श्रीराम त्रिपाठी की कहानी ‘दादी, हाथी और मैं’

श्रीराम त्रिपाठी

अभी तक हम श्री राम त्रिपाठी की धारदार आलोचना से ही परिचित हैं. शायद कम लोगों को ही यह पता हो कि त्रिपाठी जी ने अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत बतौर एक कहानीकार की. इनकी कहानियों में भी हम यह आसानी से देख सकते हैं कि कैसे जीवन की वह ध्वनियाँ यहाँ बारीकी से दर्ज हैं. दादी, हाथी और मैं’ इनकी इसी तरह की एक कहानी है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. 
   

दादी, हाथी और मैं
श्री राम त्रिपाठी
जिसमें आप बहे जा रहे हैं, दादी के गले से निकल रही है वह लहर। देखना चाहते हैं उसे? तो आइये, देख लीजिये। वह…वह जो पपीते के पास हिलती-डुलती गठरी दिख रही है न। वही है दादी। वह महज़ गा ही नहीं रही है, पपीते को पानी भी दे रही है। खर-पतवार भी निकाल रही है। पपीते में फूल लगना शुरू हो गया है न। वह सोहर गा रही है इसीलिए। अभी वह उठेगी और अमरूद के पास जायेगी, जिसे उसने ही रोपा है। सींचा है। जानवरों से बचाया है। चिड़िया ने तो केवल अनपचे बीजों को बीट के रूप में निकाला और चलती बनी। और देखिये न, फल लगने पर कैसे उतर आयी है अपने कुनबों समेत। और कच्चे तथा बेस्वाद फलों को कुतरने लगी है। इन कच्चे फलों को अगर वह खाती, तो भी दादी चला लेती, मगर इन्हें तो कुतर कर गिरा रही है। दादी ताली पीट कर, ढेला चला कर अभी इन्हें भगायेगी पकने पर आने का न्यौता देती।
            सारे बच्चे स्कूल चले गये हैं न। इसीलिए वह अकेली दिख रही है। कभी सवेरे अथवा संझा को आइए और देखिए  उनकी धमा-चौकड़ी। जिसमें दादी भी आपको बच्चा ही नज़र आयेगी। कभी चोर-सिपाही, कभी चिक्का-लँगड़ी, कभी लुका-छिपी खेलती। वह उन्हें तरह-तरह की कहानियाँ तो सुनाती ही है, गाना भी सिखाती है। हालाँकि बच्चों के माँ-बाप उन्हें दादी के पास आने से बरजते हैं, क्योंकि इससे उनकी पढ़ाई का नुकसान होता है।…इसी तरह रहे, तो बन चुके इंजीनियर-डाक्टर। …कमा चुके ढेर सारा पैसा।…मगर बच्चे हैं कि समझते ही नहीं, लुक-छिपकर पहुँच ही आते हैं दादी के पास। दादी में न जाने क्या है कि बच्चे खिंचे चले आते हैं इसकी ओर।
            कोई नहीं जानता दादी की उम्र के बारे में। मोहन बाबा, जो हमारे बाबा के लँगोटिया यार थे, पूछने पर सिर्फ़ इतना ही कहते, “तुम्हारे बाबा के साथ-साथ मैं भी खेला हूँ, दादी की गोदी में।और कहीं डूब जाते। अपने बाबा को तो देखा नहीं, मगर मोहन बाबा की गोद में तो खेला भी।
            जानते हैं? कभी यह हमारा घर ऐसे अकेले नहीं, गाँव के बीचो-बीच हुआ करता था और यह जो उतरहिया और दखिनहिया, दो गाँव हैं, कभी एक ही गाँव हुआ करते थे। मैंने तो देखा नहीं। मोहन बाबा ही बताते थे कि तब भी हमारे अगवारे और उत्तर की ओर अच्छी-खासी जगह थी। यह जो उत्तर की ओर पँड़ोह देख रहे हैं न, तब भी यहीं बहता था। यहाँ की सीलन में दादी ने केले का गाछ रोप दिया था, जो बढ़कर एक बगिया ही बन गया था। कभी भी ऐसा नहीं हुआ, जब किसी-न-किसी गाछ पर घौद न लटकता रहा हो। पूरे गाँव में केले के गाछ थे, तो हमारे ही। जब भी किसी के यहाँ सत्नरायनकी कथा अथवा दूसरे कोई धार्मिक अथवा शुभ प्रयोजन होते, केले का पत्ता हमारे यहाँ से ही जाता। दादी किसी को छूने भी न देती। ख़ुद ही बीछ-बीछ कर पुराने पत्तों को काटती। अगर कोई भगवान को चढ़ाने के लिए ही केला माँगता और वह पका न होता, तो सीधे नाकह देती। और जब घौद पक जाता, तो सबके यहाँ बारी-बारी से दो-दो, चार-चार केला पहुँचवाती। गाँव में कोई भी घर ऐसा नहीं था, जिसने दादी की बगिया का केला न चखा हो। अरे, रामलीला में अशोक-वाटिका बनाने के लिए केले के जो गाछ लाये जाते, यहीं के होते। अगर उन गाछों को विसर्जित न किया जाता, तो वहाँ भी केले की एक बगिया बन गयी होती। उन गाछों का विसर्जन दादी को रुचता नहीं, दुःख देता। और मुहर्रम में जो गाछ कटता, वह भी यहीं का होता। दादी सबको रस-पानी कराती और पूरी बगिया ही सौंप देती, ‘काट लो भइया! अपने ही बीछ कर काट लो।उसकी आँखें नम हो जातीं। बगिया की ओर से मुँह फेर लेती…
            दादी हर बार रामलीला और मुहर्रम में गाछ न देने की ठान लेती, मगर…
            गँवारों (गाँव वालों) के अनुसार, वह बगिया ही गाँव का काल बन गयी।…न दादी की बगिया होती, न हाथी बउरा कर आता, न गाँव रण का मैदान बनता, और न दो गाँवों में बँटता। और मान लो कि हाथी बउरा कर आता ही, तो उतना थोड़े मातता। जैसे-जैसे केला खाता गया, और मातता गया।…सही बात तो यह है कि उस घुप्प अँधेरे में हाथी आ ही नहीं सकता। केले की गंध ही थी, जो उसे खींच लायी थी।…ऐसी चीज़ लगाना ही क्यों, जिसकी ख़ातिर कोई हिंसक जीव आये, खाये और माते?
            हाथी ने ऐसा ताण्डव मचाया कि घर-घर में हाहाकार मच गया। कौन देखता है बेटा-बेटी को, माँ-बहन को, भाई-भौजाई को, पति-पत्नी को। सभी अपनी-अपनी जान बचाने में लगे थे। जिन लोगों ने अपने परिवार को बचाने की कोशिश की, उनका पूरा घर ही साफ़ हो गया। उफ्, हाथी उड़ता था कि दौड़ता था कि चलता था। चिग्घाड़ता था कि पत्थर मारता था कि बिजली गिराता था। लोग भागते थे, छिपते थे और मिट्टी में मिल जाते थे। दादी के बहुत डाँटने पर हमारे बाबा अपने बेटों को ले कर हाथी को भगाने गये थे, जो आज तक लौटे नहीं। छोटे चाचा दादी की कोठरी में छिप गये थे, इसलिए बच गये। अगर दादी ने पुआल के मंदिर में आग न लगाया होता, तो हमारा घर भी सफाचट हो जाता। उस आग से डर कर ही हाथी भागा था।
            सुनाते-सुनाते मोहन बाबा डूबने लगते, पानी की नदी में नहीं, ख़ून की नदी में; जिसमें हाथ-पैर भी नहीं चलते। और मैं एक चित्र बनाने की कोशिश करता। दादी और अपनी शक्ल को मिला कर; मगर वह चित्र बनने से पहले ही आँसुओं की नदी में बह जाता।
            बचे-खुचे लोगों ने उतरहिया और दखिनहिया में शरण ली और वहीं के हो गये। लोगों के लाख समझाने पर भी दादी यहाँ से जाने को तैयार न हुई। छोटे चाचा जब समझा-बुझा कर हार गये, तो हमको छोड़ दखिनहिया चले गये। माँ और मँझली चाची कहाँ जातीं, अकेले? दादी के पास रहना उनकी मजबूरी थी। जाना तो वे भी चाहती थीं। अगर पिता जी और चाचा जी होते, तो वे किसी भी क़ीमत पर यहाँ न रहतीं।
            न जाने कितने सालों हमारा घर खण्डहरों के बीच रहा। यहाँ दिन में भी उल्लू बोलते थे। उतरहिया और दखिनहिया का कोई भी इनसान उधर भूले से भी न जाता।…ऐसी मनहूस जगह में कोई रहने जायेगा?…बेच दिया लोगों ने बाबू साहब को कौड़ी के मोल। ये जो लहलहाते खेत देख रहे हैं न, बाबू साहब के हैं।
            वक़्त बीतते-बीतते दादी फिर से गाँव भर की दादी हो गयी। हमारा दुआरा, जहाँ बच्चों के खेल का मैदान हो गया, वहीं बड़े-बुज़ुर्ग़ों का ठंढ का घमावन।
            हमारा घर उतरहिया में नहीं, दखिनहियाँ में है, क्योंकि सरकारी नक़्शा इसे दखिनहिया की हद में बताता है।  
            मैं अपने दोस्त को बतला रहा था। इतना सुनने के बाद अचानक उसने पूछा, “वह कैसी आँधी, जिसमें पत्ते तो हिलते तक न हों और कंकड़-पत्थर उड़ कर सिर से ऐसे टकराते हों कि सिर पानी भरे घड़े की तरह फूट कर बिखर जाता हो? कि वह कैसी बाढ़, जिसमें पानी का तो एक क़तरा भी नहीं और गाँव के गाँव धसकते और डूबते जाते हों? कि वह कैसा ज़लज़ला, जिसमें ज़मीन में तो कहीं दरार तक नहीं और ज़मीन को ख़ूब मज़बूती से पकड़े पेड़ तक धूल चाटने लगते हों?…”
            मुझे लगा कि वह पहेली बुझा रहा है। मैं कुछ जवाब दूँ कि हमने साथ-साथ देखा, आसमान धुओं और आग की लपटों से भरा जा रहा था।
            उसने पूछा, “ज्वालामुखी फटा है क्या?”
            कहीं कोई आवाज़ नहीं। न आँधी की सरसराहट, न पानी की हरहराहट, न ज्वालामुखी का विस्फोट। एक दुर्गंध, असहनीय दुर्गंध माहौल में फैल गयी। लोग भागने लगे बदहवास से। छितराये हुए। जैसे चारों ओर से बंद पानी को किसी ने दबा दिया हो।
            क्या हुआ?”
            कोई नहीं बताता। किसी को बताने की भी फ़ुर्सत नहीं। पूछने वाला भी जवाब जाने बिना ही भागने वालों में शामिल हो जाता है।
            हम दोनों भी भागते हैं। मगर साथ-साथ नहीं। अलग-अलग।
            अरे भाग। भाग रे, हाथी बउराया है।
            भागते-भागते ही न जाने कौन भला मानुस उस पगली से कहता है, जो दिनभर उस कूड़े के ढेर में कुछ ढूँढती रहती है। कहनेवाला अपनी आवाज़ से बहुत दूर निकल गया है। उसे अपने कहे के असर को भी जानने की नहीं पड़ी।
            पगली हँसती है। खिलखिला कर हँसती है और ताली पीटती है।
            हाथी! हाथी!! बउराया हाथी!!!
            किसी ने भी नहीं देखा हाथी को। कोई नहीं जानता कि हाथी किधर है। लोग भाग रहे हैं। सिर्फ़ भाग रहे हैं। सबका रुख़ अपने-अपने घरों की ओर है। कैसे भी करके अपने घर पहुँच जायें। घर जहाँ भी है, जैसा भी है; सुरक्षा देता है। और अगर सुरक्षा न भी दे पाता हो, तो कम-से-कम उसका एहसास तो कराता ही है। ज़िन्दगी में सबसे अज़ीज़ घर ही तो है।
            मगर घर पहुँचना आसान है क्या? कितने ही लोग घर नहीं पहुँच पाते।…मेरा वह दोस्त आज तक नज़र नहीं आया। पूरी कहानी सुने बिना ही न जाने कहाँ चला गया?…कहीं रास्ता तो नहीं भूल गया?
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यह वही दादी है, जो कभी गर्मी के दिनों में हमारी प्याज थी; जिसे हम ज़ेब में लिये भरी दुपहरी घूमते थे और लू से बचते थे। यह वही दादी है, जो कभी ठंढ के दिनों में हमारी रजाई थी; जिसे हम सिर से पाँव तक ओढ़ते थे और ठंढ को ठेंगा दिखाते थे। चिड़चिड़ाई ठंढ जब हमें न पाती, तो दूसरों को धर दबोचती थी।
            घर के हम सभी बच्चे अपनी माँ के पास नहीं, दादी के पास सोते। ओसारी के उत्तरी छोर पर जो कोठरी है, उसी में। दादी हम बच्चों की मदद से उसमें पुआल पालती। फटे-पुराने कपड़ों को सी कर बनाई कथरी बिछाती, जिस पर हम सभी बच्चे उछल-कूद करते। सिर के बल पल्टी खाते।…हाँ, हम पल्टी मारते नहीं, खाते हैं। पल्टी खाने में मुझे ख़ूब मज़ा आता।
            दादी चिल्लाती, “अरे मरकिनौने! घाँटी उलट जायेगी।
            न जाने कितनी बार मेरी घाँटी उलटी है। फिर तो खाने-पीने की कौन कहे, थूक घोंटना भी मुहाल हो जाता। घाँटी सीधी न करने की धौंस के बावजूद दादी मुझसे आऽ आऽकराती और अपनी दो अंगुलियाँ बोरसी की राख में डुबो मेरे मुँह में डाल देती। उन अंगुलियों से वह न जाने क्या करती कि घाँटी सीधी हो जाती। ऐसे में मैं पल्टी कभी न खाने की कसम खाता, मगर कुछ ही दिनों में उसे हजम कर जाता।
            उस कोठरी से सटकर ओसारी में ही कउड़ा लहकता। हम बच्चे अपने हाथ-पैर ख़ूब सेंक कर ही रजाई में घुसते। जिस किसी का भी ठंढा हाथ अथवा पैर दादी की देह से छुआता, उसे चिकोटी काटती अथवा एक थप्पड़ लगा रजाई से बाहर कर देती। दादी की बग़ल में सोने के लिए हम आपस में झगड़ते। छीना-झपटी कर उसके झूलते स्तन को चूसते-चुभलाते।
            हँसते-हँसते दादी पूछती, “कुछ मिलता-उलता भी है कि ऐसे ही लड़ते हो?”
            दादी की सुनने की फ़ुर्सत किसे होती?
            कभी-कभी ग़ुस्सा भी हो जाती दादी। मारने का धौंस ही नहीं देती, मार भी देती। ऐसा तब होता, जब कुछ पाने की कोशिश अथवा शरारत में हमारे दाँत उसके स्तन में चुभ जाते।
            दादी का थप्पड़ सबसे ज़्यादा मेरे ही हिस्से आया है।
            फिर, दादी की कहानी चलती। मैं कभी नहीं जान पाया कि दादी की कहानी कब ख़त्म हुई। ख़त्म हुई भी, या नहीं। अभी भी दादी की कहानी जारी है। सिर्फ़ जारी। सुनने के लिए जगना ज़रूरी है। सोने पर सुनाई कहाँ देता है? इसलिए कहने और सुनने वाले, दोनों का जगना ज़रूरी है। कहीं कहानी ख़त्म न हो जाये, शायद इसी डर से दादी सोती नहीं।
            हमारे घर के चारों ओर, गर्मी को छोड़, पूरे साल खेत लहलहाते। दुआरे का पुआल का मंदिर फागुन तक रहता। उसी मंदिर में हर साल कोई-न-कोई कुतिया प्रसव करती। मुँदी आँखों वाले छोटे-छोटे पिल्लों के पास कुतिया किसी को फटकने भी न देती। नागिन बन जाती। जबकि दादी से आँखों-ही-आँखों में न जाने क्या बतियाती कि दादी उठती, पिल्लों के पास जाती और कुतिया की चूची को पिल्लों के मुँह में डाल तब तक बैठी रहती, जब तक वे अघा नहीं जाते।
            नहाना-धोना नहीं है क्या? पूजा-पाठ भी करेंगी, या पिल्लों को दूध ही पिलाती रहेंगी?” माँ अथवा मझली चाची पूछतीं।
            दादी कान ही न देती।
            कई बार तो दादी ने रुई के फाहों से दूध पिलाकर पिल्लों को जिलाया है।
            अकसर रात में, अपने शिकार की टोह में घूमते सियार-लोमड़ी हमारे दुआरे पर भी उतर आते। न जाने कितनी बार दादी ने अँखमुँदे पिल्लों को सियार-लोमड़ी के मुँह से छुड़ाया है। उनके जख़्मों को गरम तेल से छौंका है। मरहम लगाया है। उन्हें चलता-फिरता किया है। फिर भी, कभी-कभी वह उन्हें बचाने में नाकाम रही है। तब कुछ दिनों तक उसका खाना-पीना हराम हो जाता। क़िस्से-कहानियाँ या तो भूल जाते, या बेलय हो जाते, या उदासी की लय में डूब जाते।
            ऐसे में, माँ दादी पर ही कुढ़ती।…कि पिल्ला क्या मरा, धाराधार नदी बहने लगी। बेटे के मरने पर तो क़तरा भी नहीं बहा।…बहता भी कैसे? अपने ही जो झोंक दिया, हाथी के मुँह में।…इतना शोक! हाय राम! वह भी पिल्ले के मरने पर? ऐसा तो कहीं नहीं देखा-सुना। इतना भी नहीं सोचतीं कि बूढ़-पुरनिया को खिलाये बिना कोई कैसे खा लेगा? यह जनम तो बिगड़ा ही। अब परलोकवो थोड़े बिगाड़ना है। खा लो, फिर जितना शोक करना हो, करो। कौन रोकता है?…
            और दादी! ख़ुद पर कुढ़ती।…कि ऐसी दहिजरी नींद क्यों आई? मौत क्यों न आई?…कि सियार मुझे ही क्यों न उठा ले गया?…कि जिसे बचाना चाहती हूँ, वही छिन क्यों जाता है?…कि…कि…
            फिर तो दादी की आँखों से नींद ऐसे ग़ायब हो जाती, जैसे अँधेरे में परछार्इं।
            बचपन में, मेरे सपने में अक्सर हाथी आता। मिट्टी के ढूह-सा। नहीं, नहीं; पहाड़-सा। जिसकी सूँड़ जमीन से घिसटती और दाँत बर्छी की तरह तने होते। मैं भागता, हाथी दौड़ाता। हाथी दौड़ाता, मैं भागता। गिरता…उठता…भागता। हाथी दौड़ाता। हाथी क़रीब…और क़रीब आता जाता। मैं पूरा ज़ोर लगा देता। फिर भी हम दोनों की दूरी बढ़ती नहीं, कम ही होती जाती। अब नहीं बचूँगा। अरे, कोई बचाओ…बचाओचिल्लाता।…नहीं, नहीं। चिल्लाने की कोशिश करता, मगर आवाज़ हलक़ में ही अँटक जाती। हाथी एकदम्मे क़रीब पहुँच आया है। सूँड़ उठा रहा है…ए…ए…पक्…। एक चीख़ के साथ मेरी आँख खुल जाती। मेरी घिग्घी बँध जाती। मैं पसीने से नहा उठता। मुझे कँपकँपी छूटने लगती।
            सपना देखा है क्या रे? डर गया? सपने से कहीं डरते हैं?” एक आवाज़ कानों से टकराती। एक बाँह गिरफ़्त में ले लेती। जिसकी मिठास और गर्मी मेरी घिग्घी, पसीने और कँपकँपी को सोख लेती। दादी होती यह।
            दादी मेरी ओर करवट बदल अपनी बाँह को मेरी तकिया बना, थपकी के ताल पर गुनगुनाती। न जाने कब मुझे नींद आ जाती।
दादी सीने पर हथेली रख उतान सोने से बरजती। मैं आज तक नहीं जान पाया कि सपना देखते वक़्त मैं अपनी हथेली सीने पर रखे उतान सोये होता हूँ, या नहीं। हालाँकि जानने की बहुत कोशिश की। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं जब भी सोता, उतान नहीं, करवट ही सोता। वह भी दादी की ओर मुँह करके। फिर भी सपना देखता। और सपने में हाथी आता।
उस दिन मैं रास्ता नहीं भूला था। किसी तरह बचते-बचाते घर पहुँच आया था। घर में रोहा-रोहट मची थी।…ओसारी में तार-तार झूलती, मैली-चिकटी एक रजाई पड़ी थी, जिसे ओढ़ने वाले ने उठने के बाद उसे बटोरा ही न था। ज्यों का त्यों छोड़ दिया था। रजाई की काफ़ी रुई निकल गयी थी। और जो थोड़ी-बहुत बची थी, वह भी सिकुड़ कर जगह-जगह गोटकों में बदल गई थी।
मुझे ख़ुश होना चाहिए था दादी का मरना जान कर। क्योंकि मैं तंग आ चुका था उससे। जब भी होता, आँख-मिचौनी खेलने लगती। खेलने का भी एक मूड होता है। वक़्त होता है। खिलाड़ी होते हैं। ऐसा थोड़े है कि जब चाहा, जिसके साथ चाहा, खेल लिया!…यह तो तब मरेगी, जब कंधा देने को चार इनसान भी नहीं मिलेंगे। इसको क्या? यह तो मर-मुआ जायेगी। मुसीबत तो हमारे सिर पड़ेगी न…
वही हुआ, जिसका अँदेशा था। गाँव में चारों ओर हाहाकार था। रोना-कलपना था। सभी अपने-अपने दुःख में डूबे थे। मैं किसी को बुला भी नहीं सकता था। क्या पता, दादी अभी उठ कर बैठ जाये?…और आनेवाले रोहा-रोहट सुन ख़ुद ही आ जायेंगे। वैसे भी, खेल में जब एक ही खिलाड़ी हमेशा जीतता है, तो खेल का सारा रोमांच ख़त्म हो जाता है। दादी ने कभी इसे समझा ही नहीं। उसे तो खेल के भविष्य की भी चिंता नहीं। वह तो हमेशा अपनी ही शर्तों पर खेलती रही है। अपने ही क़ायदे से। बिना हारे। हारना किसी भी हाल में उसे गवारा नहीं।…चलो, आज तो हार गई न! रोज़-रोज़ की मुसीबत से छुटकारा मिला।
            दादी को हराने की कोई कोशिश मैंने भी बाक़ी थोड़े रखी थी। न केवल विरोधी खिलाड़ी से मिला था, बल्कि अपने इन्हीं हाथों से उसे मदद भी किया था।…मेरी अंगुलियाँ दादी के गले की नाप ले रही थीं। मैं देख रहा था कि उसका गला मेरी दसों अंगुलियों के घेरे में आता है, या नहीं। अपनी अंगुलियों को मैं संड़सी बनाना चाहता था, मगर मेरी अंगुलियाँ न केवल छोटी पड़ गईं, बल्कि ऐंठ भी गईं। उनमें इतनी भी ताक़त नहीं बची थी कि सीधी हो सकें।
            दादी मुस्कुराई थी। केवल मुस्कुराई। कई दिनों तक मैं उससे नज़र न मिला सका था। आज भी जब कभी उस हादसे की याद आती है, तो मेरी अंगुलियाँ अपने ही गले की ओर बढ़तीं हैं, मगर उस तक पहुँचने से पहले ही सूखे डंठल की तरह अकड़ जाती हैं।
            मैंने दादी को बचाने की भी कम कोशिश नहीं की है। अनगिन डॉक्टरों को दिखलाया, वह भी बड़े-बड़े डॉक्टरों को। इलाज करवाया। मगर दादी पर उसका कोई असर नहीं। डॉक्टरों के अनुसार तो उसे कभी का मर जाना चाहिए था।…कुछ भी तो नॉर्मल नहीं। न ब्लडप्रेशर, न हेमोग्लोबीन, न सुगर। डॉक्टरों ने न जाने क्या-क्या गिना दिया था।…इनकी दवा करना बेकार है। पैसे फूँकना है। मेडिसिन का कुछ तो रेस्पॉन्स मिलना चाहिए। लाइफ़ का कोई नॉम तो नज़र आना चाहिए।
            देखते-देखते काफ़ी लोग आ गये थे, जिनमें कुछ उतरहिया के भी थे। पूरा माहौल बोझिल और ग़मगीन हो गया था। तिकठी पर लिठाने के पहले दादी को नहलाना और पूरे जिस्म पर घी का लेप करना बाक़ी था। जैसे ही दुलारी ने दादी की साड़ी उतारने की कोशिश की, उसने दुलारी की कलाई पकड़ ली।
            दुलारी चिल्लाई, “हाय दइया! दादी तो अभी जिन्दा हैं।
            दुलारी को आज भी दादी की वह पकड़ याद है। “…लोहा है लोहा, दादी की अँगुरी।
            जाते-जाते कुछ लोग ऐसा भी कहते सुने गये…कि बुढ़िया आज की नहीं, पुरानी नख़रेबाज है।…कि ऐसे थोड़े मरेगी। सबको खा-पी कर हजम कर लेगी, तब मरेगी आराम से। …कि भतार खाई। पूत खाई। नाती-परनाती खाई। अब गाँव-गिराँव ही बाक़ी है।
            कुछ ऐसे भी थे, जो दादी की जीवट की दाद देते मिले…न हाड़, न माँस, न दीदा, न कान। बस, चाम ही चाम झूलता है, बर्रोहि की तरह। फिर भी मौत को चढ़ने देने की कौन कहे, अपने पास फटकने भी नहीं देती। दूर से ही झिटकार देती है।
            कुछ लोग भुनभुनाये थे भी…कि यह भी कोई मरना हुआ? मौत को भी खिलवाड़ बना दिया।
            और मेरी हालत! न पूछिये, तो ही बेहतर है।
            मैं नहीं चाहता कि दादी मरे, मगर यह भी नहीं चाहता कि मर-मर कर ज़िन्दा रहे। जब वह छटपटाती है, चीख़ती-चिल्लाती है; तब लगता है, जैसे कोई ख़ूँ-ख़्वार जानवर उसे नोच-चोथ रहा है। वह उससे लड़ रही है और ख़ुद को कमज़ोर पा चिल्लाये जा रही है। धीरे-धीरे उसकी आवाज़ गों-गोंमें बदलती है। छटपटाहट कम होती है। फिर सब कुछ शांत हो जाता है।

