सुभाष चन्द्र कुशवाहा की पुस्तक ‘चौरी चौरा’ पर हितेन्द्र पटेल की समीक्षा


भारतीय इतिहास में चौरी चौरा की घटना एक ऐतिहासिक प्रस्थान बिन्दु की तरह है। इसी घटना के बाद गाँधी जी अपना पहला महत्वपूर्ण आन्दोलन जिसे हम ‘असहयोग आन्दोलन’ के नाम से भी जानते हैं, स्थगित कर दिया था। गाँधी जी के इस निर्णय की देश भर में कटु आलोचना हुई और देश में क्रांतिकारी आन्दोलन अपने महत्वपूर्ण दौर में पहुँच गया। चौरी-चौरा की घटना को ले कर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है। अरसा पहले शाहिद अमीन ने इस घटना को केन्द्र में रख कर एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी। अब इसी घटना को सुभाष कुशवाहा ने अलग परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश में चौरी चौरा नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक की समीक्षा की है इतिहासकार हितेन्द्र पटेल ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा। 
              
चौरी चौरा की घटना : इतिहास और लोकप्रिय इतिहास (संदर्भ :सुभाष चन्द्र कुशवाहा की पुस्तक)

हितेन्द्र पटेल
लगभग बीस साल पहले शाहिद अमीन ने चौरी चौरा की घटना और उसके बीत जाने के बाद के समय में स्मृति के रूप में रहने को केंद्र में रख कर एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होने एक महत्त्वपूर्ण सवाल रखा था कि इतिहास लिखने के पहले इतिहासकार को और कितना संवाद करने की ज़रूरत है। जन के बीच एक याद के रूप में किसी घटना को पीछे मुड़ कर जब देखा जाता है तो उससे प्राप्त सामग्री के आधार पर इतिहास लेखन की क्या सीमा और संभावना होती है जिस पर अमीन ने गहराई से विचार किया था। यह एक दिलचस्प पुस्तक है और इसने लोकप्रिय इतिहास लेखन के बारे में कुछ सूत्र दिए हैं। इस पुस्तक के लेखक ने शाहिद अमीन की पुस्तक से प्रेरणा ली है और उन्होंने इस भुला दी गई घटना को अपने नजरिए से देखा है। इस क्रम में यह इतिहासकार की सीमाओं से आगे जा कर इस ऐतिहासिक महत्त्व की घटना का पुनर्मूल्यांकन किया है।
हम इतिहास की एक घटना को किस तरह याद करना चाहते हैं? इस पुस्तक के लेखक ने कैसे उस घटना को पहले देखे गए से अलग किया है। यही पाठक के लिए इस किताब के बारे में सबसे पहले दिलचस्पी का कारण है। 
 
