रमाशंकर सिंह का आलेख ‘उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि’

रमाशंकर सिंह

घुमन्तू जातियाँ जो आमतौर पर मानव के प्रचेनतम रूप को अभिव्यक्त करती हैं, मनुष्यता की धरोहर हैं इनकी अपनी एक पुष्ट संस्कृति और भाषा होती है आधुनिकता की मार से ये जातियां सर्वाधिक प्रभावित हुईं हैं और प्रभावित हुई है इनकी संस्कृति और भाषा भी तुर्रा यह कि दुनिया की तथाकथित सभ्य जातियों ने इन्हें आपराधिक जातियों की सूची में रख कर इनके साथ सदियों से अमानवीय व्यवहार किया और ये लोग इसे सहते रहे। हमारी मानवता को विकसित करने और एक नयी दिशा प्रदान करने में इनकी भूमिका असंदिग्ध हैयुवा साथी रमाशंकर सिंह ने हाल ही में इन घुमन्तू जातियों पर एक महत्वपूर्ण शोध-कार्य सम्पन्न किया है उनके शोध का क्रम अनवरत अभी भी जारी है। वैसे भी इस दुनिया में ‘परफेक्ट’ जैसा कुछ होता नहीं है। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं रमाशंकर सिंह का महत्वपूर्ण शोध आलेख ‘उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि’।       


उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि

रमाशंकर सिंह  

भाषा एक आवाज में नहीं होती है। विभिन्न आवाजें मिल कर भाषा का निर्माण करती हैं। इन आवाजों को विभिन्न समयों में सुनने का प्रयास किया जाता रहा है लेकिन यह श्रवण चयनात्मक रहा है। आधुनिक समय में मुद्रण, संसाधन और वितरण की तकनीक की सुलभता के कारण उन समुदायों का ही साहित्य और इतिहास प्रकाश में आ पाया है जिन तक औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक बौद्धिक समुदाय पहुँचे हैं। घुमन्तू समुदाय इस पहुँच से दूर रहे हैं। उत्तर भारत के साहित्य में स्त्री साहित्य, दलित साहित्य और आदिवासियों के साहित्य की बात की जाती रही है लेकिन इस सबके बीच घुमन्तू समुदायों के बारे में लगभग न के बराबर लिखा गया है। इसका एक कारण अकादमिक उपेक्षा तो है ही इन समुदायों की लिखित ज्ञान’ से दूरी भी है। इसलिए सुविधाजनक तरीके से मान भी लिया गया है कि इन समुदायों की अपनी कोई संख्या पद्धति, संसार के प्रति नजरिया, भाषा और साहित्य नहीं है।

उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा

उत्तर प्रदेश में कई ऐसे समुदाय हैं जो सदियों से घुमन्तू जीवन जीते हैं। ये समुदाय हैं- नट, चमरमंगता, पथरकट और महावत। इसमें नट, चमरमंगता और महावत में एक समानता है कि वे भैंस-भैंसों का व्यापार करते हैं और जड़ी-बूटी का काम करते हैं। चमरमंगता बारहों महीने भिक्षावृत्ति करते हैं। पथरकट पत्थर का सिल लोढ़ा बना कर बेचते हैं और वे जंगलों आदि से शहद निकाल कर बेचते हैं। नट और महावत कुश्ती भी सिखाते रहे हैं। महावत औरतें दाँत झाड़ने का काम और कान साफ करने का काम करती हैं। वे भैंस और भैंसो के व्यापार और उनके गर्भाधान का काम अभी भी करते हैं। पिछले कुछ वर्षां में गाँवों के अंदरूनी इलाकों में भी सरकारी पशु अस्पतालों और बाएफ के प्रवेश ने उनके इस रोजगार को प्रभावित किया है। जिम, शक्तिवर्द्धक दवाओं तथा फिल्मी सितारों से प्रभावित युवा कुश्ती में कोई रूचि नहीं रखते हैं और लाठी को पिस्तौल या बन्दूक ने निष्प्रयोज्य बना दिया है।

घुमन्तू समुदायों की भाषा का आंतरिक परिसर

प्रत्येक समुदाय अपनी अंदरूनी दुनिया में एक भाषाई परिसर में जीवित होता है। पढे लिखे और स्थायी जीवन जीने वाले समुदाय प्रिंट-कल्चर में मुद्रित ज्ञान और भाषा को न केवल अपना ज्ञान और भाषा बना लेते हैं बल्कि इसके द्वारा एक संरचनात्मक श्रेष्ठता बोध भी स्थापित करने का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर घुमन्तू समुदाय अपना ज्ञान और अपनी भाषा अपने गीतों, कथाओं और किंवदंतियों में सुरक्षित और परिवर्धित करता चलता है। इसमें समुदाय की महिलाएँ और वृद्ध एक सांस्कृतिक क्यूरेटर की भूमिका निभाते हैं। महावत समुदाय में महिलाएँ कथा कहती हैं। प्रायः वे दस के समूह में गोल घेरा बना कर बैठती हैं। सबसे सयानी महिला कथा शुरू करती है। कथा के मध्य में अन्य महिलाएँ भी इसमें कथा-सूत्रों को जोड़ती रहती हैं। इसके लिए वे अपने आपको तैयार करती हैं। एक दूसरे को न्यौता भेजा जाता है। आपस में गुड़ या मिठाई बँटती हैं। इन कथाओं को एक विशेष अवसर पर सबको सुनना होता है तो बिना अवसर के इन्हें सुनना या सुनाना गुनाह माना जाता है। प्रिंट कल्चर आने के बाद कुछ कथाएँ छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में भी छपने लगी हैं। उत्तर प्रदेश में महावत इस्लाम धर्म को मानते हैं। इसलिए इनकी कथाओं में मोहम्मद साहब और उनसे जुड़े पवित्र कथानकों के अंदर महावत कथा-वाचक स्थानीय कथाओं को पिरो देते हैं। इसलिए यह कथाएँ रस्सी की एक लट के ऊपर दूसरी लट के लिपट जाने जाने जैसी प्रतीत होती है। यह कथाएँ एक ही समय में दो कथाएँ कहती हैं- एक मोहम्मद साहब की तो दूसरी इस समुदाय की।

