जितेन्द्र श्रीवास्तव के कविता संग्रह ‘कायान्तरण’ पर मनीषा जैन की समीक्षा

जितेन्द्र श्रीवास्तव युवा कविता में एक सुपरिचित नाम है. अभी-अभी उनका एक और कविता संग्रह ‘कायान्तरण’ आया है. इस संग्रह की समीक्षा कर रही हैं युवा कवियित्री मनीषा जैन. तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा 
 
कायान्तरण से आगे आत्मान्तरण की कविताएं

मनीषा जैन

कविता का स्वभाव जहां सरल, कोमल व शांत होता है वहीं वह जीवन के यथार्थ भावों का सहज उच्छलन होता है। कविता के द्वारा ही कवि की जीवन-दृष्टि, सामाजिक सरोकार, लोक के प्रति समर्पण जैसे भावों के दर्शन होते हैं। यही समाज में कवि का स्थान नियुक्त करते हैं तथा मनुष्यता का बोध कराते हैं। सुचर्चित युवा कवि-आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएं भी आज के समय में मनुष्यता को व्यक्त करती हैं। आज की ‘दो मिनट नूडल्स वाली दुनिया’ में ये कविताएं जीवन में स्थिरता व सकारात्मकता प्रदान करती हैं।
जितेन्द्र श्रीवास्तव की नई कविताओं का संग्रह ‘कायांतरण’ बिल्कुल नए भाव-बोध, नए बिम्ब ले कर आया है। ये कविताएं किसी परिपाटी के सांचे में नहीं, बल्कि बिल्कुल प्राकृत रूप से रची गई हैं तथा समाज को नया विस्तार व विकास देती हैं। इन कविताओं में जीवनानुभव का विशाल धरातल है तथा जीवन की अनपेक्षित स्थितियों को बड़े सहज शब्दों में व्यक्त किया गया है। इस संग्रह की कविताओं में जीवन की सच्चाईयों की परछाईं सर्वत्र विद्यमान हैं। इसलिए कबीर की कविता की तरह ‘‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखिन की देखी’’ की सच्ची आंच ही इन कविताओं में दहकती है तथा पाठक को अपने मन की-सी बात ही लगती है जो कि एक कवि की सार्थकता होती है।


इस संग्रह की कविताओं की अनुभूति घर-परिवार, गांव से निकल कर शहर तथा शहर से फिर घर परिवार और जे.एन.यू में विस्तार पाती है जिसमें कवि की व्यक्तिगत अनुभूति को महसूस करने का आनंद प्राप्त होता है; क्योंकि कवि की वैश्विक दृष्टि व सफलता की भूमि वहीं से तैयार हुई थी जिसकी अनुभूतियां आज भी कवि के अन्तस्तल में व्याप्त हैं-


‘‘मेरे यहां बीते बरस
मेरी धमनियों में संचरित होते हैं रक्त की तरह
यकीन न आए तो पिन चुभा कर देख लीजिए।’’ (पृ0110)

यह संग्रह कवि के पिछले संग्रहों ‘‘इन दिनों हालचाल’’, ‘‘अनभै कथा’’, ‘‘असुन्दर सुन्दर’’ और ‘‘बिलकुल तुम्हारी तरह’’ की अपेक्षा नयापन लिए हुए व जीवन के विस्तार व काया के आत्मा में लीन होने की उच्चता लिए हुए है। यहां काया का आत्मा की ओर मुखरित होना ही नहीं, अपितु आत्मा के सामाजिक व पारिवारिक दायरे का फैलाव भी है। इस वैश्वीकरण के दौर में भी कवि अपने भीतर संवेदना की एक लौ जलाये रखता है जो सामाजिकता की ओर संकेत है। यही संवेदना कवि ने ‘‘खबर’’ नामक कविता में उठाई है। एक मजदूर की विडम्बना कवि को भीतर तक संवेदित कर जाती है-
 

‘‘वह एक अदना-सा मजदूर
खींचता था ठेला
बाँध कर पीठ पर बोरियां कोशिश करता था हंसने की
ज्यादा उम्मीद यह है कि उस मामूली आदमी के लिए
जगह ही न अखबारों में
समय ही न हो समाचार चैनलों के पास’’ (पृ0 32, 33)

