सर्वेन्द्र विक्रम के कविता संग्रह ‘दुःख की बन्दिशें’ पर विशाल श्रीवास्तव की समीक्षा


कवि सर्वेन्द्र विक्रम का हाल ही में एक महत्वपूर्ण कविता संग्रह दुःख की बन्दिशें’ प्रकाशित हुआ है इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है युवा कवि विशाल श्रीवास्तव ने तो आइए पढ़ते हैं विशाल श्रीवास्तव की यह समीक्षा ‘पीड़ा का मद्धिम बजता हुआ राग’ 

पीड़ा का मद्धिम बजता हुआ राग
 

विशाल श्रीवास्तव
‘‘नदी में बहता हुआ एक टुकड़ा चुन लो और अपनी निगाह से धारा में बहते हुए उस टुकड़े का पीछा करते रहो, उस पर अपनी नज़रें लगातार जमाए हुए, बिना धारा से आगे निकले। कविता इसी तरह से पढ़ी जानी चाहिए: एक पंक्ति की रफ्तार से।’’
(स्वर्ग वाचाल नहीं है: एक नोटबुक: वेरा पावलोवा)
एक दिन दिल्ली में समयके बाद दुःख की बन्दिशेंसर्वेन्द्र विक्रम का दूसरा कविता-संग्रह है। इसे पढ़ने से भी पहले जिस एक बात पर सबसे पहले ध्यान चला गया, वह यह कि सर्वेन्द्र विक्रम कम लिखने वाले कवियों में से हैं (और ऐसा लिख कर मैं कतई यह साबित नहीे करने जा रहा कि ज़्यादा लिखने वाले कवि खराब होते हैं, हाँ! यहाँ इस दो शब्द पहले के अर्द्धविराम के पहले एक और कोष्ठक और स्माइली भी चाहें तो पढ़ सकते हैं)। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे घोषित तौर पर किसी राजनीतिक मान्यता के भी कवि भी नहीं हैं। अब यह जो दूसरी बात है, इसके कारण सर्वेन्द्र विक्रम की कविताओं की समीक्षा का कोई रेडी रेकनरनहीं हो सकता, जो एक तरह से कवि के लिए तो अच्छी बात पर है, पर आलोचक के लिए समस्या का भी मामला है। एक ऐसे कवि की कविताओं को, जिसे अपनी सुविधानुसार किसी राजनैतिक विचार के खांचे में नहीं डाला जा सकता, समझना और विश्लेषित करना चुनौती भरा काम हो जाता है।
सबसे पहले तो एक पाठक के रूप में इस बात पर मन खुद को मथता रहा कि दुःख की बन्दिशेंही शीर्षक क्यों? फिर बन्दिश के शाब्दिक अर्थ से आगे उसकी सांगीतिक व्याख्या के बारे में सोचने पर याद आया कि बन्दिशें तो रागों को बचाने के लिए रची गयी थीं। इस संग्रह की रचनायें भी व्यक्तिगत और सामाजिक त्रासदियों से उपजे दुःख की स्मृतियों को बचाने की बन्दिशें हैं। ये कवितायें अपने आस-पास की धूमधाम, चमक-दमक और फर्जी उल्लास के बीच उस टीसको जगाये रखने का प्रयास है, जिससे आज का मनुष्य (विशेषकर मध्य वर्ग) दूर चला जाना चाहता है, ऐसा नहीं कि उसकी कोई नस दुखती नहीं, पर उस पीड़ा पर सत्ता के नये-नये मदारियों और बाजीगरों के शर्तिया इलाज वाले मरहम लगा कर वह पीड़ा से मुक्ति का फर्जी अहसास करता रहता है और मस्त रहता है। ये कवितायें हमारे जीवन में दुःख के संगीत की प्रतिष्ठा करती हैं, ये किसी शॉटकी तरह आहत नहीं करतीं, बल्कि पढ़े जाने के बाद रोजमर्रा के जीवन में किसी मद्धिम पार्श्व-संगीत की तरह लगातार बजती हुई अपने बने रहने को अनुभव कराती हैं।
इस संग्रह की शुरुआती कविताएँ माँ के बारे में हैं। हिन्दी कविता का संसार माँ पर लिखी कविताओं से भरा है, इनमें से काफी कवितायें कोरी भावुकता या फिर असह्य नाटकीयता से भरी हुई भी हैं। इस संग्रह की कविताएँ इस मामले में अगल हैं कि सूपपर विश्वास रखती हुई दलिद्दर खेदने वाली माँ के रूपक को कवि स्वतंत्रता के बाद सपनों के धराशायी होते जाने के यथार्थ से सम्बद्ध करता है। इतना ही नहीं पल्ले नहीं पड़ा मुक्ति अभियानजैसे पदबन्धों के माध्यम से कविता बड़े विमर्शों की सपाटबयानी से अस्वीकार भी प्रस्तुत करती है। पहली कविता इस विश्वास परकी अत्यन्त महत्वपूर्ण पंक्तियाँ हैं:
     फिर किस के पीछे पड़ी हुई है माँ अपने औजार ले कर
      सूप जैसा प्राचीन विश्वास ले कर
अब यहाँ औजार के रूप में सूप और उस पर एक स्त्री के दृढ़ विश्वास का बिम्ब एक अभिनव संवेदना का माध्यम बन कर उपस्थित होता है। माँ पर ही लिखी दूसरी कविता फोटो एलबममें कवि मर्यादाओं, अपेक्षाओं और उत्तरदायित्वों के बीच सीमित एक स्त्री के जीवन के बन्द झरोखों से झांकते हुए अचानक उस अनकहे और गुप्त रहस्य तक पहुँच जाता है, जिसे तथाकथित भारतीय परम्परा में वर्ज्य माना गया है। और, यह वर्जना केवल परम्परा में रही हो, ऐसा भी नहीं है, साहित्य में भी इन विषयों से कुछ परहेज सा रखा गया है। ऐसी कविताओं के लिए सिर्फ पवन करण याद आते हैं, जो अपनी कविता प्यार में डूबी हुई माँके माध्यम से इसी कारण चर्चित हुए थे। सर्वेन्द्र विक्रम की यह कविता स्त्रियों में दिखने लायक होने का अभिमान नहीं हैजैसी काव्य-पंक्तियों से बनी है, जो उन पुराने दिनों की स्मृतियों का बयान करती है, जहाँ स्त्रियों के सार्वजनिक जीवन में न होने की बात तो है, पर उस दुष्कर समय में भी एक छिपाये हुए फोटो के माध्यम से किसी गोपन प्रेम सम्बन्ध की सम्भावना की कल्पना का साहस भी है:
          अपनी इस दुनिया में माँ ने कभी किसी को शामिल नहीं किया
          उसे कहाँ किस तरह मिले होंगे ये फोटो,
          कैसे बचाये रही एक एलबम, स्मृतियाँ और प्रेम
