अनिल जनविजय का आलेख ‘लेफ़ तलस्तोय की प्रेम कहानी’


लेफ़ तलस्तोय

प्रेम मानव जीवन की सघनतम अनुभूति है। शारीरिक से ज्यादा मानसिक अनुभूति, जिससे प्रभावित हो हम इसे महसूस ही नहीं करते कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हो जाते हैं। दुनिया के महानतम लेखकों में से एक लेफ तलस्तोय ने भी एक लडकी से प्रेम किया था। इस प्रेम कहानी पर अनिल जनविजय ने एक नजर डाली है। तो आइये आज पढ़ते हैं लेफ़ तलस्तोय की प्रेम कहानी।
       
अनिल जनविजय

लेफ़ तलस्तोय की प्रेम कहानी
1862 का एक दिन। अगस्त का महीना। मास्को के क्रेमलिन में स्थित एक भवन। इस घर में पहले रूस के ज़ार का परिवार रहता था। यह अब रूस के एक प्रसिद्ध डाक्टर अन्द्रेय बेर्स का निवास स्थान है। अचानक शाम के समय उनके यहाँ एक संदेशवाहक आता है। वह बताता है कि जागीरदार लेफ़ तलस्तोय और उनकी बहन मरीया निकलाएव्ना ने डा० बेर्स परिवार को अपनी जागीर यास्नया-पल्याना में आमन्त्रित किया है। संदेशवाहक उन्हें तलस्तोय परिवार द्वारा भेजा गया लिखित निमंत्रण-पत्र भी सौंपता है।
उन्हें इस निमंत्रण के लिए हमारी ओर से धन्यवाद कहना थोड़ा-सा सिर झुका कर रूखी आवाज़ में डा० बेर्स ने कहा कुछ ही दिनों में मेरी पत्नी ल्युबोफ़ अलिक्सान्द्रव्ना और मेरी तीनों बेटियाँ अपने मामा इसलिन्येफ़ के पास इवीत्सी जाएंगी, अगर सब कुछ ठीक रहेगा तो वे वहीं से यास्नया-पल्याना भी पहुंच जाएंगी। वहां से यास्नया-पल्याना पास ही है। जागीरदार साहब से कह देना, मैं तो शायद ही आ पाऊंगा। बहुत काम है।
संदेशवाहक ने जर्मन मूल के इस रूसी डाक्टर के रूखे स्वर को सुन कर यह अन्दाज़ लगा लिया कि डाक्टर किसी बात पर नाराज़ हैं। वह जवाबी संदेश ले कर चुपचाप वहां से लौट गया। डा० बेर्स अपने परिवार के बारे में सोचते हुए अगले मरीज़ का इंतज़ार करने लगे। बड़ी बेटी लीज़ा उन्नीस बरस की हो गई है। समय आ गया है कि अब उसकी शादी कर द्नी चाहिए। वैसे तो अब तक कभी की उसकी शादी कर दी होती। लेकिन कोई अच्छा लड़का मिले, तब ना…।
लेफ़ तलस्तोय अपने पड़ोसी जागीरदार इसलिन्येफ़ की भानजियों को उनके बचपन से ही जानते थे। वे अक्सर उनके घर मास्को के क्रेमलिन में भी आते-जाते थे। इसके लिए बहाने बहुत से मिल जाते थे। लेकिन उनका उद्देश्य एक ही होता था, किसी तरह डा० बेर्स की बड़ी बिटिया लीज़ा से निकटता बढ़ाना ताकि उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जा सके।
लीज़ा अपने पिता की ही तरह सुडौल, सुन्दर और सुशिक्षित है। ऐसी लड़की से विवाह करके कोई पुरुष सिर्फ़ गर्व ही कर सकता है। लेकिन लेफ़ तलस्तोय पिछले दो साल से उसके घर के चक्कर लगा रहे हैं और उन्होंने अभी तक इस सिलसिले में कोई चर्चा तक नहीं की है। यहां आकर वे बेर्स की नीली आंखों वाली मंझली बेटी सोन्या के साथ ही बात करते रहते हैं या फिर छुटकी चुलबुली तान्या के साथ हंसी-मज़ाक में लगे रहते हैं। ऐसा लगता है, मानो वे लीज़ा से डरते हों। हालांकि उनकी उम्र कुछ कम नहीं है। वे तैंतीस साल के हो चले हैं और अब तक दो लड़ाइयों में हिस्सा ले चुके हैं। क्या यूं ही कुंआरे घूमते और कभी किसी तो कभी किसी स्त्री के साथ रिश्ते बनाते उनका मन नहीं भरा है। हालांकि बहुत सुन्दर तो नहीं हैं वे, इतने कि उन्हें हैंडसम कहा जा सके, लेकिन फिर भी ऐसे वर तो हैं ही, जिस के वरण की इच्छा बहुत-सी लड़कियां कर सकती हैं। कुलीन वर्ग के सभ्य, धनी, बेहद समझदार और शिक्षित वर। हां, यह ज़रूर है कि लेखकों की तरह ही तलस्तोय भी कभी-कभी कुछ अटपटा-सा व्यवहार करते हैं। कभी अपने कृषि-दासों को आज़ाद करने की कोशिश करते हैं (तब तक रूस में दासप्रथा बाक़ी थी) तो कभी खुद ही हल लेकर खेतों को जोतने पहुंच जाते हैं। कभी कृषि-दासों के बच्चों के लिए स्कूल खोलते हैं तो कभी अपना घरेलू काम खुद ही करने की बात करते हैं। परन्तु, इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति वे विद्वान हैं। पत्र-पत्रिकाओं में उनकी तुलना रूसो और शेक्सपीयर से की जाती है। जबकि सोन्या का तो मानना यह है कि लेफ़ तलस्तोय इन दोनों से भी बड़े लेखक हैं।
उनका उपन्यास बचपन पढ़ कर तो वह जैसे उन पर फ़िदा हो गई है। कहीं ऐसा तो नहीं कि तलस्तोय से गहरे प्रभावित हो कर यह लड़की भी लेखक बनने की तैयारी कर रही हो। वैसे हाल ही में उसने अपनी लिखी एक कहानी सुनाई थी, जिसके पात्रों के नाम हालांकि दूसरे थे, लेकिन वे पात्र काफ़ी कुछ लीज़ा, लेफ़ तलस्तोय और खुद सोन्या से ही मिलते-जुलते थे। हे भगवान ! अभी तो उसकी उम्र अट्ठारह की भी नहीं हुई और हरकतें देखो इसकी। पता नहीं, क्या गुल खिलाएगी…।
मां के साथ मामा के घर इवीत्सी जाने से पहले डा० बेर्स ने लीज़ा को अपने पास बुलाया और स्नेह भरे स्वर में कहा मेरी गुड़िया! अगर तुम यास्नया-पल्याना जाओ तो लेफ़ के साथ अकेले में अधिक से अधिक समय गुज़ारने की कोशिश करना।
लीज़ा शर्म से लाल हो गई मैं तो पूरी कोशिश करती हूं, पापा। वे खुद ही मुझ से दूर भागते हैं और सोन्या के साथ ज़्यादा समय गुज़ारते हैं।
बिटिया, अब कहीं तुम यह न कहने लगना कि उसकी नज़र तान्या पर है।
नहीं, नहीं, पापा, मुझे पूरा यक़ीन है कि वे सोन्या पर ही लट्टू हैं। लीज़ा ने अपनी पलकें झपकाईं।
अच्छा, चलो छोड़ो, बस बहुत हुआ। एकदम अपनी मां पर गई है। वैसे ही जलती है दूसरों से, खाली-पीली, बिन बात। डा० बेर्स का यह मानना था कि औरतों के दिल की बात वे औरतों से ज़्यादा जानते हैं। अपनी जवानी में उन्होंने भी कम औरतें नहीं देखी हैं। बिटिया, इसमें कोई शक नहीं कि वह तुझे ही प्यार करता है। हां, ऐसा लगता है कि तुझे अपने दिल की बात बताने में उसे डर लगता है। मुझे लगता है कि तुम जब यास्नया-पल्याना जाओगी तो सारी बात साफ़ हो जाएगी। इसीलिए उन लोगों ने हमें अपने यहां बुलाया है…।
आख़िर बेर्स परिवार यास्नया-पल्याना पहुँच गया। तलस्तोय ने उन सबका भाव-भीना स्वागत किया। सभी के साथ वे बड़ी सहजता और सौम्यता से मिले। कभी-कभी तो ऐसा लगता कि वे उसी परिवार का एक हिस्सा हों। लेकिन यहां भी वे अपना अधिकांश समय सोन्या के साथ ही बिताते। उसी की तरफ़ ज़्यादा ध्यान देते। जब यह सवाल उठा कि रात को सोन्या कहां सोएगी तो जागीरदात लेफ़ तलस्तोय खुद ही भाग-दौड़ करने लगे। जाकर कहीं से एक आराम-कुर्सी उठा लाए। उसे सोफ़े के साथ इस तरह लगा दिया कि आरामदेह बिस्तर तैयार हो गया। यह सब देखकर सोन्या जहां थोड़ा-सा असहज हो उठी, वहीं मन ही मन वह खुशी भी महसूस कर रही थी।
उसी शाम मेजबान ने अपने इन मेहमानों के स्वागत में दावत दी। तलस्तोय ने देखा कि सोन्या मेज़ पर नहीं है। वे उसे वहां न पा कर बेचैन हो उठे और उसे ढूंढ़ने लगे। सोन्या उन्हें घर के पीछे वाले छज्जे में मिली। वे चुपचाप उसके एकदम पीछे जा कर खड़े हो गए और ज़ोर से उसका असली नाम लिया — सोफ़िया अन्द्रेव्ना! वह चिहुंक पड़ी। उसने पलट कर पीछे देखा। उसकी नीली मखमली आँखों के सौन्दर्य ने जैसे उन पर वशीकरण-सा कर दिया। वे कुछ घबरा गए। लेकिन तुरन्त ही कहा — हम सब खाने पर आपका इन्तज़ार कर रहे हैं। उन्होंने उसे आपकह कर पुकारा था। हालाँकि आज तक वे उसे सिर्फ़ तुमही कहते रहे थे। पता नहीं क्यों, मुझे आज ज़रा भी भूख नहीं है सोन्या ने उत्तर दिया लेफ़  निकलायविच ! जब तक आप लोग खाना खाएंगे, क्या मैं यहीं बैठ सकती हूँ? और उसके बाद मैं सोना चाहूंगी। तलस्तोय ने अपने कन्धे उचकाए और उत्तर दिया —  मन होता है कि आपको देखता ही रहूं। कितनी सहज हैं आप, कितनी सरल, कितनी सुन्दर…! और यह कह कर वे जल्दी से खाने की मेज़ पर वापिस लौट आए।
लेफ़ तलस्तोय
 
