प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख ‘भारतीय नवजागरण की अद्भुत मिसाल : सर सी. वाई. चिन्तामणि।‘


हेरम्ब चतुर्वेदी

 

पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति सर सी. वाई चिंतामणि के नाम से अनभिज्ञ न होगा। तब वह दौर था जब पत्रकारिता एक व्यवसाय न हो कर विशुद्ध रूप से एक मिशन हुआ करती थी। सी. वाई. चिंतामणि ने अपनी प्रतिबद्धता से इस मिशन को आगे बढाया और भारतीय नवजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने सर सी. वाई. चिंतामणि के जीवन एवं सम्पादक-पत्रकार के रूप में उनकी भूमिका पर एक नजर डाली है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख ‘भारतीय नवजागरण की अद्भुत मिसाल : सर सी. वाई. चिन्तामणि।‘    
भारतीय नवजागरण की अद्भुत मिसाल: सर सी. वाई. चिंतामणि!
                                         
प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी
सर सी. वाई. चिंतामणि का पूरा नाम था, चिर्रावूरी यज्ञेश्वर चिंतामणि। चिर्रावूरी, कृष्णा जिले के उनके पैतृक ग्राम का नाम था। उनका जन्म तेलुगु नव-वर्ष के अवसर पर अप्रैल 10, 1880 को विजयनगरम (आंध्र-प्रदेश) में हुआ था। उस समय यह मद्रास प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आता था। अपने पिता चिर्रावूरी रामसोमायाजुलु गारू की वे तीसरी संतान थे। उनके पिता सनातनधर्मी विद्वान् एवं विजयनगरम के शासक, महाराजा सर विजयराम गजपति राजू के धार्मिक अनुष्ठानों के परामर्शदाता थे! उनके पूर्वज 19वीं सदी के प्रारम्भ में ही इसी कारण से अपने ग्राम एवं जनपद से विजयनगरम आ गए थे। किन्तु, चिंतामणि ने पारिवारिक, परंपरागत धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने से इंकार कर दिया। उन्हें महाराजा विजयनगरम के परामर्श पर पाश्चात्य शिक्षा दिलाई गयी। उन्होनें 1890 में महराजा कॉलेज में प्रवेश लेकर वहीं से 1895 में मद्रास विश्वविद्यालय की मैट्रिकुलेशन की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की। इसी बीच उनके पिता का 1892 में ही स्वर्गवास हो गया था
मैट्रिकुलेशन के अध्ययन के दौरान ही वे राजनीति में रस लेने लगे थे और समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं में नियमित लिखने भी लगे थे। तदुपरांत उन्होनें एफ.. में प्रवेश लिया तथा, नियमतः हिन्दू एवं मद्रास स्टैण्डर्ड में लिखने लगे। इसी के साथ वे स्थानीय पत्र तेलुगु हार्प में भी लिखने लगे। उनकी स्मरण-शक्ति, वाक्पटुता, शैली, शब्दावली और अंग्रेजी भाषा पर पकड़ अद्भुत थी अतः वे सभी का ध्यानाकर्षण करते थे! किन्तु अधिक काम और स्वाध्याय के इस दौर में उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अंततः उन्हें 1896 में इलाज के लिए विशाखापतनम जाना पड़ा। और, वे विज़ाग स्पेक्टेटर में पत्रकारिता करने लगे। इसके प्रकाशक थे, जगन्नाथ शास्त्री। उन्होंने युवा चिंतामणि की एक लेख-माला प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था, लार्ड एल्गिन की असफलता (लार्ड एल्गिन द्वितीय, वाइसराय, 1894-1898)। इस लेखमाला के चलते ही, अगस्त 24, 1898 को चिंतामणि 18 वर्ष की अल्पायु में विज़ाग स्पेक्टेटर के संपादक एवं प्रबंधक नियुक्त हुए!
अंततः अनेकानेक कारणों से वे पुनः विजयनगरम लौटे। किन्तु तब तक वे विज़ाग स्पेक्टेटर तथा गुडविल 300 रुपये में खरीद चुके थे! विजयनगरम पहुँच कर उन्होनें इसका नया नामकरण, इंडियन हेराल्ड (साप्ताहिक) कर दिया। यह पत्र दो वर्ष ही चल पाया और आर्थिक कठिनाईयों के चलते बंद हुआ। किन्तु तब तक चिंतामणि एवं उनका यह साप्ताहिक पत्रकारिता के इतिहास में अपना नाम उल्लेखनीय करवा चुके थे! इसी बीच, 1899 में उनकी पत्नी एक पुत्र को जन्म देने के 30वें दिन ही चल बसीं। अब वे विजयनगरम छोड़ने को विवश थे। वे हिन्दू के संपादक, जी. सुब्रमण्यम ऐय्यर से प्रभावित थे अतः मद्रास चले आये और हिन्दू में कार्यरत हुए। इसी बीच उन्होनें, इंडियन सोशल रिफार्म नामक पुस्तक लिख कर, शास्त्रों के साक्ष्यों के आधार पर समाज-सुधार के एक पूर्ण कार्यक्रम की रूपरेखा ही प्रस्तुत करके, सबका ध्यानाकर्षण किया! इसमें आधुनिक भारतीय चिंतकों के विचारों से भी लोगों को अवगत कराया गया। इन विचारकों में एम. जी. रानाडे, आर. जी. भंडारकर, पी. आनंदचार्लू, जी. सुब्रमण्यम ऐय्यर, राय बहादुर लाला बैजनाथ, आर. एन. मधोलकर, पं. बिशन नारायण दर, आर. वेंकटरमण नायडू आदि सम्मिलित हैं। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता वही है जो भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है सातत्य के साथ परिवर्तन! किन्तु, वे सिर्फ समाज-सुधार के प्रचारक ही नहीं थे अपितु उन्होनें स्वयं इसका उदाहरण पेश करते हुए, अपनी पहली पत्नी के मृत्योपरांत भागवतुल कृष्णा राव की विधवा बेटी कृष्णा वेणी से विवाह किया!
1902 में चिंतामणि और सच्चिदानंद सिंहा के मध्य पत्र-व्यवहार शुरू हो गया था। सच्चिदानंद सिंहा उन दिनों रामानंद चटर्जी के कलकत्ता चले जाने के बाद से इलाहाबाद से कायस्थ समाचार निकाल रहे थे। चिंतामणि भी इस साप्ताहिक के नियमित पाठक थे। चिंतामणि बनारस से लौटते हुए इलाहाबाद में सिंहा जी से मिलने आये। और दोनों के मध्य प्रगाढ़ मित्रता स्थापित हो गयी। इसी मित्रता के परिणामस्वरूप, सच्चिदानानद सिंहा ने जनवरी 1903 में इंडियन पीपुल नामक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया और चिंतामणि 40 रुपये के शानदार (सोना उन दिनों, 12-14 रुपये प्रति तोला था!) वेतन पर उसके सहायक संपादक होकर इलाहाबाद आ गए। चिंतामणि के कठोर परिश्रम का ही प्रतिफल था कि इंडियन पीपुल कुछ ही दिनों में पहले सप्ताह में दो बार फिर तीन बार प्रकाशित होने लगा। अंततः 1909 में अंग्रेजी दैनिक लीडर की शुरुआत होते ही उसमें ही विलय कर दिया गया!
दैनिक लीडर का पहला अंक सी. वाई. चिंतामणि तथा नगेन्द्रनाथ गुप्ता के संयुक्त सम्पादकत्व में अक्टूबर 24, 1909 को विजय दशमी के अवसर पर प्रकाशित हुआ था। चूंकि, चिंतामणि का प्रशिक्षण दादाभाई नौरोजी, महादेव गोविन्द रानाडे, फिरोज़शाह मेहता, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी जैसे प्रारम्भिक राष्टवादी नेताओं के मध्य हुआ था अतः उसका पूरा प्रभाव उनके उदारवादी चिंतन में परिलक्षित होता है! फिरोज़शाह मेहता ने बॉम्बे क्रॉनिकल में उन्हें प्रशिक्षित किया था। और, इलाहाबाद आने से पूर्व वे कुछ दिनों लाहौर में ट्रिब्यून समाचारपत्र के संपादन का भी दायित्व निभा चुके थे। 1918 के पश्चात लीडर स्पष्टतः नरमपंथियों के दृष्टिकोण एवं नीति का प्रबल समर्थक हो गया, जिसका प्रतिनिधित्व लिबरल करते थे। महात्मा गाँधी के सत्याग्रह और असहयोग आन्दोलनों से लिबरल सहमत नहीं थे, किन्तु सरकार की दमन नीति के वे भी प्रबल विरोधी थे। अतः, जब गांधी जी को रौलेट एक्ट के तहत बंदी बनाया गया तब चिंतामणि ने लीडर में इसे सरकार की बहुत बड़ी गलती शीर्षक से सम्पादकीय का विषय बनाया था! उन्होनें लिखा था: इस घटना कर्म पर हमें गहरा दुःख है। गांधी जी की गिरफ़्तारी को हम बहुत बड़ी और गंभीर गलती मानते हैं। जिससे देश भर में तीव्र प्रतिक्रिया होगी (लीडर, अप्रैल 12, 1919)
चिंतामणि ने लीडर के माध्यम से न केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक नीति और औपनिवेशिक़ साम्राज्यवाद की ही भर्त्सना की, अपितु साम्प्रदायिकता का भी पुरजोर विरोध किया। वे अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक देश की एकता और अखंड़ता के लिए संघर्षरत रहे। अपने विचारों, सिद्धांतों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जगजाहिर थी। उन्होनें लीडर के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स के चेयरमैन, पं मोतीलाल नेहरु ने 1910 के कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में गौहरबाई के गायन के आयोजन के विचार की निंदा करने से भी परहेज़ नहीं किया था। और, मोतीलाल जी अपने ही समाचारपत्र की इस भर्त्सना से उस कार्यक्रम को निरस्त करने को बाध्य भी हुए थे। इसी प्रकार उन्होनें संयुक्त प्रांत म्युनिसिपैलिटी बिल के 1915-16 के उस जहांगीराबाद संशोधन का भी अपने समाचार पत्र में विरोध किया जिसको मोतीलाल जी एवं सर तेज बहादुर सप्रू का समर्थन प्राप्त था। दोनों मौकों पर दोनों आमने-सामने आये और दोनों ही अवसरों पर निदेशक मंडल ने संपादक की निर्भीकता और विचारों की स्वतंत्रता का समर्थन किया न कि अपने निदेशक मंडल के अध्यक्ष का! अंततः 1918 में लीडर के स्वामित्व वाली संस्था, इंडियन न्यूज़पेपर्स लिमिटेड के शेयर-होल्डरों की मीटिंग में चिंतामणि को हटाने का प्रस्ताव रखा और अपने प्रस्ताव के अभूतपूर्व विरोध के चलते पं मोतीलाल नेहरु ने ही लीडर छोड़ना श्रेयस्कर समझा!
    
     इसी प्रकार, जब महामना मदन मोहनजी मालवीय अल्प-काल के लिए लीडर के अध्यक्ष हुए तब वे मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड के विरोधी थे और चिंतामणि समर्थक अतः चिंतामणि ने अपने सिद्धांतों से समझौता न करते हुए लीडर के संपादक पड़ से त्यागपत्र देना ही श्र्येस्कर समझा। किन्तु मालवीय जी ने यह कहते हुए उनके इस्तीफ़े को अस्वीकार कर दिया, कि हम दोनों को ही लीडर से प्यार है, किन्तु, मेरे चेयरमैन बने रहने की अपेक्षा आपका संपादक बने रहना लीडर के भाग्य और भविष्य के लिए अपरिहार्य है। और लीडर के इस संस्थापक सदस्य ने स्वयं इस्तीफ़ा देकर चिंतामणि और लीडर की वैचारिक स्वतंत्रता और उसकी निर्भीक पक्षधरता के प्रति सम्मान प्रकट किया!
    
     मौन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत सी।वाई। चिंतामणि झाँसी से नेशनल लिबरल फेडरेशन के प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतकर प्रदेश के शिक्षा-मंत्री बने। तब लीडर के संपादक का दायित्व निभा रहे कृष्ण राम मेहता आपके ही परामर्श और दिश-निर्देश पर चलते रहे। 1923 में शिक्षा-मंत्री के पद से त्याग पत्र सौंप कर वे कुछ समय के लिए सर फ़िरोज़शाह मेहता तथा सर चिमन लाल सीतलवाद के विशेष आग्रह पर सांध्य-कालीन पत्र, इंडियन डेली मेल के संपादक के रूप में बम्बई चले गए। किन्तु एक माह में ही वे वापस इलाहाबाद आकर पुनः लीडर के संपादन के दायित्व का निर्वहन करने लगे। उनकी प्रतिबद्धता की ही यह मिसाल है कि जिस जुलाई 1, 1941  को उनकी मृत्यु हुई थी, उस सुबह भी लीडर में उनका अग्रलेख प्रकाशित हुआ था!
    
     एक परिश्रमी पत्रकार होने की सारी विशेषताएं उनमें विद्यमान थीं। उन्होनें कभी भी उच्च मानकों और गुणवत्ता के साथ न स्वयम समझौता किया और न ही अपने अधीनास्तों को ही ऐसा करने दिया। रिपोर्टिंग में गलत सूचना या मात्र सनसनी पैदा करने वाली रिपोर्टिंग, संपादन या प्रूफ़ रीडिंग में त्रुटि या लापरवाही, लेख/रिपोर्टिंग में उद्देश्य या निष्ठां का अभाव को वे इस व्यवसाय का सबसे घातक शत्रु मानते थे। विरामादी चिन्हों की गलतियां भी उनकी नज़र से नहीं बच सकतीं थीं।
    
युवावस्था से ही चिंतामणि पत्रकारिता के अलावा राजनीति में भी रूचि लेते थे और सक्रिय भाग भी। 1894 में अपने मित्रों के साथ उन्होनें विजयनगरम में यंग मैंस एसोसिएशन की स्थापना की थी। वे इसके बाद में सचीव भी थे तथा इस रूप में उनके भाषण भी होते रहते थे। चिंतामणि ने सर्वप्रथम 1898 में कांग्रेस के मद्रास वार्षिक अधिवेशन में भाग लिया था। 1899 के लखनऊ अधिवेशन में प्रथम बार कांग्रेस मंच से भाषण किया। यहीं से वे गोपाल कृष्ण गोखले के संपर्क में आये और उनके प्रगाढ़ सम्बन्ध हुए तथा वे गोखले जी के प्रभाव में ही रहे।
    
