गीता पण्डित की कहानी ‘विदआउट मैन’।

गीता पण्डित

विवाह संस्था को ले कर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। शताब्दियों पहले अस्तित्व में आयी इस संस्था का कोई विकल्प फिलहाल आज तलक नहीं मिल पाया है। नए जमाने का ‘लिव इन रिलेशन’ अभी तक कोई ख़ास उम्मीद नहीं जगा पाया है। हमारा रुढ़िवादी समाज इसके बाहर जा कर सोचने लायक अभी शायद नहीं हो पाया है। वैसे इस बात में कोई दो राय नहीं कि इस विवाह संस्था में स्त्रियों की स्थिति पुरुष से हीनतर ही रहती आयी है। और यह असमानता ही इस संस्था की आलोचना का बायस बनती है। पहली बार की आज की इस पोस्ट में कवयित्री गीता पण्डित अपनी कहानी ‘विदआउट मैन’ के माध्यम से इस संस्था का विकल्प सोचने की सफल कोशिश करती हैं। हालांकि बात स्वीकार्यता के मसले को ले कर फिर उसी समाज के पल्ले की तरफ जा कर मुड़ जाती है। लेकिन समय बदल रहा है। समय के प्रतिमान बदल रहे हैं। पुराने मूल्य एवं पुरानी नैतिकताएँ ध्वस्त हो रही हैं क्या पता चुपके-चुपके समाज उस विकल्प की तरफ बढ़ ही चला हो जिसकी तरफ गीता पण्डित ने इशारा किया है और जो कम से कम आज के मध्यम श्रेणी के शहरों में भी हमारे समाज के लिए दूर की कौड़ी लगता है। तो आइए आज पढ़ते हैं गीता पण्डित की नयी कहानी ‘विदआउट मैन’। 
                
विदउट मैन 
गीता पंडित
जून का महीना, यानी साल के सबसे गर्म दिन, एडमिशन फार्म की लम्बी लाइन में सुबह छ बजे से लगे हुए सभी परेशान थे। तपते सूरज ने और भी पस्त कर दिया। लगभग एक बज रहा था फिर भी काफी लम्बी लाइन थी और लंच का समय होने वाला था। सभी में एक बेचैनी थी कि लंच होने से पहले फार्म मिल जाए नहीं तो डेढ़ घंटे का इंतज़ार और। तभी मैं पीछे से आँधी की तरह तेजी से भागती हुई आयी और इधर-उधर बिना देखे लाइन में सबसे आगे जा कर खडी हो गयी। सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। पीछे से कोई जोर से चिल्लाया हम क्या पागल हैं जी जो सुबह से लाइन में खड़े हैं।
ओ मैडम !!!!! आप पीछे जा कर लाइन में लगिए।
फिर कई आवाजें एक साथ गूँजने लगीं। मैं पलटी। एक दृष्टि दूर तक जाती हुई लाइन पर डाली और धीमे-धीमे डग भरते हुए पीछे की तरफ बढ़ी।
मैं अधिक दूर तक नहीं जा पायी। धूप की तेजी से मेरा सर चकरा रहा था। सँभलते-सँभलते भी मैं गिर गयी और बेहोश हो गयी। आँख खुली तो पाया मेरा चेहरा भीगा हुआ था शायद किसी ने पानी के छींटे दिए थे। मेरे चारों तरफ मजमा लगा था। सभी अवाक थे। जल्दी से मैंने उठने की कोशिश की लेकिन असमर्थ रही। कुछ हाथ सकपकाए फिर सहारा बन कर मुझे उठने में मदद करने लगे।
लंच का समय हो गया था इसलिए सब तितर-बितर हो रहे थे लेकिन मैं धीमे से एडमिशन विंडो की तरफ बढ़ी तो एक आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा।
आप जल्दी से फार्म ले लीजिये आपकी तबियत ठीक नहीं है। विंडो बंद होने वाली हैए लंच के बाद खुलेगी। मैंने आँख उठा कर देखा यह तो वही लड़का था जिसने अभी-अभी मुझे उठने में मदद की थी। मैंने कृतज्ञता से उसे देखा और थैंक्स कह कर विंडो की तरफ बढ़ी। फार्म लेकर जैसे ही पलटी उसने कहा – ‘अभी भी आप स्वस्थ नहीं दिखाई दे रहीं अगर आप कहें तो मैं आपको घर ड्रॉप कर दूं।‘
पल भर मैं रुकी शायद सोच रही थी कि एक अजनबी के साथ जाना उचित होगा क्या लेकिन कोई और ऑप्शन न होने के कारण सहमति में सर हिला दिया।
रेड कलर की स्पोर्ट्स कार जो उसका स्टेट्स और टेस्ट दोनों का बयान कर रही थीए में बैठे तुम मुझे गाड़ी में बैठने का इशारा कर रहे थे। मैं पल भर के लिए हिचकिचाई और फिर एक झटके से आँख पर आये अपने बालों को झटका दे कर धीरे से जा कर सीट पर बैठ गयी।
हाय!!! मी निखिल
हाय!!!! मायसेल्फ निक्की
यू लुक लाइक अ न्यू स्टूडेंट इन दिस कॉलेज
यस।
