रेखा चमोली की कविताएँ


प्रेम मानवीय दुनिया की सबसे अनूठी अनुभूति है. प्रेम हमें बराबरी के धरातल पर खड़ा कर देता है. वहाँ न तो किसी किस्म की अहमन्यता होती है न ही किसी तरह का संशय. प्रेम का धरातल विश्वास से ही तैयार होता है. रेखा चमोली के यहाँ प्रेम का अर्थ विस्तीर्ण है जिसमें पूरी मानवता के प्रति प्रेम की प्रतिबद्धता है. अपनी कविता ‘यूँ ही करती रहूँ तुमसे प्रेम’ में रेखा लिखती हैं – ‘तुम्हें हाथ बंटाना होगा उन कामों में/ जिन्हें तुम छोड़ते आए हो/ किसी और की जिम्मेदारी समझ/ ध्यान से देखने समझने होंगे वे छोटे-बड़े काम/ जो हमारा जीवन जीने योग्य बनाते हैं/ उन्हें करने वाले हाथों का करना होगा सम्मान/ उनके श्रम का चुकाना होगा उचित मूल्य’. आज रेखा चमोली का जन्मदिन है. उन्हें जन्म की शुभकामनाएँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ नवीनतम कविताएँ.
   
रेखा चमोली की कविताएँ 
यूँ ही करती रहूँ तुमसे प्रेम
अगर तुम चाहते हो
मैं हमेशा यूँ ही करती रहूँ तुमसे प्रेम
तों तुम्हें
रोज खुद को संवारना होगा
अपनी कमियों पर निरंतर रखनी होगी नजर
उन्हें ठीक करने की करनी होगी कोशिश
और देखना होगा
कहीं तुम्हारी आदतें
तुम्हारे आसपास रहने वालों के लिए
असुविधा और खीझ का कारण तो नहीं
तुम्हें हाथ बंटाना होगा उन कामों में
जिन्हें तुम छोड़ते आए हो
किसी और की जिम्मेदारी समझ
ध्यान से देखने समझने होंगे वे छोटे-बड़े काम
जो हमारा जीवन जीने योग्य बनाते हैं
उन्हें करने वाले हाथों का करना होगा सम्मान
उनके श्रम का चुकाना होगा उचित मूल्य
अपना काम निकालने के लिए
थोड़ी बहुत चापलूसी भले ही कर लो दूसरों की
क्योंकि मूर्खों से भरी पड़ी है ये दुनिया
पर गलत को गलत ही कहना होगा
सही का साथ देने को होना होगा तत्पर
जब मुझे तुम्हारी जरूरत हो
तुम ना आ पाओ मेरे पास तो चलेगा
पर अपना कोई दुख गुस्सा मुझसे ना छुपाओ
हम एक दूसरे की सारी बातें जानें
पर जब कोई रहना चाहे चुप
तो उसे
भीगने दें अवसाद की खामोशी में
और जब वह
अपनी चुप्पियों की पंखुडियां खोल रहा हो
अपने हृदय की गहराई में समेट लें उसे
तुम्हारी खुशी में मैं शामिल रहूँ
मेरी खुशी तुम्हारे साथ कई गुना बढ जाए
हम साथ-साथ सीखें
आगे बढ़ें
हारें-जीतें
जिंदगी की छोटी-बडी बाजियां
उम्र के साथ कुछ चीजें धूमिल हो जाएंगी
पर मैं चाहती हूँ
जब भी तुम्हें याद करूं
मेरा हृदय भर उठे गर्व से
मेरा रोम-रोम प्रेम से उपजी आभा से दीप्त हो
आँखों में तरलता हो
तुम्हारी बातें करते हुए मैं खिल उठूँ
और मेरे बच्चे मुझसे कहें
हाँ माँ! वो तो है ही प्रेम करने लायक
उससे कौन न प्रेम करे।
सहेलियां
सामने से आती दिखती वह
चुस्त जींस कुरते में स्ट्राल डाले
दूर से ही किसी को देख कर मुस्कुराती है
पास आ कर कस कर गले लगाती है
हाथ से छूटने को होते हैं
जरूरतों से भरे भारी थैले
एक जोरदार हँसी से महक जाती है सडक
चौंक जाती हैं कई जोडी आँखें
इनकी परवाह किए बिना
सडक किनारे खडी हो कर बातें करती हैं दोनों
पूछती हैं एक दूसरे का सुख-दुख
ताने देती हैं फोन न करने के
एक दूसरे का खालीपन, बेबसी सब भांप जाती हैं
हाथ थामे-थामे
और फिर चल देती हैं
अपनी-अपनी दिशा
सड़क की थकान इस बीच कुछ घट जाती है।
निर्वासन
सबसे पहले मेरी हँसी गुम हुई
जो तुम्हें बहुत प्रिय थी
तुम्हें पता भी न चला
फिर मेरा चेहरा मुरझाने लगा
रंग फीका पड़ गया
तुमने परवाह न की
मेरे हाथ खुरदुरे होते गए दिन प्रतिदिन
तुम्हें कुछ महसूस न हुआ
मेरा चुस्त मजबूत शरीर पीडा से भर गया
तुम्हें समय नहीं था एक पल का भी
मैंने शिकायतें की, रूठी, चिढ़ी
तुमने कहा नाटक करती है
मेरी व्यस्तताएं बढती गयीं
तुम्हारी तटस्थता के साथ
अब मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं
कोई दुख या परेशानी नहीं
पर इस बीच तुम
मेरे मन से निर्वासित हो गए।
 