औपनिवेशिक कालीन भारत के इतिहास-लेखन को लेकर कम से कम सात तरह की दृष्टियों  से किसी भी महत्त्वपूर्ण घटना का विवेचन संभव है- औपनिवेशिक, उदार राष्ट्रवादी (कांग्रेसी), स्थानीय, जातिवादी,क्रांतिकारी, वर्ग-संघर्ष दृष्टि,सांप्रदायिक और दलित। ये दृष्टियाँ एक ही घटना को अपने अपने तरह से विवेचित करती हैं और अपने अपने तरीके से इतिहास दृष्टि तैयार करने की कोशिशों में लगी रहती हैं। 1857 से लेकर स्वाधीनता और विभाजन तक इस बात को देखा जा सकता है। आधुनिक भारतीय इतिहास लेखन में 4 फरवरी 1922 को हजारों पिछड़े, दलित और मुसलमान किसानों ने गोरखपुर के चौरी–चौरा के पुलिस थाने पर जो आक्रमण किया और 23 पुलिसकर्मी और चौकीदारों को पथराव और मारपीट कर जला दिया उसको लेकर भी इतिहासकारों में विवाद है। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि जिस भीड़ ने इस हिंसक घटना को अंजाम दिया उसमें गांधी की जय बोलने वाले वे स्वयंसेवक थे जो दारोगा के क्रूरतापूर्ण आचरण से क्रुद्ध होकर थाने पर आक्रमण कर बैठे। इस घटना का महत्त्व इस बात से भी है कि इसके बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन रोक दिया। 
गांधी की निगाह में यह घटना भयानक अपराध से कम नहीं था। खुद गांधी ने दोषियों को पकड़ कर कानून के हवाले करने को कहा था। औपनिवेशिक शासन के समर्थकों के लिए यह जघन्य अपराध गांधी की भड़काऊ राजनीति का विष-फल था। 
दो बड़े प्रश्न हैं –प्रथम, इन किसानों ने ऐसा क्यों किया? दूसरा,अंग्रेज़ विरोधी आंदोलन के दौर में आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से वंचित गरीब किसानों के प्रति तत्कालीन राष्ट्रवादी लोगों में सहानुभूति का इतना अभाव क्यों रहा? कांग्रेस समेत सभी दलों के नेता इस तरह की हिंसा को  इतना खतरनाक क्यों मानते थे?
किसी भी बड़े राजनैतिक आंदोलन में हिंसा का स्थान होना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है। फ्रांस की क्रांति में बास्तील के दुर्ग का पतन का अगर इतना महत्त्व है तो चौरी–चौरा की घटना को याद करने में इतना संकोच क्यों?
इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए इतिहासकार के रूप में एक क्रांतिकारी वामपंथी दृष्टि से विचार करते हुए सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने इसे 1857 के विद्रोह की परंपरा से जोड़ कर देखा है और लोक स्मृति और इतिहास लेखन के बीच संवाद स्थापित करने की कोशिश की है। यह एक प्रभावशाली हस्तक्षेप है। लेखक ने शाहिद अमीन से आगे जा कर तथ्यों को जुटाया है और उस घटना को स्थानीय स्रोतों के आधार पर एक औपन्यासिक कलेवर दे दिया है, इसमें संदेह नहीं। पर, इस तरह के लोकप्रिय इतिहास और इतिहास के बीच एक फर्क है जिसे भुलाना ठीक नहीं होगा।
देरिदा ने एक बार प्रेम पर विचार करते हुए कहा था कि प्रेम दो तरह का होता है: एक, जिसे प्रेम किया जाता है और दूसरा जिसके लिए प्रेम किया जाता है। यानि, एक में प्रेम के पहले कुछ चीजें निर्धारित होती हैं जिससे प्रेम होता है और जिस व्यक्ति में ये गुण होते हैं उसे उन गुणों के लिए प्रेम किया जाता है। जब ये गुण नहीं रहते प्रेम नहीं रहता। पूर्व निर्धारित इस “प्रश्न के पहले आने वाले प्रश्न” को इतिहास की घटना को देखने के संदर्भ में भी रखा जा सकता है। गांधी के साथ जन का रिश्ता और मध्यवर्ग के रिश्ते में बुनियादी फर्क यह है कि जनता गांधी के किसी गुण के लिए नहीं उन्हें मानती थी जबकि मध्य वर्ग का उनसे रिश्ता उनके उन गुणों के लिए था जिसके कारण वे राष्ट्रपिता” थे। चौरी-चौरा घटना और उसके बाद के इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी को मानने वाली जनता के बीच उनका मान था लेकिन वे अपने स्वभाव को किसी स्थानीय नेतृत्व के अभाव में छोड नहीं सकते थे। शाहिद अमीन और सुभाष चन्द्र कुशवाहा दोनों को इस प्रश्न का उत्तर देना चाहिए कि इस तरह से गांधी के रवैये के बावजूद जनता ने उनको मानना क्यों नहीं छोडा?
अमीन की थीसिस अधूरी है। एक इतिहासकार के लिए इसका उत्तर देना बहुत ही मुश्किल है। कुशवाहा के पास एक थीसिस है जो उनके इतिहास लेखन को निर्देशित करती है। उन्होने ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का प्रयोग किया है लेकिन उनके निष्कर्ष की पुष्टि के लिए ही। कुशवाहा लिखते हैं- “जनता के संघर्षों को जब हाशिए पर रखने की राजनीति की जाती है तब लोक, श्रमशील समाज का इतिहास अपनी परंपरा (यह ध्यानकर्षण मूल में नहीं) में लिखता और व्यक्त करता है।”
यह सही है कि चौरी चौरा की घटना के बारे में जितनी सूचनाएँ इस पुस्तक में हैं उतनी एक साथ पहले कभी नहीं थी, लेकिन इन तथ्यों को लोकप्रिय इतिहास लेखन के लिए इस्तेमाल किया गया है। इस लोकप्रिय इतिहास में रेल की पटरी से “कंकड़’’ (पत्थर नहीं) उठा कर दलित–मुसलमान गरीब किसानों ने विद्रोह किया। जमींदारों के ज़ुल्म से आक्रांत, मुक्ति की चाह में अंदर अंदर धधक रहे अंचल के किसानों में अंदर की चिंगारी फूट पड़ी और 4 फरवरी, 1922 का किसान विद्रोह” मुक्ति का चाह का प्रतिफल था। लेखक का मत है कि प्रथम विश्वयुद्ध काल में कांग्रेस ने साम्राज्यवाद की मदद की, 1917 के बाद सारी दुनिया में एक क्रांतिकारी लहर शुरू हुई, वर्ष 1918 से लेकर 1922 तक का काल किसान विद्रोहों का रहा, जिसकी उत्पत्ति का कांग्रेसी आंदोलनों से कोई संबंध नहीं था (नेहरू इन आंदोलनों की सघनता को देखते हुए इसे अपने आंदोलन में समाहित करने की नीति पर काम कर रहे थे)…। गांधी इस किताब में एक “डिक्टेटर” के रूप में हैं जो “जानते थे कि भूखों की आक्रामकता रोकने के लिए धर्म के कवच की आवश्यकता होगी। इसलिए वह सत्य और अहिंसा की बात करते थे।” 
