अशोक तिवारी का आलेख ‘नासिरा शर्मा : इलाहाबाद से पश्चिम एशिया तक’

नासिरा शर्मा

साहित्य भंडार एवं मीरा फ़ाउंडेशन इलाहाबाद के तत्त्वावधान में विगत तीस नवम्बर 2014 को  इलाहाबाद संग्रहालय के सभागार में नासिरा शर्मा के लेखन पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी में दिल्ली से पधारे हुए कवि एवं नाट्यकर्मी अशोक तिवारी ने एक सारगर्भित व्याख्यान दिया। मैंने अशोक जी से आग्रह किया कि वे अपना यह आलेख पहली बार के पाठकों के लिए हमें उपलब्ध कराएँआज प्रस्तुत है अशोक तिवारी का आलेख ‘नासिरा शर्मा : इलाहाबाद से पश्चिम एशिया तक’  
नासिरा शर्मा : इलाहाबाद से पश्चिमी एशिया तक
अशोक तिवारी 
नासिरा शर्मा के साहित्य के विपुल आयाम रहे हैं। कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज एवं लेखों के ज़रिए नासिराजी ने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। आपके समग्र साहित्य में इलाहाबाद शहर का जो योगदान रहा है, उसे हम आसानी से देख सकते हैं। ये योगदान सिर्फ़ भाषा और संस्कृति के लिए ही नहीं बल्कि यहां की यादों ने ऐसे ऐसे किरदार दिए हैं, जो लगता है हमारे अपने हैं। आपका कहना भी है इलाहाबाद की हवा, मिट्टी और पानी ने उन्हें रिच किया है।
कालखंड के हिसाब से अगर थोड़ा सा देखें तो नासिराजी का जन्म जिस साल हुआ था, हिंदुस्तान को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिल चुकी थी। और ये आज़ादी जिस क़ीमत पर मिली थी – ये हम सब अच्छी तरह जानते हैं। बँटवारे जैसा घाव हमें हमेशा-हमेशा के लिए मिल चुका था। धर्मनिरपेक्षीय मूल्यों पर हमला बरक़रार था। बँटवारे की टीस न तो भरने में आ रही थी और न ही इस हेतु होने वाले प्रयास पर्याप्त थे।
आपके जन्म के ही साल में महात्मा गांधी को मारा जाना धर्मनिरपेक्षीय मूल्यों पर एक बड़ा ख़तरा था। और ऐसे में नासिराजी का बचपन जिस दौर से गुज़रा – जिन किस्से-कहानियों, अफ़सानों, वारदातों, अफ़वाहों एवं हक़ीक़त के जिन मंज़रों को देखा – उन सबकी पड़ताल हम उनके साहित्य में आसानी से कर सकते हैं। 
बचपन में नासिराजी के घर का माहौल बहुत ही अदब और आदाब का रहा। आपके वालिद प्रो. जामिन अली बेहद सादगी पसंद रहे। आपने हमेशा सादगी और ईमानदारी से रहना सिखाया। आपने इलाहाबाद के पुराने लेखकों ओर कवियों पर शोध किया था। और चूंकि आप गवर्नर के कल्चरल एडवाइज़र थे, आपकी सोच और विचारधारा खुलेपन की थी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उर्दू विभाग शुरू करने का पूरा श्रेय प्रो. जामिन अली को ही जाता है, जिसके बाद हिंदी विभाग का खुलना भी संभव हो पाया। शहर की सांस्कृतिक फ़िजा बनाने में उनके द्वारा आयोजित मुशायरे निःसंदेह ख़ास मुकाम रखते हैं। आज भी यूनिवर्सिटी में लगे बरगद के घने पेड़ उनकी याद दिलाते हैं। नासिरा शर्मा को निःसंदेह उनकी विरासत मिली, साथ ही आपको परिवार में एक खुलापन, एक रचा-बसा हिंदुस्तान मिला। और ये परिवार कहीं और नहीं सांस्कृतिक नगरी इलाहाबाद का हिस्सा था। इलाहाबाद का ज़िक्र आते ही नासिराजी के अंदर की जज़्बाती दुनिया को हम महसूस कर सकते हैं। नासिराजी के ही शब्दों को देखें: 
‘‘मैं अब दशहरा नहीं देख सकती हूं अपने घर का। क्योंकि घर छिन गया जिसमें हमारा बहुत बड़ा छज्जा था, जिसमें ढेरों मेहमान और मुहल्लेवाले, सब आते थे। तब हम लोग झांकियां देखते थे। वो झांकी हिंदू-मुसलमान नहीं थीं, वह तो मेरे बचपन का बहुत बड़ा हिस्सा था। बदहवास होके हम लोग उठते थे और देखते थे कि रामजी और लक्ष्मणजी अयोध्या औट आए हैं, और भागकर आंगन से जाते। जब तक दरवाज़ा खुलता देर हो जाती और हम वहां जो एक मोखा था, उसमें से झांककर उन झांकियों को देखते थे।’’   
इलाहाबाद के मशहूर दशहरे का पूरा ज़िक्र वसुधा के 88 वें अंक में, जिसमें आपका साक्षात्कार छपा है, विस्तार से देख सकते हैं। जिसमें आप इलाहाबाद की तमाम मीठी यादों के अलावा कुछ खट्टे और तकलीफ़देह अनुभवों को भी महसूस कर सकते हैं।
घर का सांस्कृतिक माहौल और खुलापन नासिराजी के अंदर मूल्यों को सँजोकर गया। ज़िंदगी को अपने ही ढर्रे से जीने की ज़िद भी थी। 1967 में आपने डा0. आर.सी शर्मा से शादी की। 1971 में जे.एन.यू दिल्ली में जाने के बाद आपके अंदर तमाम तरह के बदलाव आए। पढ़ाई की। लेखन के प्रति अपने को पूरी तरह तैयार किया।
       
समाज के अंदर बँटवारे की पीड़ा को नासिरा शर्मा के अंदर उनके उपन्यास ज़िंदा मुहावरे में देखा   जा सकता है। ज़िंदा मुहावरे निज़ाम और इमाम उन दो भाइयों की दास्तान है जो इसी बँटवारे के चलते अलग-अलग हो गए। निज़ाम पाकिस्तान में बस जाता है। और इमाम अपने भाई का इंतज़ार करता रहता है। एक वतन के टूटने की कहानी, एक परिवार के बँटने की कहानी, दो भाइयों के अलग होने की कहानी के साथ जो पीड़ा, संत्रास, दर्द, घुटन उभरकर आती है – वो इतनी सहज और वास्तविक है कि इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि ये किरदार हमारे अपने हैं, हमारे आसपास के हैं जो हमारे साथ लगातार बात कर रहे हैं। कई बार ये उपन्यास झूठा सच और तमस के आगे के सच को संप्रेषित करता प्रतीत होता है।
रिश्तों के बनने-बिगड़ने की पूरी एक दास्तान है ये उपन्यास। हिंदुस्तान-पाकिस्तान में होने वाले विकास और बढ़ती तिजारत को बेबाकी के साथ इसमें उकेरा गया है। रिश्ते ख़ून के ही नहीं होते। रिश्ते वो होते हैं जो दिल से बनते हैं, जो मानवीय सरोकारों और भावनाओं से बनते हैं। निज़ाम और इमाम – दो सगे भाइयों के बीच ख़ून का रिश्ता होने के बावजूद दूरियां बढ़ जाती हैं, वहीं इमाम और ब्रजलाल का रिश्ता देखें तो क्या था? ब्रजलाल और उसका परिवार एक तरह से इमाम के घर में काम करता था। ब्रज बहू, उसका बेटा लच्छू उसी परिवार के अंग के तौर पर थे। और इस रिश्ते को सार्थकता देने के लिए इमाम खेत का बँटवारा करते वक़्त खेत, कुँआ और बाग़ लच्छू के नाम करता है। मां-बेटे, पिता-बेटे, भाई-भाई, भाई-बहिन आदि रिश्तों में बँटवारे की पीड़ा नासिरा शर्मा के तमाम और उपन्यासों व कहानियों में भी देखने को मिलती है। 

नासिरा शर्मा के अंदर का लेखक कौन सा है? और इस लेखक का विकास किस तरह से परवान चढ़ता है? कहानी कहते वक़्त नासिराजी के अंदर का एक आलोचक भी बराबर सजग रहता है जो न सिर्फ़ अपनी आलोचना करता चलता है, बल्कि आसपास के माहौल में उसकी प्रासंगिकता को भी निर्धारित करता है। मुझे लगता है नासिरा का लेखन प्रायः अपने समकालीन लेखकों से जुदा है और ख़ास है। क्यों? क्योंकि नासिरा शर्मा के लेखन का काफ़ी बड़ा हिस्सा विदेशी ज़मीन से उठाए गए पात्रों के साथ रहा है। विदेशी भी कौन से? पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, इराक़, सीरिया, फ़िलिस्तीन वगै़रा वग़ैरा।
हम जानते हैं कि नासिरा शर्मा जैसी लेखिका के लिए भी भारतीय परिवेश से किरदारों को उठाकर कहानी लिखना कहीं ज़्यादा आसान होता मगर उन्होंने सिर्फ़ वैसा नहीं किया। मुझे लगता है सवाल प्रतिबद्धता का है। आप अपना रास्ता आसान पगडंडियों से होते हुए बना सकते हैं जिसमें न कोई जोखिम हो और न ही कोई चुनौती और रोमांच। ऐसे में आपके काम का क्या मक़सद? मक़सद का सवाल एक महत्त्वपूर्ण सवाल है। और मक़सद के लिए पैदा होती है प्रतिबद्धता, जो आपके काम में दिखती है। मुझे याद है पुनश्च के संपादक महेश द्विवेदी के साथ हुए साक्षात्कार में नासिरा शर्मा कहती हैं कि ‘‘बिना मक़सद उस लेखन से क्या फ़ायदा जो गिनती में हो..’’
नासिरा शर्मा उसी ज़मीन में पैदा हुई लेखिका हैं जहां का बहुसंख्य लेखक अपनी महत्त्वाकांक्षा और लोकप्रियता हासिल करने के लिए शॉर्टकट अपनाने के लिए आतुर है और उसके लिए वो तरह-तरह के हथकंडे अपनाता है, तरह-तरह की धडे़बाजी करता है, गिराने-उठाने की तरह-तरह की जुगलबंदी करता है। ऐसे में नासिरा शर्मा का लेखक इस सबसे हटकर उन लोगों की बात करता है जो भयंकर त्रासदी के शिकार हैं। वो बार-बार उन लोगों के पास जाकर, उनके दुःख-दर्द की दास्तान को क़लमबद्ध करती हैं। सियासती हल्क़ों में जाकर उन खूंखार बबर शेरों के हल्क़ में हाथ डालकर वह सब उगलवाने की कोशिश करती हैं जो समय का सच है। यह सब भी वह अपने शहर, प्रांत या देश में नहीं दूसरे मुल्क में जाकर करती हैं। ऐसे मुल्क में जहां शाह जैसे ज़ालिमों को हटाकर एक और ज़ुल्मी और अत्याचारी ने सत्ता हथिया ली हो। जहां क्रांति के नाम पर मज़हबी घुट्टी पीने को मजबूर किया जा रहा हो। जहां की प्रगतिशीलता को पतनोन्मुख मानकर मज़हब के नाम पर कट्टरता और रूढ़िवादिता को लागू करने की बेचैनी हो, जहां विश्वविद्यालयों को बंदकर मस्जिदों को आबाद किए जाने की जुगत की जाती हो, जहां न्यायालयों के सर्वोच्च पदों पर उन मौलवियों की नियुक्ति की जाती हो जो ज़ोर-ज़बरदस्ती के बल पर वैज्ञानिक शिक्षा-दीक्षा से लोगों को अलग रख सकें, जो मज़हबी अफीम लोगों को चटा सकें, जो तर्क और विज्ञान की बातें करने वालों को मौत के घाट उतार सकें। इमाम खुमैनी के चंद शब्द नासिरा शर्मा की ज़ुबानीः
इमाम खुमैनी का बार-बार यही कहना था कि हमें दक्षता की आवश्यकता नहीं है। हम दक्ष डॉक्टर, इंजीनियर लेकर क्या करेंगे, जितना पैसा उनकी शिक्षा पर खर्च करेंगे, उस पैसे को लगाकर एक विद्यार्थी व्यापार करेगा जिसमें शिक्षा व दक्षता की आवश्यकता नहीं होती है और उससे कम पैसों में विद्यार्थीगण कृषि से कमा लेंगे (जहां फव्वारे लहू रोते हैं, पृ.90)
अब देखें कि नासिरा शर्मा की प्रतिबद्धता किसके प्रति है। समाज के कौन से हिस्से के साथ आपकी ज़्यादा वाक़फ़ियत है। ये वाक़फ़ियत समाज के अन्य वर्गों के अलावा उन सबके प्रति भी है जो कामकाजी है। जो इलाहाबाद के चूड़ी वाले, पल्ले वाले, दर्जी, मोची से लेकर दूसरे मुल्कों के टैक्सी ड्राइवर एवं घरों में काम करने वाले या छोटी-मोटी स्टाल लगाने वाले, सुबह से शाम तक मज़दूरी करने वाले हैं। कामकाजी, वंचितों, पीड़ितों एवं ज़रूरतमंदों के साथ-साथ आपकी रचनाओं में ज़्यादातर वो किरदार होते हैं जो हमारे और आपके साथ अमूमन घूमते-फिरते हैं। जिन्हें पढ़ते हुए आपको लगता है, अरे वाह! ये तो फलां है!!
नासिरा शर्मा द्वारा उठाए गए पात्रों के साथ कभी ये नहीं लगता कि ये विदेशी ज़मीन से उठाए गए किरदार हैं। कारण क्या है? मुझे उसके दो प्रमुख कारण नज़र आते हैं। पहला कि जिस समस्या को उठाकर चरित्रों को दिखाया गया है वो हर जगह एक सी है। जैसे …..कोई भी मिट्टी हो, पानी हो – पितृसत्ता दुनियाभर में हावी है। औरतों पर होने वाले ज़ुल्मों की दास्तान में स्थान, काल और परिस्थितियों के चलते तीव्रता में थोड़ा फ़र्क़ हो सकता है, किंतु उसकी मौजूदगी होती है। और नासिरा शर्मा ने ऐसे किरदारों को उठाकर ऐसे नायाब चरित्र दिए हैं जो भूले नहीं जा सकते।                  
मैं हाल ही में जन नाट्य मंच के साथ दक्षिण अफ़्रीका गया। नाटक के शोज़ थे। नाटक का नाम था – ये भी हिंसा है… नाटक की शुरूआत ही होती है मिथकों के ज़रिए। मिथक भरे पड़े हैं हिंसाओं से – अहिल्या, द्रोपदी, सूर्पणखां, सीता, जमदग्नि की पत्नी….कितने ही किरदार हैं। एक सेमीनार में नाटक के प्रदर्शन के बाद बातचीत की गई। इस सेमीनार में दस-बारह देशों की महिलाएं हिस्सा ले रही थीं। पुर्तगाल के अलावा बाक़ी सभी देश अफ़्रीका महाद्वीप से थे। एक बात जो साफ़तौर पर निकलकर आई कि औरतों पर होने वाली हिंसा में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है। कहीं थोड़ा ज़्यादा, कहीं थोड़ा कम। कहीं हिंसा के रूप में थोड़ा फ़र्क़ है। हर देश के मिथकों में ऐसे किरदारों की कोई कमी नहीं है। इसे मैं इस संदर्भ में कह रहा हूं कि नासिरा शर्मा की कहानियां पढ़ते वक़्त अगर हम भूमिकाएं, दो शब्द या प्राक्कथन न पढें तो कई बार यह पता लगाना मुश्किल होता है कि इसका परिवेश हिंदुस्तान से बाहर का है या हिंदुस्तान का। अब संगसार या संगसार कहानी संग्रह में छपी अन्य कहानियों का परिवेश कहां का है इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, जबकि इन कहानियों के सामाजिक परिवेश में छाई जकड़बंदी हिंदुस्तानी परिवेश से ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है। ख़ासकर आज के माहौल में जब खाप पंचायतें अपनी राजनीतिक छत्रछाया के चलते फलफूल रही हैं। 

