सपना चमड़िया |
सपना चमडिया की कविताओं से गुजरना उन्हीं के शब्दों को उधार ले कर कहें तो ‘समाज और राजनीति के बड़े दायरे से हो कर गुजरना है।‘ बेशक ये कविताएँ पढ़ते हुए हम अपने समय के क्रूरतम यथार्थ से रू ब रू होते हैं। यह यथार्थ ‘रहमत खा’ कविता में दिखता है जिसमें सपना कहती हैं -‘जानते नहीं हवा में/ रक्त की गन्ध / सदियों तक रहती है।‘ या फिर ‘कश्मीर के उस लड़के’ में जो ‘जब तक जिया/ शर्मसार रहा/ यही सोचता रहा/ कि जो अपना हिमालय छोड़ेगा/ वो इसी तरह/ सफाचट मैदान में मारा जाएगा।‘ समय भी तो ऐसा ही है जिसमें हम प्रवासी बनने के लिए मजबूर हैं। अगर नहीं भी बनना चाहें तो ये जो लुभावनकारी बाजार है, विज्ञापनों की दुनिया है वह हमें इस तरह भरमा देती है जिसमें हम चाहे-अनचाहे जाल में उलझने के लिए विवश हैं। बचने के सारे रास्ते इस तरह अवरोधित कर दिए गए हैं कि एकबारगी यही लगता है जैसे अपने पास कोई विकल्प ही नहीं। सचमुच सपना की कविताएँ बहुत देर तक ‘हमारी जिन्दगी से लिपटी रहती हैं।‘ विद्रूपताओं से भरे इस समय से गुजरते हुए भी सपना उस प्यारी सी जिद और उस सपने से भरी हुई हैं जिसमें वे बिहू के जरिये शब्दांकित करती हैं – ‘मैं अपनी किताब का मुँह/ चाकलेट से भर देना चाहती हूँ।‘
युवा आलोचक आशीष मिश्र ने सपना की कविताओं की एक पड़ताल की है। सपना चमड़िया की कविताओं के साथ हम प्रस्तुत कर रहे हैं आशीष मिश्र का आलेख ‘हिमालय से कटा सफाचट मैदान में मारा जाएगा।
सपना चमड़िया की कविताएँ
पिछले दो दशकों में हिन्दी कविता उभर रही अस्मिताओं के कारण ज़्यादा लोकतान्त्रिक हुई है। साथ ही इन अस्मिताओं ने अपनी खिड़की-दरवाजे खोले हैं और एक अर्थ में इनका भी लोकतान्त्रीकरण हुआ है। अस्मिता की वास्तविक समझ इस बात पर निर्भर करती है, कि उसे कितने बड़े सन्दर्भ में देखा-समझा जा रहा है। स्त्रीवाद अगर परिवार को सन्दर्भ बनाता है तो चीजें बहुत मूर्त रूप में सामने आएँगी और उन सत्ताओं से लड़ना भी आसान होगा। पर संभवतः यह छाया को पीटना होगा जिससे समस्या का हल नहीं मिलेगा। पर जब स्त्रीवाद लैंगिक संरचना को मज़बूत करने वाले सूत्रों को पकड़ना शुरू करता है तो चीजें बहुत विस्तृत (कई बार नज़र की जद से छूटती हुई), अंतर्विरोधी और अमूर्त होती जाती हैं। अनगिनत परिच्छेदी अस्मिता व पहचानों का संजाल मिलता है। यहाँ उसे गहन सांस्कृतिक विमर्श में उतरना पड़ता है और उसे मिलता है कि पूरी दुनिया ही पुंसवाद के महीन तारों से बुनी गई है। अब वह चीजों को उसकी द्वंद्वात्मकता में पकड़ना शुरू करती है और अन्य अस्मिताओं के साथ समंजित होती हुई सूक्ष्म वास्तविक सत्ताओं तक पहुँच संभव कर लेती है। आज स्त्रीवाद का सन्दर्भ परिवार से निकल वैश्विक संरचना तक फैल चुका है। स्त्री भी जानती है कि इस वर्गीय संरचना के अंदर मुक्ति संभव नहीं। इस संरचना को ‘रिप्लेस’ किए बिना मुक्ति की चाहत बँधी नाव में चप्पू मारना होगा। अतः यह आवश्यक है कि इस संरचना के खिलाफ़ संघर्षरत ताक़तों से जुड़ा जाए। इस तरह यह लड़ाई बहु-विमीय होगी। इस समझ से ही आज स्त्रीवाद वैश्वीकरण विरोधी एक सशक्त आवाज के रूप में विकसित हुआ है। इसने वैश्वीकरण के जेंडर निरपेक्षता के दावे को झुठलाते हुए, इसकी ‘सेकसिस्ट टेंडेंसीज़’ और पुंसवादी सोपानक्रम को मज़बूत करने वाली सबसे बड़ी ताक़त के रूप में दिखाया।