लेखक ने (किसान) विद्रोह की महागाथा के रूप में चौरी-चौरा की घटना का, इस विद्रोह के अगुवाओं का जो वर्णन किया है, वह बहुत मेहनत से किया गया है। कई सूचनाएँ सही की गई हैं (जिनमें शाहिद अमीन के भी मत को ठीक करना शामिल है)। कई सूचनाएँ ऐसी दी गई हैं जिसके आधार पर इस घटना का जोड़ विश्वयुद्ध के दौरान भारतीयों के सैन्य-बल में शामिल होने से भी बनता है। यह खासा दिलचस्प है कि इस घटना का एक अगुवा भगवान अहीर प्रथम विश्वयुद्ध में लेबर कॉर्प्स में थे और सरकारी खजाने से पेंशन पा रहे थे और दूसरी ओर स्वयंसेवक का काम भी कर रहे थे। दारोगा ने उनकी पिटाई की जो उसके खिलाफ मुहिम का प्रधान कारण बना तो वो इसी बात को मुद्दा बना रहा था कि सरकार से पैसा लेने के बाद भी वह सरकार विरोधी काम कैसे कर रहा है। चौबीस वर्षीय इस युवक की कहानी को ही अगर लें तो इतिहास और साहित्य की दूरी मिटने लगती है। इस युवक की उम्र 16-17 की रही होगी जब यह मेसोपोटामिया में दो साल रहा होगा। उसे खाकी वर्दी से लगाव भी था क्योंकि जब स्वयंसेवक गेरुआ या अन्य रंगों के वस्त्र पहनते थे वह हमेशा खाकी वर्दी में रहता था। इस संभवतः कुंआरे” युवक ने बाहर से आकार गुमटी में एक दुकान खोली थी और वह स्वयंसेवक का काम कर रहा था। इस युवक के बारे में सोचते हुए इतिहास के बारे में सोचते हुए साहित्य की संभावना भी बनती है जैसे कि तरूण खुदीराम बोस के बारे में कहा जा सकता है। 
ऐसे कई प्रसंग आए हैं जिसे पढ़ते हुए मन भींग जाता है। जिस आज़ादी की लड़ाई के इतिहास से हम इतिहास की पुस्तकों द्वारा परिचित होते हैं वह बीते हुए समय की कितनी अपर्याप्त कहानी कहता है! शांताराम की एक फिल्म का वह मशहूर गीत याद आता है – ये माटी सभी की कहानी कहेगी… । माटी की कहानी कहने के लिए इतिहास को साहित्य के पास और लोक स्मृति के पास जाना ही होगा इस बात को स्वीकार करना ही पड़ता है।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
लेखक ने जिस क्रांतिकारी वामपंथी दृष्टि से इस घटना की कहानी लिखी है उसमें उनके साहित्यिक विवेकजन्य करूणा ने एक दो स्थलों पर बहुत प्रभाव पैदा किया है। मारे गए दारोगा की पत्नी राजमनी कुंवर, उम्र 27 बरस की पीड़ा को भी वे इस किताब में स्थान देते हैं। लिखते हैं- “राजमनी तब गर्भवती थी… चौरी चौरा विद्रोह के तुरंत बाद ही उसने उस दुखद घटना की पृष्ठभूमि में अपने बेटे को जन्म दिया होगा।” 
एक अन्य नेता लाल मुहम्मद की कहानी भी बहुत मार्मिक ढंग से कही गई है। उसके पड़ोसी कैसे उसके पकड़े जाने के बाद उसकी बीवी फूलमति को भगा देते हैं ताकि उसके घर पर कब्जा हो जाए! वो भी तब जब गिरफ्तारी के अगले दिन ही उसके बीमार बेटे का इंतकाल हो गया हो!! अन्य विद्रोहियों के घर वालों पर जो बीती उसकी कहानी भी कम करूण नहीं है। इन प्रसंगों पर सोचते हुए भारतीय विद्रोहियों के परिवारों के प्रति उनके अपने समाज के बारे में भी निर्ममता से सोचना चाहिए। शहीद की याद में जयकारा लगाते हुए, उनकी तस्वीर पर फूल माला पहनाने के लिए उत्साह दिखलाने वाले इस समाज में उनके प्रियजनों के प्रति अजीब किस्म की बेरूखी देखी गई है। जिस अंग्रेजी सरकार से लड़ते हुए ये विद्रोही प्राणोत्सर्ग करते हैं, उसी पर उस शहीद के परिवार की ज़िम्मेदारी मानी जाती है। लक्ष्मी बाई के उस पुत्र का क्या हुआ जिसे पीठ में बांध कर वह वीर लड़ी थी इसकी खबर कितनों को है? लोक स्मृति के प्रति एक रूमानी दृष्टि भी रखना युक्तिसंगत नहीं। 
कुशवाहा ने तथ्यों को लोकप्रिय इतिहास लेखन में पूरी निष्ठा से उपयोग किया है और कुछ ऐसे सवाल पाठकों के मन में फिर से जगा दिए हैं जिसके बारे में हम सोचना भूल गए हैं। एक प्रसंग को लें। यह सभी जानते हैं कि चन्द्रप्रकाश गढ़वाली और कुछ अन्य साहसी सैनिकों ने 1930 में जब 20 हज़ार जनता के ऊपर गोली चलाने से इंकार कर दिया तो उन्हें सजा हुई। गांधी से पूछा गया कि क्या वे उन सैनिकों को छुड़ाने का पर्यटन करेंगे तो उन्होने उत्तर दिया था नहीं। कारण? “उसने हिंसा की, उसने अपने मालिक की आज्ञा भंग की है।” चौरी-चौरा के प्रसंग को लाते हुए लेखक ने यह सवाल उठाया है कि आखिर गोली चलाने वाले के पास क्या विकल्प था? गोली चला कर वे हिंसा कर रहे थे या न चला कर?
जिस भाषा में गांधी और कांग्रेस ने इस चौरी चौरा की घटना में शामिल लोगों की (जिसकी कहानी को पार्श्व में रखकर यह पुस्तक लिखी गई है) निंदा की गई है वह सही है या गलत यह सवाल किसी भी इतिहासकार के मन में अपना प्रभाव पैदा करेगा ही। राहुल सांकृत्यायन की वह बात याद आ जाती है कि इस देश के इतिहास को लिखते हुए हमें भगत सिंह और चन्द्र सिंह गढ़वाली के कारण मिली आज़ादी की कहानी कहनी चाहिए न कि कांग्रेस के बड़े नेताओं की। समाजशास्त्री पार्थ चटर्जी और अन्य विद्वानों ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि भारतीय समाज में नागरिक और आम जनता (उनकी भाषा में पॉप्युलेशन’) के संघर्ष अलग-अलग धरातल पर चले हैं और चल रहे हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर जो लोग “गुंडई” और “हिंसक भीड़” के रूप में चौरी चौरा में हमलावर रूप में है वह इस “पॉप्युलेशन” की प्रतिनिधि है जिसके बारे में नागरिक समाज के प्रतिनिधि के मन में सम्मान नहीं होना ही अपेक्षित है।