1975-76 में लिखी पहली कहानी ‘बुतखाना’ से शुरू होने वाला नासिरा शर्मा का रचनात्मक सफ़र अपने 40 साल पूरे करने जा रहा है। भाषा के स्तर पर आपकी कहानियों की रवानगी और प्रवाहमयता न केवल बांधती है बल्कि अपनी-सी लगती है। उनमें व्यक्त दुख-दर्द पाठक को अपना लगता है। उनकी भाषा में कोई लाग-लपेट नहीं, जो कहना है वो कहना है। बिंबों के ऐसे विशाल महल भी नहीं जिनमें से निकलने के लिए आपको पसीने-पसीने होना पड़े।
2012 में अजनबी जज़ीरा उपन्यास आया। इराक़ की भयंकर स्थितियों में पल्लवित होता एक अद्भुत मानवीय रिश्ता। घृणा और प्रेम का सघन अंतर्द्वंद्व। बारूद, विध्वंस, और विनाश के बीच ज़िंदगी की रोशनी और ख़ुशबू को बचाने के लिए जूझती एक औरत की कहानी जो पति की मौत के बाद युवा होती अपनी बेटियों के वर्तमान और भविष्य को लेकर फ़िक्रमंद है। विरासत, धरोहर व यादों को बाज़ार में बेचने को मजबूर लोगों की कहानी। इसकी शैली आपके अन्य कहानियों और उपन्यासों से फ़र्क़़ रही है। वाक्य एवं संवाद छोटे एवं सारगर्भित। इसे पढ़ते हुए कई बार कृष्णा सोबती की याद आई। इस्मत चुगताई की भी, जो सारगर्भित वाक्यों के लिए जानी जाती रही हैं। मगर मुझे नासिराजी की शैली में वही नज़र आया जो उन्होंने कहा। जबकि कृष्णाजी के वाक्यों के अर्थों के लिए कई बार हमें चीज़ों को इमेजिन करना पड़ता है। यहां मेरे लिए राही मासूम रज़ा का स्मरण हो आना स्वाभाविक है जो कहते थे कि मेरे पात्र किस भाषा का इस्तेमाल करेंगे – ये मैं तय करूंगा। अगर मेरे पात्र गाली देते हैं तो वो गाली मैं लिखूंगा न कि डॉट डॉट डॉट लिखूं और लोग उसमें अपनी समझ के अनुसार गालियां भर लें। मैं अपने पात्रों के संवादों के साथ इस तरह की कोई लिबर्टी पाठक को नहीं दे सकता। कुर्रुतुल ऐन हैदर की कहानियों का फलक यक़ीनन व्यापक और मल्टी लेयर्ड हैं। मगर कई बार भाषा के स्तर पर वो कहानी एक ही पाठ में ग्राह्य नहीं हो पाती हैं। मुझे लगता है – नासिरा के यहां ऐसा नहीं है। जो कहा गया है – वो सीधे-सीधे संप्रेषित होता है।  
नासिरा शर्मा के लेखन की एक ख़ूबी ये है कि उसे जितना पढ़ते हैं, वह उतना ही अपना लगता है। संवाद के रूप में शब्द आपके मुँह से झरते प्रतीत होते हैं। उस दृश्य को आप अपनी आँखों के सामने साकार होते देख रहे होते हैं। मरज़ीना एक मिथकीय पात्र है जो अलीबाबा चालीस चोर कहानी में बुराई को सबक़ सिखाने वाले एक पात्र के रूप में स्थापित होता है। इसमें जेंडर का सवाल भी ख़ूबसूरती के साथ अंतर्गुथित है। इराक़़ की शुरू से ही एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत रही है जिसे सद्दाम हुसैन ने काफ़ी हद तक आगे बढ़ाया। उसी विरासत को हड़पने की प्रतिस्पर्द्धा के चलते इमाम खुमैनी अपनी युद्धप्रियता और विध्वंसक अतिवादिता को प्रदर्शित करते रहे हैं। जहां फव्वारे लहू रोते हैं के एक अध्याय बारूद की छांव में पनपती कला और मरज़ीना का देशमें नासिरा मरज़ीना के साथ साक्षात्कार करती हैं। ऐसे बात करती हैं कि वो कोई ऐतिहासिक या सांस्कृतिक पात्र की तरह न होकर आज की स्थितियों पर सही, सटीक एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण रखने वाला एक साहित्यकार हो, समाजसेवी हो, चिंतक हो या बग़दाद की गलियों और दहानों को याद करता एक आम व्यक्ति हो। मरज़ीना के साथ हुए नासिरा के संवाद बेहद सारगर्भित हैं जो ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ-साथ मौजूदा दौर को भी प्रकटतौर सामने रखते हैं।  
एक मिथकीय पात्र के साथ बात करना, सवाल-जवाब के ज़रिए बहुत से तात्कालिक एवं समसामयिक मुद्दों पर टिप्पणी करना अपने आपमें अद्भुत है। यह साक्षात्कार निःसंदेह मरज़ीना के ही नहीं नासिरा के अंदर बैठी मरज़ीना के रुख़ और राजनीति को प्रकटतौर पर सामने लाता है। मेरा ख़याल है कि इसके सभी संवाद दरअसल नासिरा के अंदर चल रही मंथन प्रक्रिया को तो दर्शाते ही हैं बल्कि मरज़ीना के काम के साथ अपने को जोड़े रखने की प्यास को भी शिद्दत के साथ दिखाते हैं –
तुम जो इल्म की प्यास लिए घूम रही हो, इसका कहीं अंत है?”
इल्म की प्यास जिस दिन बुझ गई, समझो मेरा चिराग़ भी ख़ामोश हो जाएगा, इस प्यास के सहारे ही तो जी रही हूं, आज तुम ये सवाल कैसे कर बैठीं?”
कारण है, जानती हो उन चालीस चोरों को जिन्हें मैंने गर्म तेल से मारा था, आज पूरे संसार में बिखर गए हैं….उन्हें ढूढ़ने के चक्कर में कहां-कहां ठोकर खाओगी तुम?”
सारे संसार की मरज़ीना पहाड़, मैदान, हर कोने, हर गोषे की, वह तुम्हारे चालीस चोर अब इंसानों का घर नहीं, उनकी ज़िंदगी लूटने लगे हैं। उन्हें ढूंढ़ना और पकड़ना बहुत ज़रूरी है।
तुम भी कमाल की हो, अकेली निकल पड़ीं जोख़िम भरे सफ़र पर बिना हथियार के।                                                                         (जहां फव्वारे लहू रोते हैं, पृ.221)
यह सच है कि जिस दिन इल्म की प्यास बुझी, उस दिन न तो एक लेखक लेखक रह जाएगा और न हीं एक पत्रकार पत्रकार। इल्म की प्यास किसी भी प्रगतिशील व्यक्ति के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है। यह साहित्य सृजन की मौलिकता को न केवल बरक़रार रखती है बल्कि भूत और भविष्य के साथ अपने सरोकारों को जोड़ककर देखने की ज़रूरत पर भी ज़ोर देती है। मरज़ीना को रूपक के तौर पर इस्तेमाल करते हुए नासिरा शर्मा यहां अपनी बात ज़्यादा ख़ूबसूरत और प्रभावी ढंग से कह पाई हैं।

मुझे लगता है नासिरा शर्मा के लेखन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू उनका एक्टिविज़्म है। आपकी कहानियों के प्लॉट और किरदार कहां से आते हैं? ये समझना भी ज़रूरी है। नासिरा बंद कमरे में बैठकर कहानी बुनते चले जाने में क़तई यक़ीन नहीं करतीं, ऐसा मेरा मानना है। जबकि लोगों के बीच में जाकर, उनकी समस्याओं से रूबरू होते हुए, उनकी संवेदनाओं को महसूस करते हुए कहानियों के प्लॉट निर्धारित करती हैं। यही एक्टिविज़्म है जो नासिराजी को चैन से नहीं बैठने देता और रचनात्मकता के नए-नए पहलुओं से अपने को समृद्ध करता हुआ आगे बढ़ता है। 
नासिरा शर्मा के लेखन में पत्रकारिता का समावेश अलग से नहीं है बल्कि अन्य लेखन के साथ ही है। ईरान रिवोल्यूशन के साथ आपकी पत्रकारिता शुरू होती है। आप ईरान, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया, फ़िलिस्तीन और पाकिस्तान जैसे तमाम देशों में जाकर लोगों से तजुर्बे इकट्ठे करती हैं। इन देशों में एक पत्रकार के तौर पर जाना महज़ पत्रकारिताभर नहीं था, बल्कि समाज के उस हिस्से के बारे में लेखन करने का हिस्सा था जो दुनिया के नक्शे पर निकलकर सामने नहीं आ रहे थे। ये लेखन निःसंदेह इस प्रतिबद्धता से परिपूर्ण था जिसका ज़िक्र नासिरा कई बार अपनी बातचीत में करती हैं: ‘‘जो दिल ग़म से आशना न हो, वो दूसरों का दर्द क्या जाने?’’           
ग़रीबी, जहालत, बीमारी, बेकारी, ज़ुल्म, राष्ट्रीय अंकुश आदि झेल रहे संस्कृति एवं तहजीब के देश अफ़ग़ानिस्तान पर नासिरा शर्मा की दो पुस्तकें ‘अफ़ग़ानिस्तान: बुज़कशी का मैदान’ नाम से आईं। बुज़कशी का ये मैदान अंतर्राष्ट्रीय फलक पर जहां दो महाशक्तियों के बीच ठन रहे शीत युद्धका शिकार हो गया, वहीं कठमुल्लापन और संकीर्णता के दायरे में आतंक का गढ़ बनता चला गया जो नफ़रत और युद्ध की विभीषिकाओं का शिकार हुआ। अफ़ग़ानिस्तान पर ये पुस्तकें हिंदी में दरअसल अपनी तरह की पहली पुस्तकें हैं जो पूरी तरह शोध एवं मौलिक सामग्री पर आधारित हैं।
देखा जाय तो बाहर के मुल्कों पर लिखना निर्मल वर्मा और ऊषा प्रियंवदा ने भी किया है लेकिन बाहर के मुल्कों पर वो जब भी लिखते हैं तो अपने तक सीमित रखते हैं, वो अपनी सीमा को तोड़ नहीं पाते हैं। उस ज़मीन से उनका अपना आदमी, उनका देशवासी क्या सोचता है, क्या कर रहा है – उसको वो दिखाते हैं जबकि नासिरा शर्मा वहां की ज़मीन पर उसी ज़मीन के किरदारों को लेती हैं, उनकी पीड़ा को उठाते हुए अफ़साना लिखती हैं। आपके लिए राइटिंग में सरहद की बाउंड्री का कोई मतलब नहीं है। नासिरा के लेखन से यह बात पुख़्ता तौर से निकलकर आती है कि इंसान की पीड़ा सरहद के किसी भी ओर भी क्यों न हो, एक सी है।
नासिरा शर्मा का पहला उपन्यास ‘सात नदियां: एक समुंदर’ ईरान की क्रांति की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, जो दुर्लभ कृति है। हिंदी साहित्य में ईरान क्रांति पर कोई अन्य उपन्यास नहीं आया है। तैयबा का किरदार इस कृति का ही नहीं, हिंदी साहित्य का एक जीवंत चरित्र है। श्रीलाल शुक्ल के शब्दों में देखें: ‘सात नदियां: एक समुंदर’ उन भयावह राजनीतिक उपन्यासों की कोटि का है जो आपको साल्ज़नेत्सीन, जॉर्ज आर्वेल, आर्थर कोएस्टलर जैसे लेखकों की याद दिलाते हैं। (नासिरा शर्मा: शब्दों और संवेदना की मनोभमि, पृ. 22-23)
सबीना के चालीस चोर कहानी संग्रह तब प्रकाशित हुआ जब हिंदुस्तान अपनी आज़ादी की पचासवीं सालगिरह मना रहा था। इन कहानियों के बारे में नासिरा शर्मा दो शब्दमें कहती हैं कि ये कहानियां उन इंसानों की हैं जो बचपन से मेरे साथ हैं, जिन्होंने मुझे कहीं न कहीं प्रभावित किया है। अपनी ज़िंदगी से मेरा रिश्ता जोड़ा और मुझे ताज़ा अनुभूतियों से भरी दुनिया का अलग संसार दिया। इसी संग्रह को पढ़ने के बाद भीष्म साहनी ने नासिरा शर्मा को ख़त लिखते हुए कहा था कि मैं नासिरा शर्मा के सामाजिक सरोकारों को देखकर दंग हूं। 
जहां फ़व्वारे लहू रोते हैं को पढ़ते वक़्त नोबल शांति पुरस्कार विजेता शिरीन एबादी की एक किताब आज का ईरान याद आती है। शिरीन एबादी ने ईरान की तत्कालीन स्थितियों का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। ईरान की सामाजिक स्थितियों के साथ-साथ कट्टरपंथियों एवं कठमुल्लाओं के साथ उनकी सीधी मुठभेड़ और उनके साथ हुआ व्यापक अनुभव उनके अपने लेखन का हिस्सा रहे हैं। उनके लेखन में मौजूद स्वर बेहद संयत और सधे हुए हैं। ठीक वैसे ही जैसे नासिरा शर्मा के रिपोर्ताजों में देखने को मिलते हैं। मगर एक बात जो स्पष्ट तौर पर सामने आती है, और वह है कि नासिरा ईरान में हुए अपने अनुभव को जिस तरीके़ से व्यक्त करती हैं, उसमें एक प्रबलता है जो शिरीन एबादी के लेखन में उतनी नज़र नहीं आती। इसका कारण ये भी हो सकता है कि नासिरा भारतीय लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षीय ढांचे को ध्यान में रखते हुए ईरान के तात्कालिक हालातों का मूल्यांकन करती हैं, वहीं शिरीन एबादी ईरान की सामाजिक संरचना का ही एक हिस्सा रही हैं जो उन्होंने पिछली शताब्दी के पांचवें-छठवें दशक से ही देखा और भुगता है। कुल मिला कर मुझे ‘जहां फव्वारे लहू रोते हैं’ और ‘आज का ईरान’ किताबें एक-दूसरे की पूरक नज़र आती हैं जो ईरान की तात्कालिक एवं फौरी स्थितियों को समझने के लिए बेहद ज़रूरी हैं।
मैं जिस प्रबलता की बात कर रहा हूं, वो कई बार स्थितियों से जूझने के लिए बेहद ज़रूरी होती हैं। और यह संघर्ष एक बड़ी लड़ाई के लिए माहौल तैयार करता है। अगर हम ध्यान से देखें तो वर्तमान भारत के परिदृष्य में जिस तरह का कठमुल्लापन और रूढ़िवादिता हावी हो रही है, उसका इशारा नासिरा अपने लेखों में कर जाती हैं। पीड़ितों के पक्ष में खड़े हो कर वो अपनी बात कहती हैं। ये पीड़ित ईरान के हों, इराक़़ के हों, अफ़ग़ानिस्तान या पाकिस्तान के या भारत अथवा किसी और देश के, युद्ध के ख़िलाफ़ लड़ाई और संघर्ष को तेज़ करने की बात नासिरा अपने लेखन में करती हैं। ये लेखन निःसंदेह तब-तब मील का पत्थर साबित होगा जब-जब मध्य-पूर्व के संघर्ष ओर संबंधों की चर्चा होगी।
देश-विदेश के तमाम अनुभवों को कहानियों में पिरोती हुई नासिराजी ने इंसानी छटपटाहट को तमाम कहानियों एवं उपन्यासों में उकेरा है। इब्ने मरियम कहानी संग्रह उनके व्यापक रचनात्मक कैनवास को दिखाता है। अकेले इसी संग्रह में कई देशों एवं स्थानों की समस्याओं के ज़रिए इंसानी जिजीविषा और मानवीय संवेदना एवं छटपटाहट को बखूबी दिखाया गया है। मसलन इसी संग्रह की कहानियों की पृष्ठभूमि देखें: आमोख्ता पंजाब, जड़ें युगांडा, जैतून के साये फ़िलिस्तीन, काला सूरज इथोपिया, काग़ज़ी बादाम अफ़ग़ानिस्तान, तीसरा मोर्चा कश्मीर, मोमजामा सीरिया, मिस्टर ब्राउनी स्कॉटलेंड, कशीदाकारी बांग्लादेश, जुलजुता कनाडा, पुल-ए-सरात इराक़, जहांनुमा टर्की, इब्ने मरियम भोपाल।
भारतीय हिंदुस्तानी समाज के ऊपर नासिरा शर्मा की चिंता शुरू से ही रही है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके ढेरों लेख कालांतर में छपे हैं। लेखों की एक विचारणीय पुस्तक राष्ट्र और मुसलमान हिंदी पाठकों के सामने आई। इस पुस्तक में न सिर्फ़ भारतीय समाज के अभिन्न अंग मुसलमानों की तस्वीर को साफ़गोई के साथ सामने रखा गया है बल्कि दुनियाभर में फैली तमाम भ्रांतियों और अफ़वाहों पर बेबाकी के साथ अपनी बात ज़ोरदार तरीक़े से रखी है।     
इलाहाबाद की पृष्ठभूमि पर लिखा ‘अक्षयवट’ एक सशक्त उपन्यास अगर हमने नहीं पढ़ा है तो यक़ीन करिए हमने बहुत कुछ मिस किया है। इस उपन्यास में जीवन की गहन जकड़न एवं समय की विसंगतियों को पहचानने और उनसे मुठभेड़ करने की पुरज़ार कोशिश नज़र आती है।
2008 में आया आपका उपन्यास ‘ज़ीरो रोड’। यह उपन्यास इलाहाबाद शहर के एक मुहल्ले से शुरू होकर दुबई जैसे अत्याधुनिक शहर की ओर हमें ले जाता है जहां सौ से ज़्यादा देशों के लोग रोज़ी-रोटी के लिए जाते हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग ऐसे हैं जो अपने हालात से उखड़े हुए हैं और अपनी ज़िंदगी को पटरी पर लाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं।
अभी हाल में आया आपका उपन्यास ‘काग़ज़ की नाव’ बिहार में रहने वाले उन परिवारों की कहानी है जिनके घर को कोई न कोई सदस्य खाड़ी मुल्कों में नौकरी करने गया है। भाषा के स्तर पर इस उपन्यास की ख़ूबसूरती ये है कि भोजपुरी भाषा में पात्रों की स्वाभाविकता निखरकर सामने आई है, जो मन को लुभाती है
पारिजात उपन्यास आपका एक बड़ा उपन्यास है। काफ़ी चीज़ें को समेटे हुए। रोहन के अन्दर खोज करने की छटपटाहट और अपनी जड़ों को तलाशने की भूख निःसंदेह कई बार लेखक की भूख लगती है। निश्चय ही इसका मूल्यांकन अभी नहीं हो पाया है। कई बार किसी भी रचना के मूल्यांकन में वक़्त लगता है। ख़ासकर उस रचना के बारे में जो बहुआयामी हो। और इसका कारण मुझे लगता है उस रचना के परिवेश एवं अंतर्गुथित कहानियों एवं पात्रों का अपने अंदर रचना-पचना। उन किरदारों का आत्मसात होना। यक़ीनन यह उपन्यास अपने आपमें एक शोधपरक उपन्यास है।
नासिरा शर्मा ने यक़ीनन कई यादगार चरित्र दिए हैं जो समाज को न केवल एक दिशा दिखाने के लिए सामने आते हैं बल्कि विषम से विषम परिस्थितियों का मुक़ाबला करते हुए समाज में एक मिसाल पेश करते हैं। ‘सात नदियां: एक समुंदर’ की तैयबा, शाल्मली उपन्यास की शाल्मली, ठीकरे की मंगनी की महरुख़, ‘शामी काग़ज़’ की पाशा, ‘अक्षयवट‘ का ज़हीर, ‘ज़ीरो रोड‘ का सिद्धार्थ, पारिजात का रोहन, अजनबी जज़ीरा की समीरा, काग़ज़ की नाव का अमज़द जैसे ढेरों-ढेरों किरदार नासिराजी के साहित्य ने दिए हैं। सभी का ज़िक्र करना यहां संभव भी नहीं है। ये किरदार सालों साल हमारे ज़हन में इस क़दर घर कर जाते हैं कि मन करता है दोबारा फिर से पढू़ं। एक बार श्रीपतजी ने शामी काग़ज़ की कहानियों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि मुझे जब भी मौक़ा मिलता है शामी काग़ज़ की कहानियां उठाके पढ़ता हूं।    
नासिरा शर्मा के लेखकीय जीवन में कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। ये हम सब जानते हैं। उन्होंने कितने जोखिम उठाए हैं, ईरान-इराक़ की बमबारी के बीच अपनी जान जोखिम में डालकर पत्रकारिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को न जाने कितनी बार दुहराया है। लोगों से धमकियां सुनी हैं। आरोप-प्रत्यारोप हुए, मगर नासिरा शर्मा का लेखन न थमा, न रुका, और न ही किसी तरह बाधित हुआ बल्कि इन प्रतिरोधों से उनके लेखन को ताक़त मिली, बल मिला, नई दिशा मिली है-ऐसा मुझे लगता है। हमें फ़ख़्र है कि धर्म निरपेक्ष मूल्यों को समर्पित नासिरा शर्मा की क़लम लगातार उन शक्तियों पर चोट कर रही है जो धर्मनिरपेक्षता के लिए ख़तरा हैं, लोकतंत्र के लिए खतरा हैं। ये धर्मनिरपेक्षता सिर्फ़ कहने या दिखावेभर के लिए नहीं है, बल्कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में ढालने के लिए अपनाई है। और यक़ीनन ऐसी धर्मनिरपेक्षता हमारे देश और वतन के लिए आज न केवल ज़रूरी है बल्कि ये हमारी ताक़त भी है। और यही ताक़त बेहतर दुनिया के सपनों को साकार करने के लिए ज़रूरी है।
अंत में मैं साहित्य भंडार व मीरा फाउंडेशन के साथ साथ सतीश अग्रवाल का आभार प्रकट करना चाहूँगा जिन्होंने मुझे नासिरा शर्मा की उस ज़मीन, उस शहर में बोलने का मौक़ा मुहैया कराया जिसने उन्हें इतनी ताक़त दी कि ज़माने से जूझ सकें। उनकी ज़िंदादिली, उनकी प्रतिबद्धता को मेरा सलाम! शुक्रिया।    
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अशोक तिवारी

