स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ

स्वप्निल श्रीवास्तव

यह दुनिया आज जो इतनी खूबसूरत दिख रही है उसकी खूबसूरती में उन तमाम लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है जिन्होंने अनाम रह कर इसकी बेहतरी के लिए अपना जीवन खपा दिया इन लोगों ने कहीं पर भी अपने नाम नहीं उकेरेआज देखने में भले ही आग और पहिये के आविष्कार बहुत सामान्य लगें लेकिन इन आविष्कारों ने ही सही मायनों में आधुनिकता की नींव रखी जरा एक पल ठहर कर सोचिए आज भी इन आविष्कारों की हमारे जीवन में कितनी उपादेयता है अगर आज की दुनिया से इन्हें हटा दिया जाए तो हमारी आज की दुनिया कैसी लगेगी इसी तरह यायावरी की ज़िंदगी को जीने वाले नटों, मछुआरे गड़ेरियों और न जाने कितनी घुमन्तू जातियों ने भी मनुष्यता की आत्मा की आवाज को बचाए-बनाए रखने में अहम् भूमिका अदा कीएक कवि ही ऐसे अनाम लोगों की इस मानीखेज भूमिका को रेखांकित कर सकता हैयहीं पर कवि औरों (वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों) से बिल्कुल अलग खड़ा दिखायी पड़ता है  
ईश्वर एक लाठी है‘, ‘ताख पर दियासलाई‘, ‘मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए‘, ‘जिन्‍दगी का मुकदमा जैसी काव्य कृतियों के अप्रतिम कृतिकार, अस्सी के दशक से सक्रिय हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि स्वप्निल श्रीवास्तव  लेखन के क्षेत्र में आज भी चुपचाप लेकिन अपने ढंग से सक्रिय हैं मैंने पहली बार के लिए जब कुछ नयी कविताएँ स्वप्निल जी से भेजने का आग्रह किया तो उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ अपनी हालिया लिखी कुछ रचनाएँ हमें भेज दीं आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ  
   
स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ
पृथ्वी के वंशज  
पृथ्वी के वंशज हैं गड़ेरिये और मछुआरे
उनके गीत हमारी आत्मा की आवाज हैं
गड़ेरिये अपनी भेड़ों के साथ चरागाह की खोज में
धरती के सुदूर कोने में पहुँच जाते हैं
गर्मी हो या सर्दी बाधित नहीं होती उन की यात्रा
वे छतनार पेड़ो के नीचे बना लेते हैं ठिकाना
चाँद और सितारों की रोशनी के नीचे
गुजारते हैं रात
इसी तरह मछुआरे अपनी नाव के साथ
समुंदर में विचरण करते है
और तूफानों से लड़ते हैं
थल और जल के नागरिक हैं
गड़ेरिये और मछुआरे
वे हमारे आदिम राग के आलाप हैं
कुल्हाड़ियां
कुदाल और हंसिये की तरह नहीं होता
कुल्हाड़ियों का दैनिक इस्तेमाल
वे कभी-कभार काम में लायी जाती हैं
जब मैं किसी के कंधे पर कुल्हाड़ियों को
जाते हुए देखता हूँ तो लगता है कि
पेड़ों पर मुसीबत आने वाली है
कुल्हाड़ियां घर से बाहर निकल कर
कोई न कोई हादसा जरूर करती हैं
उनकी मार से नहीं बचती हैं डालियां
छोटे- मोटे पेड़-पौधे उन्हें देख कर
भय से कांपने लगते हैं
कुल्हाड़ियां सिर्फ पेड़ों को नहीं काटती
आदमी कंधों को लहुलुहान कर देती हैं
वे कंधे पर अंगोछे की जगह को काबिज
कर लेती हैं
कुल्हाड़ियों को कई हत्याओं में शामिल
पाया गया है
वे पेड़ की  नहीं आदमियों की हत्या
करती हैं 
कुछ शहरों के नाम
कुछ शहरों के नाम आकर्षक होते हैं
उसमें प्रवेश करने का मन करता है
नदियों के  नाम वाली स्त्रियां
जादूगरनी  की  तरह होती  हैं
वे  हमें अपने भीतर डुबो लेती हैं
कुछ लड़कियों के नाम फूलों के करीब होते हैं
याद  आते  ही  खुशबू  फैल  जाती  हैं 
कुछ पेड़ों के फल बहुत मीठे होते हैं
थोड़ी डाल हिलाओ तो हमारी हथेली पर
चू जाते है
तितिलियों और मधुमक्खियों से हम जरूरी
सबक ले सकते हैं
वे हमें खूबसूरत ढंग से उड़ने के तरीके
सिखाती  हैं 
पृथ्वी की सबसे छोटी जीव चींटी हमें अपने से ज्यादा
बोझ उठाने के गुर बताती है
एक ओस की बूंद में समा सकता  है
समुंदर
इसी तरह इंद्रधनुष में शामिल होते हैं
कायनात के अंग
इसलिए पृथ्वी की छोटी-छोटी चीजों  को
गौर से देखो
फिर वहां से शुरू करो जीना