माँ के बिना
गलती मेरी ही थी
हर बार कि तरह इस बार भी भूल गया
इन्तजार कर रही होगी माँ
क्या करूं
ज्यों ज्यों ढलती है शाम
खेल में और मजा आने लगता है
छज्जे पर दिखी जब उसकी धुंधली आकृति
तब आया ध्यान
बताया था उसने
हो जाए जरा सी देर मुझे तो
जाने क्या-क्या बुरी बातें उसके मन में आने लगती हैं
अबोली रही माँ पूरी शाम
खाना भी रहा बेस्वाद
सोते समय
मुझे सोया जान
मेरी ओर करवट ले
मेरी ढकेण ठीक करती है
मेरे माथे पर फिराती है हाथ
मैं भी नींद का बहाना कर
अपनी बाँह उसकी कमर में लपेट लेता हॅू
माँ के बिना नींद कहाँ आती है।
(इस पोस्ट के साथ प्रयुक्त किए गए पोस्टर कवि-चित्रकार कुँवर रवीन्द्र के हैं.)
सम्पर्क-

जोशियाडा, उत्तरकाशी
उत्तराखण्ड 249193
        

मोबाईल- 9411576387

रेखा चमोली की कविताएँ

रेखा चमोली एक सजग कवियित्री हैं. सहज भाषा में वे अपने आस-पास की घटनाओं को कविता में ढाल लेती हैं. उनके पास विषयों की कमी नहीं है.  छोटी-छोटी चीजें, आसपास की चीजें और परिवेश उन्हें आकृष्ट करते हैं और वे सहज रूप से उनकी कविता में आ जाते हैं.  और यही रेखा की विशिष्टता है. बेहद निराशाजनक माहौल में भी वे आवाज में उत्सव तलाश लेती हैं. उनकी कविताओं में यह स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. रेखा को पता है, उन्हीं की पंक्तियाँ उधार ले कर कहें तो ‘जिन्होंने चुरा ली /मेरे हिस्से की सारी धूप, सारी जमीन/ और मुझे अपनी गलियों में चलने लायक भी नहीं छोडा/ सब कुछ जानते हुए भी /कुछ न कर पाना / कितनी पीडा देता है.’ वाकई यह स्थिति त्रासद होती है. रेखा इस स्थिति को अपने कविताओं में वर्णित करने से नहीं चूकती बल्कि साफ़-सफ्फाक लहजे में यह सब कह डालती हैं. प्रस्तुत है रेखा चमोली की कुछ इसी अंदाज वाली नयी कविताएँ.
        
