अजय कुमार पाण्डेय द्वारा संपादित कविता-संग्रह पर रामजी तिवारी की समीक्षा


बाल-साहित्य के बारे में प्रख्यात गीतकार और शायर गुलज़ार ने एक बार कहीं यह कहा था कि, ‘अच्‍छा बाल साहित्‍य वह है जिसका आनंद बच्‍चे से ले करबड़े तक ले सकें। बाल साहित्य की यह वह परिभाषा है जो उसे अब तलक बनाए गए खांचों से स्वतन्त्र करती है हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में लगभग दो हजार साल पहले प्‍लेटो द्वारा कही गयी बात को भी हमें अच्छी तरह ध्यान में रखना होगा कि, ‘बच्‍चा दरअसल बड़ों के बीच एक विदेशी की तरह होता है। जैसे किसी विदेशीसे जिसकी भाषा आपको न आती हो जब आप बात करते हैं तो आपको मालूम होता है कि मेरी कई बातें वो ठीक समझेगा, कई नहीं समझेगा या गलत समझ जाएगा। और जब वहबोलता है, अपनी भाषा में बोलता है और हमको उसकी भाषा नहीं आती तो हम उसकीपूरी बात नहीं समझ पाते। कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं, और इस तरीके से जो आदान-प्रदान होता है वह आधा-अधूरा होता है।हमें बच्‍चे को भी इस तथ्‍य को ध्‍यान में रख कर देखना और समझना चाहिए। कवि अजय कुमार पाण्डेय ने इधर बाल-कविताओं का एक उम्दा संकलन तैयार किया है जिसे साहित्य भण्डार, इलाहाबाद ने बेहतर कलेवर और साज-सज्जा के साथ प्रकाशित किया है इस संकलन में सम्पादक ने उन कुछ कविताओं को शामिल किया है जिसके केन्द्र या परिदृश्य में बच्चे हैं इस महत्वपूर्ण संकलन के लिए अजय कुमार पाण्डेय को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं इस संकलन पर कवि-यायावर रामजी तिवारी द्वारा लिखी गयी यह समीक्षा   



बेहतर दुनिया की तलाश में             

रामजी तिवारी 

आधुनिक सभ्यता ने मानव जाति को एक अजीब दोराहे पर खड़ा कर दिया है। एक तरफ हम दुनिया के साथ आगे बढ़ने की दौड़ में शामिल हैं और चाहते हैं कि अपने बच्चों के लिए सब कुछ संजो कर जाएँ। वहीं दूसरी तरफ इस सब कुछ को जुटा लेने की अंधी दौड़ के कारण हमारी पृथ्वी का जो दोहन हो रहा है, उसके चलते हमारी दुनिया का भविष्य ही प्रश्नों के दायरे में आ गया है। यानि कि हम जिस दुनिया में अपने सात पीढ़ियों के लिए भौतिक व्यवस्था जुटाने के लिए मर-कट रहे हैं, वही दुनिया हमारे इस जुटाने की हवस के कारण हमारी ही पीढ़ी के सामने अपने अस्तित्व के लिए कराह रही है। मसलन पर्यावरण का उदहारण ले लीजिए। हम सब जानते हैं कि मनुष्य की भौतिक सम्पदाएँ सीमित हैं। और साथ में यह भी कि यह पृथ्वी हमारी जरूरतों को तो पूरा कर सकती है, लेकिन हमारी इच्छाओं को नहीं। बावजूद इसके हम अपनी पृथ्वी के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो वह हमारी सारी इच्छाओं को अनंत काल पूरा करती रहेगी। हम भौतिक संसाधनों के साथ इस तरह से पेश आते हैं, गोया वे अनंत काल तक बने रहेंगे।

यह कितना बड़ा विरोधभास है कि एक तरफ तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को तमाम भौतिक सुख-सुविधाएँ दे कर जाना चाहते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए हम इस बात को भूल ही जाते हैं कि हमने उन पीढ़ियों के लिए रहने लायक परिस्थिति ही नहीं छोड़ी है। दुखद यह कि ‘पर्यावरण की इस कहानी’ को आप ‘बच्चों की कहानी’ पर भी लागू कर सकते हैं। एक तरफ हम अपने बच्चों से इतना सारा प्यार करते हैं। उन्हें दुनिया की हर ख़ुशी देना चाहते हैं। उनके सामने भौतिक संसाधनों का अम्बार लगा देना चाहते हैं। उनके लिए संपत्ति और धन का सारा संकेन्द्रण कर देना चाहते हैं। और इस कथित प्यार को देने के लिए दुनिया भर में मार काट मचाते हैं, युद्ध लड़ते हैं, दंगे करते हैं। नैतिक-अनैतिक हर तरह का व्यवहार करते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि जब इस दुनिया में मानवीय सम्बन्ध ही रहने लायक नहीं बचेंगे, तो हमारे आने वाले बच्चों का भविष्य क्या होगा। बिना दुनिया को रहने लायक छोड़ते हुए हम अपने ही बच्चों को आखिर कौन सी ख़ुशी सौंप सकते हैं…? अंततः हमारे बच्चे भी तो इसी दुनिया में रहेंगे।
इस पूरे सवाल के मद्देनजर जब हम दुनिया के भविष्य की तरफ नजर दौडाते हैं, तो हमें आशा और निराशा दोनों साथ-साथ मिलती है। आशा इसलिए कि दुनिया इस सवाल को बखूबी समझ रही है कि यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुख-समृद्धि सौंपना चाहते हैं तो हमें उन्हें एक बेहतर दुनिया भी सौपनी होगी। और निराशा इसलिए कि इस समझ के बावजूद हमारा व्यवहार अभी भी दुनिया को बेहतर नहीं बना रहा है। 
मसलन हम यह जानते हैं कि दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली नियोजित हिंसा का सबसे अधिक प्रभाव समाज के कमजोर वर्गों पर ही पड़ता है। और इसी कमजोर वर्ग में दुनिया भर के बच्चे भी आते हैं। आधुनिक दुनिया में लड़े गए विश्व युद्धों की बात हो, दो देशों के बीच की लड़ी जाने वाली लड़ाईयां हों, समाज के आपसी झगडे हों, कबीलाई संघर्ष हों, दंगे-फसाद की त्रासदी हो, या फिर घर और समाज के कोने अतरों में पलने वाली जाले हो, इन सबमे दुनिया भर के मासूम बच्चे शिकार बनते हैं। ऐसे निरपराध बच्चे, जो यह जानते तक नहीं कि उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों किया जा रहा है।
तो ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि जिन्हें हम दुनिया का भविष्य समझते हैं और जो सिर्फ प्यार और मुहब्बत की भाषा जानते हैं, उन पर यह अत्याचार क्यों….? इसी सवाल को रेखांकित करते हुए कवि अजय कुमार पाण्डेय ने कविता की एक किताब सम्पादित की है। जिसका शीर्षक है– “बच्चों से अदब से बात करो”। साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली इस किताब में लगभग चालीस कवियों की कविताएँ संकलित हैं। इनमें हमारी भाषा के वरिष्ठ कवि भी शामिल हैं, और नवोदित भी। ये सभी कविताएँ बच्चों पर होने वाले विभिन्न अपराधों और अत्याचारों को केंद्र में रख कर लिखी गयी है।
इस संग्रह से गुजरते हुए आप यह जान पाते हैं कि हमारी अपनी भाषा में कविताओं की रेंज क्या है। बाज दफा यह आरोप लगाया जाता है कि आजकल के कवि या हमारी भाषा के कवि बहुत आत्मकेन्द्रित हो गए हैं। वे देश और दुनिया से कट गए हैं। उनके विमर्श कुल मिला कर मध्य वर्गीय और शहराती हो गए हैं। दुनिया के सामने पैदा होने वाले महत्वपूर्ण सवालों से वे अनजान हैं। लेकिन ख़ुशी की बात है कि यह संग्रह इन जैसे कई और आरोपों का मुकम्मल जबाब देता है।
बेशक कि इस संग्रह की अपनी सीमा है। और इस नाते वह इस विषय पर लिखी जाने सभी कविताओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। लेकिन इससे यह पता तो चलता ही है कि सिर्फ एक विषय पर हमारी अपनी भाषा में इतनी सारी अच्छी कविताएँ लिखी जा रही हैं। यह संग्रह एक बानगी दिखाता है कि हिन्दी के कवि भी देश और दुनिया के बारे में सोचते हैं। उसी गंभीरता से कविताएँ लिखते हैं, जैसा कि उनसे अपेक्षा की जाती है।
मसलन संग्रह की पहली वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह की है। इस कविता में वे ईराक युद्ध में एक घायल बच्चे को टेलीविजन पर देखकर व्यथित होते हुए लिखते हैं कि
“बंद कर दो टी. वी.
अगर जला न सको
इनकार करता हूँ कि मैं कवि हूँ
और देख रहा हूँ इन्ही आँखों से
एक शिशु-आँख हवा में झूलती हुई …..”।
इसी तरह संग्रह की तीसरी कविता में नाजी कैम्पों में मानवता के साथ किये गए जघन्य कृत्यों की दास्तान दर्ज है। यह एक ऐसा विषय है, जिस पर दुनिया भर की भाषाओँ में कलम चलायी गयी है। तमाम देशों की फिल्मों ने उन्हें सेल्युलाइड पर उतारा है। उन्हें केंद्र में रख कर दुनिया को उसका अपना ही चेहरा दिखाया है। गर्व की बात यह है कि हिन्दी कविता में भी यह प्रयास हुआ है। उसकी एक बानगी इस संग्रह में संकलित वरिष्ठ कवि सोम दत्त की कविता में देखी जा सकती है। कविता का शीर्षक है ‘क्रागुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा’। यह अद्भुत कविता है। इतनी संवेदनशील और मार्मिक कि हम इसे पढ़ना भी चाहते हैं, और पढ़ भी नहीं पाते। यह कविता हर पाठक को भीतर से झकझोरती है, रुलाती है। यह इतनी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कविता है कि इस अकेली कविता के लिए भी यह संग्रह खरीदा जा सकता है। साधारण भाषा और साधारण बिम्बों के सहारे सोमदत्त ने वह दृश्य रचा है, जो आपको यह सोचने के लिए मजबूर कर दे कि युद्धों ने हमारी दुनिया से कितना कुछ छीना है। आपके भीतर यह प्रेरणा भर दे कि दुनिया के किसी भी कोने में यह दृश्य दुबारा पैदा न हो।

अजय कुमार पाण्डेय
क्रागुएवात्स के इस कैम्प में नाजी सेना ने आठ सौ बच्चों को मौत के घात उतार दिया था। जब इस कुकृत्य के बाद जर्मनों ने उस कैम्प को छोड़ा, तो उस गाँव के बचे-खुचे लोग वहाँ पहुँचे। उन गाँव वालों को वहाँ सामूहिक कब्रें मिलीं, जिनके आसपास सूखे खून से सनी मिट्टी के बीच कुछ चिन्दियाँ बिखरी पड़ी थीं। कागज़ की वे चिन्दियाँ चिट्ठियां थी, जिनमें बच्चों ने, शिक्षकों और शिक्षिकाओं ने संदेश लिखे थे। अपने प्रिय जनों को संबोधित आखिरी संदेशे। सोमदत्त ने उन्हीं में से एक संदेसे को दर्ज करते हुए वह ‘मास्टरपीस’ कविता लिखी है।
“ममा
आठवीं क्लास वाली सिस्टर विनिच
हमारी क्लास में दौड़ती हुई आईं
बोली
“बच्चों! मेरे फूलों!”
उसने ‘मेरे फूलों’ क्यों कहा ममा?
हम कोई फूल हैं…?
बोली –“बच्चों…!
यह हमारा नया स्कूल है”
जंगल में टीन से घिरा कोई स्कूल होता है ममा…?
“कल सुबह हमारी परीक्षा होगी
तड़के शुरू हो जायेगी
हरेक की होगी
बच्चों की, टीचरों की, प्रिंसिपल की
पानी पिलाने वाली बूढी आया की
स्कूल के चौकीदार सूपिच की
घंटी बजाने वाले को भी छुट्टी नहीं मिलेगी
सब एक लाइन में खड़े किये जायेंगे
फिर एक-एक से सवाल होगा
सवाल बन्दूक पूछेगी
और हमें मुँह से नहीं
अपने सीने से जबाब देने होंगे
सिर्फ एक सवाल किया जाएगा एक से
परचा जर्मनी से आया है
कोई हिटलर है
उसने बनाया है
…………………………….”
यह कविता हर संवेदनशील पाठक को रुलाती है, व्यथित करती है और सोचने के लिए मजबूर भी कि हमें कैसी दुनिया चाहिए।
अभी सीरियाई शरणार्थियों की त्रासदी में मानव जाति की दयनीयता के दृश्य दुनिया ने देखे हैं। और दुनिया ने यह भी देखा है कि पेशावर के स्कूल में कैसे निर्दोष बच्चों को गोलियों से छलनी कर दिया गया। इस संग्रह में इस विषय पर वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय और युवा कवि संतोष चतुर्वेदी की दो कविताएँ दर्ज हैं।
वरिष्ठ कवि लाल्टू की हिरोशिमा को याद करती कविता भी आप इसमें पढ़ सकते हैं। साथ ही साथ इसमें दंगों को लेकर दो अत्यंत संवेदनशील कविताएँ भी संकलित हैं। पहली कविता वरिष्ठ कवि विष्णु खरे की ‘शिविर में शिशु’ है। और दूसरी कविता युवा कवि अरविन्द की ‘दंगों में मारे गए बच्चे’ है, जिसमें वे कहते हैं-
“दंगों में मारे गए बच्चे
इतने कोमल और मासूम थे कि
अगर वे दंगों के दिन नहीं होते
तो किसी भी संप्रदाय के लोग
उनको चूमने
प्यार करने की असीम इच्छा रखते
……………………………………..”
बाकि इस संग्रह में देश और दुनिया में बच्चों के विरुद्ध होने वाले तमाम प्रकार के दुर्व्यवहारों को केंद्र में रख कर कई अन्य महत्वपूर्ण कविताएँ भी दर्ज हैं। इनमें वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविता ‘अच्छे बच्चे’, ज्ञानेंद्रपति की कविता ‘खून का रिश्ता’, अशोक वाजपेयी की कविता ‘बर्बर और बचपन’, राजेश जोशी की कविता ‘बच्चे काम पर जा रहे है’ और चंद्रकांत देवताले की कविता ‘थोड़े से बच्चे और बाकि बच्चे’ शामिल है। तो वहीं युवा कवियों में शैलजा पाठक की कविता ‘उसके चेहरे से मिला लेती हूँ अपना बेटा’, कमलजीत चौधरी की कविता ‘तालियाँ बजाता नन्हा बिम्ब’ और अनुज लुगुन की कविता ‘तुम्हारी गति और समय का अंतराल’ भी दर्ज हैं। संग्रह की अंतिम कविता इसके संपादक अजय पाण्डेय की है। जिसमें वे कहते हैं कि ….
“कल दो बच्चों ने
खेलते हुए लड़ाई कर ली
आज फिर खेल रहे हैं
क्यों न यह दुनिया
इनके हवाले कर दें ।”
बिलकुल ….. हमारी दुनिया में मतभेद स्वाभाविक हैं। लड़ाई और झगड़े भी स्वाभाविक हैं। लेकिन उसमें इतनी गुंजाईश भी जरुर बची रहनी चाहिए कि हम फिर से दोस्ती की राह पर वापसी कर सकें। और यह गुंजाइश तभी बची रह सकती है, जब हमारे मतभेद सैद्धांतिक स्तर के हों। वे घृणा के स्तर पर न पहुँचे। जाहिर है, ऐसे में दुनिया को बेहतर बनाने का सपना बचा रह सकता है। और जब दुनिया के बेहतर होने का सपना बचा रह सकता है, तो उस दुनिया का भविष्य भी बचा रह सकता है। सलामत रह सकता है। आप चाहें तो इस बात को उलट कर भी पढ़ और समझ सकते हैं कि जिस दुनिया में बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार होगा, उस दुनिया का वर्तमान भी अच्छा होगा और भविष्य भी।
दुनिया को बेहतर बनाने के प्रयास के रूप में इस पुस्तक का स्वागत किया जाना चाहिए।
पुस्तक का नाम – बच्चों से अदब से बात करों
कविता संकलन
संपादक – अजय कुमार पाण्डेय
प्रकाशक – साहित्य भंडार, इलाहाबाद
 
रामजी तिवारी

समीक्षक 


रामजी तिवारी
बलिया, उ.प्र.

मो.न. – 9450546312 

रामजी तिवारी का आलेख ‘अब्बास किआरोस्तमी….’

किआरोस्तमी
रान को विश्व सिने पटल पर स्थापित करने वाले फिल्मकारों में अब्बास किआरोस्तमी का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। ईरान जैसे देश में उपलब्ध कमतर स्पेस में भी उन्होंने ‘अपनी नई धारा’ का विकास कर अपने को साबित तो किया ही साथ ही यह भी सिखाया कि अगर आप में हुनर है तो आप विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लिए राह बना सकते हैं विगत 4 जुलाई को पेरिस में किआरोस्तमी का निधन हो गया। रामजी तिवारी ने किआरोस्तमी को श्रद्धांजलि देते हुए यह आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रामजी तिवारी का यह आलेख ‘अब्बास किआरोस्तमी ….’   

        

अब्बास किआरोस्तमी …..
रामजी तिवारी

गत 4 जुलाई 2016 को महान ईरानी फिल्मकार अब्बास किआरोस्तमी का निधन हो गया। उन्होंने 76 वर्ष की अवस्था में फ़्रांस की राजधानी पेरिस में अंतिम सांस ली, जहाँ वे पिछले कुछ समय से रह रहे थे। उनके निधन के साथ ही ईरानी सिनेमा के एक युग का अवसान हो गया। एक ऐसा युग, जिस पर न सिर्फ ईरान को, वरन दुनिया के सभी कला-प्रेमियों को गर्व रहता था। बेशक कि पिछले कुछ समय से वे लीवर के संक्रमण से जूझ रहे थे, लेकिन हाल-फिलहाल तक वे काफी सक्रिय जीवन भी जी रहे थे, इसलिए उनके दुनिया से जाने की खबर ने सभी सिने-प्रेमियों को अवसन्न कर दिया।
अब्बास किआरोस्तमी का जन्म 22 जून 1940 को तेहरान में हुआ था। वहीं से उन्होंने ‘फाइन आर्ट्स’ में स्नातक की पढाई की। आरम्भ से ही बेहद प्रतिभाशाली ‘अब्बास’ एक चित्रकार बनना चाहते थे, जिसमें उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत भी की। लेकिन जल्दी ही यह तय हो गया कि उनके लिए एक ऐसी विधा इन्तजार कर रही है, जिसमें कई कलाओं का मिश्रण हो। जाहिर है, फिल्म की विधा इस नाते सबसे मुफीद थी। उस समय ईरान में अमेरिका परस्त ‘शाह’ का शासन चल रहा था, जिसमें कला के लिए थोड़ी जगह दी गयी थी। बेशक कि वह जगह कई तरह से निगरानी की स्थिति में ही रहती थी। सन 1969 में इसी शाह शासन ने ईरान में ‘इंस्टीट्यूट आफ इंटेलेक्चुअल डेवलपमेंट आफ चिल्ड्रन्स एंड यंग’ की स्थापना की, जिसमें अब्बास किआरोस्तमी भी सक्रिय रूप से जुड़े। इस संस्थान ने वहाँ विभिन्न कलाओं को न सिर्फ प्रोत्साहित किया, वरन उन्हें दुनिया में अपना स्थान बनाने लायक बौद्धिक आधार भी प्रदान किया। 