 

घड़ी  में  समय
हर देश की घड़ी में बजता है
अलग-अलग समय
दिल्ली की घड़ी में जो समय है
वह रावलपिंडी की घड़ी से नहीं मिलता
हो सकता है वे समय पर नहीं
हिंसा में यकीन करते हो
वाशिंगटन और पेचिंग की घड़ियों  में
समय और विचार की दूरी है
इतिहास को ले कर कई असहमतियां हैं
हाँ, दुनिया भर के दलालों और तस्करों की घड़ियों में
एक जैसा समय बजता  है
वे समय से ज्यादा अपने इरादे पर भरोसा
करते हैं
उनके दम पर चलती है दुनियां की
अर्थव्यवस्था
बादशाह की घड़ी का समय जनता की घड़ी से
हमेशा अलग होता  है
वे समय को सुविधानुसार आगे-पीछे खिसकाते
रहते हैं
वे अपने वजीरों को भी सही समय
नहीं बताते
तानाशाह की घड़ी में समय उसकी मर्जी से
चलता है
उसके इशारे पर नाचती हैं रक्तरंजित सूईयां
गरीब मुल्कों में बच्चों के पैदा होने का
समय पढ़ना मुश्किल होता है
पर जानना आसान है कि उस के जन्म की तारीख
के आसपास होगा उस की मृत्यु का समय
झुर्रियां
इस बूढ़ी औरत की झुर्रियां
बहुत खूबसूरत हैं
जैसे किसी चित्रकार ने उसे अदम्य
कलात्मकता के साथ रचा हो
बोलती हैं उस की आँखें
कुछ कहते समय लय में
हिलते है होठ
उसकी आवाज में खनक और मिठास  है
कोई सुन ले तो भूल न पाये
अपने जमाने में सुघड़ रही होगी
यह औरत
आप पूछ सकते हैं कि कैसे मैं
इस औरत के बारे में इतना
जानता हूँ
मित्रों, यह औरत हमारी माँ है
नंगे लोग
नंगे लोग कहीं भीकिसी वक्त
नंगे हो सकते  है
उनके लिये किसी हमाम की जरूरत
नहीं होती
उनकी लुच्चई सार्वजनिक होती है
वे लाख वस्त्र पहने
अपने स्वभाव से निर्वसन होते हैं
वे भाषा को निर्वस्त्र और व्याकरण को
अश्लील बना देते हैं
कोई उन्हें टोके तो वे हमलावर
हो जाते हैं
दिखाने लगते हैं पंजे
वे किसी कबीलाई समाज  से
नहीं आते
वे हमारे बीच से निकल कर
दिगम्बर हो जाते हैं
वे साधु या कुसाधु नहीं
वे मठ-मंदिर में नहीं प्रजातन्त्र  में
रहते हैं
वे देह से नहीं आचरण से नंगे
होते हैं
उन की नंगई ढकने के लिये अभी तक
किसी वस्त्र का आविष्कार नहीं हुआ है
बाढ़
बाढ़ सब से पहले हमारे घर
आती है
अपने समय पर पहुँच जाता  है
सूखा
सबसे बुरी खबर यह है कि
राजनेता हमारे घर आने लगे हैं
उनकी शक्लों में दिखाई देते हैं
गिद्ध
वे झपट्टा मारने को तत्पर हैं
हम  बाढ़  और  सूखे  से  खुद  को
बचा लेंगे
कोई हमें इन आदमखोरों से
बचाये
मछुआरा
मछलियों से मुझे इतना प्रेम था कि
मैं बन गया मछुआरा
मैंने जाल बुनना सीखा
उसे कंधे पर रख कर
नदीनदी घूमता रहा
तालो पर डाले डेरे
हमेशा रंगबिरंगी मछलियों के बारे में
सोचता रहा
वे पानी में नहीं स्वप्न में दिखाई
देती थीं
जहां भी जाल डाले
मछलियों ने दिया धोखा
वे दूसरों के जाल में फंसती रहीं
मैं कुशल मछेरा नहीं बन पाया
अपने बनाये जाल में
फंस गया
आधाअधूरा
तुम झुके ही थे कि मुझे
दिख गया आधा-अधूरा चाँद
सिहर उठी देह
वह आधा-अधूरा इतना पूरा था कि
मुझे पूरा देखने की इच्छा न रही
चाँद पर बहुत देर तक ठहरते
नहीं बादल
शरारती हवाएँ उन्हें उड़ा देती हैं
चाँद का काम है दिखना
वह न दिखे तो पृथ्वी पर
छा जाता है अंधेरा
जीवन भर चलता रहता है
चाँद से लुकाछिपी का खेल
मुश्किल तब होती है जब आ जाती है
अमावस्या
और हम चाँद को ढ़ूढ़ते रह जाते हैं
संसद में कवि सम्‍मेलन
एक दिन संसद में कवि सम्‍मेलन हुआ
सबसे पहले प्रधान-मंत्री ने कविता पढ़ी
विपक्षी नेता ने उसका जवाब कविता में दिया
बाकी लोगों ने तालियां बजायीं
कुछ लोग हँसे कुछ लोगों को हँसना नहीं आया
आलोचकों को अपनी प्रतिभा प्रकट
करने का सुनहला अवसर मिला
टी.वी. कैमरों की आंखें चमकीं
एंकर निहाल हो गये
खूब बढ़ी टीआरपी
टी.वी. चैनलों पर हत्‍या और भ्रष्‍टाचार से
ज्‍यादा मार्मिक खबर मिली
इस लाफ्टर-शो को विदूषक देख कर प्रसन्‍न हुए
एक विदूषक ने कैमरे के सामने ही तुकबंदी शुरू कर दी
आधा पेट खाये और सोये हुए लोग हैरान थे
यह संसद है या हँसीघर
हमारी हालत पर रोने के बजाय हँसती है