अगले दिन तलस्तोय ने मेहमानों के लिए पास के जंगल में पिकनिक का आयोजन किया। नौकरों ने भोजन-पानी और दूसरा सब सामान छकड़ों पर लाद दिया। तीनों लड़कियों और उनकी मां के लिए फ़िटन का इन्तज़ाम किया गया और तलस्तोय ख़ुद लम्बी अयालों वाले एक ख़ूबसूरत सफ़ेद घोड़े पर सवार हो गए। तभी उन्होंने देखा कि सोन्या भी घोड़े की सवारी करना चाहती है। तलस्तोय ने उसके लिए भी अलग से एक और घोड़ा मंगवा दिया। दोनों अपने-अपने घोड़ों पर सवार होकर आगे-आगे चल पड़े। बेचारी लीज़ा ने बेहद दुखी होकर अपनी मां से पूछा ममा, तुम्हें क्या यह सब ठीकलगता है? मां ने उत्तर दिया हां, सब ठीक है, लीज़ा। तुम घुड़सवारी करने से डरती हो और वह नहीं डरती। ल्युबोफ़ अलिक्सान्द्रव्ना ने अपने मन की यह बात छुपाने की कोशिश नहीं की कि वे सोन्या को ही सबसे ज़्यादा प्यार करती हैं। उन्होंने आगे कहा —  अच्छा यही होगा, लीज़ा, कि तुम यह समझ लो कि अपने सुख के लिए हमें ख़ुद ही लड़ाई करनी चाहिए… सुख किसी को भी थाल में रखा हुआ नहीं मिल जाता…।
कुछ दिन यास्नया-पल्याना में रहकर बेर्स परिवार की लड़कियां अपने मामा के पासइवीत्सी चली गईं। एक-दो दिन के बाद अपने उस सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर लेफ़तलस्तोय भी उनके पीछे-पीछे इवीत्सी पहुँच गए। वे बेहद ख़ुश और ताज़ादम लग रहेथे। मुस्कान उनके होठों से छलक-छलक जाती थी। किसी किशोर बालक की तरह वेबेहद उछाह में थे। लड़कियों के साथ उन्हीं की तरह से ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुएवे वैसे ही उछल-कूद रहे थे। लड़कियों को भी उनका साथ पसन्द आ रहा था। वे भीबात-बेबात बार-बार कभी ज़ोरों से हँसती थीं तो कभी चीख़ने लगती थीं। नंगे पैरही घास पर दौड़ते हुए वे लोग छुअम-छुआई खेल रहे थे। तभी अचानक सोन्या भाग करवहां खड़ी एक घोड़े-रहित बग्घी में जाकर बैठ गई और बोली जब कभी मैं महारानी बनूंगी तो ऐसी ही बग्घी में सवारी किया करूंगी। तलस्तोय तुरन्त ही उस बग्घी में घोड़े की तरह जुत गए और दो-तीन सौ मीटर तक उस बग्घी को खींच कर ले गए।
दोपहर में आस-पास की जागीरों से मेहमान वहाँ पहुँचने लगे, जिनमें युवक-युवतियाँ, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, सभी उम्रों के लोग थे। कुछ लोग घर के भीतर से पियानोखींच कर बाहर ले आए। नाचना-गाना शुरू हो गया। हंगामा बढ़ने लगा। महफ़िल जमनेलगी। परन्तु जैसे-जैसे शोर बढ़ता गया, लेफ़ तलस्तोय शान्त होते गए। होते-होते हालत यहां तक पहुंची कि तलस्तोय उस महफ़िल से अलग-थलग चुपचाप एक कोने में खड़े थे। उन्हें जैसे किसी चीज़ ने एकदम बदल कर रख दिया था। वे उदास नज़रों से नाचते हुए जोड़ों को ताक रहे थे।
शाम के नौ बज चुके थे। सूर्य की किरणें अपना ताप खो चुकी थीं पर क्षितिज में लाल गोला अभी भी अटका हुआ था। तलस्तोय ने सोन्या को इशारे से अपने पास बुलाया और घर के भीतर उस कमरे में ले गए जहाँ सोन्या के मामा इसलिन्येफ़ अक्सर अपने दोस्तों के साथ ताश खेला करते थे। इस वक़्त भी उदासी उन्हें घेरे हुए थी। कुछ-कुछ परेशान और उदास स्वर में उन्होंने सोन्या से कहा देखिए, मैं इस सलेट पर अभी कुछ लिखूंगा, क्या आप इसे पढ़ पाएंगी। तलस्तोय ने सलेटीसे जल्दी-जल्दी कुछ अक्षर लिख डाले आ. ज. औ. जी में सु. पा. की इ. मु. तु. अ. बु. औ. जी. भ. सु. न मि. पा. की सं. की या. दि. हैं। ये अक्षर लिख कर तलस्तोय ने सलेट सोन्या की ओर बढ़ा दी और अपनी उदास नीली आंखों से वे उसकी ओर ताकने लगे।
बीसियों साल बाद उस दिन को याद करते हुए सोफ़िया अन्द्रेव्ना ने उस समय की अपनी मनोदशा का वर्णन इन शब्दों में किया मेरा दिल बड़ी ज़ोर से धड़क रहा था, माथे पर पसीना आ गया था, चेहरा भयानक रूप से जल रहा था। समय जैसे ठहर गया था। बल्कियूं कहना चाहिए कि मैं जैसे समय के बाहर कहीं गिर पड़ी थी, अपनी चेतना केबाहर, सुदूर कहीं अन्तरिक्ष में। मुझे लग रहा था कि मैं कुछ भी कर सकतीहूं, सब कुछ मेरे बस में है, मैं सब कुछ समझ रही थी, हर उस चीज़ को अपनीबाहों से घेर सकती थी, जो आम तौर पर मेरी बाहों के घेर में नहीं समासकती…।
आपकी जवानी और… जीवन में सुख पाने की इच्छासोन्या उन अक्षरों को अन्दाज़ से पढ़ने की कोशिश कर रही थी, पहले अटकते हुए और फिर धीरे-धीरे पूरे विश्वास के साथ मुझे तुरन्त अपने बुढ़ापे और… जीवन भर सुख… न मिल पाने की… संभावना की याद दिलाते हैं।
लेफ़  तलस्तोय को पूरा विश्वास था कि सोन्या एकदम ठीक-ठीक इस वाक्य को पढ़ लेगी, इसलिए उन्हें ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ कि सोन्या ने कुछ ही क्षणों में उनकी उस पहेली को हल कर लिया।
और अब ज़रा यह पढ़ने की कोशिश कीजिए…। वे सलेट पर कुछ और लिखने ही जा रहे थे कि सोन्या की मां की आवाज़ सुनाई पड़ी, जो कुछ घबराई हुई-सी सोन्या को ढूँढ़ रही थीं।
सोन्या, सोन्या तू कहाँ है? यहाँ क्या कर रही है? चल, सोने का समय हो गया है। नीली आंखों वाली वह लड़की शर्म से जैसे ज़मीन में गड़ गई मानो उसे चोरी करते हुए पकड़ लिया गया हो। वह तुरन्त वहाँ से भाग गई। अपने कमरे में पहुँचकर उसने मोमबत्ती जलाई और अपनी डायरी में लिखा आज हमारे बीच जैसे कुछ घट गया है… कुछ ऐसा… कुछ इतना महत्वपूर्ण कि अब वापिस पीछे की ओर लौटना मुमकिन नहीं है…।
चेखव के साथ लेफ़ तलस्तोय
ल्युबोफ़ अलिक्सान्द्रव्ना जब अपनी बेटियों के साथ वापिस मास्को लौटने लगीं तो अचानक ही तलस्तोय ने कहा मैं भी आप लोगों के साथ ही चलूँगा। आपके बिना अब यहांसब सूना-सूना लगेगा। यहां अब मेरा मन नहीं लगेगा। उनके इस निर्णय से सबबेहद ख़ुश हुए। ख़ासकर लीज़ा बहुत ख़ुश हुई। तलस्तोय ने बताया कि वे फ़िटन मेंसबके साथ नहीं, बल्कि फ़िटन के बाहर फ़िटन-चालक के पास बनी खुली जगह परबैठेंगे। लड़कियों से उन्होंने कहा कि यदि वे भी उनके साथ बाहर बैठना चाहेंतो बारी-बारी से बैठ सकती हैं। जब सोन्या की बाहर बैठने की बारी आई तो लीज़ाको अपनी मां के ये शब्द याद आ गए कि अपने सुख के लिए लड़ाई हमें ख़ुद हीलड़नी चाहिए। लीज़ा ने सोन्या के कान में फुसफुसाते हुए कहा अगर तुझे कोईफ़र्क न पड़ता हो तो मैं तेरी जगह बाहर बैठना चाहती हूं। सोन्या ने बड़े गर्वसे अपनी बड़ी बहन को इसका जवाब देते हुए कहा नहीं, नहीं, भला मुझे क्याफ़र्क पड़ने वाला है। लीज़ा बड़े ठाठ से जाकर तलस्तोय के पास बैठ गई और कोई बातकरने लगी। सोन्या को अचानक ही लगा कि वह अपनी बहन से घृणा करने लगी है…।
डॉ० बर्स उन्हें घर के दरवाज़े पर ही इन्तज़ार करते हुए मिले। जब उन्होंने देखा कि लीज़ा तलस्तोय के साथ उनके निकट ही बैठी है तो वे बहुत ख़ुश हुए। उनके मुंह से अचानक ही निकला यह तो एकदम कबूतरों का जोड़ा लगता है।
तलस्तोय मास्को के अपने घर में रहकर कुछ लिखना-पढ़ना चाहते थे। परन्तु पता नहीं क्यों, कुछ भी पढ़ने या लिखने की उनकी मनः स्थिति नहीं बन पा रही थी। आख़िर उन्होंने एक फ़िटन किराए पर ली और क्रेमलिन की ओर चल पड़े। लेफ़ तलस्तोय बेर्स परिवार से इतना घुल-मिल गए थे और उन्हें उनके साथ रहने व घूमने-फिरने की जैसे आदत हो गई थी, जैसे कोई अपने ही परिवार के साथ रहता हो। लेकिन इनदिनों डॉ० बेर्स तलस्तोय के साथ बड़े ठण्डे ढंग से पेश आने लगे थे। उनकीग़र्मजोशी जैसे कहीं बिला गई थी। उनका व्यवहार ही बदल गया था।
डॉ० बेर्स के इस रूखे-सूखे व्यवहार और लीज़ा की नाराज़गी से तलस्तोय भी उदास, निराश और अनमने से रहने लगे। रास्ते के बीच में ही दो बार उन्होंने फ़िटन वाले से फ़िटन वापिस मोड़ लेने के लिए कहा। वे उस घर में अनचाहे मेहमान बनकर नहीं जाना चाहते थे। लेकिन दोनों ही बार यह सोच कर कि उनके वहां पहुंचने से सोन्या, तान्या और उनकी मां कितनी प्रसन्न होंगी, तलस्तोय ने फ़िटन फिर सेवापिस अपने गन्तव्य की ओर मुड़वा दी।
बेर्स परिवार के साथ सम्बन्ध बिगड़ने के लिए तलस्तोय ने ख़ुद को ही ज़िम्मेदार माना क्योंकि अभी हाल तक वे ख़ुद भी तो लीज़ा को ही यास्नया-पल्याना में वधू बनाकर ले जाना चाहते थे। लेकिन यह भी सच है कि स्त्रियों के प्रति अपनी भावनाओं के मामले में कितनी ही बार उन्हें धोखा हो चुका है। उनके साथ शारीरिक निकटता की जो प्यास उनके मन में जलने लगती है, वे कितनी ही बारउसको वास्तविक प्रेम समझ बैठे हैं, जबकि दोनों में काफ़ी फ़र्क़ होता है। बेर्स परिवार के साथ मास्को आने से कुछ पहले ही तलस्तोय ने अपनी डायरी में लिखा था लीज़ा बेर्स मुझे बेहद लुभाती है, लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि उससे विवाह करने के लिए सिर्फ़ इतना ही ज़रूरी नहीं है कि उसे देखकर मेरी राल टपकने लगे, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि मैं उससे प्रेम करूँ। हमारे बीच केवल शारीरिक आकर्षण ही नहीं बल्कि भावात्मक लगाव भी होना चाहिए।
एक बार तो ऐसा हुआ कि तलस्तोय ने लगभग पूरी तरह से यह तय कर लिया था कि वे उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रख देंगे। लेकिन तभी उन्हें यह ख़याल आया कि उसके प्रति पारस्परिक रूप से वैसा ही भावात्मक लगाव न रखने के बावजूद उससे विवाह करके वे उसे कितना अभाग्यशाली बना देंगे। और तभी से उन्होंने लीज़ा के बारे में सोचना पूरी तरह से बन्द कर दिया।
अब उनके सामने यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि क्या उन्हें बेर्स परिवार में आना-जाना बन्द कर देना चाहिए। परन्तु ऐसा करना भी उनके लिए संभव नहीं था। सोन्या उनके जीवन पर अचानक वैसे ही छा गई थी, जैसे कोई पहाड़ी नदी अचानक जल बढ़ जाने पर अपने तटबंधों को तोड़कर उफनने लगती है और अपने आस-पास के सारे इलाके पर छा जाती है। सच-सच कहा जाए तो उसी के वशीकरण से तो वशीकृत होकर वे उस घर में घुसने का साहस जुटा पाते हैं, जहां उनके प्रति गृहस्वामी इतनी रुखाई से पेश आता है। ऐसा क्या घटा, ऐसा क्या हुआ कि वह छोटी-सी किशोरी उन्हें अंधेरे में रोशनी की किरण की तरह लग रही थी। इसे किसी भी तरह समझ पाना कठिन है। अभी हाल तक वे उसे सिर्फ़ एक संजीदा व गंभीर किशोरी मानकर उसके साथ बहस और ठिठोली किया करते थे। और अब वे चाहे कुछ भी क्यों न कर रहे हों, कहीं भी क्यों न हों, उन्हें लगातार उस लड़की की याद सताती है, उसकी आवाज़ सुनाई देती है, उसकी नीली आंखें दिखाई देती हैं। सच्चा प्यार वास्तव में किसी माया की तरह ही होता है।
केवल उत्सुकतावश ही नहीं बल्कि यह जानने के लिए कि सोन्या के मन में क्या है तलस्तोय ने सोन्या से उसकी डायरी पढ़ने के लिए मांगी। सोन्या यह अनुरोध सुनकर शर्मा गई और उसने तलस्तोय को अपनी डायरी देने से मना कर दिया। तब उन्होंने उससे वह कहानी देने का अनुरोध किया जिसकी कुछ उड़ती हुई ख़बर उन्हें भी मिल गई थी। वह कहानी उन्हें देने को सहमत तो हो गई, लेकिन फिर भी यह नहीं चाहती थी कि तलस्तोय उसकी लिखी कहानी को पढ़ें। उस छोटी-सी किशोरी द्वारा लिखी गई उस बेहद अच्छी कहानी में कहानी के एक पात्र कुंवर दुब्लीत्स्की के रूप में तलस्तोय ने ख़ुद को पहचान लिया था —  वह व्यक्ति जिसके सोचने का ढंग ढुलमुल क़िस्म का होता है, अक्सर उसका चेहरा-मोहरा भी आकर्षक नहीं होता। कुंवर दुब्लीत्स्की के बारे में कहानी लेखिका की यह टिप्पणी पढ़कर तलस्तोय हताश हो गए। यह एक बात है कि आप स्वयं यह जानते हैं कि आप बदसूरत हैं और यह एकदम दूसरी स्थिति, जब कोई आपके मुंह पर आपको यह बता दे कि आप बेहद बदसूरत हैं। तलस्तोय को यह जानकर भी आश्चर्य हुआ कि इस किशोरी ने जैसे लीज़ा के सिलसिले में उनके मन की बात पढ़ ली है। नहीं तो अपनी इस कहानी ज़िनाइदामें उसने भला कैसे यह दिखला दिया कि बड़ी बहन ज़िनाइदाका मंगेतर दुब्लीत्स्की उसकी छोटी बहन नीली आंखों वाली येलेना को प्यारकरने लगा है।
इसका मतलब है कि वह असामान्य मेधा वाली बेहद संवेदनशील लड़की है, जो वह सब भी देख और समझसकती है जो अक्सर दूसरे की आंख से ओझल रहता है। निश्चय ही अपने अप्रतिमसौन्दर्य, संवेदनशीलता और पवित्र व शुद्ध मन के साथ वह एक अमूल्य निधि है।लेकिन हाय ! यह कितने दुख की बात है कि यह अमूल्य निधि उन्हें नहीं मिलपाएगी। चूंकि अगर उम्र के हिसाब से देखा जाए तो यह किशोरी उनकी बेटी होसकती है। और फिर उसकी नज़र में वे ढुलमुल क़िस्म के अनाकर्षक व्यक्तिभी हैं। क्या किया जाए? सोन्या के बिना आगे का सारा जीवन ही जैसे निरर्थक लगने लगा है।
1862 में सितम्बरका वह महीना बड़ा ख़राब था। दिन-रात पानी बरसता रहता। और यह लगातार हो रहीवर्षा तलस्तोय के भीतर अकेलेपन और विरह की भावना को और भड़का रही थी। रातेंविशेष रूप से पीड़ादायक होतीं। आंख लगते ही नींद खुल जाती और तलस्तोय मन हीमन सिर्फ़ यही सोचते रहते कि क्या किया जाए? मन के भीतर बेचैनी बढ़ने लगी। तलस्तोय ने अपनी डायरी निकाली और बेताबी के साथ लिखने लगे — 12 सितम्बर, मैं उसके प्रेम में डूब गया हूं।विश्वास नहीं होता कि मैं इस तरह बेतहाशाभी प्यार कर सकता हूं किसी को। मुझे लगता है कि मैं पाग़ल हो गया हूं। अगरसब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो मैं ख़ुद को गोली मार लूंगा…। अगली रात जब उनकीआंख खुली तो वे पूरी तरह से निराश हो चुके थे। उन्होंने लिखा —     13 सितम्बर, सवेरे उठते ही वहां जाऊंगा और सब कुछ कह दूंगा या फिर ख़ुद को गोली मार लूंगा…। सुबह के चार बजे हुए हैं। अभी उसके नाम एक पत्र लिख चुका हूं। सवेरे यह पत्र उसे सौंप दूंगा… हे भगवान, मैं मौत से कितना डरता हूं !…
लेकिन इसके दो दिन बाद ही वे डॉ० बेर्स के यहां गए। उनका घर मेहमानों से भरा था। डॉ० बेर्स का पुत्र अलेक्सान्दर, जो एक आर्मी कालेज का छात्र था, अपने सहपाठियों के साथ छुट्टियों में घर आया हुआ था। सोन्या मेहमानों के साथ व्यस्त थी जो उसे एक क्षण के लिए भी अकेला नहीं छोड़ रहे थे। आख़िर मौक़ा  देख कर तलस्तोय ने सोन्या को एक कमरे में बुलाया और उसके हाथ में अपना पत्र सौंपते हुए कहा यह लीजिए… पढ़ लीजिए… मैं यहीं आपके जवाब का इन्तज़ार कर रहा हूँ।
सोन्या वह पत्र लेकर अपने कमरे में भाग गई। वह बड़ी कठिनाई से उस पत्र की लिखावट पढ़ पा रही थी सोफ़िया अन्द्रेव्ना !  मैं बेहद बेचैन हूं। पिछले तीन हफ़्ते से मैंरोज़ ही यह सोचता हूं कि आज मैं जाकर सब कुछ बता दूंगा, पर हर रोज़ ही अपनेदिल में छुपे दर्द, अपने मन की बात और अपने मन में बसे सुख के साथ मैं आपकेयहां से लौट जाता हूं…। आपकी वह कहानी जैसे मेरे मन में बस-सी गई है।उसे पढ़कर मुझे यह विश्वास हो गया है कि मुझे, दुब्लीत्स्की को, अब सुख का सपना नहीं देखना चाहिए…। अब मैं यह महसूस कर रहा हूं कि मैंने आपके परिवार में भी बहुत गड़बड़ फैला दी है। आपके साथ, सच्चे दिलवाली एक लड़की के साथ मेरे जो आत्मीय सम्बन्ध थे, वे भी ख़त्म हो गए। अब न तो मैं यहां रुक सकता हूं और न ही यहां से जा सकता हूं। भगवान के लिए बिना कोई जल्दबाज़ी किए, कृपया मुझे यह बताइए कि इस परिस्थिति में अब मैं क्या करूं? … मैं शायद हंसी से मर ही गया होता, अगर किसी ने मुझे आज से एक महीने पहले यह बताया होता कि मैं कभी इतना दुःखी हो सकता हूं जितना दुखी मैं आजकल रहता हूं… कृपया सच्चे मन से मुझे यह बताइए क्या आप मुझसे विवाह करने के लिए तैयार हैं?…
पत्र में आगे भी बहुत-कुछ लिखा था, लेकिन सोन्या उस पत्र को आगे नहीं पढ़ पाई। उसकीआँखों के आगे जैसे सब घटनाएं फिर से तैर रही थीं। वह उस कमरे की तरफ़ भागी, जहां वह तलस्तोय को छोड़ आई थी। लेकिन रास्ते में ही उसे अपनी मां दिखाई दे गई —  ममा, लेफ़ ने मुझ से विवाह करने का प्रस्ताव रखा है सोन्या ने फ़्रांसीसी भाषा में कहा। —  अरे बिटिया, फिर तू यहां खड़ी मेरा मुंह क्या देख रही है। जा, जाकर उन्हें जवाब दे —  ल्युबोफ़ अलिक्सान्द्रव्ना ने उससेकहा। सोन्या जैसे किसी सपने में डूबी-सी एक के बाद एक कमरे पार करके उसजगह पहुँची, जहां अपना ज़र्द चेहरा लिए बेहद घबराए हुए तलस्तोय दीवार के साथइस तरह पीठ टिका कर खड़े थे, मानो उन्हें अभी गोली मार दी जाएगी।
लेफ़ तलस्तोय अपनी पुत्री के साथ
हां, बताइए फिर? — तलस्तोय ने जैसे किसी अजनबी-सी आवाज़ में पूछा क्या आप मुझसे शादी करेंगी…?
—  जी हाँ, ज़रूर!  मैं आप ही से विवाह करूंगी ख़ुशी से विह्वल होते हुए अश्रु भीगे स्वर में उसने उत्तर दिया।
अगले दिन बेर्स परिवार में मित्रों और रिश्तेदारों का तांता लग गया। लीज़ा जैसे अधमरी हो गई थी। प्रायः सभी लोग यह मानते हुए कि तलस्तोय ने उसी को पसन्द किया है, उनके घर पहुंचकर सबसे पहले उसी को अपनी बाहों में भर लेते। वहबेचारी बड़ी खिसियाहट के साथ बताती कि सगाई उसकी नहीं बल्कि सोन्या की होरही है। इसलिए बधाई उसे ही देनी चाहिए। डॉ० बेर्स ने तो बीमारी का बहानाकरके सगाई में भाग ही नहीं लिया। जब लड़कियों को फ़्रांसीसी भाषा सिखाने वालेबूढ़े प्रोफ़ेसर ने बड़े दुःख के साथ यह बात कही —  अफ़सोस ! अफ़सोस ! बहुतअफ़सोस की बात है कि सगाई लीज़ा की नहीं हुई। कितनी बढ़िया फ़्रांसीसी बोलती हैयह लड़की… —  तो वहां एक असहज सन्नाटा छा गया।
उन दोनों की शादी के लिए एक सप्ताह बाद का एक दिन तय कर दिया गया। तलस्तोय जल्दी से जल्दी विवाह करने पर ज़ोर दे रहे थे। वे मन ही मन डर रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि सोन्या उनसे विवाह करने से इंकार कर दे। लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने विवाह से पहले ही सोन्या को अपनी डायरी पढ़ने के लिए दे दी। वे यह मानते थे कि सोन्या को उनके बारे में सब कुछ मालूम होना चाहिए। वह डायरी पढ़कर स्त्री-पुरुष के बीच पारस्परिक सम्बन्धों के अनुभवों से रहित सोन्या का मन बेहद क्षुब्ध हो उठा। डायरी से उसे वे बातें भी मालूम हो गईं जिनका वह अब तक सिर्फ़ अन्दाज़ ही लगा सकती थी कि तलस्तोय के सम्बन्ध उससे पहले अन्य कई स्त्रियों के साथ भी रहे हैं। इनमें से कुछ स्त्रियां तो उनकी कहानियों की पात्र भी बनी हैं। यह सब जानकर वह घंटों रोती रही। बस इसी वजह से उसके मन को गहरी चोट नहीं लगी क्योंकि उसकी उम्र अभी अट्ठारह की भी नहीं हुई थी और वह उस डायरी की बहुत सी बातें समझ नहीं पाई थी। तलस्तोय की पत्नी बनने के बाद शायद वह सब कुछ समझने लगेगी। लेकिन फ़िलहाल तो वह दो दिन तक तलस्तोय की बीती हुई ज़िन्दगी से ईर्ष्या करते हुए घर में दीवार पर टंगे एक चाकू को अपनी पीड़ा का हल मानते हुए उस पर नज़र गड़ाए रही।
विवाह से दो दिन पहले तलस्तोय ने उससे पूछा शादी के बाद आप कहां रहना चाहेंगी? मास्को में, विदेश में या यहां से सीधे यास्नया-पल्याना चलेंगी?
यहां से सीधे यास्नया-पल्याना ही चलेंगे —  सोन्या ने बिना एक क्षण की भी देर लगाए सीधा उत्तर दिया।
गिरजे में हुए विवाह-समारोह के बाद बेर्स परिवार ने अपने घर में विवाह-भोज का आयोजन किया। विवाह से सम्बन्धित अन्य सामाजिक रस्में भी वहीं अदा की गईं। घर के पास ही एकदम नई बग्घी खड़ी थी, जिसे तलस्तोय ने नववधू को यास्नया-पल्याना ले जाने के लिए विशेष रूप से ख़रीदा था। न जाने क्यों तलस्तोय जल्दी से जल्दी यास्नया-पल्याना पहुंच जाना चाहते थे। वे जल्दबाज़ी कर रहे थे। विदा का समय हो गया। सोन्या ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। मानो हमेशा के लिए अपना यह घर छोड़कर जा रही है और अब कभी उसे उस घर में वापिस नहीं आना है। वह अपने पिता के गले से लिपट गई मानो उनसे क्षमा मांग रही हो कि वैसा नहीं हुआ, जैसा वे चाहते थे। लीज़ा की जगह वह यास्नया-पल्याना जा रही है।उसने तान्या को अपनी बाहों में बांध लिया और अपने भाई के चेहरे को देर तकचूमती रही। तब तक ख़ुद लीज़ा उसके निकट आ गई और उसने उसे भी अपनी बाहों मेंभर लिया। परन्तु लीज़ा चुप रही। उसने एक शब्द भी नहीं कहा। वह अभी तक उससेनाराज़ थी।
24 सितम्बर को संध्या समय यह नवविवाहित जोड़ा यास्नया-पल्याना पहुंचा। घर की दहलीज़ के बाहर तलस्तोय केसगे-सम्बन्धियों और नौकरों ने रोटी और नमक के साथ उनका स्वागत किया। वर-वधूने वह शाम अपने शयनकक्ष में बिताई। अगले दिन सुबह तलस्तोय चुपचाप अपनीदुल्हन के पास से उठे और उन्होंने अपनी डायरी में लिखा  — 25 सितम्बर, असाधारण सुख। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यह सुख सिर्फ़ जीवन के साथ ही ख़त्म हो?
उन दोनों ने एक लम्बा समय साथ बिताया। 48 साल तक वे एक-दूसरे के सुख-दुख के सहभागी रहे। उनका सारा जीवनयास्नया-पल्याना में ही बीता। ऐसा बहुत कम हुआ जब वे यास्नया-पल्याना छोड़करकहीं और गए हों। तलस्तोय ने अपनी सभी विश्व-प्रसिद्ध रचनाएं अपने विवाह केबाद ही लिखीं और उन सभी का सम्पादन किया उनकी पत्नी सोफ़िया अन्द्रेव्नाने। अपने साहित्यिक, धार्मिक और नैतिक अन्वेषणों में व्यस्त तलस्तोय नेअपनी जागीर की तरफ़ शायद ही कभी कोई ध्यान दिया हो। यह ज़िम्मेदारी सोफ़ियाअन्द्रेव्ना ने अपने ऊपर ओढ़ ली थी।
लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि उनका पारिवारिक जीवन हमेशा शुभ्र और स्वच्छ रहा और उनके जीवन की गाड़ी हमेशा समगति से ही दौड़ती रही। पारस्परिक रूप से एक-दूसरे के प्रति गहरे लगाव और प्रेम के बावजूद दोनों की जीवन-दृष्टि में बहुत अन्तर था। उनके बीच मतभेद इतने गहरे हो गए थे कि वे लोगों के बीच अक्सर चर्चा के विषय बनने लगे थे। और इस घरेलू विवाद का भी वही अन्त हुआ जो आम तौर पर इस तरह के विवादों का होता है।
यह1910 की बात है। पतझड़ का मौसम बीत रहा था। सर्दियां शुरू होने जा रही थीं।दिन-प्रतिदिन ठण्ड बढ़ती जा रही थी। तलस्तोय 82 वर्ष के हो चुके थे। एक रात तलस्तोय ने चुपके से अपने डॉक्टर को साथ लेकर अपना घर छोड़ दिया और यह तय किया कि वे अब एक मठ में जाकर रहेंगे। स्टेशन पर पहुंचकर उन्हें जो पहली गाड़ी मिली, वे उसी पर सवार हो गए ताकि सोफ़िया अन्द्रेव्ना को यह पता नहींलगे कि वे कहां गए हैं। साधारण श्रेणी के उस डिब्बे में, जिसमें तलस्तोययात्रा कर रहे थे, बेहद ठण्ड थी। रास्ते में उन्हें ठण्ड लग गई। उनकी हालतआगे यात्रा करने लायक नहीं रह गई थी। अस्तापवा नामक एक छोटे से स्टेशन परउन्हें उतरना पड़ा। वहां के स्टेशन-मास्टर ने अपना कमरा उनके लिए ख़ाली कर दिया। उनकी बीमारी बढ़ती गई और फिर वे वहां एक सप्ताह तक बेहोश पड़े रहे। तलस्तोय मर रहे हैं, यह ख़बर जल्दी ही सारी दुनिया में फैल गई। लोगों केजत्थे अस्तापवा पहुंचने लगे। जनता का यह मानना था कि सोफ़िया अन्द्रेव्ना कीवजह से ही तलस्तोय को यास्नया-पल्याना छोड़ना पड़ा है। इसलिए जब सोफ़ियाअन्द्रेव्ना मृत्य-शैय्या पर पड़े तलस्तोय से मिलने के लिए अस्तापवा पहुंचीतो भीड़ ने उन्हें पति से नहीं मिलने दिया… ।
उन्हें उसी समय उस कमरे में घुसने दिया गया, जब तलस्तोय की सांस बन्द हो गई। लेकिन सोफ़िया अन्द्रेव्ना को यह विश्वास नहीं हुआ कि तलस्तोय मर चुके हैं। वे अपने पति के निकट ही बैठ गईं। इसके आगे की बात का ज़िक्र करते हुए स्वयं उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है…
मैं उनके कान में धीरे-धीरे यह फुसफुसाने लगी कि मैं सारा समय वहीं उनके पास ही बैठी रही हूं और मैं उन्हें बेहद-बेहद प्यार करती हूं। मैं बेहद स्नेह और आत्मीयता के साथ उनसे बात कर रही थी। मैंने उनसे अपनी ग़लतियों के लिए माफ़ी मांगी। और अचानक ही उन्होंने एक गहरी सांस भरी। आस-पास जमा लोगों में आश्चर्य की लहर दौड़ गई। मैं उनसे फिर धीमे-धीमे बातें करने लगी। उन्होंने फिर से एक गहरी सांस भरी। इसके बाद उन्हें ज़ोरों की एक हिचकी आई और वे हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा हो गए… ।
सम्पर्क –
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अनिल जनविजय द्वारा अनुदित विदेशी कवियों की कविताएँ

konstantin kavafi

हाल ही में ‘दुनिया इन दिनों’ पत्रिका की साहित्य वार्षिकी दो खण्डों में प्रकाशित हुई थी. इसके  पहले खण्ड में अनिल जनविजय द्वारा अनुदित कुछ विदेशी कवियों की महत्वपूर्ण कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं. हमने इन कविताओं के महत्व को देखते हुए इसे ‘पहली बार’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का निश्चय किया. इसी क्रम में आज प्रस्तुत है यूनानी कवि कन्स्तान्तिन कवाफी, जर्मन कवयित्री माशा कालेको, पीटर रोजेग्ग और रोजा आउसलेंडर की अनुदित कविताएँ.
  