हाल के वर्षों में 1857 के प्रसंग में इस लोकप्रिय इतिहास के महत्त्व को समझा गया है। जिस विद्रोह के बारे में सब कुछ सरकारी दस्तावेज़ों के माध्यम से ही कहा जाता रहा था उसके बारे में लोकप्रिय साहित्य से लेकर लोक स्मृति में संचित बहुत सारी चीज़ें लाकर 1857 के चरित्र को अलग रूप में व्याख्यायित करना संभव हो सका है। इस पुस्तक के बारे में संजय शर्मा का यह कथन सटीक है कि “दुर्लभ दस्तावेज़ प्रस्तुत करके ये लोक स्मृति और इतिहास लेखन के बीच संवाद स्थापित करती है। दिलचस्प और पठनीय।” इसमें अपनी ओर से यह जोड़ना चाहूँगा कि यह लोकप्रिय इतिहास है। इस लोकप्रिय इतिहास की संभावनाओं और सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इसे पढ़ा जाना चाहिए। लोकप्रिय इतिहास में ऐतिहासिक तथ्यों का उपयोग बहुधा एक समुदाय या स्थान की दृष्टि से एक पूर्व निर्धारित (सही या गलत) निष्कर्ष/निष्कर्षों के आधार पर भी हो सकता है। इस तरह से एक किस्म की निश्चयात्मकता इस तरह के इतिहासलेखन का हिस्सा है। 
अंत में, उस सवाल पर फिर से लौटा जाए जिससे इस बातचीत की शुरुआत हुई थी: किन मायनों में यह शाहिद अमीन की किताब से भिन्न है ? स्रोत आसपास के हैं, और दोनों के वर्णन भी आसपास के ही हैं सिवाय इसके कि कुशवाहा को कई वर्षों बाद लिखने के कारण कुछ तथ्यों को ठीक कर लेने की सुविधा थे। लेकिन, दोनों पुस्तकों को बिलकुल अलग तरीके से लिखा गया है। इस किताब में लोकप्रिय इतिहास की छाया अधिक है। इसका एक सीधा सा  उदाहरण यह है कि अमीन की किताब में 1857 गौण है और यहाँ प्रमुख है। पक्ष और प्रतिपक्ष कुशवाहा में स्पष्ट है। दारोगा की पत्नी को भी विद्रोही मार डालने की धमकी दे रहे थे लेकिन बाद में उसे छोड दिया गया जैसे प्रसंग अमीन की किताब में हैं पर यहाँ नहीं हैं। ये विद्रोही हैं, उन्मत्त भीड़ नहीं यह कहने की कोशिश लगातार की गई है। अमीन निरपेक्ष से दीखते हैं जबकि कुशवाहा साफ-साफ एक पक्ष की ओर से वर्णन कर रहे हैं।
यह सीमा है या संभावना यह एक सवाल है?
यशपाल ने चौरी चौरा की घटना के बारे में लिखा है- “…चौरी चौरा में पुलिस के दमन के विरूद्ध जनता ने विद्रोह कर थाने को जला कर पुलिस के बाईस सिपाहियों की हत्या कर दी। इस घटना से दुखी होकर गांधी जी ने 12 फरवरी 1922 को देश भर में कानून भंग और सत्याग्रह आंदोलन को स्थगित कर देने की आज्ञा दे दी क्योंकि उनकी दृष्टि में अहिंसा (संपत्ति के अधिकारों की व्यवस्था की रक्षा) का महत्त्व (शोषण से जनता की मुक्ति) से अधिक था।” एक उद्धृत वाक्य के माध्यम से उसी आलेख में कहा गया है- “जनता क्रांति पर उतारू हो गई थी परंतु गांधी ने अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया। फिर क्या हुआ, तुम जानते ही हो। हमने उन्हें जेल में बंद कर दिया।” (यशपाल रचनावली, खंड 11, पृ 299-300)
अब इस दृष्टि के साथ 1931 में बुलंदशहर निवासी पी एस वर्मा के गीत गांधी की लड़ाई उर्फ सत्याग्रह संग्रामसे लिए गए की इन पंक्तियों को देखें- 
“अग्नि कहीं भड़क न जाए,
खबर सुनी जब जब गांधी जी ने,
दहशत गई बदन में छाय।
फैली अशांति कुछ भारत में,
आंदोलन को दिया थमाय।
सोचा कुछ हो शायद उनसे, गलती गए यहाँ पर खाय।
मौका मिली फेरि गोरों को
दीनी यहाँ फूट कराय
मची फूट फेरि भारत में…
खूब लड़ाया हम दोनों को,
मतलब अपना लिया बनाय
बने खूब हम पागल कैसे
जरा सोचना दिल में भाय। (कुशवाहा द्वारा उद्धृत , पृ 290-91)
इस भाव को समर्थन देने वालों में सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह से लेकर स्वामी सहजानन्द जैसे तमाम लोग थे। फिर कैसे इस महत्त्वपूर्ण बिन्दु पर प्रतीक रूप से उभरे चौरी चौरा कांड को लेकर गांधी की दृष्टि के विरोध को समझने की लगातार कोशिशें न हो?
गांधी के इस बयान पर कि “जो लोग कारागार में बंद हैं, वे नागरिकता की दृष्टि से मर चुके हैं और नीति के मामले में उन्हें कुछ कहने सुनने का अधिकार नहीं है,” दिलचस्प तरीके से आम-लोक जन (पार्थ चटर्जी की भाषा में पोपुलेशन’) और नागरिक को इतिहास में आमने सामने खड़ा कर देती है। क्या गांधी अंततः नागरिक के पक्ष के थे जिनसे आम जनता ने उस तरह प्रेम किया था जिसमें यह प्रेम बिना शर्त है। जो लोग बिना शर्त प्रेम नहीं करते थे उनके लिए गांधी का कदम और उनका वक्तव्य सही नहीं था। 
यहाँ एक बात लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। गांधी के इस तरह के बयान और कदम के बाद भी उस समय की मीडिया ने यह लिखा था कि गांधी ने पहले जब ५३ लोग बंम्बई में मारे गए थे दो दिन का उपवास रखा था, अब चौरी चौरा के बाद पाँच दिन का रखा रहे हैं। इसी तरह से आगे चलता रहा तो आखिरकार गांधी को पश्चाताप के लिए हिमालय में जाना पड़ेगा। स्टेट्समैन ने आगे लिखा था कि इसका असली कारण है – एक करोड़ का तिलक स्वराज फण्ड जिससे गुंडे–मवाली लोग स्वयंसेवक बनते हैं। अगर ये बख्शीस (अङ्ग्रेज़ी में इसे इसी रूप में रखा गया था) न मिल रही होती तो चौरी चौरा न हुआ होता! यह न हो तो न भीड़ होगी, न खून होंगे और न गांधी को पश्चाताप करने की ज़रूरत होगी। (स्टेट्समैन, १५ फरवरी १९२२)
      यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि गांधी के अंग्रेज़परस्ती से साम्राज्यवाद के समर्थक संतुष्ट नहीं थे, वे उनकी जन के मन को विषाक्त करने के आंदोलन में हिंसा के कारणों को देख रहे थे।
 