सम्पर्क –

510, अवधपुरी कालोनी, 
अमानीगंज

फैजाबाद -224001

मोबाईल – 09415332326

ई-मेल : swapnil.sri510@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

स्वर एकादश पर स्वप्निल श्रीवास्तव की समीक्षा

बोधि प्रकाशन जयपुर से पिछले साल छपे ‘स्वर एकादश’ की एक समीक्षा लिखी है हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने। इसे हमने लखनऊ से निकलने वाली पत्रिका ‘अभिनव मीमांसा’ से साभार लिया है जिसके संपादक विवेक पाण्डेय हैं। विवेक के ही शब्दों में कहें तो ‘स्वर एकादश को समकालीन कविता का प्रतिनिधि संकलन भी कह सकते हैं। इस संकलन की भूमिका साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष तथा मेरे अन्यतम शुभेच्छु विश्वनाथ प्रसाद तिवारी द्वारा लिखी गयी है जिससे यह और भी महत्त्वपूर्ण हो उठा है।’ स्वर एकादश का सम्पादन किया है युवा कवि राज्यवर्द्धन ने। आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा  

एक साथ कई राहों के कवि

हिन्दी कविता में कई कवियेां को एक जगह एकत्र कर संकलन निकालने की योजना नई नहीं है, अज्ञेय ने तार सप्तक निकाल कर यह प्रयोग किया था उन्होंने चार सप्तक निकाले, हर सप्तक में सात कवि थे चौथे सप्तक को छोड़ दिया जाय तो तीन सप्तक हिन्दी कविता में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहे, इन सप्तकों के कवियों ने हिन्दी कविता की एक उल्लेखनीय पीढ़ी तैयार की, और कविता के पर्यावरण को बदला। ये कवि एक मिजाज के कवि नहीं हैं उनकी सोच समझ और अभिव्यक्ति अलग है मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा और केदारनाथ सिंह जैसे महत्त्वपूर्ण कवि तार सप्तक की देन थे, इस सप्तक के जनक अज्ञेय ने इन कवियों की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें नया धरातल दिया, अज्ञेय की इस भूमिका के लिये हिन्दी संसार ऋणी है, इस प्रकार कई कवियों को लेकर संकलनों का निकलना शुरू हो गया। इस तरह के प्रयोग अकविता के कवियों ने किये लेकिन सप्तक जैसी कीर्ति अर्जित नहीं कर सके, कुछ वर्ष पहले कवि एकादश नाम से लीलाधर मंडलोई और अनिल जनविजय ने संग्रह निकाला, इसमें उन्होंने उन कवियों को जगह दी जो हिन्दी काव्य परिदृश्य से छूट गये थे।

