अच्युतानंद मिश्र का आलेख ‘शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है’


मुक्तिबोध

आजाद भारत, जिसके सपने बुनते हमारे तमाम सेनानी अपनी आहुति दे बैठे, उनके लिए एक यूटोपिया ही साबित हुआ जिन्होंने उससे तमाम उम्मीदें पाल रखीं थीं.  शासकों के रंग-रूप तो जरुर बदल गए, लेकिन उनका चरित्र नहीं बदला. कुल मिला कर वह लोकतंत्र ही लहुलुहान होता रहा जिसे आजाद भारत का आधार बनाया गया था. मुक्तिबोध ने इस विरोधाभास को महसूस करते हुए इसे अपनी काव्यात्मक संवेदना में ढालने की एक ईमानदार कोशिश की थी. उनके यहां लम्बी कविताओं का एक लंबा सिलसिला यूं ही नहीं मिलता. चुकि दुःख और पीड़ा का सिलसिला इतना लम्बा, कह लें अंतहीन है इसलिए उनके यहाँ काव्यात्मक वितान भी अक्सर लम्बा दीखता है. युवा कवि अच्युता नन्द मिश्र ने मुक्तिबोध की लम्बी कविता  ‘अँधेरे में’ को  समझने के क्रम में   यह आलेख लिखा है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.

 

शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है 
अच्युतानंद मिश्र 
मुक्तिबोध की कविता की मूल संवेदना स्वातंत्र्योत्तर भारत की चेतना से निर्मित है, यानि उसके भूगोल को हम पचास के दशक के भारत में इंगित कर सकते हैं। पचास के पूर्व राष्ट्रीय संघर्ष न सिर्फ हमारे राजनीतिक जीवन, अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के केंद्र में भी मौजूद था। वहाँ व्यक्ति से राष्ट्र की ओर, एक दृष्टिकोण, सतत प्रेरणा की तरह मौजूद था। इसे हम तमाम जटिलताओं के साथ निराला की कविता में देखते हैं, जहाँ वे अपने निजी संघर्षों को राष्ट्रीय संघर्ष की चेतना से जोड़ते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात हमारे जीवन में एक विराट शून्य प्रवेश करता है। राष्ट्रीय संघर्ष की परिणति और निजी जीवन के संकट दोनों में एक बड़ा फांक संभवतः पहली बार मुक्तिबोध देखते हैं। इसलिए मुक्तिबोध की कविता में भयवाह दृश्य हैं, आशंकाएं हैं, चेतावनी है लेकिन निराला की तरह उनके पास राष्ट्रीय मुक्ति का विकल्प मौजूद नहीं था। मुक्तिबोध की कविताओं को हम निराला की कविताओं की क्रमिकता में नहीं पढ़ सकते। वहाँ एक क्रम भंग है। निराला की कविताओं से जैसा रिश्ता त्रिलोचन या नागार्जुन या केदारनाथ अगरवाल का बनता है, वैसा मुक्तिबोध का नहीं। मुक्तिबोध राष्ट्र से व्यक्ति की तरफ आते हैं और पाते हैं कि 
शून्यों से घिरी हुयी पीड़ा ही सत्य है

शेष सब अवास्तव यथार्थ मिथ्या है भ्रम है

सत्य केवल एक जो कि

दुखों का क्रम है 
मुक्तिबोध का यह दुःख निराला के दुःख से एकदम भिन्न हैवहाँ निजता का सार्वजनीकरण है। यहाँ निज और सार्वजनिक के बीच कोई सरलीकृत सम्बन्ध नहीं 
लोगों एक ज़माने में

तुम मेरे ही थे

बहुत स्वप्नद्रष्टा चिन्तक थे कवि थे

क्रन्तिकारी रवि थे!!

अब कहाँ गये वे स्वप्न

उन्हें किसी कचरे के ढूह में

यत्नपूर्वक जला दिया

उदरम्भरी बुद्धि के मलिन तेल में

स्वयं को गला दिया धातु-सा 
मुक्तिबोध निज की तलाश में भटकते हैंमुक्तिबोध की कविता यह प्रश्न पूछती है कि देश का मतलब क्या? व्यक्ति और देश के बीच कौन सा सम्बन्ध है?
कामायनी में वे व्यक्ति, राष्ट्र और समाज के बीच त्रिकोणात्मक सम्बन्ध की बात करते हुए प्रसाद की विश्व-दृष्टि की और इशारा करते हैं। उन्हें लगता है कि यह त्रिकोणात्मक सम्बन्ध संकटग्रस्त हो गया है।  लेकिन इसे किसी एक की तरफ से नहीं कहा जा सकता। मुक्तिबोध न तो व्यक्ति की उपेक्षा करते हैं न समाज की और न ही राष्ट्र की। फिर अभिव्यक्ति का तरीका क्या होगा? अचानक उनके मन में एक फैंटसी जगती है, वे कहते हैं –
अरे! जन-संग-ऊष्मा के

बिना व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते

प्रयासी प्रेरणा के श्रोत

सक्रिय वेदना की ज्योति

सब साहाय्य उनसे लो।  

तुम्हारी मुक्ति उनसे प्रेम में होगी

कि तद्गत लक्ष्य में से ही

ह्रदय के नेत्र जागेंगे,

व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त

करने की क्रिया में से

उभर-उभर

विकसते जायेंगे निज के

तुम्हारे गुण

कि अपनी मुक्ति के रास्ते

अकेले में नहीं मिलते 
लेकिन यह मुक्तिबोध द्वारा उठाये गए प्रश्नों का उत्तर नहीं है। यह तो उस क्रम में समाज और राष्ट्र की और से उनके मन में आई एक बात है, मुक्तिबोध का मन कई तरह के विरोधाभासों और द्वंद्वों से भरा है। उनके पास कोई सीधा सादा समाधान नहीं है – कि अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।  
प्रसाद अपने मन की बात को ऐतिहासिक पात्रों चरित्रों द्वारा कहलवाते हैं। कामायनी में इड़ा, मनु और श्रद्धा को प्रसाद के मानसिक के विभाजन के रूप में देखा जा सकता है। मुक्तिबोध इसके लिए फंतासी को रचते हैं। मुक्तिबोध का मूल संकट है व्यक्ति -राष्ट्र और समाज के परस्पर सम्बन्धों का आज़ादी के बाद अर्थ। मुक्तिबोध की समूची कविता इसी प्रश्न का जवाब तलाशती है। मुक्तिबोध वस्तुतः प्रक्रियाओं के कवि हैं। आज़ादी के उपरांत हमारे सामाजिक जीवन में घट रहे बड़े परिवर्तनों को मुक्तिबोध उसकी संपूर्ण जटिलता के साथ देखने का प्रयत्न करते हैं
मुक्तिबोध हिंदी कविता में क्रमभंग को रचते हैं। इसके सामानांतर आज़ादी के बाद हमारे सामाजिक जीवन में भी एक क्रमभंग आता है। ऐसा नहीं है कि उसकी शुरुआत आजादी के बाद ही होती है। यह टूटन समाज में पहले से ही मौजूद था लेकिन राष्ट्रीय संघर्ष के विराट लक्ष्य में वह ओझल हो गया था।  आज़ादी के बाद यह संकट गहरा हो गया। व्यक्ति और समाज के बीच मौजूद सेतु टूट गया। ‘अँधेरे में’ कविता व्यक्ति और समाज की इस टूटन को बेहद जटिलता एवं संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है।  आज जिस तरह की स्थितियां हैं, जो कुछ घट रहा है, उसकी आशंका मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता में पहले ही व्यक्त किया था। अक्सर मुक्तिबोध पर बात करते हुए कुछ सूत्र गढ़ लिए जाते हैं जैसे मध्य वर्ग की आलोचना का प्रश्न, दरअसल मुक्तिबोध एक खास तरह के वर्ग द्वंद्ध को रचते हैं। मुक्तिबोध न तो किसी के पक्ष में खड़े हैं और न ही विरोध में। मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में में जो अपराध-बोध है, आत्मग्लानि है वह दरअसल मुक्तिबोध के भीतर का अंतर्द्वंध ही है जिसके आलोक में वे बाहर की दुनिया को देखते हैं, इसीलिए मुक्तिबोध को दीवारों पर झड़े हुए पलस्तरों में मानवीय आकृतियाँ नज़र आती हैं। वे उनसे संवाद करते हैं। वे एक तार्किक विपर्यय को रचते हैं। मुक्तिबोध स्वप्न के भीतर स्वप्न को इसलिए लाते हैं ताकि उसमे समय की एकरैखिकीय अनुशासनात्मकता को भंग किया जा सके। एक व्यक्ति के भीतर एक समाज एक राष्ट्र की खोज और उस सबमे मौजूद वर्तमान की तलाश। मुझे लगता है मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में इसे खोजने की कोशिश करती है। वहाँ व्यक्तित्व की खोज का अर्थ पर्सनल की तलाश नहीं है, बल्कि मुक्तिबोध के लिए व्यक्तित्व का संदर्भ बहुत व्यापक है। वे उसे समाज और राष्ट्र का प्रतीक बना देना चाहते हैं। लेकिन ऐसा न कर सकने की जटिलता उन्हें एक अबूझ रहस्यमयता की और ले जाती है, जिसके अलोक में यानि अँधेरे में के विराट प्रकाश में वे उसे व्याख्यायित करते हैं। 
वह रहस्यमय व्यक्ति

अब तक न पाई गयी मेरी अभिव्यक्ति है,

पूर्ण अवस्था वह निज–संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की

मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,

ह्रदय रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,

आत्मा की प्रतिमा। 
यह है मुक्तिबोध के उस व्यक्तित्व की पहचान, लेकिन ज्ञान का तनाव इंगित करता है कि ज्ञान और संवेदना के संतुलन का निर्वाह कर पाना उसके लिए कठिन होता जा रहा है। मुक्तिबोध के लिए मूल संकट है ज्ञान और संवेदना का की युगीन द्वंद्वात्मकता। वे युग को इस द्वंद्व के आलोक में चिन्हित करते हैं। 
इसी ज्ञान के दवाब में एक दिशा निकलती है, आत्मविकास एक मार्ग खुलता है और उस ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति-
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,

उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,

उनके लेख देखे थे, यहाँ तक कि कवितायेँ भी पढ़ी थी

भाई वह !

उनमे कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण

मंत्री भी उद्योगपति और विद्वान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

डोमाजी उस्ताद

बनता है बलबन  
यह सब कुछ मुक्तिबोध के उस रहस्यमय व्यक्ति की परिणति है। इसलिए उसमे एक आत्मग्लानि है। अपनी आत्मा के आईने में आत्मविकास को देख कर मुक्तिबोध का मन डर जाता है। वे भागते हैं। और फिर अचानक कुछ और घटने लगता है। 
मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ एक विशाल अनिश्चयात्मकता को रचती है, यह अनिश्चयात्मकता ही हमारा वर्तमान है। 
अच्युतानंद मिश्र
सम्पर्क – 

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अरूण कमल के कविता कर्म पर अच्युतानन्द मिश्र का आलेख ‘यहाँ रोज कुछ बन रहा है।‘


अरुण कमल

अरूण कमल हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। इनके सम्पूर्ण कविता कर्म पर हाल ही में एक आलेख लिखा है युवा कवि और आलोचक अच्युतानन्द मिश्र ने। तो आइए पढ़ते हैं अच्युतानन्द का आलेख ‘यहाँ रोज कुछ बन रहा है।‘
      
यहाँ रोज कुछ बन रहा है
अच्युतानंद मिश्र
आठवें दशक की कविता की केन्द्रीय संकल्पना क्या है? वह कौन सी दृष्टि या परिकल्पना है जिसके तहत आठवें दशक की कविता एक नया आयाम रचती है एक तरफ तो यह स्पष्ट है कि पूरा काव्य परिदृश्य अपने से ठीक पहले यानि साठोत्तरी कविता के प्रति एक आलोचनात्मक रुख के साथ विकसित होता हैयही वजह है कि इस कविता ने आरम्भ में ही कविता में मौजूद राजनीतिक लफ्फाजी का विरोध किया थाबावजूद इसके आज जब हम आठवें दशक की कविता को देखते हैं तो मुझे यह लगता है कि महज़ इस आधार पर या समय विशेष के आधार पर बहुत सारे कवियों के वैशिष्ट्य को नकारते हुए ही हम इस तरह के सामान्यीकरण की और उन्मुख होते हैयह भी संभव है कि किसी दौर विशेष में इस तरह की परिकल्पना इजाद करना एक रणनीतिक मजबूरी हो लेकिन आज जब हम यानि आठवें दशक के तक़रीबन तीस वर्षों बाद इस परिदृश्य का पुनरवलोकन करते हैं तो यह लगता है कि इस प्रश्न को बेहद गंभीरता के साथ पूछा जाना चाहिए कि –आठवें दशक की कविता की केंद्रीय संकल्पना क्या है? जो लोग संकट के समय शरणार्थी शिविरों में रहते हैं उसे हम उनका स्थायी घर नहीं मानते क्या यह बात आठवें दशक की कविता के संदर्भ में जरुरी नहीं लगती? अगर हम थोड़ी देर के लिए उसे उपरोक्त आधारों पर स्वीकार कर भी लें तो यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसमें अरुण कमल सरीखे कवियों को हम कहाँ रखे प्रश्न यह भी कि आठवें दशक के तमाम कवियों का समकालीन कविता से क्या सम्बन्ध है, या हम जिसे समकालीन कविता कहते हैं उससे हमारा तात्पर्य क्या है? हिंदी कविता में जो मौजूदा परिपाटी है उसमे समकालीन कविता का संदर्भ आठवां दशक ही हैअगर हम थोडा पीछे मुड़ कर देखें तो यह याद करना कठिन न होगा कि अकविता के बाद जो कविता विकसित हुई थी उसे समकालीन कविता के रूप में चिन्हित किया गया था परन्तु आठवें दशक की कविता तो इस कविता के विरोध में विकसित हुई थी और जब हम पिछले चालीस वर्षों की कविता को समकालीन कविता कहते हैं तो उसमे मौजूद सारी धाराओं एवं अंतर्धाराओं को नकार भी रहे होते हैंइस तरह का सामान्यीकरण किसी दौर की आलोचना की मजबूरी हो सकती है, परन्तु मुश्किल यह है कि लगातार विकसित होता कवि आलोचना के इस तरह के सामान्यीकरण के लिए चुनौती प्रस्तुत करता है
 
