हरबंस मुखिया की नज्में

हरबंस मुखिया
     

कविता अपने आप में एक दस्तावेज होती है. उसमें समकालीन समय की आहट के साथ-साथ उस की विडम्बनाओं और विषाद की अनुगूंज भी स्पष्ट तौर पर पढी देखी जा सकती है. कवि अपने समय का पहरेदार होता है. हमेशा सजग-सतर्क-जागरुक. संवेदनशीलता उसे इस कदर परेशान कर देती है कि कबीर कह उठते हैं – सुखिया सब संसार है  खावै और सोवै। दुखिया दास कबीर है जागै अरू रोवै॥ आज के कवि रह भले ही इक्कीसवीं सदी में रहे हों, उनकी दिक्कतें भी कबीर से कम नहीं हैं. हरबंस मुखिया अपनी एक नज्म में लिखते हैं –मुझे अब/ हर वक़्त परेशान रहने की/ आदत पड़ चली है/ मैं सदर ओबामा की/ अफ़ग़ान पालिसी पर परेशान रहता हूँ/ और बसड्राइवर के बेहद हॉर्न बजाने पर.हरबंस मुखिया की नज्में आप पूर्व में भी पहली बारपर पढ़ चुके हैं. आइए आज पढ़ते हैं उनकी दो बिल्कुल नयी नज्में.

     


हरबंस मुखिया की नज्में

वक़्त

 

मैं सदियों की तारीख 
मुट्ठी में बंद किये 
वक़्त की तलाश में निकला हूँ 
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मैं ने 
वक़्त को ढूंढा  
हक़ की हर सलेब पर 
जहाँ किसी बाग़ी के ख़ून के दाग़ 
अब तक मौजूद हैं 
ज़हर के प्याले में 
जहाँ किसी सवाल करने वाले के 
लबों के निशान बाक़ी हैं 
हर आशिक़ की क़ब्र पर 
जिस में अनगिनत अरमान दफ़्न हैं 
हर जगह मैं ने वक़्त की तलाश की 
जो मुझे बता सके 
कि बग़ावत का अंजाम मौत क्यों होता है ?
सवाल पूछना गुनाह क्यों होता है ?
इश्क़ हमेशा नाकाम क्यों होता है ?



परेशानी 

मुझे अब 
हर वक़्त परेशान रहने की
आदत पड़ चली है 
मैं सदर ओबामा की 
अफ़ग़ान पालिसी पर परेशान रहता हूँ 
और बसड्राइवर के बेहद हॉर्न बजाने पर 
मैं रात भर आराम कर 
सुबह परेशान उठता हूँ 
और अख़बार में 
हादसों की खबरें पढ़ 
गुस्से से भर जाता हूँ 
मैं दुनिया भर में एटम बमों 
और प्लास्टिक की थैलियों की तादाद,
बढ़ती हुई गर्मी 
और मज़दूर बच्चों के हालात से 
परेशान हो जाता हूँ 
मुझे यक़ीन है 
कि मेरी परेशानी में ही 
इन सब मसाइल का हल है।

संपर्क-
हरबंस मुखिया
बी-86, सनसिटी, सेक्टर-54,
गुडगाँव, 122011,
(
हरियाणा)

मोबाईल- 09899133174

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.) 

हरबंस मुखिया की नज्में

हरबंस मुखिया

हरबंस मुखिया का जन्म 1939 में हुआ दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कालेज से इन्होने 1958 में  बी. ए. किया जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से 1969 में अपना शोध कार्य पूरा किया देश के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नयी दिल्ली के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीजमें मध्यकालीन इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे सन 2004 में सेवानिवृति के पश्चात मुखिया जी अध्ययन कार्यों में लगातार लगे हुए हैं 
इनकी कुछ प्रख्यात कृतियाँ हैंMughals of India (Peoples of Asia), Perspectives on Medieval History, Historians and Historiography During the Reign of Akbar, Issues in Indian History, Politics and Society, Exploring India’s Medieval Centuries: Essays in History, Society, Culture and Technology.