      जवाहरलाल नेहरू ने इस चौरी चौरा घटना के बारे में अपनी आत्मकथा में दो अलग अलग कोणों से विचार किया है। वे पहले कहते हैं कि हम सबको एक धक्का लगा। उनके पिता (मोती लाल) बहुत ही क्रुद्ध हुए। उन्होने यह भी कहा कि अगर इस तरह से आंदोलन रोका जाता रहा तो विपक्ष के पास हमेशा यह मौका रहेगा कि वे ऐसी परिस्थिति बना दें कि आंदोलन को रोक देना पड़े। लेकिन नेहरू बाद में कहते हैं कि चौरी चौरा के कारण असहयोग आंदोलन को गांधी ने नहीं रोका। जनता की नब्ज़ को वे सबसे बढ़िया तरीके से समझते थे और इसे रोकने के लिए यह घटना “ऊँट की पीठ का आखिरी तिनका” (मूल में लास्ट स्ट्रा’) भर था, हालांकि अधिकतर लोगों की कल्पना में इसी कारण से असहयोग आंदोलन रोक दिया गया। 
इन दोनों दृष्टियों का उल्लेख इस उद्देश्य से किया गया है कि लोकप्रिय इतिहास के साथ इतिहास का एक बड़ा परिदृश्य भी जोड़कर देखा जा सके। साथ ही, देश के बाहर और अंदर जो क्रांतिकारी थे वे इस घटना को विद्रोह के रूप में देख रहे थे (जैसे कि वे १८५७ के विद्रोह को देख रहे थे) यह हमारे लिए एक बार फिर एक संकेत है कि हम क्रांतिकारी धारा की इतिहास दृष्टि को समुचित महत्त्व नहीं देते हैं। इस लेखक ने इस ओर ध्यान दिया है। 
सुभाष कुशवाहा का यह प्रयत्न और भी आगे इस विषय में सोचने के लिए बहुत सारी चीज़ें रखने में सफल हुआ है। अमीन ने इस विषय पर शोधार्थियों को आगे जाने का आह्वान अपनी पुस्तक में किया है। कुशवाहा का प्रयास अमीन से आगे जाने में सफल हुआ है और वह भी अपने व्यक्तिगत प्रयास से। दोनों पुस्तकों की भूमिका और आभार को एक साथ पढ़ना दिलचस्प होगा। अमीन को इस काम के लिए जो सांस्थानिक सहयोग मिला है वह हिन्दी के लेखक के नसीब में नहीं। यह उस इलाके के आदमी होने के कारण उत्पन्न धुन थी जिसने कुशवाहा को और आगे जाने के लिए प्रेरित किया। मेहनत और लगन के साथ इस पुस्तक को हिन्दी पाठक समुदाय के समक्ष रखने के लिए लेखक की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।   