यूनानी कवि कंस्तान्तिन कवाफ़ी की कविताएँ

1.   सितम्बर 1903 / कंस्तांतिन कवाफ़ी

अब मुझे ख़ुद को धोखा देने दो कम-अज़-कम
भ्रमित मैं महसूस कर सकूँ जीवन का ख़ालीपन
जब इतनी पास आया हूँ मैं इतनी बार
कमज़ोर और कायर हुआ हूँ कितनी बार
तो अब भला होंठ क्यों बन्द रखूँ मैं
जब मेरे भीतर रुदन किया है जीवन ने
पहन लिए हैं शोकवस्त्र मेरे मन ने?

इतनी बार इतना पास आने के लिए
उन संवेदी आँखों, उन होठों को और
उस जिस्म की नाज़ुकता को पाने के लिए
सपना देखा करता था, करता था आशा
प्यार करता था उसे मैं बेतहाशा
उसी प्यार में डूब जाने के लिए

2.   दिसम्बर 1903 / कंस्तांतिन कवाफ़ी

जब मैं बात नहीं कर पाता अपने उस गहरे प्यार की
तेरे बालों की, तेरे होंठों की, आँखों की, दिलदार की
तेरा चेहरा बसा रहता है मेरे दिल के भीतर तब भी
तेरी आवाज़ गूँजा करती है, जानम, मेरे मन में अब भी

सितम्बर के वे दिन सुनहले, दिखाई देते हैं सपनों में
मेरी ज़ुबान तो ओ प्रिया, बस गीत तेरे ही गाती है
रंग-बिरंगा रंग देती है तू मेरी सब रातों को अपनों में
कहना चाहूँ जब कोई बात, बस, याद तू ही तू आती है

3.  अलसाया पड़ा रहता था मैं उनके बिस्तर पर / कंस्तांतिन कवाफ़ी

सुख देने वाले उस घर में जब भी घुसता था मैं
नहीं रुकता था ठीक सामने वाले उन कमरों में
जहाँ निभाया जाता है कुछ प्रेम का शिष्टाचार
और किया जाता है सबसे बड़ा नम्र व्यवहार

गुप्त कमरों में जा घुसता था तब मैं अक्सर
अलसाया पड़ा रहता था मैं उनके बिस्तर पर
जिन पर निपटाती थीं वे ग्राहकों को अक्सर

4. गंदी तस्वीर / कंस्तांतिन कवाफ़ी

वहाँ सड़क पर पड़ी हुई, उस बेहद गंदी तस्वीर में
पुलिस की निगाह से छिपाकर बेची जा रही थी जो
बेचैन हुआ था तब बड़ा, यह जानने को अधीर मै
आई कहाँ से हसीना, कितनी दिलकश दिख रही है वो

कौन जानता है ओ सुन्दरी कैसा तुमने जीवन जिया
कितना मुश्किल, कितना गंदा, गरल कैसा तुमने पिया
किस हालत में, क्योंकर तुमने, यह गंदी तस्वीर खिंचाई
इतने ख़ूबसूरत तन में क्योंकर वह घटिया रूह समाई

लेकिन इतना होने पर भी स्वप्न-सुन्दरी तू बन गई मेरी
तेरी सुन्दरता, तेरी उज्ज्वलता, करते मेरे मन की फेरी
याद तुझे कर-कर हरजाई, सुख पाता हूँ मैं यूनानी
पता नहीं कैसे बोलेगी, तुझसे मेरी कविता दीवानी

5.  सीढ़ियों पर / कंस्तांतिन कवाफ़ी

उन बदनाम सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था जब
तभी पल भर को झलक देखी थी तेरी
दो अनजान चेहरों ने एक-दूजे को देखा था तब
फिर मुड़ गया था मैं शक़्ल छुप गई थी मेरी

बड़ी तेज़ी से गुज़री थी तू छिपाकर चेहरा
घुसी थीं उस घर में जो बदनाम था बड़ा
जहाँ पा नहीं सकती थी तू सुख वह बहुतेरा
जो पाता था मैं वहाँ, उस घर में खड़ा-खड़ा

मैंने दिया प्रेम तुझे वैसा, जैसा तूने चाहा
थकी हुई आँखों से तूने भी मुझ पर प्रेम लुटाया
बदन हमारे जल रहे थे, एक-दूजे को दाहा
पर घबराए हम पड़े हुए थे, कोई न कुछ कर पाया

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय

जर्मन कवियों की कविताएँ

Mascha Kaléko

माशा कालेको (1907-1975) की तीन कविताएँ

1.
पिही / माशा कालेको

एक बार मैंने पढ़ा था पिही के बारे में
चीन का एक पौराणिक पक्षी
सिर्फ़ एक पंख वाला
और जोड़े में रहता है जो

दूर क्षितिज पर उड़ता
पिही का झुण्ड दिखाई देता है

पिही का हमेशा
जोड़ा ही उड़ सकता है
अकेला पिही ज़मीन से चिपक जाता है

पिही की तरह
मैं भी घोंसले से बँध जाऊँगी
ओ मेरी आत्मा !
तू मुझे छोड़ देगी जब

2. आदमी की ज़रूरत / माशा कालेको

किसी को ज़रूरत होती है
सिर्फ़ द्वीप की
और वह समुद्र में खो जाता है

किसी को ज़रूरत होती है
एक आदमी की
और वह बहुत ज़रूरी हो जाता है

3.  नुस्खा / माशा कालेको
अपने डर को भगाओ
सब डरों के डर को।
इन कुछ सालों के लिए
काफ़ी रहेगी रोटी
और आलमारी में कपड़े

मत कहो — यह मेरा है
तुम्हें भी सब दूसरों ने दिया है।
समय के इस दौर में रहो और देखो
तुम्हें कितना कम चाहिए।
यहाँ पर रहो
और तैयार रखो सूटकेस।

वे जो कहते हैं, सच है —
जो आने वाला होगा, आ जाएगा।
दुख से गले मिलने न बढ़ो
जब दुख आएगा
शान्ति से उसके चेहरे को देखो
वह सुख की तरह गुज़र जाएगा।

उम्मीद नहीं करो किसी चीज़ की
चिन्ता करो बस अपने रहस्य की
भाई भी धोखा देगा
जब उसे चुनना होगा ख़ुद को या तुझ को
बस अपनी छाया को ही साथ लो
सुदूर यात्रा में।

अच्छी तरह साफ़ करो अपना घर
पड़ोसियों से मिलो-जुलो
बाड़ ठीक करो हँसी-ख़ुशी
गेट पर लगा दो घण्टियाँ
अपने घाव को भूल नहीं जाओ
अस्थाई शरणस्थली में।

अपनी योजनाएँ फाड़ दो, दिमाग़ से काम लो
किसी चमत्कार की उम्मीद रखो
बड़ी योजना में शामिल है जो
लम्बे समय से

अपने डर को भगाओ
सब डरों के डर को।

  अनुवाद : अनिल जनविजय

पेटर रोज़ेग्ग  (1843-1918) की कविताएँ
1. हे ईश्वर! प्रेम कितना ज़्यादा है / पेटर रोज़ेग्ग

गिर रही हैं पत्तियाँ बलूत की
गर्मियाँ बीत चुकी हैं
चुम्बनों की प्रतीक्षा में होंठ हैं
गर्मियाँ रीत चुकी हैं

रोएँ चारों ओर उड़ रहे हैं
उल्लुओं के कोटरों में शोर है
होंठ चाहते हैं फिर चुम्बन
जो मई में चूमाचाटी कर विभोर हैं

सूखे हुए औफटे हुए हैं होंठ
रंग गुलाबी उनका फीका पड़ चुका है
चाहते हैं वे प्रेम का लम्बा चुम्बन
पर मई का महीना अब गुज़र चुका है

हे ईश्वर ! प्रेम कितना है ज़्यादा
लेकिन समय नहीं बचा है आधा
अनन्त है ये प्रेममार्ग अनन्त है
प्रेम अमर है, प्रेम का न कोई अन्त है

2.तुम्हारी सुन्दर आँखें / पेटर रोज़ेग्ग

दुनिया में कहीं नहीं देखीं
इतनी सुन्दर आँखें,
ज्यों देख रहा हूँ पहली बार
जीवन उनमें से झाँके ।

ये स्वर्ग-प्रकाश के तारे हैं,
जिन्हें अपनी आत्मा से देखूँ
सुबह भोर की ओस से गीली,
स्वर्ण धूप किरण-सा लेखूँ ।

आँखें हैं या फूल वसन्ती,
यह मैं समझ न पाऊँ
इन आल्प-झीलों की गहराई में
मैं काँपूँ और डूब जाऊँ।

3. सवाल / पेटर रोज़ेग्ग

ऐ लड़की, जब मिन्नत करता हूँ तुमसे
तुम सुनती हो ?
ऐ लड़की, जब आँख झुकाती हो तुम
क्या मुझे देखती हो ?
ऐ लड़की, मैं चला जाऊँगा, मर जाऊँगा
क्या यही चाहती हो ?
ऐ लड़की, मैं भी चाहता हूँ कुछ
क्या महसूस करती हो?

4. जीने की इच्छा / पेटर रोज़ेग्ग

शुभरात्रि ! दोस्तो शुभरात्रि !
मैं ख़ुश हूँ — मैं जी रहा हूँ
ख़ूबसूरत है दुनिया मेरे चारों ओर
ईश्वर ! तेरा धन्यवाद
दुनिया यह सुन्दर मुझे भा रही है
लेकिन है बेहद दुख की बात
मुझे नींद आ रही है

ओह, मैं देखना चाहता हूँ
यह मेरा प्यारा देश
चमके चमकीली धूप में
बदल जाए सब भेष
बाँहों के घेरे में
मैं लेना चाहूँ आकाश
पर हो रहा है मुझे
गहरी नींद का भास

जैसे हर शाम बच्चे
बिस्तर पर जाते हैं
मैं वैसे ही चुपचाप
क़ब्र में लुढ़क रहा हूँ
जीने की इच्छा है
पर माननी पड़ेगी यह बात
ईश्वर बुला रहा सोने को
हो गई जीवन की रात

5. ऐसा ही होना चाहिए / पेटर रोज़ेग्ग
फूल पे नाराज़ न हो, जब वो खिलता है
चिड़िया पर नाराज़ न हो, जब वह गाती है
कोयले पे भला, कौन नाराज़ होगा, जब वह जलता है
और घण्टे से कौन कहेगा — वह क्यों बजता है ?

जब खमीर उठे शराब में तो कौन दुखी होता है
या आँधी चले जब तो कौन कुपित होता है
जब शर्म आए किसी को तो गुस्सा करके क्या होगा
जब प्यार आए किसी पर तो कौन होगा नाराज़
ऐसा होना चाहिए, ऐसा ही होना चाहिए
हमेशा ऐसा ही होना चाहिए।

अनुवाद : अनिल जनविजय

Rose Ausländer
रोज़ा आउसलेण्डर (1901-1988) की कविताएँ
1. इच्छा / रोज़ा आउसलेण्डर
मैं सोचती हूँ
कितने सारे शब्द खो देते हैं हम।

जब तक मेरी नज़र उन पर पड़े
वे इतने कम हो जाते हैं
इतने कम शब्द
साँस लेते हैं मेरे साथ।

मुझे याद आते हैं
कुछ शब्द
हम
पहले से ही
साथ-साथ

मैं बाँटना चाहती हूँ
उन्हें
तुम्हारे साथ।

2.  डेविड गोल्डफ़ील्ड की याद में/ रोज़ा आउसलेण्डर


(डेविड गोल्डफ़ील्ड (1904-1942) एक जर्मन यहूदी कवि थे जो उसी बुकोविन इलाके रहने वाले थे, जहाँ रोज़ा आउसलेण्डर का जन्म हुआ था। डेविड गोल्डफ़ील्ड ने अपनी किशोरावस्था में प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था। लेकिन 1942 में वे एक जर्मन नाज़ी शिविर में मारे गए।)

कवि खाँस रहा है
यहूदी बस्ती में
और सुना रहा है अपनी दुख भरी कथा

मेरी माँ मर रही है
सब सगे बन गए हैं अजनबी
हम भुखमरी में रह रहे हैं

अस्पताल के रास्ते में
एक हिमदूत
तैरता हुआ गुज़र गया मेरे ऊपर से

मैंने हँस कर कहा अपने सहयोगी से
घबराओ मत
सब ठीक होगा जल्दी ही
विश्वास करो मेरा

उसने विश्वास किया
मेरी बात पर
और मर गया।

3. बहुत गहरा सन्नाटा / रोज़ा आउसलेण्डर

कुछ लोग भाग निकले
और बच गए

रात में
वे हाथ थे
लाल ईंटों की तरह
लाल रक्त में डूबे

बहुत शोर भरा था यह नाटक
आग के रंगीन चित्र जैसा
अग्नि-संगीत के साथ

फिर मौत थी मौन
चुप और निस्तब्ध!

सन्नाटा चीख़ रहा था वहाँ
हँस रहे थे सितारे
टहनियों के बीच से

भागे हुए लोग
इन्तज़ार कर रहे थे बन्दरगाह पर
और पानी पर झूल रहे थे पोत
पालने की तरह
माँओं और बच्चों के बिना।


अनुवाद : अनिल जनविजय

अनिल जनविजय

सम्पर्क –

ई-मेल : aniljanvijay@gmail.com

वसीली कामिन्स्की का संस्मरण ‘मायकोवस्की मेरा हमदम, मेरा दोस्त’ (अनुवाद – अनिल जनविजय)

मायकोवस्की

लेखकों के बारे में लेखकों के संस्मरणों से बहुत कुछ जानने-समझने का अवसर मिलता है। अनिल जनविजय ने वसीली कामिन्स्की के एक महत्वपूर्ण संस्मरण का हिन्दी अनुवाद किया है। इस संस्मरण में कामिन्सकी ने मायकोवस्की के बारे में कई महत्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित किए हैं। आइए पढ़ते हैं वसीली कामिन्स्की का यह महत्वपूर्ण संस्मरण मायकोवस्की मेरा हमदम, मेरा दोस्त। मूल रुसी से अनुवाद अनिल जनविजय का  है। 

 

मायकोवस्की मेरा हमदम, मेरा दोस्त

वसीली कामिन्स्की

(मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय) 


अगर मायकोवस्की की तुलना उसके अन्य सभी साथियों से की जाए तो वह उनसे लाख गुना अधिक मनमोहक, आकर्षक, ज़िन्दादिल, सहृदय और दूसरों के प्रति चिन्तातुर था। उसे कविताएँ पढ़ना बहुत अच्छा लगता था। वह न केवल अपनी कविताएँ पढ़ता था बल्कि हम सभी की कविताएँ पढ़ता था। कवि सिविरयानिन की कविताएँ तो वह हर समय गाता रहता था। जब भी वह उसकी कोई कविता गा कर सुनाता तो उसके बाद ऊपर से यह टिप्पणी भी अवश्य जड़ देता — वैसे मैं सिविरयानिन से कहीं बेहतर कवि हूँ।  उससे अच्छा लिखता हूँ। उदाहरण के लिए ज़रा मेरी यह कविता सुन कर देखो। इसका शीर्षक है — मायकोवस्की की त्रासदी। तुम सभी लोग मेरे इस बात से सहमत होगे कि मेरी इस कविता में बहुत दम है।

हम मायकोवस्की से कहते — ठीक है, सुनाओ। और वह अपने बड़े-बड़े हाथों को हवा में लहराते हुए अपनीमखमली आवाज़में अपनी वह नई कविता सुनाना शुरू कर देता —

ठीक है,
अब रास्ता दीजिए मुझे
यहाँ से जाने का,
मैं तो सोच रहा था
ख़ुश रहूँगा
आँखों में दमक भरे
बैठ जाऊँगा सिंहासन पर
यूनानियों की तरह आरामतलबी से।
लेकिन नहीं
ओ शताब्दी!
यह जीवन-राह बहुत लम्बी है
और मुझे मालूम है
कि दुबले हैं तेरे पैर
और उत्तरी नदियों के बाल बूढ़े सफ़ेद!
आज मैं
इस नगर को पार कर निकलूँगा बाहर
कीलों बिंधी आत्मा को अपनी
इमारतों की नुकीली छतों पर छोड़ कर।
वह कविता समाप्त करके कुछ विचारमग्न-सा गहरा उच्छवास लेता और कहता —
मैं इतनी गम्भीर कविताएँ लिखता हूँ कि मुझे ख़ुद से ही डर लगने लगता है। चलो, छोड़ो ये बातें, अब कुछ हँसी-मज़ाक करते हैं। पता नहीं क्यों बड़ी बोरियत-सी हो रही है।
मायकोवस्की के चरित्र की एक मुख्य विशेषता यह थी कि उसकी मनःस्थिति बहुत जल्दी-जल्दी बदलती रहती थी। हमेशा ऐसा महसूस होता रहता था कि एक पल वह हमारे साथ है और दूसरे ही पल वह हमारे साथ नहीं है। वह स्वयं अपने भीतर ही कहीं गहरे डूब चुका है और फिर जैसे अचानक ही पुनः वापिस हमारे बीच लौट आया है।
अरे, तुम लोग अभी तक वैसे के वैसे बैठे हो। चलो-चलो, कुछ हंगामा करो। प्यार करो एक-दूसरे को, चूम लो, कुछ धक्का-मुक्की करो, कुछ धींगा-मुश्ती, कुछ गाली-गलौज, कुछ ऐसा करो कि बस, मज़ा आ जाए।
कभी कहता — चलो, ’रूस्सकए स्लोवा’ (रूसी शब्द) के सम्पादकीय विभाग में चलते हैं और वहाँ सम्पादक सीतिन से यह माँग करेंगे कि वह अगले ही अंक में हम सबकी कविताएँ छापे। अगर वह मना करेगा तो हम उसके केबिन के सारे शीशे तोड़ डालेंगे और यह घोषणा कर देंगे कि आज से सीतिन को उसके तख़्त से उतारा जाता है। अब पत्रिका रूस्सकए स्लोवापर हम भविष्यवादियों का अधिकार है। अब इस केबिन में मायकोवस्की बैठेगा और युवा लेखकों को उनकी रचनाओं का मानदेय पेशगी देगा।
 