इस संग्रह की कविताओं में आज के समय को ‘‘पीपल के पत्तों सा झरता हुआ’’ व ‘‘काठ की तरह बेजान’’ बताने के बावजूद सभी कविताओं में रिश्तों के पानीदार होने की संभावना व उम्मीद की रोशनी दिखाई देती है। आज जब वक्त कठिन होता जा रहा है, व्यक्ति के पास व्यक्ति के लिए समय ही नहीं है, तब भी वे इस बेरूखे समय में कहते हैं-

‘‘और हां-
अबकी मिलना तो
आंखों में आंखें डाल कर मिलना
सचमुच/धधा कर मिलना’’ ( पृ0 15)

जितेन्द्र अपने समय के शायद ऐसे अकेले कवि होगें जिनमें जीवन के अनुभव की गहराई, रिश्तों को समझने की समझ, भाषा की सुगढ़ता सभी विस्तार पाते हैं तथा कविता आत्मा के अन्तरतम् बिन्दु तक पहुंच कर सुख का अनुभव कराती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि कविता का उद्देश्य ही होता है सुख का अहसास कराना। एक कविता में वे कहते हैं-

उजाला पसरता है इस तरह
कि उतर जाएगा जैसे
आत्मा की भीतरी चादर में (पृ0 115)

इस तरह के बिम्ब पाठक को सुख की अनुभूति कराते हैं लेकिन इस तरह की कविताओं को ध्यान से पढ़ कर आत्मा में उतारने की जरूरत होती है। इस तरह की कविताओं को पढ़ना जैसे मनुष्यता को पढ़ना व लू जैसे समय में बारिश के छीटों को महसूस करने जैसा होता है। ये कविताएं थाह कर लिखी गई हैं। इनमें कोई जल्दबाजी नहीं है।

( कवि : जितेन्द्र श्रीवास्तव)


हमारे वास्तविक जीवन में स्मृतियां एक अहम् भूमिका निभाती हैं। स्मृतियां ही हमारे उथल-पुथल भरे जीवन को ठंडी छांव सी देती हैं। इसलिए कविताओं में स्मृतियां बार-बार उभर कर पुनः जीवन प्राप्त करती हैं। वे कहते हैं-


अब बाबू जी की बातें हैं, बाबूजी नहीं
उनका समय बीत गया
पर बीत कर भी नहीं बीते वे
जब भी चोटिल होता हूं थकने लगता हूं
जाने कहां से पहुंचती है खबर उन तक
झटपट आ जाते हैं सिरहाने मेरे। ( पृ0 53)

और

स्मृतियां सूने पड़े घरों की तरह होती हैं
लगता है जैसे/बीत गया सब कुछ
पर बीतता नहीं है कुछ भी ( पृ0 61)

जैसा कि पीछे कहा गया है, इन कविताओं में परिवार व समाज प्रमुखता से मुखरित होते हैं। ये कविताएं इतनी मनुष्यता लिए हुए हैं कि जन-जन व आम जन तक पहुंचाया जाना चाहिए।

जितेन्द्र की वास्तविक चिन्ता मनुष्यता, समाज, घर परिवार और वर्तमान से जुड़ने की चाह है; क्योंकि इसी जुड़ाव से मनुष्य का जीवन विस्तार व उष्मा पाता है। आज के बाजारवाद की दुनिया में रहने के बाबजूद कविताओं में मनुष्यता का विवेक ज्यों का त्यों है-

‘‘जीतने के प्रतिमान बदल भी सकते हैं
कभी बदल सकते हैं चलने के भी मेयार
इसलिए किसी सच को मान लेना स्थायी सच
समय की नदी में नहाने से बचने का मार्ग तलाशना है।’’


इन कविताओं में समय की काली नदी से बचने का आग्रह है व मनुष्यता का दम भरने का साहस है। ये जीवन के प्रश्नों को हल करने का माद्दा भी रखती हैं। संग्रह में सरकार की नजर, कायांतरण, अपनों के मन का, नमकहराम, बिजली की तरह गिरता हुआ, शहर का छूटना व अन्य कविताएं निरंतर विकास की ओर मुख किए रहती हैं। कुछ कविताएं वैयक्तिता से होकर सामाजिकता के बीच जाकर समाज की हर गतिविधि को अपनी नज़र से देखती हैं।