आठवें दशक के तमाम कवियों के बीच अरुण कमल एक ऐसे कवि के रूप में सामने आते हैं जो नयेपन को विषयवस्तु के रूप में कविता में लाते हैं अगर हम अपनी केवल धार की कविताओं को देखें तो वहां  एक युवा कवि की ऐसी कविता से हमारा सामना होता है जिसमे एक नये समय के आगमन, नये परिदृश्य को रचने की आकांक्षा और कविता और मनुष्य के बीच की नई जमीन तलाशने की कोशिश नज़र आती है हालाँकि आठवें दशक की तमाम कविता अपनी पिछली कविता यानि साठोत्तरी कविता के साथ एक आलोचनात्मक सम्बन्ध बना कर ही विकसित होती है, लेकिन अरुण कमल की कविता आठवें दशक की सामान्यीकृत परिपाटी में अपना एक अलग स्वर रचती है
पर आज पहली बार जब देखा है
दाल पर पकते इस फल को
तभी जाना है असली रंग-स्वाद-गंध
इस छोटे से फल के
धरती आकाश तक फैले सम्बन्ध
                       ( जाना है )
x x x x x
अभी भी जिन्दगी ढूँढती है धुरी
अभी भी जिंदगी ढूँढती है मुक्ति
कहाँ अवकाश कहाँ समाप्ति
अभी ही तो शुरू हुई जिन्दगी
अभी ही तो चरखे में डाली है पुनी
                     (मुक्ति)
ये उद्धरण अरुण कमल के पहले संग्रह अपनी केवल धार से लिए गये हैंइन उद्धरणों में एक बात जो  प्रमुखता से नज़र आती है, वह है एक पुराने परिदृश्य को देखती हुयी दो नई आँखें इन कविताओं में जो भी नया है वह कवि की दृष्टि ही है लेकिन दृष्टि की यह नूतनता दृश्य को भी नया बना देती है यानी विषय और द्रष्टा के बीच का नया सम्बन्ध. इन कविताओं में जो भाषा है वह चमत्कृत करने की बजाय आश्वस्त अधिक करती है कवि और पाठक के मध्य मौजूद यह आश्वासन की भाषा, हिंदी कविता के इतिहास की एक नई परिपाटी रचती है, और इस तरह आठवें दशक के मध्य एक नया स्वर विकसित होता है
खोलता हूँ खिड़की
और चारो और से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल भरी तसली- सा हिलाती मुझसे बाहर मुझसे अंजान
जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है संसार
                  (उर्वर प्रदेश). 
अरुण कमल के यहाँ बदलाव यानि परिवर्तन और क्रमिकता यानि निरंतरता, यह दोनों एक दूसरे के विरोध में नही बल्कि एक दूसरे के विस्तार में मौजूद हैं अगर जीवन की यात्रा अनवरत है तो वह परिवर्तन को अनिवार्य बनाएगा और परिवर्तन की आकांक्षा इसी नैरन्तर्य में अंतर्न्हित होगी
आठवें दशक की कविता में अधिकांश कवियों ने जहाँ परिवर्तन को क्रम भंग के रूप में लिया वहीं अरुण कमल की कविता उसे क्रमिक विस्तार के रूप में देखती है नयेपन का अर्थ महज़ परम्परा भंजन नहीं होता बल्कि अपनी परम्परा के नये संदर्भो को विकसित करना भी होता है
अगर हम आठवें दशक की कविता को चंद कवियों के आयोजन के रूप में न देख कर इमरजेंसी के बाद के काव्य परिदृश्य के रूप में देखने का प्रयत्न करें तो इस कविता की बहुस्वरता को समझा जा सकता है आठवें दशक के कवियों ने गाहे बगाहे यह बात दुहराई कि आठवें दशक से प्रगतिशील कविता की वापसी होती है लेकिन अगर हम परिदृश्य को थोड़ी गहराई से देखने का प्रयत्न करें तो यह देखा जा सकता है कि इस दौर की कविताओं में न सिर्फ प्रगतिशील कविता की वापसी होती है बल्कि नई कविता का पुनरागमन भी होता है केदार नाथ सिंह और कुंवर नारायण सरीखे नई कविता के कवियों ने परिदृश्य में एक बार फिर अपनी जगह सुनिश्चित की ऐसे में यह सवाल भी महत्वपूर्ण हो उठता है कि केदार नाथ सिंह और अरुण कमल की कविताओं को क्या हम एक ही काव्य परिपाटी के रूप में रख सकते हैंअगर ऐसा है तो क्या आठवां दशक प्रगतिशील कविता और नई कविता का संधि स्थल बनता है? परन्तु यह तभी संभव है जब हम आठवें दशक के कवियों के भीतर जिन विविध काव्य परम्पराओं की अनुगूँज है, उसे दरकिनार कर मात्र देश-काल के आधार पर उसे एक परिपाटी के विकास के रूप में चिन्हित करेंआरम्भ में बहुत सारी बिन्दुओं के बीच की दूरी नगण्य हो सकती है, लेकिन उत्तरोत्तर जब वे स्वतंत्र रेखाएं बन जाती हैं तो उनके बीच की दूरी को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कमोबेश आठवें दशक की कविता पर भी यह बात लागू होती है
वस्तुतः आठवे दशक की कविता में कम से कम तीन अंतरवर्ती धाराओं की गूंज अनुगूँज को देखी जा सकती है जहाँ एक तरफ वह प्रगतिशील कवियों की काव्य परम्परा का विस्तार था तो वहीँ दूसरी तरफ नई कविता का नये संदर्भों के साथ पुनरागमन भी था 50 के दशक में मुक्तिबोध ने नई कविता के आत्मसंघर्ष की बात कही थीउसके बाद से नई कविता की दो धाराएँ मुक्तिबोध बनाम अज्ञेय उत्तरोत्तर अलग होती गयी एक तरफ मुक्तिबोध राजकमल चौधरी से होती हुई नई कविता रघुवीर सहाय तक पहुँची थी तो दूसरी और अज्ञेय के सप्तकों से होती हुयी सर्वेश्वर, श्रीकांत वर्मा, केदार नाथ सिंह और कुंवर नारायण तक पहुँची थी इस तरह आठवें दशक की कविता में तीनों धाराओं की मौजूदगी देखी जा सकती है नई कविता की दोनों धाराओं के बीच तर्क और संवेदना का द्वन्द उसी तरह मौजूद था लेकिन अब वह मात्र आत्मसंघर्ष न रह कर दो धाराओं के परस्पर संघर्ष में बदल चूका थाआठवे दशक की कविता पर इन तीनो ही धाराओं का प्रभाव थाअसद जैदी, मंगलेश डबराल, विष्णु नागर, विजय कुमार और नरेंद्र जैन जैसे कवियों के यहाँ अगर रघुवीर सहाय की परम्परा का विस्तार नज़र आता है तो कहीं न कहीं उसके मूल में मुक्तिबोध की काव्य प्रेरणा की भी भूमिका थी, लेकिन इन कवियों में नागार्जुन या त्रिलोचन की कविता का लोकवादी स्वर नहीं था इसके समाजशास्त्रीय कारण भी थे गाँव और शहर का बदलता व्यकरण भी थातकनीक और पूँजी के बदलते स्वरूप की भूमिका भी थीआरम्भ में अरुण कमल, विनय दुबे, गोरख पाण्डेय, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति, वीरेन डंगवाल सरीखे कवि मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय के बनिस्पत नागार्जुन, त्रिलोचन की प्रगतिशील धारा के अधिक निकट प्रतीत होते हैंइन सबसे इतर एक तीसरी धारा भी थी केदार नाथ सिंह की जिसमें नई कविता को नये संदर्भों में विकसित करने पर बल अधिक थायहाँ अनुभव को काल्पनिकता का पर्याय बनाने की विचित्र सी कोशिश थीजाहिर है ऐसा करते हुए संवेदना के स्थान पर ज्ञान और तार्किकता को स्थापित करने की कोशिश थी कविता को युक्ति से निर्मित करने का प्रयत्न था और उसे ढकने या ओझल करने के लिए काव्यात्मक आवरणों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल भी था विनोद कुमार शुक्ल या नरेश सक्सेना की कविताओं में हम इसका विस्तार पाते हैं ये विभाजन किसी भी रूप में अंतिम नहीं थे और आगे जा कर बहुत सारे प्रगतिशील परम्परा से बद्ध दीखते कवि या मुक्तिबोध की काव्य संवेदना को विस्तार देने वाले कवि नब्बे के दशक में केदार नाथ सिंह की और चले गए विशेषकर उनके संग्रह जमीन पक रही है के बाद यहाँ और अधिक विस्तार में न जाते हुए यह कहना ही पर्याप्त होगा कि केदार नाथ सिंह की समूची कविता नई कविता की कच्ची भावुकता से कभी मुक्त नहीं हो पाईबावजूद इसके यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि आठवें दशक में एकदम अनूठी काव्य-भाषा लेकर केदार नाथ सिंह आये
संभवतः अरुण अपनी पीढ़ी के कवियों में अकेले नज़र आते है जो प्रगतिशील काव्य परम्परा के इस हद तक निकट होउन्होंने पिछले तीस वर्षों में प्रगतिशील कविता के नये विस्तार को रचा
जैसे ही कौर उठाया
हाथ रुक गया
सामने किवाड़ से लग कर
रो रहा था वह लड़का
जिसने मेरे सामने
रक्खी थी थाली – (होटल)
उस लड़के का रोना धीरेधीरे कवि के भीतर और फिर कविता में फैलता जाता हैरोने की वैयक्तिक क्रिया एक सामूहिक प्रक्रिया की कोशिश बनती है प्रगतिशील कविता का अर्थ यह भी है कि वह वैयक्तिक प्रक्रिया के सामूहिक रूपांतरण की चेतना निर्मित करने में भूमिका निभाएतो क्या यही वजह है कि अरुण कमल की कविताओं में निराशा या हताशा लगभग नहीं है. वहां रुलाई है, पश्चाताप है, उदासी भी है, लेकिन निराशा नहीं है आठवें दशक के अन्य कवियों में वह पर्याप्त है जिसके विस्तार बाद के कवियों में भी नज़र आता है
व्यवसायिकता ने निराशा को भी एक कलात्मक मूल्य में बदल दिया है, लेकिन यह निराशा एक फैशनेबुल यथार्थ या कृत्रिम यथार्थ का ही रूप बनती है अगर यथार्थ का कोई भी निरूपण या प्रकटीकरण विकसित होती चेतना का रूप अख्तियार न करे तो वह हमारे बहुत काम का नहीं होगा यह बात सर्वप्रथम हम निराला के यहाँ देखते हैं
 
जब हम अरुण कमल की कविताओं के विकास क्रम को देखते हैं तो यह जरुरी हो जाता है कि हम प्रगतिशील काव्य परम्परा को नये संदर्भों में समझे प्रगतिशील काव्य परम्परा से क्या तात्पर्य है? प्रगतिशील काव्य परम्परा का अर्थ है ‘स्व’ के आकर्षण से बाहर आ कर सामूहिकता की तरफ उन्मुख होनानागार्जुन, त्रिलोचन या केदारनाथ अग्रवाल की बात करें तो वहां स्वयं का अतिक्रमण तो है ही साथ ही स्वयं के भीतर एक सामूहिक पहचान निर्मित करने की कोशिश भी है याद करें त्रिलोचन की कविता-
वही त्रिलोचन है, वह जिसके तन पर गंदे
कपडे हैं. कपड़े भी कैसे फटे-लटे हैं,
यह भी फैशन है, फैशन से कटेकटे है-.
कौन कह सकेगा इसका जीवन चंदे
पर अवलंबित है
अगर हम इस कविता से कवि का नाम हटा दे तो भी यह कविता किसी भारतीय साधारण जन के लिए उद्धृत की जा सकती है ऐसे में पूछा जा सकता है कि त्रिलोचन कविता में अपना नाम क्यों लिखते हैं? इसलिए कि आगे जो वर्णन है वह एक समूह का बोध कराती है कवि उसी का हिस्सा हैउसकी अभिव्यक्ति एकवचन न होकर बहुवचन को इंगित करती है यही प्रगतिशील कविता की जीवन दृष्टि थी एकवचन से बहुवचन की और प्रस्थान यानि स्व का सामूहिकता में रूपांतरण आठवें दशक के मध्य नागार्जुन और त्रिलोचन ने दो लम्बी कविताएँ लिखी हरिजन गाथा और नगई महरा ये दोनों कविताएँ आज़ादी के बाद के परिदृश्य में पहली बार कविता में जटिल समाजशास्त्रीय प्रश्न को सामने रखते हैं लेकिन इसके लिए दोनों ही कवि गतिशील जीवन से पल भर को भी निगाह ओझल नहीं करतेयह प्रगतिशील कविता का नया सोपान थाअरुण कमल की कविता का प्रस्थान बिंदु भी वही हैपरन्तु अरुण कमल यहाँ से शुरू करते हुए एक बेहद सहज सी लगती संवादपरकताके बेहद करीब की भाषा में एक नया समाजशास्त्र कविता के माध्यम से रचते हैं
वह आ गयी
और मेरी बगल में बैठ गयी
धीरे से पीठ तख्ते से टिकाई
और लम्बी साँस ली
……… ……….. ……….
कि सहसा मेरे कंधे से
लग गया
उस युवती का माथा
……… ……….. ……….
काम से वापस घर लौट रही थी
एक डेली पैसेंजर (डेली पैसेंजर)
यह कविता एक अद्भुत आत्मीय संसार का दरवाजा खोलती हैमनुष्य आरम्भ में अकेला रहा होगाइसी दौरान उसने धीरे -धीरे सम्बन्ध विकसित किये होंगे सम्बन्धों की दुनिया इतनी व्यापक और जटिल हो गयी होगी कि उसे नाम देना पड़ा होगा विवाह संस्था के विकास ने आधुनिक परिवार की नींव डाली होगी संबंधो के विकास एवं पहचान में नामों का वर्चस्व इतना अधिक हो गया होगा कि नामहीन संबंधो की दुनिया खात्मे पर होगी संबंधो के संकुचित व्याकरण के बाहर जो मनुष्य की अतृप्त संवेदना है, वह हमारे व्यक्तित्व में अजनबियत को, रचती है नई सदी ने जो क्रूरता का नया शास्त्र रचा है उसमे इस अजनबियत की कितनी बड़ी भूमिका है यह बताने की आवश्यकता नहीं है यह कविता हमारी उसी बेकल वेदना को चिन्हित करती हैमनुष्य और मनुष्य के बीच मौजूद आदिम रागात्मकता की खोज वर्तमान संदर्भ में एक नया अर्थ रचती हैवह क्रूरता का एक सार्थक प्रतिरोध तो निर्मित करती ही है अपने भीतर पनप रहे अजनबियत का भी निषेध करती हैयह उस आदिम थकान का भी पुनर्सृजन करती है जो श्रम का प्रतिफल है
लगता है बहुत थकी थी
वह कामगार औरत
इस थकान को देखने की कवि की दृष्टि हमे किस तरलता से भर देती है हमे कितना उन्मुक्त कितना भारहीन और कितना सम्पूर्ण बना देती हैअंततः कलाएं अपनी समग्रता में सम्पूर्ण को ही तलाशती हैंसम्बन्धों को लेकर अरुण कमल के यहाँ एक पैसन हैउनके नये संग्रह मैं वो शंख महाशंख में सम्बन्ध शीर्षक से ही एक कविता हैयह कविता एक विचित्र से वाकये को हमारे सामने लाती है यहाँ भी नामों के वर्चस्व से बाहर एक नामहीन सम्बन्ध की तलाश हैदेवर और भाभी के बीच का सम्बन्ध उसे किस व्याकरण में रखा जायेभाभी को पहला बच्चा हुआ हैउसके स्तनों से दूध उतर नहीं रहा है नवजात शिशु बेहाल है स्तनों में दूध उतर आये इसके लिए देवर को बुलाया जाता है
तुमने हुक खोले और
गाय की बड़ी बड़ी आँखों से मुझे देखा
मैं काँप गया
दोनों स्तन इतने कठोर कैंता के फल से
और बच्चा रो रह था एक ओर
नहीं कह सकता वह सुख था या शोक
मैं तुम्हारा देवर पति या पुत्र
मैंने कंठ में रोक लिया वह दूध
हम अलग हो चुके हैं अब
अलग अलग चूल्हें हैं हमारे
और अलग अलग जीवन
वह बच्चा भी अब सयाना है
और तुम भी ढल गयी हो
फिर भी मैं कह नहीं सकता
यह कैसा सम्बन्ध है
मैं तुम्हारा देवर तुम्हारा पति तुम्हारा पुत्र?
यह है अरुण कमल का वैशिष्ट्य उनकी भाषा में अमूर्तन का जबरदस्त नकार मौजूद हैसिर्फ एक पंक्ति गाय की आँखों से भाभी का देखनामैं नहीं समझता कि यहाँ इन पंक्तियों में जितनी तरलता और करुणा अरुण कमल पैदा करते हैं उसका कोई विकल्प हो सकता है अरुण कमल की कविता पढ़ते हुए ऐसा बार-बार महसूस होता है कि वे जिस बात को जिस तरह उसकी श्रेष्ठता में कहना चाहिए, वे कह लेते है और इस हद तक कि उसमे कुछ और घटा या बढ़ा सकने की मामूली गुंजाईश भी न बचे कला जीवन की पुनर्रचना न भी हो तो भी कला का आदर्श तो जीवन ही होगाअरुण कमल की कविता इसलिए उन विषयों के करीब पहुँचने की कोशिश करती नज़र आती है जहाँ से जीवन के आदर्श को अधिक सूक्ष्मता से देखा व परखा जा सकता है करुणा का समूचा विस्तार सम्बन्धों को उनके संकुचित दायरे से बाहर ला देता है भाभी और देवर के संबंधो के बीच मौजूद यह करुणा किसी भी संस्कृति या लोकजीवन की कितनी बड़ी थाती है इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती इसे महज़ सामंती संस्कार कहकर नकारा नहीं जा सकतायह बात भी काबिले गौर है कि सामाजिक आधुनिकता का सन्दर्भ महज़ ज्ञान विज्ञान या तर्क तकनीक से तय नहीं होतावह तय होता हैं सभ्यताओं के लम्बे विकास क्रम से, सामाजिक जीवन की विस्तृत परम्पराओं से, जीवन शैली में मौजूद करुणा से
अरुण कमल का तीसरा संग्रह नये इलाके में पिछली सदी के अंतिम दशक के मध्य आयाइस संग्रह के साथ ही अरुण कमल काव्य भाषा के नये इलाके में प्रवेश करते हैं ‘नये इलाके में’ इसलिए भी कि जहाँ उनकी पीढ़ी के कई अन्य कवि या तो अपने पिछले संग्रहों को दुहराते रहे या कलावाद की तरफ आकर्षित होने लगे वहीँ अरुण कमल जीवन और लोकसंस्कृति की तरफ अधिक उन्मुख होते हैंअरुण कमल के लिए लोक संस्कृति का अर्थ है जीवन का प्रवक्ता होनाउनकी कविताओं में घर-परिवार भाई-बहन कुटुंब -समाज अपनी जैविकता और जीवन्तता के साथ उपस्थित होने लगेअनेक घटनाएँ प्रसंगों का उल्लेख उनकी कविताओं में गतिशील दृश्य के रूप में होने लगायह नागार्जुन की कविताओं का नया क्षितिज विस्तार थाअरुण कमल अपनी समग्रता में किसी भी हिंदी कवि की अपेक्षा नागार्जुन के अधिक करीब नज़र आते हैंसाथ ही परम्परा के विस्तार के क्रम में आप एक नयी परम्परा भी रचते हैंकहना न होगा कि अरुण कमल के यहाँ परम्परा का विकास एक मौलिक धारा का रूप ले लेती है क्योंकि उसमे अपने समय समाज की अंतर्भूत अनिवार्य पहचान नज़र आती हैइस संग्रह में उनकी एक कविता है एक रात जब मैं सफ़र में था इस कविता में एक व्यक्ति ट्रेन के शयनयान में सफ़र कर रहा है रात के वक्त जब सारा शयनयान सो रहा था वह व्यक्ति दरवाजे के पास अपना सामान लिए अकेला खड़ा है जाहिर सी बात है कि इस यात्री की टिकट प्रतीक्षा सूची में है प्रतीक्षा सूची में यात्रा करना एक अजीब और अमूर्त सी तकलीफ और हिकारत से हमे भर देती हैप्रतीक्षा सूची में यात्रा कर रहा आदमी दुनिया को एक दार्शनिक एक चिन्तक की नज़र से देखता हैजहाँ उसके चिंतन के केंद्र में उसकी असफलता है ऐसी ही मनस्थिति में एक व्यक्ति यात्रा कर रहा है वह बेचैन है लेकिन उस व्यक्ति के समक्ष टी.टी. अपने गुलुबुन्द के भीतर यानि अपने सुरक्षित दायरे के भीतर बैठा हैट्रेन से कटने की जो भिन्न आवाजें आ रही हैं – उनको पहचानते हुए वह उस व्यक्ति को बताता है
अच्च! चला गया !-
क्या हुआ?
कट गया! आवाज़ वैसी ही थी
इतनी रात में निकला था लकड़ी चुनने!
टी.टी के भीतर की अजीब सी निष्ठुरता एवं वर्गीय दायरे सुरक्षित होने का संतोष, दोनों को अरुण कमल बहुत बारीकी से बगैर किसी अतिरिक्त विस्तार के दिखाते हैंलेकिन क्या आदमी का कटना सिर्फ इतनी सामान्य सी बात है! क्या सियार बैल या आदमी के काटने के बीच महज़ आवाज़ों का ही फर्क है? क्या सिर्फ यह आदमी का कटना भर है? क्या ये यह नहीं बताता है कि कुछ हमारे भीतर भी कट रहा है बिना आवाज़ केक्या वह काट कर मर नहीं चुका है टी.टी के भीतर क्या वे सब जो शयनयान में इस सबसे बेखबर अपनी नींद की दुनिया में गोते लगा रहें हैं? उनके भीतर कुछ कट कर मर नही चुका है?  अरुण कमल की कविताओं में अर्थ के कई स्तर हैं यही वजह है कि सामान्य सी दिखती कविता भी एक आत्मीय पाठ की मांग करती है
 