हितेन्द्र पटेल

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हितेन्द्र पटेल के उपन्यास ‘चिरकुट’ पर रमाशंकर की समीक्षा


किसी भी रचनाकार के लिए इतिहास बोध का होना जरुरी होता है। और जब यह लेखन खुद एक इतिहासकार द्वारा किया जाय तो उसमें इतिहास-बोध स्वाभाविक रूप से आता है। हरबंस मुखिया, लाल बहादुर वर्मा और बद्रीनारायण के साथ-साथ हितेन्द्र पटेल भी एक ऐसा ही सुपरिचित नाम है जो इतिहास के साथ-साथ साहित्य में भी दखल के साथ लेखन कर रहे हैं। अभी हाल ही में हितेन्द्र पटेल का एक उपन्यास ‘चिरकुट’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इस जरुरी उपन्यास की एक पड़ताल की है हमारे युवा साथी रमाशंकर ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा ‘चिरकुट : एक उपन्यास के साथ-साथ आर्काइबल दस्तावेज भी।’         

चिरकुट : एक उपन्यास के साथ-साथ आर्काइबल दस्तावेज भी 

रमाशंकर

किसी रचना को कैसे पढ़ा जाय? उस दौर के बारे में एक लेखकीय अनुक्रिया के रूप में जिस दौर के बारे में वह लिखी गयी है या उन सारे राजनीतिक और सांस्कृतिक अनुभवों के साथ जिसमें लेखक और उसका पाठक जी रहे हैं। यह जीना केवल अपना चुनाव भर तो है नहीं, उसमें वे जीने के लिए अभिशप्त हैं। वे अपने युग की महत्वाकांक्षाओं और हताशाओं लादने के लिए बाध्य हैं। हितेन्द्र पटेल के उपन्यास चिरकुट का नायक दिलीप बलराज की भटकन, कुंठा और उसकी महत्वाकांक्षाओं को इस रूप में देखा जा सकता है।