जहां स्त्री विमर्श पर आज ढ़ेरों कविताएं लिखी जा रहीं हैं वहीं इस काव्य संग्रह की स्त्री विषयक कविताएं स्त्री विमर्श को नया आयाम देती हैं। स्त्री जीवन से जुड़ी कविताओं को पढ़ते हुए एक क्षण के लिए भी नहीं लगता कि ये कविताएं किसी पुरूष द्वारा लिखी गई हैं। इस अर्थ में ये ‘आत्मान्तरण’ की कविताएं हैं। संग्रह की कविताओं में परंपरा से घिरी स्त्री को बाहर निकालने का प्रयास है-


‘‘स्त्रियां अनादिकाल से पी रही हैं अपना खारापन
बदल रही हैं
आंखों के नमक को चेहरे के नमक में’’ (पृ011)

और

‘‘जिसे उसकी राय जाने बिना
बांध दिया गया अनजान खूंटे से
तुम्हारी गलतियों ने
लहुलुहान कर दिया है उनका जीवन’’ (पृ044-45)

भारत में पति के अस्तित्व से पहचानी जाने वाली स्त्रियां जीवन के अर्थ को सिंदूर में देखती हैं व भय में जीवन गुजार देती हैं-

‘‘अब विश्वास हो गया है मुझे
कि सिंदूर भय है स्त्री का
जो डर अनादिकाल से/घुला हुआ है
रक्त-मज्जा-विवेक में/वह कैसे निकलेगा
मीठी-मीठी बातों
और छोटे-छोटे स्वार्थों से। (पृ0 77)

इस प्रकार इस कविता संग्रह की कविताएं जीवन के फलक को अपने में समेटे हुए उन्हें विस्तार देने के साथ ही संवेदना के फलक को चौड़ा करती हैं। सहज भाषा व बिंब इन कविताओं को असामान्य व अनुपम बनाते हैं। कविताओं में पठनीयता, सहजता व संप्रेषणीयता है। भूमंडलीकरण की इस आंधी में मानुष राग, नया विहान, रक्त में खुशी, अपनों के मन की पुकार, केन की उदासी आदि कविताएं जीवन और समाज को हमारे सम्मुख लाती हैं। इन कविताओं की विषय-वस्तु व अभिव्यक्ति की निजता ही इन्हें बिल्कुल भारतीय संदर्भ प्रदान करती हैं।



सम्पर्क –
मनीषा जैन
165- ,वेस्टर्न एवेन्यू
सैनिक फार्म,
नई दिल्ली-110062


फोन न0- 09871539404

ई-मेल- 22manishajain@gmail.com
 


मनीषा जैन की कविताएँ

नाम- मनीषा जैन
जन्म- 24 सितम्बर, 1963 मेरठ उ.प्र.
शिक्षा- बी. ए दिल्ली विश्वविद्यालय,
    एम. ए. हिन्दी साहित्य
प्रकाशित रचनाएं- एक काव्य संग्रह प्रकाशित ‘‘रोज गूंथती हूं पहाड़’’।
            नया पथ, कृति ओर, अलाव, वर्तमान साहित्य, मुक्तिबोध,
बयान, साहित्य भारती, जनसत्ता, रचनाक्रम, जनसंदेश, नई दुनिया, अभिनव इमरोज,
युद्धरत आम आदमी आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, आलेख, समीक्षायें प्रकाशित

हताशाओं के विकट दौर में हमारी स्त्रियों ने हमें थाम रखा है. खुद अमानवीय यंत्रणाएं भुगतते हुए स्त्रियाँ बचाने का ये कार्य अनवरत करती जा रही हैं. वे प्यार की बारिस में अपना सब कुछ लुटाने के लिए तैयार हैं. यह समर्पण पुरुष जाति में आम तौर पर नहीं दिखाई पड़ता. मनीषा जैन ऐसी ही कवियित्री हैं जिन्होंने अपनी छोटी-छोटी कविताओं में ऐसे कई बिम्ब उठाये हैं जो हमें एकबारगी चकित नहीं करते हैं. इसलिए क्योंकि ये बिम्ब कोई दूर की कौड़ी नहीं बल्कि हमारे बिल्कुल आस-पास के हैं. बिल्कुल अपने जैसे लगते हैं. यहाँ  हाड़-तोड़ परिश्रम के बावजूद वह जो एक हँसी है वह जीवन को बचाए हुए है. मनीषा जैन की कुछ इसी भाव-भूमि की कविताएं आईए पढ़ते हैं.       

