मनोज कुमार पाण्डेय |
मनुष्य अपने आप में विरोधाभासों का एक गुच्छा है। एक तरफ वह सुरक्षा और शान्ति की बात तो करेगा लेकिन दूसरी तरफ अपने को ताकतवर बनाने के उपाय करने से नहीं चूकेगा। वह ऊपर से सीधा-सादा, निश्छल, निष्पाप और मीठा दिखेगा लेकिन गौर से देखने पर उस के अंतर्मन में एक जहर लगातार फ़ैलता दिखाई पड़ेगा। वह समानता की बात तो करेगा लेकिन ख़ुद की पीढ़ियों के लिए अकूत धन-सम्पदा बटोरने से नहीं हिचकेगा। अपनों के प्रति ‘मोह’ के चलते फैलते जा रहे इस जहर ने ही तो आज भी ‘समानता’ को दिवास्वप्न जैसा बना रखा है। यह सब कुछ हमारे आस पास, हमारे सामने घटित होता दिखाई पड़ता है लेकिन हमारे कंठ से प्रतिरोध का एक स्वर भी नहीं फूटता। गौरीनाथ इसी किस्म का चरित्र है जिसे उसकी घरेलू परिस्थितियाँ कुछ इस तरह निर्मित कर देती हैं कि वह अन्दर से एकदम क्रूर हो जाता है। क्रूरता की हद यह कि उसके मन में जहर भर जाता है। मानव मन-मस्तिष्क में फ़ैल रहे जहर की कहानी है ‘मोह’। कहानीकार मनोज कुमार पाण्डेय की यह कहानी तद्भव के हालिया अंक में छपी है। इस कहानी ने अपने कथ्य और शिल्प की वजह से मुझे इस कदर आकर्षित किया कि मैंने मनोज से इसे ‘पहली बार’ के लिए उपलब्ध कराने का आग्रह किया। तो आइए पढ़ते हैं मनोज कुमार पाण्डेय की यह कहानी।
मोह
और गौरीनाथ उड़ चले। अब रात भर उन्हें उड़ते ही रहना था। बहुत ऊपर जहाँ वे उड़ रहे थे वहाँ से वे अपने जीवन में कहीं भी उतर सकते थे। अपना ही जीवन उन्हें कुछ इस तरह से दिख रहा था जैसे वह किसी और का हो बल्कि वही कोई और हों। इस सम्मोहक सपने में प्रवेश का पहला ही असर यह हुआ कि वे उन घातक परछाइयों से मुक्त हो गए जिन्होंने पिछले कई सालों से उन्हें घेर रखा था। अब परछाइयाँ सशरीर थीं। उसी उम्र में ठहरीं हुईं जिस उम्र में गौरीनाथ ने उन्हें मृत्यु के पास जाने के लिए विवश कर दिया था। वे इस संयोग से लगभग चकित रह गए कि उनके पिता माताफेर तिवारी हूबहू उनकी तरह ही लग रहे थे। कुछ इस तरह जैसे पिता न होकर एक साथ जन्में जुड़वा भाई हों, एक दूसरे के हमशक्ल। इसका मतलब क्या यह था कि वे अपने अवैध होने के जिस संदेह को अपनी चेतना में ढोते रहे थे वह गलत था?
इस बात से उन्हें कोई आश्वासन नहीं मिला। बल्कि यह एक शुरुआत थी जब उनके लिए सारी चीजों का अर्थ बदलते जाना था। उन्होंने जान लिया कि यह नरक की नदी है जिसे पार नहीं करना है हमेशा उसी में बहते रहना है। एक पूरा जीवन जो गलत धारणाओं से नष्ट हुआ और क्या सिर्फ एक जीवन! क्या अभी भी वह स्वार्थ में इतने डूबे हुए हैं कि उन्हें दूसरों का जीवन नहीं दिखाई देता जिसे उन्होंने नष्ट कर दिया हमेशा के लिए। गौरीनाथ हमेशा अपने पिता से घृणा करते रहे। पर अभी मृत्यु के इस घातक सपने के भीतर वे जानते हैं कि वे अपने पिता से कई गुना ज्यादा घृणित हैं। उन्होंने अपने जीवन में पिता की उस छवि को अपरिमित विस्तार दिया है जिसे अपने भीतर वह हमेशा पाल पोस कर बड़ा करते रहे। तो क्या पिता यह बात जानते थे। क्या जहर बनाना उन्होंने इसीलिए सिखाया था कि जब अपने ही भीतर बजबजाती हुई यातना अपरिमित विस्तार पा ले तो उससे मुक्त हुआ जा सके? तो क्या पिता को यह भी मालूम रहा होगा कि इस जहर का पहला प्रयोग खुद उन पर ही होने जा रहा था?