चिंतामणि के 28 माह के कार्यकाल में ही उनके अथक परिश्रम और प्रयासों के फलस्वरूप कलकत्ता विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के आधार पर माध्यमिक शिक्षा को विश्वविद्यालय की शिक्षा से पृथक किया गया। जुलाई 26, 1921 को संयुक्त प्रांत माध्यमिक शिक्षा परिषद् का गठन हुआ। उन्हीं के प्रयासों से से शिक्षकों की दशा में भी अनेक सुधार प्रस्तावित हुए। इन परिवर्तनों के तहत ही जुलाई 28, 1921 को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी बिल के माध्यम से विश्वविद्यालय को अपने शिक्षक (प्रोफ़ेसर) चयनित करने के साथ ही, वाईस-चांसलर तथा कोषाध्यक्ष के चुनाव का भी प्रावधान करके, विश्वविद्यालय को स्वायत्ताशासी बनाने में बड़ा योगदान दिया गया। शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होनें प्रदेश में तकनीकी एवं कृषि-शिक्षा के विकास की नींव रखी। इतना ही नहीं, चिंतामणि ने दूरदृष्टि से काम लेते हुए, उद्योग एवं म्युनिसिपल बोर्ड को भी अधिक आत्म-निर्भर बनाने का प्रयास किया ताकि वह आंग्ल-सरकारी नियंत्रण से अधिक स्वावलंबन का स्वरुप अख्तियार करे। वे 1926 से 1937 तक संयुक्त प्रांत के विरोधी दल के नेता के रूप में विधायी परंपराओं के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे। इसी प्रकार, आगरा काश्तकारी और भू-राजस्व बिल (1926) के विभिन्न जनकल्याण के प्रावधानों को सम्मिलित करवाने में उनका योगदान भी अविस्मरणीय है। इसी प्रकार, इलाहाबाद को प्रांतीय राजधानी बनाये रखने और हिंदी भाषा के विकास के लिए भी वे सदैव संघर्षरत रहे।
    
     जब प्रथम गोलमेज़ सम्मलेन लन्दन में नवम्बर 1930 को प्रारम्भ हुआ, तब उदारवादियों के 13 सम्मिलित सदस्यों में सी।वाई।चिंतामणि भी थे। अन्य प्रमुख थे, सर तेज बहादुर सप्रू, श्री निवास शास्त्री, सर चिमनलाल सीतलवाद। ओनी अस्वस्थता के चलते वे द्वितीय गोलमेज़ सम्मलेन में भाग नहीं ले पाए तथा तृतीय में संभवतः उन्हें इसी लिए आमंत्रित नहीं किया गया। उन्होनें देशी रियासतों की जनता के कल्याण के लिए भी बहुत काम किया। इनके संगठन, देशी राज्य प्रजा परिषद के द्वितीय सम्मलेन (बम्बई, मई 25-26, 1929) की अध्यक्षता भी की। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होनें ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों के मध्य पारस्परिक सम्बन्ध तथा ब्रिटिश क्राउन की सर्वोच्चता पर तीक्ष्ण प्रहार करते हुए बटलर समिति की कटु आलोचना की थी। उनके अनुसार इसमें न तो देशी रियासतों के राजाओं की और न ही वहाँ की प्रजा की व्यथा सुनी या सम्मिलित की गयी है। वे जिन माँगों के पक्षधर थे वे प्रजन्तान्त्रिक थीं, जैसे देशी रियासतों में मौलिक अधिकारों की घोषणा; अभिव्यक्ति (अभिभाषण, लेखन के साथ संस्था स्थापित करने) की स्वतंत्रता; न्यायलय द्वारा वादों के जाँच के अधिकार; बेगार प्रथा की समाप्ति के साथ वहां स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं, ग्राम-पंचायतों तथा, म्युनिसिपल समितियों की स्थापना।
    
जहाँ तक उनके दीर्घकालीन विधायी जीवन की उपलब्द्धियों का प्रश्न है, हम संक्षेप में कह सकते हैं कि, उनके तथ्यों एवं आंकड़ों को प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता थी जिससे सत्ता पक्ष से लेकर सरकारी अधिकारी तक के मुँह पर ताले जड़ जाते थे! वे सभी तथ्यों का मूल्यांकन करने के पश्चात सदैव निष्पक्षता और स्व-विवेक से ही अपने निर्णय लेते थे। वे अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व कलम एवं वाणी दोनों के माध्यम से सभी को प्रभावित करते थे!
 
(प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष हैं।)
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हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख ‘इलाहाबाद में पत्रकारिता का विकास: एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण (१८६५-१९४७)’

प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी
अकबर इलाहाबादी का यह शेर काफी मक़बूल है – ‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो।’ संयोगवश वे जिस इलाहाबाद के थे वहाँ की पत्रकारिता का न केवल प्रांतीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज़ादी के आन्दोलन में इलाहाबाद की पत्रकारिता ने आगे बढ़ कर स्वतन्त्रता संग्राम को एक नयी दिशा प्रदान की यहाँ के पत्रकारिता की अपनी एक अत्यन्त समृद्ध परम्परा रही है। इस परम्परा पर एक विस्तृत नजर डाली है प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी नेतो आइए पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का यह आलेख ‘इलाहाबाद में पत्रकारिता का विकास : एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण

       
इलाहाबाद में पत्रकारिता का विकास: एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण (१८६५-१९४७)

प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी

यूँ तो इलाहाबाद में पत्रकारिता की शुरुआत जनवरी २, १८६५ में उस समय हुयी थी, जब यहाँ से सरकारी पत्र, पायनियर ने जूलियन रोबिन्सन के सम्पादकत्व में जनवरी २, १८६५ से प्रकाशन प्रारम्भ किया. अपने शैशव-काल में यह तीन सप्ताह में एक बार छपता था. रोबिन्सन के उपरान्त मैटलैंड पार्क और फिर उनके बाद क्रमशः सर जॉर्ज चेस्ने, क्लाइव रेटिगन, जॉन वूलकाट, एडविन हॉवर्ड तथा ऍफ़. डब्लू. विल्सन इसके सम्पादक रहे थे. यह १८६७ से ही दैनिक हुआ। बाद में राजनीतिक कारणों के चलते इसके तत्कालीन सम्पादक, डेसमंड यंग इसे अगस्त १, १९३३ को लखनऊ ले गए और यह वहीं से प्रकाशित होने लगा
 
चूंकि, यह अर्ध-साप्ताहिक होने के चलते सीमित प्रभाव का ही रहा ऊपर से यह सिर्फ सरकारी सूचनाएं और समाचार ही प्रकाशित करता था अतः इसका प्रभाव शनैः-शनैः ही समाज में होना था. वैसे भी कम प्रतियों की छपाई और राजकीय एकाधिकार के चलते इसका प्रारम्भिक मूल्य एक रूपया प्रति संस्करण था. फिर १८६८ में दैनिक होकर ४ आने मूल्य का हो गया किन्तु गैर-सरकारी अख़बारों के आगे इसकी बिक्री बहुत कम थी अतः इसका मूल्य घटाकर १ आने कर दिया गया था। जैसा ही इसका प्रभाव समकालीन समाज पर पड़ना शुरु हुआ, इस सरकारी पत्र की प्रतिक्रिया में तुरंत ही पहले हिंदी पत्रकारिता का भी श्रीगणेश हुआ तब, बाद में अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाएँ आयीं इलाहाबाद की सरज़मीन के एक सुशिक्षित, उच्च पदस्थ न्यायाधीश (जिला जज रहे) सुसंस्कारित व्यक्ति तथा बेहतरीन शायर अकबर इलाहाबादी लिख गए हैं : खींचों न कमान को, न तलवार निकालो/ गर तोप हो मुकाबिल, तो अखबार निकालो। ज़ाहिर है, ब्रिटिश सत्ता और औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध जन-जागरण और मानव-चेतना के विस्तार ने अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं का स्वरुप ग्रहण किया।
अतः स्वतंत्रता-आन्दोलन या औपनिवेशिक काल में इलाहाबाद से प्रकाशित समस्त पत्र-पत्रिकाओं की जानकारी हेतु तार्किक, बेहतर और सरल हो यदि इनके अध्ययन हेतु इन्हें हम कुछ प्रमुख वर्गों में विभक्त कर लें. हम कुछ को मुख्य-धारा के राजनीतिक या समाचार-पत्र मान सकते हैं जो आमजन के राजनीतिक एवं आर्थिक-सामाजिक सरोकारों को उठा रहे थे दूसरे में हम आधी आबादी, अर्थात महिलाओं से सम्बंधित प्रकरण उठाने और लक्षित करने वाली पत्रिकाओं को रख सकते हैं. इसी के साथ बालकों-शिशुओं से सम्बंधित पत्रिकाओं को भी देख सकते हैं; तीसरे में, जातीय-सामुदायिक पत्र-पत्रिकाएँ; चतुर्थ में शैक्षिक व चिकित्सा सहित शोध आदि पत्र; पंचम में धार्मिक मुद्दों को समर्पित पत्र-पत्रिकाएँ और अन्य को विविध में वर्गीकृत करके अध्ययन कर सकते हैं।
  इलाहाबाद की पत्रकारिता के इतिहास को समझने के लिए बेहतर हो हम मुख्यधारा के पत्र-पत्रिकाओं को अंग्रेज़ी और हिंदी में विभक्त कर लें और फिर उनके उद्भव और विकास पर प्रकाश डालें। इस क्रम में आगे १८७९ में पायनियर के प्रत्युत्तर में पंडित अयोध्या नाथ कुंजरू ने इस प्रांत के प्रथम राष्ट्रिय एवं ब्रिटिश-विरोधी अंग्रेज़ी का समाचार-पत्र, इंडियन हेराल्ड का संपादन व प्रकाशन शुरू किया।  इसी के कुछ समय के बाद आदित्यराम भट्टाचार्य ने भी एक साप्ताहिक, द इंडियन यूनियन की शुरुआत की. और उसके सम्पादन में अपने प्रिय शिष्य मदनमोहन मालवीय को भी सम्बद्ध कर लिया और फिर जब अयोध्या नाथ कुंजरू के पत्र इंडियन हेराल्ड का प्रकाशन १९९२ में बंद हो गया तब वे भी इसके प्रकाशन से जुड़ गए और यही पत्र निकालने लगे. पुनः जब मदन मोहन मालवीय जी राजा रामपाल सिंह के हिन्दोस्तान के संपादन से मुक्त हो कर कालाकांकर से वापस इलाहाबाद आ गये तब वे विधि की पढाई के साथ ही द इंडियन यूनियन के संपादन से पुनः सम्बद्ध हो गए बदले परिवेश में अब बलदेव नारायण दवे इसको प्रकाशित करने लगे थे बाद में मालवीय जी के अधिवक्ता के रूप में व्यस्त हो जाने के चलते नागेन्द्र नाथ गुप्ता इसके संपादक सहायक के रूप में कार्य करने लगे जब मालवीय जी ने लीडर के संपादन का दायित्व स्वीकार किया तब नागेन्द्र नाथ जी न केवल उनके सहायक हुए अपितु इन दोनों इंडियन पीपुल”” तथा द इंडियन यूनियन संचार-पत्रों-  का विलय भी लीडर में हो गया।  

मोती लाल नेहरू

   रामानंद चटर्जी अक्टूबर, १८९५ में इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला के प्रिंसिपल होकर आ गये थे। इसी क्रम में इलाहाबाद छोड़ने (१९०६) से पूर्व वे अप्रैल १९०१ में बांग्ला में प्रवासी एवं आधुनिक काल के अंग्रेजी पत्रकरिता के पथ-प्रदर्शक मॉडर्न रिव्यु का प्रकाशन यहीं से शुरू कर चुके थे बाद में वे उनके साथ बंगाल चले गए वे कायस्थ समाचार का अंग्रेजी खंड का भी संपादन देखते थे. यही पत्र बाद में डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा (१९०२-३) के संपादन में सामुदायिक के स्थान पर राष्ट्रिय पत्र हिंदुस्तान रिव्यु में परिवर्तित हो गया था। हिंदुस्तान रिव्यु जब शुरू में इस नाम से प्रकाशित होना शुरू हुआ तब कायस्थ समाचार भी साथ में छपा रहता था किन्तु, यह सिलसिला १९०३ में बंद हुआ और अंततः १९०४ में कायस्थ पाठशाला ने यह समाचार-पत्र सच्चिदानंद सिन्हा को ही बेंच दिया. तब वह उनके निवास से ही प्रकाशित होने लगा. इतना ही नहीं, जनवरी १९०३ को सच्चिदानंद सिन्हा ने एक साप्ताहिक इंडियन पीपुल का प्रकाशन शुरू कर दिया और अपनी व्यस्तता के चलते उसके संपादन के लिए वे सी.वाई. चिंतामणि को इलाहबाद साग्रह इलाहाबाद बुलाने में सफल रहे और फिर तो पत्रकारिता और पत्रकारों दोनों के स्वरुप में ही एक मूल भूत अंतर आ गया। सी.वाई.चिंतामणि (बाद में सर) विज़ाग स्पेक्टेटर एवं गुडविल के संपादक-प्रकाशक के बाद लाहौर में ट्रिब्यून के संपादक भी रह चुके थे, जब डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने उन्हें इलाहबाद आमंत्रित किया था। 

१९०९ में दो नए पत्रों की शुरुआत इलाहाबाद में हुई. वस्तुतः १९०८ के प्रेस अधिनियम के विरुद्ध मदनमोहन मालवीय ने एक आन्दोलन ही छेड़ दिया था. इसी सिलसिले में उन्होनें इलाहाबाद में एक अखिल-भारतीय सम्मलेन भी आयोजित किया था. इसी सम्मलेन में उभरे निष्कर्षों के चलते वर्नाकुलर प्रेस के प्रावधानों से बच कर पत्रकारिता के पैनेपन और तीखेपन को बरकरार रखने के लिए एक अंग्रेजी समाचार-पत्र की आवश्यकता को रेखांकित किया गया था. अतः पंडित मोती लाल नेहरु के सहयोग से अंग्रेजी दैनिक लीडर की शुरुआत, १९०९ में की गयी थी. इस पत्र का प्रकाशन विजयदशमी या अक्टूबर २४, १९०९ को शुरू हुआ. पंडित मोती लाल नेहरु इसकी प्रबंध समिति के अध्यक्ष तथा १९०९ से १९११ तक मालवीय जी इसके सम्पादक थे और १९११ से १९१९ तक इसकी प्रबंधन समिति के अध्यक्ष. नगेन्द्रनाथ गुप्ता तथा सी.वाई. चिंतामणि उनके संपादकीय सहायक थे. इससे पहले नागेन्द्र नाथ गुप्ता इंडियन ओपिनियन तथा चिंतामणि जी इंडियन पीपल का संपादन देख रहे थे अब चूंकि इन दोनों पत्रों का विलय लीडर में हो गया था अतः वे लीडर के संपादन से सम्बद्ध हो गए। बाद में, एक वर्ष के भीतर ही नागेन्द्र नाथ गुप्ता के लाहौर जा कर ट्रिब्यून से सम्बद्ध होने के कारण चिंतामणि ही लीडर के मुख्य-संपादक हो गए थे। 

