मनोज कुमार पांडेय की कहानी ‘मोह’

 

मनोज कुमार पाण्डेय



मनुष्य अपने आप में विरोधाभासों का एक गुच्छा है। एक तरफ वह सुरक्षा और शान्ति की बात तो करेगा लेकिन दूसरी तरफ अपने को ताकतवर बनाने के उपाय करने से नहीं चूकेगा। वह ऊपर से सीधा-सादा, निश्छल, निष्पाप और मीठा दिखेगा लेकिन गौर से देखने पर उस के अंतर्मन में एक जहर लगातार फ़ैलता दिखाई पड़ेगा। वह समानता की बात तो करेगा लेकिन ख़ुद की पीढ़ियों के लिए अकूत धन-सम्पदा बटोरने से नहीं हिचकेगाअपनों के प्रति ‘मोह’ के चलते फैलते जा रहे इस जहर ने ही तो आज भी ‘समानता’ को दिवास्वप्न जैसा बना रखा है। यह सब कुछ हमारे आस पास, हमारे सामने घटित होता दिखाई पड़ता है लेकिन हमारे कंठ से प्रतिरोध का एक स्वर भी नहीं फूटता। गौरीनाथ इसी किस्म का चरित्र है जिसे उसकी घरेलू परिस्थितियाँ कुछ इस तरह निर्मित कर देती हैं कि वह अन्दर से एकदम क्रूर हो जाता है। क्रूरता की हद यह कि उसके मन में जहर भर जाता है मानव मन-मस्तिष्क में फ़ैल रहे जहर की कहानी है ‘मोह’। कहानीकार मनोज कुमार पाण्डेय की यह कहानी तद्भव के हालिया अंक में छपी है। इस कहानी ने अपने कथ्य और शिल्प की वजह से मुझे इस कदर आकर्षित किया कि मैंने मनोज से इसे ‘पहली बार’ के लिए उपलब्ध कराने का आग्रह किया। तो आइए पढ़ते हैं मनोज कुमार पाण्डेय की यह कहानी       

मोह 


मनोज कुमार पांडेय


चुटकी भर जहर

यह अचूक जहर था जिसे गौरीनाथ ने खुद ही तैयार किया था। एक ऐसा जहर जिसका सफल प्रयोग अपने जीवन में वह कई बार कर चुके थे। किसी को अंदाजा भी नहीं लगना था कि उनकी यह मृत्यु स्वाभाविक मृत्यु नहीं है। यह सामान्य जहर से पूरी तरह से अलग था। उन्हें शाम को इसे लेना था और रात में सोते सोते मर जाना था। कोई पीड़ा नहीं। बस एक घातक नशा। अनंत में उड़ता हुआ एक मारक सपना जो सम्मोहक भी हो सकता था। यह उस सपने की परीक्षा का समय था। उन्हें यह भी देखना था कि कहीं यह सपना मृत्यु ही तो नहीं है या मृत्यु से अलग इसका कोई अस्तित्व है। उन्होंने अपने आसपास चलती परछाइयों को देखा। जिनके विकृत चेहरे उनके आसपास तैर रहे थे, बिना किसी शिकायत के। गौरीनाथ ने अपनी आँखें मूँद ली और देर तक न जाने क्या बुदबुदाते रहे। इस बुदबुदाहट में जो भी रहा हो पर जब वे शांत हुए तो पहले से कमजोर लग रहे थे। उन्होंने अपने से मन ही मन सवाल किया कि क्या वे जहर खाकर आत्मघात करने के लिए ही इस दुनिया में आए थे। बदले में उन्हें एक मासूम से बच्चे की मासूम हँसी सुनाई दी। यह हँसी उनकी गोद में बैठी थी और उनका गाल सहला रही थी।
गौरीनाथ ने खूब खूब पीसी हुई भाँग में चुटकी भर जहर मिलाया और बिना इधर उधर देखे उसे घूँट भर पानी के साथ निगल गए। अब बिस्तर था और आगे की यात्रा थी। अब या तो सब कुछ खत्म हो जाने वाला था या फिर वे इस जीवन के अपने कर्मों के साथ एक नई यात्रा पर निकलने वाले थे जिसके बारे में तमाम धर्मग्रंथों में खूब खूब लिखा गया था। उन्होंने यही सोचा था कि इसके बाद वह अपने घर-परिवार के बारे में कुछ भी नहीं सोचेंगे। उन्होंने जो कुछ किया उसके पीछे प्रारब्ध था। नहीं तो उनका ही जीवन इस तरह से क्यों होते जाना था। प्रारब्ध! एक विकट हँसी उनके भीतर प्रकट हुई जिसका गला उन्होंने भीतर ही घोंट दिया। सच्चाई इसके एकदम उलट थी और यह बात अब वे बखूबी जानते थे कि इस दुनिया से मुक्ति की चाह में उन्होंने जहर नहीं खाया था। यह एक उनका ही बुना हुआ जाल था जो उन्हें इस स्थिति तक ले आया था। और अब वे गोली निगल कर मृत्यु के सम्मोहक सपने का इंतजार कर रहे थे। उनके पिता ने बताया था कि इस तरह से मरने वाले को महसूस होता है कि वह मर नहीं रहा बल्कि सशरीर उड़कर जा रहा है कहीं। किसी ऐसी जगह जहाँ वह हमेशा जाना चाहता रहा हो। वह अपने जीवन में आखिर कहाँ जाना चाहते रहे थे हमेशा? 

और गौरीनाथ उड़ चले। अब रात भर उन्हें उड़ते ही रहना था। बहुत ऊपर जहाँ वे उड़ रहे थे वहाँ से वे अपने जीवन में कहीं भी उतर सकते थे। अपना ही जीवन उन्हें कुछ इस तरह से दिख रहा था जैसे वह किसी और का हो बल्कि वही कोई और हों। इस सम्मोहक सपने में प्रवेश का पहला ही असर यह हुआ कि वे उन घातक परछाइयों से मुक्त हो गए जिन्होंने पिछले कई सालों से उन्हें घेर रखा था। अब परछाइयाँ सशरीर थीं। उसी उम्र में ठहरीं हुईं जिस उम्र में गौरीनाथ ने उन्हें मृत्यु के पास जाने के लिए विवश कर दिया था। वे इस संयोग से लगभग चकित रह गए कि उनके पिता माताफेर तिवारी हूबहू उनकी तरह ही लग रहे थे। कुछ इस तरह जैसे पिता न होकर एक साथ जन्में जुड़वा भाई हों, एक दूसरे के हमशक्ल। इसका मतलब क्या यह था कि वे अपने अवैध होने के जिस संदेह को अपनी चेतना में ढोते रहे थे वह गलत था? 

इस बात से उन्हें कोई आश्वासन नहीं मिला। बल्कि यह एक शुरुआत थी जब उनके लिए सारी चीजों का अर्थ बदलते जाना था। उन्होंने जान लिया कि यह नरक की नदी है जिसे पार नहीं करना है हमेशा उसी में बहते रहना है। एक पूरा जीवन जो गलत धारणाओं से नष्ट हुआ और क्या सिर्फ एक जीवन! क्या अभी भी वह स्वार्थ में इतने डूबे हुए हैं कि उन्हें दूसरों का जीवन नहीं दिखाई देता जिसे उन्होंने नष्ट कर दिया हमेशा के लिए। गौरीनाथ हमेशा अपने पिता से घृणा करते रहे। पर अभी मृत्यु के इस घातक सपने के भीतर वे जानते हैं कि वे अपने पिता से कई गुना ज्यादा घृणित हैं। उन्होंने अपने जीवन में पिता की उस छवि को अपरिमित विस्तार दिया है जिसे अपने भीतर वह हमेशा पाल पोस कर बड़ा करते रहे। तो क्या पिता यह बात जानते थे। क्या जहर बनाना उन्होंने इसीलिए सिखाया था कि जब अपने ही भीतर बजबजाती हुई यातना अपरिमित विस्तार पा ले तो उससे मुक्त हुआ जा सके? तो क्या पिता को यह भी मालूम रहा होगा कि इस जहर का पहला प्रयोग खुद उन पर ही होने जा रहा था?


पिता का जीवन

वह दिन जिसे गौरीनाथ तिवारी ने अपनी आत्महत्या के लिए चुना था वह उनका सरकारी जन्मदिन था। इस दिन वे सैतालीसवाँ साल पूरा करके अड़तालीसवें साल में प्रवेश कर रहे थे। जब उन्हें प्राथमिक पाठशाला में प्रवेश दिलाने को लेकर उनके पिता माताफेर तिवारी स्कूल गए तो उन्हें पता ही नहीं था कि प्रवेश के पहले बच्चे का जन्मदिन भी पूछा जाता है। माताफेर को उनका जन्मदिन याद नहीं था सो प्रधानाचार्य महोदय ने वही किया जो ऐसी स्थितियों में वे करते रहे थे। उन्होंने बालक गौरीनाथ को उदारतापूर्वक एक काल्पनिक जन्मतिथि दे दी। पहली जुलाई उन्नीस सौ अट्ठावन। और इस तरह गौरीनाथ सीधे तीसरी कक्षा के विद्यार्थी हुए।

माताफेर ने गौरीनाथ को स्कूल में दाखिल करके कुछ इस तरह का अनुभव किया कि जैसे उन्होंने बहुत बड़ी जिम्मेवारी पूरी कर ली। लौटते हुए रास्ते में उन्होंने गौरीनाथ को समझाया कि उन्हें खूब मन लगाकर पढ़ाई करनी है और जो सीखना है वह अपने छोटे भाई बद्रीनाथ को भी सिखाना है। हालाँकि गौरीनाथ को दो बहनें भी थीं पर उनके बारे में उनके पिता ने कुछ भी नहीं कहा। गौरीनाथ के तीनों भाई बहन उनसे छोटे थे और अभी दिन भर अपनी माँ के पीछे पीछे नाक सुड़कते घूमा करते थे।

माताफेर तिवारी किसी जमींदार के यहाँ मुनीमी करते थे। वह सुबह उठते, लोटा लेते, लँगोट उठाते और गंगा की तरफ निकल जाते जो घर से दक्षिण की तरफ लगभग कोस भर की दूरी पर बहती थी। वहीं दिशा फरागत होते, दातून करते, नहाते, लँगोट बदलते और वापस आ जाते। बाद के दिनों में वह लँगोट वगैरह लेकर जाने की समस्या से भी मुक्ति पा गए थे। हुआ यह कि घाट पर रह रहे एक साधु से उनकी दोस्ती हो गई और वह अपना लँगोट उसी साधु के आश्रम – या झोंपड़ी जो भी कहें – में किसी पेड़ वगैरह पर डालकर चले आते और अगले दिन वहीं से उठा लेते।

गंगा किनारे कई छोटे छोटे मंदिर बने हुए थे। नहाकर वह वहीं अपने आराध्य हनुमान की पूजा करते और साथ में शंकर पार्वती आदि अन्य देवी-देवताओं को भी जल और फूल वगैरह चढ़ा आते। इसके बाद घर आते और खा-पी कर जमींदार की चाकरी में निकल जाते। दिन भर अपना काम करते और शाम को सीधे वहीं से मंदिर चले जाते। मंदिर पर देर रात तक कीर्तन वगैरह चलती रहती। पंडित माताफेर का मन कीर्तन वगैरह में खूब खूब लगता। वहाँ से निकलते हुए कई बार वह परसाधी खाकर (भोजन करके) ही निकलते। उन्हें लौटते लौटते कई बार दस ग्यारह बज जाते।

पंडिताइन घर में इंतजार करती मिलतीं। गौरीनाथ, बद्रीनाथ, रामरती और फूलमती सो चुके होते। खाना ठंडा हो चुका होता। माताफेर कभी खाते तो कभी बताते कि वह परसाधी खाकर आए हैं और उन्हें भूख नहीं है। यह सुनकर पंडिताइन एक बार सिर उठाकर माताफेर की तरफ देखतीं भी नहीं। उनकी भूख मर जाती। कई बार वे कुछ खातीं तो कई बार बिना कुछ खाए ही रसोई समेट लेतीं। इसके बाद वह माताफेर का पैर दबातीं। कई बार मालिश करतीं। माताफेर उन्हें यह बताते रहते कहाँ कहाँ ज्यादा जोर देना है कहाँ कहाँ देर तक रुकना है और कहाँ कहाँ से बस सरसरी तौर पर निकल जाना है। यह सब बताते बताते उनके गले से घुरघुराने की आवाज निकलने लगती। पंडिताइन का मन विरक्ति से भर जाता। वे बगल में पड़ी दूसरी चारपाई पर जाकर लेट जातीं। कभी कभी तुरंत नींद आ जाती तो कई बार दिन भर की थकान के बावजूद रात रात भर नींद न आती। रात रात भर जीवन के तमाम दृश्य सपनों की तरह झिलमिलाते रहते।

पंडित कभी कभी मर्द भी बन जाते। मालिश करवाते करवाते पंडिताइन को अपनी तरफ खींच लेते और खुद भी मालिश में जुट जाते। पर यह क्रम कभी भी ज्यादा देर न चलता। इसके बाद वह हाँफते हुए करवट बदल कर सो जाते। कई बार उठकर बीच रात में ही नहाने चल देते। इसके पीछे न जाने कहाँ से आकर भीतर बैठी यह भावना होती कि कुछ देर पहले जो कुछ वह कर रहे थे वह एक नीच और पातक कर्म था। कि इसके बाद शरीर तो क्या आत्मा तक अशुद्ध हो जाती है। अगले दो चार दिन वह मालिश या हाथ पैर दबाने के लिए भी मना कर देते। उनके मन में स्त्री शरीर को लेकर गहरी घृणा थी पर अपनी सारी कोशिशों के बावजूद स्त्री शरीर के बिना वह रह भी नहीं पाते थे। तो बीच का रास्ता यह होता कि पंडिताइन के पास जाते तो जल्दी से जल्दी वहाँ से मुक्त होना और भागना चाहते।

पंडिताइन को पुरुष शरीर से कोई घृणा नहीं थी। हाँ वे पंडित माताफेर से जरूर घृणा करती थीं। बेपनाह घृणा। पर स्त्रियों के सदियों पुराने अभ्यासवश इस घृणा का पता उन्होंने माताफेर को कभी भी नहीं चलने दिया और छोटे मोटे झगड़ों के बावजूद समर्पिता पत्नी बनी रहीं। पति की सेवा करते हुए, बच्चे पैदा करते हुए, दिन-रात घर के कामों में डूबी रहते हुए। और ऐसे ही एक दिन सानी पानी करते हुए उनकी प्रिय स्वर्गीय गाय के एक जवान होते बछड़े ने जब अपनी सींगों पर उठा कर उन्हें फेंका तो उनका शरीर भले ही थोड़ी दूर पर जा कर गिरा पर आत्मा ऊपर की ऊपर ही उड़ गई थी।


माँ की मृत्यु

पंडिताइन का नाम बेला था। ससुराल आ कर वह खुद भी अपना नाम भूल गई थीं। यहाँ उन्हें इस नाम से पुकारने वाला कोई भी नहीं था। रही मायके वालों की बात तो वह एक बार ससुराल आईं तो मायके जाना नसीब ही नहीं हुआ। न जाने किस मक्खी ने माताफेर तिवारी को लात मार दी थी। वह बेला को मायके भेजने के लिए तैयार थे पर उनकी एक ही शर्त थी कि बेला वापस ससुराल लौटकर नहीं आएँगी। बेला मायके नहीं गईं। जब डरी डरी सी बेला ससुराल आई थीं तो उन्हें बताया गया था कि घर में न सास का चक्कर है न ससुर का झमेला। वे घर में राज करेंगी। बेला के शरीर से बेला सी ही सुगंध फूटती थी। पंडित माताफेर ने सबसे पहला सवाल इस सुगंध पर ही किया। महकना रंडियों का काम है भले घर की औरतों का नहीं, माताफेर ने कहा। बेला को खुद से निकलने वाली सुगंध के बारे में कुछ भी नहीं पता था। पर उन्होंने इस बात का पूरा इंतजाम किया कि अगर ऐसी कोई गंध है तो उसे मार दिया जाय।

इसके पहले कि पंडित माताफेर उठते वह उठ जातीं और काम में लग जातीं। रात के बर्तन साफ करतीं। घर बुहारतीं। पूरा घर लीपतीं। दिन भर की जरूरत के लिए कुएँ से पानी भर कर रखतीं। माताफेर के लिए भोजन तैयार करतीं। एक गाय थी। उसकी जगह बदलतीं। गोबर काढ़तीं। गाय को चारा डालतीं। जब तक बच्चे नहीं हुए यह गाय उनकी इकलौती साथी रही। उनके ध्यान का केंद्र, उनकी सखी, उनकी दुश्मन। सब कुछ वही। गाय उन्हें अपने गौने में मायके से मिली थी। तब वह बछिया ही थी। एक और भी बात थी। ससुराल में कोई और उनका साथी हो भी नहीं सकता था। माताफेर जब बाहर निकलते तो घर में बाहर से ताला बंदकर निकलते। उनका मानना था कि पंडिताइन अभी बच्ची हैं और उन्हें किसी बात की समझ नहीं है। यह अलग बात है कि ताले में रखने के बावजूद वह रात को आने पर दिन भर की टोह लेने की कोशिश करते। यह जाँचने की कोशिश करते कि कहीं बेला की इच्छा बाहर निकलने की तो नहीं होती? उनके बहुत मनुहार पर बेला ने एक बार कह दिया था कि हाँ उनकी इच्छा बाहर निकलने की होती है कभी कभी। वे दिन भर घर में बंद रहते रहते ऊब जाती हैं। कोई उनसे बात करने वाला नहीं है यहाँ पर।

बेला बात तो अपने अपमान की भी करना चाहती थीं पर उन्हें माताफेर की मनुहार पर इतना भी भरोसा नहीं हो पाया था। वे सही थीं। माताफेर ने तुरंत ही उनके बालों को पकड़ा और लात मारी। साथ में इसके लिए बेला पर जी भरकर लानत भेजी कि वे किसी से बात करना चाहती हैं। बाजार घूमना चाहती हैं। और घर में रहते हुए ऊबना यह तो माताफेर की समझ के बाहर था। औरत घर के लिए ही बनी है। वह घर में रहते हुए ऊब कैसे सकती है। घर में रहने से ऊबना पंडित माताफेर के लिए रंडियों का चाल चलन है। यह सोचते ही माताफेर को फिर से गुस्सा आ गया। उन्होंने जमीन पर बिखरी पड़ी बेला की पीठ पर फिर से एक जोरदार लात मारी और पूछा कि तुम्हारे लिए मैं कम पड़ता हूँ क्या जो बाजार में निकलना चाहती हो।

