लेकिन सबसे अधिक दुखद सत्य यही है कि क्रूर व्यवस्था ने हाथोंका महत्त्व इतना घटा दिया है कि उन्हें अपना पूरा पारिश्रमिक मिल ही नहीं पाता है। ऐसे हाथरात-दिन पसीना बहा कर भी अपने परिवार का पेट मुश्किल से भर पाते हैं। इसके विपरीत प्रभु लोकधन-बल से सब कुछ अनायास प्राप्त कर लेता है। यह व्यवहार सामाजिक सुषमाका हनन करता है। इसीलिए वर्गों का द्वन्द्वात्मक संघर्ष इतिहास का परम सत्य है।

                विजेन्द्र ने अपने काव्य में इसी वर्ग-संघर्ष का रूपायन कर के उसे परिवर्तन के अनिवार्य बताया है। दूसरी ओर बुद्धि-विरोधी तथाकथित कवि-लेखक और इतिहासकार इतिहास के अन्त की घोषणा कर चुके हैं। यह सब मिथ्या प्रचार है। काल का प्रवाह कभी रुकता है ? वह अपने साथ सारा कचरा बहा कर ले जाता है। भविष्य के लिए नई उर्वरता अपने पीछे छोड़ जाता है।

                इस लम्बी कविता में विजेन्द्र काल-प्रवाह को इसी रूप में देखते हैं। अतः वह वर्तमान से अतीत की ओर यात्रा करते हुए श्रम-सौन्दर्य के प्रति आज के मानव की आस्था जगाते हैं। एशिया को महाशक्तिके रूप में देखने के लिए वह कहते हैं-

‘‘जागते देश की उभरती जनशक्ति को
देखता रहा हूँ
$ $ $ यहाँ से वहाँ तक फैली हैं
भावों की आकाश गंगाएँ
एशिया महाद्वीप का उदित होता
नव जागरण का नया क्षितिज
खोजता हूँ उन शिल्पियों को
जिन्होंने बनाये पहली बार कुल्हाड़े
हथौड़े, निहाई, बसूले
बनाया कड़ा नाथने को
काल का अनड्वान
कहाँ गए वे सब
दुखी हैं उनके अनुज।’’ (पृ0 104)

                विजेन्द्र का कथन सत्य है। आज भारतीय समाज का कड़वा यथार्थ है कि अधिसंख्य श्रमजीवी रात-दिन भूख की ज्वाला में जल रहे हैं। तुलसी ने ठीक लिखा है कि पेट की अग्नि बड़वाग्नि से अधिक प्रबल होती है। भारत में आज तक यह आग शान्त नहीं की गई है। अब भोजन की गारंटी के लिए सरकार द्वारा अधिकार प्रदान किया गया हे। भविष्य बताएगा कि यह अधिकार जनता को सस्ता अनाज कैसे पहुँचाएगा। करोड़ों निरन्न जनों तक।

विजेन्द्र श्रमजीवी जनों के कल्याण के बारे में पूछते हैं-

‘‘उजले-धुले गवाक्ष
स्वर्ण जड़ित द्वार
इस्पात ढाल कर
जो रचते हैं समय का स्थापत्य
सुन्दर भविष्य के कँगूरे
उनसे पूछता हूँ कैसे बनता जा रहा सुरक्षा परिषद् संत्रास-घर
उनके अग्रज कहाँ है
जिनकी हड्डियों से चुने गये
भव्य भवन।’’ (पृ0 105)

                ऐसे श्रमजीवियों में अपार जिजीविषा होती है। वे जीवन भर श्रम ही करते हैं। श्रम ही उनके जीवन का आधार होता है। ऐसे श्रम-निर्भर श्रमजीवियों के प्रति विजेन्द्र की आस्था अडिग है। अपनी पूर्ववर्ती लम्बी कवितआों- जन-शक्तिऔर कठफूला बाँसमें भी ऐसी ही आस्था व्यक्त हुई है। हाँ, यह दूसरी खेदजनक बात यह है कि हिन्दी के मूर्धन्य नामवर आलोचकों ने इन लम्बी कविताओं की उपेक्षा अधिक की है। डा0 जीवन सिंह के अलावा डा0 कमला प्रसाद, डा0 रेवती रमण एवं युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने जन-शक्तिकी सार्थकता बताने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। लेकिन कठफूला बाँसआलोचकों की आँखों से ओझल रही है।

ओ एशियाकविता में भी विजेन्द्र ने श्रम-शक्ति की अदम्य जिजीविषा का उल्लेख किया है-

‘‘ओह! वे समर से थक कर भी थके नहीं
उनकी जिजीविषा- लपटें शान्त नहीं
यहाँ आया उनके बीच
सुनने उनकी कराहटें बे-आवाज़
जानने लकड़ी और धातु के द्वन्द्वमय अन्तर को
देखो इतिहास का फूटता नया
लाल अंकुर
विजय नहीं
अपराजेयता का शिरोभूषण ही सच है
जो पहने खड़े हैं वे आज तक
रचकर श्रम से सौन्दर्य।’’ (पृ0 105)

                सौन्दर्यक्या है? कैसा है? उसकी रचना कैसे होती है? अनेक प्रश्न हैं। उनके उत्तर भी अनेक हैं। प्रकृति स्वयं सौन्दर्य रूपा है। प्रत्येक पौधे अथवा पेड़ में अपना निजी संतुलन होता है। उसी में सौन्दर्य निहित रहता है। हरे-भरे खेत दूर से कितने आकर्षक लगते हैं। लगभग एक बराबर लम्बाई की बालियाँ अपने सौन्दर्य से किसका मन मुग्ध नहीं करती हैं। पतझर के बाद प्रकृति पुनः नवयौवना हो जाती है। मानव भी सौन्दर्य की सृष्टि करता है। कलाओं के रूप में। प्रत्येक कला में संतुलन अनिवार्य है। सोचिए विश्वविख्यात इमारत ताजमहलके चारो कोनों पर चार मीनारें नहीं बनाई जातीं, तो वह दर्शकों के लिए आश्चर्यजनक कला का स्मारक महसूस होता ? शायद नहीं। उत्कृष्ट कविता का सौन्दर्य उसमें विन्यस्त क्रियाशील बिम्बों में निहित होता है।

लोकधर्मी सौन्दर्यशास्त्र के मर्मज्ञ विजेन्द्र श्रम से सौन्दर्य का अटूट सम्बन्ध जोड़कर कहते हैं-

‘‘मुझे देखने दो
पहले-पहल कुम्हार को
पकाते कच्चे बर्तन अवाँ में
कितनी सुन्दर है कलाकृति
रची गई सधे हाथों से
ओ कवि, यह भी जानो
पहले मिट्टी भीगकर गारा बनी
अब पानी सेंतने को चित्रोपम घड़ा
खून चूसने वालों को
सुन्दर कृति दिखाई देती है।
उसमें रचा गया श्रम नहीं
कैसे किया है काबू में
मिट्टी और आँच को
यह नहीं है कोई जादू टोना
मैंने ही दी हैं नई-नई शक्लें श्रम से
हर बार मिट्टी को
लोहे को
मिश्र धातुओं को
जाने कितनी बार झुलसा है हाथ
भभकती आँच में
किसी ने जाना नहीं
भीगा है अंग-अंग पानी में
तिरछी मेह बौछारों में।’’ (पृ0 108)

                यह अंश पढ़ कर आभास होता है कि विजेन्द्र के कवि ने स्वयं को श्रमीजनों से एकात्म कर लिया है। उनका मैं’ ‘हममें बदलता रहता है। निराला के समान। वह भी निराला के समान देखनाक्रिया का प्रचुर प्रयोग करते हैं। इससे उनके सजग इन्द्रिय-बोध का प्रमाण मिलता है। निरीक्षण-परीक्षण के उपरान्त अनुभव की राशि समृद्ध होती है। बाहर की दुनिया का सम्बन्ध कवि के मानस से जुड़ता है। और मानसकी सीपों में अनुभव काव्य-मोतियों के रूप में परिवर्तित होते हैं। सम्पूर्ण जगत् कवि के मानव-जगत् में विचरण करता है।

                पहले संकेत किया जा चुका है कि इस कविता में मानवीय सभ्यता और संस्कृति की प्रदीर्घ-कथा लयात्मक रूप में वर्णित की गई है। इस कथा का प्रमुख नायक श्रमशील जन है, जिसने अपने सामूहिक प्रयास से विश्व को अभिराम कृति का रूप प्रदान किया है। उसी ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अग्निदेवका आविर्भाव किया, जिन्होंने दुनिया का रूप ही बदल दिया। उनके ताप से कच्चा माल पक कर ठोस रूप में सामने आया। मानव ने उसका सदुपयोग किया। और यह भी सत्य है कि मानव-इतिहास वर्ग-संघर्ष की गौरव गाथा है। इतिहास का पहिया हमेशा आगे की ओर बढ़ा हे। बढ़ता रहेगा। अपने इस इतिहास-बोध को कविता की प्रभावपूर्ण भाषा में अभिव्यक्त किया है-

‘‘पहली बार अवतरित हुआ
शब्द कागज़ पर
यही था मेरी यात्रा का पुनर्जागरण महाकाल
स्पात को गला देख
हुई है रीढ़ मजबूत
रसायन चख इन्द्रियाँ सजग
हाँ, वही पहला कुम्हार है
जो बना था साक्षी
अग्नि देव का।’’

और

‘‘अब चकमक की कुदाल कहाँ
इस्पात की तेज धार देख
अन्न पीसने की हथचक्की छोड़
बिजली से घूमते बड़े-बड़े पाट देख
ओह, कहाँ से कहाँ आ गया।’’

लेकिन

‘‘देखता हूँ आज भी
मछुवारे जागते हैं रात-रात भर
समुद्री मणिधर लहरों पर
आज भी वे पीसती हैं चक्कियाँ गाँव में
लापता होते हैं मछुवारे अंधड़ तूफान में
आदिवासियों के वनों में आखेटक।’’ (पृ0 112)

                मानव-इतिहास साक्षी है कि आदि मानव निरन्तर विकास करते हुए आज की आश्चर्यजनक दुनिया तक पहुँचा है। अब जल-थल-नभ और अन्तरिक्ष में मानव का विजय-केतु लहरा रहा है। लेकिन वैश्विक समाज में सुषमा नहीं हे। समानता नहीं है। आज भी श्रमी जन अभावग्रस्त जीवन बिता रहे हैं। भाग्य और भगवान के सहारे। लेकिन भगवान न तो देख रहा है और न ही सुन रहा है। धरती पर विनाश का ताण्डव हो रहा है। कौन करेगा रक्षा। कोई दैवी शक्ति। नहीं। केवल जनशक्ति मानव को संकट-मुक्त कर सकती है। यही सोचकर विजेन्द्र का श्रम का गुण-गान करते हुए लिखते हैं-

‘‘हाथ मेरी आँख भी है
आँखें हाथ हैं
ओ अन्न देवता
अब मैं प्रार्थना कर
तुझे धरती में दफनाता नहीं
ट्रैक्टर की ली से
बोता हूँ कूँड में
तू किसी परलोक का देवता नहीं है
मेहनत से कमाया श्रीफल है
भारतीय किसान का लाड़ना शिशु
एशिया का महाबली हाथ
पकती फसल का सिरमौर
असंख्य कर्मठ भुजाओं का
जन-शक्ति ही लोक की आत्मा है।’’ (पृ0 112, 113)

                हमारे मनीषियों ने अन्न को ब्रह्म माना है। उसी से मानव का पोषण होता है। अन्न उत्पादक किसान यदि अभावों से ग्रस्त रहे तो क्या देश को खुशहाल कहा जाएगा।

                उपर्युक्त प्रश्नों का एक उत्तर है समतामूलक समाज का गठन, जिसमें प्रत्येक श्रम का समुचित पारिश्रमिक प्राप्त हो और जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति सम्भव हो सके। पूँजीवादी व्यवस्था में न तो सभी को रोजगार प्राप्त हो सकता है। न महँगाई कम हो सकती है। न भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकता है। सभी को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध नहीं हो सकती हैं। और न ही विद्युत का प्रकाश। अतः सुखद व्यवस्था के लिए वर्तमान व्यवस्था का समापन अनिवार्य है। सम्पूर्ण सम्पत्ति का राष्ट्रीकरण परम अनिवार्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति जन-शक्ति ही कर सकती है।

                इस कविता के अन्तिम अंश में विजेन्द्र ने सौन्दर्य से श्रम का रागात्मक सम्बन्ध कलात्मक ढंग से रूपायित किया है-

‘‘बनाये हैं मैंने अपने घर में
सूर्योन्मुख नये द्वार
नई खिड़कियाँ, गवाक्ष
नये मेहराब, नये गुम्बद
इसी तरह खड़ा हुआ है
नये स्थापत्य का ढाँचा
वास्तुशिल्प संरचना में
दमकता है उँगलियों का सौन्दर्य।’’

और

‘‘नयापन, मुक्तिसंग्राम लड़ने का
नये मनुष्य के मान का।’’ (पृ0 114)

                उपर्युक्त काव्यांश पढ़ कर राजस्थानी स्थापत्य कला के रूप प्रत्यक्ष होने लगते हैं। और मुक्ति-संग्राम हेतु प्रक्रियाएँ भी।

                विजेन्द्र ने पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कारों के लिए जोड़-तोड़ छोड़ कर काव्य-सर्जना को साधा है। बड़े प्रयत्न से। बड़े सरोकारों की अभिव्यक्ति के लिए। उनकी कविता वैयक्तिक भी है और निर्वैयक्तिक भी। दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।यह उक्ति विजेन्द्र के कवि रूप का वैशिष्ट्य है। कविता रच कर व बड़े-से-बड़ा और गहरे-से-गहरा दर्द भुलाया करते हैं। इसीलिए वह कहते हैं-

‘‘अग्नि-परीक्षा है हर क्षण कवि की
हर साँस आहुति है जीवन-यज्ञ में
ओ हठी समय
तू भी हो ले क्रूर चाहे जितना
नहीं छोडूँगा उम्मीद फिर भी
अच्छे भविष्य की
एशिया में उगते नये सूर्य की।’’

और

‘‘कहूँगा नहीं जीवन भार है
इसी गाढ़े अँधेरे में
ओ मेरे दर्द!
सुनने दे अतल से उठी मर्माहत आहटें।’’ (पृ0 115)

                अब समय आ गया है कि विगत वर्षों में और वर्तमान काल में अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्था-विरोधी जन आन्दोलन हुए हैं और हो रहे हैं, उन पर गम्भीरता से सोच-विचार किया जाए। वैश्विक शान्ति और सद्भाव के लिए एशिया महाद्वीप सभी राष्ट्र आपस में संवाद करें। स्वयं को एकजुट करें। अपने ही संसाधनों का ही प्रयोग करके लोक-कल्याण के लिए विकास-कार्य विवेक से करें। पर्यावरण की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए। यह सुनिश्चित है कि अब लोकतांत्रिक व्यवस्था ही रहेगी। लेकिन उसका रूप अवश्य बदलेगा। लोकतंत्र को धनतंत्रबनने से रोकना होगा। दबंग और बाहुबलियों का सामाजिक बहिष्कार कराना ही पड़ेगा। सवाल खड़ा होता है कि ये नियंत्रण कौर लगाएगा। जवाब है जनशक्ति। जनशक्ति को संगठित और जागरूक कैसे किया जाएगा। किस भाषा में किया जाएगा। उत्तर है कि श्रमजीवी वर्गों के नेता अपने सार्थक बल पर नेतृत्व करें और ढुलमुल चरित्र वाले मध्यम वर्ग के बुद्धिवादियों को अपने नेतृत्व से जोड़ें। गाँधी जी के समान जन-गण-मन को जन-भाषा में संबोधित करें। अँग्रेजी के प्रति अंध अनुराग को त्यागना होगा। भारत की वामपंथी पार्टियों की अपनी भाषा-नीति पर पुनः विचार करना होगा।
                हिन्दी भाषा और कविता के लिए समर्पित कवि विजेन्द्र भी यही सोचते हैं। रंग-भेद के विरोधी नेल्सन मंडेला अपने नेतृत्व से अश्वेतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे। और विजेता भी हुए; गाँधी के समान महात्मा भी। विश्व-विख्यात नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। एशिया के नेता भी ऐसा कर सकते हैं। जन-गण को अपने पक्ष में कर सकते हैं। आतंकवाद पर अंकुश लगा सकते हैं। अल्पसंख्यकों के अधिकारों, महिलाओं के संरक्षण, दलित-शोषित जनों का जीवन-स्तर ऊँचा उठा सकते हैं। यही सब सोचकर विजेन्द्र श्रमशील लोक से एकात्म होकर कहते हैं-

‘‘जाना होगा मुझे
कोत गलियों गलियारों में
वहीं मिलेगी मुझे नये पथ की
नव आँख, नव जल, नव पाँख
नया लोक, नई आँच।’’

अपनी बेचैनी भी व्यक्त करते हैं-

‘‘ओ प्रजापति
मेरे काव्य-मन
मुझे बता कैसे सिरज पाऊँगा
मनुष्य का अजेय संघर्ष
अदम्य इच्छाएँ नये मानव की।’’ (पृ0 116, 117)

                मुझे कृपया समझाइए कि आजकल के हिन्दी कवियों में ऐसे और कवि कितने हैं जो मनुष्य का अजेय संघर्षका अपना प्रयोजन बना रहे हैं।

                प्रसाद जी ने कामायनीमें लिखा है कि विजयिनी मानवता हो जाए। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ऐसे लोक की कल्पना की थी कि जहाँ एक भी व्यक्ति भय से संत्रस्त न हो। मस्तिष्क भय रहित हो। विभेद तिरोहित रहें। विजेन्द्र भी ऐसा ही सोचते हैं लेकिन वह यथार्थ और इतिहास-बोध से प्रेरित होकर यह भी कहते हैं-

‘‘रोटी और समर का रिश्ता अटूट है
वही रहेगा कविता के केन्द्र में।’’

अपने ढलने जीवन की सूर्य-आभा निरख कर भी वह अपनी अदम्य सिसृक्षा के प्रति भी आस्थावान् हैं।’’ (पृ0 118)

                ओ एशियाकी काव्य-भाषा कथ्य के अनुरूप है। लोक-जीवन के निकट है। अर्न्तवस्तु के अनुरूप रूपतामक और इन्द्रिय-बोध से संवलित नाना प्रकार के बिम्बों से युक्त। तुलसी की भाषा के समान रूपकात्मक। सम्पूर्ण कविता निश्छंद में है। लेकिन वाक्य-रचना में आन्तरिक लय आदि से अन्त है। मंथर गति से पाठ करते समय लय का आभास होने लगता है। कथ्य के अनुरूप भाषा में उद्बोधन और सम्बोधन अनायास आए हैं। ओज से संयुक्त हो कर। ओ एशियाका स्थापत्य कठफूला बाँससे बेहतर है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि यह लम्बी कविता विजेन्द्र की प्रारम्भिक कृति है। कोई भी कृति निर्दोष नहीं होती है। वस्तुतः विजेन्द्र की कविता तुलसी का अनुसरण करती है। अपने युग-बोध के अनुरूप। भनिति भदेस वस्तु भल बरनीविजेन्द्र का काव्यादर्श है। लोक-मंगल उनकी काव्य-सृष्टि का प्रमुख प्रयोजन है।

                एक और वैशिष्ट्य भी उल्लेखनीय है। कविता में जनपदीयता की प्रमुखता रचने वाले विजेन्द्र ने ओ एशिया का प्रारम्भ इस प्रकार किया है-

‘‘ओ एशिया महाद्वीप महान
तुझे अपने जनपद की धरती से देखता हूँ
देखता हूँ हर साँस
सुनता हूँ धड़कने
हर रोयाँ, जल की दमकती बूँद दूर्वा की नोक पै
आकाश का टुकड़ा एक
ओ हिन्द महासागर में होता सूर्यास्त
सूर्योदय देखूँगा नया तेरी धरती से।’’ (पृ0 91)

                यह काव्यांश विजेन्द्र के प्रकृति-अनुराग का द्योतक है। वैदिक वाङ्मय में प्रार्थना की गई है कि हम सौ शरदों तक जीवित रहें। सविता देव का तेज धारण करें। वह हमारे लिए वरेण्य है। उक्त अंश का अन्तिम वाक्य विजेन्द्र के अभीष्ट भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। प्रतिदिन सूर्योदय नया संदेश और नई प्रेरणा लेकर आता है। विजेन्द्र को भी अपने अभिनव सूर्य-सन्देश की आशा और विश्वास दोनो है।

                इस कविता के मध्य भाग में वर्तमान काल की सामाजिक गतिकी के निरूपण के साथ-साथ मानव के श्रम-सौन्दर्य का विकास कलात्मक ढंग से वर्णित किया गया है। इतिहास-सम्मत दृष्टि से। सम्पूर्ण कविता में बाहरी जगत् के साथ-साथ निजी संघर्ष एवं संकल्प की भी अभिव्यक्ति की गई है। और कविता का समापन अपनी सतत काव्य-साधना, सिसृक्षा और अदम्य जिजीविषा के आत्मीय निरूपण से सम्पन्न हुआ है-

‘‘वे मनुष्य मेरी लड़ती हुई जनता
यदि खोऊ भरोसा उसमें
सबसे बड़ी पराजय है कवि की
क्या करूँगा उनके साथ का
जो हैं निरे जड़-हीन
रीढ़ हीन
जो सह नहीं पाते बलाघात जीवन के
ओ ढले सूर्य की
पंख छितराई साँझ
अभी रूक
टहनियों के अमलतास के छोरों पर
रूक ठहर
जिजीविषा का शतदल
मुरझाने में अभी देर है।’’ (पृ0 118)

                उद्धत अंश की रेखांकित पंक्तियों में उकेरे गए चाक्षुष बिम्ब विजेन्द्र के चित्रकार कवि व्यक्तित्व को उजागर कर रहे हैं। साथ-ही-साथ उनकी आश्वस्त सर्जना को भी। उद्धृत अंश पढ़ कर निराला याद आ रहे हैं-

‘‘मैं अकेला
देखता हूँ
आ रही मेरे दिवस की सांध्य वेला।’’

ध्यान देने की जरूरत है कि निराला के गीत में नैराश्य की अधिकता है, लेकिन विजेन्द्र के यहाँ इसका अभाव है। यह विजेन्द्र की निजता है।

                संक्षेप में बेहिचक घोषित किया जा सकता है कि लोकधर्मी वरिष्ठ कवि विजेन्द्र यह कविता अद्वितीय कृति, जिसमें स्थानीय वैशिष्ट्य के साथ-साथ वर्तमान काल की स्वदेशी-विदेशी प्रतिरोधमूलक घटनाओं के अनेक प्रसंग विकासशील इतिहास-दृष्टि से वर्णित किए गए हैं। मांगलिक भविष्णु विकल्प की प्रस्तुति सहित। ओ एशियाविजेन्द्र की सर्जना का ऐसा शतदल कमल है, जो श्रम-सुगन्ध से सुवासित है। यह ऐसी कृति है जो सहृदय पाठक को राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय सरोकारों से अनायास जोड़ती है। यह इस कृति की बहुत बड़ी उपलब्धि है।

                यह कविता पढ़ते हुए एक कविता बार-बार याद आती रही है। अम्न का राग। कवि शमशेर की श्रेष्ठ कृति। छह पृष्ठों वाली महान कृति में शमशेर ने अपनी व्यापक जीवन-दृष्टि से सम्पूर्ण विश्व में अम्न का राग प्रतिध्वनित कर दिया है। अपनी जादुई कल्पना से एशिया, यूरोप, अमरीका को महान् कवियों और कलाकारों के सांस्कृतिक सम्बन्धों से विश्व को एकता के सूत्र में बाँध दिया है। वैश्विक शान्ति की सुरक्षा के लिए मैं शमशेर की इस कृति को उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानता हूँ, जिसमें कोई उलझाव नहीं है। कवि ने अपनी उदात्त और अभिनव भाषिक संरचना से गद्यात्मकता को उच्च काव्य के स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया है। लेकिन इस कविता की सबसे बड़ी सीमा यह है कि इसमें साम्राज्यवादी विरोधी सुर कहीं भी मुखरित नहीं हुआ है। साम्राज्यवादी वर्चस्व के मध्य विश्व-शान्ति कैसे सम्भव हो सकती है। इस कमी को विजेन्द्र ने ओ एशियामें पूरा किया है। अमरीकी साम्राज्यवाद की आलोचना करके। संघर्षशील जनों के प्रतिरोध का उल्लेख करके। सन् 1945 में रचित अम्न का रागकी विश्वव्यापी अनुगूँज ओ एशिया’ (2012) के तुमुल घोष से मिलकर अधिक प्रभावपूर्ण प्रतीत होती है।

ओ एशियाऐसी कृति भी है, जो अम्न का रागसे चार कदम आगे है।
सम्पर्क –
चूना मण्डी, बदायूँ
मो0नं0 8533968269
                               

अच्युतानन्द मिश्र के कविता संग्रह ‘आँख में तिनका’ की समीक्षा

अच्युतानन्द मिश्र हिन्दी के उन महत्वपूर्ण युवा कवियों में से एक हैं जिनका पहला कविता संग्रह ‘आँख में तिनका’ चर्चित रहा है। यह संग्रह हमें काफी-कुछ आश्वस्त करता है।  इस संग्रह की समीक्षा लिखी है वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य ने। तो आईये पढ़ते हैं यह समीक्षा। 