अरुण कमल के यहाँ विषयों की बहुयामी श्रृंखला है. उसमे तीज त्यौहार उत्सव हैंवे एक ऐसी दुनिया सृजित करते हैं जिसमे लोगो के सचमुच के चेहरे हैंउसमे जीवन और मृत्यु की निरंतरता हैदरअसल अरुण कमल जीवन से बाहर कुछ भी नही रचतेउनके लिए मृत्यु भी जीवन का ही अंग है, इसलिए श्राद्ध का अन्न निगलते हुए वे मृत्यु के प्रति दार्शनिकता को नहीं लाते, बल्कि संवेदना की व्याकुलता को शब्द देते हुए कहते हैं –
कोई भीतर से दोनों हाथों से ठेल रहा निवाला
अवरुद्ध है कंठ
मुंह चल नहीं पाता
बरौनियाँ हिल नहीं रहीं
पालथी में भर गयी जांघ –
सामने खड़ा है मृतक हँसता
पूछता है कैसी है बुंदिया कैसा है रायता
हम अगर इस विवरण पर गौर करेंकितनी तटस्थता है इस पूरी शैली में किसी की मृत्यु के शोक संतप्त वातावरण में, शोक के सामूहिक आयोजन की उत्सवधर्मिता पर कितना बड़ा व्यंग्य? इस पूरी कविता में एक तरफ डायरेक्ट होने का खतरा था वहीँ दूसरी तरफ लाउड होने की भी संभावना थीलेकिन अरुण कमल इन दोनों अतियों से बचते हुए जिस निःसंगता से विवरण को रचते है, वह यह समझने के लिए पर्याप्त है कि वे सचमुच भाषा के नये इलाके में प्रवेश करते हैं और ऐसा करने के लिए वह जीवन प्रसंगों का एक विस्तृत कोलाज़ निर्मित करते हैं
अरुण कमल की कविताओं में हत्यारे बार-बार आते हैं हत्यारे उनके समकालीन कवियों के यहाँ भी आते हैं वहां वे मनुष्य की बजाय किन्हीं संक्ल्पनाओं से आबद्ध नज़र आते हैं, लेकिन अरुण कमल के यहाँ वे किन्हीं जीवन प्रसंग या परिस्थितियों की चोट खाए आदमी के रूप में नज़र आते हैंइसलिए वे क्रूर या आततायी नहीं हैं और न ही वे व्यवस्था के पोषक की तरह दिखते हैं अरुण कमल के यहाँ यह इसलिए हो पाता है कि वे अपनी कविता को संक्ल्पनाओं द्वारा स्वीकृत सामान्यीकरणों के तहत नहीं रचते वे उसे अधिक गतिशील और ताप से भरे जीवन से समृद्ध करते हैंइसी  संदर्भ में उनकी कविता एकालाप देखी जानी चाहिए
पर धीरे धीरे ऐसा समय आता है
जब सारे रास्ते पानी में डूब जाते हैं
जब तुम्हारा सोचा कुछ नहीं होता
बस अंधड़ होता है और सेमल रुई का फाहा
बस एक कोठरी बचती है पूरे शहर में खाली
श्मशान के पास
यही वह परिदृश्य है जो हत्यारे को रचती है जीवन परिस्थितियों का विलाप एकालाप में बदल जाता हैहत्यारे या अपराधी का अकेलापन उसकी मनःस्थिति और रोज़ रोज़ उसके भीतर छीजती मनुष्यता जीवन अगर रौशनी न बन सके तो उसे अंधकार भीं नहीं बनना चाहिए अगर वह अंधकार है तो उससे लड़ने के लिए भीतर का मनुष्य बचा रहे बाहर का समाज अगर दिया न जलाता हो तो कम से कम अँधेरा तो न बढ़ाये आदमी अगर परिस्थितयों का गुलाम नज़र आता है, नियति के हाथों वह कठपुतली की तरह नाचता रहता है तो इसके कारण किन्हीं ईश्वर या धर्म के ठेकेदारों के यहाँ नहीं ढूंढे जाने चाहिएइसके कारण मौजूद हैं समाज की व्यवस्था में राजनीति की गति में, संस्कृति की दृष्टि में अरुण कमल की कविता इसी नये इलाके का फेरा लगाती है
अरुण कमल की कविताओं पर बात करते हुए पिछले दिनों प्रकाशित उनकी कविता कविता-2013 की चर्चा करना उपयुक्त होगा यह कविता एक ही समय को कई तरह के विभाजनो और कई तरह की घटनाओं को एक ही के संयोजन में देखती है एक तरफ हमारा समय है जो हमसे छूट रहा है एक तरफ हम किसी समय को पकड़ने की कोशिश में हैं छूटता हुआ समय हमरा अतीत है पकड़ में न आ सकने वाला समय भविष्य दोनों ही स्थितियों में हाथ कुछ भी नहीं आ रहालेकिन इस सबके दरम्यान जो वर्तमान है वह या तो नियति है या फिर एक स्वप्न वर्तमान आधा अतीत में आधा भविष्य में लेकिन वर्तमान में कोई वर्तमान नहींइस कविता में अरुण कमल एकदम नई जमीन पर नज़र आते हैंअपनी सुरक्षित कविता की जमीन से बहुत दूर अरुण कमल की कविताओं में लम्बी साँस नहीं है, कहने वालों को यह कविता देखनी चाहिएइसको पढ़ते हुए आपका दम फूलने लगेगा सच को सच की तरह अब नहीं कहा जा सकताइसलिए उसे कविता में कहा जाना चाहिए
बोलना आसान है देवयानी के पक्ष में
इस गरीब के पक्ष में तो बोल कर देखो
बोलना आसान है ओबामा के खिलाफ
इस जमींदार ठेकेदार इजारेदार के खिलाफ जुबान तो खोलो
इस कविता में मौजूद इंटेंसिटी उनकी नई विकास यात्रा को इंगित करती हैजहाँ यथार्थ का पागलपन और समय की तेज़ अंधड़ दोनों को एक नई काव्य भाषा में वे रचते हैंमुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो अरुण कमल की इस कविता में एक विश्व दृष्टि परिलक्षित होती हैवे तात्कालिक राजनितिक परिस्थितियों को एक युग, एक विश्व, एक मानवजाति के विस्तार तक ले जाते हैं अरुण कमल की कविताओं में आवेग की बजाय एक तटस्थता या निःसंगता ही अधिक नज़र आती है लेकिन इस कविता में वे एक आवेग रचते हैं यह अरुण कमल की सुपरचित काव्य भूमि नहीं है वे अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलते हैं
अरुण कमल की कविताओं में यात्राओं का संदर्भ बार-बार आता है यात्रायें संभवतः उनके जीवन में भी बहुत हैंयात्रायें नागार्जुन के जीवन में भी बहुत थीमैथिली में तो नागार्जुन का उपनाम ही ‘यात्री’ है परन्तु नागार्जुन के समय और अरुण कमल के समय में एक बुनियादी फर्क है फर्क ये कि नागार्जुन के समय में यात्राओं के पीछे न तो संस्थाओं की इस हद तक भूमिका थी और न ही साहित्य संस्कृति के ऊपर इस तरह के व्यवसायिक दवाब थे इन परिस्थितियों में खुद को बचाना और कविता को बचाना दोनों ही एक बड़ी चुनौती है लेकिन सुखद है कि अरुण कमल की रचनात्मक ऊर्जा बढती ही गयी है अरुण कमल की कविताओं में एक लगातार विकासक्रम देखा जा सकता है उनकी भाषा अधिक सहज और अधिक ग्राह्य हुई है लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि जटिल यथार्थ या सामाजिक जटिलता उनकी कविताओं में नहीं है, बल्कि यह कहना ज्यादा संगत है कि वे भाषा के स्तर पर जटिल सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य को सरलता से कह सकने में अधिक सक्षम नज़र आते हैं
 
आज की युवा कविता का एक बड़ा हिस्सा वस्तुगत जटिलता के प्रश्न को शिल्पगत प्रयोगों के माध्यम से हल करने की कोशिश कर रहा है यह तो स्पष्ट है कि युवा कविता की इस कोशिश में कविता में मौजूद संकट को देखा जा सकता है और यह सुखद भी है कि युवा कविता कविता के संकट को नये सिरे से समझने का प्रयत्न कर रही है युवा कविता का बड़ा दायरा परिदृश्य की जटिलता से आक्रांत भी है और इस वजह से उसमे कई जगहों पर कविता की जगह कविता की मुद्राएँ ही अधिक नज़र आती हैलेकिन हर पीढ़ी का संकट उसका अपना मौलिक संकट होता है किसी भी पिछले समय के संकट से उसका स्थानापन्न संभव नहींबावजूद इसके यह कहना ठीक होगा कि अरुण कमल की कविताओं में भी युवा कविता-समय परिलक्षित होता है किसी कवि की परिदृश्य में मौजूदगी अगर नये लोगों के आत्मविश्वास को बढाती हो तो यह कवि और कविता की सार्थकता ही मानी जाएगी
(‘कल के लिए’ के हालिया प्रकाशित अंक में।)
अच्युतानन्द मिश्र
सम्पर्क-
मोबाईल-  09213166256

अच्युतानंद मिश्र का आलेख ‘ऐ काश जानता न तेरी रहगुजर को मैं’

लांग नाईन्टीज को ले कर हमने पहले भी इस ब्लॉग पर एक बहस चलायी थी जिसके अन्तर्गत विजेन्द्र जी, आग्नेय जी, अमीर चंद वैश्य, अशोक तिवारी और महेश चन्द्र पुनेठा के आलेख प्रकाशित हुए थे। इस बहस को ‘पहल’ ने भी आगे बढाया जिसमें मृत्युंजय, विवेक निराला और अच्युतानन्द मिश्र के लेख प्रकाशित हुए हैं इसी कड़ी को आगे बढाने के क्रम में हमने विवेक निराला के आलेख को पहली बार पर प्रकाशित किया था। अब प्रस्तुत है युवा कवि आलोचक अच्युतानन्द मिश्र का आलेख ‘ऐ काश जानता न तेरी रहगुजर को मैं’     
ऐ काश जानता न तेरी रहगुजर को मैं
                                                                    
अच्युतानंद मिश्र
पिछले दिनों पहल में नब्बे के दशक की कविता को लेकर एक बहस शाया हुई मूल लेख मृत्युंजय का था हालाँकि हिंदी कविता में नब्बे को लेकर बहस, पिछले कुछ दिनों से कई पत्रिकाओं और ब्लॉग्स पर देखने को मिली पहल-92 में शाया हुयी बहस को इसी कड़ी में देखा जा सकता है वागर्थ में जो बहस चली उसमे नब्बे -दशक के कुछ कवियों ने स्वयं के उभार को एक काव्यात्मक परिघटना के रूप में चिन्हित करने का प्रयास कियापहल -94 में विवेक निराला ने मृत्युंजय की कुछ मान्यताओं पर असहमति दर्ज़ करते हुए नब्बे दशक की काव्य परिघटना के महत्व को उजागर किया पहल -95 में मृत्युंजय ने विवेक निराला द्वारा उठाये गये प्रश्नों का जवाब देने का प्रयत्न किया इस तरह इस बहस का चक्र पूरा होता है
 