मैं अचम्भित थी कि लड़कों से दूर भागने वाली लडकी आज किसी अजनबी के साथ यूँ फ्रंट सीट पर अकेले बैठी है। सच कहूँ तो मैं एक चुम्बकीय आकर्षण में खींची जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि मैं उसे सदियों से जानती हूँ। जाने कब से ऐसे ही आगे की सीट पर बैठी हूँ उसके साथ शहर-दर-शहर घूमती हुई उसे देखती हुई महसूसती हुई और चाहती हूँ कि ये रास्ता कभी भी समाप्त ना हो।
पहली मुलाक़ात में ऐसा अहसास बड़ी अजीब सी बात थी ना। मुझे अपने आप पर आश्चर्य हो रहा था। एक अजीब सा अहसास था जो पहले कभी महसूस नहीं हुआ था और जिसे शब्दों में कह पाना मुश्किल लग रहा है।
‘लव एट फर्स्ट साईट’ शायद इसे ही कहते होंगे।
कॉलेज का पहला दिन था। कोएड होने के बावजूद क्लास रूम दो भागों में विभक्त होता था। दांयी तरफ लडकियां बैठती थीं और बांयीं तरफ लड़के। मैं इंग्लिश लिटरेचर में एम. ए. कर रही थी निखिल भी मेरी ही क्लास में था इसकी जानकारी मुझे तब हुई जब क्लास के पहले ही दिन प्रोफ़ेसर के अटेंडेंस लेने पर ‘प्रेजेंट सर’ की आवाज़ मेरे बांयी साइड की आगे की बेंच से आयी। यह आवाज़ जानी पहचानी थी। मैं भी दांये तरफ आगे की बेंच पर बैठी थी। मैंने गर्दन घुमा कर देखा तो वह मेरी तरफ देखकर मुस्करा रहा था। मैं बता नहीं सकती कि उस समय मैं कितनी प्रसन्न हुई। जैसे छोटे से बच्चे को झुंझना मिल जाए और वो नाचने गाने लगे। बस यही हाल मेरे मन का था। क्यों था नहीं बता सकती।
सांवला रंगए मध्यम कद, नाक-नक्श ठीक-ठाक, साधारण सा दिखने वाला व्यक्तित्व लेकिन ड्रेस सेंस गजब का शांत सौम्य अपने आप में खोये रहना, स्टूडियस होनाए रिक्त पीरियड्स में दोस्तों के साथ कैंटीन में गप्पें हाँकने की जगह लायब्रेरी में किसी न किसी किताब में डूबे रहना, एक अमीर बाप बेटा होते हुए भी सहज और सरल, कुल मिला कर ये सब चीजें किसी भी लडकी को आकर्षित कर सकती थीं। हो सकता है कुछ हद तक मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ हो लेकिन कुछ और भी था जो मुझे बार-बार निखिल के बारे में सोचने पर विवश कर रहा था। कीट्स के अनुसार तो ऐसा भी हो सकता था कि ‘ब्यूटी लाइज इन दी आईज ऑफ़ बीहोल्डर’
हो सकता है। पता नहीं क्या था लेकिन कुछ तो था जो मुझे उसकी तरफ़ बराबर आकर्षित कर रहा था।
अब हम किसी न किसी बहाने गाहे-बगाहे मिलने लगे। हर महीने अपने पीरियड्स के समय तीन दिन तक मैं कॉलेज नहीं जा पाती थी तो निखिल मुझे अपने नोट्स दे देता। या कभी किसी लेक्चर को समझने में परेशानी होती तो हम डिस्कस करते। वह मेरी मदद करने में हमेशा आगे रहता और जब भी समय मिलता हम देश-दुनिया की अनगिनत बातों पर बहस करते, लड़ते झगड़ते, रूठते और अगले ही पल फिर से बात करने लगते।
निखिल के सुलझे हुए विचार, मेच्योर सोच मुझे प्रभावित कर रही थी। हम अच्छे दोस्त बन गए थे। वह मेरा एक इकलौता दोस्त था यह बात मॉम डैड जानते थे इसलिए वह घर भी बेरोक-टोक आता। मेरे मॉम डेड उससे मिल कर खुश होते और उससे ढेर सारी बातें करते।
यह छोटे से शहर का या कहूँ कि आसपास के कई गावों का इकलौता कॉलेज था जो शहरी और देहाती भाषा, वेश भूषा और तहजीब का एक खूबसूरत नमूना था लेकिन एक दिन एक अजीबोगरीब घटना घटी।
हुआ यूँ कि लगभग आठ बजे जैसे ही मैं क्लास रूम में प्रवेश करने वाली थी मैंने देखा कि देवेन्द्र जो पास के ही एक गाँव से आता था और हमारी ही क्लास का विद्यार्थी था, उसकी दोनों टाँगे एक के ऊपर एक हो कर टेबल पर फैली हुई थीं और वह अधलेटा सा बेख़ौफ़ प्रोफेसर की चेयर पर पसरा हुआ था। सर्दी के दिन थे इसलिए उसने एक शाल अपने सर और कानों के चारों तरफ लपेट रखा था। अचानक उसने निखिल को आवाज़ दी जो अभी-अभी आया था।
ओये! ज़रा यहाँ सुनियो, तू ये सूट बूट पहन कर कॉलेज में क्यों आता है, अपने बाप का रौब दिखाने के लिए… है ना ऐसा ही है ना। कल से सूट बूट में ना देख लूँ। 
लेकिन क्यूँ… मुझे रोकने वाले आप कौन होते हैं… आप भी पहन लीजिए।
अच्छा !!!! उलटा जवाब देता है। जानता नहीं मैं कौन हूँ… चल तुझे बताता हूँ।
इसके बाद लात घूंसे चप्पल की अंधाधुंध बरसात निखिल पर होने लगी साथ में गालियों की भी।