उत्तर प्रदेश के नटों में कथा कहने और सुनने की दूसरी व्यवस्था है। समुदाय का पुरोहित, सोखा या कोई बड़ा-बूढ़ा कथा कहता है। महिलाएँ भी कथा कहती हैं। बहेलिया समुदाय और पारधी समुदाय में भी लगभग ऐसी ही व्यवस्था होती है। यह दुनिया कैसे बनी? इस दुनिया को कौन लोग चलाते हैं? समुदाय का नामकरण कैसे हुआ या जिस स्थान पर इस समय बसे हुए हैं, वहाँ पर कैसे आये? इस बात पर कथाएँ सुनायी जाती हैं। इन कथाओं में एक विश्व-दृष्टि होती है जिसमें परिवार, समुदाय या दुनिया को बचाने, उसे अधिक समतापूर्ण बनाने, संपत्ति के न्यायपूर्ण वितरण, मित्रता और आपसी भाईचारे की अविभाज्यता के संकेत छिपे होते हैं। इन कथाओं के अंदर इन घुमन्तू समुदाय के अस्तित्व में बने रहने की जुगत भी छिपी होती है। यह कथाएँ समूह में सुनी और सुनाई जाती हैं इसलिए एक ही समुदाय के अंदर इसके कई वर्जन होते हैं। एक ही कथा अलग-अलग समुदायों में पायी जा सकती है विशेषकर उन घुमन्तू समुदायों में जो दूसरे समुदायों से आर्थिक क्रिया कलापों से जुड़े होते हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति में शामिल किये गये बहेलिये और मध्य प्रदेश के मोघिया आपस में जुड़े हैं, विशेषकर दोनों प्रदेशों के सीमावर्ती जिलों में। उत्तर प्रदेश के बहेलिया समुदाय के लोग कंजर समुदाय के लोगों से पशुओं और पक्षियों का व्यापार करते हैं। इस प्रकार एक ही कथा मोघिया, बहेलिया और कंजर समुदाय में थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ पायी जा सकती है।
 
मित्रता और आपसी सौहार्द्र के लिए सुनाई जाने वाली इन कथाओं में पंचतन्त्र के कथा-शिल्प की झलक मिल सकती है जो जो इन कथाओं की एक लंबी श्रुति परम्परा की ओर इशारा करती हैं। उत्तर प्रदेश के नट समुदाय में एक कथा मिलती है। कथा कुछ यों सुनाई जाती है कि एक मोर था। एक तीतर था। दोनों हमेशा साथ रहते थे। एक बार दोनों में इस बात पर झगड़ा हो गया कि किसके पंख सबसे सुंदर हैं। जब कोई निपटारा नहीं हुआ तो वे अलग हो गये। अलग होकर दोनों दुःखी रहने लगे। इसी बीच एक दिन कुछ महिलाएँ जा रही थीं। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो वह मोर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह मोर नहीं है। यदि वह मोर होता तो उसके पास में तीतर भी होता। मोर को बहुत दुःख हुआ। उसने महिलाओं से कहा कि उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना मोर का मन नहीं लगता। उसने महिलाओं से कहा कि यदि उसे कहीं तीतर दिखाई पड़े तो यह बात उसे बता दें। महिलाओं को कुछ दूर आगे जाने पर तीतर दिखाई पड़ा। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो वह तीतर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह तीतर नहीं है। यदि वह तीतर होता तो उसके पास में मोर भी होता। अब तीतर को बहुत दुःख हुआ। तीतर ने महिलाओं से कहा कि उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना तीतर का मन नहीं लगता। जब महिलाओं ने बताया कि मोर के साथ भी ऐसा ही है तो तीतर मोर के पास चला गया। दोनों ने एक दूसरे से माफी मांगी। वे साथ-साथ रहने लगे। इस सामान्य सी कथा को कह कर समुदाय के बड़े-बूढ़े समुदाय के आपसी संबंधों और दोस्तियों को बचाने की जुगत खोजते हैं। वास्तव में आदिवासी और घुमन्तू समुदाय अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए न केवल कथा-कहानी और गीतों की रचना करते हैं बल्कि अपने सामुदायिक जीवन में एक दूसरे को स्वीकारने की विधियां भी ईजाद कर लेते हैं।
घुमन्तू समुदायों के भाषाई परिसर का विस्तार 