माताफेर ने गौरीनाथ को स्कूल में दाखिल करके कुछ इस तरह का अनुभव किया कि जैसे उन्होंने बहुत बड़ी जिम्मेवारी पूरी कर ली। लौटते हुए रास्ते में उन्होंने गौरीनाथ को समझाया कि उन्हें खूब मन लगाकर पढ़ाई करनी है और जो सीखना है वह अपने छोटे भाई बद्रीनाथ को भी सिखाना है। हालाँकि गौरीनाथ को दो बहनें भी थीं पर उनके बारे में उनके पिता ने कुछ भी नहीं कहा। गौरीनाथ के तीनों भाई बहन उनसे छोटे थे और अभी दिन भर अपनी माँ के पीछे पीछे नाक सुड़कते घूमा करते थे।
माताफेर तिवारी किसी जमींदार के यहाँ मुनीमी करते थे। वह सुबह उठते, लोटा लेते, लँगोट उठाते और गंगा की तरफ निकल जाते जो घर से दक्षिण की तरफ लगभग कोस भर की दूरी पर बहती थी। वहीं दिशा फरागत होते, दातून करते, नहाते, लँगोट बदलते और वापस आ जाते। बाद के दिनों में वह लँगोट वगैरह लेकर जाने की समस्या से भी मुक्ति पा गए थे। हुआ यह कि घाट पर रह रहे एक साधु से उनकी दोस्ती हो गई और वह अपना लँगोट उसी साधु के आश्रम – या झोंपड़ी जो भी कहें – में किसी पेड़ वगैरह पर डालकर चले आते और अगले दिन वहीं से उठा लेते।
गंगा किनारे कई छोटे छोटे मंदिर बने हुए थे। नहाकर वह वहीं अपने आराध्य हनुमान की पूजा करते और साथ में शंकर पार्वती आदि अन्य देवी-देवताओं को भी जल और फूल वगैरह चढ़ा आते। इसके बाद घर आते और खा-पी कर जमींदार की चाकरी में निकल जाते। दिन भर अपना काम करते और शाम को सीधे वहीं से मंदिर चले जाते। मंदिर पर देर रात तक कीर्तन वगैरह चलती रहती। पंडित माताफेर का मन कीर्तन वगैरह में खूब खूब लगता। वहाँ से निकलते हुए कई बार वह परसाधी खाकर (भोजन करके) ही निकलते। उन्हें लौटते लौटते कई बार दस ग्यारह बज जाते।
पंडिताइन घर में इंतजार करती मिलतीं। गौरीनाथ, बद्रीनाथ, रामरती और फूलमती सो चुके होते। खाना ठंडा हो चुका होता। माताफेर कभी खाते तो कभी बताते कि वह परसाधी खाकर आए हैं और उन्हें भूख नहीं है। यह सुनकर पंडिताइन एक बार सिर उठाकर माताफेर की तरफ देखतीं भी नहीं। उनकी भूख मर जाती। कई बार वे कुछ खातीं तो कई बार बिना कुछ खाए ही रसोई समेट लेतीं। इसके बाद वह माताफेर का पैर दबातीं। कई बार मालिश करतीं। माताफेर उन्हें यह बताते रहते कहाँ कहाँ ज्यादा जोर देना है कहाँ कहाँ देर तक रुकना है और कहाँ कहाँ से बस सरसरी तौर पर निकल जाना है। यह सब बताते बताते उनके गले से घुरघुराने की आवाज निकलने लगती। पंडिताइन का मन विरक्ति से भर जाता। वे बगल में पड़ी दूसरी चारपाई पर जाकर लेट जातीं। कभी कभी तुरंत नींद आ जाती तो कई बार दिन भर की थकान के बावजूद रात रात भर नींद न आती। रात रात भर जीवन के तमाम दृश्य सपनों की तरह झिलमिलाते रहते।
पंडित कभी कभी मर्द भी बन जाते। मालिश करवाते करवाते पंडिताइन को अपनी तरफ खींच लेते और खुद भी मालिश में जुट जाते। पर यह क्रम कभी भी ज्यादा देर न चलता। इसके बाद वह हाँफते हुए करवट बदल कर सो जाते। कई बार उठकर बीच रात में ही नहाने चल देते। इसके पीछे न जाने कहाँ से आकर भीतर बैठी यह भावना होती कि कुछ देर पहले जो कुछ वह कर रहे थे वह एक नीच और पातक कर्म था। कि इसके बाद शरीर तो क्या आत्मा तक अशुद्ध हो जाती है। अगले दो चार दिन वह मालिश या हाथ पैर दबाने के लिए भी मना कर देते। उनके मन में स्त्री शरीर को लेकर गहरी घृणा थी पर अपनी सारी कोशिशों के बावजूद स्त्री शरीर के बिना वह रह भी नहीं पाते थे। तो बीच का रास्ता यह होता कि पंडिताइन के पास जाते तो जल्दी से जल्दी वहाँ से मुक्त होना और भागना चाहते।