इसके अतिरिक्त इतिहास की कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का मुखिया जी ने सम्पादन भीकिया है जिसमें Feudalism and Non-European Socieites (Special issue of the Journal of Peasant Studies, 12) T. J. Byres, Harbans Mukhia (Editor), Religion, Religiosity, and Communalism; Praful Bidwai, Harbans Mukhia, and Achin Vanaik Bidwai, French Studies in History: The Inheritance Harbans Mukhia, Maurice Aymard (Editor) , The Feudalism Debate, French Studies in History: The Departures अत्यंत महत्वपूर्ण हैं
हम सब इस बात से अवगत हैं कि हरबंस मुखिया एक इतिहासकार होने के साथ-साथ उम्दा शायर भी हैं।
हरबंस जी ने एक दौर में मूलतः उर्दू लिपि में अनेक नज्में लिखीं जो शम्सुर्रहमानफारूकी द्वारा प्रकाशित प्रख्यात पत्रिका शब खूनमें प्रकाशित हो चुकी हैं।  मैंने उनसे इन नज्मों को हिन्दी में तर्जुमा करने का आग्रह किया, जिसे हरबंस जी ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर लिया। ‘पहली बार’ पर आप पहले भी हरबंस जी की कई नज्में पढ़ चुके हैं।     
आज हरबंस जी अपने वैवाहिक जीवन के पचास वर्ष पूरे कर रहे हैं। इस अवसर पर पहली बार परिवार की तरफ से उन्हें बधाई देते हुए हम श्रीमती एवं श्री मुखिया के दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं। इस विशेष अवसर पर हम खासतौर से उनकी चार नज्में प्रकाशित कर रहे हैं। ये नज्में हिन्दी में पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। तो आइए आज पढ़ते हैं हरबंस मुखिया की नज्में।      
हरबंस मुखिया की नज्में
हव्वा
जिस रोज़ हव्वा ने
खुदा की हुक्म उदूली की
और मम्नूं फल खाया
वह रोज़ इंसान की अज़मत के  ज़हूर का रोज़ था
उस रोज़ हव्वा ने
अपने जिस्म, अपनी हवस
अपनी इंसानियत की पहचान पाई
जो ख़ुदा के अक़्स की सूरत से
अज़ीमतर थी
उस में बग़ावत का जज़्बा था
और थी प्यार की तलाश
आदम के अपने वुजूद की याद दिहानी थी
और  सब कुछ उलट पलट देने की जुस्तजू
आज अनगिनत सदियों बाद
हम क्या
हव्वा के उस अदना क़दम से आगे बढ़ पाए हैं?
 सुकून
एक तवील उम्र
तुम और मैं
अपने अपने कमरों में बंद थे
जहाँ ज़िन्दगी ने कड़े पहरे लगा रखे थे
उसूलों के, रिश्तों के, अफ़राज़ के
उस तमाम मुद्दत में
जो शायद सत्रह बरस थी या सत्तर
एक दूसरे की सांस की आवाज़ ने
हमें तपिश दी
आवाज़ जो बहुत हलकी, बहुत मध्धम थी
तपिश जो थरथराती लौ से भी मुलायम
और एक दिन
साँसों की तपिश
और थरथराती लौ की आग में
ज़िन्दगी के सारे पहरे मोम की तरह पिघल गए
वीरान घर में गुलाब के रंग
और मोतिया की खुशबू का इज़्तराब फैल गया
जिस ने हमारी पुर सुकून ख़ामोशी को
रेज़ा रेज़ा कर दिया
आओ आज फिर हम
तुम और मैं
अपने पैरों के इर्द गिर्द
हलकी हलकी लकीरों के दायरे खींच लें
ये लकीरें शायद कभी दीवार बन जाएँ
और हम फिर अपने अपने घरों में
सुकून की नींद सो सकें। 
ला उन्वान
जब आसमान की सतह पर
सूरज पहली बार उभर कर आया
और वक़्त की इब्तिदा हुई
तब तुम्हें और मुझे
ना हंसना आता था ना रोना
 फिर चाँद की रौशनी में
मैं ने तुम्हारी आँखों में
उदासी की परछाईं देखी
तो एहसास हुआ
कि हम ज़िंदा हैं। 
 