स्त्रीवादी किसी भी तरह के शोषण व दमन को पितृसत्ता के ‘प्रोटोटाइप’ की तरह लेते हुए अपने को विस्तृत संघर्ष से जोड़ता है। एक वक्तव्य में सपना चमड़िया लिखती हैं – “धीरे-धीरे हम समाज और राजनीति के बड़े दायरे को अपनी कविताओं में समेटने की कोशिश करते हैं। जो लेखिकाएँ ऐसा नहीं कर पातीं वो सिर्फ़ …एक तरह के भाववाद के संजाल में फँसी रहती हैं। मैंने इसे तोड़ने की कोशिश की है”। इस तरह का भाववाद न केवल दुनिया से कटा हुआ होगा बल्कि स्त्री मुक्ति की भी संकीर्ण समझ को दर्शाता है। सपना जी इसे ठीक से समझती हैं। उनका वक्तव्य सिर्फ़ कहने के लिए कहना नहीं है, उनकी कविताएँ इसे प्रमाणित करती हैं। इनमें सिर्फ़ सामाजिक-जातिगत अन्याय के पहाड़ को खोदते और प्रेम की ऊष्मा से भरे दशरथ माझी ही नहीं हैं। इनमें अनवर चाचा हैं, इसमें गुजरात और अफ़गानिस्तान की माएँ हैं, अस्ति-नास्ति के बीच फँसा कश्मीर है, पल-छिन हिंसा के शिकार हम हैं। और साथ ही लड़ने का ताप भी है। यहाँ अनवर चाचा के प्रति वैष्णवी सदाशयता नहीं है। अनवर चाचा सदाशयता की माँग भी नहीं करते, वे अपने ठेठपन में प्यार करते हैं और वही चाहते भी हैं। इस कविता में बाल कविता-सी सहजता है (हालाँकि सांस्कृतिक संदर्भों के कारण यह अपने अन्दर उथल-पुथल से भरी हुई है)। इसका कारण यह है कि बिहू भी इसकी एक विमा है। कहे में यह कविता कवयित्री की है पर देखे में बिहू की। झूठ और प्रपंच पर प्रेम तब विजयी होता है जब बिहू कहती है–
“मैं अपनी किताब का मुँह
चाकलेट से भर देना चाहती हूँ”।
आज जब फ़ासिस्ट ताक़तें पूरे सांस्कृतिक बोध को ही विकृत करने में लगी हैं, तब ये पंक्तियाँ और भी अर्थवान हो जाती हैं। और जब पूंजीवाद सामंतवाद से गठजोड़ करते हुए दमन की प्रक्रिया को और गहन बनाता जा रहा है, यह चीज़ों को उनकी संबद्धता में देख-समझ लेने की दृष्टि देती है। इसी तरह ‘रहमत ख़ान’ कविता में जरूरी सहजता और सार्थक नाटकीयता है। यह नाटकीयता ‘वस्तु’ को लिजलिजी भावुकता से उबार कर उसे विडंबनात्मक बना देती है-
“गले में रुमाल
आँखों में सुरमा
यहाँ तक तो फ़िर भी
ठीक था
पर कमबख्त
क्या जरूरत थी
लिखवाने की
बड़े-बड़े अक्षरों में
रहमत ख़ान का रिक्शा
ये ऐलान, ये हिमाक़त
मारे जाओगे गुलफाम”।
यह कैसा समाज है जहाँ नाम से अपराध तय हो जाता है! इस कविता में नारेबाजी के बजाए चीर देने वाला ठंडापन है।
वैश्विक पूजी-तंत्र हिंसा का ‘महीन सूत्र’ बुन रहा है। हर चीज़ इन सत्ताओं की गिरफ़्त में है। पर ये सूत्र इतने सूक्ष्म और उलझे हैं कि अक्सर हमारे साधारण समझ की जद से छूट जाते हैं। इसने भयंकर विस्थापन को जन्म दिया है। सपना जी का ‘कश्मीर का लड़का’ विस्थापितों की विडम्बना का सशक्त रूपक है। ‘वह अपनी जड़ों से कटे और सफाचट मैदान में पहुँचा दिये गए लोग’ है। वह ऐसे लोगों से जुड़ता है जिनके जंगल राजनीतिक कुर्सी के पाए और पूजीपतियों के नेमप्लेट बन गए। इस कविता की अंतिम पंक्तियाँ बहुत ही अर्थगर्भित हैं –
“कि जो अपना हिमालय छोड़ेगा
वह इसी तरह
सफाचट मैदान में मारा जाएगा”।