किआरोस्तमी ने बतौर फिल्मकार 1970 में अपनी लघु फिल्म ‘ब्रेड एंड एलाय’ से शुरुआत की। और फिर वह सिलसिला अभी चला ही था, कि ईरान में सत्ता पलट हो गया। वहाँ पर शाह की सरकार के स्थान पर इस्लामी क्रान्ति वाली सरकार पदस्थापित हुई। इसी मध्य ‘किआरोस्तमी’ का सिने युग विधिवत रूप से आरम्भ हो रहा था । 1977 में अपनी पहली फीचर फिल्म ‘रिपोर्ट’ के कारण वे कुछ चर्चा में आये, लेकिन 1980 में बनी ‘कोकर-त्रयी’ की पहली फिल्म ‘व्हेयर इज द फ्रेंड्स होम’ ने उन्हें दुनिया भर में स्थापित कर दिया। बाद में इस त्रयी की दो अन्य फिल्मों ‘एंड लाइफ गोज आन’ और ‘थ्रू द ओलिव ट्रीज’ ने तो उन्हें दुनिया के महान सिनेकारो में स्थापित ही कर दिया। इन्हें ‘कोकर त्रयी’ के नाम से इस लिए जाना जाता है कि ये तीनों फिल्मे उत्तरी ईरान के एक गाँव ‘कोकर’ की तरफ जाती हैं, और उसे केंद्र में रख कर आगे बढती हैं। 
इससे पहले कि हम ‘किआरोस्तमी’ के सिनेमा की परख करें, हमें यह जरुर देख लेना चाहिए कि उस समय ईरान में सिनेमा बनाने के लिए कैसा वातावरण मौजूद था। सिनेमा जैसी स्वतन्त्र विधा के लिए ईरान में कितनी स्वतंत्रता हासिल थी? और फिर इस परिप्रेक्ष्य में दुनिया की नजर में, खासकर पश्चिम द्वारा बनायी गयी छवि में ईरान की क्या तस्वीर उभरती थी? जब इन आधारों पर हम अब्बास के सिनेमा को देखते हैं, तो शायद हम उनके प्रति न्याय भी कर सकते हैं और उनके वास्तविक योगदान को भी समझ सकते हैं।

The wind will carry us

मसलन शाह के शासन के भीतर भी और उसके बाद इस्लामी क्रान्ति के बाद भी ईरान में सिनेमा के लिए कोई बहुत मुफीद समय नहीं था। सेंसर बोर्ड राजनैतिक फिल्मों पर सख्त तो था ही, उसके यहाँ प्रेम संबंधों, सामाजिक कुरीतियों, नौकरशाही, सेना, धार्मिक आडम्बर और व्यवस्था की विद्रूपताओं को ले कर भी तमाम तरह के बंधन और दिशा-निर्देश होते थे। यानि कि आप पश्चिम लोकतंत्रों की सिने-स्वतंत्रता तो भूल ही जाईये, ईरान में भारतीय सिनेमा के मुकाबले भी काफी कमतर स्पेस उपलब्ध था। दूसरी तरफ इस्लामी क्रान्ति के बाद खासकर और फिर ईराक से उसके युद्ध को ले कर भी ईरान के बारे में पश्चिम ने दुनिया में ऎसी छवि गढ़ी थी, कि उसमे हमें ईरान का समाज एक दानव के जैसा ही दिखाई देता था। जो अतिशय रूप से कट्टर था, जो बहुत धर्मांध था, जो हर आधुनिकता से घृणा करता था, जो केवल लड़ना और मरना ही जानता था। और जो दुनिया के लिए एक बड़ा ख़तरा भी था।
‘किआरोस्तमी’ ने इन परिस्थितियों के बीच से अपने सिनेमा के लिए जगह बनाई। उन्होंने कुछ तो यूरोपीयन ‘नई धारा’ से ग्रहण किया, जिसमें इटेलियन ‘नई धारा’ की बहुत ख़ास भूमिका थी। लेकिन उन सबसे प्रभाव ग्रहण करते हुए भी उन्होंने ईरान की अपनी ‘नई धारा’ को विकसित किया। यह धारा ‘डाक्यूमेंट्री तरीके’ से बनाई गयी थी, जिसमें विवरणों के आधार पर ईरान के आम जन जीवन को दर्शाया जाता था। जाहिर है कि जब सेंसर की तलवार इस कदर ऊपर लटक रही हो, तो ऐसे में कला को अपने लिए थोड़ा ‘संगठित’ होना अनिवार्य ही था। अब्बास ने इसके लिए अपनी फिल्मों में ईरानी कविता का उपयोग करना शुरू किया। वे पहले ही ‘डाक्यूमेंट्री तरीके’ को अपना कर अपनी फिल्मों को भव्यता और तामझाम से बचा ले गए थे। और एक चित्रकार के रूप में अपनी क्षमता का सार्थक उपयोग कर उन्होंने ऐसे ‘लांग शाट’ विकसित किये, जिसमें ईरान का भूगोल भी दुनिया के सामने नुमाया हुआ और दर्शकों ने चित्रकला के जरिये भी सिनेमा को देखा, पढ़ा।

Taste of cherry
अपने सिनेमा में ईरान के गाँवों की तरफ लौटने और आम आदमी से जुड़ाव की उनकी समझ ने उन्हें वे दोनों हथियार उपलब्ध करा दिए, जिससे वे अपने देश के सेंसर बोर्ड से भी मुकाबला कर सकते थे और दुनिया के सामने ईरान की वास्तविक छवि को भी प्रस्तुत कर सकते थे। मसलन वे अपनी फिल्मों में ईरान के सामान्य आदमी से बातचीत करते हुए किसानों और मजदूरों की समस्या से भी रूबरू हो रहे थे। बच्चों के जरिये वे उन तहों तक पहुँचे, जिसमें ईरानी वयस्क व्यक्ति नहीं खुलना चाहता था। चुकि उनकी अधिकतर फिल्मों में ‘मूविंग तकनीक’ का इस्तेमाल हुआ है, इसलिए जाहिर है कि उसमें बहुत कुछ चित्रों के माध्याम से भी देखा और समझा जा सकता है और बहुत कुछ राहगीरों की बातचीत से भी। मसलन अपनी प्रसिद्द फिल्म ‘टेस्ट आफ चेरी’ में किआरोस्तमी ने दिखाया है कि एक गरीब मजदूर जो पैसे के लिए बहुत जरूरतमंद है, और एक कुर्द सैनिक जो किसी के साथ लड़ने के लिए कुख्यात है, जब उसके सामने नैतिक सवाल खड़े होते हैं, तो वे दोनों ही पैसे और लड़ाई की जगह पर मानवीयता की पक्ष में मुड़ते हुए दिखाई देते हैं।
इस तरह से ‘किआरोस्तमी’ की फिल्मों में ईरान का वह चेहरा भी दिखाई देता है, जो ‘अयातुल्लाह खुमैनी’ के फतवों और तेहरान की चकाचौंध से अलग और वास्तविक है। और फिर वे दुनिया को ईरान का वह चेहरा भी दिखाने में कामयाब होते हैं, जिसमें ईरान की पश्चिम द्वारा गढ़ी गयी दानव की छवि भी टूटती है। अपनी फिल्मों में आम जनमानस से सीधे जुड़ाव और ईरानी गाँवों के भीतर जा कर कहानी कह सकने की सलाहियत ने उन्होंने दुनिया को यह समझने के लिए मजबूर किया कि ईरान के लोग भी दुनिया के अन्य लोगों की तरह ही एक साधारण इंसान हैं। जो अपनी तमाम समस्याओं से जूझते हुए भी शान्ति चाहते हैं, नैतिक बल रखते हैं और दुनिया के किसी भी हिस्से के इंसान की तरह विवेकशीलता और मनुष्यता से समृद्ध हैं। 

Ten
किआरोस्तमी की फिल्मों में सिर्फ एक फिल्मकार ही दिखाई नहीं देता है, वरन उसमें उनकी बहुमुखी प्रतिभा भी दिखाई देती है, जो कई रूपों में फैली हुई है। निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक, चित्रकार, कवि, पेंटर, कथावाचक और ग्राफिक डिजाइनर जैसे तमाम फन में माहिर ‘किआरोस्तमी’ ने अपनी फिल्मों में उन सबका प्रभाव छोड़ा है। और यह प्रभाव उन फिल्मों को किसी भी तरह से बोझिल नहीं बनाता। वरन इसके विपरीत उन्हें और अधिक समृद्ध करता है। 
चालीस से अधिक फिल्मों में अपने निर्देशन से लोहा मनवाने वाले अब्बास किआरोस्तमी को कोकर त्रयी की तीन फिल्मों ‘ह्वेयर इज फ्रेंड्स होम’, एंड लाइफ गोज आन’ और ‘थ्रू द ओलिव ट्रीज’ के लिए तो जाना ही जाता है। लेकिन ‘द टेस्ट आफ चेरी’, ‘क्लोज अप’, ‘सर्टिफाईड कापी’, ‘द विंड विल कैरी अस’, ‘टेन’ और ‘होमवर्क’ जैसी कालजयी फिल्मों के लिए भी जाना जाता है। और मजेदार तो यह भी कि जिस अब्बास किआरोस्तमी को हम ‘मूविंग सिनेमा’ के लिए जानते हैं, वही अब्बास किआरोस्तमी जब ‘शिरीन’ जैसी नारीवादी फिल्म बनाते हैं, तो उसमें उनका एक भी पात्र एक भी मूवमेंट नही दिखाता।

Where is my friends home
कहते है कि किसी कलाकार का मूल्यांकन इस बात से भी होना चाहिए कि वह अपने आसपास में कला के लिए कैसा माहौल विकसित करता है। या उसके प्रभाव से बनने वाले माहौल में कैसी कला विकसित होती है। इस आधार पर उनका महत्व और भी बढ़ जाता है। क्योंकि जब हम किआरोस्तमी साथ ईरान के सिनेमा को देखते हैं, तो वह गर्व करने के अनेकानेक अवसर उपलब्ध कराता है। माजिद मजीदी के ‘चिल्ड्रेन्स आफ हैवेन’, जफ़र पनाही के ‘आफ साइड’, मोहसिन मखलमबाफ के ‘कंधार’, बहमन गोबादी के ‘टर्टल कैन फ्लाई’ और असग़र फरहादी के ‘सेपरेशन’ जैसी फिल्मों से मिलकर जो ईरान का सिनेमा बनता है, उसमें अब्बास किआरोस्तमी भूमिका भी शामिल रहती है। इन फिल्मकारों के माध्यम से ईरान का सिनेमा दुनिया के सामने उस ईरान को प्रस्तुत करता है, जो शायद वहाँ के तमाम लेख, तमाम किताबें, तमाम कूटनीतिकार और तमाम राजनेता नहीं कर सके हैं। कहना न होगा कि अब्बास किआरोस्तमी ईरानी सिनेमा के इस बेटन को थामने वाले अग्रिम धावक थे।
अब्बास को दुनिया भर में कई महत्वपूर्ण पुरस्कार हासिल भी हुए है। विश्व सिनेमा में उन्हें कुरुसोवा, सत्यजीत राय और डे-सिका के साथ शामिल कर के देखा भी जाता है। खुद कभी कुरुसोवा ने उनके बारे कहा था कि “सत्यजीत राय के मरने पर मैं बहुत दुखी हुआ था। लेकिन जब मैंने अब्बास की फिल्मों को देखा, तो मुझे लगा कि यह सही आदमी है, जो उनकी जगह ले सकता है।” 

विडम्बना देखिए कि उसी अब्बास की कुछ फिल्मों को ईरान में प्रतिबन्ध भी झेलना पड़ा। और प्रतिबन्ध की सूची में उनके प्रिय सहयोगी फ़िल्मकार ‘जफ़र पनाही’ और मखलमबाफ की फ़िल्में भी शामिल रहीं। लेकिन उन्हें अपना मुल्क इतना प्यारा था कि इन प्रतिबंधों के बावजूद उन्होंने अपनी फिल्मों की तकनीक में बदलाव करके ईरान में बने रहने का विकल्प ही चुना। यह अनायास नहीं था कि वे अपनी फिल्मों में कई बार स्क्रीन को डार्क छोड़ दिया करते थे। शायद इसलिए भी, कि दर्शक उसे अपनी कल्पनाओं से भरें। बाद में कुछ समय के लिए उन्होंने बाहर रह कर भी फिल्मे बनायी। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि वे अपनी फिल्मों में कभी भी लिखी हुई स्क्रिप्ट पर ही नहीं बने रहते। वरन उसे फिल्म बनाते समय जीवन की तरह परिवर्तित भी करते रहते हैं।   

किआरोस्तमी की मृत्यु पेरिस में हुई, जहाँ से उन्हें दफनाने के लिए ईरान लाया गया। उनके अंतिम दर्शन के लिए तेहरान में जमा हुई भीड़ यहाँ गवाही दे रही थी कि वे सही मायनों में ईरानी जनता के दिलों पर राज करते थे। उनका योगदान इन अर्थों में बहुत ख़ास माना जाएगा कि उन्होंने न सिर्फ ईरान के सिनेमा को दुनिया भर में एक महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुंचाया। न सिर्फ अपने पीछे ईरान में फिल्म निर्माण की एक अत्यंत समृद्धशाली परंपरा छोड़ी। वरन दुनिया के सिने परिदृश्य पर यह स्थापना भी दी, कि हर देश और समाज का अपना विशिष्ट महत्व होता है, और कला का महत्व इस बात में है कि वह उसे उस देश और समाज की विशिष्टता के साथ दर्शाए। इस लिहाज से ‘अब्बास किआरोस्तमी’ सच्चे मायनों में एक जन-फिल्मकार थे, जिसने दुनिया के शास्वत मूल्यों की स्थापना के लिए अपनी कला का उपयोग किया। बेशक कि यह एक साधारण बात है। लेकिन इस दौर के लिए कोई कम असाधारण बात भी नहीं, जिसमें कला का उपयोग आम जनता के हितों के खिलाफ धड़ल्ले से किया जाने लगा है।
उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि …… ।
रामजी तिवारी

सम्पर्क –

रामजी तिवारी
बलिया, उत्तर-प्रदेश
मो.न. 09450546312   

रामजी तिवारी की किताब ‘यह कठपुतली कौन नचावे’ पर आशुतोष की समीक्षा

            

रामजी तिवारी ने आस्कर अवार्ड्स की एक सख्त पड़ताल की है अपनी किताब ‘यह कठपुतली कौन नचावै’ में. इस किताब की एक समीक्षा लिख भेजी है युवा आलोचक आशुतोष ने. तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा.             

कठपुतली ज़माने के विरूद्ध

आशुतोष

आस्कर अवार्ड्स’ यह कठपुतली कौन नचावे रामजी तिवारी की पुस्तक बीबीसी हिंदी द्वारा जारी 2013 की सम्पादकों की पसंद में शामिल है रामजी तिवारी की यह पुस्तक 2021वीं सदी की साम्राज्यवादी नीतियों का खुलासा करती है
 
शासक अपने हिसाब से अपनी जनता का चुनाव भी करता है, और जब एक बार यह सम्पन्न हो जाता है, तब यही जनता उन शासकों के इशारे पर भी नाचने लगती है ब्रेख्त ने भी अपनी एक कविता में ठीक यही बात कही है चूँकि जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है इसलिए सरकार को चाहिए वह अपनी जनता भी चुन ले
 
क्या और नहीं होता आसान
सरकार भंग कर देती जनता को
और चुन लेती दूसरी
ब्रेख्त की कविता के लहजे में जो व्यंजकता है उससे साफ है कि यदि सरकारों की विश्वनीयता खत्म हो जाती है तो उसे जनता के बहिष्कार का सामना करना पड़ता है तो क्या सरकारों की तरह कला की भी कोई विश्वनीयता होती है, जिसके ख़त्म होते ही उसे भी जनता के बहिष्कार का सामना करना पड़ता है वस्तुतः ब्रेख्त अपनी प्रश्नावाचकता में इसी तरफ संकेत करते हैं विल्हेम लीबनेख्त ने लिखा है कि जो वास्तविक कला होती है वह जनता के हितों के लिए काम करती है, जबकि मकड़े के प्रतीक के माध्यम से शासक वर्ग की चेतना को प्रस्तावित करने वाली कला मनुष्यता विरोधी होती है चूँकि अभी तक इतिहास की वर्गीयता का अंत नहीं हुआ है इस लिए कला ये वर्गीय अंतरविरोध आज भी कायम है और इस वर्ग-विभाजित समय में कला के एक प्रारूप तथाकथित मुख्यधारा के सिनेमा के अंतर्विरोधों को चीन्हती हुई है- रामजी तिवारी की पुस्तक ‘आस्कर अवार्ड्स : यह कठपुतली कौन नचावे में’  

यह पुस्तक आस्कर अवार्ड की सच्चाई को उजागर करती है, जिस  अनछूए पहलू को लेखक ने उठाया है वह इस तरीके से पहली  बार देखने को मिलता है इस पुस्तक की चर्चा अगर हम अनुक्रम के हिसाब से करते हैं तो पहला अनुक्रम ‘लाईट कैमरा एक्शन’ है इस शीर्षक के अंतर्गत लेखक ने फरवरी और मार्च के माह में आयोजित आस्कर पुरस्कारों की भौकाल की आलोचना को  भारतीय और विश्व के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है जहाँ भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरा  होने पर हमने जो ढपली उठा रखी है, उसका इस पुस्तक में उल्लिखित चीजें शायद राग हो सकती है 1957से अब तक 46 फिल्मे आस्कर में देश की प्रविष्टि के रूप में भेजी गयी हैं इनमें से तीन फिल्मे ‘मदर इंडिया’, ‘सलाम बाम्बे’ और ‘लगान’ ही ऐसी हैं, जिन्हें आस्कर में नामांकन हासिल हो सका है बाकी 43 फिल्मे पर्यटन करके ही लौट आयीं इससे कुछ बात स्पष्ट हो जाती हैं वो ये की ये 43 फ़िल्में सही में इस पुरस्कार के लायक नहीं थीं या कोई अन्य कारण था देखने लायक चीज ये है, कि यह पुरस्कार चौबीस श्रेणियों में प्रदान किया जाता है इन चौबीस श्रेणियों के चौरासी वर्षों के इतिहास में दस ही ऐसी हैं जो हॉलीवुड के बाहर के देशों के द्वारा वित्तपोषित हैं ये एक तरह से अमेरिका और यूरोप का साँझा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद है

रामजी तिवारी
अपने दूसरे अनुक्रम में लेखक ने सिनेमा के प्रारम्भिक तीन मॉडल की बात की है प्रथम दो मॉडल तो समाप्तप्राय हो चुका है, लेकिन तीसरा जो मॉडल है, उसकी चाँदी हमें देखने को मिल रही है जनता भी इसका लुफ्त उठाती नजर आ रही है जैसा कि लेखक ने पहले ही कहा है – सत्ता अपने हिसाब से अपनी जनता का चुनाव करती है लेकिन इसी तीसरे मॉडल से निकला एक नया मॉडल  प्रतिरोध का सिनेमा है, जिसको सचमुच में अपने को सिनेमा होने पर गर्व करना चाहिए और आज जरूरत इसी सिनेमा को जनता तक पहुचाने की है

लेखक ने आगे अमेरीकी साम्राज्यवाद के फैलाव और उसकी पृष्ठभूमि पर निर्मित फिल्मों की बात की है, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमरीकी सैनिको की मानसिक व सामाजिक संवेदनहीनता को दर्शाता  है अमेरिका की शोषणकारी नीति का अंदाजा हम इराक, अफगानिस्तान इत्यादि देशों पर प्रभुत्व स्थापित करने से लगा सकते हैं अमेरिका ने इराक पर बेबुनियादी आरोप लगा कर जिस तरह से अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की उसमें वो बहुत हद तक सफल भी रहा जबकि पूरी कायनात जानती है कि इराक के पास एक भी परमाणु बम होता तो ये अमेरिका क्या इसके जैसे दस अमेरिका भी इराक पर हमला करने का दुरूसाहस नहीं करते आये दिन अमेरिका ऐसी कोशिशें ईरान के उपर भी करता रहा है लेकिन उसको अभी तक सफलता नहीं मिली है इस तरह की कोशिश अमेरिका क्यों करता है? जब हम यह जानने की कोशिश करते हैं तो इसके केंद्र में एकमात्र कारण उभर कर सामने आता है – ‘उर्जा’ ये वही अमेरिका और यूरोप हैं जिसने 196070 के दशक में मध्य एशिया के देशों के साथ तेल की राजनीति शूरू किया इस अमेरीकी साम्राज्यवाद का असर भारत पर भी देखा जा सकता है। लेकिन परिणाम आने बाकी हैं तब भारत कहेगा – ‘मुझे तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने  

दुसरें विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका के पनामा, होडुरास, ग्वाटेमाला, मैक्सिकों, चिली, निकारगुआ, क्यूबा, बोलीविया, पेरू, लेबनान, ताइवान, कोरिया, कम्बोडिया, वियतनाम, इराक, और अफगानिस्तान जैसे देशों के खिलाफ तथाकथित सैन्य-अभियानों से अमेरीकी नीति का अंदाजा लगया जा सकता है कवि रघुवीर सहाय लिखते हैं –
फिर जाड़ा आया फिर गर्मी आई
फिर आदमियों के पाले से लू से मरने की खबर आई
न जाड़ा ज्यादा था न लू ज्यदा
तब कैसे मरे आदमी?
इस पृठभूमि पर बनी फ़िल्मे अमेरीकी साम्राज्यवादी नीति का खुलासा करने वाली फ़िल्में हैं जो अमेरिका को नागवार गुजरा जिनके परिणामस्वरूप इन फिल्मों को हाशिये पर जाना पड़ा
 
आगे देखने पर हमे अमेरिका का करनी का फल उसके ही उपर 9/11 जैसे घटनाओं से देखने को मिलता है इसी को आधार बनाकर अमेरिका अफगानिस्तान में अपना सैनिक अड्डा बनता है लेकिन जड़ में तो अफगानिस्तान का एशिया में भौगोलिक स्थिति है क्योंकि अफगानिस्तान की सीमाएँ जहाँ एक तरफ मध्य एशिया को छूती हैं तो दूसरी तरफ उसकी सीमा चीन की सीमा से लगी है, तीसरी ओर उसका सामीप्य पाकिस्तान और भारत के साथ भी है इस तरह के अमेरीकी कूटनीतिक अभियानों पर न के बराबर बनी फिल्मों को इस पुस्तक में उल्लेख किया है इसके अलावा पुरस्कारों के एक श्रेणी ‘विदेशी भाषा’ की फिल्मों को दिए जाने जैसे भ्रामक चीज उजागर होती है, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है कि इस पुरस्कार पर किसका अधिकार है?