मदन मोहन मालवीय

 “लीडर भारत का द्वितीय ऐसा समाचार-पत्र हो गया था जिसने विश्व समाचार एजेंसी रायटर्स’ से निर्धारित फीस जमकर के विश्व भर के आधिकारिक समाचार प्राप्त करना शुरू किया था. इसे १९१० में ही सरकार से बिशन नारायण दर से सम्बंधित एक नितांत राष्ट्रवादी लेख के प्रकाशन के लिए चेतावनी मिल गयी थी. किन्तु यह सदैव सरकार के लिए एक चुनौती तथा अफसरशाही के लिए एक सरदर्द बना रहा. इसीलिए आमजन में लीडर की लोकप्रियता बढ़ती ही रही और १९२९ तक इसने अपनी ज़मीन और अपना भवन भी खरीद लिया था. इसी साल उसने एक रोटरी प्रेस लगाने में सफलता प्राप्त की, जो प्रति घंटे ३०,००० प्रतियाँ छाप सकती थी। अतः १९२९ आते-आते इसी प्रेस से हिंदी के अखबार  भारत का प्रकाशन भी शुरू किया सका। इस समय तक पत्रकारिता में प्रतियोगिता के चलते, सरकारी पत्र पायनियर अपना मूल्य चार आने करने को बाध्य हो चुका था और इंडिपेंडेंट का प्रकाशन १९२३ में बंद हो चुका था, अतः लीडर अपने नाम के अनुसार पत्रकारिता के क्षेत्र में वस्तुतः लीडर ही हो गया। 

महादेव देसाई

  बाद में पंडित मोती लाल नेहरु ने लीडर के सम्पादक, सर सी.वाई चिंतामणि से मतभेद होने के चलते इस समाचारपत्र से सम्बन्ध विच्छेद कर लिए और १९१९ में इंडिपेंडेंट नामक अंग्रेजी के अखबार का प्रकाशन शुरू किया. इसका शुभारम्भ फरवरी ९, १९१९ को लीडर की लिबरल नीतियों के विरोध के स्वर को गति प्रदान करने के लिए किया गया था. बॉम्बे क्रॉनिकल के बेंजामिन गाय होर्निमेंन ने पंडित मोती लाल नेहरु की बहुत सहयता की और होर्निमेन की संस्तुति पर सय्यद हुसैन इस नए पत्र इंडिपेंडेंट के संपादक हुए. उनके भारत छोड़ने के बाद जॉर्ज जोज़फ को इसका संपादक नियुक्त किया गया संपादकीय सहयोगी के तौर पर वेंकटरमण, सदानंद (बाद में फ्री प्रेस के प्रबंधक) तथा गांधीजी के सहायक महादेव देसाई को रखा गया. १९२१ में संयुक्त प्रांत के मुख्यसचिव ने इसके संपादक को देशद्रोही लेखों को न प्रकाशित करने की चेतावनी दी थी अपने स्वतंत्र और भारतीय स्वतंत्रता के स्वर को गति प्रदान करने की नीति ने अंततः को दिसम्बर ६, १९२२ को गिरफ्तार किया गया और अगले दिन ही उन्हें ३ वर्षीय कैद की सजा सुना दी गयी. इसकी ज़मानत भी ज़ब्त कर ली गयी किन्तु महादेव देसाई किसी तरह इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ प्रकाशित करते रहे. इस हस्तलिखित पेपर की नीलामी से कुल ३५० रुपये एकत्रित हुए। इसके गैर-पंजीकृत अखबार निकलने की सजा के रूप में महादेव देसाई को एक वर्ष का सश्रम कारावास दिया गया. अतः नवम्बर ३०, २०१२ को देवदास गाँधी ने इसके प्रकाशन का दायित्व सम्हाल लिया।

सन १९४३ में तुषार कान्ति घोष ने अमृत बाज़ार पत्रिका के इलाहाबाद संस्करण  का संपादन-प्रकाशन किया. असल में बंगाल के भीषण अकाल और १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन के साथ-साथ साम्प्रदायिकता के बढ़ते प्रभाव और सबसे अधिक जापान के सैन्यवाद और साम्राजीय महत्वाकांक्षा को देखते हुए बर्मा के मार्ग से बंगाल के ऊपर उसके संभावित हमले आदि के चलते तुषार कान्ति घोष ने कलकत्ता छोड़ने का निर्णय लिया था। तब उन्होनें बंगाल के अपने प्रसिद्द पत्र अमृत बाज़ार पत्रिका को यहाँ से निकालना शुरू किया. स्वतंत्रता के बाद में इस समाचार-पत्र का नामकरण नोदर्न इंडिया पत्रिका हो गया। आज़ादी के बाद इसका हिंदी संस्करण, अमृत प्रभात के नाम से भी निकला.             
                                                           
II
इलाहाबाद में हिंदी पत्रकारिता अध्ययन का क्रम सन १८६८ में सदासुखलाल के सम्पादन में वृत्तांत दर्पण के प्रकाशन से शुरू हुआ. किन्तु, अनेकानेक कारणों से यह पत्र अपना स्वरुप बदलकर, दो वर्ष बाद ही मात्र विधि-सम्बन्धी विषयों का ही मुख-पत्र बन गया। मुख्य-धारा के पत्र-पत्रिकाओं में सबसे प्रभावी पत्र और एक प्रकार से राष्ट्रिय एवं साहित्यिक दोनों ही विधा की पत्रकारिता के पथ-प्रदर्शक के रूप में जिस पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ वह था पंडित बालकृष्ण भट्ट का हिंदी प्रदीपहिंदी वर्धिनी सभा के अंतर्गत विक्टोरिया प्रेस (इलाहाबाद) से सितम्बर १८७७ से प्रकाशन शुरु करके यह पत्रिका १९०९ तक पूरे ३३ वर्षों तक औपनिवेशिक सत्ता को निरंतर ललकारती रही और राष्ट्रवाद की धारा को प्रवाहित किये रही। इसको १९०८ के दमनकारी प्रेस एक्ट के तहत ही बंद किया जा सका. यह गरम विचारों से प्रेरित एक तेजस्वी राष्ट्रवादी पत्र था. यह सदा ब्रिटिश प्रतिबंधों के बावजूद प्रकाशित होता ही रहा. माधव शुक्ल की कविता ज़रा सोचो तो यारों बम क्या है? जब अप्रैल १९०८ के अंक में प्रकाशित हुआ तब ब्रिटिश सरकार ने इसे देश-द्रोह और षड्यंत्र घोषित करते हुए वायलेंस एक्ट या हिंसात्मक अधिनयम के तहत अक्टूबर १९०८ में ज़ब्त किया और इसी के साथ प्रेस एक्ट के अधिनियम के प्रावधानों के संपृक्त प्रयोग द्वारा इसके प्रकाशन को सदैव के लिए बंद कर दिया। इस पत्र ने एक साथ दो धाराओं को जन्म दिया एक ओर राष्ट्रवाद से प्रेरित साहित्यिक लेखन और दूसरी ओर शोषणयुक्त शासन के विरुद्ध खोजी पत्रकारिता द्वारा समाचार देकर नयी तरह की चेतना को जन्म देना।
इसी तरह का एक समाचार-पत्र, १८८०-८१ में प्रयाग समाचार देवकीनंदन त्रिपाठी (तिवारी) के संपादन में निकलना शुरू हुआ. इसके संपादकों में हमें अमृतलाल चक्रवर्ती, जगान्नाथ प्रसाद शुक्ल जैसे नाम सम्बद्ध दिखते हैं. देवकीनंदन स्वतंत्र अध्ययन, लेखन, चिंतन-मनन करके अपना पत्र स्वयं प्रकाशित करके कंधे पर लाद कर उसे बेचने जाते थे. साधनहीनता वश ही अंततः इसका प्रकाशन बंद हुआ. १९०० में सरस्वती का प्रकाशन भी एक क्रांतिकारी घटना थी, किन्तु इसका प्रभाव साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में अधिक था. अतः इसने आधुनिक भारतीय पुनर्जागरण के प्रचार-प्रसार, विस्तार के साथ मानक हिंदी खड़ी बोली को एक औपचारिक तथा आधिकारिक स्तर प्रदान किया।
१९०७ की बसंत पंचमी के अवसर पर महामना मदन मोहन मालवीय ने अभ्युदय साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया. इसका नाम पंडित बालकृष्ण भट्ट द्वारा सुझाया गया था. संशोधित भारतीय व्यवस्थापिका में सदस्य चुने जाने पर मालवीयजी ने इसके संपादन का दायित्व त्याग दिया था. तदुपरांत १९१० से पुरुषोत्तमदास टंडन, सत्यानन्द सिन्हा, कृष्णा कान्त मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, वेंकटेश नारायण तिवारी क्रमशः इसके संपादक रहे. इसके बाद १९३६ के आस-पास सम्पादन का भार कृष्णकान्त मालवीय के पुत्र पद्मकांत मालवीय ने सम्हाल लिया. अपने दो दशकों के अस्तित्व में अभ्युदय शीर्ष पर पहुंचा गया था। १९१५ तथा १९२६-२७ की अवधि में यह एक दैनिक की तरह छपा था। १९३० में कांग्रेस के एक निर्णय के उपरान्त इसका प्रकाशन भी बंद कर दिया गया था. किन्तु पंडित मोतीलाल नेहरु को कांग्रेस के मुख-पत्र के रूप में इसकी भूमिका का आभास इसके प्रकाशन के बंद होते ही महसूस हुआ। कांग्रेस ने प्रकाशन बंद करने का निर्णय तो जोश में ले लिया था किन्तु अब वह अपना सन्देश व समाचार कैसे आम-जन तक प्रेषित करे यह समस्या अब उनके समक्ष सर बाए खड़ी थी? अतः कुछ माह पश्चात ही मोतीलाल जी की सलाह मानते हुए इसका पुनर्प्रकाशन प्रारम्भ हुआ. मार्च १९३१ को इसने अपना भगत सिंह विशेषांक निकला और इसी के बाद किसान विशेषांक निकला. अब तक यह एक अधिक निर्भीक, क्रांन्तिकारी एवं राष्ट्रवादी पत्र हो चुका था. जब इसमें दिसम्बर २, १९३१ में मऊ (झांसी) के घासीराम व्यास की ३ क्रन्तिकारी कवितायेँ प्रकाशित कीं तब ब्रिटिश सरकार ने इस पर भारतीय दंड संहिता के प्रावधान/धारा १२४ ए के अंतर्गत मुक़दमा कायम किया. फरवरी १६, १९३२ में इसके निर्णय के अनुसार जुर्माना किया गया और जुर्माना न जमा किये जाने की स्तिथि में उनका सामान कुर्क किया जाना था।
उस समय राष्ट्रीयता की लहर और कृष्णकान्त मालवीय तथा उनके पत्र अभ्युदय की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसी ने भी इनके सामान के लिए बोली नहीं लगायी। यानि समकालीन भारतीय अब हर प्रकार से जागृत होकर औपनिवेषिक सत्ता के साथ असहयोग द्वारा विरोध दर्ज करा रहे थे और राष्ट्रवादियों  के समर्थन में प्रत्यक्षतः एवं परोक्ष रूप से सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। इस प्रकरण के पश्चात १९३४ में इसका प्रकाशन पुनः प्रारम्भ हुआ किन्तु, १९३६ आते-आते इसका प्रकाशन पुनः छह माह तक प्रतिबंधित कर दिया गया. १९३६ को ही विजय-दशमी के अवसर पर इसका प्रकाशन एक बार फिर पूरे उत्साह से हुआ। मई १९४० को इसके संपादक पद्मकांत मालवीय को कारागार में बंदी बनाया गया. नवम्बर १९४० पर वे पेरोल पर पिता के गिरते स्वाथ्य के चलते मुक्त हुए, किन्तु उनके देहावसान के उपरान्त पुनः १९४१ की जनवरी में जेल में निरुद्ध हुए. यह पत्र एवं इसके संपादक दोनों ही स्वतंत्रता-अन्दोलन के पर्याय हो चुके थे। १९४० के दशक के प्रारम्भ में जैसे ही आन्दोलन उग्र हुआ इसका स्वर भी उग्र होता गया।             
१९०७ में ही उर्दू के साप्ताहिक पत्र स्वराज्य का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। ये उग्र तेवर वाला अपनी तरह का साप्ताहिक था, जिसका प्रकाशन भारतमाता सोसाइटी के तत्वाधान में होता था. १९०७ से १९१० के ढ़ाई वर्ष की अवधि में इसके कुल ७५ अंक प्रकाशित हुए थे. इसके सभी संपादक जेल गए. इसके आठ संपादकों को कुल १२५ वर्ष की सजा मिली थी। इसका संपादन सर्वप्रथम शान्ति नारायण भटनागर ने किया. वर्ष १९०९ में ही पाक्षिक कर्मयोगी का प्रकाशन भी शुरू हुआ. इसके सम्पादक आंग्ल शासन की आँख में खटकने वाले पंडित सुन्दरलाल थे। वे बाल गंगाधर तिलक तथा और्बिन्दो घोष के निकट सहयोगी थे. रौलेट समिति ने इस पत्र को अपनी रिपोर्ट में सरकार विरोधी घोषित किया था। यह अपनी बढती लोकप्रियता के चलते १९०९ में बसंत पंचमी को साप्ताहिक हो गया। चूंकि, यह अँग्रेज़ सरकार की आँख की किरकिरी था अतः इसपर नए प्रेस अधिनियम के तहत अर्थ-दंड दिया गया और ज़मानत राशि जमा करने से इंकार करने पर इसका प्रकाशन अप्रैल १९१० में बंद हुआ। 
१९०८ में इन्द्रनारायण द्विवेदी के संपादकत्व में १९१४ तक भारतवासी नामक एक अन्य समाचार पत्र भी प्रकाशित हुआ था. कुछ अवधि तक दैनिक रहकर यह फिर साप्ताहिक हो गया था. १९१० में मदनमोहन मालवीय के भतीजे कृष्णकांत मालवीय ने मासिक मर्यादा का संपादन व प्रकाशन शुरू किया. १० वर्ष बाद १९२० में इसका प्रकाशन का भार ज्ञान मंडल बनारस को दे दिया गया। १९१६ में एक अन्य समाचारपत्र सर्वशिक्षक का प्रकाशन मुकुट बिहारी लाल ने शुरू किया था. १९१८ में अल्प-अवधि तथा प्रथम वुश्व-युद्ध के वॉर प्रोपेगंडा या प्रचार के लिए और आंग्ल शक्ति के प्रदर्शन हेतु लड़ाई का अखबार नामक एक पत्र भी निकला था. यह दैनिक था. इसके अंग्रेजी संस्करण में डॉ. गार्फील्ड विलियम्स तथा हिंदी में उनके साथ सत्यानन्द जोशी का भी नाम सम्मिलित था. युद्ध के साथ यह दैनिक भी प्रकाशित होना समाप्त हुआ। 
  