रेखा चमोली

उसकी आवाज एक उत्सव है
                                             

सुबह की हड़बड़ी में
एक कप चाय जैसी उसकी आवाज
थकी दोपहरी में
हौले से दरवाजा खोल
हालचाल पूछती
कभी कभार
सोते हुए थपथपाती
जहॉ-जहॉ नहीं होता वो साथ मेरे
होती उसकी आवाज
खुशी में चहकती
उत्साह में खनकती
दुख और उदासी में बेचैन होती
नाराजगी में लुडकती हुई सी
कैसे भी करके
मुझ तक पहुॅच ही जाती
जब कुछ नहीं सुन पाती मैं
सुन पाती हूॅ
उसकी आवाज
उसकी आवाज पहचानते हैं
मेरे कपडे, बर्तन, घर, किताबें, रास्ते
मेरे जबाब न देने पर
बतियाने लगते हैं उससे
उसे क्या पता
एक उसकी आवाज के सहारे ही
चल रही है सारी दुनिया।

काला चश्मा 
इतनी सर्दी में
शरीर उस गेंद की तरह हो गया है
जिसे गुम हो जाने पर
छोड आते हैं बच्चे
मैदान में ही
सुबह धूप पडने पर
बूॅद-बूॅद टपकती है
रात भर जमी ठंड
गेंद सा बना मेरा शरीर
जोर की अंगडाई लेना चाहता है
मुझे नहीं चाहिये
थोडी सी धूप
थोडी सी जमीन
मुझे मेरे हिस्से का पूरा चाहिए
मुझे नहीं पता कैसे मिलेगा
पर मैं जानती हॅू
मेरे घुटने पेट में धॅसने के लिए नहीं बने
मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानती हॅू
जिन्होंने चुरा ली
मेरे हिस्से की सारी धूप, सारी जमीन
और मुझे अपनी गलियों में चलने लायक भी नहीं छोडा
सब कुछ जानते हुए भी
कुछ न कर पाना
कितनी पीडा देता है
मेरा हिस्सा चुराने वाले भी इस बात को जानते हैं
इसीलिए
देखते ही मुझे दूर से
पहन लेते हैं काला चश्मा
सोचती हूॅ
सोते हुए तो चश्मा उतारना ही पडता है
तब क्या इन्हें नींद आ पाती होगी ?

सीखने के दरवाजे
 

रोज किसी न किसी सवाल का हाथ पकड
घर लौटता है मेरा बेटा
कभी ये दुनिया
सुंदर पंखुडियों की तरह खुलती उसके सामने
तो कभी हो जाती
अंधेरे सी धोकेबाज
कभी दूर से फेंके
कूडे की थैली सी फट से खुलती
वो डर और विस्मय से घिर जाता

कभी उत्तेजित करती उसे
लहरों पर चलने
अंतरिक्ष में गोता लगाने को

किताबों की व्यवस्थित दुनिया से फिसलकर
गलियों मुहल्लों में घूमती, रंग बदलती बातें
अपनी सहुलियत के हिसाब से उसे
बडा या छोटा कर देते लोग

मेरे लाख खीजने डॉटने पर भी
नहीं भूलता वो सवाल करना
बडे लोग सवाल नहीं करते
कई बार वे सवाल करने लायक भी नहीं बचते
बच्चों के मन में उठते रहें सवाल
खुले रहें सीखने सिखाने के दरवाजे।
     