सम्पर्क-
अशोक तिवारी
17 डी, डी.डी.. फ़्लैट्स
मानसरोवर पार्क, शाहदरा
दिल्ली-110032
फ़ोनः 09312061821

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

अशोक तिवारी के कविता संग्रह ‘दस्तख़त’ पर नित्यानंद गायेन की समीक्षा


कवि अशोक तिवारी का हाल ही में एक महत्वपूर्ण संग्रह आया है ‘दस्तखत’ नाम से. अशोक तिवारी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. वे एक कवि होने के साथ-साथ रंगकर्मी भी हैं. देश-विदेश में जा कर इन्होने नुक्कड़ नाटक किये हैं. उनके पास अपनी वह प्रतिबद्धता भी है, जो किसी भी कवि के लिए जरुरी होती है. युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने अशोक के संग्रह पर यह समीक्षा पहली बार के लिए लिख भेजी है. आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा.   
अन्याय और पीड़ा के विरुद्ध एक कवि का दस्तख़
नित्यानंद गायेन
कवि जब कविता लिखता है तो अपने अनुभव और मनोभावों को व्यक्त करता है. जिन कविताओं को पढ़ते हुए हम अपने समाज, काल और आम लोगों को महसूस करते हैं, उनका दर्द, ख़ुशी और संघर्ष को महसूस करते हैं – वे ही सच्ची कविता हैं. कविता व्यक्तिगत हो कर भी व्यक्तिगत नहीं हो पाती, क्योंकि एक व्यक्ति का अनुभव, दर्द, ख़ुशी ज्यादा दिन तक व्यक्तिगत नहीं रह पाते.
हाल ही में कवि – लेखक, रंगकर्मी अशोक तिवारी का कविता संग्रह दस्तख़त पढ़ने को मिला. कवि ने संग्रह की कविताओं में अपने जीवन के अब तक के अनुभवों का खुलासा किया है. पहली कविता “सब खुश” में वर्तमान समय के राजनैतिक और सामाजिक सच को व्यक्त किया है.
“इन दिनों एक बाज़ 

मेरे घर के इर्द–गिर्द

मँडराता है सुबह –शाम

लहराता हुआ डैने बेखौफ़

बैठ जाता है मुंडेर पर

और ताकने लगता है मुझे

ऐसे जैसे मैंने

छिपा लिया हो

उसका कोई शिकार

वह स्कैन करता है मेरी नज़र

मेरी काया

और नोट करता है मेरा पता.”
क्या है ये बाज़? क्या हम नहीं जानते हैं? बाज़ की प्रवृत्ति से हम सब वाकिफ़ हैं. वह हमेशा रहता है शिकार की तलाश में और मौका मिलते ही झपट पड़ता है. किन्तु यदि कोई बचा लेता है किसी निर्बल जीव को उसके हमले से, तो वही बाज़ पूरी ताकत से करता है पीछा बचाने वाले का. कवि ने हमारे समाज के उन षड्यंत्रकारी ताकतों को बहुत करीब से देखा और अनुभव किया है. उसी का विवरण है उक्त पंक्तियों में. कवि का यह समाजिक दायित्व भी है कि वह ऐसे क्रूर षड्यंत्रकारी शक्तियों का पर्दाफ़ाश करे. खतरे की चेतावनी देकर लोगों को होशियार करे. अपने इस दायित्व का निर्वाहन किया है कवि ने यहाँ ईमानदारी से.
एक गाँव की पहचान उसके नीम से हो सकती है तो उस गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को दुनिया उसी पहचान से बुलाती है. “नीम गाँव वाली” कविता पढ़कर हम यह महसूस करते हैं :-
“उस औरत का चेहरा

कैसा था आख़िर

लम्बा–सा

सुता हुआ

पिचके हुए गाल

लंबी जीभ

पीले दांतों के बीच

बुदबुदाती हुई

उसके अंदर की एक और औरत

देती हुई

दुनिया के बच्चों को

आशीष, गाली या

मिला-जुला सा कुछ..”
कविता लम्बी है. यहाँ एक औरत को पहचानने के लिए बहुत कुछ है जैसे उसका पिचका चेहरा, पीले दाँत या फिर उसकी लम्बी जीभ ….किन्तु कवि इस औरत को माँ के रूप में पहचानता है, जो दुनिया के बच्चों को कुछ न कुछ देती है. फिर भी कविता का शीर्षक है –“नीम गाँव वाली”. मनुष्य अपनी भूमि से कभी अलग नही हो पाता, उसकी खुशबू सदा उसके साथ रहती है. क्योंकि धरती भी माँ ही है और एक औरत भी माँ होती है.
इस संग्रह की कविताएँ पढ़ते हुए लगता है कभी हम एक चलचित्र देख रहे हैं तो कभी लगता है कि वही बातें हैं जो रोज –रोज घटती हैं हमारे समाज में, हमारे साथ. एकदम सरल भाषा. कवि बहुत भावुक हो कर पहचानने की कोशिश करता है… जाड़े की गुनगुनी धूप में नल के नीचे बैठे एड़ी रगड़ती जीजी को. जीजी की पहचान क्या है? उनकी पहचान हैं उनके हाथों का स्पर्श. हाथ जो काम के बोझ से हो चुके हैं खुरदुरे. किन्तु कम नही हुई उन हाथों की ममता और अब भी कोमल है उनका स्पर्श. मनुष्य से ले कर मवेशी तक सभी चाहते हैं उन खुरदरी हाथों का कोमल स्नेह. कवि यह भलीभांति जानता है कि हाथों के खुरदरे होने से नहीं होता कम प्यार. ममता एवं स्त्रीतत्व कभी नहीं मरता एक औरत में.
 (कवि: अशोक तिवारी)
जो भी पुरुष, चाहे साधारण व्यक्ति हो या कवि या फिर कोई और, जब तक वह एक स्त्री के दर्द को महसूस नहीं कर पाता, वह और उसका समाज अधूरा और अविकसित रहता है. किन्तु अशोक जी ने जाना है, महसूस किया है एक स्त्री के दर्द को – चाहे जीजी के रूप में हो या नीम गाँव वाली की उस औरत में या फिर उस काम वाली औरत में. वह उस स्त्री को जो आपके घर की सफाई करती हैं, जो करती है आपकी सेवा, पर आपने उसे पुकारा किस नाम से? कैसे संबोधित किया है उसे? आपके घर पर जो अपना श्रम दान करती है, उसकी पहचान है कि वह काम वाली औरत है? हमारा समाज उसे नौकरानी क्यों कहता है? आपके घर की सफाई करने वाली, बर्तन मांजने वाली या आपके लिए भोजन बनाने वाली एक स्त्री की पहचान काम वाली बनकर रह जाती है? यहाँ कवि ने बहुत संवेदनशील मुद्दे को उठाया है.
“क्या नाम है उसका

काम करती है जो तुम्हारे घर आ कर

हर रोज़

सुबह से लेकर शाम तक

छोटे से लेकर बड़े काम

मोटे से लेकर पतले काम

क्या है उसका नाम

-काम वाली”….(पृष्ठ -51)
बहुत ही अहम् प्रश्न है यह …इस पर कीजिये विचार, तब दीजिये स्त्रीमुक्ति पर भाषण, तब कीजिये समानता की बात, तब जाइये मोमबत्ती ले कर किसी राजपथ या इण्डिया गेट पर. आपके घर पर श्रम करने से नही खो सकती कोई औरत अपनी पहचान अपना नाम.
अशोक जी कवि भी हैं, नाटककार और शिक्षक भी. वे जानते हैं समाज की विसंगतियों को गहराई से. मानव जीवन में दासता और विस्थापन से बड़ी और दूसरी पीड़ा हो नही सकती. चाहे वह महाभारत काल हो या आज का समय. अपनी ज़मीन से बेदखल होना मतलब अपनी जड़ों से कट जाना होता है. यह पीड़ा असहनीय होती है. चाहे कश्मीर हो या फिलिस्तीन, पीड़ा सबकी एक सी है. अग्रज कवि अग्निशेखर ने अपनी कविता ‘पुल पर गाय’ में विस्थापन की पीड़ा को बहुत मार्मिकता से प्रदर्शित किया है.
“एक राह – भटकी गाय

पुल से देख रही है

खून की नदी

रंभाकर करती है

आकाश में सूराख  

छींकती है जब मेरी माँ

यहाँ विस्थापन में

उसे याद कर रही होती है गाय” (कवि अग्निशेखर, स्वर-एकादश, पृष्ठ 14)
विस्थापन की यही पीड़ा फिलिस्तीन के लोगों की भी है, जिसे कवि अशोक तिवारी ने महसूस किया है और उसे यहाँ व्यक्त किया है.
“आसमान में चीलों की तरह

डैने फैलाये

मिसाइलों का ये शोर

कहाँ का है मेरे भाई…..(पृष्ठ. 22, वही)
कवि ने फिर लिखी एक पेड़ की व्यथा कथा.
“मैं एक पेड़ हूँ

सालों साल से खड़ा हूँ यहाँ

ज़मीन में गहरी धंसी हैं मेरी जड़ें

विस्थापित होने के डर से अभिशप्त

मैं एक पेड़ हूँ …

इंसानियत का ओढ़े हुए खोल

उन्होंने किया भरपूर हमला

मेरी खुशहाली पर

मेरी फलती –फूलती शाखों को

करते रहे कुल्हाड़ी के हवाले ….” (पृष्ठ -129, वही)
यहाँ कहानी सिर्फ एक पेड़ की नही, मानव समाज की है, यह कहानी है उन निर्दोष लोगों की जिन्हें उखाड़ा गया है उनकी ज़मीन से, और उखाड़ा है कुछ ऐसे लोगों ने जिन्होंने ओढ़ रखी है इंसानी खाल.
कवि अशोक तिवारी एक संवेदनशील कवि हैं, क्योंकि वे एक निर्मल हृदय के मालिक हैं, उन्हें मालूम है जीवन की पीड़ा और भूख. उनकी कविताओं में मार्क्सवाद का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है.
कुछ कविताएँ एकदम सपाट सी लगती हैं. किन्तु सच्ची बात कहने के लिए न तो शिल्प की आवश्यकता होती है न किसी अलंकार की. क्योंकि सच खुद में एक सौन्दर्य है. उसकी सीधी अभिव्यक्ति, जो किसी को भी अपनी बात लगे, अपने आपमें एक कविता है. हाँ, कुछ कविताएँ जो कम शब्दों में कहीं जा सकती थीं, उन्हें जबरन लम्बाई दी गई हैं.
हम उम्मीद करते हैं कि समाज के हर अन्याय के विरुद्ध कवि / कामरेड अशोक तिवारी का सदा हस्तक्षेप होगा. हम ऐसे सभी स्थान पर उनका दस्तख़त देखेंगे.
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संग्रह – दस्तख़त, प्रकाशक – उद्भावना प्रकाशन, गाजियाबाद. मूल्य – सौ रुपये मात्र, पेज-150
सम्पर्क-
नित्यानंद गायेन

 मोबाईल 09030895116
 ई-मेल-nityanand.gayen@gmail.com

विजेंद्र जी से अशोक तिवारी की बातचीत

विजेंद्र जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है. मूलतः एक कवि होने के साथ-साथ वे एक बेहतर इंसान हैं, बढ़िया पेंटिंग्स बनाते हैं, गद्य में भी उनका कोई सानी नहीं। ‘कृति ओर’ जैसी पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं. विजेंद्र जी से नोएडा में उनके घर पर अशोक तिवारी ने हाल ही में एक बातचीत की है जिसमें विजेंद्र जी ने साहित्य, समाज, राजनीति और कविता के विविध पक्षों पर खुल कर बातचीत की है. तो आईये पढ़ते हैं यह बातचीत। 