हितेन्द्र पटेल इतिहास के एक बेहतरीन विद्यार्थी रहे हैं और उनके काम से परिचित लोग जानते हैं कि दक्षिण एशिया के औपनिवेेशिक अतीत पर उनका काम काफी बोलने वाला काम रहा है। इस उपन्यास का एक पात्र एक जगह कहता है कि यह बिहारी इंटलीजेंसिया का चरित्र है कि वह मौका पाते ही बिहार छोड़ कर चला जाता है। पहले इलाहाबाद और कलकत्ता जाता था, फिर दिल्ली जाने लगा है। बिहार के लोग बंगाली जैसा होना चाहते हैं। वास्तव में यह आंतरिक उपनिवेशन के चिन्ह हैं। जिन लोगों को भारत में लिखे जा रहे नेपाली साहित्य से थोड़ा बहुत परिचय है वे कवियित्री रेमिका थापा की कविताओं से परिचित होंगे। उन्होने बहुत ही खूबसूरत लेकिन उदास कर देनी वाली अपनी कविताओं में भारत में रह रहे नेपाली जनों या स्वयं सिक्किम या दार्जिलिंग में रह रहे नेपाली भाषी लोगों के आंतरिक उपनिवेशन के बारे में लिखा है कि वे किस प्रकार भारत के दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता के शहरी भद्र जनों की तरह दिखना और बोलना चाहते हैं। कलकत्ता की फ्रीलांसिंग में वह अपने आपको आत्म सजग रूप से भले ही मीडियाकर कहता है लेकिन उसे भी एक अदद नौकरी की चाह है। यह उसे एन.जी.ओ. में ले जाती है। यहाँ हितेन्द्र एन. जी. ओ. की कार्यप्रणाली के बारे में थोड़ा-थोड़ा बताते हुए काफी बता जाते हैं कि किस प्रकार एन.जी.ओ. में एक उच्चता-क्रम है। बड़े-बड़े सामाजिक बदलाव के नारों के बावजूद किसी आब्जर्बर का काम वे रिपोर्टें तैयार करना है जो सरकार को पसंद आये। यहाँ यह बिल्कुल गैर सरकारी और गैर राजनीतिक नहीं है बल्कि राजनीतिक पहुँच उस समय भी जरूरी है जब उसमें काम करने वाले मानस घोष की हत्या हो जाती है। यह संगठन अपने उस सहकर्मी की मौत की जाँच से ज्यादा अपने अस्तित्व को जरूरी समझता है। यहीं पर आ कर इस उपन्यास की एक विदेशी पात्र लिंका का यह आश्चर्य समझ में आ जाता है कि कि भारत में लोग नौकरी करने को ही काम समझते हैं और एक पूरा का पूरा देश सरकारी नौकरी की आस में जी रहा है। और इस सरकारी नौकरपने की प्रप्ति की लिए उच्च शिक्षा प्राप्ति की पूरी जुगत की जाती है। नौकरपने की यह प्रवृत्ति 1980 के दशक की बाद एक सामान्य अभिवृत्ति बन गयी है।

 (उपन्यासकार : हितेन्द्र पटेल)

 
दिलीप बलराज के जीवन में तीन महिलाएँ आती हैं जिनसे वह कभी पूरी तरह से जुड़ नहीं पाता। श्यामली की ओर वह खिंचा हुआ महसूस करता है। बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में। फिर उसे छोड़ कर भागता भी है। देह उसे आकर्षित करने लगी है लेकिन इतना नहीं कि वह किसी महिला के सामने स्वीकार कर ले। इसके बाद स्काटिश चर्च कालेज की प्रैक्टिकल बुद्धि वाली बीस वर्षीय स्वर्नाली से उसकी मुलाकात होती है जो कविताएँ तो बहुत अच्छी नहीं लिखती है लेकिन उसे पता है कि जो कुछ करना है उसे पचीस साल के अन्दर कर लेना है। वह एक मोटी तनख्वाह पर सरकारी सलाहकार भी हो जाती है। वह उसके प्रति एक आकर्षण सदैव महसूस करता रहता है लेकिन उसे वह उस रूप में स्वीकार नहीं कर पाता है जैसी वह है- अपनी राह अपनी समझ के अुनसार बनाती हुई। तीसरी महिला है सुचरिता- स्लीवलेस गाउन, खुले बालों में। सुचरिता से वह दैहिक सम्बन्धों की मजबूरियों को तो शांत कर लेता है, प्रायः पशुवत, लेकिन वह उसकी आत्मा में न तो उतर पाता है और न ही सुचरिता इसका उसे अवकाश देती है। यह सम्बन्ध ‘प्योर फिजीकल‘ ही बना रहा। वह ऐसा न बन सका इसके लिए सुच्चि ही जिम्मेदार थी। दिलीप ऐसी किसी भी स्त्री से कभी नहीं मिला था जो दैहिक रिश्ते को इतना महत्व देती हो। उसके लिए संभोग एक मुकम्मल काम था। कोई जिम्मेदारी नहीं। लेकिन यही सुच्चि अपने बच्चे के साथ बिन ब्याही माँ बनने को तैयार है। घोष बाबू कलकत्ता छोड़ कर चले जाते हैं लेकिन यह महिला पाठक की स्मृतियों का हिस्सा बन जाती है। 
 