हाथी चारे की टोह में अकसर हमारे गाँव में आते, मगर अँधेरे में नहीं, उजाले में। अकेले नहीं, पिलवान के साथ। छुट्टे नहीं, जंजीर में बँधे। हाथी हम बच्चों के लिए कुतूहल हुआ करता। जब भी आता, हम दूर खड़े अचंभे से देखते। और अगर कोई हमें पकड़ कर उसके पास ले जाने की कोशिश करता, तो हम ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते-रोते। हाथ-पैर मारते। छूट भागने की जी-जान से कोशिश करते। इसीलिए हम हाथी को छिप कर ही देखते। और गाय-बैल तथा दूसरे जानवर! किल्ले का चक्कर काटते। ज़ोर लगाकर पगहा खींचते। कूदते। ब्आँ-ब्आँकरते। ऐसे में पिलवान हँसता। भाला कोंच कर हाथी को चिग्घड़वाता। कभी-कभी तो बैल पगहा तुड़ा लेते और सरपट निकल भागते, हाथी से दूर। उस बैल का मालिक मन ही मन पिलवान को गरियाता और बैल के पीछे भागता। पिलवान की हँसी मुझे बड़ी डरावनी लगती।
            दादी चिल्लाती, “भगाओ निरबंसिया को। गाँव में पैठने न दो…
            और ख़ुद ही दौड़ पड़ती हाथी को भगाने। माँ दादी को पकड़ लेती। दादी चिल्लाते-चिल्लाते रोने लगती। रोते-रोते निढ़ाल हो जाती। जबकि इनसान को भी देख कर भ्ओं-भ्ओंकरनेवाले कुत्ते न जाने कहाँ ग़ायब हो जाते कि उनकी परछार्इं भी नहीं दिखती।
            और लोग! अपनी घरों की दीवारों पर उग आये पीपल और बरगद को पिलवान से कटवाते, जिसे हाथी अपनी मस्ती में चबाता। हमारे यहाँ लोग पीपल और बरगद को ख़ुद नहीं काटते। उनका मानना है कि पीपल पर महादेव जी रहते हैं। इसीलिए रोज़ सुबह नहाने के बाद उस पर जल चढ़ाते हैं। उसकी पूजा करते हैं। और सुहागिनें जेठ की अमावस्या को बरगद के तने में सूत लपेटती हैं। भाँवरें देती हैं, अपना अहिबात सलामत रखने को।
पिलवान को झोली भर अन्न अथवा पैसे देने के बावजूद लोग पिलवान की ख़ुशामद करते। अगर वह नहीं होता, तो दीवार की रक्षा कैसे होती?’…पीपल और बरगद की जड़ें बहुत गहरे छितराती हैं।…दीवार गिरने का मतलब है, घर का गिरना ही न!
हाथी रखना ऐसे-वैसों का काम नहीं है। राजा जैसे बड़ अदमीही रख सकते हैं। ग़लत थोड़े कहा है कि हाथी बान्हे राजा, घोड़ा बान्हे ठठेर।हाथी से नाम होता है। दबदबा बनता है। कहते हैं न कि हाथी घूमे गाँव-गाँव, जेकर हाथी तेकर नाँव।”…राजा लोगों को तो यह भी नहीं पता होता कि उनके कितने हाथी हैं? कितने पिलवान हैं? किसी-किसी हाथी पर तो एक पिलवान से काम नहीं चलता। दो-दो रखने पड़ते हैं। ये पिलवान हाथी से कम ख़ूँ-ख़्वार नहीं होते। कहावत भी है न कि ज़हर ही ज़हर की दवा है।…हाथी को नहलाना-धुलाना, खिलाना-पिलाना, घुमाना-फिराना पिलवान के ही वश का है। राजा लोगों को फ़ुर्सत कहाँ, जो हाथी की चिंता करें।…पिलवान ही हाथी के चारे का जुगाड़ करता है। हाथी ही उसकी रोज़ी-रोटी है। अच्छा-ख़ासा कमा लेता है वह भी।…अगर कमाई न हो, तो ऐसा जोख़िम भरा काम कोई क्यों करे?
            हाथी से हमारे यहाँ कोई काम लिया जाता हो, मुझे नहीं पता। मगर हाथी के बिना कोई द्वारपूजा नहीं देखी। शादी में होने वाली द्वारपूजा के वक़्त लोग कम-से-कम एक हाथी का बंदोबस्त तो करते ही, जिस पर अपने पूज्य और आदरणीय को ही बिठाते। लड़की का बाप अथवा दादा वर की पूजा करने से पहले हाथी की पूजा करता। ऐसे वक़्त गाय-बैल और दूसरे जानवर घारी में न केवल ढुँका दिये जाते, बल्कि मज़बूत पगहे से बाँध दिये जाते। गाभिन चउवों की तो पहरेदारी भी करते। पिलवान अपने भाले को हाथी के नाख़ून में हल्का-सा धँसाता। हाथी चिग्घाड़ उठता। इसे गणेशजी का आशीर्वाद माना जाता।
अगर बउरा जाता, तो?” मैं सोचता और घबराता। घबराता और सोचता…बउराता कैसे? अंकुश लिये पिलवान जो बैठा है। ज़रा-सा भी इधर-उधर होके तो देखे। पिलवान ऐसा सीधा करेगा कि नानी याद आ जायेगी।…और दादी! किसी कमरे में बंद कर दी जाती। ऐसे शुभ मौक़े पर रोहा-रोहट कौन कराना चाहेगा? गाँव में सारी शादियाँ दादी के बिना ही सम्पन्न होतीं।
दादी का हाथी से चिढ़ना, गाँव वालों और माँ-चाची की तरह मुझे भी न सुहाता।…ठीक है कि एक बार बउरा गया, मगर बउराने का कारण भी तो देखो। जब जानती हो कि हाथी को केला बहुत पसंद है, तो लगाया ही क्यों? और लगाना ही था, तो गाँव-घर से दूर लगाती। आख़िर में गन्ना रोपा ही जाता है। दूर रोपने में थोड़ा नुकसान होता है, यही न। जान तो नहीं जाती।
            एक बार तो हाथी पर बैठा भी। हाँ, दादी और माँ को बिन बताये। दादी ने नहीं, माँ ने तो देखा भी। माँ ने अगर दादी को घर में पूर न दिया होता, तो वह भी देख लेती। क्या पता, उसका चिढ़ना ही ख़त्म हो जाता।
            हमारे गाँव की रामलीला जब अंतिम साँस ले रही थी, तब हाथी ने ही जिलाया था, भरत-मिलाप करा के। एक ओर से भरत-शत्रुघ्न की सवारी और दूसरी ओर से राम-लखन-जानकी की। गाँव के सीवान पर दोनों का मिलन। फिर घर-घर परिक्रमा।
            रामलीला में राम बनना मुझे कभी न गवारा हुआ। हमेशा लक्ष्मण बनना चाहा, मगर हर बार राम ही बना दिया जाता। साँवला था न, इसीलिए। ऐसे में, मैं अपने साँवलेपन पर ख़ूब कुढ़ता।…कितनी भी मेहनत से राम बनो, वाह-वाही तो लक्ष्मण के ही हिस्से आती। कितना मुश्किल होता है ख़ुद को गम्भीर बनाये रखना? वह भी तब, जब स्टेज के क़रीब बैठे चिलबिले लड़के आपको चिढ़ाते हों। हँसाने की कोशिश करते हों। ग़ुस्सा दिलाते हों…
भरत-मिलाप में मेरा सारा मलाल ख़त्म हो गया। मैं राम बना सबसे ऊँचे हाथी पर बैठा था, सिर पर मुकुट बाँधे, कंधे पर धनुष टाँगे और हाथ में बाण लिये। हमारे यहाँ राम की पीठ पर तरकश नहीं लटकता। राम को कई बाणों की क्या ज़रूरत? उनके लिए तो एक ही बाण काफ़ी है।…शुरू- शुरू में तो मैं बहुत घबराया। सपने वाला हाथी रह-रहकर ज़ेहन में दौड़ लगाता। जैसे-जैसे लोग सिर नवाते, टीका लगाते, फूल चढ़ाते; वैसे-वैसे मेरे चेहरे की रंगत बदलने लगी। जिस्म में एक अजीब किस्म की सरसराहट होने लगी। सिर तनने लगा। मेरा दाहिना हाथ, जो पहले हाथी की पीठ से बँधी रस्सी को कस कर पकड़े था, कब उठा और पंजे की शक्ल में तन गया, मुझे पता ही न चला।
            दादी घर में मूर्छित हो गई थी। इसका पता तो मुझे घर आने पर चला। मैं सोचता हूँ कि अगर पहले चल जाता, तो क्या मैं राम का लबादा छोड़ चला आता, जैसे आज दादी के लिए सारा काम छोड़ देता हूँ? शायद नहीं। ऐसा नहीं होता। उस वक़्त तो मैं समदर्शी था। अपने-पराये, सुख-दुःख, ईर्ष्या-द्वेष, मोह-माया से परे। कौन माँ? कौन दादी? मैं कहाँ था? बता नहीं सकता, क्योंकि इसे तो मैं भी नहीं जानता।
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आज तो हालत यह हो गई है कि बउराये को देखे बिना, उसकी चिग्घाड़ सुने बिना ही शामिल हो जाता हूँ भागने वालों में। अब तो भागता हूँ, किसी तरह घर में घुसता हूँ, सलामत पहुँच आने की ख़ुशी लिये, मगर वह ख़ुशी टिक नहीं पाती। दादी की हालत से टूटता हूँ। रिसता हूँ। उस दिन भी मैं भागा ही था, मगर साक्षात् बउराये हाथी की ओर।
            माघ का महीना था। ठंढ से किकुड़ते आसमान की भी नाक बही जा रही थी, जो पेड़-पौधों की फुनगियों से होती हुई ज़मीन पर गिर रही थी। ठंढे और गीले अँधेरे में हर चीज़ नहा उठी थी। अगवारे के अरहर के गाछ आसमान को अपने सिर पर लादे एक ओर लरके जा रहे थे। हमेशा की तरह हम सभी बच्चे रजाई में दुबके, किकुरी मारे, आँखें मूदे पड़े थे। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि हम रात को नेवानका लज़ीज़ खाना खाये थे। घर-घर घूम कर बड़े-बूढ़ों से पैलगीके एवज में नया रक्खो, पुराना खाओके आशीर्वाद की भरी तकिया लगाये थे। दादी सोई थी या नहीं, कह नहीं सकता। वैसे, अगर सोई होती, तो आहट कैसे सुनती? और आहट! किसी भी प्रकार की आहट दादी से बच नहीं सकती।
            कौन है?’ की हाँक के साथ दादी कोठरी से निकल ओसारी में आई ही थी कि उसके पाँव कउड़े पर पड़ते-पड़ते बचे। उसने झट अपने पैर पीछे खींच लिए। आँखों के आगे घुप्प अँधेरा था। दादी अकनने लगी। सूँघने लगी।…कोई पिल्ला कें-केंभी नहीं कर रहा। और मरी कुतिया! वह तो दिन में भी खर्राटें लेती है और रात में भी। आजकल की औरतों की तरह हो गई है, जिन्हें अपने बच्चों की भी फ़िकर नहीं होती। बच्चे खाट से ढिमलायें, बिछौने पर ही टट्टी-पेशाब कर दें, अथवा भूख से रोयें-चिल्लायें। वे तो खर्राटें ही लेती रहेंगी।…फ़िकर हो भी, तो कैसे? बच्चे ही जब जने नहीं, सुन्न करके पेट चीर कर निकाल लिए जाते हों।
            सियार ने तो कहीं पिल्लों को नहीं…
            हाथी अपनी सूँड़ से ओसारी में कुछ टटोल रहा था। शायद उसे दादी के होने की आहट मिल गई थी। दादी अपने डंडे में पुआल लपेट कउड़े को दिखा रही थी, जिससे चारों ओर धुआँ गौंज गया।
            हाथी चिग्घाड़ा। कई चिनगारियाँ उठीं एक साथ। फूऽ खट् धम्की आवाज़ के साथ नरिये-खपड़े ज़मीन से आ लगे। खंभा दरक गया। घर काँपने लगा।
            हाथी! अरे बाप्प रे! हाथी!…
            दादी की आवाज़ हलक़ में ही सूख गयी। डंडा हाथ से छूट जले जा रहा था। हाथी चिग्घाड़ते हुए भाग रहा था।
            मौक़ा पा कुतिया एक-एक करके अपने पिल्लों को मुँह में दबाये लिये जा रही थी, किसी सुरक्षित जगह।
            कहाँ है हाथी?…किधर है हाथी? दादी को तो हर वक़्त हाथी ही सूझता है।…कहीं दादी ने भी तो सपना नहीं देखा?
            किसी नतीजे पर पहुँचने के पहले ही मैं घसीटकर घर में ढुँकाया जा चुका था। दादी में इतनी ताक़त न जाने कहाँ से आ गई थी।
            पूरा घर सिमट कर गठरी बन गया था, अँधेरे और सीलन और उमस में घुटता वह कछुआ बन गया था, जो अपने सारे अंगों को अपने में सिकोड़े स्थिर हो जाता है। मैं हाथी को देखना चाहता था। अगर भरत-मिलाप वाला हुआ, तो उसे समझा लूँगा। इतनी जल्दी थोड़े भूल जायेगा।…माँ भी तो घबराई हुई है। मैं पूछना चाहता हूँ, मगर उसका चेहरा देख पूछने की हिम्मत नहीं होती।
मैं चुपके से झरोखे के पास पहुँच गया और बाहर झाँकने लगा।…अरे बाप रे! हाथी किसी को अपनी सूँड़ में लपेट उठाकर पटक रहा है। अपने पैर से कुचल रहा है। सूँड़ से पकड़ कर चीर रहा है। दाँतों में टाँगे दौड़ रहा है। कूद रहा है। नाच रहा है।
            मैं भागा दादी की ओर।
            दादी तो आँगन में खड़ी है, आसमान की ओर आँखें उठाये। पता नहीं, भगवान से मिन्नत कर रही है, या आँखों में आसमान समेट रही है। तारे एक-एक कर उसकी आँखों में उतरने लगे हैं, शायद। अभी-अभी अँधेरे को चीरती एक उल्का उठी है और दूर अँधेरे में कहीं गुम हो गई है। कोई और वक़्त होता, तो दादी राम-रामकहती और समझाती कि कोई महान आत्मा जा रही है। हमारे न समझने पर बतलाती कि किसी महान इनसान की मौत हुई है।
            मैं आया था दादी से कहने कि वही क्यों नहीं सूरज को जगाती? पूरा गाँव अपने-अपने घरों में दुबका कछुआ बन गया है। यह जाने बिना कि घर कछुआ नहीं होता। पूरा-का-पूरा गाँव अभी भी सो रहा है, ख़ामोशी की रजाई में दुबका। जगाने को तो मैं भी जगा दूँ सूरज को, मगर डरता हूँ कि कहीं बच्चा समझ नाराज़ हो गया, तो?…
            हमारे गाँव में सूरज को जगाना पड़ता है। वह अपने आप नहीं जगता।…चिड़ियों की प्रभाती शुरू हो जाती है। जैसे कह रहीं हो कि उठो, सवेरा हो गया। कब तक चादर ताने पड़े रहोगे? देखो, दुनिया कितनी तरो-ताज़ा और ख़ुशबूदार हो गई है। …कहीं कुएँ में घड़ा डूब रहा होता है, ‘भरर् भरर् भड़प्।जैसे कह रहा हो कि ख़ालीपन को भरो। छूँछा तो हवा की छुअन से भी रो देता है।…सानी की ख़ुशबू माहौल में इस क़दर पसर गई होती है कि खूँटे से पगहा छोड़ने के पहले ही जानवर नाँद की ओर भागना चाहते हैं। उछलने-कूदने लगते हैं। अगर उनका वश चलता, तो कभी के नाँद पर पहुँच गये होते।…जरा तो धीरज धरो, भाई।…धीरज! कब का सवेरा हो गया और तुम धीरज की बात करते हो। काम पर नहीं जाना क्या?…और बछड़े! खूँटे से बँधे ब्आँ-ब्आँकरते हैं। उनके आगे चारा होता है। खली-खुद्दी होती है, मगर वे उसकी तरफ़ देखते तक नहीं। उन्हें कोई दूसरी ही लज़ीज़ ख़ुशबू खींचे लिए होती है। मुँह लार से भरा जा रहा होता है।…कहीं हर-हर गंगेके पहाड़े के साथ सिर पर गगरा उलटा जा रहा होता है।…कहीं अपनी घर वाली पर कोई प्रेम की ज़ुबान में खीझ रहा होता है।…
            आज कोई पीपल पर जल भी नहीं चढ़ा रहा है। क्या पता, महादेव जी ख़ुश हो अपने बेटे गणेश जी को रोक ही लेते!
            अरे, यह क्या? दादी के हाथ में उल्का? वह तो दूर अँधेरे में कहीं गुम हो गई थी न!
            गाँव में आवाज़ अब उठी है। चीख़ने की। चिल्लाने की। रोने की। तड़पने की। बीच-बीच में उठती हाथी की चिग्घाड़ हृदय की धड़कन को सुन्न कर देती है। कुत्ते भूँक नहीं, रो रहे हैं।
            उतरहिया की ओर से कुत्तों के बेशाख़्ता भूँकने की आवाज़ आ रही है। शायद वे चौकन्ने हो गये हैं।
            दादी अपने हाथ की उल्का के साथ दुआरे की ओर दौड़ी।
            अरे, पकड़। पकड़ रे दादी को। हथिया चीर डालेगा।चिल्लाती हुई माँ दौड़ी।
            माँ ने किससे कहा था? मुझी से न! मैं भी दौड़ा। दादी अभी दुआरे तक पहुँची ही थी कि गिर पड़ी एक चीख़ के साथ। उल्का हाथ से छूट दूर जा गिरी। सामने ख़ून में सनी कुतिया और पिल्ला ज़मीन पर कालिख़ की तरह पड़े थे। न जाने कैसे लुक्कारा मेरे हाथ में आ गया और मैं दखिनहिया की ओर दौड़ पड़ा। माँ के चिल्लाने की आवाज़ कानों में ज़रूर आई थी, मगर क्या कह कर चिल्लाई थी, नहीं पता।
            मैं चला था हाथी भगाने, परंतु ठीक वैसे ही भागा, जैसे सपने में भागता था। हाथी मेरे लुक्कारे को देख चिग्घाड़ा था और मेरी ओर दौड़ा था। अचानक दादी कौंधी और मैंने अपने हाथ के लुक्कारे को पुआल के मंदिर में फेंक दिया। हाथी ऐसे भागा कि फिर नहीं दिखा। फिर भी लगता था कि हाथी सब जगह था। गिरे हुए ख़ून में सने हुए घरों पर उसके पैरों की छाप फटे लिफ़ाफ़े पर लगी मुहर की तरह नज़र आ रही थी। कहीं हाथ, कहीं पैर, कहीं सिर, कहीं पेट बिखरे पड़े थे। लगता था कि हाथी ने गाँव को अपनी सूँड़ में लपेट कर पहले ख़ूब घसीटा, फिर आसमानी चक्करदार झूला झुलाया और ज़ोर से पटक दिया। फिर दाँतों से ख़ूब कुरेदा। सूँड़ से चीर कर, नोंच-नोंच कर खाया। जी भर कर पीया…
            चीख़ते-चीख़ते गाँव बेआवाज़ हो गया, फिर से। कराह भी नहीं रहा।…कहीं मर तो नहीं गया?…इतने पर भी कोई बचा है, भला?
            सूरज अपनी आँखें मलते हुए अब उठा है। पता नहीं, अभी भी उसकी नींद पूरी हुई, या नहीं। कुत्ते ज़रूर भूँकने लगे हैं उतरहिया की ओर मुँह किये। जैसे हाथी उधर से ही आया हो।…
            गिद्ध-चील और कौओं से ज़मीन-आसमान पटे पड़े हैं। चिड़ियाँ कहीं दिखी नहीं रहीं।…कहाँ गईं सारी चिड़ियाँ?…
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हाथी! हाथी!! हाथी!!!
            सभी त्रस्त हैं हाथी से।…कितनी मुश्किल से तो दुधारू चउवे पेन्हाये हैं। दूध दुहने वाला अपने दोनों घुटनों के बीच बाल्टी दबाये दूध निकाल रहा है। पिलवान होने पर भी हाथी चिग्घाड़ता है। चउवे भड़कते हैं। कूदने-फाँदने लगते हैं। दूध दुहता आदमी चउवों की लात से एक ओर ढिमलाता है और दूसरी ओर दूध ज़मीन पर पसर जाता है। दुहने वाला अपनी खिसियाहट चउवों पर उतारता है।…सड़क पर आता हाथी देख लोग किनारे के खड्ड में छिप जाते हैं।…आये दिन फ़सल ख़त्म होती जाती है। पिलवान जिधर चाहता है, हाथी को ले जाता है। हाथी जो चाहता है, खाता है। जिधर चाहता है, राह बना लेता है।…गाँव में खण्डहर और झाड़-झंखाड़ ही बढ़ रहे हैं। बाबू साहब के लोग उसे आबाद कर रहे हैं।
            ऐसा भी नहीं है कि लोगों ने हाथी से बचाव की कोशिश नहीं की। ये जो जगह-जगह गड्ढे दिख रहे हैं न! हाथी को फँसाने के लिए ही बनाये गये हैं। मगर आज तक इनमें एक भी हाथी नहीं गिरा। गिरे तो बूढ़े और बच्चे और दादी।
            गाँव के लोग जानते हैं कि जब हाथी बउरा जाता है, पिलवानों के क़ाबू में नहीं रहता, तो बाबू साहब उसे मरवा देते हैं। और जतन से दफ़नवा देते हैं। कहा है न कि जिंदा हाथी एक लाख का, मरे पर सवा लाख का।फिर भी हाथी कम नहीं हो रहे, बढ़ते ही जा रहे हैं। जहाँ देखिये वहाँ हाथियों के पैरों के निशान मौजूद हैं।
हाथी तो हाथी है। पिलवान को भी कोई नहीं बोलता।…क्या पता कब लहकार दे? सो, उसको ख़ुश रखने में ही भलाई भी है और समझदारी भी।…हाथी से कहीं कोई पार पाया है?…
कितना कोई नज़र रखे दादी पर? उसके अलावा भी तो दूसरे ज़रूरी काम हैं। मौक़ा पाते ही टघरते-टघरते पहुँच जायेगी खण्डहरों और झाड़-झंखाड़ों के बीच। गड्ढों के पास। झाड़-झंखाड़ों को साफ़ करने लगेगी और अचेत हो ढिमला जायेगी। गड्ढों में मिट्टी गिराते-गिराते ख़ुद ही गिर जायेगी। फिर निकालो। लाओ टाँग कर। मैं ही नहीं, गाँव भी परेशान है दादी से।
            कुछ लोग उतरहिया की ओर जाने का मन बना चुके हैं। आये दिन उधर से उठने वाली चीत्कार के बावजूद।
            अभी भी लोग हाथी और पिलवान की मदद से पीपल और बरगद से घर की रक्षा कर रहे हैं। दीवारों को गिरने से बचा रहे हैं। द्वारपूजा में हाथी को चिग्घड़वा रहे हैं। उसकी पूजा कर रहे हैं। भरत-मिलाप का जुलूस निकल रहा है। रामलीला समिति मज़बूत होती जा रही है।…लोग भले-भोले और समझदार होते जा रहे हैं। और दादी चीख़ती जा रही है। चिल्लाती जा रही है। छटपटाती जा रही है। “…न आने दो गाँव में। मार डालो…की आवाज़ गों-गोंमें बदलती जा रही है। कभी-कभार इक्के-दुक्के कुत्ते भूँकते ज़रूर हैं, मगर उतरहिया की ओर मुँह करके। बच्चे दादी के पास आते हैं, मगर अपने घरवालों से छिप कर।
            मेरी बाँसुरी आपको सुहाई नहीं न। तो फिर क्या करूँ?…मदद कीजिये। अब नहीं रहा जाता। ऐसा कीजिए कि दादी से ही निज़ात दिला दीजिए। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।
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सम्पर्क- 

मोबाईल- 09427072772    

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)       

श्रीराम त्रिपाठी का एक आलेख ‘मुर्दहिया’

तुलसी राम
बीते 13 फरवरी 2015 को हिन्दी साहित्य की एक ऐसी क्षति हुई जिसकी भरपाई हो पाना नामुमकिन हैतुलसीराम का जन्म आजमगढ़ के धरमपुर में एक जुलाई 1949 को हुआ था प्राथमिक शिक्षा गाँव से ही हुई आगे की पढाई बी एच यू और जवाहर लाल नेहरू विश्व   विद्यालय से हुई फिर ये जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में ही अध्यापन करने लगे 