साहित्य – शिवेतर क्षतये 

लोक क्या है?
जब 1857 का युद्ध लड़ा जा रहा था तो कौन लड़ रहा था? जनता ही लड़ रही थी कि नहीं? तो लड़ने वाली जनता ही तो लोक है। हर जाति का एक सांस्कृतिक रूप होता है और एक संघर्षधर्मी रूप होता है। ये दुर्भाग्य है इस देश का,  इतिहासकारों का,  जो बूर्जुआ मनोवृत्ति के इतिहासकार हैं उनका, कि औपनिवेशिक आधुनिकता की वजह से उन्हें वो पक्ष दिखाई नहीं देता। लोक कहते ही एकदम से गांव, गांव की चित्रकला,  नृत्य, अन्धविश्वास – ये सारी चीज़ें बूर्जुआ ने हमारे दिमाग़ में बिठा रखी हैं। अब लोक का जो मनोरंजक रूप है – गाने,  लोकगीत,  लोकनृत्य वग़ैरा, जो आदिवासी करते हैं लेकिन वे लड़ते भी तो हैं। पूरे स्वतंत्रता संग्राम में सबसे ज़्यादा आदिवासी ही क़ुर्बानियां दे रहे थे। ऐसा कोई प्रांत नहीं था जहां आदिवासी अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़ नहीं रहे हों, लेकिन इतिहास इसको नहीं बताता। जो नई खोजें हुई हैं इतिहास की, आदिवासियों पर जिन्होंने काम किया है- उन्होंने बाकायदा आंकड़े दिए हैं कि इस प्रदेश में इतने आदिवासी मारे गए – और उस प्रदेश में इतने आदिवासी मारे गए।
सम्पन्न लोकतंत्र में हमें लोक को पुनर्परिभाषित करना बहुत ज़रूरी है। एक लोक है, एक प्रभु लोक है। संपन्न वर्गों का लोक है प्रभुलोक। लोक वह जो अपने श्रम पर जीवित है, जो लड़ रहा है – यानी सर्वहारा। मैं लोक को सर्वहारा का पर्याय मानता हूं। और पिछले 20 साल से इस बात पर बार-बार हिट कर रहा हूं। तुम्हें आश्चर्य होगा लेखन सूत्रका जो अंक मेरे ऊपर निकला था, उसमें कुंवरपाल सिंह का मेरे ऊपर एक लेख है – उन्होंने शुरू किया है कि विजेंद्र जी लोक के उस समय से समर्थक रहे हैं जब लोक को गाली समझा जाता था। आज स्थिति है कि लोग फैशन बतौर लोक को इस्तेमाल करने लगे हैं। लेकिन उसके सही रूप को इस्तेमाल नहीं करते हैं। जब आप लोक को सर्वहारा से जोड़ देते हैं तो गांव, शहर का फ़र्क़ कहां रहा? वहां भी एक सर्वहारा है और यहां भी है। पूरे विश्व में है। एक प्रतिरोध की जो शक्ति है, वो पूरे विश्व में है। मतलब लोक वैश्विक है – प्रतिरोध की शक्ति। फिर ये प्रश्न खड़ा कर देते हैं कि साहब लोक पर इतना ज़ोर क्यों? मेरा कहना है कि लोक हमारा अपना शब्द है जो सामान्य आदमी के साथ जुड़ा है। जैसे हम प्रोलेतेरियेत कहते हैं तो आदमी नहीं समझता उसे, या सर्वहारा कहते हैं तो वो नहीं समझता, लेकिन लोक कहते ही समझ जाता है। हमारा दायित्व ये है कि हम उसे पुनर्परिभाषित करें। भरत मुनि ने जब भरत नाट्यम लिखा था तो तीन तरह के लोगों को लोक में लिया था। जो श्रमार्थ हैं यानी श्रम से थके हुए, और शोकार्थ हैं, जीवन में जो शोक उत्पन्न होता है उससे दुखी हैं और दुखार्थ, अभावग्रस्त लोग जो हैं वो दुखी हैं। इन तीन कोटियों में वही वर्ग तो आता है। श्रमार्थ और दुखी वर्ग ही तो आता है। चूंकि भरत नाट्यम के पीछे अवधारणा ये थी कि वेद सबको पढ़ने के लिए स्वीकृत नहीं थे। लोग कहते हैं भरत मुनि सब वर्गों के नीचे वाली जाति के थे।
अब ये सोचने की बात है कि हमने अपनी राजनीतिक व्यवस्था का नाम नृपतंत्र क्यों नहीं रखा, लोक तंत्र ही क्यों रखा। अपनी जीवन पद्धति को ऐसे ही क्यों रखा? हमारे संविधान  का जो आमुख (Preamble) है, उसमें तीन मूल्य दिए हुए हैं – समाजवाद, धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र। मतलब हमारे समाज की पूरी संरचना तीन खंभों पर खड़ी हुई है। भले ही वोपूरी नहीं कर रहे हैं। उसके लिए संघर्ष ज़रूरी है। हमने केवल क्रांति की पहली मंज़िल पार की है यानी राजनीतिक स्वतंत्रता। लेनिन ने कहा है कि क्रांति से पहले संघर्ष करना पड़ता है, क्रांति के दौरान व क्रांति के बाद भी संघर्ष करना पड़ता है। वो संघर्ष जारी है। जैसा भी है लेकिन वो जारी है। तो उस लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्राप्त करने के लिए जो संविधान के आमुख में चीज़ें दी गई हैं, आप जब तक लोक में एकात्म नहीं होंगे, तब तक उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते हैं। क्योंकि लड़ने वाली शक्ति तो वही है। सर्वहारा ही तो लड़ता है – यहां के किसान, छोटे किसान, भूमिहीन किसान, खेतिहार किसान, बुनकर, लकड़हारे इत्यादि। दूसरा ये है कि श्रमिकों को यहां के छोटे किसानों से जोड़ना पड़ेगा। भारत की स्थिति ऐसी नहीं है कि आप केवल श्रमिक वर्ग के आधार पर क्रांति कर दें। यह मुमकिन ही नहीं हैं। आज भी अगर ध्यान से देखा जाए तो जन शक्ति का जो स्वरूप है, वो देहातों में दिखाई देता है। आप देखिए, किसान जब आंदोलन करते हैं, पटरियों को घेर लेते हैं, सड़कें रोक लेते हैं …….ये सब तीन दिन से ज़्यादा नहीं चलता और सत्ता उनके सामने झुक जाती है। श्रमिक एक महीने तक हड़ताल करते रहें कोई सुनता ही नहीं हैं। ये शक्ति आज देहातों में, गांवों मे सुरक्षित हैं। उस शक्ति को संगठित करना ज़रूरी है। इस पर लेनिन की एक किताब है Alliance between workers and peasants. 
माओ ने जो बड़ी सेना तैयार की वो किसानों की ही तो थी। हमारे देश की जो भौगोलिक परिस्थितियां हैं, वो चीन से बहुत मिलती-जुलती हैं। किसानों की संख्या वहां भी ज़्यादा थी क्रांति के समय और हमारे यहां भी ज़्यादा है। तो मेरे कहने का मतलब यह है कि लोक को एक नई दृष्टि से देखने की ज़रूरत है आज। और उसके सही रूप को समझने की ज़रूरत है। यानी लोक का जो विलोम, प्रतिलेाम या उससे जो विपरीत है वो क्या होगा – प्रभुलोक ही तो होगा। लोक कहते ही सामान्य पर दृष्टि जाती है। तो सामान्य को खोजो। सामान्य और असामान्य। तो सामान्य ही तो लड़ने वाला और संघर्ष करने वाला वर्ग है जो उत्पीड़ित है, जिसका शोषण हो रहा है। और वो अपनी यथास्थिति से लड़ भी रहा है। ये विपरीत तत्वों की एकरूपता है। यानी सहअस्तित्व भी है और लड़ाई भी है। सहअस्तित्व उसकी मजबूरी है, लेकिन संघर्ष करना उसकी नियति है। तो जैसे तुमने कहा…….लोक नहीं छूटता…तो ये लोक का वह रोमांटिक रूप है जिसको बूर्जुआ हमारे दिमाग़ में बिठाता रहा है। विदेशी लोग भी यहां आते हैं। फ़ोक  डांस और फ़ोक  कल्चर के लिए परेशान रहते हैं। लेकिन कभी वे ये भी सोचते हैं कि ये फ़ोक का जो स्ट्रगल है, जन समूह का जो स्ट्रगल है, वो क्या है? उसके बारे में भी सोचें। तो आप पाएंगे कि हर किसी जाति का एक सांस्कृतिक रूप होता है और एक संघर्ष का भी रूप होता है। ये हमारी संस्कृति है, लेकिन हमारा संघर्ष भी तो है। हमने आज़ादी प्रार्थनाओं से नहीं ली है, संघर्ष से ली है और उसकी एक परंपरा है।
उस परंपरा में वे किसान ही थे, उनके लड़के थे जो बाक़ायदा लड़ रहे थे, सारा जनसमूह, पूरा हिंदुस्तान लड़ रहा था। नेतृत्व भले ही मध्य वर्ग का था लेकिन लड़ने वाला अग्रिम दस्ता हमेशा सर्वहारा ही होता है। वही लड़ता है। तो लोक को इससे जोड़ना चाहिए। इसके लिए उद्भावना के भारतीय चिंतन-सृजन का प्रगतिकामी मानवीय पक्षपर केंद्रित विशंषाक में मेरे एक लेख लोक की अवधारणा: समकालीन काव्य परिदृश्य में’ को पढ़ा जा सकता है। 
मेरी शुरू से यही अवधारणा रही है कि हम लोक को पुनर्परिभाषित करें व उसकी पुनर्व्याख्या करें और इसे इतिहास का जो संघर्षशील वर्ग है, उससे जोड़ें।

तो क्या वे व्यक्ति जो किसी राजनैतिक या सामाजिक संघर्ष का सीधे-सीधे हिस्सा नहीं रहे हैं और अपने जीवन में रोटी-पानी का संघर्ष कर रहे हैं, लोक का हिस्सा होंगे?
देखिए लोक का सीधा -सीधा अर्थ है जनता एवं संघर्ष करते लोग। अब तुम कहोगे बहुत सारे लोग संघर्ष नहीं कर रहे तो जब तक वे संघर्ष नहीं करेंगे तब तक मुक्त भी नहीं होंगे। अच्छा, संघर्ष क्यों नहीं कर रहे? क्योंकि प्रशिक्षित नहीं हैं। वर्किंग क्लास रिवोल्यूशनरी होती है। उसका दायित्व होता है कि जो निष्क्रिय और निकम्मे हैं, उनको सक्रिय करें। ऐसा कौन सा व्यक्ति है जिसकी इच्छा अच्छा जीवन जीने की न हो? लेकिन वो लगता है बिलकुल मुरझाया हुआ सा। कभी अपने कान को उसके सीने पर रख कर देखो, उसमें अंदर ज्वालामुखी धधक रहा है। जो तुम्हें मुरझाए हुए चेहरे दिखाई दे रहे हैं उनके अंदर अग्नि है, लेकिन मजबूर हैं। अब देखिए सारा बंगाल यहां आकर काम कर रहा है। काम करके चले जाते हैं, दुखी हैं। लेकिन इनको टटोलिए आप, इनके अंदर प्रवेश करके देखिए तो! poet is one who looks in to the heart of people also. देखिए किसी यथार्थ के दो पहलू होते हैं एक appearance जिसको हिंदी में कहेंगे छाया प्रतीति और एक होता है essence मतलब सार तत्व। तो हम 90 फ़ीसदी लोग बल्कि 95 फ़ीसदी लोग छाया प्रतीतियों से विमोहित होते हैं। ये बाज़ार क्या है? छाया प्रतीति ही तो है। जिस बाजार को सारे लोग महिमा मंडित कर रहे हैं वो छाया प्रतीति है। इसका सार तत्व क्या है? सार तत्व तो साम्राज्यवाद का जो वित्तीय पूंजी विस्तार हुआ है, वह है – नव उपनिवेशवाद का हमला। 
पिछले दिनों मैंने ज्ञानरंजन का एक छोटा सा साक्षात्कार एक पत्रिका में पढ़ा – मुझे उनका एक वाक्य पढ़ कर बड़ा दुख हुआ। ज्ञानरंजन ने कहा कि ये दुनिया बाजार की उपज है। कितना भ्रामक वाक्य है ये। कहना ये चाहिए कि ये बाज़ार इस दुनिया की उपज है। बाज़ार का मतलब क्या है? देखिए….साम्राज्यवादी देश चिकने चुपड़े शब्द बना कर जैसे मार्केट इकोनमी’, ‘लिबरल इकानोमीआदि को एक्सपोर्ट करते रहे हैं। ये भी ख़ासतौर से उन देशों के लिए जो विकासशील हैं। साम्राज्यवादी देश अपनी वित्तीय पूंजी को मंडियां तलाश करने के लिए चारों ओर परेशान हैं। उसका नाम बाज़ार दे दिया। मार्केट इकोनमीपर कविताएं लिखी जा रही हैं, बाज़ार और भूमंडलीकरण पर कविताएं लिखी जा रही हैं। लेकिन इसके जो कारक हैं उस पर कोई हमला नहीं कर रहा है। बाज़ार का कारक क्या है- साम्राज्यवाद। है कि नहीं? उस पर आक्रमण नहीं करते हैं। बाज़ार पर कविता लिखेंगे जैसे उसका महिमामंडन कर रहे हों। इसलिए मैंने कहा कि Market is the appearance of the reality – ये छाया प्रतीति है। इसका सारतत्व है साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी का विस्तार, जो हमारे देश को एक कॉलोनी बनाए हुए है। स्थिति ये है कि हम ईरान से अपने मैत्री संबंध भी नहीं बना सकते। अभी अमरीका ने धमकी दी है कि प्रतिबंध लगा देंगे। अगर हमने ईरान से ज़्यादा संबंध बढ़ाए या तेल ज़्यादा लिया तो हम प्रतिबंध लगा देंगे। ये एक कॉलोनियल विस्तार है उसका। मतलब कल साम्राज्यवाद का स्वरूप दूसरा था। युद्ध करता था। आज युद्ध नहीं करता है। आज अपनी वित्तीय पूंजी का विस्तार करके हमें ग़ुलाम बना लेता है। वर्ल्ड बैंक, इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड और वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन – इन तीन खंभों से विकासशील देशों को अपना दास बनाता है। तो कारक ये हैं। इन पर हमला नहीं होता। बाज़ार पर बोलेंगे। ज्ञानरंजन जैसा व्यक्ति जो 20-25 साल तक पहलचलाते रहे हैं। हालांकि मैं पहलको बहुत महत्त्वपूर्ण पत्रिका नहीं मानता। क्यों याद कर रहे हैं आप पहल को? कोई ऐसी बात बताइए जिससे पहलको याद किया जाए? जैसे हम सरस्वतीको याद करते हैं या रामविलास शर्मा के समालोचकको याद करते हैं। हमने कृति ओरसे लोक के लिए संघर्ष किया है और आज दुनिया जान गई है। हम से लोग कहते हैं कि ये तो लोक का जाप करते रहते हैं – हमें खुशी होती है। ऐसा पहलने कुछ नहीं किया। पहलआधुनिकतावादी लोगों को इकट्ठा करती रही है। कहने को बीच-बीच में मार्क्सवादियों को भी स्पेस देती है। मतलब वो भ्रम फैलाते हुए हमेशा उसे भव्य रूप में निकालते रहे। एक आंतक था उसे मोटी पत्रिका के रूप में निकाल कर। एक बार मैंने आनंद प्रकाश जी से पूछा तो वे बोले – पहलतो बूर्जुआ मैग्ज़ीन है। बिलकुल सही कहा उन्होंने। उनका सही चेहरा इसमें आ गया है। मैंने इस पर एक बहुत बड़ा नोट अपनी डायरी में लिखा है। ज्ञान जी ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि अब हमारे जीवन का अंत हो गया हैया हमने अपने आपको सत्ता को समर्पित कर दिया हैवग़ैरा-वग़ैरा वाक्य दिए हैं उन्होंने। उनको ये नहीं दिखाई दिया कि संघर्ष भी है। इतिहास का ऐसा कोई दौर नहीं रहा जिसमें केवल पराजय ही पराजय हो। संघर्ष बराबर उद्घाटित हुआ है। इतिहास का मतलब ही ये है कि समाज में वर्ग संघर्ष है।
दरअसल इन सारे लोगों ने समर्पण कर दिया हैं। मेरा कहना है कि वे मार्क्सवादी नहीं थे केवल प्रगतिशील लेखक संघजो था उसके सदस्य थे – अंदर वो अराजक थे। आप देखिए कि उनका गहरा संबंध उन लोगों से था जो आधुनिकतावादी हैं, जो कॉलोनियल मॉडर्न (औपनिवेशिक आधुनिक) हैं, जैसे मंगलेश डबराल, असद जैदी, देवीप्रसाद मिश्र वग़ैरा वग़ैरा। अब बताओ तुमसे उन्होंने कभी पूछा रचना के लिए?