पंडिताइन को पुरुष शरीर से कोई घृणा नहीं थी। हाँ वे पंडित माताफेर से जरूर घृणा करती थीं। बेपनाह घृणा। पर स्त्रियों के सदियों पुराने अभ्यासवश इस घृणा का पता उन्होंने माताफेर को कभी भी नहीं चलने दिया और छोटे मोटे झगड़ों के बावजूद समर्पिता पत्नी बनी रहीं। पति की सेवा करते हुए, बच्चे पैदा करते हुए, दिन-रात घर के कामों में डूबी रहते हुए। और ऐसे ही एक दिन सानी पानी करते हुए उनकी प्रिय स्वर्गीय गाय के एक जवान होते बछड़े ने जब अपनी सींगों पर उठा कर उन्हें फेंका तो उनका शरीर भले ही थोड़ी दूर पर जा कर गिरा पर आत्मा ऊपर की ऊपर ही उड़ गई थी।
इसके पहले कि पंडित माताफेर उठते वह उठ जातीं और काम में लग जातीं। रात के बर्तन साफ करतीं। घर बुहारतीं। पूरा घर लीपतीं। दिन भर की जरूरत के लिए कुएँ से पानी भर कर रखतीं। माताफेर के लिए भोजन तैयार करतीं। एक गाय थी। उसकी जगह बदलतीं। गोबर काढ़तीं। गाय को चारा डालतीं। जब तक बच्चे नहीं हुए यह गाय उनकी इकलौती साथी रही। उनके ध्यान का केंद्र, उनकी सखी, उनकी दुश्मन। सब कुछ वही। गाय उन्हें अपने गौने में मायके से मिली थी। तब वह बछिया ही थी। एक और भी बात थी। ससुराल में कोई और उनका साथी हो भी नहीं सकता था। माताफेर जब बाहर निकलते तो घर में बाहर से ताला बंदकर निकलते। उनका मानना था कि पंडिताइन अभी बच्ची हैं और उन्हें किसी बात की समझ नहीं है। यह अलग बात है कि ताले में रखने के बावजूद वह रात को आने पर दिन भर की टोह लेने की कोशिश करते। यह जाँचने की कोशिश करते कि कहीं बेला की इच्छा बाहर निकलने की तो नहीं होती? उनके बहुत मनुहार पर बेला ने एक बार कह दिया था कि हाँ उनकी इच्छा बाहर निकलने की होती है कभी कभी। वे दिन भर घर में बंद रहते रहते ऊब जाती हैं। कोई उनसे बात करने वाला नहीं है यहाँ पर।
बेला बात तो अपने अपमान की भी करना चाहती थीं पर उन्हें माताफेर की मनुहार पर इतना भी भरोसा नहीं हो पाया था। वे सही थीं। माताफेर ने तुरंत ही उनके बालों को पकड़ा और लात मारी। साथ में इसके लिए बेला पर जी भरकर लानत भेजी कि वे किसी से बात करना चाहती हैं। बाजार घूमना चाहती हैं। और घर में रहते हुए ऊबना यह तो माताफेर की समझ के बाहर था। औरत घर के लिए ही बनी है। वह घर में रहते हुए ऊब कैसे सकती है। घर में रहने से ऊबना पंडित माताफेर के लिए रंडियों का चाल चलन है। यह सोचते ही माताफेर को फिर से गुस्सा आ गया। उन्होंने जमीन पर बिखरी पड़ी बेला की पीठ पर फिर से एक जोरदार लात मारी और पूछा कि तुम्हारे लिए मैं कम पड़ता हूँ क्या जो बाजार में निकलना चाहती हो।