और फिर बच्चों का आना शुरू हुआ जो करीब डेढ़ साल में एक की औसत से अगले बारह तेरह साल तक आते ही चले गए। पंडिताइन का पूरा समय बच्चों की सेवा में बीतने लगा। उधर गाय ने भी पंडिताइन के साथ ही बच्चे देने शुरू किए। अगले बारह तेरह साल तक, जब तक कि वह बूढ़ी होकर मर नहीं गई लगातार बच्चे देती रही। पर गाय और पंडिताइन में अंतर यह था कि गाय अपनी उमर में ही जाकर बूढ़ी हुई थी जबकि पंडिताइन अभी मुश्किल से तीस की भी नहीं हो पाई थीं कि बूढ़ी हो गई थीं। उनकी कमर ने उनका बोझ खुशी खुशी उठाने से मना कर दिया था और झुक गई थी। पंडिताइन जरा भी बैठतीं तो अकड़ जातीं। वह बिना किसी सहारे के खड़ी न हो पातीं। पहले की तरह झुककर झाड़ू वगैरह न लगा पातीं। अब यह काम उन्हें बैठे बैठे एक जगह से दूसरी जगह घिसटते हुए करना पड़ता। वे बैठे बैठे एक जगह से दूसरी जगह घिसट रही होतीं और उनके पीछे मक्खियों की एक पूरी फौज के साथ उनके बच्चे घिसट रहे होते। जिनकी संख्या घटती बढ़ती रहती।

गाय और पंडिताइन में एक अंतर यह भी था कि गाय के सारे बच्चे जिए और स्वस्थ रहे। दूसरी तरह पंडिताइन के कई बच्चे तो छठे सातवें महीने में ही गिर गए। जो पेट में अपना पूरा समय लेकर पैदा हुए उनमें भी ज्यादातर कई कई सालों तक पंडिताइन से सेवा करा कर उन्हें उऋण करके चलते बने। जब पंडिताइन के मरने से बच्चों के आने और जाने का यह सिलसिला समाप्त हुआ तो बच्चों की स्थिर संख्या बची थी चार – गौरीनाथ, बद्रीनाथ, रामरती और फूलमती। इस बीच बेला की महक गायब हो गयी थी और उसकी जगह गाय के गोबर और बच्चों के गू-मूत ने ले ली थी। यही वजह थी कि पंडित माताफेर अब थोड़ा उदार हो चले थे। उन्होंने घर से बाहर निकलते हुए घर में ताला लगाना बंद कर दिया था। 

माँ की मृत्यु के समय गौरीनाथ आठवीं में पढ़ते थे। स्कूल करीब पाँच कोस दूर था। वह सुबह आठ साढ़े आठ बजे तक खा-पीकर और दोपहर के लिए कुछ चबैना वगैरह लेकर स्कूल के लिए निकल जाते। गाँव से एक और लड़का था जो उनके साथ जाता था। बाकी रास्ते में अक्सर कुछ और लड़के टकरा जाते। इस तरह खेलते कूदते वे स्कूल पहुँच जाते। माँ की मृत्यु ने यह सब कुछ बदल दिया था। घर पर छोटे छोटे भाई बहन थे। अब उनका खयाल रखना बड़े होने के नाते उनकी जिम्मेदारी थी। इस जिम्मेदारी को निबाहते हुए कब गौरीनाथ अपने भाई और बहनों की माँ में बदल गए यह वे खुद भी नहीं जान पाए। उनका नियमित स्कूल जाना बंद हो गया। 


माँ की रुलाई

गौरीनाथ ने बचपन में ही बाजरे या ज्वारी को आटे में बदलना सीखा और आटे से रोटियाँ बनाना। इसी तरीके से उन्होंने और भी बहुत सारे काम सीखे। चारपाई बीनना, कपड़े सिलना, स्वेटर बुनना से लेकर घर की खपड़ैल दुरुस्त करना, दीवालों में मिट्टी लगाना, सुतली से रस्सी तैयार करना जैसे न जाने कितने काम उन्होंने खुद से सीखे या कि जरूरत ने उन्हें सिखाया। घर के आसपास की खाली जगहों पर सब्जियाँ उगाई। हल चलाना सीखा, खेती करनी सीखी। कुछ इस तरह कि उन्होंने अपने आपको पूरी तरह से घर को खड़ा करने और अपने भाइयों और बहनों को बड़ा करने में लगा दिया। आगे की पढ़ाई उन्होंने लगभग घर पर रहते हुए ही की। और इसी तरह से एक दिन कर कराकर वे प्राथमिक पाठशाला में शिक्षक हो गए।

इन सबके बीच गौरीनाथ हर पल माँ को याद करते रहे। उन्होंने जाँत पीसते हुए, धान या बाजरा कूटते हुए कई बार माँ को रोते हुए देखा था। वे छोटे थे समझ नहीं पाते थे कि माँ क्यों रो रही है। कोई दुख है इतना तो उन्हें पता चलता ही था। वह कई बार जाकर रोती माँ से लिपट जाते। माँ अमूमन अपना रोना छिपाती। कहती कि बाजरा कूटते हुए धूल उड़कर आँखों में जा रही है इस वजह से आँखों से डँहका बह रहा है। या कि कोई कीड़ा चला गया था या आँख में खुजली हो रही थी। उन्होंने आँखों को मसल दिया तो आँखों से पानी बहने लगा। माँ के पास अपना दुख छुपाने के लिए ढेरों बहाने थे जिनके द्वारा माँ गौरी को बहलाने की कोशिश करती। गौरी को अक्सर माँ पर शक होता कि वह झूठ बोल रही है पर उसे खुश करने के लिए उसके बहाने सच मान लेते।

सिर्फ एक बार ऐसा हुआ था कि जाँता चलाते हुए माँ कुछ गा रही थी और रो रही थी। गौरीनाथ देर तक माँ का रोना छुपकर सुनते रहे। माँ का रोना सुनते सुनते उन्हें भी रुलाई आ गई। वह रोते रोते ही गए और माँ से लिपट गए। माँ ने अचानक से अपनी रुलाई रोकने की कोशिश की पर इस कोशिश में वे भरभरा गईं और रोकते रोकते उनकी रुलाई तेज होने लगी। वे रुलाई को जितना ही रोकने की कोशिश करतीं वह उतनी ही तेज होती जाती। उन्होंने गौरी को अपने में भींच लिया और इसी के साथ रुलाई रोकने की कोशिश बंद कर दी। वह देर तक रोती रहीं। वह माँ की काँपती हुई पीठ सहलाते रहे। उसकी आँखों से आँसू पोंछने की कोशिश करते रहे पर भीतर जैसे कोई आँसुओं का बाँध था जो आज ढह गया था। बहुत देर बाद माँ जब चुप हुई तो रोते रोते बेहोश सी हो गई थी। वह गौरी को अपने से चिपटाए हुए वहीं जमीन पर गिर गई। 

गौरी ने माँ को पहले भी कई बार रोते हुए देखा था पर उस दिन का रोना अचानक और भीतर तक भिगो देने वाला था। वैसी भीषण रुलाई उन्होंने इसके पहले कभी नहीं देखी थी। उस समय तो वह जैसे जड़ से हो गए थे। कुछ नहीं समझ में आया तो पानी ले आए और जबरदस्ती बेहोश माँ को पानी पिलाने लगे। माँ के दाँत एक दूसरे पर कसे हुए थे। पानी पिलाने की उनकी कोशिश कामयाब नहीं हुई। फिर वह माँ का मुँह धोने लगे। थोड़ी देर बाद माँ को जब होश आया तो वह उसी डरी हुई स्तब्धावस्था में माँ का सिर सहलाते हुए बैठे थे। माँ ने उनका सिर सहलाया, गाल सहलाए। इस सहलाने में ऐसा कुछ शामिल था कि वे समझ गए कि उन्हें माँ के रोने को हमेशा अपने भीतर छुपाकर रखना है। तब उन्हें नहीं पता था कि यह छुपी हुई रुलाई बहुत सालों बाद अपना रूप बदलकर और भी घातक और विराट हो कर उनके भीतर से प्रकट होनी है।

जब घर के सारे काम काज करते हुए गौरी धीरे धीरे माँ की भूमिका में उतरे तो उसमें कहीं उनके भीतर छुपी हुई इस रुलाई का भी गहरा योगदान था। यह भी माँ की रुलाई ही थी जिसने उन्हें अपने पिता यानी माताफेर के प्रति एक बेपनाह घृणा से भर दिया। हालाँकि इस घृणा को उन्होंने एकदम उसी तरह से अपने भीतर छुपाकर रखा जिस तरह से माँ ने अपने भीतर छुपा रखा था या कि उन्होंने अपने भीतर माँ की रुलाई छुपा रखी थी। इतने भीतर कि वह खुद उसे भूल गये थे धीरे धीरे। बहुत सालों बाद जब यह रुलाई बाहर आनी थी तभी उन्हें रुलाई के साथ माँ की एक झलक भी देखनी थी और उस गाढ़े पल को याद करना था जो जीवन भर उनके भीतर बना रहा था।

पर क्या वह कोई इकलौता पल था? ऐसे न जाने कितने पल छुपे बैठे थे उनके भीतर। बस अंतर यह था कि वह उन पलों के दर्शक भर रहे थे। पर उन पलों की छवियाँ इतनी मारक और अमिट थीं कि एक दर्शक की तरह तटस्थ हो पाना संभव नहीं हुआ था। कई जगह तो दृश्य भी नहीं थे, बस आवाजें थीं। जैसे एक रात जब वह अचानक से चौंक कर उठे तो उस तरफ जिधर माताफेर और माँ सोती थीं उधर से अजीब अजीब आवाजें आ रहीं थी। वे डर गये। अँधेरे में कुछ दिख नहीं रहा था। बस आवाजें थीं। बहुत बाद में वे आवाजें माँ की रुलाई में घुल गई थीं। न जाने कितनी बार माँ को पिटते हुए देखना और हमेशा डर से काँपते हुए कहीं दूर खड़े रहना। उन्हें बस एकाध बार की याद है जब बदले में माँ चीखी हो, नहीं तो बस पिटने की ही आवाजें थीं। माँ ऐसे समय पर एकदम चुप हो जाती। इतनी कि गौरी अपने पिता माताफेर की साँस तक सुन पाते। गौरी भी माँ की तरह अपनी साँस रोक लेते और देर तक रोके रखते। उन्हें लगता कि उनकी भी साँस की आवाज सुन ली जाएगी। उन्हें नहीं पता था कि तब क्या होगा पर गौरी हमेशा सचेत रहे कि इस बात का पता कभी किसी को न चले, माँ को तो कभी भी नहीं कि वे सब कुछ जानते हैं। क्या सचमुच वे सब कुछ जानते थे?

यह उन्हीं दिनों की बात है कि उनके भीतर पिता के लिए बेपनाह घृणा भरती चली गई। वे पिता को पीटना चाहते थे, पिता को तड़पते हुए देखना चाहते थे। उनकी हत्या कर देना चाहते थे। पर गौरी ने कुछ नहीं किया। वे एकदम माँ की तरह ही निरपेक्ष आज्ञाकारी बने रहे। अगर उन्होंने पिता को कुछ नहीं किया तो इसके पीछे डर ही नहीं था, और भी अनेक चीजें और भावनाएँ आपस में गुँथी हुई थीं। जिन्हें अलग अलग देख पाना उनके लिए संभव नहीं था। खासकर माँ के मरने के बाद जो एक बेचारगी गौरी और उनके भाई बहनों को झेलनी पड़ रही थी वह उन्हें उस उमर में भी बहुत गंदी और तकलीफ देने वाली लगती थी। ऐसी स्थिति में पिता का न होना उनके पूरे जीवन को एकदम बदल देता। अपनी सारी लापरवाही के बाद भी माताफेर इन बच्चों के लिए एक छाँव की तरह से थे, भले ही उन्होंने इन बच्चों को कभी गोद में नहीं उठाया, उनकी नाक नहीं पोंछी। उनके होने के बावजूद वे भटकते रहे। यह गौरी थे जिन्होंने उन्हें सँभाले रखा।

पिता माताफेर

पंडित माताफेर जिन्हें अब थोड़ा बदल जाना था और अपने छोटे छोटे बच्चों का ध्यान रखना था, पहले की तरह ही आवारा बने रहे। वे बस इतने से अपनी जिम्मेवारी की इति मान लेते थे कि घर में अनाज बना रहे। कभी कभार अगर वे घर के प्रति जिम्मेवारी महसूस करते तो गौरीनाथ को पास बैठा लेते और सीख देते कि घर में बड़े भाई का मतलब क्या होता है। अपनी बात रखने या कि गौरीनाथ को समझाने के क्रम में वे तमाम पौराणिक कहानियाँ और लोक कथाएँ सुनाते जिनमें घर के बड़े भाई द्वारा किए गए असीमित त्याग आदि का मार्मिक वर्णन रहता। गौरीनाथ उनके बिना बताए ही अपने कर्तव्यों का निर्वाह बेहद लगाव के साथ कर रहे थे। वे कई बार कहने को होते कि इस सीख की जरूरत अगर किसी को थी तो खुद उनके पिता माताफेर तिवारी को थी। पर यह बात वे उस समय न कहकर बहुत समय बाद कह पाए।

गौरीनाथ के प्रति जो दूसरी बड़ी जिम्मेदारी उनके पिता ने निभाई वह थी उनका विवाह करने की। माँ के मरने के दूसरे साल ही उन्होंने गौरीनाथ का विवाह कर दिया। गौरीनाथ अभी विवाह नहीं करना चाहते थे पर पिता के सामने मना करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी। उन्होंने वैसे ही निष्ठा से अपने विवाह की सभी तैयारियाँ की जिस निष्ठा से अब तक घर के सारे काम करते रहे थे। यहाँ तक कि निमंत्रण पत्र भी खुद ही तैयार किए। माताफेर ने निमंत्रण की मूल प्रति स्वयं लिखी और गौरीनाथ को थमा दी। गौरीनाथ ने उसकी नकल में निमंत्रण पत्र की बहुत सारी प्रतियाँ तैयार की। उन पर उन लोगों के नाम लिखे जिन्हें वह पहुँचाई जानी थीं। इसके बाद निमंत्रण पत्र नाई के हवाले कर दिए गए। विवाह से जुड़ी सारी खरीददारी माताफेर ने खुद की। बच्चों के लिए कपड़े खरीदे। बुआओं को जाते समय देने के लिए धोतियाँ खरीदी। और भी छोटी बड़ी न जाने कितनी खरीददारियाँ। बहनों को ले आने के लिए उनके घर जाना। और इस तरह से गौरीनाथ का विवाह संपन्न हुआ।

दहेज में गौरी को बहुत सारे घरेलू इस्तेमाल में आने वाली चीजों के अलावा एक साइकिल भी मिली। साइकिल पाकर वे खुश थे। उन्हें लगा कि अब उनका स्कूल जाना आसान हो जाएगा। वे घर का खयाल रखने के साथ साथ स्कूल भी जा सकेंगे। कहीं आना जाना, सौदा सामान लाना सब कुछ अब वे ज्यादा आसानी से कर सकेंगे। पर साइकिल पिता ने झटक ली। गौरी को बहुत बुरा लगा पर वे चुप्पी साध गए। शायद साइकिल को लेकर उनकी आकांक्षाओं का थोड़ा बहुत अंदाजा माताफेर को भी हो गया। तभी तो उन्होंने एक दिन उनको बैठाकर समझाया कि गौरी का साइकिल लेकर बाहर निकलना अभी ठीक नहीं है। वे अभी बच्चे हैं और कोई भी राह चलते उन्हें दो तमाचे मारेगा और साइकिल छीन ले जाएगा। गौरी चुपचाप सुनते रहे। मन में आया कि कहें कि तुमने तो बिना मारे ही छीन ली पर कह नहीं पाए। वह किसी काम के बहाने से उठे और बाहर निकल गए।

गौना तीन साल बाद आना था। इस बीच गौरीनाथ ने अपने आपको पूरी तरह से घर के कामों में झोंक दिया। उनकी सुबह चार बजे से ही शुरू हो जाती। घर बाहर के लगभग सारे काम उनके जिम्मे थे। भाई और बहनों की देखभाल। भाई को पढ़ाना। थोड़ा बहुत बहनों को भी पढ़ाना। जानवरों की देखभाल, खेती, घर की साफ सफाई। कोई भी ऐसा काम नहीं था जो गौरीनाथ के जिम्मे नहीं था। माताफेर बस काम बताकर बाहर निकल जाते। गौरी ने पूरी जिम्मेदारी से सभी कामों को निबाहा। इस बीच अच्छी बात बस यह हुई कि उनके भाई बहन भी बड़े हो रहे थे और धीरे धीरे उन्होंने गौरी के कामों में हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। और जब तीन साल बाद गौरी का गौना आया तो तब तक वह प्राथमिक पाठशाला में अध्यापक हो चुके थे।

उनके गौने के तुरंत बाद ही माताफेर ने गौरी की बहन रामरती की शादी तय कर रखी थी। उनकी योजना यह थी कि गौरी के गौने में जो कुछ भी मिलेगा वह बेटी की शादी के दहेज में काम आ जाएगा। गौरी की शादी में मिले बर्तन जस का तस सँभाल कर रखे हुए थे। गौरी को शादी में एक अँगूठी मिली थी सोने की, वह भी उतरवा ली गई। इसी तरह रेडियो भी बहन के दहेज के काम आया। बस एक चीज थी जिसे गौरी ने देने से इनकार कर दिया। यह थी एक सुंदर सी जेबघड़ी। सीधे इनकार की आदत तो उनकी थी नहीं सो बहाना बनाया कि कहीं खो गई। माताफेर को जब भी घड़ी की याद आती बड़बड़ाने लगते। गौरी किसी न किसी बहाने से वहाँ से हट जाते।

रामरती की शादी के कई दिन बाद जब घर औरतों से खाली हुआ तब जाकर वह अपनी पत्नी से मिल पाए। इस बीच गौरी ने कई बार कोशिश की पर वह कोशिश विफल रही। उन्हें लगता कि जैसे घर भर के लोग इस बात की निगरानी कर रहे हों कि वह अपनी पत्नी से कभी न मिल पाएँ। वे बिना किसी काम के बार बार घर के भीतर जाते। इधर उधर कोने अँतरे न जाने क्या कुछ खोजने की कोशिश करते। जब कोई पूछता तो कुछ न कुछ बता देते या कुछ भी, जो सामने दिखता लेकर बाहर निकल आते। फिर घुसते फिर निकलते। यह सिलसिला चलता ही रहता।

बेला पार्ट टू

वैसे एक दूसरी भी बात थी। गौरी को सही सही यह पता भी नहीं था कि मिल के वे क्या करेंगे, क्या बातें करेंगे, पर इतना वे साफ साफ जानते थे कि वह उनकी पत्नी है और उससे मिलना चाहिए। भीतर एक हलचल मची हुई थी। उत्तेजना थी, डर था। उन्हें नहीं पता था कि जब वे घर में घुसते हैं तो इस उम्मीद में उनकी धड़कनें क्यों तेज हो जाती हैं कि क्या पता बैजंती से सामना हो जाए। हाँ यही नाम है उनकी पत्नी का। और एक दिन जब वह पत्नी की कोठरी में घुस पाए तो इतने सकपकाए हुए थे कि कोठरी का किंवाड़ बंद करना भी भूल गए। घनघोर गर्मी के मौसम में उन्हें कँपकँपी लग रही थी। वे जाकर एक कोने में खड़े हो गए। फिर जैसे इधर उधर कुछ खोजते हुए जाकर पलंग पर बैठ गए। इसके पहले वे पलंग पर कभी नहीं बैठे थे सो पलंग पर बैठकर उन्हें अच्छा भी लगा। पत्नी से बोले कि तुम भी पलंग पर बैठ जाओ। जैसे उन्हें पता ही नहीं था कि पत्नी रोज उसी पलंग पर उनकी किसी न किसी बहन के साथ सोती थी और भौजी के साथ सोने को लेकर दोनों बहनों में झगड़ा भी होता था।
    