इस वातावरण में पंडित सुन्दरलाल के संपादन में १९१७ में भविष्य का प्रकाशन शुरू हुआ. यह एक साप्ताहिक समाचार-पत्र था. चूंकि इसके संपादक बाल गंगाधर तिलक एवं और्बिन्दो घोष अँग्रेज़ अफसरों की नज़र में पहले से ही चढ़े हुए थे अतः छह महीने में ही इस पत्र की ज़मानत ज़ब्त कर ली गयी और यह पत्र भी बंद हो गया. १००० प्रतियों के साथ इसका प्रकाशन शुरू हुआ था और ११वें अंक तक इसकी मांग इतनी बढ़ चुकी थी कि इसकी १४,००० प्रतियां छपने लगीं थी. इसकी लोकप्रियता सरकार को खलने लगी थी, अतः इसके विरुद्ध दमनात्मक कार्यवाही अवश्यसंभावी थी। किन्तु, बाद में रामरिख सहगल ने इसी नाम (भविष्य) का सचित्र साप्ताहिक अक्टूबर १९३० से निकलना शुरू किया. इसी क्रम में इलाहाबाद में सन १९२० में अन्य साप्ताहिक समाचार-पत्र हिन्दुस्तानी अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ यह १९२१ आते-आते बंद भी हो गया १९२१ में अपने प्रिय समाचार पत्र इंडिपेंडेंट के बंद होने के उपरान्त पंडित मोतीलाल नेहरु ने देशबंधु दैनिक नामक हिंदी के अखबार का प्रकाशन शुरू किया. इसके सम्पादन का दायित्व ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने सम्हाला जो बाद में सरस्वती के भी संपादक हुए
१९२२ में रामरिख सहगल ने मासिक चाँद पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया. इसके अनेक विशेषांक निकले थे इसके फाँसी (मई, १९३१), मारवाड़ी तथा राजपुताना विशेषांक ब्रिटिश सरकार ने ज़ब्त कर लिए थे चाँद का संपादन आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव, शंकर दयाल श्रीवास्तव, उमेश मिश्र, महादेवी वर्मा (विशेष रूप से विदुषी विशेषांक) जैसे बुद्धिजियों-साहित्यकारों ने किया था इसका मुद्रण एडमौन्सटन रोड में होता था. मुंशी कन्हैय्या लाल के संपादन में चाँद का उर्दू संस्करण भी १९३३ में निकला गया किन्तु वह कुछ दिनों में ही बंद हो गया    
अगस्त ३०, १९२८ को लीडर प्रेस से भारत नाम का एक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ इसके प्रथम संपादक वेंकटेश नारायण तिवारी थे. नवम्बर ७, १९३० को यह अर्ध-साप्ताहिक हुआ और अंततः बढती लोकप्रियता के चलते, १९३३ की दिवाली के अवसर और अक्टूबर माह में यह दैनिक में परिवर्तित हो गया इसके संपादकों की सूची में हमें सी.वाई. चिंतामणि, नन्द दुलारे वाजपेयी, डॉ. मुकुंद देव शास्त्री, शांतिप्रिय द्विवेदी, बलभद्र प्रसाद मिश्र, राधेश्याम शर्मा, एम.डी. शर्मा, राजबल्लभ ओझा, केशव देव, विशम्भर नाथ जिजना, ज्योति प्रसाद मिश्र निर्मल तथा ईला चन्द्र जोशी आदि के नाम मिलते हैं वे इसी क्रम में भारत के सम्पादक रहे थे      
                                                            III
जहां तक आधी आबादी या महिलाओं-कन्याओं का प्रश्न है तो पहली पत्रिका जिसका उल्लेख हमें मिलता है वो है, भारत भगिनी इसका प्रकाशन १८८८ में शुरू हुआ. यह पत्रिका शुरू में मासिक फिर पाक्षिक हो गई. इसके संपादकों में महीयसी महादेवी वर्मा का भी नाम उल्लेखनीय है इसका प्रकाशन-काल १८८८-१९०६ हैइसके बाद ही १९०९ में रामेश्वरी नेहरु के संपादन में स्त्री दर्पण नामक मासिक पत्रिका निकली रामेश्वरी नेहरु पंडित मोतीलाल नेहरु के भतीजे, ब्रजलाल की पत्नी थीं. उन्होनें १९२४ तक इसका संपादन किया यह संयुक्त प्रांत ही नहीं तत्कालीन भारत में एक अनूठी पहल थी। इसका मुद्रण लॉ जर्नल प्रेस (प्रयाग स्ट्रीट, वर्तमान डी.पी. गर्ल्स इंटर कॉलेज के लगभग सामने) से होता था और प्रबंधन का दायित्व श्रीमती कमला नेहरु निभातीं थीं इसमें बाल-विवाह, अशिक्षा, सतीप्रथा, अंध-विश्वास तथा दहेजप्रथा के खिलाफ विचारोत्तेजक लेख व सम्पादकीय प्रकाशित होती थी १९२४ के उपरान्त यह पत्रिका कानपुर से प्रकाशित होने लगी और वहाँ प्रताप प्रेस से छपने लगी इसी के प्रभाव में १९११ में शुरू हुई यशोदा देवी द्वारा सम्पादित स्त्री धर्म शिक्षक, जो स्त्रियों के विषय से ही सम्बंधित थी इसी क्रम में १९१३-१४ में कन्या सर्वस्व मासिक पत्रिका का प्रकाशन यशोदा देवी के ही संपादन में होने लगा. इसी वर्ष कन्या मनोरंजन का संपादन मासिक पत्रिका का संपादन ओंकारनाथ बाजपाई ने शुरू किया. १९२२ में साध्वी सर्वस्व नामक एक साप्ताहिक पत्र भी इलाहबाद से रघुनन्दन झा ने निकाला. इस क्रम में आगे हम मनोरमा का उल्लेख कर सकते हैं, जिसका प्रकाशन माया प्रेस से वर्ष १९२४ से प्रारम्भ हुआ यह एक मासिक पत्रिका थी. राष्ट्रवादी आन्दोलन के काल में इसके संपादकों  में हमें ज्योति प्रसाद मिश्र निर्मल, गिरिजा दत्त शुक्ल गिरीश, हीरा देवी चतुर्वेदी, महावीर प्रसाद मालवीय वैद्य आदि के नाम मिलते हैं महिलाओं की चिकित्सीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए यशोदा देवी के ही संपादन में १९२९ से कन्या चिकित्सा नामक मासिक का संपादन प्रारम्भ हुआ

महादेवी वर्मा
इसी क्रम में आगे हमें महिलाओं को समर्पित एक अन्य महत्वपूर्ण पत्रिका दिखती है और वह है, सहेली. यह इलाहाबाद लॉ जर्नल प्रेस (प्रयाग स्ट्रीट) से अप्रैल १९३० से १९३५ के मध्य नियमित मासिक के रूप में प्रकाशित होती रही इसके संपादन का दायित्व क्रमशः रूपकुमारी वांचू, विजय वर्मा तथा रामेश्वरी देवी ने निभाया. अपने प्रारम्भिक काल में यह सिर्फ कश्मीरी महिलाओं तक सीमित रही मगर शीघ्र यह सभी महिलाओं को संदर्भित करने लगी। १९३३-३४ के म्ध्य एक महिलाओं की मासिक पत्रिका का हमें और उल्लेख मिलता है, जिसका शीर्षक, कमिलिनी था और जिसके सम्पादन का दायित्व ज्योतिर्मयी ठाकुर ने निभाया था. इसके बाद जिस पत्रिका का उल्लेख समीचीन है, वह लोकप्रिय मासिक दीदी है. इसका संपादन पहले श्रीनाथ सिंह तथा, बाद में यशोमती देवी ने किया. यह सजनी प्रेस से सन १९३९ में प्रकाशित होनी शुरू हुयी थी. इसी सजनी प्रेस से ही नरसिंह राम शुक्ल के संपादन में कथा और साहित्य को समर्पित सजनी पत्रिका १९४३ से प्रकाशित होने लगी इसका प्रकाशन १९५६ तक जारी रहा १९४५ में भारत जननी मासिक के रूप में शान्ति मेहरोत्रा के संपादन में हीवेट रोड से प्रकाशित होना लगा, जो १९५६ तक हुआ स्वतंत्रता से ठीक पूर्व अर्थात जून ५, १९४७ को मोहिनी नामक मासिक महिलाओं की पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ. इस पत्रिका की संपादकों में रामदुलारे शुक्ल के साथ हमें गायत्री देवी तथा भगवन देवी के उल्लेख मिलते हैं
इसी के साथ हम बाल-साहित्य से सम्बंधित पत्रकारिता को भी सम्मिलित कर सकते हैं जहां तक बाल-साहित्य का प्रश्न है हमें सबसे पहले जो पत्रिका इलाहाबाद के साहित्याकाश में दृष्टिगोचर होती है वह आर्य बाल हितैषी जिसका प्रकाशन मुज़फ्फरनगर एवं इलाहाबाद दोनों जगहों से १९०२ में प्रारम्भ हुआ था. इस विधा में लोकप्रियता के शिखर पर जो बाल-पत्रिका पहुंची वह इंडियन प्रेस से जनवरी ५, १९१७ को प्रकाशित होने वाली मासिक बाल-सखा थी. इसके संपादक क्रमशः बद्रीनाथ भट्ट, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, कामताप्रसाद गुरु, श्रीनाथ सिंह, देवीदत्त शुक्ल, लक्ष्मी प्रसाद पाण्डेय, देवीदयाल चतुर्वेदी मस्त, सोहनलाल द्विवेदी, गिरिजदत्त शुक्ल गिरीश तथा अनंत प्रसाद विद्यार्थी रहे. इस पत्रिका का प्रकाशन काल १९१७ से १९६९ तक रहा और इसकी कुल १३,००० प्रतियां बिक जातीं थीं।

सोहन लाल द्विवेदी

इसके बाद १९२७ में खिलौना शीर्षक से एक मासिक नया कटरा से राम जी लाल शर्मा के प्रकाशन और रघुनन्दन शर्मा के संपादन में निकली १९३१ से १९४१ की अवधि में वानर मासिक भी इलाहाबाद एवं कालाकांकर से एक साथ निकली इसके संपादक सुरेश सिंह एवं रामनरेश त्रिपाठी रहे. इसे अपने काल के बाल-साहित्य का श्रेष्ठ पत्र माना जाता था. इसी क्रम में इलाहबाद के एक अन्य विख्यात मुद्रणालय रामनारायण लाल प्रेस, कटरा ने १९३३ में बाल-संसार का प्रकाशन प्रारम्भ किया किन्तु वह उतना लोकप्रिय नहीं हो सका. १९३४ से १९३८ के मध्य मासिक, अक्षय भैय्या का प्रकाशन रामकिशोर मनोज द्वारा हुआ १९४० में तितली नामक एक त्रैमासिक पत्रिका व्यथित ह्रदय के संपादन में कटरा से प्रकाशित होनी शुरू हुई. इसका प्रकाशन १९४६ तक चला. अंत में श्रीनाथ सिंह जी के बाल-सखा संपादन-अनुभव एवं उससे अर्जित सफलता को भुनाने के लिए एक मासिक बाल-बोध का प्रकाशन कटरा से १९४४ से १९५८ के मध्य हुआ तथा माया प्रेस, मुट्ठीगंज से मनमोहन (१९४९-१९७०) मासिक पत्रिका स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद निकली            
सर्वप्रथम एक सामुदायिक या जाति-विशेष की पत्रिका कायस्थ समाचार का प्रकाशन १८७८ में प्रारम्भ हुआ भले ही बाद में इसका स्वरुप बदल गया हो किन्तु शुरुआत तो इसकी इसी रूप में हुई थी इसी लिए इसे प्रथम जातीय पत्रिका माना गया है इसी के फलस्वरूप अन्य जातीय-सामुदायिक पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होने लगीं। उदाहरण के लिए कान्यकुब्ज हितकारी. यह एक पाक्षिक पत्रिका थी जो १८८९ से १९०२ तक प्रकाशित हुयी. इसके सम्पादकों में हमें क्रमशः डॉ. रामशंकर शुक्ल रसाल एवं पंडित ब्रजलाल शुक्ल थे. इसके बाद १९०८ में कलवार मित्र नामक जैसवालों के भी एक जातीय पत्र का प्रकाशन कुछ अवधि के लिए हुआ. इसी क्रम में हम सरयूपारी ब्राह्मणों की मासिक पत्रिका, सरयूपारीण को भी रख सकते हैं, जिसका प्रकाशन १९११ से इन्द्रदेव प्रसाद चतुर्वेदी के संपादन में शुरू हुआ था. संभवतः इसी के उपरान्त सरयूपारीण ब्राह्मणों का संगठन सुदृढ़ हुआ और अगले वर्ष (१९१२) से द्विजरात मासिक पत्रिका इन्द्रदेव प्रसाद चतुर्वेदी के ही संपादन में आधिकारिक जातीय पत्रिका के रूप में छपने लगी. इसी प्रकार, हमें १९२५ में मासिक केसरवानी समाचार के भी प्रकाशन का उल्लेख प्राप्त है, जिसका संपादन केदारनाथ गुप्त ने किया था बारी समाज का भी पत्र बारी मित्र मासिक के रूप में जे.एल बारी के संपादन में १९२९ में अलोपीबाग से छपना शुरू हुआ. १९४२ में इसी तरह पाल क्षत्रीय समाचार मासिक पत्रिका के रूप में जी, विद्यार्थी द्वारा सम्पादित व प्रकाशित होने लगा
तृतीय वर्ग में हम शिक्षा और साहित्य से सम्बंधित पत्र-पत्रिकाओं को रख सकते हैं. हमें सर्वप्रथम एक पाक्षिक पत्रिका प्रयाग-मित्र का उल्लेख मिलता है इसका संपादन साधुराम वैद्य ने किया यह १८७५ से १८८७ तक प्रकाशित हई थी. इसी प्रकार १८९४ में विध्यावर्धिनी सभा द्वारा प्रकाशित दो मासिक पत्रिकाओं का उल्लेख मिलता है, यथा नाट्य-पत्र एवं न्याय. फिर, १८९९ में देवकी नन्दन के संपादन में मासिक, नृत्य-पत्र छपा था. अन्य पत्रिकाएँ भी छप रहीं थीं, उदाहरण के लिए १९०५ में भारतेंदु मासिक, ज्योति प्रसाद मिश्र निर्मल के संपादन में भारतेंदु कार्यालय, कटरा से निकला था १९११ में साप्ताहिक पत्रिका के रूप में शुभ-चिन्तक का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ. इसी तरह देशदूत भी एक महत्वपूर्ण साप्ताहिक था इसका प्रकाशन १९१५ में शुरू हुआ इसके प्रारम्भिक संपादक ज्योति प्रसाद मिश्र निर्मल व अनंतप्रसाद विद्यार्थी थे इसी प्रकार किसान नामक साप्ताहिक १९२१ से इन्द्रनारायण द्विवेदी के संपादन में निकला था एक अन्य लोकप्रिय मासिक पत्रिका थी, भूगोल, जिसमे भूगोल की महत्वपूर्ण और दिलचस्प सूचनाएं-समाचार १९२४ से प्रकाशित होते थे इसका संपादक थे रामनारायण मिश्र इसका प्रकाशन १९४३ तक हुआ था इसके संपादक को ही समकालीन लोग भूगोल पुकारने लगे थे। १९३९ से श्रीनाथ सिंह इसके सम्पादक हो गये थे इसका मुद्रण एवं प्रकाशन इंडियन प्रेस से होता था
इसी तरह नवजीवन नामक एक अन्य मासिक का प्रकाशन १९१७ से १९१९ के मध्य हुआ १९३० में एजुकेशनल गैज़ेट मासिक का प्रकाशन शुरू हुआ इसके संपादक क्रमशः युसूफ अली, आले अलीन, राम प्रसाद तिवारी थे. कला के लिए समर्पित मासिक पत्रिका छाया थी, जिसका प्रकाशन १९४१ से १९५६ के मध्य हुआ था. यह जॉर्ज टाउन में मुद्रित होती थी. इसके संपादक क्रमशः पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, शम्भुरत्न मिश्र तथा नरसिंह राम थे अन्य उल्लेखनीय पत्रिकाओं थीं जैसे १९३९ में शुरू हुयी देश-दर्शन मासिक जिसके संपादक रामनारायण मिश्र थे. सजनी प्रेस से ही नरसिंह राम शुक्ल के संपादन में कथा और साहित्य को समर्पित सजनी पत्रिका १९४३ से प्रकाशित होने लगी इसका प्रकाशन १९५६ तक जारी रहा (हालांकि, इस पत्रिका का उल्लेख हमने स्त्रियों से सम्बंधित पत्रिकाओं में भी ऊपर किया ही है.)
इसी क्रम में हम चिकित्सा एवं स्वास्थ्य से सम्बंधित कुछ पत्रिकाओं का भी उल्लेख कर सकते हैं. यह भी जन-चेतना की द्योतक थीं क्योंकि इन्हीं से हमें समकालीन सलाज में जागरूकता के विस्तार का अंदाज़ा मिल रहा था कि हमलोग स्वाथ्य-चिकित्सा और साफ़-सफाई के साथ-साथ नागरिक जीवन, स्वच्छता आदि के प्रकरणों को कितनी गंभीरता से ले रहे थे इस वर्ग में सर्वप्रथम हमें पंडित जगन्नाथ शर्मा वैद्य द्वारा संपादित आरोग्य दर्पण नामक मासिक पत्रिका का उल्लेख मिलता है, जिसका प्रकाशन १८८१ में प्रारम्भ हुआ था तथा यह १८९६ तक अनवरत प्रकाशित होति रही. इसी क्रम में १८९२ में शुरू हुए गौसेवक के बहाने इसके संपादक पंडित जगत नारायण ने स्वास्थ्य के कई आयाम को छुआ है सन १८९४ में वैद्य शिवराम पाण्डेय के संपादन में रत्नाकर भी छपने लगा, जिसमें स्वास्थ्य और वैद्यकी से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध होतीं थीं
१९०९ के जून माह से सुधा-निधि का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ यह समय-समय पर मासिक (१९०९ से १९४७) फिर पाक्षिक (१९४८ से १९५१) फिर मासिक (१९५२ से १९६८) होती रही इसका केंद्र-बिंदु आयुर्वेदिक चिकित्सा थी इसके संपादक क्रमशः जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, बद्रीदत्त झा, शिवदत्त शुक्ल तथा योगेश चन्द्र शुक्ल रहे यह सम्मलेन मार्ग से प्रकाशित होता था. लक्ष्मी नारायण श्रीवास्तव द्वारा संपादित मासिक स्वास्थ्य पत्रिका इलाज का प्रकाशन १९२३ में प्रारम्भ हुआ. इसी क्रम में हम यशोदा देवी सम्पादित कन्या चिकित्सा का भी ज़िक्र कर सकते हैं क्योंकि यह इकलौती पत्रिका थी जो सिर्फ महिलाओं एवं कन्याओं के स्वास्थ्य से सम्बंधित थी, जिसका प्रकशन १९२९ में प्रारम्भ हुआ था यह अपने-आप में अनूठी तथा प्रसंशनीय पहल थी, जिसका सर्वत्र स्वागत हुआ और पत्रकारिता के क्षेत्र में यह पथ-प्रदर्शक और एक मील का पत्थर साबित हुई। चिकित्सा के ही क्षेत्र में एक अन्य मासिक पत्रिका जीवनसखा का प्रकाशन १९३६ से १९३९ तक विह्वल दास मोदी के सम्पादन में हुआ. इसके प्रकाशक चिकित्सक डॉ. बालेश्वर प्रसाद थे तथा यह लूकरगंज में मुद्रित होता था. इसका मुख्य विषय प्राकृतिक-चिकित्सा रहता और यह पर्याप्त लोकप्रिय पत्रिका थी     
विविध पत्रिकाओं के सन्दर्भ में हमें सबसे पहले १८८४ में बलभद्र मिश्र के संपादन में शुरू हुए रसिक पंच नामक एक मासिक पत्र के प्रकाशन का वर्णन मिलता है यह काफी लोकप्रिय पत्रिका साबित हुई किन्तु कुछ अवधि बाद ही इसका प्रकाशन बंद होकर पुनः १८८७ से १८८९ के मध्य शिवनारायण मिश्र के संपादकत्व में हुआ. हास्य-व्यंग को उस काल की एक अन्य पत्रिका थी, मदारी, जो साप्ताहिक थी तथा इसका प्रकाशन १९१७ में शुरू हुआ था. इसके प्रकाशक एम्.पी. श्रीवास्तव तथा संपादिका मंजुला थीं सितम्बर १९३२ के मदारी के अंक में एक कविता छपी थी जिसकी पंक्तियाँ इस प्रकार थीं: सोटा लेकर नए ठाठ से सदा मदारी आवेगा/जो भारत में अहित करेंगे उनको पकड़ नचावेगा। इस पर भी तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने घोर आपत्ति करते हुए इसके संपादक एवं प्रकाशक को गंभीर चेतावनी और आर्थिक दंड दिया था। इस क्रम में मासिक पत्रिका संसार मित्र का प्रकाशन १९०६ से शुरू हुआ तथा सचित्र संसार मासिक का प्रकाशन इंडियन प्रेस से जून १९४१ से दिसम्बर १९४३ के मध्य एन.सी. चतुर्वेदी के संपादकत्व में हुआ था. इसी प्रकार, भारत स्काउट-गाइड का मासिक मुख-पत्र, सेवा रामप्रसाद घिल्डियाल के संपादन में बालचर मंडल द्वारा मार्च १९२० से १९३५ के मध्य होता रहा. बाद में, जानकी प्रसाद वर्मा, हरिदास माणिक, श्रीराम बाजपेई, ठाकुर छेदीलाल एवं हरिकृष्ण प्रेमी क्रमशः इसके संपादक हुए. इसका प्रकाशन हिंदुस्तान स्काउट एसोसिएशन के लिए होता था।  