पहले बात मृत्युंजय के मूल आलेख के संदर्भ में. नवें दशक की कविता पर कुछ नोट्स के माध्यम से मृत्युंजय नब्बे के काव्य परिदृश्य को विश्लेषित करने का प्रयत्न करते हैं वे इसके लिए पृष्ठभूमि की संक्षेप में चर्चा करते हैं नब्बे के दशक से ठीक पहले के काव्य परिदृश्य की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं –“मुबाहिसे हुए और तय पाया गया कि अस्सी के दशक की कविता में फूल-पत्ती-चिडिय़ा-बच्चे बारम्बार मौजूद हैं। न सिर्फ नक्कादों ने, बल्कि खुद अस्सी दशक की कविता के हरावलों ने इसे माना। असल में यह सवाल कविता की जमीन का था। सत्तर के दशक में आन्दोलनों की धधक और राजनीति ने कविता में कठोर यथार्थ के प्रति कई नजरिये विकसित किये थे- पहला था अराजकतावादी नजरिया और दूसरा क्रांतिकारी वाम का। राजकमल चौधरी और धूमिल दोनों धाराओं के प्रतिनिधि कवि कहे जा सकते हैं। 
यहाँ इस समूचे परिदृश्य  को उजागर करने में मृत्युंजय कई तरह के सरलीकरण का इस्तेमाल करते हैं अगर राजकमल अकविता (अराजकतावादी) के प्रतिनिधि कवि थे तो इस लिहाज़ से उनकी प्रतिनिधि कविता किसे कहेंगे? क्या मुक्तिप्रसंग अकविता थी? क्या वह अपनी संवेदना और स्वरुप में उसी तरह की कविता है जैसी कि सौमित्र मोहन की लुकमान अली या जगदीश चतुर्वेदी की  इतिहासहन्ता वस्तुतः मृत्युंजय जिन दो धाराओं की चर्चा साठोत्तरी कविता के संदर्भ में करते है राजकमल उन दो धाराओं के बीच में खड़े कवि हैं, वे संक्रमण काल के कवि है. मुक्तिप्रसंग का स्वर अगर उत्तरोत्तर राजनीतिक होता जाता है तो इस संक्रमण को समझने की आवश्यकता हैयह निश्चित रूप से अराजकतावादी धारा से अलगाव की कविता है मेरा स्पष्ट मानना है कि राजकमल के संदर्भ में मुक्तिप्रसंग को किसी भी तरह से नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है वह राजकमल की प्रतिनिधि कविता है ऐसे में राजकमल को किसी एक धारा का प्रतिनिधि कवि कहना उस धारा के प्रति हमारी समझ के सरलीकरण और परिदृश्य के सरलीकरण की तरफ ही इंगित करता है जिस अराजकतावादी धारा की चर्चा मृत्युंजय करते हैं उसके प्रतिनिधि कवि थे सौमित्र मोहन, श्याम परमार जगदीश चतुर्वेदी एवं मोना गुलाटी श्याम परमार तो अकविता के सिद्धांतकार ही थेइस संदर्भ में उनकी पुस्तक अकविता और कला संदर्भ अकविता की सैद्धान्तिकी निर्मित करती है और साथ ही उसकी ऐतिहासिक भूमिका को भी रेखांकित करने का प्रयत्न करती है दूसरी तरफ धूमिल को क्रान्तिकारी वाम का प्रतिनिधि कवि कहना भी उस पूरी काव्य परिपाटी सीमित करना है धूमिल अकविता में भी थे उससे पहले वे गीत लिखते थे अगर धूमिल किसी कवि के सर्वाधिक निकट हैं तो वह राजकमल ही हैं धूमिल ने तो राजकमल पर कविता भी लिखी जो उनके महत्व को रेखांकित करती थी धूमिल भी एक तरह से संक्रमणकाल  की कविता लिखते हैं उनकी तमाम महत्वपूर्ण कविताओं में अकविता का स्वर तो मौजूद है ही लेकिन उसका रुझान राजनीतिक है इसलिए न तो उसे अकविता ही कहना संगत है और न ही उसे पूर्णतया प्रतिबद्ध कविता (क्रान्तिकारी वाम) कहा जा सकता है वह इन दोनों के मध्य कहीं है धूमिल को अगर हम थोड़ी गंभीरता से पढ़े तो हम पाएंगे कि वे एक तो रेटोरिक के कवि हैं दूसरे उनमे वैचारिक स्पष्टता का निश्चित रूप से अभाव हैहालाँकि यह स्पष्ट है कि वे अराजकतावाद से वाम चेतना की तरफ अग्रसर होते हैं ऐसे में जिस क्रांतिकारी वाम की बात मृत्युंजय करते हैं वह नक्सलबाड़ी की ही धारा थी और उसके प्रमुख कवि थे वेणुगोपाल, कुमारेन्द्र, कुमार विकल और आलोकधन्वा बाद में इसी धारा को अधिक मूर्त और स्पष्टता के साथ विकसित करने का काम गोरख पाण्डेय ने कियावह भी अस्सी के दशक में जब कविता के सन्दर्भ में इसे पूरी तरह ख़ारिज कर दिया गया था यह अतिरिक्त जोखिम ही उन्हें सचेत राजनीतिक कवि के रूप में विकसित होने का अवसर देता है अगर नक्सलबाड़ी की चेतना का सर्वाधिक विस्तार किसी एक कवि में देखना ही हो तो वह धूमिल नहीं गोरख पाण्डेय ही होंगे मृत्युंजय अगर धूमिल को प्रतिनिधि कवि बनाते है तो इसके मूल में यह है कि आठवें दशक की पूरी अवधारणा को जो कि सत्तर के दशक का एक क्रिटिक भी तैयार करती है को बरस्ते धूमिल एक कुपाठ में परिवर्तित कर दिया जाये ऐसा करने वाले मृत्युंजय कोई पहले शख्स नहीं हैं यही काम राजेश जोशी भी करते हैं –धूमिल के साथ –साथ कविता में नायकों की विदाई का अंतिम गीत गया जा चुका है(एक कवि की नोटबुक) यहाँ भी सत्तर के दशक के मुल्यांकन के केंद्र में धूमिल ही हैं और धूमिल के यहाँ जो वैचारिक अस्पष्टता एवं रेटोरिक है वह निशाने पर है तो क्या यही वजह है कि आठवें दशक के अधिकांश कवि गोरख के संदर्भ में कुछ नहीं कहने की नीति पर अमल करते हैं, क्योंकि धूमिल का विस्तार गोरख में नहीं नज़र आता है मृत्युंजय दशकों को लेकर भी एक खास तरह के भ्रम का शिकार नज़र आते हैंवे नवें दशक और नब्बे के दशक को एक ही समझते हैं मुझे लगता हैं यहाँ थोड़ी स्पष्टता की आवश्यकता है यह जो आठवें दशक की कविता है वह इमरजेंसी के बाद की कविता है, यानि 1975 के बाद से 1979-1982 के बीच अधिकांश कवियों मसलन मंगलेश डबराल, असद जैदी, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, विजय कुमार, नरेंद्र जैन, विनय दुबे के पहले संग्रह का प्रकाशन होता है. मूलत: इन संग्रहों के आधार पर कविता एक नए इलाके में प्रवेश करती है, जिसे हम आठवें दशक के रूप में चिन्हित करते हैं. यह स्पष्ट है कि इन कवियों ने काव्य परिदृश्य को बदला है. इन्होने वैसी कविता नहीं लिखी जैसा की सत्तर के दशक के कवि लिख रहे थे बल्कि उससे एकदम अलग रंग की कविता लिखी आठवें दशक के कवियों के बीच अगर हम कॉमन की तलाश करें तो कुछ-कुछ इस परिकल्पना को समझा जा सकता है इन कवियों का यह मानना था कि कविता की अंतर्वस्तु राजनीतिक हो सकती है लेकिन कथ्य तो जीवन-अनुभव, इर्दगिर्द का समाज, रोजमर्रा का जीवन ही होगा. यानि कि कवि के बेहद निकट की दुनिया. इसने जहाँ एक ओर कविता को एक संवेदनात्मक प्रमाणिकता प्रदान की वहीँ उसे एक खास वर्गीय दायरे में संकुचित भी किया आठवें दशक के कवियों ने इस खतरे को उठाया मृत्युंजय ने इस संदर्भ में ठीक ही लिखा है कि “मध्यवर्गीय समाज के बारीक जीवनानुभवों में राजनीति के असर को देख पाना और उसी के सहारे प्रतिरोध रचने की कोशिश, इस दशक की कविता के लिए शक्ति का मूल उत्स था”। यही वजह है कि इस कविता में दृश्यात्मकता पर जोर है. यह घटना प्रधान कविता है कवि के अनुभव और पाठक के अनुभव को एक साझा जमीन देने का प्रयास यहाँ अधिक है आठवें दशक के सन्दर्भ में मृत्युंजय आरम्भ में ही यह कहते हैं कि सत्तर के दशक की दिशा जो गाँव-कस्बा-शहर थी, अस्सी के दशक में बदल कर यह शहर-कस्बा-गाँव की दिशाहो गयी। कुमार विकल की कविता में गाँव नज़र नहीं आता। यही बात एक हद तक वेणुगोपाल के संदर्भ में भी कही जा सकती है आलोकधन्वा की तब तक जो तीन- चार कवितायेँ प्रकाशित हुई थीं उनमे भी गाँव शहर का विभाजन ठीक नही लगताइसी तरह क्या आठवें दशक की कविता की दिशा शहर –कस्बा- गाँव थी? यहाँ यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अगर आठवे दशक के कुछ कवियों के यहाँ शहर बहुतायत में नज़र आता है क्या वह आठवें दशक की केंद्रीय प्रवृति थी? और अगर नहीं थी तो इस तरह के सूत्र को महज़ सरलीकरण कह कर नकारा नहीं जा सकताकहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसा करते हुए मृत्युंजय किन्ही खास कवियों को केंद्र में रखते हैंमुझे लगता है कम से कम अरुण कमल और विनय दुबे सरीखे कवियों के संदर्भ में तो यह सूत्र बहुत उपयुक्त नहीं कहा जा सकताहाँ इसके केंद्र में असद जैदी, विजय कुमार, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी हो सकते हैं नरेंद्र जैन भी इसके उपयुक्त उदाहरण नहीं कहे जा सकते यानि मृत्युंजय आठवें दशक के संदर्भ में भले अनेक कवियों का नाम लेते हों लेकिन फेनोमेना के तौर पर वे कुछ कवियों को अधिक केन्द्रीयता देते हैंयानि मृत्युंजय आठवें दशक का भी सत्तर के दशक की ही तरह कोई प्रमाणिक चित्र पेश नहीं करतेमुझे लगता है कि आठवे दशक की कविता के सामने शहर और गाँव का अन्तर्विरोध उतना मुखर नहीं था जैसा कि मृत्युंजय देखते हैं बल्कि उसकी मूल प्रवृत्ति थी बेहद निकट के जीवनानुभव को दृश्यात्मकता और ऐंद्रिकता के साथ प्रस्तुत करना ऐंद्रिकता और चाक्षुष बिम्बों पर आठवे दशक के कवियों का अधिक बल था यही वह बिंदु था जिसके अधर पर वे सत्तर के दशक की कविता को ख़ारिज करते हैं आठवें दशक की कविता में राजनीति मौजूद है लेकिन वहीं तक जहाँ जीवन अनुभव का हिस्सा बनती है यहाँ अपनी बात को स्पष्ट करने के क्रम में, मैं दो उदाहरण पेश करना चाहूँगा दोनों ही उदाहरण अरुण कमल के संग्रह अपनी केवल धार से-
कौन नहीं चाहता जहाँ जिस जमीन उगे

मिट्टी बन जाये वहीँ

पर दोमट नहीं, तपता हुआ रेत ही है घर

तरबूज का ,

जहाँ निभे जिंदगी वहीँ घर वहीँ गाँव (यात्रा)

x x x x x

भौजी , हाथ में डोल लिए

मत जाना नल पर पानी भरने

तुम गिर जाओगी

और बउआ…….(धरती और भार)
काबिले गौर है कि इन कविताओं में मौजूद ऐंद्रिकता ही वह मूल तत्व है जो इन्हें पिछली कविता से भिन्न बनाती है यहाँ राजनीति का संदर्भ मनुष्य के दैनिक जीवन से है, एक तरह से कहें तो रघुवीर सहाय की राजनीतिक चेतना का विस्तार इन कवियों में देखा जा सकता है, लेकिन इनमे से कई कवि रघुवीर सहाय के राजनीतिक दृष्टिकोण से बाहर निकल कर अपना रास्ता तलाशते हैं खासकर राजेश जोशी, अरुण कमल और विनय दुबेविनय दुबे तो अलग ही अंदाज़ की राजनीतिक कविता लिखते हैं कई बार वे ब्रेख्तियन मुहावरे के बेहद करीब नज़र आते हैं इस संदर्भ में 1980 में ही प्रकाशित उनका संग्रह महामहिम चुप हैं आठवे दशक के काव्य परिदृश्य को नया विस्तार देती है यहाँ मैं विनय दुबे पर जोर इसलिए दे रह हूँ क्योंकि मेरे देखे अब तक कोई ऐसा लेख नहीं दिखा जिसमे आठवें दशक के संदर्भ में विनय दुबे को प्रमुखता दी गयी हो कहने का तात्पर्य यह है कि मृत्युंजय कुछ कवियों को केंद्र में रख कर, जिस आठवे दशक की परिकल्पना को उजागर करते हैं वह आठवे दशक को विश्लेषित नहीं करता
 
नवें दशक के अंतिम दौर में इनमे से अधिकांश कवियों के दूसरे संग्रह आयें यहाँ भी आधारभूमि यही थी कुछ ने खुद को दुहराया कुछ न दुहरा सकने के कारण ख़राब कविता लिखने लगेऔर एक तरह से काव्य परिदृश्य में बहुत परिवर्तन इन कुछ वर्षों में नहीं होता है और अगर हम काव्य पीढ़ी या फेनोमेना के तौर पर इसे आँठवा दशक ही कहें तो कुछ गलत नही होगा क्योंकि कविता की भावभूमि इस दौरान नहीं बदलती हैराजेश जोशी की जिस कविता की चर्चा आठवें दशक के संदर्भ में अक्सर होती है वह है बच्चे काम पर जा रहे हैं गौरतलब है कि यह कविता जनवरी 1990 की है
 
कविता की समकालीनता और समय की समकालीनता के बीच फर्क होता है ठीक उसी तरह जैसे कि सामाजिक-राजनैतिक सत्य होता है काव्य सत्य भी  होता है यहाँ मेरी बात से यह न ध्वनित न हो कि मैं दोनों के बीच किसी किस्म के विरोध की बात कह रहा हूँ मेरा कहना सिर्फ इतना है कि काव्य-सत्य और सामाजिक राजनीतिक सत्य के बीच गहन अंतर्संबंध होते हैं लेकिन उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी होता है यही वजह है कि दशक के बदलने से काव्य दशक भी अनिवार्य रूप से बदल जाये, यह जरूरी नहीं अपने अंदाज़ में मृत्युंजय भी इस बात को कहते हैं “कविता राजनीति का सीधा अनुवाद नहीं होती। राजनीतिक सचाईयां उस पर असर डालती जरूर हैं पर हम यह मांग किसी दौर की कविता से नहीं कर सकते कि उसने फलांफलां घटना पर क्या लिखा। इसका क्लासिकल उदाहरण निराला हैं। निराला  ने देश की आजादी या विभाजन पर कुछ नहीं लिखा। देश के आजाद होने से पहले उनकी कविता में नेहरू  और कांग्रेस मॉडल की आलोचना जरूर मिलती है, पर आजादीविभाजन के दौर में वे कुछ नहीं लिखते। जब मृत्युंजय के समक्ष यह स्पष्ट ही है कि कविता राजनीति का सीधा अनुवाद नहीं होती तो वह यह क्यों चाहते हैं कि निराला आज़ादी –विभाजन के दौर में कुछ लिखे . वह भी इन्ही राजनीतिक सचाइयों को लेकर .जहाँ तक निराला का सवाल है निराला ने तो आज़ादी को लेकर जिस उद्दात के साथ लिखा वह साम्राज्यवाद से जूझते किसी भी देश के लिए न सिर्फ सांसकृतिक गौरव बल्कि राष्ट्रीय सम्मान की भी बात थीयहाँ यह समझना जरुरी है कि नयी कविता से पहले कविता में तात्कालिक सचाइयों को व्यक्त करने का अपना अंदाज़ था उसको नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिएहम यह न भूले कि आज़ादी की आकांक्षा व्यक्त करने वाली सैकड़ों कवितायेँ निराला ने लिखी विभाजन पर नहीं लिखा तो किस हिंदी कवि ने विभाजन पर गंभीरता से उस दौर में लिखा सिर्फ निराला ही क्यों? और सिर्फ विभाजन ही क्यों? तेलंगाना, तेभागा, नाविक विद्रोह पर भी हिंदी में कवितायेँ नज़र नहीं आती उर्दू में तो नज़र आती हैं मखदूम लिख रहे थे मजाज़ लिख रहे थे हिंदी कविता की अपनी प्रकृति थी निराला ने उसे बदला था निराला के बाद भी कविता बदलती है 
  
मृत्युंजय नब्बे दशक यानि सदी के आखिरी दशक की कविता पर बात करना चाहते हैं वे इसका मुल्यांकन करने का प्रयत्न करते है कि यह जो कविता की भूमि का विस्तार इस दौर में होता है वह क्या कविता की भावभूमि को परिवर्तित करता है या उसे ही दोहराता है और विस्तार देता है आठवें दशक की कविता की भावभूमि को नब्बे के दशक की कविता की भावभूमि के समक्ष रखकर देखने का प्रयत्न मृत्युंजय करते हैं वे इस संदर्भ में कविता में नब्बे दशक में आये कुछ विशिष्ट दुखों की चर्चा काव्य प्रविधि के रूप में करते हैंवे यह भी बताते हैं कि नब्बे दशक के कवि लोक की नई जमीन तैयार करते हैं साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कविता नये तरह से आकार लेती है इससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि एक नई काव्य पीढ़ी कविता में सामने आती है. बकौल मृत्युंजय देवीप्रसाद मिश्र, कुमार अम्बुज, पंकज चतुर्वेदी, अष्टभुजा शुक्ल आदि के रूप में नई पीढ़ी देखने को हमे मिलती हैपरन्तु क्या इतने से ही काव्य परिदृश्य बदल जाता है मृत्युंजय शुरुआत में यह तो स्वीकार करते हैं कि पीढ़ीबदलते बदलते, कविता कई कई बार बदल जा रही है। एक पीढ़ी के कवियों की एक दशक में लिखी हुई कविताओं का सुर उन्हीं कवियों की अगले दशक में लिखी गयी कविताओं के सुर  से भिन्न है। यह दशकभी देखने का कोई कोई पुख्ता तरीका नहीं, पर जैसा कि हर तकसीम के पहले तर्क दिया जाता है, यह सुविधा के लिए हैयानि संदेह स्वयम मृत्युंजय को भी है. वे अंत तक यह स्पष्ट नही कर पाते हैं कि यह पीढ़ियों का बदलना है कि काव्य परिदृश्य का वे इस बदलाव को आठवे दशक का विस्तार भी नहीं मानना चाहते हैं लेकिन वे जिस बदलाव की ओर इंगित करते हैं वैसा बदलाव तो आठवें दशक के कई कवियों के दूसरे संग्रह में भी देखा जा सकता है लोक की भावभूमि पर तो अरुण कमल भी खड़े हैलेकिन वे जानते हैं कि लोक के रास्ते में रूमानियत के कांटे बिछे है, अरुण कमल की कविता रूमानियत का पूर्णतः निषेध तो नहीं करती, लेकिन वह लोक को रूमानियत में बदलती भी नही वह रूमानियत की जमीन पर खड़े हो कर लोक से संवाद स्थापित नहीं करती भौजी के लिए उपजी करुणा बउआ के लिए चिंता में रूपांतरित होती है ऐसा अगर बद्रीनारायण, निलय उपाध्याय या बोधिसत्व की कविता में नहीं होता तो यह कविता का आगे बढ़ना हुआ या पीछे हटना? महज़ अलगाव को चिन्हित करने से, पीढ़ियों के अंतर दिखाने से, कविता की भावभूमि बदल ही जाये यह जरुरी तो नहीं काबिले गौर यह भी है कि जिन भिन्ताओं की चर्चा मृत्युंजय अनाकनेक प्रसंगों में करते हैं, वह आठवें दशक की अनेकानेक प्रवृतियों का विस्तार ही है क्योंकि जिन संदर्भों को मृत्युंजय नब्बे दशक के कवियों में देखते हैं वह आठवें दशक के कई कवियों के दूसरे तीसरे संग्रह में भी नज़र आता हैमृत्युंजय उद्धरण सिर्फ नब्बे के दशक के कवियों का देते हैं, ताकि ऐसा प्रतीत हो की यह सब कुछ इन्ही कवियों की विशेषता हैमैं यहाँ इस संदर्भ में आठवे दशक के कवि  नरेंद्र जैन के संग्रह उदाहरण के लिए से दो उद्धरण सामने रखना चाहूँगा 

