संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ।


संजय कुमार शाण्डिल्य

अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी संकोच या भय की वजह से वे बातें नहीं कह पाते जो अपने समय की जरुरी और ईमानदार बातें होती हैं। एक कवि इसे न केवल महसूस करता है बल्कि अपनी कविता में इसे कुछ इस तरह दर्ज करता है ‘जो मैं बोल नहीं पाता हूँ / वह सबसे जरूरी बात होती है।’ संजय कुमार शांडिल्य ऐसे ही महत्वपूर्ण युवा कवि हैं जिनकी कविताओं में आम आदमी की तकलीफें, दिक्कतें, बातें और भावनाएँ सहज ही देखी और महसूस की जा सकती हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत हैं युवा कवि संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ।  
संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ
बहुत ताकतवर हवाओं में 
बहुत ताकतवर हवाओं में
टोपियाँ सँभाली नहीं जा सकती
लगातार वेग से उङती हैं चीजें
न जाने कहाँ चली जाती हैं
घोङे के जाँघ की हड्डियाँ
चूर-चूर हैं 
समुद्र की मछलियां उन पर अंतरिक्ष में पहुँचती हैं
और वापिस बरसती हैं समुद्र पर
एक जीर्ण और पीला पत्ता
दिखाई नहीं पङते हुए उड़ रहा है
किसी गुप्त दराज़ से गायब हो गये हैं
प्रेम-पत्रों के अक्षर 
लिखे जाते वक्त की असीम थरथराहटों के साथ
दुःख दाढ़ी बढ़ा कर जी रहा है
कामकाजी चिठ्ठियों के डाकखाने स्मार्ट
हो गए हैं
बहुत ताकतवर हवाओं में
किसानों ने स्थगित रखा है
खलिहान में ओसवन
आप दुआ करते हैं कि जब बहुत ताकतवर हों हवाएँ
यात्रा खत्म कर लौट चुके हों आपके अपने
दरख्त अपनी जङों से जकड़ लेते हैं पृथ्वी को
बहुत ताकतवर हवाओं में।
हम जहाँ नहीं रह जाते हैं
जो मैं बोल नहीं पाता हूँ 
वह सबसे जरूरी बात होती है
एक दिन ऐसी सभी बातें
इकट्ठा हो जाती हैं
कोई उस पर से गुजरता है
जैसे किसी जलते 
हुए मलबे से गुजरता है
जिस पर हम चल नहीं पाते हैं
वह सबसे जरूरी रास्ता होता है
एक दिन ऐसे सभी रास्ते
इकट्ठा हो जाते हैं
लोग ऐसे रास्तों पर
बातें करने लगते हैं
जैसे लोग लाशों पर
बातें करते हैं
हम जहाँ नहीं रह जाते हैं
वह हमारा सबसे जरूरी पता
होता है।
सुबह की सैर वाली कविता
कनस्तर पर कनस्तर गिन रहा
वह नगर श्रेष्ठी अपने जिस्म के
मांस में डूब रहा है
क्या वह मेरी कविता पढ़ेगा 
थोड़ा वक्त निकाल कर
और वह उजड्ड अफसर 
उस पेशाबघर का इस्तेमाल करेगा
जिसमें जाते हैं क्लर्क और चपरासी
अपने अकेलेपन में पागल 
हो जाने से पहले
किसी उकाब की तरह गर्दन अकड़ाए
वह पागल जो नाली की पुलिया पर
समरकंद के बादशाह की तरह
बैठा रहता है आजकल
क्या वह मेरी कविता पढ़ेगा
वह जो अपने घर के खाली मर्तबानों 
की वजह से 
लगातार हँसे जा रहा है
उसकी हँसी से गाफिल है जो
उसका पड़ोसी
क्या इतना समय निकाल पाएगा
जितने में सुबह की सैर से
नया हो जाता है पिछली रातों की
धुन्ध में हदबदाया हुआ फेफड़ा
इस सूनेपन और सन्नाटे में
कोलाहल से भरे हुए लफ्जों 
तुम मेरी कविता में उतरो
जैसे दोपहर के बाद 
थके हुए कबूतर उतरते हैं 
मेरे घर की छत पर
ये जो बिखरे हुए दाने हैं
वह मैंने उस किसान से माँगे हैं 
जिसका चालीस फर्दों का परिवार
बीस वर्षों से भूखा है
अपनी उदास भाषा में 
मैं एक शोर भरी कविता लिख कर
कुछ बिना छत की दीवार जैसे 
लोगों को सुनाना चाहता हूँ
क्या इतना वक्त निकाल सकोगे
मेरी कविताओं के लिए
जितने में एक सैर भरा हुआ फेफड़ा
नया हो जाता है
दिन भर की गैरआमद थकान के लिए।
फाँक
गाँव ऊँचे और निचले में नहीं बँटा था
ऊपर से नीचे दो फाड़ था
यह तो 
सम्पर्क-
संजय कुमार शांडिल्य
सहायक अध्यापक
सैनिक स्कूल गोपालगंज,
पत्रालय- हथुआ, जिला- गोपालगंज (बिहार) 841436