1.रोज गूंथती हूं पहाड़

रोज गूंथती हूं
मैं कितने ही पहाड़
आटे की तरह
बिलो देती हूं
जीवन की मुश्किलें
दूध-दही की तरह
बेल देती हूं
आकाश सी गोल रोटी
प्यार की बारिश में
मैं सब कुछ कर सकती हूं
सिर्फ तुम्हारे लिए।

2. घर में उजास

वह स्त्री अंधेरी रात में
चम्पा के उजले फूल
भर लाई है डलिया में
रख देगी उन्हें बरामदे में
उजास भर जायेगा
घर में पल भर में।

3. बदलना

कई सालों बाद
जब वह आता है
नौकरी से वापस
वह बदल जाता है
इतना
सर्दी में जमें
घी जितना।

4. भेद रहा है चक्रव्यूह रोज

वह ढ़ोता रहा
दिनभर पीठ पर
तारों के बडंल
जैसे कोल्हू का बैल
होती रही छमाछम
बारिश दिनभर
रात भर टपकती रही छत
उसका बिस्तर होता रहा
पानी-पानी
दिन उकसते ही
वह फिर चला गया
मानों चक्रव्यूह को भेदने।

5. ओ शाम!

ओ शाम!
तू तनिक ठहर
भर दूं सब स्त्रियों के आंखों में
तेरा उजियारा
भर दूं किसी बीमार की आंखों में
उम्मीद का सहारा
भर दूं किसी बच्चे की मुठ्ठी में
कल के सपनें
दे दूं किसी वृ़द्धा को
प्यार भरा घर
ओ शाम! तू तनिक ठहर।

6. नया ठिकाना

बनाते रहे वे
बड़े-बड़े
शानदार मकान
घूमते रहे
शहर-दर-शहर
मकान पूरा होने पर
रातों रात वे अपना
नया ठिकाना खोजने लगे।

7. हंसी जीवन देती है

पत्थर ढ़ोती स्त्री के
हाथ कितने कठोर हो गए हैं
पावं पर भी मेहनत की
गर्द जम गई है
परंतु चेहरे पर
मुलायम हंसी
जीवन को बचाये हुए है।


8. अनार के फूल

सड़क से गुजरते हुए
अपलक देख रही हूं
निमार्णाधीन मकान के बाहर
उन मजूर स्त्रियों के मुख पर
श्रम के पसीने की बूदें
झिलमिलाती हुई
सतरंगी इन्द्रधनुष के रंग भी
फीके हो गए थे उस वक्त
जब तसला उठाती हुई
करती हैं बीच-बीच में
एक दूसरे से
चुहल, हंसी मज़ाक
तब सारे फूलों के
रंग उतर आए थे
गालों पर उनके
लगता था जैसे
वे दुनिया की सबसे
खूबसूरत औरतें हैं
और अनार के फूलों सी हंसी
दबा लेती हैं होठों में अपने।

9. कुछ नहीं बोलता पेड़

हरसिंगार के फूल
झरते हैं 
जब सुबह की बेला में
लगता है तुम
मुस्कुरा रही हो
कुछ नही बोलता पेड़
बस अपनी खुशबू
बिखरा देता है
चुपचाप
तुम्हारी तरह।

सम्पर्क-
मोबाइल-09871539404
ई मेल- 22manishajain@gmail.com

मनीषा जैन के कविता संग्रह ‘रोज गूंथती हूं पहाड़’ पर बली सिंह की समीक्षा


कवियित्री मनीषा जैन का बोधि प्रकाशन से हाल ही में एक संग्रह आया है ‘रोज गूंथती हूं पहाड़.’ अपने इस संग्रह में मनीषा जैन ने बिना किसी शोरोगुल के स्त्री जीवन के यथार्थ को सामने रखने का सफल प्रयत्न किया है. इसीलिए यह संग्रह और संग्रहों से कुछ अलग बन पड़ा है. इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है बली सिंह ने. तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा.
    