          और इस सबको बचाये रखने का साहस
संग्रह की एक अन्य कविता में दुःख के निवारण का उपाय ढूँढते धुनियेभी हैं, यह कविता एक छोटी और सहज शिल्प की कविता हो कर भी गहरे वैचारिक द्वन्द्व का परिचय देती है। इस छोटी सी कविता में बुद्ध भी हैं, उनके उपदेश भी, किसानों की आत्महत्याएँ भी और कबीर भी। कविता की अन्तिम पंक्ति अत्यन्त मारक प्रभाव रखती है, जिसे फ्लैप पर उद्धरित भी किया गया है:
             धुनिये दिल्ली जाते हैं या नहीं
             पता नहीं
             जहाँ बहुत कुछ है धुनने के लिए
             रुई के अलावा भी
     दिल्ली की तथाकथित सत्ता और शक्ति, फिर चाहे वह साहित्य की हो या राजनीति की, के अस्वीकार का यह बड़ा गहरा और सान्द्र बिम्ब है। इस कविता संग्रह का शीर्षक दुःख की बन्दिशेंइसमें संकलित एक विता साजिदा की प्रेमकथासे लिया गया है। एक निर्दोष और साधारण स्त्री जो प्रेम में छली गयी है, उसकी पीड़ा का गहराता और गाढ़ा पड़ता हुआ, द्रवीभूत होता हुआ, किसी रंग से ध्वनि में बदलता हुआ, सन्नाटे में सिसकी की तरह बजता हुआ एक बिम्ब है, जो पढ़ने के काफी बाद तक स्मृति में जमा रह जाता है:
          आलाप की तरह उठती गिरती रहती है रुलाई
          जिसने देखा ता उसे आँखें खोल कर पहली बार मुस्कराते
          जैसे सम पर ठहरी रहती है देर तक
          खत्म होने में नहीं आती दुख की बन्दिशें
     यद्यपि पहले ही बन्दिशोंके सांगीतिक पक्ष की बात हम कर चुके हैं, मगर फिर भी एक बार पुनः यहाँ कहना ही होगा कि यह जो दुःख का सम पर टिके रहना और खत्म होने को न आना है, यह कविता में बहुत अनछुआ बिम्ब है।
     संग्रह में कई कविताएँ कुछ चरित्रों पर हैं, पढ़ने से जितना पता लगता है, उससे यह बात साफ हो जाती है, कि ये सभी चरित्र काल्पनिक न हो कर वास्तविक हैं, और प्रायः दुःखी और पीड़ित भी। अपने आस-पास के जीवन में फैले इस नैराश्य, पीड़ा और संत्रास को इन विविध चरित्रों के माध्यम से कवि ने बखूबी उजागर किया है। इस तरह की प्रमुख कविताओं में पहली है वसीयतकविता, जिसमें महबूब मियाँ नाम का चरित्र है, जिसके बारे में कवि कहता है:
          उनका कोई एजेंडा नहीं था
          शायद इसीलिए अपना कोई इतिहास नहीं था
          कोई ऐसी हरकत नहीं की जिससे पुरखों के नाम पर हर्फ़ आये
          फिर भी गर्दन पर जाने कौन बोझ है
          दीवारों पर डोलती परछाईयाँ ज्यादतियाँ, खो देने का इमकान
          जिन्दा जलाए जाने, मारे जाने का धारावाही अभियान
          भयानक चुप्पी के खतरनाक सन्देश
          हर वक्त किसी अनहोनी का डर
     यह अजीब इत्तेफाक है कि जब मैं आज बाईस मार्च को इस कविता पर लिख रहा हूँ तो उत्तर प्रदेश में सत्ताईस साल बाद मेरठ के हाशिमपुरा मामले का फैसला आया है और योजनाबद्ध तरीके से अल्पसंख्यक समुदाय के बयालीस लोगों की हत्या के आरोपी पी. ए. सी. के लोग बरी कर दिये गये हैं। साम्प्रदायिकता के विरोध में हिन्दी में कविताओं का एक लम्बा सिलसिला चलता रहा है, और इन ताज़ा मामलों को देख कर लगता है कि इन कविताओं और इस विरोध की ज़रूरत शायद इस देश में कभी खत्म ही नहीं होगी। आज के अख़बार में हाशिमपुरा के मारे हुए लोगों के परिवारों के फोटोग्राफ्स छपे हैं, जिनमें उनकी आँखों में छिपा हुआ अफसोस और भय एक साथ दिखाई दे रहे हैं। सर्वेन्द्र विक्रम की यह कविता भी, जिसमें वे हर वक्त किसी अनहोनी का डरबताते हैं, भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों की वास्तविक स्थिति का दस्तावेज है; जो यह बताता है कि भारतीय मुसलमान किस तरह हर समय एक असुरक्षा के अंदेशे में रहता है। जिस तरह की शक्तियाँ आज इस बदले हुए समय में शासन और सत्ता पर काबिज हैं, उनसे इस असुरक्षा को और अधिक बढ़ावा ही मिल रहा है। यह कविता महबूब मियाँ की एक अद्भुत वसीयतपर आ कर खत्म होती है कि और हड्डियों से फासफोरस निकाल कर बनायी जाएँ माचिस की तीलियाँ/ जब अंधेरा पार करने लगे हदें/ गुनाह है चुप बैठना। यह एक नयी बात है, एक बूढ़ा जो अपने जीवन से निराश है, अपने होने और न होने के मतलब भी तलाश नहीं सकता, वह अपनी हड्डियों के फासफोरस से उजाले की तजबीज करता है, निश्चित रूप से यह कविता इन नये खतरों की समझ और उनके प्रतिरोध की ओर हमें एक नये मुहावरे से आबद्ध करती है।
     दुखरन एक दूसरा चरित्र है, जिसपर कवि ने कुछेक कवितायें लिखी हैं। अचानक ही इस कविता को पढ़ते हुए जनकवि नागार्जुन के दुखरन मास्टरयाद आ जाते हैं। अन्तर यह है कि सर्वेन्द्र विक्रम का स्वर नागार्जुन की तरह लाउड न होने के कारण वे अन्डरटोन्स में बात करते हैं। दुखरन के माध्यम से गाँव से लगातार शहर की ओर विस्थापित हो रहे लोगों की पीड़ा पर बात करते हुए वे सवाल करते हैं:
         
          कुछ कहोगे, नई व्याख्या करोगे या जाओगे
          जड़ों की ओर गहरे और गहरे, सन्तों की तरह
          देखोगे इसका अन्त कहाँ है?