    इन्हीं परम्पराओं को स्वर-एकादश आगे बढ़ता है जिसका चयन प्रभात पाण्डेय और सम्पादन राज्यवर्धन ने किया है। इस संग्रह में ग्यारह कवियों की कवितायें शामिल हैं जिसमें अग्निशेखर जैसे वरिष्ठ कवि के साथ युवतर कवि कमलजीत चौधरी शामिल हैं। अग्निशेखर के अलावा अन्य कवि निर्मित के दौर में हैं, वे अपनी भाषा और संवेदना की खेाज में लगे हुये हैं, उनकी कवितायें पढ़ कर उनकी संभावना की भविष्यवाणी की जा सकती है। संग्रह के पहले कवि अग्निशेखर हैं, और हमारे वक्त के जाने माने कवि हैं, उनकी कविताओं में विस्थापन की पीड़ा और दारूण स्मृतियां हैं, जो उनकी कविता ‘विरसे में गाँव’ और ‘मेरी डायरियाँ’ पढ़ कर जानी जा सकती हैं। कविता की पंक्तियाँ –

‘मैं लड़ता रहूँगा पिता
स्मृति लोप के खिलाफ और पहुँचूंगा एक दिन
हजार हजार संघर्षों के बाद अपने गाँव की नींव पर
बुलाऊँगा तुम्हें पितृलोक से चिनारो के नीचे
पिलाऊँगा अंजुरी भर-भर कर तुम्हें वितस्ता का जल।’

 यह कविता हमारे मर्म को छूती है और कवि की पीड़ा से परिचित कराती है।

                                                             (चित्र : अग्निशेखर)

सुरेश सेन निशांत हिमाचल प्रदेश के एक पहाड़ी गाँव के कवि हैं। उनका पता गाँव सलाह पोस्ट-सुन्दरगढ़, जिला – मंडी, कविताओं के नीचे छपा रहता है। बहुत सारे कवियों के पते शहरों के नाम होते हैं, मैंने उनसे माँग कर उनका संग्रह ‘वे जो लकड़हारे नहीं हैं’ पढ़ा, इधर के कवियों में उनकी कविता अलग तरह की कविता है।उनकी कविता पढ़ते हुये राजा खुशगाल की कवितायें याद आती हैं। इन कविताओं के भीतर पहाड़ के कठिन जीवन की यातना है, इस संकलन में प्रकाशित उनकी कविता ‘पिता की छड़ी’, ‘वह पाँच पढ़ी औरत’ अच्छी कविताएँ हैं। लम्बी कवितायें लिखते समय निशांत धीरज से काम लें तो वे लम्बी दूरी के कवि साबित हो सकते हैं।

केशव तिवारी और शहंशाह आलम हिन्दी के जाने माने कवि हैं और लम्बे समय से लिख रहे हैं। केशव की कविता ‘दिल्ली में एक दिल्ली यह भी’ पढ़कर दिल्ली के अभिजन कवि समुदाय का वर्ग चरित्र सहज समझ में आता है। यह कविता विष्णु चन्द्र शर्मा को समर्पित है। वे ही इस कविता के विषय हैं –

‘बोले होटल में नहीं हमारे घर पर होना चाहिये तुम्हें।…………..
छह रोटी और सब्जी रखे
ग्यारह बजे रात एक बूढ़ा बिल्कुल देवदूतों से ही चेहरे वाला मिला इतंजार में।’

    समचमुच राजधानी दिल्ली में एक दुलर्भ दृश्य घटित हो रहा था, केशव स्थानीयता के कवि हैं। ‘रात में कभी-कभी रोती है मर चिरैय्या’ पढ़कर जाना जा सकता है। शहंशाह आलम की कवितायें मुझे पसंद हैं। वे अलग संवेदना के कवि हैं, उनके भीतर रोमानियत और यथार्थ साथ-साथ है, उनकी कविता ‘गृहस्थी का प्रथम अध्याय’ की पंक्तियाँ देखें –

‘एक दिन मैं प्रेम की बेचैनी
बेसब्री में तुम्हें नहीं मालूम
क्या न क्या बना देने का उद्यम करूँगा
और तुम इंकार नहीं कर पाओगे।’