नज़्म के रू ब रू मौरिख
एक पेशेवर मौरिख
कन्धों पर
दुनिया को सँवारने की गठरी बांधे
सानेहात-ए तरीख में निहां माज़ी
की तलाश में
दिन भर जेहलियत से जंग में मशगूल
रात भर इल्म की रौशनी में डूबा
वक़्त के फ़ासले तय करता
अचानक
किसी धुंधली शाम
एक नज़्म के रू ब रू आ खड़ा हुआ
नज़्म का सांवला, सलोना बदन
जिस के दमकते रंगों को
सूरज की किरने छूतीं
तो रात निखर आती
जिस की उदासी की बर्फ़ में फूल खिलते
जिस से अठखेलिया करने
खुदा ज़मीन पर उतर आता
नज़्म के हुस्न से चकाचौंध
होश ओ  हवास खोये
मौरिख घर लौट आया
जहाँ अब घुप अँधेरा था
अँधेरे की परतों से नज़्म
छुप छुप कर
उसे देख देख मुस्कुराती रही।
(के. सच्चिदानंदन की नज़्म ‘Gandhi and poetry’ से मुतास्सिर हो कर.)
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हरबंस मुखिया
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हरबंस मुखिया की नज्में

 

हरबंस मुखिया

कम लोग ही इस बात को जानते होंगे कि हरबंस मुखिया न केवल जाने-माने इतिहासकार हैं बल्कि एक बेहतर कवि भी हैं पिछले दिनों जब दूधनाथ सिंह ने हरबंस जी को ‘पहली बार’ पर प्रकाशित उनकी बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई दी तो न केवल  हरबंस जी का बल्कि हमारा भी उत्साहवर्द्धन हुआ कविता के लिए इतिहास बोध बहुत जरुरी होता है और अगर कवि खुद ही एक जाने-माने इतिहासकार हों तो फिर क्या कहने पहली बार पर आप पहले भी हरबंस जी की कविताएँ पढ़ चुके हैं एक बार फिर हमारे आग्रह को स्वीकार कर हरबंस जी ने अपनी कविताएँ हमें भेजीं जो आपके लिए यहाँ प्रस्तुत हैं।         

हरबंस मुखिया की कविताएँ 
शायद तुम लौट आओ

इस ख़याल से कि
शायद तुम लौट आओ
मैं ने अपनी साँसों को
हथेलियों में समेट लिया
कि कुछ लम्हे और जी सकूं
तुम्हें देख लेने को
सूरज को
आसमान की सतह पर बाँध दिया
कि वक्त वहीँ थम जाए
तुम्हारे आ जाने तक

मुझे मालूम था
कि किसी ख़ाब की तरह
तुम लौट कर नहीं आओगे
पर मेरी आँखों में
रात भर
इन्तज़ार की लौ टिमटिमाती रही
जिसे उम्मीद ने बुझने न दिया 
उम्मीद
जो वक्त से बड़ी होती है

तुम नहीं आए
इसका मुझे
कोई शिकवा, कोई शिकायत, कोई गिला नहीं
कि मैं ने अब
यास से दोस्ती कर ली है 

तुम
उस शाम
तुम्हारी आँखों में जलती
हवस की लौ
मुझे वक्त की शाहराह पर
बहुत दूर ले आई
जहाँ तुमने
ममनूअ फल खा कर
ख़ुदा की हुक्म उदूली की थी
उस अज़ीम गुनाह में था
तुम्हारे अपने वजूद का अहसास
और था
उस लौ से दमकते बदन में
मेरे इंसान होने का
अक्स