          लिखोगे आग की पृष्ठभूमि में
          पानी के बारे में प्रेम की कविताएँ?
     वहाँ (नागार्जुन के यहाँ) अगर दुखरन मास्टर आदम के सांचेगढ़ रहा है, तो इतने साल बाद यह नया दुखरन शायद खुद अपने सांचों की तलाश में है, उसके लिए अन्नजल भी सहज नहीं रह गया है और एक अप्रतीक्षित भय दुःस्वप्न की तरह लगातार उसके और उसके परिवार की आँखों में मौजूद है, जहाँ रोटी भी एक सपना है। एक दूसरी कविता पानीमें भी दुखरन मौजूद हैं, जहाँ किसानों की उम्मीद के खिलाफ़ बारिश नहीं हुई है। यद्यपि कहीं बाढ़ है, कहीं लॉन पर हरी घास की सिंचाई, कहीं रेनडांस, फिर भी दुखरन के आस-पास कहीं पानी नहीं और लोग चिड़िया द्वारा राजा के पानी को जूठा कर दिये जाने की कथाओं में डूबे खुद को समझा रहे हैं। इस कविता के दो अंश इतने आकर्षक और व्यापक अर्थ को समेटने वाले हैं, कि उनमें समकालीन कई परिस्थितियों और यथार्थ के विद्रूप की निर्मिति की पूरी अभिव्यक्ति बेहद सहजता से सम्भव होती दीखती है:
          दुखरन भी चले थे लेकर थोड़ा सा सत्तू नमक
          सरल सी उम्मीद और पानी पर भरोसा
          कहीं न कहीं तो होगा ही मिल जायेगा जरूरत भर
          …………………………………………………………………………………………
          गते आषाढ़ जाते सावन जा रहे थे दुखरन घर-बार छोड़
          सपने में भी न सोचा था कि एक दिन साथ छोड़ देगा पानी
          कि एक दिन पानी भी बिकेगा
          लेकिन बिक रहा था और कोई मोलभाव नहीं।
इसी तरह एक रोचक कविता है दुखरन की दाल’, जिसमें गँवई आदमी के खान-पान के गैरपरम्परागत प्रयोगों को राजनैतिक गठबन्ध के प्रयोगों के बरक्स देखते हुए कवि इन दोनों के घातक परिणामों की चर्चा करता है। यहीं घर से शहर भाग आए दुखरन के भीतर घटते हुए लोहे की बात कवि करता है। दुनिया ही ग्लोबल नहीं हुई है, दुखरन की लाचारी भी यहाँ ग्लोबल हो गयी है:
     बढ़ती जाती है एक अजब सी लाचारी
     दालों को दलों के भरोसे छोड़ कर कभी-कभी सोचते हैं दुखरन
     अकेली जान के लिए कौन करे रोज रोज इतना टिटिम्मा   
     कोक-पेप्सी में सान कर खा लें दो मुट्ठी भात और पड़े रहें
     मौके की नज़ाकत भांप कर कुछ लोग कोरस में गा रहे हैं
     सब कुछ चमकदार है कितना सुहाना।
     संग्रह की एक कविता है गाड़ीवान’, यह आसान शैली में लिखी गयी गम्भीर राजनैतिक कविता है। यह कविता यह सोचने पर लगातार विवश करती है कि एक बार हम जिनके हाथों में सत्ता सौंप देते हैं, फिर उनके कार्यकलापों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। विकास और प्रगति के झूठे और अधूरे सपनों के छलावे में हम जिस गाड़ीके सवार बन जाते हैं, प्रायः डग्गामार निकलती है, जिसका ढांचा भी जर्जर है, जो बहुत देर से नयी-नयी सवारियों के इन्तज़ार में है, जिसका ड्राईवर बार-बार अधीर होते यात्रियों को झूठी आस देने के लिये इन्जन को रह-रह कर घुरघुरा देता है, जैसे अब चलने को ही है, और इस सबके बीच लगातार अपना सामान बेचने वाले गाड़ी पर चढ़े आ रहे हैं। यह दशा पूरी तरह से देश की समकालीन राजनीति का ब्यौरा देती है, जहाँ सपने और आकांक्षाएँ तो हैं, पर उनपर अमल नहीं है, दरअसल नीयत भी नहीं:
          आप कहते हैं तो मानना पड़ेगा कि हम आगे बढ़ रहे हैं
          लेकिन कब पहुँचेंगे पता नहीं पहुँचेगे भी कि नहीं
          डर है कहीं कुछ हो गया तो हम पर ही फूटेगा ठीकरा
          लोग कहेंगे, सँभाल कर रखने की तमीज़ नहीं थी
          ड्राईवर की सीट पर आपको बिठाया गलती हुई
          भरोसा करके ठगे तो नहीं गए भाई
     इसी समय इसी भावभूमि की एक दूसरी कविता स्पेशल इफेक्टकी भी चर्चा कर लेना उचित होगा। यहाँ एक अभिनेता के माध्यम से यथार्थ और अभिनय के दृश्यों के फर्क की बात धीरे-धीरे दोनों के घुलते जाने की बात तक पहुँचती है। डिजिटल रैलियों और लेजर शो के माध्यम से हम जिस तरह की राजनैतिक सरगर्मियों के बीच रह रहे हैं, वहाँ अब यह सब कुछ एक जादू की तरह लगने लगा है, और यह सब करने वाला किसी बाजीगर की तरह। तय बात है, कि कुछ भी अब सच नहीं है, क्या असली और क्या नकली इसकी पहचान अब या तो नामुमकिन है या बहुत ज़्यादा मुश्किल। फिर भी, कवि को उम्मीद है कि बाजीगर कितना भी कलाबाज क्यों न हो, पर जनता देर से ही सही, असली-नकली की पहचान करने में सफल ज़रूर होगी:
          यह हुनर और ऐसी नायाब सफाई
          मालूम तो है सबको जीवन और पर्दे का भेद
          साबित हो जाएगा सब का सब नकली है?