साले सूट पहन के आयेगा… ले पहन…. और पहन… और ना जाने क्या-क्या।
वह पिटता रहा चीखता रहा मन दहलता रहा लेकिन कोई भी उसे बचाने के लिए आगे नहीं आया। मैं तो जैसे काठ हो गयी। चाहते हुए भी कुछ नहीं कह पायी। हाँ, कॉलेज में बहुत हंगामा हुआ। बात मेनेजमेंट तक पंहुची और बाद में देवेन्द्र को रेस्टिकेट भी कर दिया गया।
निखिल को गुम चोट ज़्यादा लगी थी चेहरे पर कई जगह नील पड़ गए थे। दांयी आँख सूजी हुई थी मैं और कुछ लड़के उसे तुरंत फर्स्ट एड के लिए ले गए जो कॉलेज से ही प्रोवाइड हो जाती थी। वह गाड़ी ड्राइव करने की हालत में नहीं था इसलिए हम उसे घर ड्रॉप करके आये।
अगले दिन मैं क्लासमेट्स के साथ उसे देखने गयी लेकिन उससे मिलने की इजाजत नहीं मिली शायद, घर वाले नाराज़ थे और क्रोधित भी कि जब वह पिट रहा था तो किसी ने भी उसकी मदद क्यों नहीं की। मैं बेचैन थी और दुखी भी। उससे मिलना चाहती थी। उसे देखना चाहती थी। मैं लगातार उसे फोन करती रही। उसका फोन हमेशा स्वीच्ड ऑफ आता रहा।
इस घटना के बाद निखिल कभी कॉलेज नहीं आया। वह पहले से ही बाहर जाना चाहता था। अब बहाना भी मिल गया। वह आगे की पढाई के लिए आस्ट्रेलिया चला गया जहां उसके मामा जी रहते थे। बाद में पता चला कि वह वहीं सेटिल भी हो गया। उस घटना के बाद वह मुझे कभी नहीं मिला और कोई कान्टेक्ट भी नहीं हुआ।
कितनी अचम्भे की बात है ना। क्या कोई ऐसे जाता है हम अच्छे दोस्त थे हाँ!!! बात दोस्ती से आगे नहीं बढ़ी थी। उसके जाने के बाद मुझे अहसास हुआ कि कहीं भीतर कुछ था जो रिक्त होता जा रहा था। कई बार मैं स्वयं से प्रश्न करती कि क्या ये एकतरफा दोस्ती थी।  
क्या उसे मेरी याद कभी नहीं आयी? क्या वो फोन भी नहीं कर सकता था? क्या कॉलेज में घटी एक घटना हमारी दोस्ती से इतनी बड़ी हो गयी कि बात भी ना की जाए? 
ऐसे समय में पल सदी में बदल जाते हैं।
कैसा अजीब इत्तेफ़ाक था। पहली बार मुझे कोई बहुत अच्छा लगने लगा था और वही इस तरह से गायब हो गया। समय के साथ-साथ ये दोस्ती दीवानगी में बदलने लगी। मैं घंटों अकेली बैठी सोचती रहती, रोती रहती। निखिल जैसे मेरी आदत बन गया था। उसके बिना सब कुछ बेमानी था। पढ़ाई में भी मन नहीं लग रहा था। जैसे-तैसे पोस्ट ग्रेज़ुएशन की पढाई पूरी की। फिर अपने डैड के बिजनेस में दिन रात झोंक दिए और हम दिल्ली में सेटल हो गए।
यादों को भूलने का सबसे अच्छा तरीका है व्यस्त हो जाना। मैंने यही किया।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जैसे.जैसे दिन महीने साल बीतते गए। मैं महसूस करने लगी कि मैं उसे भुला नहीं पा रही हूँ। क्यों मैं अपने आप से पूछती लेकिन कोई उत्तर नहीं मिलता था।
तो क्या ये प्यार था। अगर मैं वास्तव में प्रेम में थी तो ऐसा कैसे हो गया।
प्यार भी क्या पूछ कर आता है। वह तो दबे पाँव अंतर में प्रवेश करता है और आपको बेबस बना देता है। मैं इस विवशता को गहराई से महसूस कर रही थी लेकिन प्यार होने की बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। एक अंतर्द्वंद मुझे भीतर ही भीतर मथ रहा था।
प्यार!!!! जैसे किसी ने हजारों सूईयाँ एक साथ मेरे तन-बदन में चुभो दीं। हजारों बिच्छू मेरे शरीर पर रेंगने लगे।
मैं जानती थी कि प्यार से अधिक खूबसूरत कोई चीज नहीं होती लेकिन प्यार मोहब्बत जैसे शब्द मेरी डिक्शनरी में नहीं थे।
क्योंकि जब से होश सम्भाला मेरे दायरे में जो भी स्त्रियाँ आयीं मैंने उन्हें अंदर ही अंदर रोते कलपते बिसूरते हुए महसूस किया। मेरी चाची जिन्हें चाचा दादा जी के कहने पर ब्याह तो लाये थे लेकिन प्यार किसी दूसरी औरत को करते थे इसलिए चाची ने जीवन के सबसे सुंदर दिन अकेले काटे। ताई को ताऊ जी बात बे-बात पर गालियाँ देते और पीटते वे बेचारी गूँगी बनी सब कुछ सहती, डरी सहमी हँसने के नाम पर चेहरे पर चिपकाई हुई हँसी और बोलने के नाम पर होठों पर दबी हुई सिसकियाँ और वो भी केवल इसलिए कि वे विवाहित स्त्रियाँ प्रेम में थीं।
