बुखार
हरीश बाबू की पहचान धुनों के पक्के आदमी की थी । अपने मित्रों के बीच वे इसी नाम से जानें जाते। हाँलाकि हरीश बाबू इन विशेषणों को बहुत महत्व नहीं देते और बड़ी सादगी से कहते – ‘‘ईश्वर ने हमें आदमी बनाया है और हमें वही रहना है न उससे अधिक और न उससे कम।’’ लेकिन देखने वाली बात यह थी कि जिस प्रकार हरीश बाबू अपने मित्रों द्वारा नवाजे गये विशेषणों पर ध्यान नहीं देते , उसी प्रकार उनके मित्र भी बगैर उनकी परवाह किये उनके नाम के आगे और पीछे अपने दिमाग द्वारा गढ़े गये विशेषणों को चिपका ही देते।
रेल की नौकरी में रहते हुए उनकी एक धुन बहुत प्रसिद्ध हुयी भी। ‘‘शराफत और ईमानदारी की धुन’’। मजाल क्या कि इसकी कभी कोई लय, कोई ताल या कोई मात्रा उनसे छूटी हो। इन्हें बजाने का जब भी अवसर आता, वे पूरी तन्यमता से निभाते। परन्तु आस्तीने तो मित्रों के भीतर भी होती है, किसी ने ऊँचा आसन दिया तो किसी ने उसी के नीचे आग सुलगा दी। ऐसी ही एक आग उन्हें बेहद सालती थी।
‘‘यह समय शरीफ और ईमानदार लोगों का समय नहीं है।’’
हरीश बाबू को लगता ‘‘किसी ने उनकी आत्मा के ऊपर अँगार रख दिया हो।’’ उन्होंने इसका जवाब देने के लिए चन्द लाइनें सोंची।
‘‘समय के सम्पूर्ण इतिहास में
वर्तमान ने किस समय को
इनका समय माना
परन्तु इतिहास ने किस समय को
इनका समय नही माना।’’
इन पंक्तियों को कभी उन्होंने सामने वाले से नही कहा, वरन अपनी आत्मा पर रखे अँगारे को शीतल करने के लिए ही इसका उपयोग किया। लेकिन यह शीतलता दो-चार दिन ही रह पाती कि कोई न कोई ऐसा मुहावरा हवा में तैरता हुआ उनकी तरफ बढ़ता ‘‘जब धुनें ही पक्की नहीं रहीं तब उन्हें माला बनाकर पहनने से क्या फायदा ?’’
हरीश बाबू दुखी हो जाते। मन ही मन कहते –
‘‘मैने कब कहा कि आप सब भी हमारी ही धुन में गायें और बजायें।’’
और फिर मित्र लोग निष्कर्ष निकालते- ‘‘यही धुन एक दिन हरीश बाबू का बाजा बजा देगी।’’
सेवानिवृत्ति के बाद हरीश बाबू की एक दूसरी धुन खुलकर सामने आयी। ‘‘सुबह की सैर।’’ मोहल्ले का प्रत्येक व्यक्ति इससे वाकिफ था। अपनी कालोनी से प्रातः छः बजे निकलना, वीर चौराहे से दाहिने मुड़कर डी.ए.वी. कालेज के मैदान में पहुँचना और उसका दस चक्कर लगाना। घड़ी देखकर 40 मिनट लगते। बीच में साथी लोग आते और जुड़ते रहते। समापन कुछ साधारण व्यायाम के साथ होता, जिसके अन्त में यह दोहराया जाता कि ‘कल फिर मिलेंगे।’ हरीश बाबू को लगता कि इस दुहराव के कारण ही साथियों के नामों की सूची पिछले 3 सालों से वही है। ‘हरीश बाबू, मिश्रा जी, डा. अंसारी, प्रसाद जी और रमन जी’। सभी लोग अपने जीवन की डोर के आखिरी छोर की ओर बढ़ते हुए। कमोवेश एक ही जैसी स्थितियों में जीने वाले।
अंसारी जी थे तो डाक्टर, लेकिन उनकी असली पहचान उस दल में नागा करने वाले एक ऐसे सदस्य की थी, जो अपनी अनुपस्थिति को भी हास-परिहास में बदल देता। एक दिन उन्होंने कहा था- ‘‘आप लोगों को क्या लगता है कि ‘सुबह की सैर’ यमराज को भ्रम में डाल देगी कि यह आदमी 40 साल का है, जिसे गलती से मैंने अपनी बही में 70 साल का लिख लिया है।’ और जोर के ठहाके ने सबके फेंफडों में थोड़ी और आक्सीजन भरने लायक जगह बना दी थी।
वापसी के वक्त हरीश बाबू चाहते कि कोई उनसे सवाल करे, कुछ पूछे। लेकिन यदि कोई कुछ नहीं पूछता तो वे अपने ही पूछ बैठते, वो भी अधिकतर डा. अन्सारी से ही।
डा. साहब मजाक करते – ‘‘मैंने कितनी मेहनत से डाक्टरी की पढ़ाई की है
उस जमाने में भी मुझ पर मेरे पिता ने कितना सारा पैसा खर्च किया था और आप सब कुछ मुफ्त में ही जान लेना चाहते हैं ?’’