प्रतिबद्ध कवि का मनोरम रचना – संसार
अमीर चन्द वैश्य
आज आँख में तिनकामेरे सामने है। सन् 2013 में प्रकाशित कविता संकलन। कवि हैं श्री अच्युतानन्द मिश्र। नई पीढ़ी के युवा कवि। सन् 1981 में जनमे। जन्म – भूमि बोकारो है। स्कूली शिक्षा के बाद और शिक्षा दिल्ली में अर्जित की हैं। कविताओं की रचना के साथ-साथ मिश्र जी आलोचनात्मक गद्य भी लिखते हैं। आलोचना की एक पुस्तिका नक्सलबाड़ी आन्दोलन और हिन्दी कविताप्रकाश में आ चुकी है। मिश्र जी अनुवादक भी हैं। उन्होंने प्रसिद्ध उपन्यासकार चिनुआ अचेवे के उपन्यास Arrow Of God का अनुवाद देवता का बाणशीर्षक से किया है।
संकलन का आवरण पृष्ठ आकर्षक है। कारण? यह है कि प्रकाशक ने वरिष्ठ कवि और चित्रकार विजेन्द्र की एक कलात्मक चित्र कृति प्रकाशित की है। कविता में इन्द्रिय-बोध्, भाव-बोध्, विचार-बोध्, कल्पना-बोध्, काल-बोध और भावी समाज के लिए सुखद स्वप्नों के द्वारा विजेन्द्र अपने चित्रों में आकृतियों के साथ-साथ कुछ अमूर्तन भी पसंद करते हैं।
अच्युतानन्द मिश्र विजेन्द्र जी के निकट हैं। उनके काव्य के अध्येता भी हैं। विजेन्द्र की लम्बी कविता जनशक्तिपर मिश्र जी ने आलोचनात्मक आलेख लिखा है। वह प्रसंगपत्रिका के अंक 17-18 मई 2013 में छपा है। विजेन्द्र जी से अच्युतानन्द के आत्मीय सम्बन्ध से यह बात स्पष्ट हो रही है कि दोनों अपनी-अपनी काव्य-सर्जना को लोकनिष्ठ वर्गीयदृष्टि से रचते हैं।
अच्युतानन्द मात्र मनोरंजन के लिए कवि-कर्म से नहीं जुड़े हैं। अन्य जागरूक कवियों के समान वह भी यह सोचते हैं कि काव्य-सर्जना का प्रयोजन क्या है। समीक्ष्य संकलन की पहली कविता का शीर्षक है मैं इसलिए लिख रहा हूँ। यह प्रारम्भिक साभिप्राय है। काव्य-प्रयोजन की दृष्टि से। भारतीय काव्यशास्त्री आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाशमें प्रयोजनों की चर्चा करते हुए शिवतेरक्षतयेको सर्वोच्च प्रयोजन माना है। आशय यह है कि वर्तमान समय समाज और सम्पूर्ण विश्व में जो भी अमंगलकारी दानवी शक्तियाँ हैं, उनके विनाश के लिए काव्य-सृष्टि की जाए। समाज में समरसता नहीं है। सुषमा नहीं है। अपितु घनघोर विषमता है। एक ओर तो निरन्न,निरीह निर्वस्त्र लोकहै, जो रात-दिन पसीना बहाकर मुश्किल से अपने परिवार की पेटाग्नि शान्त करता है। और दूसरी ओर मुट्ठी भर पूँजीपतियों -नेताओं- उनके चाटुकारों -बड़े व्यापारियों -बड़े विद्वानों –माफियाओं आदि का दुष्ट तन्त्रहै, जो उन्हें तो प्रतिपल मालामाल कर रहा है। परन्तु असंगठित लोकअभावों को पीड़ित होकर रात-दिन मलाल कर रहा है। अथवा अपनी किस्मत को कोस रहा है। दर-दर की ठोकरें खा रहा है। धोखे खा रहा है। क्रूर व्यवस्था अथवा तन्त्राद्वारा ठगा जा रहा है। उसे जातियों, उपजातियों, अगड़ों-पिछड़ों, सम्प्रदायों, अस्मिताओं, विमर्शों आदि में बाँट दिया गया है। परिणाम सामने है। न मजदूर संगठित हैं और न ही किसान। सामाजिक परिवर्तन के लिए इन उत्पादक वर्गों की एकता उतनी ही अनिवार्य है, जितनी जीवन के लिए प्राण-वायु। तन्त्राइन वर्गों की खंडित एकता से परम मुदित रहता है। वह साम्राज्यवादी शक्ति या शक्तियों से साँठ-गाँठ करके शोषण का ऐसा सघन जाल बुनती रहती है कि सारे-के-सारे कबूतर दानों के लालच में पफँस कर रह जाते हैं। पराधी  हो जाते हैं। यही परिप्रेक्ष्य सामने रखकर अच्युतानन्द ने ठीक लिखा है-
‘‘मैं इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कविता
कि मेरे हाथ काट दिए जाएँ
मैं इसलिए लिख रहा हूँ
कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथों से जुड़ कर
उन हाथों को रोकें
जो उन्हें काटना चाहते हैं।’’  (आँख में तिनका, पृ. 9)
कवि का आशय स्पष्ट है कि यदि मेरे हाथऔर तुम्हारे हाथएक साथ मिल जाएँ, संगठित हो जाएँ, तो एकता हममें बदल जाएगी। हमको इसीलिए उत्तम पुरुषकहा जाता है कि वह सबको साथ लेकर आगे बढ़ता है। भविष्य के मांगलिक पथ पर। कहा भी गया है कि चल पड़े जिधर दो डग मग में / चल पड़े कोटि पग उसी ओर। कहा जाता है कि ताजमहलके निर्माताओं के हाथ कटवा दिए गए थे। बादशाह शाहजहाँ द्वारा, जिससे वे निपुण निर्माता वैसा कोई दूसरा स्मारक न बना सके। इतिहास यही सिखाता है कि अब एक और नवजागरण की अनिवार्यता उपस्थित हो गई है, जो सन् सत्तावनी क्रान्तिकी अधूरी प्रक्रिया को आगे बढ़ा सके। अत एव कवि क्रूर व्यवस्था के मारक हाथों की प्रखर आलोचना करता है।
आज-कल भूमंडलीकरण-उदारीकरण-निजीकरण का ऐसा घातक गठबंध्न बनाया है कि आज का रावण अथवा कंस जन-नायक बन गया है। विदेशी पूँजी और देशी निजीकरण ने ऐसी लूट मचाई है कि करोड़ों लोगों का जीवन भार बन गया है। विशेष रूप से दिहाड़ी मजदूरों और छोटे किसानों का। कवि और पत्रकार नित्यानन्द गायेन अपने आलेख सरकारी योजनाएँ और चुनावी राजनीतिमें भारतीय किसानों की दुर्दशा के बारे में आँकड़े प्रस्तुत करते हुए लिखा है – ‘‘आज लगभग 40 प्रतिशत भारतीय किसान किसानी छोड़ना चाहते हैं। इसके लिए केवल और केवल सरकारी नीतियाँ और सरकार ही जिम्मेदार है। आज जब भारतीय किसान सबसे (अधिक) दयनीय हालत में जीने को मजबूर है, केन्द्र सरकार आगामी चुनाव को ध्यान में रख कर खाद्य सुरक्षा बिल लाने की ढोल पीटने में लगी हुई है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि देश में लाखों टन अनाज खुले में सड़ कर बर्बाद हो रहा है, या चूहे खा रहे हैं और भारत सहित विश्व में कुपोषण से मरने वाले बच्चों की एक बड़ी तादाद है।’’ (सर्वनाम, अंक 109, पृ. 51)
प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि खाद्य सुरक्षा की गारंटी का अधिनियम अमल में आ चुका है। भविष्य बताएगा कि इस अधिनियमसे कितनी जनता को सस्ता अनाज प्राप्त होगा। कितना भ्रष्टाचार बढ़ेगा। उपर्युक्त सन्दर्भ में हमें कवि की किसानकविता अवधनपूर्वक पढ़नी-समझनी चाहिए। कवि किसान की व्यथा-कथा संक्षेप में सादगी से कहता है-
‘‘उसके हाथ में अब कुदाल नहीं रही
उसके बीज सड़ चुके हैं
खेत उसके पिता ने बेच डाली (डाला) थी (था)
उसके माथे पर पगड़ी भी नहीं रही
हाँ, कुछ दिन पहले तक
उसके घर में हल का फाल और मूठ
हुआ करता था।
उसके घर में जो / नमक की आखरी डली बची है / वह
इसी हल की बदौलत है।’’ (वही, पृ. 105)
कवि को यह आशंका है कि अब किसान का बेटा
दरकती हुई जमीन के
सूखे पपड़ों के भीतर से अन्न
के दाने निकालनेका हुनर नहीं सीख पाएगा।
साम्राज्यवादी देश एक ओर तो पृथ्वी का अंध दोहन कर रहे हैं और दूसरी ओर पृथ्वी दिवसमना रहे हैं। बढ़ते प्रदूषण से पृथ्वी की रक्षा सम्भव हो पाएगी?  इस प्रश्न का उत्तर कैसे प्राप्त होगा। यदि पृथ्वी-पुत्रों के प्रति ऐसा ही क्रूर व्यवहार चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं है कि किसानों की प्रजाति डायनासोर की तरहधीरे-धीरे नष्ट हो जाएगी। और जब कई सदी बाद खुदाई होगी तब
‘‘धरती के भीतर से
निकलेगा एक माथा
बताया जाएगा
देखो यह किसान का माथा है
सूँघो इसे
इसमें अब तक बची है
फसल की गंध्
यह मिट्टी के
भीतर से खींच लेता था जीवन रस।’’ (वही, पृ. 106)
यह जीवन रससम्पूर्ण जीवन के लिए अनिवार्य है। अतः यह भी जरुरी है कि किसानों को शोषण से मुक्त करवाया जाए। खेत जोतने वाले के पास भूमि के स्वामित्व का अधिकार होना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब भूमिहीनों को, कानून बना कर, भूमि का स्वामी बनाया जाय। और यह भी कानून बनाया जाए कि एक पृथक् परिवार को कितनी भूमि की आवश्यकता है। अथवा भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जाए। सामूहिक उत्पादन के बाद समान वितरण-व्यवस्था लागू की जाए। लेकिन भारत की पूँजीवादी व्यवस्था पिफलहाल ऐसा नहीं कर सकती है। इसलिए व्यवस्था परिवर्तन अनिवार्य है। कवि का अभीष्ट मन्तव्य यही है।

आज का भारत दो बड़े-छोटे देशों में बदल गया है। एक ओर है भारतीय भाषाएँ बोलने वाला विपन्न हिन्दुस्तान, जो रात-दिन मेहनत करके रोजी-रोटी कमाता है। दूसरी ओर है अमरीका-भक्त इंडियाजो अब अमरीकी अंग्रेजी सीखने-बोलने के ललक रहा है और अमरीकी अपसंस्कृति की गिरफ्त में है।
अजीब दौर है आज का। गरीब हिन्दुस्तान के युवा जब अमरीकापरस्त इंडियामें पहुँचते हैं, तब उनका कायाकल्प हो जाता है। वे अपनी जड़ों से कटकर निर्जीव हो जाते हैं। कवि के अनुसार सैंडी याने संदीप रामहो जाते हैं। आधे अधूरे लँगड़े व्यक्तित्व। स्वयं से शरमाते रहते हैं। उनकी वास्तविकता का उद्घाटन करते हुए ठीक लिखा गया है-
‘‘वे अपने गाँव से आए हुए लोग थे
गाँव में उनके घर थे
घरों में दीवारें थीं
जिनमें कैद थे माँ-बाप
भाई-बहन
एक चूल्हा था जिसकी आग
महज खाना नहीं पकाती थी
पूरी की पूरी आत्मा को सुखा देती थी
×             ×             ×             ×             ×
वे हिन्दी की शर्म में डूबे अंग्रेजीदा बच्चे थे
वे अपने पिताओं की भी शर्म ढो रहे थे
जो उनसे कभी हिन्दी में तो कभी
मगही, मैथिली और भोजपुरी में बात करते
वे घंटों अंग्रेजी में हँसने का अभ्यास करते
और असफल होने पर
कॉल सेंटर के नवें माले से छलाँग लगा देते
लेकिन ऐसे युवक इंटरनेटपर अपने देश के किसानों की दुर्दशा देखकर-पढ़ कर सिहर उठते थे। वे यह भी जान जाते कि गाँव में पिज्जाहट खुलने को है। उनकी उदासी बढ़ जाती। और ऐसी ही परिस्थितियों में हताश संदीप राम उपर्फ सैंडी आत्म हत्या कर लेता है – यू नो सैंडी जम्प्ड फ्रॉम  नाइन्थ फ्लोर। यह है अपसंस्कृति का दुष्परिणाम, जिसे अच्युतानन्द ने सहज ढंग से व्यक्त किया है। पूरी कविता पढ़कर पाठक का मानस अवसाद और विषाद से भर जाता है।
अक्सर कहा जाता था कि विश्वविख्यात पिफल्म-निर्माता सत्यजित राय अपनी फिल्मों में भारत की गरीबी का प्रदर्शन अध्कि करते हैं। यह अच्छी प्रवृत्ति नहीं है। राजकपूर श्री चार सौ बीसजैसी फिल्म के कारण रुस में लोकप्रिय हुए थे। इसका नायक भी गरीब है। उनकी अन्य श्वेत-श्याम फिल्मों में गरीबी का प्रदर्शन कलात्मक ढंग से किया गया है। आजादी के बाद आने वाली गरीबी सुरसाके समान विराटमुखी हो गई है। अच्युतानन्द ऐसी त्रासद गरीबी से आँखें चार करते हैं। यह गरीबी बेरोजगारी के दिनकी याद दिलाती है –
फकत धुल फाँकते
दिनों में
सस्ती चायों का सहारा है
इस ऊँघते मौसम में
पेड़ों का हिलना
एक दोस्त की मुस्कराहट की तरह है।

लेकिन

चलते हुए पाँव की थकान
चप्पल से उठते हुए
पैरों की माँस-पेशियों से गुजरते
पेट की अतड़ियों में फैलने लगेगी
थकान हर बार क्यों इन दिनों
भूख की शक्ल अख्तियार कर लेती है?/
……… आँसुओं को इंतजार है
बत्ती के बुझने का
एक पूरी रात पड़ी है खाली।’’ (वही, पृ. 94)
यह कविता पढ़कर मन अवसाद से भर जाता है। यह अवसाद कविता में वर्णित व्यक्ति विशेष और उसके परिवार पर छाया हुआ है। यह कविता पढ़ कर तुलसी याद आते हैं, जो कहते थे कि पेटाग्नि बड़वाग्निसे भी बड़ी होती है।
आजादी के बाद से आज तक हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था गरीबी और भुखमरी का अन्त नहीं कर सकी है और भविष्य में भी नहीं कर पाएगी। लेकिन प्रत्येक चुनाव से पहले राजनैतिक दल लोक-लुभावन वादे करते हैं। इन्दिरा गाँधी ने भी अपने शासन-काल में नारा लगाया था – गरीबी हटाओगरीबीतो नहीं हट सकी, लेकिन गरीब जरुर हट गए। उन्हें विस्थापित कर दिया। अच्युतानन्द ने भारतीय राजनीति की दुष्टता गम्भीरता से समझी है। इस चुनाव के बाद कविता में कवि ने सहज ढंग से व्यंग्य की भाषा में ठीक लिखा है – 
इस चुनाव के बाद
आसमान में छेद होगा
बूँद – बूँद बरसेगा सूरज
धूं –धूं कर जल जाएँगे दुख
सुख की इच्छाएँ होंगी
अनन्त तक फैली
इस चुनाव के बाद
आकाश के पार
आकाशगंगाओं तक फैली
सुबह होगी
बच्चे कुनमुना रहे हैं मतदाताओं का लिबास पहनने से पहले
तुम्हारे जर्जर घर पर
होगी अन्न की वर्षा
बज चुका है चुनाव का विगुल
इस बार भी तुम नहीं डाल पाओगे
अपना वोट।(पृ. 91-92)
हमारे लोकतंत्र की प्रशंसा खूब की जाती है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। जातिवाद और सम्प्रदायवाद के नाम पर मतदान किया जाता है। बाहुबली नेता बलपूर्वक वोट डलवाते हैं अपने पक्ष में। अथवा निर्बलों के वोट स्वयं अपने गुंडों से डलवाया करते हैं। अथवा धन-बल से वोट खरीद लिए जाते हैं। इस प्रकार प्रत्येक चुनाव के बाद कोई भी ईमानदार प्रत्याशी न तो विधायक बन पाता है। और न ही सांसद। चुनाव के बाद सत्ता तो बदल जाती है, लेकिन व्यवस्था जस की तस रहती है। राजनीति का ऐसा अपराधीकरण हुआ है कि देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओं में अपराधियों का वर्चस्व है। ऐसे लोकतंत्र में चुनाव के बाद कोई भी बुनियादी परिवर्तन नहीं होता है। परिणामतः जन-गण-मन निराशा से भरा रहता है।

यदि कोई बुनियादी बदलाव होता तो बिहार में मुसहरजाति नहीं होती। मरे हुए चूहे खाने वाली जाति लोकतंत्र के लिए कलंक नहीं है? अतएव कवि की मान्यता ठीक है कि

‘‘कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं(पृ. 102)
यह दुःखहै घनघोर गरीबी और लाचारी।
हमारे लोकतंत्र में एक ऐसी दुनिया बनाई जा रही हैजिसमें
आदमी जा रहा है चाँद पर
इधर उधर लड़ रहे हैं भूखे शेर
और झपट्टा मारकर नोच लेते हैं चिड़ियों को(पृ. 86)
सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है। और इसका जबाव यह है कि व्यवस्था ऐसी निर्मम और क्रूर है कि वह स्वार्थ के लिए निरीह जनों का त्रासद शोषण करती रहती है। अतः हमारे लोकतंत्र की असलियत बताते हुए कवि ने ठीक लिखा है –
एक जम्हाई लेता हुआ आदमी
खा लेना चाहता है पूरे देश को
एक देश का आकार
आदमी के मुँह जितना है
सोचते हैं चूहे
और घुस जाते हैं पृथ्वी के पेट में(पृ. 86)
आशय यह है कि देश है गौण, प्रधान है सबल-समर्थ विशेष व्यक्ति। स्वार्थी तंत्रके चालाक चूहे अर्थात् सरकारी कर्मचारी पृथ्वी-लोकको खोखला करते रहते हैं।
उपर्युक्त कवितांश में कवि ने अन्तःविरोध द्वारा सामाजिक-राजनैतिक विंसगति की ओर संकेत किया है। तंत्रसे सम्बद्ध अधिकारी अथवा नेता का चरित्र इतना गिर गया है कि वह अपना घर भरने के लिए सम्पूर्ण देश को खा जाना चाहता है। प्रमाण हैं अनेक भ्रष्टाचार प्रकरण जो आजादी के बाद से आज तक निरन्तर घटित होते रहे हैं। और दूसरी ओर सम्पूर्ण विपन्न देश के रहवासी हैं, जिनके मुँह आदमी के मुख के समान छोटे आकार के हैं। वे अधिक खा ही नहीं सकते हैं। यहाँ मुक्तिबोध याद आ रहे हैं। उन्होंने आजादी के बाद पनपे नव धनाढ्य वर्ग की तीखी आलोचना की है। भारत के मध्यम वर्ग और साथ-ही-साथ उच्च वर्ग ने भारत को खाने का खूब सपफल प्रयास किया है। मुक्तिबोध ने ठीक लिखा है कि —-
‘‘अब तक क्या किया / जीवन क्या जिया,
मर गया देश, अरे! जीवित रह गए तुम’’ (अँधेरे में, चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृ. 261)
अच्युतानन्द ने स्वार्थी मध्यम वर्ग की आलोचना कुछ भिन्न  ढंग से की है –
वे चूहों से उधार लेते हैं
रात भर के लिए बिल
और टाँगें सिकोड़ कर सो जाते हैं
वे देखते हैं सपना
एक पहाड़ के पीछे उगता है सूरज
चमकता है नदी में जल
नदी के किनारे
खुले हैं उनके घर
दूर तक जाती एक पगडंडी
जाती है चाँद तक’’।। (वही, पृ. 87)
यह है महत्त्वाकांक्षी मध्यम वर्ग का मनोरम सपना। इस वर्ग का मूल मंत्रा है – भाड़ में जाए दुनिया / हम बजाएँ हरमुनिया
ऐसी त्रासद दुरवस्था में भी लोग सचेत नहीं होते हैं। वे अपने-अपने स्वार्थ के लिए अभीष्ट नेता का दामन पकड़ लेते हैं। लेकिन श्रमशील जनों से उनका कोई भी आत्मीय सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता है। इसी वास्तविकता की ओर कवि ने इशारा किया है कि
एक अजीब सा संयम है
हवाओं में यहाँ
पत्ते कायदे से टूट कर गिर रहे हैं
चेहरे पर कोई उफ्फ नहीं
नदियाँ बह रही हैं
शोर और संगीत के बीच की लय से
और

ऐसी ही एक सुबह
इसी संयम भरी हवा के बीच
एक नागरिक के जाने का शोक
और एक भावी नागरिक के पैदा होने की खुशी
वातावरण में फ़ैल जाती है।’’
लेकिन बिल्ली के समान चालाक लोग आहिस्ता-आहिस्ता सारा दूध पी जाते हैं। लेकिन कहीं कोई आहट नहीं होतीहै। इस प्रकार विषमताग्रस्त समाज में अन्याय-अत्याचार-शोषण-उत्पीड़न का क्रम चलता रहता है। चतुर-चालाक मस्त रहते हैं। लेकिन श्रमीजन त्रस्त और लाचार बने रहते हैं।
लेकिन सदृश्य और प्रतिबद्ध कवि अच्युतानन्द तटस्थ नहीं रह पाते हैं। समाज में घनघोर विषमता देखकर उन्हें फर्क पड़ता है। उनका मानस-चिन्ताओं से भर जाता है। इसी कारण वे अपने पाठक से कहते हैं –
‘‘रात रात भर कविता के शब्द
रेंगते हैं मस्तिष्क में
नींद और स्वप्न की धुंधली दुनिया में
फँसा मैं
रच नहीं पाता कविता
पक्षियों की कतारें
आसमान की ऊँचाईयों को
छूती गुजरती जाती है
चाँद यूँ ही ताकता रहता है धरती को
और दोस्त लिखते रहते हैं कविता
नीली और गुलाबी काँपियाँ
भरती जाती हैं
भरती जाती है एक रात
टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से’’ (पृ. 81)
इस कवितांश में परस्पर विरोधी मनोदशाएँ हैं। एक मनोदशा प्रतिबद्ध कवि की है, जो अपने जमाने के दुःख से दुःखी है। वह कबीर के समान रात भर जागता है और रोता है। और दूसरी ओर खाए-अघाए कलावादी कवि हैं, जिन्हें जगत् की गति व्यापती ही नहीं है। अतः वे सुख-सुविधाएँ भोगते हुए देहऔर गेहकी कविताओं से नीलीऔर गुलाबीकाँपियाँ भरते रहते हैं। लेकिन समाज में यथास्थिति टूटती है और
चीखते पक्षी तब्दील होने लगते हैं
इंसानों में
सूरज का रक्तिम लाल रंग
फैल जाता है आसमान में
कलियाँ गुस्से में बन्द फूलों में तब्दील नहीं होतीं’’ (पृ. 83)
यह कवितांश पढ़कर दुष्यंत कुमार अनायास याद आ रहे हैं-
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।।
अच्युतानन्द ने कविता के अन्तिम अंश में सक्रिय प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से यथास्थिति भंग करने का संकेत किया है। इसी भाव-भूमि पर कवि ने सुबह के इंतजार मेंकविता की रचना की है। कविता का प्रारम्भ रात से होता है –

‘‘रात के हारमोनियम पर
बजता है एक क्षीण स्वर
सीटी बजाती हुई रेलगाड़ी
दूर जाकर रुक गई है
बेचैन आत्माओं को नींद कहाँ आती है
…… भीषण रात ये
सीने पर वज्रपात ये
कटेगी मगर रात जरुर
……. मगर अभी – अभी खुलते देखा
कुछ कोंपलों को
बढ़ रहे हैं ये
लेकर खाद-पानी मिट्टी से
हम भी तो टिके हैं
खुदे न सही जुड़े तो हैं
कुछ बढ़ेंगे
हम जरुर
दुःख अभी आध ही है
पकड़े हुए है मिट्टी
आधा दुःख
यह आधी रात
सुबह के इन्तजार में’’ (पृ. 61)
प्रत्येक नई सुबह ताजगी और उत्साह का संदेश लेकर आती है। कवि को पूरा विश्वास है कि वर्तमान क्रूर यथास्थिति एक दिन अवश्य भंग होगी, क्योंकि समय प्रतिपल बदलता रहता है और दुनिया रोज नई बनती है।

हमारे देश में एक विभाग ऐसा है कि वह तब सक्रिय होता है, जब कोई दैवी या प्राकृतिक आपदा अचानक विनाश ताण्डव करने लगती है। आपदा प्रबन्धन विभागभी सक्रिय हो जाता है। मालूम नहीं कि किस विद्वान् ने यह परिभाषिक पदावली गढ़ी है। आपदा से रक्षा या सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। अतः विभाग का नाम अपेक्षित है – आपदा रक्षा प्रबन्धन विभाग

समीक्ष्य संकलन में बाढ़ के पाँच दृश्य हैं। लेकिन किसी भी कविता में उपर्युक्त विभाग की सक्रियता का उल्लेख नहीं किया गया है। कवि ने आत्मीयता से बाढ़ के दृश्य प्रत्यक्ष करके लोगों की मनोदशा का सटीक वर्णन किया है। व्यवस्था ओर जन-संचार माध्यमों को निर्मम आलोचना भी की है। एक दृश्य देखिए-
डूबता हुआ गाँव एक खबर है
डूबता हुआ बच्चा एक खबर है
खबर के बाहर का गाँव
कब का डूब चुका है
बच्चे की लाश फूल चुकी है
फूली हुई लाश एक खबर है। (वही, बाढ़-2, पृ. 64)
आशय यह है कि टी. वी. पत्रकारिता के बाढ़ के दृश्य मात्र खबरहै। उसे मानवीय संवेदना से कुछ भी लेना-देना नहीं है। बाढ़-3’ में सब कुछ डूब जाता है। जनप्रतिनिधि ‘चेहरे पर अफसोसदरसाते हुए खड़ा रहता है। बाढ़-5’ में सब कुछ डूबने वाला है, लेकिन फिर भी
उसका मस्तिष्क अभी निष्क्रिय नहीं हुआ है
वह सोच रहा है लगातार
बचने की उम्मीद बाकी है अब भी(वही, पृ. 67)
कवि ने मानव जिजीविषा के प्रति अपनी पूरी आस्था व्यक्त की है।
अच्युतानन्द ने अपनी वर्गीय दृष्टि से समाज के उन बाल श्रमिकों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की है, जो मेहनत मजदूरी करते-करते युवक हो जाते हैं। लड़के जवान हो गएकविता का कथ्य यही है। और कथन-भंगिमा सादगी से भरपूर। ऐसे लड़कों को गरीबी ने शिक्षा से हमेशा दूर ही रखा। लेकिन वे अपना-अपना दैनिक काम निपुणता से करते हुए धीरे-धीरे एक दिन जवान हो गए। इस कविता का अंश पढ़िए और जीवन की वास्तविकता समझिए –
‘‘एकदम अचूक निशाना उनका
वे बिना किसी गलती के
चौथी मंजिल की बालकनी में अखबार डालते
पैदा होते ही सीख लिया जीना
सावधानी से
हर वक्त रहे एकदम चौकन्ने
कि कोई मौका छूट न जाए
कि टूट न जाए
काँच का खिलौना बेचते हुए
और गँवानी पड़े दिहाड़ी
वे लड़के जवान हो गए(वही, पृ. 69)
लेकिन ऐसे लड़के एक दिन पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए, क्योंकि
नकली जुलूस के लिए
शोर लगाते लड़के
जब सचमुच (का) भूख भूख चिल्लाने लगे
तो पुलिस ने दनादन बरसाई गोलियाँ
और जवान हो रहे लड़के
पुलिस की गोलियों का शिकार हुए
पुलिस ने कहा कि वे खूँखार थे
नक्सली थे तस्कर थे
अपराधी थे पॉकेटमार थे
स्मैकिए थे नशेड़ी थे(वही, पृ. 69, 70)
परन्तु वे लड़के ऐसे नहीं थे। वे अपने माँ-बाप की आँखें और उनके हाथ थे। कविता का अन्तिम वाक्य तीर के सामने चुभने वाला है –
बूढ़े हो रहे देश में
इस तरह मारे गए जवान लड़के(वही, पृ. 70)
वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ स्वतः ध्वनित हो रहा है कि आजादी के छियासठ साल बीत जाने के बाद भी हमारा पूँजीवादी लोकतंत्रा न तो सभी को शिक्षित कर सका और नहीं लोक के प्रति न्याय का व्यवहार कर सका। विरोध में उठे हाथों को उकसाना हमारे लोकतंत्रा का तानाशाही चरित्र है, जिसे कवि ने गम्भीरता से समझा है।
इसी भाव-भूमि से जुड़ी एक और श्रेष्ठ कविता है ढेपा। यह मैथिली का शब्द है। अर्थ है मिट्टी का कुछ बड़ सा ढेला। आमतौर से ढेला का आकार छोटा होता है। ढेपाको आकार में बड़ा समझिए, जो सूख जाने पर अपनी सख्ती से पाँव को घायल भी कर सकता है। इस कविता का नायक है छोटुआ’, जो कम उम्र का है। लेकिन पेट भरने के लिए उसे पसीना बहाना पड़ता है। घर से बेघर भी होना पड़ता है। कवि ने उसकी सक्रियता का वर्णन इतनी आत्मीयता से किया है कि उससे प्रायः पूछा जाता है –
क्या तुम बीमार नहीं पड़ते
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम एक बैल की तरह क्यों होते जा रहे हो(वही, पृ. 76)
इस कविता की यह विशेषता है कि कवि अपने नायक का वैशिष्ट्य बताते हुए प्रतिरोध व्यक्त करना नहीं भूलता है। कविता का अन्तिम अंश पढ़िए –
पहाड़ से लुढकता पत्थर नहीं है छोटुआ
बरसात के बाद
मिट्टी के ढेर से बना ढेपा है
छोटुआ धीरे-धीरे सख्त हो रहा है
बरसात के बाद जैसे मिट्टी के ढेपे
सख्त होते जाते हैं
और कभी तो इतने सख्त कि
पैर में लग जाए जो
खून निकाल ही दे(वही, पृ. 77)
इस प्रकार कविता का श्रमशील नायक छोटुआ ढेपामें रूपान्तरित होकर व्यवस्था प्रतिरोध का प्रतीक बन जाता है। इस कविता का शीर्षक कवि को अपने मैथिल जनपदीय परिवेश से जोड़ता है। यह भी सम्भावना व्यक्त हो रही है कि छोटुआनामक पात्र परिचित जनपद से ग्रहण किया गया है। चरित्र प्रधान कविताओं में वर्णनात्मकता के साथ-साथ नाटकीय संवाद भी अनिवार्य है। संवादों के माध्यम से पात्रा स्वयं बोलता है। शोषण से पीड़ित ऐसे पात्रों में स्वतः अग्रगामी सोच विकसित होती है। अच्युतानन्द की ऐसी कविताओं में इस वैशिष्ट्य का सभाव लक्षित होता है
इस संकलन में एक और चरित्र प्रधान कविता है निहाल सिंह। यह सम्बोधनात्मक कविता है। निहाल सिंह को सम्बोधित इस कविता में उसकी आन्तरिक व्यथा का वर्णन किया गया है, क्योंकि
बहुत उतरा हुआ चेहरा है
निहाल सिंह का
उसकी छुट्टी की
दरखास्त नामंजूर हो गई
लगता है कि निहाल सिंह फौज में सेवारत है। इसीलिए, घर से दूर रहने के कारण, उसे अपना बचपन याद आता है –