मॉम के दुःख दर्द अलग थे। डैड ने उन पर कभी हाथ नहीं उठाया लेकिन छिप-छिप कर रोते हुए उन्हें हर रोज़ देखा। हर छोटी से छोटी बात पर डैड को क्रोधित होते हुए और मॉम को भला बुरा कहते हुए सुना।
कभी पूछने का साहस नहीं हुआ लेकिन मेरे अंदर डर के साथ-साथ धीरे-धीरे एक खोजी प्रवृत्ति जन्म लेने लगी। मैं अनजाने ही घर और आस पडौस की हर स्त्री के भीतर प्रवेश करने की कोशिश करने लगती।
उनकी सूनी आँखें बिना कहे बहुत कुछ कह जातीं। काम वाली बाई जब तब आ कर बताती कि आज उसके मरद ने उसकी बहुत पिटाई की। वह अपने शरीर पर पड़े हुए निशान दिखाती तो मेरा मन विवाह के प्रति घृणा से भर जाता।
अब हालत यह हो गयी कि प्रेम और विवाह दोनों मेरे सामने प्रश्न बन कर खड़े हो गए।
लेकिन प्यार किया नहीं जाता हो जाता है। इस होने का सुख वही बता सकता है जिसने प्रेम किया हो और मैं इस समय प्रेम में थी तो उलझन में भी।
मैं यादों में जाने कब तक घिरी रहती तभी मैंने अपने कंधे पर एक स्पर्श महसूस किया। मैं जैसे किसी तिलिस्म से बाहर आयी। आँख अपने आप खुल गयीं ये मेरी मॉम थीं जो जाने कब से खडी मुझे देख रही थीं।
बेटा! ऑफिस नहीं जाना है क्या, देख तो बारह बज रहे हैं।
ओह!!! दस से बारह कैसे बज गएघ् दो घंटे हो गए स्टडी टेबल पर बैठे हुए। आश्चर्य से मैंने वाल घड़ी की तरफ़ देखा। फिर संयत हो कर बोली
मॉम आज नहीं जाऊँगी जबकि मैं तो तैयार बैठी हुई थी।
कुछ देर वो यूँ ही खडी रहीं एकटक मेरी आँखों में झाँकते हुए फिर धीरे से उन्होंने मेरी आँखों पर हाथ घुमाया झुक कर मुझे प्यार किया और एक भी शब्द बिना बोले वापस लौट गयीं।
मैंने महसूस किया कि मैं रो रही थी। मेरे हाथ में निखिल का काव्य-संग्रह था जिसकी एक कविता पढ़ते-पढ़ते मैं अपने आप में डूब गयी थी।
तुम्हारे लिए
देखना जब मैं नहीं होऊँगा
तब भी होऊँगा
अपने इन शब्दों में
जब तुम इन्हें बुद्बुदाओगी
मैं होऊँगा तुम्हारे उस स्पर्श में
जब तुम अजाने इन्हें छुओगी
और होऊँगा भुजाओं के उस बंधन में
जब बेख्याली में
तुम इस पुस्तक को सीने से लगाओगी
महसूस करोगी मुझे अपने अंदर धडकते हुए
सच कहता हूँ देखना
 
मेरे आँसू चेहरे से ढुलकते हुए गर्दन तक आ गए थे। ओह!!!! मॉम ने भी देख लिए। जाने क्या सोच रही होंगी।
मॉम मेरी वजह से ही इतनी उदास और दुखी रहती हैं। मैं उनकी इकलौती संतान हूँ। मैं जानती हूँ मेरे मॉम डैड के सपने मुझसे जुड़े हैं और मैं विवाह के नाम पर हमेशा ही ना नुकुर करने लगती हूँ। निखिल के प्रति मेरा प्रेम इसकी वजह तो है ही मगर मुझे विवाह के नाम से डर लगता है यह भी एक कारण है।
लेकिन कब तक ऐसा चलेगा। कोई निर्णय लेना होगा।
अब और नहीं !! मुझे कुछ करना होगा। मॉम की उदासी मैं और अधिक सहन नहीं कर सकती।
निक्की धीरे से उठी। उसने बड़े प्यार से पुस्तक को सहलाया जैसे निखिल को ही सहला रही हो और फिर उसे वहीं शेल्फ में रख दिया।
बिना इधर-उधर देखे गाड़ी की चाबी ले कर बाहर निकल गयी। वह एक डॉक्टर से परिचित थी जो उसकी समस्या का समाधान कर सकतीं थीं।
आज के वैज्ञानिक युग में चिकित्सा पद्धति की तरक्की उससे छिपी नहीं थी। उसने गैराज से गाड़ी निकाली और डॉ नीतल के नर्सिंग होम के लिए रवाना हो गयी।
निक्की को मालूम था कि वह जो करने जा रही है उसे उसका परिवार या समाज किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा। मॉम दुखी होगी और पिता चुपचाप अपनी लायब्रेरी में सिगरेट फूंकने लगेंगे। हो सकता है कुछ दिनों के लिए बात करना भी बंद कर दें।
लेकिन उसने तो ठान ली थी और स्त्री जब एक बार ठान ले तो किसी में इतना साहस नहीं जो उसका रास्ता रोक सके। तभी उसे याद आया कि डॉक्टर से अपोइन्टमेंट तो लिया ही नहीं। कोई बात नहीं आज यूँ ही सही।
डॉक्टर नीतल अपने रूम में ही थीं दोपहर के दो बज रहे थे बस उठने ही वाली थीं कि निक्की ने कहा
‘मे आई कम इन डॉक्टर! गुड आफ्टर नून।‘
‘यस!! गुड आफ्टर नून।‘
सोरी बिना अपोइन्टमेंट के आ गयी। 
‘कोई बात नहीं निक्की।‘
वह अपना नाम सुन कर आश्वस्त हुई फिर अचानक कहने लगी।  .