भैरव प्रसाद गुप्त

 इसी तरह एक अन्य मासिक पत्रिका चेतना थी, जिसे द्विवेदी युग की प्रमुख सामाजिक पत्रिका माना गया है. इसका संपादन शिवाधार पाण्डेय ने किया था १९३१ से हिन्दुस्तानी त्रैमासिक पत्रिका का संपादन/प्रकाशन शुरू हुआ. यह १९२७ को स्थापित हिन्दुस्तानी अकादमी की शोध-पत्रिका थी. रामचंद्र टंडन, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, हरदेव बाहरी, सत्यव्रत सिन्हा आदि इसके सम्पादक रहे हैं. इसका प्रकाशन अब भी हो रहा है. साहित्य और कथा को समर्पित मासिक पत्रिका मनोहर कहानियाँ का प्रकाशन १९३९ में प्रारम्भ हुआ इसके संपादकों के रूप में राजेश्वर प्रसाद सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, रामनाथ सुमन, क्षीतींद्र्मोहन मित्र आदि सम्मिलित थे. १९४२ से नरोत्तम प्रसाद नागर के संपादन कथा-साहित्य को समर्पित अभ्युदय का प्रकाशन शुरू हुआ था और इसी वर्ष (१९४२) नया साहित्य सबसे पहले इलाहाबाद के नया कटरा से प्रकाशित हुआ था. इसके प्रारम्भिक संपादक प्रकाश चन्द्र गुप्त (इलाहबाद विश्विद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक) तथा कहानीकार रामप्रसाद घिल्डियाल थे. ये दोनों ही नए कटरा के निकट वाले मोहल्ले ममफोर्डगंज के निवासी थे बाद में संभवतः १९४५ में यह बम्बई चला गया

कुछ अन्य विविध पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में शुरू हो गया, यथा, मासिक नाटक प्रकाश (१८७४) जिसका संपादन, मुद्रण व प्रकाशन हाई कोर्ट के अधिवक्ता रतन चंद करते थे तथा, प्रयाग धर्म प्रकाश (१८७५) जिसका संपादन-प्रकाशन पंडित शिवराखन शुक्ल करते थे इसमें माह भर की हिन्दू तिथियाँ व्रत-आदि का विवरण भर दिया जाता था. १८९२ में गोसेवक नामक मासिक पत्र पंडित जगत नारायण के संपादन में निकलने लगा सन १८९४ में वैद्य शिवराम पाण्डेय के संपादन में रत्नाकर भी छपने लगा
इसी क्रम को हम अगली सदी में भी आगे बढ़ाते हुए कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशन की चर्चा कर लें तो प्रासंगिक ही होगा १९१३ में गिरिजा कुमार घोष के संपादन में हिंदी साहित्य सम्मलेन की पत्रिका सम्मलेन पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ यह भी मासिक पत्रिका थी १९१४ में रामजी लाल शर्मा के संपादन में विद्यार्थी हितों की सूचनाएं प्रकाशित करने वाले पात्र कलाकुशल का प्रकाशन भी प्रारम्भ हुआ इसी वर्ष पंडित चंद्रशेखर ओझा शास्त्री के संपादन में संस्कृत की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका शारदा का प्रकाशन शुरू हुआ था इसका प्रकाशन तीन वर्ष बाद ही बंद हो गया. जबकि, पंडित (बाद में सर) गंगानाथ झा के संपादन में प्रयाग की विज्ञान परिषद् की पत्रिका विज्ञान का प्रकाशन, जो १९१५ में प्रारम्भ होकर अब तक अनवरत जारी है इसके अन्य प्रमुख संपादक थे पंडित श्रीधर पाठक, प्रोफेसर गोपाल स्वरूप भार्गव, लाल सीताराम भूप, प्रोफेसर बृजराज, रामदास गौड़, संत प्रसाद टंडन, डॉ. सत्य प्रकाश, युधिष्ठिर भार्गव, डॉ. गोरख प्रसाद, डॉ. रामचरण मेहरोत्रा, डॉ. हीरालाल निगम आदि. यह विज्ञान सम्बन्धी विषयों का प्रथम हिंदी पत्रिका थी जो आज भी अनवरत रूप से प्रकाशित हो रही है वर्तमान (यानी २०१५) में इसके संपादक हैं डॉ. शिवगोपाल मिश्र. इसी साल (१९१५ में) १९१७ में ही पंडित चंद्रशेखर शास्त्री के संपादन में प्रयाग सन्यस्त परिषद् द्वारा सन्यासी नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी प्रारम्भ हुआ. १९२० में श्रीराम बाजपेई के संपादन में सेवा मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था. इसके बाद १९२२ में ही देवदर्शन नामक मासिक पत्र भी इलाहाबाद से प्रकाशित होने लगा और, गोपाल मासिक पत्र देवरत्न शुक्ल के संपादन में निकलने लगा थाइसी क्रम में मासिक तरुण पत्रिका का प्रकाशन कृष्णानंद प्रसाद के संपादकत्व में १९४० में प्रारम्भ हुआ था
प्रयाग एक प्राचीन हिन्दू तीर्थ-स्थान था अतः यहाँ से अनेक धार्मिक ग्रंथों के साथ सामायिक पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन होता था इस तरह के कुछ प्रमुख प्रकाशनों में शिवराखन द्वारा सम्पादित मासिक पत्र प्रयाग धर्म प्रकाश का उल्लेख मिलता है बाद में यह पाक्षिक हो गया था. इसका प्रकाशन १८७५ से १८८७ के मध्य की अवधि में हुआ था इसी के बाद हमें वर्तमान उपदेश नामक पाक्षिक पत्रिका दृष्टिगोचर होती है, जिसका स्वरुप पाक्षिक था. इसका प्रकाशन १८९० में शुरू हुआ. इसके संपादक अवध बिहारीलाल थे हमें जैन धर्मावलम्बियों की भी एक मासिक-धार्मिक पत्र जैन-पत्रिका का वर्णन मिलता है जिसका प्रकाशन वर्ष १९०० में प्रारम्भ हुआ था इसी क्रम में हमें मासिक राघवेन्द्र मिलती है, जिसका संपादन क्रमशः द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी तथा लक्ष्मी नारायण शर्मा ने १९०४ से १९१४ के मध्य किया. इसी प्रकार द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी के ही संपादन में मासिक यादवेन्द्र का प्रकाशन १९०९ में शुरू हुआ बाद में इसके संपादन का दायित्व राधाकृष्ण मिश्र ने संभाला इसके अतिरिक्त हमें वेदोदय मासिक धार्मिक पत्रिका का उल्लेख भी प्राप्त होता है, जिसका प्रकाशन अप्रैल ५, १९३० से प्रारम्भ होकर १९३४ तक अनवरत जारी रहा. इसके संपादक थे गंगा प्रसाद उपाध्याय तथा विश्व प्रकाश. यह वैदिक प्रचार का पत्र था एवं इसका मुद्रण-प्रकाशन जीरो रोड से होता था. इसके उपरान्त १९३८ में सतयुग मासिक का प्रकाशन शुरू हुआ इसका संपादन क्रमशः हेमचन्द्र जोशी एवं भोलानाथ दास ने किया. इसका प्रकाशन सितम्बर १९३८ से १९४९ तक बहादुरगंज से हुआ १९४४ में प्रकाशन यत्र शुरू करने वाली मासिक पत्रिका, आत्म-जाग्रति स्वतंत्रता पूर्व के भारत की अंतिम धार्मिक पत्रिका के रूप में दृष्टिगोचर होती है यह स्टैनली रोड से १९७१ तक प्रक्सहित होती रही 
   
अलग-अलग विषयों और तमाम विधाओं की इन तमाम पत्र-पत्रिकाओं के चलते एकदम से ज्ञान और विचारों के प्रचार-प्रसार में अद्भुत क्रान्ति आई और सम्प्रेषण एवं जनचेतना के गतिशील होने का उसका प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगा। कोई भी समाज अपनी गतिशीलता को इसी प्रकार से प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त भी करता है और उससे जन-जागृति को बढ़ाने में अपना योगदान देते हुए उसका पैमाना भी होता है।

सम्पर्क –
प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी
इतिहास विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, 
इलाहाबाद.
निवास: 
8/5 ए, बैंक रोड, 
इलाहाबाद, उ. प्र. 211002
मोबाइल: 09452799008; 
email: heramb.chaturvedi@gmail.com

हेरम्ब चतुर्वेदी की किताब पर दीपेन्द्र सिवाच की समीक्षा

प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी

इतिहासकार प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी की इधर वाणी प्रकाशन दिल्ली से दो महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित हुईं हैं – ‘मुगल शहजादा ख़ुसरो’ और ‘दो सुल्तान, दो बादशाह और उनका परिणय परिवेश’। हेरम्ब जी की इन किताबों को पढ़ कर एक त्वरित टिप्पणी लिखी है दीपेन्द्र सिवाच ने। इसी बीच खबर मिली है कि हेरम्ब जी ने विगत 25 जनवरी को इलाहाबाद के गौरवशाली इतिहास विभाग के अध्यक्ष पद का गुरुतर दायित्व संभाल लिया है हेरम्ब जी को बधाईयाँ देते हुए हम उम्मीद करते हैं कि उनके मार्गदर्शन में विभाग फिर से उन उंचाईयों को छुएगा जिसके लिए वह अतीत में जाना जाता रहा है तो आइए पढ़ते हैं दीपेन्द्र सिवाच की यह समीक्षा – ‘इतिहास में प्रेम की एक अजस्र धारा 