इस पुस्तक में इन-सब अमरीकी साम्राज्यवादी और यूरोपीय महादेशों के अलावा अन्य महादेशों में मौजूद विकल्पों और प्रतिभाओं की बात भी कही गयी है

सिनेमा के सितारे सिर्फ हालीवुड के आकाश में ही टिमटिमाते हैं वरन वे उन खेतों, जंगलों, नदियों, और पहाड़ों, के ऊपर भी चमकते हैं जिन्हें आप हाशिये के बाहर का मान कर छोड़ आये है पुस्तक के अंत में दी गयी सूची महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है

आस्कर अवार्ड्स : यह कठपुतली कौन नचावे’ : रामजी तिवारी
प्रकाशक – ‘द ग्रुप’, जन संस्कृति मंच, वसुंधरा, गाज़ियाबाद 201012 ;
प्रकाशन वर्ष – 2013, पृष्ठ संख्या – 64, मूल्य – रु 40/
आशुतोष

सम्पर्क-

ई-मेल : ashutoshpandy010@gmail.com
मोबाईल- 09452806335

(आशुतोष इन दिनों हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय से एम फिल कर रहे हैं.)

रामजी तिवारी की कविताएँ और उनके कविता संग्रह पर सोनी पाण्डेय की समीक्षा


रामजी तिवारी

रामजी तिवारी का दखल प्रकाशन से हाल ही में पहला कविता संग्रह ‘अंधेरे समय का आदमी’ प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह की एक समीक्षा की है युवा कवयित्री सोनी पाण्डेय ने. सोनी द्वारा लिखी गयी यह पहली समीक्षा है. समीक्षा के साथ-साथ इसी संग्रह से रामजी तिवारी की चुनिन्दा कविताएँ आपके लिए प्रस्तुत है. तो आइए पहले पढ़ते हैं रामजी की कविताएँ और फिर सोनी पाण्डेय की समीक्षा.  
रामजी तिवारी की कविताएँ 
नालायक
 
मैं नालायक हूँ
और यह मेरा अपना चुनाव है,
अब लायक होने की शर्तें
इतनी नालायक हैं
कि नालायक बनने में ही
आदमी का बचाव है

नहीं जानता
कि नालायक कब से हूँ,
डाक्टर बनने के बाद
आदिवासी इलाके को
कार्यक्षेत्र के रूप में चुनने पर
पिता ने नवाजा था
शायद तब से हूँ

‘पिता समझदार हैं’
माँ ने इस पर आजीवन संदेह रखा,
लेकिन इस चला-चली की बेला में
पहली बार उनकी नवाजिश पर नेह रखा
जब गाँव की रामरती चाची
माँ से लिए गए कर्जे को
तीन साल में तीन गुना लौटाने आयीं थीं,
और मैंने सिर्फ मूलधन लेने वाली बात सुझाई थी

घर में घोषित नालायकी को
मेरे गाँव ने उस समय रुई जैसा धुना था,
जब उस बीहड़ इलाके की
इकलौती आदिवासी शिक्षिका को
मैंने अपना जीवन साथी चुना था

मेरी नालायकी से
परिवार कभी सुखी नहीं हुआ,
यह और बात है
जिस पर मैं कभी दुखी नहीं हुआ
उस समय भी नहीं
जब मेरे बेटे की
डाक्टर वाली ईच्छा अधूरी रही, 
मैं वह डोनेशन नहीं जुटा सका
मेरी मजबूरी रही
तब मेरे बेटे ने
अपने दोस्तों से कहा था,
‘मेरे दादा-दादी ठीक ही कहा करते थे
सचमुच उन्होंने एक नालायक को सहा था

मित्रों
चाहा तो मुझे भी गया था
लायक ही बनाना,
कि बीच रास्ते यह ‘समझ’ आ गयी
जिसने लिख दिया इस माथे पर
नालायकी का यह तराना
मुखौटे
मुखौटे तब मेले में बिकते,
राक्षसों और जानवरों के अधिकतर
होते जो भारी, उबड़ खाबड़
और बहुत कम देर टिकते |

पहनते हम शर्माते हुए,
तुम फला हो न ?
कोई भी पहचान लेता
तब गड़ जाते लजाते हुए
मुखौटा और भारी हो जाता,
हम उतार फेंकते
शर्म जब तारी हो जाता

मुखौटे
अब बाजार में बिकते हैं,
जब चाहें खरीद लें
जैसे चाहें पहन लें
और बहुत देर टिकते हैं
इतने सुगढ़,
इतने वास्तविक,
इतने हलके
कोई जान न पाए,
औरों की क्या कहें?
आदमी तो कभी-कभी
अपने को भी पहचान न पाए

मुखौटे
अब हर चीज के होते हैं,
दुनिया चौंधिया जाए
ऐसा मंजर बोते हैं
कल दुकानवाला कह रहा था
हमारा हुनर तो देखते जाइए,
मैं भेड़िये को भी
गाँधी बना सकता हूँ 
अपनी पसंद तो बताईए

अब
आँखों की चुकती हुयी रोशनी
दिनों-दिन बढ़ता यह प्रदूषण
और इतनी उन्नत किस्में
मुखौटों की
सोचकर ही रूह कांपती है,
यह चारा है
या मुखौटा ओढ़े कोई बंशी
जो मुझे भी नाथ देना चाहती है
मोल-भाव
कहाँ है बच कर निकलना
कहाँ करना है मोलभाव,
जीवन की विसात पर
सोच समझ कर धरना है पाँव

कितना बचेगा
रिक्शेवाले की पीठ पर
उभरी नसों को थोड़ा कम आँक कर,
ठेले वाले के पसीने में
अपने उभरे अक्स को
थोड़ा कम झांक कर

कितना बचेगा
पांच लौकी और दस किलो तरोई लेकर
सड़क के किनारे बैठने वाले से भाव तुड़ा कर,
छाया के लिए दिन में तीन बार
जगह बदलने वाले मोची से
पालिश में दो-चार रूपया छुड़ा कर

कितना बचेगा
प्रेस करने वाले से
पचास पैसा प्रति कपड़ा कम करा कर,
और चौका-बर्तन करने वाली की पगार से
पचास रूपया महीना कम करा कर

उन सबसे
जो सब्जी में नमक भर कमाते हैं,
और उसी में
अपने परिवार की गाड़ी चलाते हैं

नहीं-नहीं
मैं अफरात के नहीं लुटाता हूँ,
वरन मैं तो
बचाने का हर नुस्खा जुटाता हूँ

मसलन धनतेरस में
यदि मैं तनिष्क वाले से बच गया,
पिज्जा और मैकडोनाल्ड की जगह
सप्ताहांत घर में ही जँच गया
मैं यदि बच गया नवरात्र में
पुजारियों के जाल से,
बारह महीने में
चौबीस भखौतियों के भौंजाल से
शहर के हर कार्नर वाले प्लाट पर
लार टपकाने से,
और एक दूसरे को कुचल कर
बेतरह भाग रहे जमाने से

तो खुला रख सकता हूँ
दस-बीस जरुरत वाले
हाथों के सामने
आजीवन अपना हाथ,
और हिसाब लगाने पर पाउँगा
कि अंततः फायदे ने ही
दिया है मेरा साथ … 
                      
औरतें
हम पुरुषों को
औरतें ही देती हैं आकार,
उन्हीं की नज़रों में चढ़ कर
हम पैदा होते हैं
आदमी के रूप में पहली बार

हमारे भीतर उतर कर
साफ़ करती हैं वे जालों को,
जहाँ से हम अब तक चलते रहें हैं
पशुओं जैसी चालों को

‘हम आदमी हैं’ वाला सम्मान
हमने तब सुना था,
जब स्कूल में शाम ढलने पर
उस अनबोली सहपाठिन ने
घर छोड़ने के लिए
तमाम परिचितों के बीच से
हमें चुना था

जब ट्रेन की सहयात्री साथिन ने
देखा था मुझमें अपना भाई,
और बस की अनजानी साथिन ने
बगल की सीट पर आराम से यात्रा कर
दी थी मुझे बधाई

जब मेरी भार्या
मेरे हर उठे हुए हाथ पर मुस्कुराती है,
यह सिजदा या आमंत्रण में होगा
सोच कर शर्माती है

सच मानिए
मैं इसलिए नहीं पखारता
विदा होती बहन के पैरों को
कि बचा रहे मेरा वैभव,
वरन इसलिए कि उसे छूकर
मैं पवित्र करता हूँ अपना गौरव

फिर वे कौन हैं
जो आदमी बनने के लिए
औरतों से दूर भागा करते हैं,
क्या वे अपने भीतर की पशुता से
इतना डरते हैं …?

उन्हें बताईए कि
सफाई पसंद होती हैं औरतें
रखतीं चौकस हमेशा नजरें,
कौन जानता है
भला उनसे बेहतर
गंदगी के होते कितने खतरे

तभी तो लगाता हूँ
उनसे मैं गुहार,
कि आओ मेरी साथिनों
मुझे आदमी बनाओ
तुमसे है मनुहार
बड़की अम्मा
बड़की अम्मा
रहतीं हमेशा हाथ जोड़े
भखौती के लिए,
गोया दो हाथ
और मिलना चाहिए था
उन्हें मनौती के लिए

किसी बीमार के लिए करनी हो दुआ,
किसी को गंतव्य पर पहुँचना हुआ
कोई हो जाए परीक्षा में पास,
कोई रोजी-रोटी के लिए
रहे न उदास
जैसी अनेक भखौतियों के
उनके पास अरमान थे,
कोई घालमेल न हो
इसलिए हर-एक के लिए
अलग-अलग भगवान् थे

हिन्दू होने के नाते
भगवानों का टोटा
तो कभी नहीं था उनके पास,
वे लगभग बराबर ही थे
जितनी कि जीवन में
मिली थी उन्हें साँस

मगर उन्हें तो मांगनी थी भखौतियाँ
गाँव-जवार के लिए भी,
अपने घर के साथ
मित्र-रिश्तेदार के लिए भी

कुछ जिद्दी परेशानियां जब नहीं सुलझती,
तब बड़की अम्मा उन्हें लेकर
अल्लाह के दरवाजे पर पहुंचती

किसी ने ताज़िया में पायक बन कर
किया हसन-हुसैन का आदर,
किसी ने चढ़ाया मलीदा
तो किसी ने चादर

बड़की अम्मा की भखौती
फूलती रही फलती रही,
हमारे बीच के पुल से
भगवानों की आवाजाही भी चलती रही

कि एक दिन काल
उनके फेफड़े में बैठ गया,
वह तब निकला
जब उन्हें ऐंठ गया

इस बीच विचलित हुआ हमारा ध्यान
और पुल में आ गयी दरार,
अभी संभल भी नहीं पाए थे
कि टूटकर गिरने लगे अरार

बंद हो गयी भखौतियों के
बीच की आवाजाही भी,
लग गयी भगवानो के
आने जाने पर मनाही भी

सोचता हूँ
इस जनम में 
बड़की अम्मा कहाँ होंगी,
हमारी तरफ ही
या वहाँ होंगी

नहीं-नहीं
उनके पास तो
बचा हुआ था ईमान,
सच मानिए  
वे हर जनम में पैदा होंगी
बतौर इंसान
 
अंधेरे समय का आदमी : लोक अनुभूतियोँ का सहज चित्रण
सोनी पाण्डेय

कविता मनुष्यता की पहचान है। कविता लेखन के लिए कवि का केवल चिन्तनशील होना आवश्यक नहीँ वरन उसका ज़मीन से जुड़ा होना नितान्त आवश्यक है। कवि पहले स्वयं जीता है और इसी क्रम में संघर्ष पथ पर चलते हुए अपने परिवेश के यथार्थ को महसूस करता है। टूटता है तो कई बार तोडा जाता है और इस टूटनेजुडने की प्रक्रिया से कविता जन्म लेती है। कविता मनुष्य कीसंवेदनात्मक लय हैसमझाते हुए आलोचक पंकज गौतम जी ने एक बार कहा था  –कविता का शिल्प गौण है कथ्य प्रमुख, यदि कवि की पकड अपने समय की संवेदनात्मक अनुभूतियोँ पर है तो कविता बनेगी और अपने समय का प्रतिनिधित्व भी करेगी। अंधेरे समय का आदमी ” रामजी तिवारी का पहला कविता संग्रह है जिसमेँ संकलित कविताऐँ कहीँ व्यक्तिगत तो कही सार्वभौमिक तथ्यों को समेटती अपने शीर्षक की सार्थकता को सिद्ध करती हैं। रामजी तिवारी की चिन्तन दृष्टि ये पंक्तियाँ स्पष्ट कर रही हैँ

कुचल दिये जाते हैँ
बायेँ चलने वाले जिस दौर मेँ,
बचा लिए जाते हैँ
बीचोबीच चलने वाले
उसी ठौर मेँ।

कवि की कविताओँ का लोक उसकी मूर्त चेतना का लोक है। पूरे संग्रह की कविताओँ मेँ कहीँ अमूर्तन दिखाई नहीँ देता। कवि सजग है अपने समय की छद्म विद्रूपताओं से, अर्जी” शीर्षक कविता मेँ लिखता है

आदमी को अटल रहना चाहिए
अपने निर्णयोँ पर
मैँ इसके हाथ नहीँ आऊँगा
क्योँकि भविष्य मेँ
सब कुछ ऊपर ले जाने वाली अर्जी
मंजूर हो गयी
तब तो मैँ इन मूर्खोँ जैसा
हाथ मलता रह जाऊँगा।

रामजी तिवारी अपने समय का आकलन स्वानुभूतियोँ की कसौटी पर करते हैँ। आज के मशीनी युग मेँ परिवार हो या समाज व्यक्ति किसी को संतुष्ट नहीँ कर सकता और हर किसी की आँखोँ मेँ असंतोष भाव को सहज देख सकता है। नालायक कविता मेँ कवि कहता है

मैँ नालायक हूँ
और ये मेरा अपना चुनाव है
अब लायक होने की शर्तेँ
इतनी नालायक हैँ
कि नालायक बनने मेँ ही
आदमी का बचाव है।

आगे इसी कविता मेँ अपने गाँव की सामाजिक स्थिति को रुई की धुनिया का बिम्ब उठा कर साकार चित्र उकेरता है कि

घर मेँ घोषित नालायकी को
मेरे गाँव ने उस समय रुई जैसा धुना था
जब उस बीहड़ इलाके की
इकलौती आदिवासी शिक्षिका को
मैँने अपना जीवन साथी चुना था।

आज के दौर को मुखौटोँ का दौर कहना अतिश्योक्ति नहीँ होगी। हमारे चारोँ तरफ हर चेहरे पर चेहरा चढा हुआ है। कवि अपने बचपन मेँ झांकता है तो पाता है कि वह समय आज जितना जटिल नहीँ था। लोगोँ को पहचानना आज इतना कठिन नहीँ था। वर्षोँ का अर्जित विश्वास एक क्षण मेँ गवां बैठते है आदमी क्योँकि आदमी के भीतर का आदमी आज घोर अवसरवादी है, उसके अन्दर कितनी हसरतेँ एक साथ पल रही हैँ इसे भौतिकता की आँधी मेँ देख पाना सम्भव नहीँ। कवि लिखता है

मुखौटे
अब बाजार मेँ बिकते हैँ
जब चाहेँ खरीद लेँ
जैसे चाहेँ पहन लेँ
और बहुत देर टिकते हैँ
इतने सुगढ़
इतने वास्तविक
इतने हल्के
कोई जान न पाए
औरोँ की क्या कहेँ?
आदमी तो कभीकभी
अपनोँ को भी पहचान न पाए।

इस संग्रह की स्त्री विषयक कविताऐँ बेजोड़ हैँ। रामजी तिवारी बडी बेबाकी से लिखते हैँ कि

मर्द के जीवन मेँ औरत
एक नाड़ा है
जो यदि खुल जाए
तो वह नंगा हो जाए।

रामजी तिवारी लोक के कवि हैँ। वह लोक जहाँ कवि ने औरतोँ की करुणा से परिपूर्ण ममतामयी रुप को देखा था। ‘बडकी अम्मा’ कविता मेँ कवि हमारे लोक की भोली-भाली स्त्री को रेखांकित करता है

बड़की अम्मा
रहतीँ हमेशा हाथ जोड़े
भखौती के लिए,
गोया दो हाथ
और मिलना चाहिए था
उन्हेँ मनौती के लिए।

‘बडकी अम्मा’ कविता मेँ कवि ने लोक के साम्यवादी व्यवस्था को कैसे ये अनपढ औरतोँ गढती हैँ, बडी सहजता से व्यक्त किया है। ‘बडकी अम्मा’ के हाथ केवल परिवार के लिए नही पूरे ग्राम समाज के लिए उठतें हैं और जब अपने देवता कम पड जाते हैँ तो पीर, पैगम्बरोँ तक पहुँच जाते हैँ। बडकी अम्मा का चरित्र उस ग्रामीण स्त्री का प्रतिनिधित्व करता है जो अन्त तक पूरे परिवार को बाँधे रखने का भरपूर यत्न करती है। बिल्कुल प्रेमचन्द की कहानी बडे घर की बेटी की तरह।

रामजी तिवारी की भाषा सहज और सरल है। कविताओं में देशज शब्दोँ का प्रयोग कवि के जमीनी होने का साक्ष्य सहज प्रस्तुत कर जाता है। तरकारी, अरुआने, भखौती जैसे आँचलिक शब्द कविता मेँ सहजता से आए हैं और भाषा की यह सरलता पाठक को सीधे-सीधे कविता से जोडती है । कथ्य पूरे संग्रह का मजबूत है जो समकालीन कविता की पहली शर्त मानवीय सरोकारोँ से जुडाव को पूरा करता है। शिल्प, भाषा, लय और छन्द पर बात कर मैँ कविता के मूल तथ्य भाव से भटकना नहीँ चाहती। इसलिए अन्य लोगोँ पर छोडती हूँ रामजी तिवारी की इन पंक्तियोँ के साथ।

आखिर मानव जाति
कब तक रहेगी सोती?
होने वाली है सुबह
क्योँ कि कोई भी रात
इतनी लम्बी नहीँ होती।

सोनी पाण्डेय

सम्पर्क-

रामजी तिवारी
मोबाईल- 09450546312

सोनी पाण्डेय

ई-मेल – pandeysoni.azh@gmail.com

रविशंकर उपाध्याय के कविता संग्रह ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ की समीक्षा

                  

रविशंकर उपाध्याय

आज का हमारा समय भयावह द्वैधाताओं का समय है। राजनीति को रौशनी दिखाने वाले साहित्य की स्थिति भी कुछ ठीक नहीं। ग़ालिब के शब्दों में कहें तो ‘आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना।’ आज की सबसे बड़ी दिक्कत आदमी बनने की ही है। ऐसे समय में एक युवा कवि ‘था’ जो सबसे पहले आदमी था और फिर उसकी आदमियत में भीगीं हुई कविताएँ थीं। ‘था’ इसलिए कि रविशंकर उपाध्याय जो हमारा अनुज था, दुर्भाग्यवश इस दुनिया में नहीं है। बेहद संकोची रवि अपनी तारीफ़ सुन कर हमेशा सकुचा जाता था, शायद इसीलिए अपने संग्रह पर कुछ सुनने से पहले ही हम सबसे रुखसत कर गया। रवि को श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से कुछ मित्रों ने उसकी कविताओं का एक संकलन ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ नाम से प्रकाशित कराया है जो राधाकृष्ण प्रकाशन से छपा है। हाल ही में उसके जन्मदिन (12 जनवरी के अवसर) पर इस संग्रह का विमोचन उसकी कर्मभूमि बी एच यू में हुआ। भाई रामजी तिवारी इस अवसर के गवाह थे। रामजी तिवारी ने रवि के कविता संग्रह पर एक समीक्षा पहली बार के लिए लिख भेजी है। रविशंकर की स्मृति को याद करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं रामजी तिवारी की यह समीक्षा        