ओह!!! शायद आप जाने वाली थीं। 
हाँ!!! जाने वाली तो थी मगर तुम कहो कैसी हो? क्या समस्या है जो आज मुझ से मिलने आ गयीं?
निक्की जैसे शब्द इकट्ठे करके बेहिचक बोली। मैं अविवाहित हूँ आप जानती हैं लेकिन माँ बनना चाहती हूँ।
… … तो बच्चा गोद ले लो। हमारे नर्सिंग होम में ऐसे कई बच्चे पैदा होते हैं जिनके गरीब माँ बाप कई सन्तान होने की वजह से उन्हें बेच देते हैं या अनाथ आश्रम से भी ले सकती हो … समाज का कुछ तो भला होगा। 
हाँ !!!!! ले तो सकती हूँ लेकिन मैं स्वयं माँ बनने की इच्छुक हूँ।
तो ठीक है और भी विधि है। तुम्हारे ही स्पर्म लेकर बच्चा पैदा करा देंगे सेरोगेटिड मदर से। 
जी … लेकिन मैं स्वयं माँ होने की पीड़ा से गुज़रना चाहती हूँ।
लेकिन निक्की! ऐसा क्यूँ, बिना विवाह के माँ बनना अनेक प्रश्नों को जन्म देगा। सह सकोगी। हम जिस समाज में रहते हैं उसको नजर अंदाज करना क्या उचित है… 
समाज!!!! हाँहाँ किस समाज की बात कर रही हैं आप? वो समाज जो सदियों से स्त्री को अपने जूते की नोक पर रखता है। जिसने अपने फायदे के लिए उसे गुलाम बना रखा है। घूँघट और बुर्के में रख जिसने आधी आबादी की सोच पर भी विराम लगा दिया है। घर, सड़क, चौराहा कहीं भी स्त्री के साथ कुछ भी हो जाए वह अपनी आँखों पर पट्टी बांधे रहता है।
लेकिन निक्की !!!
नहीं!!! डॉक्टर, आज तक समाज ने हम स्त्रियों को क्या दिया है तिरस्कार और अपमान के अलावा,आज भी स्त्री की वही दशा है या कहूँ उससे भी बदतर। घर तहखाने हैं और अंदर बाहर भेड़िये, स्त्री इस समाज के लिए केवल देह है सरकार के पास समय नहीं है यह सब देखने के लिए और क़ानून उसकी आँख पर तो पहले से ही पट्टी बंधी है।
सौरी डॉक्टर, मुझे यह सब आपसे नहीं कहना चाहिए था।
इट ओके निक्की… बी रिलेक्स्ड… ।
तो आप बताईये क्या आप मेरे सपने को पूरा करने में मुझे सहयोग देंगी?