तुलसीराम बौद्ध धर्म और दर्शन के गंभीर अध्‍येता थे। उनका व्यक्तित्व और दलित चिंतकों से पूरी तरह अलग था। दरअसल वे इसके मूल में था उनका फक्कड़ाना स्वभाव जो उन्हें कबीर से मिला था। बचपन से ही वे सवर्णों की अनेक प्रताड़नाओं के शिकार हुए इसीलिए वे जाति व्यवस्था के घोर विरोधी थे। लेकिन वे भारत की हकीकत को जानते थे। उन्हें पता था कि भारत नामक देश की यह जो इमारत है उसकी दीवालों से लगायत छत तक जाति, धर्म, वर्ग जैसी मकड़ी के वैसे जाले फैले हुए हैं जिससे पार पाना बहुत दुष्कर है। यहाँ के लोग जब तक अपनी कुंठित जातिवादी मानसिकता को नहीं छोड़ेंगे तब तक सच्चे मायनों में एक आधुनिक प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक भारत का निर्माण संभव ही नहीं। वे स्वभाव में अत्यंत सहज और सरल थे इसीलिए एक प्रतिबद्ध इमानदारी उनके अन्दर थी। तभी तो जहाँ एक तरफ तुलसी राम अपने लेखन में  ब्राह्मणवाद पर प्रहार करते हैं वहीँ दूसरी तरफ शोर-शराबा करने वालों से अलग वे दलित साहित्‍य और राजनीति की सीमाएं रेखांकित करना भी नहीं भूलते। वर्ष 2010 में जब उनकी आत्मकथा का पहला भाग ‘मुर्दहिया’ छपा तो चारो तरफ तुलसी राम जी की ख्याति फ़ैल गयी। हालांकि वे मूलतः अंतर्राष्ट्रीय संबंधों खासकर रुसी मामलों के विशेषज्ञ थे। लेकिन मुर्दहिया के लेखन से ऐसा लगता ही नहीं कि वे मूलतः साहित्य के नहीं थे मुर्दहिया के लोकार्पण में वरिष्‍ठ आलोचक प्रोफेसर नामवर सिंह ने इसे उपन्‍यास जैसा ही रोचक बताया अभी हाल ही में उनकी आत्‍मकथा का दूसरा भाग मणिकर्णिका’  नाम से आया है अभी इसका तीसरा भाग आने वाला था तुलसी राम जी के न होने से अब यह नामुमकिन है इसके अतिरिक्त भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण काम किये हैं जिनमें अंगोला का मुक्ति संघर्ष’,  ‘एआईए: राजनीतिक विध्वंस का अमरीकी हथियार’, ‘ हिस्ट्री ऑफ़ कम्युनिस्ट मूवमेंट इन ईरान’, ‘पर्सिया टू ईरान’ (वन स्टेप फारवर्ड टू स्टेप्स बैक) तथा आइडियोलॉजी इन सोवियत-ईरान रिलेशन्स’ (लेनिन टू स्टालिन) आदि प्रमुख हैं। तुलसी राम जी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं मुर्दहिया पर श्रीराम त्रिपाठी का एक आलेख       
मुर्दहिया
श्रीराम त्रिपाठी
हर साहित्यकार अपने समय से रूबरू होता है, मतलब कि अपने समय को पहले अय करता है फिर वियता-व्ययता है। इसी तरह वह अपने समय के वाद को अवाद कर ही विवादता है, इस आस में कि वह सम्वाद बन जाए। मतलब कि हर कोई उसकी बात को स्वीकार ले। आज के समय का वाद भोगना न होकर उपभोगना है। भोगना कठिन और उपभोगना आसान है। जैसे कि फल खाना आसान है और फल खाने के बाद पेड़ लगाना कठिन। इस तरह केवल फल खाना उपभोग है, जबकि पेड़ लगाना और फल खाना भोग। इस तरह सर्जक ही भोक्ता होता है, बक़िया उपभोक्ता। भोक्ता के जेहन में और जिस्म पर खाने का केवल स्वाद ही नहीं होता है, बल्कि पकाने का चिह्न भी होता है। ऐसे दौर में सर्जन जैसे कठिन काम को अंजाम देना वाक़ई दुरूह है। ऐसे लोगों का सम्मान ज़रूर किया जाना चाहिए, मगर इसका ख़याल रखते हुए कि क्या लेखक ने सचमुच ही दुरूह काम किया है! कहीं ऐसा तो नहीं कि उपभोक्ता ने ही भोक्ता का रूप धर लिया। जब वस्तु और रूप की एकता ख़त्म हो जाती है, तब धोखे की गुंजाइश बढ़ जाती है। इस तरह यह छलवादी दौर है। भ्रम फैलाता है। उसने भाषा को ही भाषा के विरुद्ध कर दिया है। मतलब कि व्यक्ति को ही व्यक्ति का विरोधी बना दिया है। जब हम ख़ुद के विरोधी हो जाएँ, जब हमें ख़ुद पर ही विश्वास न रहे, ऐसे में हम कितना भयभीत होंगे! हर समाज अपनी श्रेष्ठता की कसौटियों पर कसकर ही किसी को सम्मानित करता है। इसलिए साहित्य समाज को भी अपनी श्रेष्ठता की कसौटी पर कस कर ही किसी साहित्य को सम्मानना चाहिए।
      कहा जाता है कि पूँजीवाद में उपन्यास का वही स्थान है, जो सामंतवाद में महाकाव्य का होता था। हिन्दी में ऐसे उपन्यास तो मुश्किल से दर्जन भर ही लिखे गए। यूँ तो उपन्यासों की भरमार है, मगर वे उपर्युक्त कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इधर दृष्टि का विस्तार तो बढ़ा है, मगर गहराई कम हुई है। इस तरह दृष्टि की सम्-घनता (जिसके तीनों आयाम समान हों) बाधित हुई है। साहित्य का मापक संघन होता है सघन नहीं। परंतु आजकल तो सघनताही साहित्य की मापिया बन गयी है। अनुनासिक का लोप अकारण नहीं हुआ। गहनता अपने आप में तकलीफ़देह होने के साथ तीव्रता की बाधक है। तीव्रता तो हल्केपन से आती है। सो गहनता को लुप्त करने के लिए अनुनासिक का लोप किया गया, जिससे सघनस्थापित हो गया। चरवादी की नज़र ज़मीन के ऊपर के फल पर होती है, जबकि किसान की ज़मीन के भीतर से लेकर फल तक। वह ज़मीन और फल को गुणते हुए गहता-गहनता है, इसीलिए संघनता है, सघनता नहीं। जो जितना ही गहे-गहनेगा उसकी गति उतनी ही मंद होगी। तीव्र नहीं हो सकती है। वह तो कछुआ ही साबित होगा, खरगोश नहीं। कैसी विडंबना है कि हम बचपन में पठित कहानी के ठीक विरुद्ध गति कर रहे हैं। मानो वह बचपने को प्रकट करती हो, जबकि हम तो पोढ़ हो गए हैं। इन पोढ़ और सघन लोगों की मजबूती क्या छिपी हुई है! कैसी विडंबना है कि हल्केपन की ओर भागते हुए हम अपने को भारी समझ रहे हैं। इसी क्रम में आज उपन्यासों की बाढ़ है, मगर उनमें से कितने सचमुच के उपन्यास हैं। आकाश (अ-अकाश) में उड़तों को अवकाश कहाँ! उन्-नति श्रेष्ठ है, या अव-नति। इस तरह हम निरंतर मिट्टीहीन होकर उथले और हल्के होते जा रहे हैं। ऐसे में हमारी रचना भारी और संघन हो तो कैसे! इस प्रकार बाज़ार का हल्कावाद पूरे वातावरण में गूँज रहा है, जिसके आगे सचमुच के सर्जक की आवाज़ ग़ुम है। उसकी आवाज़ सुनने के लिए समय और श्रम चाहिए, जो किसी के पास नहीं। फिर सर्जक और सर्जन की बात करे तो कौन!
      अगर उपन्यास-कहानी लगने-अलगने का सातत्य है, तो आत्मकथा और संस्मरण केवल लगने का। इसका मतलब है कि हम अपने में सिमट गये हैं। ये विधाएँ श्रेष्ठ विधाएँ नहीं हैं, यह जानते हुए भी हम साहित्य की गिरावट के पीछे के कारणों की छानबीन नहीं कर रहे, बल्कि इनकी स्थापना में ही लगे हुए हैं। इस पर चर्चा नहीं कर रहे कि आत्म की कथा को हम परात्म की कथा क्यों नहीं बना पा रहे। साहित्य तो आत्म और परात्म का, भुक्त और दृष्ट का गुणन होता है, जिससे पाठक में भी गुणशीलता प्रवाहित होती है। कौन नहीं जानता कि उपन्यास-कहानी की बनिस्बत आत्मकथा और संस्मरण लिखना आसान है! इस तरह आसान काम को श्रेष्ठ साहित्य के रूप में सम्मानित किया जा रहा है। क्या यह साहित्य की पतन नहीं है? उपभोक्तावाद ने हमारे सर्जक को भी जकड़ लिया है। विडंबना यह है कि यह जकड़न हमारे सर्जक को पीड़ने के बजाय आनंदित करती है। ख़ूब! बहुत ख़ूब! कविता में आत्म की मात्रा अधिक और परात्म की कम होती है। गद्य में आत्म की मात्रा कम और परात्म की ज़ियादा होती है। प्राचीन कविता की लय पाठक को वहती-वहाती थी, इसीलिए पाठक को भी आनंदित करती थी। गद्य की लय द्वंद्वात्मक होती है। वह पाठक को न वहती है, न वहाती। वह तो पाठक को ख़ुद अपने अनुसार वहने-वहाने को प्रेरित करती है। कविता के बाद दलित साहित्य, जो आत्मकथा के रूप में प्रकट हुआ, इसके मूल में वही आत्म तत्त्व की प्रधानता कारणभूत रही। अत्यंत विषम परिस्थितियों से संघर्षित जीव जब गौरवान्वित जगह पर पहुँचा, तो उसे वह गौरव नहीं मिला, जो उस जगह के दूसरे लोगों को मिलता था। एक ओर तो यह पीड़ा उसे सालती थी, तो दूसरी ओर आश्वस्त भी करती थी। आधुनिक साहित्य का सबसे बड़ा मानक संघर्ष है। जिसमें जितनी संघर्ष-क्षमता होगी, वह उतना ही महान साहित्य होगा। इसी मानक ने उनके वास्तविक संघर्ष को अतिशयी बनाया। ज़ियादातर दलित आत्मकथाएँ इन्हीं भावों के द्वंद्व की संरचनाएँ हैं। दलित लेखकों के पास आत्म-पीड़ा को परात्म-पीड़ा में रूपांतरित करने का अवकाश नहीं था। ऐसे में आवेगपूर्ण आत्मकथा ही लिखी जा सकती थी। ऐसी आत्मकथा, जो अनगढ़ होने के कारण अन्य आत्मकथाओं से भिन्न थी। इसीलिए ध्यान आकर्षित करती थी। इधर दलित साहित्यकार अपने भूतकालीन आत्म से निजात पाने की कोशिश में समकालीन हो रहा है। इसलिए वह भले ही अपनी रचना को आत्मकथा का नाम दे रहा हो, मगर वह आत्मकथा के साथ परात्म कथा भी लिख रहा है, जिसमें मैं और पर का द्वंद्व लक्षित होता है। हाँ, अभी वह प्रथम पुरुष के माध्यम से प्रकट कर रहा है, उम्मीद है कि कल वह अन्य पुरुष के माध्यम से भी प्रकट करेगा। ऐसा कहने का आधार मुर्दहियाहै, जिसका लेखक साहित्यिक न होकर दार्शनिक है। हो सकता है कि उसकी दार्शनिक प्रवृत्ति ने ही उसे अपने भूतकालीन संघर्षों से जोड़े रख कर उसका दर्शन करने को प्रेरित किया हो। इसीलिए यह कृति आत्मकथा होते हुए भी औपन्यासिक कृति का एहसास कराती है। इसमें प्रकट मैंएक चरित्र होने के साथ लेखक का मैंभी है। इसमें लेखक का आत्म सिकुड़ने के साथ विस्तरता भी है, जिसमें व्यक्तिगत पीड़ा के साथ-साथ दूसरों की पीड़ा भी नज़र आती है। वह इस व्यवस्था से संघर्ष करने को प्रेरित करता है, जो मानव जीव को उसकी क्षमता के अनुसार विकसने से रोकती है। इसीलिए यह कृति जाति जैसी रूढ़ियों (मृत) की अपेक्षा उन जीवंत जीव-विरोधियों से टकराती है, जो जीव के विकास में बाधक बनती हैं।
      जो समाज सदियों से अपनी असह्य पीड़ा को वण नहीं पा रहा था, जिसकी पीड़ा को दूसरों ने वणा, अब वह इसमें समर्थ हुआ है। जिन दूसरों ने उनकी पीड़ा को वाणी दी थी, उन्होंने ही उनकी वाणी का स्वागत करते हुए हौसला बढ़ाया। द्वंद्व ही साहित्य की धड़कन है। भाव और विचारों का रूपांतरण महज़ भाषा में ही नहीं, चरित्रों में भी होता है। लेखक को ही विभिन्न चरित्रों में रूपांतरित होना होता है, न कि किसी और को पेश करना। ऐसे में लेखक के विभिन्न क्रिया-कलाप ही रचना को प्रवहते और प्रवाहशील बनाते हैं। इसे से पाठक भी संचरित होता है। पहले तो वह पाठक को वहता है, फिर पाठक उसको। कोई भी रचना जितना ही पाठक को प्रवहेगी, पाठक द्वारा उतना ही प्रवही जायेगी। आज के हिन्दी साहित्य में उपन्यास की अपेक्षा आत्मकथा और संस्मरण अधिक प्रभावशाली ढंग से लिखे जा रहे हैं। इसका यह मतलब नहीं कि अपन्यास की अपेक्षा ये विधाएँ ज़ियादा प्रभावशाली हो गयी हैं। मनुष्य का लक्ष्य है जटिल जीवन को सरल करना। उसके एक-एक रेशे को अलग करना। जिस विधि से यह सरल किया जाता है, वह भी जटिल ही कहलाता है, क्योंकि उसी के द्वारा जटिलता सरलता में तब्दील हुई। विविध जीवन की विविध जटिलताओं को सरल करना एकविध नहीं, विविध ही हो सकता है, जो नहीं हो रहा है। उपन्यास-विधि आत्मकथा और संस्मरण की अपेक्षा कठिन और जटिल होने के बावजूद आत्मकथा और संस्मरण से पिछड़ रही है। कारण कि ये विधाएँ अपनी गुणवत्ता में विकास कर रही हैं, जबकि उपन्यास में ऐसा नहीं हो रहा। स्पष्ट है कि हम जटिलता और कठिनता से भाग रहे हैं। इस प्रकार उपन्यास विधा ह्रासोन्मुख है, कहना ग़लत न होगा। हमारी चिंता उस नुक्ते पर है, जो समकालीन साहित्य को पिछले साहित्य से बेहतर नहीं बना रही। मतलब कि रचनात्मकता का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है। क्या कविता-नाटक, क्या कहानी-उपन्यास। ऐसे में आलोचना की बात उठाना बेमानी है। तो विकासोन्मुख विधा आत्मकथा को तुलसीराम की मुर्दहियानिश्चित रूप से और विकसित करती है, क्योंकि यह आत्म की कथा होने पर भी अपने आत्म को अतिक्रमित करती है। इसका आवेग संतुलित है। जबकि ज़ियादातर आत्मकथाएँ आत्म में सिमटी आवेगपूर्ण होती हैं, जिससे आवेग का प्रस्फुटन अच्छे-बुरे सब को नष्ट कर देता है। शायद इसी कारण इस आत्मकथा को आलोचकों ने उत्तर आधुनिक कहा है। उत्तर आधुनिकता के मर्मज्ञों का कहना है कि जहाँ सारी विधाएँ एक-दूसरे में घुल-मिल जाएँ, तो उसे उत्तर आधुनिक समझ लीजिए। मतलब कि जहाँ विधागत कोई बंधन न हो। उत्तर आधुनिकता मान्य रूपों को नकारती तो है, मगर किसी अन्य रूप को स्थापित नहीं करती, जिससे नाम (संज्ञा) की ज़रूरत ही नहीं रहती। इस तरह उत्तर आधुनिकता ऐसी मानहीन दुनिया का निर्माण करता है, जिसमें अच्छा-बुरा, सही-ग़लत कुछ नहीं होता। मुर्दहियामें जो जीवन का सतत प्रवाह है, वह जो भी रूप बनाता है, सतत परिवर्तनशील है। हाँ, उसमें पिछले रूप का अक्स ज़रूर दिखता है। मुर्दहियाआत्मकथा है, या उपन्यास? इसका जवाब तो नि-संदेह आत्मकथा ही होगा। एक श्रेष्ठ आत्मकथा, जिसमें आत्म का जो रूप उभरता है, वह अपने परिवेश की त्रासदी को ख़ुद तक ही नहीं सीमित करता, अपितु उन तमाम लोगों तक विस्तृत करता है जो इसके शिकार हैं। इस तरह यह एकोऽहं द्वितीयो नास्तिसे एकदम भिन्न होने के कारण आत्मकथा के नये मापक की माँग करती है। 
      जिसे हम वातावरण कहते हैं, वह वात का आवरण भी है और बात का वरण (वर्ण) भी। आज बात के आवरण और वरण को ही भेदना है। वाल्मीकि ने इसी तरह षाद (साद-खाद) को निषाद (निसाद-निखाद) किया था। अन्यथा तो क्रौंच को मारकर खाना सिद्ध ही था, निषिद्ध तो वाल्मीकि ने किया। बात पर जब कई आवरण चढ़ा-चढ़ाकर कठोर कर दिया जाता है, तब उसे तोड़ने की ज़रूरत पड़ती है। वाल्मीकि ने उसी कठोर बात को तोड़ा था, जिससे करुणा की धार बही थी। तुलसी राम बात की कठोरता को तोड़कर जीवन की धार बहाते हैं। जातिरूपी कठोर बात के भीतर भारतीय जीवन सिसक रहा है। तुलसी राम ने उसे भोगा भी है और देखा भी है। वे दोनों को गुणते हैं, इसीलिए संतुलित होते हैं। उनकी स्थिरता में भी प्रवाह है। एक गति, जो जीवन की गति है उसमें लय भी हो जाते हैं और उसे लयित भी करते हैं। तुलसी राम ऐसा दलित है, जो सवर्णों के साथ-साथ दलितों द्वारा भी दला गया। काले चेहरे पर चेचक के दाग़ और एक आँख के चले जाने पर वह अपने सगे चाचा नग्गर द्वारा ही अपशकुन क़रार दिया गया। परायों की अपमानना उतनी नहीं पीड़ती, जितनी अपनों की। तुलसी अगर कहीं से प्रेरणा और स्नेह पाता है, तो वह माँ और दादी हैं। अगर वे न होते तो तुलसी का जीना मुहाल हो जाता। ऐसे में दादी और माँ की युगीन शृंखला, उसकी सृजन-शक्ति बन जाती है।
      तुलसी राम ने जीव और जीवन को आत्मसात किया है। वे जीवन-दृष्टि से सम्पन्न हैं, इसीलिए जाति के साथ-साथ दलित आत्मकथाओं के बाड़े को भी तोड़ते हैं। इस तरह वे वाल्मीकि की परम्परा में खड़े नज़र आते हैं। जिस तरह वाल्मीकि की रामायणम्का ब्राह्मणवादी पाठ स्वीकार कर दलितों ने रामायणम्और वाल्मीकि को ही त्याग दिया, कहीं उसी तरह मुर्दहियाऔर तुलसी राम भी त्याग न दिये जाएँ। तुलसीराम के लेखे भारतीय समाज में अज्ञान का बोल-बाला है। क्या सवर्ण और क्या अवर्ण। जिसे ज्ञानी समाज कहा जाता है, वह आधुनिक पंडोंके हवाले है। उस समाज की रूढ़ियाँ सहजता से निम्न समाज में आरोपित हो जाती हैं। निम्न समाज अत्यंत उर्वर होता है, जिसे उच्च वर्ग दबा-दबाकर कठोर बना देता है। इस तरह एक त्रसित दूसरे को त्रासकर संतुष्ट होता है। पूरी कथा में विकासशील चरित्रों की कमी इस बात का द्योतक है कि आज भी आधुनिक पंडोंका ही बोलबाला है। इस कठोर आवाज़ को तोड़ने के लिए कई तुलसी राम की ज़रूरत है।
      इस प्रकार मुर्दहियामौजूदा चलन का विचलन है। तुलसी राम दार्शनिक हैं, साहित्यकार नहीं। हाँ, दर्शन के लिए उन्हें साहित्य के पास ही जाना पड़ता होगा, क्योंकि भारत का वास्तविक इतिहास तो साहित्य ही है। महाभारतअथवा रामायणमें जो हमें ऊपर-ऊपर दिखता है, हम उसे ही सत्य मान लेते हैं। औजारों से लैश एक-दूसरे से लड़ते लोगों को देखते और ताली पीटते हैं। उन औजारों के निर्माता को खोजते ही नहीं। निर्माताओं ने उन औजारों को क्या मनुष्यों से लड़ने के लिए बनाया था- ऐसे सवाल ही नहीं करते। औजारों से लैश तथाकथित उन ताक़तवर योद्धाओं के भीतर अन्न-जल, दूध-घी पहुँचाने वालों को खोजते ही नहीं। कहाँ हैं वे, किस हाल में हैं? तुलसी राम मुर्दहियानामक ऊसर टीले को गुणते-गोड़ते हैं। मतलब कि उपजाऊ बनाते हैं, जिसमें जीवन लहलहाता है। बाहर से जीवहीन लगती मुर्दहिया के भीतर तरह-तरह के लोग एक-दूसरे के साथ-साथ अपने बाहरी वातावरण से संघर्ष करते हैं। मेरे मन में एक सवाल कुलबुलाता है कि एक सम्मानित दार्शनिक अपना प्रिय विषय छोड़कर साहित्य में क्यों और कैसे कूद पड़ा? क्या उसका मन दर्शन से ऊब चुका था, या साहित्य में भी हाथ आजमाने की इच्छा जगी? साठ के आस-पास की उम्र में ऐसा होना मुमकिन नहीं। कम से कम तुलसी राम जैसे दार्शनिक से तो नहीं ही। एक दार्शनिक मूलतः अपने समय को दर्शता है। इसी प्रक्रिया में तुलसी राम ने देखा (दर्शा) कि उनके जैसे जीवन जीने वालों ने अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसमें आक्रोश ही आक्रोश है। ध्यातव्य है कि उन आत्मकथाओं के लेखक उन समस्याओं से उबरने के बाद अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। उनके आक्रोश न विखंडनात्मक थे, न सृजनात्मक। तुलसी राम भी उसी समाज की उपज हैं। ज़ियादातर दलित आत्मकथाएँ युवाओं द्वारा लिखी गयीं, पोढ़ों (प्रौढ़ों) द्वारा नहीं। कोई पोढ़ व्यक्ति ही अपने समुदाय की ग़लतियों को सुधारता है। वह जानता है कि हमें जो स्थितियाँ मिली हैं, उन्हीं के अंतर्गत रहते हुए उन स्थितियों को बदलना है। इतना जटिल और कठिन काम आक्रोश के बूते मुमकिन नहीं। इसलिए मानो वे दलितों के आक्रोश को संतुलित करते हैं। मतलब कि उसमें अपने दर्शन को शामिल करते हैं। वे साफ़ तौर पर देखते हैं कि समस्या की जड़ अज्ञान है। इसीलिए वे मुर्दहियाका आगाज़ इस तरह करते हैं, “मानव जाति का वह पहला व्यक्ति जो जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच न जाने कितने पैदा हुए, किन्तु उनमें से कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था। लगभग तेईस सौ वर्ष पूर्व यूनान देश से भारत आए मिनांदर ने कहा कि आम भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे पढ़-लिख नहीं सकते। उसके समकालीनों ने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, किन्तु आधुनिक भारतीय पंडों ने मिनांदर का खूब खंडन-मंडन किया। हकीकत तो यह है कि आज भी करोड़ों भारतीय मिनांदर की कसौटी पर खरा उतरते हैं। सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम यह हुआ कि मूर्खता और मूर्खता के चलते अंधविश्वासों का बोझ मेरे पूर्वजों के सिर से कभी नहीं उतरा…।” ‘जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच’ ‘कोई पढ़ा-लिखा नहीं था।यहाँ व्यक्त मेरामें एकवचन की नहीं, बहुवचन की ताक़त है। भारत के तल की हक़ीक़त है यह। मिनांदर बाहरी व्यक्ति था। प्रवासी। प्रवासी का सरोकार स्ववासी की तरह न होने के बावजूद मिनांदर ने जो कहा वह तत्कालीन भारतीय समाज के तल का सत्य था, जिसे तत्कालीनों ने खंडित नहीं किया। तो क्यों? इसलिए कि यह हाथ-कंगन था। इसका मतलब है कि लिपि का ज्ञान चंद लोगों को ही था। बहुत लोग इससे वंचित थे। इसीलिए तत्कालीन विद्वानों ने इसका विरोध नहीं किया। विद्वान तो कड़वी से कड़वी सचाई को भी स्वीकारता है। यहाँ तत्कालीन विद्वानों के प्रति अवमानना का लेश मात्र भी नहीं है, जो तुलसी राम की गहनता और संतुलन का परिचायक है। साहित्य का लक्ष्य तो चंदों-बहुतों का भेद ख़त्म करके सभी (सभ्इअ, सभ्य) तक है। अगर एक व्यक्ति भी ज्ञान से वंचित रहता है, तो साहित्य इसका विरोध करेगा। वह सभी का हित चाहता है, चंदों-बहुतों का नहीं। यहाँ तो बहुत लोग वंचित थे। आधुनिक भारतीय पंडोंमें तीनों शब्द क़रारे व्यंग्य हैं। पुराने मिनांदर के कथन का खंडन-मंडन पुरानों द्वारा न होकर आधुनिकों द्वारा हो रहा है। मतलब कि ये आधुनिक जामे में पुराने लोग हैं। ये भारतीय (राष्ट्रीय) नहीं, पुराने भारत उप महाद्वीपीय हैं, जिसमें कई देश हुआ करते थे। सचाई को नकारने वाले सम्मान के हक़दार कैसे हो सकते हैं! इसीलिए उन्हें आधुनिक पंडोंसे अपमाना गया है। पंड का मतलब तालाब भी होता है और पाड़ा भी। भैंस और पाड़े को पानी बहुत प्यारा होता है। कहते हैं न कि गइलि भँइसिया पानी में।अब उसका निकलना मुश्किल है और अगर निकलेगी तो कीचड़ में लिथड़ी। तो ये पंडे कीचड़ को मंडते हैं, तभी तो कूप मंडूककहकर कूप की खिल्ली उड़ाते हैं, जब कि पानी पीने के लिए उसी के पास जाते हैं। ये स्वच्छ को उपभोगते और गंदगी को प्रसारते हैं। इसीलिए सम्मान के नहीं, अपमान के पात्र हैं। आत्म का आलोचक ही स्वच्छ होता है। तुलसी राम की मुर्दहियाआत्म का आलोचन करती है, इसीलिए सामान्य आत्मकथाओं से अलग और विशेष है। इस प्रकार मुर्दहियाका प्रारम्भ ही लेखक के सरोकार, भाषा-कौशल और गहन तथा विराट दृष्टि को कितनी साफ़गोई से प्रकट देता है। सुरसरि सम सब कर हित होईके कथन में नहीं, उसकी प्रक्रिया में तुलसी राम का विश्वास है। जब तक ज्ञान सभी तक नहीं पहुँचता, तब तक हम सभ्य नहीं हैं। ज्ञान से बहुतों को वंचित करके हमने भारत को ज्ञान से वंचित कर दिया। किस तरह तुलसी राम के ज्ञान-प्राप्ति में अज्ञान बाधक बनता है, इसी का जीवंत दस्तावेज़ है मुर्दहिया। कितने अज्ञानी थे हमारे पूर्वज, जिन्होंने प्रसारित की जानेवाली चीज़ पर पाबंदी लग दी थी। ज्ञान-प्राप्ति में लगे शम्बूक को दण्डित किया था। 
      अक्सर हम बाहर (रूप) को ही सच मान लेते हैं, जबकि जीव तो भीतर होता है। नारियल का फल बाहर से जैसा होता है, उससे एकदम अलग भीतर से। उसका मूल (मुलायम) रुक्ष रूप के भीतर है। हमें रूप से ज़ियादा मूल की ज़रूरत होती है। उसके रूप के रुक्ष होने का कारण बाहरी वातावरण है। उस मूल ने बाहरी वातावरण से संघर्ष करते हुए ख़ुद को संकोचा नहीं, बल्कि गहना और विस्तृत किया। संघर्ष के कारण उसका बाहरी आवरण जितना रुक्ष और कठोर हुआ उसके भीतर का जल उतना ही सुरक्षित और गतिशील रहा। उसकी जिजीविषा ने ही उसके रूप को रुक्ष और कठोर बनाया है। वृक्ष से अलगने पर अन्य फलों की तरह वह कुछ ही दिनों में सड़ (मर) नहीं जाता, बल्कि जीवित रहता है। तुलसी राम की मुर्दहियाऐसी ही रचना है। मुर्दहियाशब्द फ़ारसी के मुर्दः और भोजपुरी के इया प्रत्यय के मेल से बना है। भोजपुरी में खुरपी, फावड़ा, चाकू आदि में धार न होने पर वह मुरदार का विशेषण पाती है। इस तरह मुर्दहिया नाम का मान हुआ, जिसमें धार (जीवन) न हो। जहाँ मरे हुए लोग रहते हों। मगर मुर्दहियाके भीतर तो जीवन ही जीवन है। अत्यंत संघर्षरत गतिशील जीवन। देखने की बात यह है कि इसमें मनुष्य ही नहीं, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-तालाब; सभी जीवन की गतिमयता से ओत-प्रोत हैं। इस जटिल और गतिशील प्रवाह के अंतर्गत उत्पन्न एक दलित अबोध बच्चे का इस प्रवाह को ही अपने अंतर्गत कर लेने का संघर्ष है। लघु की संतान है लाघव, जो अत्यंत प्रेरक और सुन्दर है। हर लघु अपने लाघव द्वारा ही दीर्घ बनता है। किसी के अंतर्गत रहने वाला जब उस किसी को अपने अंतर्गत कर लेता है, तब उस किसी से दीर्घ हो जाता है। दीर्घ होना ही बड़ा होना है। बच्चे का बड़ा होना उसके बड़प्पन से जाना जाता है। ऊपर नारियल का ज़िक्र आया है। उसका मूल भीतर है। वह भीतर से बाहर की ओर विस्तरता है। मुर्दहियाका दलित अबोध बच्चा भी भीतर से बाहर को विस्तरते हुए अपने परिवेश को ख़ुद के अंतर्गत कर लेता है, तब ही तो उसे साफ़-साफ़ देख पाता है। तल की चीज़ को साफ़-साफ़ देखने के लिए पानी के भीतर की हलचल को शांत करना पड़ता है, जो आसान काम नहीं। तुलसी राम अपने अर्जे परिवेश को त्रासक रूप में प्रकट न करके सहचार के रूप में प्रकट करते हैं। उन्होंने जीवन से जो कुछ अर्जित किया, उसे अपने तल में सँजो लिया। रचने के पहले उसको आलोचा। मतलब कि साफ़ किया। उसके बाद सिरजा। इसीलिए मुर्दहियाउस प्रेरक के रूप में हमारे तल में उतरती है, जिससे कि हमारा भीतर तल तक उद्वेलित हो उठता है। जिस तरह दूध में दही (खट्टा) का कुछ अंश पड़ने पर पूरा दूध उद्वेलित होकर दही में रूपांतरित हो जाता है, उसी तरह मुर्दहियाहमारे रूप-गुण, दोनों में परिवर्तन ला देती है। इसीलिए इस कृति की संरचना में उतरना ज़रूरी हो जाता है। ऐसा करने से ख़ुद का भी रचनाकार में रूपांतरण की गुंजाइश बढ़ जाती है।
      हर व्यक्ति को अपने समय को अनुसरते-अनुसारते वर्तन करना पड़ता है। इसी प्रक्रिया में वह अपने और अपने समय को नवसारता भी है। मुझे सुखद आश्चर्य होता है कि दर्शन जैसे शुष्क क्षेत्र में रमनेवाला व्यक्ति साहित्य जैसे रसिक क्षेत्र में कैसे आ गया! शुष्क क्षेत्र में बबूल ही उगते हैं, केले और पपीते नहीं। मुर्दहियाका रूप बबूल है, मगर भीतर केले और पपीते। जिस तरह किसान गन्ने के खेत को चारों ओर से काँटों के बाड़ से सुरक्षित करता है, उसी तरह मानो मुर्दहियानामक बाड़ से तुलसी राम ने इसके भीतर के संघर्ष-रस को सुरक्षित कर दिया है, क्योंकि यह उपभोक्तावाद है। रस के चाहक सभी (सभ्इइ, सभ्इअ उ सभ्य) हैं, रस के सर्जक बहुत कम (असभ्य)। इस तथाकथित रसिक क्षेत्र के लिए तो वे नौसिखुवे हैं। उन्हें डर है कि कहीं उनके रस को चोर-उचक्के न लूट ले जाएँ, शायद इसीलिए उन्होंने मुर्दहियानामक बबूल से सुरक्षित किया है। जिस जीवन को अन्य दलित लेखकों ने प्रकाशित किया, उसी जीवन को तुलसी राम ने अधिक गहरे और परिष्कृत रूप में प्रकाशित किया है। ध्यातव्य है कि अधिकतर दलित आत्मकथाएँ युवा लेखकों द्वारा लिखी गयी हैं, पोढ़ों द्वारा नहीं। शायद इसी कारण उनमें आक्रोश ज़ियादा है। गौरतलब यह भी है कि वे जिस जीवन से बाहर निकल आये थे, उसी के प्रति आक्रोश प्रकट कर रहे थे। भूतकालीन जीवन पर आक्रोश प्रकट करने से वर्तमान को नहीं बदला जा सकता। अतीत के प्रति प्रकट आक्रोश वर्तमान के प्रति आगाह ज़रूर करता है, मगर ठोस परिवर्तन लाने में सहायक नहीं होता। ठोस परिवर्तन तो अतीत के मूल में चलने वाली प्रक्रियाओं को आत्मसात करने से होता है। इस तरह जीवन के मूल (गहराई) में उतरना ज़रूरी है। गहरे उतरने में समय और श्रम, दोनों लगते हैं। ये दोनों आक्रोश को संतुलित करते हैं। अधिकतर दलित आत्मकथाओं में उस जीवन से जूझने की प्रक्रिया कम और ख़ुद के दुख के विरुद्ध आक्रोश ज़ियादा है। उस कठिन जीवन से उबरते ही उन लेखकों ने उन स्थूल व्यक्तिओं और स्थितियों पर ही अपना ग़ुस्सा उतारा, उन प्रक्रियाओं को गहना कम, जिसे स्वाभाविक तो कह जा सकता है, मगर रचनात्मक नहीं। तुलसी राम अपनी स्वाभाविकता पर अंकुश लगाकर गहन रचनात्मकता को प्रश्रय देते हैं। वे उन व्यक्तियों और स्थितियों को गहरे देखते-परखते हैं। मतलब कि पहले दर्शते हैं उसके बाद रचते। अन्य दलित लेखकों की तरह वे भोक्ता से रचना की तरफ़ अग्रसरित न होकर दर्शन से रचना की तरफ़ अग्रसरित हुए हैं। भोग के समय तो हम सभी ऐक्टर होते हैं। भवते-भावते हैं। इसीलिए अपने क्रियारूप की गुणवत्ता और प्रभाव को नहीं जान पाते। क्रियारूप की गुणवत्ता और प्रभाव को तो दर्शक ही जान पाता है। ख़ुद के स्पष्ट दर्शन के लिए ख़ुद से उचित दूरी बनानी पड़ती है। भाव से दूर जाना पड़ता है। भाव ही तो रस है। इसीलिए तुलसी राम भाव (रस) से दूर दर्शन (अभाव, शुष्क) में गये। जहाँ से उन्होंने अपने अतीत को साफ़-साफ़, मतलब कि तल तक देखा। अपने दलित समाज और अन्य समाजों के क्रिया-कलापों को तल की गहराई तक देखा। जिससे उनकी व्यक्तिगत पीड़ा का स्वरूप विस्तर गया। व्यक्तिगत पीड़ा का शमन तो समाज पर आक्रोश व्यक्त करके हो सकता है, परंतु समाजगत पीड़ा का शमन हो, तो कैसे! तुलसी राम द्वारा समाजगत पीड़ा के शमन के उपचार की कोशिश का नाम ही मुर्दहिया है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि व्यक्तिगत तुलसी राम के समाजगत तुलसी राम में रूपांतरण का नाम हीमुर्दहिया है। ऐसे में तुलसी राम आक्रोश प्रकट करे, तो किस पर! तत्कालीन तुलसी राम का आक्रोश तत्काल में प्रकट भी हुआ होगा और नहीं भी। हम जो-जो, जैसे-जैसे, जब-जब करते हैं; अगर उन्हें ज्यों का त्यों दर्ज़ दें, तो वह किसी को भी प्रभावित नहीं करेगा। रचना भोक्ता और द्रष्टा का गुणन होती है, न कि भोक्ता का वर्ग अथवा द्रष्टा का वर्ग। इससे तो महज उसका आकार (क्षेत्रफल, वर्ग) बढ़ता है, संघनत्व नहीं। साहित्य न वर्गीय होता है, न सघन, वह तो संघन होता है। संघन के तीनों आयाम समान होते हैं। अय-अय (आय) तो सभी करते हैं, मगर व्ययते कम ही। अये अथवा आये को किस तरह व्यया जाये, कि समय हो जाये, कम ही लोग जानते हैं। तुलसी राम इसे जानते हैं। उन्होंने समय को भोगन और दर्शन के बिल्कुल मध्य और बराबर रखा है। इन्हीं तीनों का गुणफल है मुर्दहिया। यह सघन नहीं, संघन है। पहले यह आत्म का परिष्कार करती है, फिर समाज का। अगर भारतीय समाज के तल में उतरना हो, तो मुर्दहियाको न केवल पढ़ना चाहिए, बल्कि रुक-रुक कर पढ़ना चाहिए। तल के गहन मंथन से प्राप्त ज्ञान हमेशा हाथ-कंगन की तरह होता है।
      सर्जक पहले अपने भीतर अर्जित कच्चे माल का परिष्कार करता है। बाहर से अच्छा-बुरा जो भी मिलता है, वह हमारे भीतर सुरक्षित हो जाता है। बाहर प्रकट करने के लिए उसका परिष्कार किया जाना ज़रूरी है। परिष्कार लोचना करने से होता है, जिसे दर्शना भी कहते हैं। लोचना-दर्शना में समय लगता है। तुलसी राम पहले अपने घर को दर्शते हैं, जिसमें एक दादी है और एक चाचा भी। दादी स्नेहिल है, जबकि चाचा कठोर। चेचक से आँख चली जाने पर सबसे पहले चाचा ही उसे अपशकुन मानता है। जगह-जगह उसका तिरस्कार और अपमान करता है। अन्य समाज के लोग तो बाद में करते हैं। इसके मूल में अज्ञान है। अज्ञान किस प्रकार अपने-पराये के भेद को भी मिटा देता है, देखना हो तो मुर्दहियापढ़ना चाहिए। गाँव में तुलसी राम के अलावा एक सवर्ण व्यक्ति और एक महिला भी है, जो पूरे गाँव को अपशकुन लगती है। मेरे घर के पास एक आम के पेड़ में खूब बौर आए थे। अचानक जंगू पांडे आकर आम के बौरों को देखने लगे क्योंकि बौर बहुत अच्छे लग रहे थे। मेरे घर वालों ने कहना शुरू कर दिया कि जंगू पांडे की नजर लग गई। अब फल नहीं आएंगे। जबकि बाद में खूब फल आए। इसी तरह गांव की एक अन्य बुढ़िया ब्राह्मणी थी, जिसका नाम किसी को मालूम नहीं था। वह सिर्फ पंडिताइनके रूप में जानी जाती थी। पंडिताइन निर्वंश विधवा थी। उन्हें भी लोग देखना पसंद नहीं करते थे।” (12-13) “वैसे सच्चाई तो यह थी कि हमारे गांव में निर्वंश जंगू पांडे, विधवा पंडिताइन, पोखरे वाला उल्लू, खो-खो करने वाली मरखउकी चिड़िया और मैं स्वयं, हम पांचों असली अपशकुन थे जिन्हें देख-सुनकर लोगों की रूह कांप जाती थी।”(49) इसमें जाति-पाँति का कोई भेद नहीं है। अधिकतर दलित आत्मकथाएँ सवर्ण और अवर्ण पर आधारित हैं, जिसके कारण अवर्ण की भूल-ग़लतियाँ लेखकों को दिखलाई नहीं देतीं, या देखने की कोशिश ही नहीं की जाती। तुलसी राम इसके भीतर उतरते हैं, तो अभेद पाते हैं। उनके हिसाब से यह भेद अज्ञान की उपज है, जिसे ज्ञान के द्वारा ही ख़त्म किया जा सकता है। असंख्य विपरीत परिस्थितियों में मनुष्य अपने मूल में उतरता है। मूल ही वह ऊर्जा मुहैया कराता है, जिससे परिस्थितियों का सामना किया जाता है। तुलसी राम का मूल दादी है, इतनी गहरी कि आदिम दादी में परिवर्तित हो जाती है। इस दादी को तुलसी राम ने इतना गहा है कि हर वक़्त जैसे अपने साथ लिए हों। दादा से प्राप्त सिक्कों को दादी तुलसी राम से ही गिनवाती है, मगर देती एक भी नहीं। जिस भाव से दादी उसे सुरक्षित रखती है, तुलसी लाख कंगाली में भी उससे माँगता नहीं, यह जानता हुए कि दादी उसे दे देगी। इसके बाद स्नेहिल माँ है, जो इसके दुख में अपना पेट काटती है। अज्ञानी पिता की पढ़ाने की रुचि भी उत्साहित करती है। पिता भोला-भाला पुराने ख़यालों वाला इनसान है, परंतु यही भोला-भाला पिता माँ के चरित्र पर शक करके मारता-पीटता है, तो इसके मूल में उसका पुरुष होना प्रकट होता है। यह विचार उसे उच्च समाज से मिला है। तुलसी राम जैसे दिखला रहे हों कि अज्ञान दलित को भी दलक बना देता है। इसी कारण वह दूसरे समाजों से अकसर उनकी बुराइयाँ ही ग्रहण करता है, अच्छाइयाँ बहुत कम। 
      सवर्ण और अवर्ण का मूल तो अज्ञान है ही, उसका शासक भी अज्ञान है। अज्ञान ने ही एक-दूसरे पर निर्भर लोगों को बाँट दिया है। जीवन का यथार्थ इसे भुलाकर साथ रहने को मजबूर करता है। ज्ञान-अज्ञान में चोली-दामन का साथ है। चाहे स्कूल का हेड-मास्टर परशुराम सिंह हो, चाहे स्कूल के अबोध बच्चे। परशुराम सिंह व्यक्ति होने के साथ एक अध्यापक भी है। मतलब कि अज्ञान और ज्ञान से संचालित व्यक्ति। हेडमास्टर साहब प्राय: सवर्ण छात्रों से कहते: ठीक से सवाल पढ़िके ना अइबा त येही चमरै से रोज पिटवाइब।”(59) उनके इस कथन से तत्कालीन तुलसी राम पर जो प्रभाव पड़ता था, उसे भी देख लीजिये, “यह सुनकर मैं बहुत खुश होता और इससे मुझे गहन अध्ययन की बहुत प्रेरणा मिलती। पढ़ाई के दृष्टिकोण से हेडमास्टर परशुराम सिंह मेरे सबसे बड़े प्रेरणास्रोत थे।”(59) अगर हेडमास्टर के कथन की व्याख्या करें, तो उनकी संवेदना सवर्ण छात्रों के प्रति मिलेगी। वे एक छात्र से उन्हें नहीं पिटवाते थे, बल्कि एक चमारसे पिटवाते थे। मतलब कि चमार से पिटने का दर्द उस बच्चे के अंतस्तल को बेधता, जिससे वे जी-जान से अपना मन पढ़ाई में लगाते। परंतु अबोध तुलसी राम अगर उपर्युक्त अर्थ लेता, तो शायद आज का ज्ञानी तुलसी राम नहीं बन पाता। वे हमेशा कक्षा में मेरी प्रशंसा करते और जब ज्यादा खुश होते तो कहते : ई चमरा एक दिन हमरे स्कूले क इज्जत बढ़ाई।”(59) यह कथन अत्यंत जटिल भावबोध से निर्मित है, जिसमें टीस के उपरांत ख़ुशी भी है। ऐसे जटिल भावबोध ही किसी रचना को दीर्घजीवी बनाते हैं। अब अबोध बच्चों का हाल देखें। मैं हमेशा उत्तर सबसे पहले बता देता था। इसके बाद अध्यापक मुझे आदेश देते कि जिन छात्रों ने उत्तर नहीं दिया है, उन्हें मैं एक-एक झापड़ या मुक्का मारूँ। मैं अक्सर रोज ही इस प्रक्रिया में अनेक छात्रों की पिटाई कर देता, जिसके कारण छात्र, खास करके सवर्ण जातियों के बच्चे, मुझसे बहुत घृणा करने लगे थे, जिसका प्रमुख कारण था मेरा अछूत होना तथा ऊपर से चेचक वाला चेहरा तथा एक आंख का खराब होना। ऐसे छात्र लेजर के दौरान मुझे इंगित करके बाजार में सामान बेचन वालों की बोली की नकल पर कहते: ले अमरूद ए काना ए काना। यानी एक आना का बिगड़ा हुआ रूप ए काना।…किंतु मैंने स्कूल में इससे निपटने का एक उपाय ढूंढ लिया था। जो छात्र वैसा कह कर मुझे चिढ़ाते थे, उन्हें मेंटल के दौरान अध्यापक द्वारा झापड़ मारे जाने के लिए कहने पर मैं बहुत जोर से मारता था जिससे वे तिलमिलाकर रह जाते थे किंतु वे अध्यापक के डर से कुछ कर नहीं पाते थे। बाद में कई छात्र मेंटल वाला घंटा आने से पहले मुझसे गिड़गिड़ाते हुए कहते: आज जोर से मत मरिहा।यह लघु के लाघव का परिणाम है, जो दीर्घों को भी हँसाने में समर्थ है। एक आना का बिगड़ा हुआ रूप ए कानापर क्या आपने गौर किया। अगड़ा हुआ रूपनहीं, ‘बिगड़ा हुआ रूप। भोजपुरी में ध्वनि में रूपांतरित हो जाती है। इस तरह ए कानातुलसी राम के भीतर विशेष रूप से गड़ गया। सवर्ण बच्चों ने यह विशेष तरीक़ा क्यों अपनाया? इसलिए कि उन्हें एक ओर तो तुसली राम को चोट पहुँचानी थी, तो दूसरी ओर अपनी रक्षा भी करनी थी। इस आसान तरीक़े ने उन बच्चों के तत्कालीन दुख को कम करने की बजाय और बढ़ा दिया, जबकि तुलसी राम का दुख कम हुआ। अगर वे बच्चे कठिन रास्ता चुनते और अगर तुलसी राम को झापड़ न भी मार पाते, तो उससे मार खाने से तो बच ही जाते। आज वे न जाने किन-किन की झापड़ खाते, ‘जोर से मत मरिहाकहते-रिरियाते जीवन गुजार रहे होंगे। यहाँ एक चीज़ गौर करने लायक है कि तथाकथित विकसित आज से हमारा पिछड़ा कल कितना सहिष्णु था। एक क्षत्रिय अध्यापक दलित छात्र से सवर्ण छात्रों को पिटवाता है, परंतु कोई भी अभिभावक इसकी शिकायत नहीं करता, जबकि आज तो बात-बात में शिकायत पहुँच जाती है। इसी क्रम में हमारी शिक्षा व्यवस्था पर व्यंग्य भी दिखता है। अभाव ही सृजन की जननी है। तुलसी राम ने इसे गहा है। थपुआ पर लिखना, जानवरों को चराते समय ज़मीन पर ही सवाल हल करना, इत्यादि-इत्यादि अभाव के ही प्रमाण हैं। आज न जाने कितने कागज़-कलम-पेंसिल बरबाद हो रहे हैं, परंतु गहन शिक्षा कहीं दिख ही नहीं रही। स्कूल-कॉलेज, मशीन तैयार कर रहे हैं। शिक्षा मनुष्य के रूप में जीवन जीने का सलीका सिखाती है। आज की शिक्षा-पद्धति का इससे दूर-दूर का भी नाता नहीं, वह तो मनुष्य को संसाधन में तब्दील कर रही है। संसाधन की अपनी कोई इच्छा-सोच नहीं होती। वह तो उपयोगकर्ता की इच्छा-सोच के अनुसार वर्तती है।    
     