बहुत कम चीज़ों ने नहीं बदला अपना स्वभाव

उदाहरण के लिए नमक और पानी

जबकि रंग इतने धूमिल हो चुके हैं

कि सफ़ेद काले में और

काला  सफ़ेद में तब्दील हो चुका है (उदाहरण के लिए)

xx xx

यातना बढती है

तब जले हुए कमरे में रखे हारमोनियम से

फूटती है एक उदास धुन (विलाप)
स्पष्ट है कि जिन अलगावों की चर्चा मृत्युंजय करते हैं नब्बे दशक के सन्दर्भ में वे अलगाव से अधिक विस्तार प्रतीत होते हैं दूसरे यह कि मैंने यहाँ जानबूझकर आठवे दशक के कवियों के उद्धरण दिए हैं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि जिस बदलाव / विस्तार की चर्चा मृत्युंजय करते हैं वह एक स्वाभाविक विस्तार ही था उससे किसी नई काव्य परिपाटी का विकास नहीं होता यहाँ  मैं यह पूछना चाहूँगा की जिस तरह का बदलाव कविता के स्तर पर धूमिल, कुमार विकल, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विजेंद्र, वेणुगोपाल आदि के मुकाबले आठवे दशक के कवियों में आता है क्या उसी तरह का गुणात्मक परिवर्तन नब्बे के कवियों में आठवें दशक के मुकाबले नज़र आता है? अगर ऐसा था तो क्या नब्बे दशक के कवियों ने उसे सैद्धांतिक रूप में विकसित करने की अनिवार्यता महसूस की? क्या वह महज़ शिल्पगत या तात्कालिक राजनीतिक विषयगत परिवर्तन हैं नब्बे के कवियों का अपनी पिछली पीढ़ी से किस तरह का आलोचनात्मक संवाद रहा? किन सन्दर्भों में वे आठवें दशक से असहमति दर्ज करते हैं ? अगर किसी नई पीढ़ी के उद्भव को एक नई काव्य परिघटना के रूप में हम रेखांकित करते हैं तो, मुझे लगता है कि इन प्रश्नों के जवाब हमे देने चाहिए अगर हम पिछले सत्तर वर्षों की हिंदी कविता पर नज़र डाले तो यह देखना कठिन न होगा कि जब भी कोई नई पीढ़ी आकर लेती है और नई काव्य परिपाटी को विकसित करती है तो वह अपने ठीक पहले की पीढ़ी के साथ एक आलोचनात्मक सम्बन्ध निर्मित करती हैवह पुरानी परिपाटी को ख़ारिज कर ही नई परिपाटी विकसित करती हैप्रगतिवाद के विरोध में प्रयोगवाद की अवधारणा को रखने के लिए तार सप्तक का प्रकाशन हुआप्रयोगवाद से नई कविता के संक्रमण और स्वतंत्र विकास के क्रम को स्पष्ट करने के लिए मुक्तिबोधनई कविता के आत्म संघर्ष की चर्चा करते हैं विजयदेव नारायण साही लघुमानव की अवधारणाको प्रस्तुत करते हैं नई कविता की रूढ़ी के विरुद्ध अकविता का प्रकाशन  होता है और साथ ही श्याम परमार अकविता की अवधारणा की विस्तृत व्यख्या के क्रम में अकविता और कला संदर्भ के माध्यम से अकविता की वैचारिकी को सामने लाते हैं अकविता की अंध अराजकता के विरोध में समकालीन कविता की अवधारणा के क्रम में कुमारेन्द्र काव्य भाषा का वामपक्ष के माध्ययम से हस्तक्षेप करते हैं. आठवें दशक की अवधारणा को विश्लेषित करने के लिए राजेश जोशी एक कवि की नोटबुक तो विजय कुमार कविता की संगत और साठोत्तरी कविता एवं परिवर्तित दिशाएं प्रस्तुत करते हैं अरुण कमल कविता -समय के माध्यम से सत्तर के दशक के कवियों विशेषकर रघुवीर सहाय एवं कुमार विकल का पुनर्मुल्यांकन करते हैंमैं यहाँ इन उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि इन दस्तावेजों के मूल में उस दौर की नई काव्य परिपाटी के दबाव को महसूस किया जा सकता है  नब्बे के दशक में ऐसा नहीं होता यहाँ यह भी पूछा जा सकता है कि नब्बे के दशक के किन कवियों ने आठवें दशक की अपर्याप्तता को चिन्हित करने का प्रयत्न किया? इस तरह के किसी बिंदु की चर्चा मृत्युंजय नहीं करते है 
विवेक निराला ने मृत्युंजय पर प्रश्न उठाये हैं उनकी प्रश्नाकुलता का कारण यह है कि मृत्युंजय जिस नब्बे दशक की परिघटना को रेखांकित करते हैं उसे लेकर वे बहुत स्पष्ट नहीं हैं वे अलगाव की बात तो करते हैं लेकिन उसके महत्व को दूर तक रेखांकित नहीं करते हैं विवेक निराला का स्पष्ट मानना है कि नब्बे दशक में काव्य परिघटना बदल जाती है कविता की नई परिपाटी विकसित होती है  .मृत्युंजय की तरह विवेक निराला के मन में कोई द्वंद नहीं हैंवे सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन को सीधे-सीधे कविता से जोड़ देते हैंवे लिखते हैं- “सोवियत संघ का विघटन और बाबरी मस्जिद का ध्वंस 90′ के दशक के अधिकांश कवियों के महास्वप्न का ध्वंस था। कवियों की पृथ्वी उनकी पूर्ववर्ती पीढ़ी की पृथ्वी नहीं रह गयी थी” ये घटनाएँ महास्वप्न या यूटोपिया के खात्मे की बात तो तो थी लकिन क्या ये इतनी जल्दी और इतनी तीव्रता से ये कविता को  भी बदल देते हैं? ऐसा प्रतीत होता है जैसे कवियों को इन घटनाओं का पूर्वाभास था और इसलिए उनकी तैयारी पूरी थी उदासी और साम्प्रदायिकता विरोध नब्बे की काव्य परिघटना नहीं थीउदासी के समाजशास्त्र के मूल में सोवियत विघटन की बजाय मध्यवर्गीय असहायता बोध की भूमिका अधिक थी और वह कविता में पहले से ही मौजूद थी इस उदासी के मूल में इमरजेंसी के माध्ययम से लोकतंत्र पर हमला और परिणामस्वरूप  मध्यवर्ग के भीतर एक डर की व्याप्ति से इंकार करना कठिन होगाआठवे दशक के कवियों ने सत्तर की बहुत सारी राजनीतिक कविताओं को इसलिए ख़ारिज कर दिया था क्योंकि उनके अनुसार वह कृत्रिम उत्साह और छद्म क्रियाशीलता को दर्शाती थी विवेक निराला नब्बे की उदासी को एक नई परिघटना के रूप में चिन्हित करते हैं लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि यह उदासी आठवें दशक की उदासी से किस तरह भिन्न थीक्या उदासी की परिघटना या फेनोमेना कविता में पहले से मौजूद नहीं थी? क्या इसका अर्थ यह निकला कि नब्बे के कवियों ने पहले से आ रही काव्य परिघटना को ही विस्तृत किया? यह बात तब और भी स्पष्ट हो जाती है जब स्वयं विवेक निराला इसे समझाने के लिए आठवें दशक के कवियों के उदाहरण पेश करते हैंजहाँ तक  बाबरी मस्जिद ध्वंस से साम्प्रदायिकता विरोध की बात है तो यह कोई सांस्कृतिक परिघटना बन जाती है ऐसा मुझे नहीं लगताराजेश जोशी की कई कविताओं में ,नरेंद्र जैन की कविताओं में यह आठवे दशक के इर्द गिर्द नज़र आने लगता है .निश्चित रूप से बाबरी मस्जिद विध्वंस ने कवियों को प्रभावित किया और कविता इससे प्रभावित भी हुयी. लेकिन वह किसी फेनोमेना के रूप में कविता में उभरती है ऐसा नहीं लगता . गुजरात 2002की घटनाओं से आहत होकर भी कवितायेँ लिखी गयी लेकिन इसे परिघटना नहीं कहा जा सकता 
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मुझे लगता है इस पूरी बहस का उद्देश्य  नब्बे को एक नई परिघटना के रूप में चिन्हित करना है विवेक निराला के लिए इसमें कोई दुविधा नहीं है, मृत्युंजय भी कुछ अगर मगर के साथ अन्तत: इसे विमर्शों के स्तर पर ले जाकर स्वीकार कर लेते हैं –नब्बे के दशक में स्त्री और दलित अस्मिता को कई मजबूत स्वर मिले। कई कवियों के पहलेदूसरे संग्रहों में दलितक्षेत्र और स्त्रीक्षेत्र का विस्तार दिखता है। यहाँ एक बात और गौर करने की है। सिर्फ पुरुष और गैरदलित कवियों के काव्यजगत में ही नहीं, स्त्रियों और दलितों की कविता की अलहदा दुनिया भी कविता के इलाके में वजूद में आ चुकी थी। इसके चलते कविता का लोकतंत्रीकरण हुआ। स्त्री और दलित समुदाय के दुखों को दर्ज करने की परम्परा हिन्दी कविता में रही आयी है, पर इस दशक की कविताओं में नई और खास बात है परकाया प्रवेश की कोशिश।
 
यहाँ भी मृत्युंजय के निशाने पर दूसरे कवि हैं इसलिए वे न तो किसी दलित कवि का जिक्र करते हैं और न ही किसी स्त्री कवि को इसका श्रेय देते हैं लेकिन इस खुबसूरत मोड़ या हैप्पी एंडिंग पर मृत्युंजय अन्तत : नब्बे की कविता को लाकर रखते हैं यहाँ मुझे हिंदी की इधर की कुछ (तथाकथित) लम्बी कहानियों की याद आ जाती हैं जिसमे एक संतुलन निर्मित करने के लिए स्त्री या दलित पात्रों को जोड़ दिया जाता है हालाँकि कहानी के मूल कथ्य से उनका बहुत जुड़ाव नहीं होताआखिर मृत्युंजय स्त्री और दलित विमर्श को आखिर में ही क्यों जगह देते हैं? क्या वे भी किसी किस्म के संतुलन को निर्मित करते हैं? बहरहाल मुझे लगता है कि बहस की दिशा यूँ भी हो सकती थी कि अगर नब्बे के बाद कविता मूलरूप से बहुत परिवर्तित नहीं होती या कविता में लगातार दुहराव नज़र आता है तो इसके मूल में कौन से कारक हो सकते हैं? नब्बे के बाद जो समय और समाज में परिवर्तन आता है उसने कविता के समक्ष कौन सी चुनौतियाँ प्रस्तुत की? इन चुनौतियों से नब्बे के कवि किस तरह टकराते हैं? नब्बे ही क्यों बल्कि नब्बे से लेकर वर्तमान तक के कवि मुझे लगता है कि यह बहस हर हाल में नब्बे से शुरू होकर आज की कविता तक आयेगी ही, क्योंकि नब्बे के बाद से देश-काल किन्ही खास दिशाओं में लगातार गतिशील रहा है और ऐसी स्थिति में न सिर्फ  कवि के लिए कविता पर सोचने समझने वाले हर सचेत व्यक्ति को इन खास दिशाओं का कविता पर पड़ने वाले असर पर बात करनी ही होगी यह दिलचस्प है कि न तो मृत्युंजय और न ही विवेक निराला कविता पर आसन्न संकट की कोई बात करते हैं संभव है उनके लेखे कविता का यह सुखद काल हो परन्तु मैं ऐसा नहीं मानता और ऐसा न मानने के पीछे कुछ बिन्दुओं की चर्चा मैं संक्षेप में करना चाहूँगा
 
वागर्थ में जो पिछले दिनों बहस चली उसमे नब्बे की कविता के लिए नाइंटीज की अवधारणा रखी गयी कभी एडोर्नो नें लॉन्ग नाइनटीन्थ सेंचुरी की अवधारणा रखी थी और प्रबोधन की प्रक्रिया से उसे जोड़ा थाहालाँकि यहाँ उसके विस्तार में मैं नहीं जाऊंगा, लेकिन मैं यहाँ इतना जरुर कहूँगा कि फूको नें प्रबोधन को ज्ञानवाद और तार्किकता के युग के रूप में चिन्हित किया था. यह भी कोई नई बात नहीं थी लेकिन फूको इसे आगे बढ़ाते हुए, ज्ञानवाद और तार्किकता को ज्ञान के वर्चस्व एवं बुद्धिवाद की प्रवृति के हावी होने के रूप में चिन्हित करते हैं मैं यहाँ फूको की इस बात को रखते हुए पूछना चाहूँगा कि क्या लॉन्ग नाइनटीज को कविता में हम बुद्धिवाद और तार्किकता के वर्चस्व के रूप में देखना चाहेंगे? क्या यह एक ऐसा कविता युग है जिसमे कविता की संवेदनात्मकता को दरकिनार कर बुद्धिवाद को स्थापित किया गया है मुझे लगता है कि निश्चित रूप से कविता में ज्ञानवाद और तार्किकता का वर्चस्व तो इधर बढ़ा है और यह कविता के लिए बहुत सुखद स्थिति नहीं हैं याद करें  कि मुक्तिबोध ने ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की बात की थी वे ज्ञान के संवेदनात्मक रूपांतरण की बात करते हैंमुझे लगता है ज्ञान के वर्चस्वाद  का नकार इसमें निहित है मुक्तिबोध से यह महत्वपूर्ण बात हम सीखते हैंनब्बे के बाद की कविता में ज्ञान का वर्चस्वाद बढ़ता है कविता की संवेदनात्मकता पर ज्ञान का वर्चस्व हावी होने लगता है तीस के दशक में वाल्टर बेंजामिन ने एक लेख लिखा था –The Work of Art in the Age of Mechanical Reproduction. ध्यान दें कि बेजमीन जब ऐसा कह रहे थे तो वे न तो प्रथम विश्वयुद्ध की त्रासदी को दरकिनार कर रहे थे और न ही दूसरे विश्वयुद्ध की संभावना को नकार रहे थे, लेकिन वे ज्ञानोदय के परिणाम स्वरुप ज्ञान के उत्पादन के यांत्रिक उत्पादन के रूप में बदलने की प्रक्रिया को चिन्हित कर रहे थे, यानि बीसवीं सदी की कला के संकट को समझने के लिए वे उन्नीसवीं सदी तक जाते हैं यहाँ मैं STRUCTURE औरSUPER STRUCTURE वाली बहस में नहीं पड़ना चाहूँगा लेकिन यह जरुर कहना चाहूँगा कि कला में जो परिवर्तन होते हैं वह एकदम पास की राजनैतिक और सामाजिक प्रक्रिया का मुलभुत परिणाम नहीं होते हैं हालाँकि इस बात की चर्चा  मृत्युंजय भी करते है लेकिन वे इसपर अमल नहीं करते इस सन्दर्भ में देखे तो मूझे लगता है कि जिस तरह वागर्थ में चली बहस और विवेक निराला नें सोवियत विघटन को नब्बे की कविता की केंद्रीय प्रवृति के रूप में रेखांकित करने का प्रयास किया है असल में ऐसा नही है इसके बनिस्बत अगर हम  इस कविता के रूप रंग छवियाँ और मुद्राओं एवं आशयों को संचार क्रांति के सन्दर्भ में देखने की कोशिश करे तो स्थिति अधिक स्पष्ट होगी संचार क्रांति ने जिस तरह हमारे मन मस्तिस्क पर गूगल और विकिपीडिया का साम्राज्य स्थापित किया है, जिस तरह ज्ञान का वर्चस्व स्थापित किया है उसने एक हद तक हमारी काव्यात्मक संवेदना को कुंद कर दिया एक ही केंद्रीय प्रवृति के होते हुए भी कई तरह की प्रवृतियाँ मौजूद रहती हैंकविता में उनका सतत संघर्ष चलता रहता है यहाँ मेरा मानना बस इतना है कि पिछले तकरीबन दो दशक की कविता पर संचार क्रांति का प्रभाव हावी होता गया बुद्धिवाद ने धीरे धीरे कविता को अपनी जद में ले लिया मै सिर्फ इतना कहना चाह रहा हूँ कि इधर की जो कविता है उसकी केंद्रीय प्रवृति के रूप में बुद्धिवाद को हमे देखना होगा जो कि स्पष्ट रूप से संचार क्रांति का परिणाम थी
आठवें दशक तक कविता तीन रूपों में हमारे सामने आती है या तो वह संग्रह के रूप में, ध्यान दें तो हमारे अधिकांश बड़े कवि (आठवें दशक के कवि) अपने पहले संग्रहों से ही चर्चा के केंद्र में आ गये हालाँकि इनमे से कई अपने दूसरे संग्रह में इसे दुहरा नहीं सकेकविता के प्रसार का दूसरा रूप अख़बार और पत्रिकाएं थी और तीसरा माध्यम थी गोष्ठियां मुख्यतः यही तीन माध्यम थे कविता के प्रसार केलेकिन नब्बे के बाद हमारे यहाँ इन्टरनेट की शुरुआत होने लगी 2000 के बाद के प्रकाशन में इसकी भूमिका अहम् होने लगी इन्टरनेट यूजर्स कविता के पाठक होने लगे यहाँ मैं एक चीज़ की तरफ और ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा कि 2000 के बाद से यानि इन्टरनेट के व्यापक प्रसार के बाद से कविता के लिए अख़बारों में स्थान की कमी नज़र आने लगी बड़े पैमाने पर कविता या कहानी के स्थान पर समीक्षाएं प्रकाशित होने लगी इसका एक फायदा यह हुआ कि अख़बारों के साहित्य सम्पादक की हैसियत थोड़ी बढ़ी लेकिन परिणाम यह हुआ कि लेखक और कवि अपनी रचना पढने पढवाने के स्थान पर समीक्षा छपवा कर गौरवान्वित महसूस करने लगे यह इन्टरनेट के माध्यम के रूप में इस्तेमाल के परिणामस्वरूप पारम्परिक काव्य प्रसार की राह में आया पहला रोड़ा थायह कविता के लिहाज़ से बहुत बुरा हुआ आज कविता के उत्पाद का सेवन करने वाला वर्ग बहुत हद तक इन्टरनेट यूजर्स है इसने बहुत हद तक कविता के मिजाज़ को बदल दिया है यानि कविता लिखे जाने के साथ-साथ प्रसारित हो रही है पढ़ी जा रही है और उस पर राय व्यक्त की जा रही है लिखने की प्रक्रिया, प्रसारित होने की प्रक्रिया, पढ़े जाने की प्रक्रिया और उस पर राय व्यक्त की जाने की प्रक्रिया के बीच तमाम अन्तराल नष्ट हो चुके हैं इन तमाम अंतरालों के नष्ट होने ने कविता को एक फ़ास्ट फ़ूड में तब्दील कर दिया है इस सबका परिणाम यह हुआ कि कविता पर पूर्वनिर्मित छवियों का एक आतंक सा है चूँकि उपरोक्त अंतराल नष्ट हो चुके हैं इसलिए कविता में समय की फांक को देखना बहुत कठिन हो गया है
कविता में अंतरालों के नष्ट होने ने बहुत हद तक हमारी काव्य चेतना को कृत्रिम बना दिया है कविता का बहुत बड़ा हिस्सा यांत्रिक पुनरुत्पादन की प्रक्रिया का अंग बन गया तो क्या यह कहना प्रासंगिक होगा कि यह जो नब्बे के बाद की कविता है, यानि संचार क्रांति युग की कविता है वह बहुत हद तक आठवें दशक की कविता का पुनरुत्पादन है, जहाँ एक ओर आठवें दशक की कविता का प्रारूप है तो दूसरी तरफ ज्ञान और तर्कवाद का वर्चस्व?
कवि जब शून्य में टकटकी लगाये देखता था तो दरहसल वह प्रकृति के साथ हो लेता थाएकांत की खिड़की प्रकृति की ओर खुलती थी दुर्भाग्य से अब window 8 की तरफ खुलती है संचार क्रांति ने सबसे बड़ा हमला हमारे इसी एकांत पर किया हैअडोर्नो जिस फुर्सत के क्षणों के नष्ट होने की बात कल्चर इंडस्ट्री में करते हैं वह एक बेहद गंभीर मसला हैफुर्सत के क्षणों के नष्ट होने ने हमारी चेतना में एक ऑर्गेनिक परिवर्तन ला दिया है हमारी संवेदना रूपांतरित हुई हैइस बात को आज समझना कठिन नहीं कि इस अर्थ में पूंजीवाद ने कला के लिए कितना बड़ा संकट ला खड़ा किया है  क्योंकि कला ही मनुष्यता की एकमात्र ऐसी शरणस्थली है जो पूंजीवाद के लिए सबसे बड़े प्रतिरोध का सृजन करती हैमैं यहाँ जोर देकर कहना चाहूँगा कि संचार क्रांति के माध्ययम से पूंजीवाद का पुनर्जागरण होता है यह पुनर्जागरण कला के विरोध में खड़ा होता है क्योंकि यह सृजन की परम्परा को नष्ट करता  है मनुष्य के जीवन से एकांत का गायब  होना एक बेहद गंभीर मसला हैयहाँ कलाओं के अस्तित्व का सवाल है
क्या हम फ़िलहाल ऐसी कविता लिख रहें हैं जिससे हम अपने युग को पहचान सके फिर ऐसा क्यों हैं कि इस कविता को पढते हुए कभी विष्णु खरे, कभी मंगलेश डबराल, कभी राजेश जोशी, कभी अरूण कमल याद आते हैं मैं यहाँ यह नहीं कहना चाह रहा हूँ कि सर्वस्व ऐसा ही हैमैं सिर्फ मूल अंतर्विरोध की तरफ ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा हूँइन्टरनेट के इस युग ने काव्य सृजन को भले एक उत्सव में बदल दिया होकाव्य सृजन की प्रक्रिया में भले ही तमाम अंतरालों को नष्ट कर दिया गया हो बुद्धिवाद ने भले ही कविता पर अपने दावे और घेरे को मजबूत किया हो लेकिन कविता में इस लहर के विरोधी स्वर भी सुनाई दिए हैपिछले दिनों जहाँ आठवें दशक के अधिकांश कवि जहाँ अपनी बनाई सीमाओं से नहीं उबर पा रहे हैं और विभिन्न संग्रहों के रूप में यांत्रिक पुनरुत्पादन की प्रक्रिया पर जोर दे रहे हैं वहीँ कुछ महत्वपूर्ण संग्रह भी हमें देखने को मिले है मुझे लगता है नए कवियों में भी कई कवि उपरोक्त संकट से वाकिफ है और वे ऐसी कविता लिखने की कोशिश में हैं जिसमें हमारे समय की वास्तविक आहट, अनुगूँज मौजूद हो साहित्य या कला के संदर्भ में कही गयी कोई बात अंतिम नहीं होती है, उसमें लगातार बदलाव, परिवर्तन की गुंजाईश होती है, होनी चाहिए नब्बे के बाद की कविता पर एक बहस चल पड़ी है कुछ लोग इस हड़बड़ी में है कि इसके साथ ही पीढ़ियों की घोषणा हो जायेलेकिन यह न तो कविता के मुल्यांकन का सही तरीका होगा और न ही इससे आज की कविता की ठीक-ठीक पहचान हो सकेगी, क्योंकि भविष्य का रास्ता तो वर्तमान से ही निकलेगावाल्टर बेंजामिन लिखते हैं –“वर्तमान के ऐतिहासिक संघर्ष के परिणाम से अतीत भी प्रभावित होता हैसमाज और साहित्य के इतिहास में वर्तमान का विचारधारात्मक संघर्ष वर्तमान और भविष्य के लिए ही नहीं होता, वह अतीत के लिए भी होता है” इसलिए यह जो बहस है वह महज़ वर्तमान के लिए नहीं है वह अतीत के लिए भी है नब्बे के बाद की कविता पर यह बहस भविष्य में एक गंभीर विचारधारात्मक संघर्ष का रुख अख्तियार करेगी क्योंकि वर्तमान कविता के गतिरोध का प्रश्न इससे जुड़ता है यह जो कठिन समय है वह हमसे गम्भीर मगर इमानदार विश्लेषण की मांग तो करता ही है
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रविशंकर उपाध्याय के लिए श्रद्धांजलिस्वरूप अच्युतानन्द मिश्र की दो कविताएँ