मोबाईल – 9431453709
ई मेल – shandilyasanjay1974@gmail.com

संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ

संजय कुमार शाण्डिल्य

यह सच है कि कट्टरवादिता अरसा पहले से रही है और आगे भी रहेगी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उसके खिलाफ बोलने वाले लोग भी इस दुनिया में रहेंगे। नरेन्द्र दाभोलकर हो या फिर गोविन्द पानसरे सच बोलने की सजा पा चुके हैं। कहना न होगा कि साम्प्रदायिक ताकतें आजकल पूरे उभार पर हैं। साम्प्रदायिक ताकतें अपनी प्रकृति में ही मूलतः फासीवादी होती हैंवहाँ तर्क के लिए कोई जगह नहीं होती। प्रोफ़ेसर एम एम कलबुर्ती इन बातों से पहले से अवगत थे। और तमाम खतरों के बावजूद संकीर्णताओं के खिलाफ अपना बोलना उन्होंने जारी रखा। अन्ततः कट्टरवादियों ने बीते 30 अगस्त 2015 को उनकी हत्या कर दी। शिवानन्द कानवी ने जब एक बातचीत में उनसे इन खतरों के बारे में पूछा तो प्रोफ़ेसर कलबुर्ती ने बेहिचक बसवन्ना के एक वचन को उद्धृत करते हुए कहा – 

Let what could happen tomorrow come to us today,
Let what could happen today come to us here and now,
Who is afraid of this!
One that is born will also die
Neither Hari nor Brahma can override what my Koodala Sangama Deva has writ.

       
युवा कवि संजय कुमार शाण्डिल्य अपनी कविताओं में ऐसी शक्तियों के खिलाफ खुल कर खड़े दिखाई पड़ते हैं। यह संयोग ही है कि अरसा पहले भेजी गयी उनकी कविताओं को जब आज ‘पहली बार’ पर मैंने पोस्ट करने की योजना बनायी तो इन कविताओं में प्रतिवाद का वह स्वर सुनाई पड़ा जिसके पक्ष में कलबुर्ती भी आजीवन खड़े रहे। संजय आज के उन कुछ विरल युवा आवाजों में से हैं जिन्होंने अत्यन्त कम समय में अपनी संभावनाओं के लिए एक पुख्ता जगह बना लिया है प्रोफ़ेसर कलबुर्ती को नमन करते हुए श्रद्धांजलिस्वरुप हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं संजय कुमार शाण्डिल्य की कुछ नयी कविताएँ 
      

संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ
कोई मुझे भी खोद कर निकालेगा
कोई मुझे भी खोद कर निकालेगा
नुकीले कुदाल से
और धूल झाड़ने वाले ब्रुश से
साफ करेगा मुझ पर
तह हुई सदियाँ
वह चुम्बन जिसे तुमने
विदा के वक्त मेरे कंधे पर
अपने होठों के
लाल रंग से लिखा
विदा समय का वह कम्पन
कभी पढ़ेगा वह पुरातत्ववेत्ता
वह समय कभी पुनर्रचित होगा
जिसमें जुड़े रहना मुश्किल था
आसान था बिखर जाना
मेरे हाथ और पाँवों की अस्थियाँ
बटोर कर
कितना मुश्किल होगा
मुझे देख पाना
जैसे तुम देखती हो मुझे
इस झिलमिल से उजाले में
इस घिरते हुए अँधेरे में
वह हवा जिसके विरानेपन में
हमारे फेफड़े कर्मरत हैं
और उन झडबेरियों के कांटे
जिनसे पगडंडियों की हरियाली है
जैसे तुम देखती हो मुझे
अपने वज़ूद भर रोज़ लड़ते हुए
और हमारे बुरे वक्त में
दूसरी ओर घूमे हुए
अपनों की शक्लें हैं
इन सदियों की धूल
कभी साफ़ हो सकेगी
मेरी ये ऑंखें खुली रहेगी
अनंत काल तक
उन अनुमानों के लिए
जिसमें कई झूठ होंगें
उनमें एक चमकता हुआ
सच भी रह सकता है
अब्दुल मियां
अब्दुल मियां के इस देश की
अर्थव्यवस्था
दुनिया की तीसरी होगी
२०३५ तक
कोई शताब्दी के बीस वर्ष
उछाल देता है हवा में
अब्दुल मियां के घर में
अगर कैलेंडर हुआ
तो उसमें उसका भविष्य
एक पखवाड़ा है
दरहकीकत अब्दुल मियां
दिन भर के दुआ-सलाम में
जितने लफ्ज खर्च करता है
उतने रूपये अपनी
गिरहस्थी पर नहीं करता
कोई शताब्दी के बीस वर्ष
के ख्वाब रखता है
उसकी आँखों में
अब्दुल मियाँ सरौते से
सुपारी सा काटता है
चौबीस घंटे
अब्दुल मियाँ तम्बाकू की
डिबिया में भरता है
अपने दिन-रात
इस दुनिया के मानचित्र में
अब्दुल मियाँ का कारोबार
एक फैला हुआ जूट का
बोरा है
वही अमेरिका उसका
वही उसका चीन-जापान
कोई अब्दुल मियाँ की
इस दुनिया को
एक बोरे में भरना चाहता है
वह जानना चाहता है
आने वाले बीस सालों की
दुनिया के बारे में
अब्दुल मियाँ मुझ से पूछ कर
अपने कल के लिए
डरना चाहता है।