इस तरह की कोई भी बात कह कर अपनी कल्पना पर वह बच्चों की तरह खिलखिलाने लगता और इतना ज़्यादा ख़ुश दिखाई देता, मानो उसकी बात सच हो गई हो। मायकोवस्की अक्सर इस तरह की शैतानी भरी कल्पनाएँ करता रहता था और फिर हम लोग भी उसकी इन बातों में शामिल हो जाते थे। इस तरह की कोई चुहल अभी चल ही रही होती थी कि अचानक मायकोवस्की का मूड बदल जाता और वह बेहद उदास और खिन्न दिखाई देने लगता।
कभी हम कहीं जा रहे होते कि अचानक उसकी योजना बदल जाती — चल वास्या, ज़रा हलवाई की दुकान पर चलते हैं। कुछ समोसे और मिठाइयाँ बँधवा कर माँ के पास चलेंगे। अचानक हमें आया देखकर माँ और बहनें सभी कितनी ख़ुश होंगी। मैं ख़ुशी-ख़ुशी उसकी बात मान लेता और हम उसके घर पहुँच जाते। कहना चाहिए कि वह अपनी माँ अलिक्सान्द्रा अलिक्सियेव्ना को और अपनी दोनों बहनों– ओल्गा और ल्युदमीला को बेहद प्यार करता था। निश्चय ही उसके बचपन की स्मृतियाँ ही उनके बीच इस प्रगाढ़ स्नेह व आत्मीय सम्बन्धों का आधार थीं।
अपने बचपन के तरह-तरह के किस्से वह हमें सुनाता था। कभी यह बताता कि उसे जार्जिया के उस बगदादी गाँव में, जहाँ वह पैदा हुआ था, अपने बचपन में कुत्तों के साथ घूमना कितना प्रिय था। वह कहता — मैं अपने कुत्तों के साथ गाँव के बाहर जंगल में चला जाता और देर तक किसी पेड़ की छाया में लेटा रहता। खासकर मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती कि कुत्ते मेरी चौकीदारी कर रहे हैं, बल्कि कहना चाहिए कि उन दिनों मैं सिर्फ़ इसी वजह से जंगल में घूमने जाता था कि मेरे कुत्ते मेरे सुरक्षा-दस्ते का काम करते थे और मैं इसमें गर्व महसूस करता था।
मुझे यह देख कर भी आश्चर्य होता था कि मायकोवस्की का रूप अपने घर पर, अपनी माँ और बहनों के सामने बदल कर एकदमछुई-मुईकी तरह हो जाता था। जैसे वह कोई बेहद शर्मीला, शान्त, ख़ूबसूरत और कोमल नन्हा-सा बच्चा हो, जो बहुत आज्ञाकारी और अनुशासन-प्रिय है। साफ़ पता लगता था कि उसके परिवार के लोग उसे बेहद चाहते हैं और जब भी वह घर में होता है, वहाँ एक उत्सव का सा माहौल बना रहता है। घर पर एक पुत्र और एक भाई की भूमिका में और बाहर पीली कमीज़ पहने एक हुड़दंगी नवयुवक व एक बहुचर्चित कवि की भूमिका में उसे देख कर मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि उसके भीतर जैसे दो मायकोवस्की रहते हैं, एक दूसरे से एकदम भिन्न दो आत्माएँ, जिनमें परस्पर रूप से हमेशा संघर्ष चलता रहता है।
***
जीवन का चक्र अपनी गति से घूम रहा था। हम ओदेस्सा में थे और वहाँ से हमें किशिन्योफ़ के लिए रवाना होना था। मायकोवस्की न जाने कहाँ फँसा रह गया था। हम बेचैनी से उसके आने का इन्तज़ार कर रहे थे। तब मायकोवस्की को एक लड़की मरीया अलिक्सान्द्रव्ना से प्रेम हो गया था। कहना चाहिए कि वह उन दिनों उसके प्यार में बुरी तरह से डूबा हुआ था। उसकी दशा पाग़लों जैसी हो चुकी थी। दाढ़ी और बाल बढ़ गए थे। एक ही जोड़ी कपड़े पिछले कई दिनों से उसके बदन पर चढ़े हुए थे। उसे न नहाने का होश था न खाने-पीने की चिन्ता। वह यह समझ नहीं पा रहा था कि अपने इस दमघोंटू प्यार को लेकर वह कहाँ जाए और क्या करे। सत्रह वर्षीय मरीया की गिनती उन गिनी-चुनी लड़कियों में होती थी, जो न केवल सौन्दर्य की दृष्टि से अत्यन्त मोहक और चित्ताकर्षक थीं बल्कि मानसिक स्तर पर भी नए क्रान्तिकारी दर्शन और विचारों में गहरी रुचि लेती थीं। छरहरी, गरिमामयी, हरिण-सी आँखों वाली, बेहद नशीली, सुन्दर और स्निग्ध उस लड़की ने युवा कवि मायकोवस्की की कल्पना-छवियों को पूरी तरह से घेर लिया था —
अब मैं सिर्फ़
इतना भर जानता हूँ
कि तुम हो मोनालिसा
जिसे मुझे चुराना है
बीस वर्षीय मायकोवस्की को पहली बार प्रेम हुआ था। यह उसकी पहली प्रेमानुभूति थी और वह उसे सम्हाल नहीं पा रहा था। मरीया के साथ हुई अपनी पहली मुलाक़ात के बाद उसके प्यार में डूबा, विषण्ण और विचलित मायकोवस्की किसी घायल पक्षी की तरह पंख फड़फड़ाता, लेकिन इसके साथ-साथ बेहद ख़ुश, सुखी और बार-बार मुस्कराता हमारे कमरे में आया। किसी विजेता की तरह बेहद पुलकित और उल्लसित होकर वह बार-बार केवल यही शब्द दोहरा रहा था — वाह! क्या लड़की है, वाह! क्या लड़की है। उन दिनों कभी-कभी यह महसूस करते हुए कि शायद ही उस लड़की की तरफ़ से भी उसे वैसा ही भावात्मक उत्तर मिलेगा यानी इस प्रेम में अपनी असफलता की पूर्वानुभूति के साथ-साथ अवसाद में डूबा वह बेचैनी से कमरे में इधर से उधर चक्कर लगाता रहता। उन्हीं दिनों उसने अपने बारे में ये पंक्तियाँ लिखी थीं —
इन दिनों मुझे आप पहचान नहीं पाएँगे
यह विशाल माँस पिण्ड आहें भरता है
आहें भरता है और छटपटाता है
मिट्टी का यह ढेला आख़िर क्या चाहता है
चाहता है यह बहुत कुछ चाहता है
उन दिनों हम वास्तव में यह नहीं समझ पाते थे कि उस लापरवाह, निश्चिन्त और बेफ़िक्र मायकोवस्की का यह हाल कैसे हो गया? उसमें अप्रत्याशित रूप से ये कैसा विचित्र परिवर्तन आ गया है? वह न जाने किस उधेड़बुन में डूबा रहता है? कभी अपने बाल नोचता है तो कभी दीन-दुनिया से बेख़बर फ़र्श की ओर ताकता बैठा रहता है। कभी-कभी पिंजरे में बन्द किसी शेर की तरह अपने कमरे में घूमता रहता है और बुड़बुड़ाता रहता है — क्या किया जाए? क्या करूँ? कैसे रहूँ?
प्रेम में व्यथित सोफ़े पर पड़े दोस्त को देख कर अपने चश्मे के भीतर से झाँकते हुए हमारे साथी बुरल्यूक ने उससे कहा — तू बेकार दुखी हो रहा है। देख लेना, कुछ नहीं होगा, कोई फल नहीं निकलेगा तेरे इन आँसुओं का। जीवन का पहला प्यार हमेशा यूँ ही गुज़र जाता है।
यह सुनकर मायकोवस्की दहाड़ने लगाकैसे कुछ नहीं होगा, क्यों फल नहीं निकलेगा? दूसरों का पहला प्यार यूँ ही गुज़र जाता होगा, मेरा नहीं गुज़रेगा। देख लेना।
बुरल्यूक ने फिर से अपनी बात दोहराई और उसे सान्तवना देने की कोशिश की। पर उसेमिट्टी के ढेलेयानी मायकोवस्की को तो प्रेम-मलेरिया हो गया था —
आप सोच रहे हैं
सन्निपात में है, कारण है मलेरिया
हाँ, यह ओदेस्सा की बात है
चार बजे आऊँगी
मुझसे तब बोली थी मरीया
फिर आठ बजा
नौ बजा
दस बज गए
वह अपने मन की शान्ति गवाँ चुका था। मरीया से मुलाक़ात की वह पहली ख़ुशी अब आकुलता, छटपटाहट और भयानक पीड़ा में बदल चुकी थी —
माँ
तेरा बेटा ख़ूब अच्छी तरह बीमार है
माँ
आग लगी हुई है उसके दिल में
उसकी बहनों को बता दे, माँ
ल्यूदा और ओल्या को बता दे तू
अब उसके सामने कोई रास्ता नहीं है
चूँकि तब तक हम ओदेस्सा में आयोजित सभी काव्य-गोष्ठियों में अपनी कविताएँ पढ़ चुके थे और हमें वहाँ से तुरन्त ही किशिन्योफ़ रवाना होना था, इसलिए उसकी बेचैनी देख कर हमने मायकोवस्की को यह सुझाव दिया कि उसे जल्दी से जल्दी मरीया के साथ अपने सम्बन्धों की सारी गाँठें खोल लेनी चाहिए और अकेले यूँ तड़पने से अच्छा तो यह है कि सारी बात साफ़ कर लेनी चाहिए। और फिर अचानक ही बात साफ़ हो गई —
अचानक
हमारे कमरे का दरवाज़ा चरमराया
मानो दाँत किटकिटाए हों किसी ने
एक धमक के साथ कोई भीतर घुस आया
चमड़े के दस्तानों को
अपने हाथों में मसलते हुए
उसने मुझे अपना यह फ़ैसला सुनाया
क्या मालूम है तुम्हें यह बात
शादी कर रही हूँ
मैं कुछ ही दिनों बाद
मायकोवस्की यह सुन कर बौखला गया था। उसने चलने की घोषणा कर दी और हम उसी शाम रेलगाड़ी में बैठ कर किशिन्योफ़ की तरफ़ रवाना हो गए।
रेल के भोजन-कक्ष में हम तीनों दोस्त बहुत देर तक चुप बैठे रहे। हम तीनों ही बहुत असहज महसूस कर रहे थे और शायद मरीया के बारे में ही सोच रहे थे। आख़िर दवीद दवीदाविच बुरल्यूक मे महाकवि पूश्किन की कविता की दो पंक्तियाँ पढ़कर उस चुप्पी को तोड़ा —
पर मैं करती हूँ किसी दूसरे को प्यार
जीवन-भर रहूँगी सदा उसकी वफ़ादार
मायकोवस्की धीमे से मुस्कुराया मानो उसे मुस्कराने के लिए भी पूरा ज़ोर लगाना पड़ रहा हो। उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला। वह कई दिन तक उदास रहा। किसिन्योफ़ से हम निकालाएफ़ गए और फिर वहाँ से कियेव। रेल से कियेव जाते हुए रास्ते में मायकोवस्की देर तक खिड़की से बाहर झाँकता रहा। अचानक वह गुनगुनाने लगा
यह बात है ओदेस्सा की
ओदेस्सा की…
बाद में यही दोनों पंक्तियाँ उसकी उस ख़ूबसूरत लम्बी कविता में पढ़ने को मिलीं, जिसे सारी दुनिया पतलूनधारी बादलके नाम से जानती है, हालाँकि उसने पहला इसका शीर्षक तेरहवाँ देवदूतरखा था।
शुरू से ही मायकोवस्की का जीवन रेल के किसी तंग डिब्बे की तरह ही बहुत तंगहाल और घिचपिच भरा रहा। इसलिए मौक़ा मिलते ही उसने खुले और व्यापक भविष्य की ओर एक झटके में वैसे ही क़दम बढ़ाए जैसे बोतल में बन्द किसी जिन्न को अचानक ही आज़ाद कर दिया गया हो —
मैं देख रहा हूँ उसे
समय के पहाड़ पर चढ़ते हुए
किसी और को वह दिखाई नहीं देता
कियेव में मायकोवस्की पूरी तरह से अपनी नई लम्बी कविता की रचना में डूबा हुआ था। वह उस कविता को किसी रॉकेट-क्रूजर की तरहगतिवान, आलीशान और इतना सफल बना देना चाहता था कि दुनिया दाँतों तले उँगली दबा ले और उसे हमेशा याद रखे।

***
लगातार होने वाली गुत्थम-गुत्था और लड़ाई-झगड़ों से थोड़ा थके हुए दिखाई दे रहे बीस वर्षीय मायकोवस्की ने हम लोगों के सामने प्रस्ताव रखा — चलो दोस्तो ! तिफ़लिस चलते हैं। वह मेरा शहर है। शायद दुनिया का अकेला ऐसा शहर, जहाँ मेरे साथ कोई झगड़ा-फ़साद नहीं होगा। वहाँ के लोग नए कवियों को सुनना बहुत पसन्द करते हैं और बड़े मन से मेहमाननवाज़ी करते हैं। हमने उसकी बात मान ली और उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गए।
मार्च 1914 के अन्त में हम तीनों दोस्त (मायकोवस्की, बुरल्यूक और मैं) तिफ़लिस के लिए रवाना हो गए और वहाँ ग्राण्ड होटल में जा कर रुके। हमें होटल के स्वागत-कक्ष में ही छोड़कर मायकोवस्की तुरन्त गायब हो गया और क़रीब आधा घण्टे बाद जब फिर से नमूदार हुआ तो उसके साथ धूप में तप कर लाल दिखाई दे रहे जार्जियाई नवयुवकों का एक पूरा झुण्ड था। ये सब उसके पुराने दोस्त थे, उन दिनों के दोस्त, जब वह कुताइस्सी में स्कूल में पढ़ता था। होटल का हमारा वह बड़ा-सा कमरा खिले हुए चेहरों और चमकती आँखों वाले बेफ़िक्र नौजवानों की चीख़ों, कहकहों और मस्तियों से भर गया। उनकी बड़ी-बड़ी बशलीकी टोपियाँ पूरे कमरे में यहाँ-वहाँ बिखरी पड़ी थीं। मायकोवस्की एक-एक करके उनसे गले मिल रहा था और अपनी रूसी परम्परा के अनुसार उन्हें चूम रहा था। वह उनसे बचपन के अन्य दोस्तों का हालचाल पूछ रहा था और बेहद ख़ुश था। बात करते-करते कभी अचानक वह जार्जियाई लिज़्गीन्का नृत्य करने लगता तो कभी ज़ोर-ज़ोर से अपनी कोई कविता पढ़ने लगता। वह हम दोनों से भी बार-बार कहता — ज़रा अपनी वह कविता तो सुनाना इन्हें, जिसे सुन कर हॉल में बैठे श्रोता खड़े हो कर तालियाँ बजाने लगे थे या जिसे सुन कर औरतें रोने लगी थीं या फिर ऐसी ही कोई और बात। संक्षेप में कहूँ तो हमें यह लग रहा था कि मायकोवस्की वास्तव में अपने घर, अपने देश पहुँच गया है, अपने गहरे दोस्तों के बीच।

***
हॉल ठसाठस भरा था। गर्मी इतनी थी कि ऐसा लग रहा था कि मानों किसी भट्ठी में बैठे हुए हों। मायकोवस्की चौड़ी बाहों वाला सूर्यास्त की रश्मी-छटाजैसा रंग-बिरंगा कुरता पहने वहाँ भीड़ के बीच खड़ा था और लोगों को किसी मदारी की तरह तीखी व ज़ोरदार आवाज़ में नए जीवन-दर्शन, नई विचारधारा और उस नई विश्व-दृष्टि के बारे में बता रहा था जो आने वाले दिनों में न केवल कला को, बल्कि समाज और जीवन के सभी क्षेत्रों को तथा विश्व की सभी जातियों को गहराई से प्रभावित करेगी। किसी नेता की तरह जीवन के नए रूपों के निर्माण से सम्बन्धित विचारों की भारी चट्टानों को लोगों की ओर ढकेलता हुआ वह जैसे भविष्य के नीले आकाश में झाँक रहा था। और यह काम वह इतनी सहजता और आसानी के साथ कर रहा था मानों मन को भली लगने वाली शीतल बयार बह रही हो। हर दो-तीन मिनट में हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था।
नवयुवक होने के बावजूद नई सामाजिक व्यवस्था के बारे में मायकोवस्की के विचार काफ़ी परिपक्व और प्रौढ़ थे और उसकी कविताएँ भी गम्भीर, संजीदा तथा शिल्प और सौन्दर्य की दृष्टि से परिपूर्ण। यहाँ तिफ़लिस में बचपन के अपने दोस्तों के बीच, उनके द्वारा दिए गए गरमा-गरम समर्थन और हार्दिक स्वागत-सत्कार के बाद, मायकोवस्की जैसे पूरी तरह से खिल उठा था। उसने जैसे अपना पूरा रूप, पूरा आकार ग्रहण कर लिया था और वह हिमालय की तरह विशाल हो गया था।
मायकोवस्की और उसके दोस्तों के साथ हम दोनों जार्जिया में चारों ओर फैली पर्वतमाला के सबसे ऊँचे पहाड़ दवीद’  को देखने गए। दवीद की चोटी पर पहुँच कर ऐसा लगा मानों हम अन्तरिक्ष में तैर रहे हों। चारों तरफ़ पहाड़ ही पहाड़। एक नई मनोरम दुनिया हमारे सामने उपस्थित थी। इस अपार विस्तार को देख कर मायकोवस्की चहकने लगा था — वाह भई वाह! देखो, कितना विशाल हॉल है सामने। इस ऊँचाई पर पहुँच कर तो वास्तव में पूरी दुनिया को सम्बोधित किया जा सकता है। ठीक है मियाँ दवीद, अब हमें भी ख़ुद को बदलना ही पड़ेगा और तुम्हारे जैसा ऊँचा क़द अपनाना होगा।
उस वसन्त में हमें रोज़ ही कहीं न कहीं जाना होता था। कभी किसी के घर भोजन करने जाना है तो कभी किसी कहवाघर या चायख़ाने में हमारा काव्य-पाठ है। कभी स्थानीय बाज़ार में घूमने जाना है तो कभी किसी पार्क में कोई सभा। तिफ़लिस के दुकानदार अपनी दुकानों में हमें बैठा कर हमसे अपनी कविताएँ सुनाने का अनुरोध करते। मयख़ानों में हमें कविताएँ सुनाने के लिए बुलाया जाता। निश्चय ही हमें यह सब बहुत अच्छा लग रहा था और हम यहाँ आकर बहुत ख़ुश हुए थे।
अक्सर ऐसा होता था कि हम सड़क पर चले जा रहे हैं और सामने से कोई नौजवान या नवयुवती आ रही है। मायकोवस्की उसे रोक लेता और पूछता था — कहाँ जा रहे हो? अरे, वहाँ क्या करोगे? चलो छोड़ो, वहाँ क्या जाना। हमारे साथ चलो। वापिस लौट चलो। हम वहाँ पर कविता पढ़ेंगे। तुम भी पढ़ना या फिर हमारी कविता ही सुनना। और लोग उसका यह अनुरोध मान लेते थे और हमारे साथ ही घूमने लगते थे। जार्जियाई भाषा मायकोवस्की के लिए मातृभाषा रूसी की तरह ही अपनी थी। वह एकदम जार्जियाइयों की तरह जार्जियाई भाषा बोलता था। इसलिए जब-जब हम उसे जार्जियाई बोलते देखते, हमारी गर्दनें गर्व से तन जातीं।