निहाल सिंह का बचपन
अब तक टँगा है
गाँव के बूढ़े पीपल के पेड़ पर
और गाँव की हरियाली
हरी दूब की तरह
मन की मिट्टी को
पकड़े हुए है(वही, पृ. 15)
देश-प्रेम की शुरुआत अपनी जन्म-भूमि के आत्मीय परिचय और प्रीति से होती है। उसके मन की मिट्टी दूब की तरह गाँव की हरियाली से सम्बन्ध जोड़े हुए है। कवि ने इस कविता में भी अपने चरित्र निहाल सिंह को बोलने का अवसर प्रदान नहीं किया है। लेकिन अवांछित और विनाशक युग के खिलाफ उसकी भावना अवश्य व्यक्त होती है –
सच कहते हो कि निहाल सिंह
वो सपनों के खिलापफ ही तो
खड़ी करते हैं फौजें
कैसा अच्छा सपना है
निहाल सिंह
एक दिन उनके खिलाफ
खड़ी होंगी फौजें(पृ. 16)
सवाल यह है कि वोकौन है और उनके खिलाफफौजें क्यों खड़ी होंगी। जबाव है कि साम्राज्यवादी वैश्विक ताकतें दुर्बल राष्ट्रों को अपना उपनिवेशबनाने के लिए फौजी अड्डे स्थापित किया करती है। पहले ब्रिटेन साम्राज्यवादी शक्ति था, जिसके साम्राज्य का सूर्यास्त कभी नहीं होता था। लेकिन इतिहास-चक्र ने धीरे-धीरे उसकी शक्ति का ह्रास कर दिया। अब अमरीका एक ध्रुवीय महाशक्ति बन गया है। इतिहास का चक्र उसके पर भी कतरेगा। उपर्युक्त कविता का यही संदेश है, जो प्रतिरोध का सौन्दर्य प्रत्यक्ष कर रहा है।

अच्युतानन्द मिश्र अपनी विश्वव्यापी वर्गीय दृष्टि से देश और विदेश दोनों की परिघटनाओं को देखते-परखते हैं। आलोचना करते हैं। यथास्थिति का भंजन करने के लिए विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं। रागात्मक स्मृतियों के बल से दीन-हीन लोक के श्रम की कथा से साक्षात्कार करवाते हैं। देश की आधी आबादी स्त्रियों की है। उनके प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं। इन विशेषताओं की साक्षी हैं उनकी कई महत्त्वपूर्ण कविताएँ। यथा – इस बेहद सँकरे समय में, म्याँमार की सड़कों पर खून नहीं था, देश के बारे में, लेखक का कमरा, आँख में तिनका, दुनिया का नक्शा, मेरे शहर के लोग, देश, बच्चा और मैं, सबसे उदास औरत, शहर में एक बस्ती थी, स्त्रिायाँ, धूल कण, ठीक उसी समय, नदी गाथा, मंदी के दौर में घर, एकालाप आदि।
कुछ स्मृतियाँ व्यक्ति-मानस में इतनी गहराई में पैठ जाती है कि प्रसंग उपस्थित होने पर वे अचानक प्रत्यक्ष हो जाती है। संवेदनशील कवि उन्हें कविता में इस प्रकार रच देता है कि वे अमृत हो जाती हैं। कवि की नदी गाथाऐसी ही स्मरणीय कविता है। कवि को अचानक महसूस होता है कि 
‘‘रात के इस श्मशानी सन्नाटे में
क्यों याद आती है नदी
पर मैं नदी को याद भी तो नहीं पा रहा हूँ
किस चेहरे से याद करुँ / नदी को
उस घाट से
जहाँ रग्घू धोबी और उसका परिवार
धोता था कपड़े
या उस सिरे से जहाँ
ठकवा चाचा मारते थे मछली
या उस छोर से
जो मेरी नन्हीं आँखों से
बरबस बहती हुई छली जाती थी(वही, पृ. 71)
यह कविता भी कवि के देश-प्रेम का सबूत प्रस्तुत करती है। सभ्यता का विकास नदियों के आस-पास ही हुआ है। इसीलिए वे जीवन-रेखा कहलाती है। उनके अभाव में जीवन भी जीवन-रहित हो जाता है। एक युग था कि भारत के भू-भाग पर सरस्वतीका प्रखर प्रवाह घनघोर शोर से दिगन्त परिव्याप्त कर देता था। लेकिन आज वह वाणीकी देवी के रूप में वीणा-वादिनी सरस्वती देवी के रूप में बदल गई है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज प्रत्येक नदी या तो मौन या चीख रही है। क्रूर पूँजीके प्रबल लाभ-लोभ ने उसे इतना अधिक बाँधा है कि उसकी धारा आगे चलकर या तो सूख गई है या छिछली हो गई है या अब वह गंदा नाला बन गई है। सारांश यह है कि प्रत्यके शहर की जीवन-रेखा गंगा-यमुना के समान रोग पैदा करने वाली नदियाँ बन गई हैं। इसी व्यथा की अभिव्यक्ति कवि ने अधोलिखित पंक्तियों में की है-
‘‘पर नदी हमेशा
खामोश ही नहीं रही
नदी का
चीखना भी सुना है मैंने
और देखा है लोगों की आँखों में
नदी का खौफ भी
नदी की चीख ने
बहुत खामोश कर दिया
था हमें
हम सब के चेहरों पर
मिट्टी के घरों का टूटना
साफ नजर आता (है) (वही, पृ. 73,74)
इस कविता का तात्पर्य वही समझ सकता है, जो प्रत्येक वर्ष वर्षा-काल खण्ड प्रलय का दृश्य देखता है। पिछले दिनों उत्तराखण्ड के जल-प्रलय-ताण्डव ने लोगों को सावधन कर दिया है कि जब नदी व्यथा से चीखती है, तब किसी की भी परवाह नहीं करती है। वह बदला लेकर रहती है। उसके मार्ग में जो भी सामने आता है, बहाकर ले जाती है। यहाँ तक कि गंगाधर जयशंकर को भी।
प्राकृतिक संसाधनों के अंध विदोहन को समाजवादी व्यवस्था में ही रोका जा सकता है। इसी आस्था से प्रेरित होकर अच्युतानन्द ने ठीक लिखा है –
उठता नहीं है मेरा भरोसा
दुनिया के सबसे
मेहनतकश हाथ से
कि एक दिन
चाहे सदियों बाद सही
बनेगा दुनिया का एक ऐसा नक्शा
जहाँ हर उठे हुए हाथ में फावड़ा
और हर झुके हुए हाथ में रोटी होगी(वही, पृ. 27)
बिम्बधर्मी भाषा में रचित कवि का उपर्युक्त आत्मविश्वास उसे प्रतिबद्ध कवि घोषित कर रहा है। अन्य लोकधर्मी कवियों निराला-केदारनाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन-मुक्तिबोध्- शील एवं वरिष्ठ कवि विजेन्द्र के समान।
कहते हैं आँख में तिनकापड़ने से आँख से पानी अथवा आँसू बहने लगते हैं। लेकिन इस कविता में कवि ने देहाती और शहराती परिवेश का समावेश कर मिस जोजोके जीवन मर्मस्पर्शी व्यथा-कथा वर्णित की है। इस कविता का सामाजिक यथार्थ यह है कि स्वेच्छाचारी पुरुष अपने आमोद-प्रमोद के लिए किसी भी युवती / महिला के प्रति प्रेम-निवदेन करके उसे अपनाने के बजाए छोड़ भी सकता है। इस कविता में वर्णित मिस जोजोके दुःखद जीवन की व्यथा वर्णित की गई है। आँख में पड़े छोटे से तिनके की उपेक्षा करके मिस जोजो मनिया से स्वयं कहती है-
‘‘आज सुबह से ही मिस जोजो की आँख से
झर-झर गिर रहे हैं आँसू
मनिया कहती है
आँख में कोई तिनका आ गया होगा
मिस जोजो कहती है
धत पगली।
तिनका आँख में आ जाए
तो इतने आँसू नहीं बहते
वे तो तब बहते हैं
जब टूटता है कोई सपना
मनिया हैरान है
सोचती है
माई की आँख में तो तिनका ………….।। (वही, पृ. 23-24)
उद्धृत कवितांश में अन्तिम वाक्य अधूरा छोड़ा गया है। साभिप्राय। क्रियापद का अभाव और उसके कारण अधूरा वाक्य पाठक का आभास गम्भीर वेदना से आन्दोलित कर देता है। सम्पूर्ण कविता का आशय है कि सपना चाहे प्रेम का हो अथवा समाजिक परिवर्तन, उसके टूटने पर मन अवसन्न  हो जाता है। सोवियत संघ के विघटन से करोड़ों विपन्न जनों को ऐसा ही अनुभव हुआ था। लेकिन अब समय फिर बदल रहा है। काल-चक्र तेजी से घूम रहा है कि वह एक ध्रुवीय दुनिया का विनाश करके शक्ति-संतुलन पुनः स्थापित कर सके।
अच्युतानन्द मिश्र का संकलन आँख में तिनकापढ़ कर पाठक आँसू तो नहीं बहाता है, लेकिन सोचता जरुर है कि मौजूदा क्रूर व्यवस्था का समापन किए बिना शोषित-दलित दमित जन-गण सच्चे सुख और सच्ची आजादी का अनुभव नहीं कर सकते हैं। उनके लिए अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति भी असम्भव रहेगी। भाग्य और भगवान पर भरोसा करने से उन्हें कुछ भी उपलब्ध् नहीं होगा। जो प्रलय कण्ठ से अपनी रक्षा नहीं कर सके, वे संकटग्रस्त लोगों को कैसे मुक्त कर पाएँगे। वास्तविकता यह है कि धरती पर आए संकटों का कारण साम्राज्यवादियों का लाभ-लोभ है। अब तो जनशक्तिही पीड़ित मानवता को मुक्ति प्रदान कर सकती है।
भाषिक संरचना की दृष्टि से इस संकलन लगभग सभी कविताएँ हैं तो निश्छन्द में, लेकिन लयात्मक अनिवार्य रूप से हैं। कवि के पास जो संवेदनात्मक ज्ञान है, उससे प्रेरित होकर उसने मंथर लय में इन्द्रिय-बोध्, भाव-बोध्, विचार-बोध् को सहज कल्पना से संश्लिष्ट किया है।
अच्युतानन्द के इस संकलन में स्थानीयता की झलक तो है, लेकिन सम्पूर्ण परिदृश्य रूपायित नहीं है। वाक्य-रचना लगभग निर्दोष है। सहज बोधगम्य है। लेकिन प्रूपफ की कुछ भूलें अर्थ-बोध् में बाधक सिद्ध होती है। यथा – छोटुआ आकाशमें कुछ टूँगता भी नहीं। यहाँ आकाश पद के स्थान पर अवकाशअनिवार्य है। कहीं-कहीं मानक वर्तनी की कमी खटकती है। यथा – नदी के अंधेरे तल में / काँपती है पानी की छाया(पृ. 71)। मानक वर्तनी है – अँधेरे। मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता के नाम में यही पद विराजमान है – अँधेरे में
आँख में तिनकाकविता-अनुरागियों को आश्वस्त करता है कि कवि अच्युतानन्द मिश्र भविष्य में लोक के और निकट पहुँचेंगे। अपने जनपद को उसके परिवेश के साथ और अध्कि रूपायित करेंगे। चरित्र-प्रधान कविताओं में पात्रों को बोलने का अवसर प्रदान कर उनके परम्परागत चरित्र को बदलने का सर्जनात्मक प्रयास करेंगे।
संपर्क
मोबाईल- 09897482597
(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।) 
 (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)

कठफूला बाँस: करुणा और प्रतिरोध का सौन्दर्य

विजेन्द्र जी की लम्बी एक कविता है ‘कठफूला बाँस।’ यह कविता श्रीराम तिवारी की पत्रिका ‘पक्ष’ में १९७७ ई में छपी थी। अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण इस कविता की तरफ आलोचकों का लम्बे अरसे तक ध्यान नहीं गया। तिवारी जी ने अपनी सम्पादकीय टिप्पणी में लिखा था – ‘इस कविता से एक मुकम्मिल रचनात्मक स्थिति सामने आती है, जिसकी रचना सामग्री में खेतिहर जीवन, वस्तु संवेदना, चेतना, पदार्थ, लय, इतिहास, घटना, दृश्य, स्थिति, भाषा, विचारधारा के विकास की संगति कवि के निजी शिल्प में हमें ऐतिहासिक मोड़ के बिन्दुओं की पहचान कराती है। इन विन्दुओं में दो हैं : “संगठन और रचनात्मकता।” अपनी  मिट्टी से इतना सहज लगाव दूसरे कवियों में कम है। हमें दुःख है कि विजेन्द्र की इस कविता का प्रकाशन पक्ष के लिए १९७४ के साल से ही रुका रहा। फिर भी पानी बहा नहीं है। हम इस कविता से आज की स्थिति में वस्तुगत यथार्थ का साक्षात्कार कर  सकते हैं।’ इस लम्बी कविता की एक महत्वपूर्ण आलोचना की है हमारे समय के वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य ने, जो पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।         

अमीर चन्द वैश्य

    मेरे सामने ‘कठफूला बाँस’ है। समालोचना के लिए। चार लम्बी कविताओं का संकलन है। कठफूला बाँस (1977), संवाद: स्वयं से (2011) ओ एशिया (2012) और कौतूहल (2012)। सर्जक का नाम जाना-पहचाना है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र। मूल रूप से बदायूँ जनपद के निवासी हैं। यह संकलन उनका बीसवाँ संग्रह है। लम्बी कविताओं का तीसरा। प्रकाशन वर्ष है सन् 2013.

    आधुनिक हिन्दी कविता में अनेक काव्य-रूप सामने आए हैं। लेकिन यह तथ्य स्मरणीय है कि ‘महाकाव्य’ का स्थान अब लम्बी कविता के रूप ने ग्रहण कर लिया है। ‘कामायनी’ जैसे महान काव्य ने महाकाव्य के परम्परागत प्रतिमान और उसके साँचे दोनों खंडित कर दिए हैं।

    यहाँ यह भी याद रखना चाहिए कि छायावादी कवियों- प्रसाद-निराला-पंत ने लम्बी कविताएँ रची हैं। ये कम महान नहीं हैं। प्रलय की छाया, तुलसीदास, सरोज-स्मृति, राम की शक्ति पूजा,  कुकुरमुत्ता, परिवर्तन शीर्षक लम्बी कविताएँ आधुनिक हिन्दी कविता की उपलब्धियाँ हैं।

    सवाल यह है कि लम्बी कविता की रचना अनिवार्य क्यों है। काव्य-गोष्ठियों और कवि-सम्मेलनों के मंच पर अथवा मुशायरों में कवि और शायर मुक्तक-रुबाई-गीत-ग़ज़ल और फूहड़ हास्य की कविताएँ ही अधिक सुनाते हैं। मात्र मनोरंजन के लिए। उनका कोई बड़ा प्रयोजन सामने नहीं होता है। आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रयोजनों की व्याख्या करते हुए ‘शिवेतरक्षतये’ को सर्वोपरि प्रयोजन माना है। सीमित फलक वाले काव्य-रूप इस महत्त्वपूर्ण प्रयोजन की समयक् पूर्ति नहीं कर सकते हैं।

    वर्तमान काल का वैश्विक घटनाक्रम इतनी जल्दी-जल्दी बदला है कि वह गीत-ग़ज़ल में पूरी शिद्दत से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। तात्पर्य यह है कि सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-धार्मिक परिघटनाएँ इतनी त्रासद हो गई हैं कि आम आदमी का जीना मुश्किल हो गया है। लगभग असम्भव। इसीलिए समाज में घनघोर विषमता है। खाए-अघाए सम्भ्रान्त जन उल्टी करते हैं। और दाने-दाने को तरसने वाले उसी उल्टी में से अन्न के दाने बटोरते लगते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है। कब से हो रहा है। ऐसा समाज कब बदलेगा। कैसे बदलेगा। अमरीका का साम्राज्यवादी विराट् पंजा कैसे मरोड़ा जाएगा।

    ऐसे बेचैन सवालों के जवाबों के लिए ही लम्बी कविता का रूप विकसित हुआ है। अपनी महत्त्वपूर्ण लम्बी कविताओं के कारण ही मुक्तिबोध की विशेष पहचान निर्मित हुई है। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अँधेरे में’ का महत्त्व बताते हुए कविश्री शमशेर ने ठीक लिखा है-

    ‘‘यह कविता देश के आधुनिक जन-इतिहास का, स्वतंत्रतापूर्व और पश्चात् का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज़ है। इसमें अजब और अद्भुत रूप से व्यक्ति और जन का एकीकरण है।’’ (एक विलक्षण प्रतिभा; चाँद का मुँह टेढ़ा है’, पृ0 27, 28। तृ0सं0, (1971)

    सन् सत्तर के दशक में अनेक युवा कवियों ने मुक्तिबोध से प्रेरित होकर अनेक लम्बी कविताएँ लिखी थीं। कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं। असाध्य वीणा, प्रमथ्यु गाथा, दो चट्टानें, आत्महत्या के विरूद्ध, मुक्ति प्रसंग, पटकथा, उपनगर में वापसी, घास का घराना, बलदेव खटिक। इत्यादि।

    उपर्युक्त कविताओं में लोकधर्मी वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की एक भी लम्बी कविता का नाम शामिल नहीं किया गया है। हकीकत यह है कि भरतपुर के ग्रामीण परिवेश-परिदृश्यों एवं वहाँ के निवासी श्रमिकों-कृषकों को केन्द्र में रखकर विजेन्द्र ने पहले ‘जन-शक्ति’ की रचना की थी। सन् 1977 में ‘कठफूला बाँस’ की। डॉ0 जीवन सिंह ने ही इन दोनों कविताओं का महत्त्व रेखांकित किया है। लेकिन ‘कठफूला बाँस’ का विवेचन-मूल्यांकन अभी तक सम्भव नहीं हो सका है। शायद, आलोचकों की उपेक्षा के कारण लेकिन सत्य तो यह है कि ‘हुआ कब सुरभि के लिए फूल बंधन।’

    अपनी सीमित जानकारी के आधार पर लिख रहा हूँ कि मुक्तिबोध के बाद जितनी अधिक वैविध्यपूर्ण लम्बी कविताएँ विजेन्द्र ने रची हैं, उतनी अन्य किसी तथाकथित महान कवि ने नहीं। यथा- केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, विनोद कुमार शुक्ल ने। लेकिन दिल्ली के साहित्यिक सामंतों ने विजेन्द्र की सदैव उपेक्षा की है।

    उनकी लम्बी कविताओं के सन्दर्भ में मैंने एक पत्र उन्हें लिखा था। उसमें मेरी कुछ जिज्ञासाएँ थीं। विजेन्द्र ने अपने पत्र दिनांक 05.08.1993 में मुझे संबांधित करते हुए लिखा था-

    ‘‘प्रिय भाई,
        लम्बा पत्र।
        दरअसल लंबी कविता के लिए, मुझे नहीं पता (कि) मैं किसी बड़े कवि से अनुप्राणित भी रहा हूँ। पर त्रिलोचन से तो कतई नहीं। त्रिलोचन के लिए लंबी कविता ‘नगई महरा’ मात्र अपवाद है। वह प्रगीत और सॉनेट के कवि हैं। $ $ $ मेरे दिमाग में सर्वाधिक निराला और मुक्तिबोध रहे होंगे। बहरहाल।’’

    कविश्री विजेन्द्र निराला को तो अपना आदर्श कवि मानते हैं। उनके ‘नये पत्ते’ की कविताओं ने उनहें प्रेरित-प्रभावित किया है। लेकिन वह मुक्तिबोध के फैंटेसी शिल्प पूरी तरह सहमत नहीं हैं। वह अक्सर कहते हैं कि मुक्तिबोध के काव्य में आत्म-संघर्ष तो है, जीवन-संघर्ष नहीं। उनमें सक्रिय किसानों के चित्रों का अभाव है। हाँ, साँवले गुलाब जैसे मजदूरों के चित्र अवश्य हैं। फैंटेसी के कारण मुक्तिबोध की भाषा लोक-जीवन से असम्पृक्त हो गई है। अतः मुक्तिबोध सहज बोधगम्य कवि नहीं हैं।

    विजेन्द्र यहीं नहीं रूकते हैं। वह आगे यह भी कहते हैं- पहले आप मुक्तिबोध के पत्र पढ़िए, जो नेमिचन्द्र के नाम से लिखे गए हैं। पत्र पढ़कर मालूम हो जाएगा कि मुक्तिबोध में क्या कमियाँ थीं।

    विषयान्तर हो रहा है। मुद्दे की बात यह है कि भारतीय पूँजीवादी लोकतंत्र की दुरवस्था बदलनी है तो किसानों-मजदूरों की ‘जनशक्ति’ को सुदृढ़ करना होगा। विजेन्द्र के कर्मशील के सर्वाधिक वर्ष भरतपुर में बीते थे। वह नित्य आस-पास के गामों के कर्मठ लोगों से मिलते थे। बतियाते थे। उनकी बोली-बानी आत्मसात करते थे। उनके ब्रज-भाषा-प्रेमी होने का यही कारण है।

    प्रसंगवश यहाँ अपनी एक मूर्खतापूर्ण भूल की ओर संकेत करना जरूरी है। सच्चाई बताने के लिए। ‘कृति ओर’ के ‘लोकधर्मी काव्यालोचन विशेषांक’ में छपे अपने आलेख में एक स्थान पर लिखा है-‘‘मुक्तिबोध अपनी महत्त्वपूर्ण लम्बी रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। आज़ादी के बाद भारतीय पूँजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था के घनघोर अँधेरे को व्यक्त करके उन्होंने यथास्थिति को ध्वस्त करने के लिए प्रकाश की अगणित किरणें विकीर्ण की हैं। उनकी सफलता से प्रभावित होकर मन्द बुद्धि वाले कवियों ने यश-प्राप्ति के लिए लम्बी कविताओं की ऐसी रचना की है, जिन्हें आद्यंत पढ़ना और समझना हिमालय की चोटी पर चढ़ना है।’’ (पृ0 46, 47) मेरे इस कथन का आशय केवल देवी प्रसाद मिश्र की लम्बी कविताओं से है। ‘पहल’ 90 में छपी उनकी लम्बी कविता ‘वह कोई एक दिन तो ज़रूर था से वरिष्ठ कवि विजेन्द्र एवं अन्य कवियों पर मेरा कथन लागू नहीं होता है। अपनी भूल के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

    आइए, ‘कठफूला बाँस’ की पाठ-यात्रा प्रारम्भ करें। संकलन के प्रारम्भ में ‘बात अपनी’ समझाते हुए विजेन्द्र ने कुछ महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं- ‘‘जनशक्ति’ और ‘कठफूला बाँस’ दोनों कविताएँ 1970 के दशक की हैं। $ $ इस दौर में ‘नई’ तथा ‘कविता’ का जोर था। मुझे उसमें व्यक्त मध्यवर्गीय कुण्ठा, निराशा, अत्यधिक निजबद्धता तथा जीवन की रूग्ण मनोवृत्तियाँ आकर्षित नहीं कर पा रही थीं। $ $ $ $ श्रमिक संगठनों से करीबी रिश्तों का बढ़ना। लेखक संगठन में सक्रिय भागीदारी। जन-संगठनों में सक्रियता। $ $ $ इसी दौर में मार्क्सवादी दर्शन का अध्ययन वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार कर रहा था। $ $ $ मुझे डॉ0 रामविलास शर्मा के दस आलेख ने बड़ा बल दिया, जिसमें ‘कविता के नए प्रतिमान’ पुस्तक को प्रगतिशील कविता के विरोध में खड़ी पुस्तक बताया गया था। $ $ $ $ चन्द्रबली सिंह ने 1956 में अपनी पुस्तक ‘लोकदृष्टि और साहित्य’ की भूमिका में लिखा है कि ‘‘साहित्य की महाप्राणता लोकजीवन में हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास इसका अपवाद नहीं है।’’ लेकिन चन्द्रबली सिंह ने अपनी स्थापना की व्याख्या लगभग नहीं की है।

    विजेन्द्र ने अपने सम्पूर्ण काव्य और गद्य-लेखन में ‘लोक’ के ‘उत्सवधर्मी रूप’ की उपेक्षा करके उसके ‘संघर्षधर्मी’रूप’ को वरीयता प्रदान की है। समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप उनके काव्य में श्रमशील जन, उनके सम्पूर्ण परिवेश के साथ-साथ क्षिति-जल-गगन-समीर अनेक रूपों में, रूपायित किये गए हैं। विजेन्द्र के लिए अभिजात वर्ग के समान ‘लोक’ आरामगाह न होकर अग्रगामी जनशक्ति का प्रत्यक्ष रूप है। अतः वह ‘लोक’ को वर्गीय दृष्टि से देखकर उसके और उत्तरआधुनिकता के प्रखर आलोचक हैं। संक्षेप में उनकी उदात्त लोकदृष्टि गाँव से कस्बे तक, कस्बे से नगर तक, नगर से महानगर तक और भारतीय महानगरों से वैश्विक महानगरों तक व्याप्त है। तभी तो वह अपनी जन्म-भूमि ग्राम धरमपुर (बदायूँ) के शिल्पी अल्लादी और घोड़े वाले साबिर से रागात्मक सम्बन्ध जोड़ते हैं। अमरीका के महान अश्वेत गायक पॉल रॉब्सन पर आत्मीय भाव से कविता रचकर श्रम और स्वतंत्रता जैसे मानव-मूल्यों की रक्षा करते हैं। ‘पॉल रॉब्सन’ उनकी नवीनतम कविता है। रचना-समय है: जुलाई, 1913। (देखिए- ब्लाग: पहली बार;)