और फिर बच्चों का आना शुरू हुआ जो करीब डेढ़ साल में एक की औसत से अगले बारह तेरह साल तक आते ही चले गए। पंडिताइन का पूरा समय बच्चों की सेवा में बीतने लगा। उधर गाय ने भी पंडिताइन के साथ ही बच्चे देने शुरू किए। अगले बारह तेरह साल तक, जब तक कि वह बूढ़ी होकर मर नहीं गई लगातार बच्चे देती रही। पर गाय और पंडिताइन में अंतर यह था कि गाय अपनी उमर में ही जाकर बूढ़ी हुई थी जबकि पंडिताइन अभी मुश्किल से तीस की भी नहीं हो पाई थीं कि बूढ़ी हो गई थीं। उनकी कमर ने उनका बोझ खुशी खुशी उठाने से मना कर दिया था और झुक गई थी। पंडिताइन जरा भी बैठतीं तो अकड़ जातीं। वह बिना किसी सहारे के खड़ी न हो पातीं। पहले की तरह झुककर झाड़ू वगैरह न लगा पातीं। अब यह काम उन्हें बैठे बैठे एक जगह से दूसरी जगह घिसटते हुए करना पड़ता। वे बैठे बैठे एक जगह से दूसरी जगह घिसट रही होतीं और उनके पीछे मक्खियों की एक पूरी फौज के साथ उनके बच्चे घिसट रहे होते। जिनकी संख्या घटती बढ़ती रहती।
गाय और पंडिताइन में एक अंतर यह भी था कि गाय के सारे बच्चे जिए और स्वस्थ रहे। दूसरी तरह पंडिताइन के कई बच्चे तो छठे सातवें महीने में ही गिर गए। जो पेट में अपना पूरा समय लेकर पैदा हुए उनमें भी ज्यादातर कई कई सालों तक पंडिताइन से सेवा करा कर उन्हें उऋण करके चलते बने। जब पंडिताइन के मरने से बच्चों के आने और जाने का यह सिलसिला समाप्त हुआ तो बच्चों की स्थिर संख्या बची थी चार – गौरीनाथ, बद्रीनाथ, रामरती और फूलमती। इस बीच बेला की महक गायब हो गयी थी और उसकी जगह गाय के गोबर और बच्चों के गू-मूत ने ले ली थी। यही वजह थी कि पंडित माताफेर अब थोड़ा उदार हो चले थे। उन्होंने घर से बाहर निकलते हुए घर में ताला लगाना बंद कर दिया था।
माँ की मृत्यु के समय गौरीनाथ आठवीं में पढ़ते थे। स्कूल करीब पाँच कोस दूर था। वह सुबह आठ साढ़े आठ बजे तक खा-पीकर और दोपहर के लिए कुछ चबैना वगैरह लेकर स्कूल के लिए निकल जाते। गाँव से एक और लड़का था जो उनके साथ जाता था। बाकी रास्ते में अक्सर कुछ और लड़के टकरा जाते। इस तरह खेलते कूदते वे स्कूल पहुँच जाते। माँ की मृत्यु ने यह सब कुछ बदल दिया था। घर पर छोटे छोटे भाई बहन थे। अब उनका खयाल रखना बड़े होने के नाते उनकी जिम्मेदारी थी। इस जिम्मेदारी को निबाहते हुए कब गौरीनाथ अपने भाई और बहनों की माँ में बदल गए यह वे खुद भी नहीं जान पाए। उनका नियमित स्कूल जाना बंद हो गया।
इन सबके बीच गौरीनाथ हर पल माँ को याद करते रहे। उन्होंने जाँत पीसते हुए, धान या बाजरा कूटते हुए कई बार माँ को रोते हुए देखा था। वे छोटे थे समझ नहीं पाते थे कि माँ क्यों रो रही है। कोई दुख है इतना तो उन्हें पता चलता ही था। वह कई बार जाकर रोती माँ से लिपट जाते। माँ अमूमन अपना रोना छिपाती। कहती कि बाजरा कूटते हुए धूल उड़कर आँखों में जा रही है इस वजह से आँखों से डँहका बह रहा है। या कि कोई कीड़ा चला गया था या आँख में खुजली हो रही थी। उन्होंने आँखों को मसल दिया तो आँखों से पानी बहने लगा। माँ के पास अपना दुख छुपाने के लिए ढेरों बहाने थे जिनके द्वारा माँ गौरी को बहलाने की कोशिश करती। गौरी को अक्सर माँ पर शक होता कि वह झूठ बोल रही है पर उसे खुश करने के लिए उसके बहाने सच मान लेते।