उत्तर प्रदेश में घुमन्तू समुदाय स्थायी रूप से बस रहे हैं। महावत, नट, पथरकट और कंकाली कहे जाने वाले समुदाय ऐसे समुदाय हैं जिन्हें स्थानीय प्रभुत्वशाली जातियों ने बागों, खाली पड़ी जगहों, ग्राम-समाज की जमीनों और चकबंदी से निकली जमीनों पर बसाया है। 1992 के बाद पंचायती राज व्यवस्था के आने के बाद वे ग्रामीण उत्तर प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण हो गये हैं। उत्तर फैजाबाद जिले में एक जगह है बड़ागाँव। यहाँ महावतों का एक बड़ा डेरा है। यहाँ से वे समीपवर्ती जिलों में आते जाते रहते हैं। उनका एक जत्था आज से कोई 80 वर्ष पहले गोण्डा जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर आदमपुर गाँव में बस गया। वहाँ के एक जमींदार ने उन्हें माफी के रूप में कुछ बीघे जमीन दी थी। जब यहाँ इनकी जनसंख्या बढ़ने लगी तो घुमन्तू स्वभाव के होने के कारण वे वहाँ से लगभग 14 किलोमीटर दूर सिसई ग्राम सभा में एक बाग में बसना प्रारम्भ हो गये। यह लगभग 40 साल पहले की बात है। सन् 2005 में जब उत्तर प्रदेश में पंचायतों के चुनाव हो रहे थे तो उनका मतदाता पहचान पत्र सिसई ग्राम सभा के निवासी के रूप में बना। वे ग्राम सभा की बंजर जमीन पर बसे हैं। पानी पीने के लिए एक इण्डिया मार्का पंप लगा है। अभी उनको इन्दिरा आवास योजना, जिसे सामान्य बोल-चाल की भाषा में कालोनी कहा जाता है, की सरकारी स्वीकृति के इन्तजार में है। उनके टोले में 20 से अधिक वोट होने के कारण उन्हें लगता है कि देर-सवेर गाँव का कोई न कोई प्रधान उनकी बात सुनेगा और उनके लिए कुछ न कुछ करेगा। उनकी बस्ती में ही दो सरकरी स्कूल हैं। एक प्राथमिक विद्यालय और दूसरा लघु माध्यमिक विद्यालय, फिर भी महावतों के कुछ बच्चों का स्कूल में नामांकन होने के बावजूद वे स्कूल नहीं जाते हैं। अध्यापक कहते हैं कि वे आना नहीं चाहते और महावत कहते हैं कि अध्यापक उनके बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। बच्चे कहते हैं कि उन्हें स्कूल अच्छा नहीं लगता। आखिर उन्हें स्कूल की दुनिया अपने डेरे से अच्छी क्यों नहीं लगती? स्कूल के अन्य बच्चों की तुलना में वे बहुत गरीब हैं और उनके माता-पिता अभी समझ को हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाए हैं कि शिक्षा से ही उनकी आर्थिक और सामाजिक अपवंचना को न्यूनतम किया जा सकता है। इस के अतिरिक्त एक कारण यह है कि इन बच्चों की दुनिया उस दुनिया से बहुत अलग है जहाँ से स्कूल के अन्य बच्चे सम्बन्ध रखते हैं। इनकी दुनिया में मुर्गे, कुत्ते, भैंस-भैंसा और इससे सम्बन्धित चीजें हैं जिन से वे अपनी बोली के द्वारा बहुत गहरे तक जुड़े हैं। प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री और प्रशासक के. एस. सिंह के सम्पादन में प्रकाशित इण्डियाज कम्युनिटीज तो कहती है कि वे हिन्दी बोलते हैं और देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हैं  लेकिन अधिकांश महावत पढ़े लिखे नहीं हैं और वे हिन्दी से भिन्न एक अलग प्रकार की भाषा का अपने दैनिक जीवन में बरताव करते हैं।

भाषा जीविका का हथियार है। उपेक्षित और परिधीय समुदाय अपनी जीविका के लिए विशिष्ट कूट भाषाओं की भी रचना करते हैं। इलाहाबाद और बनारस के निषादों तथा पंडों ने अपनी एक कूट भाषा विकसित कर ली है। इस बात पर विवाद हो सकता है कि यह भाषा है कि नहीं लेकिन इतना स्पष्ट है कि अपने दैनिक जीवन में वे इसका प्रयोग अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए करते हैं। यदि कभी आप इलाहाबाद में गंगा-यमुना के संगम पर जाएं और थोड़ा ध्यान से सुनें तो पाएँगे कि पंडे और नाव चलाने वाले अपने समुदाय के अंदर बहुत ही मद स्वर में कुछ वाक्यों या वाक्य खंडों में बातचीत करते हैं। इस बातचीत में दो समानांतर धाराएँ होती हैं। एक धारा वह होती है जब वे समझ में आ सकने वाली स्थानीय हिन्दी भाषा में बात करते हैं- बाबू जी….संगम-संगम….. पूरी नाव किराये पर लेंगे कि अन्य सवारियों के साथ चलिएगा….आने जाने का 200 रूपया….. बिल्कुल संगम तक चलेगें…… त्रिमुहानी तक….. अरे आप कम दे दीजिएगा…. जो समझ में आएगा वही दीजिएगा। यह भाषा हमें समझ में आती है। बिल्कुल इसी समय वे एक दूसरी भाषा में आपस में बातचीत करते हैं। इसका स्वर धीमा होता है। इस बातचीत में निषाद सवारियों के बारे में आपस में बात करते हैं। जो निषाद पहले किसी सवारी के पास पहुँचता है, वह सवारी से मोल-भाव करता है। यदि सवारियों का कोई बड़ा समूह आ पहुँचता है तो कई लोग एक पूर्वनिश्चित पेशेवराना समझ के अनुसार बात करने लगते हैं। इस बातचीत को यदि सुनें तो कुछ इस प्रकार की वाक्य संरचना सामने आती हैः- चौकड़ मांजी…. चौकड़ मांजी… फुलान पखियारी…. हातो सुनरैया कछान कर। बहुत ही ठीक ठाक सवारी है…. ठीक सवारी …… समृद्ध महिला है…… इस से पाँच सौ रूपया तक का भाड़ा तो मिल ही जाएगा)। लच्चड़ हय…… धानी मांजी…… तोय बोसाय ले (लाचार किस्म की सवारी है…… ठीक सवारी नहीं है (उसकी ठीक से किराया देने की क्षमता नहीं है….. तुम्हीं सौदा पटा लो)। सवारियों से कितना किराया लेना है, कितना कमीशन आपस में तय करना है, इस के लिए उन्होंने अपने हिसाब से संख्याओं का निर्माण किया है। कहते हैं कि भाषा और लिपि के विकास के आरम्भिक चरण में संख्याओं का निर्माण सबसे पहले होता है। उन्हों ने भी संख्याओं से शुरूआत की होगी क्योंकि घाट पर संख्याएँ उनकी जीविका से जुड़ी हैं। संख्याओं के नाम के पीछे उनके अपने व्यवहारिक और अनुभवसिद्ध तर्क हैं। संख्या एक (1) के लिए वे सांग/सान का प्रयोग करते हैं तो सौ (100) के लिए सुं/सुन का प्रयोग करते हैं। निषादों के बीच सौ के लिए सुन या सुं का प्रयोग सम्भवतः इसलिए प्रचलित हुआ होगा कि सौ के अन्त में दो शून्य होते हैं। इसके अतिरिक्त एक से लेकर दस तक की संख्यायें परम्परागत 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, …का पालन नहीं करती हैं। उन्होंने इसे अपनी सुविधा के अनुसार बनाया है। रूपया के लिए वे रैया शब्द प्रयुक्त करते हैं।