गणेशपुर की स्त्रियॉ
 

इन दिनों इन्हें खेतों में होना चाहिए था
बिजाड़ की गुडाई करते
मेड. बनाते
खरपतवार उखाडते
रोपाई की तैयारी में
इन सबसे व्यस्त दिनों में
पुष्पा दी की एक आवाज पर
दौडी चली आती हैं सब
गॉव का हर घर यथा सार्मथ्य मदद करता है
सडक किनारे सुलगाती हैं चूल्हा
कुशल हाथ गूंथते हैं आटा
फटाफट सिंकती हैं रोटियां
आलू प्याज की रसदार सब्जी 
कभी पूरी, कभी खिचडी
स्वाद भूख में था
मिठास बनाने वालियों के हाथों में
चुपचाप सुन लेती हैं
थके हारे यात्रियों की आपबीती
सप्रेम खिलाती हैं जो बन पडा
उनका बैग उठाए जाती हैं दूर तक छोडने
बदले में पाती हैं आशीष
धमकाती हैं बदमाश ड्राइवरों ,खच्चर वालों को
मन तो बहुतों का किया होगा
पर सब काम छोड
मुसीबत में फंसे लोगों के लिए
सडक पर चूल्हा जलाने का साहस
हर किसी के बस की बात नहीं
अजब गजब हैं गणेशपुर की स्त्रियां
अजब गजब है उनकी पुष्पा दी।


(इस वर्ष 16-17 जून को उत्तराखंड में आयी भयंकर आपदा के दौरान उत्तरकाशी के गणेशपुर की स्त्रियों ने 8-10 दिनों तक वहॉ से गुजरने वाले यात्रियों को भोजन कराया व अन्य मदद की)

प्रकृति बिना मनुष्य
 

नदी तब भी थी
जब कोई उसे नदी कहने वाला न था
पहाड तब भी थे
हिमालय भले ही इतना ऊॅचा न रहा हो
ना हों समुद्र में इतने जीव

नदी पहाड  हिमालय समुद्र
तब भी रहेंगे
जब नहीं रहेंगे इन्हें पुकारने वाले
इन पर गीत लिखने वाले
इनसे रोटी उगाने वाले

नदी, पहाड़, हिमालय, समुद्र
मनुष्य के बिना भी
नदी, पहाड, हिमालय, समुद्र हैं
इनके बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं।
 

बड़ी होती बेटी
 

मॉ कहना चाहती है
खूब खेलो कूदो दौडो भागो
पर मॉ कहती है
गली में मत जाना
रात हाने से पहले लौट आना

मॉ कहना चाहती है
खूब हॅसो खिलखिलाओ
खुश रहो, मस्त रहो
पर मॉ कहती है
लडकियों को इतनी जोर से नहीं हॅसना चाहिए
राह चलते ज्यादा बातें नहीं करनी चाहिए

मॉ कहना चाहती है
कोई बात नहीं
एक बार और कोशिश करो
गलतियॉ सीखने की सीढियॉ हैं
पर मॉ कहती है
क्या होगा तेरा
एक भी काम ठीक से नहीं कर सकती
और बॉह खींचकर चाय के बर्तन धोने भेजती है

मॉ कहना चाहती है
कितनी प्यारी लग रही हो
इसे, इस तरह से पहनो
ऐसे नहीं, ऐसे करो
प्यार से माथा चूमना चाहती है
पर मॉ कहती है
ये बन ठन के कहॉ जा रही हो
फैशनेबल लडकियों को अच्छा नहीं माना जाता
ये सब अपने घर जा के करना।

           
मोरी

‘‘दो सौ रूपये से
एक रूपये भी कम-ज्यादा नहीं’’
कहा उसने
वह सोलह-सत्रह वर्ष की लड़की
जिसे अपलक देखा जा सके
शताब्दियों तक
लेना है कि नहीं?
कांसे की थाली सी बजी उसकी हँसी

दो सौ रूपये के सौ अखरोट रखकर
और 15-20 दाने डाल दिए उसने
घर पर लेने आए हो तो
हमारी ओर से बच्चों के लिए

लौटते समय
नदी के विस्तृत पाट देखकर
सोचती हूँ
इन्हीं की तरह हैं
यहाँ की लड़कियां
सुन्दर जीवंत स्वनिर्मित।

(मोरी, उत्तरकाशी जिले का दूरस्थ, बेहद दुर्गम ब्लॉक)


मिठास

बहुत कुछ बताया उसने
कल गाँव में हुए
थौलू के बारे में
कैसे देवता औतारे
रासौ करने में कौन थी सबसे आगे
किसके घर आए कितने मेहमान
चूड़ी-बिन्दी, खिलौने-चर्खी, खाना खिलाना
पर जो चमक
दस रूपये के दो आमों
के बारे में बताते हुए
उसकी आंखों में थी
उसकी मिठास के आगे
सब फीका पड़ गया।