    सुधी समालेचक आनन्द प्रकाश ने सन् 1970 के दशक हिन्दी कविता का विश्लेषण करने के बाद विजेन्द्र के बारे में ठीक लिखा है कि ग्रामीण और अशिक्षित लोगों की कठोर जीवन क्रियाएँ और उनसे ‘पैदा होने वाली स्वस्थ मानवीय संवेदनाएँ’ विजेन्द्र की कविता के प्रेरणा-स्रोत हैं। ‘निश्चित ही यह एक ऐसा पक्ष है, जिसको रेखांकित करना चाहिए। विजेन्द्र इस पक्ष को कविता में प्रस्तुत करके एक आवश्यक रचनात्मक धर्म निभाया है और सामान्य कविता-लेखन को ठीक आगाह किया है कि वह अपनी संकुचित दुनिया के हानिकारक तत्त्त्वों को पहचानें।’’ (समकालीन कविता: प्रश्न और जिज्ञासाएँ, पृ0 43)

    ‘पक्ष’ नामक पत्रिका के सुधी संपादक श्रीराम तिवारी ने ‘कठफूला बाँस’ का महत्त्व बताते हुए लिखा है कि ‘कठफूला बाँस’ वास्तविक यथार्थ की सार्थक जनवादी परिणति और प्रयाण की राम-कथा है। (प्रवर्तन: परिप्रेक्ष्य की परख और वर्तमान स्थिति, कवर पृ. सं0 03)

    आशय यह है कि किसानों की दुख-भरी राम-कथा तभी समाप्त होगी जब उत्पीड़क-शोषक व्यवस्था का नायक दशानन मारा जाएगा। उसका अमृतत्व सोखा जाएगा। जनता-जनार्दन ही यह महान कार्य सम्पन्न करेगी। उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त लम्बी कविता सर्वप्रथम ‘पक्ष’ में प्रकाशित हुई थी।

    भरतपुर के जन-जीवन और उसके मनोरम परिवेश, विशेष रूप से घना के पक्षी-विहार- के परम अनुरागी कवि विजेन्द्र 15.01.1974 की डायरी में लिखते हैं- ‘‘आज हवा तेज हे। शीत कट रहा है, धूल भी उड़ती है। पर आदमी हे, जो उसके समकक्ष खड़े हैं।’’

    ‘‘मैं आज भोर में फिर मलाह गाँव की तरफ गया। सुबह घूमने का यही क्रम है। वहाँ देखा, लोग चारपाइयों पर बैठे घाम में घमिया रहे हैं। हाथ में चिलम है। कुछ के हुक्का ………ग ग ग हवाएँ सदा प्रतिकूल ही रहें, ऐसा निसर्ग का विधान नहीं है न जीवन में न प्रकृति में। एक कभी रहता ही नहीं।’’ (चिन्तन दिशा, अंक-2; 2011, पृ0 71)

    प्रसंगवश यह बात ध्यातत्वय है कि लम्बी कविता ‘कठफूला बाँस’ का प्रारम्भ मलाह गाँव और जाड़े के वर्णन से होता है। यह गाँव भरतपुर के पास है, जहाँ मल्लाह रहते हैं। और जिसका अपना खास इतिहास और भूगोल है। विजेन्द्र अपनी बात प्रारम्भ करते हुए लिखते हैं-

‘‘मैं गया तब वहाँ जाड़ा था, जाड़ा हड्ड फोड़
मलाह गाँव में
वे देखते ही सकुचे
सिमटे
मेरे साथ उनके गुरु थे
खाट से उठ जैराम किया
आवभगत में मुस्काने
बड़ा जाड़ा था
निखरी धूप के दिन थे
गर्दन तोड़ हवा थी, नकसूद बर्फाँद
ठर्र….ऽ…..ठर्र……ऽ…….साँस देखते ही बोले, ओ, अहो भाग्य
आओ जी आओ पधारौ गुरु जी
इधर आओ इधर सिरहाने।’’ (पृ0 01, टंकित प्रति)

    उपर्युक्त अंश राजस्थानी जन-संस्कृति और भीषण जाड़े की मार से साक्षात्कार करा रहा है। सम्पूर्ण कविता में जाड़े की भीषणता का उल्लेख पद या गीत की टेक के समान अनेक बार हुआ हे। कवि ने ‘देखना’ क्रिया का अनेक बार प्रयोग किया है। वहाँ के परिदृश्य का, गरीबी का, श्रम का, संवादों का, इतिहास के क्रम का, अनेक स्थानों का वास्तविक वर्णन किया है। अनेक संज्ञाएँ प्रयुक्त हुई हैं। व्यक्तियों के नामों के रूप में। यथा- कुँवर सेन, धन्नू, तिरमल, वाल्मीक, सुकदेव, मटरुआ, गयासी, रमफला, चौधीरी, राधिका, रामधैन आदि। ये व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ निष्क्रिय नहीं हैं। इस कविता का रचना-विधान नाटकीय है। अतएव कविता में आगत व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ अर्थात् विशेष ग्रामीण जन सक्रिय रूप में रूपायित किए गए हैं। श्रम करते हुए। संवाद करते हुए। आक्रोश व्यक्त करते हुए। भूख-गरीबी से पीड़ित दयनीय रूप में। अधोलिखत शब्द-चित्र देखते हुए-

‘‘यह आए कुँवर सेन हार तैं/कसकर करब का भरौंटा धरे सिर पै।’’ (पृ0 02)
‘‘यह आए कुम्मैत बछेड़ा की तरह हिनहिनाते/ कल्लू खाँ/ कुट्टी का ढेर लगाय गबर-गबर/ कच्ची मटरा भखते/ और लाँची मछरिया सी आबारी चौड़ाए/ ओह….. बड़ा जाड़ा है।’’ (पृ0 02)
‘‘विदेशी आक्रमणों के शोक गीत/ अँग्रेजों ने सुगठ इकाइयों को तोड़ा यहाँ/ यहाँ की लड़ाकू जनता ने बीड़ा उठाया/ गोकुला, खुमी की तरह काठ से, फूटकर बोला/ ललकारा फिरंगियों को/ राजाराम सेंहुड़ा जैसा तर्राया धरती पर/ मुट्ठी भर ने छक्के छुड़ाए/ मुक्ति-युद्ध लड़कर।’’ (पृ0 06)
‘‘अब पंडित सुकराम जी से/ बात चौधरी ने गपच ली….. बोले/ क्यों गपोड़ी बने हो यार/ क्या तुम्हें बुढ़ापा रास नाँय आवै।’’ (पृ0 07)
‘‘कहाँ थे झम्मन भाई इतनी देर से/ सगरी राम कथा खतम होने को है/ क्यों एँड़ते हो गैंड़ मछरिया से ऐसी निखरी धूप में/ तुम्हें बाजरा खूब लगा दीखे है/ पेट निकाल आया है देसी तरबूज सा।’’ (पृ0 37)
‘‘अरे चौधरी कान बाँधो/ अपने कान/ यह चिल्ला है हड्ड फोड़/ सीधे उघरी पसलियों पर वार करता है/ ग ग ग  कितने दिन हुए नरसिंहा को/ पीलिया नहीं छोड़ता/ तुलसिया सूजी धरी है/ पेट तक/ खेमराज की अंतड़ियों में गलाव है।’’ (45/46)

    उपर्युक्त कवितांश साक्षी हैं कि ‘भाखा’ बोलने वाले हिन्दुस्तान का असली रूप कैसा है। सहज एवं बोधगम्य खड़ी बोली की भाषाई संरचना में ब्रज की बोली-बानी दूध में मिसरी की तरह घुल गई है।

    प्रायः कहा जाता है कि कृषक वर्ग सीधा-सादा होता है। भोला-भाला भी। यह पूरा सत्य नहीं है। पानी सिर से उतरने लगता है तो यह वर्ग अधिकारों के साथ अपनी जीवन रक्षा के लिए कमर कस लेता है। अतएव विजेन्द्र लिखते हैं,

‘‘कब तक करूँगा प्रतीक्षा
शिव का त्रिनेत्र खुलने की * * *
माँगे थे इन्होंने अधिकार अपने
फसलों को पानी
अकाल राहत
हाँ, ये वहीं हैं
जिन्होंने तोड़ी शलाकें
खुली छाती पर खाँईं
गोलियाँ बेहाल
अग्नि-दाह
इन्होंने खड़ी फसलें उजाड़ने से
बड़ों को रोका।’’ (पृ0 17)

लड़ाकू कृषक वर्ग का यह जुझारू आज भी देखा-सुना जा रहा है। जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। प्रतिरोध हो रहा है। बुन्देलखण्ड के किसान इसका सबूत हैं, जहाँ मुनाफाखोर माफिया वर्ग खनन से भू-सम्पदा लूट रहा है। किसान भूख से लड़ रहा है। सुदृढ़ कृषक संगठन और एकता के अभाव से प्रतिरोध सबल नहीं है। अतएव कवि प्रश्न उपस्थित करता है-

‘‘किसानों का कोई एका नाँय
कोई अगुआ नाँय/ कैसे खड़े हों।’’ (वही, पृ0 20)

    वह किसानों के पक्ष का समर्थन करते हुए वर्तमान व्यवस्था की क्रूरता उजागर करता है-

 ‘‘अन्दर से उठती है आवाज़ पूरे गाँव की
जिसने जोती धरती वो है उसी की/’’

लेकिन यह काम आसान नहीं है, क्योंकि

‘‘अभी पुलिस उनकी है
यंत्र-तंत्र उनके हैं
बड़ों-बड़ों का रूतवा है
संसद में हमारे नाम पर झप्पी आती है
बौहरा कर्ज देकर हरबार बट्टता है
यहाँ किससे कैसे लड़ें
किसके बल लड़ें।’’ (वही, पृ0 20)

    कविता का उपर्युक्त अंश और अधिक सार्थक है आज के सामाजिक-राजनैतिक परिवेश में। आजकल सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ पहुँचाने के लिए किसानों की भूमि का अधिग्रहण कर रही हे। ब्रिटिशकालीन कानून के बल से। लाखों किसान आत्म-हत्या कर चुके हैं। ऋण न चुकाने के कारण। उन्हें बैंक से लान तो मिलता है, लेकिन मुश्किल से। अतः साहूकार से ऋण लेना पड़ता है। किसान की हालत प्रेमचन्द के होरी से भी बुरी है। इस कविता में विजेन्द्र ने किसानों के जीवन को निकट से देखकर उसका वास्तविक वर्णन किया है। एक वर्णन इस प्रकार है-

‘‘यह जाटौली का खेरा है पुरानखंडी
अघासुर का टीला
अघासुर का रहा होगा कभी धाम
महावट के अभाव में
गेहूँ चना गुर्चनी
सब बौने रह जाते हैं
इस इलाके का किसान मस्तक रेखाएँ
गिनता है
आकाश निहारता है
भूरा-भक्क कपड़े पहन के आए जो पारसाल
अब कहाँ है।’’ (वही पृ0 25)

 ‘भूरा-भक्क कपड़े’ नेताओं की ओर संकेत कर रहे हैं, जिनके विश्वासघात जन-गण-मन सुपरिचित हो गया है। तभी तो अदम गोंडवी ने लिखा है-

‘‘पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।’’

    लेकिन विजेन्द्र अपने ब्रज जनपद के प्रति आशावादी हैं। द्वन्द्वात्मकता के समर्थक होने के नाते वह परिवर्तन के प्रति आस्थावान् हैं। तभी तो वह उद्घोष करते हैं-

‘‘हर रोज़ होते हैं चीरहरण
आँखें खोलो
जागना बड़ी क्रिया है
जो कर्ता को सोता हुआ नहीं देख सकती
फूटता है युग का ललौंहा नोकदार कल्ला
फोड़ कर धरती का सीना
कहाँ है रसातल
जो छुपा सके अग्नि-दाह को
बड़ी डरावनी शक्ल है कालदेव की
इसी जगह बानासुर पिटे हैं
खण्डव दहल हुआ है
देवों को हराया अग्नि ने
* * * अब सिर्फ जली उल्काओं के
ढेर हैं राख के
वहाँ है चिनगारी का खिला पलाश।’’ (वही, पृ0 27)

    ‘चिनगारी का खिला पलाश’ प्रतिरोध की अग्नि प्रज्वलित कर सकता है। उपर्युक्त अंश में विजेन्द्र ने अपने सम्यक् इतिहास-बोध की अभिव्यक्ति की है। ‘कालदेव’ अर्थात् इतिहास, का सुदर्शन चक्र ही अमंगल का विनाश करता है। महादेव शंकर को ‘महाकाल’ कहा जाता है। आशय यह है कि कवि ने पौराणिक सन्दर्भों का प्रयोग तार्किक रूप में किया है।

    कवि का प्रतिरोध एवं आशावाद चिन्ता के साथ अन्यत्र भी व्यक्त हुआ है-

‘‘भूख की ज्वालाएँ जीता हूँ पचा के
कैसे जगे भूमिहीनों की महासेना
कैसे बिछी फसल उठकर
खड़ी हो

कैसे बनें किसानों-श्रमिकों के संगठन अटूट
सन्नाटा है चारों ओर
तनिक दहक हुई गोलियाँ दागीं
फिर भी वे लड़ते रहे
ऐसे में दिखा वसंत का पहला बौर
* * * उठो तुम जागो
मत बनने दो बूचड़खाना देश को
इतना घना तमस

इतना खून
जैसे कल्लन कसाई का वार
* * * आन्ध्रा में सुगबुगाहट है
सुना है वेणु कवि है
इस अँधेरे का सफर लम्बा है
सुना है झूठी भाषा की छूट पट्टी है
सुना है विष्णुचन्द्र ने अपने घर में
अंगूर-लतर बचा ली

त्रिलोचन चुप हैं
बाबा क्रुद्ध।’’

लेकिन

‘अस्मिता सजग हैं नामवर
लगता है गिरगिटों का जुलूस मेरी ओर आया
* * * पंक्तिबद्ध लोग कहाँ हैं।’’ (वही, पृ0 28, 29)

        आजकल अनेक अस्मिताएँ समाज के लिए खतरा बन गई हैं। ‘अस्मिता’ स्वयं समाज से काटकर अपना हित सर्वोपरि समझती हैं।

        विजेन्द्र ने भरतपुर के मल्लाह गाँव के जन-जीवन के साथ-साथ उस समय के भारत का प्रतिरोधी चरित्र भी व्यक्त किया है। उस समय इन्दिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं। जे0पी0 अर्थात् जयप्रकाश नारायण उनकी नीतियों का विरोध कर रहे थे। उनके द्वारा ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का उद्घोष किया गया। बाबा नागार्जुन भी जे0पी0 के आन्दोलन में शामिल हुए थे। लेकिन आन्दोलन की असलियत जानकर उन्होंने उसे ‘खिचड़ी विप्लव’ कहा। उन्होंने आपात् काल में इन्दिरा गाँधी की तानाशाही का प्रखर विरोध किया था। लेकिन मार्क्सवादी आलोचक डॉ0 नामवर सिंह ‘कविता के नए प्रतिमान’ (1968) रच रहे थे। आधुनिकतावादी कवियों- साही, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह के काव्य को प्रतिमानों का आधार बनाया, लेकिन घोषित यह किया कि नए प्रतिमानों के केन्द्र में मुक्तिबोध हैं; काव्य में अस्मिता-बोध की चर्चा की गई। उनके नए प्रतिमानों ने नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल- त्रिलोचन की लोकोन्मुखी कविता की उपेक्षा कर दी, लेकिन समय के सूप ने फटककर ‘अस्मिताबोधी’ कवियों को किनारे कर दिया। केवल मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष करते हुए नई पीढ़ी के लिए आदर्श बने। विजेन्द्र ने इस कविता में इशारा किया है कि उस समय अनेक अवसरवादी कवि गिरगिट के समान रंग बदलकर लोकोन्मुख होने से बच रहे थे। व्यवस्था ने ऐसे ही कवियों का सम्मान किया। अतएव विजेन्द्र ने गिरगिट कवियों की ठीक आलोचना की है।

    इसके विपरीत अपने काव्य-गुरु लोकोन्मुखी कवि त्रिलोचन जब भरतपुर पधारे और घना के पक्षी विहार को निकट से देखा, तब विजेन्द्र ने उनके आचरण की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि उन्हें भरतपुर अवध के किसानों का धड़कता दिल लगा। उन्होंने एक चरवाहे को ‘फगुला’ अर्थात् कमल की माला पहनाई और भरतपुर के जन-कवि को प्रणाम किया। विजेन्द्र लिखते हैं-

‘‘यही वह श्याम खण्ड है
वही, वही जहाँ के पुष्प अनाम तुमने जाने
जहाँ तुमने मित्र को गुरु कहा
उनके पाँव छुए
जहाँ तुमने ब्रज बोलकर अवधी को सँवारा।’’ (पृ0 42)

    विजेन्द्र वनस्पतियों को देखना-परखना-जानना अपने काव्य-गुरु त्रिलोचन से सीखा हे। उन्हें अपने ब्रजजनपद का परिवेश और वहाँ की भाखा-बोली ‘चोखी’ लगती है, जिसमें गाँव का कुछ ठाड़ापन है।

    इस लम्बी कविता की भाषिक संरचना में कवि के जनपद की बदायूँनी बोली के अनेक शब्द जनपदीय-अनुराग के प्रमाण हैं।

    अपनी कहन के समर्थन के लिए कुछ वाक्य उद्धृत हैं-

(1) अँटा पड़ा कबाड़, भूसा भरे दालान/ खसी- अधखसी चौपालें बरसा में।’’ (पृ0 01)
 (2) ‘‘पछादिया फोरे डालता है।’’ (पृ0 02 
(3) ‘‘नई नवेली बहुएँ/ स्यानी समानी लड़कियाँ, जौ की गद्दर बालियाँ।’’ (पृ0 02),
(4)‘‘बड़े-बड़े छल कपट/ सुखश्री अभी कारे कोसन दूर है।’’ (पृ0 04),
(5) ‘‘भूखे भैराए बाघ बने फिरते हैं/ आदमी के भेस में।’’ (पृ0 07) 
(6)‘‘ये भाखा बड़ी चरपरी है/ बड़ी बेदहल।’’ (पृ0 08), ‘‘दिन लचने को हुआ/ इस गाँव की राम-कथा का/ कोई पार नहीं।’’ (पृ0 25),
(7) ‘‘यह अगहन पूस का चैंटा अघियाना नहीं।’’ (पृ0 12),
(8) ‘‘रमचन्नू घाँई मारे खड़े हैं धूप में।’’ (पृ0 34),
(9) ‘‘पेट निकल आया है देसी तरबूज सा।’’ (पृ0 37,
(10) ‘‘यह हार रब्बी से भरा है।’’ (पृ0 40)

    उद्धृत वाक्यों में रेखांकित पद बदायूँनी बोली से ग्रहण किए गए हैं मूल शब्द पर जनपद का स्थानीय प्रभाव कैसे पड़ता है। यह जवाब विजेन्द्र से सुनिए- ‘‘बदायूँ जिले में किसान रबी को रब्बी कहता है। यहाँ खड़ी बोली अपने तेवर में है। उसने अरबी को खड़ी बोली में ढाला है।’’ (डायरी, 19,12,1982, चिन्तन दिशा, अंक-02, 2011)

    विजेन्द्र ने इस नाटकीय लम्बी कविता का भाषिक संरचना ब्रजभाषा के वाक्यों का यथोचित समावेश करके काव्य-भाषा के वाक्यों का यथोचित समावेश करके काव्य-भाषा को नई भंगिमा से अन्वित किया है। अधोलिखित वाक्य पढ़िए-

‘‘लटूरी भाई चौं हिलावौ हौ
डमरू सौ मूँड़ अपनौ यह खेमकरन उसारता है मुक्का
लाल आँखें किए
इसे रोको
यह खूँखार होता दिखता है
अभी वो बरवत नाँय।’’ (पृ0 16)

    उपरोक्त कवितांश में रेखांकित वाक्य और ‘नाँय’ पद ब्रजभाषा के हैं। ब्रजभाषा में -‘क्यों’ को ‘चौं’ बोला जाता है। ‘मूँड़’ पद के प्रयोग में ग्राम्यत्व दोष माना जा सकता है, लेकिन लोकोन्मुखी कवि विजेन्द्र ने इसे औचित्यपूर्ण सिद्ध किया है। ब्रजभाषा में क्रियापद ओकारन्त होते हैं; यथा- ‘मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो।’ खड़ी बोली में ‘खाया’ ओर ब्रज की बोली में ‘खायो’ बोला जाता है।

    समर्थ कवि के समान विजेन्द्र ने ब्रजभाषा की भाषिक संरचना में ब्रजभाषा और खड़ी बोली का मिश्रण किया है। दोहा- संकलन ‘दूब के तिनके’ की भाषिक संरचना ऐसी ही हे। समीक्ष्य लम्बी कविता में आगत विभिन्न भाषिक रचनाएँ विजेन्द्र के भाषा-सामर्थ्य का प्रमाण हैं।

    बोली के तद्भव शब्दों के साथ तत्सम पदों का सार्थक प्रयोग किया गया है-
 
‘‘मैंने देखा उस खन वे आँखें
करवा घूँघट में इजौं-बिजौं
जो मिलते ही दोबर-तेबर
फिर भ्रू सघनता में गायब
अँधेरे घने में जैसे दूर-दूर तक
धूप-छाँव
गायब…… कायब जैसे अर्थ से कई बार
बिम्ब-ध्वनि, राग से रस।’’ (पृ0 01)

    वाक्यों में क्रियाओं के सिपर्यय द्वारा अर्थ-गम्भीरता व्यक्त की गई है- ‘‘उन्होंने कानों से देखा/ आँखों से सुना।’’ (पृ0 02)

    वाक्यों में सार्थक विशेषणों एवं क्रियाओं का प्रयोग किया गया है-  

‘‘बच्चे ऐसे नहीं होते/ उनकके माथे चमकते हैं/ गाल सुर्ख टमाटर/ उनके बदल से सुगन्ध उड़ती है।’’ (पृ0 05)
 ‘‘पेट जब खाली/ तो आँखों ने खून पिया।’’ (पृ0 04)
 ‘‘नक्सीन चली है/ चेचक के गहरे गड्ढे बने हैं/ जब पीठ दहकी ठन्नाया पछादिया।’’

    आक्रोश-भरी भाषा में प्रभावपूर्ण लघु वाक्यों का प्रयोग किया गया है-

    ‘‘किसी ने पूछा, क्यों थाने जला दिए/ जबाव मिला, हाँ-हाँ जला दिए/ हाँ, बाँस के ठाठ जला दिए/ कठमूसल जला दिए।’’ (पृ0 05)

    भावों की अभिव्यक्ति के लिए मुहावरेदार भाषा का प्रयोग प्रशंसनीय है-

    ‘‘मुठ्ठी भर ने छक्के छुड़ाए मुक्ति-युद्ध लड़कर/ इतिहास गूँगा बहरा नहीं होता/ उसके होते हैं सहस्र कान, सहस्र भुज, सहस्र जीभें।’’ (पृ0 06)

    ‘सहस्र’ विशेषण पद की आवृत्ति पर वैदिक भाषा का प्रभाव लक्षित होता है।
    परिदृश्य का अंकन चित्रात्मक भाषा में किया गया है-

‘‘कँगूरे रँगे धूप-छाँव से
आधा घना लगता श्याम-हरित
आधा पंख सुर्खाबी
काले-काले बबूरों की पाँतें, भीलों के दंगल
कल्लर, गड्डे, डिग्गी, डाँगर
फैले-फूटे खेत-पात दूर तक
फैली धरती, कींच काँद
फौजदारी बलवे
खून-खच्चर यहाँ से वहाँ तक।’’ (पृ0 08)

    वस्तु-वर्णन अथवा घटना-वर्णन की भाषिक संरचना प्रायः निरलंकृत हे। यथा अधोलिखित उद्धरण पठनीय है-

‘‘पर साल यहाँ किसानों ने जत्थे निकाले
अफसरों की थोपी दफै चवालीस तोड़ी
चुनौतियाँ देकर हथकड़ियाँ पहनीं
कारावास की शलाकें काली
और सख्त
यह व्यवस्था खून पीती है
जन आन्दोलनों से कान पर जूँ नहीं रेंगती
पत्ता नहीं हिलता
क्या धरती इसी तरह बंजर होती रहेगी।’’

    कवि की प्रश्नात्मक शैली उसकी हार्दिक संवेदना के अनुरूप है।

    प्राकृतिक व्यापारों का वर्णन अनलंकृत है, क्रियाओं के समावेश से उसमें चित्रात्मकता का समावेश अनायास हुआ है-

‘‘चलती है दखिनी हवा छोड़ती कनपटियाँ
तू रूक-थक
गिरता है धरती पर, बालियों पर
मढ़ा फूल

किसान होगा बेदम, तू रूक
देख तू, देख उन्हें जो अपने ही अन्नमय बोझ से
नब गए सहज-सरल
यह रामकथा बड़ी पुरानी है
इसकी जड़ें गहरी हैं
इसे सुनने को ही मैं यहाँ आया हूँ।’’

    उपर्युक्त अंश में विजेन्द्र की चिन्ता किसानों के प्रति सच्ची संवेदना है। किसानों की राम-कथा अर्थात् दुखपूर्ण गाथा पुरातन है, जिसमें नित नए आयाम जुड़ते रहते हैं। सभ्यता और समाज के विकास के साथ-साथ किसानों की समस्याएँ और अनिवार्य आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं। उनके उत्पादन का अधिकतम लाभ परोपजीवी वर्ग यानी पूँजीपति वर्ग प्राप्त करता है। किसानों की राम-कथा का रावण यही वर्ग है। राम-लीला में प्रति वर्ष रावण का वध किया जाता है। विजयपर्व मनाया जाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि किसानों के रावण का वध कैसे हो। विजेन्द्र ने इसका समाधान जनशक्ति को अनिवार्य बताया है। अतएव वह कहते हैं कि समूहबद्ध होना किसानों के लिए अनिवार्य है-

‘‘अपने जनपद को सरसब्ज़ देखना
उनका सपना है
उनका हक़ है
लोहे को गला के उसे इच्छित शक्ल देना
उनके इस हक़ को हड़पने वाले कौन हैं
जो हमें चुप रहने को कहता है
वही पीता है लहू भी
समूहबद्ध होना उनका हक़ है
कविता समूहबद्ध को उजास देने की संहिता है।’’ (पृ0 45)

इस कवितांश में कवि ने किसानों के जीवन की असलियत उजागर करके अपनी कविता का प्रयोजन भी बता दिया हे। ओजपूर्ण भाषा कवि के सामर्थ्य का प्रमाण है।