सिर्फ एक बार ऐसा हुआ था कि जाँता चलाते हुए माँ कुछ गा रही थी और रो रही थी। गौरीनाथ देर तक माँ का रोना छुपकर सुनते रहे। माँ का रोना सुनते सुनते उन्हें भी रुलाई आ गई। वह रोते रोते ही गए और माँ से लिपट गए। माँ ने अचानक से अपनी रुलाई रोकने की कोशिश की पर इस कोशिश में वे भरभरा गईं और रोकते रोकते उनकी रुलाई तेज होने लगी। वे रुलाई को जितना ही रोकने की कोशिश करतीं वह उतनी ही तेज होती जाती। उन्होंने गौरी को अपने में भींच लिया और इसी के साथ रुलाई रोकने की कोशिश बंद कर दी। वह देर तक रोती रहीं। वह माँ की काँपती हुई पीठ सहलाते रहे। उसकी आँखों से आँसू पोंछने की कोशिश करते रहे पर भीतर जैसे कोई आँसुओं का बाँध था जो आज ढह गया था। बहुत देर बाद माँ जब चुप हुई तो रोते रोते बेहोश सी हो गई थी। वह गौरी को अपने से चिपटाए हुए वहीं जमीन पर गिर गई।
गौरी ने माँ को पहले भी कई बार रोते हुए देखा था पर उस दिन का रोना अचानक और भीतर तक भिगो देने वाला था। वैसी भीषण रुलाई उन्होंने इसके पहले कभी नहीं देखी थी। उस समय तो वह जैसे जड़ से हो गए थे। कुछ नहीं समझ में आया तो पानी ले आए और जबरदस्ती बेहोश माँ को पानी पिलाने लगे। माँ के दाँत एक दूसरे पर कसे हुए थे। पानी पिलाने की उनकी कोशिश कामयाब नहीं हुई। फिर वह माँ का मुँह धोने लगे। थोड़ी देर बाद माँ को जब होश आया तो वह उसी डरी हुई स्तब्धावस्था में माँ का सिर सहलाते हुए बैठे थे। माँ ने उनका सिर सहलाया, गाल सहलाए। इस सहलाने में ऐसा कुछ शामिल था कि वे समझ गए कि उन्हें माँ के रोने को हमेशा अपने भीतर छुपाकर रखना है। तब उन्हें नहीं पता था कि यह छुपी हुई रुलाई बहुत सालों बाद अपना रूप बदलकर और भी घातक और विराट हो कर उनके भीतर से प्रकट होनी है।
जब घर के सारे काम काज करते हुए गौरी धीरे धीरे माँ की भूमिका में उतरे तो उसमें कहीं उनके भीतर छुपी हुई इस रुलाई का भी गहरा योगदान था। यह भी माँ की रुलाई ही थी जिसने उन्हें अपने पिता यानी माताफेर के प्रति एक बेपनाह घृणा से भर दिया। हालाँकि इस घृणा को उन्होंने एकदम उसी तरह से अपने भीतर छुपाकर रखा जिस तरह से माँ ने अपने भीतर छुपा रखा था या कि उन्होंने अपने भीतर माँ की रुलाई छुपा रखी थी। इतने भीतर कि वह खुद उसे भूल गये थे धीरे धीरे। बहुत सालों बाद जब यह रुलाई बाहर आनी थी तभी उन्हें रुलाई के साथ माँ की एक झलक भी देखनी थी और उस गाढ़े पल को याद करना था जो जीवन भर उनके भीतर बना रहा था।
पर क्या वह कोई इकलौता पल था? ऐसे न जाने कितने पल छुपे बैठे थे उनके भीतर। बस अंतर यह था कि वह उन पलों के दर्शक भर रहे थे। पर उन पलों की छवियाँ इतनी मारक और अमिट थीं कि एक दर्शक की तरह तटस्थ हो पाना संभव नहीं हुआ था। कई जगह तो दृश्य भी नहीं थे, बस आवाजें थीं। जैसे एक रात जब वह अचानक से चौंक कर उठे तो उस तरफ जिधर माताफेर और माँ सोती थीं उधर से अजीब अजीब आवाजें आ रहीं थी। वे डर गये। अँधेरे में कुछ दिख नहीं रहा था। बस आवाजें थीं। बहुत बाद में वे आवाजें माँ की रुलाई में घुल गई थीं। न जाने कितनी बार माँ को पिटते हुए देखना और हमेशा डर से काँपते हुए कहीं दूर खड़े रहना। उन्हें बस एकाध बार की याद है जब बदले में माँ चीखी हो, नहीं तो बस पिटने की ही आवाजें थीं। माँ ऐसे समय पर एकदम चुप हो जाती। इतनी कि गौरी अपने पिता माताफेर की साँस तक सुन पाते। गौरी भी माँ की तरह अपनी साँस रोक लेते और देर तक रोके रखते। उन्हें लगता कि उनकी भी साँस की आवाज सुन ली जाएगी। उन्हें नहीं पता था कि तब क्या होगा पर गौरी हमेशा सचेत रहे कि इस बात का पता कभी किसी को न चले, माँ को तो कभी भी नहीं कि वे सब कुछ जानते हैं। क्या सचमुच वे सब कुछ जानते थे?