जब बैजंती यानी कि उनकी पत्नी उनके कहने पर पलंग पर आकर नहीं बैठी तो उन्होंने उनका हाथ पकड़कर उन्हें पलंग पर बैठाने की कोशिश की। हाथ पकड़ते हुए उन्हें हाथों में झनझनाहट हुई। भीतर जैसे धमाके से हुए। वे उन्हें पलंग पर खींच कर बैठा ही ही देना चाहते थे कि पत्नी के मुँह से निकला कि अरे बुद्धूराम किंवाड़ तो बंद कर लो। तब उन्हें किंवाड़ की सुधि आई। वे इस बात पर शरमा भी गए कि यह बात उन्हें पत्नी के बताने पर याद आई। उन्होंने तुरंत उठकर किंवाड़ बंद कर किया। कोठरी में एक कोने चिमनी जल रही थी। कुछ नहीं समझ में आया तो उठे चिमनी हाथ में पकड़ी और लाकर पत्नी का चेहरा देखने लगे। उन्हें अपनी किस्मत पर बहुत खुशी हुई। वे सुनते रहे थे कि उनकी पत्नी बहुत सुंदर है पर देखने का मौका अभी हाथ लग रहा था। पत्नी ने अपनी आँखें मूँद रखी थी। वह भकुवाए हुए पत्नी को देखते रहे फिर पत्नी से आँख खोलने के लिए बोलने लगे। पत्नी ने आँख खोली और चिमनी पर फूँक मार दी। चिमनी बुझने को होते होते फिर जल उठी। गौरी ने चिमनी को दूर ताखे पर ले जाकर रखा। लौट कर पत्नी को गोद में उठाया और बिस्तर पर ले जाकर बिठा दिया। 
उन्हें कभी समझ में नहीं आया कि अचानक उनके अंदर एक उत्तेजना कहाँ से प्रकट हुई थी। क्या यह घबराहट से पैदा हुई या कि इस एहसास से कि वे पहली बार किसी युवा स्त्री के इतनी नजदीक थे और वह खूबसूरत युवती उनकी पत्नी थी। या कि इसके पीछे यह डर कि पता नहीं आज के कितने दिन बाद वह फिर से पत्नी के कमरे में आ पाएँ? यह सब उनकी बाहरी खामखयालियाँ थीं जिनसे गौरी बाद में पत्नी के सामने अपने को बहलाते थे। और अपनी इन बातों पर इतने मुग्ध कि कई बार अकेले में भी इसी आधार पर अपने को बरी कर देते थे। यह तो उन्हें बहुत बाद में जानना था कि वे भी अपने पिता की तरह ही थे। वैसे ही जिन्हें पत्नी के साथ सोना पसंद था पर ऐसी रातें उनके जीवन में कभी नहीं घटी थीं जब पत्नी के साथ जागना भी उतना ही पसंद आया हो। वह भी अपने पिता की तरह ही होते गए थे धीरे धीरे। थोड़ा भिन्न तरीके से। वह अपनी पत्नी को उसके शरीर से अलग करके देख ही नहीं पाए कभी। एक बेहद खूबसूरत और कामनाओं से भरा हुआ शरीर जो उत्तेजक भी था। वह एक कमतरी के एहसास से घिर गए। पत्नी रंग-रूप में पहले से ही उनकी तुलना में बहुत सुंदर थीं। उसकी सुंदरता में मिलकर यह एक नया डर सामने था कि क्या वे हमेशा अपनी पत्नी की कामनाओं का जवाब दे पाएँगे? 
यह एक खानदानी डर था। गौरीनाथ कामनाओं से डरे तो उनके पिता बेला की गंध से डर गए थे। यह डर कितना सच था कितना काल्पनिक यह गौरी को नहीं पता पर यही वह बात थी जहाँ से उन्हें लगा कि उन्हें अपनी पत्नी पर नजर रखनी चाहिए। एक बार यह बात मन में आने की देर थी कि उन डूबे हुए पलों में पत्नी का उतनी ही गर्मजोशी से दिया गया जवाब भी उनमें शक पैदा करने लगा। कुछ तो गड़बड़ है नहीं तो जब वे पुरुष होकर सकुचाए हुए थे तो उनकी पत्नी में उनको बुद्धू कहने का साहस और किंवाड़ बंद करने की बात कहना आखिर कैसे सूझा। उनमें इतना साहस भी नहीं था कि पत्नी से सीधे सीधे इस बारे में पूछ पाते। यहीं से वह कायर संदेह पैदा हुआ और परवान चढ़ा जो जीवन भर उनके साथ रहने वाला था। उनको लगता था कि उनके शक की वजहें पत्नी के प्रति उनके प्रेम के भीतर ही छुपी हुई थीं। वे बैजंती को इतना प्रेम करते थे कि उन्हें सब से बचाकर रखना चाहते थे। वे उन्हें बिल्कुल गड़े धन की तरह छुपाकर रखना चाहते थे कि बाहर की कोई छाया भी न पड़े उन पर। ठीक उसी तरह जैसे उनके पिता बेला को ताले में बंद करके रखते थे। यह व्यावहारिक रूप से मुमकिन नहीं था। घर में छोटा भाई था, बहनें थीं। गौरी ने यह सोच के खुद को बहुत सुरक्षित महसूस किया कि सब के रहते बैजंती ज्यादा छूट नहीं ले पाएँगी।  

शुरुआत में बैजंती को इसमें प्रेम ही प्रेम दिखा पर यह जानने में भी उन्हें देर नहीं ही लगी कि यह बंधन ही बंधन था। उन्हें किसी भी तरह से इसे तोड़ फेंकना था। शुरुआत में उन्होंने प्रेम से समझाने की कोशिश की। रीझने का नाटक किया गौरीनाथ पंडित पर, उन्हें रिझाने की कोशिशें की। गौरीनाथ उन पर जितना ज्यादा रीझते, पहरा उतना ही कड़ा होता जाता। वे दिन दिन भर सब काम छोड़कर घर पर बैठे रहते। बैजंती की छाया तक की निगरानी करते हुए। कहीं बाहर निकलते तो यह सुनिश्चित करके ही बाहर निकलते कि घर में कोई न कोई सदस्य जरूर रहे। बाहर से आते ही इस बात की टोह लेने की कोशिश करते कि उनकी अनुपस्थिति में कोई आया तो नहीं था। यह सब जान लेने के बाद ही उनके गले में ठंडा पानी उतरता। कोई प्रमाण नहीं था उनके पास पर एहतियात बरतने में उन्हें कोई बुराई नहीं दीखती। इस हद तक कि कई बार तो बैजंती जब सुबह और रात मैदान जाने के लिए निकलतीं तो उनसे एक दूरी बनाकर साथ चलते और किसी ऐसी जगह छुपकर बैठ जाते जहाँ से वह उनको देखते रह सकें।


झूठ के प्रमाण

और तब बैजंती ने उन्हें प्रमाण देने शुरू किए। वे उनके आगे चल रही होतीं और अचानक से गायब हो जाती। खेत में घुसतीं और निकलतीं किसी और खेत से। अकेले रहने पर घर की साँकल अक्सर बंद मिलती भीतर से। भीतर से हँसने और बोलने बतियाने की आवाजें आतीं। गौरीनाथ कितना भी चुपचाप होकर कमरे में घुसते पर आवाजों को पता चल ही जाता और वे अचानक दूर कहीं उड़ जातीं। वे चुपचाप घर का कोना कोना छान मारते पर कहीं कुछ न मिलता। बैजंती के पास जाते इस आस में कि कोई साक्ष्य वहीं मिल जाय कहीं पर न मिलता। वह अपनी तलाश से निराश ही हो जाने वाले थे कि एक दिन बैजंती के शरीर से कोई एक अनजानी गंध उन्हें मिल ही गई। यह बैजंती के भीतर संचित हो रही उस घृणा की गंध थी जो न जाने कब से पैदा हो रही थी धीरे धीरे। गौरीनाथ ने उसे पराए पुरुष की गंध समझा। उन्हें एक गलीज किस्म की खुशी हुई कि वे अपने शक में कितने सही थे।   

वे बैजंती से पूछने के पहले प्रमाण जुटाना चाहते थे। यह प्रमाण उन्हें कभी नहीं हासिल हुए। उधर बैजंती ने उनके प्रति वही ठंडी आज्ञाकारिता अपना ली थी जो गौरीनाथ की माँ ने अपनाई थी। पर दोनों में एक भारी अंतर था। गौरीनाथ की माँ बेला की आज्ञाकारिता आत्मघाती थी। वह भीतर ही भीतर उन्हें काट रही थी। उसमें अविश्वास और दुख की गहरी छायाएँ थीं। यह छायाएँ उन्हें दयनीय बना रही थीं। वे खुद ही खुद का उपहास उड़ातीं और यह उपहास एक दिन उन्हें अपने साथ लेकर उड़ गया था। इसके उलट बैजंती यह उपहास का भाव गौरीनाथ के प्रति रखती थीं उन्हें दुनिया का सबसे दयनीय प्राणी मानते हुए। उनकी सारी आज्ञाकारिता के बीच उनके होठों पर एक उपहास तैरता रहता था पति के लिए। एक ऐसा उपहास जो गौरीनाथ को अपने समूचे अस्तित्व पर सवालिया निशान की तरह लगता। 

शुरू के दिनों में उन्होंने इस हँसी से सख्ती से निपटना चाहा। वे कहीं बाहर से घर आए, हमेशा की तरह चुपचाप। दरवाजे पर कान लगाने पर उन्हें किसी पुरुष की हँसी सुनाई दी जिसमें उनकी पत्नी की हँसी भी लिपटी हुई थी। उन्होंने दरवाजा भड़भड़ाया। बैजंती ने दरवाजा खोलने में देर लगाई। दरवाजा खुलते ही उन्होंने पूरा घर छान मारा। घर में उन्हें बैजंती के अलावा कोई नहीं मिला। इस बीच बैजंती उन्हें लगातार कुछ खोजते हुए देख रही थीं। उन्होंने पति से पूछा भी नहीं कि वे क्या खोज रहे हैं। यह इकलौती बार था कि उनकी आँखों में अपने हाल पर आँसू आए थे। जीवन इस तरह से कैसे कटेगा। वे भरी हुई आँखों के साथ घर से बाहर निकल आईं और बाहर पड़ी खटिया पर बैठ गईं। गौरीनाथ थोड़ी देर में बाहर निकले। उन्हें पक्का भरोसा था कि घर में कोई था जो किसी तरह से घर से बाहर निकल गया। किस तरह से, यह उनकी समझ में नहीं आ रहा था।

बाहर आ कर उन्होंने पत्नी की आँखें आँसुओं से भरी हुई देखी तो आँसुओं को डर से उपजा मान लिया। उन्हें लगा कि वे पकड़े जाने के डर से रो रही हैं। पंडित गौरीनाथ ने अपने आप को विजयी महसूस किया और बदले में पत्नी को चाँटा मारा। एक के बाद एक कई चाँटे मारे। उन्हें धक्का मार कर गिरा दिया और लात मारी। बैजंती शुरू में तो स्तब्ध रहीं। उनकी आँखों में अटके हुए आँसू जैसे सूख ही गए हों। फिर उन्होंने गौरीनाथ का पैर पकड़ कर खींच लिया जो उनकी छातियों पर प्रहार के लिए उठा हुआ था। पंडित गौरीनाथ जमीन पर आ गए। वे उनके सीने पर चढ़ बैठीं और उनके गालों पर उपली पाथने लगीं। उनके गले से आवाज नहीं एक घुरघुराहट जैसे निकल रही थी। उसी घुरघुराहट के बीच बैजंती ने गौरीनाथ से कहा कि अगर आइंदा उन्होंने उन पर हाथ उठाया तो वे उनकी जान ले लेंगी और गंगा में डूबकर अपनी जान दे देंगी। गौरी के सीने पर बैठ कर उन्होंने उनको बताया कि घर में कोई नहीं था। न आज, न पहले कभी। पर आगे भी नहीं रहेगा इस बात की कोई गारंटी अब वह नहीं ले सकतीं। 

जब गौरीनाथ को बैजंती ने छोड़ा तो वे इतने निर्बल हो गए थे कि बहुत देर तक उठ भी नहीं पाए। उन्हें अपने सीने पर बैठकर उनका गाल पीटती पत्नी दिखाई दे रही थीं। वे अपनी पत्नी के गुस्से की आँच में जल कर रह गए थे। एक भय भरे सम्मोहन ने उन्हें अपने घेरे में ले लिया था। उन्हें शिव के ऊपर खड़ी साक्षात काली का चित्र दिखाई पड़ा पत्नी में। उस दृश्य को लेकर वे दुविधा के शिकार हो गए। कभी उनको लगता कि बैजंती का वह गुस्सा और तेज उसकी पवित्रता से उपजा था तो दूसरे ही क्षण वह उसे पत्नी की बेहयाई और खराब चाल चलन से जोड़कर देखते। दोनों ही स्थितियों में एक भय भरा सम्मोहन था जिसके शिकार वह हमेशा बने रहे। उन्होंने पत्नी की जासूसी छोड़ दी पर शक करना भी छोड़ दिया हो ऐसा नहीं था। वह आजीवन इस आँच में सुलगते रहे।

शुरू के दिनों में तो कोई जरूरत पड़ने पर भाई या बहनों के माध्यम से बात होती रही पर बाद में जब पत्नी के साथ उनकी बातचीत फिर से शुरू हो गई तब भी यह भय भरा सम्मोहन उनका पीछा करता रहा। यह इस कदर था कि उस घटना के बाद पत्नी से आँख मिला पाना उनके लिए संभव नहीं रहा। उनको लगता था कि आँख मिलाते ही वह फिर उस घातक सम्मोहन के शिकार हो जाएँगे जो उनकी समूची ताकत खींच लेगा। जब सब को लग रहा होता कि वह पत्नी की आँखों में देख रहे हैं तो वह आँखों के ऊपर माथे पर या आँखों के नीचे टुड्डी पर या नाक पर देख रहे होते। यह अलग बात है कि बैजंती के चेहरे पर एक कटु परिहास हमेशा ही उभर आता उनको देखते ही। इसके बावजूद वह उसी घर में साथ में खाते पीते सोते जागते रहे। बिस्तर पर भी जाते रहे पर संबंधों का वह दुचित्तापन कभी भी खत्म नहीं हुआ। बैजंती हमेशा आँख मिलाकर बात करतीं। बदले में गौरीनाथ कभी भी पत्नी से आँख न मिला पाते। वही माथा, वही ठुड्डी उनका रक्षा कवच थे। 

उन्होंने बहुत चाहा कि उनके बहुत सारे बच्चे हों पर एक बेटे के बाद कई सालों तक दूसरी संतान नहीं हुई तो नहीं हुई। वे कभी जान नहीं पाए कि इसके पीछे बैजंती की बजबजाती हुई घृणा थी। वे कभी किसी भी हाल में गौरीनाथ के बच्चे की माँ नहीं बनना चाहती थीं। उस घृणा का थोड़ा बहुत अंदाजा गौरीनाथ को भी था पर उनकी मुश्किल यह थी कि उनकी भाषा में इस घृणा का अनुवाद बदचलनी के करीब जाकर ही ठहरता था। पति कैसा भी हो पर उससे घृणा एक असंभव अवधारणा थी। ऊपर से वे अपने में कोई कमी देख नहीं पाए कभी। जवान थे। सरकारी नौकरी कर रहे थे। खेती बाड़ी ठीकठाक थी। उनकी मेहनत के दम पर पिछले कई सालों में घर में अनाज की कोई कमी नहीं हुई कभी। फिर भी उनकी पत्नी उनका उपहास उड़ाए। सब कलियुग की महिमा थी। 
 
गौरीनाथ कभी नहीं जान पाए कि जो एक बेटा दीपक हुआ उसे भी बैजंती ने पेट में ही मारने की बहुत सारी कोशिशें की थीं। वह इन घातक कोशिशों को झेलते हुए भी बच निकला। और जब पैदा हुआ तो उसका मुँह देख कर बैजंती के भीतर का ममत्व जाग उठा। यह बच्चा दीन दुनिया से पूरी तरह बेपरवाह था। छोटेपन से ही वह न जाने किन चीजों में खोया रहता। मुँह से राल टपकती रहती, मक्खियाँ भिनभिनाती रहतीं, दूध पिए हुए या कुछ खाए हुए घंटों बीत जाते पर उसे रोते हुए शायद ही कभी किसी ने सुना हो। ऐसे ही वह बड़ा होता रहा। हवा में कुछ फुसफुसाता सा न जाने किससे बातें करता हुआ जबकि गौरीनाथ या बैजंती से कोई बात किए उसे कई कई दिन बीत जाते। कहीं किसी कोने में पड़े पड़े पूरा दिन बीत जाता और उसे खाने पीने की सुधि भी न आती। 
सबने दीपक को पागल का दर्जा दे रखा था पर कई बार वह एकदम सामान्य नजर आता। ऐसे ही गाँव की प्राथमिक पाठशाला में गौरीनाथ उसे दाखिल करवा आए थे। इसी तरह से वह अध्यापकों की कृपा से कक्षा दर कक्षा आगे भी बढ़ता रहा था। उसे पूरी तरह से पागल उसके अध्यापक भी नहीं कह पाते थे। कई बार जब थोड़ी बहुत देर के लिए स्कूल में उसकी एकाग्रता किताबों पर केंद्रित होती तो वह अपने अध्यापकों को कुछ इस तरह से चकित कर देता कि वह उसे जीनियस मानने पर मजबूर हो जाते। यह सब बहुत थोड़ी देर के लिए होता। उसके बाद सब कुछ फिर से वैसे का वैसा। वह बेहद साधारण सवालों का जवाब भी नहीं दे पाता बल्कि ऐसा प्रदर्शित करता कि जैसे सवाल उसे समझ में ही नहीं आ रहे हैं। अध्यापक उसकी इस हरकत से चिढ़ जाते। उन्हें लगता कि जान-बूझकर वह बदमाशी कर रहा है। कई बार उसकी भयानक पिटाई हुई पर ऐसी हर पिटाई के बाद वह और भी ज्यादा अपने भीतर गुम हो जाता। थक हारकर अध्यापकों ने उसे उसके हाल पर ही छोड़ दिया और एक चिढ़ से भरते गए। इस हद तक कि अब जब कभी उसे जीनियस होने के दौरे पड़ते तो उन्हें उस पर प्यार न आता न ही वह उस दौरे का विस्तार चाहते बल्कि एक भयानक गुस्सा उनके भीतर खदबदाने लगता। ऐसे में उसे पिटाई के एक दौर का सामना करना पड़ जाता कई बार… वह तुरंत तो चीखता चिल्लाता पर पिटाई के थोड़ी देर बाद वह वैसी अवस्था में फिर पहुँच जाता जो समाधि से ही तुलनीय होती। इसी अवस्था में वह कई बार जहाँ बैठा होता वहीं पेशाब तक कर देता…। स्कूल बंद हो जाता वह वहीं पड़ा रहता अकेले। कोई जाता और उसे ले आता।