विजेन्द्र ने अपनी विचारधारा की अभिव्यक्ति रूपकात्मक भाषा में की है। मार्क्सवाद के अनुसार पदार्थ से चेतना की उत्पत्ति हुई है। पदार्थ में द्वन्द्वात्मकता है। अतएव जीवन और जगत् भी द्वन्द्वात्मक हैं। सुख-दुख सनातन हैं। पतझर और वसंत भी। इसीलिए विजेन्द्र ने लिखा है-

‘‘पदार्थ से ही हुआ है ललौंहा अंकुरण चेतना का।’’ (पृ022)

और वह लिखते हैं-

‘‘मूर्त हुई देखता हूँ ऊर्जा
फूलों के मकरन्द में
दिक्काल रूप गतिमय रजत कण का
पूरा विश्व हतप्रभ है
देखकर विनाश लीलाएँ
असहाय हो गया हूँ इतना
कैसे रोक पाऊँगा इस ध्वंस को।’’ (पृ0 22)

इस उद्धरण से कवि की विश्व-दृष्टि की अभिव्यक्ति हो रही है। विषमता से स्पंदित विश्व को समता की अनिवार्य आवश्यकता है। समता के लिए सतत संघर्ष ज़रूरी है। इसीलिए विजेन्द्र ने कृषक वर्ग के सन्दर्भ में लिखा है-

‘‘ओह ….. यह वो रामलीला नहीं
रावण को हर साल जलाकर खुश हो लें
यह मुक्ति-युद्ध का पूर्वाभ्यास है
बड़े-बड़े मुच्छन्दरों के विरूद्ध मुहिम
बोलते क्यों नहीं रामहेत
कहते-कहते मुँह थक गया
सुनते-सुनते कान पके।’’ (पृ0 50)

इस उद्धरण में भाषा की संरचना संबोधनात्मक है, व्यंग्य और मुहावरों से अन्वित। कवि ने ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टि से परम्परागत मिथकीय घटनाओं और चरित्रों के अनास्था व्यक्त करके संघर्षशील वर्गों के प्रति प्रबल विश्वास व्यक्त किया है। राम के चरण-स्पर्श से शिलाएँ नारी रूपा हो गई थी, लेकिन अब ऐसा सम्भव नहीं है।

विजेन्द्र ऐसे समर्थ कवि हैं, जो अपनी कविता में अभिनव विविधता लाने के लिए अन्य शास्त्रों- इतिहास, राजनीति, भूगर्भशास्त्र, विज्ञान की अनेक विद्याओं का गम्भीर अध्ययन करते रहते हैं। काव्यशास्त्रियों कवि-प्रतिभा का प्राथमिक सम्मान करके अध्ययन और अभ्यास को भी अनिवार्य बताया है। ‘कंठफूला बाँस’ में उन्होंने इस स्वभाव का अलंकृत उल्लेख किया है। कवि यह भी मानता है कि श्रमशील वर्गों के सम्मान के अभाव में ज्ञान की अनेक शाखाएँ महत्त्वहीन हैं। श्रम से सौन्दर्य की सृष्टि हुई है। इसे हम सभी कलाओं और शास्त्रों में देख सकते हैं। इसे हम सभी कलाओं और शास्त्रों में देख सकते हैं। ‘ताजमहल’ का मनभावन सौन्दर्य मानवीय श्रम का ही तो शुभ परिणाम है। अतएव वह कहता है-

‘‘खनिज कर्म को बखानते शिल्पविद्
कहाँ है इन सब की जड़ें रंगनाथन
पुस्तकालय विज्ञान अधूरा है
कहाँ हैं इनके स्रोत
इनके उद्गम

सतत प्रवाह कहाँ हैं
निचोड़ना पड़ेगा प्राविधिक ज्ञान का भरा छत्ता
इन देसी बबूलों से अभी अभी गोंद छुड़ाया है।’’

यह है श्रम की सत्ता का सम्मान, जिसे विजेन्द्र दैनिक क्रियाओं के प्रयोग से किया है।

विजेन्द्र आर्यों के आगमन और उनके द्वारा किए गए आक्रमण पर प्रश्न उठाते हैं। साम्राज्यवादी मानते हैं कि गोरे घुड़सवार आर्यों ने श्यामल अनार्यों को उत्तर भारत से खदेड़ दिया था। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि

‘हमारी जन्मभूमि थी यही
कहीं हम आए थे नहीं।’

भगवान सिंह और रामविलास शर्मा ने आर्यों के आक्रमण को मिथ्या सिद्ध किया है। इसी संदर्भ में विजेन्द्र अपनी बोधगम्य भाषा में लिखते हैं-

‘‘इनकी जड़ें कहाँ हैं
कहाँ के हैं ये मूल निवासी
क्या ये यहाँ बाहर से आए थे
यह तो ब्रज है मेरा बहुत अनौखा जनपद
इनके चित्त में छिपी है सरस्वती की अटूट धार
कौन हैं वे
काले रंग की चपटी नाक वाले
गोरे सिडौल लम्बी नाकवालों के शत्रु (पृ0 23)

 और कवि रंग-भेद का विरोध करते हुए उद्घोष करता है-

‘‘आदिवासी की सफेद बत्तीसी चमकी है अँधेरे में।’’ (पृ0 23)

उपरोक्त अंश में ‘ब्रज’ को ‘अनौखा जनपद’ कहकर विजेन्द्र ने रागात्मक सम्बन्ध व्यक्त किया है। ‘अनोखा’ के स्थान पर ‘अनौखा’ विशेषण पद-प्रयोग करके कवि ने निजता व्यक्त की है।

विजेन्द्र ने अपनी काव्य-भाषा में इन्द्रिय-बोध का आश्रय लेकर वास्तविक जीवन-जगत् के क्रियाशील बिम्ब रचने में समर्थ हैं उने बिम्ब-विधान में अलंकारों का प्रयोग बहुत कम होता है। ऐसा एक अंश ध्यातव्य है-

‘‘एक धन्य बीहड़ है
आगे बड़े चक्कर हैं
पैंच हैं
ऊबड़-खाबड़ खम हैं
नकसूद कुछ नहीं
सोचता हूँ क्या करूँ
क्या सीधी-सादी पगडंडी पर
चला चलूँ आगे तक
खेत-खेत चौगिर्द छाती-छाती गेहूँ, जौ और मटरा
जहाँ-तहाँ श्रमरत ग्राम बालाएँ
बथुआ चौंटती हैं
चटकीली छींट लाल सुर्ख ओढ़नी
पीला लहँगा
काली कुर्ती
वे कजरौटा आँजे देखती हैं जब-तब
मेरी तरफ कोरो से बिना देखे ही
देखे बे-ऋतु खंजन उड़ते धूप में
कुछ सहमी कुछ सकुची बता रहीं जैसे
कोई नाता नहीं है उनका मुझ से।’’ (पृ0 26)

उपरोक्त कवितांश अनलंकृत है। ऐसा संश्लिष्ट वर्णन है कि चित्रकार कवि विजेन्द्र इस पर आकर्षक और मूर्त चित्र अंकित कर सकते हैं। यहाँ भाषिक संरचना भी कथ्य के अनुरूप है। रंग-बोधक विशेषण पद भी औचित्यपूर्ण हैं। ऐसी भाषिक संरचना विजेन्द्र के कवि व्यक्तित्व का सहज रूप है।

विजेन्द्र ने संस्कृत भाषा और उसके साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया है। अतः उनकी काव्य-भाषा पर संस्कृत की तत्सम पदावली का प्रभाव लक्षित होता है। ‘कठफूला बाँस’ में तद्भवों के साथ तत्सम प्रधान पदावली का सार्थक प्रयोग हुआ है। पदार्थ से जगत् की उत्पत्ति और चेतना का विकास हुआ है। विजेन्द्र ने विकास का वर्णन तत्सम प्रधान पदावली में किया है-

‘‘यह राम कथा बहुत पुरानी है
समुद्र, पर्वत और चट्टानें
धरती में छिपे उनके उद्गम
कितना घना है
कितना प्राचीन
इसके मरोड़ पर है तपता मरुस्थल
ये पहाड़ जल से निकल कर जाने कब खड़ा हुआ
कब बने काले विवर चट्टानों में
धूमकेतु, आकाश अंगाएँ, सौर-ध्वनि, वक्र संवेग

 ग्रह दल, नीलारूण….
ज्योतिर्मय प्रकाश पुंज वृत्ताकार
ओ मेरे सूर्य किरीट
जान सकूँ तेरी दुहिता का छिपा तल।’’ (पृ0 24)

कविता के उपरोक्त अंश में कवि ने सूर्य की दुहिता धरित्री के रहस्य जानने की जिज्ञासा व्यक्त की है। धरती की रक्षा से मानव-जीवन की सुरक्षा सम्भव है। पर्यावरण प्रतिकूल होने से मानव-अस्तित्व संकट में पड़ गया है। जिज्ञासु कवि विश्व का अनुशीलन गम्भीरता से करने का प्रयास करता है, जो समर्थ कवि के लिए अनिवार्य है। काव्य-शास्त्र की भाषा में समर्थ कवि के संसार में पूर्ववर्ती परम्परा और वर्तमान की अन्यच्छाया झलकती हे। शास्त्रमूलक अन्यच्छाया की दृष्टि से विजेन्द्र की यह प्रदीर्घ कविता पर मार्क्सवाद का प्रभाव हे। मुक्तिबोध के काव्य पर भी मार्क्सवादी चिन्तन की अन्यच्छाया है। (देखिए, नया साहित्यः नया साहित्यशास्त्र, पृ0 108)
मार्क्सवादी चिन्तन के अनुसार सभ्यता, समाज और संस्कृति की प्रगति इतिहास चक्र के कारण होती है। पदार्थ की द्वन्द्वात्मकता से पुराने का विनाश होता है और नए का विकास। इतिहास-चक्र के कारण राजतन्त्र समाप्त हो गया है। राजा-रानी अब शक्ति-हीन हैं। अब लोकतन्त्र का युग है। अतएव कविता का नायक श्रमशील वर्ग का प्रतिनिधि होता है। यही वर्ग निर्माण करता है और मध्य वर्ग एवं उच्च वर्ग उससे लाभान्वित होते हैं। इस सन्दर्भ में कविवर रहीम ने अनुभव-प्रसूत बात कही है-

‘‘रहिमन देख बड़ेन कौ लघु न दीजिए डारि
जहाँ काम आवै सुई कहा करै तलवारि।’’

कहने की आवश्यकता नहीं है कि मांगलिक भविष्य की रचना मानवीय श्रम ही करता है। आप्त ज्ञान को साकार कौन करता है। मानवीय श्रम। नक्शे के अनुसार भव्य भवन कौन बनाता है। निपुण कारीगर और मजदूर। लोहे को मोम कोन बनाता है। लोहार। वही उसे मनचाहा आकार देता है। इस लम्बी कविता में ‘कठफूला बाँस’ पदों का प्रयोग एक बार किया गया है-

‘‘तुम इतिहास को अब तक
कठफूला बाँस समझते रहे हो।’’ (पृ0 45) 

वाक्य रूपाकात्मक है।

कवि किसे सम्बोधित करता रहा है। शायद भाववादी लेखकों-चिन्तकों को ।यानी इतिहास कठफूले बाँस के समान व्यर्थ हे। आजकल तो लोग इतिहास के अन्त की घोषणा कर चुके हैं। कवि का मन्तव्य कुछ और है। वर्षा में भीगा बाँस साधारण वस्तु तो है, लेकिन वह आवश्यकता के अवसर पर शत्रु पर प्रहार भी कर सकता हे। इसी प्रकार इतिहास की प्रेरक क्रान्तियों और लड़ाकू वीरों का स्मरण करता है। उसका स्पष्ट कथन है-

‘‘बोलती हैं भरखनी टक्करें
चिंघाड़ते हैं पैने नखर
अगौंहे सींग
क्या पूरे इलाके को सकता मार गया
चिनगारियाँ नहीं
उठती लपटों में देखों अपने थके चेहरे
* * * * (उन्हें) शत्रु के विरूद्ध व्यूह रचने का
हक़ है
 * * * * उन्हें इंसान होने का हक़ है
उन्हें तुम्हारे विरूद्ध खड़े होने का हक़ है
लोकतन्त्र में यह हक़ मुक्ति-संग्राम का सार है।’’ (पृ0 36)

इस कवितांश की ओजपूर्ण भाषा सम्बोधन से युक्त द्वन्द्वात्मक हे। इतिहास-बोध से अन्वित है। इतिहास की शिक्षा यही है कि विषमता-समापन के लिए प्रतिरोध और संघर्ष करते रहो। इसी से इतिहास जय-यात्रा की ओर अग्रसर होगा। आखिरकार आज जो तुमुल कोलाहल हो रहा है, वह किसके लिए हो रहा है। कल के लिए। मांगलिक भविष्य के लिए। सदाचार और शिष्टाचार के लिए। इंसानियत की रक्षा के लिए।
अतएव मांगलिक भविष्य के लिए विजेन्द्र सुनते हैं कि

‘‘उठ रहा रह-रह कर शक्ति का जन-रव/ (पृ0 44)

विजेन्द्र को यह आशा है कि –

‘‘सह जान गए हैं
सबके अक्कल डाढ़ें फूट आई हैं
यह लीला है जीवन को बुझाने की
इसे कहीं-का-कहीं रोकने की
अन्दरूनी नाट्यशिल्प
नाटक के भीतर एक और विस्मय भरा
नाट्य एकालाप, सांग रूपक से पहचानी गई
क्रियाशील पदार्थ की गति की
वाक् चमत्कृति
धरती पर जहाँ जहाँ हुआ चित्रांकन
सर्वहारा का, वहीं वहीं जन्मा है
जनता का लोक-युद्ध, युगों-युगों तक निक्षेप प्रक्रिया से।’’ (पृ0 41)

विचारपूर्ण उपरोक्त अंश जन-गण के लोक-युद्ध का समर्थन कर रहा है। विजेन्द्र के उपर्युक्त विचार और उनसे उद्भूत जीवन-मूल्य उनके व्यक्तित्व रूपान्तरण से साक्षात्कार करा रहे हैं। विजेन्द्र शीश महल में खड़े होकर नहीं अपितु लोक के मध्य हाज़िर होकर पर्यवेक्षण करते हैं और अपनी अनुभूतियों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति करते हैं। भाषिक संरचना नई है।

विजेन्द्र अपने जनपद के बहाने सम्पूर्ण राष्ट्र की मुक्ति के लिए अभिलाषा व्यक्त करते हैं-

‘‘शत्रु का संगठित विरोध करने को
संगठित भुज-बल चाहिए/’’ (पृष्ठ 46)

आक्रोशपूर्ण स्वर में वे पूछते हैं-

‘‘खुलता त्रिनेत्र
क्यों नहीं लक्ष्य हो अच्छी सेहत।’’ (पृ0 46)

पौराणिक शब्द ‘त्रिनेत्र’ का प्रयोग वैज्ञानिक चेतना के सन्दर्भ में किया गया है।

कवि विजेन्द्र की यह मान्यता है कि लोकोन्मुखी कविता कवि-व्यक्तित्व का रूपान्तरण करती रहती है। उनकी कविता में श्रमशील लोक अपने परिवेश के साथ उपस्थित रहता है। वह कहते हैं कि

‘‘कविता के संग-संग
रचा जाता मन का अन्तरंग
धरती की परत-दर-परत
गहरी खाइयाँ जो अभी भर कहाँ पाईं
इस समय उन्हीं के इलाके मे हूँ
तुम्हें बुलाता
यहाँ से ही देख पाओगे उनकी तपी तँवई पीठ
ओ मेरे
विश्व-कवि भवभूति मुझे भी कहने दो
‘कर्मणि व्यंज्यते प्रज्ञा’
ये सारे शब्द खराटो पर चढ़ कर
अपनी दिन-चर्या बताते हैं।’’ (पृ0 47)

उपर्युक्त कवितांश में विजेन्द्र ने लोक से कविता का अन्तरंग सम्बन्ध जोड़कर विश्व-कवि भवभूति की विचार-विभूति से स्वयं को सम्पन्न किया है। अतएव वह अपने जन को प्रबाधित करते हुए जन के प्रति चिन्ता और आशा व्यक्त करते हैं-

‘‘कुछ कहो यही खड़े-खड़े अपना संकोच तोड़ो
पहचानो अपने जनपद की तासीर
उसकी रगों में प्रवहमान
मिश्र धातुएँ यहाँ क्यों नहीं है
अन्नपूर्णा क्यों नहीं
* * * प्रश्न, प्रश्न, प्रश्न
फलों जैसी चमक उनके चेहरों पर क्यों नहीं है
 * * * * निर्धूम अग्नि की अकुलाहट में
सुनता हूँ उभरती जनशक्ति में
ओ मेरी वाणी
तू मेरे चित्त की उजास बन
चित्त को बना सहोदर
दिक्काल को समेटता छन्द
आदमी की असंख्य भुजाओं के बल से ही
रचा गया है
मोटी-मोटी गर्दनों का मुड़ना
प्रमाण नहीं लक्ष्य-भेद प्रतिभा का।’’ (पृ0 48, 49)

उपर्युक्त उद्धरण का भाषिक संरचना में उद्बोधन के साथ-साथ द्वन्द्वात्मकता भी है। एक ओर जन-गण की असंख्य भुजाओं का बल है, और दूसरी ओर हैं शोषकों की मोटी-मोटी गर्दनें; जिन्हें असंख्य भुजाएँ एक दिन अवश्य दबाएँगी। इतिहास यही समझाता है। रावण और कंस जैसे अत्याचारियों का वध हुआ तो क्या आजकल के रावण-कंस कैसे बचे रहेंगे। क्योंकि जनता अब सच्चाई समझ रही है।

विजेन्द्र ने इस प्रदीर्घ कविता का समापन आशापूर्ण विकल्प से किया है, जो यथास्थिति को तोड़ने वाला है-

‘‘जनता की
संगठित आवाज़ में
मैं सदियों से बोलता आया हूँ
तुम्हें सुनने का अवकाश कहाँ
उसे भाषा कहाँ माना
रचना भी नहीं
उसे मेरा नागरिक युद्ध कहाँ माना
अब से धातुक उगने को हुए
दो-आब में अंकुरित धान
जल-थल जो अब मूर्त हो रहा है
मूर्त सपना, मूर्त आँखों की रोशनी
ये आकाश पृथ्वी
सब मूर्त होने को हैं
यह मेरा दुर्धर्ष समय
मेरी हथेली पर मूर्त हो रहा है
*** *** लड़ते आदमियों की ताकत
आन्दोलित संगठित ऊर्जा
समय मूर्त हो रहा है
जैसे आँच पर फूलती रोटी।’’ (पृ0 52, 53)

उद्धृत अंश में ‘मूर्त’ विशेषण पद की आवृत्ति और अप्रस्तुत विधान कवि द्वारा कल्पित मांगलिक भविष्य को प्रतयक्ष कर दिया है। इस उद्धरण उन आलोचकों पर दोष लगाया है, जो ऐसी लोकोन्मुखी कविता को कविता ही नहीं मानते हैं। भाषा को भी नकारते हैं। ऐसे कवि अथवा आलोचक महानगरीय जीवन-बोध तक सीमित होते हैं। वे व्यक्तित्वान्तरण न करके आदमक़द दर्पण के सामने खड़े होकर आत्म-मुग्ध भाव से ग्रस्त हो जाते हैं।
‘कठफूला बाँस’ का अध्ययन करने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि इसके केन्द्र में ‘मलाह’ गाँव उपस्थापित हैं। वहाँ के निवासी का संघर्ष, उनकी प्रतिरोधी भावनाएँ इस कविता का कथ्य हैं, जो नाटकीय और वर्णनात्मक शैली में व्यक्त किया गया है। कवि ने पर्यवेक्षण और वार्तालाप से ‘मलाह’ का जन-जीवन आत्मसात किया है और अपने लोकोन्मुखी व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की है। कविता के प्रेरक भाव करुणा और सात्विक क्रोध हैं। सम्पूर्ण कविता की संरचना निश्छन्द है, लेकिन उसमें आदि से अन्त ओजपूर्ण एवं मंथर प्रवाह का आभास होता रहता है। सन् सत्तर के दशक ऐसी प्रदीर्घ कविता अन्य समर्थ कवियों ने नहीं रची है। ‘मलाह’ जैसे गाँव के दिक्काल की प्रभावूपर्ण अभिव्यक्ति अन्यत्र विरल है।

‘कठफूला बाँस’ को विजेन्द्र की प्रतिनिधि कविता कह सकते हैं; जिसमें भरतपुर के मलाह गाँव के किसानों की व्यथा-कथा है और उनका प्रतिरोध भी। व्यथा-कथा को राम की संज्ञा प्रदान की है। भारतीय साहित्य में राम-कथा जीवन के उदात्त आदर्शों और अन्याय-अनाचार-दुराचार के प्रबल संगठित प्रतिरोध की कहानी है। भारत का किसान का स्वभाव राम के चरित्र के समान है। वह एक सीमा तक तो अन्याय एवं शोषण सहन करता है, लेकिन जब पानी सिर पर से उतरने लगता है, तब वह प्रतिरोध के लिए हथियार उठा लेता है। ‘मलाह’ गाँव के किसान ऐसे ही हैं, संवाद करते हुए वे बताते हैं कि हमने लोहागढ़ को अभेद्य बनाए रखा। लोधे और गद्दियों ने मिलकर मुक्ति-युद्ध लड़े। सब ने मिलकर धरती पर रुँधें छाँटी। बड़े-बड़े खर मूँदे। पेड़-रूखों ने भी हमारी विपदा सही हे। बड़े-बड़े जुलम देखें हैं। अन्याय और अत्याचार। सब के सब उठे और तोपखाने ठेले। किले जाय गिराए, मीतें जाय फोरीं। गुम्बद जाय तोड़े। जनता तिराह………तिराह करि उठी, कोई नहीं बोला, शान्ति कहाँ है, न तब, न अब। (पृ0 06-07)

स्थायी शान्ति तो तभी सम्भव है, जब असमानता, भेद-भाव, शोषण, उत्पीड़न का अन्त हो। यही तो ज्वलंत समस्या है, जिसका समाधान संगठित प्रतिरोध है। विजेन्द्र ने इसी का समर्थन किया है। क्रूर व्यवस्था से उत्पीड़ित किसान पूछते हैं-

‘‘बेहड़ जीवन का छन्द है मन्दाक्रान्ता
वही सह सकेगा गहन दुख यक्ष का
उसी से पहचान पाएँगे
जलद, बेलें, पुष्प, नदियाँ, प्रपात, पर्वत-शिखर
लड़ता आदमी देश का अपने
कहो, तुम भी कहो कक्कू
क्या इस ब्रज जनपद में
समूचे लोक दुर्जन हैं
क्या धरती बंजर हुई है
क्या ये ठठरियाँ उघाड़े
यहाँ के मन्मथ हैं।
*** *** *** यही हैं वेणुवादक
*** *** *** हलधर पृथिवीपुत्र
आए दिन वारदातों में जेरवार
आए दिन खून
मैं यहाँ राधिका को
बथुआ खौंटते देखता हूँ
कान्हा को उससे बतियाते
कहाँ है लक्ष्य
कहा देखें एकलव्य।’’ (पृ0 16,17)

उपर्युक्त अंश की भाषा किसानों के अनुरूप है। कथन की प्रश्न-शैली मन की बेचैनी की ओर संकेत कर रही है। ‘मन्दाक्रान्ता’ छंद का सन्दर्भ कालिदास के ‘मेघदूत’ की ओर इशारा कर रहा है और विजेन्द्र ने मलाह गाँव की त्रासदी की कथा सुन कर लिखा है कि इस त्रासदी की

‘‘गहराइयाँ थाहने को जानना होगा
नया भू-गर्भशास्त्र
नया नृविज्ञान, नया अन्तरग्रहीय अन्तरिक्ष
ऐन्थ्रो-जौगर्फी नई
नई विधियाँ परमाणुओं को जोतने की।’’ (पृ0 16)

आशय यह है कि अभिनव शास्त्रों के सम्यक् अध्ययन से समाज-परिवर्तन के लिए मार्ग दिखाया जा सकता है।
‘कठफूला बाँस’ ऐसे किसान कवि की लम्बी कविता है, जो अपने पाठकों की चित्त-भूमि में अग्नि-बीज के पादप की रचना कर सकें-

‘‘अन्धकार में खिंची है जोति-रेखाएँ
मेरी आँखें वहाँ तक क्यों नहीं जातीं
विषांकुर छिदता है कहीं गहरे मर्म में
काल तू अभी ठहर
बोने दे मुझे अग्नि-बीज
बहुत गहरे तक नहीं दिखतीं
मेरे महादेश की की जड़ें
अदृश्य, भीतर पिघली चट्टानों से दबी
सूखे पत्ते झरने के बाद ही
बनेगा नया वृक्ष।’’

यह नया वृक्ष श्रम-संस्कृति की सुखद छाया प्रदान करेगा, क्योंकि ‘‘श्रम से ही रचा जाता सौन्दर्य’’ (पृ0 21) अतएव कवि ने इस जीवन-मूल्य की स्थापना की है- ‘‘धरती उसकी जो जोते अपने बल से।’’ (पृ0 35)
इस आदर्श की पूर्ति के लिए जन-आन्दोलन अनिवार्य है। आजकल आदिवासी जल-जंगल-ज़मीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं, और किसान अपनी भूमि की रक्षा के लिए। सम्पूर्ण कविता के सुघड़ स्थापत्य में जीवन ओर प्रकृति के व्यापार इतने संश्लिष्ट हैं कि उन्हें अलगाना असम्भव है। एक उदाहरण देखिए-

‘‘वे अन्दर-ही-अन्दर मुक्ति युद्ध को आमादा हैं
उनके अलाकों में मौसमी नदियाँ प्रलय मचाती हैं
टूटता है उनका साहस

पटवारी अंतड़िया खसोटता है
महाजन धरता है गिरवीं बच्चों को
बँधुआ मजूरी रिवाज है छीजते लोकतन्त्र का
पतरौल, सरपंच, ब्लाक-प्रमुख
सब तैयार हैं लूटने को।’’ (पृ0 39)

फिर भी

‘‘यह हार रब्बी से भरा है
किसान का चौड़ा सीना है।’’ (पृ0 40)

सारांश यह है कि भारतीय किसानों की राम-कथा कटने वाली ‘कठफूला बाँस’ में मलाह गाँव के दुख-दग्ध एवं धेर्यधन किसानों के नाटकीय संवादों के साथ-साथ कवि विजेन्द्र का चिन्तनपूर्ण एकालाप भी चलता रहता है। वह सूत्रधार का काम करता हैं और कविता के मंच पर अपनी व्यथा-कथा सुनाते हैं। अभिनय करते हुए। सक्रिय रूप में।

संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ मनीषी डॉ0 राधाबल्लभ त्रिपाठी ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘नया साहित्य: नया साहित्यशास्त्र’ में संस्कृत एवं हिन्दी काव्य के साथ-साथ उर्दू शायरी का आलोचनात्मक विश्लेषण अलंकारशास्त्र की दृष्टि से किया है। काव्य-कृति में अलंकारों का समावेश श्लाघनीय समझा जाता है। उपर्युक्त पुस्तक के निबन्धों में डॉ0 त्रिपाठी ने परम्परागत अलंकारशास्त्र में कुछ नया जोड़ने का प्रयास किया है। उन्होंने लम्बी कविता में ‘भाविक’ अलंकार का संधान किया है। इस अलंकार में ‘अतीत और अनागत’ को प्रत्यक्षमाण देखा जाता हे। डॉ0 त्रिपाठी के अनुसार ‘वाल्मीकी का रामायण’ जिस तरह भाविक का उदाहरण है, उसी तरह निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ भी। (पृ0 62) दोनों कृतियों में अतीत को प्रत्यक्षवत् देखा गया है। इस दृश्टि से लम्बी कविता ‘कठफूला बाँस’ भी ‘भाविक’ का निदर्शन है। विजेन्द्र ने इस कविता में अतीत की घटनाओं के साथ अनागत एवं स्मृतियों का निरूपण प्रतयक्षवत् किया है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