कोई मरहमपट्टी नहीं
 
कुछ बहुत अच्छी तलवारें बाज़ार में हैं
उन्हें इस दुश्मनों से भरे समय में
कोई खरीदता होगा
आवारा कुत्तों के लिए लाठियाँ
और विषधरों के लिए
सांप मारने की बर्छियां
हाथ जो हथियार चला सकते हैं
और वह साहस
कटे हुए सिर के बाल पकड़ कर
चौराहे पर नाचती है पाशविकता
इसे लोग पीढ़ी दर पीढ़ी हासिल
करते हैं
यह किस बाज़ार में मिलता है?
मैं लाठियाँ, तलवारें और बर्छियों के बिना
भी जीवित रहूँगा
हज़ारों लोग जीवित रहते हैं
हज़ारों लोग मारे जाते हैं
अपनी ही लाठियों’, तलवारोंऔर बर्छियों से
देह में लगे घाव के साथ
निकलता रहूँ बस
कोई मरहमपट्टी नहीं
हम जहाँ तक पहुँचते हैं वहाँ तक हमारी दुनिया है
कोई दूर जाता हुआ कहे जा रहा था कि हम
जहाँ तक पहुँचते हैं वहाँ तक हमारी दुनिया है
इस तरह वह रोटी तक समेट रहा था हमें
और नमक तक
ताकि वह समुद्र तक हमारी पहुँच काट दे
वह नदियों के रेशे-रेशे को लिबास की तरह बाँट रहा था
उड़ता हुआ कपास हमारी पहुंच से दूर चला गया
हम पाँव भर जमीन सिर भर आसमान और कंठ भर शब्द हो गए
उसने कहा पृथ्वी और मंगल के बीच क्या है
शब्दों के सिवा
धीरे-धीरे हमारी मातृभाषा में खाली जगहें थीं ध्वनियों की
हमारी पुकार सिर्फ सन्नाटे तक पहुँचती थी और अँधेरे में खो जाती थी
हम कहीं नहीं पहुँचने के लिए अपने पाँवों के खिलाफ चल रहे हैं
सारे रास्तों में यात्रा सिर्फ उसकी है
उसे जहाँ भी पहुँचना है सिर्फ वही पहुँच रहा है
ये मेरे हाथ उसके हाथ हैं, मेरी आँखें उसकी आँखें हैं
यह मेरा रक्त है जो उसके जिस्म में दौड़ रहा है
वही है जो करोड़ों मुँह से बोल रहा है खूब गाढ़े पर्दे के उस पार
मैं उस तक पहुँचने से पहले कोयला हो जाउंगा
वह अपनी कोटि-कोटि जिह्वाओं से मुझ पर अपना विष बरसा रहा है
शब्दों के बीच की जगहों में थोड़ा अर्थ रखे जाता हूँ
समझ पाओ तो कहने का संघर्ष सफल न समझो तो
यह कि अर्थवान ध्वनियाँ समय के अजदहे खा गए।
अभी सिर्फ एक आँख जगी है
आज कल मुझे उस बर्फ के पहाड़ की
टूट कर गिरने की हवा बहा ले जाती है
जिसके ऊपर एक ग्लैशियर फिसलता है
नीचे हजारों फीट घाटी में लुढ़कने से पहले
उसका गिरना उसके साथ बहता है
बस दिखता है कभी-कभी
गोशा-गोशा इस मेरी देह में
कच्चा बर्फ लगा है
एक बड़े राष्ट्रीय आरे से काटा
जा रहा हूँ
मेरी सिर्फ एक आँख बची हुई है
स्वयं को काटे जाते हुए
देखने के लिए।
चारों तरफ सिर्फ रक्त-मांस के टीले हैं
जीवन के मृदुभांड से भरा
खूब भयानक जंगल है चारों तरफ
सिर्फ उदासियाँ रह सकती हैं
इतने विरानेपन में
यहीं श्रम से हल्की मेरी देह
लुढ़की है नींद की मृत्यु में
बस हृदय की मांसपेशियों में
गर्म रक्त की आवाजाही ही
हरकत है
और ऐन दिल के ऊपर
फन फैलाए बैठा है विषधर।
हम दूर निकल आए हैं
इस अलक्षित जीवनखंड की रेकी में
किसी युद्धरत देश में
बाशिन्दों से भरे
सिर्फ एक पल पूर्व के किसी शहर में
पहुँचने की सारी जगहें
जैसे मानचित्र में गलत अंकित हों
और शत्रुओं के भूक्षेत्र में
बम की तरह पौ फटे
उस रोज़ धमाके से निकल आए
सूरज।
कितनी अजीब बात है कि इस शहर में
मेरी आत्मा ही मेरा बख्तर है
अठारह किलो का
मेरे विचार मेरा हेलमेट आठ किलो का
और मेरी साँसें वही आठ किलो
भारी असलहे।
एक खूब भरी हुई नदी में मैं उतर रहा हूँ
और अचेत हूँ
इस नदी की पृथ्वी से टकरा कर
बस एक क्षण पहले लौटी है मेरी चेतना
चारों तरफ रेत ही रेत है
चारों तरफ साँप ही साँप है
चारों तरफ बर्फ ही बर्फ है
चारों तरफ पानी ही पानी है
सिर्फ मेरी एक आँख जगी है
स्वयं को जीवित देखने के लिए

जैसे लिखते हो लिखते रहो
मैं सिर्फ अजीब तरह की कविताएँ लिखता हूँ
शब्द मुझसे मुस्कुरा कर कहते हैं
ऐसी बेतरतीबी से क्यों रखा मुझे
लेकिन मैं आराम से हूँ और थोड़ी जगह है
साँस लेने भर यहाँ
मैं कहता हूँ कि हम एक-दूसरे के कंधे क्यों छीलें
हमें जगह देने अंतरिक्ष नहीं आएगा।
वाक्य अक्सर मैं पूरे लिखना पसन्द करता हूँ
हैं या थे पर आराम करती हैं क्रियाएँ
संज्ञा-सर्वनाम झपकियाँ ले लेते हैं
अधिक से अधिक कोई क्या कहेगा -थोड़ी शब्द-स्फीति है
तब तक अपनी हथेली पर तंबाकू मल लेंगें
विचार
फिर आराम से निकलेंगे हवा-पानी धूप में।
अर्थ की लाल आँखें पीछे आती हैं हाँपते-काँपते
उन्हें अपना काम करना है, कर लेंगे
गोमास्ता-लठियाल भी तो चखें थोड़ा हवा-पानी-धूप
मैं अक्सर चाहता हूँ कि उनकी छतरियाँ उलट जाए
खेतों से बिदके बैल उनकी तरफ झपटें
यह माँजो, वह खोदो, वहाँ पाटो, यहाँ जोतो
इतनी गुलामी के लिए लाचार नहीं हैं कविताएँ
जमीन है तो रहा करे, मजूरी तो हमारी है
ऊसर-बंजर, रेत सब हरा हो जाएगा ऐसी तरावट है पसीने की
और जैसे मेरी भट्टी में सुलगता है लोहा
बात कोयले की नहीं है
यह देखो उठा है फावड़ा मिट्टी को भुरभुरा करने
इस मिट्टी से बर्रे अपना घर बना सकते हैं
शब्द मुझसे मुस्कुरा कर कहते हैं, जैसे लिखते हो लिखते रहो।
सम्पर्क-
संजय कुमार शांडिल्य
सहायक अध्यापक
सैनिक स्कूल गोपालगंज,