डॉक्टर ध्यान से निक्की की बात सुन रही थीं। वह निरुत्तर हो गयीं। अंत में सहमति में सर हिलाते हुए बोलीं कि आओ मैं तुम्हारा चेक अप कर लूँ।
सब ठीक है निक्की! कुछ टेस्ट लिख रही हूँ करा लेना इसके बाद समय सुनिश्चित किया जा सकता है।
निक्की को कुछ राहत महसूस हुई लेकिन वह यह भी जानती थी कि मॉम डैड को मनाना लोहे के चने चबाने जैसा है। उसे एक कहावत याद आ रही थी जब ओखली में मुँह दिया तो मूसलों से क्या डरना।
निक्की अपने आप से बोली चढ़ जा बेटा सूली पर भली करेंगे राम। और यह सोचते-सोचते गाड़ी कब घर के गेट तक पंहुच गयी पता नहीं चला।
घर पर मॉम अकेली थी। डाइनिंग टेबल पर बैठी लंच के लिए निक्की का इन्तजार कर रही थीं। वह धीमे से वहीं उनके पास वाली कुर्सी पर बैठ गयी। लंच करते-करते उसने कहा . ‘मॉम! आज कहीं बाहर चलते हैं लोंग ड्राइव पर डिनर भी बाहर करेंगे। चलोगी ना।‘
‘हाँ !!! हाँ क्यूँ नहीं।‘
  
निक्की ने हमेशा जो भी चाहा वो सहज रूप से उसे प्राप्य था दोस्त, क्लब, पार्टी आये दिन के शगल थे। कहीं कोई रोक-टोक नहीं थी लेकिन जीवन के इस अहम फैसले में वह मॉम डैड को साझीदार बना कर अपनी बात मनवाना चाहती थी।
लोंग ड्राइव पर जाना तो बहाना मात्र था। गाड़ी अपने गंतव्य स्थल की तरफ दौड़ने लगी। दमदमा लेक पहुँचते-पहुँचते साढ़े पांच बज चुके थे। जहां गाड़ी रुकी वहां सामने की तरफ लहराती बलखाती दूर तक जाती हुई नदी। नदी के जिस्म पर अठखेली करती हुई मोटरबोट, कश्तियाँ, खिलखिलाते लोग और डूबने से पहले अपनी भरपूर छटा बिखेरता नदी में अपना अक्स तलाशता सूरज, पीछे जहां तक आँख जाती हरियाली के खूबसूरत कालीन, फूलों से लदी झाड़ियाँ और क्यारियाँ थीं। छायादार वृक्ष थे।
एक तरफ बच्चों के लिए झूले और झूमते हँसते खेलते-दौड़ते शोर मचाते बच्चे जहां केवल खुशियाँ थीं। किलकारियां थींए रिश्ते-नाते थे। खिलखिलाहट थी और हाथ पकड़ने वाली उंगलियाँ थीं तो दूसरी तरफ एक स्थान ऐसा भी जहां खुले मैदान में गैस पर गर्मागर्म पकौड़े, बड़े साम्भर और इडली किसी टूरिस्ट बस के यात्रियों के लिए बन रहे थे जिनमें कुछ वहीं बैठे थे कुछ आराम से दोनों हाथों का तकिया बना लेटे हुए थे और कुछ ताश खेलते हुए बातें कर रहे थे।
रोजाना की भागमभाग में से कुछ पल चुरा कर ऐसे जीना सचमुच फिर से श्वासों को जीवंत कर जाता है। दुःख-दर्द पीड़ा जो आज के जीवन का अभिन्न अंग बन गयी है, को भूल कर कुछ पल सुकून के केवल अपने लिए रखना कितना सुखकर है यह वही जान सकता है जिसने इन पलों का आनन्द लिया हो।
 
निक्की यह सुख कई बार भोग चुकी थी। वह खुश होती थी यहाँ आकर लेकिन आज एक बेचैनी थी मन में एक उदासी जो न चाहते हुए भी चेहरे पर झलक रही थी। मॉम का हाथ पकड़ कर निक्की वहीं नदी में पाँव लटका कर एक पत्थर पर बैठ गयी।
पैरों को स्पर्श करती नदी जैसे उसकी समूची देह में प्रवेश करने लगी। वह झुक कर नदी को अंजुरी में भरने की कोशिश करती। लहरें आतीं और तपाक से अँजुरी में बैठतीं, उछलतीं और भाग जातीं।
वह बड़ी देर तक ऐसा करती रही। लग रहा था कि बह नदी से बतिया रही है और नदी भी कान लगा कर उसे ध्यान से सुन रही है।
अब निक्की नदी थी या नदी निक्की कहना मुश्किल था।
 
मॉम बहुत ध्यान से उसे लगातार देख रही थीं। वह जानती थीं कि बेहद व्यस्त रहने वाली निक्की यूँ ही यहाँ नहीं आयी। सुबह स्टडी चेयर पर उसका रोना भी यूँ ही नहीं था इसलिए चुप्पी तोड़ने की पहल मॉम ने की।
हाँ तो अब बताओ बेटा!!!!! क्या बात है?
मॉम!!!!!!!!!!!!!
हूऊऊऊन।
मैं विवाह नहीं करना चाहती।
लेकिन माँ बनना चाहती हूँ।
… …. … …. …. .
ओह!!!
क्यूँ?
कैसे?
माँ बनने का सुख तुम्हारी तरह भोगना चाहती हूँ मॉम स्वयं अपने बच्चे को जन्म दे कर। 
लेकिन विवाह करके भी तो आसानी से माँ बन सकती हो।  
नहीं मॉम! विवाह नहीं!!!!!
क्यों … … विवाह हमें सुरक्षा देता है। आज भी विवाह से बेहतर कोई संस्था नहीं। लिविंग रिलेशनशिप के भी अपने खतरे हैं। तुम अपनी मर्जी के लड़के से विवाह कर सकती हो।
मॉम, विवाह मात्र समझौता है प्रेम नहीं। वहां केवल देह का मिलन होता है। यह एक ऐसी सामाजिक संस्था है जहां स्त्री का स्त्री बने रहना मुमकिन नहीं। फिर कुछ रुक कर बोली .
विवाह सेक्स के लिए एक विशेष सर्टिफिकेट है वो भी पूरी तरह सामने वाले की इच्छा पर निर्भर। और सेक्स!!!! उस पर तो सोचना भी जैसे अपराध है।
तौबा!!! तौबा !!!! समझौते पर यानि शर्तों पर जीवन जीना मुझे मंज़ूर नहीं और सेक्स के लिए विवाह करने की आवश्यकता नहीं।
मॉम बड़े ध्यान से निक्की की बातें सुन रही थी। बोलना चाहती थी लेकिन कुछ ना कह कर चुप रहीं। 
अच्छा!!!! सच सच कहना मॉम। क्या विवाह करके तुम खुश रहीं।  
क्या आज तुम अपने आपको पहचान सकती हो?