एक दिन हरीश बाबू ने डा. अंसारी से पूछा कि ‘‘बुखार क्यों होता है ?’’
डा. साहब ने पहले तो आदतन मजाक किया –
‘लोगों को बुखार इसलिए होता है कि डाक्टरों को थोड़ी गर्माहट मिले।’
फिर गम्भीरता से बोले- ‘‘बुखार कोई बीमारी नही वरन बीमारी का लक्षण हैं। शरीर द्वारा भेजा गया संकेत, कि आप किसी प्रकार के संक्रमण के शिकार हो चुके हैं।’’
‘‘और यदि बुखार न हो तो ?’’ हरीश बाबू ने पूछा।
‘‘तो क्या, आप भीतर ही भीतर सड़ जायेंगे और आपको पता भी नहीं चल पाएगा।’’ डा. अंसारी ने उत्तर दिया।
प्रतिदिन यही क्रम चलता। कोई नई गुत्थी सुलझाई जाती। जिसका नम्बर होता, उसके विषय की। लेकिन गुत्थी एक तरफ और नियम एक तरफ। नियम, प्रतिदिन आने का
उसे जो कोई तोड़ता, हरीश बाबू जरूर टोकते –
‘‘यदि साँस लेना, पानी पीना और भोजन करना नियम से हो सकता है, तो टहलना क्यों नहीं? आखिर यह भी तो जीवन से जुड़ा हुआ है।’’
सब लोग चुपचाप सुन लेते क्योंकि उनकी इस नसीहत का नैतिक आधार होता था। बरसात में भी वे जरूर निकलते। मैदान में पानी होता तो सड़क के किनारे-किनारे ही टहल लिया। सदी की सबसे भयंकर शीतलहरी भी उनका क्रम नहीं तोड़ पाई थी। पिछली बार हरीश बाबू ने कब नागा किया सबको याद था। वही दो साल पहले वाले दिन, जब शहर में दंगा हुआ था। डा. अंसारी ने इसमें भी अपने लिए जगह तलाश ली थी।
‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि यह दंगा आपकी सैर को रोकने की साजिश के तहत ही कराया गया था?’’
फिर तो यह जुमला ही चल निकला ‘‘हरीश बाबू, नागा भी कीजिए, नहीं तो दंगा हो जाएगा।’’
मिश्रा जी ने एक बार उनसे कहा था, ‘‘कभी तीर्थाटन पर भी निकलिए हरीश बाबू।’’
वे उसका जवाब नहीं देना चाहते थे और हर बार बचकर निकल जाते, लेकिन कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनसे आपको टकराना ही पड़ता है।
‘‘आप जिसे तीर्थाटन कहते हैं, मैं उसे धोखा कहता हूँ। समाज को दिया हुआ धोखा, अपने आपको दिया हुआ धोखा और कड़वा न लगे तो कहूँ कि ईश्वर को दिया हुआ धोखा, और मैं किसी को धोखा देना नहीं चाहता।’’
हरीश बाबू को इन व्यक्तिगत सवालों से परहेज था। न खुद किसी से पूछते और न ही चाहते कि कोई उनसे पूछे। लेकिन कुछ मित्र मित्रता को इस तरह भी निभाते हैं कि जख्म को सूखता हुआ देखा नहीं और पपड़ी उधेड़ दी – ‘ओह ………… ह, आपको तो जख्म हुआ है?’’