कर्मयोगी गौरीनाथ

उनके मन में बहुत सारे सवाल उठते थे जिनका जवाब कलियुग भी नहीं दे पाता था। इन सवालों से बचने के लिए उन्होंने अपने आपको पूरी तरह से तमाम कामों में झोंक दिया। दहेज में मिली वह जेबघड़ी उनके पास हमेशा बनी रहती। बारहों महीने उसमें सुबह के चार बजे का अलार्म लगा रहता, हालाँकि उसकी जरूरत शायद ही कभी पड़ती। गाँव भर में उनके जैसा मेहनती कोई दूसरा मिलना मुश्किल था। सुबह उठते और लोटा लेकर निवृत्त होने के लिए निकल जाते। यह जगह उनका ही कोई खेत होती। वे हर हाल में अपने ही खेत में शौच के लिए जाते। यहाँ तक कि घर के दूसरे लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए कहते। उनके हिसाब से यह जैविक खाद थी जो वे अपने खेतों में छोड़कर आते थे। इसका दूसरा लाभ यह भी था कि इसी बहाने वह नियमित रूप से अपने खेतों में पहुँचते। शौच के लिए जाने से पहले वह जानवरों को उनके बाड़े से निकालकर सानी पानी कर चुके होते। जिससे कि शौच से आते ही वह दूध वगैरह दुह सकें या कि बैलों को खेत में लेकर जा सकें। उन्होंने कभी भैंस नहीं पाली। भैंस उनकी निगाह में आसुरी प्रवृत्ति की जानवर थी। उसका दूध पीने से पीने वाले में आसुरी प्रवृत्तियाँ आ सकती थीं। उनकी इस सोच के पीछे महिषासुर नाम के राक्षस की धार्मिक कथा से लेकर ऐसी तमाम लोककथाओं का हाथ था जो उनके पिता ने उनकी माँ के न रहने पर उन लोगों को सुनाया था। उन्हें ऐसे अनेक किस्से याद थे जिनमें भैंसों का संबंध विकराल सींगों वाले राक्षसों से जुड़ता था।
      गाय दुहने के पहले वह गोबर बाहर निकाल कर ले जाते। बैजंती गोबर से उपलियाँ पाथतीं। बचा हुआ याकि उपलियाँ न पाथने लायक गोबर घूर में जाता जहाँ सड़कर वह खाद बनता। जानवरों को नहलाने के लिए रविवार का एक दिन नियत था पर कोई जानवर किसी दिन ज्यादा गंदा दिखाई देता तो यह काम कभी भी किया जा सकता था। यह सब काम हर हाल में सात बजे तक हो जाते। इसके बाद वह जरूरत के अनुरूप हल बैल कुदाल फावड़ा या खुरपी उठाते और खेत में पहुँच जाते। वह खेतों में किसी घास की जड़ तक न रहने देते। यह उनके लिए दोहरे लाभ का काम था। एक तरफ जहाँ खेत साफ होते और फसलों को मिलने वाली धूप खाद पानी का बँटवारा न होता वहीं दूसरी तरफ जानवरों को नियमित रूप से हरी घास भी मिलती चारे के रूप में। गौरीनाथ यह भी मानते थे कि प्राकृतिक रूप से पैदा घासों में किसी बरसीम या चरी जैसे बोए गए चारे से ज्यादा पौष्टिकता होती है।
      चारा काटने की मशीन में चारा काटना आम तौर पर बद्री और बैजंती का काम था। खेत से वह लगभग नौ साढ़े नौ बजे लौटते। नहाते और पूजा पाठ करने बैठ जाते। पूजा कम से कम घंटे भर चलती पर कभी कभी जरूरत के हिसाब से घट बढ़ भी जाती। मान लीजिए कि स्कूल में डिप्टी साहब या कि कोई अधिकारी आने को हों तो वह खेत से नौ बजे ही लौट आते। पूजा भी जल्दी ही निपट जाती। उठते उठते वह भगवान को बचन देते कि अगले दिन इस समय की भरपाई कर देंगे। इसी तरह मान लीजिए कि वह पूजा पर बैठे हैं और कोई मजूर मजूरी के लिए आ जाए तो अक्सर उनकी पूजा इतनी लंबी हो जाती कि मजदूर उकता कर चला ही जाए। ऐसा नहीं था कि वे मजदूरों को पैसा नहीं देते थे। पर इस तरह के काम उनकी तमाम दूसरी बेवजह व्यस्तताओं की तरह ही थे। और चीजों के मामले में भी वह बेवजह ही बहुत कुछ करते रहे। ऐसा नहीं कि वह अपने बेटे दीपक से कोई विशेष स्नेह करते हों पर स्कूल में बच्चों के लिए आया हुआ झूला उनके दुआर पर लगा हुआ पाया जाता किसी कोने। स्कूल में आई दरियों से घर ही भरा था उनका। 
      पर इस सबके पीछे बच्चों की कामना तो थी ही। वह बहुत सारे बच्चे चाहते थे। ऐसे बच्चे जिनमें उनका अपना अंश हो। जिनमें उनकी छवि दिखे देखने वालों को। यह उनकी सबसे बड़ी लालसा थी पर ऐसा होना संभव ही नहीं दिख रहा था। ले देकर उन्हें बस एक ही बेटा हुआ। वो भी ऐसा जिसमें अपनी छवि देखना उनके लिए कभी भी संभव नहीं हुआ। गौरी उस बच्चे का चेहरा देखते और संशय से घिर जाते। यह किसकी संतान हो सकती है। किसका पाप उनके खेत से इस रूप में उपजा है। ये सवाल उनके मन में हमेशा उतरते और उनको बेचैन बनाए रखते। इस बच्चे के बाद गौरी ने अगले बच्चों के लिए बहुत सारी कोशिशें की पर बैजंती ने उन्हें कभी संभव ही न होने दिया। गौरी को यह भी अपनी पत्नी की बदचलनी का ही सबूत लगता। वे बार बार बैजंती की बदचलनी के बारे में सोचते और उन्हें लगता कि इसी वजह से बैजंती की कोख बंजर हो गयी है। इसीलिए एक बच्चा आया भी तो वह भी ऐसा जिसकी गिनती ही न की जा सके।
इस बीच जीवन अपनी गति से चलता रहा। बहन का गौना हुआ। दूसरी बहन का विवाह हुआ। दोनों बहनें अपनी ससुराल पहुँच गयीं। बद्रीनाथ का भी विवाह हुआ। गौना हुआ और बद्री की पत्नी रूपा भी घर आ गयी। यहाँ तक की बद्रीनाथ ने बड़े भाई से अलग गृहस्थी बसा ली। माताफेर ने पूरी तरह से सधुक्कड़ी अपना ली। अब वह लंबे लंबे समय तक घर से गायब रहते। उन्होंने उसी गंगा किनारे वाले साधु से दीक्षा ले ली थी और वैरागी हो गए थे। कई बार लंबे लंबे समय तक वह आश्रम से भी गायब रहते। लौटकर बताते कि इस धाम या उस धाम की यात्रा पर गए थे। आते, प्रसाद वगैरह बाँटते जो वे अपने साथ लाए होते। कई बार कुछ छोटे मोटे सामान भी होते तो कई बार कुछ रुपये भी। घर आकर वे खाली हो जाते और फिर आश्रम की तरफ लौट जाते। 
ऐसे ही एक बार वह आए तो उनका ध्यान इस बात पर गया कि बहुत दिन हुए गौरी को कोई दूसरी संतान नहीं हुई। उन्होंने गौरी को अपने पास बुलाकर बैठाया और कुछ ऐसी जड़ी बूटियाँ और उनसे निर्मित दवाओं के बारे में बताया जिनके दम पर औरत को पूरी तरह से वश में किया जा सकता था। माताफेर के अनुसार इन दवाओं में इतनी ताकत थी कि वह किसी दीवाल को भी बच्चा पैदा करने के लिए विवश कर सकती थीं। कुछ दवाएँ किसी बहाने से बैजंती को खिलानी होंगी और कुछ गौरी को खानी होंगी।  गौरी ने पूरी लगन के साथ वे दवाएँ खानी शुरू कर दीं। उन्होंने पिता से हासिल हुई ताकत के दम पर बैजंती को भी समझाने की कोशिश की कि वह भी माताफेर की दी हुई दवाओं का सेवन करें। उन्होंने पत्नी को समझाया कि बच्चों के लिए कोशिश करने के हिसाब से अभी कोई देर नहीं हुई है और अभी तो वह कई पुत्रों की माता बन सकती हैं। गौरी ने बैजंती से यह बात अपनी तरफ से बहुत लगाव के साथ कही थी जिससे कि वह दवा खाने के लिए मान जाएँ। बैजंती ने अपने उसे उपहास के साथ दवा खाने की मंजूरी दे दी।
बैजंती को यह दवा गौरीनाथ खुद अपने हाथ से खिलाते। बैजंती ने उन दवाओं को खाने में कभी आनाकानी नहीं की। उनसे बेहतर कौन जानता था कि उन्हें ऐसी किसी भी दवा की कोई जरूरत नहीं थी। वे यह भी बेहतर जानती थीं कि बच्चे आते आते कहाँ आकर रुक जाते थे और उन्हें रुकते ही जाना था। बैजंती में एक जिद थी कि उन्हें गौरीनाथ के बच्चे की माँ अब नहीं बनना है तो नहीं बनना है। एक बच्चे के जन्म के मामले में जो गलती उनसे हो गई थी उसे वह दोबारा नहीं दोहराने वाली थीं। ऐसा नहीं था कि उनमें मातृत्व की कामना नहीं थी। वह माँ बनने की तीव्र कामना से भरी हुई थीं। माँ बनना उनके लिए भी सौभाग्य का ही सूचक था। कई बच्चों की माँ होना एक गौरव था उनके आसपास। यही देखा सुना था उन्होंने। वे अभी भी उस सौभाग्यशाली गौरव के सपने देखती थीं। क्योंकि वह एक बच्चा जिसने उनकी कोख से जन्म लिया था वह उनकी उर्वरता को गलत तरीके से प्रस्तुत करता था। हालाँकि यह बात भी बैजंती से अच्छी तरह से कोई नहीं जानता था कि इसमें उस बच्चे की कोई गलती नहीं थी। बल्कि वह खुद अपने जन्मदाताओं की घृणा की उपज था।
दवाओं का असर हो या घर के माहौल का, यही दिन थे जब बैजंती में मातृत्व की कामना और प्रबल हुई। उन्हें लगा कि पति का व्यवहार और उसके प्रति घृणा अपनी जगह पर हैं पर माँ बनना उनका हक है। इसके बावजूद वे इस बात पर कायम थीं कि उनके बच्चों का पिता होने का सुख वे गौरीनाथ को नहीं देंगी। तब उन्होंने अपने आसपास नजर दौड़ाई। वैसे लोगों की कहीं कोई कमी नहीं थी जो इस काम में उनके मददगार हो सकते थे। उन्हें बस इशारा भर करने की देर थी। अभी भी रूप और यौवन झरता था उनसे। आसपास जो दुनिया थी उसमें इससे अधिक चाह शायद ही किसी को थी। इससे अधिक की चाह सिर्फ गौरीनाथ जैसों को ही हो सकती थी। बैजंती एक बार इस कैद से उबर चुकी थीं। दोबारा इसमें फँसने की कोई चाह उनके मन में नहीं थी। एक उपहास भरी मुस्कान उनमें अब भी बनी ही हुई थी।

जहर की खेती

माताफेर ने तय कर लिया था कि वे दोबारा गौरीनाथ को पिता बनाकर ही मानेंगे। उनका आना जाना बढ़ गया था। अब वे फिर से कई कई दिनों तक घर पर ही रहते। एक के बाद एक दवाएँ बदलते हुए, नई नई बूटियाँ आजमाते हुए। दरअसल इस बीच खुद उन्हें छोटे बच्चों को गोद में खिलाने की कामना ने पूरी तरह से जकड़ लिया था। जब उनके बच्चे यानी गौरी और बद्री या उनकी बहनें छोटी थीं तब कभी उनमें इस तरह से प्यार नहीं उमड़ा। तब दूसरी खुमारियाँ थीं। पत्नी के साथ जिस तरह का उनका संबंध था बच्चों को गोद में उठाते या दुलराते हुए वह भी बार बार आड़े आया। पत्नी की ठंडी अवज्ञापूर्ण आज्ञाकारिता ने भी उनमें एक निरपेक्षता भर दी थी जिसके फलस्वरूप उन्हें जिस दिन लगा कि अब पत्नी इस काबिल नहीं बचीं कि उन पर नजर रखी जाय उसी दिन वह घर से भी निरपेक्ष हो गए। आज उनको पता है कि इधर उधर भटकते हुए वह उन्हीं दिनों के अभाव की यातना को जीते हैं। यह अभाव दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा था जिसकी पूर्ति वह बहुत सारे पोते गोद में खिला कर पूरी करना चाहते थे।
      अपनी इस कामना में माताफेर कुछ इस कदर निष्कवच थे कि यह बात उन्होंने एक दिन गौरीनाथ को भी बता दी। गौरीनाथ जो इन दिनों पिता के वैद्यक ज्ञान में डूब उतरा रहे थे वे पिता के इस अभाव पर विह्वल हो गए। पर यह विह्वलता पिता के लिए न होकर अपने ही लिए थी। वे इन दिनों पिता के साथ खूब समय बिता रहे थे। यह पिता को लेकर उनके भीतर जो अभाव था कुछ कुछ उसकी कमी पूरी करने जैसी बात थी। वे पिता के साथ खुश थे। वे इस बात से भी बहुत खुश थे कि देर से ही सही पर पिता उनके लिए चिंतित हैं। पिता की पोते गोद में खिलाने वाली बात ने उनकी खुशी की निर्मम हत्या कर दी। उन्हें लगा कि पिता अब भी उन्हें प्यार नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने आप को ही प्यार कर रहे हैं। वह गौरी का अभाव दूर करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं बल्कि अपना ही अभाव दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। और पिता का यह अभाव तो छोटे भाई बद्री के बच्चों से भी पूरा हो जाएगा जो कि कभी भी पिता बन सकता है। गौरीनाथ के मन में पिता के लिए जितना भी जहर भरा था वह सब एक सांद्र गाँठ के रूप में इकट्ठा हो आया।
      यह गौरीनाथ के लिए पूरी तरह से अप्रत्याशित था जब माताफेर ने उनसे कहा कि वह उन्हें एक मारक जहर बनाना सिखाना चाहते हैं। गौरीनाथ सन्न रह गये। क्या पिता ने उनके मन में आ रहे भावों को पढ़ लिया था? उन्होंने सुन रखा था कि बहुत सारे साधुओं में दिव्य शक्तियाँ होती हैं और वे इस पर भरोसा भी करते थे। तो क्या उनके पिता भी कुछ दिव्य शक्तियों के अधिकारी हो चुके हैं? उसी क्षण उन्हें यह भी याद आया कि उनके पिता ने वैद्यकी में शायद ही कभी कोई रुचि दिखाई हो। जो जानकारियाँ वह इधर प्रदर्शित कर रहे थे और जिनकी वजह से अपने ही गाँव में नहीं बल्कि आसपास के गाँवों में भी सम्मान अर्जित कर रहे थे वह गौरी के लिए एकदम नई थीं। जो भी हो उन्होंने पिता से जहर बनाना खूब खूब मनोयोग से सीखा। जड़ियों की पहचान, उनका चयन, पत्तों का अर्क निकालना, धतूरे के बीजों का सत्व, और और कई चीजें और उन सबके मेल से बना एक रंगहीन भुरभुरा पदार्थ। गौरीनाथ को भरोसा ही नहीं हुआ कि उनके सामने ऐसा कुछ है जो किसी की जान ले सकता है।
      माताफेर ने गौरीनाथ को बताया कि यह जहर इतना घातक है कि इसकी तोले भर मात्रा हाथी को भी हमेशा के लिए सुला सकती है। दूसरी तरफ यह इतना निरापद है कि किसी भी तरह से किसी को पता नहीं चलने वाला कि सामने वाले की मौत कैसे हुई।
यह शरीर के भीतर अपना काम करके गायब हो जाता है। अगले दिन तक इसका कोई भी अवशेष शरीर के भीतर नहीं बचता। इसकी एक खूबी यह भी कि यह पीड़ा नहीं पहुँचाता। यह बेहोश करता है और इस बेहोशी के भीतर सपनों की अथाह दुनिया होती थी। इस जहर का शिकार हमेशा के लिए उन्हीं सपनों में खो जाता है। कभी भी वापस न लौटने के लिए। और जब माताफेर अगली बार वापस आए तो गौरीनाथ ने उस मारक जहर का पहला प्रयोग अपने पिता पर किया।
      यह बस एक प्रयोग था जो पूरी तरह से निरुद्देश्य था। या कि एक छोटा सा उद्देश्य यह था कि वह जहर का असर जाँचना चाहते थे। जहर ने अपना काम किया और अगले दिन पिता उन्ही मोहक पर जहरीले सपनों में खो गए थे। गौरीनाथ ने पिता का क्रिया-कर्म विधि विधान के साथ किया। हालाँकि इस बीच वह लगातार सोचते रहे कि उन्होंने अपने पिता की हत्या क्यों की। जितना सोचते वे अपने को पिता का हत्यारा महसूस करते। उन्हें बस कोई एक तर्क, कोई एक कारण चाहिए था जिससे वह अपने को भरोसा दिला सकें कि यह हत्या नहीं थी और तब उन्हें पिता की वह सारी गैरजिम्मेदारियाँ याद आईं जिनकी वजह से माँ के न रहने पर उनका पूरा बचपन तबाह हो गया था। आगे और पढ़ पाने का सपना चूल्हे की लकड़ी बनकर जल गया था। यह अपराध तो था पर इतना बड़ा अपराध नहीं कि पिता की हत्या को वध में बदल सके। इसी सोच-विचार के दौरान उन्हें माँ याद आई तो माँ की वह तमाम रुलाइयाँ भी याद आईं जिन्हें वह छुप छुप कर सुना करते थे। या कि वह रुलाई जब माँ उन्हें गोद में लेकर रोते रोते बेहोश हो गयी थी। हाँ इस रुलाई की सजा दी जा सकती थी। पर यह मौत नहीं हो सकती थी। तब सबसे आखिर में वह बात आई जिसपर वह तय थे कि पिता को जहर देना एकदम सही था। यह सजा नहीं थी। यह एक बदला था। पिता पोते खिलाने के लिए पागल हो रहे थे। पिता को लेकर गौरी के मन में जो कुछ था उसको लेकर उन्हें वाजिब ही लगा कि पिता की यह कामना हमेशा हमेशा के लिए अधूरी ही रह जाय। अगर उन्हें बाप का सुख नहीं मिला तो बाप को भी बच्चे का सुख नहीं मिलना चाहिए, उन्होंने अपने आप से कहा।