‘जो लिखा, वही जिया’

रामजी तिवारी 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधाकृष्णन सभागार में गत 12 जनवरी को रविशंकर उपाध्याय के कविता-संग्रह ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ का लोकार्पण हुआ उसी रविशंकर उपाध्याय के कविता संग्रह का, जो पिछले साल 19 मई को इस दुनिया को सदा-सदा के लिए अलविदा कह गए थेसनद रहे कि 12 जनवरी को उनका जन्मदिन था, इसलिए उनके शुभेच्छुओं ने उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इस कविता-संग्रह को प्रकाशित करने का तरीका चुना इस मौके पर दूर-दराज से आये उनके दोस्त-मित्रों ने उनकी याद को साझा करने के साथ-साथ उनकी कविताओं पर भी बातचीत की, जिसका लब्बोलुआब यह था कि उनसे मिलने वाले लोग तो उनके जीवन को हमेशा याद रखेंगे ही, यह कविता-संग्रह उन्हें बहुत सारे अनजाने-अदेखे-अपरिचित लोगों तक भी पहुंचाएगा
बनारस से बलिया लौटते समय ट्रेन में मैं उनका कविता संग्रह पढ़ गयाऔर एक-दो दिन ठहर कर एक बार फिर से कह सकता हूँ, कि जब से यह कविता-संग्रह सामने से गुजरा है, मन में उसी दिन से इस पर लिखने की इच्छा भी कुलांचे मार रही है लेकिन दिक्कत यह है कि जब भी लिखने के लिए कुछ सोचता हूँ, तो उनका जीवन सामने आ कर खड़ा हो जाता है वह जीवन, जो बेशक महान और बड़ा जीवन नहीं था, लेकिन आदमियत से इतना ओत-प्रोत था, कि साधारण होते हुए भी प्रत्येक दौर के लिए अनुकरणीय बन गया यह इसलिए भी कह रहा हूँ, क्योंकि इस दौर में साधारण आदमी बनना भी कोई साधारण काम नहीं रह गया हैहुआ तो यह है कि लोग-बाग़ आदमी होने तक की आवश्यक शर्तों को भी भूलने लगे हैं यदि ‘रविशंकर’ के जीवन में ईर्ष्या, द्वेष, लोभ और लालच का हिस्सा रहा होगा, तो उतना ही गौड़ रूप से रहा होगा, जितना रहने में एक आदमी को आदमी कहा जा सके बाकि उनके जीवन में मुख्य जगह प्रेम, दया, क्षमा, बंधुत्व और कर्तव्यनिष्ठा जैसे भावों की ही अधिक थी
इसलिए यह अनायास नहीं है, कि हम जब भी उनकी कविताओं पर लिखने के लिए बैठते हैं, तो उनका जीवन उन्हें छेंक कर खड़ा हो जाता है और यह इसलिए नहीं है कि उनकी कविताएँ मानीखेज नहीं हैं, या कि उनमें गहराई नहीं है वरन इसलिए कि उन कविताओं से बनने वाला जीवन इतना बड़ा और मानीखेज है, कि उसके आगे सब कुछ धुंधला दिखाई देता हैजिस दौर में चर्चित और नामी-गिरामी रचनाकारों पर लिखते समय उनके जीवन को परे धकेलना पड़ता हो, उनके जीवन के भीतर प्रवेश करते समय उनकी कविताओं का रंग उड़ने लगता हो, वे हलकी और हास्यास्पद दिखाई देनें लगती हों, उस दौर में ‘रविशंकर’ उस पूरी प्रक्रिया को सकारात्मक तरीके से पलटते हैंजिस दौर में पाठकों को आमतौर पर समकालीन कविता से यह शिकायत होती हो, कि उसमें लेखन और जीवन के बीच का अंतर काफी बड़ा होता चला गया है, कि अपनी कविताओं में बड़ी-बड़ी बाते करने वाले कवि लोग, अपने जीवन में अत्यंत बौने होते चले गए हैं, उस दौर में ‘रविशंकर’ अपनी कविताई को अपने जीवन से जोड़ कर पाठकों का भरोसा भी जोड़ने का काम करते हैं
  
इस संग्रह को पढ़ते समय सबसे पहले तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह संग्रह ‘रविशंकर’ की योजना के हिसाब से नहीं आया है बल्कि कहें तो उनके पहले और अधूरे ड्राफ्ट की कविताओं के सहारे आया है उन्होंने जो लगभग चालीस कवितायें लिखी थीं, उन कविताओं से वे खुद कितना संतुष्ट थे, और यदि संग्रह के रूप में उन्हें लाना होता, तो इनमें से किसे रखते, किसे छाँटते, किसे काटते और किसे संशोधित-परिवर्धित करते, कहना कठिन है उनके मित्र बता रहे थे कि अभी उनके मन में कविता-संग्रह लाने की कोई योजना नहीं थी तो जाहिर है, यह उनके मन का संग्रह नहीं है लेकिन उनके असमय चले जाने के बाद अब जो भी हो सकता है, यही हो सकता है यह सोच कर कि इन कविताओं के सहारे ‘रवि’ हमें साहित्य की किस उर्वर जमीन पर लेकर जाना चाहते होंगे, इस संग्रह को देखा और पढ़ा जाना चाहिए
इस संग्रह में कुल मिला कर चालीस कवितायें हैं, जो 90 से जरा कम पृष्ठों में ही सिमटी हुई हैं जैसे कि उनके जीवन ने इस दुनिया में, मात्रा के हिसाब से बहुत कम जगह छेंका, और अन्यों के लिए बाकी ढेर सारा छोड़ दिया, उसी तरह उनकी कविताओं ने भी मात्रा के हिसाब से, समकालीन कविता में बहुत अधिक जगह छेंकने को कोशिश नहीं की है लेकिन मुझे यह कहने की इजाजत दीजिए कि जैसे उनका यह अधूरा और संक्षिप्त जीवन हमें इतनी सारी प्रेरणाएं देता है, हमारे सामने मानवीय संबंधों के इतने सारे दरवाजे खोलता है, वह गुणात्मक रूप से इतना बड़ा दिखाई देता है, वैसे ही उनका यह अधूरा और संक्षिप्त संग्रह भी युवा-कविताके बहुत सारे आयाम निर्धारित करता है, बहुत सारी राहें खोलता है यह संग्रह उनके जीवन से पूरी तरह से मेल खाता है, क्योंकि इसमें भी हर तरह की कुलीनता और महानता से दूर रहते हुए, आदमीबनने की सक्रिय तलाश है इन चालीस कविताओं में ईमानदारी और प्रतिबद्धता एक करेंट की तरह से बहती है, जहाँ से उनका लोक, प्रेम की उद्दात्त भावना, समय-समाज की नब्ज और मृत्यु से दो-दो हाथ करने वाली कविताएँ मुखरित होती हैं
प्रत्येक महत्वपूर्ण रचनाकार की तरह ‘रविशंकर’ की कवितायें भी अपने परिवेश से जुड़ कर ही आकार लेती हैं, और उसी के सहारे देश-दुनिया से तादात्म्य स्थापित करती हैं ध्यान रहे कि यहाँ बरगद, कछार, गोलंबर, स्टेशन और गाँव की मिट्टी, किसी अतीतजीविता के कारण नहीं आती, वरन वे इसे अपने परिवेश से गहरे जुड़े होने के कारण परखने और आलोचित करने के लिए ले आते हैं उस फैशन से दूर, जो कि आज के दौर में अपने देश-जवार से कट गए अधिकाँश कवियों की कविताओं में दिखाई देता है कि जो अपनी जड़ों से उखड़ कर किसी महानगरीय हवा में तैर रहे होते हैं, और अपनी जमीन की बात आते ही विभोर होते दिखने की कोशिश करने लगते हैं इन कविताओं में गाँव के बरगद में कई ‘बरोहों’ को झूलते देखने की उम्मीद है, तो उसी गाँव से पागल हुई निकली वह औरत भी है, जो आज किसी नगर में भटक रही होती है जिसे गाँव ने यह पागलपन रसीद किया है, कि वह नौजवान शराबी लफंगों के लिए ‘अपने जिस्म की दान-दात्री’ बन जाएइस देखने के प्रयास में गाँव की ओर ले जाने वाला मुगलसराय रेलवे स्टेशन भी आता है, और उस मिट्टी की सोंधी सुगंध भी, जिसके बारे में वे कहते हैं कि
हे ईश्वर ….!
मेरी इन पथराई आँखों में इतना पानी भर दो
कि मैं इस मिट्टी को भिगो सकूं
और उससे उठती सोंधी सुगंध को
अपने रोम-रोम में सहेज लूं
रविशंकर गाँव से निकल कर शहर के गोलंबर तक पहुँच गयी उन कतारों को भी देखते हैं, जिनकी आँखों में साफ़ कपड़े वालो को देख कर एक चमक सी उठ जाती है जो अपने जांगर के पसीने को बेचने के लिए रोज-रोज उस शहराती और कस्बाई गोलंबर पर बिकने के लिए खड़े होते हैंरविशंकर अपनी कविता में कहते हैं ….
हर आने वाले बाबुओं पर होती हैं
उनकी कातर निगाहें
जो लिए-लिए फिरते हैं
उनकी आकांक्षाओं की पोटली
जिनमें बंधी होती है
नन्हीं-नन्हीं पुतलियों की चमक
और बटलोई में खदकते चावल का स्वाद

 

कहते हैं, किसी भी व्यक्ति को परखने का एक तरीका यह भी होता है कि उसके प्रेम को परखा जाए कि वह उसमें कितना डूब सकता है और कितनी गहराई तक जा सकता है ‘रविशंकर’ की कविताओं में इसकी खूब आहट सुनाई देती है‘तुम्हारा आना’, ‘सुनना’, ‘कविता में तुम’, ‘उदास ही चला गया बसंत’, ‘अँखुआने लगे नए अर्थ’ और ‘समुद्र मैं और तुम’ जैसी कविताओं से यह पता चलता है, जो वह किन संवेदनाओं से संपृक्त आदमी थे कुछ बानगी देखिए …
तुम्हारा आना ठीक उसी तरह है
जैसे रेंड़ा के बाद फूटते हैं धान
और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर   …..(तुम्हारा आना)
और यह भी
समुद्र का मन भर जाता है
जब मिलती हैं नदियाँ
नदियों की भी मिट जाती है प्यास
जब वे समा जाती हैं समुद्र में   ………….. (समुद्र मैं और तुम)
और फिर रविशंकर की कवितायें उस मुकाम पर पहुंचती हैं, जहाँ से उनके भीतर का सामाजिक आदमी आकार लेता है संग्रह की पहली कविता ’21 वीं सदी का महाकाव्य’ में उनका तेवर और इरादा स्पष्ट हो जाता है, जिसमें वे कूड़ा बीनने वाले 12 साल के बच्चे को देख कर कहते हैं कि
क़स्बे की नालियाँ और कूड़ाघर ही
बन चुके हैं उसके कर्मक्षेत्र
जहाँ वह दिन भर तलाशता है
अपनी खोई हुयी रोटी
और नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से
सड़क की पटरियों पर लिखता है
21 वीं सदी का महाकाव्य
इन कविताओं में रविशंकर की सोच ही नहीं, वरन उनका जीवन भी साफ़ तौर पर उभर कर सामने आता है मुक्ति’, आदमी और मच्छर’, ‘रोटी’, ‘उम्मीद अब भी बाकी है’, ‘यह समय’, ‘मूर्तियाँ’, ‘शान्ति रथ’ और ‘विकास रथ के घोड़े’ जैसी कविताएँ यह बताती हैं कि बाहर से ऐसा दिखने वाला वह आदमी, भीतर से किन विचारों से बना हुआ था, या कि बन रहा था अपने समय और समाज पर पक्ष चुनने का उनका विवेक तो साफ़ है ही, उन्हें जांचने और परखने की दृष्टि भी साफ़ और पैनी है वे, जो इतना साधारण जीवन जीने का हुनर रखते हैं, तो इसलिए कि वे हर तरह की भव्यता को ठोकर मारने की हिम्मत भी रखते हैं
भव्यता ने मुझे हर बार आशंकित किया है
इतना कि मैं अब आशंकाओं से प्यार करने लगा हूँ
………………………………………………………..
हर क्षण जिलाए रखना चाहता हूँ
अपने प्रेम को
जहाँ सदैव खड़ी हों आशंकाएँ
हर भव्यता के विरुद्ध
और जैसे कि हर बड़े रचनाकार की तरह रविशंकर के पास प्रेम की उदात्त भावनाएं हैं, अपने परिवेश को समझने की ताकत है, अपने समय-समाज को व्याख्यायित कर पक्ष चुनने का विवेक भी, तो उसी तरह मृत्यु से दो-दो हाथ करने का हौसला भी उनकी कविताओं में साफ़-साफ़ दिखाई देता है
ठीक इसी वक्त
ऊपर से एक तारा टूट कर गिर रहा था
इसी समय गिर रही थी
चाँदनी, ओस की बूँदें और पेड़ से पत्ते
इन सबको गिरते हुए देख कर
मैं उस मिट्टी के गिरने को
देखना चाह रहा था
जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर
 
रविशंकर उपाध्याय के इस कविता संग्रह उम्मीद अब भी बाकी है का महत्व इसी बात में है, वह ऐसे कवि द्वारा लिखी गयी कविताओं से बनता है, जिसके जीवन और लेखन में, नहीं के बराबर का अंतर है जिस दौर में जीवन और लेखन दो विपरीत दिशा में जाने वाले रास्ते बनते जा रहे हैं, उस दौर में यह बात अत्यंत प्रासंगिक और प्रेरणास्पद है जीवन से जुडी इन बेहद महत्वपूर्ण कविताओं को पढने के बाद जैसे तुरत इच्छा होती है कि रविशंकर को फोन मिलाएं और बधाई दें मगर अफ़सोस ……! कि जो अपनी प्रशंसा सुनने से जीवन भर बचता रहा, जो दस कार्य करने के बाद एक शाबासी लेने से भी कतराता रहा, वह इन शानदार कविताओं के लिए बधाई लेने से भी अपने आपको बचा ले गया कि उसने हमारी बात को दिल में ही जज्ब करने के लिए मजबूर कर दिया इस कविता-संग्रह को पढने के बाद लगता है कि उसके साथ इस दुनिया से सिर्फ बेटा, भाई, मित्र और शिष्य ही नहीं गया, वरन युवा कविता का एक अर्थवान और महत्वपूर्ण संसार भी चला गया
              अलविदा रविशंकर ….. तुम हम सबके दिलों में बसते हो …
    
‘उम्मीद अब भी बाकी है’
(कविता-संग्रह)
लेखक – रविशंकर उपाध्याय
प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन
नयी दिल्ली
मूल्य – 200 रुपये
रामजी तिवारी

समीक्षक –

रामजी तिवारी
बलिया, उत्तर-प्रदेश
मो.न. 09450546312

रामजी तिवारी की टिप्पणी ‘पुरुषोत्तम अग्रवाल’ की कहानियाँ पढ़ते हुए …….’

पुरुषोत्तम अग्रवाल

एक सुधी आलोचक मौलिक रूप से खुद भी एक लेखक होता है। आलोचना में वह रचना के बरक्स एक कृति का ही सृजन करता है। यह परंपरा हमारे यहाँ काफी समृद्ध रही है। पुरुषोत्तम अग्रवाल का नाम इसी कडी में एक प्रमुख नाम है। अपनी आलोचना से पाठकों का दिल जीतने वाले पुरुषोत्तम अग्रवाल अब कहानियों में हाथ आजमा रहे हैं और प्रायः इसमें सफल भी रहे हैं। बुनियादी तौर पर एक कहानीकार के लिए जो भी जरुरी तत्व होते हैं, पुरुषोत्तम जी के यहाँ वह सब है। इनकी यहाँ-वहाँ छपी हुई कहानियों पर एक आलोचकीय दृष्टि डाली है युवा कवि-कहानीकार साथी रामजी तिवारी ने। रामजी इन दिनों अपनी ही कुछ कहानियों पर काम कर रहे हैं। फिल्मों खासकर आस्कर अवार्ड्स पर पिछले साल आई इनकी किताब काफी चर्चित रही है। तो आइए पढ़ते हैं रामजी तिवारी की यह टिप्पणी। 
‘पुरुषोत्तम अग्रवाल’ की कहानियाँ पढ़ते हुए …….
रामजी तिवारी
लोक में कहानियों की अवधारणा आदि काल से चली आ रही है उनमे मिथक भी होता है, और यथार्थ भी जीवन भी होता है, और कल्पना भी उनमे पिछले समाज का आख्यान भी होता है और आने वाले समाज का सपना भी हम सब उन्हें सुनते हैं, गुनते हैं और फिर आने वाली पीढ़ियों को सौंपते हैं कभी मौखिक, तो अब लिखित इस तरह वे समाज के साथ-साथ विकसित होती रहती हैं मसलन अपने आरंभिक स्वरुप में, जहाँ वे पौराणिक और मिथकीय दिखाई देती है, विकास क्रम में राजे-रजवाड़ों से होते हुए आम-जन के किस्सों तक पहुंचती हैं और फिर उस मार्क्सवादी विचारधारा का अभ्युदय होता है, जिसमें दुनिया के लगभग सभी साहित्यिक हलकों में आम-सामान्य जनता का जीवन प्रतिविम्बित होने लगता है अब साहित्य में समाज को ढूँढना और उसे परखना आवश्यक माना जाने लगता है और समाज ‘कैसा है’ और ‘कैसा रहा है’, से आगे बढ़ कर ‘कैसा होना चाहिए’ की बात भी होने लगती है जाहिर है, कहानियों में भी ऐसी ही गाथाएँ दिखाई देने लगती हैं, जो अपने समाज और उसके जीवन के नजदीक होती हैं

साहित्य और समाज के गहराते रिश्ते से कुछ और सवाल भी खड़े होने लगते हैं मसलन, कि साहित्य को कला के लिए होना चाहिए या फिर सामाजिकता के लिए? और क्या इसमें कोई विरोधाभास है कि कलात्मक लेखन सामाजिक नहीं हो सकता? या कि सामाजिक लेखन कलात्मक रूप से कमजोर ही होता है? दरअसल यह भ्रम दोनों पक्षों द्वारा अपनीअपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए फैलाया जाता है हकीकत यह है कि इनमें कोई विरोधाभास होता नहीं है जिनके पास कहने के लिए कुछ ख़ास नहीं होता, वे भाषा, शिल्प और चमत्कारों में पाठक को उलझाये  रहते हैं और जिनके पास अपने कथ्य को साहित्य में ढालने की क्षमता नहीं होती है, वे कहते हैं कि हम तो सारा कुछ समाज के लिए ही लिख रहे हैं

मसलन यदि आप कहानी लिख रहे हैं, तो उसकी पहली शर्त कहानी होने को ले कर ही होनी चाहिए और चूकि लेखक एक रचनाकार भी होता है, इसलिए रचनात्मक स्तर पर वह कलाकार की श्रेष्ठ कृति भी होनी चाहिए और रही बात सामाजिकता की, तो जिस क्षण कोई भी व्यक्ति लिखना आरम्भ करता है, उसी क्षण उसके लेखन पर समाज का अधिकार भी आरम्भ हो जाता है यदि कोई व्यक्ति अपने लिए ही लिखना चाहेगा, तो उसे लिखने की क्या आवश्यकता है? अपना तो वह सब कुछ जानता ही है कम से कम भीतर के स्तर पर तो जानता ही है तो अपने लिए लिखने वाला लेखक लिखेगा ही क्यों? और उससे बड़ा सवाल यह कि कोई भी दूसरा व्यक्ति उसे पढेगा भी क्यों? जब वह सारा कुछ अपने लिए ही लिख रहा है, तो दूसरे को क्या पड़ी है कि वह उसे पढ़े इसलिए अपने लिए लिखने वाली बात भी उसी तरह से बेमानी है, जिस तरह उसका कलात्मक स्तर पर कमजोर होना बेमानी है साहित्य के भीतर की स्वकेंद्रित विधाओं को ही लें, जिनमे आत्मकथाएं, जीवनियाँ, संस्मरण और यात्राओं को रखा जा सकता है| वे तभी क्लासिक का दर्जा पाती हैं, जब वे अपने बारे लिखते हुए भी अपने आसपास, अपने परिवेश, अपने समाज और आने वाले समय के बारे में भी बोलने लगती हैं वे जिस स्तर पर समाजोपयोगी होती हैं, उसी स्तर पर उनकी प्रासंगिकता भी निर्धारित होती है