 

नहीं, कभी नहीं। मैने एक बार दो-तीन रचनाएं भेजीं। उन्होंने लौट कर पत्र लिखा कि हम आपकी रचनाओं का इस्तेमाल करेंगे, लेकिन अभी नहीं…….पत्र के आख़िर में उन्होंने कहा कि हम लोगों से कह के लिखवाते हैं।
हां कह के कराना, कि किसको उछालना है किसको नहीं – अब देवी प्रसाद मिश्र जैसा व्यक्ति जिसमें कविता बिल्कुल है ही नहीं- उसकी 40-40 पृष्ठों की कविताएं छापीं उन्होंने पहलमें। जिस पर लोगों ने ऐतराज़ किया कि ये तो कविता हैं ही नहीं। ऐसे लोगों को वे लाइमलाइट में लाते थे। मेरा तो उनसे कई बार कटु पत्र व्यवहार भी हुआ था। और हमारे संबंधों में भी खिंचाव आ गया था। क्योंकि जब उनके 60 वर्ष हुए थे तो उन्होंने जनसत्ताको एक इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि लफंगे, चरित्रहीन लोग भी उच्च श्रेणी का साहित्य लिख सकते हैं। इस पर मैंने एक पत्र लिखा था उन्हें। पर उसका जवाब नहीं दिया उन्होंने। पत्र मेरी डायरी में छपा है।
  
मार्क्सवाद उन्होंने पढ़ा ही नहीं है। मार्क्सवाद जो गहराई से पढ़ लेगा वो कभी ऐसा नहीं this is the insult of the people. ऐसा कोई महान लेखक नहीं है जो आदमीयत से गिरा हुआ हो और उसका लेखन महान हो। ये हो ही नहीं सकता। बल्कि मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं अंग्रेज़ी लेखक ऑस्कर वाइल्ड का। ऑस्कर वाइल्ड बड़ा कुकर्मी था। आचरण से भी गिरा हुआ था। तो हुआ ये कि कुकर्मों की वजह से उसको जेल हो गई। वो हमेशा आर्ट-आर्ट चिल्लाता था। ब्यूटी आर्ट, ब्यूटी आर्ट। जब वह जेल में पड़ा हुआ था तो उसने कहा कि Now I change my statement—-virtue is more important, morality is more important than anything else. और ये भी कहा कि मेरा देश मुझे अब बड़ा लेखक नहीं मानेगा और अब मेरे लिए जगह के नाम पर केवल गुफाएं है जहां पर मैं अपना मुंह छिपा के मर सकता हूं। ये पश्चाताप किया था ऑस्कर वाइल्ड ने।
किसी में हिम्मत नहीं थी, सब डरते थे ज्ञानरंजन जी से। उनके पास पुरस्कार भी था और पहलथी। मैं जो बात होती है उसे कहता हूं। मैंने ओरके निकलने पर जब कुंवर पाल सिंह को पहला पत्र लिखा था तब लोक का संदर्भ दिया था। तब वे हँसे थे, मज़ाक उड़ाया था मेरा ….अरे विजेंद्र जी क्या लोक-वोक की बात करते हो, वर्ग चेतना की बात करो। हां, एक सवाल ये खड़ा हो सकता है कि लोक ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है या वर्गचेतना? तो मेरा कहना ये है कि वर्ग चेतना तो हमारी एक दृष्टि है….वो लेाक से ही तो निकलेगी। लोक हम तभी तो कह रह हैं जब हमारे पास वर्ग दृष्टि है। प्रभुलोक और लोक का हमने जो विभाजन किया है, वो वर्ग दृष्टि से ही तो किया है। रिवोल्यूशनरी वर्ग जो है सर्वहारा का – वही सच है। The revolutionary class is the only truth.
अभी साक्षात्कार की एक मोटी किताब शिल्पायनसे आ रही है उसमें ऐसे बहुत सारे प्रश्न किए है लोगों ने मुझ से। 

परंपरा के सवाल पर पिछले दिनों अमर्त्य सेन ने काफ़ी कुछ लिखा है…..
अमर्त्य सेन घपलेबाज आदमी हैं। क्या लिखेंगे वो? अच्छी बात भी कह सकते हैं और भ्रमित करने वाली बात भी लिख सकते हैं। देखिए मैं इस बात में बहुत सख़्त हूं। मैं जानता हूं जिस आदमी को नोबल प्राइज़ मिला हुआ है, जो आदमी रात दिन अमेरिका में रहता है – वो क्या सोचेगा भारत जैसे देश के बारे में? यहां एजूकेशन नहीं है, एजूकेशन होनी चाहिए, भारी भुखमरी है – ये बता रहे हैं आप। लेकिन ये क्यों है, इस पर बात नहीं कर रहे। ये तो आप फ़िनोमिना बता रहे हैं। फ़िनोमिना बताना आईडियोलोजिस्टिक फ़िलोसफ़ी का काम है, रिवोल्यूशनरी फ़िलोसफ़ी का काम नहीं है। मार्क्सवादी फ़िलोसफ़ी का काम है how to change the world. ज़्यादातर फ़िलोसफ़ी तो यही बताती रही है कि संसार ऐसा है, जीवन ये है, दुख ये है, दुख के कारण ये हैं लेकिन उन्होंने ये कभी नहीं बताया कि संसार को बुनियादी तौर पर बदल सकते हैं – ये केवल मार्क्स ने बताया। अमर्त्य सेन बग़ैरा को मैं ज़्यादा तवज्जोह नहीं देता।

मिथकों के जुझारूपन पर विभिन्न पौराणिक एवं मिथकीय संदर्भों को अमर्त्य सेन ने अपनी किताब The argumentative Indian में उठाया है – गीता के विभिन्न संदर्भों को ले कर अपनी बात कही है। इसके पहले अध्याय का पिछले दिनों मैंने हिंदी में अनुवाद किया है।
गीता के ऊपर भी वही अच्छा लिख सकता है जो मार्क्सिस्ट हो। अगर रामविलास शर्मा गीता के ऊपर लिखते तो बेहतरीन लिखते। अमर्त्य सेन गीता पर अच्छा नहीं लिख सकते। हो सकता है वे मार्क्सिस्ट रहे हों किसी समय – मुझे पता नहीं – मैंने थोड़ा बहुत जो पढ़ा है उनके बारे में, मुझे उनका लिखा हुआ और बोला हुआ कभी अपील नहीं करता। उनके लेखन में कुछ न कुछ टैक्टिक्स रहती है। To appease the people. और जो सत्ता है, उसके समांतर बोलते रहेंगे।
यथार्थ को व्यक्त करने वाली जो कविता थी, उसको हमने समकालीन कविता कहना शुरू किया। प्रमाण के लिए प्रो. रेवती रमण जो मुज़फ्फ़रपुर में हिंदी के प्रख्यात समीक्षक हैं, उन्होंने एक किताब लिखी है – ‘कविता में समकाल‘ उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि समकालीनता में सर्वहारा संस्कृति का प्रस्ताव ज़रूरी है। अब देखिए अगर समकालीन होना है तो हमें उस स्तर तक जाना होगा। नागार्जुन ने कहा है – समकालीन होने के लिए ज़्यादा रचना-रचना नहीं करना चाहिए, कला के बारे में ज़्यादा नहीं सोचना चाहिए। हमें जो जन-शक्ति है, उसके बारे में ज़्यादा सोचना चाहिए। रेवतीरमण ने अपनी स्थापना को प्रमाणित करने के लिए नागार्जुन की ये पंक्तियां भी किताब में उद्धृत की हैं। मुझे इससे बहुत बल मिला। मेरे लिए समकालीन वही है जो इतिहास द्वारा प्रदत्त Social dynamics (सामाजिक गतिकी) को आगे बढाए।

 1921 के आसपास लिखी गई निराला की भिक्षुककविता या बाद में 1942-43 में लिखी कुकुरमुत्तासमकालीन कविता में आएंगी?
बिल्कुल-बिल्कुल, यानी कई बार लोग हमारे युग के नहीं होते पर समकालीन हो जाते हैं। कुछ कवि हमारे समय के न होते हुए भी हमारे समकालीन हो जाते हैं, जैसे मीरा। मीरा अपने समय में सामंतों के ख़िलाफ़ अपने आचरण से लड़ रही थी। वो हमारे ज़्यादा नज़दीक है बनिस्बत गगन गिल या अनामिका जी के। वो ज़्यादा समकालीन हैं क्योंकि वो हमसे जुड़ती है, हमारे संघर्ष से जुड़ती है। कबीर हमारे ज़्यादा समकालीन हैं जब वे आडंबरों और पाखंडों की तीव्र आलोचना करते हैं। आज की कोई कविता नहीं करती। मैं 95 फ़ीसदी कविता की बात कर रहा हूं।

और जब यही कबीर रहस्यवादी हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं तो कूता राम कातो वहां पर उनकी समकालीनता ख़त्म होती नज़र आती है।  
देखिए कबीर का सारा कुछ समकालीन नहीं है। मतलब ये समझने की बात है। कबीर में बहुत कुछ ऐसा है जो आज प्रासंगिक नहीं है। उनका जो critical attitude है- कर्मकाडों के प्रति – वो तो हमें समकालीन लगता है, लेकिन जहां वे रहस्यवादी हैं वो हमारे मतलब का नहीं है। इसलिए हमें परंपरा को critically acceptकरना चाहिए। ये ज़रूरी नहीं है कि सारा कुछ जैसा है, ग्राह्य हो। तुलसी में आज बहुत कुछ ऐसा है जो ग्राह्य है। तुलसी कबीर से ज़्यादा ग्राह्य हैं। कारण उसका ये है कि तुलसी सामान्य-जन के लिए लड़ते हैं। राम और रावण का युद्ध आप देखिए। रावण रथी विरथ रघुवीरा।रावण के पास रथ है, सेनाएं हैं, लेकिन राम के पास कुछ भी नहीं है। नंगे पांव हैं और कौन है उनके साथ, उनकी सेना में-वानर हैं, कोल हैं, भील हैं जो सामान्य जन हैं- वो लड़ रहे हैं।
एक विनाशक रूप के विरुद्ध राम लड़ रहे हैं, और ऐसी सेना के साथ लड़ रहे हैं जो सामान्य जन की सेना है। दूसरा, राम कभी लालायित नहीं हैं राज्याभिषेक के लिए। वो दिखाई नहीं देते। वन में भी एक वनवासी की तरह रहते हैं। वहां भी राजदरबार लग सकता था। लेकिन नहीं। केवट से गले मिलते हैं, भीलनी (शबरी) के जूठे बेर खाते हैं। ये एक कवि बोल रहा है। और तुलसीदास ने तो यहां तक दिखाया है कि ये समाज ऐसा है कि किसान को खाने को नहीं है, भूखों मर रहा है। और इतनी ग़रीबी है कि हम अपनी औलाद को भी बेचते हैं। यहां तक गए हैं। अच्छा, तुलसी का ‘लंका कांड’ निकाल दो तो क्या रह जाता है? एक बात और ध्यान रखने की है। कविता का जो प्रयोजन बताया गया है वो आत्म साक्षात्कार नहीं है जैसा कि रूपवादी-कलावादी लोग कहते हैं। मम्मट ने एक श्लोक दिया है। उसमें कहा है- काव्यम् यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये…..(काव्य प्रकाश-मम्मट 2)। काव्य यश के लिए होता है। यह हमारे मतलब का नहीं है। अर्थकृते, धन उपार्जन के लिए होता है। ये भी बहुत महत्व का नहीं है। व्यवहार विदेह, मनुष्य का व्यवहार जानने के लिए होता है। ये तो ठीक है। फिर कहा है शिवेतर क्षतये। जो जनविरोधी है उसके विनाश को भी काव्य होता है। शिव-इतर – शिव का मतलब मंगलकारी। लोक कल्याणकारी अगर है तो कविता वहां शस्त्र का काम करती है। शिवेतर क्षतयेयानी कविता जन विरोधी का क्षरण भी करेगी। ऐसा काव्य प्रयोजन किसी भी काव्य शास्त्री ने नहीं कहा है – पूरे संसार में। थोड़ा बहुत जो पढ़ा है मैंने यूरोप का काव्य शास्त्र, किसी ने भी नहीं कहा। हमारे भारत में भी केवल मम्मट ने कहा है –शिवेतर क्षतयेलोकतंत्र में तो इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। अगर आप जनता के पक्षधर हैं तो आपकी कविता शिवेतर क्षतये ही होगी। और हम सब जनता के पक्षधर तो हैं ही। जो जनवादी है, वो जनता का पक्षधर है। अगर वाल्मीकि का युद्धकांडनिकाल दीजिए तो शिवेतर क्षतये का जो तत्व है वो ख़त्म हो जाता है। इससे पूरी रामायण निष्प्रयोजन हो जाएगी। और इधर तुलसीदास का अगर लंकाकांडनिकाल दें तो रामचरितमानस निष्प्रयोजन हो जाएगी। क्योंकि वही तो सारतत्व है। शिवेतर क्षतयेवहीं तो दिखाई देता है। कविता शिवेतर क्षतये। आज के कवि पर यह सबसे ज़्यादा लागू होता है।
अच्छा अगर हम जनता के पक्षधर हैं, जनविरोधी सत्ता के प्रोटेस्ट में कविता लिख रहें है तो ये हमारा अस्त्र है। जैसे प्रेमचंद ने कहा था कलम का सिपाही’- उसी प्रकार कविता अस्त्र है। शब्द अस्त्र का काम भी करता है। ये भी सच है कि पिछले दिनों औपनिवेशिक आधुनिकतावादी जो हैं उन्होंने कविता को रीढ़हीन बना दिया है।.
कविता में आत्मग्रस्तता फैली हुई है। खूब पढ़ के देख लो कविताएं। एक-दो परसेंट की बात मैं नहीं करता, लड़ते हुए किसानों के चित्र कहां हैं? जो वर्किंग क्लासहै उसका संघर्ष कहीं दिखाई देता है कविता में? जो प्रतिष्ठित कवि हैं, जो अग्रज कवि हैं उनको छोड़ दो – निराला, निराला की जो नए पत्तेवाली कविताएं हैं वो संघर्ष की कविताएं हैं। और नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और केदार बाबू – इनकी अपनी जन संघर्ष की परंपरा है। लेकिन आज की बात बता रहा हूं – ये प्रश्न उठाने लायक है…..क्या ये यथार्थ नहीं है – वर्किंग क्लास’, किसान – इनके संघर्ष – वो दिखाने की चीज़ नहीं है कविता में? और अगर आपकी कविता राजनैतिक नहीं है तो आप लोकतंत्र में अपना दायित्व नहीं निभा रहे हैं। poetry must be political तभी तो वो शिवेतर क्षतयेहोगी। वरना होगी ही नहीं। इधर मेरा एक संग्रह आया है बुझते क़दमों की छाया’, ज़्यादातर राजनीतिक कविताएं हैं उसमें मेरी। 
कहां से छपा है?
जोधपुर से आया है, रमाकांत जी ने ही संपादित किया है। उसमें 1968 से लेकर 2010 तक की कविताएं हैं। तारीख़ भी पड़ी हुई हैं उन पर।