इतिहास में प्रेम की एक अजस्र धारा
   
दीपेन्द्र सिवाच 



बीते 27 दिसम्बर को इलाहाबाद पुस्तक मेले में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग में प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी सर की दो पुस्तकों का विमोचन हुआ। ये दो पुस्तकें थीं –मुगल शहजादा ख़ुसरोऔर दो सुल्तान, दो बादशाह और उनका परिणय परिवेश। इनमें से दूसरी पुस्तक दो सुल्तान …’ फिलहाल मैंने पढ़ी है और आज इसी के बारे में।


साल 2013 में उनकी एक पुस्तक आई थी मुग़ल महिलाओं की दास्तान : हाशिए से संवरता इतिहास। ये पुस्तक काफी चर्चित हुई। इस किताब में उन्होंने अजानी और कम चर्चित मुग़ल महिलाओं के मुग़ल इतिहास में अवदान की बड़ी शिद्दत से वर्णन किया है। इस मायने में दो सुल्तान दो बादशाह•••’  उस किताब की अगली कड़ी लगी कि इसमें भी तमाम महिलाओं के सल्तनत और मुग़ल इतिहास पर प्रभाव की बात को आगे बढ़ाया है। पहली पुस्तक में केंद्र में महिलाएं हैं लेकिन इसमें  केंद्र में सुलतान और बादशाह हैं और इसमें उनके जीवन में आने वाली महिलाओं का उन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन है। 
पहली किताब में वे भारत से निकल कर मध्य एशिया तक जाते हैं जबकि इसमें वे भारत की हरी भरी समृद्ध धरती से बाहर नहीं निकलते और शुरू से ही प्रेम की एक अजस्र धारा बहनी शुरू हो जाती है। हाँ, कालक्रम में वे उसी तरह काफी पीछे जाते हैं और इसे वे 13वीं शताब्दी से शुरु करते हैं। अपनी बात कहने के लिए प्रोफ़ेसर चतुर्वेदी मध्यकालीन भारतीय इतिहास की चार मुख्य शख्सियतों को चुनते हैं। इसमें से दो सल्तनत काल की और दो मुग़ल काल की यानी दो सुल्तान- अलाउद्दीन ख़लजी और शेरशाह सूरी तथा दो बादशाह- बाबर और औरंगजेब हैं। इस सूची में जो सबसे रोचक नाम है वो निःसंदेह औरंगजेब का है जैसा कि प्रोफ़ेसर चतुर्वेदी भी स्वीकारते हैं और मेरे हिसाब से एक और रोचक नाम जो इसमें होना चाहिए था और नहीं है वो मुहम्मद बिन  तुग़लक का है। ख़ैर…।
अलाउद्दीन  खिलजी

पहली कहानी अलाउद्दीन ख़लजी की है। उसके जीवन के उस महत्वपूर्ण कालखंड की कहानी जब उसका रूपांतरण एक साधारण अमीर से सुल्तान के रूप में हो रहा था। उस इतिहास की निर्मिति में एक तरफ उसकी पत्नी जो कि उसके मालिक सुलतान जलालुद्दीन खलजी की बेटी और सास यानि जलालुद्दीन की पत्नी मलिका ए जहांथीं और दूसरी तरफ उसकी प्रेयसी महक और ये मिल कर अलाउद्दीन के भाग्य निर्माण की परिस्थितियों में अविकल रूप से योगदान कर रही थीं। वे बताते हैं कि किस प्रकार अन्य परिस्थितियों के साथ-साथ उसकी पत्नी और सास मलिका-ए-जहाँ के प्रति उसके खराब व्यवहार और अपनी प्रेयसी महक के प्रति बढ़ते प्रेम ने उसे एक ऐसी बंद गली में धकेल दिया था जहाँ उसके पास अपने चाचा और सु्ल्तान जलाल की हत्या कर सुल्तान की गद्दी प्राप्त करने का ही एक मात्र  उपाय बचा। इस किताब के इस पहले अध्याय में प्रेम और राजनीति के घात प्रतिघात से निर्मित एक ऐसा सुंदर संसार रचते है कि पाठक उसमें डूबने उतराने लगता है। 
शेरशाह सूरी

शेरशाह के प्रसंग में उल्लेखनीय है कि उसके जीवन में माँ के अलावा कम से कम चार महिलाओं का पदार्पण होता है। विधवा रानी दूदू, चुनार की लाड मलिका, गाजीपुर के वीर सेनानी नासिर खाँ लोहानी की विधवा गौहर गोंसाई और बीबी फतेह मलिका का, लेकिन इसमें अपेक्षाकृत एक सपाट वातावरण निर्मित होता है। उसका कारण शायद ये है कि उसके जीवन में घटनाएं इतनी अधिक और तेजी से घटित होती हैं और ये महिलाएं उसके जीवन में अनायास आती जाती हैं और उसके लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होती हैं। इसी तीव्रता के कारण उसके जीवन में प्रेम का वो उत्कर्ष नहीं ही दिखाई देता जो अलाउद्दीन या अन्य शासकों के जीवन में है। 

बाबर

बाबर के जीवन में भी अनेक महत्वपूर्ण महिलाओं का प्रवेश होता है जिसमें उसकी पहली पत्नी आयशा सुल्तान बेग़म, एक लौंडा बाबरी, उसका वली अहद देने वाली पत्नी माहिम बेग़म, मासूमा बेग़म और दो कम जानी बेग़में दिलदार बेग़म और गुलबदन बेग़म। पहले बाबर आयशा बेग़म और लौंड़े बाबरी का अंतर्संबंधों का खूबसूरत त्रिकोण बनता है। एक तरफ बाबरअपनी उच्च संस्कारों वाली खूबसूरत पत्नी आयशा बेग़म की ओर आकर्षित नहीं होता है और सही मान नहीं देता है वहीं दूसरी तरफ वो एक लौंडे बाबरी की ओर आकर्षित होता है। इस प्रकरण में स्त्री-पुरुष के अंतर्संबंध और द्वंद का और उसका आदमी के व्यक्तित्व पर प्रभाव का और फिर उससे प्रभावित होती परिस्थितियों का खूबसूरत वर्णन है। ये महत्वपूर्ण है कि बाबर स्वयं अपनी आत्मकथा में अपने समलैंगिक यौनाकर्षण का उल्लेख करता है। अपने इन प्रारंभिक संबंधों की अपूर्णता के अपराध बोध के चलते अपने आगे के संबंधों में बेहतर संबंध बनाने की कोशिश करता है और मासूमा बेग़म से प्रेम कहानी का जन्म होता है। अलाउद्दीन और महक की प्रणय कहानी से जिस परिवेश की निर्मिति का आरंभ होता है वो दाराशिकोह और राना ए दिल तथा औरंगजेब और जैनाबादी व औरंगजेब और राना ए दिल की दिलफरेब कहानियों से पूर्णता को प्राप्त होता है जो कि इस किताब की सबसे खूबसूरत, सरस और करुण प्रेम कथाएँ हैं जिन्हें स्वतंत्र रूप से किसी भी प्रसिद्ध प्रेम कहानी के समकक्ष रखा जा सकता है।



दरअसल इस किताब में जिस इतिहास की रचना की है परंपरागत तरीके का चरित्र प्रधान इतिहास ही है, लेकिन इस की निर्मिति के लिए जिन टूल्स का प्रयोग किया है वे महत्वपूर्ण हैं। वे इतिहास की घटनाओं का स्थूल कारणों से विश्लेषण नहीं करते हैं। वे स्त्री-पुरुषों के अंतर्संबंधों का इन घटनाओं की निर्मिति और उनके उस रूप में घटने पर पड़ने वाले प्रभाव और इन अंतर्संबंधों और घटनाओं के घटने के अंतर्संबंध का विश्लेषण करते हैं। वे इन चारों सुल्तानों और बादशाहों के रागात्मक प्रेम संबंधों के परिप्रेक्ष्य में घटनाओं का मूल्यांकन करते हैं। यही इस किताब की खूबसूरती है और वैशिष्ट्य भी। वे इन सुल्तानों और बादशाहों के काल खंड की घटनाओं को एक कैनवस पर बिखेर देते हैं और उसमें विविध प्रेम कथाओं के रंग से इतिहास की एक खूबसूरत तस्वीर में बदल देते हैं। एक तरफ वे इतिहास की घटनाओं को उपन्यास की तरह आँखों के समक्ष चलचित्र की भाँति उपस्थित कर देते हैं और इसके बीच प्रेम कथाओं की काव्यात्मक प्रस्तुति करते हैं। उनकी भाषा पर गजब की पकड़ है। वो पानी की तरह बहती है। विशेष रूप से प्रेम कथाओं के वर्णन में उनका गद्य भी काव्य का आनंद देती है  … “उसे लगा कि वह पहली बार ज़िंदगी की एक अनजानी राह पर चल पड़ा है। 

औरंगजेब

राजपूताना, दक्खन, बल्ख़ बदख़्शां से ले कर कंधार तक का यह विजयी योद्धा आज हार चुका है। उसके घुटने काँपे, साँसें अस्थिर हुईं। पहली ही नज़र में उसने जैनाबादी को देखा तो उसका दिल तार-तार हो गया। 
करने गए थे, उससे तगफ्फुल खा गिला 
कि इक नज़र की, कि बस ख़ाक हो गए!‘ 
दुखी और निराश मन, सन्यास को उद्धत जैसे औरंगजेब को शायद किसी ने उबारा था तो मौसी के घर के इस उद्यान में इस नवयौवना ने …”  युवा कथाकार विमल चन्द्र पांडे की एक कविता सूपनखाको पढ़ते हुए मैंने टिप्पणी की थी कि इतिहास के इतने घृणित रूप में चित्रित पात्र को प्रेम का प्रतीक बना कर कविता वही लिख सकता है जो आपादमस्तक प्रेम में डूबा हो। यही बात मैं यहाँ दोहराऊँगा कि इसमें वर्णित प्रेम कथाओं को इतने सरस और काव्यात्मक रूप में प्रेम में आपादमस्तक डूबा व्यक्ति ही लिख सकता है। दो बातें और, कई बार वाक्यों और प्रसंगों में दोहराव है। शायद इसलिए कि वे विवरणों में इतने गहरे उतर जाते हैं कि जब वे वापस आते हैं तो सूत्र को पकड़ने के लिए दोहराव ज़रूरी बन जाती है। दूसरे, चारों की कहानी उनके सत्ता के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच करएबरप्टलीखत्म हो जाती है। वे केवल उनके सत्ता के सर्वोच्च स्तर तक की घटनाओं और उनके रागात्मक संबंधों का मनोविश्लेषण ही करते हैं। वे अपने पाठक को शिखर पर पहुँचा कर छोड़ देते हैं जहाँ से पाठक धड़ाम से नीचे गिरता है और नए शिखर पर जाने को तैयार होता है। यानि ये कहानियाँ उनके सुलतान और बादशाह बनने के जीवन के पूर्वार्द्ध तक सीमित हैं। अंत में एक बात और। अभी हाल ही में कृष्ण कल्पित की किताब हिन्दनामाआई है। इसमें बड़े रोचक ढ़ंग से भारत के इतिहास को प्रस्तुत करते हैं। वे भारतीय इतिहास के विभिन्न प्रसंगों को कविता किस्सों के रूप में कहते हैं। कहन का ढंग कुछ भी हो सकता है। बस पाठक से कनेक्ट होना चाहिए। हेरम्ब चतुर्वेदी ने इतिहास को प्रेम कथाओं में पिरो कर प्रस्तुत किया है वो भी अद्भुत है।


दरअसल जब वे ये किताब लिख रहे होते हैं तो वे जीवन के महासागर के खारेपन को प्रेम की असंख्य नदियों के मीठे जल से न केवल कम कर रहे होते हैं बल्कि उसे कुछ और मीठा कर रहे होते हैं और आप उसमें अवगाहन कर असीम आनंद प्राप्त कर सकते हैं।

दीपेन्द्र सिवाच 








सम्पर्क 

मोबाईल – 09935616945

प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख ‘मध्यकालीन उत्तर भारत में हिंदी के विकास की पृष्ठभूमि’

प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी




किसी भी भाषा के उद्गम और विकास के अपने-अपने विशेष कारण होते हैं.  हिंदी का विकास भी कई-एक कारणों के चलते संभव हुआ. इस विकास में संस्कृति के अलावा व्यापार४ और वाणिज्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. मध्यकालीन उत्तर भारत में हिंदी के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझने के प्रयास में प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने यह महत्वपूर्ण आलेख लिखा है. यह आलेख नया ज्ञानोदय के हालिया अंक में प्रकाशित और  प्रशंसित भी हुआ. इस आलेख की उपयोगिया के मद्देनजर हम इसे पहली बनार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. तो आइए पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी का यह आलेख.   