(थौलू-स्थानीय मेला, रासौ-पहाड़ी सामूहिक नृत्य)

नदी का उड़ना

एक नदी
उड़ी उड़ी उड़ी
उसके साथ उड़े
मछलियां, घोंघे, सांप, कछुए, कमल, मगरमच्छ

नदी को उड़ता देख
चिड़ियाएं चौंकी
बादल मुस्कुराए
इन्द्रधनुष ठिठका
सूरज चमका………और तेज

नदी देर……….शाम लौटी
थकी-थकी नदी
रात भर चुपचाप बहती रही
सुबह के अखबार में
नदी के उड़ने की खबर पढ़कर
हुए सब हैरान।

ड्राइवर
 

मत चलाओ
इतनी तेज गाड़ी
ये पहाड़ी रास्ते
गहरी घाटियों में बहती तेज नदी
जंगल जले हुए
लुढ़क सकता कोई पत्थर
जला पेड़
मोड़ पर अचानक

तेज बरसात से
बारूदी बिस्फोटों से
चोटिल हैं पहाड़
संभल कर चलो
गाड-गदने अपना
पूरा दम खम दिखा रहे

ड्राइवर
मत बिठाओ
इतनी सवारी
शराब पीकर गाड़ी मत चलाओ
फोन पर बात फिर कर लेना

कुछ दिन पहले
देखा तुम्हें
कॉलेज आते-जाते
कहाँ सीखी ये हवा से बातें करना?

ऐसा भी क्या रोमांच?
जो गैरजिम्मेदार बना दे

मेरे घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं
तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं?


आओ बातें करें

सबके पास होंगे मोबाइल
खूब बातें होंगी
प्रीपेड
पोस्टपेड

आस-पास के दस घरों में
चूल्हा नहीं जला
जानकर मिट जाएगी भूख
बहुत लोग हैं
जो घुटने पेट में घुसा सोए है
जानकर
थम जाएगी ठंड

राजकुमार भी नहीं गया
दस दिनों से स्कूल
सुनकर
आंसू पोंछ लेगा
रोता सचिन
नाते-रिश्तेदारों की कुशल

पहुंचेगी मिनटों में

वे सबको अपनी बात कहने का
अवसर देना चाहते हैं।

पीढ़ी दर पीढ़ी

इतने वर्षों के साथ में
कभी ख्याल भी न आया
जब देखी कोई सिकुड़न कहीं
खुल कर बात की सबसे प्रेम से
डरा धमकाकर
सुधारा
जो भी बिगड़ता दिखा आसपास
फिर भी
कहां चूक हो गयी जो
उसका विश्वास डगमगाया
नहीं बुलाया
अपने भाई की शादी में
गुपचुप किया सब
फिर नहीं आया कई दिन स्कूल
इस तरह
एक और पीढ़ी पुख्ता हुई जाति।

 
सम्पर्क-

रेखा चमाली
जोशियाडा, उत्तरकाशी
उत्तराखण्ड 249193
        

मोबाईल- 9411576387

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं) 

रेखा चमोली

रेखा चमोली

रेखा चमोली का जन्म 8 नवम्बर, 1979 उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में हुआ। रेखा ने प्राथमिक से ले कर उच्चशिक्षा उत्तरकाशी में ही ग्रहण की। इसके बाद इन्होंने बी. एस-सी. एवम एम. ए. किया।

वागर्थ, बया, नया ज्ञानोदय, कथन, कृतिओर, समकालीन सूत्र, सर्वनाम,  उत्तरा,  लोकगंगा आदि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।

साथ ही राज्य स्तरीय पाठ्यपुस्तक निर्माण में लेखन व संपादन। शिक्षा संबंधी अनेक कार्यशालाओं में सक्रिय भागीदारी । कक्षा शिक्षण में रोचकता ,रचनात्मकता, समूह कार्य व नवाचार हेतु सदैव प्रयासरत।