इन बातों के आलोक में आज हम कहानियों पर बात करने जा रहे हैं एक ऐसे शख्स की कहानियों पर, जिन्हें हम बतौर आलोचक पढ़ते और सुनते आये हैं जी हां … मैं पुरुषोत्तम अग्रवाल की बात कर रहा हूँ आलोचना के क्षेत्र में किये गए उनके कार्य से हम सब परिचित हैं हमारे लिए ख़ुशी की बात है कि वे आजकल कहानी विधा की तरफ भी मुड़े हैं और कहें तो ईमानदारी और तैयारी के साथ मुड़े हैं अपनी आरंभिक कहानियों में उन्होंने यह बात साबित की है कि उनके पास कथ्य और विचारों की समृद्धता तो है ही, उन्हें कहानियों में ढालने की संवेदनशील क्षमता भी है धीरे-धीरे विकसित होती हुई उनकी कहानियाँ पाठक को उस मुकाम पर ले कर पहुंचती हैं, जहाँ पर बतौर रचनाकार वे किन पात्रों और उनके किन संघर्षों के साथ खड़े हैं, वह दिखाई देने लगता है लेकिन उनके यहाँ यह खड़ा होना, वकालत करना नहीं हैं, वरन यह सीखना है, कि अपने पात्रों से सहानुभूति रखते समय, या उनके पक्ष में खड़े होते समय एक कहानीकार को कैसी तटस्थता बरतनी चाहिए उसे ऐसी परिस्थितियां निर्मित करनी चाहिए, जिसमें उसका पाठक खुद-ब-खुद उसके पात्रो के साथ तादात्म्य स्थापित करने लगे उनकी कहानियाँ इन सारी कसौटियों की प्रतिनिधि कहानियाँ हैं

‘चेंग-सुई’ उनकी आरंभिक कहानी है अपेक्षाकृत छोटी, लेकिन बहुत धारदार कहानी जो बताती है कि आज हमारे जीवन में आपाधापी कितनी बढ़ गयी है पूरा समाज एक अंधी दौड़ में भागा जा रहा है बिना इस बात को जाने, कि वह इस भागने से पाना क्या चाहता है, या कि उस पाने के प्रयास में वह अपने जीवन के किन मूल्यों को खोता जा रहा है बस वह दौड़ रहा है और इस दौड़ ने व्यक्ति के जीवन को तो अशांत कर ही दिया है, उससे बनने वाले पूरे सामाजिक ढाँचे को भी चरमरा दिया है अब सारे रिश्ते नाते सूखते जा रहे हैं घर्षण इतना बढ़ गया है कि चलना मुश्किल हो रहा है विडम्बना यह है कि जिस व्यवस्था ने यह परेशानी पैदा की है, वही व्यवस्था बाजार के माध्यम से एक कृत्रिम हल भी सुझा रही है एक ऐसा हल, जिसमें सुधार के बजाय, आपाधापी और बढती जा रही है कहानी बताती है कि जीवन में आने वाले सूखे को नमीयुक्त घर बना कर दूर किया जा सकता है जैसे कि साहित्य में जीवन संघर्षों का आना कम हुआ है, तो लोग बाग़ उसे कृत्रिम संघर्षों से भर रहे हैं यह एक ऐसी कहानी है, जिसमें हम अपने वर्तमान नगरीय और महानगरीय जीवन की आपाधापी वाली अंधी दौड़ से थके हुए व्यक्ति को झुनझुना थमा कर बहलाते-फुसलाते हुए देख सकते हैं

 

अपनी दूसरी कहानी ‘पैर-घंटी’ में पुरुषोत्तम जी समाज के उस ‘इलीट’ वर्ग का आवरण हटाते हैं, जो देश को संचालित कर रहा है लोकतंत्र की बुनियाद के रूप में हम चुने हुए प्रतिनिधियों और नौकरशाहों को देखते हैं वे व्यवस्था को सृजित भी करते हैं, और उसे लागू भी हालाकि आज के समय में उनके वास्तविक किस्से आम जनमानस तक पहुंचने शुरू हो गए हैं, लेकिन इस कहानी से हमें यह पता चलता है कि जिस पर इस महान लोकतंत्र को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, वह अतीत के किन झूठे सपनों में जी रहा है और जिस नौकरशाह पर इस व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, वह खुद किस तरह से घिसट रहा है आये दिन यह खबर देखने-सुनने में आती है कि एक ईमानदार नौकरशाह को किस तरह प्रताड़ित किया जाता है हालत तो यह हो गयी है कि आज जब कोई नौकरशाह किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाता है, तो सामान्यतया यह मान लिया जाता है कि वह आदमी निष्पक्ष और ईमानदार नहीं होगा वह किसी न किसी तरह से उस दल और सरकार के प्रति झुका हुआ होगा ‘पैर-घंटी’ कहानी हताश करने वाली इन सच्चाईयों को हमारे सामने लाती है

‘चौराहे पर पुतला’ उनकी तीसरी कहानी है कहानी यह बताने का प्रयास करती है, कि देश के सामने जब तमाम कठिन समस्यायें मुँह बाए खड़ी हैं, तब व्यवस्था के संचालक उन्हें सुलझाने के बजाय, कृत्रिम मुद्दों को गढ़ कर समाज को उलझाए हुए हैं वे उसे ऐसे मुहाने ले कर चले आये हैं, जहाँ नैतिक भावनाओं के काकटेल से पूरा समाज बेहोश हुआ जा रहा है वह अपनी मूल समस्यायों को भूल कर उन्हीं कृत्रिम मुद्दों में मदमस्त होकर झूम रहा है कहानी चौराहे पर खड़े उस पुतले को केंद्र में रख कर लिखी गयी है, जो नंगा है संस्कृति के रक्षकों को लगता है कि इसकी वजह से इस समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है समस्या इतनी बढ़ जाती है कि एक आयोग बनाना पड़ता है एक लम्बे इन्तजार के बाद उसकी रिपोर्ट आती है, जिसमें सुझाव दिया जाता है कि पुतले को चड्ढी पहना दी जाए यह कहानी एक ‘फर्जी मुद्दे को केन्द्रीय मुद्दे’ में बदले जाने को तो रेखांकित करती ही है, साथ ही साथ यह भी बताती है कि एक स्वस्थ समाज के लिए आवश्यक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आज किस तरह से ‘कीमा’ होने के कगार पर है कहना न होगा कि जिस समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं रहती है, वह समाज कितना जड़ और प्रतिगामी होता है

एक कहानीकार का मूल्यांकन इस बात पर भी होना चाहिए कि वह समाज के सामने उपस्थित  समस्याओं को वह किस वरीयता और किस संजीदगी के साथ उठाता है जाहिर है कि किसी भी समाज में मुद्दों की कोई कमी नहीं होती लेकिन एक साहित्यकार को यह समझना होता है कि उसकी अपनी वरीयता क्या है? और यह भी कि उस वरीयता को साहित्य में ले आने की वह कितनी क्षमता रखता है अपनी चौथी कहानी ‘पान पत्ते की गोंठ’ में पुरुषोत्तम जी हमारे समाज के एक बेहद सालने वाले पक्ष से दो-दो हाथ करते हैं विविधतापूर्ण संस्कृति यदि हमें गर्व करने का अवसर देती है, तो ‘जाति’ के खानों में विभक्त भारतीय समाज हमारे लिए शर्मिंदगी का कारण भी है एक ऐसा समाज, जो घिसटता हुआ और प्रतिगामी समाज है उसमें ‘जातिगत दुराग्रह’ इतने गहरे से पैठा हुआ है कि वह सिर्फ गरीब और निचले लोगों के जीवन पर ही जुल्म नहीं ढाता, वरन उसकी गिरफ्त में अग्रिम पंक्ति में खड़ा कथित रूप से पढ़ा-लिखा और शिक्षित समाज भी आता है मसलन गाँव में रहने वाले किसी दलित के साथ जातीय वैमनस्य की घटना तो होती ही है, शहर के नामी-गिरामी महाविद्यालय और विश्व-विद्यालय में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए लोगों के साथ भी घटित होती है यह कहानी इस मामले में भी उल्लेखनीय है, कि इसमें जुल्म सहने से किया गया इनकार और प्रतिकार स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ है। 

उनकी अब तक की लिखी हुई पांचवी और अंतिम कहानी ‘नाकोहस’ है, जो ‘पाखी’ पत्रिका के पिछले अंक में प्रकाशित हुई है यह एक बड़े फलक की कहानी है, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना पर मंडरा रहे आसन्न खतरों को चिन्हित किया गया है इनमें से कई खतरे इस समाज को अपनी गिरफ्त में ले भी चुके हैं, और कई की पकड़ हमारे समाज की गिरेबान पर बस पहुँचने ही वाली है दुःख की बात यह है कि हमारा यह समाज ऐसे आसन्न खतरों से न सिर्फ अनभिज्ञ और अनजान हैं, वरन उन्हें स्वयं ही अपने तक आने के लिए रास्ता भी दे रहा है कहानी ‘नेशनल कमीशन आफ हर्ट सेंटीमेंट्स’ (नाकोहस) के बहाने हमारे समाज में विचार और अभिव्यक्ति के लिए कम होती जा रही ‘जगह’ की तरफ ईशारा करती है और साथ में यह भी, कि जो आज ‘नाकोहस’ की भूमिका में हैं, वर्तमान समाज में उनका कद कितना बड़ा हो गया है हम भौतिक रूप से तो आजाद दिखाई देते हैं, लेकिन मानसिक रूप से उनके गुलाम की स्थिति में पहुँचते जा रहे हैं  ऐसी स्थिति बनती जा रही है, जिसमें हमारे लिए कुछ भी व्यक्त कर पाना असंभव होता जा रहा है जाहिर है कि ऐसे में हमारे भीतर सोचने की प्रक्रिया बाधित हो रही है और हम जानते हैं कि जिस समाज में सोचने, विचारने और व्यक्त करने की क्षमता नहीं रह जाती है, वह समाज जीवित व्यक्तियों का समाज नहीं रह पाता वह समाज मृत समाज माना जाता है इतिहास में ‘अन्धकार युग’ का उदाहरण हमारे सामने है कहना न होगा कि इस कहानी ने हमारे सामने कई ऐसे सवाल छोड़े हैं, जिनसे बच कर निकलना किसी भी समाज के लिए आत्मघाती होगा

इन कहानियों के उत्कृष्ट कथ्य को रेखांकित करने का मतलब यह है कि इनकी आलोचना के बिन्दुओं को ‘बाई’ दे दिया जाए बात उन पर भी होनी ही चाहिए मसलन कि इनकी थोड़ी अधिक प्रांजल भाषा कही-कहीं ऐसा लगता है कि इन कहानियों की भाषा अपने पात्रो से एक कदम आगे चल रही है जबकि उसे अपने पात्रों के साथ चलना चाहिए एक और बात जो कभी-कभी खटकती है, वह है कथाकार का अपने पात्रों पर थोड़ा अधिक हावी हो जाना जबकि उससे यह अपेक्षा रहती है कि वह अपने पात्रों को थोड़ी और जिम्मेदारी सौंपे हमारी अपेक्षा होगी कि आने वाली कहानियों में ‘पुरुषोत्तम जी’ इन बिन्दुओं पर थोड़ा और ध्यान दें ये ऐसी बातें हैं, जिन्हें आगे चल कर दूर किया जा सकता है हमारा यह मानना है कि कोई भी बड़ी कहानी अंततः अपने भीतर छिपे महत्वपूर्ण अर्थों के कारण ही बड़ी मानी जाती है और इस कारण भी कि वह अपने अन्य आवश्यक तत्वों को कितना साथ लेकर चलती है तसल्ली की बात है कि ‘पुरुषोत्तम जी’ इन सभी बिन्दुओं पर हमें आश्वस्त करते दिखाई देते हैं इन कहानियों ने उनसे हमारी अपेक्षाएं और अधिक बढ़ा दी हैं
सम्पर्क –

रामजी तिवारी 
बलिया, उ.प्र. 
मो.न. 09450546312

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है.) 
                                              

रामजी तिवारी

 

   फ़िल्में केवल हमारे  मनोरंजन का ही साधन नहीं होतीं बल्कि ये हमारे समय का एक बेहतरीन दस्तावेज भी होती हैं। एक विश्लेषक अपनी सूक्ष्म दृष्टि के द्वारा इन फिल्मों को देख कर उनकी वास्तविकता या दिखावे को समझ और समझा सकता है। वियतनाम युद्ध इतिहास का एक ऐसा ही अध्याय है जिस पर फिल्मकारों ने अनेक फ़िल्में बनाईं। यहाँ यह काबिले-गौर है कि अलग-अलग निर्देशकों द्वारा एक ही विषय वियतनाम युद्ध पर बनायी गयी फिल्मों में उनके काल-स्थान-सोच एवं संस्कृति का स्पष्ट फिल्मांकन दिखाई पड़ता है। आस्कर अवार्ड्स को फिल्मों का  सर्वोच्च सम्मान  माना जाता है लेकिन यहाँ भी तमाम घालमेल होता है। जाहिरा तौर पर अमरीका में दिए जाने वाले इस सम्मान पर अमरीकी सोच एवं मानसिकता भी शामिल होती है और जो फ़िल्में इस प्रतिमान पर खरा उतरतीं हैं उन्हें ही इस सम्मान से नवाजा जाता है। बाक़ी को इससे महरूम कर दिया जाता है। फिर भी दम-ख़म वाली फ़िल्में बिना किसी पुरस्कार-सम्मान के भी दर्शकों का जो प्यार एवं सम्मान पाती हैं वह सम्म़ानित फ़िल्में हांसिल नहीं कर पातीं।

हमारे मित्र रामजी तिवारी की पहली किताब ‘आस्कर अवार्ड्स: यह कठपुतली कौन नचावै‘ का विमोचन प्रतिरोध के सिनेमा द्वारा 22 फरवरी से 24 फरवरी 2013 तक आयोजित ‘गोरखपुर फिल्मोत्सव’ में 22 फरवरी को 2013 किया गया। इस किताब में रामजी ने आस्कर अवार्ड्स के मिथक एवं यथार्थ को अपनी सूक्ष्म दृष्टि एवं विश्लेषण के द्वारा परखने की कोशिश की है। पहली किताब के प्रकाशन की बधाई देते हुए पहली बार पर प्रस्तुत है रामजी तिवारी की इसी किताब का एक अंश ‘वियतनाम युद्ध और हालीवुड मायोपिया’.


  वियतनाम युद्ध और हालीवुड मायोपिया

अब हम उस सबसे महत्वपूर्ण दौर पर आते हैं, जिसने  अमेरिका को अंदर तक मथ दिया था और वह था “वियतनाम का युद्ध” इससे पहले कि हम इस युद्ध  पर बनी फिल्मों की बात  करें, और यह देखें कि आस्कर  पुरस्कृत फिल्मों में वियतनाम युद्ध की कैसी तस्वीर उभरती है, यहाँ उस युद्ध के संक्षिप्त इतिहास को जान लेना समीचीन होगा| सदियों से फ्रेंच कालोनी के रूप में गुलामी का जीवन जीने वाले इस समाज को आजादी  के लिए एक लंबा संघर्ष करना पड़ा 1954 में अंततः फ्रांसीसियों ने वियतनाम छोड़ दिया, और वह आजाद हो गया लेकिन उसकी किस्मत में आजादी और संघर्ष-विराम की यह गाथा लिखी ही नहीं थी| वह शीत युद्ध का दौर था, और कोरियाई युद्ध ने देशों के भीतर देशों को बाँट लेने की नयी परम्परा का सूत्रपात कर दिया था दोनों खेमे नव-स्वतन्त्र देशों पर निगाह लगाए रखते थे, और अपने साथ जोड़ने की हर संभव कोशिश को वैध मानते थे ऐसे में वियतनाम का आजाद होकर साम्यवादी खेमे में चला जाना अमेरिकी खेमें के लिए नाकाबिले-बर्दास्त था ‘हो-ची-मिन्ह’ के नेतृत्व में लड़े गए आजादी के संघर्ष और उसके बाद गठित सरकार को अस्थिर करने की अमेरिकी कोशिशे पहले दिन से ही आरम्भ हो गयीं | गृह युद्ध की स्थिति पैदा कर दी गयी, और जेनेवा कन्वेशन के माध्यम से अंततः 17 पैरलल रेखा के द्वारा वियतनाम को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया गया
                                                          (किताब का आवरण)
उत्तरी हिसा साम्यवादी  खेमें में और दक्षिणी  हिस्सा अमेरिकी पिट्ठू के रूप में पूंजीवादी खेमें  में शामिल हुआ दोनों  तरफ इसे लेकर असंतोष था उत्तरी खेमा इस विभाजन को कृत्रिम  और थोपा हुआ मान रहा था और देश का एकीकरण चाहता  था, जबकि दक्षिणी खेमा अमेरिका  को संतुष्ट करने के लिए  उत्तर की सरकार को परेशान करने और उसे अस्थिर करने की चालों को लगातार चल रहा  था अमेरिका से उसे इस बाबत करोड़ों और अरबो डालर की सहायता भी मिल रही थी दक्षिणी  खेमें की तमाम कोशिशों के बाद भी जब उत्तरी साम्यवादी  वियतनाम का कोई खास नुकसान नहीं हुआ, वरन उलटे दक्षिणी  खेमें का ही नुकसान होने लगा, तब अमेरिका को सीधे इस युद्ध  में उतरना पड़ा आइजनहावर से आरम्भ होकर केनेडी, जानसन और निक्सन तक आते-आते अमेरिकी सैनिकों की संख्या इस युद्ध में हजारों से लाखों तक पहुँच गयी जमीनी के साथ साथ हवाई हमले भी बड़े पैमाने पर आजमाए गए यहाँ तक कि पडोसी देशों – कम्बोडिया और लाओस – की सीमाओं में भी घुसकर बम बरसाए गए युद्ध के सारे नैतिक आधार मुँह ताकते रहे और हिरोशिमा में परमाणु बम से हाहाकार मचाने वाले नायक, रासायनिक हथियारों से वियतनाम को तबाह करते रहे वियतनामियों ने गुरिल्ला-युद्ध की अपनी पुरानी रणनीति को पुनः आजमाया, जिसे वे अपने स्वत्रंतता-संघर्ष में सफलता पूर्वक प्रयुक्त कर चुके थे, और युद्ध लंबा खिचने लगा अमेरिकी सैनिको की सैकड़ों और हजारों की संख्या में पहुँचने वाली लाशों ने वहाँ के समाज में हलचल पैदा करना आरम्भ कर दिया दबाव इतना बढ़ गया कि अमेरिका को बाहर निकलने के लिए बाध्य होना पड़ा 1975 में जब युद्ध समाप्त हुआ और वियतनाम का पुनः एकीकरण सम्पन हुआ, तब लगभग बीस साल चले उस हाहाकार का हिसाब लगाने का काम भी शुरू किया गया अनुमानतः उस युद्ध में 15 से 30 लाख लोग मारे गए थे, जिसमे अमेरिकी सैनिकों की संख्या भी पचास हजार के आसपास थी अब यह अलग बात है , कि उस युद्ध को याद करते समय विश्लेषक अक्सर इस तथ्य को गोल कर जाते हैं, कि ‘शेर और मेमने के उस युद्ध में, जब शेर ने इतने घाव खाए थे तब मेमने का क्या हुआ होगा’ 
 