मध्यकालीन उत्तर भारत में हिंदी के विकास की पृष्ठभूमि

प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी

भारत के इतने विशाल भू-भाग को देख कर कोई भी सहज कह सकता है कि, भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल में भी अवश्य ही स्थानीय बोलियों का बोल-बाला रहा होगा. किन्तु, विश्व पटल पर मानवीय विकास के क्रम-बद्ध अध्ययन से एक बात तो स्पष्ट होती है कि मानव कभी एक ही क्षेत्र अफ्रीका से शनैः-शनैः विकसित होते हुए अपने वर्तमान स्वरूप तक पहुंचा था! इतना ही नहीं, विश्व भूगोल और इतिहास के अध्ययन से यह भी स्पष्टतः स्थापित हो चुका है कि पूरा विश्व तब एक ही था एक  एकीकृत भू-क्षेत्र! तब ज़ाहिर है, धीरे-धीरे भू-सतह से बहुत नीचे प्लेट्स के टकराने के पश्चात् जब ये क्षेत्र पृथक-पृथक दूर-दूर हो गए, तब भी स्पष्तः कुछ समानताएं शेष रह ही गयीं होंगी? इन्हीं समानताओं के साथ मानवीय विकास-क्रम मंथर गति से बढ़ा होगा…….इसी लिए इतिहासकार से ले कर समाजशास्त्री, नृतत्व-वेत्ता और भू-वैज्ञानिक सभी मानव के समान अनुभव (शेयर्ड ह्यूमन एक्सपीरियंस) के तथ्य को रेखांकित करके ही, इस विषय में आगे बात करते हैं. वस्तुतः मानव के सहभाग से प्राप्य अनुभव, भले ही ये अलग-अलग समय पर पृथक-पृथक स्थानों, जिन्हें हम अब देश कहते हैं, वहाँ ही प्राप्त किया हों. इन्हीं साझा अनुभवों के आधार पर मानव का समग्र विकास संभव हुआ था! और इसका सम्प्रेषण मानवीय समुदाय में भाषा के माध्यम से ही हुआ था! चूंकि, तब भाषिक एकता थी, अतः विकास-क्रम कभी भी प्रारम्भिक काल में अवरुद्ध नहीं हुआ और फिर, इस विकास क्रम ने अपनी बारी में उसी भाषिक एकता पर बल दने के लिए विभिन्न विकसित भाषाओँ के साम्य को रेखांकित करना शुरू किया. इस साम्य के भाव ने मानव अनुभव के साम्य को ही अन्ततः सुदृढ़ किया और मानव-विकास क्रम के बावजूद भाषिक एकता के सूत्र कभी नज़रंदाज़ नहीं हुए? और, इसी साम्य व एकता में एक एकीकृत मानव-समुदाय का भाव भी अन्तर्निहित था? और भाषिक साम्य ने उस विकास की गति को बनाए रखा! मानव अंततः अपने अनुभव और प्रयोग आदि साझा करके ही तो प्रगति कर सकता है. अब तो सूचना-क्रान्ति के दौर में हम सहज ही विश्व-ग्राम की अवधारणा की बात करते हैं.
अतः इस पृष्ठभूमि से ही एक तथ्य और स्थापित होता है कि सिर्फ भारोपीय (इंडो-यूरोपियन) ही नहीं, सभी भाषाओँ में अनेक समानताएं थीं और इसी से मानव का विकास संभव हो सका! मानव के विकास-क्रम में जिस एक तत्व ने सर्वाधिक योगदान दिया था वह थी भाषा और इसी समान भाषा के आधार पर साझा किये गए अनुभवों के द्वारा ही मानव का यह विकास संभव हो पाया! एक पीढ़ी से अगली वाली पीढ़ी तक परंपरा और विरासत सिर्फ भाषिक माध्यम से ही संप्रेषित की जा सकती थी और, इसी लिए मानव ने भाषा का विकास किया और उसी के आधार पर वे अन्य जीव-जंतुओं से काफी आगे निकल गए! अपनी बात कह लेने से न केवल बातें, अनुभव और संवाद स्थापित हुआ, अपितु एक सामुदायिक जीवन-शैली और समान भाषा का भी विकास हुआ! जब ये भूखंड अनेकानेक भौगोलिक या भूगर्भीय कारणों से पृथक हुए तथा सामुद्रिक विकास के क्रम ने उनके मध्य की परस्पर दूरी को और बढ़ाया, तब अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी भौगोलिक विशेषताओं के चलते, अपने विशिष्ट प्रकार से ये मानवीय सभ्यताएँ विकसित होती चली गयीं और उनके साथ ही भाषाओँ के अंतर भी स्पष्टतः उभरने लगे! न जाने कितनी शताब्दियों के इस विकास-क्रम को हम यहाँ संक्षिप्त रूप में चित्रित करने की कोशिश कर रहे यह तो सर्वविदित है ही! किन्तु, इसी पृष्ठभूमि के चलते अलग भाषाओँ के विकास के बावजूद भी आज भाषा-वैज्ञानिक इन भाषाओँ के सामान उद्गम की बात न केवल मानते हैं अपितु उसे सदैव स्मरण रखने के लिए प्रायः रेखांकित भी करते रहते हैं!
इस आलोक में हमें अब अपने देश के आतंरिक भाषिक विकास के क्रम को भी विश्लेषित करने का प्रयास करना चाहिए. प्रारम्भ से ही मानव पशुचारिता के चलते नित नए चारागाह की तलाश में भटकता फिरता था और अपने बिछड़े मानव-समूहों से मिलता-भेंटता रहता था! इस क्रम में उस प्रारम्भिक काल में उसे संवाद स्थापित करने में कोई बहुत असुविधा भी नहीं उत्पन्न हुयी होगी. प्रथम तो न तो भूमि की कमी थी और न ही उस पर आज जैसी जनसँख्या का दबाव! दूसरे, भाषा की समानता के चलते भी संवाद सहज और स्वाभिक रूप से स्थापित ही हुआ होगा? यदि थोड़ी बहुत समस्या आई भी होगी तो इशारों से समझ कर उन शब्दों के अर्थ ग्रहण ही नहीं किये होंगे, अपितु, इस आदान-प्रदान ने दोनों की बोलियों या भाषाओँ को और समृद्ध करना शुरू किया होगा! इसी लिए भाषा-वैज्ञानिकों ने भारतीय भाषाओँ की समझ के लिए संस्कृत, प्राकृत, पाली के साथ ही पुरानी पहलवी, क्लासिकल यूनानी के तुलनात्मक अध्ययन पर जोर दिया है! इसी लिए जब आधुनिक शिक्षा पद्धति के अनुसार कलकत्ता विश्वविद्यालय में भाषा-विज्ञानं का अध्यापन शुरू हुआ तब वहाँ ये सभी भाषाओँ को पढाया जाना अपने-आप इसी बात को रेखांकित करता है! (देखें, उदय शंकर तिवारी,….) इस प्रकार का तुलनात्मक अध्ययन इस लिए आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य हुआ क्योंकि हमारा देश शताब्दियों तक समाजार्थिक व सांस्कृतिक सम्मिश्रण का क्षेत्र रहा है, जहां सभी जगह की संस्कृति, सभ्यताएँ सहज मिलतीं थीं. भले ही इनका मूल उद्देश्य व्यापारिक लाभ रहा हो? भारत के प्रारंभिक काल के अवशेषों से और प्राचीनतम सभ्यता के विकास के साक्ष्यों से यह स्थापित होता है कि, कैसे हमारे देश का अन्य एशियाई व यूरोपीय देशों के साथ घनिष्ठ व्यापारिक-व्यावसायिक विनमय का सम्बन्ध था? इन पारस्परिक सम्बंधों की जड़ें जैसा कि हमने ऊपर स्पष्ट किया है, पशुचारिता के काल से न केवल चली आयीं हैं अपितु, समय के साथ सशक्त, समृद्ध और संवर्धित भी होतीं रहीं हैं!
भारत में व्यापार-व्यवसाय के जल (सामुद्रिक एवं नदी-जल) तथा स्थल मार्गों ने न केवल हमारे राष्ट्र के बाह्य व आतंरिक व्यापार को द्रुत गति ही प्रदान की अपितु इन पारस्परिक विनमय के क्रम को भी जारी रखा, जिसके परिणामस्वरूप हमें अपनी भाषा/ओं में भी समय-समय पर नए विकास देखने को मिलते हैं. भारत में भाषा के विकास का दूसरा महत्वपूर्ण चरण हमें संस्कृत, प्राकृत व पाली के बाद अर्ध-पैशाचिक से ले कर, मागधी, सौरसेनी के विकास के रूप में दृष्टिगोचर होता है! इस भाषिक विकास के पीछे भी उत्तरापथ व दक्षिणापथ के व्यापार-व्यवसाय को ही हम उत्तरदायी पाते हैं. इसके बाद भारत में जब साम्राज्यों का काल आया तब अनेकानेक प्रशासनिक, राजनीतिक कारणों से पूरे देश में एक एकीकृत सी सरकार व राज्य हो गया. इसी के चलते, देश भर में भाषिक एकता के सूत्र न केवल मजबूत हुए अपितु समृद्ध भी हुए! इन व्यापारियों को धन-लाभ हेतु वा व्यापारिक हितों के लिए भाषाओँ की समानता का अभिप्राय स्पष्ट हुआ होगा? अतः राजनीतिक-प्रशासनिक के साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों व कारकों ने इस भाषिक एकता को बल दिया!
इस के बाद के समय में हर्षवर्धन ने जब अपनी राजधानी ही थानेश्वर से कन्नौज की तब व्यापार मार्ग और गंगा-घाटी की ओर खिंच आया तथा इस परिवर्तन ने ही भावी हिंदी-पट्टी या मध्य-देश के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार कर दी? और, ज़ाहिर है जब भाषा-संगम का क्षेत्र व केंद्र भारत के पूर्व की ओर खिसका तब व्यापार मार्ग भी राजनीतिक, प्रशासनिक कारणों से इसी दिशा में अग्रसर हुआ! अतः इन परिस्थितियों और विकास-प्रकरणों में हमें हिंदी के विकास को नए सिरे से समझने की ज़रुरत है! हर्षवर्धन की पुल्केसिन III द्वारा पराजय से भी उत्तर-दक्खन-दक्षिण का अंतर्संबंध समाप्त नहीं हुआ, क्यूंकि यह राजनीतिक कम, सांस्कृतिक व आर्थिक आधार (व्यापार-व्यवसाय) पर अधिक निर्भर था! अतः भाषिक एकता में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ! इसके पश्चातहमें कन्नौज पर गुर्जर-प्रतिहारों के राजनीतिक प्रभुत्व के काल में यह भाषिक एकता का भाव स्पष्टतः और अधिक सशक्त रूप में दृष्टिगोचर होता है. वैसे तो इस वंश के नाम से भी बहुत सी बातें स्वतः स्पष्ट हो जातीं हैं. ये शासक मूलतः उसी गुजरात के क्षेत्र से आये थे, जो दक्खन का भाग हो कर, उत्तर-दक्षिण के मध्य का संधि-स्थल था और, इसी लिए समग्र भारत का यही संस्कृतक सम्मिश्रण का भी क्षेत्र था!
 
हर्षोत्तर काल के सामंतवाद के दौर में राजनीतिक एकता का पतन और छोटी-छोटी राजनीतिक इकाईयों की उत्पत्ति ने राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक एकता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया था! इसी के परिणामस्वरूप स्थानीय बोलियों के काल का उद्भव अपरिहार्य हो गया! किन्तु इसी दौर में इन अव्यवस्थाओं के चलते वैदिक वांग्मय से प्रारम्भिक पौराणिक काल तक के भक्ति के विकास को भी एक झटका लगा. किन्तु, चूंकि व्यापार समुन्नत व समृद्ध था, अतः यह विकास क्रम उत्तर से दक्षिण की ओर विस्थापित हो गया. शेष सभी समानताएं होने के चलते और उत्तरापथ व दक्षिणापथ के इस सशक्त माध्यम से ही यह विकास-क्रम अपना अगला चरण वहीं दक्षिण में पूर्ण करता है और इसी के साथ दक्षिण की भाषिक परंपरा भी आमफ़हम या संवाद की भाषा को और समृद्ध कर गयी. (देखें, तारा चंद, इन्फ्लुएंस ऑफ़ इस्लाम आन इण्डियन कल्चर, …)  इसी के साथ, दक्षिण में इस्लाम और इसाई धर्म की उपस्थिति ने न केवल भक्ति आन्दोलन को सुनिश्चित किन्तु उसे एक नया रूप ही प्रदान किया. इसी के साथ देश की संपर्क भाषा को अन्य भाषाओँ के संवाद व विनमय के चलते भी समृद्ध किया होगा! हमें स्मरण रखना है कि ये भाषाएँ क्रमशः अरबी-फ़ारसी-तुर्की के साथ पुर्तगाली-फ्रेंच-अंग्रेजी आदि थीं, अर्थात ये सब भी भारोपीय ही थीं! अतः एक ही उद्गम वाली भाषाओँ का यह मात्र पुनर्मिलन भर साबित हुआ, इसी लिए भाषिक साम्य का अध्ययन या सामान्य जानकारी दिलचस्प, आश्चर्यजनक और अपरिहार्य भी प्रमाणित हुआ!
                                                                        II
जैसा हम ऊपर देख ही चुके हैं कि, ये भाषाएँ जो अब देश के दक्षिण भाग में इस सांस्कृतिक भक्ति आन्दोलन को समृद्ध कर रहीं थीं, वे एक ही परिवार की भाषाएँ थीं, जिन्होंने प्रारंभिक काल में एक ही उद्गम-बिंदु से निकल कर अलग-अलग लम्बी विकास-यात्राएं पूर्ण की थीं और अब वे स्वयं भाषिक समानताएं देख कर भाष-वैज्ञानिक ढंग से न केवल भक्ति के विकास अपितु भाषाओँ की समानताओं पर भी अध्ययन-विश्लेषण को बाध्य हुए थे! उन्हें समझ आने लगा था, कि, ये समानताएं मानव-विकास क्रम में किसी मोड़ पर पृथक हो जाने के बावजूद बीज रूप में एक होने के कारण ही समान प्रतीत होती थीं? किन्तु, बाद के समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों, विद्वानों ने इस भक्ति पर कभी इस्लाम (युसूफ हुसैन) के तो कभी इसाई मत (वेस्टकोट) से प्रभावित होने का दावा किया. अकेले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जब अपने वृहद अध्ययन से स्थापित किया कि, भक्ति का स्वरुप बारह आने वैसा ही रहता…….. अर्थात, इन धर्मों का प्रभाव सिर्फ २५% ही था, किन्तु यदि हम तारा चंद का बारीकी से अध्ययन करें तो वे स्वतः ही स्पष्ट कर देते हैं कि भक्ति आन्दोलन तो भारतीय विचार का विकसित रूप था. आखिर वे सूफ़ीवाद के विकास-क्रम के विश्लेषण में हमें बताते तो हैं कि कैसे वैदिक वांग्मय से लेकर उपनिषद् चिंतन का प्रभाव यूनान के माध्यम तक मध्य-पूर्व तक पहुंचा था और उसी ने इसको जन्म दिया था! (देखें, तारा चंद,….)
आईये हम उस प्रक्रिया को समझने का प्रयास करें जिसमें भारत में उस परिवेश का निर्माण संभव हुआ था, जिसके फलस्वरूप आचार्य द्विवेदी ने उक्त अवधारणा दी थी. वस्तुतः पूर्व मध्यकाल की शुरुआत में ही इस सामंतवाद के चलते अमीरों ने ग्रामों की और रुख किया था. ज़ाहिर है, जब अभिजात्य ग्राम्य-जीवन की ओर किसी भी कारण से आकृष्ट हुए तब उनका समस्त ध्यान उधर ही केन्द्रित होना स्वाभाविक ही था. इस मध्यकालीन सामंतवाद में अगर ढ़ेरों अवगुण थे तो एक विशेषता भी थी. इसने कृषि की ओर ध्यानाकर्षण के माध्यम से कृषि-उत्पादन के साथ कुटीर उद्योग को भी प्रोत्साहित किया! जब कृषि पर अतिरिक्त ध्यान गया तब कृषक अतिरेक (एग्रीकल्चरल सरप्लस) स्वाभाविक परिणति थी. और, यह एक स्थापित आर्थिक तथ्य है कि जब कृषक अतिरेक होगा तब उसका सहज परिणाम पुनः शहरीकरण के रूप में उभरता है. जब सामंतवाद के चलते, व्यापार-व्यवसाय का ह्रास हुआ था, तब श्रेणियाँ (गिल्ड्स) निष्प्रभावी हो कर उत्तर भारत में अपना अस्तित्व ही खो बैठीं! इसने दो प्रकार की प्रक्रियाओं को जनम दिया. जहां एक ओर, पुनः शहरीकरण की परिस्थितियों का निर्माण किया. वहीं, दूसरी तरफ, श्रेणियों का स्थान परिवारों पर आधारित पेशेवर समूहों/समुदायों प्रोफेशनल ग्रुप्स/कम्युनिटीज ने ग्रहण कर लिया. ये ही समूह/समुदाय अंततः जातियों या ऑक्यूपेशनल कास्ट्स में परिवर्तित हो गये. इसका वृहद अध्ययन प्रोफेसर बी.एन.एस. यादव ने अपने ग्रन्थ, सोसाइटी एंड कल्चर ऑफ़ नॉर्थन इंडिया इन द ट्वेल्फ़्थ सेंचुरी में किया है.
जिस प्रकार वंशीय उत्तराधिकार का सिद्धांत राजनीतिक समूहों और सामंतवाद को उपसामंतता का स्वरुप प्रदान करवा रहे थे, वे ही पेशेवर समूहों को कर्म/पेशे आधारित जातियों में तब्दील होने लगे. ये पेशेवर समूह, परंपरागत वर्ण-व्यवस्था में स्थान प्राप्त कर नहीं सके थे, अतः उन्हें लगा कि उनके साथ सामाजिक न्याय नहीं हो रहा है. वे भारतीय समाज में अभूतपूर्व व अमूल्य समाजार्थिक योगदान दे रहे थे. उनके बिना कोई उपयोगिता के कार्य सम्भव ही नहीं थे, किन्तु वे अन्त्यज के अंतर्गत रखे जाते थे. अतः अपने समाजार्थिक अंशदान के अनुरूप सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत स्थान व प्रतिष्ठा प्राप्त न करने के कारण उन्होनें वर्ण व्यवस्था के समानांतर जाति व्यवस्था को जन्म दिया! इस प्रकार वे अपने पेशे के हितों को सुरक्षित व निरंतर विकसित करने में समर्थ हो गये. जाति व्यवस्था या जातियों के इस उत्कर्ष ने उन्हें अपनी स्वाभाविक पहचान और अस्मिता प्रदान कर दी! इसीलिए रैदास स्वयम को चमार और कबीर खुद को जुलाहा घोषित करते हुए स्वाभिमान और समाजार्थिक महत्व की अनुभूति करते थे! उन्हें इस तरह के उद्घोष करने में निश्चित ही अपने पृथक व संप्रभु अस्तित्व के चलते गर्व का अनुभव हुआ होगा! वे निठल्ले जन्मना अभिजात्य नहीं अपने श्रम से अर्जित प्रतिष्ठित हैं?!
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि इन (तथाकथित अन्त्यज) वर्गों की महिलाओं के योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता. महिलाओं की जागृति से ही समाज में वास्तविक चेतना का उद्भव व प्रसार होता है. मानव के समाजीकरण का पहला चरण ही मान की गोद में संपन्न होता है, अतः महिलाओं का जागरण इस दृष्टिकोण से सामाजिक गतिशीलता और परिवर्तिन के लिए अपरिहार्य ही होता है. अतः इन अन्त्यज वर्गों की महिलाओं की अपने-अपने पेशों में पुरुषों के साथ सहभागीदारी, जहां उनके सक्रिय समाजार्थिक अनुदान का प्रमाण है वहीं वह उनकी जागृति के साथ ही पीढ़ियों की जागृति का प्रभावी कारक हो जाता है! उदाहरण के लिए हमें समकालीन देशज (बोलियों के) साहित्य में धोबी के साथ धोबिन; कलवार के साथ ही कल्वारिन; माली के साथ मालिन; भटियारे के साथ भटियारिन के उल्लेख निरंतर मिलते हैं……. बल्कि भरे पड़े हैं? वर्ण-व्यवस्था में जबकि महिलाओं की कोई विशेष भूमिका कहीं भी निर्धारित नहीं थी, वहीं उसके समानांतर जन्मी इस जाति-व्यवस्था में उनका अपने पुरुष-वर्ग के साथ बराबर की भागीदारी उन्हें बराबरी के दर्जे का हक़दार बनाते हुए, एक नयी सामजिक जागरण का लक्षण तो था ही! अतः ज़ाहिर ही है, इस वर्ग की महिलाओं की सक्रियता के चलते इस वर्ग में न तो पर्दा-प्रथा थी और न ही संभव हो सकती थी? इस तरह सामंती-प्रथा में जो संकीर्ण विचार थे, वे इनकी समाजार्थिक सक्रियता के चलते शिथिल पड़ने लगे? तुर्की आक्रमणों ने हालांकि, इस प्रक्रिया में एक गति-अवरोधक का काम ही किया, क्योंकि, युद्ध के प्राचीन-मध्यकालीन आचरण में महिलाओं को किसी ट्रॉफी की तरह ही अर्जित किया जाता था?
 