***
तिफ़लिस की अनेक सभाओं और गोष्ठियों में काव्य-पाठ करने के बाद हम कुताइस्सी पहुँचे। कुताइस्सी — जहाँ मायकोवस्की ने अपने परिवार के साथ अपना बचपन गुज़ारा था। जहाँ उसके पिता वन-संरक्षक के पद पर कार्यरत थे। जहाँ मायकोवस्की ने स्कूली-शिक्षा पाई थी। यहीं वह 1905 की पहली रूसी क्रान्ति के बाद जार्जियाई क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आया था। यहीं 1906 में उसके पिता का देहान्त हुआ था और इसके तुरन्त बाद यहीं से वह मास्को गया था।
अब मायकोवस्की कुताइस्सी की गलियों में घूम रहा था। अपने बचपन के दोस्तों से मिल रहा था। उन्हें अपनी बाहों में लपेट रहा था और चूम रहा था। अपने बचपन के खेलों, हरकतों और शैतानियों को याद कर रहा था। वह ख़ुद भी हँस रहा था और हमें भी हँसा रहा था। हम उसके साथ उसका स्कूल देखने गए। बच्चों ने स्कूल की खिड़कियों से सफ़ेद रुमाल हिला कर हमारा स्वागत किया। स्कूल से लौटते हुए उसने देखा कि सामने से एक गधा चला आ रहा है। उसे देख कर वह एकदम ख़ुश हो गया और किलकारियाँ मारने लगा। हमसे बोला — अगर मैं पहले जैसा बच्चा होता तो इस गधे पर चढ़े बिना नहीं मानता और दूर तक इसकी सवारी करता। लेकिन अब तो मेरा शरीर पहाड़ जैसा है। अगर मैं इस पर चढ़ भी गया तो पहली बात तो यह है कि यह गधा ही दिखाई नहीं देगा, दूसरे मेरे पैर भी ज़मीन पर घिसटेंगे।
मायकोवस्की के दोस्तों ने उसके कुताइस्सी-आगमन की ख़ुशी में एक बड़ी-सी पार्टी दी। जार्जियाई परम्परा के अनुसार उन्होंने मेहमानों का स्वागत करते हुए भेड़ के सींगों को खोखला कर के बनाए गए विशेष तरह के रोकनामक गिलासों को भर-भर कर बेतहाशा शराब पी, जार्जियाई लोकगीत गाए, कविताएँ पढ़ीं, भाषण दिए, स्थानीय लोकनृत्य किए और आसमान में गोलियाँ छोड़ीं। जब मास्को लौटने का समय आया तो वे लोग हमें छोड़ ही नहीं रहे थे। बड़ी मुश्किल से हज़ार बहाने बना कर हमने लौटने की इजाज़त पाई। आख़िर किसी तरह लौट कर हम तीनों बुद्धू घर को आए यानी मास्को पहुँचे।

***
उन दिनों हम लोग यह महसूस करने लगे थे कि देश में चल रही वर्तमान शासन-व्यवस्था अब कुछ ही दिन की मेहमान रह गई है। मायकोवस्की कहा करता — जल्दी ही मज़दूर-क्रान्ति होगी और तब मैं अपने जलवे दिखाऊँगा। हम सब एक ही आग में जल रहे थे। इसलिए उसकी इस तरह की बातें सुन कर हमें आश्चर्य नहीं होता था। प्रथम विश्व-युद्ध के उन कठिन फ़ौजी-राष्ट्रभक्तिपूर्ण दिनों में, जब अपना सब कुछ ज़ार व मातृभूमि की सेवा मेंसमर्पित करने की बात की जा रही थी, मायकोवस्की हर समय बड़े गर्व के साथ अपनी ये पँक्तियाँ सुनाता घूमता था —
पहाड़ों के उस पार से
वह समय आता मैं देख रहा हूँ
जिसे फिलहाल कोई और देख नहीं पाता
किसी की नज़र वहाँ तक नहीं जाती
भूखे-नंगे लोगों की भीड़ लिए
आएगा सन् सोलह का साल
क्रान्ति का काँटों भरा ताज लिए
ये पँक्तियाँ उसकी उस नई लम्बी कविता तेरहवाँ देवदूत’ (’पतलूनधारी बादल’) का ही एक अंश थीं, जिस पर वह उन दिनों दुगने-तिगुने उत्साह के साथ काम कर रहा था।
मक्सीम गोर्की उन दिनों विदेश से लौटे थे। वे पहले ऐसे बड़े लेखक थे, जिन्होंने तब हमारा खुल कर समर्थन किया था। एक पत्रिका में उन्होंने लिखा था —
रूसी भविष्यवाद जैसी कोई चीज़ नहीं है। सिर्फ़ चार कवि हैं — ईगर सिविरयानिन, मायकोवस्की, बुरल्यूक और वसीली कामिनस्की। इनके बीच निस्सन्देह ऐसे प्रतिभाशाली कवि भी हैं, जो आगे चल कर बहुत बड़े कवि बन जाएँगे। आलोचक इन्हें फटकारते हैं जबकि वास्तव में ऐसा करना ग़लत है। इन्हें फटकारना नहीं चाहिए बल्कि इनके प्रति आत्मीयता दिखानी चाहिए। हालाँकि मैं समझता हूँ कि आलोचकों की इस फटकार में भी इनके भले और अच्छाई की इच्छा ही छिपी है। ये युवा हैं पर गतिहीन नहीं हैं। वे नवीनता चाहते हैं। एक नया शब्द। और निस्सन्देह यह एक उपलब्धि है।
उपलब्धि इस अर्थ में है कि कला को जनता तक पहुँचाना ज़रूरी है। आम आदमी तक, भीड़ तक, और ये लोग यह काम कर रहे हैं, हालाँकि काम करने का इनका तरीका बहुत भद्‍दा है, लेकिन उनकी इस कमी को नज़र‍अन्दाज़ किया जा सकता है।
हंगामे-भरे गीत गाने वाले ये गायक, जो पता नहीं ख़ुद को भविष्यवादी कहना क्यों पसन्द करते हैं, अपना छोटा-सा या बहुत बड़ा काम कर जाएँगे, जिससे एक दिन सारे रास्ते खुल जाएँगे। चुप रहने से तो बेहतर है कि शोर हो, हंगामा हो, चीख़ें हों, ग़ालियाँ हों और हो जोश-ख़रोश-उन्माद।
अभी यह कहना बहुत कठिन है कि आगे चल कर ये लोग किस रूप में ढलेंगे, लेकिन मन कहता है कि ये नई तरह के युवक होंगे, नई तरह की ताज़ा आवाज़ें। हमें इनका बेहद इन्तज़ार है और हम ये आवाज़ें सुनना चाहते हैं। इन्हें ख़ुद जीवन ने पैदा किया है, हमारी वर्तमान परिस्थितियों ने। ये कोई गिरा दिया गया गर्भ नहीं हैं, बल्कि ये तो वे बच्चे हैं जिन्होंने ठीक समय पर जन्म लिया है।
मैंने हाल ही में उन्हें पहली बार देखा। एकदम जीवन्त और वास्तविक। और मेरा ख़याल है कि वे उतने भयानक भी नहीं हैं, जैसा कि वे ख़ुद को दिखाते हैं या जैसा उन्हें आलोचक प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए मायकोवस्की को ही लें। वह एकदम नवयुवक है, केवल बीस वर्ष का। वह चीख़ता-चिल्लाता है, उद्दण्ड है, लेकिन निस्सन्देह उसके भीतर, कहीं गहराई में, प्रतिभा छिपी हुई है। उसे मेहनत करनी होगी, सीखना होगा और फिर वह वास्तव में बहुत अच्छी कविताएँ लिखेगा। मैंने उसका कविता-संग्रह पढ़ा है और उसकी कुछ कविताओं ने मुझे बेहद प्रभावित भी किया है। वे वास्तव में सच्चे मन से लिखी गई कविताएँ हैं।” 
***
उन दिनों हमें लगातार जगह-जगह कविता पढ़ने के लिए बुलाया जाता था और हम सबके बीच मायकोवस्की ऐसा लगता था मानो युद्ध के मैदान में तमाम फ़ौजी गाड़ियों के बीच कोई टैंक धड़धड़ाता हुआ तेज़ी से आगे बढ़ रहा हो। वह गरजने लगा था। उसे देख कर आश्चर्य होता था। सभी कवियों में वह अकेला ऐसा कवि था जिसने सबसे पहले युद्ध के विरुद्ध आवाज़ उठाई। इससे उन देशभक्त लेखकों के बीच रोष की लहर दौड़ गई जो दुश्मन पर रूस की विजय को देखने को लालायित थे। लेकिन मायकोवस्की सब बाधाओं को धकेलता हुआ टैंक की तरह आगे बढ़ रहा था।
एक बार बरीस प्रोनिन के बोहिमियाई तहख़ाने में बने आवारा कुत्ताक्लब में, जहाँ हम जैसे बहुत से लेखक-कलाकार अक्सर इकट्ठे होते थे, मायकोवस्की ने बड़े कठोर शब्दों में युद्ध का विरोध किया और अपनी कविता पढ़ी —
औरतों और पकवानों के प्रेमियों
तुम्हारे लिए
क्या तुम्हारे सुख को बनाए रखने के लिए
हम अपनी जानें गवाँ दें?
इससे तो अच्छा यह होगा कि मैं
किसी शराबख़ाने में रण्डियों को देने लगूँ
अनानास की शराब आबे-हयात
बड़ा भारी झगड़ा खड़ा हो गया। वहाँ उपस्थित एक विशिष्ट सरकारी मेहमान ने मायकोवस्की पर बोतलें फेंकनी शुरू कर दीं। यह तो अच्छा हुआ कि एक भी बोतल उसे नहीं लगी। तभी हम सब उस मेहमान पर टूट पड़े और उसे वहाँ से निकाल बाहर किया। हमने मायकोवस्की से वैसी ही और कविताएँ पढ़ने को कहा और वह हम लोगों की सुरक्षा में कविताएँ पढ़ने लगा —
यह क्या माँ?
सफ़ेद पड़ गई हो तुम, बिल्कुल सफ़ेद
जैसे देख रही हो तुम सामने ताबूत
छोड़ो इसे, भूल जाओ
भूल जाओ, माँ, तुम उस तार को
मौत की ख़बर लाया है जो
ओह, बन्द करो
बन्द कर दो आँखें अख़बारों की !
पतलूनधारी बादलका पाठ वहाँ इतना सफल रहा कि उस दिन से मायकोवस्की को प्रतिभाशाली और दक्ष कवि माना जाने लगा। यहाँ तक कि उसके शत्रु भी उसकी इन ऊँचाइयों को बड़े विस्मय और आतंक के साथ देखते थे। और स्वयं कवि इतने शानदार ढंग से यह कविता पढ़ता था मानो वह सारी मानव जाति का प्रतिनिधि हो। उस तरह से कविता का पाठ हमारी दुनिया में शायद ही कभी कोई कर पाएगा। काव्य-पाठ करने का वह ढंग कवि मायकोवस्की के साथ ही हमेशा के लिए काल के गाल में समा गया। मेरा विश्वास है कि उसकी इस कविता का वैसा ही पाठ करना किसी अन्य व्यक्ति के लिए मुमकिन नहीं है क्यों कि इसके लिए ख़ुद मायकोवस्की होना ज़रूरी है। वह ख़ुद भी यह बात कहता था –देख लेना, जब मैं मर जाऊँगा, कोई भी एकदम मेरी ही तरह यह कविता नहीं पढ़ पाएगा।
हमारी दोस्ती के बीस वर्ष के काल में मैंने हज़ारों बार मायकोवस्की को कविता पढ़ते हुए सुना था और हर बार मुझे ऐसा अप्रतिम सुख मिलता था, ऐसा नशा-सा चढ़ जाता था, जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उसके दैत्यनुमा वज़नी शब्दों में जैसे कोई विराट आत्मा-सी प्रविष्ट हो जाती थी। जब पहली बार मैंने उसकी पतलूनधारी बादलकविता का पूरा पाठ सुना, तब उसकी उम्र केवल बाईस वर्ष की थी। मैं उसकी तरफ़ बेहद अचरज से देख रहा था मानो दुनिया का आठवाँ आश्चर्य देख रहा हूँ। मैं उसको सुन रहा था और सोच रहा था — क्या यह वही किशोर है, जिससे मैं चार वर्ष पहले मिला था। मुझे इस जादू पर विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन यथार्थ यही था। द्रुतगति के साथ हुए कवि के इस विकास को समझ पाना बेहद कठिन था। मेरे लिए तो और भी कठिन क्योंकि मैं दिन-रात उसके साथ, उसके आसपास ही रहता था। अब बाईस वर्षीय मायकोवस्की वह पुराना किशोर कवि नहीं, बल्कि एक वयस्क सुविज्ञ पुरुष था, जो महत्त्वपूर्ण और ठोस कामों में निमग्न था।

***
फ़रवरी-क्रान्ति के बाद मायकोवस्की ने बुरल्यूक को मेरे साथ लगा दिया था ताकि हम लोग अस्थाई बुर्जुआ सरकार का विरोध करते हुए सर्वहारा क्रान्ति के पक्ष में प्रचार के काम को तेज़ गति दे सकें। हम लोगों ने दिन-रात प्रचार शुरू कर दिया। एक राजनीतिक वक्ता के रूप में भी मायकोवस्की को सुनना मेरे लिए आश्चर्यजनक ही था। इस क्षेत्र में भी उसकी प्रतिभा नई ऊँचाइयों को छू रही थी। उसने सभी कलाकारों से आह्वान किया कि वे सर्वहारा क्रान्ति के नायक मज़दूर-वर्ग को अपनी कला का विष्य बनाएँ। मायकोवस्की के स्वरों में 1908 का (तब वह कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य था) वह बोल्शेविक फिर से बोलने लगा था। उसने जनता से अपील की —
आप सब
अपनी-अपनी मशीनों पर पहुँचें
अपने-अपने दफ़्तरों में
अपनी-अपनी खदानों में पहुँचें, भाइयो
इस धरती पर हम सभी
सैनिक हैं
नए जीवन को रचने वाली
एक ही फ़ौज के
अब उस पुराने विद्रोही मायकोवस्की को पहचानना मुश्किल था, जो भविष्यवादी आन्दोलन का प्रवक्ता था और पीली कमीज़ में घूमा करता था। अब वह बालिग़ हो गया था, सामान्य कपड़े पहनता था, सिर्फ़ राजनीतिक घटनाओं के बारे में बातचीत करता था और ख़ुद को बोल्शेविक कहता था। फ़रवरी-क्रान्ति के बाद के उस दौर में हम लगभग रोज़ ही क्रान्तिसमर्थक कवियों के रूप में विभिन्न सभाओं में कविताएँ पढ़ने जाया करते थे और हर सभा में मायकोवस्की यह घोषणा किया करता थादोस्तो, बहुत जल्दी ही सर्वहारा-क्रान्ति होने वाली है। तब यह बुर्जुआ सरकार ख़त्म हो जाएगी।

***
सोवियत सत्ता की स्थापना के प्रारम्भिक दिनों में, जब सड़कों पर लोग झुण्ड बना-बना कर खड़े रहते थे, हम बड़ी शान के साथ काफ़ी-हाउस में पहुँचते थे। वहाँ रोज़ ही लेखक-कलाकार इकट्ठे होते थे। कुछ लोगों को सुख तथा कुछ लोगों को पीड़ा पहुँचाते हुए हम काफ़ी-हाउस के बीचों-बीच बने मंच पर खड़े हो कर सहर्ष यह घोषणा करते कि हम रूस के मज़दूर-वर्ग की जीत का स्वागत करते हैं। भविष्यवादियों ने सबसे पहले सोवियत सत्ता का स्वागत किया था, इस वजह से बहुत से लोग हमसे छिटक कर दूर हो गए थे। ये छिटके हुए लोग हमें घृणा की दृष्टि से देखते थे और हम जैसेजंगली-पाग़लोंकी गतिविधियों से आतंकित थे। वे हमारी तरफ़ ऐसे देखते थे मानो इस धरती पर हमारा जीवनकाल अब सिर्फ़ दो सप्ताह ही और शेष रह गया है, उसके बाद बोल्शेविकों के साथ-साथ हमारा भी सफ़ाया कर दिया जाएगा।
लेकिन अक्तूबर-क्रान्ति से हमारे भीतर पैदा हुआ उत्साह बढ़ता जा रहा था। काफ़ी-हाउस में मुरालफ़, मन्देलश्ताम, अरासेफ़ और तीख़ा मीरफ़ जैसे नए बोल्शेविक लेखक दिखाई देने लगे थे। वहाँ प्रतिदिन बन्दूकधारी मज़दूर लाल-गारद के सिपाही भी नज़र आते। कभी-कभी तो ऐसा होता कि कोई कवि अभी काफ़ी-हाउस के मंच पर खड़ा कविता पढ़ ही रहा होता कि लाल-गारद का एक दस्ता भीतर घुस आता और वहाँ उपस्थित लोगों के पहचान-पत्रों की जाँच शुरू कर देता। जब जाँच पूरी हो जाती तो हम अपनी काव्य-सन्ध्या को आगे बढ़ाते। लाल-गारद के सदस्य भी वहीँ खड़े रह कर हमारी कविताएँ सुनते। मायकोवस्की प्रतिदिन वहाँ अपनी कविताएँ पढ़ता था और मज़दूर-वर्ग की जीत का जश्न मनाता था। वह जैसे क्रान्ति की आग में जल रहा था। उसके हर शब्द में बुर्जुआ-वर्ग के लिए गुस्सा भरा होता था। वह उसके सर्वनाश की कामना करता था। नई मज़दूर सत्ता का वह स्वागत करता था और हर्ष से उल्लसित हो कर उसके लम्बे जीवन की कामना करता था। उत्साही और जोशीले श्रोताओं के समक्ष वह एक प्रचारक-कवि के रूप में किसी लौह-पुरुष की तरह खड़ा रहता। लोगों के मन में उसकी यही छवि बस गयी थी।
अक्तूबर क्रान्ति को मायकोवस्की उस समय मिला था जब वह अपनी उम्र के स्वर्णकाल से गुज़र रहा था। वह पूरी तरह से वयस्क हो चुका था और कम्युनिज़्म की स्थापना के लिए किए जा रहे संघर्ष में हाथ बँटाने के लिए पूरे तन और मन से तैयार था। उसके सामने एक विस्तृत महान रास्ता खुल गया था और सर्वहारा वर्ग का प्रतिभाशाली प्रचारक-कवि व्लदीमिर मायकोवस्की विश्वासपूर्वक डग भरता हुआ अपने बड़े-बड़े क़दमों से उस महान् रास्ते पर आगे बढ़ रहा था।

  
सम्पर्क

anil janvijay
Moscow, Russia
+7 916 611 48 64 ( mobile)

अनिल जनविजय द्वारा प्रस्तुत कुछ दुर्लभ फोटोग्राफ्स

फोटो फीचर 

अनिल जनविजय

अनिल जनविजय ने अपनी फेसबुक वाल पर दुर्लभ फोटोग्राफ्स देने की परम्परा ‘बूझो तो जाने’ की शक्ल में शुरू की थी. अब तो यह काफी लिकप्रिय हो चुकी है. उसी श्रृंखला के कुछ चित्र यहाँ पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं.  

मख़दूम मोहिउद्दीन
अमरकान्त

आग्नेय जी

उदय प्रकाश और विजय दान देथा

गुलाम अली और जगजीत सिंह हास परिहास के दो पल

हरिवंश राय बच्चन , तेजी बच्चन , अमिताभ बच्चन , जया बच्चन और अजिताभ बच्चन ।

महाश्वेता देवी और हबीब तनवीर
जीवन सिंह

ज्ञान चतुर्वेदी

इप्टा के पूर्व अध्यक्ष राजेन्द्र रघुवंशी और ए के हंगल

चन्द्रकान्त देवताले जी और ओम भारती

ज्ञान रंजन
नरेश सक्सेना

लीलाधर जगूड़ी

विमल मित्र

विजय बहादुर सिंह और रमेश चन्द्र शाह

विश्वनाथ त्रिपाठी

शिवानी

शेर जंग गर्ग

विद्या निवास मिश्र

विष्णु चन्द्र शर्मा

फोटो फीचर : अनिल जनविजय

फोटो फीचर

अनिल जनविजय

अनिल जनविजय ने अपनी फेसबुक वाल पर इधर रोजाना पहेली के तरीके से कुछ चित्र लगा कर नाम पूछते हैं. इस महत्वपूर्ण सिलसिले में से कुछ चित्र पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है. इस बार फोटो फीचर में कुछ चित्र अन्य मित्रों की फेसबुक वाल से भी साभार लिए गए हैं जिनका जिक्र चित्र के साथ है. यहाँ पर प्रस्तुत कुछ चित्र कैप्शन रहित हैं क्या आप इनमें कैप्शन भर सकते हैं? तो देर किस बात की कमेन्ट के खाने में बताइए ए हैं कौन? 