क्या काव्य शास्त्र और कविता को समझने के लिए मम्मट, वाणभट्ट, वाल्मीकि, कालिदास व भवभूति आदि को पढ़ना आज बेहद ज़रूरी है
बिल्कुल। मम्मट हैं, आनंदवर्धनाचार्य हैं -उनको भी पढ़ना चाहिए। आनंदवर्धन मूलतः कवि थे, आचार्य बाद में। आज से 1500 वर्ष पूर्व एक वाक्य कहा है आनंदवर्धनाचार्य ने। अब मैं जो श्लोक तुम्हें बता रहा हूं उस श्लोक की चर्चा संस्कृत के किसी पंडित ने नहीं की। जबकि ये बेहद महत्त्वपूर्ण है। वो कहते हैं-
अपारे काव्य संसारे, कविरे कः प्रजापति।
यथा स्मै रोचते, विश्वं, तथेदम् परिवर्तते।
अर्थात काव्य का जो संसार है वो विपुल है, विराट है। संकेत इसमें ये भी है कि काव्य का जो अनुभव संसार है वो विराट होना चाहिए। ये भी इसकी ध्वनि है। होता है और होना चाहिए। और कवि प्रजापति है यानी स्रष्टा है। 
ये आज से 1500 साल पहले कह रह हैं आनंदवर्धन। उनका जो बलाघात है, वो अनुभव के रूपांतरण पर है। वस्तु के रूपांतरण पर। और मार्क्स की ज्ञानमीमांसा भी यही कहती है कि वस्तु का रूपांतरण होता है। ज्ञान व्यवहार से होता है। देखिए हम वस्तु का अनुभव करते हैं, तो संवेदना पैदा होती है और संवेदना दिशाहीन होती है। निरा अनुभव दिशाहीन होता है। उसका कोई डायरेक्शन नहीं होता। फिर उस संवेदना को हमें पुनर्गठित करना पड़ता है। बुद्धिसंगत बनाना पड़ता है, क्योंकि उसके साथ बहुत सारे अनुभव जब जुड़ने लगते हैं। जैसे कि आयरन अयस्क इस्पात नहीं होता है, लेकिन अयस्क से इस्पात तब बनता है जब उसे हम भट्टियों में पका देते हैं। उसी तरह ये ज्ञान का पहला स्तर है जो दिशाहीन होता है लेकिन जब उस ज्ञान को हम अन्य ज्ञान से समृद्ध करते रहते हैं और उसको बुद्धिसंगत बनाते हैं, यानी उसका पुनर्गठन कर लेते हैं, तब वो अवधारणात्मक बनता है। तब उसमें एक दिशा आती है। ये ज्ञान का दूसरा स्तर है। इस ज्ञान के दूसरे स्तर को फिर हम व्यवहार में लाते हैं – ये तीसरा स्तर है। अगर वो व्यवहार में नहीं आ रहा है तो वो ज्ञान कच्चा है। इस पूरी प्रक्रिया में वस्तु का रूपांतरण होता है। वस्तु में अंतर्वस्तु बन जाती है। और जब अंतर्वस्तु बनती है तो उसमें हमारी जो निजता है, उसके रंग खिलने लगते हैं। मतलब वस्तु को आत्मपरक बनाना पहली मंज़िल होती है। वस्तु तो मूर्त होती है और भाव अमूर्त होता है। तो वस्तु का पहले अमूर्तन करते हैं अर्थात् वस्तु को आत्मपरक बनाते हैं। इसलिए कोई भी कविता आत्मपरक हुए बिना नहीं रह सकती। आत्मपरक का मतलब है कि आपका व्यक्तित्व उसमें शामिल है, घुल-मिल गया है। तो पहली मंज़िल से दूसरी मंज़िल की जो छलांग है वो बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो पहली मंज़िल पर कविता लिखते रहते हैं वो दिशाहीन होते हैं। कई बार कहते हैं न, कि कविता दृष्टिहीन हैं, कुछ नहीं हैं इसमें। कविता में कोई दिशा नहीं है। क्यों होता है ऐसा? क्योंकि वो संवेदना की पहली मंज़िल पर ही रहते हैं।
असल में, कविता में हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं। वस्तु स्थूल है और सूक्ष्म की ओर यानी हम ज्ञान या भाव की ओर बढ़ते हैं। और जब हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं तो वह दूसरा स्तर होता है। उसमें हमारी बहुत सारी चीज़ें मिल जाती हैं। हमारी अवधारणाएं, हमारा ज्ञान और हमारा अनुभव – वो सब भी जुड़ जाता है। अनुभव भी दो तरह का होता है। एक प्रत्यक्ष अनुभव और दूसरा परोक्ष अनुभव। प्रत्यक्ष अनुभव एक चौथाई होता है। तीन-चौथाई परोक्ष अनुभव होता है। यानी अध्ययन कर के, लोगों को सुन कर, इतिहास का ज्ञान, अपने अतीत के साहित्य का ज्ञान – ये भी एक वो अनुभव है जो अत्यंत आवश्यक है। जिसे परोक्ष ज्ञान नहीं है उसका प्रत्यक्ष ज्ञान भी अधूरा है।
कई बार कहते हैं कि अमुक कवि समृद्ध संस्कार का कवि है। क्यों कहते हैं ऐसा? क्यों कि उसका परोक्ष ज्ञान बहुत ज़्यादा है। परोक्ष ज्ञान से अनुभव में समृद्धि आती है। जिसमें परोक्ष ज्ञान नहीं है, वो कविता वैसे ही होगी जैसा अभी आपने उदाहरण दिया – दिशाहीन। 
मेरे अंदर जो नई-नई उद्भावनाएं होती है वो केवल मार्क्सवाद की वजह से होती हैं। मैं आज भी पढ़ता हूं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता अशोक जी कि मैं मार्क्स को नहीं पढ़ता। जितना भी समय मुझे मिलता है मार्क्स को ज़रूर पढ़ता हूं। अब जैसे मैंने अभी सुनाया आनंदवर्धन का श्लोक, निरे लोग पढ़ते होंगे लेकिन किसी को ये नहीं सूझा कि ये सबसे प्रमुख श्लोक है। आज के संदर्भ में जो वस्तु के रूपांतरण का सिद्धांत दे रहा है। मैंने जितने भी काव्यशास्त्र पढ़े, किसी ने भी नहीं कहा ऐसा। यहां तक कि राधवल्लभ त्रिपाठी की संस्कृत की किताब है- भारतीय काव्यशास्त्र की आचार्य परंपराउसमें ये सारे लोग आते हैं। लेकिन आनंदवर्धन को लेते हुए उन्होंने भी इस श्लोक को उद्धृत नहीं किया। क्योंकि, वो दृष्टि नहीं है। मार्क्स जो दृष्टि देता है न, वो अद्भुत है। मतलब मार्क्स की जो मेटाफ़िज़िक्स है, उसको पढ़ने के बाद फिर  कुछ शेष नहीं रहता। और उसे बग़ैर पढ़े गंभीर कविता संभव नहीं है। इसे निरंतर पढ़ने की ज़रूरत है। क्योंकि ये विज्ञान-सम्मत दर्शन है। ये मेरा अपना अनुभव है कि उसमें बड़ी नई उद्भावनाएं हैं। मैंने मार्क्स को पढ़ने के बाद जब अपना साहित्य पढ़ा तो मुझे एकदम से नई-नई चीज़ें क्लिक हुईं। जैसे कि समकालीन सब नहीं होते- ये मुझे वहीं से मिला। या मॉडर्निटी में भी फ़र्क है। हमारी मॉडर्निटी वो नहीं है जिसे आज लोग मानते हैं। हमारी मॉडर्निटी व्यापक रूप से कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के प्रकाशन के साथ शुरू होती है। और वैसे 1857 की जो पहली राज्य क्रांति है, वहां से शुरू होती है। आप देखिए दोनों में ही मिलान है। ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष का दर्शन है और हम भी जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। मॉडर्न का मतलब नवीनता से भी होता है। ऐसी नवीनता पहले कहां थी? हम तो कॉलोनी थे। हमने कॉलोनी के विरुद्ध जो संघर्ष किया, उससे एक नवीनता पैदा हुई कि हम नया समाज बनाएंगे जो स्वदेशी होगा।
‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ को मैं इसलिए नवीनता की कसौटी मानता हूं क्योंकि उससे पहले सर्वहाराकेंद्र में नहीं था और इतिहास की द्वंद्वात्मकता भी नहीं थी। इतिहास की द्वंद्वात्मकता का मतलब ये है कि पूरे इतिहास में वर्ग संघर्षरहा है – ये नवीनता है। आज की प्रचलित नवीनता को मैं इसलिए औपनिवेशिक नवीनता कहता हूं। मेरे कुछ मित्रों ने जब कहा कि आप आधुनिकता का विरोध करते हैं, इससे तो हम जनवादियों को सब दकियानूस मानेंगे, तो इस पर मैंने एक लंबा संपादकीय लिखा था। तब से मैंने कहना शुरू किया कि ये आधुनिकता दरअसल औपनिवेशिक है, कॉलोनियल मॉडर्निटी है। And that Modernity is defined by the western thinkers. उनका साम्राज्य था। अब उनकी मॉडर्निटी की अवधारणा तो ये है कि हम उनके मार्केट बने रहें। हम उनके प्रतिबंध मानते रहें। अपनी भाषा को भूल जाएं और उनकी भाषा को पढ़ते रहें। अपनी नियति से जिएं और अपनी नियति से मरें। अभिशप्त हैं हम – ये उनकी मॉडर्निटी है। हमारी मॉडर्निटी ये नहीं है। हमारी मॉडर्निटी स्ट्रगल की है। इसलिए मैंने कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के प्रकाशन को एक लाइन बनाया था। वहां बहुत सारी चीज़ें नई हैं। इतिहास की द्वंद्वात्मकता बिलकुल नई है। वर्ग संघर्ष एकदम से नया है। और सर्वहारा का केंद्र में आना बिलकुल नया है। कहां था तब सर्वहारा केंद्र में? ये बिलकुल नवीन चीज़ है। प्रेमचंद सर्वहारा को केंद्र में लाते हैं, अज्ञेय नहीं ला पाते। तो अज्ञेय मॉडर्न कहां हुए और अगर मॉडर्न हैं भी तो औपनिवेशिक अस्तित्ववादी/ माडर्न हैं, जिनको हर वक़्त मृत्यु दिखाई देती है या रहस्य दिखाई देता है। कृति ओरके 62वें अंक में अज्ञेय की कविता असाध्य वीणापर मेरा एक लंबा लेख था। असाध्य वीणाकविता को हिंदी की मोनोलिजा कहते हैं। इस लेख पर बहुत से युवा लेखकों ने कहा कि आपने इस पर जिस तरह लिखा है उस तरह हमने सोचा ही नहीं था। 

अपने बुझे स्तंभों की छायासंग्रह के बारे में कुछ कहें।

पिछले चार दशक की कविताओं मे से डॉं. रमाकांत शर्मा ने चयन किया है। यहां ख़ास बात है कि इन कविताओं में से किसी कविता का अन्यंत्र नहीं छपना। अब तक के संकलनों में ऐसा नहीं है। दूसरे, पहले संकलनों में ज़्यादातर कविताएं वे हैं जो पुस्तक छपने के आसपास प्रकाशित हो चुकी थीं। ये कविताएं लगभग चार दशक का लंबा समय पार करती हैं। उस दौर में बहुत बदलाव हुए हैं। फिर भी 1968 से 1980 तक का समय मेरे लिए कई तरह से बहुत अहम रहा है। यही समय है जब मेरी सर्वाधिक लंबी कविताएं – जनशक्ति(1972) तथा कठपफूला बॉस(1977) सामने आईं। इन्हीं दिनों कविता के नए प्रतिमानों की स्थापनाओं से गहरा मतभेद रहा। मेरा विरोध बढ़ा।
श्रमिक संगठनों एवं किसान सभाओं के कार्यकर्ताओं से संपर्क बढ़ा। भरतपुर जनपद के दूर दराज इलाक़ों तथा आसपास घूमने फिरने के अवसर मिले। घना पक्षी विहार को पोर-पोर देख कर प्रकृतिसे गहरा सान्निध्य बना रहा। इस दौर में मार्क्सवादी दर्शन को कविता में ढालने तथा वैचारिक प्रतिबद्धता उजागर होने की परिस्थितियों का तीखा अनुभव भी हुआ। इन सब बातों का असर कहीं न कहीं इन कविताओं में शायद झलके। एक तरह से ये मेरा निर्माण काल है। इतना पीछे लौट कर कविताओं को सामने लाना कवि की सिंहावलोकन शैली का रचनात्मक हिस्सा है। (मतलब शेर जब चलता है तो पीछे मुड़ कर देखता है।) जब इन कविताओं से गुज़रा तो अनुभव हुआ कि वे मेरी स्मृति में भी नहीं हैं। इस तरह इन कविताओं को टाइप करते समय मुझे भी उसी समय में जैसे लौटना पड़ा हो। एक तरह से युवा महसूस करना। जब टाइप किया तो जहां-तहां जोड़ा-घटाया भी है। शिल्प में कुछ बदलाव। फिर भी ऐसा नहीं लगा कि भाषा में भावात्मक लगाव कहीं खंडित हुआ है। मैं एक समय में अनेक भावों को ले कर कविताएं शुरू से ही लिखता रहा हूं। मेरे प्रिय एवं संवेदनशील पाठकों के लिए हो सकता है ये संकलन कुछ भिन्न सा लगे। पर राग, रस, संवेदना और स्थापत्य बहुत कुछ यहां है। हां, यही समय है जब पेशेवर आलोचकों ने मेरी कविता का विरोध करना शुरू किया।

 

आप कवि के साथ-साथ एक अच्छे पेटर भी हैं। अब आप कैसे तय करते हैं कि क्या चीज़ कविता में देनी है और क्या चीज़ पेन्टिंग में देनी है या ऐसा होता है कई बार कि जो चीज़ कविता में नहीं दे पाते वो पेन्टिंग में निकलकर आती है। तो आप इसे कैसे तय करते हैं
बिलकुल सही कहा। मैं कविता में अमूर्त (abstract) नहीं हो पाता हूं। कविता में वस्तु जगत मेरे ऊपर हावी रहता है। लेकिन पेन्टिंग में मुझे आकृतियां बहुत ज़्यादा अच्छी नहीं लगती क्योंकि वो काम तो फ़ोटोग्राफ़ी कर देती है। मुझे वो चित्र अच्छा लगता है जो सोचने को आंदोलित करे। और संरचना (structure)उभरती हुई हों। उसकी संरचना में कुछ ऐसा हो, जिससे ये लगे कि कुछ उभर रहा है। अमूर्तन(abstraction) का मतलब मेरे लिए केवल इतना है कि चित्र आपको थोड़ा विचार करने के लिए आंदोलित करे। अब जैसे मान लीजिए आप चेहरे बना दें, तो फ़ोटोग्राफ़ी भी वही कर देती है। कविता में तो वो सब मैं करता रहता हूं। मैं कविता में अमूर्त नहीं होता परंतु पेन्टिंग मुझे अमूर्त ही अच्छी लगती है। 
     
कविता में अमूर्तन का अर्थ क्या है?
कविता में अमूर्तन का मतलब है कि जैसे वर्ग संघर्ष दिखाई न दे। आप जो लिख रहे हैं उससे समाज में पता ही न लगे कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। ये बात आधी रात के रंगमें आती भी है – मुझे वो चित्र अच्छे लगते हैं जो हमें विचार के लिए आंदोलित करें बल्कि करने के लिए चुनौती बनें।उसमें ये कि रंगों का संयोजन, रंगो के द्वारा आप संरचना उभार दें तो उस दृष्टि से अमूर्तन नहीं है। जैसे कि ये पेन्टिंग है (एक पेन्टिंग दिखाते हुए) इसे देखकर समझ में भले ही कुछ न आए परंतु रंगों का संयोजन और उभरी हुई जो टोन्स हैं कलर्स की, वे आंखों को अच्छे लगते हैं। दूसरा ये है कि दुनिया में ये चीज़ें कहीं न कहीं तो हैं, जैसे कि लेंडस्केप का कोई एक रूप नहीं होता। अब ये लैंडस्केप हमने नहीं देखा हो – ऐसा हो सकता है। तो कला यही नहीं बताती कि ऐसा है, बल्कि ये भी बताती है कि ऐसा हो सकता है। The possibility of being is also important. मुझे लेंडस्केप बहुत अच्छे लगते हैं। मुझे लगता है कि मेरा अभ्यांतर इन लेंडस्केपों में व्यक्त हुआ है। मेरे भाव मूर्त हो रहे हैं चित्रों में, शक्लें भले ही न आएं समझ में, लेकिन भावों की जो आत्मपरकता (subjectivity) है, वो सारी आत्मपरकता उसके कलर्स में, छंद में, उसकी संरचना में मूर्त होते हुए लगते हैं।  