कैमरे के सामनेकविता में कवि ने एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में गायब होती हंसी को केन्द्र में रखा है। किस तरह उदारवाद के बाद के दौर में बढ़ते हुए बाजार ने बेहद आम सी चीज़ों की उपलब्धता का संकट उत्पन्न कर दिया है, जहाँ पहले आप अपने पड़ोसियों से केवल एक कटोरा चीनी या दूध हीं नहीं, वक्त पड़ने पर थोड़ी कलकलहंसी भी मांग सकते थे, वहीं इस वक्त में कुछ भी मांगना या उसकी उम्मीद रखना खतरे से खाली नहीं है। फोटो खींचने से पहले हर फोटोग्राफर का स्माइल प्लीजकहना और लोगों का मुस्कराते हुए फोटो खिंचा लेना एक आम सी बात है, पर इस मुश्किल समय में हंसी किसी अनजान अंधेरे में खो गयी है, इतना कि पकड़ में नहीं आ रही, कवि संकेत करता हैः
     आखिर बात क्या है? समय से है मानसून
     मंडियो में आवक अच्छी रहने की उम्मीद
     ब्राण्ड वाली चीज़ें भी मिल रहीं इफरात
     अच्छा नहीं महसूस कर पा रहे या भूल गये हो हंसने की कला
     क्या सममुच कोई दुख है?
कायान्तरणकविता की चर्चा मुझे इसके सर्वथा नये विषय के कारण बेहद आवश्यक लगती है। आज जब लोक-कलाओं के वैभव को भी बाजार के प्रायोजन ने लील लिया है, और बाजार के लिए यह सबकुछ एक तमाशे के अतिरिक्त अब कुछ भी हैसियत नहीं रखता वहाँ एमेच्योरकलाकारों पर केन्द्रित यह कविता महत्वपूर्ण बात सामने रखती है। श्रमऔर कलाके इस समन्वय की गंुजाइश भारत में हमेशा से मौजूद रही है, इसीलिए हमारे यहाँ रोपनी, पिसाई-कटाई के गीत लोकमानस में मौजूद हैं। इस कविता में अपने काम से सुस्तानेकी प्रक्रिया में किसानों द्वारा रचे संगीत को बरतते हुए इन कलाकारों के एक अजब कायान्तरण की बात कवि कहता है कि:
     इन सुरों की पगडंडी टेढ़ी-मेढ़ी है
     इसे उन जैसों ने खुद बनाया है समय की पीठ पर
     उनका गाना थोड़ा ऊबड़-खाबड़ सा है उनके हालात की तरह
     सुनते हुए डर लगा रहता कि कहीं वे तार पर सुर से गिर न जाएँ
     हालाँकि वे जैसे तैसे सन्तुलन बनाए रख पाते हैं
     जैसे जीवन में
इसी तरह, इस संग्रह की बहुत सारी कविताएँ हैं जो विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जैसे शताब्दी का सबसे बड़ा खेल’, ‘गाँठ, ‘स्रोतों की परवाह करने वालों का समय’, ‘स्वागत नहीं’, ‘बुरे विचारों से बचने का उपाय’, ‘नुमाइंदे’, ‘लिखता हूँइत्यादि। चरित्रों पर लिखी कविताओं की शृंखला में बाबूलाल प्रेसवाले’, ‘धारी पेंटर’, ‘धारी की स्त्रियाँभी ऐसी कविताएँ हैं, जिनके उल्लेख के बिना वह हिस्सा पूरा नहीं होगा। सम्मिलित रूप से, ये सभी कविताएँ हमारे जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों और विवरणों का इस्तेमाल करती हुई बेहद बड़े, आवश्यक और सार्वभौम विषयों पर तार्किक मगर संवेदनापूर्ण दृष्टि से हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं। यह भी बताना आवश्यक है कि आज जब हिन्दी कविता पर पिछले लगभग एक दशक से शिल्प के नवाचार को लेकर लगातार दबाव बन रहा है (और जिसके प्रभाव में कई तरह के अपठनीय कविता प्रारूप भी कवियों ने खोज निकाले हैं), इस संग्रह की कविताएँ किसी प्रयोग का परिणाम नहीं दिखाई देतीं, इतना ही नहीं भाषा को ले कर भी कवि ने अपने मिजाज़ में कोई बदलाव कर लिया हो, ऐसा बिल्कुल नहीं दिखता। फिर भी, ये कविताएँ पूरी तरह सर्वेन्द्र विक्रम की कविताओं के रूप में अलग से पहचानी जा सकती हैं। अगर अवधानितवैचारिकता ही कविताओं में प्रतिबद्धता की शर्त हो, तो ये कविताएँ एक प्रतिबद्ध कवि की कविताएँ भी नहीं कही जायेंगी, लेकिन प्रतिबद्ध वैचारिकता के सारे सरोकार इन कविताओं में अधिक मजबूती और तार्किकता के साथ खड़े नज़र आते हैं। एक प्रौढ़ कवि के दूसरे संग्रह से विचार, भाव और संवेदना, इन तीनों स्तरों पर जिस परिपक्वता की आशा की जाती है, वह समेकित रूप से इस संग्रह की कविताओं में परिलक्षित होती है। यह संग्रह इस कठिन समय की बहुविध समस्याओं के प्रति वैचारिकी की लय का अनूठा दस्तावेज़ होने के कारण विशिष्ट और पठनीय है। कवि सर्वेन्द्र विक्रम की काव्ययात्रा में इस संग्रह दुख की बन्दिशेंका प्रकाशन निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण पड़ाव है।