ला-उन्वान

मेरा वजूद
वक्त की भूलभूलैय्यां है
जिस के हर मोड़ पर 
कई और रास्ते फूट निकलते हैं

मेरा वजूद
तारीख़ की पहचान है
जिसके तय शुदा रस्तों पर
ख़ुद कायनात सर झुकाए
बन्धक की तरह चली आती है

मेरा वजूद
किसी सती का दिया श्राप है
जिससे मुक्ति देना
प्रभु के भी वश में नहीं 

तन्हाई

एक उम्र की आशनाई के बाद
कल तुम्हारी अजनबी निगाहें
मुझे माज़ी के उस मोड़ पर ले आईं
जहाँ हर सुबह
सूरज की किरनें
सफ़ेद तन्हाई को सुर्ख रंग देतीं
हर दोपहर की धूप
तुम्हारे प्यार की छांव में
कहीं खो जाती
हर शाम
तुम्हारी आँखों की लौ से
दिये जलते

आज मैं
फिर उस सर्द तन्हाई के साये में
ज़िंदगी के हाशिये पर
जिला वतन खड़ा
सोचता हूँ
कि ख़ुद को मैं
कितना कम जान पाया

ला-उन्वान

वह अनगिनत ख़त
जो कितनी ही ज़िंदगियों में
मैं ने तुम्हें लिखे थे
और तुमने हर एक ख़त
मुस्कुराते, हँसते, रोते
कई कई बार पढ़ा
और उठा कर रख दिया
एक बार और पढने को
जैसे ये ख़त ही तुम्हारा और मेरा सब कुछ हो

इन ख़तों में हम ने कई रंग ढाले
सफ़ेद पाकीज़गी, सब्ज ताज़गी
सुर्ख तमाज़त और नीली गहराई
तुम और मैं हर रंग मेँ डूब कर, तैर कर
लड़खड़ाते और संभलते रहे
कई हसीं ख़ाब बुने, कई तोड़े 

फिर एक दिन अचानक
तूफ़ान के एक झोंके से
पानी के वह तमाम रंग
जिनमें हम इतरा कर डूबते और तैरते थे
आग के रंग में ढल गए
जिसमें मेरे वो सारे ख़त
जल कर राख हो गए
और तुम्हारी आँखों में तैरते आँसुओं के परदे में
मैं ने एक दबी हुई मुस्कान की
परछाईं देखी 


मुहाजिर

जिस रोज़  
मुबारक अली
अपने बाप के पीछे-पीछे
राजस्थान में टौंक की गलियां पार करते
कराची की ट्रेन में बैठे
उस ऱोज बहुत बारिश हुई थी
वह सारी बारिश
मुबारक अली
अपने छोटे-छोटे हाथों में
समेट कर अपने साथ ले गए
उन्हें लगा जैसे
कहीं और की बारिश का पानी
इतना मीठा न होगा

अरसा गुजरा
मुबारक अली का घर फूला फला
वह ख़ुद बाप बने
लेकिन पानी अभी भी वही पीते
जो अपने हाथों में समेट लाये थे
फिर एक दिन
वह पानी खत्म होने को आया
तो मुबारक अली वापस टौंक लौटे
पर इस बार
वहाँ की गलियों में उन्हें
कड़ी धूप मिली
धूप और सूखा
इस बार टौंक में
बारिश नहीं हुई थी

(मुबारक अली पाकिस्तान के सुप्रसिद्ध इतिहासकार हैं जो निरन्तर साम्प्रदायिकता को चुनौती देते रहे. यह नज्म उनकी आत्म कथा से प्रेरित.)
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)

हरबंस मुखिया की कविताएँ

हरबंस मुखिया मध्यकालीन इतिहास के जाने-माने विद्वान् हैं हरबंस जी की कुछ कविताएँ आप पहले ही ‘पहली बार’ पर पढ़ चुके हैं इन कविताओं को पाठकों का असीम प्यार मिला। मैंने फिर हरबंस जी से कविताओं की गुज़ारिश की हाल ही में ये कवितायें मुझे प्राप्त हुईं। एक लम्बे अर्से के बाद पेश है पहली बार पर हरबंस जी की कुछ और कविताएँ।     