ऐसे ही एक जख्म को प्रसाद जी ने कुरेदा – ‘‘आपका बेटा तो मुम्बई मे रहता है, कुछ दिनों के लिए घूम आते। भाभी जी का मन भी लग जाता, बेचारी अकेली घर में घुंटती रहती होगी
” हरीश बाबू का चेहरा उतर गया था। उनका बस चलता तो वायुमण्डल में तैरने के लिए निकले इन शब्दों को, उनकी समस्त ध्वनियेां समेत प्रसाद बाबू के मुँह में वापस ठूस देते। उन्होंने अपने आपको सम्भाला और बोले –
‘‘घुटन एक को तो होना ही है। अलग रहकर हम झेलें या साथ रहकर वे। पिछले साल श्रीमती जी मुम्बई गयीं थीं, अब तो नाम भी नहीं लेंती।’’
जख्मों को उधेड़कर देखने की ईच्छा तो रमन जी की भी होती लेकिन उनके अपने जीवन के हरे जख्म इसकी ईजाजत ही नही देते थे।
इन दिनों हरीश बाबू के व्यवहार में एक परिवर्तन महसूस किया जा रहा था
वे कुछ खोये-खोये से रहने लगे थे। पिछले महीने मिश्रा जी दो दिन नहीं आये फिर भी हरीश बाबू ने कुछ नहीं पूछा। बस ‘हाँ-हूँ’ में बात करते और चले जाते। परन्तु इस सप्ताह तो गजब ही हो गया
एक दिन हरीश बाबू ‘सुबह की सैर’ पर नहीं आये। यह उस दल में सबके लिए एक बड़ी खबर थी। तय हुआ कि उनके घर चला जाय।
‘आज नहीं।’ सबने अपने आपको टटोला।
‘कल तक देख लिया जाय, फिर तय किया जायेगा।’
वह कल आज पाँचवे दिन पर चला आया था।
‘अब तय ना किया जाए , बस आज चला ही जाए।’’ मिश्रा जी ने जोर देकर कहा।
उन सभी की हालत एक नाटक के उस पात्र जैसी थी, जो अपने आपको अपने ही द्वारा बनाई गयी समय की खूँटियों पर टंगा हुआ पाता है। जिस खूँटी का समय हुआ, उठा कर टाँग दिया। वह प्रतिदिन प्रयास करता है कि एक खूँटी उसमें से कम कर दे, लेकिन बजाए हटने के एक और उग आती है। वह छटपटाता रहता है।
सभी लोग हरीश बाबू के घर पहुँचे। यही कोई सुबह के 7 बजे होंगे। रमन जी ने दरवाजा खटखटाया। “आती हूँ
” भीतर से आवाज आयी, जो उनकी पत्नी की थी। उनके साथ एक और आदमी बाहर आया। ये हरीश बाबू के साले थे। उन सबने पहले भी उन्हें यहाँ देखा था। डा. अंसारी ने चुप्पी तोड़ी- ‘‘हरीश बाबू कहाँ है ? आज पाँच दिन हो गये, ‘ सुबह की सैर’ पर नहीं आये।
इतना पूछते ही उनकी पत्नी के आँखों में आँसू आ गए ।
“क्या हुआ ?” लगभग एक साथ ही सभी के मुँह से आश्चर्य फूटा
उन्होंने अपने आपको सम्भालते हुए सबको बाहर रखी चौकी पर बैठने के लिए कहा और बोली –
‘‘समझ में नहीं आ रहा है कि इनको क्या हुआ है ? कुछ बताते ही नहीं, सिवाय एक रट के कि मुझे बुखार हो गया है।’’
‘‘तो किसी डाक्टर को दिखाया गया ?’’ प्रसाद जी ने पूछा।
“हाँ गये थे हम लोग। डा. शर्मा के पास” …. उनके साले ने कहा।
‘उनका कहना है कि इन्हें कोई गहरा सदमा लगा है, आप लोग किसी मनोचिकित्सक को दिखाएँ’’।
‘‘जाँच करायी गयी या नहीं ?’’ डा. अंसारी ने पूछा।
‘‘करायी गयी थी। सभी जाँच सामान्य है।’’ हरीश बाबू के साले ने कहा
“लेकिन ऐसा अचानक कैसे हो गया?’’ रमन जी उसका कारण जानना चाहते थे।
उनकी पत्नी ने अपने आँसूओं को पोछते हुये उन परिवर्तनों को याद किया। बोली –
‘‘इधर एक माह से ये चुप रहने लगे थे। पिछले हफ्ते आज ही के दिन सैर करके वापस आये और चुपचाप अपने कमरे में चले गये। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। सैर से आने के बाद उनका यह नियम था कि एक गिलास पानी पी कर इन फूलों में घण्टे भर लगे रहते थे।’’ उन्होंने अपने लान को दिखाते हुए कहा। ‘‘परन्तु उस दिन बोले कि मुझे बुखार हो गया है। मैने देखा तो उनका शरीर थोड़ा गरम जरूर था, लेकिन उतना अधिक भी नहीं
फिर मुझसे पूछने लगे कि क्या तुम्हें भी बुखार है? मैने कहा – नहीं, मैं तो ठीक हूँ। फिर उस दिन चुपचाप पड़े रहे। न दोपहर में आराम किया और न ही कोई किताब देखी। शाम को बोले कि अब मैं घर से बाहर नहीं जाउँगा,…
‘सुबह की सैर’ पर भी नहीं। हत्यारे सभी चौराहों पर रास्ता रोके खड़े हैं। मैं आश्चर्य में पड़ गयी। यह तो अनहोनी जैसी लग रही थी। गाँव फोन किया, मेरा भाई आया। उससे भी वही सवाल। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता कि इनको क्या हो गया है?” इतना कहकर वे फिर रोने लगीं।
रमन जी ने उनके भाई से पूछा – ‘‘ तो फिर इन्हें किसी मनोचिकित्सक के यहाँ दिखाया गया ?’’