रुलाई का नया पाठ

माँ की याद अपने साथ एक विचित्र तुलना ले कर आई। गौरीनाथ ने माँ और पत्नी की आपस में तुलना की। उन्होंने सोचा कि माँ पिटते पिटते मर जाती पर पिता पर शायद ही कभी हाथ उठाती। उनका सिर माँ के प्रति सम्मान से नीचे झुक गया। पर इसी के साथ एक सवाल यह भी कौंधा कि पिता माँ से इतने विरक्त क्यों थे। क्या पिता को भी उनकी तरह माँ पर शक था। क्या उन्हें इस बारे में कोई प्रमाण भी मिल गया था या फिर कोई और वजह थी। जवाब में उन्हें वह कुछ रातें याद आईं जिनमें माँ या पिता के बिस्तर से कुछ अजीबोगरीब आवाजें सुनाई देती थीं, जिनमें कई बार माँ के गले से घुरघुराने या रोने जैसी आवाजें निकला करती थीं। उन्हें अपनी पत्नी के गले की वह आवाज याद आई जब वह उनके सीने पर बैठी थी और उसके गले से वैसी ही आवाज निकल रही थी। उस आवाज में क्या था आखिर, रुलाई, क्रोध या कि इस सब से इतर कोई चीज थी जो उनमें आज तक एक भय भरा सम्मोहन पैदा करती थी।
      वे समझ नहीं पाए पर इस कोशिश में उन्होंने माँ और पत्नी की रुलाइयों को कुछ इस कदर आपस में मिला दिया कि उन्हें अलग अलग देख पाना असंभव सा हो गया था। इसी का अगला चरण यह था कि वे उन दोनों की छवियों को भी एक दूसरे में मिला दें। तो क्या उनकी पत्नी की तरह माँ भी, आखिर थीं तो स्त्री ही, तो क्या पिता इसीलिए विरक्त होते चले गए थे? घर के प्रति? बच्चों के प्रति? और इसी क्षण उनके मन में एक और सवाल कौंधा। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे अपने पिता की संतान हों ही नहीं। यह माँ को दी गई गाली थी। उन्होंने अपनी जीभ काटी पर यह सवाल एक बार भीतर आ गया तो हमेशा उनके भीतर बना रहा। बल्कि यह अपने स्वाभाविक विस्तार तक गया कि अगर वह अपने पिता की संतान नहीं थे तो किसकी संतान थे? क्या उनके भाई बहन भी? तो क्या वे पिता के ही प्रतिरूप हैं? उन्हीं के जैसे दुख, उन्ही के जैसा अभाव जीते हुए। और माँ… उन्होंने फिर अपनी जीभ काटी।
      उन्होंने अपने बचपन को फिर से याद करने की कोशिश की। एक एक स्मृति को तरतीब देते हुए। पिता का व्यवहार, आखिर एक पिता ऐसा कैसे कर सकता है कि वह अपने बच्चों से इस कदर निरपेक्ष रहे जिस कदर उनके पिता थे। कोई तो फाँस रही होगी जो उनके मन में चुभती होगी। क्या बच्चों को देखकर उन्हें कुछ और याद आता था? गौरीनाथ अपने पूर्वाग्रहों में इतने डूब गए थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि वह लगातार अपने पिता की तरफ से सोच रहे हैं। पिता की तरफ से भी नहीं बल्कि अपने खिलाफ। आज उन्हें लग रहा था कि जैसे यह बात उन्हें बचपन से ही पता थी बस खुल आज रही है। आज उन्हें माँ की रुलाई में भी दोष नजर आ रहा था। माँ का दुख उनकी स्मृतियों से दूर कहीं निकल गया था। बल्कि वह रुलाई भी, जब वे माँ की गोद में लिपटकर देर तक रोते रहे थे। वह नहीं जानते थे कि उन्होंने अपनी स्मृतियों के साथ कितना घातक खेल रचा था। एक रास्ता था बाहर निकलने का उसमें आज उन्होंने खुद ही ताला मार दिया था। 
      उनका ध्यान आज बहुत दिनों बाद फिर से अपने बेटे पर गया जिसका नाम उनके पिता ने दीपक रखा था। जिस पर गौरी को हमेशा संदेह रहा कि वह उनका पुत्र नहीं है। वह नए सिरे से उसके प्रति घृणा से भर गए। उन्होंने तय किया कि वह उसको भी वहीं भेज देंगे जहाँ उन्होंने अपने पिता को भेजा था। बच्चे को आजकल भयानक सूखी खाँसी आ रही थी। गौरीनाथ के लिए यह सुनहरा अवसर था। वह वैद से अदरक का पाग बनवा लाए उसके लिए। अब उन्हें कुछ नहीं करना था। उन्हें उसी पाग की गोली में बस चुटकी से भी कम जहर मिला देना था। इसी के साथ वह फाँस समाप्त हो जानी थी जो उनके भीतर बच्चे के जन्म के पहले से ही चुभ रही थी और दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी।
उस दिन जब पाग मुँह में डाल कर गरम दूध पिलाने को हुए कि बच्चे को खाँसी आ गई और मुँह में डाली गई गोली दूर जा गिरी। खाँसते खाँसते बेदम हो रहे बच्चे ने गौरीनाथ का हाथ पकड़ लिया। वह उन कोमल हाथों की मजबूत पकड़ थी। खाँसते खाँसते उसके गले छिल रहे थे। आँखों में आँसू आ रहा था। बच्चे ने उनसे पूछा मैं अच्छा हो जाऊँगा न बाबू… मुझे बहुत डर लगता है। मुझे लगता है कि जैसे मैं अब मर जाऊँगा। यह बात बच्चे ने एकदम खानदानी तरीके से कही थी। गौरीनाथ के परिवार में एक अजीब तरीके की विरासत पता नहीं कब से चली आ रही थी। कि बच्चे जब बोलना शुरू करते तो बेहद साफ बोलते पर पाँच-सात साल की उमर तक उनकी जबान पर एक भयानक तोतलापन आ बैठता। इस हद तक कि कई बार बात समझ में ही न आती। कमाल की बात यह कि यह तोतलापन अगले एक-डेढ़ सालों में अपने आप गायब हो जाता। बच्चे की बात अपने पूरे तोतलेपन के साथ कही गई थी। उसमें गहरी पीड़ा थी और बेहद तकलीफ से पैदा हुई निराशा। पर जिस बात ने गौरीनाथ को चकित किया वह थी उसकी बेहद सहज तरीके से कही गई बात। इस क्षण उसमें किसी बौद्धिक कमी का कोई भी लक्षण मौजूद नहीं था

बच्चे ने खाँसते हुए उनका हाथ कुछ उसी तरह थाम रखा था कि जैसे वह गौरीनाथ के हाथों के सहारे मृत्यु से बचने वाला हो। गौरीनाथ एक झटके में हाथ छुड़ा सकते थे। पर उस रात नहीं छुड़ा पाए तो आज तक नहीं छुड़ा पाए। वे उस स्थिति की भयंकर विडंबना से दहल गए। उसकी हकलाहट ने बता दिया था कि यह उनका ही बेटा है। वह अपने ही बेटे की हत्या करने जा रहे थे। इस समय वे बच्चे का हाथ छुड़ाकर कहीं बहुत दूर भाग जाना चाहते थे जहाँ वह चिल्ला चिल्लाकर रो सकें। जहाँ वह चीख चीखकर यह सबको बता सकें कि वह हत्यारे हैं और अपने ही मासूम बच्चे की हत्या का पाप उनके हाथों से हुआ है। पर वे कहीं नहीं गए। उन्होंने बच्चे को गले से लगाया और उसकी पीठ सहलाते हुए रोने लगे।
बैजंती यह सब दूर से देख रही थीं। उन्होंने समझा कि गौरीनाथ बेटे के दुख से विह्वल होकर रो रहे हैं। यह पूरी तरह से अविश्वसनीय था पर उनकी आँखें जो देख रही थीं उस पर भरोसा न कर पाना भी संभव नहीं था। उन्हें एक बार लगा जैसे वे गौरीनाथ को अब तक नहीं समझ पाई हैं। पति का यह रूप देखकर उन्हें एकदम शुरुआती दिन याद आ गए। उन्हें लगा कि जैसे गौरीनाथ बच्चे की बजाय उनकी ही पीठ सहला रहे हों। वह भी रोने लगीं। वे जानती हैं कि पेट में उसे मारने की कितनी कोशिशें की थी उन्होंने। उनको बार बार लगता है कि बेटे में जो भी विकार हैं यह सब उन्हीं घातक कोशिशों का नतीजा हैं। यह न भी हो तो भी गौरीनाथ के प्रति बेपनाह घृणा जिम्मेदार हो सकती है इसके लिए। वह खो गया है उनकी घृणा में। बैजंती के मन में फिर से माँ बनने की जो इच्छा जोर मार रही थी वह एक निश्चय में बदल गयी। उन्होंने उसी पल तय किया कि वे फिर से माँ बनेंगी। उन्हें और बेटे चाहिए जो इस बेटे का ध्यान रख सकें। 
पंडिताइन को कभी नहीं पता चल पाया कि गौरी उस बच्चे की खाँसी से विह्वल नहीं हुए थे। यह तो उन्हें कभी पता ही नहीं चलना था कि वे इस शक में बेटे को मौत देने गए थे कि वह उसे अपना बच्चा नहीं मानते थे बल्कि उसके चेहरे में गाँव के किसी अन्य व्यक्ति का चेहरा खोजा करते थे। यह बच्चा भी कैसी किस्मत लेकर आया था अपने साथ। जब पेट में था तो माँ मारना चाहती थी और जब पैदा हुआ तो बाप की आँखों में शूल की तरह गड़ता रहा। इसी क्षण गौरी जान गए थे कि यह बच्चा किसी पूर्वजन्म के पाप से नहीं बल्कि उनकी घृणा से विक्षिप्त हो रहा था। और अब इसी पल से वह उसके लिए कुछ कर जाना चाहते हैं। ऐसा कि उसका जीवन चल सके और उनके अपराध की माफी हो सके। उन्हें नहीं पता कि वे क्या करेंगे पर कुछ न कुछ करेंगे जरूर। इस क्षण से वह उन्हें अपनी जान से भी प्यारा है।


भीतर के पाप

इस बीच एक दिन पेड़ से गिरकर भाई बद्रीनाथ को लकवा मार गया। सही समय पर इलाज के अभाव में बद्री हमेशा के लिए पंगु हो गए। झगड़े अपनी जगह थे पर रिश्ते अपनी जगह। कम से कम ऐसा दिखते तो रहना ही चाहिए। सो गौरीनाथ ने बद्री के खेत खलिहान का भी जिम्मा सँभाल लिया। इस तरह से बद्री की पत्नी से उनका मिलना जुलना बढ़ गया। अपनी पत्नी से एक भय भरे सम्मोहन का रिश्ता जी रहे गौरी ने जल्दी ही ताड़ लिया कि बद्री की पत्नी की लाचारी को अपने हक में झुकाया जा सकता है। एक बेटा वह भी एकदम दुधमुँहा, पति चलने फिरने की कौन कहे बोलने तक से लाचार। मायके वाले घर से बहुत दूर और आर्थिक रूप से विपन्न। गौरी के लिए मौका ही मौका था। उनका प्रेम भाई की पत्नी पर दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा। बाकी घर से लेकर खलिहान तक मौके ही मौके थे। एक दिन रात में खलिहान में उन्होंने भाई की पत्नी को थाम लिया। भाई की पत्नी ने तरह तरह की मनुहार की पर वह नहीं पसीजे और अपने मन की कर के ही माने। 
धीरे-धीरे यह सिलसिला चल ही निकला। जल्दी ही भाई की आँखों में गौरी ने वह सब पढ़ लिया जो वे कर रहे थे। इतनी जल्दी? उन्हें आश्चर्य हुआ। भाई उन्हें देखता तो दूसरी तरफ मुँह फेर लेता। पत्नी को देखता तो उसकी आँख से आँसू बहने लगते। चेहरे पर एक पागल बेचैनी दिखाई पड़ने लगती। मुँह से अजीब अजीब आवाजें आने लगतीं, राल बहने लगती। शरीर काँपने जैसे लगता, पूरे शरीर की ऐंठन उसकी आँखों में प्रकट हो जाती। गौरी ने बहुत जल्दी यह समझ लिया कि यह सिलसिला ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता। जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा। उन्हें कुछ नहीं करना था। बद्री को दी जा रही वैदकी दवाओं में उन्हें वह एक चुटकी जहर मिलाना था जिसका घातक प्रयोग वह अपने पिता पर कर चुके थे। इस बार भी यह सब कुछ इतनी आसानी और निर्दोष ढंग से घटित हुआ कि किसी को भी उन पर शक तक नहीं हुआ। अब वे अपने मनचाहे के लिए आजाद थे। 
भाई की हत्या पर उन्हें उतना भी सोच-विचार नहीं हुआ जितना पिता की हत्या पर हुआ था। उन्होंने खुद को समझा दिया कि पिता की हत्या बदला थी तो भाई की हत्या मुक्ति। भाई वैसे भी पीड़ा में था और एक विकलांग जीवन जी रहा था। उसके अच्छे होने की कोई दूर दूर तक उम्मीद नहीं थी। ऐसे में भाई की मृत्यु उसके लिए वरदान थी। पर यह सचमुच वरदान साबित हुई गौरीनाथ के लिए। वे घर के बड़े थे। बेरोकटोक बद्री के घर में घुस जाते। बद्री की पत्नी कई बार घर में घुसने के लिए मना करतीं पर उनके विरोध की कौन सुनता। इसका दूसरा फायदा गौरीनाथ ने यह उठाया कि बद्री के हिस्से की जमीन पर भी अपना ही नाम चढ़वा लिया। यह लेखपाल के लिए बाएँ हाथ की बाईं उँगली का खेल था। बद्री मर गए। कागज पर बद्री की पत्नी को भी मार दिया गया। रहा बच्चा तो किसी कागज पर उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था।
बद्री की पत्नी को इस बारे में कई सालों तक पता ही नहीं चला। उन्हें तो इस बात का पता तब चला जब चकबंदी आई। वे बहुत चीखी चिल्लाईं। बदले में गौरी ने उन्हें समझाया कि उनके हाथ में जमीन रहती तो कोई भी उन्हें फुसला सकता था या कि धोखे से अँगूठा लगवा सकता था किसी कागज पर। बल्कि इसका सीधा सा तरीका यह है कि जब बच्चे को स्कूल में दाखिला दिलवाएँगे तो पिता की जगह पर अपना नाम लिखवा देंगे। इस तरह से वो अपने आप ही सारी जमीन का हिस्सेदार हो जाएगा। बद्री की पत्नी ने उनसे बदले में दो सवाल पूछे। पहला यह कि अगर उनकी नीयत में कोई खोट नहीं था तो यह बात उन्होंने बद्री की पत्नी को भरोसे में लेकर क्यों नहीं की। कर भी लिया तो कभी बाद में ही बता देते। उन्होंने गौरी को गाली बकी कि इन सालों में कितनी बार जब मेरा अंग विशेष चाट रहे थे तब यह सारी सदिच्छा क्यों नहीं प्रकट हुई। उनका दूसरा सवाल यह था कि कागज में माँ का नाम नहीं लिखते क्या? बाप तो बन जाओगे माँ की जगह किसका नाम लिखवाओगे? गौरी ने उन्हें बहुत चुप कराने की कोशिश की पर बद्री की पत्नी ने न सिर्फ जमीन का मसला उछाला बल्कि यह भी सरेआम बोला कि गौरी उनकी मजबूरी का फायदा कई साल से उठा रहे थे। 
गौरी पर गाँव में सब तरफ से उँगली उठ रही थी। ऐसा नहीं था कि गाँव के बाकी लोग एकदम दूध के धुले थे पर गौरी का पाप बड़ा था और खुलकर बाहर आ गया था। हर तरफ गौरी पर थू थू हो रही थी। गौरीनाथ ने कभी भी उन आरोपों को स्वीकार नहीं किया पर इससे क्या फर्क पड़ता था। दूसरी तरफ बद्री की पत्नी को अब यह भी शक हो रहा था कि बद्री की मौत के जिम्मेदार भी गौरीनाथ ही थे। उनके पास कोई प्रमाण नहीं था पर वह खुलेआम इस शक को जाहिर करतीं। एक बार यह बात मन में आई तो उन्हें अपने बेटे के लिए भी डर लगा। बदले में उन्होंने बेटे को ननिहाल भेज दिया। वह दिन भर गाँव भर में घूमती रहतीं। कहीं भी बैठकर खा लिया। किसी के यहाँ बैठकर उसके काम में हिस्सा बँटा लिया। किसी की दाल दर दी। किसी के यहाँ आटा गूँथ दिया। कहीं रोटी बेल दी। गाँव भर की सहानुभूति उनके साथ थी। जिनकी नहीं थी वे भी प्रदर्शित तो करते ही। इसी बहाने उन्हें अपने पाले में खींचने की कोशिश करते। गौरीनाथ ने बद्री की पत्नी पर भी जहर का प्रयोग करने की सोची फिर उन्हें लगा कि इस समय ऐसा करना उन सब बातों को सही साबित करना होगा जो बद्री की पत्नी सबसे कहती घूम रही हैं। वे स्थितियों पर चुपचाप नजर रखते हुए मौके का इंतजार करने लगे। 


जीवन की तोतली शुरुआत

गौरीनाथ ने बेटे दीपक को योग्य बनाने में कोई कसर न छोड़ी। जहाँ पैसा लगा वहाँ पैसा लगाया, जहाँ दूसरों से कापी लिखवानी पड़ी वहाँ कापी लिखवाई। जो भी करना पड़ा किया पर दीपक को इंटर पास करवाकर ही माने। वह उसका विवाह भी कर देना चाहते थे क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि इस तरह का पागलपन कई बार विवाह के बाद पूरी तरह से समाप्त हो जाता है। पर दीपक के पागलपन के किस्से इतने मशहूर थे कि कोई भी उससे अपनी बेटी की शादी करने को तैयार नहीं हो रहा था। कई बार दूर से कुछ लोग आते, बातचीत तय होती पर दोबारा लौटकर कभी न आते। जाहिर है कि इस बीच उन्हें दीपक की वास्तविकता का पता चल गया होता। रहा दीपक तो कभी तो वह इन चीजों से एकदम बेपरवाह दिखता। जैसे उसे किसी बात से कोई मतलब ही नहीं है तो कभी वह विवाह के लिए इस कदर उतावला नजर आता कि उसे थामना मुश्किल हो जाता। तब उसमें बला की ताकत भर जाती। वह खुश और उत्साही दिखता। घर के सारे कामों में हिस्सा बँटाता। देर देर तक आईने के सामने बैठकर अपनी धज निहारता। दिन भर बन ठन कर रहता।

ऐसे ही एक बार उसका यह परिवर्तन लंबे समय तक चला। इस हद तक कि डरते हुए गौरीनाथ भी खुश होने लगे। बैजंती भी खुश थीं। गाँव वाले भी चकित थे। सबको लग रहा था कि दीपक अब लगभग ठीक हो गए हैं। गौरी हमेशा मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना किया करते कि दीपक के भीतर का यह परिवर्तन स्थायी हो। वे घर में रहते तो ज्यादा से ज्यादा समय दीपक के साथ बिताते। उससे बात करते हुए। उसको जाँचने की कोशिश करते हुए। और हर बार नए सिरे से मुतमईन होते कि अब दीपक की रोशनी बढ़ती ही जाएगी और उनका कुल अँधियारा होने से बच जाएगा। पर एक भयानक डर भी था इसके समानांतर। 

गौरी जैसे जैसे बेटे को लेकर निश्चिंत हो रहे थे वैसे वैसे उनका डर भी विकराल हो रहा था। उनकी रात की नींद गायब हो रही थी। पूरी पूरी रात बीत जाती पर उनकी आँखों में नींद का एक कतरा तक न प्रकट होता। वह बिस्तर पर लेटे लेटे थक जाते। आँखें मूँदे मूँदे कड़ुवाने लगतीं पर नींद न आती तो न आती। वह लेटे लेटे दुनिया भर की बातें सोचते रहते। वह बेटे के बारे में सोचते। अपने जीवन के बारे में सोचते। अपने साथ हुए अन्याय के बारे में सोचते। बहुत छोटी छोटी बातें थीं जिन्हें वह रात रात भर गुनते रहते। जैसे दहेज में मिली साइकिल न जाने कितनी रातों उनकी आँखों में चलती रही थी। यह अन्याय था कि उनसे दहेज में मिली साइकिल छीन ली गयी। पर वह क्या था जो उन्होंने अपने पिता, पत्नी, और भाई के साथ किया? इसके बारे में उन्होंने कभी भी सोचने की कोई कोशिश नहीं की। क्या यह हत्याएँ इतनी न्यायसंगत या अनिवार्य थीं कि उसकी कोई छाया वह अपने भीतर महसूस ही नहीं करते थे। ऐसा कैसे हो सकता था?