दुःख की बन्दिशें (कविता-संग्रह), सर्वेन्द्र विक्रम, प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, मूल्य: रु. 250
विशाल श्रीवास्तव
सम्पर्क-

विशाल श्रीवास्तव 
मोबाईल- 08953264603

अनिल त्रिपाठी के कविता संग्रह पर विशाल श्रीवास्तव की समीक्षा


कवि अपनी चेतस निगाहों से अपने आस-पास के लोगों को देखता है और उनके जीवन, उनकी पीडाओं को अपनी कविता में ढालने का यत्न करता है। उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है कि उस उपेक्षित एवं विडम्बनापूर्ण जीवन और उसकी पीड़ा को अपनी कविता में कैसे व्यक्त करे? इसके लिए कवि को अपनी भाषा, अपनी शैली और अपने बिम्ब आविष्कृत करने होते है। अनिल त्रिपाठी ऐसे ही युवा कवि हैं जिन्होंने अपनी कविताओं के लिए अपनी भाषा अपना शिल्प और अपने बिम्ब गढ़े हैं और जीवन से संपृक्त कविताएँ लिखी है। उनके यहाँ देशज शब्द फैशन की तरह नहीं बल्कि जरुरत की तरह आते हैं। हाल ही में अनिल का दूसरा संग्रह अचानक कुछ नहीं होता’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक बेबाक पड़ताल की है युवा कवि विशाल श्रीवास्तव ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा।
    
लिखना अपनी आँख पाना है!
विशाल श्रीवास्तव
वीरान मैदान, अंधेरी रात, खोया हुआ रास्ता, हाथ में एक पीली मद्धिम लालटेन। यह लालटेन समूचे पथ को पहले से उद्घाटित करने में असमर्थ है। केवल थोड़ी सी जगह पर ही उसका प्रकाश है। ज्यों-ज्यों वह पग बढ़ाता जायेगा, थोड़ा-थोड़ा उद्घाटन होता जायेगा। चलने वाला पहले से नहीं जानता कि क्या उद्घाटित होगा। उसे अपनी मद्धिम लालटेन का ही सहारा है। इस पथ पर चलने का अर्थ ही पथ का उद्घाटन होना है, और वह भी धीरे-धीरे, क्रमशः। वह यह भी नहीं बता सकता कि रास्ता किस ओर घूमेगा या उसे किन घटनाओं या वास्तविकताओं का सामना करना पडे़गा। कवि के लिए, इस पथ पर आगे बढ़ते जाने का काम महत्वपूर्ण है। वह उसका साहस है। वह उसकी खोज है …….. इस रास्ते पर चलने के लिए आत्मसंघर्ष करना पड़ता है केवल एक लालटेन है, जिसके सहारे उसे चलना है।
(नयी कविता का आत्मसंघर्ष में मुक्तिबोध)
     पता नहीं क्यों मुझे लगा कि सामने मौजूद कविताओं पर अपनी बात कहने से पहले ऊपर लिखी पंक्तियों को याद करना चाहिए। वैसे तो, यह बात रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में कही गयी है, लेकिन कविता के प्रति कोई समझ बनाने से पहले समझदार’  को भी अपने हाथ में कोई लालटेन या चोरबत्ती ले ही लेनी चाहिए। बहुत चकाचौंध की भी जरूरत नहीं, वरना जो देखना है, उसके अतिरिक्त सबकुछ दिखेगा। ज़रूरत भर की रौशनी में देखते हुए कवि चुपचाप जिस पथ पर चला गया है, उस पर उसके पीछे-पीछे चलना आसान काम नहीं है। जिस रास्ते पर चलते हुए कवि के पाँव लहूलुहान हुए, उस पर नरम पादुका पहन कर चलते रहने से भला कैसे उसकी कविता समझ में आयेगी, और क्यों समझ में आयेगी।
अपनी इन प्रसिद्ध पंक्तियों के पूर्व के अनुच्छेद में मुक्तिबोध कहते हैं कि कवि एक विचित्र प्रकार का अकेलापन महसूस करता है, क्योंकि जिस काम में वह व्यस्त है उसमें शायद ही कोई संलग्न हो। आज के दौर में इस अकेलेपन में एक चीज़ और जुड़ गयी है, और वह है उसपर लगातार लगने वाले आरोप और उससे की जाने वाली सतत अपेक्षाएँ। आज के समय में, हिन्दी के कवियों से (अच्छे और अनुशासित बच्चों की तरह) कुछ ख़ास किस्म की उम्मीदें लगातार बांधी जाती हैं। मसलन, उन्हें नयी बात कहनी चाहिए, नये तरीके से कहनी चाहिए, नयी भाषा में कहनी चाहिए और वैचारिक प्रतिबद्धता तो ज़रूरी ही है …. और इस तरह की तमाम बातें जिनका शुमार हिन्दी कविता पर होने वाली हर बातचीत में होता है। इसके बाद कविता के ख़ात्मे की बात भी कह दी जाती है, तो थोड़े से विलाप और बहुत सारे प्रलाप के साथ हिन्दी की समकालीन कविता का मर्सिया आये दिन पढ़ दिया जाता है।
