विजय प्रताप सिंह

विजय प्रताप का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के डुमरी नामक गाँव में १० अप्रैल १९८१ को एक किसान परिवार में हुआ. प्राम्भिक शिक्षा गाँव पर ही हुई. विजय प्रताप ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम ए किया. आजकल आजमगढ़ जिले के मेहनगर ब्लाक के बसीला गाँव के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापन का कार्य कर रहे हैं. कथा, कादम्बिनी, वागर्थ, जैसी पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित. आकाशवाणी इलाहाबाद से समय-समय पर कविताओं का प्रसारण.

संपर्क- द्वारा सफात अली
          112 ए/2, शिलाखाना, तेलियरगंज
          इलाहाबाद, 211004, उत्तर प्रदेश






मोबाइल-  09450704717

एक टुकड़ा जमीन

झगड़े में पड़ा वह
जमीन का हिस्सा अवाक है
वह जानता है
कि लड़ाई ख़त्म होने तक
वह उसर बन जाएगा.

कहने और समझने की भाषा

तुम पेड़ कहना
मैं हरियाली समझूंगा

तुम सांस कहना
मैं जीवन समझूंगा

तुम रोटी कहना
मैं भूख समझूंगा

तुम सुख कहना
मैं दुःख समझूंगा

बड़ी अजीब होती है
कुछ कहने और समझने की भाषा

कौवे!

कौवे!
न जाने कब तुमने घर की मुंडेरों पर बैठना छोड़ दिया
अब तो कम दिखते हो द्वार के सामने के पेड़ों पर भी
तुम जो मेहमानों के आने से पहले ही बता जाया करते थे
अब तो मेहमानों की तरह भी नहीं आते

अब घरों में बचते ही नहीं क्या रोटी के टुकड़े तुम्हारे लिए
दरअसल रोटी के टुकड़ों पर ही तो बसर होती हैं जिन्दगियाँ

तुम्हारा कालापन कौवे
जरा-सा पुत गया है हमारे चेहरों पर भी
वह दिनोदिन और भी गाढा होता जा रहा है
तुम अन्दर से भी उतने ही काले हो कि नहीं
जितने कि बाहर से दिखते हो
पर शायद तुम्हें पता ही नहीं कि यह दुनिया
ऊपर से जितनी उजली दिखती है अन्दर से उतनी है नहीं

बचपन से सुनता आया हूँ
कि कोयल की तरह मीठा बोलो कौवे की तरह कड़वा नहीं
तुम्हारी आवाज भी तो मुझे अच्छी लगती है कौवे
अगर किसी को तुम्हारी आवाज पसंद नहीं
अगर तुम्हारी बोली कड़वी लगती है किसी को
तो इसमें तुम्हारा क्या दोष
और फिर तुम जान-बूझ कर तो कड़वा बोलते नहीं
आखिर ता जिंदगी कोई कड़वा कैसे बोल सकता है

तुम्हारे बारे में बड़ी बड़ी भ्रांतियां फैला दी हैं किसी ने
कि तुम्हारी बोली बड़ी कड़वी है
कि बड़े चालाक हो तुम
पत्थर उठाने से पहले ही फुर्र हो जाते हो
तुम बहुत बुरे हो
तुम भांप जाते हो खतरा आने से पहले ही

तुम जरूर किसी साजिश के शिकार हुए हो कौवे
तुम्हारी चुप्पी का फायदा उठाया है किसी ने
तुम्हारी जीभ खा कर अमर होने के किस्से गढ़े हैं
यह साजिश है तुम्हारी जबान खींच लेने की
हमेशा के लिए तुम्हें चुप कर देने की

पर तुम बोलो कौवे… बोलो…
बोलते रहो…
इसी तरह…

विद्यालय, पेड़ और बच्चे

विद्यालय आये हैं कुछ बच्चे
कि जैसे आये हों कुछ फूल
इन वृक्षों पर
और फ़ैल रही हो सुगंध चहुँओर.

बातें होनी है

आज कितनी बातें हुई टेलीफोन पर तुमसे
आज कितने कांटे चुभे
कितना लहुलुहान हुआ मैं

मेरी बातों में तुम… और तुम… और तुम…
तुम्हारी बातों में कोई और

खाली हैं कोटर कई
अभी और भरना है मुझे

अँखुआया बीज ही तो हूँ अभी
सीख रहा हूँ धीमे-धीमे
धूप- ताप, बुनी-पानी, सीत-सहना

फूटने हैं कोंपल अभी
निकलने हैं शाख-फूल-पट्टियां
अभी और पोढ़ होना है

अभी-अभी उठा है झंझावात
भर गयी है गर्द चारों ओर
घूमड़ के आयेंगे अब बादल
आसमान गरजेगा
बारिश होगी और पड़ेंगे ओले

आशंकाओं के खोल में सिमट आया हूँ मैं

पर अभी क्या
अभी तो और भी आने हैं कई दिन ऐसे कई
अभी और भी बातें होनी हैं

देहाती शाम में

देहाती शाम में
बड़ी आम होती है लोगों की जिंदगी

खेत की ओर जाते कुछ आदमी
कुछ लौटते हुए हाथ में लोटा लटकाए

नाद से हटाये जाते मवेशी
कुछ कुत्ते, कुछ बच्चे, कुछ बिल्लियाँ
दीए की छिटपुट टिमटिमाती रोशनी
भोजन के इंतजाम में लगी कुछ औरतें
घरों से उठता धुंआ कि जैसे फैलता हुआ प्रेम