मैंने तुम्हारी शादी से पहले की तस्वीरें देखी हैं कितनी स्मार्ट और सुन्दर थीं और आज अच्छी-खासी पढी-लिखी होने के बावजूद तुम्हारी ये हर समय कुछ ढूंढती सी आँखें तुम्हारे मन का पता बताती हैं। तुम्हारा यूँ घुट-घुट कर जीना मुझे तोड़ता है। तुम्हारी चुप्पी मुझे बेचैन करती है।
तुम्हारी नींद, तुम्हारे सपने, तुम्हारी इच्छाएँ, तुम्हारे शौक, तुम्हारा हँसना मुस्कराना, बातें करना, सजना-सँवरना कहाँ गया मॉम?
मुझे नानी ने बताया था तुम बहुत चंचल थीं। पढाई-लिखाई में अव्वल। फिर ये क्या हो गया? विवाह ही तो किया आपने क्या अपराध कर दिया।
विवाह दो परिवारों के साथ विशेष रूप से दो व्यक्तियों का मिलन है दो दिलों का मिलन है तो उत्सव की तरह होना चाहिए ना। ये घुटन, ये बेबसी, ये निरीहता क्यूँ?
क्या तुम्हें याद है कब खिलखिलाकर हँसी थीं? कब भरपूर नींद ली थी? कब चांदनी से बातें की थीं? कब पंछियों को गाते हुए सुना था?
याद है वो प्रेम जो तुमसे शुरू और तुम्हीं पर खत्म होता था आज कहाँ गायब हो गया? क्यूँ गायब हो गया मॉम?
जबकि प्रेम जीवन का अनिवार्य अंग है। प्रेम श्वासों की जरूरत है। प्रेम धडकनों का संगीत है। प्रेम सारी दुनियाँ से जुड़े रहने का साधन और स्वयं को पहचानने, स्वयं तक पंहुचने का माध्यम है।
निक्की बिना पूर्ण विराम लगाए बोलती जा रही थी।
मेरी रूह तक यह सोच कर काँप जाती है कि अगर प्रेम ही नहीं रहा तो अस्तित्व-विहीन होकर कैसे जिएगी?
नहीं !!!!!!!!!!! नहीं!! बिलकुल नहीं। विवाह नहीं। 
निक्की ने धीरे से अपनी दोनों आँखें बंद कीं और बुदबुदाने लगी।
मैं लोस्ट सोल हूँ मॉम !!!
मैं निखिल से प्रेम करती हूँ लेकिन विवाह नहीं कर सकती वो आस्ट्रेलिया चला गया है। वह यहाँ होता तब भी मैं उससे विवाह नहीं करती क्योंकि विवाह के बाद प्रेम प्रेम नहीं रहता वह मर जाता है।
‘मैं प्रेम में हूँ मॉम। मैं प्रेम हूँ और हमेशा प्रेम बने रहना चाहती हूँ।‘
तुम्हारी तरह अहिल्या होना मुझे स्वीकार नहीं।‘
मॉम के पास कोई उत्तर नहीं था। वह स्तब्ध बैठी रहीं। बस एक आंसू धीमे से आँख से ढुलक गया। 
थोड़ी देर बाद उन्होंने निक्की का हाथ अपने हाथ में लिया। उसका माथा चूमा और बैठे ही बैठे उसे बाहों में भर लिया। अविरल अश्रुओं की धारा दोनों को भिगो रही थी। जाने कितनी देर तक दोनों ऐसे ही नदी बनी रहीं। नदी जो ठहरती नहीं। जो निरंतर प्रवाहित होती है। यहाँ प्रेम का प्रवाह था, विश्वास का प्रवाह था, अनकहे शब्दों का प्रवाह था और उस स्वीकारोक्ति का, उस सहमति का जिसे निक्की चाहती थी।
अगले दिन की सुबह बड़ी खुशनुमा थी। कोहरा छट चुका था। निक्की और मॉम हॉस्पिटल जा रही थीं।
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(इस कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)     

गीता पण्डित की कविताएँ

गीता पण्डित
गौतम का यशोधरा को यूँ सोते छोड़ कर घर से चले जाने वाला प्रसंग मुझे हमेशा से परेशान करता रहा है गीता पण्डित ऐसी समर्थ कवयित्री हैं जिन्होंने इस मुद्दे को अपनी कविता का विषय बनाया है शायद इसलिए भी कि एक स्त्री दूसरी स्त्री के मर्म को बेहतर तरीके से जानती-समझती है बुद्ध आजीवन दुःख से पार पाने के प्रयास करते रहे और उपदेश देते रहे लेकिन ‘दुःख’ रक्तबीज सा हमेशा जिन्दा सही साबूत हमारे सामने दिखाई पड़ता हा इसके पीछे के कारणों की तहकीकात करते हुए गीता पण्डित कहतीं हैं ‘बिना कुछ कहे/ ऐसे जाना/ सपनों का खो जाना है/ जो अभिशाप है/ ज़िंदगी के लिये …/ सुनो बुद्ध! / जीवन के लिए संवाद अनिवार्य है। तो आइए आज पढ़ते हैं गीता पण्डित की कुछ नयी कविताएँ जो कुछ इसी तरह के सवालों से टकराने का माद्दा लिए हुए हैं

गीता पंडित की कविताएँ  
स्त्री
मैं स्त्री थी
बाँट दी गई
माँ बहन बेटी पत्नी प्रेमिका में 

देवी कह कर
अपमानित किया
देवदासी कह कर
बनाया अपने भोग की वस्तु 

वैश्या तुम्हारा दिया नाम है
बलात्कार कर
हत्या की मेरे अस्तित्व की
परित्यक्ता नाम भी
तुम्हारी ही देन.