(चित्र- 1 : महादेवी और सुमित्रानंदन पन्त; चित्र सौजन्य अरिंदम घोष) 
(चित्र- 2 ; वंदना राग, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल और उर्मिला शिरीष)

(चित्र- 3; चित्रा मुद्गल और ममता कालिया)

(चित्र- 4; प्रज्ञा रावत, रेखा कश्त्वार, डॉ आरती, सविता भार्गव)

(चित्र- 5; देवीलाल पाटीदार, विनोद कुमार शुक्ल, मंज़ूर एहतेशाम, रेखा कस्तवार)

(चित्र- 6; साधना अग्रवाल, भारत भारद्वाज, महेश कटारे, ध्रुव शुक्ल)
(चित्र-7)
(चित्र- 8; पीछे की पंक्ति में कुंवर रवीन्द्र, केशव तिवारी, बिमलेश त्रिपाठी; आगे की पंक्ति में दूसरे से कमलजीत चौधरी और शैलजा) 
(चित्र- 9; कुमार मंगलम, श्रीकांत दुबे, अमृत सागर, बसंत सकरगाए, संतोष चतुर्वेदी, अच्युतानंद मिश्र और अजय पाण्डेय, साथ में हाथ उठाए हुए निलय उपाध्याय) 
(चित्र 10; चित्र में बाएँ से दाएँ तीसरे से रणविजय सिंह सत्यकेतु, आलोक जैन, अजय तिवारी, हरीश चन्द्र पांडे, अंशुल त्रिपाठी, संतोष चतुर्वेदी, सूर्यनारायण और अखिलेश) 
(चित्र- 11)

(चित्र- 12;  राजेश जोशी, संजय मेहता  और विनय उपाध्याय)

(चित्र- 13)

(चित्र- 14; व्योमेश शुक्ल, नरेन्द्र जैन, कुमार अम्बुज, राकेश रंजन)

(चित्र- 15; कुंवर रवीन्द्र, संतोष चतुर्वेदी, अच्युतानंद मिश्र, अजय पाण्डेय)

(चित्र- 16; दिनकर कुमार और अनिल जनविजय)
(चित्र- 17; चित्र में तीसरी कुर्सी पर बैठे हुए कैलाश वनवासी, पांचवी पर हिमांशु रंजन और सुबोध शुक्ल; चित्र सुबोध शुक्ल की फेसबुक वाल से )
(चित्र- 18; संतोष भदौरिया, संतोष चतुर्वेदी, के के पाण्डेय, सीमा आज़ाद, अरिंदम घोष और आलोक श्रीवास्तव) 

(चित्र- 19; कहानीकार और कथा के सम्पादक मार्कंडेय की युवावस्था का एक दुर्लभ चित्र  , चित्र सौजन्य डॉ. स्वस्ति ठाकुर)
(चित्र- 20; कवि केदार नाथ सिंह)

चित्र- 21; कवि ज्ञानेन्द्रपति

(चित्र- 22; रंगकर्मी जीतेन्द्र रघुवंशी)

(चित्र- 23 : युवा कवि और रंगकर्मी अशोक तिवारी)
(चित्र- 24 : युवा कवि एवं आलोचक अमरेन्द्र शर्मा)
(चित्र- 25 : युवा कवि रामजी तिवारी) 

अनिल जनविजय द्वारा फेसबुक पर संकलित कुछ अनमोल चित्र

चित्र वीथिका 

अनिल जनविजय 

अनिल जनविजय ने पिछले दिनों अपने फेसबुक वाल पर चित्रों को पहचानने की एक पहेली शुरू की थी. इस पहेली को बूझने में कई मित्रों ने बड़ी दिलचस्पी  दिखाई वाकई इसमें कई ऐसे भी चित्र थे जो हम सबके लिए धरोहर की तरह हैं। हमें अपने संस्कृति और साहित्य से जुडी विभूतियों को तो पहचानना ही चाहिए। इसी क्रम में हमने अनिल जनविजय की वाल से कुछ चित्रों को साभार ले कर यहाँ पर प्रस्तुत किया है। आइए कुछ नामचीन शख्सियतों को उनकी तस्वीरों के आईने से देखते हैं      

(चिंतक, प्रयोगशील लेखक, निर्मल वर्मा …यह चित्र प्रिय राम (भाई रामकुमार वर्मा को लिखे और उनकी पत्नी गगन गिल के संपादन में छपे ) पत्र संकलन का मुखपृष्ठ है।)

‘प्रथम प्रतिश्रुति’ (1964), ‘सुवर्णलता’ (1966) और ‘बकुल कथा’ ( 1974) की प्रख्यात बांग्ला लेखिका आशापूर्णा देवी। जो हिन्दी में भी समादृत हैं 

(राहुल जी और शिवपूजन बाबू,  अन्य :अनूपलाल मंडल़, छविनाथ पांडेय, देवेंद्रनाथ शर्मा १९५४। चित्र : बी एस एम मूर्ति।)

 (रागदरबारी के लेखक श्री लाल शुक्ल)






(रामवृक्ष बेनीपुरी जी अम्बपाली और मधूलिका के साथ, फोटो बी एस एम मूर्ति द्वारा ताज के सामने १९५५ में ली गयी थी


राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह


  

कृष्णनारायण कक्कड़
शिव मंगल सिंह सुमन
‘मतवाला-मंडल’ के निराला। चित्र (c) शिवपूजन सहाय न्यास।

माखनलाल चतुर्वेदी

अली सरदार जाफरी

कामतानाथ
गिरधर राठी
सुरेन्द्र चौधरी

डॉ बालशौरी रेड्डी
(बालशौरी रेड्डी चेन्नई में रहते हैं वर्षों इन्होने चंदामामा का संपादन भी किया था।)

मार्कण्डेय जी

  

विजेन्द्र जी
विद्या सागर नौटियाल
कीर्ति चौधरी 

गिरीश तिवारी गिर्दा

 

अनिल जनविजय का आलेख ‘कवि मन्देलश्ताम का जीवन’

ओसिप मन्देलश्ताम

रुसी कवि ओसिप मन्देलश्ताम को रुसी जनता आज भी उनकी कविताओं के लिए याद करती है। एक तरह से विद्रोही परम्परा का कवि, जो दरअसल प्रेम का कवि था। एक कवि जिसने अपनी प्रतिबद्धता के लिए अपने जीवन तक को दाँव पर लगा दियाओसिप मन्देलश्ताम के जीवन पर अनिल जनविजय का एक आलेख नया ज्ञानोदय के नवम्बर 2014 अंक में प्रकाशित हुआ है। पहली बार के पाठकों के लिए हम इसे साभार प्रकाशित कर रहे हैं।  