1. हीरोशिमा

हीरोशिमा की सरज़मीन पर
सरकारी दफ़तर के गुम्बद के सामने
जहाँ
कई बरस पहले
मेरे ही हाथों ने बम गिराया था
आज मैं तारीख़ का गुनहगार
अपने वजूद के मानी की तलाश में
सर झुकाये खड़ा हूँ
जहाँ हर जवाब
फ़क़त सन्नाटा है
न किसी सांस की आवाज़
न चराग़ की लौ

इस सन्नाटे में
मेरे बम से जले पेड़ पर
एक अंकुर फूटा
और मुझे देख कर
मुस्कुरा दिया

2. हव्वा कितनी ख़ूबसूरत रही होगी

जिस शाम
हव्वा का बदन
हवस से चराग़ाँ हुआ
वह उसकी मासूमियत
और पाकीज़गी का
सबसे महबूब लम्हा था

फिर सदियों तक हव्वा
दीन, तारीख़ और तमद्दुन* की चादर ओढ़े
अपनी मासूमियत में गुनाह का अहसास छुपाये
जिस्म से शर्मसार
हवस को झुठलाती
अपने वजूद से परेशान
उस महबूब लम्हे से नज़रें चुराए
ख़ुद से दूर भागती रही

आज जब तुम्हारी आँखों में
हवस की वही लौ जलती नज़र आयी
तो मुझे लगा
कि हव्वा कितनी ख़ूबसूरत रही होगी 

*तमद्दुन = सभ्यता 

3. मेरी दोस्त

मेरी एक दोस्त
हमदम और हमराज़
उसकी गहरी उदास आँखें
सरोद के सुरों जैसी
बरगद की छाओं जैसे बाल
होठों पर अनकहा प्यार
लम्स में जाँगुदाज़ नर्मी 
उसकी ख़ामोशी में
आख़री दम तक 
मेरी हमसफ़री का वादा है
यास# नाम है उसका

*लम्स = स्पर्श
# यास = निराशा, मायूसी

4. एतक़ाद*

अज़ल$ से
मेरा फ़क़त एक अटूट एतक़ाद है
ख़ुदा के अदम वजूद# पर
यह एतक़ाद
मेरी ही गोद में
पला, बढ़ा
मेरे लड़खड़ाते कदमों को
इस के कोमल हाथों ने सहारा दिया
मेरी बुझती आँखों को रौशनी दी
और मेरी हर शिकस्त पर
प्यार जताने की
ख़ू@ डाली

*एतक़ाद = विश्वास
$ अज़ल = समय का प्रारम्भ
# अदम वजूद = अनस्तित्व
@ ख़ू = आदत

5. बे उन्वान*

मैंने जब भी
तुम्हारे मुस्तक़बिल में
अपनी जगह तलाश की
दर्द की आड़ी -तिरछी लकीरें
मेरी आँखों में रक्स करने लगीं
वक्त मुझसे दूर
बहुत दूर हो गया
और तुम्हारी एक
ना आशना तस्वीर छोड़ गया

*बे उन्वान =शीर्षक-रहित

6. हक़ीक़त

मौत ही तो बस
ज़िंदगी की एक
मुतलक़* हक़ीक़त है
जिससे इन्कार में
हम उम्र गुजार देते हैं