यहाँ ‘हिमालय’ भूदृश्य से ज़्यादा अपनी माटी व जातीय स्मृतियाँ है। आज की उत्तर आधुनिक परिस्थितियों में ‘विश्लेषित स्मृतियाँ’ ही प्रतिरोध बन सकती हैं। पूँजी का सांस्कृतिक लीद मनुष्य को स्मृतिहीन बनाने में ही नियोजित है। इस बात से इसका अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि सपना जी ‘स्केल्टन विमेन’ की रूमानी कल्पना को नकारती हैं। सपना जी ‘रोज मरने के दृश्य’ में ‘रोज मारे जाने का दृश्य’ रचती हैं। मीतू का ऐक्सिडेंट विश्वासघात है, हत्या है। यह कविता, जिसमें हम रहते हैं उस पूरी संरचना के खिलाफ़, पंचायत बुलाना चाहती है। हिंसा, दमन और विश्वासघात के रेशमी तारों से बुनी यह पूरी संरचना इस हत्या में शामिल है। कार्य-कारण के सूत्र को यह कविता संवेदनक्षम काव्य-न्याय से रचती है। इस जीवन-विरोधी स्थितियों में बाहर निकलना, जान हथेली पर लेकर निकलना है! कवयित्री का गुस्सा भी देखा जा सकता है। और यह गुस्सा उन सारी परिस्थितियों, लोगों व तर्कों के प्रति है, जो इसे बनाए रखने में किसी भी रूप में सहयोगी हैं-
“अगर मैं तुम्हारे गाँव की
ओझा गुनी होती तो
जवाब नहीं मिलने पर
सबकी आत्माओं को
कील देती
लाल पीली हरी
ट्रैफ़िक लाइट पर”
अन्तिम पंक्तियाँ विडंबनाबोध को और भी सघन करती हैं-
“मैं पूछती हूँ तुमसे
पूछती हूँ दसों दिशाओं से
पूछती हूँ क्षिति, जल, पावक
गगन, समीरा से,
कि अभी कैसे
मर सकते हो तुम
जबकि स्कूटर के लोन की
अन्तिम क़िस्त जानी बाक़ी है”।
हिन्दी में इस तरह का पैनापन रघुवीर सहाय के यहाँ ही संभव है। कविता की रग-रग में बसी करुणा इन पंक्तियों को और भी ज़्यादा मार्मिक बनाती है। यही करुणा ‘गुजरात और ईराक़ की माएँ’ शीर्षक कविता में विस्तार पाती है। रघुवीर सहाय का नाम लिया है तो एक बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि रघुवीर सहाय की करुणा पैसिव करुणा है, जो क्रिया में परिणत ही नहीं होती। रामदास सरे बाजार मारा जाएगा पर कोई विरोध नहीं होगा। इन कविताओं में पैसिव करुणा नहीं; प्रतिरोध है। प्रतिरोध भी सिर्फ़ मुहावरेदार भाषा और नारेबाजी के अर्थ में नहीं, इससे गहरा है। आज पूरे समाज का जिस तरह अमानवीकरण किया जा रहा है और हमारा अपना समाज फ़ासिज़्म के फंदे में कसता जा रहा है, एक संवेदनशील दृश्य भी प्रतिरोध में बदल जाता है। जब वैश्विक पूँजी प्रकृति को चाट जाने पर आमादा हो तो दूब की एक पत्ती उठाना भी सब कुछ की मुखाल्फ़त करना है। इस कविता में व्यक्तिगत अनुभव समष्टि के प्रति करुणा में बदल जाते हैं (थोड़ा और सुधार करें तो- समष्टि के प्रति करुणा के रूप में विकसित होते हैं)। और सामयिक संदर्भों के सहारे अपना राजनीतिक पक्ष और प्रतिपक्ष भी व्यंजित करते हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि सपना जी अपने समय-संदर्भ के प्रति बहुत सजग हैं। इस संदर्भ में कविता से कौन सी अर्थ छायाएँ विच्छुरित होंगी इसे समझती हैं। इसीलिए कई जगह वे मितभाषी हैं और थोड़ा-सा प्रकाश डाल कर चीज़ों को संदर्भों के हवाले कर देती हैं।