युवा कवि साथी रविशंकर हमारे बीच नहीं हैं, (हमारे लिए सबसे पहले हमारे अनुज.) ये मानने को आज भी मन नहीं कर रहा. ऐसा लग रहा है कि हमेशा की तरह रविशंकर की विनम्र आवाज मेरे मोबाईल पर सुनाई पड़ेगी. वह आवाज जो आज लगातार दुर्लभ होती जा रही है. लेकिन मानने-न मानने का नियति से कोई सम्बन्ध नहीं. हकीकत तो यही है कि हमारा यह अनुज जिसने अपनी मौत से दो दिन पहले अपना शोध-प्रबंध जमा किया था और एक दिन पहले मुझे आश्वस्त किया था ‘पहली बार’ के लिए कविताएँ भेजने के लिए, हमसे बहुत दूर चला गया है. उस दूरी पर जिसे हम पार नहीं कर सकते. आज भी मन बोझिल है. हम यहाँ श्रद्धांजलिस्वरुप भाई अच्युतानन्द मिश्र की हालिया लिखित कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ जो रविशंकर उपाध्याय को ही समर्पित हैं.      
अच्युतानन्द मिश्र
यह दिल्लगी का वक्त नहीं

(रविशंकर की स्मृति के लिए)

तुम्हारी चुप्पी

मेरे भीतर के पत्थर को

पिघला रही है ऐसी भी क्या निराशा

कि चुप्पी के भीतर की चुप्पी

अख्तियार कर ली जाये 

अभी तो दिल्ली का मौसम बदलना है

अभी तो खिलने हैं उन टहनियों पर भी फूल

जिनके कांटे देख कर

बिफर गये थे तुम

और शब्दों के सौदागरों की

मरम्मत का वह रोचक

किस्सा भी सुनाना था तुम्हें

कमबख्त मिस- काल मिस -काल ही

खेलते रह गये तुम

मैं जनता हूँ अभी बजेगी

मेरे फोन की घंटी

फोन के चेहरे पर उभरेगा

एक लम्बा नाम

और मेरे हलो कहते ही तुम कहोगे

और बताइये भैय्या

क्या चल रहा है दिल्ली में 

जानते हो एक दिन मैं

कहने वाला था तुम्हें

क्या मैं कोई खबरनवीस हूँ

या दरबारीलाल कि देता रहूँ

तुम्हे सूचना

लेकिन भाई

यह कहा तो नहीं था मैंने तुमसे

और बगैर कहे तुम नाराज़ हो गये

सुनो,

कुछ योजनायें है

मेरे दिमाग में चक्कर लगाती हुई 

यह जो दिल्ली है

यह उतनी दुश्वार भी नही

और तुम जानते ही हो

बार बार बसती और उजडती रही है

तुम आओ फिर बनायेंगे

अपनी दिल्ली

हाँ! वह वादा भी करना है पूरा

अगले बनारस के आयोजन के लिए

इधर कई दिनों से बज नही रही है

मेरे फोन की घंटी

कई आशंकाओं ने

घेर लिया है मुझे

वैसे तुम नही भी आओगे

तो कुछ नहीं होगा

किस कमबख्त के रुकने से

रूकती है दुनिया

जाने क्यों पिछले दिनों

मैं गुनगुनाता रहा

उसी बनारसी की पंक्तियाँ

“हम न मरिहै

मरिहै सब संसारा”

लेकिन अब तुम्हे लौट आना चाहिए

यह समय ठीक नहीं है और

न ही यह दिल्लगी का वक्त है .


दिमाग को रखना काबू में

प्रिय भाई, रविशंकर

इधर कई दिनों से बात नही हुई 

बेवजह ही उचटा रहा मन

मौसम भी किस कदर

बदल गया है इन दिनों

पहले तो दिल्ली की ही हवा खिलाफ थी

लेकिन इधर तो बनारस की मार भी बहुत है

भाई होशियारी से रहना

कई बार मुश्किल हो जाता है

मौसम की मार से बचना

सर्दी जुकाम से बचे रहना

और दिमाग को रखना काबू में

इन दिनों अक्सर

वही धोखा दे जाता है

सम्पर्क-

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यह कविता का नहीं कवियों का समय है

आजकल एक महत्त्वपूर्ण बात पर लगातार बात होती है कि कविता लगातार पाठकों से दूर क्यों होती जा रही है। क्या यह आज की कविता इस नाते पाठकों का वह सम्मान हासिल नहीं कर पा रही कि वह अपने को आज के समय से नहीं जोड़ पा रही। कई एक ऐसे ही महत्वपूर्ण सवालों पर समकालीनता के हवाले से गंभीर विमर्श किया है हमारे युवा कवि मित्र अच्युतानन्द मिश्र ने अपने इस आलेख ‘यह कविता नहीं कवियों का समय है’ में। तो आईए पढ़ते हैं यह आलेख।    

(समकालीन हिंदी कविता की प्रवृतियों पर कुछ बेतरतीब नोट्स)

अच्युतानंद मिश्र

पाठवादी आलोचना का एक बड़ा संकट यह है कि वह साहित्य को विभिन्न इकाइयों के स्वतंत्र संयोजन  के रूप में देखने और व्याख्यायित करने का प्रयत्न करती है। ऐसे में साहित्य कला –कौशल की आवृति बन कर रह जाती है।

जाहिर तौर पर ऐसा साहित्य की तमाम विधाओं के साथ हुआ है परन्तु यहाँ पर मैं विशेष रूप से पिछले तीन दशक की हिंदी कविता पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहूँगा। अर्थात उन्नीस सौ अस्सी के बाद की हिंदी कविता। ऐसा इसलिए कि पाठवादी आलोचना के अनुरूप हिंदी कविता ने पिछले तीस वर्षों में अपने स्वरूप में गुणात्मक परिवर्तन कर लिया है। परिवर्तन  का अर्थ यहाँ कविता से जुड़े विभिन् तत्वों से हैं जिन पर स्वंतत्र चर्चा के रूप में इधर काव्य चिंतन एवं आलोचना की परिपाटी विकसित हुई है।

कविता को परस्पर स्वतंत्र इकायों के समुच्चय के रूप में देखने का आग्रह इधर बढा है। मसलन आज कविता में स्वतंत्र रूप से भाषा, शिल्प और अंतर्वस्तु पर बात की जा रही है।. भाषिक संवेदना इधर एक स्वतंत्र इकाई के रूप में विकसित हुई है। अस्सी के बाद की कविता को अगर हम देखें तो यह देखना कठिन न होगा कि वह एक ऐसी कविता है जो आलोचना के औजारों के तहत निर्मित हुई है। लेकिन आलोचना के ये औज़ार किसी सुसंगत वैचारिक प्रक्रिया के तहत विकसित नहीं हुए हैं अपितु इनके पीछे स्पष्ट व्यवसायिक दवाब हैं। अस्सी के बाद न सिर्फ लघु पत्रिका आन्दोलन समाप्त हो जाता है बल्कि व्यवसायिक पत्रिका का एक नया युग शुरू होता है। कहना न होगा कि हमारी कविता ने व्यवसायिक पत्रिका को बहुत हद तक चुनौती नहीं दी। साथ ही यह भी जोड़ते चलें कि एक हद तक व्यवसायिक पत्रिका को विकसित करने में कविता की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस संदर्भ में यह भी दिलचस्प है कि अस्सी के बाद की कविता के संदर्भ में अक्सर यह सुनने एवं पढने को मिलता है कि इसकी मूल संवेदना बाज़ार विरोध की है। लेकिन बाज़ार विरोध की इस कविता का युग व्यवसायिक पत्रिका के विकास से कैसे जुड़ता है समझना कठिन है।

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उत्सवधर्मिता और ओढ़ी हुई गंभीरता दोनों इधर कि कविता के मूल चरित्र के तौर पर उभरे हैं। कविता में ये दरअसल दो अलग–अलग से दिखने वाली मुद्राएँ हैं जो प्रकट तौर पर कविता के रूप को प्रभावित करती हैं। कविता में सचेत रूप से अर्जित की गयी जटिलता भी इसी का प्रमाण है। कविता में मुद्राओं और कहन के ढब का प्रश्न कविता की बोधगम्यता से जुड़ा प्रश्न है। कवि जो कहना चाह रहा है उसे अधिक सुसंगत रूप से कहने के लिए, अपने कहे का उचित प्रभाव उत्त्पन्न करने के लिए मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है। लेकिन इन मुद्राओं का महत्व तभी है जब कविता में कहने के लिए स्पष्ट और सुसंगत विचार हो। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो विश्वदृष्टि हो। क्या आज की कविता किसी सुसंगत और स्पष्ट विचार को अभिव्यक्त करती है? अगर वह ऐसा करती है तो उस केंद्रीय विचार और दृष्टिकोण पर बात क्यों नहीं होती। मेरा स्पष्ट मानना है कि इधर के वर्षों में कविता से अधिक हमने कवि पर बात की है, क्या इसकी प्रवृतिगत व्याख्या का कोई प्रयत्न इधर हमे देखने को मिलता है।

कविता में अमूर्तन को इधर बढ़ावा मिला है। क्या किसी संगत दृष्टिकोण के तहत आये अमूर्तन और कविता के शिल्पक्रांत होने की वजह से आये अमूर्तन के बीच हमे फर्क नहीं करना चाहिए। कवि के अस्पष्ट और अमूर्त दृष्टिकोण को मुद्राओं से नहीं ढका जा सकता है। इधर कि कविता में इस अस्पष्टता को स्वीकार करने की बजाय मुद्राओं से ढकने और छिपाने का प्रयत्न अधिक दिखता है। कविता के इतिहास में ऐसे कई दौर रहे हैं जब कविता में एक खास किस्म के अमूर्तन की मांग बढ़ी है लेकिन उस अमूर्तन के पीछे एक निश्चित युग संदर्भ रहा है। आज की कविता में जो अमूर्तन है उसके पीछे युग संदर्भ क्या है? कविता सिर्फ परिदृश्य में मौजूद समय में ही आकार नहीं लेती वह उसका अतिक्रमण भी करती है। समकालीन हिंदी कविता में यथास्थितिवाद के प्रति एक गहरा मोह दिखता है। समय के पार देखने की आकांक्षा एवं आवेग कवि को यथास्थितिवाद को आकर्षक मुहावरे से मुक्त करती है। लेकिन ऐसा न कर सकने की स्थिति में कवि यथास्थितिवाद की गिरफ्त में आ जाता है। अस्सी के बाद की कविता की गतिकी में बहुत परिवर्तन नहीं दिखता है लेकिन इस बीच हमारा समय बहुत तेज़ी से आगे बढ़ गया है। जाहिर सी बात है की जब कवि समय के पार देखने में सक्षम नहीं होंगे तो गतिशील यथार्थ उनसे छूटता जायेगा। अक्सर उसे पकड़ने की असफल  कोशिश में रूप और अंतर्वस्तु की एकात्मकता नष्ट हो जाया करती है। कवि रूप को तकनीक समझ कर यथास्थितिवाद से मुक्त होने की कोशिश करता है और ऐसे में कविता अमूर्त और शिल्पक्रांत हो जाती है। यथार्थ कवि से छूटता जाता है। काव्य की रचना प्रक्रिया में मुक्तिबोध इस तथ्य की और ध्यान आकृष्ट करते हैं उक्त संकट की चर्चा करते हुए वे कहते हैं –