*मुतलक़ =सन्देह के पार, Absolute  

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हरबंस मुखिया

 
हरबंस मुखिया का जन्म १९३९ में हुआ. दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कालेज से इन्होने १९५८ में बी. ए. किया. जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से १९६९ में अपना शोध कार्य पूरा किया. देश के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नयी दिल्ली के ‘सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज’ में मध्यकालीन इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे. २००४ में सेवानिवृति के पश्चात मुखिया जी अध्ययन कार्यों में लगे हुए हैं. इनकी कुछ प्रख्यात कृतियाँ हैं Mughals of India (Peoples of Asia), Perspectives on Medieval History, Historians and Historiography During the Reign of Akbar, Issues in Indian History, Politics and Society, Exploring India’s Medieval Centuries: Essays in History, Society, Culture and Technology.
इसके अतिरिक्त इतिहास की कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का मुखिया जी ने सम्पादन भी किया है जिसमें Feudalism and Non-European Socieites (Special issue of the Journal of Peasant Studies, 12) T. J. Byres, Harbans Mukhia (Editor), Religion, Religiosity, and Communalism; Praful Bidwai, Harbans Mukhia, and Achin Vanaik Bidwai, French Studies in History: The Inheritance Harbans Mukhia, Maurice Aymard (Editor) , The Feudalism Debate, French Studies in History: The Departures अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.

हरबंस जी ने ये कवितायें मूलतः उर्दू लिपि में लिखी हैं जो शम्शुर्रहमान फारूकी द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘शब खून’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आमतौर पर इतिहास को एक रूखा-सूखा विषय माना जाता है। इसी नाते इतिहासकार भी रूखेपन के इस दायरे में आ जाता है। लेकिन हमारी इसी दुनिया में कुछ अपवाद भी होते हैं जो स्थापित तथ्य को मिथ्या साबित करते हैं। हरबंस मुखिया एक ऐसी ही शख्सियत हैं जो नामचीन इतिहासकार होने के साथ-साथ एक बेहतर इंसान और अत्यंत संवेदनशील कवि भी हैं। हमारे काफी तगादे के बाद मुखिया जी ने अत्यंत विनम्रतापूर्वक अपनी कुछ कवितायें पहली बार के लिए भेजीं जिन्हें हम अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।  
          


नाज़

मैंने
सदियों से तुम्हे
अनगिनत लक्ष्मण  रेखाओं में
बाँध कर रखा
शक की निगाहों से कई बार
तुम्हारी अग्नि  परीक्षा ली
तुम्हें जुए में  हार कर
भरी सभा में बरहना  होते देखा
तुम्हारे जिस्म  को
अपने ख़ानदान की इज्ज़त से सजा कर
कभी चादर और कभी बुर्के से ढक दिया
और अपनी मर्दानगी पर नाज़ किया

यह हक़ मुझे विरसे  में मिला था
हर तारीख़, हर मज़हब, हर तहज़ीब के विरसे में
इसके साथ कुछ फ़र्ज भी थे
जो तुम्हारे थे
ख़ुद से शर्मसार
हर दर्द से इनकार
हर सवाल पर पुरखौफ़
आँखें नीची कर
मेरे हर हुक्म की तामील
तारीख़ से तुम्हें  भी कितना कुछ मिला है
आओ तुम भी उस पर नाज़  करो.

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१.बरहना-नग्न
२. विरसा-विरासत

सवाल 

जब पॉल गोगैं ने
अपनी एक तस्वीर से यह सवाल किया
कि हम कौन हैं, कहाँ से आये  हैं 
कहाँ जा रहे हैं*
यह वह सवाल था
जो अज़ल से
हर इंसान पूछता आया  है.

यह सवाल शायद सबसे पहले
आदम ने पूछा होगा ख़ुद से
या ख़ुदा से
यही सवाल था
ऋग्वेद के कवियों के सामने
बुद्ध भी इसी से परीशान
राजमहल छोड़ कर 
जंगल-जंगल ढूँढते रहे इसका जवाब
यही जुस्तजू निहाँ है सूफ़ी के फ़ना होने में 

यह सवाल अपने आप में मुकम्मल  है
मायूस, उदास और इतना मुकम्मल 
कि इसका कोई वाहिद ज़वाब
शायद मुमकिन नहीं
शायद कोई भी जवाब मुमकिन नहीं 
मुमकिन है तो सिर्फ़
हर शख्स का
कवि, बुद्ध, सूफ़ी,और गोगैं  की मानिन्द
परीशां होना 