सम्प्रति- अध्यापन

रेखा चमोली उन रचनाकारों में से हैं जो अपनी और अपनी संस्कृति की अहमियत बखूबी जानती पहचानती हैं. यही एक बेहतर कवि की खूबी होती है. उन्हें मालूम है कि पढ़ी लिखी नहीं होने के बावजूद स्त्रियाँ ही संस्कृति की वाहक हैं. आज की स्त्रियाँ ‘आँचल में दूध और आँखों में पानी’ वाली स्त्रियाँ भर नहीं हैं बल्कि विश्वास के साथ यह कहने वाली स्त्रियाँ है कि- ‘हम पहाड़ की महिलाएं हैं/ पहाड़ की ही तरह मजबूत और नाजुक/ हम नदियां हैं/नसें हैं हम इस धरती की’. मुझे रेखा कि कविताएं पढ़ते हुए कई बार थेरीगाथा की भिक्षुणियों कि कविताओं की याद आयी. ‘एक चिट्ठी पिता के नाम’ कविता में रेखा जब यह कहती हैं कि- ‘मुझे लेकर क्यों नहीं उठाते /गर्व से अपना सिर /क्यों हो जाते हो /जरूरत से ज्यादा विनम्र’ तो वे एक तरह से हमारे आज के पितृसत्तात्मक समाज के चरित्र एवम मानसिकता को ही उजागर कर रहीं होती हैं।

सम्पर्कः निकट ऋषिराम शिक्षण संस्थान
              जोशियाड़ा
              उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड-249193


फोन:  9411576387

आओ हमारे साथ

हम पहाड़ की महिलाएं हैं
पहाड़ की ही तरह मजबूत और नाजुक
हम नदियां हैं
नसें हैं हम इस धरती की
हम हरियाली हैं
जंगल हैं
चरागाह हैं हम
हम ध्वनियां हैं
हमने थामा है पहाड़ को अपनी हथेलियों पर
अपनी पीठ पर ढोया है इसे पीढ़ी दर पीढ़ी
इसके सीने को चीर कर निकाली है ठंडी मीठी धारायें
हमारे कदमों की थाप पहचानता है ये
तभी तो रास्ता देता है अपने सीने पर
हमने चेहरे की रौनक
बिछाई है इसके खेतों में
हमी से बचे हैं लोकगीत
पढ़ी लिखी नहीं हैं तो क्या
संस्कृति की वाहक हैं हम

ओ कवि मत लिखो हम पर
कोई प्रेम कविता
खुदेड़ गीत
मैतियों को याद करती चिट्ठियां
ये सब सुलगती हुई लकड़ियों की तरह
धीमे-धीमे जलाती हैं
हमारे हाथों में थमाओ कलमें
पकड़ाओ मशालें
आओ हमारे साथ
हम बनेंगे क्रांति की वाहक
हमारी ओर दया से नहीं
बराबरी और सम्मान से देखो ।

 आदम भेडिये

आ जाओ
क्या चाहिए तुम्हें ?
निचोड लो एक-एक बूंद
हडिडयों में मांस का एक रेशा भी न रहे
तुम्हें भेडिया कहें ?
ना ना भेडिया तुम्हारी तरह
मीठी -मीठी बातें नहीं करता
अपनी आँखों में झूठ-मूठ का प्रेम नहीं भरता
तुम आदम भेडिये
कभी ईश्वर बन कर
कभी दानव बन कर
कभी सखा बन कर
तो कभी प्रेमी का रूप धरे आते हो
तुम्हारे नुकीले दाँत
आत्मा तक घुस कर
सारी जिजिविषा चूस ले जाते हैं
मांस खाने से पहले
मन को चबाने वाले आदम भेडिये
अपनी सारी शक्ति लगा कर
तुम्हारे ऊपर थूकती हैं हम
ये जानते हुए भी कि
इसका   उपयोग भी तुम
अपने दाँत घिसने में ही करोगे।

 एक चिट्ठी पिता के नाम

पिता ! मेरे जन्म की खबर सुनाती
दाई के आगे जुड़े हाथ
क्यों हैं अब तक
जुड़े के जुड़े

