अमनदीप कौर की कविताएँ

अमनदीप कौर



यह दुनिया जो आज इतनी खूबदूरत दिख रही है उनमें उन कामगारों का बड़ा हाथ है जो बहुत ही अमानवीय परिस्थियों में किसी तरह अपना गुजारा करते हैं। इनके हाथ दुनिया के वे खूबसूरत हाथ हैं जिन्होंने सब कुछ बेहतर बना रखा है और हमें किंचित भी असुविधा का सामना नहीं करना पड़ता। शासक की मंशा होती है कि ये मजदूर हाथ बाँधे/ इनके सामने फ़र्माबरदारी करेंऔर बिना हक़ मांगे/ अपने स्वाभिमान की/ अपनी मेहनत की/ लूट का तमाशा देखें। लेकिन यह भी सच है कि सत्ता के गलियारे/ सिहर उठते हैं/ महज यह सोच कर कि/ ग़र/ नाले पार के इन/ इंसान से दिखने वालों को/ वास्तव में यकीं हो गया/ कि वो इंसान ही हैं/ तो क्या होगा ?…’ ऐसी मर्म भरी बेहतरीन पंक्तियाँ  लिखने वाली कवयित्री अमनदीप कौर  की कविताएँ आज पहली बार के पाठकों के लिए पेश हैं। अमनदीप ने पंजाबी व हिंदी में कई बेहतरीन कविताएँ लिखी हैं। और छपने-छपाने के इस दौर में भी कहीं कविताएँ भेजने से आमतौर से बचती रही हैं। 

अमनदीप कौर की कविताएँ

हाथ
हाथ होना ही तो
हाथ होना नहीं
कुछ हाथ किसी चेहरे के मोहताज़ नहीं
वो ख़ुद एक मुकम्म्ल शख्सियत हैं
जो भरते हैं रंग क़लम से
बनाते हैं आशियाने
बरतन
वस्त्र
कागज़
माटी में रंग गूँथते, धागा बुनते,
पत्थर पर नक्श उकेरते हैं
उँगलिया महज़ तोहमत ही नहीं लगाती
कुछ उंगलिया दुनियां में यूँ भी हैं
जिन्हें पकड़ कर सभ्यताऐं यहाँ तक पहुंची हैं
ये हाथ कोई आम हाथ नहीं
ये हाथ कामगारों के हाथ हैं
  

वो आँखें
 
वो आँखें
जिन्होंने
दो क़ौमों की मुहब्बत देखी थी
जिन्होंने
ढोले, माहिये, सम्मियाँ देखी थीं 
वो आँखें
जिनके दरिया में तैर-तैर कर मुटियारें
राह-ए-मुहब्बत पर रवाँ होतीं थीं
टोपी, दस्तार, चोटी वाली
वो तमाम आँखें
जिन्होंने
मोलवी से हर्फ़ पढ़े थे
वो आँखें
जिन्होनें
जीती, सकीना, नूरां, सबा, पूरो, तेजी को पींगें झूलते देखा था
वो आँखें
जिन्होंने 
जंग-ए-आज़ादी देखी
जिन्होंने
लाशों के टीलों में से लाशें पहचानी थी
अपने मजहब के लोगों की
वो आँखें
जिन्होंने 
ज़मीन पर लकीरें खिंचती देखी थीं
और
देखे थे न जाने कितने
टोबा टेक सिंह
अब
ऐसी चंद जोड़ी आँखें
इस पार रहती हैं
चंद जोड़ी आँखें उस पार
अब सूरत-ए-हाल
ये है कि
अर्सों से अपने साथ रही
आँखों में इन्हें
ख़ौफ़ दिखने लगा है।
नाले पार के इंसान से दिखने वाले
 
वो जो
इंसानों से दिखने वाले
नाले पार की बस्ती में हैं
सुना है
बरसों पहले किसी ने
आह्वान किया था इनसे 
एक हो जाओ!
हक़ के लिए एक हो जाओ!
तब से अब तक
तमाम सियासतें
सहमी सी हैं
कि कहीं
इक्क्मुट्ठ न हो जायें ये
नाले पार के
इंसानों से दिखने वाले

 
तमाम सरकारें
झोंक डालतीं हैं
अपना सारा का सारा तंत्र
कि बिखरे
कुचले
अशिक्षित
कुपोषित
हाथ बाँधे इनके सामने
फ़र्माबरदारी करें
बिना हक़ मांगे
अपने स्वाभिमान की
अपनी मेहनत की
लूट का तमाशा देखें

 
इंसानों से दिखने वाले
नाले पार के इन लोगों से 
तख़्त डोलने लगते हैं

 
सत्ता के गलियारे

सिहर उठते हैं  
महज यह सोच कर कि 
ग़र
नाले पार के इन
इंसान से दिखने वालों को
वास्तव में यकीं हो गया
कि वो इंसान ही हैं
तो क्या होगा ?…
सम्पर्क-
प्राध्यापिका, इतिहास विभाग  
देव समाज कॉलेज फॉर वीमेन,  
सेक्टर – 45, चंडीगढ़

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)