      उपभोक्तावाद मनुष्य और मनुष्यता से अधिक संसाधन पर ज़ोर देता है, जबकि मुर्दहियाइस पर ज़ोर देती है कि विकास संसाधनों के आधिक्य का मोहताज नहीं होता। संसाधनों का आधिक्य तो साधक को साध्य से ही दूर कर देता है। हम संसाधनों का अधिक उपभोग करने के कारण निरंतर क्षरित हो रहे हैं। तुलसी राम ने ख़ुद को विशेष नहीं, सामान्य दलित के रूप में पेश किया है, इसीलिए आत्ममोह और आत्मप्रशंसा से बचने में सफल हुए हैं, अन्यथा आत्मकथाएँ ख़ुद को विशेष करने के प्रयास में अपने संघर्ष को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती हैं, जिससे रचना का प्रभाव घनीभूत न होकर बिखर जाता है। व्यक्ति के रूप में हम सभी उपभोक्तावाद से बुरी तरह परेशान हैं। अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए बेतरह साधनों को इकट्ठा करने में ही खप रहे हैं। बच्चों को सब कुछ बाज़ार ही उपलब्ध करा रहा है, उसे तो कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं। ऐसे में उनमें कुछ करने-बनने की साध पैदा हो तो कैसे? शिक्षा-क्षेत्र तुलसी राम के जीवन से बहुत कुछ सीख सकता है, जिसका जीवन गतिविधियों से भरपूर है। पढ़ने के लिए उसे समय की किल्लत है, फिर भी वह उसे चुरा ही लेता है। वह इस चुराए हुए समय का सदुपयोग प्रेमियों की तरह करता है। ऐसा इसलिए होता है कि वह अपने परिवेश और व्यवस्था की शिकायत न करके उसे बदलने की कोशिश करता है, जिससे ख़ुद भी बदलता जाता है। इस तरह यह पूरी आत्मकथा एक गतिशील द्वंद्व बन जाती है, अपने अतीत की ख़ामी-ख़ूबियों को द्वंद्वती-गुणती-संयोजती। इसीलिए अत्यंत गतिशील और संघन है। शिक्षा कहीं भी किसी भी समय और स्थिति में अर्जित की जा सकती है। नटिनिया और तुलसी का पढ़ना-पढ़ाना क़ाबिले ग़ौर है, “मैंने शुरू में उसे चिकनी जमीन पर खपड़े से लिखकर कुछ अक्षर सिखाने की कोशिश की, किंतु उसके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता था। एक दिन वह एक आँवाँ से निकला हुआ नया थपुआ लेकर आई।…वह कहने लगी कि मैं दुधिया से थपुआ पर लिखकर पढ़ाऊँ। मैं वैसा ही करने लगा।शहरी लोग इसे पढ़ाई का मजाक कहेंगे और नटिनिया की पढ़ाई के हश्र से इसकी पुष्टि भी कर देंगे। कहेंगे कि देखा न ऐसी पढ़ाई का नतीजा। सवाल नतीजे का नहीं, उस ललक का है, जो पढ़ाई के प्रति दिखती है। साधनहीन ग्रामीणों के लिए जमीन ही ओढ़ना-बिछौना भी है और स्लेट-पटरी भी। वह उसी पर लिखता-मिटाता आगे बढ़ता जाता है। विषम परिस्थितियाँ हुनरमंद बनाती हैं। भैंस चराता तुलसी साधन और समय के अभाव में जिस तरह जमीन पर सवाल हल करता था, कुछ उसी तरह बाबा नागार्जुन भी लिफ़ाफों और बस की टिकटों पर कविता लिखा करते थे। ये प्रसंग साधन-हीनता का रोना रोनेवालों के गाल पर चपत हैं। यहाँ तुलसी का जमीन पर सवाल हल करना, जमीनी सवाल हल करने का प्रतीक भी बन जाता है। परंतु हम लोग तो जमीनी सवाल को कागज पर हल करते हैं। क्या यह क़रारा व्यंग्य नहीं है। हम सभी जानते हैं कि हर क्रिया दो विरुद्धों का सामंजस्य होती है, इसलिए स्थिर होकर देखने पर उसका दो विरोधी प्रभाव पड़ता है। मसलन, कमज़ोर को मदद की जानी चाहिए। मदद क्यों की जानी चाहिए? इसलिए कि वह भी मजबूत बन सके। यह इसका मर्म है, मगर अगर मदद के बावजूद भी वह मजबूत नहीं बना, जिस तरह नटिनिया लिखना सिखाने के बाद भी लिखने में समर्थ नहीं हुई, तो क्या सिखाने वाले को उसे सिखाते ही रहना चाहिए! स्पष्ट है कि नहीं। जीना किसी न किसी देश-काल में होता है। इसलिए अपने देश-काल में एक पैर जमाने के उपरांत ही दूसरा पैर उससे बाहर किया जा सकता है। मतलब कि कोई भी इनसान अपने देश-काल से एक क़दम ही आगे बढ़ सकता है, इससे अधिक नहीं। ऊपर जमीन और थपुए पर लिखने का जो जिक्र हुआ है उसी से मिलता एक विदेशी प्रसंग है, जिसे आप भी देखे, मलालई किसी मध्ययुगीन अफगानी राजा की बेटी थी, जिसका लगाव उसके ही एक गुलाम से हो गया था। घबराकर राजा ने मलालई को जेल में बंद कर दिया। जेल की कोठरी में उसके पास न कागज था न कलम। अत: वह उंगलियों को घायल कर निकलते हुए खून से दीवारों पर लंड़इयाँ लिखने लगी। ये रचनाएँ बाद में चलकर पश्तो साहित्य की अमूल्य निधि सिद्ध हुईं।इस तरह यह स्पष्ट है कि साधन-हीनता ही हुनर की जननी है। आज की शिक्षा-पद्धति ने तो जैसे लघु और लाघव को देश-निकाला दे दिया है। तुलसी राम मनुष्य के लाघव की ओर ध्यान खींचते हैं, तभी तो इसे विदेशी प्रसंग के द्वारा पुष्ट करते हैं। उन्हें अपनी साधन-हीनता पर कोई दुख नहीं, दुख है तो हमारे सामाजिक ताने-बाने से, जिसमें कोई अछूत है तो कोई सवर्ण। देखने की बात यह है कि वे इस सामाजिक व्यवस्था से गहन प्रेम करते हैं, परंतु उसकी बुराइयों को गले नहीं लगाते। वे जिस सामाजिक व्यवस्था की उपज हैं, उसके प्रति उनमें गहन ममत्व है। वे उसके प्रति श्रद्धानत भी हैं और उसकी बुराइयों को दूर करने भी लगे हैं। हम जिसे जितना चाहते हैं, उसके दुर्गुणों को उतना ही दूर करना चाहते हैं। मुर्दहिया में भिन्न-भिन्न समाजों की भरमार है, बावजूद इसके वह एक समाज की कथा होने का एहसास कराती है। ऐसा इसलिए हुआ है कि वे एक-दूसरे से अलग-थलग न होकर एक-दूसरे में आवन-जावन करते हैं। मतलब कि तुलसी राम ने भिन्न-भिन्न समाजों को ऐसे अभिन्न किया है कि मुर्दहिया एक संकुल नज़र आती है। ऐसा समाज जिसमें भिन्नताओं की भरमार है बावजूद इसके वे अभिन्न हैं। मुझे अचरज होता है कि तुलसी राम ने किस तरह भिन्न-भिन्न समाजों को कई भिन्नों में तब्दील किया होगा। फिर उन्हें अपनी संवेदना से गुणा होगा। इतनी बारीक़ भिन्नता तो कम ही देखने को मिलती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि विविध भिन्नों का विविध प्रकार से अभिन्न रूप ही मुर्दहिया है, जिससे विविध और विभिन्न स्वर निकलते हैं, जो मर्म को छूने के साथ गतिविधि करने को प्रेरित भी करते हैं।
श्री राम त्रिपाठी
संपर्क: 
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मोबाइल: 9427072772
ई-मेल : sjtripathi2009@gmail.com