मुझे लेकर क्यों नहीं उठाते
गर्व से अपना सिर
क्यों हो जाते हो
जरूरत से ज्यादा विनम्र

एक तनाव की पर्त गहरी होती
देखी है मैंने
तुम्हारे चेहरे पर
जैसे जैसे मैं होती गयी बड़ी
जिसने ढक ली
मेरी छोटी-छोटी सफलताओं की चमक

मुझे सिखाया गया हमेशा
झुकना विनयशील होना
जिस तरह बासमती की बालियां
होती हैं झुकी-झुकी
और कोदा झंगोरा सिर ताने
खड़ा रहता है
याद दिलाया गया बार-बार
लाज प्रेम दया क्षमा त्याग
स्त्री के गहने हैं
जिनके बिना है स्त्री अधूरी

तुम चाहते थे मैं रहूं
हर परिस्थति में
आज्ञाकारी कर्तव्यनिष्ठ
परिवार और समाज के प्रति
अपने ऊपर होते हर अन्याय को
सिर झुका कर सहन करती रहॅू
सबकी खुशी में
अपनी खुशी समझॅू
और मैं ऐसी रही भी
जब तक समझ न पायी
दुनियादारी के समीकरण

पर अब मैं
साहस भर चुकी हूं
सहमति व असहमति का
चुनौतियां स्वीकार है मुझे
मेरी उन गलतियों के लिए
बार-बार क्षमा मत मांगो
जो मैंने कभी की ही नही

पिता
मुझ पर विश्वास करो
मुझे मेरे पंख दो
मैं सुरक्षित उड़ूंगी
दूर    क्षितिज     तक
देखूँगी नीला विशाल सागर
भरूंगी अपनी सांसो में
स्वच्छ ठंडी हवा
पिता तुम्हीं हो
जो मेरी ऊर्जा बन सकते हो
मुझे मेरी छोटी छोटी
खुशियां हासिल करने से
रोको मत।

बस एक दिन

नहीं बनना मुझे समझदार
नहीं जगना सबसे पहले
मुझे तो बस एक दिन
अलसाई सी उठकर
एक लम्ऽऽबी सी अंगड़ाई लेनी है
देर तक चाय की चुस्कियों के साथ देखना है
पहाड़ी पर उगे सूरज को
सुबह की ठंडी फिर गुनगुनी होती हवा को
उतारना है भीतर तक
एक दिन
बस एक दिन
नहीं करना झाड़ू-पोंछा, कपड़े-बर्तन
कुछ भी नहीं
पड़ी रहें  चीजें यूं ही उलट पुलट
गैस पर उबली चाय
फैली ही रह जाये
फर्श  पर बिखरे जूते-चप्पलों के बीच
जगह बनाकर चलना पड़े
बच्चों के खिलौने, किताबें फैली रहे घर भर में
उनके कुतरे खाये अधखाये
फल, कुरकुरे, बिस्किट
देख कर खीजूं नहीं जरा भी
बिस्तर पर पड़ी रहें कम्बलें, रजाइयां
साबुन गलता रहे, लाईट जलती रहे
तौलिये गीले ही पड़े रहें कुर्सियों पर
खाना मुझे नहीं बनाना
जिसका जो मन है बना लो, खा लो
गुस्साओ, झुंझलाओ, चिल्लाओ मुझ पर
जितनी मर्जी करते रहो मेरी बुराई
मैं तो एक दिन के लिए
ये सब छोड़
अपनी मनपसंद किताब के साथ
कमरे में बंद हो जाना चाहती हूं।

 नींद चोर

बहुत थक जाने के बाद
गहरी नींद में सोया है
एक आदमी
अपनी सारी कुंठाएं
शंकाएं
अपनी कमजारियों पर
कोई बात न सुनने की जिद के साथ
अपने को संतुष्ठ कर लेने की तमाम कोशिशों के बाद
थक कर चूर
सो गया है एक आदमी
अपने बिल्कुल बगल में सोई
औरत की नींद को चुराता हुआ।