इस उपन्यास में दिलीप का सामना एक ऐसे आश्रम और गुरू से होता है जो सुदूर गाँव में स्वावलम्बी जीवन जी रहा है लेकिन वह किसी प्रकार के सामाजिक बदलाव में हस्तक्षेप नहीं करता है। वहाँ के गुरू के अपने तर्क हैं कि आज के अर्थ में सामाजिक हो जाने का अर्थ बाजारू हो जाना ही है। तो क्या सामाजिक हो जाना इतना सीमित हो गया है? यह बात दिलीप को बुहत कुढ़ाती है उस दिलीप को जिसके मन में जयप्रकाश नारायण की कई छवियाँ चस्पा हैं। यहांँ किसान नेताओं की भी कई छवियाँ हैं जो अत्याचार के खिलाफ खड़ी हैं। कई की तो छवियाँ समय ने अपने साथ गढ़ ली हैं जिनमें राहुल सांकृत्यायन और स्वामी सहजानंद को मिला दिया गया है। छवियों के निर्माण की इस प्रक्रिया को हितेन्द्र का इतिहासकार बखूबी रेखंकित करता है। चिरकुट एक उपन्यास है लेकिन वह एक प्रकार आर्काइबल दस्तावेज भी है जिसमें कई समूहों की ऐतिहासिक स्मृतियाँ भी जुड़ी हैं। जयप्रकाश समाज और राजनीति को बदलना चाहते थे और यहाँ तो सामाजिक बदलाव के लिए एन जी ओ की फौज तैयार है यानि कि समाज को बदलने के लिए फुलटाइमर होना कतई जरूरी नहीं । पश्चिम बंगाल के जो माक्र्सवादी फुलटाइमर हैं वे रैलियों में अन्य जगहों में इतने असहिष्णु हैं कि किसी और को बर्दाश्त कर ही नहीं पाते। इस उपन्यास के अंत तक आते आते जनता उन्हें बर्दाश्त करने को इच्छुक नहीं हैं जहां एक महिला उनके खिलाफ धरने पर बैठी है। 

1980 के बाद के दशक के युवाओं में जो एक बेचैनी और कुछ भी करने की महत्वांकांक्षा और इसे न कर पाने की हताशा है, वह इस उपन्यास में हितेन्द्र हमारे सामने रखते जाते हैं। भाषा कहन का एक औजार है। हितेन्द्र इसे अच्छी तरह से जानते हैं। वे जो कुछ कहना चाह रहे हैं, उसे बहुत ही सरल भाषा में कह जाते हैं। कभी- कभी इस भाषा को बररतते हुए वे डरते हुए प्रतीत हो सकते हैं विशेषकर उन पाठकों के लिए जो कुछ खास स्थलों पर डिटेलिंग की अपेक्षा रखते हों। कलकत्ता की स्त्रियों के बारे में बिहार की स्त्रियों का डर है कि बंगाली स्त्रियाँ मर्दाें को भेड़ बना कर रख लेती हैं और रात में मनुष्य बना देती हैं। ‘कौन सा खेल है जो मनुष्य बनाए बिना नहीं खेला जा सके- इस प्रश्न का उत्तर उसे उस वक्त नहीं सूझा था।’  उपन्यास के अंतिम तीस पृष्ठ दिलीप को इसका उत्तर देते हैं। 

इस उपन्यास की एक कमजोरी यह है कि जब सह उपन्यास स्मृतियों ओर व्यक्तिगत दुश्चिंताओं से निकल कर एक पोलिटिकल टोन निर्मित करने की ओर अग्रसर होता है तो समाप्त हो जाता है। फिर भी यह समापन अपने आप में उद्देश्यपूर्ण है- पाठक को राजनीतिक बनाना।

चिरकुट (उपन्यास): हितेन्द्र पटेल 
नयी किताब, दिल्ली, 2013 
पृष्ठ-168, मूल्य 110 रूपये।

सम्पर्क-

रमाशंकर
शोध छात्र,
गोबिन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान,  
इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)

मोबाईल- 089534 79828