यह उन्हीं दिनों की बात है कि उनके भीतर पिता के लिए बेपनाह घृणा भरती चली गई। वे पिता को पीटना चाहते थे, पिता को तड़पते हुए देखना चाहते थे। उनकी हत्या कर देना चाहते थे। पर गौरी ने कुछ नहीं किया। वे एकदम माँ की तरह ही निरपेक्ष आज्ञाकारी बने रहे। अगर उन्होंने पिता को कुछ नहीं किया तो इसके पीछे डर ही नहीं था, और भी अनेक चीजें और भावनाएँ आपस में गुँथी हुई थीं। जिन्हें अलग अलग देख पाना उनके लिए संभव नहीं था। खासकर माँ के मरने के बाद जो एक बेचारगी गौरी और उनके भाई बहनों को झेलनी पड़ रही थी वह उन्हें उस उमर में भी बहुत गंदी और तकलीफ देने वाली लगती थी। ऐसी स्थिति में पिता का न होना उनके पूरे जीवन को एकदम बदल देता। अपनी सारी लापरवाही के बाद भी माताफेर इन बच्चों के लिए एक छाँव की तरह से थे, भले ही उन्होंने इन बच्चों को कभी गोद में नहीं उठाया, उनकी नाक नहीं पोंछी। उनके होने के बावजूद वे भटकते रहे। यह गौरी थे जिन्होंने उन्हें सँभाले रखा।
गौरीनाथ के प्रति जो दूसरी बड़ी जिम्मेदारी उनके पिता ने निभाई वह थी उनका विवाह करने की। माँ के मरने के दूसरे साल ही उन्होंने गौरीनाथ का विवाह कर दिया। गौरीनाथ अभी विवाह नहीं करना चाहते थे पर पिता के सामने मना करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। उन्होंने वैसे ही निष्ठा से अपने विवाह की सभी तैयारियाँ की जिस निष्ठा से अब तक घर के सारे काम करते रहे थे। यहाँ तक कि निमंत्रण पत्र भी खुद ही तैयार किए। माताफेर ने निमंत्रण की मूल प्रति स्वयं लिखी और गौरीनाथ को थमा दी। गौरीनाथ ने उसकी नकल में निमंत्रण पत्र की बहुत सारी प्रतियाँ तैयार की। उन पर उन लोगों के नाम लिखे जिन्हें वह पहुँचाई जानी थीं। इसके बाद निमंत्रण पत्र नाई के हवाले कर दिए गए। विवाह से जुड़ी सारी खरीददारी माताफेर ने खुद की। बच्चों के लिए कपड़े खरीदे। बुआओं को जाते समय देने के लिए धोतियाँ खरीदी। और भी छोटी बड़ी न जाने कितनी खरीददारियाँ। बहनों को ले आने के लिए उनके घर जाना। और इस तरह से गौरीनाथ का विवाह संपन्न हुआ।
दहेज में गौरी को बहुत सारे घरेलू इस्तेमाल में आने वाली चीजों के अलावा एक साइकिल भी मिली। साइकिल पाकर वे खुश थे। उन्हें लगा कि अब उनका स्कूल जाना आसान हो जाएगा। वे घर का खयाल रखने के साथ साथ स्कूल भी जा सकेंगे। कहीं आना जाना, सौदा सामान लाना सब कुछ अब वे ज्यादा आसानी से कर सकेंगे। पर साइकिल पिता ने झटक ली। गौरी को बहुत बुरा लगा पर वे चुप्पी साध गए। शायद साइकिल को लेकर उनकी आकांक्षाओं का थोड़ा बहुत अंदाजा माताफेर को भी हो गया। तभी तो उन्होंने एक दिन उनको बैठाकर समझाया कि गौरी का साइकिल लेकर बाहर निकलना अभी ठीक नहीं है। वे अभी बच्चे हैं और कोई भी राह चलते उन्हें दो तमाचे मारेगा और साइकिल छीन ले जाएगा। गौरी चुपचाप सुनते रहे। मन में आया कि कहें कि तुमने तो बिना मारे ही छीन ली पर कह नहीं पाए। वह किसी काम के बहाने से उठे और बाहर निकल गए।
गौना तीन साल बाद आना था। इस बीच गौरीनाथ ने अपने आपको पूरी तरह से घर के कामों में झोंक दिया। उनकी सुबह चार बजे से ही शुरू हो जाती। घर बाहर के लगभग सारे काम उनके जिम्मे थे। भाई और बहनों की देखभाल। भाई को पढ़ाना। थोड़ा बहुत बहनों को भी पढ़ाना। जानवरों की देखभाल, खेती, घर की साफ सफाई। कोई भी ऐसा काम नहीं था जो गौरीनाथ के जिम्मे नहीं था। माताफेर बस काम बताकर बाहर निकल जाते। गौरी ने पूरी जिम्मेदारी से सभी कामों को निबाहा। इस बीच अच्छी बात बस यह हुई कि उनके भाई बहन भी बड़े हो रहे थे और धीरे धीरे उन्होंने गौरी के कामों में हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। और जब तीन साल बाद गौरी का गौना आया तो तब तक वह प्राथमिक पाठशाला में अध्यापक हो चुके थे।