‘‘मैं ने देखा
मुकद्दम की घनी भौंहें तनी हैं
कोई कहर……… कोई जानलेवा विपदा
झम्मन उकड़ू बैठे ये सब सुनते रहे
कुन्दन ने तड़ाक से पुट्ठे पर
मच्छर को दे मारा
लगता है उन्हें भनक पड़ी
अब नाटक का अन्त हुआ
ओह …… यह वो रामलीला नहीं
रावण को हरसाल जलाकर खुश हो लें
यह मुक्तियुद्ध का पूर्वाभ्यास है।’’ (पृ0 50)

अतएव यह कहना समुचित है कि विजेन्द्र प्रत्यक्षता वर्णन के समर्थ कवि हैं। इसीलिए वह श्रमशील लोक और उसके परिवेश का अनुशीलन और विविध शास्त्रों का अध्ययन निरन्तर करते रहते हैं।
भारतीय अकिंचन कृषकों-श्रमिकों के प्रति विजेन्द्र का अन्तरंग सम्बन्ध इस कविता को महत्त्वपूर्ण कृति घोषित करता है।

ऐसी लम्बी कविता तो मुक्तिबोध ने भी नहीं रची है। अतः विजेन्द्र की यह कविता अद्वितीय है, जिसने निराला, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन की लोकोन्मुखी काव्य-परम्परा काव्य-परम्परा को अग्रसर किया है।
विजेन्द्र ने ‘कठफूला बाँस’ में कृषक वर्ग की एकता पर विशेष बल दिया है। समाज-व्यवस्था बदलने के लिए वह उत्पादनशील वर्गों अर्थात् किसानों और मजदूरों की एकता को अनिवार्य मानते हैं। अपनी डायरी में वह लिखते हैं- ‘‘किसान ही इस देश की जनशक्ति है। रमिकों से उनका गठजोड़ नए भविश्य का संकेत है। इसके बिना कुछ नहीं। ये दोनों हमारी असंख्य भुजाएँ हैं। आँखें हैं। कान हैं। दिल की धड़कने भी। जो कविता इनकी आवाज़ बने, वह मीर है। वे हर समय के साथ हैं। अथाह दुख कठिनाइयों में डूबकर वे जिन्दा हैं। कभी घना कुहरा छटेगा। निखरी धूप खिलेगी। यहीं से कविता के खनिज दल मिलते हैं।’’ (डायरी, 19.12.1974, चिन्तन दिशा, अंक-2, जनवरी- मार्च, 2011 पृ0 69-70) यहाँ एक बात विचारणीय है। क्या बड़े किसान-फार्महाउस के मालिक क्या इस संगठन में शामिल होंगे। नहीं। ऐसा संगठन तो उनके लिए खतरा सिद्ध होगा। अतः दलित-शोषित किसानों की एकता ही अपेक्षित है। वर्ग-संघर्ष के लिए छोटे किसानों, कुशल एवं अकुशल मजदूरों के साथ उस मध्य वर्ग का एकजुट होना अनिवार्य है, जिसे अपना वर्गीय चरित्र रूपान्तरित कर लिया है। बहुजन सुखाय एवं बहुजन हिताय के लिए विचारधारा-संगठन-संघर्ष-समाजवाद अनिवार्य है। इस कविता में श्रमशील जीवन के अनेकानेक चित्रों-वर्णनों के साथ बदलावकारी भौतिकवादी विचारधारा का समावेश यथास्थान कलात्मक ढंग से किया गया है। कवि ने रचना में रामकथा की चर्चा करके संगठित शक्ति पर विशेष बल दिया है, जिससे वर्तमान युग के रावणों का अन्त हो सके। वह ‘‘आतंक…… आतंक…… आतंक’ का समर्थक नहीं है; वह तो यह मानता है कि

‘‘ये मेरा मुक्ति-मार्ग नहीं
मेरी मुक्ति होगी लकड़हारों, घसेरों, बुनकरों
खलासियों, पत्थर-तोड़ाओं के साथ-साथ
उनके बीच जाने की कोई खास रितु नहीं
न कोई मुहूर्त
ओ कवि
धँसो, धँसो इनके भीतर
चलके गढ़ लीकें
डाँगे
और बेहड़
अँधेरे इलाकों में
जहाँ जाने में सकुचाते भगवान भास्कर
मुरझाने को है जहाँ गिरिमल्लिका, जपा कुसुम
खण्डित गजवाहिनियाँ चट्टानें
बबूरों की आहत अक्षौहिणी
इनके भीतर धँसो
*** *** *** जीवंत आकृतियों को सरसब्ज़ होने दो।’’ (पृ0 44, 45)

उपरोक्त पंक्तियाँ यथास्थिति पर प्रहार कर रही हैं, अभिजन या भद्रलोक की सौन्दर्य अभिरूचि पर चोट, कविता के लिए नया सौन्दर्यशास्त्र रच रही हैं, कवि के निजी वैशिष्ट्य की ओर इंगित कर रही हैं, जो महानगरीय कवियों में नहीं पाया जाता है। किसानों द्वारा आत्महत्याओं के त्रासद दौर में यह कविता हताशा नहीं बल्कि आशा का संचार करती है। प्रतिरोध का सौन्दर्य रचती है।

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अमीर चन्द वैश्य

पहली बार पर वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य हर महीने एक कृति की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी क्रम में इस बार प्रस्तुत है आलोचक भरत प्रसाद की आलोचना पुस्तक ‘सृजन की इक्कीसवीं सदी।’ 

वैश्वानरी चिन्तन एवं चिन्ताएँ

    मेरे सामने एक महत्वपूर्ण पुस्तक है ‘सृजन की 21 वीं सदी’.  लेखक हैं उदीयमान कवि-कहानीकार और आलोचक भरत प्रसाद। समसामयिक विषयों पर विचारपूर्ण आलेख भी लिखते हैं अपने निरन्तर अध्ययन-अनुशीलन और लेखन से वह हिन्दी-संसार में अपनी अलग पहचान भी बना चुके हैं। साहित्यिक पत्रिकाओं में उनके सर्वेक्षात्मक आलेख प्रकाशित होते रहे हैं। उनके आलेख उनकी अध्ययनशीलता और आलोचनात्मक शक्ति का प्रमाण प्रस्तुत हैं।

    ‘सृजन की 21 वीं सदी’ में भरत प्रसाद के बीस आलेख संकलित हैं। वर्तमान सदी के प्रथम दशक में लिखित संकलित आलेख तीन भागों में विभक्त हैं। ‘साहित्य की परिधि’ भाग में ग्यारह आलेख संकलित हैं। ‘सृजन के अतिरिक्त’ भाग में साहित्येतर विषयों पर छः विचारपूर्ण आलेख। और ‘पूर्वोत्तर का भारत’ में तीन ज्ञानवर्धक आलेख।

    भरत प्रसाद के जागरूक साहित्यिक व्यक्तित्व की ‘मंगल कामना’ करते हुए प्रसिद्ध संस्मरण-लेखक कान्ति कुमार जैन ने ‘सारगर्भित भूमिका लिखी है। ‘तुषाग्नि की तरह सुलगते रहना’ शीर्षक के अन्तर्गत, जो भरत प्रसाद के लेखकीय व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य प्रस्तुत करती है। प्रसिद्ध कवि दुष्यंत कुमार ने अपने समय की अंधेरगर्दी से विक्षुब्ध होकर लिखा था –

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
#       #            #                  #
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।।

    आजकल साहित्य संसार में दुष्यंत कुमार की अभिलाषा भरत प्रसाद पूरी कर रहे हैं। उनका लेखकीय व्यक्तित्व अपने नामराशि रामानुज सौम्य भरत के सदृश न हो कर सुमित्रानन्दन लक्ष्मण के अमर्षपूर्ण उग्र स्वभाव से मिलता-जुलता है। इसीलिए अपनी भूमिका में जैन जी ने लिखा है – ‘‘इस पुस्तक के लेखक का नाम भरत प्रसाद नहीं, लक्ष्मण प्रसाद होना चाहिए।’ क्योंकि इस पुस्तक के आलेखों में वह लक्ष्मण के समान साहित्य, समाज, इतिहास, मूल्यचर्या जैसे नाना विषयों पर लावा उगल रहे हैं। क्षुब्ध, आन्दोलित, निर्भीक, परिवर्तनकामी, कहीं-कहीं उद्धत होने की सीमा तक।’’ (पृ. 7)

    पुस्तक में संकलित पढ़ कर उपरोक्त अभिमत ठीक मालूम होता हैं भरत प्रसाद उग्र स्वभाव वाले लक्ष्मण के समान अपने देशकाल की साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक विसंगतियों पर तीखी आलोचना करते हैं। साथ ही साथ पाठकों के सामने विकल्प भी प्रस्तुत हैं।

    आजकल हिन्दी का  साहित्यिक परिदृश्य  धनवाद और अवसरवाद से  आक्रान्त है।

उज्ज्वल भविष्य के अभिलाषी कवि-लेखक पद-पुरस्कार-प्रतिष्ठा की शीघ्र प्राप्ति के लिए अपनी रचनाशीलता को धारदार बनाने से संकोच करते हैं। लेकिन भरत प्रसाद इस साहित्य-धारा के विपरीत संतरण कर रहे हैं। अतएंव उनकी लेखनी साँच पर आँच नहीं आने देती है। वह स्वयं ‘तुषाग्नि में जलते रहने का संकल्प लिए हुए हैं। यही कारण है कि समीक्ष्य पुस्तक के सभी आलेखों में लेखक के आन्तरिक तेजस्वी स्वभाव और सटीक विश्लेषण की झलक झिलमिलाती है। वह गद्य को अभिनव और निजी भंगिमा भी प्रदान करती है।

    समीक्ष्य पुस्तक से पूर्व भरत प्रसाद की चार पुस्तकें (2004-2012 की अवधि में) प्रकाश में आई हैं। ‘और फिर एक दिन’ (कहानी संग्रह), देसी पहाड़ परदेसी लोग (लेख संग्रह) ‘एक पेड़ की आत्मकथा’ (काव्य संग्रह), नई कलम: इतिहास रचने की चुनौती (आलोचना)। ये चारों संग्रह लेखक की सर्जनात्मकता की निरन्तरता का सबूत हैं और लेखकीय दायित्व का भी।

    ‘साहित्य की परिधि’ में सर्वाधिक ग्यारह आलेख संकलित हैं, जो लेखक की साहित्यिक चिन्ता और चिन्तन की ओर संकेत कर रहे हें समकालीन रचनाशीलता की खूबियों-खामियों का विश्लेषण अनिवार्य है। बेलाग एवं वस्तुनिष्ठ समीक्षाएँ साहित्य के स्वास्थ्य के लिए जरूरी हैं। आवश्यकता यह भी है कि वर्तमान रचनाशीलता अपनी समृद्ध परम्परा से जुड़ कर आज के सामाजिक-वैश्विक ज्वलंत यथार्थ का निरूपण करके हिन्दी साहित्य का विकास कर रही है अथवा नहीं। जागरूक लेखक-कवि भरत प्रसाद ने संकलित आलेखों में इस सदी के पहले दशकम की सर्जना पर अपना अभिमत व्यक्त किया है।

    ‘सृजन की थर्ड डिग्री’ आलेख सर्वाधिक लम्बा है, जिसमें क्रान्तिकारी भावुकता, अव्यावहारिक होना ऊँचा मूल्य है, सृष्टि को सम्पूर्णता में आंकने का अगाध आत्मविश्वास, विस्फोटक दृष्टि की अवस्था, सृजन की थर्ड डिग्री और सृजन की 21 वीं सदी शीर्षकों के अंतर्गत आवेगपूर्ण भाषा-शैली में तर्क-पुष्ट विश्लेषण-विवेचन किया गया है। प्रकारान्तर से यह कह सकते हैं कि लेखक की ये सर्जनात्मक मान्यताएँ हैं, जो उनकी सर्जना का मार्ग-दर्शन करती हैं।

    प्रत्येक ‘जेनुइन’ अर्थात् सच्चा-असली-निष्कपट लेखक-कवि अपनी साहित्यिक परम्परा के प्रगतिशील तत्व अपना कर अपने निजी सर्जना-पथ का निर्माण करता है। बनी-बनाई लीक पर चलना उसका स्वभाव नहीं होता है। भरत प्रसाद की मान्यता है कि ‘जेनुइन’ सर्जक का मन अराजक होता है। अपनी मान्यता का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि – ‘‘सृजन के कुरूक्षेत्र में अराजक चित्त का होना कोई नकारात्मक या विध्वंसात्मक प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि वह दुनिया, समाज, संस्कृति और व्यक्ति के मौजूदा ढाँचे में काट-छाँट, बढ़ाव-घटाव पैदा कर उस में नया, सार्थक और क्रान्तिकारी विकास लाती है।’’ (पृ. 3)

    अराजक व्यक्ति व्यवस्था का विरोधी होता है। साहित्य सर्जना के संदर्भ में अराजक विशेषण पद का प्रयोग रूढि़ग्रस्त साहित्य के विरोध के लिए  किया गया है । महर्षि वाल्मीकि को इसलिए आदिकवि कहा जाता है कि उन्होंने वैदिक सूक्तों की  रचना न करके राम जैसे आदर्श मानव को ‘रामायण’ का नायक बनाया। महाकवि भवभूति ने ‘श्रृंगार रस ‘रसराज’ होता है’ जैसी प्रबल मान्यता का खण्डन करके ‘करूण रस’ को सर्वोपरि माना। हिन्दी काव्य-धारा को निरन्तर प्रवाहित करने के लिए जागरूक कवियों ने काव्य और समाज दोनों की रूढि़यों का विरोध किया। कबीर ने डंके की चोट पर आचरण को सर्वोपरि बताकर जाति व्यवस्था एवं हिन्दू-मुस्लिम-वैमनस्य का विरोध किया। सूर ने गोपियों के माध्यम से योग-मार्ग का खण्डन करके प्रेम को सर्वोच्च माना। तुलसी ने वाराणसी के तत्कालीन ब्राह्मण समाज के प्रबल विरोध झेल कर एवं लोक-भाषा अवधी में ‘मानस’ की सृष्टि करके अभिनव काव्य-मार्ग प्रशस्त किया। अपने आलोचकों को ‘काग’ कहकर अपने आत्मविश्वास का प्रमाण प्रस्तुत किया। ‘काक कहहिं कलकंठ कठोरा’। इसी प्रकार ‘मीरा ने सामन्ती समाज के बन्धन काटकर स्वतंत्र नारी के रूप में जीवन बिताया। प्रेमचन्द, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रसाद, निराला, मुक्तिबोध ने अपनी-अपनी क्रान्तिकारी सर्जना से साहित्य-समाज की रूढि़यों का खण्डन करके साहित्य को लोकोन्मुखी बनाया। केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन भी इसी दिशा में सक्रिय रहे।

    ऐसे कवि-लेखकों ने लोभ-लालच एवं पद-पुरस्कार का मोह त्याग कर अपना सम्पूर्ण जीवन सर्जना के लिए समर्पित कर दिया। ऐसे स्रष्टा अग्निधर्मा होते है, जो अपनी उद्दाम सर्जना के लिए स्वयं को संतप्त रखते हैं।

    भरत प्रसाद स्वयं कवि और कहानीकार हैं। अतएंव वह अपनी मान्यता की कसौटी पर स्वयं को एवं समकालीन रचनाशीलता को परखते रहते हें। निर्भीक भाव से जिनका यह कथन ठीक है – ‘‘अराजकता खुद कलाकार को पल-पल जलाती है। हाँ, यह जलन दुनिया और इंसानियत को कई सालों तक रोशनी देने के लिए है। सृजन की सिहरन से भरा हुआ ऐसा अराजक कलाकार इस जलन में जिस अलौकिक आनन्द का सुख लूटता है, उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। मानसिक शान्ति तो उसके लिए मौत है।’’ (पृ. 5)

    लेखक के इस कथन की सच्चाई उपर्युक्त कवियों-लेखकों का जीवन-चरित पढ़कर अनायास उजागर होती है।

    आलेख ‘सृजन की थर्ड डिग्री’ पढ़ते ही उदय प्रकाश की एक कहानी याद आने लगती है, जिसका शीर्षक यही है । ‘थर्ड डिग्री’ का सम्बन्ध पुलिस विभाग से है। घाघ अपराधी से अपराध स्वीकारने के लिए उसे कठोर दंण्ड दिया जाता है। असहनीय पीड़ा झेलता है अपराधी। सृजन के संदर्भ में इसका आशय है कि जागरूक सर्जक अपनी सर्जना की अवधि में अपना सुख-चैन त्यागकर निरन्तर बेचैनी का अनुभव करता है। लेखक ने अपनी मान्यता को और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है – ‘‘यह सर्जक की प्राकृतिक, स्वतःस्फूर्त या स्वयंभू अन्तःशक्ति नहीं, बल्कि खुद को शिखर सर्जना के लिए तैयार करने का युद्धाभ्यास है। यह डिग्री अति दुष्कर प्रयास से ही संभव है। ………. सृजन की ‘थर्ड डिग्री’ वह दुर्लभ अवसर है, जो बड़े से बड़े कलाकार को भी बार-बार नहीं मिला करता।’’ (पृ. 22, 23)

    दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ‘थर्ड डिग्री’ सर्जक की वह मनोदशा है, जब वह प्रबल आत्म-संघर्ष करते हुए अपनी सर्जना को अपने देश-काल से सम्बद्ध करने का प्रयास करता है। उसमें उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व दूध में मिश्री के समान घुल जाता है।

    भरत प्रसाद ने अपने इस प्रदीर्घ आलेख में सर्जक की रचना-प्रक्रिया को नवीन शब्दों के माध्यम से आलोकित है। वस्तुतः महान सर्जक अपने देश-काल के जीवन और जगत के पर्यवेक्षण से अनुभवों को अनुभूतियों में बदल कर पहले मानसिक रचना करता है और फिर उसे भाषा अथवा रंगों के माध्यम से मूर्तिमान करता है ‘रचि महेस निज मानस राखा।’’ इसी कारण तुलसी के महाकाव्य का नाम ‘रामचरितमानस’ के रूप में विख्यात हुआ। यह आलेख पढ़ते समय मुझे मुक्तिबोध की डायरी का ‘तीसरा क्षण’ याद आता रहा। समीक्ष्य आलेख में मुक्तिबोध जैसी बेचैनी का झलक मिलती है। ऐसी बेचैनी भरत प्रसाद के सच्चे लेखकीय व्यक्तित्व का प्रमाण भी है।

    आलेख के अन्तिम अंश में लेखक ने गम्भीर चिन्ता व्यक्त करते हुए लिखा है कि मौजूदा शताब्दी सृजन विरोधी है। 20 वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से आज तक दुनिया इतनी बदल गई है कि उदात्त जीवन-मूल्यों का क्षरण हो रहा है। उपभोक्तावाद और आर्थिक गुलामी का नया दौर प्रारम्भ हो गया है। महान कवियों-लेखकों ने अपने देश-काल की विषमता से ग्रस्त परिस्थितियों का सक्रिय प्रतिरोध करते हुए अपनी सर्जना के शिखर निर्मित किए हैं। वर्तमान सदी में भी प्रतिरोधी शक्तियों का ह्रास नहीं हुआ है। महान कृतिकार और उनकी कृतियाँ भी सामने आएंगी। यथास्थिति टूटी है और टूटती रहेगी। लेखक ने भी अन्तिम वाक्य में आशा की किरण भी दिखाई है – ‘‘शताब्दियों से चला आ रहा सृजन के कालजयी गौरव का इतिहास समय के भयावह दबावों से आमूल-चूल विद्रोह का इतिहास है।’’ (पृ. 25)

    अपने दूसरे आलेख ‘जैसे कि मुद्दों पर मुद्दे’ में भरत प्रसाद ने अनेक साहित्यिक मुद्दों – यथा: हंस के सम्पादकीयों, पद-पैसा-पुरस्कारों मंचीय कविता एवं गोष्ठी कविता, छद्म माक्र्सवादियों, समझौतावादियेां, वातानुकूलित सुविधाओं, वाचिक परम्परा के संवर्धक नामवर आलोचकों पर निर्भीक भाव से टिप्पणियाँ लिख कर अपनी तेजस्विता का प्रमाण प्रस्तुत किया है। भरत प्रसाद को न तो शब्दबाजी पसंद है, न पुरस्कारबाजी और न कलाबाजी। उन्हें तो मुक्तिबोध की वैचारिक दाहकता पसंद है। यह उनकी निर्भीकता ही कही जाएगी कि उन्होंने अज्ञेय, नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव का नाम लेकर उनके साहित्यिक चातुर्य के आगे प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया है।

    यदि अज्ञेय की तुलना में मुक्तिबोध महान कवि हैं, तो डॉ नामवर सिंह से बड़े आलोचक हैं डॉ रामविलास शर्मा, जिन्होंने सम्पूर्ण जीवन आलोचना को समृद्ध करने में लगा दिया। आचार्य शुक्ल की विरासत उन्होंने ही आगे बढ़ाया। सम्मान तो स्वीकार किया, लेकिन धनराशि अस्वीकार कर दी । राजेन्द्र यादव  कथाकार प्रेमचन्द के सामने  बौने नजर आते  हैं
आधुनिक भारतीय साहित्यकारों में जितनी वैश्विक प्रसिद्धि कवीन्द्र रवीन्द्र और प्रेमचन्द को मिली है, उतनी अन्य किसी को नहीं। फिर भी इस सदी के प्रारम्भ से ही प्रेमचन्द पर आक्रमण हो रहे हैं। पहले भी हुए थे। डॉ रामविलास शर्मा ने अपनी प्रखर आलोचना से प्रेमचन्द के कटु आलोचकों की बोलती बन्द कर दी। भरत प्रसाद ने ‘प्रेमचन्द के बाद प्रेमचन्द क्यों’ में यही मुद्दा उठाया है और प्रेमचन्द पर कीचड़ उछालनेवाले लेखकों की अच्छी खबर ली है। उनका अभिमत है – ‘‘निश्चित रूप से प्रेमचन्द एक श्रमिक की हैसियत से लिखते हुए विद्युति तीव्रता के साथ असाधारण से बहुत आगे की महत्ता हासिल कर चुके हैं।’’ (पृ. 35) और यह भी कहा है – ‘‘आज प्रेमचन्द की तरह दूसरे प्रेमचन्द की सख्त जरूरत है। लेकिन आज के समय में प्रेमचन्द बनना उनसे भी बड़ी जिम्मेदारी निभाना है, क्येांकि आज का समय और भी जटिल और भी कठिन है।’’ (पृ. 37) आजकल के बढ़ते हुए उपभोक्तावाद पर प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी ‘ईदगाह’ प्रभावपूर्ण व्यंग्य है।

    ‘आलोचना का शून्यकाल’ में हिन्दी की समकालीन आलोचना के गिरे हुए स्तर पर चिन्ता व्यक्त की गई है। आजकल हिन्दी जगत में अनेक विधाओं की रचना और उनका प्रकाशन हो रहा है। सम्प्रति, ऐसे निष्पक्ष और न्यायाधीश आलोचक विरल हैं, जो प्रत्येक विधा की रचनाशीलता परख सकें। डॉ नामवर सिंह अधिकारी आलोचक माने जाते हैं। लेकिन उन्होंने मात्र वाणी से किसी भी रचना की प्रशंसा करना अब उचित समझ लिया है। जबकि लिखित आलोचना दायित्वपूर्ण मानी जाती है, वाचिक आलोचना दायित्वहीन। ऐसी आलोचना अब अज्ञेय की प्रशंसा करती है। अशोक वाजपेयी की भी। अतएंव वह विश्वसनीय नहीं मानी जाती है। आचार्य शुक्ल की आलोचना के समान। डॉ रामविलास की तार्किक समालोचना के समान। आजकल तो आलोचना प्रायोजित ढंग से लिखवाई जाती है। जुगाड़ का अनथक प्रयास किया जाता है। साहित्य के सामन्तों से सम्पर्क जोड़कर बड़े से बड़े पुरस्कार पाने वालों की पंक्ति में स्वयं को आगे खड़ा किया जाता है। तभी तो दूसरे ही काव्य-संकलन पर कवि को साहित्य अकादेमी का पुरस्कार प्रदान किया जाता है। और वयोवृद्ध साधक साहित्यकार सन्न रह जाते हैं। भरत प्रसाद ने ऐसी ‘धांधली’ की ओर संकेत करते हुए ठीक लिखा है – ‘‘अन्य विधाएँ गुण में स्वादहीन होने के बावजूद किस तरह खैरात बाँटने  के अन्दाज में ‘महान’ घोषित हो रही हैं, इसके दृश्य चारों ओर साफ-साफ नजर आते हैं। जैसे बड़े शालीन और सुनियेाजित तरीके से बड़ा बनाने की धांधली मची हुई हो। पहले जो महान हो चुके हैं, वे लिखकर-तपकर महान बने। अब लिखने के बल पर बड़ा लेखक बनने के दिन लद गए। साहित्य में यह पद (बड़ा) सर्वत्र सुलभ है।’’ (पृ. 39) लेखक ने इस ज्वलंत मुद्दे पर सावधान होकर विचार किया है। प्रसंगवश, यहाँ उल्लेखनीय कि आचार्य शुक्ल और डॉ शर्मा की परम्परा के अनुयायी काव्यालोचक डॉ जीवन सिंह ने जब आधुनिकतावादी कवियों – रघुवीर सहाय, साही, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह, श्रीकान्त वर्मा के काव्य की असलियत पुनः परीक्षण द्वारा उजागर की, तब दिल्ली दरबार कृतिओर के सम्पादक विजेन्द्र से रुष्ट हो गया। उन्हें धमकियाँ मिलने लगीं। हाँ, स्मृतिशेष डॉ शिवकुमार मिश्र और प्रो. चन्दबली सिंह ने विजेन्द्र के साहस की प्रशंसा की। बताएँ, किसी जाने-माने आलोचक ने विजेन्द्र के सम्पूर्ण काव्य का  मूल्यांकन किया  है ? जीवन सिंह, रेवती रमण  और  रमाकान्त शर्मा के अलावा । विजेन्द्र ने  निराला-केदारनाथ-अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन-मुक्तिबोध की परम्परा अपने ढंग से समृद्ध की है। और भारतीय काव्य परम्परा को भी आत्मसात किया है। ऐसे साहित्य-साधक की उपेक्षा आलोचना का शून्यकाल ही है।