श्रीराम त्रिपाठी का केदारनाथ अग्रवाल पर केन्द्रित आलेख ‘सोच-समझ कर ही गढ़ते हैं’


वरिष्ठ आलोचक श्रीराम त्रिपाठी का आज जन्मदिन है. इस अवसर पर उनके दीर्घायु और सतत रचनाशील रहने की कामना करते हुए हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं उन्हीं का लिखा एक आलेख जो जन कवि केदार नाथ अग्रवाल पर केन्द्रित है. तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख     
सोच-समझ कर ही गढ़ते हैं
श्रीराम त्रिपाठी
जिस तरह हम अपने परिवेश (प्राकृतिक-सामाजिक) से जूझते हैं, उसी तरह एक कवि भी जूझता है। वह अपने समय में चलते वाद से संघर्ष करता है। यह संघर्ष ही विवाद है। विशेष वाद अथवा विरुद्ध वाद। छायावादी कविता की सबसे बड़ी देन है, कविता में आत्म का आवेगपूर्ण प्रवेश। इसको साधते हुए उससे समाज की उपेक्षा हुई, जिसे प्रगतिवादी कविता ने साधा। व्यक्ति का भीतर, बाहर से जितना संघर्ष करता है और उसे जितना और जैसे आत्मसात करता है, उतना और वैसे ही वह ख़ुद को बनाता है। उसका बाहर से जितना और जैसा संबंध होगा, उसका भीतर भी उतना और वैसा ही बनेगा। इसका मतलब है कि बाहरी संबंध ही उसके आत्म की पहचान है। इसे अगर ठीक से जानना-समझना हो, तो छायावादी कविता और केदारनाथ अग्रवाल की कविता को एक-दूसरे के बरक्श रखकर देखना मुनासिब होने के साथ कौतुकपूर्ण भी है। दोनों कविताओं में प्रकृति है। एक में सामाजिक संबंधों से तक़रीबन हीन, तो दूसरी में सामाजिक संबंधों से ओत-प्रोत। बसंती हवा में हवा, हवा कहाँ रहती है! वह तो फगुवा में मस्त, हुड़दंग मचाती, कर्मशीलता से ओत-प्रोत रमती इनसान बन जाती है। इसीलिए केदारनाथ अग्रवाल सच्चे अर्थों में लोक के कवि हैं। वे प्रगतिशील कवियों में इसी कारण अलग नज़र आते हैं।
प्रगतिशील कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और नागार्जुन साथ याद किये जाते हैं। तीनों में लोक है और तीनों लोक में हैं, मगर अलग-अलग रूप में। नागार्जुन का ध्यान कई बार बँटता हुआ नज़र आता है, जब वे प्रतिक्रियात्मक कवितायें लिखते हैं, विशेषकर राजनीति पर। केदारनाथ अग्रवाल ने भी ऐसा किया है, मगर बहुत कम। यह कर्मशीलों की ज़मीन नहीं है। कर्मशील एक तो प्रतिक्रिया नहीं करता, दूसरे बहुत कम बोलता है। प्रतिक्रिया कमज़ोर लोग करते हैं। कर्मशील मजबूत होता है। वह प्रतिक्रिया नहीं, क्रिया करता है। क्रिया वही करता है, जो क्रिया को आत्मसात करने में समर्थ होता है। साहित्य में भी अज्ञानता के कारण शब्द में ऐसे अर्थ आरोपित कर दिये जाते हैं, जिनका उस शब्द से कोई सरोकार नहीं होता। मिसाल के तौर पर अकसर कवि-लेखक अपनी रचना पर रायकी जगह प्रतिक्रियामाँगते हैं। वे भूल जाते हैं कि कविता आत्मसात की जाएगी, तब तो उस पर कोई राय बनेगी, और आत्मसात नहीं होगी, तब तो प्रतिक्रिया व्यक्त होगी। क्योंकि प्रतिक्रिया तो क्रिया के बराबर और विरोधी क्रिया होती है। क्रिया को आत्मसात करने के बाद जो उपजता है, वही क्रिया भी है और सर्जन भी है। उसमें पहली क्रिया के अंश मौजूद होंगे। इस प्रकार वह पहली क्रिया का विकास होगी। केदारनाथ अग्रवाल की ज़मीन किसान की है। जिस तरह एक किसान करने में ज़ियादा और कहने में कम मानता है, उसी तरह केदारनाथ अग्रवाल भी करते ज़ियादा हैं और कहते बहुत कम। कर्ता को कहने की फ़ुरसत कहाँ! वह तो न छुटके ही बोलता है। और जब बोलता है तो वह भी उसका करना ही होता है। क्योंकि वह जो भी बोलता है, रच-पचकर बोलता है। प्रतिक्रिया में रचना-पचना नहीं होता। लोक की एक विशेषता यह भी है कि वह दुख को भी गान में तब्दील कर देता है। उसके यहाँ रोना मानो वर्जित है। क्रिया में इस आत्म का रचाव ही केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में आवेगपूर्ण आत्मीयता भरता है, जिसमें माटी की महक और खनक है। आइए, उदाहरण के साथ इसे जाना-समझा जाए। इसके बिना तो सब कुछ लफ़्फ़ाजी है। थोथा है।
एक छोटी-सी कविता है, ‘भिक्षुक दुख। सामान्यतया कहा जाता है कि दुख ही जीवन है। निराला ने भी कहा है किदुख ही जीवन की कथा रही”। मगर यहाँ तो उलट है। दुख तो भिखारी बन गया है। क्यों? इसलिए कि मैंने आँसू सोख लिये हैंपोंछ लिये हैंनहीं, ‘सोख लिये हैं। सोखना माटी का गुण है। किसान का मन माटी का होता है। सोखना भीतरी ताक़त का परिचायक है। उसने अपने आँसू सोख लिये हैं, केवल इतना ही नहीं है। अगर इतना ही होता तो कौन बड़ी बात होती! बड़ी बात इसलिए है:
                                                और पिये हैं

                                                बेला औ चम्पा गुलाब के

                                                डब-डब आँसू,

                                                मौलसिरी के

                                                छल-छल आँसू,                                    

                                                जैसे सूरज पी लेता है

                                                हरी घास के लकदक आँसू! 
                                    
अपना तो केवल आँसूहै, जो सोख लिये जाने के कारण दिखता नहीं है, मगर दूसरों का तो डब-डबऔर छल-छलआँसू है, जो दिखता है। डब-डबऔर छल-छलमें रागधर्मियों को केवल नाद सौंदर्य मिलेगा, जबकि यहाँ अर्थ सौंदर्य भी है। क्रमशः आँसू की बढ़ती मात्रा। मात्राभेद के साथ आँसू के यहाँ चार रूप हैं। आँसू, डब-डब आँसू, छल-छल आँसू और लकदक आँसू। इनमें से शुरू के तीन का संबंध कवि से है और चौथे का सूरज से। अर्थसौंदर्य कर्णधर्मी नहीं, लोचनधर्मी होता है। मन माटीधर्मी तो है ही, सूरजधर्मी भी है, तब ही तो जैसे सूरज पी लेता है जैसा कथन अऱ्तवान बनता है। तो कवि का आत्म दोनों विरोधियों, माटी और सूरज, के गुणों को आत्मसात किये है। यही है द्वंद्वात्मक संयोजन, किसान और सर्जक की विशेषता है। किसान के लिए माटी और सूरज, दोनों बड़े काम के हैं। ऐसे इनसान के सामने दुख की क्या बिसात! दुख यानी, भीतर से खोखला। भिखारी यानी, खाली। जिस इनसान में माटी और सूरज का गुणधर्म हो, उसमें दुख के लिए जगह कहाँ! कितना ताक़तवर और उदार मन है:
                                                वह जो लेता है                                      

                                                देता हूँ;

                                                जाता है जब

                                                तब मैं उससे

                                                आने का

                                                वादा लेता हूँ!
जो दुख को भी देता हो, और महज़ देता ही नहीं, फिर से आने का वादा लेता हो, वह कितना ताक़तवर होगा! वही दुख के साथ इस तरह पेश आ सकता है। लगता है कहीं से कि दुख के साथ पेश आया जा रहा है! ऐसे तो पहुना के साथ पेश आया जा जाता है, दुख के साथ नहीं। याद है! किसान साँप को भी दूध पिलाता है। ऐसा वह मूर्खता के कारण नहीं करता, अपनी संस्कृति के कारण करता है। कर्म की संस्कृति हमेशा जोड़ती और जुड़ती है। यही दुख को भी सुख देने में समर्थ है। उसके यहाँ से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। सही अर्थों में वही शंकर है। लोगों की रक्षा के लिए वह विष भी पीता है, बावजूद इसके मरता नहीं, बल्कि रमता है। तो लिए बिना देना मुमकिन नहीं। आँसू का लेना है और बदले में दुख जो भी माँगता है, देना है। आँसू का लेना यानी, दुख का लेना। मुहावरा है न कि दुख को न्योतना। वही है यह। और जब उसको न्योता है तो उसे खाली हाथ कैसे बिदा किया जाएगा। इसीलिए वह जो कुछ माँगता है, उसे देकर ही बिदा किया जाता है। इतने पर ही बस नहीं है, बल्कि उससे फिर आने का वादा लिया जाता है। क्या नहीं लगता कि दुख जैसे भानजा हो। यानी, दुख ने कवि को खाली-खम नहीं कर दिया है। दुख को देने के लिए उसके पास अभी बहुत कुछ है। वह जो लेता है देता हूँ’, में कहीं बेबसी या मजबूरी दिखती है? नहीं न। मन के मजबूत लोग बिना लाग-लपेट के बोलते हैं। फिर तो उनका बोलना, बोलना कहाँ, करना हो जाता है। इस कविता का सहज, सरल और सादगीपूर्ण गठन अचम्भित करनेवाला है। कहीं कोई ताम-झाम नहीं। गागर में सागर इसी को तो नहीं कहते! अध जल गगरी छलकत जाय। यानी, जल से आधी भरी गगरी ही चिल्लाती चलती है कि उसमें पानी है। भरी गगरी तो चुपचाप चलती है। वह कहाँ चिल्लाती है कि उसमें पानी है। आपको जानना है तो उसके पास जाकर न केवल ख़ुद ही देख लीजिए, बल्कि पानी का स्वाद भी ले लीजिए। ऐसा है इस कविता के कवि का व्यक्तित्व।
एक कविता है, ‘चिट्ठी का व्यंग। व्यंग्य नहीं, व्यंग। देसी, बात-चीत की शैली है इसकी। आइए, देखें:
                                                ऐसा लगता है जैसे मैं बंद पड़ा हूँ,

                                                इस समाज में कील-जड़ा हूँ,

                                                मेरा मस्तक टूट गया है,

                                                मेरा कोई पता-ठिकाना नहीं रहा है।

                                                कह सकते हो – मैं जीवित हूँ,

                                                खा लेता हूँ, गा लेता हूँ,

                                                            रो लेता हूँ।

                                                लेकिन खाना, गाना, रोना –

                                                यह जीवन के नहीं चिह्न हैं,

                                                और बहुत कुछ मुझे चाहिए,

                                                वही नहीं है,

                                                            यही मृत्यु है।
यह आत्म और अपनी स्थिति, दोनों का आलोचन है। कितने ऐसे लोग हैं, जो इस तरह की आलोचना करते हैं? अधिकतर लोगों के लिए खाना, गाना और रोना ही जीवन के चिह्न हैं। और बहुत कुछ मुझे चाहिए’, मगर जो चाहिए वही नहीं है। यह बहुत कुछही ज़िन्दा रहने की पहचान है। कुछमामूली चीज़ों का संकेतक है, और बहुतढेरों चीज़ों का। यानी, ढेरों मामूली चीज़ें हैं, जो ज़िन्दा रहने के लिए निहायत ज़रूरी हैं, जो हमारे पास नहीं हैं। फिर कैसे कहा जाए कि मैं मरा नहीं, ज़िन्दा हूँ। उनका न होना ही मृत्यु है। तो इस बहुत कुछ में से एक है:
                                                लो यह देखो – यही हाथ हैं,

                                                मैंने इनसे कलम चलाई,

                                                ग्रंथ लिखाये,

                                                मैंने इनकी नसें तनाईं,

                                                लेकिन जितना जो कुछ लिखते,

                                                टके सेर में बिक जाता है,

                                                ये बेचारे घिस जाते हैं,

                                                कैसे कहूँ कि ये जीते हैं, मैं जीता हूँ?
जब हाथ के श्रम और हुनर का मूल्य ही न मिले, तो कैसे कहा जाए कि वे ज़िन्दा हैं। तो क्या बिकना ही इनका मूल्य है? क्या टके सेर बिकना ही इनका दुख है? नहीं, बिकना ही दुख है। टके सेरतो दुख की मात्रा को और बढ़ा देता है। यही तो विडंबना है। यह हाथ के श्रम और हुनर का अवमूल्यन है। सृजन और निर्माण तो ख़ुद के साथ-साथ दूसरों को भी प्रफुल्लित करते हैं, मगर यहाँ तो घिसते (सिकुड़ते) हैं। इनके निर्माण का अवमूल्यन ही इनके घिसने का कारण है। अगर कारण को ही ख़तम कर दिया जाए, तो क्या कार्य होगा? साफ़ है कि नहीं। तो निर्माण के अवमूल्यन को ख़तम करना पड़ेगा। हमने जो व्यवस्था बनायी है, उसके मूल में ही निर्माण का अवमूल्यन है। इसलिए इस व्यवस्था को ही आमूल-चूल बदलना होगा। इसके बिना हाथ के श्रम और हुनर के अवमूल्यन को ख़तम नहीं किया जा सकता। यह हाथ मैंका अभिन्न अंग है और श्रम का परिचायक है, जिससे मैंका अन्योन्याश्रित संबंध है। जीताऔर जीतेजीने के अर्थ के साथ-साथ जीतने का भी अर्थ देते हैं। जीने का विरोधी है मरना और जीतने का विरोधी है हारना। तो इन हाथों के निर्माण का टके सेर बिक जाना ही उनका हारना है, जीतना नहीं। चूँकि जीतना ही जीना है, इसीलिए हारना मरना है। तो जब हाथ ही मर गये, तो मैंकैसे जीवित रह सकता है। अन्योन्याश्रित संबंध में दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर होता है। यह एहसास श्रम से तादात्म्य का नतीजा है। यही केदारनाथ अग्रवाल की विशेषता है। उनके एहसास अत्यंत सघन हैं। यह सघनता आसानी से नहीं, कठिन जद्दोजहद से आती है। तीव्र और क्रूर आत्मालोचन से आती है। कविता में केदारनाथ अग्रवाल नहीं बोलते, उनकी क्रियाएँ बोलती हैं। चूँकि, वे क्रियाएँ ही आपस में द्वंद्वात्मक संयोजना करके कविता बनती हैं, इसलिए उनकी आवाज़ कविता की आवाज़ बन जाती है और हमें लगता है कि कविता ख़ुद बोल रही है। यही कर्मशीलता की पहचान है। और कर्मशीलता हमेशा प्रगतिशील हुआ करती है।
यही हाल आँख और दिल का है। ये जी तोड़ मेहनत करते हैं, फिर भी अपने मक़सद में कामियाब नहीं होते। ऐसा दंड-दमन ने छुरी चलाई के कारण होता है। यह छुरी चलानेवाला, दंड-दमन करनेवाला कौन है? साफ़ है कि सत्ता-व्यवस्था। यह हमेशा सृजन-विरोधी रही है। इसीलिए अतीतवादी होती है। और अतीतवादी भविष्य से डरता-घबराता है, इसीलिए उस ओर दीवार बना देता है। इसीलिए ये आँखें: 
                                                जब भविष्य की ओर झाँकतीं,

                                                दीवारों से टकराती हैं।
डॉक्टरों के अनुसार खाना, गाना और रोना जीवन की पहचान है। उनके लिए इनसान का मतलब जिस्म है। वह इसी जिस्म की सार-सँभाल करता है, उसके भीतर के मन का नहीं। अकसर हम चिट्ठी में लिखते हैं कियहाँ सब कुशल है। आप भी कुशल से होंगे। आदि आदि।” यह चलन है। चलन ही पथन और पथन ही पथ है। ज़मीन का वह हिस्सा जो बार-बार पैरों के पड़ने से पथ जाता है। यानी, कठोर हो जाता है, वही पथ (रास्ता) कहलाता है। यानी, पथ ही पत्थर है। कवि चलन (पथन) का विरोधी होता है, क्योंकि पथन और सर्जन में जन्मजात बैर है। पथन दुहराव है और सर्जन नित नया। निराला की तोड़ती पत्थर भी इसी पथे को तोड़ती है। तो जब हाथ, आँख और दिल; तीनों ही हार गये हैं, तो मैंकैसे जीत सकता है! हारना यानी, मरना। चिट्ठी में इन तीनों को दिखलाया जा रहा है, कहा नहीं जा रहा। “लो यह देखो, लो यह देखो, लो यह देखो”। ये तीनों अपनी क्रिया द्वारा ख़ुद कहते हैं, कवि नहीं कहता। ये क्रियाएँ बोलती हुई सुनाई-भर नहीं देतीं, दिखाई भी देती हैं। अपने मरने को मर-मर की ध्वनि (दर्द) के साथ दिखलाने के बाद यह कहना कि:

                                                अब बोलो, फिर क्यों कहते हो –

                                                मैं जीता हूँ,

                                                मेरा भी कुछ ठौर-ठिकाना, और पता है?  
  
अब बोलोसे सामनेवाले की बोलती ही बन्द हो जाती है। क्या बोले? कैसे बोले? इतने ठोस प्रमाणों को देखकर उसे अपना कथन ग़लत लगता है। इसीलिए कवि के इस सवाल का जवाब नहींमें ही देगा, इसका अंदाज़ा पाठक को लग जाता है। यह अंदाज़ा कोर्ट-कचहरी में होनेवाले ज़िरह का नहीं, रोज़ के जीवन व्यवहार में होनेवाला गवँई है। ठेठ देसी है, अपनी सहजता-सरलता के साथ। यह देसी तर्कपद्धति है।
                                                सच है मुझको,

                                                रोज डाकिया दे जाता है मेरी चिट्ठी,

                                                जिस पर मेरा पता-ठिकाना सब होता है,

                                                लेकिन भाई,

                                                यही व्यंग है इस चिट्ठी का –

                                                पता-ठिकाना तो होता है मरे व्यक्ति का।
कविता की अंतिम सतर अत्यंत मार्मिक है। इसमें पीड़ाबोध भी है और मन के मुताबिक न कर पाने की छटपटाहट भी है। यही पाठक को झिंझोड़ती हैं। जीवित व्यक्ति गतिशील होता है, रुका हुआ नहीं। गतिशीलता का मतलब है, परिवर्तनशीलता और पता-ठिकाना का मतलब है, थपना। और थपना ही मरना है। तो जीतना ही जीवित रहना है और हारना ही मरना। कवि का अपने आपको मरा हुआ मानना, पाठक को मारता नहीं है, बल्कि जीने, यानी जीतने के लिए प्रेरित करता है। संगीत की लय चलाती नहीं है, चलने का भ्रम रचती है, क्योंकि संगीत की लय वाहन का काम करती है। जबकि अर्थ की लय वाहन नहीं बनती, चलने की प्रक्रिया रचती है। यह प्रक्रिया ही चलने की प्रेरणा में रूपांतरित हो जाती है।
इस कविता की लय में जगह-जगह तुक भी हैं और जल्दी-जल्दी विराम भी। जहाँ तुक है वहाँ वज़न की अधिकता और जहाँ विराम है वहाँ दर्द की अतिशयता है, जिससे संगीत की सुखद नहीं, ऊबड़-खाबड़ लय बनती है। संगीत की लय में दुहराव होता है, मगर अर्थ की लय में नित नवीनता होती है। रथ का मतलब होता है, चलना। जो चले वह रथ है। संगीत चलता है, यानी रथता है। रथ वाहन है। वाहन पर बैठनेवाला नहीं चलता, बल्कि वाहन चलता है। बैठनेवाले को तो चलने का भ्रम होता है। शब्द में अरथ होता है। यानी, शब्द अर्थते हुए रथता है। शब्द, जहाँ और जैसे रथता है, वहाँ और वैसे को अपने भीतर रखते जाता है। यानी, शब्द ऐसा वाहन है, जो अपने रास्ते को भी अपने भीतर रखते जाता है। इसीलिए चलते हुए वह अन्यों को भी गतिशील करता है। लोक का जीवन थिर कहाँ, अथिर होता है। नित नयी चुनौतियाँ आ खड़ी होती हैं। वे सोचने-विचारने का मौक़ा नहीं देतीं। तत्काल ही उनका सामना करना होता है। इसके लिए तन-मन की एकता ज़रूरी है, जो कठिन साधना और अभ्यास से मुमकिन होता है। केदार की कविताएँ तन और मन की एकता की कविताएँ हैं।
केदार की कविताओं में उनका जो व्यक्तित्व झलकता है, वह है निर्माण में डूबे व्यक्ति का, जो तत्काल में अपने आस-पास से बेख़बर लगता है। ध्यान रहे कि निर्माण के दौरान बेख़बर लगता है, होता नहीं। कर्मशील व्यक्ति की यही पहचान है कि वह निर्माण के दौरान केवल निर्माण का होता है और किसी का नहीं। यहाँ तक कि अपने आप का भी नहीं। वह कर्म में भल गया होता है और कर्म को लभता है। इससे बड़ा सुख कोई नहीं। चूँकि, हर निर्माण थपित का विरोधी होता है, इसीलिए वह सामाजिक होता है। इसीलिए समाज व्यवस्था को जाने-समझे बिना निर्माण मुमकिन नहीं। सोचक-विचारक बुद्धिजीवी कहलाते हैं और किसान श्रमजीवी। इसके पीछे अलगाववादी नज़रिया काम करता है, जो जिस्म और बुद्धि को अलगा देता है। ख़ुद को ऊँचा बताने के लिए ऐसा बुद्धिजीवियों ने ही किया है। श्रम उनके लिए शरम है, जबकि किसानों के लिए सुरम। रमना का मतलब है, खेलना। ख़ुद को काम से एकमेक कर देना। उनमें और काम में कोई भेद नहीं होता। निर्माण का काम बुद्धि के बिना कैसे हो सकता है! इस तरह किसान बुद्धि और जिस्म की संयुक्ति होता है, जबकि बुद्धिजीवी केवल बुद्धि से। अब आप ही तय करें कि बुद्धिजीवी अधिक शक्तिशाली और सम्माननीय है कि किसान। बुद्धिजीवियों ने ही श्रमजीवी (कर्मजीवी) का उपर्युक्त अर्थ थाप दिया कि वे सोचते-विचारते नहीं हैं। मूरख लोग हैं। तब ही तो गँवार का अर्थ – जो मूलत: गाँव में रहनेवाला था – मूरख कर दिया गया। आप ही सोचिए कि सोचे-विचारे बिना भला कोई निर्माण हुआ है? इस प्रकार केदारनाथ अग्रवाल के कवि का व्यक्तित्व बुद्धिजीवी का नहीं, श्रमजीवी का है। उनकी कर्मशीलता ही कविता को न केवल जीवंत बनाती है, बल्कि प्रभाव का कारण भी बनती है।