पत्रालय- हथुआ, जिला- गोपालगंज (बिहार) 841436
मोबाईल – 9431453709

ई मेल – shandilyasanjay1974@gmail.com
 

संजय कुमार शाण्डिल्य की कविताएँ

संजय कुमार शाण्डिल्य

समकालीन कवियों में संजय का नाम मेरे लिए बिल्कुल नया है. हालांकि उनकी कविताएँ यह बताती हैं कि वे नए कवि नहीं बल्कि एक परिपक्व कवि हैं. उनकी कविताओं की बनक सामान्य तौर पर आज लिख रखे तमाम कवियों से अलग है. यह बनक एक दो दिन में निर्मित नहीं होता बल्कि इसके लिए एक लम्बे जीवनानुभव की जरुरत होती है. उनका शिल्प और कथ्य हमें चकित नहीं करता बल्कि सोचने के लिए बाध्य करता है कि सोच के आयाम ऐसे भी हो सकते हैं. संजय की कविताओं से हमें परिचित कराया युवा साथी आशीष मिश्र ने. हम आशीष के प्रति आभार प्रकट करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं संजय शाण्डिल्य की कविताएँ. आइए संजय को हम उनकी कविताओं के मार्फ़त ही जानने-समझने की कोशिश करते हैं.

      

संजय कुमार शांडिल्य की कविताएँ 
आवाज़ भी देह है
तुम हमारी आवाजें खा रहे हो
रूई के फाहों सी
हवाओं के दस्तक सी
निरपराध आवाजें।
यह शोर, इसकी आँखें हैं
जिस पर काली पट्टी बँधी है
मस्तिष्क है जिसमें उन्माद भरा है
इसके हाथ हैं लोहे के।
समुद्र के खारेपन से भरा
इस शोर में इस शोर की
जकङी हुई देह है
कभीकभी आ सकता है तरस
पराजय का परचम है
शिकारी के पिंजरे
सहानुभूति फँसाने के लिए।
पृथ्वी की सारी कविताएँ
सदियों के साझेपन के गीत
हमारे संगसाथ के अनुभव
इन्हें उत्तेजित करता है
आदमखोर होने के लिए।
यह शोर नरभक्षी है
हमारी आवाज़ खाने आया है
हमारी आवाज जैसे
पहाड़ पर पानी की लकीरें।
पानी की लकीरें
उपत्यकाओं से मैदानों तक
मैदानों से खेतों में
खेतों से घरों तक
यह शोर नरभक्षी है 
नदियों और तालाबों को
देहों की नीली जलकुम्भियों से
भरती इसकी क्रूरता
हम बचाएँगे पानी की लकीरें
यही धान की बालियाँ होंगी
इन्हीं से गेहूँ के कल्ले फूटेंगे।
सिर्फ आँत, जिगर और दिल ही नहीं
आवाज़ भी देह है मनुष्य की।

खुश होने के लिए
इन झोल देते रास्तों में
घर एक जगह है
वस्तुओं के साथ सफ़र में शामिल
एक पेड़ रोज झरता है
अपने पत्ते में
पृथ्वी झरती है एक विशाल कंघे में
ध्रुव का सिर खाली होता है
एक केश की जगह
छूट जाती है
सूरज रोज तिल भर ठंडा होता है
पाँव भर रोज गर्म होता है जूता
माचिस के डिब्बे में एक तीली
खुशियाँ हैं, जीवन की जरूरत भर
मियामी
(
फ्लोरिडा ) में किसी को सौ
अमेरिकी डॉलर चाहिए
उसे उम्मीद है कि उधार मिल जाएगा
वह लौटा देगा नई नौकरी की
पहली तनख्वाह से।
खाली झोला भर कर वापिस आता है
बाज़ार से
आत्मा में खर्च होता हुआ
हर सपने में एक पृथ्वी झरती है,
एक सूरज ठंडा होता है
कहीं कोई नदी है शांत बहती हुई
एक पत्थर हुलस कर
उसे जीवन के हलचल से भरेगा
एक सुन्दर मगर मच्छ
फिसलता हुआ दूर निकल रहा है
हम खुश होने के लिए उसे पकड़ रहे हैं।