“किन्तु बहुतेरे कवि इन कठिनाइयों के बोध तक, जीवन के इस घुमाव तक, आ ही नहीं पाते। वे आगे के विकास की बजाय, अपने ही आस पास घूमते रहते हैं। फलतः उनके पूर्व की स्थितिस्थापना, यांत्रिक रूप से पुरानी गूंजे प्रकट कराती रहती है। उनके खुद के तैयार किये पुराने शिकंजे-यानि पुराने भाव और उनकी अभिव्यक्ति –उन्हें आगे बढने नहीं देते। ‘कंडीशंड’ साहित्य ‘रिफ्लेक्सेज’ यंत्रवत कवितायेँ तैयार करवाते हैं। मनोवेग यांत्रिक हो जाते हैं, अभिव्यंजक रूप जड़ीभूत हो जाते हैं। कवि अपने बनाये कटघरे में फंस जाता है और एक समय आता है जब कवि कतई  मर जाता है, किन्तु उसका शरीर शतायु रहता है।”  मुक्तिबोध की यह टिप्पणी वर्तमान कविता के संकट को एक हद तक मूर्त कर देती है।

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क्या कविता पर आज कोई बात कविता-समग्र के रूप में करना संभव नहीं है? अमूमन बात इकाइयों में होती है। कविता की विभिन्न इकाइयों भाषा, शिल्प, वस्तुतत्व आदि पर बात होती है। मेरे लेखे यह समझना थोडा कठिन है कि कैसे हम स्वतंत्र रूप से विभिन्न काव्य तत्वों पर बात कर सकते है। भाषा के संदर्भ में कही गयी कोई बात शिल्प या वस्तु के संदर्भ से अछूती रहती है। यहाँ मै यह स्वीकार करना चाहूँगा कि इधर हिंदी कविता में इकाइयों में बात करने की जो यह नयी परिपाटी विकसित हुई है वह महज़ एक आलोचनात्मक सुविधा का मामला भर है। लेकिन अगर बात इतनी ही तो बहुत फर्क नहीं पड़ता। फर्क तो तब पड़ता है जब बात यहाँ से आगे जाती हो और एक बड़े दायरे को प्रभावित करती हो। जब हम कविता को समग्रता में नहीं लेते तो कविता में मौजूद समय–समाज हमारी पकड़ से छूटता जाता है। उत्तर आधुनिकता भले इसे समग्रता और विचारधारा के अंत से जोड़ती हो, लेकिन भारत जैसे समाज में फ़िलहाल किसी किस्म की समग्रता और विचारधारा का अंत नहीं हुआ है। ऐसा महसूस तब होता है जब आप अपने समय और समाज पर दूसरे समय और समाज को आरोपित करने का प्रयत्न करते है। हिंदी कविता में इन दिनों यह सब कुछ बेहद तीव्र गति से सम्पन्न हो रहा है। अगर आज कविता को लेकर इस तरह कि टिप्पणी सुनने को मिलती है कवितायेँ बहुत समझ नहीं आती है या वे पढ़ी नहीं जा रही है तो क्या इसे इस तरह नहीं देखा जाना चाहिए कि कविता में आज अपने वास्तविक समय और समाज का प्रतिबिम्बन कम हो पा रहा है। कविता को महज़ शिल्प और भाषा चिंतन तक सीमित नहीं किया जा सकता। इस तथाकथित उत्तराधुनिक समय में अगर कविता को अब तक तकनीक और प्रबंधन की  शिक्षा में शामिल नहीं किया जा सका है तो हमें कविता की इस शक्ति से वाकिफ होना चाहिए। कविता के समाज और वास्तविक समाज के बीच के संबंध को अव्याख्यायित छोडकर कविता में आगे नहीं बढा जा सकता। चाहे यह बात उत्तर आधुनिकता के विरोध में जाती हो और उनके लेखे यह हास्यस्पद हो मगर इससे कोई भी गंभीर मनुष्य इंकार नहीं कर सकता कि कविता एक सामाजिक कर्म ही है। कविता में सामाजिकता को महज़ मुद्राओं या अभिव्यक्ति चातुर्य तक सीमित नहीं किया जा सकता। अगर यह सच होता तो विद्यापति, तुलसी और कबीर अभी समाज में इस तीव्र आधुनिकता के बीच बचे नहीं रह जाते। सूचना प्रौद्योगिकी के इस वृहत विरोध के बावजूद अगर मिथिलांचल के जनपदों में महिलाएं आज भी विद्यापति को कंठस्थ किये हुए है तो कविता में मौजूद समग्रता को समझा जाना चाहिए। औरतें अगर आज भी अपने दुःख को विद्यापति की इन पंक्तियों से जोड़कर अभिव्यक्त करती हो।

कतेक वेदन मोहि देसी मदना
 या
हमर दुखक नहीं ओर 

तो इस दुःख की गतिकी को औरतों की सामाजिक स्थिति को और कविता की सात सौ वर्ष लम्बी यात्रा को उसी समग्रता और विराटता के संदर्भ में जा सकता है जिसका उत्तर आधुनिकता के अनुसार लोप हो चुका है।

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कविता के संदर्भ में जिस सवाल को इधर गंभीरता से समझने की जरूरत है वह है कि कविता आखिर बनती कैसे है। क्या वह वह शिल्प अंतर्वस्तु और भाषा के स्वतंत्र संयोजन से निर्मित होती है। वह किसे परिलक्षित करती है? वह क्या इंगित करती है? उसमे कौन मौजूद रहता है? आज की कविता के संदर्भ में इन प्रश्नों को बेहद गंभीरता से समझने की जरूरत है।  इस बेहद गतिशील समय में कविता में मौजूद स्थूल समय और समाज की परिकल्पना उसे बड़े सामाजिक यथार्थ के दायरे से बाहर कर देती है। जाहिर है ऐसे में इस समाज बहिष्कृत कविता को बचे रहने के उपक्रम में बार कवियों और आलोचकों के पास लौटना होगा। तो क्या यह मानना सही होगा कि कविता में जो समाज नज़र आता है वह एक कृत्रिम किस्म का समाज है, तो क्या इस कविता की नियति यही है कि पाठकविहीन होकर वह लगातार पुरस्कृत और प्रकाशित हो। अगर लोकतंत्र में कविता विपक्ष की भूमिका निभाती है तो वह जितनी कमजोर और समाज विमुख होगी व्यवस्था उतना अधिक उसका पोषण करेगी।  क्योंकि कमज़ोर कविता और झुका हुआ कवि व्यवस्था के लिये सबसे मुफीद हैं।  इन परिस्थितयों में कविता पर कोई भी बात उस ऐतिहासिक परिस्थितयों को जाने समझे बगैर नहीं की जा सकती है जिसके तहत समकालीन कविता आकार लेती है।


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हिंदी की वर्तमान कविता की मूल संवेदना आठवे दशक की ही संवेदना है। इस अर्थ में आठवें दशक की कविता की प्रवृति को समझना वर्तमान कविता को समझने में बेहद महत्वपूर्ण है। आठवें दशक की कविता ने सत्तर के दशक की कविता को अपदस्थ कर स्वयम को स्थापित किया। यहाँ आठवें दशक को और सत्तर के दशक को शुद्ध गणितीय सन्दर्भ में न समझ कर युग संदर्भ में समझना जरुरी है, अन्यथा हम उसी भ्रम का शिकार हो जायेंगे जहाँ साठोत्तरी कविता के बाद सीधे आठवे दशक की कविता आ जाती है। साठोत्तरी कविता का आन्दोलन साठ के दशक में शुरू होता हैं और उसी दशक में समाप्त भी हो जाता है। साठोत्तरी कविता की मूल चेतना की अभिव्यक्ति अकविता में हुई है। अकविता का आन्दोलन १९६७ के आसपास समाप्त हो जाता है। अकविता के मूल में अस्तित्वाद की निषेधात्मक विचारधारा थी। यह शुद्ध रूप से मध्यवर्गीय कुंठा की अभिव्यक्ति थी लेकिन इसने नयी कविता के बासी पड़ गए पुष्पों को नाली में फेकने में कोताही नहीं बरती। बल्कि यह कहें कि अकविता के मूल में बसी अनास्था उस वैश्विक अनास्था का ही प्रतीक था जिसकी अभिव्यक्ति बड़े पैमाने पर समूचे विश्व में साठ के दशक में हुई। यही वजह है कि प्रकट रूप से अकविता स्वयम को चाहे जिस हद तक राजनीति से दूर रखे एवं हर तरह की राजनीति को मनुष्य के लिए, समाज के लिए, कविता और कला के लिए, घृणा की वस्तु समझे लेकिन यह कविता अपने मूल में राजनीतिक अंतर्वस्तु की अभिव्यक्ति ही थी। मुक्तिप्रसंग को अगर हम अकविता की परिणति माने तो यह देखना कठिन न होगा कि अकविता की अपर्याप्तता एवं अपूर्णता को राजकमल मुक्तिप्रसंग में स्वर देते हैं। दुर्भाग्यवश हिंदी आलोचना ने मुक्तिप्रसंग को अकविता की कविता के रूप में प्रचलित कर रखा है लेकिन मुक्ति प्रसंग जैसी बहुस्तरीय कविता, अकविता और आधुनिकता दोनों से मुक्ति की आकांक्षा को अभिव्यक्त करती है। वह हमारे समय की बड़ी कविता इसलिए बनती है क्योंकि वह संक्रमणकालीन समय को एक राजनीतिक रुख में बदल देती है। वह यथास्थितिवाद से मुक्ति की कविता है।

आठवें दशक की कविता की शरुवात सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों के आसपास होती है .एक तरह से ईमरजेंसी के पश्चात् .जब अशोक वाजपेयी कविता की वापसी का नारा बुलंद करते हैं और जब सत्ता में इंदिरा गाँधी की वापसी होती है .पुछा जाना चाहिए कि यहाँ कविता में किसकी वापसी होती है – नई कविता की? केदारनाथ सिंह की? कुंवरनारायण की?

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वर्तमान दौर की हिंदी कविता मध्यवर्गीय जीवनबोध की कविता है। इस अर्थ में यह प्रगतिशील कविता से भिन्न है। थोडा ठहर कर देखें तो यह देखना कठिन न होगा कि प्रगतिशील कविता मूलतः निम्न वर्ग एवं निम्न मध्यवर्ग की कविता है। अब आप देखें की नागार्जुन की कवितायेँ  खुरदरे पैर, घिन तो नहीं आती है?, प्रेत का बयान, अकाल के बाद, हरिजन गाथा; त्रिलोचन की कविता वही त्रिलोचन है, चीर भरा पजामा, भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल, बिस्तरा है न चारपाई है, नगई महरा  केदारनाथ अग्रवाल की कविता पैतृक संपत्ति, एका का बल, मजदूर का जन्म इत्यादि कवितायेँ निम्न वर्गीय जीवन बोध को प्रस्तुत करती हैं। ये कवितायेँ संघर्ष का सौंदर्यशास्त्र रचती हैं। निराला के अंतिम दौर की कविताओं की अगली कड़ी के रूप में ये कवितायेँ परम्परा को वर्तमान से जोडती हैं।

मुक्तिबोध की कवितायेँ इस जीवनबोध से मध्यवर्ग के अलगाव और इस अलगाव में सत्ता और राजनीति की भूमिका को व्याख्यायित करती चलती हैं। इसलिए यह कहना ज्यादा सार्थक प्रतीत होता है कि मुक्तिबोध मूलतः प्रक्रियाओं के कवि हैं। यही वजह है कि मुक्तिबोध की अधिकांश कवितायेँ असमाप्त प्रतीत होती हैं। हर कविता दूसरी कविता से जुडती है। रामविलास शर्मा ने जहाँ- जहाँ मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया को व्य्ख्यायित किया है वहां वे बेहद सफल हुए हैं लेकिन ज्यों ही वे इस प्रक्रिया में मौजूद अंतर्विरोधों को मुक्तिबोध के व्यक्तिगत अंतर्विरोध मान कर निर्णयात्मक  होने लगते है वहां वे गलत निर्णयों का शिकार होते हैं। यह दिलचस्प है कि रामविलास शर्मा भारतेंदु या रामचन्द्र शुक्ल के संदर्भ में इससे उलट उनकी वैचारिकी को समग्रता में पकड़ने का प्रयत्न करते हैं परन्तु मुक्तिबोध के संदर्भ में अपनी ही स्वीकृत प्रक्रिया का निषेध कर बैठते हैं।

मुक्तिबोध वर्तमान से अधिक भविष्य के कवि हैं।  वे कविता में मध्यवर्ग के जीवन को निम्न वर्गीय जीवन मूल्य से जोड़ना चाहते हैं।

फिर भी, मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूँ
निज से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते की आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस और अपने को ढो नहीं पाता।

यह जद्दोजहद मुक्तिबोध की कविता की केंद्रीय वस्तू है .मुक्तिबोध की कविताओं में जो छटपटाहट, बेचैनी  है, वह वर्तमान में न हो पाने और भविष्य में हो सकने के बीच की आवाजाही के रूप में दर्ज़ होती है।  इसलिए मुक्तिबोध भविष्य की आकांक्षा के कवि हैं। वे वर्तमान को ढोते नहीं है जैसा कि प्रयोगवादी या एक हद तक नयी कविता के कवि करते हैं बल्कि उसकी उदासी को  काल्पनिक –स्वप्न से जोड़ते हैं।

तब एक कल्पना-स्वप्न आता सा
कोई पढता है मेरा लिखा उपन्यास
घबराती बेचैनी में उत्तेजित विचार के
              जी भर आता-सा
कोई उद्दात अस्तित्व साँस लेता है 

परिवर्तन की प्रक्रिया व्यापक होनी चाहिए। निम्न वर्गीय जीवन संघर्ष से मध्यवर्ग को जोड़े बगैर सत्ता और राजनीति को चुनौती नहीं दी जा सकती है। मुक्तिबोध इसी क्रम में मध्यवर्ग के डी-क्लास होने की जटिल प्रक्रिया को काव्य-प्रक्रिया बनाते हैं। यह प्रक्रिया ही उनकी कविता की आत्मा है इसकी अनदेखी कर कविता के मर्म तक पहुंचना असंभव है।  यहाँ तक पहुचने के लिए मुक्तिबोध जीवन में और कविता में, गहरे आत्म-संघर्ष की बात करते हैं। जब हम इस संघर्ष को मुक्तिबोध के निजी जीवन के संघर्ष मात्र की संज्ञा देते है तो उसके मूल्य को हम कम कर देते हैं। वस्तुतः मुक्तिबोध कविता के और जीवन के और समय और समाज के संघर्ष को आत्म-संघर्ष में बदल देते हैं।

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मुक्तिबोध और प्रगतीशील कविता के सन्दर्भ में इस संक्षिप्त विषयांतरण का उद्देश्य महज़ इतना है कि हम यह देख सकें कि वर्तमान कविता कहाँ इनसे जुडती है और कहाँ स्वयम को इनसे अलगाती है। वर्तमान कविता का वर्गगत आधार क्या है ? इधर की हिंदी आलोचना ने कुछ जार्गन्स निर्मित किये हैं और जिसके अधार पर वह किसी कविता को मुक्तिबोध या नागार्जुन से जोड़ देती है।

यह तो स्वीकार करना ही होगा कि इधर की कविता मूलतः मध्वर्गीय मनुष्य की कविता है। तो क्या यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि इस कविता की सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि अपने वर्गीय दायरे को भेद नहीं पा रही है। मसलन कविता में जो भाई, बहन, पिता, माँ, देवर, भौजाई, बच्चा, कुआँ, गेंद इत्यादि आते हैं वे सब अपने साथ मध्यवर्गीय जीवन प्रसंगों के साथ ही आते हैं। कविता की सफलता यहीं तक महदूद कर दी गयी है कि कवि इनका प्रमाणिक चित्रण भर कर दे।  तो क्या यह स्थूल चित्रों और गतिहीन मध्वर्गीय यथार्थ की कविता है।  हालाँकि यथार्थ स्वयम में गतिशील होता है तो क्या गतिहीनता और यथार्थ ये दो विपरीतार्थक शब्द नहीं हैं। ऐसे में यह पूछना जरुरी हो जाता है कि चित्रात्मकता की शैली पर आधारित वर्तमान कविता किस हद तक यथार्थ को दर्ज़ करती है। वर्तमान कविता में जो यह कवि का बेहद आत्मीय एवं स्वजनों से भरा संसार है उसके तहत कवि का संकुचित और सीमित दृष्टिकोण ही उभर पाता है। उसका मध्यवर्गीय जीवन के प्रति अनुराग रह-रह कर प्रस्तुत होता है। लेकिन क्या वह बेचैनी वह छटपटाहट वह आकुलता या बकौल मुक्तिबोध वह असंग बबूलपन  आज की कविता में मौजूद है। कविता में जो घर परिवार और परिजन के दृश्य हैं वह आज की कविता का मूल कथ्य ।  कविता का संकट इसी निकट जीवन दृश्य के संकट तक सीमित होकर रह जाता है। यह नितांत घरेलु कविता मध्यवर्गीय जीवनबोध को बदलने की कविता नहीं बन पाती है। मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया और वर्तमान कविता के बीच मूलभूत अंतर यह है कि मुक्तिबोध मध्यवर्गीय जीवन-बोध को छिन्न-भिन्न कर उसे निम्न वर्गीय यथार्थ से जोड़ देना चाहते थे –