                                                मरना होगा

                                                इस होने को तो होना है

                                                लेकिन

                                                तब तक

                                                इस जीने को तो जीना है
यहाँ कोई नई बात नहीं कही गई है। और जब कोई नई बात ही नहीं है, तो यह कविता कैसे हुई! कविता का कोई न कोई नई बात होना लाज़िमी है, जबकि नई बात का कविता होना नहीं। फिर तो यह भी जानना-समझना ज़रूरी हो जाता है कि कैसे यह नई बात भी है और कविता भी है।
यहाँ मरने का ख़ौफ़ नहीं है, बल्कि उपेक्षा का भाव है; जबकि मौत ख़ौफ़नाक होती है। ऊपर आया है कि केदारनाथ अग्रवाल श्रमजीवी हैं। यानी, श्रम में श्रम को जीते हैं। श्रम निर्माण करता है, सिरजता है। जो जितना सिरजता है, उतना ही जनमता है। जो जितना जनमता है वह उतना ही रमता है। और जो जितना रमता है, मौत उससे उतना ही दूर भागती है। इसीलिए यहाँ मौत के प्रति उपेक्षा का भाव है। मौत निश्चित है, मगर उसका समय नहीं। इसीलिए “तब तक/इस जीने को तो जीना है”। जीना वह है जो जनम दे, निर्माण करे। जीते-जीतेमें ध्वनि-सौंदर्य से अधिक अर्थ-सौंदर्य है। द्वन्द्व समास का चिह्न औरहै। यानी, जीते, और जीते। इस तरह औरदोनों जीते के द्वंद्व को प्रकट करता है। अब तक तो हम औरको केवल संयोजक ही मानते रहे, जबकि वह तो द्वंद्व का भी परिचायक है। यही है अच्छे व उससे अधिक अच्छे के बीच का संगर। इसी द्वंद्व ने जीत की मात्रा में वृद्धि कर दी। यहाँ औरसंयोजक भी है और विशेषण भी। यानी, जीते और जीते। जितना जीते हैं उससे मन नहीं भरा है, इसीलिए उससे अधिक जीतना है। यह अधिक जीतना ही अधिक जीना भी है। इस प्रकार सर्जन ही जीना है और जीना ही जीतना है। हर जीतना जीने की ललक और ताक़त, दोनों को बढ़ाता है। इसीलिए इतनी सहजता से निकलता है कि:
                                                जीते-जीते

                                                हर संकट से

                                                डटकर क्षण-क्षण

                                                तो लड़ना है
लड़ना वाद का प्रतिवाद नहीं, विवाद होता है। वाद के प्रभाव से जो व्यक्त होता है, वह प्रतिवाद कहलाता है, जबकि विवाद या तो वाद का विरोधी होता है, या विशेष। शायद इसीलिए हम अपने लिखे की प्रतिक्रिया माँगते हैं राय नहीं, क्योंकि राय का जन्म लोचन से होता है। लोचन से हम डरते-घबराते हैं। जब हम लोचन-लोचना से इतना डरते-घबराते हैं, तो मौत से कितना डरते-घबराते होंगे। ऐसे में केदारनाथ अग्रवाल की कविताएँ और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। इस अनगढ़ दुनिया को गढ़ने के लिए इन्हीं से कुछ सीखा जा सकता है, क्योंकि गढ़ना ही इनका लक्ष्य है:

                                                अनगढ़ दुनिया को हाथों से

                                                सोच-समझकर

                                                ही गढ़ना है।
हालाँकि गढ़नामें सोच-समझकरशामिल है, बावजूद इसके कवि ने इसे दुहराया है। कविता में दुहराव ख़राब माना जाता है। इससे कसाव की जगह खोखलापन आता है। चूँकि, बुद्धिजीवियों ने यह प्रचारित कर दिया है कि गढ़ने और निर्माण करनेवाले लोग सोच-विचार नहीं सकते, इसीलिए सोच-समझकरके साथ हीको रखा गया है। अधिक स्पष्टता के लिए ही इसका दुहराव किया गया है और इस पर अधिक वज़न भी दिया गया है। कहा जाता है कि कविता कम से कम शब्दों का इस्तेमाल करती है। शब्द से क्रिया नहीं बनती, क्रिया से शब्द बनते हैं। एक तो कर्मशील लोग बोलते नहीं, और जब बोलते हैं तो न छुटके। असल में, उनकी क्रियाएँ बोलती हैं। रचनाएँ बोलती हैं। उनके रंग बोलते हैं। तो कविता में कम शब्द होने का कारण है, उसका कर्मशील सुभाव। इसीलिए केदारनाथ अग्रवाल की कविताएँ कम शब्दोंवाली हैं। इन क्रियाओं में उनका आत्म भल गया है, मतलब कि लय हो गया है। यह लय किसी बने बनाये छंद की लय नहीं है, केदारनाथ अग्रवाल के कर्म की लय है। इससे नये छंद का निर्माण होता है। उनकी कविता वाहन नहीं है, जो पाठक को एक जगह से दूसरी जगह ले जाए। उनकी कविता का बहाव पाठक को भी वहने को प्रेरित करता है। वह अपने पाठक को अपने सिर अथवा पीठ पर नहीं बिठाती, बल्कि उसके हृदय और सिर पर सवार होकर उसे चलने को प्रेरित करती है। केदारनाथ अग्रवाल अपनी कविताओं में आज भी रमते हुए दिखते हैं। इसीलिए वे आज भी मरे नहीं, जीते हैं। तो क्या हमें भी इस जीने-जीतने से प्रेरणा ग्रहण नहीं करनी चाहिए।

सम्पर्क :

ए-67, तेजेंद्रप्रकाश-1

खोडियारनगर, अहमदाबाद – 382350
गुजरात 

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श्रीराम त्रिपाठी का श्रद्धांजलि लेख ‘वह ज्योति अचानक सदा को खो गयी’

समय कितनी तेजी से बीत जाता है, इसका हम अंदाजा नहीं लगा सकते। पिछले इक्कीस जून को  मनहूश  खबर मिली थी कि प्रख्यात आलोचक शिव कुमार मिश्र नहीं रहे। हमारे लिए यह खबर बज्रपात की तरह थी। इस दुखद घटना को अब एक वर्ष होने जा रहे हैं इस अवसर पर शिव कुमार जी को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्रीराम त्रिपाठी का श्रद्धांजलि लेख ‘वह ज्योति अचानक सदा को खो गयी’   

वह ज्योति अचानक सदा को सो गई

श्रीराम त्रिपाठी

अहिन्दी भाषी प्रदेश गुजरात को अपना कर्मक्षेत्र बनाने वाले हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक शिवकुमार मिश्र जी अब हमारे बीच नहीं रहे। 21 जून 2013 की सुबह उन्होंने इस दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह दिया। यह गुजरात के हिन्दी साहित्यिकों और साहित्य प्रेमियों को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत के हिन्दी साहित्यिकों एवं साहित्य प्रेमियों के लिए अत्यंत दुखद है। उन्होंने उत्तर प्रदेश की माटी को गुजरात की माटी से गुण कर जो वृक्ष उगाया वह पूरे भारत तक विस्तृत हुआ। हिन्दी साहित्य का प्रगतिवाद और उसके तुरंत बाद का दौर अत्यंत उर्वर रहा है। उसने साहित्य की हर विधाओं में महत्तम रचनाकारों को विकसित किया। आज के साहित्य का नेतृत्व करने वाले आलोचक भी उसी दौर के हैं। उन्हीं में शिवकुमार मिश्र जी भी थे, जिनसे युवा सर्जक और आलोचक प्रेरित होते थे। यहाँ जिसे हैहोना चाहिए था, उसे थेलिखना पड़ रहा है। युवा और नई पीढ़ी, दोनों उनसे मार्गदर्शन ग्रहण करते थे। तभी तो उनके चाहक संपूर्ण भारत में मिल जाते हैं। हमारी आलोचना आज भी इन्हीं लोगों पर निर्भर है। युवा पीढ़ी ने अगर स्वावलंबी होने की कोशिश की होती तो एक तो इन बुजुर्गों का बोझ कम हुआ होता, दूसरे आलोचना का विकास अबाध गति से चलता। ऐसे में होता यह कि यह पीढ़ी नई पीढ़ी के काम पर नज़र रखती, उनकी ख़ामियों पर टोकती, और आलोचना के भविष्य के प्रति आश्वस्त होती चैन की नींद सोती। परंतु हमारी पीढ़ी ने ऐसा कुछ किया ही नहीं, जिससे कि उनको चैन मिले। हमारे जैसे सर्जक-आलोचक ख़ुद को किंकर्तव्य विमूढ़ पा रहे हैं। मिश्र जी का जाना होरी जैसा हुआ। अभी तो कह रहे थे कि तीन-चार किताबें लिखनी बाक़ी हैं, फिर जाना होगा। घुटने की तकलीफ़ के कारण नहीं कर पा रहा।तीस मई को बिटिया की शादी करके अहमदाबाद लौटा और पहली जून को फ़ोन मिलाया तो माताजी से पता चला कि वे तो दस-पंद्रह दिनों से अस्पताल में भरती हैं। कारण पूछने पर बताया कि साँस की तकलीफ़ थी। आई.सी.यू में हैं। बिटिया की शादी की ख़ुशी तत्क्षण काफ़ूर हो गई और गहरे अवषाद में गर्क हो गया। दूसरे दिन दस बजे उनके घर वल्लभ विद्यानगर पहुँच गया। पता चला कि रात को तबीअत और बिगड़ जाने के कारण अहमदाबाद के किसी अस्पताल में भरती किया गया है। दोनों बेटियाँ साथ में हैं। मगर अस्पताल का पता नहीं मिला, जो माताजी को ख़ुद भी मालूम नहीं था। मिश्र जी का मोबाइल फ़ोन उनकी बड़ी बेटी के पास था, जिनसे उनका हाल जान लिया करता था। अस्पताल का पता गुप्त ही रहा, जिससे वहाँ जाना न हो सका। वैसे भी देखना तो हो नहीं पाता। और नहीं तो तीमारदारी करने वालों की दिक़्क़तें बढ़तीं। कुछ दिनों बाद पता चला कि डॉ. ने उन्हें व्हील चेयर पर बिठा कर घुमाया है। दो दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी। अत्यंत प्रसन्नता हुई। मगर यह ख़ुशी ज़ियादा दिन न टिकी। बताया गया कि कुछ दिन और अस्पताल में ही रहना होगा। बीस जून शाम को फ़ोन किया तो पता चला कि तबीअत बहुत ख़राब हो गई है। कुछ भी कहा नहीं जा सकता। दवाओं का असर नहीं हो रहा। कि इक्कीस जून दस बजे के आस पास मोबाइल की रिंग बजी और स्क्रीन पर डॉ. शिवप्रसाद शुक्ल नाम दिखा तो जी खटक गया। वह जिसे सुनने को तैयार न था वही सुनना पड़ा।      

            यूँ तो मैं मिश्र जी का विधिवत विद्यार्थी नहीं रहा, परंतु उन्होंने हमेशा मुझे सबसे प्रिय विद्यार्थी का ही स्नेह दिया। तभी तो मैं साल में एक-दो बार उनसे मिलने वल्लभ विद्यानगर जरूर जाता था। मेरे जाने पर उनका वह पूरा दिन मेरे हवाले होता था। कुछ नया लिखे होता, तो उसकी चर्चा फ़ोन पर हो चुकने के बावजूद उन्हें पढ़कर सुनाता था। मुक्तिबोध की कविता ब्रह्मराक्षसकी व्याख्या, जो मुझे अत्यंत उत्साहित किये थी, को सुनाने उनके घर जा पहुँचा। आलेख सुनाने से पहले किसी बात पर मेरे मुँह से निकल गया कि आप मुझे ब्रह्मराक्षस लगते हैं। उनका चेहरा देखने ही लायक था। अन्य आलोचकों की तरह वे भी ब्रह्मराक्षस को मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का प्रतीक ही मानते थे। इस तरह मैं उन्हीं के घर पर उनका अपमान कर रहा था। मैं ताड़ गया और तुरंत स्पष्टता की कि आप तो मूलत: शोधक हैं, परंतु मेरे जैसे लोगों ने आपको ब्रह्मराक्षस समझ लिया। इसमें दोष आपका है, या हमारे जैसे लोगों का? देखिए, उस कविता में कवि उस शोधक का सजल उर शिष्य बनना चाहता है, जिसे तत्कालीन समाज ने ब्रह्मराक्षस कहकर त्याग दिया था। उस शोधक को, जो समाज की ख़ुशहाली की शोध में ख़ुद को कितनी तकलीफ़ में डाले था। यह शोधक की कम और हमारे समाज की विडंबना ज़ियादा है। आख़िर सुकरात, ईसा मसीह, कॉपरनिकस के साथ किया गया तत्कालीन समाज का व्यवहार क्या दर्शाता है? मैंने कहा कि आप ही बतलाइए कि अब आपसे मिलने कितने साहित्यिक (प्रोफ़ेसर) जन आते हैं? अगर शोधक समझते तो ज़रूर आते। मेरे लिए तो आप शोधक हैं, तभी तो अहमदाबाद से मिलने आता हूँ। आपसे मुझे बहुत कुछ सीखना है। परंतु आस-पास के लोगों के लिए आप ब्रह्मराक्षस हैं, तभी तो वे आपसे कन्नी काटते हैं। पूँजीवाद से प्रभावित वे आपको ब्रह्मराक्षस ही समझते हैं,क्योंकि उनकी पूँजीवादिता पर आप न केवल सवाल उठाते रहे होंगे, बल्कि रोकते-टोकते भी रहे होंगे। जो उन्हें नागवार लगता था। सो आपको ही ब्रह्मराक्षस क़रार देकर न केवल त्याग दिया, बल्कि दूसरों को भी आपके निकट आने से रोका। इसके बाद वे तकिये के सहारे लेट गये और लेख पढ़ने को बोले। लेख लम्बा था। आँखें बन्द किये सुनते रहे। लेख की समाप्ति पर आँख खोले और बोले, “त्रिपाठी जी, इस कविता के बारे में मेरे अपने विचार हैं। वे आसानी से नहीं जाएँगे, परंतु इतना तो है कि आपके लेख ने मुझे फिर से सोचने को मजबूर कर दिया है। किसी भी लेखक की यही सफलता है।फिर वे मुक्तिबोध से जुड़े कुछ अपने तथा कुछ दूसरों के संस्मरण सुनाने लगे।

            मिश्र जी हद दरजे के ज़िद्दी थे। ज़िद के बिना कोई न श्रेष्ठ साहित्यकार बन सकता है, न श्रेष्ठ मनुष्य। ज़िद का दूसरा नाम टेक भी है। सिद्धांतवादी ऐसे ही लोग होते हैं। मिश्रजी ने बतलाया था कि उन्होंने कभी किसी सरकार या संस्था से पुरस्कार नहीं लिया। केवल आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार लिया था। शाल, प्रशस्ति पत्र और स्मृति चिह्न को ही स्वीकार किया और पुरस्कार राशि उसी संस्था को दान कर दिया। मिश्र जी को पेंशन बहुत कम मिलती थी। गुजरात सरकार ने सागर विश्वविद्यालय की उनकी सर्विस को गिनने से इनकार कर दिया था। वे कम पेंशन पाने का ज़िक्र अकसर किया करते थे, जिसमें अर्थ के प्रति रोना न होकर अन्याय के प्रति टीस हुआ करती थी। एक बार उन्होंने बतलाया था कि गुजरात के राज्यपाल उदयप्रकाश के रिश्तेदार हैं। उनसे भी कहलवाया था। परंतु कुछ नहीं हुआ। दो-तीन साल पहले गुजरात हिन्दी अकादमी ने हिन्दी साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए स्वर्गीय प्रोफ़ेसर भोलाभाई पटेल, प्रोफ़ेसर रघुवीर चौधरी और मिश्र जी को एक-एक लाख रुपए से पुरस्कृत करने का निर्णय लिया था। मिश्र जी से जब संस्तुति माँगी गई तो उन्होंने यह कह कर पुरस्कार लेने से मना कर दिया कि मैंने आज तक कोई पुरस्कार स्वीकार नहीं किया, इसलिए इस पुरस्कार को स्वीकार करने में खुद को असमर्थ पा रहा हूँ।

            मिश्र जी का ज़ियादा समय तो गुजरात से बाहर ही बीतता था। घर में अकेली माता जी ही रहती थीं। हड्डी की ठठरी, परंतु ऊष्मा और स्नेह से भरपूर। मैं उन्हें माता जी ही कहता हूँ। मेरी कॉलेज में आयोजित सेमिनार के सिलसिले में मिश्रजी का संतरामपुर (मेरा कर्मस्थल) आना हुआ। सेमिनार पहली-दूसरी जनवरी को था। वे इकत्तीस दिसम्बर की शाम को ही आ गये और मेरे घर पर ही ठहरे। रात के बारह बजते ही बोले कि त्रिपाठी जी, ज़रा घर पर फ़ोन लगाइए। मैंने फ़ोन लगाया, तो वे माताजी को नये वर्ष की शुभकामनाएँ दे रहे थे। दोनों लोग तकरीबन पाँच मिनट बतियाये, फिर बोले कि लो त्रिपाठी जी को भी नये वर्ष की शुकामनाएँ दे दो। उस सेमिनार में कमलाप्रसाद जी भी आये थे। लम्बे समय बाद दोनों बुजुर्ग मिले थे। इस समय मुझे उनके कोई संवाद याद नहीं आ रहे। केवल वह ऊष्मिल स्नेहिल चित्र मुझे भावविभोर कर रहा है। दोनों आज हमारे बीच न होते हुए भी हमारे भीतर हैं। जैसा कि तेइस तारीख़ को मिलने पर माता जी ने कहा कि त्रिपाठीजी, सर कहीं नहीं गए। हमारे आपके भीतर ज़िन्दा हैं। आप आते रहना मैं यहीं मिलूँगी। कहीं नहीं जाऊँगी।…

            मिश्र जी दाय के रूप में जो छोड़ गये हैं, उसे हमें ही सँवारना और विकसित करना है। आलोचक का एक काम रचनाओं की संभावनाओं की तलाश करना भी होता है। हमें मिश्र जी की रचनाओं की संभावनाओं की तलाश करते हुए उन्हें सुधारना, विकसित करना भी है। शायद सार्थक श्रद्धांजलि यही होगी। वैसे मिश्र जी ऐसी ही श्रद्धांजलि के क़ायल थे। वे कहा करते थे कि किसी भी रचनाकार की ख़ामी-ख़ूबी, दोनों को उजागर किया जाना चाहिए, न कि पूजा की जानी चाहिए। रचनाकार भी तो आख़िर में मनुष्य ही होता है।

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(समयांतर में प्रकाशित)
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श्रीराम त्रिपाठी का आलेख ‘कृषक-कृषक का गुणन’

आलोचना एक दुष्कर कर्म है. आम तौर पर लोग आलोचना का मतलब उखाड़-पछाड़ या रचना की पंक्तिबद्ध व्याख्या से लगा लेते हैं जबकि इन सबसे इतर आलोचना रचना के ही समानान्तर उस का एक पुनर्पाठ करती है. रचना के समानान्तर खड़ी हो कर उससे बोलती-बतियाती है और  उसे फिर से अपने तईं पुनर्रचित करती है. श्रीराम त्रिपाठी हमारे समय के ऐसे ही दुर्लभ आलोचक हैं जो अपनी आलोचना में शब्दों में रमते हुए, उनके साथ खेलते हुए नजर आते हैं और हमारे सामने रचना के समानान्तर एक पुनर्पाठ रख देते हैं. अपने इसी गुण के चलते वे औरों से अलग नजर आते हैं. प्रस्तुत आलेख में श्रीराम त्रिपाठी ने केदार नाथ अग्रवाल की एक कविता  नागार्जुन के बाँदा आने पर की आलोचना की है। तो आईए पढ़ते हैं यह आलेख 

        
कृषक-कृषक का गुणन

श्रीराम त्रिपाठी
जिस तरह बीज का विकास वृक्ष और वृक्ष का विकास फल है, उसी तरह भाव का विकास विचार, स्वर का विकास व्यंजन और पद्य का विकास गद्य है। जीवन-साहित्य इसी तरह विकसता है। प्राचीनतम और नवीनतम, दोनों क्रियाएँ तथा प्रवृत्तियाँ एक-दूसरे से संघर्षमय संयोजन करती हुई पनपती हैं। प्रछंद को ही जब स्व-छंद माना जाने लगता है, मतलब कि अनुकरण (रूढ़) ही जब सृजन कहलाने लगता है, तब स्व-छंद (स्वच्छंद) की कामना घुमटने लगती है, जो एक दिन आंदोलन के रूप में प्रकटती है। स्व-छंतादवादी (स्वच्छंदतावादी) आंदोलन इसका प्रमाण है। मगर जब यह भी रूढ़ हो जाती है, तब प्रगतिवादी आंदोलन की ज़रूरत पड़ती है। असल में,कविता प्रसव के प्रयास में प्र-छंदती-स्व-छंदती (प्रच्छंदती-स्वच्छंदती) है। ऐसे में कभी पर की प्रधानता होती है, तो कभी स्व की। कविता हमेशा रूढ़ को विरोधती है। वेद को विरोधती है। प्रसव की प्रवृत्ति ही सृजन की प्रवृत्ति है। वह पर और स्व को संयोजती है। भिन्न को अभिन्नती है। सृजन की प्रवृत्ति शीलना है, वदना नहीं; बावजूद इसके कुछ लोग वदन को ही कविता कहते हैं। ऐसों की कविताएँ जनता तक नहीं पहुँचतीं। जो जने, वही जनता है और जो लोके-लउके (देखे-दिखे), वही लोक है। कविता अमूर्त को ध्वनि-शब्दों के संयोजन से मूर्त करती है। जैसे एक किसान ऋक्ष को वृक्षता है, वैसे ही एक कवि रूढ़ को शीलते हुए वृढ़ता है। (बीज ही ऋक्ष है। जो क्षरे वही है ऋक्ष। फल की गुठली ही ऋक्ष है। जिसे अधिकतर लोग फेंक देते हैं, निरर्थ समझ कर। सर्जक ऐसी ही चीज़ों का संयोजन करके अर्थवान वस्तु बना देता है। इसीलिए रचना के तत्त्वों का अलग-अलग कोई महत्त्व नहीं होता। ऋक्ष हैं वे। उनकी गुणार्थता संयोजना से उत्पन्न होती है। जिस्म और मन रीढ़ के बिना नहीं विकसते। इस तरह रीढ़ का वृढ़ना (बढ़ना) ही जिस्म और मन का विकसना है।) केदार नाथ अग्रवाल कृषक हैं। वे पर और स्व को शीलते हुए वृढ़ते हैं। उनके उप-जाए वृक्ष फलवान भी होते हैं और स्वादिष्ट भी, जिन्हें वे पहले तो दूसरों खिलाते हैं और ख़ुद बाद में खाते हैं। दूसरे लोग फल तो खाते हैं, मगर उन्हें बढ़ाते (वृढ़ते) नहीं। मतलब कि ऋणते हैं, धनते नहीं। उनका धनना अपनी ओर है, फल अथवा समाज की ओर नहीं। वे बाहर से केवल लेते हैं, देते नहीं। इसलिए फल और उसके नियामक के ऋणी ही रहते हैं। इस ऋण से अगर उऋण होना है, तो फल की संख्या और गुणवत्ता, दोनों को वृढ़ना पड़ेगा। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो ऋणना ही ऋणना होगा। जिससे फलों का एक दिन अकाल पड़ जायेगा। बाबा नागार्जुन की मशहूर कविता अकाल और उसके बादमें दानों, मतलब कि फलों का अकाल है। जब तक वह नहीं था, घर के लघु जीवों की हालत ख़राब थी, मगर उसके आते ही वे किस तरह धमा-चौकड़ी, छीना-झपटी करने लगे! आज का दौर उप-भोक्तावादी है, भोक्तावादी नहीं। महज़ खा-खा करने वाला। बनाने वाला नहीं। इसलिए कर्महीन दौर है यह। ऐसे दौर का अंत निश्चित है। कफ़नमें प्रेमचंद इसी चिंता को शीलते हुए वृढ़ते हैं। दिवास्वप्न में डूबे हम भविष्य के इस कड़वे सच को चखते ही नकार देते हैं। इससे क्या कड़वे सच की कड़वाहट कम हो जाती है! ऐसा करके तो हम अपना ही नुकसान करते हैं। आज वही कड़वा सच हमारे सामने सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ा है। इस दौर का मुहावरा ही है, अकर्मण्यता। सृजना-आलोचना भी इससे बरी नहीं है। एक ही प्रवृत्ति का बार-बार किया जाना ही रूढ़ि है। रूढ़ना ही रुद्धना-अवरुद्धना है। चूँकि, रूढ़ि हमेशा विकास को रुद्धती-अवरुद्धती है, इसलिए कविता रूढ़ि को विरुद्धती हुई बढ़ती है। कविता भावयुक्त विचारों की बाढ़ है। पुराना बंध तोड़ती और नया बंध रचती। आगे चलकर वह इसे भी तोड़ेगी।
            जीव की इच्छा ही श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ ही उसकी इच्छा है, जो अमूर्त है। इसे दूसरा कोई देख-सुन नहीं सकता। जीव जब इसे पाने की कोशिश करता है, वह तभी मूर्त होती है। यही है उसका अपने ईश्वर का वरण करना। वह अपने ईश्वर का वरण करने में जितना सफल होता है, उसका ईश् उतना ही श्रेष्ठ होता जाता है। चाह से चाह का गुणन जब त्रिआयामी होता है, संघ तभी बनता है। चाह का गुणन अकसर द्विआयामी होने के कारण वर्गीय होता है, संघीय नहीं। जबकि कविता वर्गीय नहीं, संघीय होती है। वर्गीय कविता गहरी नहीं, छिछली होती है। किसी भी दौर की कविता पर नज़र डालें तो पायेंगे कि ज़ियादातर कविताएँ वर्गीय ही हैं, संघीय तो बहुत कम। वर्गीय कविताएँ धान-गेहूँ की तरह अल्पजीवी हैं, आम-महुए की तरह दीर्घजीवी नहीं। धान-गेहूँ से तो पेट ही ज़ियादा भरता है, जी बहुत कम। तभी तो उनकी ज़रूरत बार-बार पड़ती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि पेट भरना भी ज़रूरी है और जी भरना भी। केदार की कविताएँ धान-गेहूँ और आम-महुए की संयोजना हैं, जिनसे पेट के साथ-साथ जी भी भरता है। वे ज़ियादा गुणात्मक भी हैं और दीर्घजीवी भी। वे इतना गहन और शक्तिशाली हैं कि ख़ुद ही जीवन रस गह लेती हैं, किसी के मदद की बाट नहीं जोहतीं। ऐसी रचनाएँ गहन इच्छा और उसकी कोशिश का नतीजा होती हैं, तभी तो पुरुषार्थ की प्रेरणा बनती हैं। सौंदर्य वह है, जो पुरुषार्थ की प्रेरणा बने।
            केदार की कविताएँ शीलती भी हैं, शूलती भी। उदाहरण के तौर पर नागार्जुन के बाँदा आने पर। ऊपर से सरल दिखती यह कविता वर्गीय नहीं, संघीय है। क्षेत्रफल के वर्गमूल जितनी गहरी है। यह जितना ऊपर दिखती है, उतना ही भीतर छिपी है। आलोचना का काम छिपे को देखना-दिखाना होता है, दिखे को नहीं। वह तो छिपे को देखने में मदद करता है। ऊपर-ऊपर देखना आसान है। गरदन उठाया नहीं कि देख लिया। कठिन तो छिपे को देखना-दिखाना है। कठ तो शूलने पर ही शीलवान बनता है। ऊपर-ऊपर से नागार्जुन की प्रशस्ति लगती यह कविता भीतर से केदार के लघु जीव की जिजीविषा और पौरुष को प्रकट करती है। यह जीव बाँदा में रहता है। बाँदा क्या है? यह नाम अपने मान को वहने में समर्थ भी है या केवल शोभा मात्र है! कविता की शुरुआत इसके मान को प्रकट करती है, व्यवहार में जिसे परिचय कहा जाता का है।