‘पृथ्वी’ कविता में वे अपनी चिंता, आकुलता प्रकट करते हैं।

 इस संग्रह में चार ऐसे कवि हैं जो कविता के साथ आलोचना और समीक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। मेरा मानना है कवि को गद्य जरूर लिखना चाहिए इससे कविता के फलक का विस्तार होता है, इस सूची में भरत प्रसाद अपेक्षाकृत सक्रिय कवि हैं, उनके भीतर कई विधाओं की निरन्तरता है, उनकी कविता ‘कामाख्या मंदिर के कबूतर’ पढ़कर अवाक हूँ – ‘कामाख्या के पंक्षी अब पंक्षी कहाँ रहे? वे कायदे से उड़ नहीं सकते, बोल नहीं सकते न ही देख सकते हैं। कलरव करना इन्हें कहाँ नसीब? आजादी से उड़ने की इनकी कल्पना को जैसे लकवा मार गया हो।’

  यह कविता धार्मिक हिंसा के विरोध की कविता है जो मंदिरों के पाखण्ड को उजागर करती है। इस कविता के साथ उनकी कविता ‘वह चेहरा’ और ‘रेड लाइट’ एरिया पढ़ने योग्य हैं।

  इसी प्रकार संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताओं की लोकगंध हमें आकर्षित करती है और लोकजीवन से गायब होते  जा रहे दृश्यों  को त्रासद अनुभव के साथ  सामने लाती है। उनकी ‘ओलार’ कविता इलाहाबादी दिनों की याद दिलाती है। इसमें केवल लोकदृश्य नहीं है। वे लिखते हैं –

‘एक चक्का सूरज की तरह
दूसरा चक्का फिरकी जइसा
ऐसे कैसे गाड़ी चल पायेगी भइया
इसी तरह सब होता रहा अगर
तब तो दुनिया ही ओलार हो जायेगी
एक दिन जिसका मर्म बूझते हैं
अभी केवल इक्कावान और घोड़े ही’।

संतोष की कविता ‘पानी का रंग’, ‘कुछ और’ कविता भी सहज संप्रेषित होती है।

    महेश चन्द्र पुनेठा कवि कर्म के साथ सांस्कृतिक मोर्चे पर काम करने वाले कवि हैं। पुनेठा की कविताओं में दृश्य नहीं विचार भी हैं, इसे लक्षित किया जाना चाहिये। ‘प्रार्थना’, ‘कैसा अद्भुत समय है’, ‘पर नहीं जानते’, ‘प्राणी उद्यान’ कविता पढ़ते हुए इस विचार की पुष्टि होती है,  उनका कहना है – ‘जानते हैं बहुत कुछ देश दुनिया के बारे में, पर नहीं जानते अपने आसपास के बारे में।’

    भले ही भूमंडलीकरण ने दुनिया को एक गाँव में बदल दिया हो लेकिन उसने इस विडम्बना को भी जन्म दिया है कि हम दूर की चीजों को तो देख लेते हैं लेकिन अपने पास की दुनियाँ हमारे लिये अनजानी बनी रहती है, हम अपने उद्गम स्थल को भूल जाते हैं। पुनेठा की कवितायें, हमें हमारे आसपास की दुनिया की याद दिलाती हैं, हम प्रकृति से दूर हो जाते हैं जहाँ हमारे बीज छुपे हैं।

                                                                               (चित्र : महेश पुनेठा)

 इस संकलन में राज्यवर्धन, ऋषिकेशराय, राजकिशोर राजन लगभग एक मिजाज के कवि हैं। राज्यवर्धन के लोक बिम्ब का प्रयोग कुशलता से किया है लेकिन इस बिम्ब में वे अपने समय के यथार्थ से भी रूबरू होते हैं। उनकी कविता ‘नदी आदमखोर हो गयी है’, ‘एक यातना कथा है’, उसकी कुछ पंक्तियां देखिये –

‘रात-बेरात
भयानक करती है हमला
और खा जाती है
जान माल की और दे जाती है……… जीवन भर के लिए।’

  ऋषिकेश राय की कविताओं पर हमारा ध्यान उस लोक की तरफ जाता है, जिसके ऊपर शहरीकरण के खतरे हैं लेकिन वे उस लोक-समाज को बचाने का यत्न करते हैं, उनकी कविता ‘बरधाइन गंध’ उसी लोक का दृश्य है जो हमारे नजर से ओझल होता जा रहा है, एक उदाहरण देखिये –