शब्द  संख्या    
सांग/सां एक 1         
जो छो 2      
रख /सिंघाड़ा तीन 3          
फोक चार 4           
हातो  पाँच 5           
हातो सान छह 6    पाँच में एक जोड़ कर = छह
हातो जो सात 7     पाँच में दो जोड़ कर= सात
हातो रख आठ 8 पाँच में तीन जोड़ कर = आठ
हातो फोक नौ 9 पाँच में चार जोड़ कर = नौ
सलाय दस  10      
रख पंजा पन्द्रह 15          
कोरी बीस 20        
मासा      पच्चीस 25  
रख सलाय  तीस  30 तीन को दस से गुणा कर के
रख सलाय हातू पैंतीस 35 तीन को दस से गुणा करके और उसमें पाँच जोड़ कर
फोक सलाय चालीस 40 चार को दस से गुणा
फोक सलाय हातू  पैंतालीस 45 चार को दस से गुणा करके और उसमें पाँच जोड़ कर
टाली पचास 50     
टाली सलाय साठ  60 पचास धन दस = साठ
टाली मोरी  सत्तर 70 पचास धन बीस = सत्तर
टाली रख सलाय अस्सी 80 पचास धन तीस (तीन को दस से गुणा करके) = अस्सी
टाली फोक सलाय नब्बे  90 पचास धन चालीस (चार को दस से गुणा कर के) = नब्बे
सुनरैया सौ 100    
सलाय सुनरैया एक हजार 1000          
इसी प्रकार महावतों और नटों में भी है। आपसी बातचीत में महावत या नट विशेष वाक्यों या वाक्य खंडों का प्रयोग करते हैं जिसे उनका ग्राहक समझ नहीं पाता है या इस बातचीत से उसका कोई सीधा जुड़ाव नहीं दीख पड़ता है। जब उन्हें ग्राहकों से ज्यादा पैसा लेना होता है तो इस प्रक्रिया को खोभना यानी ऐंठना कहते हैं।

‘सुआब देमा आवा है रे बपई, पक्की खम्मिस खुभाड़ ल्य तोय’
यानी ओ पिता, मनमाफिक ग्राहक आया है, इससे पाँच सौ रूपये ऐंठ लो।

महावतों के पास पक्के घर या तिजोरी तो होती नहीं इसलिए वे धन को बहुत ही सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। प्रायः वे इसे कथरी में या अपने वस्त्रों के आंतरिक भागों में बनी जेबों में रखते हैं। धन को छुपा कर रखने को ‘नसिया रखा हय’ कहा जाता है। जिस प्रकार निषाद और पंडे रूपये और संख्याओं को विशिष्ट नामों से जानते हैं, उसी प्रकार महावत भी रूपयों को गिनने की एक प्रणाली विकसित करने में सफल रहे हैं।

रूपए का हिन्दी में नाम महावतों और नटों की भाषा में नाम

रूपया कहीला
एक रूपया – एक कहीला
दो रूपया – दो कहीला
तीन रूपया –     तीन कहीला
चार रूपया –     चार कहीला
पाँच रूपया- पाँच कहीला
छह रूपया – छह कहीला
सात रूपया – सत्ता
आठ रूपया – आठ कहीला
नौ रूपया – नौ कहीला
दस रूपया – टसिल
बीस रूपया – दुइ लांग
तीस रूपया – टेढ़वा
चालीस रूपया – रावा
पचास रूपया – खम्मिस
सौ रूपया – लांग कहीला
पाँच सौ रूपया –  पक्की खम्मिस
एक हजार रूपया –     पक्की
पाँच हजार रूपया –     पाँच पक्की
दस हजार रूपया – असिल पक्की
दुनिया के सभी घुमन्तू समुदायों में कुत्ते का महत्वपूर्ण स्थान है। महावतों के डेरे में और उससे बाहर कुत्ता सदैव साथ में रहता है। लड़के को ‘बटरो’ और लड़की को ‘बटरी’ कहा जाता है। पत्नी को ‘गिहारी’ कहा जाता है। बटरो कुकुर बांधसी हय यानी – लड़का कुत्ता बाँध रहा है। सम्बोधन सूचक उच्चारणों में पुल्लिंग के लिए रेऔर स्त्रीलिंग के लिए री का प्रयोग किया जाता है-