उनके गौने के तुरंत बाद ही माताफेर ने गौरी की बहन रामरती की शादी तय कर रखी थी। उनकी योजना यह थी कि गौरी के गौने में जो कुछ भी मिलेगा वह बेटी की शादी के दहेज में काम आ जाएगा। गौरी की शादी में मिले बर्तन जस का तस सँभाल कर रखे हुए थे। गौरी को शादी में एक अँगूठी मिली थी सोने की, वह भी उतरवा ली गई। इसी तरह रेडियो भी बहन के दहेज के काम आया। बस एक चीज थी जिसे गौरी ने देने से इनकार कर दिया। यह थी एक सुंदर सी जेबघड़ी। सीधे इनकार की आदत तो उनकी थी नहीं सो बहाना बनाया कि कहीं खो गई। माताफेर को जब भी घड़ी की याद आती बड़बड़ाने लगते। गौरी किसी न किसी बहाने से वहाँ से हट जाते।
जब बैजंती यानी कि उनकी पत्नी उनके कहने पर पलंग पर आकर नहीं बैठी तो उन्होंने उनका हाथ पकड़कर उन्हें पलंग पर बैठाने की कोशिश की। हाथ पकड़ते हुए उन्हें हाथों में झनझनाहट हुई। भीतर जैसे धमाके से हुए। वे उन्हें पलंग पर खींच कर बैठा ही ही देना चाहते थे कि पत्नी के मुँह से निकला कि अरे बुद्धूराम किंवाड़ तो बंद कर लो। तब उन्हें किंवाड़ की सुधि आई। वे इस बात पर शरमा भी गए कि यह बात उन्हें पत्नी के बताने पर याद आई। उन्होंने तुरंत उठकर किंवाड़ बंद कर किया। कोठरी में एक कोने चिमनी जल रही थी। कुछ नहीं समझ में आया तो उठे चिमनी हाथ में पकड़ी और लाकर पत्नी का चेहरा देखने लगे। उन्हें अपनी किस्मत पर बहुत खुशी हुई। वे सुनते रहे थे कि उनकी पत्नी बहुत सुंदर है पर देखने का मौका अभी हाथ लग रहा था। पत्नी ने अपनी आँखें मूँद रखी थी। वह भकुवाए हुए पत्नी को देखते रहे फिर पत्नी से आँख खोलने के लिए बोलने लगे। पत्नी ने आँख खोली और चिमनी पर फूँक मार दी। चिमनी बुझने को होते होते फिर जल उठी। गौरी ने चिमनी को दूर ताखे पर ले जाकर रखा। लौट कर पत्नी को गोद में उठाया और बिस्तर पर ले जाकर बिठा दिया।
शुरुआत में बैजंती को इसमें प्रेम ही प्रेम दिखा पर यह जानने में भी उन्हें देर नहीं ही लगी कि यह बंधन ही बंधन था। उन्हें किसी भी तरह से इसे तोड़ फेंकना था। शुरुआत में उन्होंने प्रेम से समझाने की कोशिश की। रीझने का नाटक किया गौरीनाथ पंडित पर, उन्हें रिझाने की कोशिशें की। गौरीनाथ उन पर जितना ज्यादा रीझते, पहरा उतना ही कड़ा होता जाता। वे दिन दिन भर सब काम छोड़कर घर पर बैठे रहते। बैजंती की छाया तक की निगरानी करते हुए। कहीं बाहर निकलते तो यह सुनिश्चित करके ही बाहर निकलते कि घर में कोई न कोई सदस्य जरूर रहे। बाहर से आते ही इस बात की टोह लेने की कोशिश करते कि उनकी अनुपस्थिति में कोई आया तो नहीं था। यह सब जान लेने के बाद ही उनके गले में ठंडा पानी उतरता। कोई प्रमाण नहीं था उनके पास पर एहतियात बरतने में उन्हें कोई बुराई नहीं दीखती। इस हद तक कि कई बार तो बैजंती जब सुबह और रात मैदान जाने के लिए निकलतीं तो उनसे एक दूरी बनाकर साथ चलते और किसी ऐसी जगह छुपकर बैठ जाते जहाँ से वह उनको देखते रह सकें।