रात की नींद बदले में दिन में प्रकट होती। एक उनींदापन हमेशा उन्हें अपने आगोश में लिए रहता। दिन में कई बार झपकी लग जाती उन्हें। यह झपकी इस कदर खतरनाक होती कि वह जिस भी हाल में रहते वैसे ही बस पल भर के लिए सो जाते। पूजा कर रहे होते और सो जाते। कक्षा में बच्चों को पढ़ा रहे होते और खड़े खड़े सो जाते। बैठकर चार लोगों से बात कर रहे होते और अचानक से सो जाते। यहाँ तक कि सुबह अपने खेत में बैठकर निवृत्त हो रहे होते और नींद आ जाती। कई बार वह सोते हुए अपने ही मल पर गिर गए। यह एक घृणित परिणति थी नींद की। एक दिन सुबह सुबह वह मल में लिथड़े हुए थे और साथ में लोटे का पानी भी गिर गया था। जब वह अरहर के पत्तों से अपना शरीर साफ करने की कोशिश कर रहे थे। तो उन्हें अपने पीछे एक बच्चे की हँसी सुनाई दी। इस हँसी में धातुओं की खनक थी। वह डर गए। पीछे पलटकर देखा तो यह बालक बद्रीनाथ थे। वही जिसे गौरी ने पल भर में सपनों की दुनिया में भेज दिया था।

गौरीनाथ जड़ हो गए। जिनकी हत्या करके वह कब के भूल गये थे वह अभी उनके आसपास ही भटक रहे थे। उन्हें झुरझुरी हुई। इसमें डर से अधिक यह अहसास शामिल था कि वे उनके सारे कामों के साक्षी हैं और एक साथ हैं। क्या मरकर के उनको भी उन्हीं लोगों में जा मिलना है? यह एक ऐसा डर था जो हावी होने लगा गौरीनाथ पर। इसके बाद वह बालक उन्हें कई बार दिखा। इस हद तक कि जैसे वह ओझल होना ही भूल गया उनकी आँखों के सामने से। वह दीपक के साथ बैठे होते और दीपक की बगल में वह चुपचाप बैठा दिखाई देता। एक विकृत हँसी के साथ। ऐसा लगता कि जैसे उसके चेहरे का स्थायी भाव ही विकृति का हो गया है। वह किसी और तरफ देखने लगते। वहाँ भी वही दिखाई देता। और एक दिन तो उसने उनकी गोद में आने की जिद की। उसी विकृत हँसी के साथ। न जाने कितनी बार उसे गोद में उठाया होगा गौरी ने। पर उस दिन वह उसे दूर कहीं झटक देना चाहते थे। वह उठकर बाहर भागे। बाहर चबूतरे पर माताफेर बैठे हुए थे।

इसके बाद यह सिलसिला चल निकला। वे दीपक की खिदमत में डूब जाना चाहते थे। पर बद्री और उनके पिता कभी भी उनके सामने आ खड़े होते। कभी भी, कहीं भी। एक दिन वह अपनी साइकिल से स्कूल जा रहे थे कि अचानक सामने उन्हें माताफेर साइकिल से आते हुए दिखे। माताफेर जवान थे और यह वही साइकिल थी जो गौरी को दहेज में मिली थी। गौरी अपने पिता से भिड़ ही गए होते अगर अचानक से उन्होंने अपनी हैंडिल बगल में न मोड़ दी होती। वे डर गए और साइकिल लेकर गड्ढे में जा गिरे। उनके पैरों में वहीं पड़ा हुआ काँच धँस गया पर उन्हें पता तक न चला। देर तक उनकी हिम्मत सड़क पर देखने की न हुई। यह तो कोई परिचित था जिसने उन्हें इस तरह से पड़े हुए देखा और बाहर निकाला।
बाहर के पाप

और फिर एक दिन गौरी ने बैजंती का पेट देखा। वह फिर से फूला हुआ था। बैजंती फिर से माँ बनने वाली थीं। इसके पहले वह माताफेर के मरने से लेकर अब तक में दो बच्चों की माँ बन चुकी थीं। दोनों बच्चे गौरी के नहीं थे। गौरी ने एक बार फिर से बैजंती पर हाथ उठाने की कोशिश की थी बदले में बैजंती फुफकारी थीं। उन्होंने कहा कि उन्हें गौरी के सब पाप पता हैं और अगर उन्होंने बाहर कुछ भी बोलने की कोशिश की या बच्चों से बुरा बर्ताव करने की कोशिश तो वह गौरी के जीवन में आग लगा देंगी। गौरी चुप हो गए। उनके जीवन में पहले से ही आग लगी हुई थी और यह आग किसी और ने नहीं बल्कि गौरी ने खुद ही लगाई थी। इसलिए जब तीसरी बार उन्होंने बैजंती का पेट देखा तो बस एक तटस्थ सवाल भर पूछ पाए। उन्होंने बैजंती से पूछा कि किसका पाप है यह। बैजंती ने जवाब दिया कि जिसका भी है तुम्हारे पाप से अच्छा ही है। बैजंती इतने पर भी चुप नहीं रहीं। आगे उन्होंने कहा कि बस इतना जान लो कि यह जो भी है उन दोनों में से कोई नहीं है जिसके पहले के दो बेटे हैं। यह कोई तीसरा ही है।

गौरीनाथ ने पत्नी की तरफ देखते हुए घृणा से थूका और कहा कि एकदम रंडी ही हो गयी हो क्या? बैजंती ने जवाब दिया कि रंडी तो उसी दिन हो गयी थी जिस दिन तुम जैसे दलाल के साथ गाँठ बँधी थी। गौरीनाथ क्रोध से पागल हो गए। इस क्रोध में में वह भय भरा सम्मोहन कहीं ओझल हो गया जिसने पिछले कई सालों से एक तना हुआ संतुलन स्थापित कर रखा था। उन्होंने पत्नी को धक्का दिया और पेट पर लात मारने की कोशिश की। इस कोशिश में वह भहरा गए। बैजंती को उनका पैर छू भी नहीं गया था पर वह जोर जोर से चिल्लाते हुए बाहर भागीं। वह चिल्ला रही थीं कि पंडित पागल हो गए हैं और उन्हें मार डालना चाहते हैं। लोग इतनी तेजी से इकट्ठा हुए कि जैसे इसी पुकार के इंतजार में बैठे हुए थे। लोग गौरी पर लानत भेज रहे थे। यह इसलिए भी था क्योंकि गौरीनाथ के बहुतेरे कर्म उजागर हो गए थे। किसी के भी मन में उनके प्रति कोई इज्जत या सहानुभूति नहीं बची थी। इसके उलट बैजंती ने एक गरिमापूर्ण व्यवहार और गंभीरता बनाए रखी थी। उनके जीवन में अनैतिक कहे जाने जैसा जो कुछ भी था वह इतने पर्दों के नीचे छुपा हुआ था कि उसके बारे में किसी को कोई खबर नहीं थी।

गौरी ने चुपचाप मैदान छोड़ दिया। वह नहीं जानते थे कि यह बात लोगों के सामने जाहिर हो जाने पर उन्हें कैसा लगेगा कि उनके तीन में से दो बेटे उनके अंश से नहीं हैं और जो चौथी संतान आने वाली है वह भी किसी और का ही पाप है। उन्हें लगा कि एक पर्दा जो उनकी इज्जत पर है वह भी तार तार हो जाएगा। जिसे आज बैजंती ने उतार फेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उन्हें फिर से अपने पिता की याद आई जिन्होंने उन्हें सीख दी थी कि स्त्री पर पहले दिन से सख्ती रखो अन्यथा उसे हाथ से बेहाथ होते देर नहीं लगेगी। तो फिर माताफेर ने उनकी माँ बेला के साथ जो बर्ताव किया था क्या वह सही था। उन्हें फिर से माँ की पिटाइयों और रुलाइयों की याद आई। वे अपने पिता के ही अंश थे सो अपनी माँ पर शक भी करते थे, अन्यथा पिता उनके साथ इतना बुरा बर्ताव क्यों करते। पर कभी कभी ही सही माँ की रुलाई भी उनके भीतर प्रकट होती थी और एक देर तक बना रहने वाला दुख दे जाती थी। यह तभी तक था जब तक गौरी ने माँ और पत्नी की रुलाइयों को मिलाया नहीं था। उस दिन के बाद पत्नी के प्रति जो डर, संशय और द्वेष था वह जाने अनजाने माँ पर भी आरोपित होता था कई बार। इसका उलटा भी हो सकता था कि वह पत्नी की रुलाई को भी माँ की रुलाई के आईने में देख सकते थे। पर ऐसा हो पाता शायद इस बात की संभावना उनके खून में ही नहीं थी।

दूसरी तरफ इस दिन के बाद से पता नहीं क्या जादू हुआ कि बैजंती और बद्री की पत्नी दोनों एक हो गईं। वह रह अभी भी अलग अलग ही रही थीं पर दोनों का अधिकतर समय साथ साथ ही बीतता। एक तरह से अपने संशय के साथ बद्री की पत्नी बैजंती की रखवाली कर रही थीं और इस तरह से उनकी भी रखवाली हो रही थी। दोनों जिस व्यक्ति के प्रति घृणा और क्रोध में भरी हुई थीं वह गौरीनाथ थे। पर दोनों को एक करने वाली यह कोई इकलौती बात नहीं थी। उनके जीवन में उनके सुख दुख में बहुत सारा साझापन था। और उनका साथ इस साझेपन का हर दिन के साथ विस्तार दे रहा था। बैजंती के दोनों बच्चे बद्री की पत्नी के भी बच्चे हो गए थे। वह उनके प्रति कुछ इस तरह से स्नेह से भरी नजर आतीं जैसे कि वह उनके ही बच्चे हों। बैजंती ने जल्दी ही ननिहाल में रह रहे बद्री के बच्चे को भी बुलवा लिया। यह ऐसा काम था जिसने बद्री की पत्नी को नए सिरे से निहाल कर दिया।


सपनों भरी रातें

गौरीनाथ उन दोनों स्त्रियों और उनके बच्चों से पूरी तरह से निरपेक्ष हो गए। ऐसा नहीं था कि वह अपना जहर का फन भूल गए थे। वह जहर तो उनके खून में ही इकट्ठा हो रहा था धीरे-धीरे। पर वह नहीं समझ पाए कि ऐसी कौन सी चीज थी जिसने उन्हें बैजंती को जहर नहीं देने दिया। यह उनके लिए खेल की तरह था। वे कभी भी वैजंती से मुक्ति पा सकते थे तो उन्होंने ऐसा किया क्यों नहीं। क्या वे बैजंती से प्रेम करते थे। यह ऐसी बात थी जिस पर गौरी ने खुद ही मुँह बिचका दिया। क्या वे दीपक की वजह से बैजंती को छोड़े हुए थे कि दीपक को उनकी तरह से बिना माँ के न जीना पड़े। शायद, उन्होंने सोचा, दीपक की देखभाल के लिए वह खुद समर्थ हैं। आखिर अपने छोटे भाई और बहनों की देखभाल की ही थी उन्होंने।

अचानक से एक हँसी प्रकट हुई माताफेर के भीतर से। यह हँसी एक न समझ में आने वाली विक्षिप्तता से भरी हुई थी। हँसी के बीच से एक तोतली आवाज थी जिसने उनसे पूछा कि जिसे जहर दिया उसकी देखभाल भी तुमने ही की थी न। क्या जहर देना भी तुम्हारी देखभाल का ही हिस्सा था। यह तोतली आवाज गौरीनाथ के ही गले से निकली थी। वह स्तब्ध रह गए। यह आवाज इतनी अचानक नहीं थी। इस तरह की आवाजें वह सुनते आए थे पहले से ही। अंतर सिर्फ यह था कि इस बार यह आवाज खुद गौरीनाथ के गले से ही निकली थी जबकी पहले इस तरह की आवाजें माताफेर या बद्रीनाथ की होती थीं। जो गौरी को कहीं भी पकड़ लेते और बतियाने की कोशिश करते। बद्री हमेशा बचपन में होते। बहती हुई नाक और हकलाती हुई जबान वाले। कई बार तो एकदम नंग-धड़ंग। माताफेर अमूमन बुढ़ापे वाले रूप में प्रकट होते पर कई बार वह अपने जवान रूप में भी दिखते तब वह अक्सर अपनी साइकिल के साथ उपस्थित होते।

गौरीनाथ को लगता कि वह अब सब तरफ से घिर गए हैं। उन्हें बचाव का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। वे इस कदर डर गए थे कि एक बार तो उन्होंने एक ओझा तक के पास जाने की ठान ली। वे घर से निकले भी पर रास्ते से ही लौट आए। उन्हें इस बात का भी डर लगा कि बद्री और माताफेर अपनी हत्या के राज कहीं उगल न दें। फिर उन्होंने यह भी सोचा कि क्या उन दोनों को यह पता होगा कि उनकी मृत्यु मेरी वजह से हुई है? उन्हें तो पता भी नहीं चला होगा कि कब वह सोते सोते सोते मर गये होंगे। क्या पिता को भी? पर अगर उन दोनों को पता नहीं चल पाया था तो वे दोनों उनका पीछा क्यों कर रहे थे। बहुत सारे सवाल थे। बैजंती और बद्री की पत्नी थीं उनकी छाती पर मूँग दलती हुईं। दोनों की खिलखिलाहटों से घर गूँजता रहता। यह हँसी उनके कान के पर्दों में छेद कर जाती। उन्हें बार बार लगता कि कहीं इतनी दूर भाग जाएँ कि इन सब मुसीबतों से एक साथ छुटकारा मिल जाए। और तभी उनके सामने दीपक का चेहरा घूमने लगता।

गौरीनाथ पागल ही हो जाते अगर नींद ने उनका साथ न दिया होता। उनकी कई सालों से गायब नींद वापस आ गयी थी। पर वह अकेली नहीं आई थी। वह अपने साथ बहुत सारे सपने लाई थी। गौरी रात रात भर उन्हीं सपनों की दुनिया में विचरते रहते। सुबह उठते तो अक्सर आँखें कड़ुवाई मिलतीं। कई बार तकिया भीगा मिलता। क्या वे नींद में रोते हैं। क्या रोते हुए आवाज भी होती होगी? क्या वे कुछ बोल बोल कर रोते होंगे? उन्हें इन सवालों का भी कोई जवाब नहीं मिला। उन्हें तो बस सपने मिले। हर रात एक सपना। बेहद धीमे घटित होने वाले सपने, जिनके बारे में गौरीनाथ को लगता कि वह एक पूरी रात में देखे गये सपने थे। बेहद धीमी गति से चलते हुए कि गौरी उनका एक एक दृश्य अपने भीतर बिठा सकें। 

जैसे गौरी ने एक दिन यह सपना देखा कि वे रोज की तरह अपने खेत में निवृत्त होने के लिए बैठे हैं। हवा इतनी शांत है कि एक पत्त्ता तक नहीं हिल रहा कहीं। अचानक उनकी बाग में एक पेड़ अरराहट के साथ गिरता है। इसके बाद दूसरा फिर तीसरा फिर चौथा… एक एक कर के सारे पेड़ गिर जाते हैं। एक भी पेड़ आधा भी खड़ा नहीं दिख रहा। गौरीनाथ नंगे ही बाग की तरफ भागते हैं। और तब उसी पटी हुई बाग से – जो अब लकड़ी और पत्तियों के ढेर में बदल गई है – वह नवजात बछड़ा जिसे कल ही गाय ने जना था, जलते हुए बाहर भागता है। वह कुछ इस तरह से जल रहा है जैसे उस पर कुछ छिड़क कर आग लगा दी गई हो। गौरीनाथ उसके पीछे पीछे भागते हैं। और भागते जाते हैं कि अचानक उनको लगता है कि वह जलते हुए बछड़े में बदल गए हैं जो एक गोल चक्कर काटते हुए खुद का ही पीछा कर रहे हैं।

एक दूसरे सपने में गौरीनाथ ने अपने को एक जल्लाद के रूप में पाया। उन्हें एक हरकारे से एक जिल्दबंद सरकारी आदेश हासिल हुआ कि उन्हें कई लोगों को फाँसी देनी है। सजा पाए लोगों की सूची में एकदम नवजात बच्चे से लेकर सौ साल के बूढ़े तक मौजूद थे। सपने में गौरीनाथ को यह भी याद आया कि आखिरी फाँसी उन्हें अपने पिता को देनी थी। हालाँकि उनके पिता यहाँ भी बदमाशी करने से बाज नहीं आए। और जब फाँसी देने के बाद उन्होंने पिता के चेहरे से कपड़ा हटाया तो पाया कि यह तो वे खुद यानी गौरीनाथ ही थे जिसे उन्होंने फाँसी दी थी। और तब उन्होंने उस सरकार हुक्मनामे को दोबारा पढ़ा जो उन्हें दिया गया था। और तब उन्होंने देखा कि उस हुक्मनामे में आखिरी नाम उनका खुद का था। उन्हें इस बात के लिए सम्मानित भी किया गया कि वे अपने आप को फाँसी देने वाले पहले जल्लाद थे।