‘पर अब भी तवे से उतरती रोटियेां में
उभर आती है आकृतियाँ दो सींगो की
कभी कभी चूल्हे पर सिकंते भुट्टे के
तड़कते लावे के बीच सुनाई दे जाती है
झुन झुन बजते घुंघरू की आवाज
गरम भात से उठती भाप
अब भी भर जाती है
बरधाइन गंध नथुनो में।’

 ‘अनबिकी मूर्तियाँ, ‘वे दिन’, ‘हम लौटेंगे’ कविता में कवि को ग्रामीण संवेदना दिखाई देती हैं। हमारे लिये यह भी जानना जरूरी है कि हम अपने समय के किस यथार्थ का चुनाव करते हैं, यह चुनाव आजादी से नहीं विजन से किया जाना चाहिए।

  इस संग्रह के एक अन्य कवि राजकिशोर राजन की कविता ‘सुनैना चूड़ीहारिन’ पढ़कर हम जानते है कि उनका लोक ऋषिकेश राय से भिन्न नहीं है। ‘बूढ़ी’, अनुभवी बाबा की आँखें देखते ही उसे जलने लगती हैं पर लाख कोशिश के बाद भी उनसे कभी जली नहीं सुनयना, चूड़ीहारिन।’ इसी क्रम में उनकी कविता ‘सपने में रोटी मचान’, ‘दिल्ली की रजाई’, ‘नये बिम्ब के तलाश में’ कवि की लोकछवि प्रकट हुई है। इन तीनों कवियों में लोकधर्मिता है और अपने लोक के प्रति गहरा लगाव है, बस इसके सम्यक उपयोग की जरूरत है।

 इस संकलन के सबसे युवतर कवि कमलजीत चौधरी हैं जो अग्निशेखर की जमीन के कवि हैं, उनकी कवितायें पढ़ कर, संभावनाओं का पता चलता है उन्होंने छोटी किंतु सघन कवितायें लिखी हैं। इस संकलन में उनकी कविता ‘बर्तन’, ‘खेत’, ‘छोटे बड़े’, ‘तीन आदमी’, ‘नाव का हम क्या करते’ पढ़कर उनके कवि कर्म के प्रति हम आश्वस्त होते हैं। ‘वह बीनता है’ कविता की यह पंक्तियाँ देखें –

‘वह बीनने वाला
छिनता आदमी कभी-कभी अखबार में
थोड़ी सी जगह छीनता है
भूख से लड़ता
अक्सर परिवार बीनता है।’

एक साथ इस संकलन के कवियों को पढ़ना, एक नये काव्य दृश्य से परिचित होना है। हम यह जानते हैं, कविता लिखना आसान नहीं कठिन काम है, उसके लिये धैर्य की जरूरत है, यह इन कवियों की निर्मिति का समय है, कविता की भाषा सतत काव्याभ्यास से बनती है, यहाँ काव्याभ्यास का प्रयेाग रूढ़ अर्थ में नहीं, सार्थकता के क्रम में किया गया है। कवियों को अपने पते पर बने रहना जरूरी है, बार-बार कविता का पता बदलने से जो अराजकता पैदा होती है, वह कवि को नहीं कविता को भी नष्ट करती है। इतने अच्छे संकलन के लिये प्रभात पाण्डेय और राज्यवर्धन बधाई के पात्र हैं। उन्होंने अलग-अलग कवियों को एक साथ एकत्र कर, कविता का परिदृश्य रचा है। इस संकलन में काव्यम् पत्रिका के सम्पादक प्रभात पाण्डेय की लोकाभिरूचि का परिचय मिलता है। ये किसी आलोचक के चहेते नहीं है ये अपनी कविता के बल पर जीवित रहने वाले कवि हैं। वे अपनी भाषा और कथ्य में सहज हैं, ये नगरीय जीवन के नहीं लोकजीवन के कवि हैं।

(साभार : अभिनव मीमांसा)

समीक्षित पुस्तक  –  स्वर एकादश (कविता संकलन)
चयन –    प्रभात पाण्डेय
सम्पादन – राज्यवर्धन
प्रकाशक –  बोधि प्रकाशन,
एफ – 77, सेक्टर – 9, रेाड नं. 11,
जयपुर

सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
मोबाईल- 09415332326

स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ

आज का समय कुछ लोगों के लिए बहुत हड़बड़ी का समय है. वे एक क्षण में सब कुछ पा जाना चाहते हैं. उनके शब्दकोष में जैसे ‘धैर्य’ शब्द ही नदारद है. आखिर वे कौन लोग हैं. ऐसे लोग सर्वहारा वर्ग के नहीं हैं. सर्वहारा तो आज भी अपने उन दिनों की प्रतीक्षा में असीम धैर्य के साथ आज भी खड़ा है जब उसे काम के बदले उचित पारिश्रमिक मिल सकेगा, जिससे वह दो वक्त की रोटी पा सकेगा। निश्चित रूप से ये बुर्जुआ वर्ग के लोग हैं जो बिना परिश्रम के सब कुछ क्षण भर में ही हासिल कर लेना चाहते हैं. कवि स्वप्निल श्रीवास्तव अपनी कविता में इस सर्वहारा वर्ग की शिनाख्त करते हैं. आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं अपने पसंदीदा कवि स्वप्निल श्रीवास्तव की कुछ नवीनतम कविताएँ। तो आईए पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ।

  
1. गैन्डे

इन्हें  जंगल  में  रहना  चाहिए
लेकिन ये  हमारी  दुनियां  में  दिखाई
दे  रहे  है
जंगल  महकमे  के  लोग  परेशान  है
वे  बाघ  की  तरह  हमलावर  नही  हैं
रौंद जरूर  देते  है
वे  स्वभाव  से  लद्धड़ हैं
मोटी  चमडी  वाले  इन  गैंडों के  बारे  में
कहा  जाता  है  कि  ये  गुदगुदाने  के  एक  हफ्ते
के  बाद  हंसते  हैं
गैंडों  को  राजमार्ग  की  ओर  जाते  हुए
देखा  गया  है
यह  सियासत  के  लिये  बुरी  खबर  है

2. सभा

गूंगों  ने  एक  सभा  की
जिसमें  अभिव्यक्ति की  आजादी  पर
विचार  किया  गया
बहरों  ने  कहा – जो  बोल  न
हीं सकते
वे  बोलने  के  बारे  में  क्या  जाने
हमारे  समय  में  कोई  इशारों  से  बात
नहीं समझता
गूंगों  और  बहरों  के  बीच  जो  विमर्श  हुआ
उसे  ब्रेल  लिपि  में  दर्ज  किया  गया
उसे  पढने  के  लिये  अंधों  की  खोज 
की  जा  रही  है

3. पगड़ी

जिंदगी  भर  वे  पगड़ी  के  साथ  रहे
किसी  मुसीबत  में  पड़ते  तो  दूसरो  के 
पांव  पर  रख  देते  थे  पगड़ी
उम्र  भर  खेलते  रहे  पगड़ी  का  खेल
जाते  समय  पिता  ने  सौंपी  थी  यह  पगड़ी
और  कहा  था-  यह  जादुई  पगड़ी  तुम्हे  हर
मुसीबत  से  बचा  सकती  है
पगड़ी  कभी  सिर  पर  कभी  किसी  के 
पांव  पर  पड़ी  रहती  थी
वह  सुविधानुसार  बदलती  रहती  थी  जगह
पगडी  को  नांव  बना  कर  वे  सीख  गये  है
भवसागर  पार  करने  की  कला 


4. जन्मदिन

वे  शहर  के  नामी  गिरामी  नागरिक  है
कई  अफवाहों  में  आया  है  उनका  नाम
शहर  के  गुमनाम  हत्याओं में  उनका  जिक्र
बहुत  शान  से  किया  जाता  है
वे  अकेले  नही  अंगरक्षकों  की  फौज  के
साथ  चलते  है
शहर  के  लोग  अदब  से  नही  डर  से
सलाम  करते  हैं
उनके  बिना  नही  बनता  शहर  का  बजट
कागज  पर बनती  है  सड़कें पुल
हल्की  बारिश  में  गल जाता  है  कागज
मिट  जाते  है  सुबूत
शहर  की  हत्याओं के  लिये  उनकी  अनुमति
जरूरी  है  अन्यथा  हत्यारों  की  खैर  नही
उनके  जन्मदिन  के  समारोह  में  पूरा  शहर
इकट्ठा  हो  जाता  है
वे  केक  के  सामने  चाकू  ले कर
झुके  रहते  हैं
एक सिरफिरा  चुपके  से  कहता  है
वे  केक  नही  किसी  आदमी  की  गर्दन
काट  रहे  हैं 