स्त्री केंद्रित सौंदर्य बोध

बली सिंह

आज हम जिस दौर में जी रहें हैं, वह वास्तव में संक्रमण का दौर है। ऐसे समय में बहुत सारी चीजें एक साथ घटित होती हैं। अनेक अस्मिताएं उभरती हैं तो कई ख़त्म भी होती हैं। यह लोकरूपों के ख़त्म होते जाने का दौर है। एक तरफ़ विकास है जो कि हमारे समय का एक नया आख्यान है, तो दूसरी ओर बड़े पैमाने पर विस्थापन घटित हो रहा है। मनुष्य ही नहीं वरन् प्रकृति के अनेक रूप यानी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-नाले और पहाड़ भी विस्थापन की प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं। यही नहीं, इस दौर में तमाम चीज़ों पर, चाहे पहले की हों या अब की, पुनरावलोकन किया जा रहा है, संबधों पर नये सिरे से सोचा जा रहा है। निजी इच्छाओं-आकांक्षाओं यानी व्यक्ति अस्मिता की अन्य अस्मिताओं के साथ संबंध की एक विशिष्ट समस्या हमारे समाज में पैदा हो रही है निजता और सार्वभौमिकता के संबंध-संतुलन की समस्या। यह स्थिति ऐसी है कि हमें कहीं-न-कहीं भटकाव की ओर भी ले जा रही है। हमें किसी भी एक सुनिश्चित निर्णय पर पंहुचने ही नहीं दे रही है। किसे सही मानें और किसे ग़लत? ऐसे माहौल में जिस तरह का मनोलोक निर्मित हो रहा है, मनीषा जैन की कविताएं उसको अभिव्यक्त करती हैं। अभी तक उनका एक ही काव्य-संग्रह प्रकाश में आया है, रोज़ गूंथती हूं पहाड़।
मनीषा जैन के सौंदर्यबोध में स्त्री केंद्र में है। वे अपने ही ढ़ग से स्त्री-जीवन को समझने और उसे व्यक्त करने की कोशिश करती हैं। उनकी काव्य-स्त्री पूरी सृष्टि में घुली-मिली है, एक तरह से वह उसका पर्याय  है। वे जब नदी को देखती हैं तो नदी उनमें समा जाती हैः
‘‘धीरे-धीरे
नदी की अंतर्गुफाएं
खुलने लगीं मुझमें
और नदी की
सहनशीलता
भरने लगी मुझमें
और फिर
एक नदी सी
बहने लगी मुझमें’’
 