    उपर्युक्त आलेख की चर्चा के बाद आलेख सं. 10 हिन्दी आलोचना के लिए शोक शब्द के औचित्य पर कुछ कहना ठीक मालूम होता है। भरत प्रसाद को इस बात पर खेद है कि आजकल कोई ऐसा बड़ा आलोचक नहीं है, जो हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं का मूल्यांकन कर सके। डॉ नामवर सिंह ऐसा कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने ‘‘25 वर्षों से कलम-कागज के साथ चिन्तन में डूबने की आदत से तौबा कर ली। वीर भारत तलवार अथवा वीरेन्द्र यादव विशेषज्ञ आलोचक हैं। ऐसे आलोचकों के अध्ययन का दायरा सीमित है। एक विशेषज्ञ आलोचक से यह आशा करना कि वह सर्वज्ञ हो, मात्र दुराशा है। आचार्य शुक्ल और डॉ रामविलास शर्मा के बाद ऐसे बहुज्ञ आलोचकों की संख्या विरल है, जो अपनी आलोचना में भारतीय एवं पाश्चात्य परम्पराओं का ‘संग्रह-त्याग’ विवेक से करते हैं। अन्धानुकरण नहीं करते हैं। फिर भी कुछ आलोचक ऐसे अवश्य हैं, जिन्होंने गद्य की लगभग सभी विधाओ पर अधिकारपूर्वक लिखा है। ऐसे आलोचकों में प्रो. मधुरेश का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने कथा-साहित्य के अलावा गद्य की अन्य विधाओं-संस्मरण, जीवन, डायरी, आत्मकथा आदि का सम्यक मूल्यांकन किया है। डॉ हरदयाल ने कविता एवं गद्य की अन्य विधाओं पर भी समीक्षाएँ लिखी हैं। आलोचना के संसार में वस्तुनिष्ठता कम गुटबंदी अधिक है। लाभ-लोभ के कारण प्रत्येक घटिया पुस्तक बढि़या बताई जाती है। फतवा दिया जाता है। धूमिल को निजी सम्बन्धेां के कारण बड़ा कवि घोषित किया गया। भरत प्रसाद का यह कथन भी ठीक है कि ‘‘हिन्दी आलोचना का बहुत पुराना एक असाध्य रोग है – उद्धरणबाजी।’’ विदेशी लेखकों के अधिक उद्धरणों से व्यावहारिक आलोचना अपठनीय हो जाती है। वस्तुतः यह हिन्दी आलोचक की ‘औपनवेशिक मानसिकता है। (पृ. 77) आलेख के अन्त में डॉ विजय बहादुर सिंह का अभिमत उद्धृत है, जिससे पूर्णतः सहमत होना असम्भव है। आचार्य शुक्ल और डॉ शर्मा का सम्पूर्ण कृतित्व पढ़ कर यह भ्रम दूर हो जाएगा कि हिन्दुस्तान अब पिछलगुआ देश माना जाता है। दोनों आलोचकों ने विदेशी जन-विरोधी ज्ञान का खंडन तर्कपूर्ण ढंग से किया है। पश्चिम का अन्धानुकरण कहीं नहीं किया है।

    युवा पीढ़ी के आलोचक अपनी परम्परा के आलोचकों से सीखे बिना आलोचना का विकास नहीं कर सकते हैं। हाँ, यदि ‘कविता के नए प्रतिमान’ को अपना आदर्श मानेंगे, तो पथ-भ्रष्ट होना अनिवार्य है। डॉ. जीवन सिंह ने अपनी काव्यालोचना में ‘कविता के नए प्रतिमान’ तर्कपूर्ण ढंग से अस्वीकार किए हैं।

    ‘प्रश्नों के चैराहे पर खड़ी कविता’ आलेख समकालीन युवा कविता पर केन्द्रित है। सर्वप्रथम कविता पर लगाए गए आरोपों का उल्लेख किया है। फिर उन आरोपों की परख की गई है। लेखक स्वयं कवि भी है । अतः वह युवा कविता के पक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत करते हुए समकालीन कविता का वैशिष्ट्य समझाने का प्रयास करता है  – ‘‘समकालीन कविता को
देखने के लिए समकालीन आँखें चाहिए। शास्त्रीयता, सिद्धान्तवादिता, और पुरातन कला के तानाशाही आग्रह से पूर्णतः मुक्त आँखें। …………. आज के दौर में भी बेहतरीन कविताओं का सृजन उत्साहवर्धक मात्रा (संख्या) में हो रहा है, किन्तु चूँकि आम धारणा है कि समकालीन काव्य-सृजन का अधिकांश हिस्सा कूड़े के ढेर की ऊँचाई बढ़ाने के काबिल है, इसलिए इन कविताओं की भी कोई विशेष इज्जत नहीं है।’’ (पृ. 50)

    भरत प्रसाद का उपर्युक्त कथन सत्य के निकट है, किन्तु अंशतः। ‘समकालीन कविता’ में युवा कवियों के साथ-साथ विजेन्द्र, मलय, शम्भु बादल आदि भी काव्य-सर्जना में संलग्न हैं। इन कवियेां की उपेक्षा कहाँ तक न्यायसंगत है ? इनकी कविताएँ ‘कूड़े का ढेर’ हैं। जो आलोचक ऐसा मानते हैं, उनका काव्य-बोध अत्यन्त पिछड़ा हुआ है। काव्य की सर्जन प्रक्रिया संश्लिष्ट होती है। उस में समकालीन भाव-बोध, परम्परा के प्रगतिशील तत्व, इन्द्रिय-बोध, विचार-बोध, कल्पना के विविध रंग घुले-मिले रहते हैं। कथाकार संजीव के आरेाप ‘कविता याद क्यों नहीं रहती’। पर ‘कृति ओर’ में लम्बी बहस चली है। मेरा कहना यह है कि पाठक कविता-वाचन में आनन्द का अनुभव करता है तो उसे अपनी रूचि के अनुसार अनेक कविताएँ कंठस्थ हो जाती हैं। छन्दोबद्ध भी। मुक्त छन्द में रचित भी। त्रिलोचन ऐसे महान काव्य-प्रेमी थे, कि उन्हें असंख्य कविताएँ याद थीं। युवाओं से बातें करते समय वे तुलसी-निराला की अनेक कविताएँ उद्धृत करते थे। मैं पूछता हूँ कि कितने युवा कवि हैं, जिन्हें ‘रामचरित मानस’ के सभी काण्डों के नाम क्रम से याद हैं। अपनी बात के समर्थन में सुशान्त सुप्रिय का कवितांश उद्धृत करता हूँ। ‘‘गरीब दलित के रामचरितमानस में ये कांड नहीं होते – बाल कांड, सुन्दर कांड, अयोध्या कांड, किष्किंधा कांड, लंका कांड।’’ (शुक्रवार, साहित्य वार्षिकी, 2013 ; पृ. 180) कवि महोदय ने केवल पाँच कांडों के नाम लिखे हैं, जो क्रमशः नहीं हैं। इससे क्या सिद्ध होता है ? स्पष्ट है कि युवा कवि विदेशी काव्य तो चाव से पढ़ते हैं, लेकिन अपनी काव्य-परम्परा से प्रायः अनभिज्ञ रहते हैं। इसीलिए वे परम्परा-ज्ञान के अभाव में अपनी काव्य-सर्जना के लिए अच्छे ढंग सीख नहीं पाते हैं। निराला और त्रिलोचन ने किया। परम्परा से सीखा है। मुक्तिबोध ने भी। तुलसी के प्रिय छन्द हरिगीतिका का प्रयोग निराला ने पूर्ववत् किया है, लेकिन मुक्तिबोध ने मुक्त छन्द रूप में ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता रची है। ‘अंधेरे में’ आदि से अन्त तक कवित्त छंद की लय का निर्वाह किया गया है। कहीं-कहीं लय बदली भी है। ‘शिव ताण्डव स्तोत्र’ की लय का निर्वाह ‘मुझे पुकारती हुई पुकार/खो गई कहीं’ में है। केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता ‘हवा हूँ हवा हूँ/ वसंती हवा हूँ। की लय का आधार मानस के उत्तरकांउ’ में आए शिव-स्तुति का छन्द है।

    तो, मेरा कहना यह है कि आज की कविता में लययुक्त काव्य रचना अनिवार्य है। यदि काव्य क्रियापद से शुरू किए जाएं, तो काव्य-विन्यास स्वतः प्रभावपूर्ण हो जाता है। निराला का एक वाक्य देखिए – ‘‘है अमानिशा ; उगलता गगन धन अन्धकार।’’ ‘उगलता’ क्रिया पद प्रारम्भ में है। वाक्य में भय का समावेश अनायास हो गया है। मुक्तिबोध के दो छोटे-छोटे वाक्य पढि़ए – ‘‘भागता मैं दम छोड़/ घूम गया कई मोड़।’’ दोनों वाक्येां में क्रिया पद शुरू में आए हैं, जो काव्य-वाचक के भय की अभिव्यक्ति कर रहे हैं।

    निस्संदेह अनेक युवा कवि ऐसे हैं, जो अपनी वाक्य-रचना लयात्मकता से अन्वित करते हैं। इन्द्रिय-बोध के आधार पर बिम्बों की सृष्टि करते हैं। जब बोलचाल की भाषा में अनपढ़ जन रूपकात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं, तब समर्थ कवि ऐसी भाषा की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? ‘हवा के घोड़े पर सवार होना’ मुहावरे में ऐसे रूपक का समावेश है, जो अत्यन्त तीव्र गति से दौड़ते हुए घोड़े का बिम्ब प्रत्यक्ष करता है।

    भरत प्रसाद का यह अभिमत ठीक है कि समकालीन कविता की निर्मम और वस्तुनिष्ठ आलोचना होनी चाहिए। वह आज के कवियों का उज्ज्वल भविष्य देखते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ वे आज की चर्चित कवयित्री निर्मला पुतुल को सावधान भी करते हैं – ‘‘इसके पहले कि निर्मला की शानदार ऊर्जा पर सन्देह की आँच आए, अपनी बोझिल लोकप्रियता की खुमारी (को) झाड़कर उठ जाना चाहिए।’’ (पृ. 55) ‘सन्देह की आँच’ पाठकों तक पहुँच रही है ऐसा कथन अशोक सिंह का है, जिन्होंने ‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ संकलन का रूपान्तर किया है। उनका कथन कितना विश्वसनीय है, उसका पता लगाना अनिवार्य है।

    ‘युवा सृजन की फिलासफी’ में इस सदी के पहले दशक (सन् 2000-2010) को ‘युवा दशक’ कहा गया है। इस अवधि में पवनकरण, सुरेश सेन निशांत आदि युवा कवि, मनेाज कुमार पांडेय, चन्दन पाण्डेय, कुणाल सिंह आदि युवा कहानीकार और वीरेन्द्र यादव, कृष्ण मोहन, प्रियम अंकित आदि युवा आलोचक सक्रिय हैं। कविता और कहानी के संसार में युवा सर्जना की बाढ़ सी आ गई है। अब आवश्यकता इस बात की है कि इस दशक के कम से कम बीस-बीस कवियों-कहानीकारेां की उत्कृष्ट रचनाएँ संकलित की जाएँ, जिससे युवा लेखन का महत्वपूर्ण येागदान सामने आ सके। यह कार्य भरत प्रसाद कर सकते हैं।

    भरत प्रसाद ने युवा आलोचकों की कमी की ओर संकेत भी किया है। उनके आलोचनात्मक लेखों में अँग्रेजी साहित्य के उद्धरणों की भरमार रहती है। ‘‘यहाँ युवा आलोचक की अपनी स्वयंभू, स्वाधीन, तेजस्वी चिन्तन-शक्ति गायब है।’’ (पृ. 47) बात ठीक हैं उद्धरणों की बहुलता से आलोचना गरिष्ठ हो जाती है। हाँ, अपने कथन के सत्यापन के लिए उद्धरण का उल्लेख जरूरी है। बेहतर आलोचना कृति-केन्द्रित होती है।

    ‘चैराहे की भाषा में बोलने का दुस्साहस’ आलेख में भरत प्रसाद ने मठाधीश कवियों-लेखकों-आलोचकों को उपलब्ध होने वाली सुख-सुविधाओं पर तीखा व्यंग्य प्रहार करते हुए इस यथार्थ पर चिन्ता व्यक्त की है कि आज ‘‘कबीर की तरह चैराहे पर खड़ा होकर बोलनेवाला काश कोई औघड़ कवि निकल’’ आता। उसकी आवाज दूर तक गूँजती। लोग उसे सुनने के लिए आतुर हो जाते। लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो रहा है। क्यों? इसलिए कि ‘‘आज हमारे पास खुलेआम साहस का अकाल है, हम अपने शरीर से चिपके क्षुद्र स्वार्थों को झटककर फेंक नहीं पा रहे हैं। भय समाया हुआ है कि साफ-साफ बोल देने से न जाने कितने यार-दोस्त, लेखक तिनक जाएँगे।’’ (पृ. 59)

    ‘आत्म-मुग्धता की विराट क्षुद्रता’ में भरत प्रसाद ने हिन्दी-साहित्य-संसार में रचना-संलग्न महत्त्वाकांक्षी कवियों-लेखकों, ‘विराट क्षुद्रता’ वालों को व्यंग्यात्मक ढंग से उजागर किया है। उदीयमान कवि-लेखक गिनीचुनी कुछ रचनाओं के आधार पर इतने आत्म-मुग्ध हो जाते हैं कि तत्काल अपनी कीर्ति के झंडे गाड़ना चाहते हैं। ऐसे पल्लवग्राही साहित्य-स्रष्टाओं की रचनाओं में उथलापन होता है। भरत प्रसाद वास्तविकता उजागर करते हुए लिखते हैं कि फिल्म के ‘प्रमोशन’ के समान अब कविता-संकलन, कहानी-संग्रह अथवा उपन्यास आदि का भव्य ‘प्रमोशन’ होता है। ‘‘यह स्थिति अपनी पुस्तक के लोकार्पण और प्रायोजित समीक्षा से भी दस कदम आगे है।…………. लेखन के इस दौर में अब सर्जक को विषय, घटना या चरित्र की विद्रूपताएँ (विरूपताएँ) या जटिलताएँ बेचैन नहीं करतीं ; ……………. भावुक होना, न होना अब प्रयास-साध्य कर्म हैं, हृदय की सहज प्रकृति नहीं। इसीलिए आज कविता में नई से नई भाषा, शैली एवं संरचना की बाढ़ आई हुई है।’’ (पृ. 72)

    सारांश यह है कि आज का सर्जक अधिकतर आत्म-मुग्ध है। वह निराला और मुक्तिबोध के सर्जना के प्रति आपाद-मस्तक समर्पित नहीं हैं। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी वरिष्ठ-कनिष्ठ सर्जक ऐसे नहीं हैं। कुछ सर्जक ऐसे भी हैं जो निराला को अपना आदर्श मानते हैं। विजेन्द्र और अष्टभुजा शुक्ल ऐसे ही कवि हंै। भरत जी ! समय का सूप ऐसे आत्म-मुग्ध सर्जकों को फटक कर कूड़ेदान में फेंक देगा। आचार्य शुक्ल और डॉ रामविलास शर्मा तथा उनके अनुयायी समालोचकों ने ऐसा ही किया है।

    इस आलेख में एक बात खटक रही है। वह यह है कि आत्म-मुग्ध सर्जकों के नामों का उललेख उनकी पुस्तकों सहित होना चाहिए था। इससे आलोचना और अधिक वस्तुनिष्ठ हो जाती।

    ‘नई सदी में कहानी का आहटें’ आलेख भरत प्रसाद के अध्ययन-चिन्तन और विश्लेषण का अच्छा प्रमाण है। उनकी मान्यता है कि इस सदी में ‘हिन्दी कहानी का यह विविध-विज्ञानी चरित्र सर्वाधिक उल्लेखनीय गुण बनकर उभरा है। ……… बेशक भाषागत विविधता और तथ्य के प्रकाशन की मौलिकता की दृष्टि से हिन्दी कहानी प्रेमचन्द, रेणु और कमलेश्वर से आगे बढ़ चुकी है।’’ (पृ. 61) अपनी स्थापना के समर्थन और उसकी व्याख्या के लिए चयनित कहानीकारेां – कमल, मेजर रतन जाँगिड़, रणीराम गढ़वाली, राकेश मिश्र, चन्दन पाण्डेय, टी. श्रीनिवास, सोमा बन्द्योपाध्याय की एक-एक कहानी की संक्षिप्त समीक्षा प्रस्तुत की गई है। तीन कसौटियों के साथ। और अन्त में अपना अभिमत इस प्रकार व्यक्त किया है – ‘‘समकालीन कहानीकार ने कहानी की (का) आकर्षक, स्वस्थ, टीप-टाप, रफ-टफ और भव्य शरीर तो खड़ी (खड़ा) कर दी (दिया) है, परन्तु वह प्राण-प्रतिष्ठा अभी शेष है, जिसके चलते शरीर शतायु बनता है।’’ (पृ. 70)

    हिन्दी कहानी  पर केन्द्रित  एक और  आलेख भी  संकलित  है । शीर्षक  है ‘कहानी प्राणधारा।’ लेखक ने सम्पूर्ण आलेख में ‘विषय की अभिनव साधना, व्यापक जीवन-संघर्ष की अर्थवान कल्पना, शब्द-दर-शब्द में दृष्टिमय संवेदना की कौंध, स्वाभाविक कथात्मकता में नाचती दार्शनिक चेतना, नए-नए प्रयोग के अर्थ और अनर्थ’ उपशीर्षकों कों के अन्तर्गत कहानी के रचनाविधान पर विचार किया है। लेखक स्वयं कहानीकार है। अतः उने रचना-विधान के लिए अनिवार्य निकष विवेचित किए हैं। उसके चिन्तन का सारांश यह है कि ‘‘संवेदना की अतिशयता कहानी की संजीवनी शक्ति है, जबकि शिल्प की अतिशयता कहानी के लिए जहर।’’ (पृ. 81) लेखक का निष्कर्ष समुचित है। आज भी प्रेमचन्द के समान बहिर्मुखी कहानियों की आवश्यकता है। निर्मल वर्मा की तरह अन्तर्मुखी कहानियों की नहीं। लम्बी कहानियाँ प्रायः उबाऊ होती हैं। श्रमशील लोक-जीवन से सम्बद्ध प्रभावपूर्ण कहानियाँ अनिवार्य हैं। व्यक्तिनिष्ठ कहानियाँ नहीं। भरत प्रसाद का उपर्युक्त निष्कर्ष ठीक है। प्रत्येक सर्जना पहले मानसिक होती है। वह अपना रचना विधान स्वयं निर्धारित करती है। इसका अच्छा उदाहरण प्रसिद्ध कहानी ‘उसने कहा था’ जिसका रचना-विधान उसकी अन्तर्वस्तु के अनुरूप है। उसका अन्य विकल्प असम्भव है। अतः जो युवा कहानीकार कहानी में भाषाई एवं शैल्पिक चमत्कार लाने का प्रयास करते हैं, उनकी कहानी फुलझड़ी के समान होती हैं ‘कहानी की प्राणधारा’ में लेखक ने श्रेष्ठ कहानी के लिए अनुकरणीय प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं।

    साहित्य-सर्जक को अपने देश-काल के साथ विभिन्न विषयों का सम्यक् ज्ञान भी होना चाहिए। वह अपनी सर्जन-प्रक्रिया में भूत, वर्तमान और भविष्य के काल-प्रवाह में संतरण करता रहता है। उसकी कृति वर्तमान के ज्वलंत यथार्थ का वर्णन-चित्रण करके सामाजिक बदलाव के लिए अग्रगामी सोच का विकल्प भी प्रस्तुत करती है। भरत प्रसाद ने ‘सृजन के अतिरिक्त’ में शामिल छः आलेखों में अपने समय और इतिहास की समीक्षा भी की है। सामाजिक चिन्ताओं का विश्लेषण करके विकल्प भी प्रस्तुत किए हैं। पहले आलेख ‘मृत्यु का दूसरा अर्थ’ में वह निर्भीक ढंग से अपना अभिमत व्यक्त करते हैं – ‘‘पराधीनता सुख को सीमित करती है, हक को सीमित करती है, मन को सीमित करती है और तन को भी सीमित कर देती है। वह अपने विषैले प्रभाव से गला-गलाकर मनुष्य को कंकाल रूप में चलाता-फिराता ढाँचा बना डालती है। इसीलिए अभय शब्दों में कहें तो पराधीनता जीते जी ‘मृत्यु का दूसरा अर्थ’ है।’’ (पृ. 95) ठीक बात है। ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।’

    निजीकरण के वर्तमान क्रूर दौर में लोक-कल्याण राज्य की अवधारणा तिरोहित हो गई है। भारत जैसे विराट राष्ट्र में शिक्षा सभी वर्गों के लिए सुगमता सुव्यवस्था का अभाव है। भ्रष्टाचार ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल दी है। अब मध्यम वर्ग अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़वाने में उज्जवल भविष्य देखते हैं। अब उच्च शिक्षा इतनी महंगी हो गई है कि निम्न वर्ग के लिए तो वह मात्र स्वप्न है। कैरियर-केन्द्रित शिक्षा में मानव-मूल्यों की उपेक्षा की जा रही है। भरत प्रसाद ने ‘शिक्षा का व्यवसाय’ में यही चिन्ता व्यक्त की है। और शिक्षा को अनिवार्य मानव-मूल्यों से जोड़ने पर विशेष बल दिया है। उनका कथन ठीक है ‘‘मानव मूल्यों को युगानुकूल, व्यावहारिक, तार्किक एवं वैज्ञानिक ही होना चाहिए।’’ (पृ. 99)
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    स्कूली पाठ्य-क्रम में निर्धारित प्रत्येक विषय का सम्बन्ध उदात्त मानव-मूल्यों से होता है। विज्ञान के विषय जीवन-जगत् के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि विकसित कर सकते हैं। लेकिन भारतीय समाज में ऐसी दृष्टि का प्रसार नहीं हो रहा हैं और शिक्षा का अँग्रेजी माध्यम वर्तमान पीढ़ी को अपनी भाषा और संस्कृति से दूर कर रहा है।

    उपर्युक्त आलेख के बाद ‘पृथ्वी का भारतवर्ष’ पढ़ना अनिवार्य है। लेखक ने यथार्थवादी एवं आलोचनात्मक दृष्टि से महान भारतवर्ष की वर्तमान क्षुद्रता का विश्लेषण निर्भीक भाषा में किया गया है। वर्तमान भारत की अनेक कमियों की ओर संकेत किया गया है। साम्प्रदायिक वैमनस्य से खिन्न होकर लेखक लिखा है कि ‘‘एक ही तरह से दिखने वाले दो शरीर कहते हैं- मैं हिन्दू हूँ तू मुसलमान। एक ही पृथ्वी के दो बाशिन्दे बोलते हैं कि हम दो प्रभुओं की सन्तानें हैं। वे पैदा होते हैं एक तरह से, पलते-बढ़ते हैं एक तरह से, हँसते और रोते भी एक तरह से, परन्तु कहते हैं एक नहीं हो सकते।’’ (पृ. 121)

    इसी प्रकार अन्य आलेखों – ‘जातिसूचक पहचान की राजनीति’, ‘दलित स्त्री के सच की खेाज’ और ‘भौतिक चेतना का अकाल’ में भरत प्रसाद ने सतर्क ढंग से सामाजिक जीवन की विसंगतियाँ उजागर की हैं। जातिसूचक पहचान के लिए शर्मा, वर्मा, सक्सेना आदि का प्रयोग ब्रिटिश शासकों ने अपने स्वार्थ के लिए शुरू करवाया। क्या कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीराबाई, रसखान नामों से जाति का पता लगाया जा सकता है ? उत्तर प्रदेश की राजनीति में ’यादव’ का वर्चस्व है, जबकि यदुवंशी श्रीकृष्ण के नाम के साथ ‘यादव’ जुड़ा ही नहीं है। वर्तमान समय में जातिसूचक शब्द समाज की एकता खण्ड-खण्ड कर रहे हैं। पाखण्ड बढ़ा रहे हैं। अन्तरजातीय विवाह अभी मान्य नहीं हुए हैं। स्वयं को बुद्धिजीवी और प्रगतिशील घोषित करने वाले भी अपनी ही बिरादरी के परिवार से सम्बन्ध जोड़ना श्रेयस्कर समझते हैं। लेखक ने यह भी संकेत किया है कि साहित्य-संसार में भी ‘सिंहों’, तिवारियों, ‘पांडेयों’ की भरमार है। संयोग से लेखक ने ‘आर्यों के आने’ (पृ. 103) की बात भी लिखी है। यह मुद्दा विवादास्पद है। डॉ. रामविलास शर्मा और भगवान सिंह इस मिथक का खण्डन कर चुके हैं। भारत में वर्ण व्यवस्था भी टूटी है। शूद्रक के प्रसिद्ध नाटक मृच्छकटिकम्’ का नायक चारूदत्त ब्राह्मण है, लेकिन व्यापारी है। भौतिकवादी वैश्विक दृष्टि से जाति वयवस्था का विषैला प्रभाव शनैः-शनैः कम किया जा सकता है। मेरे प्रमाण पत्रों में ‘अमीर चन्द पुत्र श्री रामलाल’ लिखा है। मिश्र जी ने मेरे नाम के आगे ‘वैश्य’ चिपका दिया। उसे आज भी चिपकाए हुए हूँ। बेमन से। कान्ति कुमार जैन के समान। डॉ. रामशरण शर्मा की पुस्तक ‘शूद्रों का इतिहास’ पढ़कर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय समाज में शूद्रों का स्थान ऊँचा भी रहा है। डॉ. शर्मा के अनुसार ‘‘ऋग्वेद की घोषणा है: न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः – देवता उसी के सखा बनते हैं जो परिश्रम करता है। ऋग्वेद में शारीरिक और मानसिक श्रम में विभाजन नहीं हुआ, यह उसकी बहुत बड़ी विशेषता है, जो संसार के किसी ग्रन्थ में नहीं है।’’ (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड – 1, भूमिका – पृ. 11, ले. डॉ. रामविलास शर्मा) हमारा वर्तमान और भविष्य भी ऐसा ही होना चाहिए। कलम और कुदाल का सम्मिलन। प्रत्येक बड़ा आदमी छोटे से छोटा काम स्वतः करे। तभी तो श्रम का सम्मान बढ़ेगा।

    देश-प्रेम का प्रारम्भ स्थानीयता के प्रति हार्दिक लगाव से होता है। भारतीय काव्य-परम्परा इसका प्रमाण है। अपनी जन्मभूमि और उसके आकर्षक प्राकृतिक परिवेश के प्रति कवि या लेखक का गहरा अनुराग होता।  ब्रजभूमि, ब्रजभाषा, ब्रजपति श्री कृष्ण के प्रति रसखान के गहरे अनुराग से सभी परिचित हैं। उत्तर प्रदेश के जनपद ‘सन्त कबीर नगर’ के अन्तर्गत हरपुर ग्राम में जन्में भरत प्रसाद सम्प्रति मेघालय राज्य के शिलांग में रहते हैं। अपनी जीविका के लिए। पूर्वोत्तर भारत को उन्होंने निकट से देखा-समझा है। इस पुस्तक के तीसरे भाग में ‘पूर्वोत्तर का भारत’ पर तीन आलेख संकलित हैं, जो लेखक के स्थानीय अनुराग की अभिव्यक्ति करते हैं। वहाँ के कठोर श्रमशील जन-जीवन की दिनचर्या का उनकी प्रतिकूलताओं का वहाँ के नारी प्रधान संस्कृति का, प्राकृतिक सौन्दर्य का, उच्च शिक्षा की व्यवस्था का, उग्रवाद और उसके कारणेां का यथातथ्य वर्णन किया है। एक वाक्य देखिए – ‘‘पूर्वोत्तर में मातृसत्ता का बोलबाला है, इसलिए पारिवारिक और सामाजिक रूप से युवाओं की अहमियत यहाँ दोयम दर्जे की बनकर रह गई है।’’ (पृ. 147)  यह संस्कृति उत्तर भारतीयों को चैंकाने वाली है। यहाँ तो पुत्र की कामना के लिए माननीय जन पत्नी की हत्या कर देते हैं। उसके पुत्रवती न होने के कारण। अथवा पुत्री को जन्मने ही नहीं देते । सारांश यह है कि भरत प्रसाद ने पूर्वोत्तर भारत की वस्तुनिष्ठ तस्वीर अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत की है।

