हरबंस मुखिया |
आदत पड़ चली है
(हरियाणा)
मोबाईल- 09899133174
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)
समकालीन सृजन का समवेत स्वर
हरबंस मुखिया |
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हरबंस मुखिया |
कम लोग ही इस बात को जानते होंगे कि हरबंस मुखिया न केवल जाने-माने इतिहासकार हैं बल्कि एक बेहतर कवि भी हैं। पिछले दिनों जब दूधनाथ सिंह ने हरबंस जी को ‘पहली बार’ पर प्रकाशित उनकी बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई दी तो न केवल हरबंस जी का बल्कि हमारा भी उत्साहवर्द्धन हुआ। कविता के लिए इतिहास बोध बहुत जरुरी होता है। और अगर कवि खुद ही एक जाने-माने इतिहासकार हों तो फिर क्या कहने। पहली बार पर आप पहले भी हरबंस जी की कविताएँ पढ़ चुके हैं। एक बार फिर हमारे आग्रह को स्वीकार कर हरबंस जी ने अपनी कविताएँ हमें भेजीं जो आपके लिए यहाँ प्रस्तुत हैं।
हरबंस मुखिया मध्यकालीन इतिहास के जाने-माने विद्वान् हैं। हरबंस जी की कुछ कविताएँ आप पहले ही ‘पहली बार’ पर पढ़ चुके हैं। इन कविताओं को पाठकों का असीम प्यार मिला। मैंने फिर हरबंस जी से कविताओं की गुज़ारिश की। हाल ही में ये कवितायें मुझे प्राप्त हुईं। एक लम्बे अर्से के बाद पेश है पहली बार पर हरबंस जी की कुछ और कविताएँ।
1. हीरोशिमा
हीरोशिमा की सरज़मीन पर
सरकारी दफ़तर के गुम्बद के सामने
जहाँ
कई बरस पहले
मेरे ही हाथों ने बम गिराया था
आज मैं तारीख़ का गुनहगार
अपने वजूद के मानी की तलाश में
सर झुकाये खड़ा हूँ
जहाँ हर जवाब
फ़क़त सन्नाटा है
न किसी सांस की आवाज़
न चराग़ की लौ
इस सन्नाटे में
मेरे बम से जले पेड़ पर
एक अंकुर फूटा
और मुझे देख कर
मुस्कुरा दिया
2. हव्वा कितनी ख़ूबसूरत रही होगी
जिस शाम
हव्वा का बदन
हवस से चराग़ाँ हुआ
वह उसकी मासूमियत
और पाकीज़गी का
सबसे महबूब लम्हा था
फिर सदियों तक हव्वा
दीन, तारीख़ और तमद्दुन* की चादर ओढ़े
अपनी मासूमियत में गुनाह का अहसास छुपाये
जिस्म से शर्मसार
हवस को झुठलाती
अपने वजूद से परेशान
उस महबूब लम्हे से नज़रें चुराए
ख़ुद से दूर भागती रही
आज जब तुम्हारी आँखों में
हवस की वही लौ जलती नज़र आयी
तो मुझे लगा
कि हव्वा कितनी ख़ूबसूरत रही होगी
*तमद्दुन = सभ्यता
3. मेरी दोस्त
मेरी एक दोस्त
हमदम और हमराज़
उसकी गहरी उदास आँखें
सरोद के सुरों जैसी
बरगद की छाओं जैसे बाल
होठों पर अनकहा प्यार
लम्स में जाँगुदाज़ नर्मी
उसकी ख़ामोशी में
आख़री दम तक
मेरी हमसफ़री का वादा है
यास# नाम है उसका
*लम्स = स्पर्श
# यास = निराशा, मायूसी
4. एतक़ाद*
अज़ल$ से
मेरा फ़क़त एक अटूट एतक़ाद है
ख़ुदा के अदम वजूद# पर
यह एतक़ाद
मेरी ही गोद में
पला, बढ़ा
मेरे लड़खड़ाते कदमों को
इस के कोमल हाथों ने सहारा दिया
मेरी बुझती आँखों को रौशनी दी
और मेरी हर शिकस्त पर
प्यार जताने की
ख़ू@ डाली
*एतक़ाद = विश्वास
$ अज़ल = समय का प्रारम्भ
# अदम वजूद = अनस्तित्व
@ ख़ू = आदत
5. बे उन्वान*
मैंने जब भी
तुम्हारे मुस्तक़बिल में
अपनी जगह तलाश की
दर्द की आड़ी -तिरछी लकीरें
मेरी आँखों में रक्स करने लगीं
वक्त मुझसे दूर
बहुत दूर हो गया
और तुम्हारी एक
ना आशना तस्वीर छोड़ गया
*बे उन्वान =शीर्षक-रहित
6. हक़ीक़त
मौत ही तो बस
ज़िंदगी की एक
मुतलक़* हक़ीक़त है
जिससे इन्कार में
हम उम्र गुजार देते हैं
*मुतलक़ =सन्देह के पार, Absolute
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हरबंस जी ने ये कवितायें मूलतः उर्दू लिपि में लिखी हैं जो शम्शुर्रहमान फारूकी द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘शब खून’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।
मैंने
सदियों से तुम्हे
अनगिनत लक्ष्मण रेखाओं में
बाँध कर रखा
शक की निगाहों से कई बार
तुम्हारी अग्नि परीक्षा ली
तुम्हें जुए में हार कर
भरी सभा में बरहना होते देखा
तुम्हारे जिस्म को
अपने ख़ानदान की इज्ज़त से सजा कर
कभी चादर और कभी बुर्के से ढक दिया
और अपनी मर्दानगी पर नाज़ किया
यह हक़ मुझे विरसे में मिला था
हर तारीख़, हर मज़हब, हर तहज़ीब के विरसे में
इसके साथ कुछ फ़र्ज भी थे
जो तुम्हारे थे
ख़ुद से शर्मसार
हर दर्द से इनकार
हर सवाल पर पुरखौफ़
आँखें नीची कर
मेरे हर हुक्म की तामील
तारीख़ से तुम्हें भी कितना कुछ मिला है
आओ तुम भी उस पर नाज़ करो.