इसमें कहीं आपको पुनरावृत्ति का ख़तरा नजर नहीं आता?
पुनरावृत्ति तो इसिलिए नहीं हो सकती क्योंकि एक पेन्टिंग दूसरी पेन्टिंग जैसी नहीं हो सकती। कभी नहीं हो सकती। आप कोशिश भी करेंगे तब भी नहीं हो सकती। कविता में तो पुनरावृत्ति हो सकती है परंतु अमूर्त पेन्टिंग में नहीं हो सकती। शेड्स अलग होंगे, कलर्स अलग होंगे, टोन्स अलग हो जाएंगे। there will be certain differences. लाइट एंड शेड्स के अंतर तो रहेंगे ही।
अपने लेखन की आलोचना के प्रति एक कवि को कितना सजग होना चाहिए? आज की आलोचना के बारे में कुछ कहें।
आपका ये सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि आलोचना भी कविता की तरह एक अत्यंत गंभीर तथा दायित्वशील कर्म है। इसलिए एक कवि का इसके बारे में सोचना सहज है। और ज़रूरी भी। मेरा अपना सोच है कवि को अपनी आलोचना के बारे में बहुत ही सजग रहने की ज़रूरत है। यदि मेरी आलोचना आस्वादपरक है तो मुझे उसे विसराते रहना चाहिए। उससे विमोहित होने की ज़रूरत नहीं। मुझे स्वयं आत्मलोचन से पता लगाना पड़ेगा कि जो आस्वादपरक बातें मेरी कविता के बारे में कही गई हैं वे कितनी सटीक हैं। कहीं मेरी पीठ अनावश्यक तो नहीं थपथपाई गई। यदि मेरी तीखी आलोचना की गई है तो मुझे उससे घबराने की ज़रूरत नहीं। मुझे उस आलोचना को रचनात्मक चुनौती की तरह स्वीकारना होगा। कवि को अपने रचना-कर्म से यह प्रमाणित करना होगा कि जो आलोचना की गई है वह प्रामाणिक नहीं है। इसलिए कविता और आलोचना के रिश्ते सीधे-सपाट न होकर द्वंद्वमय होते हैं। वे एक-दूसरे को जाने अनजाने असर दे कर भी सापेक्षतः स्वायत्त हैं। यह काम तभी हो सकता है जब कवि आलोचना के बारे में सचेत है। यही नहीं एक कवि को अपने समय की आलोचना से गहरी परिचिति रखकर अपने प्राचीन काव्यशास्त्र का ज्ञान भी ज़रूरी है। हमारे यहां ऐसी बहुत सी बातें हैं जो आज के कवि को उसके कवि कर्म के लिए मुफ़ीद हो सकती है। मैं अपनी बात एक उदाहरण से साफ़ करना चाहूंगा। काव्य मीमांसा में राजशेखर ने समीक्षा को कविता का अंतर्भाष्यकहा है – अंतर्भाष्यं समीक्षा। यानी समीक्षक को कविता में यथार्थ की छाया प्रतीति को भेदकर उसके सार तक जाना ज़रूरी है। मेरा अपना अनुभव है कि अधिसंख्य समीक्षक अपनी सुविधा के लिए कुछ ऐसी पंक्तियां चुन लेते हैं जिनसे वे अपनी बात प्रमाणित कर सकें। इससे कविता के सार तक नहीं पहुंचा जा सकता। कविता के सार तक पहुंचने के लिए आलोचक को बड़ा श्रम करना पड़ता है। वैसा धैर्य, वैसी साधना आज के हिंदी समीक्षकों में विरल है। हमारे यहां आलोचक को कवि का मित्र, स्वामी, मंत्री, शिष्य और गुरु तक कहा है – यानी उसके और कवि के रिश्ते बड़े व्यापक होते हैं। 
“स्वामी, मित्रं च मंत्री च शिष्यश्चाचार्य एव च कविर्भवति भावकः।” इससे हमें आज के कवि और समीक्षक के रिश्तों को पहचानने में सहूलियत होगी। फिर  हम आत्मालोचन भी कर सकते हैं। हमारे यहां दो तरह के कवि माने गए हैं। एक तो प्रतिभाशील और दूसरे प्रतिभाहीन। दोनों की विशेषताएं भी बताई हैं। प्रतिभाशील कवि को परोक्ष भी प्रत्यक्ष होता है। पर प्रतिभाहीन को सार्थक पदार्थ भी परोक्ष होता है।
अप्रतिभस्य पदार्थसार्थः परोक्ष इव
प्रतिभावतः पुनरपश्यतोपि प्रत्यक्ष इव।
इससे हमारे आज के हिंदी समीक्षक तथा कवि बहुत कुछ ग्रहणकर क्रमशः आलोचना तथा कविता को कई प्रकार के विचलनों से बचा सकते हैं।
मेरा विचार है कि आज की हिंदी आलोचना दिन व दिन अपनी साख खोती जा रही है। यह एक चिंता की बात है। मुझे इसका एक ही कारण नज़र आता है। यानी आलोचना को एक अकादमिक पेशा बना देना। इसीलिए आज पेशेवर आलोचकों की स्थिति बड़ी दयनीय है। साधक आलोचक नहीं हैं। कवि हो या आलोचक उसे अपने कर्म की गंभीरता को देखते हुए साधना का मार्ग अपनाना ही होगा। डॉ. रामविलास शर्मा ने आज की आलोचना से बहुत ही दुखी होकर उसे परस्पर लाभ-हानि या लेन-देन की चीज़ बताया है। वह हमारे समय के सर्वोत्तम शिखर साधक आलोचक थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हमें साधक आलोचकों की परंपरा दी है। यहां अपनी बात को साफ़ करने के लिए एक संस्मरण सुनाता हूं। राजस्थान के अलवर नरेश ने शुक्ल जी को अपने यहां हिंदी के संवर्धन तथा विकास के लिए बड़ी कठिनाइयों से बुला लिया। सारी सुख-सुविधाएं और अच्छा वेतन दिया। शुक्ल जी एक सप्ताह रहे। उसके बाद उन्होंने अलवर नरेश को दो पंक्तियों का एक पत्र लिख कर विदा ली। पंक्तियां देखने समझने लायक़ हैं। 
चीथड लपेट चने चाबेंगे निज चौखट चढ़ि
पै चाकरी करेंगे न काऊ चौपट (सामंत) की।
यहां सामंत शब्द मैंने पंक्ति पूरी करने को कहा है। उनका शब्द कुछ और था जिसे कहना मैंने उचित नहीं समझा। तो यह एक अनुकरणीय आदर्श है हमारे सामने – एक साधक आलोचक का। यही बात कवियों पर भी लागू होती है। सोचने की बात है कि रात-दिन तुच्छताओं के पीछे दौड़ने वाले कवि या आलोचक साधक कैसे हो सकते हैं। अनुकरणीय तो क़तई नहीं। यह भी सच है सब शुक्ल या रामविलास शर्मा नहीं हो सकते। पर हम उनके आदर्शों को पाने के लिए प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। वैसा भी दिखाई नहीं देता। न साधना है, न उच्च मानवीय आचरण। उदार आर्थिकी तथा बाज़ार की चमक-दमक का इतना असर है कि हमारे लिए कविता या आलोचना जीवन की तरह प्राथमिक कर्म न होकर अकादमिक पेशा बन गए हैं।    
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सम्पर्क :
विजेंद्र जी
सी-130, वैशाली नगर
जयपुर, राजस्थान – 202001
फ़ोन: 9928242515
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अशोक तिवारी
17-डी, डी.डी.ए.फ्लैट्स

मानसरोवर पार्क, शाहदरा
दिल्ली –110032
फ़ोन: 22128079, 9312061821                                                  

अशोक तिवारी

जन्म  – 05/09/1963(पांच सितंबर उन्नीस सौ तिरेसठ)
शिक्षा – पी-एच.डी.(हिंदी), एम.ए(हिंदी), एम.एस.सी.(गणित), बी.एड.
लेखन विधाएं: कविता, कहानी, रेखाचित्र एवं लेख
कृतियां    
ऽ    सुभाषचंद्र बोस और आज़ाद हिंद फ़ौज (दो भागों में)
ऽ    सुनो अदीब (कविता संग्रह)
ऽ    धार काफ़ी है (संपादन-जनकवि शील पर केंद्रित)
ऽ    मुमकिन है (कविता संग्रह)
ऽ    सरकश अफ़सानेः जनम के चुनींदा नुक्कड़ नाटक (संपादन)
ऽ    समकालीन हिंदी कविता और सांप्रदायिकता (शीघ्र प्रकाश्य)
थियेटर-
ऽ    1987 से अभिनय व निर्देशन
ऽ    1991 से जन नाट्य मंच के साथ लगातार नाट्यकर्म
पत्रिका  –  नुक्कड़ जनम संवाद (त्रैमासिक थियेटर पत्रिका) के संपादन में 18 सालों से लगातार सक्रिय
   
पुरस्कार     :
ऽ    वर्तमान साहित्य मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार – 2007
        (सुनो अदीब किताब पर)

    लॉन्ग नाइनटीज पर बहस के क्रम में विजेन्द्र, अमीर चन्द्र वैश्य और महेश पुनेठा के आलेख आप पहले ही पढ़ चुके हैं। इन आलेखों के क्रम में ही लोक और कविता के संबंधों की पड़ताल र रहे हैं युवा कवि एवं रंगकर्मी अशोक तिवारी       

सीखने की ज़रूरत

जिन सवालों को विजेंद्र जी ने ‘पहली बार’ के पोस्ट लेख ‘आज की आलोचना का गिरता स्तर’ में उठाया है, वे अहम हैं। ध्यान से देखें तो ये कुछ उन अप्रासंगिक सवालों को उठाए जाने की मुख़ालफत में उठे हैं जिन्हें प्रोफ़ेसर मार्का कुछ कथित विद्वान उठा रहे हैं। समकालीन कविता का पूरा परिदृश्य दरअसल 60-70 के दशक को पढ़े या समझे बग़ैर नहीं जाना जा सकता। यह सच है कि प्रगतिशील कविता के बरक्स नई कविता खड़ी हुई। बरक्स कहने का यहां मतलब आपने-सामने होना नहीं है बल्कि कविता के अंदर आम इंसान को जगह मिलने की क़वायद के खि़लाफ़ कविता में बाजीगरी पैदा करना एवं उसके शिल्प में आकर्षण पैदा करना रहा।

हम जानते हैं कि ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘इप्टा’ का हिंदुस्तान की आज़ादी में उल्लेखनीय योगदान रहा है। यह योगदान इतिहास में महज़ दर्ज होने की गरज से नहीं था बल्कि उसी इतिहास में सामान्य आदमी की भूमिका को सुनिश्चित करने के बारे में भी था। इनकी विभिन्न प्रकार की प्रस्तुतियां दूर-दराज के इलाक़ों में की जाती थीं। अस्थाई मंच बनाकर नाटक, प्रहसन आदि खेले जाते जिनके विषय आम जनता और उनकी तकलीफ़ों से जुड़े होते। विभिन्न नाट्य प्रस्तुतियों के साथ-साथ तमाम तरह के गीत, नज़्म, ग़ज़ल एवं कविताएं इत्यादि उन्हीं लोगों के बीच में प्रस्तुत की जातीं। कहने का आशय यह है कि आम इंसान को केंद्र में लाने की सुगुबगाहट शुरू हो चुकी थी। जो यक़ीनन रूस के माक्र्सवादी मॉडल का प्रभाव था जो दुनिया भर में तेज़ी से फैला था। बड़े-बड़े रचनाकारों को देखिए क्या लिख रहे थे। निराला ‘कुकुरमुत्ता’ से लेकर ‘नए पत्ते’, नागार्जुन कविता में अपनी प्रतिबद्धता सुनिश्चित करते हुए अपने रचनाकर्म को आगे बढ़ा रहे थे। केदारनाथ अग्रवाल एवं शील आदि के साथ राजीव सक्सैना …धू धू कर जल रहा समाज…सरीखी कविताएं लिख रहे थे। ऐसे में कुछ हस्ताक्षर ऐसे भी थे जो प्रगतिवादी स्वर को कमज़ोर बनाने के भरसक प्रयास कर रहे थे। अज्ञेय उन्हीं कवियों की पंक्ति में आगे खड़े थे जो अमरीकी प्रभाव में आकर साहित्य में व्यक्तिवादी रुझान को बढ़ावा देने में लगे थे। तार-सप्तक के वजूद में आने के लिए अज्ञेय की छटपटाहट भी देखी जा सकती है। प्रगतिशील धारा के कई कवि इसमें शामिल रहे – यह सच है – मगर यह संग्रह अपनी ख्याति के कौन से आयाम तय करके गया? ये एक बड़ा सवाल है। हमें याद होगा नई कविता का नारा भी ‘new poetry’ की तरज पर ही था।

हिंदुस्तान की आज़ादी के बाद मुल्क की संरचना में आया बदलाव असंतोषजनक था। यह असंतोष छठवें दशक में किसी न किसी रूप में साहित्य का हिस्सा बना। उससे भी ज़्यादा आम इंसान उस सपने के पूरे होने के इंतज़ार में रहा जो देश के बेहतर भविष्य के रूप में देखे गए थे। ‘बॅटवारे’ का घाव इतना गहरा था कि कुछ सूझ नहीं रहा था। कविता में एक शून्य-सा था जो छठवें दशक के बीच पसरा था। हालांकि इस शून्य को तोड़ते हुए कई सुर अपने अंदाज़ में रचनाकर्म में लगे थे। मुक्तिबोध की कविता का बिंब विधान इसी दौर की उपज था। निराला, केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगलसिंह सुमन, शील, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि के साथ साथ शंकर शैलेंद्र, कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी आदि बहुतेरे कवि एवं शायर इस दौर की धड़कन के साथ एकात्म होते हुए विभिन्न बदलावों को रेखांकित कर रहे थे। राजनीतिक उठापटक एवं अदूरदर्शी नीतियों ने लोगों के अंदर हताशा व निराशा भर दी थी जो राजकमल चैधरी धूमिल, श्रीकांत वर्मा आदि के लेखन में साफ़तौर पर नज़र आ रही थी। अकविता, भूखी पीढ़ी, बीट कविता आदि का पूरा परिदृश्य इसी दौर की उपज था।

यह दौर वह था जब कविता की ही नहीं साहित्य की भी एक दिशा तय हो रही थी। सातवां दशक आंदोलन के स्तर पर एक महत्त्वपूर्ण दशक के रूप में याद किया जाता है। इस दौर में कविता के तमाम रुझान भी देखे जा सकते हैं। इन रुझानों को प्रकट करते हुए केदारनाथ अग्रवाल, शील, नागार्जुन, त्रिलोचन एवं विजेंद्र आदि कवि पूरी ईमानदारी के साथ कविकर्म में जुटे थे। हमें याद होगा, ये वही दौर था जब नागार्जुन घोर सांप्रदायिक बाल ठाकरे को अपनी कविता में जवाब देते हुए सभी सांप्रदायिक शक्तियों की अच्छे से ख़बर ले रहे थे।

इसी दशक में जनवादी कविता की चेतना का विरोध भी चरम पर रहा। धर्मवीर भारती और विजयदेव नारायण साहू आदि ‘परिमल समूह’ के तहत मार्क्सवादी चेतना पर सीधे-सीधे हमला कर रहे थे। इसके चलते बहुत-सी ऊल-जलूल प्रतिस्थापनाएं तक करने की कोशिश की गईं। ये हमला एकाएक हुआ हो, ऐसा भी नहीं था। इस तरह के हमले हमें प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ, जो कदाचित महान लेखक मैक्सिम गोर्की के ‘तय करो किस ओर हो तुम’ के फलस्वरूप बना, देखने को मिलने लगे। तीखे वैचारिक संघर्ष होते रहे। शिवदान सिंह चैहान, चंद्रबली सिंह, रामविलास शर्मा एवं प्रकाशचंद्र गुप्त आदि तमाम माक्र्सवादी आलोचक विरोधीधारा के तर्कों से रूबरू होते रहे।

 अब अगर ‘वागर्थ’ पत्रिका ‘80’ के बाद की कविता पर अपने को केंद्रित करती है, तो इसके निहतार्थ क्या हैं, इसे समझना होगा। विजेंद्रजी का यह सवाल कि ‘80’ के बाद की कविता क्यों, 70 के बाद की कविता से चर्चा क्यों नहीं, एक ख़ास रुझान की ओर इशारा है। विजेंद्रजी की इस टिप्प्णी से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि 70 के बाद के दशकों का भी जब अध्ययन किया जाएगा तो निःसंदेह 70 से 80 के बीच का दौर एक ऐसा दौर रहा है जो न केवल कविता के लिए, बल्कि कला, साहित्य एवं संस्कृति के साथ-साथ मानवीय एवं राजनीतिक सरोकारों को भी प्रभावित करता है। यह दौर बेहद उथल-पुथल का रहा है। एक ओर जहां 60-70 का दौर बेहद असमंजस, दुविधा एवं संकटग्रस्त रहा है; वहीं 70-80 के दौर में राजनीतिक उठा-पटक के साथ-साथ फ़ासीवादी तेवरों का इमरजेंसी में लागू होना, बोलने के अधिकार एवं संप्रेषणीयता पर अंकुश का बड़ा भारी कलंक रहा है। अब उस दौर को भुलाकर सिर्फ 80 के बाद की कविता पर बात करना और ख़ासकर उन लोगों की बात करना जो रूपवाद के साथ-साथ कविता की वापसी का नारा देते रहे।    

यह सोचने की बात है कि ये कौन लोग हैं जो कविता की वापसी का नारा देते हैं और जिनका मानना है कि कविता की मौत हो गई है। कौन लोग हैं जिन्हें 60-70 और 70-80 के बीच की कविता कविता नज़र नहीं आती और एकाएक 80 के बाद के दौर में कविता में उन्हें मार्के की चीज़ नज़र आने लगती हैं…सोचने का विषय है।

मुझे लगता है प्रमुख सवाल विचारधारा का है। हम जानते हैं 80 के बाद कविता के क्षेत्र में कोई विशेष मोड़ नहीं आए। फिर बार-बार उसी बात को उठाते हुए कुछ चुनींदा संदर्भो और चुनींदा कवियों या लेखकों को लेकर अपनी बात को पुष्ट करते रहना एक ख़ास रुझान की ओर इशारा तो करता ही है, बल्कि 80 के बाद की कविता में से कई बार कवितापन भी ग़ायब होता नज़र आया है। कविता का समाज साक्षेप नज़रिया आत्मकेंद्रित होकर रह गया। अब ऐसे में आत्मकेंद्रित होते चले जाते अशोक बाजपेई और कुंवर नारायण जैसे कवि न केवल एक बड़े कवि के रूप में ख्याति प्राप्त करने की होड़ में लगे रहते हैं बल्कि बड़े कवियों(वास्तविक) की उपेक्षा करते हुए उन्हें हाशिए पर डाल देते हैं। ऐसा कौन करता है और क्यों? इस पर विजेंद्र जी की एक टिप्पणी उल्लेखनीय है – ”हिंदी आलोचना का गिरता स्तर वाकई शोचनीय है। समीक्षक को कविता में यथार्थ की छाया प्रतीति को भेदकर उसके सार तक जाना ज़रूरी है। मेरा अपना अनुभव है कि अधिसंख्य समीक्षक अपनी सुविधा के लिए कुछ ऐसी पंक्तियां चुन लेते हैं जिनसे वे अपनी बात प्रमाणित कर सकें। इससे कविता के सार तक नहीं पहुंचा जा सकता। कविता के सार तक पहुंचने के लिए आलोचक को बड़ा श्रम करना पड़ता है। वैसा धैर्य, वैसी साधना आज के हिंदी समीक्षकों में विरल है। हमारे यहां आलोचक को कवि का मित्र, स्वामी, मंत्री, शिष्य और गुरु तक कहा है – यानी उसके और कवि के रिश्ते बड़े व्यापक होते हैं।“ (विजेंद्रजी का साक्षात्कार – ‘साहित्य: शिवेतर क्षतये’ अलाव, अंक-35)