     फिर भी, इतनी उपेक्षा के घनीभूत वातावरण के बीच भी आश्वस्ति यह है कि लगातार अच्छी कविताएँ लिखी जा रही हैं (इसका मतलब यह कतई नहीं कि बुरी कविताएँ नहीं लिखी जा रहीं) और वे अपनी जगह भी तय कर रही हैं। कुछ ऐसी ही आश्वस्ति से भरा हिन्दी के युवा कवि और आलोचक अनिल त्रिपाठी का दूसरा कविता-संग्रह है अचानक कुछ नहीं होता। उनकी यह काव्यपंक्ति शब्दकोश के एक चर्चित शब्द के अस्तित्व को दी गयी काव्यात्मक चुनौती है। कुछ भी अचानक नहीं होता, सब कुछ नियोजित और तय होता है। कभी होता रहा होगा कुछ भी अचानक, शायद यह शब्द भी तभी गढ़ा गया होगा। अब कहाँ कुछ अचानक होता है, मेहमान अचानक नहीं आते (बाकायदा फोन करके और पूर्वानुमति के साथ आते हैं), ऋतुएँ अचानक नहीं आतीं (कमबख़्त बहुत इन्तज़ार कराती हैं), हमें अचानक कुछ नहीं पता चलता (अन्देशे का धड़का पहले से बना रहता है); जिस तरह का तयशुदा और प्रबन्धित जीवन हम जी रहे हैं उसके रोजनामचे से लेकर त्रासदियाँ तक पहले से तय रहती हैं। अचानक शीर्षक से लिखी अपनी कविता में वे कहते हैं:-
सब पहले से तयशुदा है
सबके अपने अपने हिस्से हैं
 ………………………………………………..
     अब अचानक और औचक
कुछ भी नहीं होता
सब अपनी-अपनी गोटी बिछाते हैं
और तुम्हें पता भी नहीं
शिकारगाह में शिकारी ताक में हैं।
 अनिल त्रिपाठी हिन्दी के बहुत से दूसरे कवियों की तरह गाँव छोड़ कर शहर में बसे कवि हैं। उनकी कविताओं में गाँव के जीवन की स्मृतियाँ तो हैं ही, उसके साथ ही मध्यमवर्ग के नागरिक जीवन की विडम्बनाएँ भी पूरी तरह मौजूद हैं। विशेष बात यह है कि उनका निरूपण वे बेहद मामूली प्रतीकों के साथ करते हुए भी उन्हें बड़े और सार्वभौम सन्दर्भों के साथ सम्बद्ध करने में सफल होते हैं। उनकी रेफ की तरह कविता को पढ़ते हुए मन एक बार सोचने लगा कि इस तरह के विषय पर क्या हिन्दी में कोई दूसरी कविता भी है?  वरिष्ठ कवि अष्टभुजा शुक्ल की कविता हलन्त ज़रूर याद आयी, लेकिन उसका काव्यफलक इस कविता से भिन्न है। यह कविता ज़रूरत के सांचे में ढले जीवन में अनुपयोगी वस्तुओं और सम्बन्धों के नेपथ्य में चले जाने के विषय को केन्द्र में रखती हुई हमारी निरंतर क्षरित होती संवेदना को उद्घाटित करती है:-
वे हर्फ़ों की दुनिया में
रेफ की तरह हैं
जो कभी कभार ही आते हैं काम
लेकिन वे होते हैं विकल्पहीन
जिनके बिना शब्द हकलाने लगते हैं।
………………….
आखिर कैसा है यह समय
कि अपना ही बेगाना होकर
शामिल नहीं है
हमारी अपनी दुनिया में।
कवि की चिंता, इस तय तौर-तरीकों से चलने वाले समाज में सम्बन्धों के नकलीपन और एक अजीब तरह की बाजीगरी के प्रति भी है। हमारी दुनिया इस तरह बदल गयी है कि उसमें अब एक सहज और निश्छल आदमी के लिए कोई जगह नहीं बची है। वे जो तोल-मोल करना जानते हैं, जिनके लिए सम्बन्ध आवश्यकताओं की पूर्ति का ज़रिया हैं, वे विशेष किस्म के सन्तुलन के साथ अपना जीवन जीते हैं। कवि अपनी कविता सुरक्षित कोनों के बरक्स में लगभग उसी अकेलेपन की बात करता है, जिसका जिक्र मुक्तिबोध ने अपनी पुस्तक में किया था (ऊपर का सन्दर्भ देखें):-
और ईमानदारी से कहें तो
भरोसा भी उसी पर
वह जो अकेला है
उस बहाव के विरुद्ध भी अकेला है
और संतोष है कि उसने
विरुद्ध चलना सीख लिया है।
अपनी आँख इस संग्रह की वह कविता है, जिसने मुझे व्यक्तिगत रूप से सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। नये सांस्कृतिक और वैचारिक विमर्शों से पटे इस समय में साहित्य को लेकर एक सवाल सबके मन में मौजूद रहता है। पाठकों की विमुखता और किसी आन्दोलन या क्रान्ति के सन्दर्भ में उदासीनता से ग्रसित इस वातावरण में आखिर क्यों लिखा जाय? यह सवाल कमाबेश हर लिखने वाले के मन में मौजूद रहता है। पुराने कवियों ने स्वान्तः सुखाय’  कह कर इस सवाल को कुछ तनु करने की कोशिश भी की है (लेकिन फिर वही कि सुख ही पाना है तो लिखना क्यों … और भी काम हैं जमाने में)। कवि की यह कविता बेहद सहज रूपकों के साथ शुरू होती है, पर अन्त तक आते-आते यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात कहती हैः-
जब जो जैसा देखता हूँ
बस लिखना चाहता हूँ
……………………
मैं नहीं चाहता
उधार का चश्मा पहन
सावन का अंधा बनूँ
मैं अपनी आँख पाना चाहता हूँ
मैं लिखना चाहता हूँ।

(चित्र : कवि अनिल त्रिपाठी )