बुआ हियाँ आरी। आव चली रे बजार- बुआ यहाँ आइए। आओ बाजार चलते हैं।
क्रियासूचक शब्दों के लिए महावत डरिमा, करिमा, चलिजाई का प्रयोग करते हैं- 
खाई लीमा? भोजन कर लिया है?
चलि जाई घाय छीलन को? घास छीलने को चलोगी?
अब्बै तोंहके मारि डरिमा- मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा।
कहीं-कहीं उनकी बोली में भोजपुरी का पुट भी देखने को मिलता है-
दुकान खुलल है आटा ली अउबे? दुकान खुली है आटा ले आओगे?
ऐसा इसलिए है कि कुछ महावतों के वैवाहिक सम्बन्ध भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में हैं।

महावतों के आपसी सामुदायिक सम्बन्ध बहुत ही प्रगाढ़ होते हैं लेकिन वे बात-बात में लड़ भी सकते हैं क्योंकि हर व्यक्ति कुछ न कुछ काम करता है और कोई किसी की धौंस-पट्टी नहीं सुनता। रूपए-पैसे के लेन देन में अगर विवाद हो गया तो वे आपस में इस प्रकार झगड़ भी सकते हैं-तोर हमरे ऊपर लइमी लगाय दिहिस? (तुमने मुझ पर चोरी का इल्जाम लगा दिया?) अथवा किसी ग्रामीण किसान, जमींदार या पुलिस ने उन पर चोरी का इल्जाम लगा दिया तो वे कह सकते हैं- हमरे ऊपर लइमी न लगाऊ।  वास्तव में अभी भी भारतीय समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग और पुलिस इस औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है कि गरीब और घुमन्तू जातियाँ पेशेवर तौर पर चोर होती हैं। इस निर्मिति ने इन वर्गों के खिलाफ सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण तैयार किया और उन्हें हाशियाकृत कर देने का एक छद्म नैतिक आधार तैयार किया।

इस प्रकार प्रकार हम पाते हें कि जब हम भाषाओं या बोलियों के बारे में बात कर रहे होते हैं तो हम केवल उन भाषाओं या बोलियों के बारे में बात कर रहे होते हैं जो दृश्यमान हैं या जो दृश्यमान समूहों द्वारा बोली जाती हैं। इसे हमारी भाषाई चेतना की अल्प दृष्टि कहें या असहिष्णुता कि हमारा मानस यह मानने को प्रस्तुत नहीं हो पाता कि ठीक हमारे इर्द-गिर्द एक बोली या भाषा सांस ले रही है। उसे सुनने की जरूरत है। उस दुनिया के नागरिकों से परिचय की जरूरत है। हम अपने देश को प्यार करने का दावा करते रहते हैं। जब तक हम उसकी सभी भाषाओं को प्यार नहीं कर पाएँगे तब तक उसे पूरा का पूरा कैसे प्यार करेंगे?

(आभार : इस लेख के कुछ हिस्से बद्री नारायण(2016), संपादकउत्तर प्रदेश की भाषाएंओरिएंट ब्लैकस्वाननई दिल्ली में छपे थे जबकि एक हिस्सा गणेश नारायण देवी द्वारा सितंबर 2015 में इंडिया इंटरनेशनल सेटर के एक तीन दिवसीय सेमिनार में पढ़ा गया था।)
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रमाशंकर सिंह की कविताएँ

रमाशंकर सिंह

आत्मवृत्त के नाम पर कुछ खास नहीं है सिवाय इसके कि गोण्डा जिले के एक छोटे से गांव में जन्म। अन्न उपजाने वाले पिता के कारण भूखे तो कभी नहीं रहे, लेकिन गरीबी और लाचारी को बहुत गहरे तक महसूस किया है। पहली कविता साकेत कालेज की पत्रिका साकेत ‘सुधा’ में 2002 में छपी थी, फिर ‘वाक’ में  2009  में और ‘कथादेश’ में 2012 में कविताएं छपी हैं। ‘कथादेश’ में सुभाष कुशवाहा के सम्पादन छपी कविता ‘रथचक्र’ उड़ीसा में पास्को संयंत्र से बेदखल लोगों के बारे में थी जिसे पाठकों ने बहुत सराही थी विशेषकर इसके स्वर और संवेदना की सघनता के लिए। एक दो समीक्षाएं भी छपी हैं। अभी हाल ही में घुमंतू समुदायों की भाषा पर काम किया है जो ओरिएंट ब्लैकस्वान से एक सम्पादित पुस्तक में आने वाला है। इसके सम्पादक बद्री नारायण और प्रधान सम्पादक गणेश नारायण देवी हैं। फिलहाल प्राकृतिक संसाधनों पर दलित समुदायों की हकदारी और उनके सतत हाशियाकरण पर शोध कर रहा हूँ जो अगले साल तक पूरा हो जाएगा। छात्र राजनीति में गहरी रूचि।