उक्त वक्तव्य में, जहाँ से मैंने उद्धरण दिया है, सपना चमड़िया लिखती हैं- “एक व्यक्ति और एक स्त्री का वाङ्ग्मय एक तरह से हमें प्राप्त नहीं हुआ है। एक स्त्री का वाङ्ग्मय सीमित होता है और दुनिया से उसके परिचित होने के दायरे को बराबर समेट कर रखा गया है। समय में बाँधें तो हद से हद सौ साल पुराना होगा”। एक चीज़ और जोड़ने की जरूरत है कि न सिर्फ़ वाङ्ग्मय सीमित है, अपितु भाषा भी उनकी नहीं है। पूरी भाषा ही पुरुष आत्मवत्ता का विस्तार है। सूक्ष्म से सूक्ष्मतर अर्थ-छवियाँ भी पुंसवादी छापों से लदी हुई हैं। ऐसे में स्त्री के लिए अपने भाव-बोध की कोडिंग अपेक्षाकृत मुश्किल काम है। स्त्रियों में भाषिक सर्जनात्मकता और संरचनागत वैविध्य अधिक देखने को मिलता है। मेरी समझ से इसका कारण यह है कि लेखकों का जीवन–बोध सापेक्षतः जीवन का सामान्य बोध होता या उससे बहुत ज़्यादा समंजित। अतः भाषा के लिए भी कोई नितांत मौलिक संघर्ष नहीं होता, भाषाएँ समान्यतः उनके बोध से अनुकूलित हैं। लेखिकाएँ पुरुषों द्वारा गढ़े गए स्त्रीवादी नारों में उलझ कर अपने प्रतिरोधी दुनिया को ही रचती रहती हैं। इस तरह के जीवन–बोध से एक प्रतिगामी सम्बद्धता बनता है। इसे तोड़ने के लिए सजगता अवश्यक है। सपना चमड़िया की कविताएं इस सम्बद्धता को तोड़ती हुई अपने बोध को रोप देती हैं। यहाँ कविता विविध स्तरों पर पुंसत्त्ववादी अनुभवों को डिकोड करती हुई अपने अनुभवों की कोडिंग करने में सक्रिय दिखेगी।
स्त्रियों ने मिथकों का जितना सर्जनात्मक उपयोग किया है, वह गंभीरता से सोचे जाने की माँग करता है। मुझे सपना जी की कहीं पढ़ी हुई ‘बरसात’ शीर्षक कविता याद आ रही है। जिसमें वे इन्द्र के मिथक को पुनर्व्यख्यायित करती हैं। इसी तरह आप देखें तो मिलेगा कि कवयित्रियाँ प्रकृति को भाषा की तरह रच रही हैं। संभवतः इसका कारण यह है कि दोनों का दमन और शोषण एक ही प्रक्रिया में हुआ है। ‘नमाज़ की तरह’ कविता का एक पाठ इस तरह भी हो सकता है।
सपना चमड़िया का स्त्रीवाद कहीं भी मर्द बनने का आकांक्षी नहीं है। वे ससम्मान और बराबरी का जीवन चाहती हैं। ‘ओ हमारे माझी’, ‘पेट्रोल पंप पर लड़की’, ‘नमाज़ की तरह’ आदि इसी तरह की कविताएं हैं। नमाज़ की तरह कविता को गतानुगतिक प्रेम समझ टाप जाने के बजाए गम्भीर पाठ की जरूरत है। यह गहरे अर्थों में स्त्री की प्रेम कविता है। उसका जीवन सत्य है, जो पुरुष द्वारा अपनी आत्मवत्ता और अनुभव को निरपेक्ष सत्य की तरह गाये गए प्रेम को जगह-जगह से तोड़ती है। यह तमाम सहमतियों-असहमतियों से बुना इसी धरती का मानवीय संबंध है। प्रेम में पुरुष के लिए स्त्री दर्पण की तरह है जहाँ वह अपने को पाना चाहता है, उसे पाना चाहता है जिसे उसने सदियों से वहाँ छोड़ रखा है। । स्त्री के अनुभवों से उसे कोई मतलब नहीं। इसीलिए स्त्रियों ने इसे ‘कार्पस सेक्सुयलिटी’ की तरह भी समझा है। इस कविता में एक-एक चिह्नों पर ध्यान देना होगा। उदाहरण के लिए इन पंक्तियों को लें-
“बस बीच-बीच में
मादा कबूतर अपने गहरे काले
पंखों से ढक लेती है
अपने साथी को”।
विस्तार से बचते हुए सिर्फ़ इतना आग्रह है, कि ‘सब्जेक्ट’ और ‘ऑब्जेक्ट’ अवस्थिति पर ध्यान दें। इस कविता में हिन्दू चिह्नों से बचना सिर्फ़ भगवावाद से लड़ने की चाहत नहीं बल्कि इससे आगे बढ़ कर यह कविता नमाज़, रमजान और वज़ू को भी नितांत मानवीय धरातल पर उतार देती है। और चीज़ों की उदात्तता को स्वीकारते हुए भी ‘मानुष सत्त’ को सबसे ऊपर रखती है।
आशीष मिश्र |
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