                                    यह बाँदा है।

                                    सूदखोर आढ़त वालों की इस नगरी में

                                    जहाँ मार, काबर, कछार, मड़ुआ की फसलें,

                                    कृषकों के पौरुष से उपजा कन-कन सोना,

                                    लढ़ियों में लद-लद कर आ कर,

                                    बीच हाट में बिक कर कोठों-गोदामों में,

                                    गहरी खोहों में खो जाता है जा-जा कर,
पहली पंक्ति यह बाँदा है।जो सूदखोर आढ़त वालों कीनगरी है। यहाँ बाँदा की प्रशंसा नहीं, निंदा है। नगर नहीं, नगरी। बड़ी नहीं, छोटी। पुलिंग नहीं, स्त्रीलिंग। नगर बनने की प्रक्रिया से गुज़रती। जब बढ़ जायेगी तब दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता हो जायेगी। नगर की गतिविधियाँ यहाँ मात्रा-गुणवत्ता, दोनों में अभी कम और छोटी हैं, इसलिए यह नगरी है। बंद नगरी। इसका पुराना नाम चाहे जो भी हो, मगर आज तो यह बाँदा ही है। बंद से बाँदा की ओर गति करती। भाषा अगर भाव और विचार को अभिव्यक्त करती है, तो केदार ही नहीं, हर सुजन के लिए बंद का दीर्घ ही बाँदा है। जो केवल लेता है, देता नहीं। गाँव की मार, काबर, कछार में किसानों के पौरुष से उपजी फ़सलें – जिनका कन-कन सोना है – यहाँ के हाट में बिक कर कोठों-गोदामों की गहरी खोहों में खो जाती हैं। बाहर नहीं निकलतीं। किसी जीव का जीवन नहीं बनतीं। केदार का जीव भी इसी में बंद है और बाहर से जुड़ने को छटपटाता है।

                                    और यहाँ पर

                                    रामपदारथ, रामनिहोरे,

                                    बेनी पण्डित, बासुदेव, बल्देव, विधाता,

                                    चन्दन, चतुरी और चतुर्भुज,

                                    गाँवों से आ-आ कर गहने गिरवी रखते,

                                    बढ़े ब्याज के मुँह में बर-बस बेबस घुसते,
यह नगरी सुरसा है। सबको लील लेती है। यहाँ चरित्र नहीं, उनके नाम प्रस्तुत हैं, जिनके माध्यम से ही उनके मान का जानना होगा। वह चाहे रामरूपी पदार्थ हो, राम का अज़ीज़ पदार्थ, चाहे बतियाने में कुशल बेनी पंडित, चाहे वासुरूपी देव, चाहे बल के देव, चाहे ख़ुद विधाता, चाहे चन्दन, चाहे अत्यंत चतुर, चाहे चार भुजाओं वाला। मतलब कि बड़े से बड़े ज्ञानी-ध्यानी, बाहुबली-चतुरों को भी यहाँ के सूदखोर-आढ़तिये नहीं छोड़ते। लील जाते हैं। यही कारस्तानी है इस नगरी की। इसी में यह केदार नामी जीव भी रहता है। उसकी क्या हालत होगी! जहाँ बाहुबली और चतुर लोग लील लिये जाते हों, वहाँ इस सीधे-सादे जीव का जीना कैसे मुमकिन है! कह सकते हैं कि कवि चोर-उचक्कों, बटमारों के बीच पड़ गया है। उसकी दशा अत्यंत ख़राब है। वह कर्तबियों से प्रेम करता है, जो बाँदा में हैं ही नहीं। वह काल के गाल में है। यहाँ जो संघर्षहीन दीनता प्रकट हुई है, उसके मूल में गहन पीड़ा का अभाव है। मानो केवल वही पीड़ित हो, दूसरा कोई नहीं। समझ के अभाव के कारण ऐसा हुआ है। संघर्षहीन दीनता आकर्षित करने में समर्थ नहीं होती, इसीलिए तो विफल होती है। उसकी कोई नहीं सुनता। दीनता, जब संघर्ष से संयुक्त होती है तो शीलता बन जाती है। दूसरों की मदद की याचना के बदले कर बँहियाँ बल आपनोबन जाती है। आकर्षण की क्षमता कर्मशीलता में होती है। यहाँ दीनता की प्रधानता ने बाहर निकलने की छटपटाहट को ढँक लिया है। अगर दीनता बाहर निकलने की छटपटाहट के अंतर्गत आती, तो कविता का आकर्षण बढ़ जाता। इस नगरी में जो भी आया, इसका आहार बन गया। यह आहार बनते जीव की अभिव्यक्ति है, जो केदार नामक जीव के मुँह से निकली है। यहाँ आत्मालोचन भी है, तभी तो अपनी भी कमज़ोरी दिखती है, जो तब नहीं दिखती थी। कविता में आत्मालोचन तत्त्व कविता को गहन बना देता है। भयानक बाँदा में जैसे अकेला वही छटपटा रहा था, दूसरा कोई नहीं। कम समझ के कारण ऐसा था। इसके बावजूद वह जीवन की जद्दोजहद नहीं छोड़ता। अगर छोड़ चुका होता, तो यह सब बताने के लिए मौजूद ही न होता। इस पीड़ित स्वर में बाहर से जुड़ने की तीव्र ललक है, जिसके कारण कवि ख़ुद को मजबूत करता है। उसकी आवाज़ बाँदा से बाहर जाने लगी है। मगर उसमें अभी इतना आकर्षण नहीं है कि कोई बरबस खिंचा चला आये। 
 
                                    शायद ही आता है कोई मित्र यहाँ पर,

                                    शायद ही आती हैं मेरे पास चिट्ठियाँ।
इसके बाद शिकायत है। अपने उदास और खोये-खोये रहने का बयान है। मतलब कि दूर बाहरवाले पूछते रहते हैं कि क्यों उदास और खोये-खोये रहते हो। यहाँ बाहर निकलने और बाहर से जुड़ने की तड़प प्रबल है। इसका कारण है काल के गाल में होना। यह तो सूदखोर और आढ़तियों की नगरी है। इस नगरी में कउइ अकेली है। वह सिरजना और विस्तरना चाहती है। कउइ से कउआ बनना चाहती है। अपनी आवाज़ को विस्तारना चाहती है। इस तरह वह अपने पौरुष को अर्थती है, इसीलिए पुरुषार्थी है।
                                    जन-साधारण की हालत से ऊबा-ऊबा,

                                    बाण-बिंधे पक्षी-सा घायल,

                                    जल से निकली हुई मीन-सा, विकल तड़पता,

                                    इसीलिए आतुर रहता हूँ,

                                    कभी-कभी तो कोई आये,

                                    छठे-छमासे चार-पाँच दिन तो रह जाये,

                                    मेरे साथ बिताये,

                                    काव्य, कला, साहित्य-क्षेत्र की छटा दिखाये,

                                    और मुझे रस से भर जाये, मधुर बनाये,

                                    फिर जाये, जीता मुझको कर जाये।
मिलन की आस में कउइ मर-मर कर जी रही है। मोर अपनी छटा घन की छटा को देखकर बिखेरता है। तो मोर-रूपी कोईघन-रूपी साहित्य-क्षेत्रकी छटा दिखाये, तो कउइ-रूपी जीव भी सरसा जाये। अपनी छटा बिखेरने लगे। मर-मर करती कउइ हर-हर करने लगे। जीने का मतलब है, हर-हर करना, सिरजना-विस्तरना।
            केदार की कउइ का दुःख उसका अकेलापन है, जो उसी का सिरजा हुआ है। जिसके मूल में नासमझी है। इस अकेलेपन से वह इतना त्रस्त होती है कि बाहर से ही उसकी शिकायत करने लगती है। मानो बाहर ही उसके दुःख का कारक हो। बाँदा जैसी छोटी सूदखोर-आढ़तियों की नगरी में वह फँस गयी है, अकेली। वह बाहर को व्यक्तिगत रूप से बुलाती है, समाजगत रूप से नहीं। मगर बाहर है कि आता ही नहीं। यहाँ बाहर से मतलब साहित्यिकों से है। साहित्यिकों के मिलने का एक माध्यम साहित्य-गोष्ठी है। ऐसी नगरी में साहित्य-गोष्ठी के बारे में सोचना कितनी मूर्खता है। कुल मिला कर कवि का आतुर मन बाहर से जुड़ने को छटपटाता है। इसी का क्रमिक विकास है यह कविता। पहले जब यह कमज़ोर थी, तो इसकी आवाज़ बाहर दूर तक नहीं पहुँचती थी। इसीलिए दीन थी। ज्यों-ज्यों पौरुषने-विकसने लगी, त्यों-त्यों एक ओर तो दीनता ख़त्म होने लगी, तो दूसरी ओर इसकी आवाज़ दीर्घ से दीर्घतर होती हुई बाहर दूर तक पहुँचने लगी। फलस्वरूप, आकर्षकों को भी आकर्षने लगी, जिसका प्रमाण है, नागार्जुन जैसे दीर्घ आकर्षक कवि का बाँदा आना।
            यह पहले की छटपटाहट है, जो किसी साहित्यिक के आने पर उसका हुमककर स्वागत करती है। कविता के भीतर से कहीं न कहीं मद्धिम स्वर में यह भी निकलता है कि साहित्यिकों ने तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर भी नहीं बुलाया। अकेला ही छोड़ दिया। इस स्वर में जो शिकायतपूर्ण दर्द है, उसके भी मूल में ख़ुद की आवाज़ की कमज़ोरी ही है। वह अभी भी इतना आकर्षक नहीं हुआ है कि साहित्यिकों को अपनी ओर खींच सके। उसके स्वर में दीनता का प्राकट्य इसीलिए हुआ है।
                                    आखिर मैं भी तो मनुष्य हूँ,

                                    और मुझे भी कवि-मित्रों का साथ चाहिए,

                                    लालायित रहता हूँ मैं सबसे मिलने को,

                                    श्याम सलिल के श्वेत कमल-सा खिल उठने को।
स्पष्ट है कि संघर्मियों ने भी उसे अकेला छोड़ दिया। अपनाया नहीं। साथ नहीं लिया। मुक्तिबोध की मृत्यु पर लिखी कविता फरेब पर फिदा मातममें भी मद्धिम सुर में ही सही, यही भाव शामिल है। साहित्यिक गोष्ठियों में तो बड़े-बड़े नगरों के बड़े-बड़े कवि, बड़े-बड़े पदाधिकारी बुलाये जाते हैं। जो रीते होते हैं। मधु कलश पीते हैं। छूछ-छूछ जीते हैं। वहाँ अतृप्तों को नहीं, तृप्तों को बुलाया जाता है। मधुकरों को नहीं, मधुखवों को बुलाया जाता है। साहित्यिकों के संग-साथ का ललकित-लालायित मन निराला के आने पर इतना गद्गद हो जाता है कि सूर, तुलसी, कबीर, गंधर्व, तानसेन; सबको भूल जाता है। जैसे काव्य-पाठ करते निराला उपर्युक्त सभी कवियों से श्रेष्ठ हों। ध्यान रहे कि यह युवक केदार है, प्रौढ़ केदार नहीं। तभी तो इतने मात्र से सूदखोर-आढ़तियों की नगरी सुन्दर लगने लगी। यथार्थ ज्ञान से यह नगरी सुन्दर नहीं है, बल्कि अपने जीव के आरोपण से सुन्दर बन गई है। यह प्रौढ़ केदार का आत्मालोचन भी है और आत्मव्यंग्य भी। आह्लाद का एक क्षण न जाने कितने दुःखों पर भारी पड़ता है। वही है यह। धीरे-धीरे वह आह्लाद रिस-रिस कर सूख गया। फिर पुरानी स्थिति आ गयी। लगता है कि अकाल का चरम आ गया।
                                    किन्तु न कोई आया,

                                    आने के वादे मित्रों के टूटे,

                                    कई वर्ष फिर बीते,

                                    रंग हुए सब फीके,

                                    और न कोई रही हृदय में आशा।
इस बंध के बाद के बंध की शुरुआत है :

                                    तभी बन्धुवर शर्मा आये,

                                    महादेव साहा भी आये,

                                    और निराला-पर्व मनाया हम लोगों ने,

                                    मुंशी जी के पुस्तक-घर में,
 
जिस तरह छाछ में मक्खन का कुछ न कुछ अंश तो रह ही जाता है, उसी तरह और न कोई रही हृदय में आशामें भी आशा का कुछ अंश तो बचा ही है। कोई भी जीव संपूर्ण रूप से आशहीन नहीं होता। जीव ही आश और आश ही जीव है। पूरी तरह आशहीन तो मृत्यु ही है। इन दो बंधों के बीच में ख़ाली जगह है, जो समय का संकेतक है। मिलने की आस के पूरी तरह ख़त्म हो जाने के वक़्त को तभीसूचित करता है। जान में जान आ गयीकहते हैं न, वही। एक नहीं, दो-दो। निराला-पर्व’, यानी निराला की कविताओं का अनोखा पर्व, जो मुंशी जी के पुस्तक-घर में मनाया गया, जिसमें कुल जमा तीन लोग शामिल थे। यही है केदार नाथ के बाँदा में सम्पन्न हुए निराला-पर्वकी झाँकी। इसमें व्यंग्य भी है और आत्मविश्वास-भरी ख़ुशी भी। 
                                    ऐसा लगा कि जैसे हम सब,

                                    एक प्राण हैं, एक देह हैं, एक गीत हैं, एक गूँज हैं

                                    इस विराट फैली धरती के,

                                    और हमीं तो वाल्मीकि हैं, कालिदास हैं,

                                    तुलसी हैं, हिन्दी कविता के हरिश्चन्द्र हैं,

                                    और निराला हमीं लोग हैं,
दूसरी पंक्ति में जो एक ही साँस में कहा गया है, वह एकतान है। तीनों स्वर जैसे एक हो गये हों। इसे एकता की तान भी कह सकते हैं। याद कीजिए, इसके पहले निराला के काव्य-पाठ से उत्पन्न कउइ की ख़ुशी को, जिसने निराला को वाल्मीकि आदि कवियों से भी श्रेष्ठ बना दिया था। कउइ के गहराये आत्मविश्वास का सबूत है, ‘और निराला हमीं लोग हैंका उद्गार। भीतर की आत्मविश्वास-भरी आवाज़ है यह। इस तरह केदार की कउइ पहले से अधिक प्रौढ़ भी हुई है और पोढ़ भी। उसकी आवाज़ आकर्षित करने लगी है। ख़ूब गतिशील वर्णनों से भरा है यह बंध। यहाँ तक की कविता स्मृति पर आधारित है। इस स्मृति का कारण है नागार्जुन का आगमन, जिसे केदार अपना नया जन्म दिन मानते हैं।

                                    सम्भवत: उस दिन मेरा नव जन्म हुआ था,

                                    सम्भवत: उस दिन मुझको कविता ने चूमा,

                                    सम्भवत: उस दिन मैंने हिमगिरि को देखा,

                                    गंगा के कूलों की मिट्टी मैंने पायी,

                                    उस मिट्टी से उगती फसलें मैंने पायीं,

                                    और उसी के कारण अब बाँदा में जीवित रहता हूँ,

                                    और उसी के कारण अब तक कविता की रचना करता हूँ
यह वर्तमान है। अपनी समझ और कर्म की बेबाक़ी से की गयी आत्मालोचना। मतलब कि मैं पहले ग़लत था। भूल कर रहा था। नागार्जुन के सान्निध्य ने मुझे प्रौढ़ भी बना दिया और पोढ़ भी। पहले मैं दूसरों से अपेक्षा करता था, जिसकी पूर्ति के अभाव में उनकी शिकायत करता था। यह मेरी भूल थी। नागार्जुन के आगमन से मुझे ज्ञान मिला। कविता ने मुझे कभी नहीं चूमा था। मैं ही उसे चूमता था। वह कैसा एक तरफ़ा सम्बंध था! कवि-कविता का सही सम्बंध अब बना है। मैंने पहली बार हिमगिरि को देखा। कितना पुरुषार्थी है वह। अविचल-अडिग खड़ा वह कभी अपनी स्थिति का रोना नहीं रोता, जब कि मैं तो अपनी स्थिति को ही सबसे ज़ियादा कठिन समझता था। इसी तरह गंगा के कूलों की मिट्टी मैंने पायीं। ऐसी मिट्टी जो इतना बहने पर भी उर्वर बनी रहती है। मतलब कि मैंने मिट्टी का सही अर्थ जाना। अगर नागार्जुन न आते, तो मैं कविता-रचना बंद कर चुका होता। फिर तो अपने आप में सिमटता एक दिन बाँदा में बंद हो जाता। बाँदा मुझे खा जाता। इतना गहन और बेबाक़ आत्मालोचन मुक्तिबोध के यहाँ ही मिलता है। यहाँ स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि मैंने आत्मालोचन करना नागार्जुन से सीखा। उन्हीं के कारण आत्ममोह से बाहर निकला। इस कविता में केदार ने नागार्जुन से मिलने को पूरी मिथिला से मिलना बतलाया है। कितना विराट है, नागार्जुन का व्यक्तित्व। उनके भीतर, उनके क्रिया-कलापों में वे सारे चरित्र वहते-वसते हैं, जो मिथिला को रचते हैं। जो मिथिला को विशेष और समृद्ध करते हैं। जिनसे मिथिला, मिथिला बनती है।
            केदार ने तो अपनी प्रौढ़ता औ पोढ़ता का सारा श्रेय नागार्जुन को दे दिया, मगर हमने तो बिना विचारे ही उसे मान भी लिया। देखा ही नहीं कि केदार यह सब कैसेऔर किस तरहकह रहे हैं। अकसर हम इस पर ध्यान ही नहीं देते। दरगुज़र कर जाते हैं, या रूपवादी मानकर उड़ा देते हैं। कवि ही नहीं, हर सहृदय विकसित होता है। कुछ दूसरों से सीखता है, तो कुछ ख़ुद से। वह युवा केदार था, जिसे बाँदा नगरी कभी सूदखोर-आढ़तियों की नगरी लगती थी। जिसे अपना ही दुख सबसे अधिक लगता था। मतलब कि जो अपने में ही सिमटा था। जिसमें आत्मालोचन की प्रवृत्ति कम थी अथवा न के बराबर थी, तभी तो शिकायत किसी अन्य से न करके उसी से करता है जिससे शिकायत है। वह भूल गया था कि बाहर से जुड़ाव का ललकित मन तो निष्कुंठ है। निराला के काव्य-पाठ से जितना मन की ललक का पता चलता है, उतना समझ का नहीं। इसीलिए बाहर के साहित्यिकों से मिलने की इच्छा की मात्रा और तीव्रता निराशा की हद तक बढ़ जाती है। मगर नहीं, उसके मिलन की ख़ुराक (उत्कंठा) ही इसका प्रमाण है कि उसमें आलोचन की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। हर जीव चाहता है कि उसका इच्छित बाहर ख़ुद ही उसके भीतर प्रविष्ट कर जाये। उसे कोई कोशिश अथवा गतिविधि न करना पड़े। मगर जैसे-जैसे वह अनुभव करता जाता है, वैसे-वैसे गतिशील होता जाता है। नागार्जुन जिस समय बाँदा आते हैं, उस समय का केदार न केवल गतिशील है, बल्कि आत्म की आलोचना करने में भी समर्थ है। तो विराट नागार्जुन क्या दया भाव से बाँदा आये? नहीं, केदार के दीर्घ व्यक्तित्व के आकर्षण से खिंचे चले आये। इस प्रकार दो आकर्षक एक-दूसरे से आकर्षित होकर संयोजित हो गये। द्वंद्वात्मक संयोजना कितनी कठिन होती है, कोई इस कविता से सीखे-जाने। अहोभाग्य है हम दोनों का,

                                    जिनको आजीवन जीना है काव्य-क्षेत्र में।

                                    अहोभाग्य है हम दोनों की इन आँखों का,

                                    जिनमें अनबुझ ज्योति जगी है अपने युग की।

                                    अहोभाग्य है दो जनकवियों के हृदयों का

                                    जिनकी धड़कन गरज रही है घन-गर्जन-सी।
दोनों मैं समान होने पर ही संयोजित होकर हम बन सके। इसीलिए यहाँ दया भाव और शिकायत नहीं है। अकुंठ भाव से नागार्जुन का बखान है। इस प्रकार कह सकते हैं कि यह कविता दीर्घ से दीर्घ की संयोजना है, जिसमें गहन आत्मालोचन है। गहन आत्मालोचना ही विराट व्यक्तित्व की पहचान है। और जब कोई विराट किसी दूसरे को विराटने लगे, तब विराट का संघ (घन) ही होगा न! मतलब कि गुणन। नादान केदार पहले बाहर को दोष देता था। शिकायत करता था। अब न केवल उसकी प्रशंसा करता है, बल्कि नमन करता है। अरुण कमल भी शायद यही करते हैं :

                                    अपना क्या है इस जीवन में, सब कुछ लिया उधार।

                                    सारा  लोहा  उन  लोगों  का, अपनी  केवल  धार।
ख़ूबी का श्रेय बाहर को और ख़ामी ख़ुद के नाम। कर्त्री की यही तो विशेषता है। वह सारा श्रेय कर्ता को देती है, ख़ुद को नहीं, जबकि सभी जानते हैं कि रचना-कर्म तो कर्त्री ही करती है, कर्ता तो केवल प्रेरक होता है। केदार का जीव, मतलब कि कउइ कर्त्री है। प्र का मतलब पर भी होता है और श्रेष्ठ भी। केदार के लिए नागार्जुन ही पर भी हैं और श्रेष्ठ भी। केदार की कउइ ने इसीलिए अपने निर्माण का सारा श्रेय नागार्जुन को देकर उन्हें कर्ता बना दिया। इस तरह यह कविता दो विराट कर्ता-कर्त्री का गुणनफल है।
            साहित्य को अकसर गाँव और शहर रूपी दो दुनिया में बाँट दिया जाता है। जैसे ये दोनों दुनियाएँ एक-दूसरे के बिलकुल ही विपरीत हों। आपस में इनका कोई वास्ता ही न हो। जबकि सच यह है कि भीतर से ये एक-दूसरे से गहन रूप से जुड़ी होती हैं। आपस में भरपूर लेन-देन करती हैं। केदार की यह कविता अपने पौरुष को बढ़ाने को उकसाती है। इसी से केदार ऊँचे उठते हैं। इतने ऊँचे कि नागार्जुन जैसे दीर्घ आकर्षक को आकर्षित करते हैं। दीनता और शिकायत यहाँ नज़र नहीं आतीं। न जाने कहाँ कूच कर गयीं। उनकी चाहना और उत्कंठा इतनी ताक़तवर हैं कि फल ख़ुद ही उनकी ओर खिंचा चला आता है। गाँव ही जड़ और शहर ही फल है। दोनों एक-दूसरे से सम्बंधित होकर ही अस्तित्ववान हैं, अन्यथा नहीं। इस तरह फल को जड़ की ओर और जड़ को फल की ओर उत्कंठित होना पड़ेगा, कुछ इस तरह कि दोनों एक-दूसरे से संबंधित हो जायें, जिस तरह केदार और नागार्जुन संबंधित हो गये। एक वृक्ष बाहर से एक ही जगह स्थिर नज़र आता है, मगर भीतर तो वह सतत गतिशील रहता है, तभी तो ऊपर उठता और विस्तृत होता है और असंख्य स्वादिष्ट फल देता है। ज़मीन में बंद बीज बाहर निकलने की तीव्र जद्दोजहद करता है, बाहर को आकर्षित करने में तब ही सफल होता है। उसे देखने के लिए लोग खिंचे चले आते हैं। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि केदार की यह कविता उनके पुरुषार्थ की प्रक्रिया का रचाव है।   
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श्रीराम त्रिपाठी का आलेख ‘आलोचना : इस समय’


साहित्य में आमतौर पर आलोचना को रचना के पीछे-पीछे चलने वाली विधा माना जाता है। लेकिन वरिष्ठ आलोचक श्रीराम त्रिपाठी आलोचना को भी रचना कर्म मानते हैं इसी क्रम में वे कहते हैं – ‘आलोचना और सर्जना को लाख विरोधों के बावजूद एक-दूसरे से संयोजित होना ही पड़ेगा। अन्यथा दोनों का बचना मुमकिन नहीं।’ आलोचक का दायित्व बहुत बड़ा होता है। मुँहदेखी आलोचना अंततः आलोचक और रचनाकार दोनों के लिए घातक होती है अपने आलेख ‘आलोचना : इस समय‘ के माध्यम से त्रिपाठी जी ने आलोचना की बात पर एक गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आईए पढ़ते हैं यह आलेखआलोचना : इस समय’     
आलोचना : इस समय