मनीषा एक ऐसी कवयित्री हैं जो कला के तामझाम में नहीं पड़तीं। वे कोई दूर की कौड़ी नहीं लातीं बल्कि अपने आसपास के रूपों को ही कला बना लेती हैं और सीधे बातचीत के ढ़ग में अपनी बात रखती हैं। यहां नदी का अंतर्गुफाएं उसका अल्हड़पन है जो उसके अंदर अधिक रहता है, बाहर से वह समगति से चलती-फिरती या गतिशील नज़र आती है, इसलिए सहनशीलता उसका गुण है, वह कभी-कभार ही प्रकटतः उद्वेलित-आंदोलित दिखती है, कभी-कभार ही कंगूरे (किनारे) काटती है वरना तो एक लय में जीवन जीती रहती है भीतर ही भीतर आंदोलित-उद्वेलित होती हुई। यहां नदी स्त्री में समा जाती है और वह नदी का रूप ले लेती है। एक अन्य कविता में लोक के तमाम रूपों में समायी हुई है। यहां वह एक मां है। उसकी याद ग्रामीण रूपों की लोक के छूटे हुए रूपों की याद ताज़ा करती है जो कि इन दिनों बहुत तेज़ी से ख़त्म भी हो रहे हैं। अब गांव में भी बच्चों के खेल बदल गये हैं। वे अब पेड़ों पर चढ़ पकड़म-पकड़ायी नहीं खेलते, वीडियो गेम में अब उनकी रूचि अधिक है, पेड़ों पर झूलने का भी अब यही हाल है। ये लोक रूप अब सिर्फ यादें बनकर रह गये हैं जो कि मां की याद में घुले-मिले हैं। एक मां के रूप में स्त्री का लोक के रूपों से, लोक के तमाम प्राणियों यानी पशु पक्षी इत्यादि, और लोक के रीति रिवाजों से बहुत गहरा संबंध रहा है और गांवों में आज भी है, इसलिए जब मां की याद आती है तो लोक के कई रूप याद आते हैं, उल्टे उन्हीं से मां की याद आती है। मां ने जैसे अपने आप को इनमें विसर्जित कर दिया हैः
‘‘लेटा रहूंगा मैं
खेत की माटी में
बान की खाट पर
और तालाब नदी के
मुहानों पर
और झूलता रहूंगा
गांव के झूलों पर
जैसे मां की गोद में
झूल रहा हूं
ये सब चीजें
मुझे मां की याद
दिलाती रहेंगी’’
खेत से, उसके कार्यो से मां का गहरा संबंध है, स्त्री-मात्र का गहरा ताल्लुक़ है। आज भी खेतिहर मज़दूरों में स्त्री की संख्या अधिक है। खेत उन्हीं के श्रम से अधिक सींचे जाते हैं। यह कविता नागार्जुन की सिंदूर तिलकित भालकी याद दिलाती है। कवयित्री के यहां स्त्री श्रम बहुत महत्व रखता है। उन्होंनें कवि निराला की तरह एक श्रमिक स्त्री पर अलग से कविता लिखी है जिसकी हंसी जीवन को बचाने का काम कर रही हैः
‘‘पत्थर ढोती स्त्री के
हाथ कितने कठोर हो गये हैं
पांव पर भी मेहनत की
गर्द जम गयी है
परंतु चेहरे पर
मुलायम हंसी
जीवन को बचाये हुए है’’
यही नहीं, उसका श्रम पूरी सृष्टि को अपनी सृष्टि बना सकता है। रोज गूंथती हूं पहाड़में स्त्री पहाड़ों को आटे की तरह गूंथती है और आसमान जैसी रोटी तैयार कर देती है। वह समूची सृष्टि पर आच्छादित होने की शक्ति रखती हैः
‘‘रोज़ गूंथती हूं पहाड़
आटे की तरह
बेल देती हूं रोज़ ही
आकाश-सी गोल रोटी’’
लेकिन यह सब काम वह प्यारके लिए करती है, संबंधों के लिए करती है। इन दिनों संबंधों की भी समस्या उत्पन्न हो गयी है हमारे समाज में। वरना स्त्री सृष्टि पर छा जाना चाहती हैः
‘‘वह स्त्री
बादलों की पीठ पर
हो चुकी है सवार
घूमना चाहती है
सूर्य का आंगन
उसे उम्मीद है
वह छू लेगी
सूरज की छत’’
यह स्त्री व्यक्ति-अस्मिता को महत्व देने वाली है।

वह पहले की उस स्त्री से भिन्न है जो अपने-आप को अन्य अस्मिताओं में विसर्जित कर देती है और उसकी खुशी में ही अपनी खुशी देखती है। मनीषा की एक कविता है, ‘अपनी खुशी। यहां स्त्री सुबह से शाम तक और शाम से सुबह तक सिर्फ घर, परिवार, बच्चेसंवारती है और
इस चक्रव्यूह में
हो जाती है उम्र तमाम