इसी सामाजिक जागृति ने अब अन्य क्षेत्रों, यथा सामजिक-धार्मिक आयाम में भी परिवर्तन को हवा दी. और, इसके फलस्वरूप, अब वे पुरातन वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत सर्वोच्च स्थान प्राप्त ब्राह्मण/पुरोहित के इस सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक के प्रभुत्व को भी नकार रहे थे और उनका स्थान, प्रतिष्ठा, पद सब गुरु को प्रदान किया जाने लगा! इतना ही नहीं, उन्होनें उस व्यवस्था को पूरी तरह से नकारने के लिए पुरोहित के प्रभुत्व वाले धर्म, धार्मिक व्यवस्था, रस्मों, रीति-रिवाज़ों और अनुष्ठानों को ही नहीं, उनसे सम्बद्ध भाषा अर्थात संस्कृत को नकार कर पाली-प्राकृत-अपभ्रंश वाली परंपरा को समृद्ध करते हुए स्थानीय बोलियों को ही सशक्त करना शुरू किया या उस प्रक्रिया को और सशक्त व गतिशील किया! इस प्रकार वे उत्तर भारत में भक्ति-आन्दोलन के उदय के लिए आवश्यक, अनुकूल एवं उपयुक्त परिवेश निर्मित कर रहे थे! अपने समाजार्थिक अनुदान के उपरान्त अब वे सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान की पृष्ठभूमि तैयार कर गए! आगे चल कर, भक्ति-आन्दोलन ने इस प्रक्रिया को और सशक्त किया दोनों ही एक-दुसरे के पूरक ही थे! इसी लिए उत्तर भारत में भक्ति-सूफी आंदोलनों के साथ अनेक पंथों का उद्भव संभव व सहज हो सका! 
इसी सामाजिक परिवर्तन के दौर में एक बात और रेखांकित करने लायक है. यह सामाजिक क्रान्ति शांतिपूर्ण थी, न कोई टकराव न संघर्ष! शांति से ही परिवर्तन भारतीय परंपरा का ही अनुपालन किया! भारतीय परंपरा की सबसे बड़ी विशेषता ही है, सातत्य के साथ शांतिपूर्ण परिवर्तन. इसी लिए प्रारम्भिक मार्क्सवादियों सहित अनेक पाश्चात विद्वानों ने भारतीय समाज को अपरिवर्तनीय/ अपरिवर्तनशील या स्टेटिक घोषित किया था. यह तो सय्यद नुरुल हसन, सतीश चन्द्र, बी.एन.एस.यादव, रोमिला थापर आदि के आधुनिक शोधों ने स्थापित कर दिया कि भारतीय समाज सदा परिवर्तनशील और संक्रमणशील था! किन्तु यह परिवर्तन सातत्य के साथ होता था, अतः वे प्राचीन भारतीय आदर्शों के अनुसार ही शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पक्षधर थे! 
                        
इसी आलोक में हम पाते हैं कि, स्थानीय बोलियों का विकास अब उत्तर भारत में भक्ति के चलते और गतिवान होता है. इन विचारकों, संतों को अपनी बात जन-जन तक प्रचारित करने के लिए उनसे संवाद बनाने के लिए स्थानीय बोलियों का सहारा लेना पड़ा! किन्तु, सामंतवाद के फलस्वरूप पृथक राजनीतिक इकाईयों में विभक्त यह पूरा भू-भाग वस्तुतः एक ही सामाजिक. सांस्कृतिक, आर्थिक थाती की संवाहक थी अतः वे पुनः एक नयी सी भाषा को जन्म देने की पृष्ठभूमि तैयार करने लगे! यही भाषा स्थानीय, अवधी, बुन्देलखंडी, मैथिली, भोजपुरी, ब्रज-भाषा के संगम से उबरने को थी. तभी इसमें एक बार तुर्की सत्ता की स्थापना के साथ पुनः एशियाई भाषाओं का एक और तड़का या छौंक लगा जिसने इस भाषा को न केवल एक नया रूप प्रदान किया अपितु नया नामकरण, हिन्दवी भी प्रदान किया! इस पूरे विकास-क्रम को सुल्तनत-कालीन राजनीतिक-प्रशासनिक एकता ने इस भाषा के विकास को सुदृढ़ता प्रदान की और फिर मुग़ल काल में तो यह फलने-फूलने लगी और अकबर-कालीन कवियों में इस भाषा के कवियों का भी बहुत सम्मान होने लगा था, जैसा, अरबी-फ़ारसी-तुर्की-संस्कृत कवियों का था! उन्हें भी समान रूप से ही राजाश्रय प्रदान किया गया और यह क्रम न केवल उत्तरोत्तर विकसित ही हुआ, अपितु और अधिक संपन्न व समृद्ध ही हुआ!
जैसा हम शुरू से कह रहे हैं, इस भाषा का विकास ही उत्तरापथ और दक्षिणापथ के व्यापार मार्ग के चलते और व्यवसायिक विनमय के कारण और समृद्ध हुआ था, उसी क्रम में अलाउद्दीन खल्जी के शासन काल के बाद उत्तर-दक्खन-दक्षिण के एकीकरण के चलते और सशक्त हुआ! उसी प्रकार इस काल में भी इस राजनीतिक-प्रशासनिक-आर्थिक एकीकरण ने दक्खन में रेख़ता को जन्म दिया, जो वस्तुतः हिन्दवी का दक्खिनी स्वरुप या संबोधन ही था दोनों की विरासत एक सी ही थी! और इसी लिए, उत्तर-दक्खन-दक्षिण को एक सूत्र में ये भाषा बांधे रही! रही-बची कसार सूफी-भक्ति आंदोलनों के संतों, भक्तों, मतों-सम्प्रदायों के प्रचारकों ने पूरी कर दी और हिंदी के विकास की भूमिका और परिवेश अब तैयार हो चुका था! जिस भाषा को हम आधुनिक हिंदी संबोधित करते हैं, उसके विकास-क्रम की  इस पूरी प्रक्रिया को समझने के बाद आईये उसके एक साक्ष्य या प्रमाण पर भी दृष्टि डाल ली जाए? यह प्रकरण चंदेल शासक विद्याधर और उसके राज्य पर गज़नी के महमूद से संबद्ध है!
महमूद ग़ज़नी ने १०१९ में बुन्देल शासक, विद्याधर की राजधानी खुजराहो पर धावा बोला. किन्तु, वह दुर्ग भेदने में असफल रहा और एक संधि कर के संतुष्ट हो कर वापस लौटा. किन्तु, उसके मन में यह फाँस धंसी रह गयी और उसने पुनः तीन वर्ष पश्चात १०२२ में विद्याधर के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. विद्याधर ने कालिंजर के दुर्ग को अभेद्य बना कर वहीं सफलतापूर्वक इस दुर्दांत आक्रमणकारी का प्रतिरोध करने का निश्चय किया! दोनों को ही समझ आने लगा था कि यह युद्ध भी निर्णायक नहीं हो सकता! इतनी लम्बी चली घेरेबंदी से दिक्कत तो होनी तो स्वाभाविक ही थी. दुर्गवासियों के साथ-साथ पूर्ण राज्य के ऊपर ही संकट के बादल मंडरा रहे थे. और अनिश्चित काल के लिए दुर्ग को आपूर्ति-संकट से भी नहीं बचाया जा सकता था. अतः व्यवहारिक समझदारी दिखाते हुए, विद्याधर ने महमूद ग़ज़नी के पास पद्यात्मक हिंदी में एक संधि-प्रस्ताव लिख भेजा. इस काव्यात्मक आवेदन, जिसे महमूद का आधिकारिक  इतिहासकार, लुघ्हत-ऐ-हिन्दुवी में लिखा हुआ बताता है. अबू सईद अब्दुल हय बिन अद-दहक बिन मोहम्मद गर्देज़ी ने किताब-ज़ैनुल-अखबार (जो १०४९ में पूर्ण हुयी). वह लिखता है कि, आम हिन्दुस्तानियों की भाषा में लिखी गयीं ये पंक्तियाँ महमूद अपने शिविर के कवियों व विद्वानों को दिखता है. तत्पश्चात अपने उत्तर में वह उसके द्वारा रचित पद्यात्मक पंक्तियों की प्रशंसा भी करता है! इससे स्पष्ट हो जाता है, कि, भाषा अवरोध नहीं अपितु संवाद का माध्यम बन रहा था! यह तभी संभव था जब हम ऊपर वर्णित इति-क्रम को तार्किक ढंग से समझें हों?
इस पूरे प्रकरण से दो बातें स्पष्ट हो जातीं हैं. एक, कि महमूद की सेनाओं में ऐसे विद्वान् मौजूद थे, जो इस संपर्क भाषा से भली-भांति परिचित थे. यानी यह भाषा व्यापार आदि के चलते एशिया के क्षेत्रों तक तो विस्तृत हो चुकी थी! दूसरी बात, यदि बुन्देली भाषा में १०२२ में सुन्दर पद्य की रचना हो रही है तो स्पष्टतः ही यह भषा के परिपक्व काल का ध्योतक ही है. यह भाषा अनेक शताब्दियों से फल-फूल रही होगी, जो अब सांस्कृतिक व भाषिक परिपक्वता के दौर में साहित्य और उसमे भी कविता की भाह्सा बन चुकी थी? मध्यकालीन इतिहासकार फ़रिश्ता हमें इस प्रकरण का वर्णन करते हुए बताता है कि, महमूद ने विद्याधर द्वारा संप्रेषित पद्यात्मक पंक्तियाँ अपने शिविर में उपस्थित अरब, फारस, एवं अन्य देशों के विद्वानों को दिखाई/पढवाई थी. यानि इन तमाम देशों के विद्वान लोग हमारी भाषा से अभिज्ञ ही नहीं निष्णात थे! इसी लिए गज़नी राज्य के महमूद के उत्तराधिकारियों के काल में भी इस भाषा को उसके राज्य में राजाश्रय प्राप्त रहा! उसके पौत्र, इब्राहिम के दरबार में मसूद बिन साद (मृत्यु, ११२१ या ११३०) नामक कवि था, जिसके दीवान में अरबी, फ़ारसी और हिन्दुवी भाषा के पद्यों का संकलन है! इस दीवान की भूरि-भूरि प्रशंसा स्वयं अमीर खुसरो (१२५३-१३२५) ने की है. हम तो यह भी कह सकते हैं कि, कवि मसूद की परम्परा को ही अमीर खुसरो ने बढाया और समृद्ध किया. निश्चित ही मसूद के काल के डेढ़ सौ वर्ष बाद यह संपर्क भाषा जिसे वे विदेशी लुग्घत-ऐ-हिन्दुवी या हिन्दवी कह रहे थे, विभिन्न भाषाओँ के विनमय से और सशक्त ही हुयी होगी, जिसे फिर अमीर खुसरो जैसा फ़नकार मिला! अपने गुरु, निज़ाम-उद्दीन औलिया की मृत्यु पर उसके प्रसिद्द उदगार की पंक्तियाँ, गोरी सोवे सेज पर मुख पर डाले केश/ चल खुसरो घर आपने अब रेन भाई चहुँ देश, अपने-आप में इस बात का ध्योतक है कि, ह्रदय-स्पर्शी वेदना और भावना की अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार सबसे सशक्त और दिल के नज़दीक भाषा के माध्यम से करता है! निश्चित ही हम कह सकते हैं कि, अमीर खुसरो के काल तक हिंदी अपना स्थान अर्जित कर चुकी थी!
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