तीसरे सपने में अनंत तक फैले दिखने वाले रेगिस्तान के बीच एक सड़क थी। गौरीनाथ को लगा कि यह सड़क अनंत को दो बराबर भागों में विभाजित कर रही है। अब वे जहाँ खड़े थे उनके दोनों तरफ दो अनंत लगे उन्हें। अनंत को बाँटने के अपने इस पागल खयाल पर एक पागल ठहाका लगाया उन्होंने। सपने में ही उन्होंने यह भी याद करने की कोशिश की कि पिछली बार वह इस तरह की पागल हँसी कब हँसे थे। हँसने के बाद उन्होंने सड़क के दोनों तरफ देखा। पेड़ पौधे, सराय, कुआँ, दुकानें कुछ भी नहीं। कोई दूसरा यात्री भी नहीं। पीछे देखा तो पाया कि आधा अनंत गायब हो चुका है। अब यह सड़क वहीं से शुरू हो रही है जहाँ वे खड़े हैं। वे आगे बढ़ चले, इस आशा में कि सड़क है तो कहीं न कहीं जाती ही होगी। जब वे चलते चलते थक गए और रास्ते का कोई ओर छोर नहीं मिला तो भूख प्यास ऊब थकान और घबराहट के मारे गौरीनाथ ने पीछे लौटने का निश्चय किया। पीछे मुड़ने पर उन्होंने पाया कि वापस लौटने के लिए कोई सड़क ही नहीं है। तो क्या वे चलने के भ्रम में जहाँ के तहाँ खड़े रह गये हैं याकि उनके पीछे की सड़क रेगिस्तान में गायब होती चली गयी है। सब तरफ रेगिस्तान पसरा हुआ है किसी तरफ कोई ऐसी चीज नहीं जो किसी एक राय के पक्ष में गवाही दे सके। वे पागल होकर चिल्लाते हैं कि क्या यह रेगिस्तान और सड़क सिर्फ उनके लिए बना हुआ है… उनकी आवाज से हवा में तेज विक्षोभ पैदा होता है और रेगिस्तान सिकुड़ना शुरू कर देता है। सिकुड़ते सिकुड़ते अनंत में फैला पूरा रेगिस्तान उनके भीतर समा जाता है। तब वे पाते हैं कि वे बालू से बने हैं जो बहुत तेजी से झर रही है। वे भय से जड़ हो जाते हैं। चिल्लाना चाहते हैं पर भीतर से आवाज ही नहीं निकलती, बस एक रेगिस्तानी सनसनाहट सुनाई देती है। उनकी नींद टूट जाती है।

ऐसे ही एक और सपने में उन्होंने पाया कि उनका उनकी ही पत्नी यानी बैजंती के साथ विवाह हो रहा है। पर न जाने कहाँ से बहुत सारे लोग आ गये हैं जो उनकी पत्नी के साथ फेरे ले रहे हैं। वे लगातार अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं और लोग हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं। गौरी सपने में ही एक अनंत विक्षोभ से भरते जा रहे हैं कि क्या उनकी बारी कभी नहीं आएगी। वे जबरदस्ती आगे बढ़ने को होते हैं कि उनके पिता उनका हाथ पकड़ लेते हैं। पिता अपने जवान रूप में हैं और हूबहू गौरीनाथ की तरह लग रहे हैं। पिता उनसे गले मिलते हैं और उनके लिए रोते हैं। दोनों रोते रोते आपस में ही फेरे लेने लगते हैं। फेरे लेने के बाद पिता अपनी साइकिल पर बैठ कर चले जाते हैं। पिता के जाने के बाद अचानक गौरीनाथ पाते हैं कि पिता उनमें छूट गए हैं और खुद गौरीनाथ पिता के भेस में बाहर चले गए हैं। एक अन्य सपने में उन्होंने देखा कि उनका शरीर योनियों से भर गया है। कान, नाक, आँख, मुँह सब के सब योनियों में ही बदल गये हैं। पूरे शरीर में असंख्य योनियाँ हैं और उन असंख्य योनियों में असंख्य गौरीनाथ संभोगरत हैं। और थोड़ी ही देर में उन्होंने अपने शरीर से असंख्य दीपकों को निकलते हुए देखा जो अंधे लिजलिजे कीड़ों की तरह एक दूसरे पर चढ़े हुए थे। जो आपस में एक दूसरे को खाते हुए भयंकर गुंजार जैसी आवाज पैदा कर रहे थे। 

अगली कई रातों तक गौरीनाथ ने रोज एक नया सपना देखा। जिस सपने के साथ उनकी आँख खुलती वह दिन भर उनकी आँखों में बना रहता। आम सपनों के उलट यह सपना उन्हें पूरा का पूरा याद रहता। इस हद तक कि वह उन्हें जस का तस लिख सकते थे। इसी में अगले दिन अगला सपना जुड़ जाता। फिर अगला… पर बाद में वे सपनों को लेकर दिग्भ्रमित से हो गए। सारे सपने आपस में मिल गए थे। उनके चरित्रों और दृश्यों ने आपस में अदला बदली का खेल खेला था। एक तो गौरीनाथ पहले ही उन सपनों को बूझने में खुद को असमर्थ पा रहे थे। ऊपर से उनका यह खेल… वह अपने आपको उन सपनों का कोई भी अर्थ निकालने में सक्षम नहीं पा रहे थे। अब तो उन्हें यह भी शक हो रहा था कि कुछ शुरुआती सपनों का जो अर्थ उन्होंने किया था वह कितना सही या गलत था। इस बात की भी उतनी ही संभावना थी कि उनका निकाला अर्थ सपने के असली अर्थ से पूरी तरह से उलटा अर्थ रखता हो या कि क्या पता उन सपनों का कोई अर्थ ही न हो।
  
उन न समझ में आने वाले सपनों भरी रातों के बाद उन्होंने अगली कुछ रातों तक जागरण का निश्चय किया। रात में नींद आने के एक आदिम अभ्यास वश उनकी पलकें नींद से झपकती रहतीं। वे सो जाते पर यह सोना सचमुच का सोना नहीं होता। यह नींद और जागरण के बीच की अवस्था होती। एक ही साथ में उन्हें यह भी महसूस होता कि वे जाग रहे हैं दूसरी तरफ उसी समय वह कोई अस्पष्ट सा सपना भी देख रहे होते। आँख खुलती तो यह तो याद रहता कि कुछ देखा था पर क्या देखा था यह कभी न याद रहता। वे पूरा पूरा दिन रात में देखे गए सपने को याद करने में लगा देते। वे अपने इन सपनों में इस हद तक खो गए कि उनकी सारी दिनचर्या नष्ट हो गई। वह रोजमर्रा के अपने सारे काम भूल गए। स्कूल जाना भूल गए। यहाँ तक कि दीपक को को भूल गए जिसकी चिंता में वह सपनों के आना शुरू होने के पहले तक घुलते रहते थे। ऐसे में एक दिन जब वह एक सपने से निकलकर दूसरे में प्रवेश करने ही वाले थे कि उनकी निगाह दीपक पर चली गयी। उसकी घनघोर निस्संगता वापस लौट आई थी। वह सारी चीजों से बेपरवाह जमीन पर सिर लटकाए बैठा हुआ था। गौरीनाथ दौड़कर उसके पास गए और वहीं जमीन में उसकी बगल बैठ गए। दीपक ने जैसे उन्हें पहचाना ही नहीं। वह अपने में डूबा रहा। गौरीनाथ को रुलाई आ गई। उन्होंने दीपक को लगभग अपनी गोद में ले लिया और इस तरह से विलाप करने लगे जैसे उसकी मृत्यु हो गयी हो।


जहर का आखिरी शिकार

गौरी का वह विलाप इतना करुण था कि बैजंती तक पसीज गईं। बैजंती के होंटों पर बनी रहने वाली उपहास भरी मुस्कान हमेशा के लिए गायब हो गयी। उन्हें उस रात की रुलाई भी याद थी जब दीपक को खाँसी की दवा खिलाते खिलाते गौरी रो पड़े थे। पर इस इस क्षण गौरीनाथ इतने दयनीय लगे कि उन्हें तरस आ गया। बेटे से लिपटकर रोते हुए गौरी एकदम अबोध लग रहे थे। दूसरी तरफ उनकी रुलाई पर दीपक एकदम से निरपेक्ष दिख रहा था। रोते हुए गौरी ने उसे जिस तरह से पकड़ रखा था उससे जरूर वह थोड़ा परेशान दिख रहा था पर इतना भी नहीं कि वह खुद को गौरी से छुड़ाने की कोशिश करे। बैजंती के लिए यह दृश्य इतना पवित्र था कि उन्होंने गौरी को इसी क्षण उनके सारे गुनाहों से बरी कर कर दिया। वे गौरी के निकट आईं और गौरी के कंधों पर हाथ रखा। सिर सहलाया और उन्हें अपने से चिपटा लिया। उनकी बाँहों में दीपक था और वे खुद बैजंती की बाँहों में थे। उनके समूचे दांपत्य में इतना मार्मिक क्षण इसके पहले कभी नहीं उपस्थित हुआ था।

इसी क्षण गौरीनाथ ने तय किया कि अब उन्हें भी उसी राह लगना चाहिये जिस राह पर पिता और भाई गए हैं। वह अपने हिस्से का पूरा जीवन जी चुके हैं। उन्हें कोई कारण नहीं समझ में आया पर उन्हें लगा कि उनके रहते दीपक कभी नहीं अच्छा हो सकता। वह शायद गौरी के अपराधों की सजा भुगत रहा है। उन्हें लगातार रातों में देखे गए सारे सपने याद आए जिनके दृश्य और चरित्र कबके आपस में घुलमिल गए थे। उन्हें पिता और भाई की याद आई जो उन्हें हर समय घेरे रहते थे। उन्हें कभी भी अकेला न छोड़ते हुए। गौरी को पता है कि वह दिन दूर नहीं जब वह खुद सबको चीख चीख कर बता रहे होंगे कि वह अपने भाई और पिता के हत्यारे हैं। कि उन्होंने अपनी माँ पर भी शक किया है। कि दीपक की इस स्थिति के जिम्मेदार भी वही हैं। उन्होंने ही बैजंती का जीवन नष्ट किया है। उन्हें अपनी सारी बेईमानियाँ और पतन याद आए। वे बहुत थीं। उन्होंने जान लिया कि वह आजकल जिस मनःस्थिति में हैं क्या पता किस दिन सब को सब कुछ पता चल जाय। ऐसी स्थिति में घर और गाँव में रहना असंभव हो जाएगा। क्या पता थाना पुलिस हो जाय। नौकरी भी जा सकती है। पता नहीं और क्या क्या हो। दूसरी तरफ गौरी के न रहने पर उनके पाप हमेशा के लिए छुप जाएँगे। बल्कि पिता और भाई की तरह से ही उनकी मौत भी स्वाभाविक मौत मान ली जाएगी। क्या पता दीपक का भी कुछ भला हो जाए।  


सुबह जब सब गौरीनाथ को मरा हुआ समझ रहे थे तब वे जीवित थे। उनके शरीर में कोई हरकत नहीं थी। वे आँख खोलकर कुछ देख नहीं सकते थे, वे कुछ बोल नहीं सकते थे। उनके शरीर पर उनका कोई जोर नहीं था पर उन्हें सारी बातें जस की तस सुनाई पड़ रही थीं। दिमाग उन सारी बातों पर प्रतिक्रिया दे रहा था जो उनके आसपास थीं। यह आवाज बैजंती की है जो रोते रोते बेसुध सी होने का अभिनय कर रही है। यह बच्चे हैं। यह गाँव का फला आदमी है। यह बद्री की पत्नी है जो चुपचाप रो रही है। आवाजें है बहुत सारी। बहनें आ गई हैं गौरी की छाती पर सिर पटक पटक कर रो रही हैं। दूसरी तरफ उनकी अर्थी तैयार की जा रही है। उनको नहलाया जा रहा है। नई धोती पहनाई जा रही है। निंदा हो रही है। तारीफ हो रही है। सब कुछ सुन रहे हैं गौरीनाथ। एकदम बेहरकत। एक नया यथार्थ खुल रहा है उनके सामने। उन्हें झुरझुरी हो रही है। वे जीवित कैसे हैं? क्या जहर बनाने में उनसे कोई गलती हो गयी थी या कि पिता से सिखाने में ही कोई चूक हो गयी थी। क्या जब माताफेर और बद्रीनाथ को जलाया गया तो वे भी जीवित थे! इसी तरह से सब कुछ सुनते और समझते हुए? क्या उन्हें भी इसी तरह से जिंदा जला दिया जाएगा?

वे लोगों को संकेत देना चाहते हैं, झिंझोड़ कर बताना चाहते हैं कि वे जीवित हैं पर यह किसी भी तरह से संभव नहीं हो पा रहा। तभी गौरी को पिता दिखाई पड़ते हैं गौरी का सिर सहलाते हुए। बद्री दिखते हैं जलते हुए और उनकी आँख खुली हुई है। वहीं बगल में खड़ा बालक बद्री एक तोतली आवाज में चीख रहा है। यह तोतली आवाज जल रही है। यह आवाज गौरी के कानों में तेजाब की तरह से गिर रही है। उनका शरीर तख्ती में बाँधा जा रहा है और आखिरी बार उनके कान तरस रहे हैं दीपक की आवाज के लिए। इतनी सारी आवाजें हैं जो एक दूसरे में घुली मिली हुई हैं पर उनमें दीपक की आवाज कहीं नहीं सुनाई दे रही है। क्या दीपक यहाँ पर है ही नहीं। उन्हें इंतजार है उसका। उसकी छुवन का। वह उसकी छुवन लाखों में भी पहचान लेंगे। एक वही है जिसे अपने पीछे वह छोड़ कर जा रहे हैं। 

वह सपना देखते हैं। एक आखिरी सपना। दीपक अच्छा हो गया है। दीपक का विवाह हो गया है। उसकी पत्नी उसका कहना मानती है। उसकी पत्नी उसकी इज्जत करती है। दीपक को कई सारे बच्चे हैं। सभी बच्चे दीपक के ही अंश हैं। गौरी की जगह पर दीपक को अनुकंपा नियुक्ति मिल गयी है। वह रोज मोटरसाइकिल पर बैठकर स्कूल जाता है। वह बच्चों को बहुत अच्छा पढ़ाता है। उसका बहुत नाम हो गया है। लोग उसे गौरीनाथ के बेटे के रूप में जानते हैं…। गौरी का सपना बीच में ही टूट गया। उनकी मिट्टी उठाई जा रही थी। तभी उन्हें वह आवाज सुनाई पड़ी जिसका उन्हें इतनी देर से इंतजार था। दीपक की रुलाई की आवाज। यह एक घुटी हुई रुलाई थी। अपने आपको रोकने की कोशिश करती हुई। अपने दुख को जज्ब करने की नाकाम कोशिश करती हुई। आखिरकार रुलाई का बाँध टूट गया था। 
 
दीपक हूबहू गौरीनाथ की माँ की तरह रो रहा था।

    

सम्पर्क- 

फोन : 08275409685
ई-मेल : chanduksaath@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की की हैं.)


मनोज कुमार पांडेय की कहानी ‘खजाना’

परिचय 

मनोज कुमार पांडेय


7 अक्टूबर 1977 को इलाहाबाद के एक गाँव सिसवाँ में जन्म। शुरुआती पढ़ाई गाँव में ही। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में परास्नातक। इलाहाबाद में आवारगी का एक लंबा दौर। इलाहाबाद में रहते हुए ही साहित्य, रंगमंच और सिनेमा के शुरुआती सबक सीखे। जनवरी 2005 से करीब सात साल तक लखनऊ में रहतेहुए कई शोध परियोजनाओं में प्रो. रूपरेखा वर्मा के साथ रिसर्च एसोसिएट के रूप में काम किया। पिछले तीन साल से वर्धा में रहते हुए महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की साहित्यिक वेबसाइट ‘हिंदी समय’ के लिए कार्य।