ऐसी स्त्री

नहीं देखती खुद को
सिर्फ़ देखती है दूसरों की खुशी
बस
इसी में वह अपनी खुशी ढूँढती है। स्त्री का यह एक सार्वभौमिक रूप है, अन्य अस्मिताओं में विसर्जन का रूप है। उसकी परंपरागत या परंपरा के समक्ष समस्या निजता की खोज या व्यक्ति अस्मिता की है। अपनी पहचान की। स्त्री-विमर्श और दलित विमर्श में यही अंतर है कि स्त्री की समस्या अन्य अस्मिताओं की चिंता से जुड़ने की समस्या नहीं है, उसकी समस्या निज की पहचान की समस्या है, पर दलित अस्मिता की समस्या अन्य अस्मिताओं से जुड़ने की समस्या है, व्यक्ति-अस्मिता उनमें बहुत ज़ोरों पर है। वे बाध्य थे दूसरों का आदेश मानने के लिए, पर स्त्री की जे़हनियत ही ऐसी थी कि वह दूसरों में घुलने-मिलने में, उसकी खुशी को अपनी ही खुशी समझने में सुख महसूस करती थी। उसकी मूल समस्या निजता की पहचान की है। वह तो जैसे
‘‘खौलती जाती है
उम्र भर
मिक्स चाय बनकर
निकलती है केतली के मुंह से
ताउम्र धार की तरह
स्त्री के दैनंदिन कार्य-व्यापार से ही कलात्मक उपकरण लेती है मनीषा जैन। रोज़ गूंथती हूं पहाड़कविता में भी ऐसा ही है। आटा गूंथना और रोटी बनाना ऐसा ही कार्य व्यापार है जिससे कलात्मक अभिव्यक्ति की पद्वतियां रूपक, बिंब, प्रतीक आदि निर्मित होती हैं। यह हमें कबीर की कविता की याद दिलाती हैं जिन्होंनें अपने कार्य-क्षेत्र से कलात्मक उपकरणों की रचना की है, जैसे झीनी-झीनी बीनी चदरियाइत्यादि। जूलिया क्रिस्तोवा ने बताया है कि हमारे भीतर पूरी परंपरा गूंजती रहती है जो रचना में प्रकट भी होती है। मनीषा जैन की कविताएं ऐसी ही हैं। उनकी मज़दूरनी पर लिखी कविता हमें निराला की याद दिलाती है। कबीर से लेकर निराला और नागार्जुन तक की परंपरा कवयित्री के भीतर गूंजती रहती है और उनकी कविताओं में कलात्मक रूपाकार ग्रहण करती रहती है। लेकिन इसमें यह भी देखने की बात है कि कवयित्री का कौन-सा मनोलोक है जो एक ख़ास परंपरा को महत्व देता है। यहां कबीर, निराला और नागार्जुन की परंपरा को कवयित्री तरजीह देती है। यह मोटे रूप में एक जनवादी परंपरा है। कवयित्री मनीषा जैन का मनोलोक इसी को महत्व देता है इसमें निजता के साथ संबंधों का स्वीकार है। अपने निज जीवन में वे जीती हैं कितनी जिंदगी’, वे हरसिंगार के फूल के पेड़ की तरह सिर्फ़ फूल झरती हैं और मुस्कुराती हैं चुपचाप। उनका संबंध रोटी की महक  से गहरा जुड़ा हुआ है। उनका होना जैसे घर भर के लिए रोटी का होना है। वे नदी की तरह अपने को समुद्र रूपी संबंधों में विसर्जित कर देती हैं। 

 (कवियित्री मनीषा जैन)
‘‘समुद्र में मिल जाना है उसे
मैनें पहली बार जाना
लड़की सी नदी
का स्वरूप।’’
इसलिए कवयित्री स्त्री को समाज में, पुरूषों द्वारा सहेज कर रखने की अपील करती हैः
‘‘ऐसे सहेज कर रखो हमें
जैसे रखते हैं
फूल किताबों में’’
क्योंकि सर्वशक्तिमान होते हुए भी बहुत नाजुक हैं हम। इस सब के बावजूद वह अपने आकाश की तलाश में है, व्यक्ति-अस्मिता की तलाश में है, क्योंकि उसकी अस्मिता को हमारे समाज ने आज तक महत्व ही नहीं दिया है
बादल भरे आकाश में
बस मुझे इंतजार है
बादलों के छंटने का
फिर नीला-नीला आकाश
मेरी मुट्ठी में होगा
मेरा सारा आकाश
लेकिन विचित्र विडंबना है कि स्त्री-अस्मिता और उसका विकास कहीं न कहीं अकेलेपन की ओर ले जाता है। इस अकेलेपन को कवयित्री मनीषा जैन प्रगतिशील कवियों की तरह महसूस करती है और उस अस्वीकार भी करती हैं, ठीक त्रिलोचन शास्त्री की तरहः
आज मै अकेला हूं
अकेले रहा नहीं जाता
मनीषा महसूस करती हैं कि स्त्री व्यक्ति-अस्मिता कहीं न कहीं उसे अकेल बनाती हैः
‘‘आंखों में रहते हैं
समंदर उसके
बाहों में भरती है
कायनात सारी
फिर भी होती है
स्त्री अकेली’’
वह पहाड़ पर, शिखर पर पहुंचने के बावजूद अकेली ही रहती है। चिड़िया को भी वापस बुलाने की चिंता कवयित्री को हैः
कब आयेगी वह
नींद सी वापस
कवयित्री के यहां घरएक मूल्य-व्यवस्था के रूप में आता है। घर एक सुकून की व्यवस्था है, संबंधों की व्यवस्था है। वे प्राकृतिक रूपों में भी घर वापसीकी प्रक्रिया देखती हैं। जैसे ‘‘शाम की धूप/जा रही थी घरया
परिदें इंसान से कहीं बेहतर है
जो ढूँढ ही लेते हैं
घर और सुकून के
दर-ओ-दीवार
अथवा