इसीलिए

देखो हॅस न देना ज्यादा जोर से
चार जनों के बीच में
तुम्हारी हॅसी वैसी ही कितनी प्यारी है
देर तक बतियाना ठीक नहीं किसी से भी
चाहे वो कितना ही भला क्यों न लग रहा हो तुम्हें
प्रेम कविताएं तो भूल से भी ना पढना
लोग मुस्कुराएंगे
एक दूसरे को इशारा करेंगे
मेरा नाम तुम्हारे नाम के साथ जोड कर
बातें बनाएंगे
कितनी बार कहा है तुम्हें
जिनमें कोई संभावना नहीं उनमें

अपनी ऊर्जा बरबाद मत किया करो
कई महत्तवपूर्ण काम अभी करने बाकि हैं तुम्हें
चाहता हूँ सूर्य की तरह चमको तुम
आसमान में
सारे लोग ग्रह नक्षत्रों की तरह
चक्कर लगाएं तुम्हारे
पर डरता हूँ
तुमसे प्यार भी तो कितना करता हूँ
बचा के रखना चाहता हूँ तुम्हें
इस दुनिया को प्रकाशित करने के लिए।

 और तुम

अक्सर

राशन की चीनी की तरह
हो जाती है तुम्हारी हॅसी
तिलमिला उठता हूँ तब
मुठिठयाँ भींच लेता हॅू
चुप्पी साध लेता हूँ
क्या करूं- क्या करूं की तर्ज पर
यहाँ-वहाँ बेवजह डोलता हूँ

तुम कहती हो !
कुछ नहीं, कुछ नहीं
सब ठीक हो जाएगा जल्द
इसी आस में बस जला-भुना रह जाता हूँ
कोई छू कर देखे मुझे तब
जल जाए
मैं चाह कर भी नहीं हटा पाता
उन कारणों को
जो तुम्हारी हॅसी पर
परमिट जारी कर देते हैं

और तुम
किसी कुशल कारीगर की तरह
दिन-रात जुटी रहती हो
जीवन बुनने में।

 मैं ही क्यूं

हर बार मैं ही क्यूं
बनूं धरती
और तुम आसमान
हर बार में ही क्यूं
बनूं मीरा
और तुम कृष्ण
हर बार मैं ही क्यूं
सबसे पहले उठ कर
सबसे बाद में सोऊ
हर बार मैं ही क्यूं
बदल डालूं खुद को
तुम्हारे लिए
हर बार मैं ही क्यूं ?

चिरांती

तीन मकानों के बीच
आंगन के कोने में उगे
बूढ़े, सूखे, विशाल तुन के पेड़ को
काटने के लिए
जरूरत है
अनुभवी चिरांती की
उसकी कुशल अंगुलियां
मजबूत पकड़
पैनी नजर
काट गिरायेंगी सावधानी से पेड़
किसी दीवार, घर या लोगों को
बिना नुकसान पहुंचाये
और यह भी कि
कोई टूटन या दरार
पेड़ की कीमत कम न कर दे

आदमी भले ही विवश हो
मशीन की तरह काम करने को
मशीन होने को
पर आदमी की जगह
लगभग भर चुकी मशीने
कहीं-कहीं हार भी जाती हैं।

 मॅुह पर उॅगलियाँ

ये वक्त है बेआवाजों का
हर वक्त की तरह ये भी
शक्ति और सत्ता की तरफ मुंह करके खड़ा है
कुछ मानक, कुछ आंकड़े, कुछ सीमायें
तय करके
ये वक्त बिखर जायेगा
समान रूप से यहां वहां
ठीक उसी तरह जैसे सर्दी या गर्मी
किसी की सुविधा-असुविधा देखकर नहीं आती
बरसातें टूटी छप्परों पर भी
उतनी ही तेजी से बरसती हैं।

ये घुसपैठिया वक्त
जबरन थमा देता है
अनचाही सौगातें
और तरसाता है
एक घूट जिंदगी को
मनमानी और चुप्पी के इस वक्त में
सवाल पूछने की इजाजत नहीं।