श्रीराम त्रिपाठी
आलोचना और सर्जना एक-दूसरे के विरोधी होने पर भी एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे पर ही निर्भर है। आलोचना के बिना सर्जना अंधी और सर्जना के बिना आलोचना लूली है। आलोचना अगर आँख है, तो सर्जना हाथ। आँख के बिना हाथ और हाथ के बिना आँख की कोई अर्थवत्ता नहीं होती। यह सच है कि दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं, मगर के एक-दूसरे से गुणकर, दोनों अपनी-अपनी अर्थवत्ता को बढ़ाते ही हैं, कम नहीं करते। इस प्रकार आलोचना और सर्जना को लाख विरोधों के बावजूद एक-दूसरे से संयोजित होना ही पड़ेगा। अन्यथा दोनों का बचना मुमकिन नहीं। आपसी संघर्षात्मक-संयोजना द्वारा ही वे एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश में एक-दूसरे को ठेलते हुए ही आगे बढ़ते हैं। ऐसे में मुमकिन है कि कभी कविता पर ज़ियादा ज़ोर पड़े, तो कभी आलोचना पर। ऐसा करने में जिस पर ज़ियादा ज़ोर पड़ता है, उसका चीख़ना-चिल्लाना वाज़िब है। यही है साहित्य का संसार, जो जीवन-संसार से स्वायत्त होने पर भी उसके अंतर्गत है। उससे लगा होने पर भी अलग है। आकार में छोटा यह संसार, जिस वृहद संसार के अंतर्गत है, उसे इसे ही वहना भी है। उलटी लगती इस क्रिया को इसे ही सम्पन्न करना है। जीवन-संसार विविध और विभिन्न है। विविध और विभिन्न संसार को इसे ही अविधना और अभिन्नना भी है। अविधन और अभिन्नन की प्रक्रिया ही संघटन की प्रक्रिया है। भिन्नों का सम्मिश्रण ही संघटन और उसका गुण ही शील कहलाता है। जो लशे, वही शीलवान है। लोक में इसे ‘लासा’ कहते हैं। इस तरह लोक-वेद एक-दूसरे के विरोधी होने पर भी एक-दूसरे से संयोजित होते हैं। लोक लसता है, जबकि वेद वदता। इन दोनों के संयोजन का ही नाम है, साहित्य। हमारी कोशिश होगी कि ‘आलोचना : इस समय’ को इस तरह विवादा जाये कि संवाद बन जाये। ध्यान रहे कि संवादना नहीं, विवादना। आजकल तो ‘विवाद’ शत्रु का पर्याय और ‘विवादक’ हिंसक मान लिया गया है। आज का दौर तो एकदम्मे अहिंसक हो गया है। नित नयी मिसाइलें और परमाणु हथियार बन रहे हैं, मगर दौर है अहिंसक। घनघोर अहिंसक। इनके निर्माताओं का कहना है कि रक्षा के लिए यह सब करना पड़ रहा है, मगर वे यह नहीं बतलाते कि रक्षा किससे करनी है। आपको कौन अरक्षित कर रहा है। पड़ोसियों में इतना बैर कभी न था, जितना आज है। कथनी-करनी में इतना बड़ा अंतर शायद ही कभी हुआ हो। इसीलिए आज हर शब्द अपने से जुड़े किसी भी अर्थ से बिलकुल अलग हो गया है। किसी भी शब्द का कोई भी अर्थ हो सकता है। पूरी स्वतंत्रता है। पूरी स्वछंदता है। जो चाहो करो, जैसे चाहो करो। एकदम बंधनहीन, उन्मुक्त। तभी तो जहाँ देखो वहाँ संवाद ही संवाद है। भिन्न-भिन्न संवाद है। सुर-सुरों की भरमार है। नहीं है तो केवल अभिन्न और असुर। तो झूठ काहे कहें, हम भी संवादना चाहते हैं, ख़ूब संवादना चाहते हैं, मगर जानते हैं कि यह तो बहुत कठिन काम है। इसके लिए शील चाहिए, जो अपने में है नहीं। इसलिए अपने तर्इं तो विवादेंगे ही, यह सोच कर कि विशेष नहीं बना, तो कम से कम विरोधी तो बनेगा ही। कुछ न करने से तो अच्छा है कि कुछ किया जाये। हाँ, इसके लिए भुगतने की तैयारी होनी चाहिए। तो दोस्तों, हम यहाँ जो कुछ कहेंगे, उसका नतीजा भुगतने को तैयार हैं। कुछ नहीं, तो कम से कम तजुर्बा तो हासिल होगा ही। चाहे अच्छा, चाहे बुरा। बुज़ुर्गों ने कहा है न कि तजुर्बा बहुत बड़ी चीज़ है। उसका कोई मोल नहीं। वह आगे के लिए बड़े काम का होगा। वह और किसी के काम का भले ही न हो, इतना ही नहीं, और किसी काम का भी न हो, परंतु ख़ुद के संशोधन-परिष्कार में तो बहुत मददगार होगा ही।
      तो दोस्तो, सृजन-कर्म श्रेष्ठ है आलोचन-कर्म से, इसे कोई इनकार नहीं सकता। मगर यह भी सही है कि आलोचन-कर्म की प्रौढ़ता ही सृजन-कर्म की बुनियाद है। मतलब कि आलोचना ही सर्जना का पहला पायदान है, जिसके बिना सर्जना के पायदान पर पहुँचना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है। जिस तरह आठो डाँड़ी सीखे बिना लिखना मुमकिन नहीं, उसी तरह आलोचना के बिना सर्जना भी मुमकिन नहीं। रचना का बीज-तत्त्व है, आलोचना। एक सर्जक पहले तो आलोचक ही होता है, मगर एक आलोचक पहले सर्जक हो, ऐसा कहना अगर नामुमकिन नहीं, तो मुश्किल ज़रूर है। जो है, वह पर्याप्त और श्रेष्ठ है या उससे बेहतर भी हो सकता है, इसका बोध तो आलोचना ही कराती है। वह वर्तमान को संशोधित-परिष्कृत करने में इसी तरह मदद करती है। संशोधन-परिष्कार की क्षमता के अभाव में सर्जना कैसी! अनुकरण ही मुमकिन है। जो केवल आखे-चाले वह आलोचना और जो आखने-चालने के बाद बनाये भी, वो सर्जना है। मुक्तिबोध मूलतः कवि थे, मगर उनकी आलोचना किसी भी स्थापित आलोचक से कम नहीं, बल्कि बेहतर है। उसी मुक्तिबोध ने साहित्य के नेतृत्व का भार आलोचक को सौंपा था, सर्जक को नहीं। कारण कि सर्जक पहले से ही दुहरा भार वहता है। वह आखने-चालने के साथ-साथ बनाता भी है। उस पर और बोझ लादना ठीक नहीं। दूसरे, आलोचक तो केवल आखने का काम करता है। इसलिए उस पर एक तो कम बोझ होता है, दूसरे एक ही काम करने के कारण उसमें पटु हो जाता है। तो सवाल उठता है कि क्या आज की आलोचना साहित्य का नेतृत्व कर रही है? अगर हाँ, तो कैसे? और नहीं, तो क्यों? इन्हीं सवालों की छानबीन में शायद ‘आलोचना : इस समय’ की भी छानबीन हो जाये। ‘छानबीन’ पर ज़रा ग़ौर कीजिए। यह छानना-बीनना का लघुरूप है। ये दोनों क्रियाएँ न केवल आखना-चालना की समानधर्मा हैं, बल्कि उनसे ज़ियादा सूक्ष्म हैं। ये सभी क्रियाएँ वस्तुओं का परिष्कार करती हैं, इसीलिए समानधर्मा हैं। छानना-बीनना, आखने-चालने के बाद होता है। छाने-बीने हुए को छानना-बीनना। मतलब कि महीन से महीन करना। मतलब कि आलोचे हुए को फिर से आलोचना। यह पहले से अधिक कठिन और दुरूह है। फँसा दिया आयोजक मित्रों ने। बुरे फँसा दिया। जहाँ विवाद के अलावा कुछ मुमकिन ही नहीं। कहा जा चुका है कि आज के दौर में ‘विवाद’ तो पूरी तरह असामाजिक हो गया है। एक अश्लील शब्द। सामाजिक मान्यता तो संवाद’ को मिली हुई है। जहाँ देखो वहाँ संवाद ही संवाद हो रहा है, जिसका नतीजा हैं नित नये पुरस्कार। विवादी स्वर गुम हैं। एकदम गुम। और जब विवादी स्वर ही गुम हों, तो आलोचना की स्थिति भला बेहतर कैसे हो सकती है! निंदक का अर्थ कभी आलोचक हुआ करता था और सर्जक उसको कितना ज़रूरी समझता था कि “आँगन कुटी छवाने” की बात कहता था। वह आलोचक के क़रीब रहना चाहता था, जिससे उसकी हर क्रिया पर निंदक की नज़र बनी रहे। जिससे उसकी सर्जना ज़ियादा से ज़ियादा गुणात्मक बने। 
यहाँ ज़रा निंदक को समझते चलें। निंदक का सामान्य और थपा अर्थ है, बुराई करने वाला। निंद शब्द नींद से नाभिनाल बद्ध है। दिन भर हम जीवन-व्यवहार के तहत घर से बाहर भटकते हैं और रात को नींद के लिए विस्तर पर ख़ुद को फैला देते हैं। अगर विस्तर हमारे फैलाव से छोटा होता है, तो हमें संतुलित नींद नहीं आती। इस तरह हमारा विस्तर हमारे शरीर के विस्तार से कम नहीं होना चाहिए। जिस तरह औरतें पकाने से पहले चावल को किसी छिछले बर्तन में फैला कर उसके कंकड़-पत्थर को बीन कर साफ़ करती हैं, उसी तरह हमें भी दिन भर के बटोरे को फैला कर साफ़ कर लेने के बाद बटोर कर रख लेने के उपरांत ही निंदना होता है। वही हमारी पूँजी है, जिसके द्वारा हमें दूसरे दिन का जीवन-व्यवहार चलाना होता है। ऐसा न करने-वाला भी निंदक ही है और ऐसा करने वाला भी, क्योंकि निंदते तो दोनों हैं। स्पष्ट है कि ऊपर जिस निंदक के लिए कुटी छवाने की बात कही गयी है, वह ऐसा करने वाला ही है। इसे अगर आलोचक की ओर से देखें, तो आलोचक को इससे सृजन-प्रक्रिया को देखने तथा उससे गुज़रने का लाभ मिलता था। यह बात दीगर है कि तत्कालीन आलोचकों ने इससे लाभ उठाया कि नहीं। और उठायाए तो कितना और कैसे। आलोचना का विकास तब मुमकिन है, जब वह पाठक-सर्जक के ही नहीं, सर्जन के भी सम्मुख हो। मगर नहीं, हमारे आलोचक तो निष्कर्षक हैं। निरर्थक नहीं, द्वंद्वहीन निष्कर्षक। न द्वंद्वते हैं, न कृषते-कर्षते। सर्जन के सम्मुख कम और पाठक-सर्जक के सम्मुख अधिक होते हैं। या तो वे सर्जक के इतने पास स्थिर हो जाते हैं कि उसकी क्रिया को ठीक से देख ही नहीं सकते, या इतनी दूर कि देखने-दिखने का सवाल ही नहीं उठता। वे पास और दूर में आवन-जावन करते ही नहीं। इसीलिए वे आलोचते कम और संवादते अधिक हैं। इस तरह आलोचक-सर्जक के संवाद से हमारा साहित्य समृद्ध हो रहा है, विवाद से नहीं। जिस तरह विश्व बैंक के ऋण से हमारी सड़कें फिसल रही हैं, उसी तरह हमारी आलोचना दाय में प्राप्त हमारे बुज़ुर्गों द्वारा निर्मित पथ को दुरुस्त न कर के पश्चिम के ऋण से निर्मित पथ पर फिसलती है। कहाँ और किधर जाना है, इसका पता जाने बिना। इससे आप समझ सकते हैं कि आज की आलोचना में साहित्य का नेतृत्व करने की कितनी क्षमता है। रही बात नेतृत्व कर रही है या नहीं की, तो इतना ही कहना मुनासिब है कि हमारा साहित्य इस समय नेतृत्वहीन है। छोटी-छोटी टुकड़ियों में बंद एक कुनबा, जिसमें द्वंद्व और संदेह का अभाव है। जहाँ भूलने-भलने की कोई गुंजाइश नहीं। यहाँ जो भी होता है, सही और श्रेष्ठ ही होता है। इसलिए सहर्ष स्वीकार लिया जाता है। समय से बड़ा आलोचक कोई नहीं। उसकी छननी-बिननी बहुत बारीक़ होती है। वह ज़रा भी मुरव्वत नहीं करती। सार को ही गहती है और थोथों को उड़ा देती है। देखने की बात यह है कि आज का वही साहित्य श्रेष्ठ है, जो जितना उड़ता है, न कि उठता है। उठने वाले साहित्य की पहचान उसका ज़मीन से जुड़ाव है, जिससे उसका कोई वास्ता नहीं। ध्यान रहे कि उठने वाला साहित्य टिकाऊ होता है, उड़ने वाला साहित्य नहीं।
      हमारी दिक़्क़त यह है कि हम कार्य की जगह कर्ता को महत्त्व देते हैं। इसीलिए कृति से अधिक कृतिकार महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कर्म की प्रधानता नहीं, कर्मक की प्रधानता। ‘रामायण’ से ज़ियादा वाल्मीकि, ‘सबद’ से ज़ियादा कबीर और ‘रामचरित मानस’ से ज़ियादा तुलसी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। फिर आलोचना का विकास हो तो कैसे! जब रचना से बड़ा रचनाकार हो जाये, तो पूजा की प्रवृत्ति बढ़ती है, आलोचना की नहीं। आलोचना की प्रवृत्ति तभी बढ़ेगी, जब रचनाकार से बड़ी रचना मानी जाये। ध्यान रहे कि कोई भी कृति अकेले कृतिकार की ही निर्मिति नहीं होती। कृतिकार तो निमित्त और माध्यम होता है। वह जिस समय और परिवेश में रहता है, वह भी उस कृति का कारक होती है, जिसे आलोचना की शब्दावली में समय और परिवेश का दबाव कहते हैं। कबीर की कुछ रचनाएँ उलटबाँसी कहलाती हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर की शब्दावली को सिद्धों-नाथों से तो जोड़ा, मगर सिद्ध-नाथों की शब्दावली उलटी होने का कारण क्या था, इसे नहीं बताया। तो क्या हमें इसका पता नहीं लगाना चाहिए! यह किनके उलट थी। तुलसी के हिसाब से तो वाल्मीकि भी उलटे थे। तब ही तो ‘राम-राम’ की जगह ‘मार मार’ कहते थे। रामभक्त तुलसी भला क्यों कहने लगे कि ‘रामायण’ के राम वाल्मीकि के अनुसार मार ही हैं, क्योंकि मार-मार करते हैं। मारने में ही उन्हें मज़ा आता है। ब्राह्मण के बेटे को छोड़ कर, अगर किसी को जीवन दिया हो, तो आपै बताइए। इस तरह हमारे यहाँ दो विरोधी दृष्टियाँ सतत रही हैं। कभी पहली का ज़ोर रहा, तो कभी दूसरी का। उदाहरण के रूप में हम सौ के अंक में शून्य को दाहिनी ओर लिखा मानते हैं। इसीलिए तो कहते हैं कि शून्य जब दाहिनी ओर आता है, तो संख्या का मान दस गुना बढ़ा देता है। हम भूल जाते हैं कि यह कथन द्रष्टा का है। जिस कागज़ पर हम लिखते हैं, हाशिये को बायीं ओर छोड़ते हैं। हाशिया द्रष्टा की बाँयीं ओर होता है, न कि कागज़ के। कागज़ की ओर से देखें तो दायीं ओर लगेगा। इसी तरह सौ के अंक की ओर से देखें, तो शून्य एक के दायीं ओर होगा। एक दृष्टि कृति-कर्ता की ओर से, तो दूसरी द्रष्टा की ओर से। सत्य इन दोनों के बीच है। लोगों को अकसर कहते सुनते हैं कि उलट-पलट कर देखो। वस्तु का पूरा पता तभी चलेगा। इस तरह उलट-पलट कर देखे बिना सत्य का पता नहीं चलता। कृतिकार रचना को उलट-पलट कर देखता-परखता है। वह उसे सर्वांग सुन्दर बनाना चाहता है, इसीलिए ऐसा करता है। आज हम अपने मकान के चेहरे को ख़ूब चमकाते हैं। पिछवाड़े का ख़याल ही नहीं रखते। इसे अवांतर न समझें और न अश्लील ही। याद आता है बचपन का एक प्रसंग। हमारे पटिदार के यहाँ कुछ बरदेखुआ आये थे। रस्म-रिवाज़ के मुताबिक़ ख़ातिरदारी हुई। बातचीत चल ही रही थी कि बरदेखुओं में से एक बुज़ुर्ग उठे तो पेशाब जाने के लिए, मगर मकान की परिक्रमा करने लगे। जानते हैं, वे क्या कर रहे थे… पँड़ोह देख रहे थे। ज़रा भी रुचा नहीं न। अश्लील लगा होगा। मगर वे बुज़ुर्ग इसका पता लगा रहे थे कि यह घर खाता.पीता है, या फाँकाग्रस्त है। पँड़ोह में अगर सीलन ज़ियादा हो, तो समझना चाहिए कि घर खाता-पीता है। फाँकाग्रस्त नहीं है। द्रष्टा का लक्ष्य पँड़ोह नहीं, घर की समृद्धि का पता लगाना था। पँड़ोह तो समृद्धि जानने का माध्यम था। अब, अगर इस माध्यम पर हम नाक-भौं सिकोड़ कर अलग हो जायेंगे, तो एक छिपे सत्य को जानने से वंचित रह जायेंगे। मालूम है कि इसे जानने के बाद हमारे गाँव के लोग बरदेखुवा आने पर पहले पँड़ोह में ख़ूब पानी बहाने लगे। बरदेखुवों की ख़ातिरदारी बाद में करते। क्या पता, कहीं वही बरदेखुवा भेष बदल कर न आ गया हो। 
तो कोई भी रचना सर्वांग सुन्दर तब कहलायेगी, जब उसका अगवाड़ा ही नहीं, पिछवाड़ा भी सुन्दर होगा। हर क्रिया अपना चिह्न छोड़ती है। अगर वह कुरुचिपूर्ण है तो दाग़ और सुरुचिपूर्ण है तो चिह्न अथवा टीका कहलाती है। टीका का एक मतलब आलोचना है, तो दूसरा सम्मानित करना। इस प्रकार आलोचे बिना किसी को कैसे टीक सकते हैं। परंतु जिधर देखिये उधर आलोचे बिना ही टीकने का रोज़गार चल रहा है, जिस तरह किसी कथा-बार्ता में पंडित जी यजमान के साथ-साथ अन्यों को भी टीक देते हैं, इस आस में कि दस-पाँच जो भी मिल जाएगा। 
बचपन में हम बॉलपेन अथवा फाउंटेनपेन से नहीं, सरकंडे की क़लम को शीशी की स्याही में डुबो कर लिखा करते थे। जिस दिन स्कूल में कुछ भी नहीं पढ़ते थे अथवा गुल्ली मारते थे, उस दिन होंठ और अँगुलियों पर स्याही ज़रूर पोतते थे। यह सोचकर कि इससे ज़ियादा पढ़ाई करना साबित होगा। अखाड़े में लड़ते न थे, मगर अखाड़े की मिट्टी पहलवानों से भी ज़ियादा लगा कर घर लौटते थे। तो भैया, आज की आलोचना में यह सब बहुत हो रहा है। ध्यान से देखने की ज़रूरत है। जितना हम बाहर का परिष्कार करते हैं, उतना ही भीतर का भी परिष्कार होना चाहिए। मगर आज की आलोचना गहरे उतरने से बचती है। उपरे.उपरे मिल जाता हो, तो गहरे कोई क्यों उतरे! कूप मंडूक हैं, जो गहरे उतरते हैं। कितनी चालाकी से उन्होंने ख़ुद को न केवल मंडूक, बल्कि विस्तृत मंडूक के रूप में स्थापित कर दिया। जो मंडन करे, वही मंडक और मंडूक है। ‘कूप-मंडूक’ तिरस्कार और अप-मान वाची है। यह सम्मान वाची क्यों नहीं रहा, जबकि वह न केवल स्वच्छ जल में रहता है, बल्कि स्वच्छ करने में सहायक भी होता है। पीयेंगे कुएँ का पानी और उसके मंडूक को अपमानित करेंगे। ख़ुद तो गंदगी करेंगे और उसे साफ़ करने वाले से दूरी बनाएँगे। वाह भाई, क्या दृष्टि है! कुल मिला कर न छिछली गड़हिया का मंडूक विस्तृत है, न गहिरे कूप का मंडूक गहिरा। उनकी यह हदबंदी आलोचना और जीवन, दोनों के लिए घातक है। दोनों को एक-दूसरे में आना-जाना पड़ेगा, तभी उनका मंडूक’ नाम सार्थक होगा। 
आज की आलोचना की सबसे बड़ी कमज़ोरी है, उसकी निश्चिंतता। वह चिंतती कम, चिंतने का दिखावा ज़ियादा करती है। चिंतना की पहचान है एकाग्रता, जो आज की आलोचना से लगभग सिरे से ही ग़ायब है। सभी जानते हैं कि किसी भी समस्या का मूल अतीत में होता है। वर्तमान तो उसका फल है। निदान फल का ही नहीं, समस्या का भी किया जाता है। अगर यह कहें कि समस्या का निदान करने के बाद ही फल का निदान किया जाता है। मगर हम तो केवल फल के निदान में ही जुटे रहते हैं। कबीर इसीलिए सर्जक भी हैं और आलोचक भी। वे द्रष्टा की तरह भी देखते हैं और भोक्ता की तरह भी। वे बाहर से भी देखते हैं और भीतर से भी। उन्होंने दुनिया-जहान को दुनिया-जहान से ही गुणा-गोड़ा है। उन्होंने जितना और जैसे पाया उसे अपने स्व से गुणा तो सगुण बन गये। मतलब कि गुणवान हो गये। फिर वे इसी गुण को बाहर निकालते हैं, तो ख़ुद तो निर्गुण और निर्मान हो जाते हैं और अपनी निर्मिति को सगुण कर देते हैं। वे बाहर को गुणने के लिए ही ख़ुद को निर्गुणते हैं। भीतरी गुण बाहर नहीं निकलाए तो भीतर नया गुण कैसे आयेगा! सर्जक तो प्रकृत को संस्कृत और प्रकार का संस्कार करता है। प्रकृत यह है कि हम ऑक्सीजन को भीतर लाते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर करते हैं। जो प्रकृत है, वही सामान्य है। सर्जक इसे अमान्य करने के उपरांत ही विमानता है। वह कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर नहीं करता, बल्कि ऑक्सीजन को बाहर कर के मनुष्य जाति का कल्याण करता है। इसी अर्थ में सर्जक वृक्ष ही नहीं, शिव भी है। बाहर से रूखा, मगर भीतर से रसपूर्ण। निर्मान का मतलब ही है, अपने मान को निरू करके ख़ुद को मानहीन कर देना। जिस मान से भरपूर था, उसे निकाल कर एक ओर वह ख़ुद निर्मान हो गया, तो दूसरी ओर समाज का सामान (गुणवान वस्तु) बन गया। सगुण को क्या सगुणना। सगुणना तो निर्गुण को होता है। भरे पेट खाना नहीं होता। ख़ाली पेट खाना होता है। इस तरह कबीर निर्गुण से सगुण और सगुण से निर्गुण में रचते-राचते हैं। 
आज की आलोचना फलधर्मी न होकर फलवादी है। फलधर्मी आलोचना ही प्रक्रियाधर्मी होती है। जिसकी नज़र केवल फल पर होती है, वही फलवादी और जिसकी नज़र फल से लेकर जड़ तक होती है, वही फलधर्मी अथवा प्रक्रियाधर्मी कहलाता है। उसकी नज़र एक छोर से दूसरे छोर तक सतत गतिशील रहती है। मतलब कि पूरे वृक्ष को गुणती है। सिर्फ़ फल खाना उपभोक्तावाद है और फल खाने के बाद वृक्ष को गणना-गुणना भोक्तावाद। हमारी आलोचना जब प्रक्रियाधर्मी होगी, तभी साहित्य का नेतृत्व करने में समर्थ होगी। इसके अभाव में वह साहित्य का नेतृत्व नहीं कर सकती। ऐसा करने पर उसकी नज़र रचना की पूरी प्रक्रिया से गुज़रेगी। मतलब कि संरचना से गुज़रने के कारण वह विकसित होकर सर्जना बन जायेगी। आलोचना इसी तरह सर्जना का विकास करती है। यह कहना असंगत न होगा कि आलोचना के विकास के बिना सृजन का विकास मुमकिन नहीं।
      एक बात और। अकसर कहा जाता है कि सर्जक को लोक के क़रीब होना चाहिए। विविध और विभिन्न अनुभवों से गुज़रना चाहिए। ऐसी सलाह हमारे आलोचक अकसर सर्जकों को दिया करते हैं और ख़ुद को इससे बचा लेते हैं। जैसे ‘चाहिए’ शब्द उन पर लागू होने के लिए बना ही नहीं है। दूसरी बात यह कि आलोचक में सर्जक बनने की लालसा ज़ोर मारेगी, तभी श्रेष्ठ आलोचना मुमकिन होगी। सर्जक बनने का प्रयासी ही श्रेष्ठ आलोचक भी बन सकता है और श्रेष्ठ सर्जक भी। सर्जक के लिए शून्य बाँये होता है, दायें नहीं। शून्य ही आधार है। मतलब कि ज़मीन। स्त्री को वामांगी कहते हैं। इनसान का वाम ही धड़कता है। सृजन-कर्म स्त्री-कर्म है। स्त्री सिरजती है, पुरुष नहीं। स्त्री अपने पुरुष को सिरजती है। स्त्री शक्ति है और शक्ति सूक्ष्म और अमूर्त होती है। वह रूप के भीतर रहती है और क्रिया के वक़्त ही प्रकट होती है, जिसे पौरुष कहते हैं। तो पुरुष अमूर्त शक्ति का ही प्रकट रूप है। सूक्ष्म और अमूर्त को प्रकट करना ही सर्जना-सिरजना है, मूर्त को प्रकट करना नहीं। दृष्ट को दिखाना सर्जना-सिरजना नहीं है, अदृष्ट को दिखाना सर्जना-सिरजना है। इस प्रकार आलोचना को रूप के भीतर के अदृष्ट, मतलब कि सूक्ष्म को उद्घाटित करना होगा। मान और निर्मान की प्रक्रिया को उद्घाटित करना होगा। 
हमें यह कहने में ज़रा भी हिचक नहीं है कि आज की आलोचना ऐसा नहीं कर रही। यहाँ ‘नहीं कर पा रही’ भी कहा जा सकता था, परंतु नहीं कहा गया। कारण कि ऐसा करने की कोशिश कहीं-कहीं ही दिखती है। अधपठ या कचपठ, जो भी चाहें कह लें, प्रवृत्ति के रूप में कम से कम हमें तो नहीं दिखती। जुगनू निराशा से हमें सिर्फ़ बचा सकते हैं, प्रकाशित करके हमारी आशा की पूर्ति नहीं कर सकते। कहीं-कहीं की इस कोशिश को अपनी गहनता के साथ विस्तृत होकर प्रवृत्ति का रूप लेना होगा। तभी उसके प्रकाश में सत्य को स्पष्ट रूप से देखा जा सकेगा। सत्ताधारियों को हर वर्तमान सुखता और जनता को दुखता है। इसीलिए सत्ताधारी परिवर्तन-विरोधी और जनता परिवर्तन-कामी होती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि आलोचना का यह वर्तमान हमें अतुष्टत ज़ियादा करता है और संतुष्टत बहुत कम।

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