कवि मन्देलश्ताम का जीवन
अनिल जनविजय
दोस्तो, आपने रूस के लेनिनग्राद यानी पितेरबुर्ग नगर की सफ़ेद रातों के बारे में अवश्य पढ़ा या सुना होगा। जिन्हें रूसी साहित्य से लगाव है, उन्होंने फ़्योदर दस्तायेवस्की की उपन्यासिका सफ़ेद रातेंभी पढ़ी होगी। भारत में हम लोग इस बात पर केवल अचरज ही कर सकते हैं कि रूस के पितेरबुर्ग नगर में वर्ष भर में क़रीब एक माह का समय ऐसा होता है जब दिन कभी नहीं छिपता। सूरज कुछ समय के लिए डूबता ज़रूर है, लेकिन पूरी तरह से नहीं। दिन का इतना प्रकाश गगन में छाया रहता है कि आप आराम से खुले आकाश के नीचे कहीं भी बैठ कर पुस्तक पढ़ सकते हैं। पितेरबुर्ग में ये रातें अद्‍भुत्त होती हैं। दुनिया भर से लोग इन सफ़ेद रातोंको देखने के लिए जून माह में पितेरबुर्ग आते हैं। कवियों-लेखकों व कलावन्तों के लिए भी ये दिन रचनात्मक सक्रियता के, आन्तरिक उत्साह और ऊर्जा के, दुस्साहस के तथा जोश और जोख़िम उठाकर अपने सम्वेदी मन को पुख़्ता बनाने के दिन होते हैं।
1921 में वे सफ़ेद रातों के ही दिन थे, जब साहित्यकारों के बीच यह अफ़वाह फैल गई कि कवि ओसिप मन्देलश्ताम अचानक न जाने कहाँ ग़ायब हो गए। मन्देलश्ताम जैसा चपल, चुलबुला और मिलनसार व्यक्ति, जो दिन-भर यहाँ से वहाँ भाग-दौड़ करता रहता था और पूरे पितेरबुर्ग में लोग उसे ख़ूब अच्छी तरह जानते-पहचानते थे, एक शाम अचानक ही दिखना बन्द हो गया। उन दिनों मन्देलश्ताम अक्सर सुबह-सवेरे अपना चुरुट दाँतों में दबाए क़िताबों की किसी दुकान पर खड़े दिखाई दे जाते थे। तब वे अपने साथ खड़े लोगों पर अपने चुरुट की राख उड़ाते हुए हाल ही में प्रकाशित किसी नए कविता-संग्रह पर बहस कर रहे होते। इसके क़रीब डेढ़-दो घण्टे बाद वे किसी पत्रिका के सम्पादकीय कार्यालय में लेखकों के बीच बैठे अपना सिर ऊपर को उठाए अपनी कविताएँ सुनाते नज़र आते। दोपहर में वे सरकारी कैण्टीन में लेखकों के साथ बैठे वह दलिया खा रहे होते, जो 1917 की समाजवादी क्रान्ति के बाद के उन अकालग्रस्त वर्षों में नई मज़दूर सरकार द्वारा लेखकों को विशेष रूप से जारी कूपनों के बदले ही मिलता था। दोपहर के बाद मन्देलश्ताम कभी लाइब्रेरी में बैठे नज़र आते, कभी विश्वविद्यालय में कोई लैक्चर सुनते हुए तो कभी किसी साहित्यिक गोष्ठी में भाग लेते हुए। उनकी शामें अक्सर कॉफ़ी हाउस में बीता करतीं, जहाँ वे अपने हम-उम्र युवा लेखकों से घिरे साहित्य-सम्बन्धी नई से नई योजनाएँ बनाया करते।
और अचानक ही पूरे शहर में मन्देलश्ताम दिखाई देने बन्द हो गए। एक दिन गुज़र गया, फिर दूसरा दिन, फिर तीसरा…फिर एक हफ़्ता, दूसरा हफ़्ता…। और फिर लेखकों के बीच अचानक यह ख़बर फैली कि मन्देलश्ताम ने विवाह कर लिया है।
ओसिप मन्देलश्ताम ने विवाह कर लिया? यह एक ऐसी बेहूदी और बेतुकी ख़बर थी, जिस पर किसी को भी तुरन्त विश्वास नहीं हुआ। आन्ना अख़्मातवा अपने संस्मरणों में लिखती हैं — उस समय कोई यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि मन्देलश्ताम जैसा आदमी शादी भी कर सकता है…
कियेव की बीस वर्षीया चित्रकार नाद्‍या हाज़िना और कवि ओसिप मन्देलश्ताम की मुलाक़ात 1919 में यानी उनके विवाह से क़रीब डेढ़-पौने दो वर्ष पहले  कियेव नगर की सबसे बड़ी सराय के तहख़ाने में बने उस रात्रि-क्लब में हुई थी, जहाँ तब कियेव के लेखक-कलाकार इकट्ठे हुआ करते थे। इस क्लब का नाम था — ’काठ-कबाड़। बाहर से कियेव आने वाला हर लेखक-कलाकार काठ-कबाड़में ज़रूर आता था। कियेव की हर हस्ती से वहाँ मुलाक़ात हो जाती थी।
1919 की उन गर्मियों में एक दिन ओसिप मन्देलश्ताम ख़ारकफ़ से कियेव पहुँचे तो सराय के प्रबन्धक ने उनके लिए सराय का सबसे शानदार कमरा खुलवा दिया। मन्देलश्ताम ख़ुद दंग हो रहे थे कि उन्हें ठहरने के लिए इतना अच्छा कमरा दे दिया गया है। शायद सराय के मैनेजर ने उन्हें कोई और व्यक्ति समझ लिया था। ख़ैर…। शाम को काठ-कबाड़क्लब के हॉल में घुसते ही मन्देलश्ताम की नज़र सबसे पहले छोटे-छोटे बालों वाली, पतली-दुबली-सी एक बेहद शर्मीली लड़की पर पड़ी जो युवक-युवतियों के एक झुण्ड में चुपचाप बैठी हुई थी और बस कभी-कभी किसी बात पर मुस्कराने लगती थी। मन्देलश्ताम उस झुण्ड के पास पहुँचे ही थे कि वहाँ बैठे एक नवयुवक ने उन्हें पहचान लिया। अब उस मेज़ पर बैठे सभी लोग उनसे वहीं पर बैठ जाने और नई कविताएँ सुनाने का आग्रह करने लगे। जैसाकि बाद में मन्देलश्ताम ने नाद्‍या हाज़िना को बताया कि वे उनके साथ वहाँ नहीं बैठना चाहते थे, लेकिन नाद्‍या के आकर्षण के कारण वे उनके बीच बैठ गए और थोड़ी-सी ना-नुकर के बाद अपनी कविताएँ सुनाने लगे। उनके बारे में अपने संस्मरणों में  कवि आन्ना अख़्मातवा लिखती हैं
मन्देलश्ताम लोगों को अपनी कविताएँ सुनाने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। यहाँ तक कि कभी-कभी वे लोगों के अनुरोध पर सड़क पर खड़े-खड़े ही अपनी कविताओं का पाठ शुरू कर देते। कविता-पाठ करते हुए वे कविता में इतना डूब जाते कि अपने आसपास के वातावरण तक को भूल जाते और अधमुन्दी आँखों से स्वयं अपने कविता-पाठ का आनन्द उठाते हुए देर तक कविताएँ पढ़ते रहते।”
उस दिन उस मेज़ पर मन्देलश्ताम की कविताओं ने नाद्‍या हाज़िना को जैसा मोहित कर लिया था। वह उनसे इतना प्रभावित हुई कि मन्देलश्ताम के आग्रह पर वह उनके उस शानदार कमरे में भी चली गई जो उन्हें ग़लती से दे दिया गया था। मन्देलश्ताम ने जैसे अपनी कविताओं के वशीकरण से उसे बाँध लिया था। बाद में अपने संस्मरणों में नाद्‍या ने लिखा — “तब कौन सोच सकता था कि हम सारी ज़िन्दगी के लिए एक-दूसरे के हो जाएँगे?… हाँलाकि शायद ओसिप जानबूझकर मुझे उस झुण्ड से उठाकर अपने साथ ले गए थे क्योंकि वे किसी के भी साथ होने वाली पहली मुलाक़ात में ही यह अन्दाज़ लगा लेते थे कि इस व्यक्ति की उनके जीवन में आगे क्या भूमिका होने वाली है…।”
लेकिन नाद्‍या मन्देलश्ताम की तरह दूरदर्शी नहीं थी। तब वह नहीं जानती थी कि उसे आख़िरकार मन्देलश्ताम की पत्नी बनना है। अपने संस्मरणों में नाद्या ने लिखा है — “पहले दिन ही हम दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई। लेकिन मुझे लग रहा था कि हमारी यह दोस्ती दो हफ़्ते से ज़्यादा चलने वाली नहीं। मैं बस इतना चाहती थी कि जब हम एक-दूसरे से अलग हों तो मैं बहुत अधिक भावुक न हो जाऊँ और अपने भावावेगों के कारण मुझे बेहद पीड़ा और कष्ट न उठाने पड़ें।”
परन्तु बाद में जो स्थिति बनी, वह नाद्या की इस इच्छा के एकदम विपरीत थी। नाद्या को मन्देलश्ताम के साथ सारा जीवन न केवल कष्ट झेलने पड़े, बल्कि भारी पीड़ा भी उठानी पड़ी। यह अलग बात है कि उन्हें यह कष्ट मन्देलश्ताम के साथ अपने प्रेम-सम्बन्ध और भावुकता के कारण नहीं, बल्कि जीवन की उन वास्तविक परिस्थितियों के कारण झेलने पड़े, जिनसे उस समय का सारा रूसी समाज और जनजीवन ही भयानक रूप से प्रभावित रहा। लेकिन यह सब बाद की बात है। उस समय तो नाद्या को सब कुछ बेहद रोमाण्टिक और आकर्षक लग रहा था। नाद्या के लिए वे दिन सुखद प्रेम के दिन थे और वह उस सुख में पूरी तरह से डूबी हुई थी। उन दिनों की अपनी मनःस्थिति का ज़िक्र करते हुए बाद में नाद्या हाज़िना ने लिखा — “मैं तब तक इतनी उजड्ड थी कि मैं यह समझती ही नहीं थी कि पति और प्रेमी में क्या फ़र्क होता है। हम लोगों ने एक-दूसरे से वफ़ादारी बरतने का भी कोई वायदा नहीं किया। हम किसी भी क्षण अपना यह सम्बन्ध तोड़ने के लिए तैयार थे क्योंकि हमारे लिए हमारा यह संयोग महज एक इत्तफ़ाक के अलावा और कुछ नहीं था।”
लेकिन फिर भी उन दोनों ने खेल-खेल में विवाहनुमा एक रस्म तो की ही थी। मिख़ाइलफ़ मठ के बाहर बने बाज़ार से उन्होंने एक-एक पैसे वाली दो नीली अँगूठियाँ ख़रीद लीं, पर वे अँगूठियाँ उन्होंने एक-दूसरे को पहनाई नहीं। मन्देलश्ताम ने वह अँगूठी अपनी जेब में ठूँस ली और नाद्या हाज़िना ने उसे अपने गले में पहनी ज़ंजीर में पिरो लिया। मन्देलश्ताम ने इस अनोखी शादी के मौक़े पर शरबती आँखों वाली अपनी अति सुन्दर व आकर्षक प्रेमिका को उसी बाज़ार से एक उपहार भी ख़रीदकर भेंट किया। यह उपहार था लकड़ी की एक हस्तनिर्मित ख़ूबसूरत कंघी, जिस पर लिखा हुआ था ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे। हनीमून की जगह मन्देलश्ताम नाद्या को द्‍नेपर नदी में नौका-विहार के लिए ले गए और उसके बाद नदी किनारे बने कुपेचिस्की बाग़ में अलाव जलाकर उसमें आलू भून-भून कर खाते हुए दोनों ने अपने इस तथाकथित विवाह की सुहागरात मनाई।
उजड्ड नाद्या को यह सब एक खेल ही लग रहा था और वह बड़े मज़े के साथ सहज ही इस खेल में हिस्सा ले रही थी। वे किसी धार्मिक त्यौहार के दिन थे। कुपेचिस्की बाग़ में मेला लगा हुआ था जो दिन-रात जारी रहता था। सब त्यौहार की मस्ती में डूबे हुए थे और इस तरह के खेलों को कोई भी उन दिनों गम्भीरता से नहीं लेता था। घूमते-घुमाते मन्देलश्ताम नाद्या को कुपेचिस्की बग़ीचे से उस प्रसिद्ध व्लदीमिर पहाड़ी पर ले गए, जिसके लिए जनता के बीच आज भी यह मान्यता बनी हुई है कि यदि स्त्री-पुरुष का जोड़ा यहाँ आता है, तो वे सदा के लिए एक-दूसरे के हो जाते हैं। पहाड़ी पर पहुँचकर मन्देलश्ताम ने नाद्या को बताया कि उनका यह सम्बन्ध कोई आकस्मिक संयोग नहीं है बल्कि उन्हें नाद्या से बहुत गहरा प्रेम हो गया है और वे उसे स्थाई रूप देने का निर्णय ले चुके हैं।
इसके उत्तर में नाद्या खिलखिलाने लगी। वह मन्देलश्ताम के साथ अपने इस प्रेम-सम्बन्ध को अस्थाई माने हुए थी। तब भी, जब मन्देलश्ताम को कुछ ही दिनों में स्थिति स्पष्ट हो जाने के बाद सराय के उस शानदार कमरे से निकाल दिया गया और वे अपना सामान उठाकर उसके घर पर रहने के लिए पहुँच गए। तब भी, जब दोनों एक साथ मास्को की यात्रा पर रवाना हुए और फिर वहाँ से जार्जिया पहुँच गए। इस बीच जब कभी कोई किसी को  नाद्या का परिचय मन्देलश्ताम की पत्नीके रूप में देता तो वह बुरी तरह से नाराज़ हो जाती — “तुम्हें इससे क्या लेना-देना है कि मैं किसके साथ रहती-सोती हूँ, यह मेरा अपना निजी मामला है… तुम मुझे उसकी पत्नी क्यों कहते हो?”  नाद्या को तब भी यह लगता था कि उनका यह सम्बन्ध अस्थाई है।
1919 के अन्त में दोनों अलग हो गए। वे क्रान्ति के तुरन्त बाद रूस में शुरू हुए गृह-युद्ध के दिन थे। लोगों के पास न कोई काम-धन्धा था, न नौकरी। जीवन रोज़ नए रंग दिखाता था और लोगों को एक जगह से दूसरी जगह खदेड़ देता था। क्रान्ति-समर्थक लाल सेना और क्रान्ति-विरोधी श्वेत सेना के बीच भारी लड़ाई जारी थी। शहरों, गाँवों, बस्तियों पर कभी क्रान्ति-समर्थकों का अधिकार हो जाता तो कभी क्रान्ति-विरोधियों का। लोग मिलते थे, लोग बिछुड़ जाते थे। उन्हें आदत पड़ गई थी कि अन्ततः अलग होना ही है। नाद्या ने भी यह सोच लिया था कि अब ओसिप मन्देलश्ताम से उसकी मुलाक़ात शायद ही होगी।
लेकिन क़रीब डेढ़ वर्ष के बाद मन्देलश्ताम फिर से कियेव में दिखाई दिए। यही वह समय था जब पितेरबुर्ग में लोगों के बीच मन्देलश्ताम के अचानक रहस्यात्मक रूप से ग़ायब होने की चर्चा शुरू हो गई थी। तब तक नाद्या का परिवार अपने पुराने घर को छोड़कर नए घर में शिफ़्ट हो चुका था। तब नई क्रान्तिकारी मज़दूर सरकार किसी से कभी भी उसका घर ख़ाली करा लेती थी और उसे उससे बड़े या छोटे घर में शिफ़्ट कर देती थी। अमीरों से उनके घर छीनकर ग़रीबों और बेघरबार लोगों के बीच बाँटे जा रहे थे। डेढ़ वर्ष के इस छोटे से काल में दो बार ऐसा हुआ कि हाज़िन परिवार से उनका फ़्लैट लेकर उन्हें पहले से छोटा फ़्लैट दिया गया। तीसरे नए फ़्लैट में हाज़िन परिवार अभी पहुँचा ही था, अभी उन्होंने अपना सामान खोला भी नहीं था कि उनका फ़्लैट देखने के लिए फिर से नई सरकार का कोई अफ़सर वहाँ पहुँच गया और उसने उन्हें बताया कि उन्हें यह फ़्लैट भी ख़ाली करना पड़ेगा। वह अफ़सर अपने साथ फ़्लैट की सफ़ाई करवाने के लिए मज़दूरों को भी लाया था। हाज़िन परिवार बड़े ऊहापोह की स्थिति में था। क्या करें और क्या नहीं। उसी समय मन्देलश्ताम उनके इस नए फ़्लैट में नमूदार हुए।
नाद्या उन्हें वहाँ देखकर दंग रह गई। लेकिन मन्देलश्ताम वहाँ उपस्थित मज़दूरों, वहाँ फैले सामान और परिवार के बीच अफ़रा-तफ़री की हालत देखकर भी वैसे ही सहज बने रहे। और थोड़ी ही देर बाद मन्देलश्ताम वहाँ सबको अपनी कविताएँ सुना रहे थे। अचानक उन्होंने कविता पढ़ना बन्द कर दिया और अपने सुनहरी दाँत चमकाते हुए ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे और फिर नाद्या से बोले — “अबकी बार मैं तुझे छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।” इसके तीन सप्ताह बाद ही वे दोनों मास्को के लिए रवाना हो गए। फ़रवरी 1922 में उन दोनों ने पितेरबुर्ग में अधिकृत रूप से विवाह कर लिया। और फिर एक-दूसरे से वे कभी नहीं बिछुड़े। फिर कभी नहीं बिछुड़ेसे हमारा तात्पर्य है कि वे फिर हमेशा के लिए एक-दूसरे के हो गए। बिछुड़ना तो उन्हें कई बार पड़ा। पहली बार तब जब नाद्या को अस्थमा हो गया। मन्देलश्ताम ने ज़बरदस्ती नाद्या को कुछ महीनों के इलाज के लिए याल्ता सेनेटोरियम में भेज दिया। लेकिन वह उन दोनों का शारीरिक बिछोह था। मन से, आत्मा से दोनों एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए थे। मन्देलश्ताम हर रोज़ नाद्या को एक पत्र लिखते। नाद्या भी उनके हर ख़त का जवाब ज़रूर देती। अब वे सभी पत्र प्रकाशित हो चुके है। उन्हें पढ़कर पता लगता है कि उनके बीच कितना गहरा लगाव और आत्मीयता थी, उनका पारिवारिक जीवन कितना सफल था। लेकिन फिर भी नाद्या ने अपने संस्मरणों में लिखा है — “पत्नी की भूमिका मेरे लिए कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती थी। समय भी ऐसा नहीं था कि मैं सही अर्थों में उनकी पत्नी बन पाती। पत्नी तब होती है, जब घर हो, घरबार हो, बच्चे हों, आय का कोई स्थाई साधन हो… और हमारे जीवन में यह सब कुछ कभी नहीं रहा… अपना घर तो हमें कभी मिला ही नहीं रहने के लिए। हमारे क़दमों के नीचे धरती हमेशा डोलती रहती थी।”
और इसका कारण उन पर लगातार गिरने वाली राजनीतिक विपत्तियों की गाज़ ही नहीं थी बल्कि पारस्परिक दाम्पत्य-सम्बन्धों में लगातार बना रहने वाला उलझाव भी था। नाद्या के लिए विवाहएक ऐसा बेकार शब्द था, जिसका वह जीवन में कोई महत्त्व नहीं समझती थी, लेकिन मन्देलश्ताम के लिए नाद्या के साथ यह सम्बन्ध जैसे उनके जीवन का मुख्य-आधार था। नाद्या हाज़िना ने अपने संस्मरणों में लिखा है — “सच-सच कहूँ तो वे जैसे मुझे अपनी काँटेदार हथेलियों के बीच बन्द करके रखते थे। मैं मन ही मन उनसे बेहद डरती थी, लेकिन ऊपर से सहज दिखाई देती थी और बराबर इस कोशिश में लगी रहती थी कि किसी तरह इन भयानक हथेलियों के बीच से फिसल कर बाहर निकल सकूँ, हमेशा के लिए नहीं तो कम से कम कुछ देर के लिए ही सही।”
और कभी-कभी नाद्या  अपने इस उद्देश्य की पूर्त्ति में सफल हो भी जाती थी। एक बार वह मन्देलश्ताम के पिंजरे से ऐसे उड़ी कि ख़ुद मन्देलश्ताम भी दंग हो गए। दो सीटों वाले हवाई जहाज़ के एक पायलट ने नाद्या को आकाश में उड़ने का निमन्त्रण दिया। उन दिनों हवाई जहाज़ों की उड़ान ऐसी आम नहीं थी, जैसी कि आज है। वायुयान का आविष्कार हुए कुछ ही वर्ष हुए थे। नाद्या ने पायलट का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और उसके साथ उसके हवाई जहाज़ में उड़ चली। लेकिन पायलट ने कुछ देर की उड़ान के बाद, आकाश में अपनी उड़ान के कुछ साहसी करतब उसे दिखाने के बाद अपने यान को वापिस नीचे उतार लिया और बड़ी शिष्टता से नाद्या के लिए यान से बाहर निकलने का दरवाज़ा खोल दिया।
निश्चय ही नाद्या की इस बहादुरी के लिए मन्देलश्ताम ने उसे मालाओं से नहीं लाद दिया। मदेलश्ताम से उसे भयानक डाँट-फटकार सुननी पड़ी। क्यों गई थी वहाँ? क्या ज़रूरत थी ख़तरा उठाने की? कोई दुर्घटना हो जाती तो? मदेलश्ताम किसी भी तरह यह नहीं समझ पा रहे थे कि उनकी पत्नी, जो उनके अपने स्वका ही एक हिस्सा है, के जीवन-मूल्य उनके अपने जीवन-मूल्यों से अलग कैसे हो सकते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि नाद्या कोई भी बात मन्देलश्ताम से अलग सोचे? ऐसा कैसे हो सकता है कि जब वे उसे अभी-अभी लिखी गई या सिर्फ़ सोची गई कोई कविता पढ़कर सुनाएँ तो वह उसे याद न रह जाए? उनका ख़याल था कि उनके मन की बात उसके दिमाग़ में भी ज्यों की त्यों उतर जानी चाहिए। नाद्या लिखती है — “मन्देलश्ताम हमेशा इस बात को लेकर दुखी रहते कि मुझे उनकी कविताएँ याद क्यों नहीं रह जातीं। कभी वे अपनी कोई कविता सुनाते, मैं उसे ज्यों का त्यों लिख लेती। और जब बाद में उन्हें उनकी वे कविता-पँक्तियाँ पढ़कर सुनाती तो उन्हें वे पसन्द नहीं आतीं तो वे यह नहीं समझ पाते थे कि मैंने क्यों यह सब बकवास लिख डाली है। पर जब कभी-कभी मैं उनकी मिज़ाजपुर्सी करते-करते बेहद तंग आ जाती और उनकी कही हुई बातें लिखना नहीं चाहती तो वे बड़े अधिकार से मुझसे कहते — ’अरे, तुम यह क्या कर रही हो। यहाँ आओ, मेरे पास बैठो। और जो कुछ भी मैं बोल रहा हूँ, चुपचाप लिखती जाओ।’ “
लेकिन मन्देलश्ताम का एक दूसरा रूप भी था। एक बार गर्मियों के दिनों में जब मन्देलश्ताम नाद्या के साथ जार्जिया के बातूमी नगर में किसी के यहाँ रुके हुए थे तो भयानक गर्मी की वजह से उन दोनों को रात में खुली छत पर सोना पड़ गया। छत पर मच्छर बहुत थे। रात को अचानक नाद्या की आँख खुली तो उसने देखा की मन्देलश्ताम — “वहाँ पलंग के पास ही कुर्सी पर बैठे हुए थे और उनके हाथ में एक अख़बार था” जिससे वे पंखा-सा बनाकर नाद्या के ऊपर हवा कर रहे थे और मच्छरों को उड़ा रहे थे। नाद्या लिखती है — “एक-दूसरे के साथ हम दोनों का जीवन कितना सुखद था। पता नहीं क्यों, दुनिया वालों ने हमें एक साथ वह जीवन जीने नहीं दिया?”
नाद्या ने मन्देलश्ताम के साथ अपने जीवन के संस्मरणों की मोटी-मोटी तीन किताबें लिखी हैं, जिनमें उसने विस्तार से तत्कालीन सोवियत समाज का चित्रण किया है कि कौन लोग उन दिनों सुखपूर्वक सहज जीवन बिता रहे थे, कौन लोग किसी तरह जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे और वे कौन लोग थे जो लोगों का जीवन जीना दूभर बना रहे थे।
किसी भी अन्य सच्चे कवि की तरह मन्देलश्ताम कभी घुन्ने नहीं हो सकते थे। स्तालिन-विरोधी जो कविताएँ उन्होंने लिख ली थीं, अगर वे उन्हें छिपाए रहते या अपना नाम गुप्त रखकर जनता के बीच फैला देते तो उन्हें वे कष्ट नहीं झेलने पड़ते जो सत्ता ने उन्हें दिए। लेकिन मन्देलश्ताम तो उन दिनों सबको अपनी वे स्तालिन-विरोधी कविताएँ ही सुनाते नज़र आते। जब मई 1934 में उन्हें पहली बार गिरफ़्तार किया गया तब भी उन्होंने अपनी कविताओं से किनारा नहीं किया और एकदम यह बात मान ली कि वे कविताएँ उन्हीं की लिखी हुई हैं। बाद में पुलिस-हिरासत में ही उन्होंने अपनी कलाई की नस काट कर आत्महत्या करने की कोशिश की। पर मन्देलश्ताम को बचा लिया गया और तीन वर्ष के लिए मास्को से साइबेरियाई नगर चेरदिन के लिए निर्वासित कर दिया गया। लेकिन आन्ना अख़्मातवा और पस्तेरनाक जैसे कवियों तथा बुख़ारिन जैसे राजनेता ने जब मन्देलश्ताम की पैरवी की और गारण्टी दी तो उनकी सज़ा कम करके उनका निर्वासन वरोनिझ नगर के लिए कर दिया गया जो चेरदिन के मुक़ाबले कहीं बेहतर शहर माना जाता था। नाद्या को निर्वासन की सज़ा नहीं दी गई थी। नाद्या चाहती तो मास्को में ही रह सकती थी। लेकिन नाद्या ने भी अपने पति ओसिप मन्देलश्ताम के साथ स्वैच्छिक-निर्वासन की राह चुनी। शायद नाद्या द्वारा की गई सेवा-सुश्रुषा के कारण ही उस वर्ष मन्देलश्ताम की जान बच गई और उनका जीवन कुछ और लम्बा हो गया। स्तालिन की सरकार द्वारा बुरी तरह से तिरस्कृत और प्रताड़ित किए जा रहे महाकवि मन्देलश्ताम ने अप्रैल 1936 में वरोनिझ से महाकवि पस्तेरनाक को लिखे एक पत्र में सूचित किया — “मैं वास्तव में बहुत बीमार चल रहा हूँ। मेरे बचने की आशा कम ही है। अब शायद ही कोई ताक़त मुझे बचा पाए। पिछले दिसम्बर से ही मेरी हालत लगातार ख़राब होती जा रही है। अब तो कमरे से बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया है। मैं यह जो अपना नया जीवन आज थोड़ा-बहुत जी पा रहा हूँ, इसका सारा श्रेय मेरी जीवन-संगिनी को जाता है। वह नहीं होती तो मैं न जाने कब का ख़ुदा को प्यारा हो चुका होता।”
1937 में सज़ा पूरी होने के बाद मन्देलश्ताम दम्पत्ति मास्को वापिस लौट आए। लेकिन कुछ समय बाद ही 2 मई 1938 को मन्देलश्ताम को फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया। मन्देलश्ताम दम्पत्ति इस दिन हमेशा अपने विवाह की वर्षगाँठ मनाते थे। लेकिन तब मन्देलश्ताम की हालत बहुत ख़राब थी और वे मास्को के निकट स्थित समातीख़ा सेनेटोरियम में इलाज के लिए भरती हुए थे। सेनेटोरियम में उस दिन सवेरे उन्हें लाइब्रेरी के निकट वाले कमरे में शिफ़्ट कर दिया गया। थोड़ी देर बाद दो फ़ौजी अधिकारी उस कमरे में आए। उन्होंने मन्देलश्ताम को उनकी गिरफ़्तारी का वारण्ट दिखाया और अपने साथ चलने के लिए कहा। मन्देलश्ताम के पास एक छोटी-सी अटैची थी, जिसमें उनकी कुछ पुस्तकें, डायरियाँ और कुछ अन्य छोटा-मोटा निजी सामान था। यह सारा सामान फ़ौजी अफ़सरों ने अटैची से निकालकर एक काले से थैले में डाल दिया। नाद्या भी उनके साथ जाना चाहती थी। परन्तु फ़ौजियों ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। दो अगस्त को उन्हें फिर से क्रान्ति-विरोधी गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए पाँच वर्ष की सज़ा सुना दी गई और साइबेरिया के यातना-शिविर में भेज दिया गया।
मन्देलश्ताम के जीवन के अन्तिम दिनों के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों के बहुत से संस्मरण और कथाएँ सुनने में आती हैं। इन संस्मरणों के अनुसार मन्देलश्ताम अपने अन्तिम दिनों में अर्ध-विक्षिप्त से हो गए थे — “फटे हुए कपड़े पहने छोटे क़द का वह पाग़ल अपने कोटे की तम्बाकू के बदले यातना-शिविर के अन्य क़ैदियों से चीनी लेने की कोशिश करता था और जब उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं होता था तो वह उन्हें चीनी के बदले अपनी कविताएँ सुनाने लगता था। कभी-कभी वह किसी क़ैदी की रोटी चुराकर खा लेता, जिस पर उसकी बुरी तरह से पिटाई होती। लेकिन वह पाग़ल अपने कोटे की रोटी कभी नहीं खाता था क्योंकि वह डरता था कि उसमें ज़हर मिला हुआ है।”
यातना-शिविर में हुई उनकी मृत्यु के बारे में भी बहुत-से क़िस्से सुनने में आते हैं। लेकिन लेखक वरलाम शलामफ़ ने, जो मन्देलश्ताम के साथ ही उस यातना-शिविर में बन्द थे, मन्देलश्ताम के देहान्त की कथा अपनी कहानी चेरी की ब्राण्डी’ (मन्देलश्ताम की एक कविता का शीर्षक है यह) में लिखी है। कवि मर रहा था’ — इन शब्दों से यह कहानी शुरू होती है
कवि मर रहा था। भूख और ठण्ड के कारण उसकी हथेलियाँ और कलाइयाँ सूज कर ख़ूब मोटी हो गई थीं। रक्तविहीन सफ़ेद उँगलियों और गन्दगी के कारण काले पड़ चुके लम्बे-लम्बे नाख़ूनों वाले उसके हाथ उसकी छाती पर पड़े हुए थे। वह उन्हें ठण्ड से बचाने की कोई कोशिश नहीं कर रहा था। जबकि पहले वह उन्हें अपनी दोनों बगलों में दबा लेता था। लेकिन अब उसके नंगे शरीर में इतनी गरमी ही बाक़ी नहीं रह गई थी कि वह उसके हाथों को गरमा सके।”
नाद्या भी बिना यह जाने ही कि किस दिन उसके पति ने आँखें मूँदीं, दूसरी दुनिया में चली गई। उनकी मृत्यु के बहुत दिनों बाद सोवियत सरकार ने वे गुप्त दस्तावेज़ आम जानकारी के लिए खोले, जिनसे यह पता लगता था कि मन्देलश्ताम की मृत्यु 27 दिसम्बर 1938 को हुई। मन्देलश्ताम की मृत्यु से क़रीब दो माह पहले ही यह सोचकर कि शायद वह मन्देलश्ताम से पहले ही मर जाएगी, नाद्या ने मन्देलश्ताम के नाम अपना अन्तिम पत्र लिखा था
ओस्या, मेरे प्रियतम, मेरे दोस्त, मेरे जीवन, इस पत्र में तुमसे कुछ कहने के लिए मेरे पास अब शब्द ही नहीं बचे हैं। हो सकता है कि तुम यह पत्र कभी नहीं पढ़ पाओ। मैं यह पत्र जैसे अन्तरिक्ष में लिख रही हूँ। हो सकता है, तुम लौट आओ, लेकिन मैं तब तक शेष नहीं रहूँगी। तब यह तुम्हारे लिए मेरा अन्तिम स्मृति-चिह्न होगा।”
अन्तरिक्ष में भेजे जाने के लिए लिखा गया यह पत्र विश्व पत्र-साहित्य सम्पदा का एक सबसे मर्मभेदी पत्र है — “मेरा हर विचार तुम्हारे बारे में है। मेरा हर आँसू, मेरी हर मुस्कान तुम्हें ही समर्पित। मेरे दोस्त, मेरे हमदम, मेरे रहबर, मैं अपने कड़वे जीवन के हर दिन, उसके हर घण्टे को असीस देती हूँ…” इसके बाद अपने पत्र में नाद्या ने अपने एक सपने का ज़िक्र किया है कि कैसे वह किसी छोटे से शहर के होटल की कैण्टीन में खड़ी है। उसने मन्देलश्ताम के लिए खाने-पीने का सामान ख़रीदा है। लेकिन यह सामान लेकर उसे कहाँ जाना है, वह यह नहीं समझ पा रही है। जब अचानक उसकी आँख खुलती है तो वह पाती है कि उसका सारा माथा ठण्डे पसीने से तर है। नाद्या ने अपने पत्र में आगे लिखा है — ” …मैं यह नहीं जानती कि तुम जीवित भी हो या नहीं। तुम्हारा अता-पता मैं खो चुकी हूँ। तुम्हारे साथ मेरा कोई सम्पर्क ही नहीं है। मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि तुम कहाँ हो। तुम मेरी बात सुनोगे भी या नहीं। तुम यह कभी जान भी पाओगे या नहीं कि मैं तुम्हें अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक बेहद-बेहद प्यार करती रही हूँ। मैं उस दिन तुम्हें विदा करते हुए यह बात न कह पाई।
आज भी किसी और व्यक्ति के सामने मैं यह बात नहीं कह रही, सिर्फ़ तुम्हें बता रही हूँ कि मैं तुम्हें, केवल तुम्हें बहुत-बहुत प्रेम करती हूँ… तुम हमेशा मेरे साथ रहे, मेरे मन में, मेरे हृदय की गहराइयों में और मैं जंगली व उजड्ड तुम्हारे सामने कभी रो तक न पाई… आज रो रही हूँ, सिर्फ़ रो ही रही हूँ, और तुम्हें याद कर रही हूँ..”  और पत्र के अन्त में नाद्या ने लिखा था — “यह मैं हूँ तुम्हारी नाद्या। तुम कहाँ हो?”
इस सवाल का उत्तर आज भी हमारे पास नहीं है। व्लदीवस्तोक के उस यातना-शिविर में उन वर्षों में मारे गए बन्दियों की तीन विशाल सामूहिक-क़ब्रें पाई गई हैं, लेकिन उन तीनों में से किस सामूहिक-क़ब्र में मन्देलश्ताम को दफ़्न किया गया था, यह पूरी तरह से अज्ञात है। उन दिनों क़ैदियों को सामूहिक-क़ब्र में फेंकते हुए उनके पैर में एक टैग बाँध दिया जाता था, जिस पर हर क़ैदी का नाम लिखा होता था। वे टैग कब के गलकर मिट्टी में मिल चुके हैं।
लेकिन ऐसा नहीं है कि उनकी आत्मा अभी भी इस धरती पर भटक रही है। रूसी आर्थोडॉक्स ईसाई धर्म के अनुयायी यह मानते हैं कि जब तक मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करके मृतक व्यक्ति के शरीर को उसके प्रिय व्यक्ति के निकट नहीं दफ़नाया जाता, तब तक उसकी आत्मा हमारी इस दुनिया में भटकती रहती है। और मन्देलश्ताम की आत्मा को 1980 में उनकी प्रिया नाद्या ने शरण दी और अब वे दोनों बलूत की लकड़ी के एक साधारण से सलीब के नीचे मास्को के स्तारो-कून्त्सेव्स्की क़ब्रिस्तान में चैन की नींद सो रहे हैं। उनकी उस क़ब्र पर एक छोटा-सा पत्थर रखा हुआ है, जिस पर लिखा है कवि ओसिप ऐमिल्येविच मन्देलश्ताम की पावन स्मृति को समर्पित
अनिल जनविजय