5. रास्ता 
उन्हें  रास्ता  दीजिए वे  बहुत  जल्दी  में  हैं
इन्होनें  कई  नदियों  में  जाल  डाल  रखे हैं
इन्हें  नदी  की  सारी  मछलियां  एक  साथ  चाहिए
सोने  की  मुर्गी  के  अंडे  उन्हे  एक  दिन  चाहिए
इनके  शब्दकोष  में  प्रतीक्षा  और  धैर्य  जैसे  शब्द  नहीं हैं
वे  अपने  मित्रों  के  कंधों  पर  पांव  रख कर
पार  करना  चाहते
हैं रास्ता
उन्हें  तुरंत  चाहिये  यश  और  धन
वे  थोड़े से  राजी  न
हीं हैं
इन्हें  समूची  कायनात  चाहिए

6. जरूरी  काम
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जिन्दगी  में  बहुत  से  काम  हैं
सबसे  जरूरी  काम  है  सुंदर  दिखना
स्त्रियों  के  सामने  यह  तलब  कुछ  ज्यादा  ही 
बढ  जाती  है
आदमी  हो  जाता  है  सजग
उगुंलियों  से  संवारने  लगता  है  बाल
और  सुंदर  दिखने  की  कोशिश  करता  है
चालीस  के  बाद  यह  आदत  छूटने  लगती  है
वह  दाम्पत्य  में  उलझ  जाता  है
एक  मकड़ी उसके  लिये  बुनने  लगती  है  जाल
उसे  आईने  से  चिढ  होने  लगती  है
उसे  लगता  है  आईने  में  दिखने  वाला  चेहरा 

उसका नहीं  है
यह  किसी  दूसरे  आदमी  का  चेहरा  है
एक  जमाने  में  जो  चीजे  सुंदर  थी  उन  पर 
जमने  लगती  है  धूल


7.  खपरैल  का  मकान

अच्छा  था  खपरैल  का  मकान
जहां  छूट  जाती  थी  कुछ  न कुछ  जगहें
वहां  पक्षी  बनाते  थे  घोंसले
सुबह  जागने  के  लिये  मुझे  एलार्म
लगाने  की  जरूरत  नही  पड़ती
हम  कलरव  से  जाग  जाते  थे 
पक्का  मकान  बनने  के  बाद  चीजें
बदल  गई
नही  बची  नीड़  बनाने  की  जगह
पक्षी  बहुत दूर  उड़  गये
सामने  वाले पेड  पर  बैठे  हुये कभी  कभी
उन्हें  उन  जगहों को  निहारते  हुए देखा  है
जहां  उन्होंने बनाये  थे  घर 

8.  साइबेरिया

जो  सच  बोलते  है  उन्हे साइबेरिया  भेज 
देना  चाहिए
ज्यादा  सच  बोलने वालों  के  लि
सलीब
सबसे  अच्छी  जगह  है
ठ्न्ड  से  कांपते  हु
शब्द  उष्मा  के 
लिये  परेशान  हैं
उष्मा  कहां  मिलेगी  पर्वत  प्रांतर  बर्फ  से
ढंके  हुए हैं
साइबेरिया  के  सारस  भरतपुर  पक्षी  बिहार  में
प्रवास  कर  रहे 
हैं
वे  कैमरों  में  अपने  किलोल  के  साथ
कैद  हो  रहे 
हैं
वृक्षों पर  उन्होंने बनाये  है  नये  घोंसले
उसमें  से  दिख  रहे  है  उनके  लाल  लाल  चोंच
वे  उड़ने  की  तैयारी  में  हैं
बर्फ  के  दिनों  में  साइबेरिया  में  पक्षी 
नहीं रहते  तब  कौन  रहता  है 
साइबेरिया  में

9.  सामंत

मुकुट  छिन  गया, छिन  गई  जमीन
लेकिन  वे  अपने  अच्छे  दिनों  के  बर्बर
दिनों  के  साथ  जीवित  हैं
वे  धोखे से  मारे  गये बाघ  के  साथ
बहादुरी  की  मुद्रा में  अपना  चेहरा  दिखा  रहे  हैं
बाबू  साहब  वे  दिन  गये  जब  आप  रियाया  को
भेंड़  समझते  थे, उसे  अपने  कांजीहाउस  में  हांक  कर 
जुर्माना  लगाते  थे
तुम  अपने  हरम  में  रह  गये  हो  अकेले
तुम्हारे  किले  के  प्राचीर  पर  बैठे  हुये  है  गिद्ध
एक  लोकगायक  तुम्हारे  पतन  पर  गा  रहा  है
लोकगीत
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सम्पर्क –
स्वप्निल  श्रीवास्तव
510,  अवधपुरी  कालोनी,  अमानीगंज
फैजाबाद  224001
उत्तर प्रदेश
मो0 09415332326
 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)