    हम जानते हैं कि गद्य जीवन-संग्राम की भाषा है। कविता-कहानी में बहुत कुछ व्यंग्यार्थ के द्वारा सम्प्र्रेषित होता है। गद्य में तार्किक ढंग से अपने गम्भीर विचारों के विवेचन की पूरी स्वतंत्रता होती है। गद्य कवियों की कसौटी भी है। कवि और कहानीकार भरत प्रसाद ने वैचारिक आवेग एवं तर्कपूर्ण ढंग से साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर पठनीय गद्य लिखा है। आवेग के कारण समीक्ष्य पुस्तक के पहले भाग के आलेखों का वाक्य-विन्यास प्रायः लम्बा हो गया है। वाक्यों में अमर्ष और वयंग्य का समावेश स्वतः हो गया है। दूसरे-तीसरे भागों के आलेखों की भाषा लेखक की प्रशान्त मनेादशा की प्रमाण है। वाक्य-रचना में लघुता है। सूक्तियाँ हैं। सार्थक उद्धरण हैं। व्यंग्य और वक्रोक्तियाँ हैं। सहज अलंकृति है। आकर्षक बिम्बों का समावेश है। कुछ उद्धरण बानगी के रूप में उल्लेखनीय हैं –
1.     ‘‘जेनुइन कलाकार का मन सर्वाधिक समझौता विरोधी होता है।’’ (पृ. 6)
2.    ‘‘एक दलित स्त्री वह बर्फीली लाश है, जो दिखने में सही-सलामत तो है, लेकिन उसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है।’’ (पृ. 112)
3.    ‘‘मिट्टी एक, मिट्टी का रूप, गुण और स्वभाव एक, परन्तु उसके काम अनेक हैं।’’
(पृ. 123)
4.    ‘‘कमियाँ जानकर भी किसी से प्रेम करना, प्रेम का बड़ा ऊँचा आदर्श होता है।’’
(पृ. 112)
    भरत प्रसाद का गद्य़ न तो उबाऊ है और न रिझाऊ। उसमें साँच की आँच है। वह हिन्दी के नामवर आलोचकों को झुलसा सकती है। अज्ञेय की हकीकत आलोकित कर सकती है। आज की युवा पीढ़ी का मार्ग-दर्शन कर सकती है।

    भरत प्रसाद ने वाक्य-रचना में प्रचलित तद्भव-तत्सम शब्दों के साथ उर्दू-अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग ठीक ढंग से किया है। भाषा-मर्मज्ञ तुलसी द्वारा प्रयुक्त ‘दर’ शब्द का प्रयोग, ‘अधिक’ के अर्थ के लिए, कई बार किया है। यथा – दर सत्य, दर यथार्थ, दर हकीकत, दर सच्चाई। लेकिन शब्द प्रयोग में कहीं-कहीं असावधानी भी दिखाई पड़ती है। ‘व्यर्थ’ शब्द से लगभग सभी हिन्दी भाषी परिचित हैं। इस शब्द के स्थान पर ‘बेअर्थ’ का प्रयोग खटकता है। (पृ. 5) ‘हालात’ और ‘बागान’ स्वयं बहुवचन हैं। अतः ‘हालातों’ (पृ. 125) और ‘बागानों’ (पृ. 141) का प्रयोग समुचित नहीं है। हिन्दी गद्य में ‘विद्रूप’ एवं ‘विद्रूपता’ के प्रचलन पर औचित्य की मोहर लग गई है। त्रिलोचन शास्त्री समझाते थे कि ‘विद्रूप’ शब्द में ‘विद्’ धातु है। अतः ‘विद्रूप’ का अर्थ है ‘रूप का ज्ञान’। लेकिन ‘विद्रूप’ का प्रयोग ‘विरूपण’ के लिए किया जाता है। भरत प्रसाद ने भी ‘विद्रूप’ (पृ. 25) और ‘विद्रूपता’ (पृ. 24) का प्रयोग ‘विरूपण’ और ‘विरूपता’ के अर्थ-द्योतन के लिए किया है। हाँ, ‘विरूपण’ के समानार्थी शब्द ‘बदरूप’ (पृ. 25) ठीक किया है। ‘भाषायी’ (पृ. 68) रूप सदोष है। शुद्ध रूप है ‘भाषाई’। यह अशुद्ध रूप दो बार प्रयुक्त किया गया है।

    इसी प्रकार एक-दो शब्दों के मानक रूप विचारणीय हंै। ‘पिया’ और ‘किया’ रूपों के स्त्रीलिंग रूप ‘पी’ और ‘की’ प्रचलित हैं। पुल्लिंग में ‘य’ व्यंजन ध्वनि इतनी कमजोर है कि स्त्रीलिंग रूप में उसका उच्चारण होता ही नहीं है। इसी प्रकार ‘दिखाया’, ‘पढ़ाया’, ‘गिनाया’ जैसे रूपों के स्त्रीलिंग रूप ‘दिखाई’, ‘पढ़ाई’ ‘गिनाई’ हैं। समीक्ष्य पुस्तक में ऐसे मानक रूप प्रयुक्त नहीं किए गए हैं। यथा – ‘दिखायी दे रही है।’ (पृ. 451) ‘गिनती गिनायी जाये’ (पृ. 104) ‘आयेगा-, जायेगी’ जैसे शब्दों के मानक रूप ‘आएगा’ ‘जाएगी’ हैं। ऐसे रूपों के उच्चारण में ‘य’ ध्वनित ही नहीं होता है। ‘तभी तो पायेगा’ (पृ. 71) में ‘पायेगा’ का मानक रूप ‘पाएगा’ है। यहाँ, वहाँ, कहाँ, जहाँ, तहाँ रूप मानक हैं। ऐसे शब्दों में ‘चन्द्रबिन्दु’ के स्थान पर केवल बिन्दु का प्रयोग ठीक नहीं है। यदि केवल बिन्दु का प्रयोग किया जाता है, तो ‘हंसी’ और ‘हँसी’ में अथवा ‘घाटी’ और ‘घाँटी’ में अर्थ-भेद कैसे किया जाएगा ? ऐसे मानक रूपों का प्रयोग प्रत्येक पेज पर नहीं दिखाई देता है। पृ. सं. 11, 12, 15, 16, 19, 20, 21, 26, 27, 37, 39, 41, 45, 51, 58, 62, 63, 65, 72, 87, 88, 100, 131, पुनः ध्यानपूर्वक पढ़कर भूलें तलाशी जा सकती हैं।

    ‘इंटरनेशनल’ का हिन्दी पर्यायवाची ‘अन्तरराष्ट्रीय’ शब्द है। इसी प्रकार अन्य जातियों, प्रान्तों से सम्बन्धित रूप ‘अन्तरजातीय’, ‘अन्तरप्रान्तीय’ मानक हैं। पृ. सं 132 पर ‘अंतप्र्रांतीय’ रूप का प्रयोग किया गया है। पृ. सं. 13 पर ‘अन्तर्हृदय’ छपा है। यह शब्द ठीक नहीं है। ‘हृदय’ शरीर के अन्दर ही तो होता है। फिर ‘अन्तः’ का प्रयोग अनावश्यक है। बेफालतू’ में ‘बे’ ‘फालतू’ है। अतः ‘फालतू’ ही पर्याप्त है। पृ. सं. 75 पर ‘अधिकांश शीर्षस्थ विधाओं में’ ‘अधिकांश’ विशेषण पद के स्थान पर ‘अधिकतर’ अपेक्षित है। इसी प्रकार ‘अधिकांश युवा कहानीकारेां’ (पृ. 64) ‘अधिकतर’ विशेषण पद वांक्षनीय है।
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    एक वाक्य और विचारणीय है – ‘‘यह कहानी गाँव के उस दबंग और चालाक वर्गों का क्रूर चरित्र सामने लाती है, जिसकी सत्ता और ताकत की छाया में गाँव का आम आदमी तड़प रहा है।’’ (पृ. 64) इस वाक्य में एक वचन सर्वनाम ‘उस’ के बाद बहुवचन संज्ञा पद ‘वर्गों’ का प्रयोग सदोष है। अपेक्षित है ‘वर्ग’।

    प्रूफ रीडर ने कुछ और शब्दों की वर्तनी त्रुटिपूर्ण छोड़ी है। यथा – ‘रफ-टफ’ को ‘रफ-टप’ (पृ. 7) ‘वाङ्मय’ को ‘वाङ्गमय’ (पृ. 119), ‘प्रेमचन्द की नीयत’ को ‘प्रेमचन्द की नियत’ (पृ. 37) ‘स्रष्टा’ को ‘सृष्टा’ (पृ. 85) ठीक समझा है। यह उसकी नासमझी है। ‘फलों की कीमत को लेकर’ और ‘एक रुपये तक पर’ सार्थक मालूम होता है। ‘वेगवान सरिता’ (पृ. 43) की तुलना में ‘वेगवती सरिता’ उचित लगता है। ‘कोटा’ को ‘कोड’ (पृ. 47) छापना प्र्रूफ रीडर की भूल है।

    लेखक और प्रकाशक दोनेां का दायित्व है कि पुस्तक निर्दोष रूप में प्रकाशित की जाए। मानक वर्तनी की कमी से अच्छी पुस्तक भी पाठक को अरूचिकर लग सकती है। मानक रूप भाषा का गौरव बढ़ाते हैं।

    भरत प्रसाद तेजस्वी युवा लेखक और कवि हैं। उन्हें इस सदी के साहित्य-संसार में लम्बी पारी खेलनी है। उनसे आशा है कि वह निर्मम दृष्टि से इस सदी के पहले दशक के वरिष्ठ और युवा कवियों-लेखकों और आलोचकों की उत्कृष्ट रचनाओं का चयन करके उनका मूल्यांकन भी करेंगे।

    ‘सृजन की 21 वीं सदी’ में सभी आलेख पठनीय और विचारणीय हैं। विचारोत्तेजक भी। आलेखों में साहित्यिक चिन्तन और सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक चिन्ताएँ वैश्वानरी हैं। आशा ही नहीं अपितु विश्वास है कि इस पुस्तक का स्वागत हिन्दी संसार अवश्य करेगा।

समीक्षित पुस्तक    –  सृजन की 21 वीं सदी
प्रकाशक        –   नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली
प्रथम संस्करण    –   2013
मूल्य           –     300 रु.
पृष्ठ            –     155

संपर्क
द्वारा – कम्प्यूटर क्लीनिक

चूना मंडी, बदायूं – 243601 (उत्तर प्रदेश)
मो. 8533968269

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

अमीर चन्द वैश्य

आज बीस अगस्त को कवि त्रिलोचन का जन्म दिन है। त्रिलोचन जी ने हिन्दी में सॉनेट लिखने की परम्परा की शुरुआत की। त्रिलोचन के इस सॉनेट विधा पर वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द जी ने एक आलेख लिखा है जो पहली बार के पाठकों के लिए त्रिलोचन के जन्मदिन पर विशेष रूप से प्रस्तुत है

   
त्रिलोचन के कपोत-कपोती
                                      –       
‘हिन्दी की प्रगतिशील कविता की बृहत् त्रयी’ केदारनाथ अग्रवाल- नागार्जुन-त्रिलोचन से सभी हिन्दी काव्य-प्रेमी परिचित हैं। लेकिन आज भी बहुत से हिन्दी अध्यापक और नई पीढ़ी के कवि त्रिलोचन के साहित्यिक योगदान से शायद पूर्णतया सुपरिचित नहीं होंगे।

        यदि त्रिलोचन शास्त्री (20 अगस्त, 1917- 09 दिसम्बर 2007) आज हमारे बीच होते तो वह अपने जीवन के सक्रिय 96 साल पूरे कर लिए होते। उनका सबसे महान योगदान यह है कि उन्होंने स्वयं भारतीय काव्य-परम्परा से जोड़ कर स्वदेशी आधुनिकता का वरण किया। उन्होंने अँग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध काव्य-रूप सॉनेट को अपना कर उसे स्वदेशी अन्तर्वस्तु और जनपदीयता की गंध से युक्त सहज बोधगम्य भाषा का कलात्मक प्रयोग किया है। लेकिन हिन्दी के नासमझ आलोचकों ने उनकी उपेक्षा की। इसीलिए उन्हें खीझ कर कहना पड़ा-
  
प्रगतिशील कवियों की लिस्ट निकली है
त्रिलोचन का उसमें नाम नहीं है।

इसका कारण? यह है कि त्रिलोचन ने प्रगतिशील आन्दोलन के दौर में राजनैतिक कविताएँ लगभग नहीं लिखीं। अपनी कविताओं में संघर्षशील लोक के जीवन और प्राकृतिक परिवेश का वर्णन-चित्रण करके हिन्दी की ‘नई कविता’ के उबाऊपन से हिन्दी कविता को बचाया और अपनी लोकधर्मिता से प्रगतिशील कविता को सम्पन्न किया। सन् 1970 के मध्य तक मैं भी त्रिलोचन के काव्य से अपरिचित था।

        आधुनिक हिन्दी-काव्य को निराला के बाद त्रिलोचन ने भी सॉनेट काव्य से उसे श्री-सम्पन्न किया है। जिस प्रकार मुक्तिबोध ने ‘लम्बी कविता’ का काव्य-रूप अपना कर अपने संघर्षशील व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की, उसी प्रकार उनके मित्र त्रिलोचन ने ‘सॉनेट’ काव्य-रूप को भारतीयता के रंग में रँग दिया है। विपुल सॉनेट-स्रष्टा त्रिलोचन के एक उत्कृष्ट सॉनेट की व्याख्या के माध्यम से उन्हें याद कर रहा हूँ।

        अपने जनपद एवं लगभग सम्पूर्ण भारत को अपने चरणों से नापने वाले त्रिलोचन ने जितना ध्यान कर्मशील एवं संघर्षशील जन पर केन्द्रित करके उसे कविता का रूप प्रदान किया है, उतना ही पशु-पक्षियों एवं प्रकृति के विपुल परिदृश्यों को भी। वह ‘जन’ के साथ-साथ वनस्पतियों, पेड-पौधों, पशुओं, पक्षियों, संध्या, प्रातः, वर्षाकालीन बादलों के विभिन्न रूप आदि को अवधानपूर्वक देखते थे। निरीक्षण-परीक्षण-पर्यवेक्षण करते थे। इस सन्दर्भ में उनके ‘शब्द’ संकलन का एक सॉनेट (सं0 113) विचारणीय है, जो अधोलिखित है-

                दोपहरी  है,  कूज  रहे  हैं  उधर  कपोती
                और कपोत अधीर, चोंच  से  चोंच मिलाते,
                चुग्गा  लेकर  सानुरोध   चुपचाप  खिलाते
                एक  दूसरे  को, न  कभी थकान कुछ होती
                है  उनको, उपहार-वृत्ति   प्राणों  में बोती
                है जीवन  के  बीज,  सटाते  पंख  हिलाते
                बढ़ते हैं  इस  ओर और उस  ओर,  जिलाते
                हैं  जगती  के स्वप्न स्वप्न हैं मन  के  मोती,

                ग्रीवा  प्रायः  मोड़  मोड़ कर मिला मिला कर
                हिलते डुलते और  काल  की  मौन चाल को
                देख देख कर भाव भरे  हैं, इन  को  चिन्ता
                कभी किसी की रंच भर नहीं, यहाँ जिला कर
                जी कर जीवन बिता रहे हैं,  किसी डाल को
                अपना लिया, हुलास कहीं है घडि़याँ गिनता।

        यह सॉनेट पढ़ने के बाद बिहारी का प्रसिद्ध अधोलिखित दोहा याद आ रहा है-

            पट पाँखैं, भखु काँकरै; सपर परेई संग।
            सुखी, परेवा, पुहुमि मैं एकै तुही बिहंग।।         (बि0र0पृ0 256)


        इस दोहे में ‘परेई’ और ‘परेवा’ के सुखी जीवन का कथन किया गया है। दोनों के संतोष और साथ-साथ रहने का भी। लेकिन उनके क्रियाशील जीवन का यहाँ अभाव है। छन्द की सीमा में जितना समाया, उतना ही व्यक्त कर दिया गया है। लेकिन त्रिलोचन के सामने 14 पंक्तियों वाला सॉनेट रूप हे। मिल्टनी पैटर्न का सॉनेट। इसमें अष्टपदी स्वतः पूर्ण है। और षट्पदी भी अर्थ की दृष्टि से परिपूर्ण है। सॉनेट के उक्त दोनों अंश सम्मिलित रूप से कपोत-कपोती के प्रेमपूर्ण क्रियाशील जीवन के अनेक रूप प्रत्यक्ष कर रहे हैं। अष्टपदी में छह और षट्पदी में चार वाक्य हैं; जो लघु और दीर्घ दोनों प्रकार के हैं। पाठक को प्रत्येक वाक्य-रचना पर रूक कर एवं अर्थ समझते हुए सम्पूर्ण रचना का पाठ करना चाहिए। तभी काव्यत्व से साक्षात्कार होगा।

        पहला वाक्य है: ‘दोपहरी है।’ दो पदों का छोटा वाक्य, जो भीषण ग्रीष्म ऋतु की ओर संकेत कर रही है। बिहारी ने ग्रीष्म का वर्णन करते हुए लिखा है-

देखि दुपहरी जेठ की, छाँहौं चहति छाँह।’’ (वही पृ0 28)

        जेठ मास की ऐसी झुलसाने वाली गरमी में प्रत्येक प्राणी पेड़ की छाया तलाशता है। ए0सी0 वाले भवनों की बात भूल जाइए। महाकवि निराला ने भट्टी के समान तपती दोपहरी का मर्मस्पर्शी वर्णन किया है-

‘‘वह तोड़ती पत्थर।
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर।’’ 

‘‘कोई न छायादार
पेड़, वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार।’’

 x     x     x     x     x

‘‘चढ़ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगीं छा गईं
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर।’’ (नि0र0ख0 1 पृ0 323, 324)

        तो, आपको बता रहा हूँ कि सॉनेट का पहला लघु वाक्य लिखते समय त्रिलोचन के ध्यान में निराला का उपर्युक्त वर्णन अवश्य रहा होगा। उन्होंने अपने एक वाक्य से ही भीषण ग्रीष्म ऋतु की ओर संकेत किया है। लेकिन ऐसे गरम मौसम में भी अधीर कपोत और कपोती, प्रेम के वशीभूत होकर, चोंच से चोंच मिला रहे हैं। बिना छके अनुरोधपूर्वक परस्पर चुग्गा खिला रहे हैं।

        और उपरोक्त क्रियाओं के बाद, जीवन-अनुभवों से प्रसूत सुक्ति वाक्य-

‘उपहार वृत्ति प्राणों में बोती
है जीवन के बीज।’ 

आशय यह है कि प्रेम से पूरित उपहार देने की प्रवृत्ति प्रेमास्वद की प्राण-शक्ति बढ़ाती है। वह ऐसा सम्बन्ध रूपी ‘बीज’ बोती है, जो जीवन पाकर पल्लवित-पुष्पित होता है। प्रेम से जीवन भाव-सम्पन्न होता है। सार्थक भी।

        अष्टपदी का छठा वाक्य किंचित् लम्बा है, जो कपोत-कपोती की कई क्रियाओं की ओर संकेत कर रहा है। देखा गया है कि कबूतर का जोड़ा क्रीड़ा करता रहता है। दोनों अपनी क्रियाशीलता जगत् के जनों को आशान्वित करके उन्हें मांगलिक सपने दिखाते हैं। आखिरकार स्वप्न ही तो जीने के लिए प्रेरित करता है। अतएव त्रिलोचन एक और सूक्ति प्रस्तुत करते हैं- ‘स्वप्न हैं मन के मोती।’ रूपक के रूप में। बेहतर दुनिया का सपना व्यष्टि और समष्टि मानव के मन की सीपी का अमूल्य मोती है। मुक्तिबोध कहते हैं-

‘‘जो कुछ है, उससे बेहतर चाहिए
सारी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।’’ 

सम्पूर्ण दुनिया में जो आर्थिक विषमता की गन्दगी है, उसे साफ करने के लिए मेहतर अर्थात् महत्तर श्रमिकों के संगठन की आवश्यकता। तभी तो दुनिया बेहतर बनेगी। सुषमा से युक्त। समानता-स्वतंत्रता-बंधुता से अन्वित। वर्तमान दुनिया तो आवारा पूँजी का खेला खेल रही हे। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण ने असंख्य किसानों को आत्महत्या के लिए विवश कर दिया। अतः समतामूलक समाज का मोती अपनी चमक न खोए। व्यक्ति-मन की सीपी में यह मोती सुरक्षित रहे। तुलसी ने भी तो रामराज्य का सपना देखा था। यह दूसरी बात हे कि उनके सपने की वर्ण-व्यवस्था अब अप्रासंगिक हो गई है। शीलहीन ब्राह्मण अब ‘पूज्य’ नहीं मना जाता है। यदि वह अपराध करता है, तो उसे भी दण्डित किया जाता है।

        आज के कवि का स्वप्न दूसरा है और वह है समतामूलक लोकतान्त्रिक व्यवस्था। इसी की स्थापना के लिए वैश्विक लोक-शक्ति प्रयास कर रही है।

        त्रिलोचन के योग्य शिष्य और आज के वरिष्ठ कवि विजेन्द्र भविष्णु स्वप्न इस प्रकार देखते हैं-

‘‘इसी अँधेरे में उगेंगे
पंखधारी प्रकाश कण
जो दिखाएँगे मुझे मेरा जीवन-पथ।
देंगे प्रकाश वे ही मुझे
जो आए हैं चीरकर
अँधेरे को मर्म को।
भले ही भ्रमित करता रहे
दिव्य आलोक वलय आकाश में
लेकिन जब तक
नहीं देखूँगा
उगते बीजों को
धरती की कोख से
कैसे चीन्ह पाऊँगा
तुम्हें प्रकाश में।’’ (‘आशा’ शीर्षक कविता, नया पथ,)

        उपर्युक्त सॉनेट में अष्टपदी में ‘जीवन का बीज’ पद बंध आया है। विजेन्द्र भी किसान कवि के समान ‘उगते बीजों को’ ‘धरती की कोख’ से देखने की बात कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उगते बीजों के समान ही समाज में अभिनव जीवन-मूल्य अस्तित्व में आएँ।

        सॉनेट की षट्पदी में चार पूर्ण वाक्य है। अरुद्वान्त गति से आगे बढ़ते हैं। पंक्ति के मध्य में समाप्त होते हैं। षट्पदी में कबूतरों के जोड़े की अनेक स्वाभाविक क्रीड़ाएँ बिम्बात्मक रूप में प्रत्यक्ष हैं। दोनों संतोषी स्वभाव वाले हैं। तभी तो ‘‘काल की मौन चाल को देख देख कर भाव भरे हैं।’’ आशय यह है कि वर्तमान का वक्र काल उनके लिए मौन है। उनके मन प्रेम-भाव से भरे हुए हैं। समय की वक्रता उनके लिए मुखर नहीं है। इसीलिए वे निश्चिन्त हैं; जबकि संसार का हर आदमी चिन्तित परेशान है। बेचैन है। निराश है। तनाव से ग्रस्त है। लेकिन कपोत-कपोती स्वयं तो सहर्ष जी रहे हैं और दूसरों को भी मृत होने से बचा रहे हैं। लोग बड़े-बड़े भवनों में रहते हैं। लेकिन कपोत-कपोती तो आश्रम के लिए किसी भी पेड़ की डाल का आश्रय लेकर विश्राम करने लगते हैं। उनके उल्लास की घडि़याँ क्रीड़ा करते हुए बीत जाती है। सॉनेट के अन्त में सूक्ति की आवृत्ति पुनः हुई है-

‘‘हुलास कहीं है घडि़याँ गिनता।’’

        इस सम्पूर्ण सॉनेट की भाषिक संरचना समास-रहित है। एक समस्त पद ‘उपहार-वृत्ति’ आया है। जहाँ समास सम्भव है, वहाँ उसका प्रयोग नहीं किया गया है। यथा- ‘मोड़ मोड़ कर’; ‘मिला मिला कर’, ‘हिलते डुलते’, ‘देख देख कर भाव भरे हैं।’ ध्यान रहे कि मंथर गति से पाठ करते हुए सम्पूर्ण वर्णन का चित्र प्रत्यक्ष होगा और अर्थ की व्यंजना समझ में आएगी।

        सवाल खड़ा होता है कि आपाधापी वाले अंध समाज में क्या दम्पत्ति कपोत-कपोती के समान जीवन बिता पाएँगे। जिनमें 36 का आँकड़ा है, वे 63 कैसे हो सकते हैं। इस सवाल का दूसरा जवाब यह है कि यदि पति त्रिलोचन हों और उनकी पत्नी श्रीमती जयमूर्ति देवी हों तो 63 का आँकड़ा 36 कभी नहीं होगा। ‘

        इसी सॉनेट के सन्दर्भ में विष्णु चन्द्र शर्मा ने मुझसे कहा- ‘‘पूछिए वे कपोत-कपोती आपने कहाँ देखे थे।’’
        प्रत्युत्पन्नमति त्रिलोचन ने मुस्कराते हुए कहा था- ‘‘बनारस में देखे थे; एक तो शर्मा को (अर्थात् विष्णु चन्द्र शर्मा) और दूसरे शर्माणी को (अर्थात् विचंश की पत्नी श्रीमती पुष्पा शर्मा।’’) (त्रिलोचन की याद, पृ0 32)

        ऐसे दम्पत्ति और भी हो सकते हैं। नागार्जुन और उनकी पत्नी श्रीमती अपराजिता देवी। केदार नाथ अग्रवाल और श्रीमती पार्वती देवी। राम विलास शर्मा और उनकी मालकिन। विजेन्द्र और श्रीमती ऊषा रानी। यह सॉनेट दिलफेक राजेन्द्र यादव जैसे नामवर लेखक पर व्यंग्य भी हैं।

        इस रचना में प्रस्तुत वर्णन द्वारा अप्रस्तुत की प्रतीति करवाई गई है। अतः समासोक्ति अलंकार स्वतः आ गया है। कपोत-कपोती का वर्णन प्रत्यक्षवत् किया गया हे। अतएव यहाँ ‘भाविक’ भी है।

        सादगी-भरा कपोत-कपोती का प्रेम एवं संतोष से परिपूर्ण जीवन तभी सम्भव होगा, जब समाज-व्यवस्था बदले। अतः हम मनोकामना कर सकते हैं-

‘‘मानव के तन केतन लहरे
विजय तुम्हारी नभ में लहरे।
छल के बल-सम्बल सब हारें
तुम पर जन तन-मन-धन वारें
असुरों को जी जीकर पारें
अंधकार का मानस घहरे।’’ (नि0र0ख0 2. 423)

        सॉनेट में तुक-विधान अर्थ के अनुरूप है। अष्टपदी में पंक्तियों का तुक-विधान इस प्रकार है- ।

ABBA,  ABBA और CDE, CDE  षट्पदी का है-
        कपोती-होती, मिलाते-खिलाते, बोती-मोती, हिलाते-जिलाते; मिलाकर – जिलाकर, चाल को – डाल को,  चिन्ता – गिनता तुकान्त पद वाक्य-विन्यास में स्वयं आए हैं। यही इनका सौन्दर्य है, जो अकृत्रिम है। और इस सौन्दर्य का आधार है त्रिलोचन का सावधान पर्यवेक्षण। यह साॅनेट निरायास शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है। और काव्यानुशासन भी।

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(अमीर चन्द वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)

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