ओस अपना

घर ढूंढती है
विस्मृत होने से पहले
घर को बनाने में स्त्री का बहुत बड़ा योगदान है जो वह अपने प्रेम के ज़रिये करती है।
वह स्त्री
प्रेम के मसाले छौंक रही है
जीवन में गरमाई
ऐसे ही मिश्रण से
बनायेगी गर्म घर
प्रेम की सौंधी खुशबू
वाले घर
यानी ऐसा घर जिसमें प्रेम की महक है।
                मनीषा जैन के यहां प्रेम और कविता, दोनों ऐसी अवधारणाएं हैं जो सकारात्मक रूप में आती हैं। इन्हें उनका आदर्श भी कहा जा सकता है जिससे जीवन की रक्षा होती है। वे प्रकृति में प्रेम घटित होता हुआ देखती हैः
आसमान उतर आता है
धरा का चुंबन लेने चुपके से
प्रेम इसलिए महत्वपूर्ण है कि इससे संबंध बनते हैं, संबंधों का निर्वाह होता है और सबसे बड़ी बात है कि 

प्रेम की स्मृतियां ही कभी-कभी
बचा लेती हैं जीवन। 

जिस तरह प्रेम जीवन को बचा लेता है, उसी तरह का कार्य कविता भी करती है।

जब भी बैचेन बेहाल
उड़ता है मन
गाते हैं शब्द
एक कविता लेती है जन्म
बच जाता है जीवन
कविता चूंकि मानवीय संवेदना को जीवित रखने का काम करती है, इसलिए वह जीवन को भी बचाये रखने की सामर्थ्य रखती है। वह उम्मीद जगाती है।
अंधेरे में
चिंगारी की तरह
आना कविता
जीवन में
जीवन बनकर
आना कविता
कविता वास्तव में अवसाद से बचाने का काम करती है। अवसाद की शिकार समाज में स्त्रियां अधिक हैं। एक तो पहले का प्रचलित समाज है जो उनके अनुकूल था ही नहीं, ऊपर से जो नया बाज़ारवादी समाज आया जो उसने उसे विरूपित ही कर दियाः 

‘‘चेचक के दानों सा
फेल रहा है
स्त्री के सारे शरीर पर
बाज़ार’’। 

अपने कलेवर में यह छोटी सी कविता न जाने कितने अर्थो को हमारे सामने रखती है यही कवयित्री का कौशल है कि वह संक्षेप में बहुत कुछ को प्रकट करने में सक्षम है। मनीषा जैन का यह पहला ही काव्य-संग्रह न सिर्फ स्त्री जीवन में, समाज में वरन् साहित्य क्षेत्र में भी बहुत-सी उम्मीदें जगाने का काम करता है। एक बात और कि कवयित्री मैंकर प्रयोग बहुत करती है, पर यह मैंपुरूषवादी अहं या विशिष्ट जनों का मैंन होकर हम सब लोगों का मैंहै जो सामान्य जगत् को पहचान दिलाने का कार्य करता है।

समीक्ष्य कृतिः रोज गूंथती हूं पहाड़
कविः मनीषा जैन
प्रकाशकः बोधि प्रकाशन, जयपुर
पृ.सं. 96 /प्रथम संस्करण (पेपरबैक) 2013
मूल्यः 70रूपए।

समीक्षक-
बली सिंह
मो. 09818877429
ई-मेल- balisingh02@gmail.com