आह !!!!!
नहीं दे पाये तो बस एक नाम
सहचरी
क्या मैंने बहुत ज़्यादा चाहा था? ?

……..
अहिल्या
वहन करनी थीं
सुरंगों की असंख्य मर्यादाएं 
टोह लेता रहा मन 
विच्छिन्न होता रहा तन 
पर भूगोल तो भूगोल था
इतिहास की चौखट पर 
माथा टेकता रहा वर्तमान 
भविष्य पर टिकी रहीं 
आज के प्रश्न की आँखें 
चौसर बिछीं 
दांव पर लगायी गयीं स्त्रियाँ
न्याय के पास आँखों का टोटा था
चौराहे पर टांग दी गयीं लाशें 
ताकि मरघट का सन्नाटा 
गूँजता रहे देर तक
और श्वास ना ले पाये कोई शब्द 
शब्द जन्मता है तो अर्थ निश्चित है 
अर्थ मिल गया
तो लाशें हो जायेंगी ज़िंदा
नहीं मंजूर था समय को 
पहना दिए समय ने
स्त्री को मौन के वस्त्र
और बना दिया अहिल्या 
आज अहिल्या
बन गयी है फिर से स्त्री 
समय अवाक है
……..
अथक यात्रा पर 
अनकहे को बाँचता जीवन 
होता है निरन्तर 
अथक यात्रा पर
सहगामी होती हैं आशाएं 
जो श्वासों के रथ में 
काम करती हैं पहियों का 
पहियों का रुक जाना 
श्वासों का दिवंगत हो जाना होता है 
शेष रहे उम्मीद 
शेष रहेंगे सपने
……
सुनो बुद्ध! यशोधरा  
तुम्हारे प्रेम में निमग्न 
कब सो गयी 
जान नहीं पायी 
यूँ ही सोता छोड़ 
तुम चले गये 
यकायक 
तुम्हारे जाते ही 
दिवंगत हो गई मेरी नींद 
हाँ !!!!!!! 
कह कर जाते 
तो आँखें देखतीं सपने 
बिना कुछ कहे 
ऐसे जाना 
सपनों का खो जाना है 
जो अभिशाप है 
ज़िंदगी के लिये 
सुनो बुद्ध! 
जीवन के लिए संवाद अनिवार्य है
……
तिलिस्म
तय सीमाएं
तय ज़मीन 
तय रास्ते
भुला दिया समय ने 
मुझे कठोरता से
भूल गया इतिहास
फ़ेंक दिया गठरी में बाँध कर 
तहखानों में
चलती रही अंधी सुरंगों में सदियों तक
तलाशे नये रास्ते
नयी ज़मीन
खुद तय कीं सीमाएं
कहाँ था मंजूर तुम्हें
मेरे तयशुदा रास्तों पर मेरा चलना
इसलियें नहीं चूके चोट करना
मेरे मर्म पर
मेरे अस्तित्त्व पर
तुम्हारा तिलिस्म अभी भी कायम है
तुम्हारी सोच में
लेकिन ज़रूरी समझती हूँ तुम्हें बताना 
मैं शरीर में नहीं जीती ……….
योद्धा
नहीं भाया उन्हें
तुम्हारा ठुमक कर चलना
नहीं भाया उन्हें
मनपसंद परिवेश में तुम्हारा ढलना
तुम बेखौफ चुनती रहीं 
आकाश से तारे
वे बेखौफ भरते गये 
तुम्हारी आँख में सितारे
अब समय आ गया है
तय करना है तुम्हें आज 
अभी इस पल
भरते रहें यूँ ही तुम्हारी आँख में तारे 
या उड़ना है मुक्त गगन में 
पँछी की तरह बाहें पसारे
निर्णय करना है तुम्हें ही 
कोई नहीं दे सकता 
तुम्हें आदेश
कोई नहीं सहला सकता 
तुम्हारी देह
उठो 
खडी हो जाओ तन कर 
सीधी करो अपनी रीढ़ की हड्डी 
बनाओ अपने मन को योद्धा
क्यूंकि आज तुम्हें लड़ना है अपनों से
क्यूंकि आज तुम्हें लड़ना है समाज से
क्यूंकि आज तुम्हें लड़ना है अपने आप से
क्यूंकि आज ये समय है एक अंधा समय
जहाँ घर के भीतर-बाहर 
कभी भी 
कुछ भी घटित हो सकता है 
तुम्हारे साथ
तैयार रहो 
मुस्तैद रहो|
…….
आओ 
दहकते भभकते 
कुंठित समय की देह पर 
वह लिखती जा रही है गीत 
अपने प्रेम से,
अपने समर्पण से 
आओ हम 
सौ करोड़ मिल कर एक साथ 
उसे रागिनी बना दें 
………
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)