सम्पर्क-
ई-मेल – aniljanvijay@gmail.com

येव्गेनी येव्तुशेंको की कविताएँ

येव्गेनी येव्तुशेंको

केदार नाथ सिंह ने अपनी गद्य की किताब ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ में येव्गेनी येव्तुशेंको की कविताओं का जिक्र किया है. ये कविताएँ उन्हें अनिल जनविजय ने उपलब्ध करायीं थीं. केदार जी अपने एक आलेख में कहते हैं कि ख्रुश्चेव के बाद के परिवर्तन की आवाज को येव्तुशेंको की कविताओं में स्पष्ट रूप से सुना जा सकता है.इनकी आवाज को पाश्चात्य जगत में क्रुद्ध युवा पीढ़ी के पर्याय के रूप में देखा-सराहा गया. प्रारम्भ में येव्तुशेंकी मूलतः मायकोव्स्की के प्रशंसक थे पर बाद के दिनों में वे ऐसी दिशा में बढे जिसमें कविता क्षीण होती गयी और उनका आलोचनात्मक तेवर अधिक मुखर हुआ. मैंने अनिल जी से येव्तुशेंको की कुछ ऐसी कविताएँ भेजने का अनुरोध किया, जिससे हिन्दी समाज परिचित नहीं है. अनिल जनविजय के सुघड भावानुवाद ने येव्तुशेंको की कविता को जैसे जस का तस प्रस्तुत कर दिया है. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रुसी कवि येव्तुशेंको की कविताएँ.           
येव्गेनी येव्तुशेंको की कविताएँ 
(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय)
आगमन वसन्त का

धूप खिली थी
और रिमझिम वर्षा
छत पर ढोलक-सी बज रही थी लगातार
सूर्य ने फैला रखी थीं बाहें अपनी
वह जीवन को आलिंगन में भर
कर रहा था प्यार

नव-अरुण की
ऊष्मा से
हिम सब पिघल गया था
जमा हुआ
जीवन सारा तब
जल में बदल गया था

वसन्त कहार बन
बहंगी लेकर
हिलता-डुलता आया ऎसे
दो बाल्टियों में
भर लाया हो
दो कम्पित सूरज जैसे

औरत लोग

मेरे जीवन में आईं हैं औरतें कितनी
गिना नहीं कभी मैंने
पर हैं वे एक ढेर जितनी

अपने लगावों का मैंने
कभी कोई हिसाब नहीं रक्खा
पर चिड़ी से लेकर हुक्म तक की बेगमों को परखा
खेलती रहीं वे खुलकर मुझसे उत्तेजना के साथ
और भला क्या रखा था
दुनिया के इस सबसे अविश्वसनीय
बादशाह के पास

समरकन्द में बोला मुझ से एक उज़्बेक-
औरत लोग होती हैं आदमी नेक”
औरत लोगो के बारे में मैंने अब तक जो लिखी कविताएँ
एक संग्रह पूरा हो गया और वे सबको भाएँ

मैंने अब तक जो लिखा है और लिखा है जैसा
औरत लोगों ने माँ और पत्नी बन
लिख डाला सब वैसा

पुरुष हो सकता है अच्छा पिता सिर्फ़ तब
माँ जैसा कुछ होता है उसके भीतर जब
औरत लोग कोमल मन की हैं दया है उनकी आदत
मुझे बचा लेंगी वे उस सज़ा से, जो देगी मुझे
पुरुषों की दुष्ट अदालत

मेरी गुरनियाँ, मेरी टीचर, औरत लोग हैं मेरी ईश्वर
पृथ्वी लगा रही है देखो, उनकी जूतियों के चक्कर
मैं जो कवि बना हूँ आज, कवियों का यह पूरा समाज
सब उन्हीं की कृपा है
औरत लोगों ने जो कहा, कुछ भी नहीं वृथा है

सुन्दर, कोमलांगी लेखिकाएँ जब गुजरें पास से मेरे
मेरे प्राण खींच लेते हैं उनकी स्कर्टों के घेरे


बाकू के एक प्रसूतिगृह के दरवाज़े पर

बाकू के
एक प्रसूतिगृह के दरवाज़े पर
एक बूढ़ी आया ने
दंगाइयों को धमकाते हुए कहा–
हटो, पीछे हटो,
मैं हमेशा ही रला-मिला देती थी
शिशुओं के हाथों में बंधे टैग
अब यह जानना बेहद कठिन है
कि तुममें कौन है अरमेनियाई
और कौन अज़रबैजानी…

और दंगाई…
साइकिल की चेन, ईंट-पत्थरों, चाकू-छुरियों
और लोहे की छड़ों से लैस दंगाई
पीछे हट गए
पर उनमें से कुछ चीखे–छिनाल

उस बुढ़िया की
पीठ के पीछे छिपे हुए थे
डरे हुए लोग
और रिरिया रहे थे अपनी जाति से अनजान

हममें से हर एक की रगों में
रक्त का है सम्मिश्रण
हर यहूदी अरब भी है
हर अरब है यहूदी
और यदि कभी कोई भीगा किसी के रक्त में
तो मूर्खतावश, अंधा होकर
भीगा अपने ही रक्त में

एक ही प्रसूतिगृह के हैं हम
पर प्रभु ने बदल डाले हमारे टैग
हमारे जनम के कठिन दौर के पहले ही
और हमारा हर दंगा
अब ख़ुद से ही दंगा है

हे ईश्वर!
इस ख़ूनी उबाल से बचा हमें
अल्लाह, बुद्ध और ईसा के बच्चे
जिन्हें रला-मिला दिया गया था प्रसूतिगृह में ही
बिना टैग के हैं
जीवन और सौन्दर्य की तरह…

पुराना दोस्त

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
दुश्मन हो चुका है जो अब
लेकिन सपने में वह दुश्मन नहीं होता
बल्कि दोस्त वही पुराना, अपने उसी पुराने रूप में
साथ नहीं वह अब मेरे
पर आस-पास है, हर कहीं है
सिर मेरा चकराए यह देख-देख
कि मेरे हर सपने में सिर्फ़ वही है

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
चीखता है दीवार के पास
पश्चाताप करता है ऎसी सीढ़ियों पर खड़ा हो
जहाँ से शैतान भी गिरे तो टूट जाए पैर उसका
घृणा करता है वह बेतहाशा
मुझसे नहीं, उन लोगों से
जो कभी दुश्मन थे हमारे और बनेंगे कभी
भगवान कसम!

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जीवन के पहले उस प्यार की तरह
फिर कभी वापिस नहीं लौटेगा जो

हमने साथ-साथ ख़तरे उठाए
साथ-साथ युद्ध किया जीवन से, जीवन भर
और अब हम दुश्मन हैं एक-दूसरे के
दो भाइयों जैसे पुराने दोस्त

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
जैसे दिखाई दे रहा हो लहराता हुआ ध्वज
युद्ध में विजयी हुए सैनिकों को
उसके बिना मैं-मैं नहीं
मेरे बिना वह-वह नहीं
और यदि हम वास्तव में दुश्मन हैं तो अब वह समय नहीं

मुझे सपने में दिखाई देता है पुराना दोस्त
मेरी ही तरह मूर्ख है वह भी
कौन सच्चा है, कौन है दोषी
मैं इस पर बात नहीं करूंगा अभी
नए दोस्तों से क्या हो सकता है भला
बेहतर होता है पुराना दुश्मन ही
हाँ, एकबारगी दुश्मन नया हो सकता है
पर दोस्त तो चाहिए मुझे पुराना ही

मैंने तुम्हें बहुत समझाया

मैंने तुम्हें बहुत समझाया
बहुत मनाया और बहलाया
बहुत देर कंधे सहलाए
पर रोती रहीं,
रोती ही रहीं तुम, हाय!

लड़ती रहीं मुझसे-
मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती…
कहती रहीं मुझसे-
मैं तुम्हें अब प्यार नहीं करना चाहती…
और यह कहकर भागीं तुम बाहर
बाहर बरिश थी, तेज़ हवा थी
पर तुम्हारी ज़िद्द की नहीं कोई दवा थी

मैं भागा पीछे साथ तुम्हारे
खुले छोड़ सब घर के द्वारे
मैं कहता रहा-
रुक जाओ, रुक जाओ ज़रा
पर तुम्हारे मन में तब गुस्सा था बड़ा

काली छतरी खोल लगा दी
मैंने तुम्हारे सिर पर
बुझी आँखों से देखा तुमने मुझे
तब थोड़ा सिहिर कर
फिर सिहरन-सी तारी हो गई
तुम्हारे पूरे तन पर
बेहोशी-सी लदी हुई थी
ज्यों तुम्हारे मन पर
नहीं बची थी पास तुम्हारे
कोमल, नाज़ुक वह काया
ऎसा लगता था शेष बची है
सिर्फ़ उसकी हल्की-सी छाया

चारों तरफ़ शोर कर रही थीं
वर्षा की बौछारें
मानो कहती हों तू है दोषी
कर मेरी तरफ़ इशारे-
हम क्रूर हैं, हम कठोर हैं
हम हैं बेरहम
हमें इस सबकी सज़ा मिलेगी
अहम से अहम

पर सभी क्रूर हैं
सभी कठोर हैं
चाहे अपने घर की छत हो
या घर की दीवार
बड़े नगर की अपनी दुनिया
अपना है संसार
दूरदर्शन के एंटेना से फैले
मानव लाखों-हज़ार
सभी सलीब पर चढ़े हुए हैं
ईसा मसीह बनकर, यार!

रूस की लड़कियाँ

खेत से
गुज़र रही थी लड़की
गोद में
एक बच्चा लिए थे लड़की”

यह गीत पुराना
जैसे झींगुर कोई गा रहा था
जैसे जलती ही मोमबत्ती का
पिघला मोम कुर-कुरा रहा था

ओ… सो जा रे, सो जा, सो जा तू…
जिसने ख़ुद को पालने में यूँ नहीं झुलाया
जिसने ख़ुद को सहलाने और मसलने दिया
खेतों में और झाड़ियों में,
लोरी गाकर नहीं सुलाया
तैयार करें वे अपनी बाहें
और गोद
किसी किलकारी को
पैदा होंगे नन्हे बच्चे
हर ऐसी ही नारी को

हर गीत के होते हैं
अपने ही कारण रहस्यमय
हर फूल के होती है योनि
और पराग-केसर का समय

ऐसा लगता है
खेत उन दिनों पड़ा था नंगा
और लड़की थी वह
अपने बच्चे के संग
पर क्या हुआ फिर बाद में इसके
भला कहाँ पढ़ेंगे, कहाँ सुनेंगे हम
कहानी वह निस्संग

और
वह गीत ख़राब-सा
कहवाघरों की शान बना कब ?
क्या शासन था तब ज़ार निकलाई का ?
या बोल्शेविकों का, हातिमताई का ?
लेकिन पता नहीं क्यों होता है ऐसा
चाहे कोई भी समय हो
भूख अशान्ति और लड़ाई
बच्चों को लिए अपनी गोद में घूमें
जैसे उन्हें नहीं कोई भय हो

लड़की वह
गुज़र रही थी रोती
बहकी-बहकी चाल थी उसकी
और गोद में नन्हीं बच्ची
नंग-धड़ंग थी उम्र की कच्ची
उखड़ी-उखड़ी साँसें उसकी
जैसे पड़ी हुई थी मार के मुस्की

मुँह फाड़कर रोई ऐसे
चीख़ी चिल्लाई हो जैसे
क्या फ़र्क पड़ता है वैसे
यह क्रान्ति से पहले हुआ था
या उसके बाद किसी दिन
उसे अपशगुनों ने छुआ था

इन क्रान्तियों का
मतलब क्या है ?
उनके रक्तिम-चिह्नों से भी
भला क्या हुआ है ?
सिर्फ़ रक्त बहे और आँसू बहे
जीवन ने कितने कष्ट सहे
उनसे पहले, उनके दौरान,
उनके बाद भी
जीवन नहीं हुआ आसान

हो सकता है हुआ हो ऐसा
क्या कहूँ मैं, कैसा-कैसा
सूख गए हों आँसू माँ के
मृत चेहरे पर तेरे
तेरे कोमल होठों पर वह
अपने सूखे होंठ फेरे
ले गई हो परलोक में
मृत्यु तुझको घेरे

हो सकता है
तू बड़ी हो गई हो
मूरत प्रेम की खड़ी हो गई हो
तब मृत्यु ने आ घेरा हो तुझे
इस तरह से हेरा हो तुझे
पलकों के नीचे तेरी जो
दो बड़े नीले फूल खिले थे
जैसे अब जा धूल मिले थे

हो सकता है
तू जान गई हो
बड़ी नहीं होगी, पहचान गई हो
भूख से मर जाएगी तू
इससे भी अनजान नहीं हो

या तुझे
खा गए हों रिश्तेदार
भेड़िए भूख से बेज़ार
वोल्गा के तटवर्ती इलाकों में कहीं
तू छोड़ गई हो यह संसार

हो सकता है

तू पड़ी मिली हो
किसी खोह में अँधेरी
और तुझे दफ़ना दिया गया
जब पहचान नहीं हो पाई तेरी

हो सकता है
जीवन में तूने
झेले हों असंख्य अत्याचार
कहीं खेतों के बीच पटककर
तेरे साथ भी किया हो किसी ने
घृणित बेरहम बलात्कार

हो सकता है
बड़ी होकर भी
रोई हो तू जीवन भर
साइबेरिया के ठण्डे बर्फ़ीले तिमिर में
फिर मारी गई हो किसी यंत्रणा-शिविर में

बच्ची वह
रोई थी ऐसे
चेहरा उसका ऐंठ गया था
चेहरे पर पीड़ा थी गहरी
लाल झण्डा वहाँ जैसे पैठ गया था

क्या होगा
क्रान्ति से भला ?
इस भयानक मार-काट के बाद
फिर से असहनीय रुदन फैला है
और रूस है आज़ाद

रूसी खेतों से
बेड़ी पहने
लड़कियाँ गुज़र रही हैं फिर से
उनके नन्हे बच्चों की चीख़ें
उमड़ रही हैं मेरे सिर पे।


अनिल जनविजय


सम्पर्क

anil janvijay
Moscow, Russia
+7 916 611 48 64 ( mobile)

कन्सतान्तिन कवाफ़ी

(चित्र : कन्सतान्तिन कवाफ़ी)
रिष्ठ कवि अनिल जनविजय ने यूनानी कवि कन्सतान्तिन कवाफ़ी की कुछ कविताओं के बेहतरीन अनुवाद किए हैं।  पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं ये कविताएँ। 
आशा है,  ये कविताएँ आप को पसन्द आएँगी।

 सीढ़ियों पर

उन बदनाम सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था जब
तभी पल भर को झलक देखी थी तेरी
दो अनजान चेहरों ने एक-दूजे को देखा था तब
फिर मुड़ गया था मैं शक़्ल छुप गई थी मेरी

बड़ी तेज़ी से गुज़री थी तू छिपा कर चेहरा
घुसी थीं उस घर में जो बदनाम था बड़ा
जहाँ पा नहीं सकती थी तू सुख वह बहुतेरा
जो पाता था मैं वहाँ, उस घर में खड़ा-खड़ा

मैंने दिया प्रेम तुझे वैसा, जैसा तूने चाहा
थकी हुई आँखों से तूने भी मुझ पर प्रेम लुटाया
बदन हमारे जल रहे थे, एक-दूजे को दाहा
पर घबराए हम पड़े हुए थे, कोई न कुछ कर पाया


गंदी तस्वीर

वहाँ सड़क पर पड़ी हुई, उस बेहद गंदी तस्वीर में
पुलिस की निगाह से छिपाकर बेची जा रही थी जो
बेचैन हुआ था तब बड़ा, यह जानने को अधीर मै
आई कहाँ से हसीना, कितनी दिलकश दिख रही है वो

कौन जानता है ओ सुन्दरी कैसा तुमने जीवन जिया
कितना मुश्किल, कितना गंदा, गरल कैसा तुमने पिया
किस हालत में, क्योंकर तुमने, यह गंदी तस्वीर खिंचाई
इतने ख़ूबसूरत तन में क्योंकर वह घटिया रूह समाई

लेकिन इतना होने पर भी स्वप्न-सुन्दरी तू बन गई मेरी
तेरी सुन्दरता, तेरी उज्ज्वलता, करते मेरे मन की फेरी
याद तुझे कर-कर हरजाई, सुख पाता हूँ मैं यूनानी
पता नहीं कैसे बोलेगी, तुझसे मेरी कविता दीवानी

दिसम्बर 1903

जब मैं बात नहीं कर पाता अपने उस गहरे प्यार की
तेरे बालों की, तेरे होंठों की, आँखों की, दिलदार की
तेरा चेहरा बसा रहता है मेरे दिल के भीतर तब भी
तेरी आवाज़ गूँजा करती है, जानम, मेरे मन में अब भी

सितम्बर के वे दिन सुनहले, दिखाई देते हैं सपनों में
मेरी ज़ुबान तो ओ प्रिया, बस गीत तेरे ही गाती है
रंग-बिरंगा रंग देती है तू मेरी सब रातों को अपनों में
कहना चाहूँ जब कोई बात, बस, याद तू ही तू आती है

सितम्बर 1903

अब मुझे ख़ुद को धोखा देने दो कम-अज़-कम
भ्रमित मैं महसूस कर सकूँ जीवन का ख़ालीपन
जब इतनी पास आया हूँ मैं इतनी बार
कमज़ोर और कायर हुआ हूँ कितनी बार
तो अब भला होंठ क्यों बन्द रखूँ मैं
जब मेरे भीतर रुदन किया है जीवन ने
औ’ पहन लिए हैं शोकवस्त्र मेरे मन ने?

इतनी बार इतना पास आने के लिए
उन संवेदी आँखों, उन होठों को और
उस जिस्म की नाज़ुकता को पाने के लिए
सपना देखा करता था, करता था आशा
प्यार करता था उसे मैं बेतहाशा
उसी प्यार में डूब जाने के लिए

अलसाया पड़ा रहता था मैं उनके बिस्तर पर

सुख देने वाले उस घर में जब भी घुसता था मैं
नहीं रुकता था ठीक सामने वाले उन कमरों में
जहाँ निभाया जाता है कुछ प्रेम का शिष्टाचार
और किया जाता है सबसे बड़ा नम्र व्यवहार

गुप्त कमरों में जा घुसता था तब मैं अक्सर
अलसाया पड़ा रहता था मैं उनके बिस्तर पर
जिन पर निपटाती थीं वे ग्राहकों को अक्सर


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