                                                                (आस्कर ट्राफी)
ठीक ही कहा जाता है कि युद्धों ने दुनिया को कई गहरे जख्म दिए हैं। कुछ जख्म तो खड़ी फसलों को नेस्तनाबूद कर देते हैं और कुछ उस समाज या देश की जड़ों में चले जाते हैं, जहाँ से भविष्य की फसलों को उगना है। यह जख्म भी उनमे से एक है, जिसको वियतनाम के पडोसी और उस युद्ध में अमेरिका के मित्र थाईलैंड के खाया जब वियतनाम युद्ध आरम्भ हुआ, तब थाईलैण्ड खुल कर अमेरीका के साथ खड़ा हो गया उसने अपने हवाई अड्डों को अमेरीकी सेना के लिए खोल दिया। जब अमेरिकी सेनाए थाईलैण्ड में उतरीं और युद्ध लम्बा खिंचने लगा तो उन अमेरीकी सैनिकों के मनोरंजन के लिए वेश्याओं की व्यवस्था की गयी। इतिहास में ऐसा नुस्खा पहले भी आजमाया जा चुका था। अमेरीकी सरकार ने थाईलैण्ड के सहयोग के बदले बड़ी मात्रा में उसकी वित्तीय मदद आरम्भ की। थाईलैण्ड का कायाकल्प होने लगा। शहरीकरण तेजी से शुरू हो गया। फैशन, समाज, विचार, संस्कृति और जीवन शैली में आए इस बदलाव ने भूचाल खड़ा कर दिया। थाई समाज की आँखे अमेरीकी डालर की चमक के आगे चौंधियाँ गयी। उसने आँख मूद कर पश्चिम को गले लगाना चाहा, जिसके लिए उसका समाज तैयार नहीं था। वह परजीवी होता चला गया। आसान रास्तों से पैसा कमाना उसकी आदत बन गयी। पश्चिमी चकाचौंध वाली जीवन शैली उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित करती रही। अमेरीकी तो चले गये लेकिन यह देश अन्तर्राष्ट्रीय चकलाघर बन कर रह गया। कहना न होगा कि आज भी वह देश डालर द्वारा नाथे गए उसी नथिये में घिसट रहा है |
फिल्मों की तरफ लौटते हैं इस युद्ध पर बनी दो फिल्मो 1978 की “डियर हंटर” और 1986 की “प्लाटून” को आस्कर पुरस्कार मिले हैंडियर हंटर” वियतनाम युद्ध के अमेरिका पर पड़ने वाले प्रभाव को अमेरिकी समाज के माध्यम से देखती है और वहाँ अगर वियतनाम का मोर्चा आता भी है , तो वह एक ट्रेलर के रूप में गुजर जाता है , जिसमे हमें वहाँ की जमीनी हकीकतों का कोई अंदाजा नहीं लग पाता यह फिल्म तीन भागों में चलती है | पहले भाग में, 1967 का अमेरिकी नायक अपने प्रेम में डूबा हुआ है और अपनी सगाई की तैयारी कर रहा है दूसरे में वह वियतनाम युद्ध में पाया जाता है , जहाँ की स्थितियां बेहद भयावह हैं वह कुछ समय के लिए बंदी भी बना लिया जाता है, जिसमे उसे ‘रशियन रौलेट’ खेलने के लिए विवश किया जाता है इस खतरनाक खेल में पिस्तौल की चेंबर में कुछ गोलियों को डाल  कर उसे घुमा दिया जाता है, और बारी-बारी से उसे अपने कनपटी पर रख कर, तब तक जीवन पर दाव लगाया जाता है , जब तक किसी एक की मौत नहीं हो जाती है इस खेल में उसके कुछ साथी मारे भी जाते हैं , लेकिन संयोगवश वह बच जाता है तीसरे दृश्य में वह अमेरिका में दिखाई देता है, जहाँ वह लगभग मनोरोगी की स्थिति में पहुँच चुका है, और इसी खेल को खेलते हुए एक दिन अपनी जान दे देता है
जाहिर है कि यह फिल्म उस प्रक्रिया  को साफ़ नजरअंदाज कर देती है , जिसने वियतनाम युद्ध  को जन्म दिया था | लेकिन इसको लेकर दूसरी आपत्तियां अधिक तार्किक और जायज हैं | ‘एसोसिएटेट प्रेस’ के ‘पीटर अर्नेट, जिन्होंने इस युद्ध को लंबे समय तक कवर किया था, का कहना है, कि बीस साल के इस युद्ध  में ‘रशियन रौलेट’ खेलने के, एक भी ऐसे वाकये का पता  नहीं चलता, जिसका इस फिल्म  में जिक्र किया गया है कुल मिला कर इस फिल्म का ‘केन्द्रीय –तत्व’ ही सफ़ेद झूठ है 1979 के बर्लिन फिल्म समारोह में पहली बार जब इस फिल्म को दिखाया गया था, तब संपूर्ण साम्यवादी खेमे ने यह कहकर ‘वाक्-आउट’ किया था, कि “इस फिल्म के द्वारा वियतनामी जनता का घोर अपमान किया गया हैउन्हें हत्यारा, क्रूर और अमानवीय दिखाया गया है , जो कत्तई रूप से गलत है इस फिल्म के बचाव में आये कुछ विश्लेषकों ने यह तर्क दिया, कि ‘रशियन रौलेट’ के खेल को ‘अविधा’ में नहीं वरन व्यंजना’ में देखना चाहिए, और यह फिल्म इस युद्ध को ‘समग्रता’ में इस खेल की तरह ही खतरनाक मानती है इस तर्क को मान लेने में कोई बुराई नहीं है, बस उसमे यही एक पेंच फसता है, कि उस युद्ध में किसने ‘रशियन रौलेट’ नामक इस खतरनाक खेल को खेला था वियतनामियों ने, जैसा की फिल्म में प्रदर्शित किया गया है, या अमेरिकियों ने, जैसा कि उस युद्ध में वास्तविक रूप से हुआ था
                                                           (डियर हंटर फिल्म का एक दृश्य )
1986 की पुरस्कृत फिल्म ‘प्लाटून’ अलबत्ता वियतनाम में ही चलती है , लेकिन युद्ध  के दौरान उसमे अमेरिकी  सैन्य कमांडरों द्वारा  दिखाई जाने वाली नैतिकता  और मानवता को पचा पाना  कठिन हैफिल्म दिखाती है कि युद्ध के दौरान  अपने साथियों की मृत्यु पर बौखलाए अमेरिकी सैनिक  जब सामान्य नागरिकों का टार्चर और यौन उत्पीड़न करने लगते हैं, तब उनका कमांडर कैप्टन उन्हें  ऐसा करने से रोकता है और चेतावनी देता है, कि भविष्य में ऐसा करना बर्दाश्त नहीं किया जाएगा बाद में उस और उस  जैसी अन्य टुकड़ियों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है, और तब उसके साथी  सैनिक उस कमांडर का  खूब मजाक उड़ाते हैंफिल्म कुल मिला कर अमेरिकी  सैनिकों की कारस्तानियों  पर पर्दा डालने का काम करती है, जिसमे उनके ऊपर  युद्ध के नियमों की अवहेलना के कई संगीन  आरोप लगते रहे हैं 
 
                                                                (प्लाटून फिल्म का एक दृश्य ) 
अब प्रश्न यह उठता है, कि आखिर दुनिया वियतनाम युद्ध को किसलिए याद करती है ? जाहिर तौर पर ,वह अमेरिकी गुरुर के टूटने और बिखरने का युद्ध है, और दोनों में से कोई भी आस्कर विजेता फिल्म इस पर प्रकाश नहीं डालती “ऐसा क्यों है ..?” के जबाब में एक प्रसिद्द अमेरिकी फिल्म निर्देशक अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि “ यह अमेरिका की दुखती हुई रग है | न तो कोई इस विषय पर फिल्म बनाना चाहता है और न ही देखना जाहिर है कि इस स्थिति में पुरस्कृत होने की बात ही बेमानी है दरअसल अमेरिका जब भी अपनी चौखट से बाहर निकलता है, वह ‘वियतनाम युद्ध’ जैसे सवालो से ही अपने आपको घिरा हुआ पाता है मध्यपूर्व से लेकर अफ्रीका के तानाशाहों तक, इराक से अफगानिस्तान तक, हथियारों की बिक्री से हिरोशिमा के हाहाकार तक और धरती के गर्भ में सुरक्षित तेल भंडारों से अंतरिक्ष की ऊँचाईयों में तार-तार होती ओजोन परत तक, यह देश जहाँ भी देखता है, उसे वियतनाम ही दिखाई देता है यही दुखती रग उसे इन विषयों पर फिल्म बनाने से रोकती है वह अपनी खोल में सिमट जाता है और जब कभी कोई निर्माता-निर्देशक इससे बाहर निकलने का साहस दिखाता है, तो आस्कर की निर्णायक मंडली उसे कूड़ेदान में फेंक देती है ऐसी स्थिति में आस्कर पुरस्कारों की सूची से अमेरिका के इस बाह्य जीवन की अनुपस्थिति स्वाभाविक ही लगती है
                                             (हालीवुड की पहाड़ियों का एक नजारा)
वियतनाम युद्ध कुल मिला कर हालीवुड  मायोपिया की तरफ भी इशारा करता है, जिसमे उसका फिल्म उद्योग ऐसे सवालों के सामने अंधा दिखाई देने लगता है, जो दूरगामी  महत्व के हैं और जिनसे  किसी भी देश, समाज या उद्योग का भविष्य निर्धारित होता है इस विषय पर अमेरिका में  सैकड़ों फ़िल्में बनी हैं, लेकिन उनमे सच को बयान करने का साहस कुल मिला कर अनुपस्थित  दिखाई देता है, और जिन कुछ  फिल्मो में यह प्रयास किया भी गया है, उन्हें कोई देखना  नहीं चाहता इसने हालीवुड  सिने-उद्योग के लिए भविष्य का रास्ता भी निर्धारित कर दिया है, और जिसका उसने इराक और अफगानिस्तान युद्ध पर ज्वलंत सवालों से कन्नी काटते  हुए सफलतापूर्वक अनुसरण भी किया हैजाहिर है कि ऐसा करते हुए, कोई भी देश, समाज या उद्योग अपने अंधकारमय भविष्य की पटकथा ही लिख सकता है बहरहाल यहाँ हालीवुड में वियतनाम  युद्ध’ पर बनी कुछ चुनिन्दा फिल्मों को देख लेना ठीक  ही होगा ये हैं फुल मेटल जैकेट’, ‘अपोकेलिप्स नाऊ’, बोर्न आन द फोर्थ जुलाई’, गुड मार्निंग वियतनाम’, वी आर सोल्जर्स, ट्रापिक थंडर,  टाइगर लैंड हेयर, ‘आई आफ द ईगल’,  द ग्रीन बेरेट्स’, ‘कमिंग  होम’, ‘द फाग आफ वार’ और रेस्क्यू डान’ जाहिर है कि हालीवुड की बनी ये फिल्मे वह सब तो नहीं ही बता पाएंगी, जो वहाँ हुआ था, लेकिन फिर  भी इनके सहारे आपको उस युद्ध  का कुछ बेहतर अंदाजा जरुर लग सकता है चुकि वियतनाम  का फिल्म उद्योग इतना विकसित नहीं रहा, और उस युद्ध के दौरान  उसके लिए यह संभव भी नहीं था, इसलिए इस विषय पर वहाँ से बनने वाली फिल्मों का खासा अभाव दिखाई पड़ता हैजो फिल्मे वियतनाम में उस दौरान बनीं भी, वे दक्षिणी वियतनाम  में ही बनी और जिनमे कुल  मिलाकर वही एकांगीपन दिखाई  देता है अलबत्ता वहाँ पर बाद में बनी डाक्यूमेंट्री फिल्मों’ में इसकी थोड़ी व्यस्थित झलक  देखी जा सकती है, फिर भी इस विषय पर अभी बहुत काम किया जाना शेष है
 (रामजी तिवारी ने अभी हाल ही में लेखन  आरम्भ किया है। इन्होने कविताओं और कहानियों के अलावा कुछ यात्रा वृत्तांत भी लिखे हैं जो पर्याप्त चर्चा में रहे हैं। यह आलेख रामजी तिवारी की बहुमुखी प्रतिभा का उदाहरण है जिसमें रामजी तिवारी ने फिल्मों की अपनी गहरी समझ का परिचय दिया है।)
 
संपर्क-
जीवन बीमा निगम
मुख्य शाखा बलिया
बलिया, उत्तर प्रदेश
277201

मोबाईल: 09450546312
ई-मेल:
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रामजी तिवारी

रामजी तिवारी ने १९९७ में कुछ गीत लिखे थे. यह एक तरह से इनके रचनात्मक जीवन की शुरुआत थी. लेकिन बलिया जैसी जगह पर साहित्यिक माहौल न मिलने की वजह से लेखन का यह सफर थम सा गया. एक लंबे अंतराल के पश्चात २००९ से रामजी भाई ने लेखन की फिर से शुरुआत की. इस क्रम में इनकी कवितायेँ, कहानियां, लेख, यात्रा वृतांत और समीक्षाएँ पाखी, समयांतर, परिकथा, अनहद जैसी पत्रिकाओं में और समालोचन, असुविधा, अपनी माटी, जनपक्ष, और पहली बार जैसे ब्लागों पर प्रकाशित हो चुकीं हैं. ये गीत प्रकारांतर से एक लेखक के जीवन की प्रारंभिक रचनाधर्मिता को समझने में सहायक साबित हो सकते हैं.        .  

आज मुझे मालूम हुआ

जीवन इतना सरल नहीं है
जीने पर मालूम हुआ
सुधा नहीं है गरल है ये तो
पीने पर मालूम हुआ

मंद मुस्कुराते अधरों की
कशिश है होती कितनी लम्बी
उन अधरों से पीने पर ही
राज मुझे मालूम हुआ

शाम है जिनके दम पर ढलती
उन नयनों की भाषा को
अपने दिल की भाषा से ही
पढ़ने पर मालूम हुआ

दिल तो है बस एक खिलौना
नाजुक बिलकुल सीसों जैसा
इस समाज के इन हाथों में
पड़ने पर मालूम हुआ

ऐसा नहीं कि दिल की भाषा
नहीं समझता कोई भी
हाँ ! थोड़ी मुश्किल जरुर यह
पढ़ने पर मालूम हुआ

पहले मैं था सोचा करता
जी ही लूँगा उनके बाद
कितना बड़ा मिथक था वो भी
आज मुझे मालूम हुआ

हार मान कर मत चुप बैठो
चाहें काल खड़ा हो आगे
प्यार तो यमराजों से जीता
लड़ने पर मालूम हुआ

कहना तो था बहुत चाहता
बहुत अनकही बातों को
धरा रह गया लेकिन सब कुछ
कहने पर मालूम हुआ

सब बना है उनकी छाया से

अम्बर क्या है किसे पता
यह चांदनी कहाँ से आयी है,
है कौन जानता इस पल की
यह खुशबू कहाँ से आयी है ?

है किसे भान इन किरणों का
जो हर लेती हैं तम को भी,
है नहीं जानता कोई भी
यह घटा कहाँ से आयी है ?

क्यों मुस्काती हैं ये कलियाँ
खिलते हैं गुल क्यों गुलशन में,
बेखबर है दुनिया इससे भी
ऐसी किसकी तरुणाई है ?

ऊपर में खड़ा हिमालय क्यों
नीचे क्यों लहराता सागर ,
यह पछिया पवन क्यों चलती है
क्यों चलती यह पुरवाई है ?

क्यों रात है इतनी स्याही सी
यह दिन इतना चमकीला क्यों ,
क्यों एक सिरे पर यह पर्वत
दूजे पर क्यों यह खाई है ?

इतने उलझाऊ प्रश्नों का
है उत्तर बिलकुल सीधा सा ,
दिल थाम के बैठो ऐ यारों
गुत्थी मैंने सुलझाई है

जिसको दुनिया कहती अम्बर
यह उनका चौड़ा माथा है
बैठी उस पर नन्ही बिंदिया
जो चांदनी बन कर छाई है

यह खुशबू है उनकी आहट
ये किरणें उनकी आभा हैं ,
यह काली घटा जो उठी है
उन जुल्फों की परछाई है

उन अधरों के खुल जाने से
ये गुल खिलते है गुलशन में ,
कि जान लो तुम भी ऐ यारों
ऐसी उनकी तरुणाई है

ऊपर में खड़ा हिमालय यह
उनकी रखवाली की खातिर ,
जो सागर नीचे लहराता
यह उनकी चरण धुलाई है

जो बन कर पछिया बहती है
यह तपिस है उनकी ज्वाला की ,
उनके मद से जो मदमाती
यह इसीलिए पुरवाई है

उनकी आँखों से स्याह चुरा
यह रात बनी है स्याही सी ,
जो दिन इतना चमकीला यह
आभा उनकी लहराई है

दिखने वाली ये सब चीजें
बौनी हैं आगे उस मन के
जलती है प्यार की लौ जिसमे
दुनिया को राह दिखाई है

कहता हूँ इसीलिए यारों
सब बना है उनकी छाया से ,
यह निराकार की कृपा रही
मुझसे जो प्रीति लगाई है

जीवन तो चलता रहता है

बदला भी है बदलेगा ही
जीवन तो चलता रहता है ,
ये ऐसा है वो वैसा है
जगत तो ये कहता रहता है

कितनी बात सुनें हम आखिर
कोई तो उसकी सीमा हो
कुचले जाने से बच पायें
ऐसी कोई गति सीमा हो ,

जहाँ पे जा कर कोई हमसे
कहे पार्थ अब बहुत हो चुका
नींद हमारी टूट गयी है
क्षमा करो मैं बहुत सो चुका ,

पर यह निद्रा कहाँ है टूटी
जो अब जाकर टूटेगी
टूटने को तो दिल रखा है
सदियों से टूटा करता है

ये ऐसा है ……………..
वो वैसा है …………….

आँख खुली जब होश संभाला
जंजीरों में जकड़ा पाया
बहुत तोड़ना उनको चाहा
लेकिन उनको तोड़ ना पाया

मिला नसीहत हमको करती
ये मत करना वो मत करना
नहीं बताता यहाँ पे कोई
लेकिन मुझको क्या है करना

इतने बंधन बचपन में ही
बन्धु किस पर थोप रहे हो
आखिर तुमको कौन बताये
बचपन तो चंचल रहता है

ये ऐसा है ………………..
वो वैसा है ……………….

बड़ा हुआ जब दुनिया देखी
सारा मंजर चलता पाया
धीरे से यह दिल भी बोला
हमको भी चलना है भाया

अजी , छूट दी हमने इसको
जहाँ है जाना तुम भी जाओ
चलना प्यारे नियति जगत की
तुम भी भाई चलते जाओ

अभी तो चलना शुरू किया था
किसी ने ठोकर जोर से मारी
खुली आंख से दिन में प्यारे
सपना क्यों देखा करता है

ये ऐसा है …………………
वो वैसा है ……………….

हमने भी प्रतिवाद किया
तुम किसको ठोकर मार रहे हो
चाँद को कोई बाँध सका है
जो तुम हमको बाँध रहे हो

धरा भी अपनी गति से चलती
इतना बोझ जिसे ढोना है
दिल पर तो है बोझ नहीं
फिर व्यर्थ तुम्हारा यह रोना है

आज जो ठोकर तेरी है
कल तेरे ऊपर बरसेगी
अभी वक्त है संभल जा प्यारे
समय भला किसका रहता है

बदला भी है बदलेगा ही
जीवन तो चलता रहता है
ये ऐसा है वो वैसा है
जगत तो ये कहता रहता है

मो.न. – 09450546312

रामजी तिवारी

बुखार

हरीश बाबू की पहचान धुनों के पक्के आदमी की थी । अपने मित्रों के बीच वे इसी नाम से जानें जाते। हाँलाकि हरीश बाबू इन विशेषणों को बहुत महत्व नहीं देते और बड़ी सादगी से कहते – ‘‘ईश्वर ने हमें आदमी बनाया है और हमें वही रहना है न उससे अधिक और न उससे कम।’’ लेकिन देखने वाली बात यह थी कि जिस प्रकार हरीश बाबू अपने मित्रों द्वारा नवाजे गये विशेषणों पर ध्यान नहीं देते , उसी प्रकार उनके मित्र भी बगैर उनकी परवाह किये उनके नाम के आगे और पीछे अपने दिमाग द्वारा गढ़े गये विशेषणों को चिपका ही देते।

रेल की नौकरी में रहते हुए उनकी एक धुन बहुत प्रसिद्ध हुयी भी। ‘‘शराफत और ईमानदारी की धुन’’। मजाल क्या कि इसकी कभी कोई लय, कोई ताल या कोई मात्रा उनसे छूटी हो। इन्हें बजाने का जब भी अवसर आता, वे पूरी तन्यमता से निभाते। परन्तु आस्तीने तो मित्रों के भीतर भी होती है, किसी ने ऊँचा आसन दिया तो किसी ने उसी के नीचे आग सुलगा दी। ऐसी ही एक आग उन्हें बेहद सालती थी।

‘‘यह समय शरीफ और ईमानदार लोगों का समय नहीं है।’’

हरीश बाबू को लगता ‘‘किसी ने उनकी आत्मा के ऊपर अँगार रख दिया हो।’’ उन्होंने इसका जवाब देने के लिए चन्द लाइनें सोंची।

‘‘समय के सम्पूर्ण इतिहास में

वर्तमान ने किस समय को

इनका समय माना

परन्तु इतिहास ने किस समय को

इनका समय नही माना।’’

इन पंक्तियों को कभी उन्होंने सामने वाले से नही कहा, वरन अपनी आत्मा पर रखे अँगारे को शीतल करने के लिए ही इसका उपयोग किया। लेकिन यह शीतलता दो-चार दिन ही रह पाती कि कोई न कोई ऐसा मुहावरा हवा में तैरता हुआ उनकी तरफ बढ़ता ‘‘जब धुनें ही पक्की नहीं रहीं तब उन्हें माला बनाकर पहनने से क्या फायदा ?’’