अच्छी बात यह है कि संग्रह की इन कविताओं में नाउम्मीदी और विलाप भर नहीं है, बल्कि मुश्किल दौर में भी उम्मीद की ओर इशारा है। यूटोपिया’  और डिस्टोपिया’  के बीच एक सम्भव धरातल तलाशने की कोशिश इन कविताओं में है। सब कुछ खिलाफ़ है, इस तथ्य की स्वीकृति में कवि को परहेज नहीं, फिर भी कुछ अनुकूल है इसका यक़ीन कवि को है। तुम अकेले नहीं हो’, शीर्षक कविता की पंक्तियाँ है:-
वैसे भी ठहरना
मौत के पूर्व का सन्नाटा है
जबकि गति मृत्यु के खिलाफ
आदिम मानवीय कार्यवाही
किसी का जाना’  कविता जीवन में लगातार पैदा होती रिक्ति को लेकर लिखी गयी एक मार्मिक कविता है। यह कविता उन्होंने अपने बाबा की मृत्यु के बाद जीवन में तमाम चीज़ों के अवसान की कथा पर केन्द्रित की है। यह हम सबके जीवन में लगातार हो रहा है। जिस तरह बाबा की मृत्यु की बाद गुड़, गट्टे, शकरकन्द का स्वाद कवि के जीवन से उठ जाता है, उसी तरह अन्य वृत्तान्तो में खोजने पर हम पा सकते हैं कि गांव में रहने वाली दादी या चाची के अवसान के साथ लोकजीवन से कुछ गीत खत्म हो गये (इसका व्यक्तिगत अनुभव भी मुझे है, मेरी दादी खालिस अवधी की कुछ मसलें कहा करती थी, जिनके बिना प्रायः उनके वाक्य बनते ही नहीं थे, उनके जाने बाद लगातार मुझे यह लगता रहा है कि वे लोकोक्तियाँ मर गयी हैं)। तब अगर कवि यह कहता है कि जाने वाला अब अपने साथ पूरा एक समय लेकर जाता है, तो उचित ही है। पर गजब तो वे तब करते हैं जब जड़ों से इस कटने को वे पुलई से गिरने की चोट से सम्बद्ध करते हैं:-
फिलवक्त इतना ही कहना है कि
किसी का जाना जड़ों से दूर
पुलई से गिरना है
जिसमें चोट बहुत देर तक दुखती है
छूटने और कटने का यह दर्द उनकी अगली कविता एक क्षण भी भारी है समूची धरती पर’  में और भी गाढ़ा होता है। मृत्यु और प्रकृति ही छुड़ाती और काटती, तो स्वीकार्य था; आज बाज़ार के आतंक के समय में ऐसे बहुत से कारण पैदा हो गये हैं, जो हर शय को अपनी जड़ से अलग कर देने पर आमादा हैं। कवि की चिंता है कि यह विस्थापन सब कुछ गड्डमड्ड कर देगा। पेड़ों का उदाहरण देते हुए वे बताते हैं कि जो अपनी जगह नहीं छोड़ेगा उसे नष्ट होना पड़ेगा। वे उस नष्टप्राय के सात्विक प्रतिरोध को चिन्हित करने की बात करते हैं:-
पेड़ों को दुख है कि
वे चल नहीं सकते
नहीं है उनके पास कोई उपाय
आरों से अपना सीना
चाक करने के अलावा
सुखद आश्चर्यजनक रूप से अपनी एक अन्य कविता जिन्हें बचाना जरूरी है में वे कुछ चीज़ों को बचाने के माध्यम से लगभग पूरी दुनिया को बचाने की कोशिश करते दिखते हैं। उनकी लिस्ट में कुँआ है, खुरपी है, पेड़ है, हॅंसी है, चेतना है, आग है, राख है, रंग है, राग है, प्यार है, रंज है और भाषा भी है। यही वे चीज़ें हैं जिनसे जीवन की वास्तविक आभा सम्भव है, इस आलोक के लिए सबकुछ बचाना चाहता है कवि। ध्यान देने योग्य है कि वह सुगढ़ और पकी हुई चीज़ें नहीं बल्कि कच्ची और अनगढ़ चीज़ों को बचाना चाहता है:-
कच्चापन तो बेहद ज़रूरी है
जिसे बचाया ही जाना चाहिए
वह चाहे भाषा का हो
या स्वाद का
क्योंकि पकी हुई चीज़ों पर
भरोसा करना मूर्खता ही होगी
एक सीमा के बाद।
शहर में रह रहे कवि को अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस शहर उजाड़’  लगता है। पहले पहल ऐसा लग सकता है पर यदि ध्यान से देखें तो इसका कारण कोई रोमानी नॉस्टैल्जिया नहीं है; शहर के डिब्बीनुमा कमरों में अदहन में चुरते पानी की तरह’  उबलते हुए कवि को गाँव की वत्सल छाँह की स्मृति हो आना स्वाभाविक ही है। (वे जब पेड़ और मैदान और उछाह और खेल भी कहाँ अब? कहते हैं तो जायसी का कित यह खेल’  याद आ जाता है; इसके लिए उन्हें सलाम!) लेकिन, उनकी असली चिन्ता यह नहीं है, असली चिन्ता है कि उनके पास तो यह सब याद करने के लिए है भी लेकिन अगली पीढ़ी स्मृतिहीनता का शिकार होने वाली है, जिसके पास गाँव के सुनहरे जीवन का शायद कोई अनुभव नहीं होगा:-
मुझे दुख है कि मेरा बेटा
आम के पेड़ पर तो क्या
अमरूद के पेड़ पर चढ़ कर
अमरूद खाये बिना ही
बड़ा हो जायेगा
और बेटी को एक सोहर तक भी
नहीं याद होगा।