कवि अपने समय की विसंगतियों पर प्रहार तो करता ही है साथ ही उसे समय-समय पर स्वयं अपनी भी विसंगतियों की पड़ताल करनी पड़ती है ऐसा दुःसाहस बिरले ही कर पाते हैं हमारा यह कवि नया होते हुए भी खुद की पड़ताल करने का साहस रखता है वह इस बात से भलीभांति अवगत है कि स्वयं की बेहतरी के लिए वह रोजगार की जो जद्दोजहद कर रहा है उसमें तमाम ऐसे दायित्व हैं जिसे वह पीछे छोड़ आया है इसी क्रम में वह महसूस करता है कि उसे ‘बेईमान बनने की कहानी के बारे में’ / लिखनी हैं कई कविताएँ‘ आज कुछ इसी तरह का तेवर रखने वाले कवि रमाशंकर सिंह की कविताएँ पहली बार के पाठकों के लिए
रमाशंकर सिंह की कविताएँ  

 

सुशीला के लिए एक कविता

यह कविता सुशीला के लिए है
कि यह कविता उनके
उन सारे गीतों के लिए है
जो खो गये हैं
जौनपुर से इलाहाबाद के रास्ते में
कि यह कविता उनके
उन सारे विस्थापनों के खिलाफ हैं
जो सदियों से हो रहे हैं
सुशीला और उनकी माँओं के साथ
और अब उसकी बेटियों के साथ
गाँव से शहर
शहर से शहर
दर ब दर
कि यह जगह इलाहाबाद में हाथी पार्क चौराहा हो सकती है
या इस देश के मुख्यमंत्रियों के घर के पीछे
प्रधानमंत्री के घर के आगे
जहाँ सुशीला और उसकी बेटियाँ बांस छीलती हैं
छीलती हैं अपनी पीड़ा
बांस की पतली खपच्चियों के संग संग
वो अपने अंदर की स्त्री को छीलती हैं
वो बांस की सीढि़याँ बनाती हैं
जो स्वर्ग तो नहीं ले जातीं
लेकिन रोटी देती है।

चेहरा

ऐसा जाना भी क्या जाना
कि मन मेँ अटके रहते हो
एक फांस बन कर
जैसे पैर मेँ चुभा काँटा
नासूर बन जाए
कि चोर को परेशान करता है
उसकी दाढ़ी का तिनका ……….

कि अब शीशे मेँ
अपना चेहरा भी नहीँ दिखता
मैँने तुम्हारा चेहरा पहन लिया है.

पहला काव्य-पाठ

यह मेरा पहला काव्य पाठ है
थोड़ी सी प्रशंसा थोड़ा सा प्रोत्साहन चाहिए
थोड़ा सा शुभ शुभ बोल दो मेरे लिए
दो चार ताली बजा दो कि
मैं तुम्हारा जरखरीद गुलाम हो जाऊँगा मेरे स्रोताओं
मैं अपनी रीढ़ की हड्डी घर छोड़ आया हूँ
छोड़ आया हूँ घर
अपने सारे शब्दों के अर्थ
 सच को सच बखानने वाले शब्द
उनके रंगों के ऊपर कालिख पोत दी है मैंने
कि न आ सकें दुःख दर्द अपमान पीड़ा देने

लेकिन यह चलेगा नहीं
कि एक दिन कवि की रीढ़ मजबूत हो जाएगी
सच को सच कहने की हिमाकत करने लगेगा कवि
भर जाएंगे शब्दों में अर्थ
वापस आ जाएंगे रंग
कि उधियाये छत्ते से जैसे निकलती हैं मधुमक्खियाँ
निकलेंगे वैसे ही शब्द
और उनके डंक से जिंदा हो जाएगा कवि।

साफ-साफ

स्मृतियों से कहीं ज्यादा
अब विस्मृतियाँ करती हैं व्याकुल
खुद की ही रची साजिशाना चुप्पी व्याकुल करती है
व्याकुल करती है
मित्रों को अकेला छोड़ आने की दगाबाजी
जब उन्हें मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी
दिन रात डसती हैं
भुला दी गयी ढेर सारी कविताएँ
जो लिखनी थीं दिवंगत पिता के प्रति
अम्मा के लिए
क्वार की धूप में सूख रहे बैलों
और बड़े भैया के लिए
सबको अकेला छोड़ आकर
अपने पेट के जुगाड़ में
बेईमान बनने की कहानी के बारे में
लिखनी हैं कई कविताएँ

लिखनी हैं कई कविताएँ
उन क्षणों के बारे में
जब मुझे कहना था
कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ
तुम्हारे साथ कदम दर कदम चलना चाहता हूँ

लिखना यह भी है
कि मैं तुमसे करता हूँ घृणा
मैं नहीं शामिल तुम्हारे गिरोह में

पहचान 2

तुम्हारी नाक जैसी मेरी नाक है
वे सूँघ नहीं पाते
कि मिट्टी कब तैयार होगी
धान रोपने के लिए
तुम्हारे कान जैसे मेरे कान हैं
वे सबकी आवाज सुन नहीं पाते
जैसे तुम सुन लेते थे
सुग्गों की
बैलों की
कि कब बरखा होगी सुन लेते थे टिटहरी की टेर में
तुम्हारी आँखों पर गयी हैं मेरी आँखें
लेकिन उनमें पानी नहीं बचा है
जितना पानी तुम्हारी आवाज में था
तुम्हारे माथे जैसा मेरा माथा
लेकिन वह ऊँचा नहीं
साहबों की चापलूसी में घिस गया है

तुम्हारे जैसा लगता हूँ हँसने पर
लेकिन इतना काइयांपन है
कि अकेले में डर लगता है

मुक्ति दे दो ओ पिता
अपने रूप रंग से मुझे

तुम्हारी पहचान मेरी आत्मा में धँस गयी है
घूमा नहीं जाता अब
शहर दर शहर
तुम्हारा चेहरा पहन कर।

सम्पर्क-
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं .)