हरीश बाबू दुखी हो जाते। मन ही मन कहते –

‘‘मैने कब कहा कि आप सब भी हमारी ही धुन में गायें और बजायें।’’

और फिर मित्र लोग निष्कर्ष निकालते- ‘‘यही धुन एक दिन हरीश बाबू का बाजा बजा देगी।’’

सेवानिवृत्ति के बाद हरीश बाबू की एक दूसरी धुन खुलकर सामने आयी। ‘‘सुबह की सैर।’’ मोहल्ले का प्रत्येक व्यक्ति इससे वाकिफ था। अपनी कालोनी से प्रातः छः बजे निकलना, वीर चौराहे से दाहिने मुड़कर डी.ए.वी. कालेज के मैदान में पहुँचना और उसका दस चक्कर लगाना। घड़ी देखकर 40 मिनट लगते। बीच में साथी लोग आते और जुड़ते रहते। समापन कुछ साधारण व्यायाम के साथ होता, जिसके अन्त में यह दोहराया जाता कि ‘कल फिर मिलेंगे।’ हरीश बाबू को लगता कि इस दुहराव के कारण ही साथियों के नामों की सूची पिछले 3 सालों से वही है। ‘हरीश बाबू, मिश्रा जी, डा. अंसारी, प्रसाद जी और रमन जी’। सभी लोग अपने जीवन की डोर के आखिरी छोर की ओर बढ़ते हुए। कमोवेश एक ही जैसी स्थितियों में जीने वाले।

अंसारी जी थे तो डाक्टर, लेकिन उनकी असली पहचान उस दल में नागा करने वाले एक ऐसे सदस्य की थी, जो अपनी अनुपस्थिति को भी हास-परिहास में बदल देता। एक दिन उन्होंने कहा था- ‘‘आप लोगों को क्या लगता है कि ‘सुबह की सैर’ यमराज को भ्रम में डाल देगी कि यह आदमी 40 साल का है, जिसे गलती से मैंने अपनी बही में 70 साल का लिख लिया है।’ और जोर के ठहाके ने सबके फेंफडों में थोड़ी और आक्सीजन भरने लायक जगह बना दी थी।

वापसी के वक्त हरीश बाबू चाहते कि कोई उनसे सवाल करे, कुछ पूछे। लेकिन यदि कोई कुछ नहीं पूछता तो वे अपने ही पूछ बैठते, वो भी अधिकतर डा. अन्सारी से ही।

डा. साहब मजाक करते – ‘‘मैंने कितनी मेहनत से डाक्टरी की पढ़ाई की है
उस जमाने में भी मुझ पर मेरे पिता ने कितना सारा पैसा खर्च किया था और आप सब कुछ मुफ्त में ही जान लेना चाहते हैं ?’’

एक दिन हरीश बाबू ने डा. अंसारी से पूछा कि ‘‘बुखार क्यों होता है ?’’

डा. साहब ने पहले तो आदतन मजाक किया –

‘लोगों को बुखार इसलिए होता है कि डाक्टरों को थोड़ी गर्माहट मिले।’

फिर गम्भीरता से बोले- ‘‘बुखार कोई बीमारी नही वरन बीमारी का लक्षण हैं। शरीर द्वारा भेजा गया संकेत, कि आप किसी प्रकार के संक्रमण के शिकार हो चुके हैं।’’

‘‘और यदि बुखार न हो तो ?’’ हरीश बाबू ने पूछा।

‘‘तो क्या, आप भीतर ही भीतर सड़ जायेंगे और आपको पता भी नहीं चल पाएगा।’’ डा. अंसारी ने उत्तर दिया।

प्रतिदिन यही क्रम चलता। कोई नई गुत्थी सुलझाई जाती। जिसका नम्बर होता, उसके विषय की। लेकिन गुत्थी एक तरफ और नियम एक तरफ। नियम, प्रतिदिन आने का
उसे जो कोई तोड़ता, हरीश बाबू जरूर टोकते –

‘‘यदि साँस लेना, पानी पीना और भोजन करना नियम से हो सकता है, तो टहलना क्यों नहीं? आखिर यह भी तो जीवन से जुड़ा हुआ है।’’

सब लोग चुपचाप सुन लेते क्योंकि उनकी इस नसीहत का नैतिक आधार होता था। बरसात में भी वे जरूर निकलते। मैदान में पानी होता तो सड़क के किनारे-किनारे ही टहल लिया। सदी की सबसे भयंकर शीतलहरी भी उनका क्रम नहीं तोड़ पाई थी। पिछली बार हरीश बाबू ने कब नागा किया सबको याद था। वही दो साल पहले वाले दिन, जब शहर में दंगा हुआ था। डा. अंसारी ने इसमें भी अपने लिए जगह तलाश ली थी।

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि यह दंगा आपकी सैर को रोकने की साजिश के तहत ही कराया गया था?’’

फिर तो यह जुमला ही चल निकला ‘‘हरीश बाबू, नागा भी कीजिए, नहीं तो दंगा हो जाएगा।’’

मिश्रा जी ने एक बार उनसे कहा था, ‘‘कभी तीर्थाटन पर भी निकलिए हरीश बाबू।’’

वे उसका जवाब नहीं देना चाहते थे और हर बार बचकर निकल जाते, लेकिन कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनसे आपको टकराना ही पड़ता है।

‘‘आप जिसे तीर्थाटन कहते हैं, मैं उसे धोखा कहता हूँ। समाज को दिया हुआ धोखा, अपने आपको दिया हुआ धोखा और कड़वा न लगे तो कहूँ कि ईश्वर को दिया हुआ धोखा, और मैं किसी को धोखा देना नहीं चाहता।’’

हरीश बाबू को इन व्यक्तिगत सवालों से परहेज था। न खुद किसी से पूछते और न ही चाहते कि कोई उनसे पूछे। लेकिन कुछ मित्र मित्रता को इस तरह भी निभाते हैं कि जख्म को सूखता हुआ देखा नहीं और पपड़ी उधेड़ दी – ‘ओह ………… ह, आपको तो जख्म हुआ है?’’

ऐसे ही एक जख्म को प्रसाद जी ने कुरेदा – ‘‘आपका बेटा तो मुम्बई मे रहता है, कुछ दिनों के लिए घूम आते। भाभी जी का मन भी लग जाता, बेचारी अकेली घर में घुंटती रहती होगी
” हरीश बाबू का चेहरा उतर गया था। उनका बस चलता तो वायुमण्डल में तैरने के लिए निकले इन शब्दों को, उनकी समस्त ध्वनियेां समेत प्रसाद बाबू के मुँह में वापस ठूस देते। उन्होंने अपने आपको सम्भाला और बोले –

‘‘घुटन एक को तो होना ही है। अलग रहकर हम झेलें या साथ रहकर वे। पिछले साल श्रीमती जी मुम्बई गयीं थीं, अब तो नाम भी नहीं लेंती।’’

जख्मों को उधेड़कर देखने की ईच्छा तो रमन जी की भी होती लेकिन उनके अपने जीवन के हरे जख्म इसकी ईजाजत ही नही देते थे।

इन दिनों हरीश बाबू के व्यवहार में एक परिवर्तन महसूस किया जा रहा था
वे कुछ खोये-खोये से रहने लगे थे। पिछले महीने मिश्रा जी दो दिन नहीं आये फिर भी हरीश बाबू ने कुछ नहीं पूछा। बस ‘हाँ-हूँ’ में बात करते और चले जाते। परन्तु इस सप्ताह तो गजब ही हो गया
एक दिन हरीश बाबू ‘सुबह की सैर’ पर नहीं आये। यह उस दल में सबके लिए एक बड़ी खबर थी। तय हुआ कि उनके घर चला जाय।

‘आज नहीं।’ सबने अपने आपको टटोला।

‘कल तक देख लिया जाय, फिर तय किया जायेगा।’

वह कल आज पाँचवे दिन पर चला आया था।

‘अब तय ना किया जाए , बस आज चला ही जाए।’’ मिश्रा जी ने जोर देकर कहा।

उन सभी की हालत एक नाटक के उस पात्र जैसी थी, जो अपने आपको अपने ही द्वारा बनाई गयी समय की खूँटियों पर टंगा हुआ पाता है। जिस खूँटी का समय हुआ, उठा कर टाँग दिया। वह प्रतिदिन प्रयास करता है कि एक खूँटी उसमें से कम कर दे, लेकिन बजाए हटने के एक और उग आती है। वह छटपटाता रहता है।

सभी लोग हरीश बाबू के घर पहुँचे। यही कोई सुबह के 7 बजे होंगे। रमन जी ने दरवाजा खटखटाया। “आती हूँ
” भीतर से आवाज आयी, जो उनकी पत्नी की थी। उनके साथ एक और आदमी बाहर आया। ये हरीश बाबू के साले थे। उन सबने पहले भी उन्हें यहाँ देखा था। डा. अंसारी ने चुप्पी तोड़ी- ‘‘हरीश बाबू कहाँ है ? आज पाँच दिन हो गये, ‘ सुबह की सैर’ पर नहीं आये।

इतना पूछते ही उनकी पत्नी के आँखों में आँसू आ गए ।

“क्या हुआ ?” लगभग एक साथ ही सभी के मुँह से आश्चर्य फूटा

उन्होंने अपने आपको सम्भालते हुए सबको बाहर रखी चौकी पर बैठने के लिए कहा और बोली –

‘‘समझ में नहीं आ रहा है कि इनको क्या हुआ है ? कुछ बताते ही नहीं, सिवाय एक रट के कि मुझे बुखार हो गया है।’’

‘‘तो किसी डाक्टर को दिखाया गया ?’’ प्रसाद जी ने पूछा।

“हाँ गये थे हम लोग। डा. शर्मा के पास” …. उनके साले ने कहा।

‘उनका कहना है कि इन्हें कोई गहरा सदमा लगा है, आप लोग किसी मनोचिकित्सक को दिखाएँ’’।

‘‘जाँच करायी गयी या नहीं ?’’ डा. अंसारी ने पूछा।

‘‘करायी गयी थी। सभी जाँच सामान्य है।’’ हरीश बाबू के साले ने कहा

“लेकिन ऐसा अचानक कैसे हो गया?’’ रमन जी उसका कारण जानना चाहते थे।

उनकी पत्नी ने अपने आँसूओं को पोछते हुये उन परिवर्तनों को याद किया। बोली –

‘‘इधर एक माह से ये चुप रहने लगे थे। पिछले हफ्ते आज ही के दिन सैर करके वापस आये और चुपचाप अपने कमरे में चले गये। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। सैर से आने के बाद उनका यह नियम था कि एक गिलास पानी पी कर इन फूलों में घण्टे भर लगे रहते थे।’’ उन्होंने अपने लान को दिखाते हुए कहा। ‘‘परन्तु उस दिन बोले कि मुझे बुखार हो गया है। मैने देखा तो उनका शरीर थोड़ा गरम जरूर था, लेकिन उतना अधिक भी नहीं
फिर मुझसे पूछने लगे कि क्या तुम्हें भी बुखार है? मैने कहा – नहीं, मैं तो ठीक हूँ। फिर उस दिन चुपचाप पड़े रहे। न दोपहर में आराम किया और न ही कोई किताब देखी। शाम को बोले कि अब मैं घर से बाहर नहीं जाउँगा,…
‘सुबह की सैर’ पर भी नहीं। हत्यारे सभी चौराहों पर रास्ता रोके खड़े हैं। मैं आश्चर्य में पड़ गयी। यह तो अनहोनी जैसी लग रही थी। गाँव फोन किया, मेरा भाई आया। उससे भी वही सवाल। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता कि इनको क्या हो गया है?” इतना कहकर वे फिर रोने लगीं।

रमन जी ने उनके भाई से पूछा – ‘‘ तो फिर इन्हें किसी मनोचिकित्सक के यहाँ दिखाया गया ?’’

‘‘जी ………..आज ही नम्बर लगा कर आ रहा हूँ। शाम को दिखाने जाना है।’’ उन्होंने उत्तर दिया।

इतने में भीतर से हरीश बाबू की आवाज आयी – ‘‘कौन है?’’

उनकी पत्नी इससे पहले कि भीतर जाती वे खुद ही बाहर आ गये। उनके चेहरे का रंग बिलकुल उड़ गया था और हफ्ते दिन पुरानी दाढ़ी तो जैसे उन्हें गम्भीर रोगी साबित कर देने पर ही आमादा थी। उन्हें देखकर सभी मित्रों के मन में एक हूक उठी थी
जो आदमी सुबह 4 बजे उठने का अभ्यस्त रहा हो, वह 7 बजे तक सोता हुआ मिले तो देरी उसके चेहरे पर चिपकी रह जाती है। सबने डा. अंसारी की ओर देखा, काश !….. कोई ऐसा जुमला फेंकते कि पूरा माहौल खुशनुमा हो जाता। डा. साहब ने उन्हें निराश भी नहीं किया। बोले –

‘‘कैसे हैं हरीश बाबू ? अगर आप एक हफ्ते और नहीं आये तो यमराज हम सबकी उम्र 70 के बजाय 80 साल लिख लेगा।’’

उन्हें लगा कि माहौल कुछ हल्का हुआ, लेकिन हरीश बाबू के सवाल के साथ ही यह तय हो गया कि यह उनका भ्रम था। ‘‘आप लोगों को बुखार हुआ है क्या?’’

और फिर खामोशी पसर गयी , जिसे प्रसाद जी ने तोड़ा।

‘‘आखिर आपके दिमाग में यह बात कहाँ से बैठ गयी है, जो आप सबसे बुखार के बारे में पूछते रहते हैं?’’

हरीश बाबू की गम्भीरता और घनी हो गयी। बोले-

‘‘आप सभी ने इस शहर के चौराहों को तो देखा होगा। क्या कुछ अजीब नहीं लगता वहाँ पर?’’

‘‘नहीं सब तो वैसा ही है।’’ डा. अन्सारी ने कहा।

‘‘वैसा कैसे है?’’ हरीश बाबू चिल्ला पड़े। ‘‘शहर के सभी हत्यारे उन पर रास्ता रोके खड़े हैं और आप कहते हैं कि सब तो वैसा ही है।’’

‘‘हत्यारे?’’ रमन जी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

‘‘हाँ हत्यारे। आप नहीं जानते उन्हें।’’ वे कांपने लगे थे।

उनके साले ने हस्तक्षेप किया, ‘‘जीजा जी दरअसल उन चौराहों पर लगी तस्वीरों की बात कर रहे हैं, जो आगामी चुनावों में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की है।’’

‘‘हाँ-हाँ, मैं उन्ही की बात कर रहा हूँ। तुम्हें वे तस्वीरें नजर आ रही है और मैं उनका असली चेहरा देख रहा हूँ
क्या हमारा समाज यहाँ तक चला आया कि ये सभी हत्यारे चौराहों पर खड़े हो जायें ? बोलिए डा. अंसारी।’’ हरीश बाबू पूरी रौ में थे। ‘‘क्या यह हमारे समाज के भीतर लगा संक्रमण नहीं है? और अगर है तो फिर हम सबको बुखार क्यों नहीं ? हमें इस बीमारी का इलाज नहीं कराना चाहिए?’’

किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहा जाए ?

हरीश बाबू बुदबुदाते हुये उठे- ‘‘ ये सब मुझे पागल समझते हैं । कुछ नहीं हो सकता इनका। सब सड़कर मर जायेंगे। इतना बड़ा संक्रमण और किसी को बुखार नहीं ?’’

वे अन्दर चले गये। चारो लोगो ने उनकी पत्नी से विदा ली। सबकी राय थी कि हरीश बाबू अपना मानसिक सन्तुलन खो चुके हैं। सबने अपने दिमाग को झटका दिया। कोई भी बात यदि चिपकी रह गई हो तो यहीं गिर जाए। वे सब चल पड़े , समय की उन खूँटियों की तरफ, जो उन्हें टाँग देने के लिए लगातार अपनी तरफ खींचती जा रही थी।

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रामजी तिवारी

रामजी तिवारी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के तिवारी  छपरा गाँव में
 २ मई १९७१ को एक सामान्य किसान परिवार में हुआ. बलिया के ही सतीश  चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय से रामजी  ने राजनीतिशास्त्र में परास्नातक  किया. आजकल भारतीय जीवन बीमा निगम की बलिया शाखा में कार्यरत हैं. 
कुछ कवितायेँ ‘पाखी’, ‘परिकथा’, ‘कृति ओर’ और समकालीन सोच में छपी है.
कहीं भी प्रकाशित  होने वाली यह इनकी  पहली कहानी है.


संपर्क-  भारतीय जीवन बीमा निगम, बलिया, उत्तर प्रदेश.


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ई-मेल: ramji.tiwari71@gmail.com

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कहानी

पीठा

जेठ में सिर्फ दो दिन बचे हैं और इन्हीं में से किसी एक दिन पीठा चढ़ाना है। कल या परसो। सुंदरी देवी परेशान हैं। सोचती हैं, अपने पति की बात को पहले ही ठुकरा दिया होता तो अच्छा होता। लेकिन वो उनके झाँसे में आ गई। यह बात तो वैसाख महीने में ही उनके कान में आ गई थी कि अपने पूत-भतार के लिए जेठ महीने में सवा किलो के हिसाब से गंगा मैया को पीठा चढ़ाना है। उन्होंने अपने गाँव की औरतों की तरह तुरन्त हिसाब भी लगा लिया था। ‘सवा किलो मलिकार खातिर, सवा किलो बड़कू खातिर अऊर सवा किलो छोटकू खातिर। माने कुल मिलाके पौने चार किलो।’ और अच्छी बात यह थी कि इसे जोखने भी कहीं नहीं जाना था। उनके पास पत्थर का वह टुकड़ा तो था ही जिसे गाँव भर किलो मानता था।

लेकिन वो गच्चा खा गई और वो भी अपने पति रमेसर पांड़े से । उन्हें तो वे पिछले 40 साल से जानती थीं। पुलिस की नौकरी में रहते हुए शक करने की पड़ी आदत रिटायर होने के बाद भी नहीं छूटी थी। जब पीठा वाली बात उठी तो रमेसर पांड़े ने कहा था ‘ऐसे ही किसी ने उड़ाया है। तुम अभी धीरज रखो और इंतजार करो कि गाँव-जवार क्या करता है।’ तब सुंदरी देवी उनकी बात मान गई थीं, लेकिन गाँव जवार क्यों माने ? पूछने पर तो सभी कहतीं ‘‘देखतानी का होत बा’’ और अगले दिन जाकर पीठा चढ़ा आती। उन्होंने उंगली पर गिना ‘‘खाली दू परिवार पीठा ना चढवले हउवन, एगो हमार और दूसरे बालू पांड़े के परिवार। लेकिन ऊ घर से का मुकाबिला ? सबेरे के खर्ची बा त राती के नाहीं।’’ उन्होंने तय किया कि कल वे किसी तरह पीठा चढ़ाने जरूर जाएंगी।

यह बात उनके पति रमेसर पांड़े तक पहुंची। पुलिस के आदमी जो ठहरे, भेद लेने में माहिर, जो मिला उनके छोटे बेटे से ‘‘माई काल्ह पीठा चढ़ावे जाई।’ रमेसर पांड़े ने पैंतरा बदला ‘यह सब ढकोसला है। पिछले साल कार्तिक महीने में छेना चढ़ाने वाली बात उड़ाई गई थी। सभी ने गंगा घाटों को छेना से भर दिया था। बाद में पता चला कि अहीरों ने अपने दूध की कीमत बढ़ाने के लिए उसे उड़ाया था। मुझे लगता है कि अब मल्लाहों ने आटा कमाने के लिए इसे उड़ाया है।’’ लेकिन ये सभी तर्क सुंदरी देवी के सामने अब काम नहीं आने वाले थे। उनका फैसला हो चुका था ‘काल्ह जायके बात त जायके बा।’

सुन्दरी देवी बेहद धार्मिक महिला थीं। पूजा-पाठ, दान-उपनेत बहुत नियम से करतीं, फिर भी उन्हें लगता कि भगवान उनके साथ न्याय नहीं कर रहा है। पति चौरंगी होकर बैठे हैं, पैर धनुष जैसा टेढ़ा हो गया है, दिशा-मैदान भी अपने दम पर संभव नहीं। उनका मन कहता है ‘बाई ह’ डाक्टर कहता है ‘साईटिका है’ लेकिन गाँव वाले दूसरी ही कहानी गढ़ते हैं। उनके अनुसार यह भगवान द्वारा दिया गया शाप है क्योंकि पुलिस की नौकरी में रहते हुए रमेसर पांड़े ने चोर-डाकुओं के पैरों को चढ़कर बहुत तोड़ा था और वे अब उसी का पाप भुगत रहें हैं। यह बात गाँव में इतनी फैल गई है कि सुंदरी देवी का मन भी उसे कहीं न कहीं मानने लगा है।