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  • पॉल गोगैं के एक प्रसिद्ध चित्र का शीर्षक, इसे गोगैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कृतियों में गिनते थे.
  • अज़ल- समय का आरम्भ         

ख़ुदकुशी

हम सब में 
थोड़ी सी ख़ुदकुशी करने की
ख़ाहिश होती है.
कुछ ख़ुदकुशी हम
उस रोज़ करते हैं 
जब अपने अरमानों का गला  घोंट कर
उसे उसूलों के क़दमों में  पटख आते है.
और कुछ उस रोज़
जब क़त’अ तआलुक्क़ का इल्ज़ाम
दोस्त के सर बाँध
दो आँसू रो कर
इत्मीनान से आँखें मूँद लेते हैं 

कुछ ख़ुदकुशी 
महफ़िल के बीच ख़ामोश हो जाने में 
होती है
और कुछ जाम हाथ में  लिए 
मुफ़लिसी पर बहस करने में 

फ़िर ज़िन्दगी के आख़िर में  हम
सन्नाटे से घिरे 
सोचते हैं 
कि तमाम उम्र हमें
ख़ुदकुशी का ख़याल क्यों नहीं आया.

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हमारा माज़ी

हमारा माज़ी
आषाढ़ की तपती धूप है
जिसने हमारे प्यार की मासूमियत को
सहरांव की रेत बना दिया है

हमारा माज़ी
नीम की घनी छाँव है
जिसके नीचे थका-हारा मुसाफ़िर
चन्द लम्हे आँखें बंद  कर
अपनी हार में भी
जीत के ख्व़ाब देख लेता है

हमारा माज़ी
एक परछाईं है
जिससे हम कितना भी दूर  भागें 
वह दबे पाँव हमारे पास  आ खड़ा होता है
और रंग भेष बदल कर
कभी प्यार और कभी तंज़ भरी नज़रों से
हमें तकता रहता है
पर बोलता कुछ भी नहीं

हमारा माज़ी
वह महबूबा है
जिसकी गली में आशिक़
तर्क-ए-तआलुक्क़ के बाद  भी
उम्र भर आस लगाए बैठा रहता है
कि शायद कभी 
वह मुड़ कर देखे
और मुस्कुरा दे.

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  • :
  • ज़ :
  • तर्क-ए-तआलुक्क़ : स्नेह-भंग 

उदासी

मेरी उदासी में 
पहली बारिश जवाब में भीगी
मिट्टी की खुशबू है
पहाड़ की चोटी पर मंदिर  में जलते दिये
की पाकीज़गी है

मेरी उदासी एक ऐसी सच्चाई है
जिसे किसी के मैले हाथों  ने छुआ न हो
किसी बुरी नज़र ने देखा न हो

यह उदासी हमारे इश्क़ की अमानत है
इश्क़ जिसकी शिद्दत ने
ज़िन्दगी से एक ख़ामोश बग़ावत  की थी
और कई सवाल किये थे
वह सब सवाल जो अज़ल से
हर आशिक़ और हर महबूबा
ज़िन्दगी से करते आये हैं.
और जिनके जवाब की तलाश में 
थक-हार कर
उदासी की गोद में सो जाते हैं 
गोया यह ही
इश्क़ के हर सवाल का जवाब हो   

मेरी ख़ामोशी

मेरी ख़ामोशी में वक्त की आवाज पिन्हा है
इसमें है
शम्मा की लौ की लरजां जुम्बिश 
और आग की गर्मी 
तूफ़ान का इज़तराब है
और सैलाब की तवानाई
मेरी ख़ामोशी में 
इंक़लाब-ए ज़माना निहां  है

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पिन्हा- छुपी हुई 
लरजा जुम्बिश- थरथराती  हुई हलचल
इज़तराब- बैचेनी
तवानाई- शक्ति 

निहां- छुपा हुआ  

   

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हरबंस मुखिया
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गुडगाँव, 122011,
(हरियाणा), 
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