पिछली शताब्दी में मार्क्सवाद का व्यावहारिक रूप दुनिया में बड़े पैमाने पर बड़े पैमाने पर साकार होते देखा गया। मेहनतकश और किसानों की भूमिका को सुनिश्चित करते हुए कई देशों सरकारें इसी के अनुरूप ढलीं। पूंजीवाद के शिकंजे को चुनौती देने वाला साम्यवादी ढांचा अपने पूरे रंग-ढंग के साथ व असरदार तरीक़े से सामने आया। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उन्हीं देशों में ऐसे लोग भी बराबर बने रहे जिन्होंने साम्यवाद को दिलो-दिमाग़ से स्वीकार नहीं किया और वे जाने-अनजाने पूंजीवादी रवैयों का समर्थन करते रहे। दोनों विचारधाराओं का द्वंद्व यक़ीनन नया नहीं है। साम्यवाद जहां एक ओर इंसान की प्रगति एवं वैज्ञानिक आधार का हामी रहा है, वहीं दूसरी ओर पूंजीवाद पूंजी को सर्वोपरि मानकर हर चीज़ को उसी के अनुरूप देखता है। साम्यवादी व्यवस्था जहां इंसान के इंसान बने रहने व इंसानियत को कु़दरत का सबसे बेहतरीन तोहफ़ा मानती है, वहीं पूंजीवादी व्यवस्था में सभी रिश्ते, क़ायदे-क़ानून आदि पूंजी से ही तय होते हैं। साम्यवादी व्यवस्था जहां एक ओर समाज के हर तबक़े की भागीदारी को सुनिश्चित करते हुए समानता के व्यवहार पर ज़ोर देती है जबकि दूसरी व्यवस्था चंद मुट्ठीभर लोगों की वह व्यवस्था होती है जो बाक़ी लोगों पर थोपी जाती है। इस व्यवस्था में व्यक्तिगत चेतना का आधार वैज्ञानिक हो ही हो – यह ज़रूरी नहीं। बल्कि इसी व्यवस्था की देन बाज़ारवाद है जिसके चलते हर तरह के तीज-त्यौहार आदि तय होते हैं। पूंजी के खेल का असली अखाड़ा ही तो है बाज़ार। पूंजी का असमान वितरण बाज़ारवाद की पहली और ज़रूरी शर्त है। बाज़ारवाद के हथकंडों का हमेशा से ही प्रगतिशील चेतना विरोध करती रही है।

साहित्य में बाज़ारवाद के सरोकारों को निभाने वाले भी कम नहीं रहे हैं, बल्कि पिछले दो दशकों में ख़ासकर 1991 के बाद जब उदारीकरण की नीति के तहत बाज़ार की खुली नीति लागू की गई, उसका प्रभाव खूब फूला फला है। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का बाज़ार खूब गर्म रहा है। पत्रिकाओं में लगने वाली पूंजी का असर भी साफ़ परिलक्षित होता है। नया ज्ञानोदय, वागर्थ जैसी पत्रिकाएं किन मूल्यों का प्रतिपादन करने पर तुली हैं – यह भी देखने की चीज़ है। हंस, कथादेश, कथन आदि पत्रिकाएं साहित्यिक सरोकारों के नाम पर जो कुछ भी परोस रहीं है उसमें आमजन कितना है – यह सोचने का विषय है। लगभग ग़ायब। इसके कारण क्या हैं? जाने-अनजाने कहीं ये सभी पत्रिकाएं पूंजीवाद के उन्हीं हथकंडों की शिकार तो नहीं हो रहीं हैं जिनका विरोध करने के लिए एक ज़माने में वो खड़ी हुई थीं। जिनमें कई बार फूहड़ एवं अश्लील जुमलेबाज़ी के चलते सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश की गई है (नया ज्ञानोदय के पिछले दिनों के कई कांड तो अभी लोगों की ज़हन में ताज़ा होंगे।) इसी के साथ-साथ विभिन्न सरकारी पत्रिकाएं- साक्षात्कार, मधुमती, भाषा, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल आदि तमाम पत्रिकाएं संबंधों और रस्मों को निभाने वाली पत्रिकाओं तक सीमित होकर रह गई हैं।

तो क्या हम सेठाश्रित पत्रिकाओं से उम्मीद कर सकते हैं कि वे उन मूल्यों का भंडाफोड़ करें जिनका समर्थन उनका मालिक करता है। ये बेमानी भी होगा। लेकिन सच तो ये है कि ‘वर्ग संघर्ष’ के स्थान पर अब हमने ‘वर्ग सहयोग’ को अपनाने की आसान व सरल नीति बना ली है। इसके पीछे का दर्शन क्या होता है, इसे भी जान लें…”अरे भाई अब सभी को काटते रहोगे तो कौन बचेगा? अपनी विचारधारा को ऐसे ही लोगों के अंदर रोपना है…शनै शनै।“ उन्हें शायद ये नहीं मालूम कि अपनी विचारधारा को शनै शनै रोपने का ये दर्शन साहित्य का कितना नुक़सान कर रहा है। या शायद उन्हें मालूम भी हो, फिर भी वो ऐसा कर रहे हैं..क्यों? इसे भी समझना होगा।

सालों पहले एक बार ‘समय माजरा’ पत्रिका में हेतु भारद्वाज ने नाटककार हबीब तनवीर के नाटक ‘जमादारिन’(पोंगा पंडित) पर आपत्ति दर्ज करते हुए दक्षिणपंथी सोच की अपनी टिप्पणी रखी। हेतु भारद्वाज ने इस टिप्पणी में हबीब साहब को एक बड़ा नाटककार तो बताया था, पर उनके काम की नुक्ताचीनी एक सनसनी पैदा करने की गर्ज से की थी। (समय माजरा – अंक 61-62)इस पर मैंने एक लंबी प्रतिक्रिया लिखी, जिसे उन्हांेने इसी पत्रिका के अगले अंक में ज्यों का त्यों छापा मगर एक ‘ग़ैर वाजिब व्याख्या’ होने की टिप्पणी के साथ। (अंक 64) प्रतिक्रियाओं का ये सिलसिला कुछ और अंकों में भी चला। उन्हीं टिप्पणियों एवं प्रतिक्रियाओं के उस दौर में मेरी बात डॉ  अजय तिवारी से हुई। ताज्जुब की बात मेरे लिए यह थी कि उसी अंक में अजय तिवारी का भी लेख छपा था जिसमें हेतु भारद्वाज ने हबीब तनवीर पर आक्षेप लगाते हुए चोट की थी, और उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं की थी। ये तबकी बात है जब वे अपने ख़ास कृत्य के लिए कुख्यात नहीं हुए थे और जनवादी लेखक संघ के एक सशक्त हस्ताक्षर के तौर पर देखे जाते थे। अजय तिवारी का रुख़ चैकाने वाला था – ”तुम इस बाबत अब कुछ ज़्यादा लिखा-पढ़ी न करो, मैं जल्दी ही ‘समय माजरा’ में नियमित काॅलम लिखने जा रहा हूं।“ ‘वर्ग सहयोग’ का यह नमूना मुझे हैरत में रखने के लिए काफ़ी था।

सेठाश्रित एवं बुर्जुआ सोच की पत्रिकाओं द्वारा उस पूरे दौर को छेक दिया जाना समझ आता है जिस दौर में वामपंथी विचारधारा को मज़बूती एवं दिशा मिली। उनके हित कहां जुड़ते हैं – ये भी समझ आता है। ये सब यूं ही नहीं है बल्कि सोची-समझी रणनीति के तहत है। उन सभी कारकों की पड़ताल करना आज के दौर की एक महत ज़रूरत है। विजेंद्रजी की इस पर दो सटीक टिप्पणी देखी जा सकती हैं।

1-    ”सेठाश्रित पत्रिकाएं सदैव ही कविता को अग्रगामी विचार रहित तथा चिंतन विमुख बनाने को सक्रिय रही हैं।“ 
2-   बुर्जुआ पत्रिकाओं के संपादक भारतीय मुक्ति संग्राम की अधूरी छूटी क्रांति को अग्रसर करने में लेखकों को प्ररित करेंगे – यह असंभव है।    
                   
ये पत्रिकाएं जो पैसे के बल पर अच्छा काग़ज, अच्छी छपाई और अच्छी जिल्द के चलते अच्छे से अच्छे एवं प्रतिबद्ध लेखक को ललचाने के लिए पर्याप्त है। विजेंद्र जी की यह चिंता क़तई वाजिब है कि ”नया लेखक आखि़र प्रकाशन क्यों न चाहे!“ और यहां सवाल नए लेखकों का ही नहीं है बल्कि स्थापित एवं कुछ प्रतिबद्ध लेखकों का भी है जो किसी न किसी बहाने उन पत्रिकाओं को पोषित करते हैं या पोषित होते रहते है। निःसंदेह हमें अपनी प्रतिबद्धता को पुनः पुनः खँगालने की ज़रूरत होती है।

    पिछले दिनों विभिन्न राज्य सरकारों ने तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान के द्वारा तमाम हिंदी पत्रिकाओं को सहायता राशि दी जा रही है। इसके चलते बहुत सी मृत प्रायः पत्रिकाएं जि़ंदा होकर पुनः सामने आई हैं। पिछले चार-पांच सालों में पत्रिकाओं की बाढ़ सी आई है। सवाल फिर से वहीं आ कर अटक जाता है कि पत्रिकाएं कितनी व्यावसायिकता के साथ आगे बढ़ें और कितनी साहित्यिक प्रतिबद्धता के साथ इनका तालमेल और संतुलन तय हो? ऐसा भी नहीं हैं कि अच्छी पत्रिकाएं नहीं हैं। कई लघु पत्रिकाएं इससे लाभान्वित होकर अपने लक्ष्य के प्रति सचेत हैं। कृति ओर, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, अलाव आदि कई पत्रिकाएं हैं जो इस दिशा में आगे बढ़ रही हैं। उद्भावना और नया पथ के कई शोधपूर्ण अंक सामने आए हैं। मोटे-मोटे। यह हमेशा बेहतर होता है कि निरंतरता के साथ छोटे-छोटे अंक ही निकलें, पर निकलते रहें, जो पाठकों के अंदर स्वस्थ वैचारिक शृंखला को सतत आगे बढ़ाएं। नया पथ ने इस दिशा में काम को आगे बढ़ाया है। पिछले दिनों विभिन्न प्रतिबद्ध पत्रिकाओं के अंकों में महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों एवं कलाकर्मियों की शताब्दी मनाए जाने के उपलक्ष्य में काफ़ी महत्त्वपूर्ण एवं संग्रहणीय सामग्री प्रकाशित हुई है। ये बहुत ज़रूरी है। मगर कई बार मुझे लगता है, इस कारण कहीं वे समसामयिक मुद्दे न छूट जाएं, जिन पर फ़ौरी हस्तक्षेप की मांग होती है। पत्रिका में समसामयिक परिस्थितियों के साथ उनका कितना तालमेल हुआ है और कितना कुछ है जो उसने अपनी विरासत को सँभालने में लगाया है – यह सोचने का विषय है। विरासत में मिले साहित्य के साथ साथ वर्तमान और भविष्य की सामाजिक एवं राजनीतिक चिंताओं पर लगातार बातचीत बेहद ज़रूरी है। जिससे राजनीतिक प्रतिबद्धता एवं दिशा पर बात हो सकती है।

    1992 और 2002 की ख़ास घटनाएं – बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना और गुजरात नरसंहार – जब देश की धर्म निरपेक्षता पर सीधे-सीधे न केवल हमला किया गया बल्कि उसके सच को झूठों के तमाम अंबार से ढकने की कोशिश भी की गई, भारतीय लेखकों को ही नहीं, दुनियाभर के लेखकों को उद्वेलित करके गईं।(वी.एस.नायपाल  सरीखे बहुत से लेखकों को छोड़ कर जो हिंदुस्तान में ही नहीं बाहर भी मौजूद रहे हैं।)। यह हिंदुस्तान के इतिहास में बेहद शर्म की बात रही। अब कोई इन घटनाओं का जि़क्र किए बिना 2012-13 के साहित्यिक रुझानों की बात करे तो यह कहां तक जायज और सटीक होगा। वैसे भी 1992 और 2002 की फ़ासीवादी घटनाओं के बाद की अधिकांश कविताओं में उन कृत्यों का विरोधी स्वर ही अधिक था। उसी प्रकार 70 और 80 के दशक दरअसल देश के निर्माण व उसे एक दिशा (जिसने जन मानस को बेहद प्रभावित किया था।) देने में एक भूमिका निभाकर गए थे। इन दशकों का जि़क्र किए बिना 80 के बाद की कविता पर बातचीत एक तरह से अधूरापन तो है ही, साथ ही इसमें उन आंदोलनों का नकार भी शामिल है जो देश की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता को बनाए रखने के साथ-साथ साहित्य में जनवादी धारा का उद्भव एवं विकास के क्रम को दर्शाता है। सवाल ये भी नहीं है कि सिर्फ़ 80 के बाद की कविता या साहित्य का क्या मूल्याकन संभव नहीं है? बिल्कुल है, मगर प्रमुख बात ये है कि उस मूल्यांकन को करने वाले लोगांे की प्रतिबद्धताएं क्या हैं, उनके सरोकार क्या हैं और उनके हित कहां और किसके साथ जुड़ रहे हैं? और इसी चीज़ से उस बात की दिशा और दशा तय होती है।

    लोक के सवाल पर विजेंद्र जी अपनी बेबाक टिप्पणी रखते हैं। और लोक के संघर्षधर्मी रूप को सामने लाने की बजाय उत्सवधर्मी रूप को लाने पर चिंता प्रकट करते हैं। लोक के बारे में उनकी समझ न केवल स्पष्ट है बल्कि वे सीधे व साफ़ शब्दों में लोक की अवधारणा एवं उसके महत्त्व को अपने लेखन का हिस्सा भी बनाते हैं। लोक को सिर्फ़ गांव व देहात के साथ जोड़ कर देखने तथा लोक को अमूर्त मानने जैसे अजय तिवारी सरीखे लेखकों के उथले वक्तव्यों पर (जिनमें निःसंदेह छाया प्रतीति की झलक मिलती है सारतत्व की नहीं) विजेंद्र कहते हैं: ”हमें लोक को पुनर्व्याख्यायित कर उसके सही रूप को समझना होगा। लोक को समझकर ही कवि या समीक्षक की लोक दृष्टि बनेगी। मार्क्सवाद में यह लोकदृष्टि व्यापक रूप से अंतर्निहित है क्योंकि वही एकमात्र सर्वहारा का वैज्ञानिक दर्शन है।“ मुझे लगता है हमें विजेंद्र की लोकदृष्टि पर लिखे तमाम साहित्य को पढ़ना व समझना चाहिए। लोक के संघर्षधर्मी रूप को उद्घाटित करते हुए विश्व लोकधर्मी कवियों की श्रंृखला- वाल्ट ह्विटमैंन, लोर्का, नेरुदा, वोल शोयिंका, मायकोवस्की, बाइजुई, नाजिम हिकमत तथा महमूद दरवेश – पर किए जा रहे उनके काम को हमें गंभीरता से पढ़ने की ज़रूरत है।

आखि़र में एक और महत्त्वपूर्ण सवाल है जिस पर मुझे लगता है आज ज़रूर बात होनी चाहिए, जिस पर विजेंद्रजी ने बार-बार लिखा है। वह सवाल है प्रतिबद्धता का। प्रतिबद्धता इंसानियत के प्रति, समाज के प्रति। अब सवाल उठता है कि यह प्रतिबद्धता आती कहां से है? चारित्रिक रूप से पतित व्यक्ति से अच्छे और मानवीय मूल्यों से सराबोर साहित्य की उम्मीद करना बेमानी है। हालांकि वर्तमान स्थितियों में जो हाल है, वह बहुत ही दयनीय है। जिन्हें लोक के बारे में पता नहीं है वही उस पर व्याख्यान देते हुए लोक की अवधारणा तय कर रहे हैं। विश्वविद्यालयों में उस पर अपनी छायाप्रतीति सोच एवं अवधारणा को अपने संबंधों एवं वाक्चातुर्य के चलते लागू करा रहे हैं। और अवसरवादी सोच के शिकार लेखक उन्हें पुष्ट भी कर रहे हैं। चारित्रिक एवं मानसिक रूप से विध्वंसक व्यक्ति से सृजनात्मक साहित्य की उम्मीद करना, साहित्य के प्रति बेईमानी है। आज ये बेईमानी साफ़तौर पर साहित्य में परिलक्षित है। कौन बड़ा लेखक है, कौन छोटा है, किसे चढ़ाना, किसी गिराना है… आदि मनोवृत्तियों के शिकार समीक्षकों की क़तार बहुत बड़ी है जो तमाम अकादमियों पर तो हावी है ही, साथ ही गंभीर साहित्य के क्षेत्र में भी उनका दबदबा बढ़ रहा है। यह एक चिंता का विषय है। क्या आलोचना के इस गिरते स्तर को हमें एक चुनौती के तौर पर नहीं देखना चाहिए? ऐसे में हमारी क्या जि़म्मेदारी बनती है? मुझे लगता है जीवन सिंह, आनंद प्रकाश, अमीर चंद्र वैश्य, रमाकांत शर्मा, रेवतीरमण आदि लोकधर्मी समीक्षकों आदि के साथ-साथ आज हम सबकी जि़म्मेदारी बनती है कि अपनी उसी धार के साथ बुर्जुआ एवं पेशेवर समीक्षकों की साजिश का भंडाफोड़ करें और उनकी असलियत को उजागर करें। अपनी बात को साफ़गोई और बग़ैर किसी लाग-लपेट के कैसे कहा जाता है, इसे हमें विजेंद्र जी से सीखने की ज़रूरत है।   
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