और यही क्यों ? बड़कू के नौकरी नहीं मिलने को भी वो इसी तरह देखती हैं। रमेसर पांड़े कहते हैं कि सरकार ने सभी नौकरियां छोटी जाति के लोगों के लिए ही बना रखी है, इसलिए बड़कू को बीए पास करने के बाद भी यह नहीं मिल रही। उनका मन कहता है कि ‘‘मलिकार के गलत पैसा कमइला के पाप उनका बड़कू पर लागल बा।’’ कितनी भी बचती है, गाँव की खुसुर-फुसुर उनके कानों में पहुँच ही जाती है। हार-पाछकर बड़कू सूरत चले जाते हैं। वहाँ काम मिलता है साड़ी की छपाई का। सुंदरी देवी का मन छटपटाता रहता है ‘‘कउनो तरह उनकर खबर मिलित।’’ कोई भी फेरीवाला उनके गाँव में साड़ी बेचने आता है तो उन्हें लगता है कि उनके बेटे ने ही उन सभी साडि़यों की छपाई की है। सभी छापों में वो अपने बेटे के ऊंगलियों के निशान ढूंढ़ती रहती है।

भगवान चाहे उनके पति द्वारा किए गए जिन कुकर्मों का फल दे रहा हो, उन्हें लगता है कि उन्होंने तो पुण्य ही किया है। भगवान की ऐसी कोई कथा नहीं जो उनके गाँव में हुई हो और उन्होंने उसे नहीं सुनी हो। पागल बाबा हो या सनकी दास, पहडि़या बाबा हो या मौनी महाराज, जिस किसी ने भी इनके गाँव जवार मे यज्ञ कराया है, सुन्दरी देवी ने अपनी शक्ति के अनुसार दान दिया है। पिछले महीने गंगा पांडे़ को बाछी दी जा रही थी तब उन्होंने सवा किलो आटा और आलू दान किया था। महीने के सभी त्यौहारों- एकादशी, प्रदोष, शिराती और पूरनवासी-को पंडित जी को कुछ न कुछ अवश्य दान करती हैं। कोई भी भिखमंगा उनके दरवाजे से खाली हाथ वापस नहीं लौटता है। जब भी हिसाब लगाती है, अपने पति रमेसर पाड़े के पापों पर उनके पुण्य का पलड़ा बीस ही बैठता है। फिर भी भगवान नाराज है। पागल बाबा से उन्होंने यह बात पूछी थी। उन्होंने उनकी शंका दूर की या कहें तो बढ़ा दी- ‘‘बच्चा तुम अपने पति के किए सभी पापों को तो जानती नहीं, फिर कैसे हिसाब होगा।’’ सुदरी देवी तराजू के अपने पलड़े पर अधिक से अधिक पुण्य रख देना चाहती है कि वह उनकी तरफ झुक जाए।

‘‘जेठ में दू दिन बाचल बा। काल्ह अउर परसो। अब 5 किलो पीठा भी एक दिन मिल जाई त दू दिन में 10 किलो होई। आ दस किलो माने भात मिलाके खइला पर 10-12 दिन खर्ची चलि जाई।’’

सुनरी मलाहिन हिसाब लगाती है तो किसी भी तरह उसका बुखार से तपता बदन दस किलो पीठे के सामने उन्नीस ही बैठता है। पूरे जेठ महीने में उसने 50 किलो से अधिक ही पीठा कमाया है और वह भी तब, जबकि घर और उसकी अपनी स्वास्थ्य की परिस्थितियाँ इतनी विपरीत है। पति को खाँसी की बीमारी है। पहले मुंबई में काम करते थे, अब घर आ गए हैं। उठते-बैठते, सोते-जागते हर समय खाँसते रहना। उनके कफ की गंध से यह मिट्टी का घर हमेशा भरा रहता है। वो सोचती है ‘‘गाँव के लोग ठीक कहेला कि मुंबई में अइसन कीड़ा रहेला, जेकरा काटला से छाती में कफ भर जाला।’’ छोटा बेठा अपाहिज है, बस किसी तरह चल-फिर लेता है। बेटी बड़ी हो गई है। एक तो खुद जाना नहीं चाहती और दूसरे सुनरी उसे ले भी नहीं जाती। बड़े बेटे को उसने पेट काटकर पढ़ाया था। गाँव में हल्ला था ‘‘सरकार छोट जाति के लोगन के नौकरी देति ह। लेकिन सब झूठे कहत रहले। ओकरा गाँव में त केहू के ना मिलल।’’ हार-पाछकर वह भी पिछले साल मुम्बई चला गया है। हालांकि वह उसे भेजना नहीं चाहती थी। उसे डर था कि ‘उहे कीड़ा काटि ली।’’ जब लड़के ने समझाया तब तैयार हुई। ‘‘माई हमका दूसरा देश जायेके ह, ओ देश के रास्ता मुंबई से ही जाला। अऊर तू डर मत, अब कीड़ा काटला के दवाई आ गइल बा।’ सुनरी को लगता है कि उसकी भी किस्मत विदेश गए लड़कों के परिवारों जैसी बदल सकती है। इसी आशा में उसने बगल वाले गाँव से सूद पर पैसा लिया है। लड़के ने कहाव भेजा था, पासपोरट बनाने के लिए। तीस हजार रूपए। छह महीने हो गए उसने अभी हिसाब नहीं किया, जो दरअसल उनसे करना भी नहीं है। उसे तो केवल उस हिसाब को भरना है।

उसकी अपनी तबियत ठीक नहीं रहती। रात को सोती है तो लगता है अब जीवन में नहीं उठ पाएगी लेकिन सुबह होते ही जिम्मेदारियां उसे ठोक-पीट कर खड़ा कर देती हैं, उसके पैरों में जान भर देती हैं। तीस हजार रूपयों को भरने की जिम्मेदारी, अपने पति के फेफड़ों से थोड़ा सा कफ निकालने की जिम्मेदारी जिससे वे साँस ले सकें, अपने अपाहिज बेटे के पैरों में थोड़ी-सी ताकत देने की जिम्मेदारी और अपनी सयानी बेटी के हाथ पीले करने की जिम्मेदारी। यदि ये सारे काम हो जाएं तो सुनरी मलाहिन अपनी झोपड़ी से निकलकर यमराज का स्वागत करेगी। आखिर जीवन में इसके बाद बचता ही क्या है ?

उसे चार बजे उठना होगा। गंगाली 3 किलोमीटर दूर हैं। उसकी अपनी मल्लाह टोली से 50 से अधिक महिलाएँ रोज निकलती हैं। जिस दिन अच्छी साइत होती है सबको कुछ न कुछ मिल ही जाता है और जिस दिन नहीं होती, वे सभी गंगा नहाकर चली आती हैं। उसे नहीं पता कि यह पीठा चढ़ाने वाली बात किसी मल्लाह ने उड़ाई है, जैसा कि उसके गाँव के ऊंची जाति वाले लोग कहते हैं या सच में गंगा मैया ने किसी मल्लाह के सपने में आकर यह कहा है जैसा कि उसकी अपनी बिरादरी के लोग कहते हैं। ‘‘पीठा के चढ़ावा त हमेशा से मल्लाहे लेत आइल बा।’’ सो वह भी इसे लेना अपना अधिकार समझती है।

जो भी हो सुनरी मलाहिन धरम-काम वाली है। अपनी जाति बिरादरी की महिलाओं जैसा धोखा नहीं देती। जो भी पीठा चढ़ाना चाहता है, वह उसके आटे को अपनी थाली में सानती है और चढ़ाने वाली महिला को सौंप देती है। वह इसे गंगा मैया के चरणों में रखती है, अपना सारा पूजा-पाठ करती है तब सुनरी उसे उठाती है। वह पीठे के नीचे लगे बालू और ऊपर लगे रोरी-सिंदरू को धोती है। अपने परात में एक तरफ रखकर उसे कपड़े से ढक देती है। उसे यह बुरा लगता है कि उसके गाँव की अन्य औरतें पीठा चढ़ाने वाली महिलाओं को धोखा देती हैं। ‘‘थोड़ा सा आटा सानिके पीठा चढ़ा देली अऊर बाकी सूखे ही ले लिहली। ई कवन पीठा चढ़ावल भइल।’’

हालांकि उसकी लड़की कहती है ‘‘हमार माई मूरखि ह। आज ले कबो आटा ना ले आइल। हमेशा पीठा ही ले आवेले। उ भी बालू वाला पीठा। अब ओकरा के छोट-छोट तोड़, सुखाव, फिर ओखल में खान के आ जाॅत में पीस। तब त आटा तैयार होई। आटा का, आटा अऊर बालू मिलिके तैयार होई। अब दू महीना तक इ बालू दांत के नीचे करकरात रही।’’ लेकिन सुनरी को तो भगवान को भी मुँह दिखाना है। ‘‘पता नहीं काहे भगवान मल्लाह बनवले। अब एइजो धोखा देबि त अगिला जनम में एहू से नीचे चलि जाइब।’’ हाँ उसे एक बात अखरती है ‘‘इहे जगह कौनो साल नहान घाट बनि जाला आ कौनो साल शमशान घाट। ई पीठा ईहां नीचे राखल एहि से ठीक ना लागेला।’’ एक दिन अनायास ही उसके दिमाग में आता है ‘‘जे तरह शमशान घाट अगिला साल से नहान घाट हो जाला, हमरो जिनिगी अगिला जनम मे ंएहि तरह बदलि जाई।’’

सुबह के पाँच बजे हैं। हमारे हिस्से की पृथ्वी को हाँकने के लिए सूरज तैयारी कर रहा है। आज गंगाघाट पर भीड़ बहुत है। सुनरी मलाहिन वहाँ पहुंच गई है। उसे सुंदरी देवी आती हुई दिखाई देती हैं। अपने लड़के के साथ। लड़के के हाथ में झोला है। वह ताड़ती है ‘‘पंडिताइन के जरूर पीठा चढ़ावे के ह।’’ वो उन्हें पहचानती है, बगल वाले गाँव की जो ठहरी। सुंदरी देवी आसानी से तैयार नहीं होतीं। वे अपनी सारी शर्तें रखती हैं। ‘‘हम पीठा गंगा मैया के ही चढ़ाइब।’’ सुनरी सारी शर्तें मान लेती है।

सुन्दरी देवी गंगा जी में स्नान करती हैं। उन्हें तीन पीठा चढ़ाना है। सुनरी मलाहिन अपनी थाली निकालकर तैयार है। वो पीठा सानती हैं, सुंदरी देवी उसे गंगा मैया के चरणों में रखती है फिर अपने विधि-विधान से पूजा करती हैं। वो मन ही मन सोचती हैं ‘‘अब यदि तराजू उठी त हमार पलड़ा जरूर भारी हो गइल होई।’’ वो दूसरा पीठा चढ़ाती हैं ‘‘पलड़ा अऊर झुकल होई’’ और फिर तीसरे पीठे को चढ़ाकर पलड़े के अपनी तरफ पूरी तौर पर झुक जाने को आश्वस्त होने को होती है कि सुनरी मलाहिन के नाकों में सड़े हुए पानी की दुर्गध भर जाती है, उसके दांत बालू से किरकिराने लगते हैं। वो याचना करती है ‘‘ई ना हो सकेला मलिकाइन कि ई पीठा हमरा थाली में ही चढ़ा दी। मंदिर में त पंडित जी लोग मिठाई के डिब्बे में ही चढ़ा देला।’’ सुंदरी देवी को लगता है कि पलड़ा उनकी तरफ झुकते-झुकते रह गया। ‘‘ना ! ई ना होई’’ वो झल्लाते हुए अपने तीसरे पीठे को भी गंगा मैया के चरणों मंे चढ़ा देती है। पीठा और बालू एक हो जाते हैं। सुनरी मलाहिन भारी मन से उस पीठे को उठाती है।

सुंदरी देवी घर लौटती हैं। उन्हें संतोष है कि वह किसी के झांसे में नर्हीं आइं। उन्होंने तीनों पीठा गंगा मैया के चरणों में ही चढ़ाया है। सुनरी मलाहिन के परात में यही तीन पीठे हैं। वो इस घाट से उस घाट घूमती है। पीठे के लिए नहीं वरन अपने भ्रम को मिटाने के लिए। उसको गंगा मैया के पानी से सड़ने की गंध आ रही है। वो सोचती है ‘‘आखिर ई पानी आत त सड़ल ना होई, त एसे पहिले हमरा नाक में का हो गई रहल हा, जे हम एके ना सूंघि सकत रहनि हां।’’ बालू उसके पैरों में नहीं, दांतों में किरकिराता महसूस होता है। वह वापस घर लौटने का फैसला करती है। सोचती है ‘‘एगो त जवन पानी सडि़ गइल, उ गंगा मैया के नाहीं हो सकेला, तब फिर हम बिना चढ़ावल पीठा कइसे ले सकेनी। अऊर दूसरे कि ई काम हमरा से ना होई।’’ बिना मेहनत के कमाई में कउनों इज्जत नाहीं बा। ई खाली बाभन लोग ही कर सकेला। उसके कदम थमने लगते हैं। सिर पर रखा परात आज बहुत भारी लग रहा है। वह भगवान के घर एक अरज डालती है ‘कउनों जनम में अइसन कमाई ना करेके पड़े।’’
         

रामजी तिवारी

बलिया फिल्म समारोह

(फिल्म समारोह  के समय  खचाखच भरा हुआ बलिया का बापू भवन)

प्रतिरोध का सिनेमा और पहला बलिया फिल्म समारोह जन संस्कृति मंच , गोरखपुर फिल्म सोसाइटी “एक्सप्रेशन ” और बलिया की सांस्कृतिक संस्था”संकल्प “के संयुक्त तत्वावधान में दो दिनों तक चलने वाले “पहले बलिया फिल्म उत्सव -२०११’ का कल समापन हो गया.
“प्रतिरोध का सिनेमा”नामक थीम को आधार बनाकर चलने वाले इस समारोह में लगभग २० फिल्मे दिखाई गयी , जिनमे डाक्यूमेंट्री और फीचर फिल्मे शामिल थी

समारोह के पहले दिन जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने इसका विधिवत उद्घाटन किया
इस अवसर पर फिल्मकार संजय जोशी, जनमत पत्रिका के संपादक रामजी राय और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक मनोज सिंह उपस्थित थे

प्रणय कृष्ण ने ‘प्रतिरोध के सिनेमा” पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज भारतीय सिनेमा उद्योग की मुख्यधारा कालेधन ने नियंत्रित और निर्देशित हो रही है , जिसके सरोकार का क्षेत्र भी जाहिर तौर पर उसी कालेधन वाला समाज और उसे बढ़ाने वाली संस्कृति है

इस देश की आम जनता की समस्याओ से उसका कोई लेना- देना नहीं है

ऐसे समय में जन संस्कृति कर्मियों की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वे वैकल्पिक सिनेमा के माध्यम से आम जनता की आवाज को देश के सामने पहुचाये
यह सिनेमा अपने मूल चरित्र में जनोन्मुखी है और सामाजिक गतिशीलता की बुनियाद पर खड़ा है
उन्होंने कहा कि शोषण आधारित गैर – बराबरी वाली व्यवस्था के खिलाफ आमजन के संघर्षो का सिनेमाई चित्रण ही “प्रतिरोध का सिनेमा” है

जन संस्कृति मंच के फ़िल्म समूह “द ग्रुप” के संयोजक और फिल्मकार संजय जोशी ने कहा कि “प्रतिरोध का सिनेमा ” मुख्यधारा में प्रचलित हर प्रकार के मिथकों का प्रतिरोध करता है
छोटे बजट, छोटे कैमरे और छोटे स्टारडम के द्वारा भी हम बड़ी और सार्थक फिल्मे बना सकते है
जनमत पत्रिका के संपादक रामजी राय का कहना था कि सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं है वरन हमारे संघर्षो की आवाज भी है.
वही ज. स. म. के प्रदेश सचिव मनोज सिंह ने बलिया फिल्मोत्सव को “प्रतिरोध के सिनेमा ” आन्दोलन का दूसरा चरण बताते हुए कहा कि अब हम इसे छोटे शहरों और कस्बो कि तरफ ले जा रहे है और यह हमारे लिए बहुत ही सुखद है

उद्घाटन सत्र के बाद बीजू टोप्पो द्वारा निर्देशित डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘गाड़ी लोहरदगा मेल” का प्रदर्शन किया गया और इस तरह बलिया फिल्मोत्सव की शुरुआत भी हो गयी
पहले दिन जिन फिल्मो को दिखाया गया , वे थी – “गाव छोड़ब नहीं ” (के.पी.ससी ), “रिबंस फार पीस” (आनंद पटवर्धन) , “अँधेरे से पहले” (अजय टी जी.), “प्रिंटेड रेनबो” (गीतांजलि राव) , “वायसेस फ्राम बलियापाल” (वसुधा जोशी और रंजन पालित), “द चेअरी टेल” और नेबर ( नार्मन मैक्लेरन ) , “पी” (अमुधन आर.पी.) , “सोना गहि पिंजरा” (बीजू टोप्पो) , “दायें या बाएं “(बेला नेगी) और “हद- अनहद” ( शबनम विरमानी)..

वैसे तो सभी फिल्मे अपनी विशिष्ट शैली और तेवर के माध्यम से जनता की आवाज को अभिव्यक्त कर रही थी लेकिन वसुधा जोशी और रंजन पलित की फिल्म “वायसेस फ्राम बलियापाल” को खास सराहना मिली
यह फिल्म उड़ीसा के आदिवासियों के संघर्ष की दास्तान बयाँ करती है , जिसे उन लोगो ने मिसाईल रेंज बनने के कारण अपने विस्थापन के विरोध में किया था
पहले दिन की समाप्ति पर ” संकल्प ” बलिया ने भिखारी ठाकुर की अमर कृति “बिदेसिया ” की नाट्य प्रस्तुति की
इस नाटक की प्रस्तुति के समय बलिया का बापू भवन , जहा यह समारोह आयोजित किया जा रहा था, खचाखच भरा हुआ था

(” संकल्प ” बलिया की भिखारी ठाकुर की अमर कृति “बिदेसिया ” की नाट्य प्रस्तुति )
समारोह के दूसरे और अंतिम दिन की मुख्य प्रस्तुति ईरानी फिल्म “द चिल्ड्रेन्स आफ हैवेन ” थी
माजिद मजीदी द्वारा निर्देशित इस फिल्म ने दर्शको का मन मोह लिया
समारोह में लगातार उपस्थित रहने वाले फिल्मकार संजय जोशी ने लोगो की प्रतिक्रियाओ का स्वागत करते हुए कहा कि यदि हमें अगले साल भी यहाँ आने का मौका मिला तो हम ईरानी फिल्मो के प्रदर्शन पर ही एक पूरे दिन का कार्यक्रम रख सकते है
इसी दिन बच्चो की फिल्म “रेड बैलून” (अल्बर्ट लेमूरेस्सी) और “छुटकन की महाभारत” (संकप मेश्राम) की फिल्मे भी प्रदर्शित की गयी
दोपहर बाद “मालेगाँव का सुपरमैन “(फैज़ा अहमद खान) , ” भालो खबर” (अल्ताफ माजिद) , ” भूमिका” (श्याम बेनेगल) , और ” दुविधा” (मणि कौल) फिल्मो का प्रदर्शन हुआ
इस फिल्म समारोह कि खास बात यह रही कि इसका आयोजन पूर्णतया जन सहयोग और जन भागीदारी के द्वारा सम्पादित हुआ
न तो किसी बड़े घराने का सहयोग लिया गया और न ही किसी नेता या मंत्री का दरवाजा खटखटाया गया
प्रत्येक फिल्म की समाप्ति पर संजय जोशी और मनोज सिंह श्रोताओ के सवालो के जवाब भी देते थे
बलिया जैसी छोटी जगह पर लोगो की इन फिल्मो के प्रति दिखी उत्सुकता ने आयोजको को काफी उत्साहित किया
अंत में संजय जोशी , मनोज सिंह और संकल्प के संयोजक आशीष त्रिवेदी ने इस समारोह को अगले साल पुनः बलिया में आयोजित करने कि घोषणा की

प्रस्तुति — रामजी तिवारी

बलिया , उ.प्र.
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