हितेन्द्र पटेल के उपन्यास ‘चिरकुट’ पर रमाशंकर की समीक्षा


किसी भी रचनाकार के लिए इतिहास बोध का होना जरुरी होता है। और जब यह लेखन खुद एक इतिहासकार द्वारा किया जाय तो उसमें इतिहास-बोध स्वाभाविक रूप से आता है। हरबंस मुखिया, लाल बहादुर वर्मा और बद्रीनारायण के साथ-साथ हितेन्द्र पटेल भी एक ऐसा ही सुपरिचित नाम है जो इतिहास के साथ-साथ साहित्य में भी दखल के साथ लेखन कर रहे हैं। अभी हाल ही में हितेन्द्र पटेल का एक उपन्यास ‘चिरकुट’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इस जरुरी उपन्यास की एक पड़ताल की है हमारे युवा साथी रमाशंकर ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा ‘चिरकुट : एक उपन्यास के साथ-साथ आर्काइबल दस्तावेज भी।’         

चिरकुट : एक उपन्यास के साथ-साथ आर्काइबल दस्तावेज भी 

रमाशंकर

किसी रचना को कैसे पढ़ा जाय? उस दौर के बारे में एक लेखकीय अनुक्रिया के रूप में जिस दौर के बारे में वह लिखी गयी है या उन सारे राजनीतिक और सांस्कृतिक अनुभवों के साथ जिसमें लेखक और उसका पाठक जी रहे हैं। यह जीना केवल अपना चुनाव भर तो है नहीं, उसमें वे जीने के लिए अभिशप्त हैं। वे अपने युग की महत्वाकांक्षाओं और हताशाओं लादने के लिए बाध्य हैं। हितेन्द्र पटेल के उपन्यास चिरकुट का नायक दिलीप बलराज की भटकन, कुंठा और उसकी महत्वाकांक्षाओं को इस रूप में देखा जा सकता है।

हितेन्द्र पटेल इतिहास के एक बेहतरीन विद्यार्थी रहे हैं और उनके काम से परिचित लोग जानते हैं कि दक्षिण एशिया के औपनिवेेशिक अतीत पर उनका काम काफी बोलने वाला काम रहा है। इस उपन्यास का एक पात्र एक जगह कहता है कि यह बिहारी इंटलीजेंसिया का चरित्र है कि वह मौका पाते ही बिहार छोड़ कर चला जाता है। पहले इलाहाबाद और कलकत्ता जाता था, फिर दिल्ली जाने लगा है। बिहार के लोग बंगाली जैसा होना चाहते हैं। वास्तव में यह आंतरिक उपनिवेशन के चिन्ह हैं। जिन लोगों को भारत में लिखे जा रहे नेपाली साहित्य से थोड़ा बहुत परिचय है वे कवियित्री रेमिका थापा की कविताओं से परिचित होंगे। उन्होने बहुत ही खूबसूरत लेकिन उदास कर देनी वाली अपनी कविताओं में भारत में रह रहे नेपाली जनों या स्वयं सिक्किम या दार्जिलिंग में रह रहे नेपाली भाषी लोगों के आंतरिक उपनिवेशन के बारे में लिखा है कि वे किस प्रकार भारत के दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता के शहरी भद्र जनों की तरह दिखना और बोलना चाहते हैं। कलकत्ता की फ्रीलांसिंग में वह अपने आपको आत्म सजग रूप से भले ही मीडियाकर कहता है लेकिन उसे भी एक अदद नौकरी की चाह है। यह उसे एन.जी.ओ. में ले जाती है। यहाँ हितेन्द्र एन. जी. ओ. की कार्यप्रणाली के बारे में थोड़ा-थोड़ा बताते हुए काफी बता जाते हैं कि किस प्रकार एन.जी.ओ. में एक उच्चता-क्रम है। बड़े-बड़े सामाजिक बदलाव के नारों के बावजूद किसी आब्जर्बर का काम वे रिपोर्टें तैयार करना है जो सरकार को पसंद आये। यहाँ यह बिल्कुल गैर सरकारी और गैर राजनीतिक नहीं है बल्कि राजनीतिक पहुँच उस समय भी जरूरी है जब उसमें काम करने वाले मानस घोष की हत्या हो जाती है। यह संगठन अपने उस सहकर्मी की मौत की जाँच से ज्यादा अपने अस्तित्व को जरूरी समझता है। यहीं पर आ कर इस उपन्यास की एक विदेशी पात्र लिंका का यह आश्चर्य समझ में आ जाता है कि कि भारत में लोग नौकरी करने को ही काम समझते हैं और एक पूरा का पूरा देश सरकारी नौकरी की आस में जी रहा है। और इस सरकारी नौकरपने की प्रप्ति की लिए उच्च शिक्षा प्राप्ति की पूरी जुगत की जाती है। नौकरपने की यह प्रवृत्ति 1980 के दशक की बाद एक सामान्य अभिवृत्ति बन गयी है।

 (उपन्यासकार : हितेन्द्र पटेल)