घर एक तंबु है तो जॉर्डन एक नदी नहीं है

चाय उबलती केतली खबर है
हमारा खत्म होना नहीं ।

एक-एक कर खत्म हुए हम
न जाने किस घेरेबन्दी में ।
जॉर्डन बह रही है इजरायल में
फिलिस्तीन में
सिरिया में ।
और कहीं भी जहाँ लोग
तंबुओं को घर कह रहे हैं ।
अमेरिका में भी घर नहीं बचे
दादियों और नानियों के बीच
बच्चे सिर्फ स्कूलों में हैं ।
तेजी से बहती हुई जॉर्डन
पार कर रही है सदियाँ ।
मृत्यु विलाप नहीं है
और मातम से बची जगहें नहीं है
वस्तुओं को जीवित इच्छाओं में
फिर से बदलने वाली नींद
तंबुओं में नहीं आती हैं ।
मृत टीलों में बदल जाएंगी
दुनिया की सब आबाद जगहें
तुम मनुष्य नहीं बचोगे
कोई चले जाने से पहले
नहीं लिख पाएगा अंतिम खत ।
इतनी उदास कभी नहीं थी जॉर्डन
बकरियों और भेड़ों के लिए
हरियाली और जीवन के लिए पानी
हजारों साल हुए बहते
इसे नदी होते भी हजारों साल हुए
पृथ्वी पर ।
किनारों पर बस्तियां थी तो
लोग उसे नाम से पुकारते दिनभर
अँधेरा घिरता सिर्फ एक वक्त के लिए
बकरियां, मेमने और लोग
लौट रहे होते उसके किनारों से
लौटते लोगों में जब तक रहने का घर था
कहीं दूर जॉर्डन एक बहती हुई नदी थी ।

पृथ्वी के छोर
यह पृथ्वी का एक छोर है :
गाँव पहाड़ की तलहटी है
जहाँ एन्डीज़ मिल रहा है
सपाट मैदानों से
पेरू की किसी लोक भाषा में
कचरा बटोरने का गीत है
घोङे की बग्घी में
पुरूष जब विलासिता के
कार्टुन चुनने निकलेगें
हाथों को काम करता देख
होंठ उन्हें अपने आप गाएंगे।
स्त्रियाँ पास ही शहरी इलाकों में
बच्चे सँभालने निकलेगी
बच्चे ईश्वर सँभालता है
उसी लोक भाषा में यह भी
एक गीत है पृथ्वी के उसी छोर पर।
यह पृथ्वी का दूसरा छोर है
मेरे पङोस में :
मूँज के पौधों में सिरकंडे होने से पहले
सपाट मैदानों के भी अपने पहाड़ हैं
जिनकी तलहटियों से
कुछ स्त्रियाँ खर निकालने निकलेगी
कुछ रह जाएंगी गोबर पाथने।
अभी सरोद की तरह बजेगी पृथ्वी
मूँज धूप में सूखेगा
झूमर और कजरी के गीत साथसाथ
झरेंगे
लकङियाँ और पत्ते पास के
जंगल से इकट्ठा कर
पुरूष घर लौटेगा।
यहाँ की लोक भाषा में भात
बनने का भी एक लोकगीत है।
फिर किसी सस्ती सी आँच पर
प्रेम वहाँ भी पकेगा और यहाँ भी
एक साथ रात की देह गिरेगी
ओस की तरह
श्रम से दुनिया को भरती हुईं
सुबहें ऊगेंगी
खाली जगहों में
लकीरों की तरह
हम दुनिया के छोर पर
काम करते हुए लोग
सुबह की इन लकीरों को
कविताओं में पढेंगे।
सम्पर्क :

मोबाईल- 09431453709

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)