 मैंने नहीं कहा था कि
मेरी इस जिन्दगी के बंद किवाड़ की
              दरार से  
रश्मि सी घुसो और
विभिन्न दीवारों पर लगे हुए शीशों पर
प्रत्यावर्तित होती रहो 

xx  xx  xx  xx   xx 

मैंने नहीं कहा था कि तुम मुझे
                अपना संबल बना लो
मुझे नहीं चाहिए निज वक्ष कोई मुख
किसी पुष्पलता के विकास-प्रसार –हित
जाली नहीं बनूँगा मैं बांस की
चाहिए मुझे मैं
चाहिए मुझे मेरा खोया हुआ
           रुखा सुखा व्यक्तित्व
चाहिए मुझे मेरा पाषाण
चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन

आज का कवि अपने निकट के स्थूल जीवन दृश्यों को चित्रित कर यथार्थ से छुट्टी पा लेना चाहता है। यह बात तो समझी जा सकती है कि आज के कवि के पास पाठक नहीं हैं। लेकिन ऐसा क्यों है  कि आज का पाठक-विहीन कवि  समाज-विहीन भी होता जा रहा है। क्या पिछले तीन दशक की कविता पढ़ते हुए देश के कठिन हालात को, देश के लोगों के हालात को समझा जा सकता है। तो क्या यह जो साहित्य अकादमी पुरस्कार तक फैला हुआ वैभव हमारे वर्तमान कवि का है जहाँ कविता भले हाशिये पर हो परन्तु कवि लगातार सफल होता रहा है उसके मूल में यही पाठक-विहीन समाज-विहीन होने की विडम्बना है। क्या इस विडम्बना से हमारी कविता हमारा कवि वाकिफ है। अगर ऐसा है तो वह कविता की इस विशाल भूमि पर कहा अंकित है। इसी संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न जिसके आलोक में ही आज की कविता कि प्रासंगिकता प्रमाणित हो सकती है होनी चाहिए। वह ये की जिसे हम समकालीन कविता कह रहे है उसमे जो समकालीनता पद है वह क्या हमारे समाज हमारे देश हमारे लोगो की समकालीनता को भी दर्ज़ करती है। अगर ऐसा नहीं है तो इस अर्थहीन समकालीनता के मायने क्या हैं? आज की कविता में राजनितिक उदासीनता है इसके निहितार्थों को समझे बगैर उससे मुक्त होना संभव नहीं हो सकता। परिदृश्य में राजनैतिक आन्दोलन का नहीं होना क्या इस बात को सुनिश्चित करता है कि कविता को भी राजनीतिक बोध से मुक्त होना चाहिए। अगर कविता परिदृश्य को भेद नहीं पाती हो तो कवि की भूमिका समाज में क्या रह जाएगी। 

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अस्सी के दशक में जो नयी आर्थिक नीति आई उसने हमारे समाज की संरचना को बुरी तरह बदल दिया है। आज का मध्यवर्ग 70 का दशक की अपेक्षा अधिक क्रूर अधिक महत्वाकांक्षी अधिक कैरियरिस्ट अधिक व्यक्तिवादी हो चुका है। भारतीय मध्यवर्ग की आशा आकांक्षा के तार सीधे यूरोपीय मध्यवर्ग से जुड़ने लगे हैं। मध्यवर्ग के इसी चश्में से देखने वालों को भारतीय समाज कई बार पैरिस लन्दन और न्युयोर्क सा दीखता है लेकिन तलछट पर जीवन व्यतीत करने वालों की तादाद बहुत तेज़ी से इधर बढ़ी है। ऐसे असंख्य परिवार इस पैरिस लन्दन और न्युयोर्क से दीखते भारत की तलछट पर जीवन व्यतीत कर रहे हैं जो महज़ पांच सौ या हज़ार की रकम के लिए अपने जीवन, अपने परिवार को हाशिये के बाहर एक बड़े ब्लैक होल में फेंक देने को अभिशप्त है। हमारी कविता न तो उस चीख को सुन पा रही है न उसे दर्ज़ करने की कोई बेचैनी उसके भीतर दिखती है। कविता में राजनीतिक अंतर्वस्तु का संदर्भ यही है। उसका अर्थ कदापि यह नहीं है की कविता में गोला बारूद और बम के धमाके सुनाई दें। लेकिन जो कविता उस चीख को नहीं सुन पा रही हो जहाँ पुलिस के कुछ गुर्गे एक औरत को नक्सलवादी कहकर उसके जननांग में पत्थर घुसेरते हैं, तो वह कविता हमारे किस काम की है? क्या उसे दर्ज नहीं कर सारे कवि उसी पाशविक आनंद के सहभागी नहीं हो जाते जो उस चीख के अट्टहास में व्यक्त होती है।

आचार्य शुक्ल जब कहते हैं कि कवि कर्म उतरोत्तर कठिन होता जायेगा तो उसके मूल में यह बात है की कवि जिस वर्ग से आता है और समाज के निम्न वर्ग के बीच अन्तराल बढ़ता जायेगा। ऐसे में इस वर्गीय अन्तराल को पार कर निम्नवर्गीय समाज से तादात्म्य स्थापित करना कवि के लिए कठिन होता जायेगा और कवि कर्म की चुनौतियाँ बढती जाएँगी। नयी आर्थिक नीतियों ने एक सफ़ल मध्यवर्ग का जाल सा बुन दिया है। मध्यवर्ग न सिर्फ इस जाल में फंसता जा रहा है बल्कि वह लगातार सफल भी होता जा रहा है। ऐसे में इस सफल और अंतर्विरोध रहित मध्यवर्गीय कवि के लिए निम्नवर्ग की चिंताओं से जुड़ना उत्तरोतर कठिन होता जा रहा है। आज की कविता और कवि के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है। अपने वर्गीय दायरों (हितों) के पार नहीं देख पाना कविता में मौजूद एक बड़ा संकट है जिसका गुरुत्तम एहसास कवि को होना चाहिए।

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इधर की कविता के भूगोल को देखते हुए यह बार अक्सर मेरे जेहन में आती है कि किसी भी कालजयी रचना के मूल में लेखकीय प्रतिभा विद्यमान होती है या प्रतिबद्धता। प्रतिबद्धता को यहाँ मैं बेहद खुले और समय सापेक्ष अर्थों में ही देखने की बात कहूँगा। मलयज ने लिखा है -बौने जीवन से बड़ी कविता नहीं पैदा होती। तो यह जो जीवन की विराटता है जिसकी आकांक्षा मलयज कवि से करते हैं। वह इसी प्रतिबद्धता का प्रतिफल है जिसे प्रतिभा मात्र से अर्जित नहीं किया जा सकता। इधर की कविता में इस बात का एहसास बहुत कम दीखता है विशेषकर युवा कविता में। हालाँकि यह हमारे बेहद निकट की कविता है जिसे भविष्य में आकार लेना है परन्तु फिर भी युवा कविता को पढ़ते-देखते अकसर महसूस यही होता है कि हमारे घटित वर्तमान के बेहद भयावह दृश्यों से कवि और कविता उस हद तक मुब्तिला नहीं है जिस हद तक उसे होना चाहिए। जब हमारे बाहर एक पगलाया हुआ बेहद गतिशील क्षण-क्षण बदलता यथार्थ है तो कवि के लिए अपनी कविता और अपने जीवन के साथ इतना संतुलित और एक हद तक व्यवस्थित बर्ताव कर पाना सम्भव क्योंकर हो रहा है। क्या कविता में और जीवन में सबकुछ टूट-फुट नहीं जाना चाहिए था। वह क्या है जो हमारे कवि को इतना संयत रखे है। यह कैसे सम्भव है कि इस दौर में एक बेहद साफ़ सुथरी फिनिश्ड कविता लिखी जाये। यह तो हम स्वीकार करेंगे ही कि अस्सी के बाद कविता में असंग बबूलपन का स्थान फिनिश्ड, शब्द चातुर्य और बेहद संयत भाषा में मौजूद कविता ने ले लिया। इस हद तक कि कविता का अधिकांश शिल्पक्रांत हो चूका है। विशेषकर युवा कविता का .यह तो ऐसा समय है जब अँधेरे में से अधिक भयावह दृश्य अधिक छील देने वाले यथार्थ की, अधिक रुखड़ेपन के साथ कविता लिखी जाती। जिसमे कि हर शब्द बेतरह हमारे समय और समाज के हालत को गुण रही कविता की बेचैनी  से फूट पड़ते। यह तो हमारे अब तक के इतिहास का सबसे अधिक बेचैनी से भरा समय है। दुर्भाग्यवश हमने कविता के न सिर्फ लहजे को पूरी तरह ठंडा बना दिया है बल्कि उसके मुहावरे को भी उस बेचैनी से काफी दूर ले आयें हैं। दुःख और बेचैनी को हमने कविता में उदासी और बेबसी में बदल दिया है। मुक्तिबोध की कविता लाचारी और बेबसी को नहीं छटपटाहट और अकुलाहट को व्यक्त करती है।

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1975  के बाद हिंदी कविता में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं।  पहला कविता को दशकों में बाँटकर देखने की प्रवृति की शुरुआत और दुसरे पूरी कविता को समकालीन कविता की संज्ञा देना (हालाँकि समकालीन कविता पद का चलन 1970 के आसपास ही शुरू हो गया था लेकिन बड़े पैमाने पर इसका चलन 75 के बाद से ही देखने को मिलता है।) क्या आठवें दशक के जितने महत्वपूर्ण कवि हैं उन सबके लेखन काल को हटा दिया जाये तो क्या उनके बीच कुछ ऐसा है जो कॉमन हो। कहना न होगा कि आठवें दशक की समूची परिकल्पना का आधार महज़ उस दौर के कवियों की पत्र पत्रिका में प्रकाशित कविता या उनमे से कुछ के उसी समय प्रकाशित पहले काव्यसंग्रह हैं लेकिन क्या महज़ इस आधार पर यह कोई ऐसा आन्दोलन था या कोई ऐसी काव्य प्रवृत्ति थी जिसका विस्तार और जिसकी धमक हिंदी कविता पर इस हद तक और आज तक होनी चाहिए थी। यह प्रसंग इसलिए भी क्योंकि वागर्थ में चले उस छद्म बहस को आठवे दशक के रूप में शुरू किये गए आन्दोलन का विस्तार मानना चाहिए। हद ये कि इसी तर्ज़ पर एक युवा कवि ने 2000 के बाद की कविता के मूल्यांकन की मांग रखी है। लेकिन इन समस्त बहसों घोषणाओं हबड –दबड़ के बीच जो चीज़ गायब है, जिसके बारे में बात नहीं की जा रही है, वह ये कि क्या हमारे कवि और हमारी कविता का दायरा कितना संकुचित हो गया है। क्या तमाम कवि किसी अश्वमेघ यज्ञ पर निकले हैं। पुरस्कारों से आगे वे क्या जीत पाएंगे। और अगर हम यूँ ही कविता को दशक के नाम पर आयोजित और प्रायोजित करते जायेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब कविता के समाज का अदना नागरिक कवि,शासकों दलालों की पंक्ति में तो शुमार हो जायेगा परन्तु वह कवि नहीं रह पायेगा। उसे कवि के रूप में पुकारने वाले अपने संघर्ष में बहुत आगे निकल जायेंगे। क्या पता उनकी अगली कोई मुठभेड़ किसी कवि से ही हो। ऐसे में हमारे कवि की हार निश्चित है।

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अच्युतानन्द मिश्र युवा कवि एवं आलोचक हैं। अभी हाल ही में इनका पहला कविता संग्रह ‘आँख में तिनका’  प्रकाशित हुआ है। बहरहाल आजीविका के क्रम में इन दिनों दिल्ली में रहनवारी।   

(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)  

अच्युतानंद मिश्र


कवियों, दार्शनिकों और विचारकों के लिए मृत्यु हमेशा से एक ऐसा ‘रहस्य’ रही है जिस पर वे एक लम्बे अरसे से चिंतन करते आ रहे हैं. सभ्यता के सोपान पर आगे बढ़ते मनुष्य ने अपनी सुरक्षा के लिए या फिर किसी को चोट पहुंचाने के लिए जब पहला पत्थर उठाया होगा तब से ही शुरू हुई हथियारों की परम्परा अब इतनी समृद्ध हो गयी है कि हम अपनी इस जीवनदायी धरती को ही हजारों-हजार बार नष्ट कर सकते हैं. एक तरफ हथियारों पर मिलियन-ट्रिलियन डॉलर खर्च करने वाले देश हैं वहीँ भूख-प्यास से बिलखते हुए तमाम देश हैं. अनजाने या पागलपन में उठाया गया हमारा एक कदम आत्मघाती साबित हो सकता है. तो क्या हमारे लिए ‘मृत्यु ही सबसे बड़ी चीज़ है?’ कदापि नहीं. क्योंकि जीवन के होने से ही मृत्यु का अस्तित्व है. यानी जीवन से ही सब कुछ है. हमें इसे सहेजने की कोशिशें करनी चाहिए. अच्युतानंद मिश्र ने एक लम्बी कविता लिखी है- ‘मृत्यु एक बड़ी चीज है.’ लेकिन ठीक इस पंक्ति के बाद ही वे प्रश्नवाचक मुद्रा में पूछते हैं- ‘लेकिन जीवन?’. यहीं पर कवि इस मायने में विशिष्ट हो जाता है कि उसके चिंतन के मूल में सबसे पहले जीवन है. पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है अच्युतानंद की लम्बी कविता.  

मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
                                            
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
जीवन के इस विशाल भट्ठे में
धूप धुंध ओस की बूंदें नहीं
जलते हैं रक्त के कण
शुद्ध रक्त के कण
लोहे और जीवन से भरपूर
विशाल शिराओं में दौड़ते हुए
उन पुष्ट भुजाओं के भीतर
महज़ घडी की टिक-टिक नहीं 
नहीं एक उदास चुप्पी नहीं
नहीं कंक्रीट की खामोश सड़क नहीं
सही नमक वाला रक्त
हाँ वही लाल रंग
दौड़ता है
जलता है जिन्दगी की इस विशाल भट्ठी में
एक अदृश्य भाप उठता है
एक अभेद्य रौशनी होती है
एक अबूझ मौन टूटता है
एक गुलाब खिलता है
भोर होती है
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
सुंदर पृथ्वी के जबड़े में अट्टहास करती
फैलती है उनकी हंसी
सम्पन्नहीनता के वैभव में हँसते
वे दुःख के गाल पर तमाचा जड़ते हैं
वे हंसते हैं और पृथ्वी डोलती है
समंदर हिलोरे लेता है
और हैरान लोग
परेशान आत्माएं
और चील और गिद्ध
और लकड़बग्घे
विलाप करते हैं

मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
तार-तार हो जाते हैं स्वप्न के परदे
इतनी कम रौशनी और इतनी उज्ज्वल ऑंखें
इतनी बदबूदार हवा
और इतने मजबूत फेफड़े
और ऐसी छतें
और ऐसी खिड़कियाँ
और लकड़ी के बगैर दरवाजे
अनंत उन घरों में
उन घरों में मगरमच्छ के दांत नहीं
मोर-पंख नहीं उन घरों में
दीवारों पर बाघ के चमड़े नहीं
नहीं बारहसिंघे के सिंह से
सुसज्जित दरवाजे 
एक खाली कटोरी
मिट्टी से उठती भभक
और हिलती-डुलती
ठिठोली करती
धक्का-मुक्की करती
दोहरी होती औरतें
और उनके पैरों से
उनके स्तनों से उनके पेट से
और उनकी साँस से
चिपके अनंत बच्चे
और उन बच्चों के लिए
एक टिन का डिब्बा
एक टूटा साईकल–रिक्शा 
एक सुअर का बच्चा
एक तोतली आवाज़
और सर करने को यह दुनिया
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
झूठे हैं कवि
सारे अख़बार झूठ कहतें हैं
सारे नेतागण
सारी व्यवस्थाएं
सड़े हुए अदरक की गंध वाले अफसर
मोटे झुमके और हरी ब्लाउज से
झांकती देह वाली औरतें
और बत्तख
और आंख मिचकाती लडकियाँ
सब झूठ
कौन सी गरीबी रेखा
कैसा प्रमाण–पत्र
कैसा देश
नहीं मृत्यु देश
नहीं रुदन
नहीं चीत्कार
नहीं बलात्कार
नहीं भूख
नहीं गरीबी
नहीं आह
नहीं ओह
नहीं कालाहांडी
नहीं विदर्भ
नहीं कुडनकुलम
नहीं पोस्को
नहीं वेदांता
नहीं छत्तीसगढ़
नहीं लालगढ़
भोले लोग फूंकते
नेताओं के पुतले
नेताओं की मृत आत्मा
देती क्षमा दान
8.6 का विकास दर
पानी का ग्लास पीते हैं वित्त मंत्री
नदी का पानी पीता है बुधवा मुंडा
वित्त मंत्री पसीना पोछते हैं
एक जूता घूमता है उनकी ओर
पटाक्षेप
जूता कुछ भी हो सकता है
जूता बम हो सकता है
जूता आदमी भी हो सकता है
रौशनी होती है
सब स्वप्न
जर्मन कम्पनी का म्युज़िक सिस्टम
बजाता है एक उदास धुन
एक अंग्रेजी धुन
और हिंदी की थरथराहट
एक फ्रेंच गीत का मुखड़ा
और मेरी मैथिल हंसी
सारी दुनिया
एक सेब के बीज से
सारी प्रार्थनाएं
उसी एक ईश्वर के लिए
सारे बम उस एक ही मनुष्य के लिए
हे प्रभु उन्हें माफ़ करना जो नहीं जानते—–
और नींद के भोर में एक लम्बी चुप्पी
और विराम के बाद एक लम्बी यात्रा
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन………

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