अचानक कुछ नहीं होता’  यह मानने के साथ ही कवि यह भी मानता है कि अचानक कुछ भी नहीं मिलता’, बल्कि मिलना ज़रूरी भी नहीं है। कुछ पाने के लिए आसान और तेज़ रास्तों की कवायद भी प्रायः कुछ नहीं देती। धीरे-धीरे सब आता है। धैर्य’ और आ-धार’  शीर्षक कविताओं में कवि इसी सचाई को मानता और गुनता दिखाई देता है। सुगम उपाय तो बेदखल होने का रास्ता दिखाता है’ और जीवन से दूर भरोसों को कट्ठा कट्ठा सिरजेंगे’  जैसी पंक्तियों के माध्यम से वे इसी वैचारिकता को दृ़ढ़ता से दर्ज करते हैं।

लोक और अपनी नागरिकता के दोराहे पर खड़ा यह कवि अपनी राजनैतिक समझ में भी बेपरवाह नहीं है। गाँव उसके लिए सिर्फ गुजरे हुए सुनहरे अतीत का हिस्सा भर नहीं है। गाँव का कठिन वर्तमान और किसान के जीवन की चुनौतियों से भी वह न सिर्फ पूरी तरह वाकफियत रखता है बल्कि उसके अनुभवों से वह एक संश्लिष्ट रूपक भी रचता हुआ दिखाई देता है। किस तरह दिल्ली की नींद का सुकून गाँव के किसान का रतजगा है, इसकी बानगी देखें:-

जब किसान की आँखों से
बेदखल हो चुकी है नींद
मुझे पता है
उनींदी दिल्ली को
आज बहुत दिनों बाद
आयेगी अच्छी नींद।
एक और कविता, जिसका जिक्र किये बिना शायद बात पूरी नहीं होगी, वह है ‘पिता एक इन्तज़ार का नाम है। हिन्दी कविता में माँ को लेकर ढेरों कविताएँ लिखी गयी हैं, आज भी लिखी जा रही हैं; किन्तु पिता को लेकर लिखी गयी कविताओं की संख्या अपेक्षाकृत कम है (हालांकि एक सुखद सूचना है कि दिल्ली के दो कवि मित्र पिता पर लिखी कविताओं का संचयन निकाल रहे हैं)। उत्तर भारत की हिन्दी पट्टी में पिता-पुत्र का सम्बन्ध कुछ ऐसी दूरी से भरा रहा है कि उसमें भावनात्मक गर्माहट होते हुए भी उसके बारे में सोच पाना या कविता लिख पाना एक संकोच के कारण बाधित रहता है। आशंका और चिन्ता से भरा हुआ पिता, पुत्र के प्रति अपने भावों की प्रवणता को हमेशा एक आवरण के नीचे छिपाये रखता है और पुत्र भी पिता के प्रति अपने तमाम प्रेम को भयमिश्रित आदर के फ्रेम से बाहर नहीं आने देता। ऐसे में रोजी के लिए विस्थापित एक पुत्र की प्रतीक्षा में पड़े पिता की ओर से लिखी यह कविता बेहद मार्मिक है (जिन्होंने देर रात घर लौटने पर अपने पिता को जागते हुए और दरवाजा खोल देने के बाद चुपचाप जाकर सोते हुए देखा है, वे इस कविता के मर्म को बहुत ठीक से समझ पायेंगे)। पिता के पास केवल और केवल प्रतीक्षा है:-
दरस परस का समय है यह
वह जरूर आयेगा
सोचते हैं पिता
और मैं बेहद परेशान
और डरा हुआ कि
आखिर क्यों
पिता एक इन्तज़ार का नाम है।
यह एक आलोचक-कवि का दूसरा संग्रह है, निश्चित रूप से इससे अपेक्षाएँ’  भी अधिक ही होंगी। अनिल त्रिपाठी अपने पहले संग्रह एक स्त्री का रोजनामचा’  की कविताओं से निस्सन्देह प्रौढ़ हुए दिखते हैं। फिर भी, यह प्रौढ़ता ओढ़ी हुई या सायास नहीं दिखती। दरअसल, अनिल त्रिपाठी के कवि का वैशिष्ट्य ही यही है कि न तो वैचारिकता का कोई मुहावरा और न ही शिल्प की कोई प्रायोगिकता ही उनकी कविता में प्रयासगत दिखती है। उनकी सभी कविताएँ उनकी भावनात्मक और संवेदनागत सच्चाई से उपजी हैं, उसमें कुछ भी क्राफ्टेड नहीं है। जो जैसा दिखा लिखा की शैली में ही वे कविताएँ लिखते हैं, शिल्प को लेकर कोई अतिरिक्त सावधानी भी उनकी कविता में नहीं दिखती। उनकी कविताओं में सबसे अधिक ध्यान खींचती है उनकी भाषा और आंचलिक बोलियों के शब्दों का उनका चयन, ओछाँह,  ओरदावन, पानीदार, बतधर जैसे तमाम अवधी के शब्द उनकी कविता में पूरी अर्थवत्ता के साथ प्रयुक्त हुए हैं। ये शब्द आरोपित नहीं लगते, बल्कि यह महसूस होता है कि इन कविताओं के बारे में सोचते हुए उन्होंने इन शब्दों के बिना नहीं सोचा होगा। यही कारण है कि वे अपनी कविताओं में लोक का एक सशक्त मुहावरा गढ़ने में समर्थ हो पाते हैं। भाषा और विचार दोनों ही स्तरों पर यह संग्रह कवि के पक्के होते जाने के साथ अपने भीतर के कच्चेपन को बचाए रख पाने के कौशल का प्रतीक है। समकालीन हिन्दी कविता के परिदृश्य में यह संग्रह अपनी पठनीयता और प्रासंगिकता के कारण अपनी जगह बनाने में समर्थ होगा
अचानक कुछ नहीं होता (कविता-संग्रह)
अनिल त्रिपाठी ; प्रकाशक: शिल्पायन, नई दिल्ली. 
मूल्य 150 रु.

सम्पर्क-

विशाल श्रीवास्तव 
मोबाईल- 08953264603