 
दिलीप बलराज के जीवन में तीन महिलाएँ आती हैं जिनसे वह कभी पूरी तरह से जुड़ नहीं पाता। श्यामली की ओर वह खिंचा हुआ महसूस करता है। बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में। फिर उसे छोड़ कर भागता भी है। देह उसे आकर्षित करने लगी है लेकिन इतना नहीं कि वह किसी महिला के सामने स्वीकार कर ले। इसके बाद स्काटिश चर्च कालेज की प्रैक्टिकल बुद्धि वाली बीस वर्षीय स्वर्नाली से उसकी मुलाकात होती है जो कविताएँ तो बहुत अच्छी नहीं लिखती है लेकिन उसे पता है कि जो कुछ करना है उसे पचीस साल के अन्दर कर लेना है। वह एक मोटी तनख्वाह पर सरकारी सलाहकार भी हो जाती है। वह उसके प्रति एक आकर्षण सदैव महसूस करता रहता है लेकिन उसे वह उस रूप में स्वीकार नहीं कर पाता है जैसी वह है- अपनी राह अपनी समझ के अुनसार बनाती हुई। तीसरी महिला है सुचरिता- स्लीवलेस गाउन, खुले बालों में। सुचरिता से वह दैहिक सम्बन्धों की मजबूरियों को तो शांत कर लेता है, प्रायः पशुवत, लेकिन वह उसकी आत्मा में न तो उतर पाता है और न ही सुचरिता इसका उसे अवकाश देती है। यह सम्बन्ध ‘प्योर फिजीकल‘ ही बना रहा। वह ऐसा न बन सका इसके लिए सुच्चि ही जिम्मेदार थी। दिलीप ऐसी किसी भी स्त्री से कभी नहीं मिला था जो दैहिक रिश्ते को इतना महत्व देती हो। उसके लिए संभोग एक मुकम्मल काम था। कोई जिम्मेदारी नहीं। लेकिन यही सुच्चि अपने बच्चे के साथ बिन ब्याही माँ बनने को तैयार है। घोष बाबू कलकत्ता छोड़ कर चले जाते हैं लेकिन यह महिला पाठक की स्मृतियों का हिस्सा बन जाती है। 
 
इस उपन्यास में दिलीप का सामना एक ऐसे आश्रम और गुरू से होता है जो सुदूर गाँव में स्वावलम्बी जीवन जी रहा है लेकिन वह किसी प्रकार के सामाजिक बदलाव में हस्तक्षेप नहीं करता है। वहाँ के गुरू के अपने तर्क हैं कि आज के अर्थ में सामाजिक हो जाने का अर्थ बाजारू हो जाना ही है। तो क्या सामाजिक हो जाना इतना सीमित हो गया है? यह बात दिलीप को बुहत कुढ़ाती है उस दिलीप को जिसके मन में जयप्रकाश नारायण की कई छवियाँ चस्पा हैं। यहांँ किसान नेताओं की भी कई छवियाँ हैं जो अत्याचार के खिलाफ खड़ी हैं। कई की तो छवियाँ समय ने अपने साथ गढ़ ली हैं जिनमें राहुल सांकृत्यायन और स्वामी सहजानंद को मिला दिया गया है। छवियों के निर्माण की इस प्रक्रिया को हितेन्द्र का इतिहासकार बखूबी रेखंकित करता है। चिरकुट एक उपन्यास है लेकिन वह एक प्रकार आर्काइबल दस्तावेज भी है जिसमें कई समूहों की ऐतिहासिक स्मृतियाँ भी जुड़ी हैं। जयप्रकाश समाज और राजनीति को बदलना चाहते थे और यहाँ तो सामाजिक बदलाव के लिए एन जी ओ की फौज तैयार है यानि कि समाज को बदलने के लिए फुलटाइमर होना कतई जरूरी नहीं । पश्चिम बंगाल के जो माक्र्सवादी फुलटाइमर हैं वे रैलियों में अन्य जगहों में इतने असहिष्णु हैं कि किसी और को बर्दाश्त कर ही नहीं पाते। इस उपन्यास के अंत तक आते आते जनता उन्हें बर्दाश्त करने को इच्छुक नहीं हैं जहां एक महिला उनके खिलाफ धरने पर बैठी है। 

1980 के बाद के दशक के युवाओं में जो एक बेचैनी और कुछ भी करने की महत्वांकांक्षा और इसे न कर पाने की हताशा है, वह इस उपन्यास में हितेन्द्र हमारे सामने रखते जाते हैं। भाषा कहन का एक औजार है। हितेन्द्र इसे अच्छी तरह से जानते हैं। वे जो कुछ कहना चाह रहे हैं, उसे बहुत ही सरल भाषा में कह जाते हैं। कभी- कभी इस भाषा को बररतते हुए वे डरते हुए प्रतीत हो सकते हैं विशेषकर उन पाठकों के लिए जो कुछ खास स्थलों पर डिटेलिंग की अपेक्षा रखते हों। कलकत्ता की स्त्रियों के बारे में बिहार की स्त्रियों का डर है कि बंगाली स्त्रियाँ मर्दाें को भेड़ बना कर रख लेती हैं और रात में मनुष्य बना देती हैं। ‘कौन सा खेल है जो मनुष्य बनाए बिना नहीं खेला जा सके- इस प्रश्न का उत्तर उसे उस वक्त नहीं सूझा था।’  उपन्यास के अंतिम तीस पृष्ठ दिलीप को इसका उत्तर देते हैं। 

इस उपन्यास की एक कमजोरी यह है कि जब सह उपन्यास स्मृतियों ओर व्यक्तिगत दुश्चिंताओं से निकल कर एक पोलिटिकल टोन निर्मित करने की ओर अग्रसर होता है तो समाप्त हो जाता है। फिर भी यह समापन अपने आप में उद्देश्यपूर्ण है- पाठक को राजनीतिक बनाना।

चिरकुट (उपन्यास): हितेन्द्र पटेल 
नयी किताब, दिल्ली, 2013 
पृष्ठ-168, मूल्य 110 रूपये।

सम्पर्क-

रमाशंकर
शोध छात्र,
गोबिन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान,  
इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)

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