कविता संग्रह …….’पलकों पर रखे स्वप्नफूल’, ‘दिल के मौसम’, ‘स्त्री होने के मायने’ ,,,,’आवाज़ में उतरती दुनिया’ ….प्रकाशित
लघुकथा संग्रह …..’इस तरह से भी’ …प्रकाशित!
कथाबिम्ब, वर्तमान साहित्य, कथादेश, कादम्बिनी, वागर्थ, आजकल, अभिनव मीमांसा ,,, वसुधा, विपाशा …अक्स..इंडिया न्यूज़ ,
दैनिक त्रिबुने, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, दैनिक जागरण, जनसत्ता, में निरंतर रचनाएं प्रकाशित!
मैथिलि गुजराती पंजाबी और अंग्रेजी में रचनायों का अनुवाद!
वर्ष २ ० ० ४ में मौरिशस के राजदूत श्री क्रिशन दत्त बैजनाथ द्वारा सम्मानित
वर्ष २ ० १ २ में युवा कविता सम्मान से सम्मानित
सम्प्रति- भारतीय जीवन बीमा निगम में कार्यरत
बस जरा सा
अगर कर पाए तो
देख पायेंगे हम
धरती का सीना चीर
अंखुआते बीज को
ठूंठ पर हरी नर्म
कोंपलें आते
देख पायेंगे
इन्द्रधनुष में रंग उतरते
बादलों में जल भरते
कोमल हरी दूब की नोक
पर ठिठकी ओस की
बूँद में चाँद का प्रतिबिम्ब
गिरते पत्ते का नर्तन
फूल के अधरों पर
तितली का चुम्बन
चींटियों की कतारें
बच्चे की किलकारी में
खिलखिलाती पृथ्वी को
देख पायेंगे
एक उम्मीद को चेहरा बनते
एक स्वप्न को आकार लेते
अगर ठहर पाए तो
देख पायेंगे हम
इनमे छुपी
उम्मीद और
जिजीविषा भी
बड़ी एहतियात से
याद रखती हैं वो
बदलना
घर के पुराने पड़ गए
बदरंग पर्दे…
सोफे के कवर
मेज पोश
तकिये, रजाई के लिहाफ
अलमारी के अखबार
बच्चों की कापियों के कवर
पति के चश्मे का फ्रेम
शर्ट के बटन ….
कालर और कफ
बदलना
घर का पेंट’
गमलों की
मिटटी
नाश्ते और रात के
खाने का मीनु
और बच्चों और पति का
मूड
रखती हैं चाहत और हिम्मत
दुनिया बदलने की .
फिर क्यों भूल जाती हैं
इस सबमें
बदलना रंग
अपने बदरंग सपनों का
औरत एक कविता
कविता में औरत
फूल होती है
महकती है, उसकी महक से
महकता है संसार
आंसू होती है
ठहर जाती है संवेदना की पुतलियों में
नदी बन कल कल बहती है
अपने बहाव में बहा ले जाती है
अवरोधों और कठिनाइयो
के सारे पत्थर
हौसलें के पंखों से
नाप लेती है
महत्वाकांक्षा के सातों आसमान
करती है इजाद आठवाँ आसमान
अपने लिए
कातती है प्रेम की पूनी
बुनती है सृष्टि का अंगवस्त्र
कविता में औरत
बिठा दी जाती है
पवित्रता के शीर्ष पर
पूजी जाती है देवी बना
कविता में
जीती है वह
अपनी शर्तों पर जिंदगी
वरण करती है
मनचाही मृत्यु
और पा लेती है मुक्ति
कविता से बाहर
क्या है औरत का
अस्तित्व ..क्या है
कोई मुक्ति ….औरत के लिए
कविता से बाहर
औरत सिर्फ देह है
अपनी आत्मा को
ढूँढती हुई
कविता से बाहर
पाती है तनी हुई भृकुटीयाँ
खींचे हुए चेहरे
कासी हुई मुट्ठियाँ
और
घबरा कर कविता में
लौट जाती है औरत
इन्द्रधनुषी प्रेमरंग भरो तो
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