‘‘जी ………..आज ही नम्बर लगा कर आ रहा हूँ। शाम को दिखाने जाना है।’’ उन्होंने उत्तर दिया।
इतने में भीतर से हरीश बाबू की आवाज आयी – ‘‘कौन है?’’
उनकी पत्नी इससे पहले कि भीतर जाती वे खुद ही बाहर आ गये। उनके चेहरे का रंग बिलकुल उड़ गया था और हफ्ते दिन पुरानी दाढ़ी तो जैसे उन्हें गम्भीर रोगी साबित कर देने पर ही आमादा थी। उन्हें देखकर सभी मित्रों के मन में एक हूक उठी थी
जो आदमी सुबह 4 बजे उठने का अभ्यस्त रहा हो, वह 7 बजे तक सोता हुआ मिले तो देरी उसके चेहरे पर चिपकी रह जाती है। सबने डा. अंसारी की ओर देखा, काश !….. कोई ऐसा जुमला फेंकते कि पूरा माहौल खुशनुमा हो जाता। डा. साहब ने उन्हें निराश भी नहीं किया। बोले –
‘‘कैसे हैं हरीश बाबू ? अगर आप एक हफ्ते और नहीं आये तो यमराज हम सबकी उम्र 70 के बजाय 80 साल लिख लेगा।’’
उन्हें लगा कि माहौल कुछ हल्का हुआ, लेकिन हरीश बाबू के सवाल के साथ ही यह तय हो गया कि यह उनका भ्रम था। ‘‘आप लोगों को बुखार हुआ है क्या?’’
और फिर खामोशी पसर गयी , जिसे प्रसाद जी ने तोड़ा।
‘‘आखिर आपके दिमाग में यह बात कहाँ से बैठ गयी है, जो आप सबसे बुखार के बारे में पूछते रहते हैं?’’
हरीश बाबू की गम्भीरता और घनी हो गयी। बोले-
‘‘आप सभी ने इस शहर के चौराहों को तो देखा होगा। क्या कुछ अजीब नहीं लगता वहाँ पर?’’
‘‘नहीं सब तो वैसा ही है।’’ डा. अन्सारी ने कहा।
‘‘वैसा कैसे है?’’ हरीश बाबू चिल्ला पड़े। ‘‘शहर के सभी हत्यारे उन पर रास्ता रोके खड़े हैं और आप कहते हैं कि सब तो वैसा ही है।’’
‘‘हत्यारे?’’ रमन जी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
‘‘हाँ हत्यारे। आप नहीं जानते उन्हें।’’ वे कांपने लगे थे।
उनके साले ने हस्तक्षेप किया, ‘‘जीजा जी दरअसल उन चौराहों पर लगी तस्वीरों की बात कर रहे हैं, जो आगामी चुनावों में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की है।’’
‘‘हाँ-हाँ, मैं उन्ही की बात कर रहा हूँ। तुम्हें वे तस्वीरें नजर आ रही है और मैं उनका असली चेहरा देख रहा हूँ
क्या हमारा समाज यहाँ तक चला आया कि ये सभी हत्यारे चौराहों पर खड़े हो जायें ? बोलिए डा. अंसारी।’’ हरीश बाबू पूरी रौ में थे। ‘‘क्या यह हमारे समाज के भीतर लगा संक्रमण नहीं है? और अगर है तो फिर हम सबको बुखार क्यों नहीं ? हमें इस बीमारी का इलाज नहीं कराना चाहिए?’’
किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहा जाए ?
हरीश बाबू बुदबुदाते हुये उठे- ‘‘ ये सब मुझे पागल समझते हैं । कुछ नहीं हो सकता इनका। सब सड़कर मर जायेंगे। इतना बड़ा संक्रमण और किसी को बुखार नहीं ?’’
वे अन्दर चले गये। चारो लोगो ने उनकी पत्नी से विदा ली। सबकी राय थी कि हरीश बाबू अपना मानसिक सन्तुलन खो चुके हैं। सबने अपने दिमाग को झटका दिया। कोई भी बात यदि चिपकी रह गई हो तो यहीं गिर जाए। वे सब चल पड़े , समय की उन खूँटियों की तरफ, जो उन्हें टाँग देने के लिए लगातार अपनी तरफ खींचती जा रही थी।
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