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जब पॉल गोगैं ने
अपनी एक तस्वीर से यह सवाल किया
कि हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं
कहाँ जा रहे हैं*
यह वह सवाल था
जो अज़ल से
हर इंसान पूछता आया है.
यह सवाल शायद सबसे पहले
आदम ने पूछा होगा ख़ुद से
या ख़ुदा से
यही सवाल था
ऋग्वेद के कवियों के सामने
बुद्ध भी इसी से परीशान
राजमहल छोड़ कर
जंगल-जंगल ढूँढते रहे इसका जवाब
यही जुस्तजू निहाँ है सूफ़ी के फ़ना होने में
यह सवाल अपने आप में मुकम्मल है
मायूस, उदास और इतना मुकम्मल
कि इसका कोई वाहिद ज़वाब
शायद मुमकिन नहीं
शायद कोई भी जवाब मुमकिन नहीं
मुमकिन है तो सिर्फ़
हर शख्स का
कवि, बुद्ध, सूफ़ी,और गोगैं की मानिन्द
परीशां होना
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हम सब में
थोड़ी सी ख़ुदकुशी करने की
ख़ाहिश होती है.
कुछ ख़ुदकुशी हम
उस रोज़ करते हैं
जब अपने अरमानों का गला घोंट कर
उसे उसूलों के क़दमों में पटख आते है.
और कुछ उस रोज़
जब क़त’अ तआलुक्क़ का इल्ज़ाम
दोस्त के सर बाँध
दो आँसू रो कर
इत्मीनान से आँखें मूँद लेते हैं
कुछ ख़ुदकुशी
महफ़िल के बीच ख़ामोश हो जाने में
होती है
और कुछ जाम हाथ में लिए
मुफ़लिसी पर बहस करने में
फ़िर ज़िन्दगी के आख़िर में हम
सन्नाटे से घिरे
सोचते हैं
कि तमाम उम्र हमें
ख़ुदकुशी का ख़याल क्यों नहीं आया.
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हमारा माज़ी
आषाढ़ की तपती धूप है
जिसने हमारे प्यार की मासूमियत को
सहरांव की रेत बना दिया है
हमारा माज़ी
नीम की घनी छाँव है
जिसके नीचे थका-हारा मुसाफ़िर
चन्द लम्हे आँखें बंद कर
अपनी हार में भी
जीत के ख्व़ाब देख लेता है
हमारा माज़ी
एक परछाईं है
जिससे हम कितना भी दूर भागें
वह दबे पाँव हमारे पास आ खड़ा होता है
और रंग भेष बदल कर
कभी प्यार और कभी तंज़ भरी नज़रों से
हमें तकता रहता है
पर बोलता कुछ भी नहीं
हमारा माज़ी
वह महबूबा है
जिसकी गली में आशिक़
तर्क-ए-तआलुक्क़ के बाद भी
उम्र भर आस लगाए बैठा रहता है
कि शायद कभी
वह मुड़ कर देखे
और मुस्कुरा दे.
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मेरी उदासी में
पहली बारिश जवाब में भीगी
मिट्टी की खुशबू है
पहाड़ की चोटी पर मंदिर में जलते दिये
की पाकीज़गी है
मेरी उदासी एक ऐसी सच्चाई है
जिसे किसी के मैले हाथों ने छुआ न हो
किसी बुरी नज़र ने देखा न हो
यह उदासी हमारे इश्क़ की अमानत है
इश्क़ जिसकी शिद्दत ने
ज़िन्दगी से एक ख़ामोश बग़ावत की थी
और कई सवाल किये थे
वह सब सवाल जो अज़ल से
हर आशिक़ और हर महबूबा
ज़िन्दगी से करते आये हैं.
और जिनके जवाब की तलाश में
थक-हार कर
उदासी की गोद में सो जाते हैं
गोया यह ही
इश्क़ के हर सवाल का जवाब हो
मेरी ख़ामोशी में वक्त की आवाज पिन्हा है
इसमें है
शम्मा की लौ की लरजां जुम्बिश
और आग की गर्मी
तूफ़ान का इज़तराब है
और सैलाब की तवानाई
मेरी ख़ामोशी में
इंक़लाब-ए ज़माना निहां है
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निहां- छुपा हुआ