वे बैजंती से पूछने के पहले प्रमाण जुटाना चाहते थे। यह प्रमाण उन्हें कभी नहीं हासिल हुए। उधर बैजंती ने उनके प्रति वही ठंडी आज्ञाकारिता अपना ली थी जो गौरीनाथ की माँ ने अपनाई थी। पर दोनों में एक भारी अंतर था। गौरीनाथ की माँ बेला की आज्ञाकारिता आत्मघाती थी। वह भीतर ही भीतर उन्हें काट रही थी। उसमें अविश्वास और दुख की गहरी छायाएँ थीं। यह छायाएँ उन्हें दयनीय बना रही थीं। वे खुद ही खुद का उपहास उड़ातीं और यह उपहास एक दिन उन्हें अपने साथ लेकर उड़ गया था। इसके उलट बैजंती यह उपहास का भाव गौरीनाथ के प्रति रखती थीं उन्हें दुनिया का सबसे दयनीय प्राणी मानते हुए। उनकी सारी आज्ञाकारिता के बीच उनके होठों पर एक उपहास तैरता रहता था पति के लिए। एक ऐसा उपहास जो गौरीनाथ को अपने समूचे अस्तित्व पर सवालिया निशान की तरह लगता।
शुरू के दिनों में उन्होंने इस हँसी से सख्ती से निपटना चाहा। वे कहीं बाहर से घर आए, हमेशा की तरह चुपचाप। दरवाजे पर कान लगाने पर उन्हें किसी पुरुष की हँसी सुनाई दी जिसमें उनकी पत्नी की हँसी भी लिपटी हुई थी। उन्होंने दरवाजा भड़भड़ाया। बैजंती ने दरवाजा खोलने में देर लगाई। दरवाजा खुलते ही उन्होंने पूरा घर छान मारा। घर में उन्हें बैजंती के अलावा कोई नहीं मिला। इस बीच बैजंती उन्हें लगातार कुछ खोजते हुए देख रही थीं। उन्होंने पति से पूछा भी नहीं कि वे क्या खोज रहे हैं। यह इकलौती बार था कि उनकी आँखों में अपने हाल पर आँसू आए थे। जीवन इस तरह से कैसे कटेगा। वे भरी हुई आँखों के साथ घर से बाहर निकल आईं और बाहर पड़ी खटिया पर बैठ गईं। गौरीनाथ थोड़ी देर में बाहर निकले। उन्हें पक्का भरोसा था कि घर में कोई था जो किसी तरह से घर से बाहर निकल गया। किस तरह से, यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था।
बाहर आ कर उन्होंने पत्नी की आँखें आँसुओं से भरी हुई देखी तो आँसुओं को डर से उपजा मान लिया। उन्हें लगा कि वे पकड़े जाने के डर से रो रही हैं। पंडित गौरीनाथ ने अपने आप को विजयी महसूस किया और बदले में पत्नी को चाँटा मारा। एक के बाद एक कई चाँटे मारे। उन्हें धक्का मार कर गिरा दिया और लात मारी। बैजंती शुरू में तो स्तब्ध रहीं। उनकी आँखों में अटके हुए आँसू जैसे सूख ही गए हों। फिर उन्होंने गौरीनाथ का पैर पकड़ कर खींच लिया जो उनकी छातियों पर प्रहार के लिए उठा हुआ था। पंडित गौरीनाथ जमीन पर आ गए। वे उनके सीने पर चढ़ बैठीं और उनके गालों पर उपली पाथने लगीं। उनके गले से आवाज नहीं एक घुरघुराहट जैसे निकल रही थी। उसी घुरघुराहट के बीच बैजंती ने गौरीनाथ से कहा कि अगर आइंदा उन्होंने उन पर हाथ उठाया तो वे उनकी जान ले लेंगी और गंगा में डूबकर अपनी जान दे देंगी। गौरी के सीने पर बैठ कर उन्होंने उनको बताया कि घर में कोई नहीं था। न आज, न पहले कभी। पर आगे भी नहीं रहेगा इस बात की कोई गारंटी अब वह नहीं ले सकतीं।
शुरू के दिनों में तो कोई जरूरत पड़ने पर भाई या बहनों के माध्यम से बात होती रही पर बाद में जब पत्नी के साथ उनकी बातचीत फिर से शुरू हो गई तब भी यह भय भरा सम्मोहन उनका पीछा करता रहा। यह इस कदर था कि उस घटना के बाद पत्नी से आँख मिला पाना उनके लिए संभव नहीं रहा। उनको लगता था कि आँख मिलाते ही वह फिर उस घातक सम्मोहन के शिकार हो जाएँगे जो उनकी समूची ताकत खींच लेगा। जब सब को लग रहा होता कि वह पत्नी की आँखों में देख रहे हैं तो वह आँखों के ऊपर माथे पर या आँखों के नीचे टुड्डी पर या नाक पर देख रहे होते। यह अलग बात है कि बैजंती के चेहरे पर एक कटु परिहास हमेशा ही उभर आता उनको देखते ही। इसके बावजूद वह उसी घर में साथ में खाते पीते सोते जागते रहे। बिस्तर पर भी जाते रहे पर संबंधों का वह दुचित्तापन कभी भी खत्म नहीं हुआ। बैजंती हमेशा आँख मिलाकर बात करतीं। बदले में गौरीनाथ कभी भी पत्नी से आँख न मिला पाते। वही माथा, वही ठुड्डी उनका रक्षा कवच थे।
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की की हैं.)