कहानियों की दो किताबें ‘शहतूत’ और ‘पानी’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। कई किताबों का संपादन। ‘चंदू भाई नाटक करते हैं,’ ‘खाल,’ ‘हँसी’ आदि कई कहानियों का विभिन्न निर्देशकों द्वारा मंचन। ‘खाल’ पर लघु फिल्म का निर्माण। कई विश्वविद्यालयों में कहानियों पर शोध। दैनिक अखबार जनसंदेश टाइम्समें साल भर नियमित रूप से साप्ताहिक स्तंभ लेखन।  कहानी के साथ साथ कई अन्य विधाओं में भी रचनात्मक रूप से सक्रिय। कहानियों के लिए प्रबोध मजुमदार स्मृति सम्मान (2006), विजय वर्मा स्मृति सम्मान (2010), मीरा स्मृति पुरस्कार (2011)  
हम भारतीयों में अतीत के प्रति कुछ ज्यादा हो मोह और आसक्ति होती है निठल्ले बैठे लोगों से भी ऐसी कहानियाँ जरुर सुनी जा सकती हैं जिसमें उनके पुरखों का गौरव-गान किया गया हो साथ ही ऐसे लोग निठल्ले बैठ कर धनी बनने के हवाई सपने देखते हैं। इसी क्रम में हमारे अंतःकरण में कुछ ऐसे खजाने भी गड़े होते हैं जिनके बारे में तमाम किंवदंतियाँ हमने जरुर सुनी होगी. हाल ही में पूरा देश उस बचकानी खुदाई का गवाह बना था जिसमें एक बाबा ने अकूत दौलत मिलने की बात कही थी लेकिन अन्ततः हुआ वही जो इन किंवदंतियों का हुआ करता है मनोज कुमार पाण्डेय ने इसी ताने-बाने पर ‘खजाना’ नाम की कहानी लिखी है आज हमारे पूरे समाज और देश की भी यही नियति है जिसमें हम सब एक अन्धी दौड़ में लगातार शामिल हैं जिसका कहीं कोई अन्त नहीं दिखायी पड़ रहा और जिसका हश्र अंततः निराशा और हताशा में होता है बाजारवाद और उपभोक्तावाद हमारे नियंता बन गए हैं और हम उनकी जैसे कठपुतली बन कर रह गए हैं तो आइए पढ़ते हैं मनोज कुमार पाण्डेय की नयी कहानी ‘खजाना’     
खजाना
मनोज कुमार पांडेय
इतिहास, भूगोल और किंवदंतियाँ
हम पंडित रामअभिलाष के वंशज थे। जिनके बारे में गाँव-गिराँव के बूढ़े न जाने कितने किस्से अपने भीतर छुपाए बैठे थे। वह हमारे इलाके के लगभग मिथकीय व्यक्ति थे। हम इस बात के गर्व-बोध से भरे थे कि हम रामअभिलाष के वंशज हैं। पर कई बार दूसरों के पास उनसे जुड़े किस्से कुछ ज्यादा ही मिलते और इस तरह से हमको खुद हमारे बारे में नई नई बातें पता चलती रहतीं।
      हम यहाँ के मूल निवासी नहीं थे। आज के लगभग डेढ़ सौ साल पहले एक बच्चे को अपने साथ लिए रामअभिलाष यहाँ प्रकट हुए थे। वह 1857 में शामिल थे। और अब जबकि विद्रोही हार गए थे और जगह जगह पेड़ों पर लटकाए जा रहे थे वह अपने इकलौते बेटे के साथ भाग निकले थे। उनके परिवार के सारे के सारे लोग पेड़ों पर लटका दिए गए थे। अब वहाँ उनका कुछ भी नहीं बचा था। वापसी की कोई संभावना भी।
      अभिलाषपुर, जहाँ हम आज रहते हैं वहाँ आने के पहले वह कहाँ कहाँ भटके इसके बारे में किसी को कुछ भी नहीं मालूम। इस बारे में खुद उन्होंने भी कभी किसी को कुछ भी नहीं बताया। पर 1857 के लगभग दस सालों बाद जब वह यहाँ पहुँचे तो एक तेरह-चौदह साल का किशोर और एक कुत्ता उनके साथ थे। वह दोनों पिता-पुत्र की बजाय गुरु-शिष्य की तरह का व्यवहार कर रहे थे। उस किशोर ने कभी अकेले में भी उन्हें पिता नहीं कहा बल्कि गुरूजी ही कहता रहा। यह इतना लंबा चला कि परंपरा ही चल निकली। तब से हमारे परिवार में लगातार पिता को गुरू और पुत्र-पुत्री को चेला-चेली कहा जाता रहा। यहाँ तक कि यह परंपरा आज भी कई घरों में बची हुई है।
      हम रामअभिलाष की आठवीं पीढ़ी से हैं।
      जब वह यहाँ आए तो उन्होंने यहाँ के जमींदार लोचन तिवारी से अपने रहने के लिए थोड़ी सी जमीन माँगी। उन्होंने लोचन से कहा था कि जो जमीन उनके किसी काम की न हो वही उन्हें दान में दे दी जाय। और न जाने किस अदेखे के संकेत से लोचन की निगाहें अनायास ही इस टीले की तरफ उठ गई थीं। लोचन ने उन्हें गाँव की पश्चिमी तरफ का सैकड़ों सालों से खाली पड़ा टीला दे दिया। पूरा का पूरा। यह ऊँचा-नीचा टीला कई बीघे में फैला हुआ था। इस पर कुछ नीम-बबूल के पेड़ों के अलावा नागफनियों और रूस का पूरा एक जंगल फैला हुआ था।
      कहते हैं कि यहाँ कभी किसी छोटे-मोटे राजा का महल होता था जो सत्तावन के लगभग सौ साल पहले के किसी सत्तावन की लड़ाई में ध्वस्त कर दिया गया था। राजा और उसके परिवार के लोग मार दिए गए थे। नौकर-चाकर-कारिंदे सब मार दिए गए थे। शायद ही कोई बचा हो। कहते हैं कि कोई एक कुआँ था जो लाशों से पाट दिया गया था। और लूट-पाट के बाद किले में आग लगा दी गई थी। ढहा दिया गया था उसे।
      इसके पीछे कोई गहरी बात न होकर एक छोटी सी नाक की लड़ाई थी जो धीरे धीरे एक भयानक और असहनीय घृणा में बदल गई थी। उनके पास इसके अतिरिक्त कोई और चारा नहीं बचा था कि वे उन्हें मार-काट डालें जिनसे कि वह घृणा करते थे। 
      कहते हैं कि यह हमला रात के तीसरे पहर में किया गया था। मशालों की रोशनी में चमकती हुई तलवारों और खंजरों ने न जाने कितने शरीरों से उनकी चेतना छीन ली थी। और उन्हें हमेशा हमेशा के लिए गहरी नींद में सुला दिया था। हमलावरों ने अपने चेहरे पर काले कपड़े बाँध रखे थे। पर आँखें तो सबकी खुली थीं जिनमें एक हत्यारी घृणा तैर रही थी। इसके बावजूद मरने वालों ने मारने वालों को पहचान लिया था और अविश्वास से उनकी आँखें फैल गई थीं।
      पर यह पूरी तरह सच नहीं है। ज्यादातर मरने वालों को तो उनके मरने का पता ही नहीं चला था। सोते सोते ही उनका गला काट दिया गया था। इसलिए क्या पता कि वे आज तक अपने को सोता हुआ ही मान रहे हों और अपने जगने का इंतजार कर रहे हों। उन्हें इस बात पर आश्चर्य हो रहा हो कि अचानक से उनकी रात इतनी लंबी और काली कैसे हो गई है! और इस बीच उन्हें इतने रक्तरंजित सपने क्यों आ रहे हैं। क्या पता कि बहुतों ने सपनों में ही दम तोड़ दिया हो और अभी तक यह माने बैठे हों कि नींद खुलते ही उनका सपना टूट जाएगा और वह और वह फिर से जी उठेंगे।
      पर यह सब तो सैकड़ों साल पुरानी बातें हैं। लगभग ढाई सौ साल पहले की बातें। अब तक तो वे सोते सोते भी इंतहाई रूप से थक गए होंगे और उनकी आँखें भी दुखने लगी होंगी। इसीलिए पुनर्जन्म बहुत जरूरी चीज है।    
     
      कहते हैं कि लाशों के सड़ने की बदबू वहाँ अगले सौ सालों तक फैली रही। लोगों के लिए इसके आसपास से गुजरना भी मुश्किल बना रहा। यह तभी दूर हुई जब रामअभिलाष वहाँ बसे।
      रामअभिलाष ने अकेले दम कुआँ खोदा। अकेले दम पर ईंटें पाथीं और अकेले दम पर ही अपना एक छोटा सा घर खड़ा किया। जो दूर से ही दिखाई पड़ता। लोग अचरज से भर जाते कि कोई अकेला व्यक्ति यह सब कैसे कर सकता है। पर यह सब सोचते हुए वे पता नहीं क्यों उस पंद्रह वर्षीय किशोर को भूल ही जाते जो इस सब में रामअभिलाष का बराबर का भागीदार था। दोनों ने मिलकर अगले चार-पाँच सालों में उस टीले को इतना खूबसूरत बना दिया कि यह लोगों के लिए अचंभा पैदा करने वाली बात रही। और यहीं से तमाम इस तरह की कथाएँ जन्मीं कि पंडित रामअभिलाष ने टीले पर के भूतों को साध लिया है और यह उन्हीं की की मेहनत का फल है।
      भूतों की बात तो रामअभिलाष जानें पर यह उनकी व्यवहार बुद्धि ही थी जिसने यह कर दिखाया था। उन्होंने उसी खंडहर में दबी सैकड़ों साल पुरानी ईंटें खोद निकाली थी और मिट्टी के गारे से एक पर एक जमाते गए थे। ईंटें बाहर आकर खुश हो गई थीं और उन्होंने रामअभिलाष का भरपूर साथ दिया था। ईंटों ने ही उन्हें एक कुएँ का भी रास्ता दिखाया था जिसमें से कम से कम सौ सालों से पानी नहीं निकाला गया था। उन सौ सालों का बचा हुआ पाली रामअभिलाष पिता-पुत्र ने अगले तीन-चार सालों में ही खर्च कर डाला था। नतीजे में यह टीला एक हरे-भरे महकते हुए उपवन में बदल गया था।
      यह सब इतना धीरे-धीरे और सहजता से हुआ कि इस तरफ लोगों का ध्यान ही नहीं गया और जब गया तो वे अवाक रह गए। लोचन तिवारी तक भी यह खबर पहुँची और एक सहज उत्सुकता के साथ टीले पर पहुँच ही गए। ऊपर किशोर पेड़ों और तरह तरह के फूलों से आती हुई खुशबू ने उनका स्वागत किया।
      शायद इसमें वातावरण के सम्मोहन का भी असर रहा हो जब उन्होंने रामअभिलाष के तेजस्वी बेटे को देखा। जिसे इन चार पाँच सालों में उन्होंने न जाने कितनी बार देखा होगा। पर आज के देखने में कुछ खास था। यह किशोर जिसका नाम राम इकबाल था अब लगभग बीस साल का हो रहा था। और उसके चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ आए अभी थोड़ा ही समय बीता था। अचानक से लोचन तिवारी के मन में एक खयाल उभरा और किसी निश्चय की तरह भीतर बैठ गया।
      उन्होंने उसी दिन रामअभिलाष के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह अपनी बेटी की शादी उनके बेटे से करना चाहते हैं। जिसे रामअभिलाष ने बिना किसी अतिरिक्त उत्साह के हरि की इच्छा कहकर स्वीकार कर लिया। और बदले में बहू के साथ पचासों बीघे जमीन और टीले पर एकाधिकार पाया। 
      यह सब बहुत पुरानी बातें हैं।
      अब तो रामअभिलाष का घर रामअभिलाष के पुरवा के रास्ते अभिलाषपुर में बदल गया है। जिसमें करीब पैंतीस घर हमारे ही पट्टीदारों के हैं। बाकी पंद्रह बीस घर उन जातियों के हैं जिन्हें हमने अपने काम के लिए समय समय पर यहाँ ला बसाया। इस तरह से एक बाप-बेटा या गुरु-चेला से शुरू हुआ यह सिलसिला आज एक पूरे गाँव में बदल गया है।
      बीच में बहुत सारे किस्से बने-बिगड़े। जैसे बहुतेरे लोगों का मानना था कि राम इकबाल रामअभिलाष के बेटे नहीं थे। रामअभिलाष का बेटा तो गदर के बाद की दस साला बदहाली की भेंट चढ़ चुका था। यह तो कोई अनाथ लड़का था जिसके परिजन सत्तावन में मारे गए थे और जो इधर-उधर भटकते हुए छुपते-भागते रामअभिलाष से जा टकराया था। कुछ लोग तो यह भी कहते थे कि वह मुसलमान लड़का था जिसे रामअभिलाष ने हिंदू बनाकर पेश किया था।
      हमारे कुछ पट्टीदार जिनके पुरखे मुसलमान हो गए थे उसे वे मुसलमान ही मानते थे और उसका नाम इकबाल बताते थे जिसे रामअभिलाष ने बदलकर रामइकबाल कर दिया था। खैर यह सब किस्से हैं। यह कितने सच हैं कितने झूठ यह जानने का हमारे पास कोई भी जरिया नहीं था। और इससे भी बढ़कर बात यह थी कि इन किस्सों के बावजूद हमारा जीवन चल रहा था। हम जमींदारों के दामाद और भानजे भतीजे थे। हम पूरे इलाके के मानदान थे। और धीरे धीरे करके पूरे इलाके की पुरोहिताई और गुरुआने पर हमारा कब्जा था। और क्या चाहिए था हमें। अब हम अभिलाषपुर के निवासी थे और अभिलाषपुर हमारा था।

    

हमारा वर्तमान यानी कौड़ी के तीन होना
जैसे जैसे हमारे घर बँटते गए वैसे वैसे हमारी जमीनें और संपन्नता भी बँटती गई। और आज की तारीख में हम कौड़ी के तीन थे। गाँव के कुछ दूसरे लोगों की तुलना में हमारे पास एक चमकदार भूत जरूर था पर वह भूत हमारे किसी काम का नहीं था।
      हमारे पास अब थोड़े थोड़े खेत थे बस। पेड़ और बाग ज्यादातर साझा ही थे। अब हममें से कुछ लोगों को यहाँ से बाहर निकलने के बारे में सोचना चाहिए था। पर बाहर निकलने का खयाल ही हमारा जी डराता था। बाहर निकलते ही हमें श्रम करना पड़ता और श्रम हमें भूत की तरह से डराता था।
      हमारे बीच से कुछ लोग बाहर जरूर गए थे पर वह गद्दियों पर गए थे। उन्होंने ऐसी लड़कियों से ब्याह रचाया था जिनके भाई नहीं थे। और वे ससुराल जाकर जम गए थे। इसी तरह से कुछ दूसरे अभिलाषपुर आए भी थे।
      अपवाद मात्र एक थे। करीब पाँच-छह पीढ़ी पहले हमारे एक पट्टीदार बाहर निकले थे। और न जाने किन परिस्थितियों में वह किसी मुस्लिम जमींदार के यहाँ खाना पकाने की नौकरी कर ली। जब कई साल बाद वह वापस लौटे तो उनके लौटने के पहले ही उनके बारे में तमाम सूचनाएँ हम तक पहुँच चुकी थीं। सो उनके बाकी पट्टीदारों ने उनके साथ रोटी का संबंध तोड़ लिया।
      बदले में कुछ दिनों की कशमकश के बाद एक दिन उन्होंने मौलवी बुलाया और बाकायदा मुसलमान हो गए।
      वह भी हमारे ही हिस्से थे। जो खून हमारी रगों में बहता था वही उनकी रगों में भी। पर धर्म बदलते ही वह हमारे लिए बेगाने बल्कि अछूत हो गए थे। हम उनसे दुश्मनों की तरह से बर्ताव करने लगे। शायद यही वजह थी कि जब पाकिस्तान बना तो वह उसमें शामिल होने वाले जत्थे में तुरंत ही शामिल हो गए। दो बेटे भी उनके साथ ही गए। बाकी दो बेटों और उनकी पत्नी ने उनके साथ जाने से मना कर दिया। और वे यहीं रह गए हमारे साथ। अपनी पूरी ठसक के साथ। एक मस्जिद भी खड़ी कर ली है। और अब कुल मिलाकर नौ घर हैं।
      जो यहाँ से गए वह पाकिस्तान पहुँचे की नहीं, अगर पहुँच गए तो उनके वंशज वहाँ किस हाल में हैं इस बारे में हमें कुछ भी नहीं पता।
      पर हम जो यहाँ रह गए थे अब छीज रहे थे धीरे धीरे। हमारे कुछ गिने-चुने पट्टीदारों को छोड़ दें जिन्होंने सरकारी नौकरियाँ हासिल कीं और आसपास के शहरों में बस गए। वे अब अभिलाषपुर कभी कभार ही आते हैं। ज्यादातर अपनी खेती-बारी का हिसाब करने। जोकि हममें से ही कोई जोत रहा होता है।
      एक समय था कि जब हमारे परिवार के लोग खेती के कामों में हाथ भी नहीं लगाते थे। पहले के जमाने में बेगार, बाद में मजदूरी और अधिए पर होती रहीं खेतियाँ। एक घमंड भरा आप्तवचन था कि खेत में काम करना हम ब्राह्मणों का काम नहीं। और करते भी क्यों जब इतनी सस्ती दरों पर मजदूर और हलवाहे उपलब्ध थे। यह लगभग सही होगा अगर कहा जाय कि हम मेहनत करना भूल ही चुके थे।
      बाद में यह समय भी आया कि अगर हम खुद से खेती में न लगते तो शायद भूखों ही मर जाते याकि हमें अभिलाषपुर छोड़कर काम-धंधे की तलाश में कहीं बाहर निकलना पड़ता।
      सबसे पहले उन लोगों ने अपना काम खुद करना शुरू किया जो मुसलमान हो चुके थे। बाद में उनकी देखा-देखी छेदी पंडित भी एक दिन हल बैल के साथ खेत में दिखाई दिए। यह एक न देखा गया दृश्य था। अभिलाषपुर के ज्यादातर पंडितों ने उनके इस कदम की घनघोर भर्त्सना की। उन्हें बिरादरी बाहर करने कि धमकियाँ दी गईं। पर वह अविचल रहे। उन्होंने सीधे एक वाक्य से सारी धमकियों को खारिज कर दिया कि बिरादरी को देखूँ या अपने बच्चों का मुँह देखूँ।
      धीरे धीरे सभी लोगों को छेदी पंडित के रास्ते पर चलना पड़ा। शुरुआत में शर्म के मारे कई लोगों ने रात में काम करना शुरू किया। जिससे कि काम करते हुए वह लोगों की नजरों में आने से बचे रहें। यह एक झूठमूठ का पर्दा था जिसके आरपार सब कुछ दिखता था पर इसे गिरने में भी कई साल लग गए। 
      पर इस सबके बावजूद स्थितियाँ दारुण ही होती चली गईं। हम खानदानी रूप से बस पुरोहिती का काम जानते थे। और अब अभिलाषपुर में ही पचासों पुरोहित थे। आसपास के गाँवों में भी उनकी संख्या कम नहीं थी। लोगों के मन में हमारी इज्जत नहीं रही थी। वे हमारे सामने ही हमारा मजाक उड़ाते। लालची, मुफ्तखोर, केंचुआ, ढोंगी जैसे विशेषणों से नवाजते। और हमसे बेहतर यह कौन जानता था कि हम यह सब सचमुच थे। ऊपर से पवित्र और आध्यात्मिक दिखने की कोशिश पर भीतर से खोखले, दीन हीन लालची, मुफ्तखोर, केंचुआ, ढोंगी। 
      हम परजीवी थे। पर मुश्किल यह थी कि अभी तक हम जिन पर रोब गाँठते हुए पल रहे थे उन्होंने हमसे रोब खाना बंद कर दिया था। पहले हम उन पर तरस खाते थे अब वे हम पर तरस खा रहे थे। उन्हें हमारा डर नहीं रहा था।

उनके पास जमीनें नहीं थी। वे पहले भी अपनी मेहनत की कमाई खा रहे थे। और अभी भी। अभी हममें से ज्यादातर की जमीनें घट रही थीं और उसी अनुपात में उनमें से ज्यादातर संपन्न हो रहे थे।

      खुद हमारे वे पट्टीदार जो मुसलमान हो गए थे उनकी हालत भी हमसे बेहतर थी। उन्हें टेंपो चलाने से लेकर किसी कस्बे के किनारे चाय समोसे की दुकान चलाने तक से कोई एतराज नहीं था। और उनमें से एक लड़के ने अभी थोड़े दिनों पहले नजदीकी बाजार में बाल काटने की दुकान खोली थी। क्या धर्म बदलने से संस्कार इस कदर बदल जाते हैं? हम अक्सर सोचते पर भूल जाते कि उसके बाद उन पर से उस विनाशकारी चेतना का दबाव खत्म हो गया था जिससे कि हम जूझ रहे थे। दूसरे धर्म बदलते ही उन्हें हमारी तुलना में बहुत ज्यादा शारीरिक और मानसिक संघर्षों से दो-चार होना पड़ा था। जिससे कि हम शायद कभी नहीं हुए या कि अब हो रहे हैं।
      कोई नहीं जानता कि इसकी शुरुआत कैसे हुई थी पर इस मुश्किल समय में जब हमें नए सिरे से काम में जुट जाना था हम कुछ हवाई सपनों में खो गए। हमारे बीच से जो लोग काम की तलाश में या बेहतरी की तलाश में बाहर निकले हमने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। हमें आगे की बजाय पीछे देखने में ज्यादा सुख मिलता। ऐसा करते हुए कई बार हमें एक भयानक उदासी घेर लेती पर यह उदासी भी हमें भली लगती। 
      यह हमें अतीत के उन चमकदार दिनों की तरफ ले जाती जहाँ सब कुछ सुनहरा था। हम बार बार उन्हीं दिनों की तरफ लौटना चाहते। हम फिर से रामअभिलाष या रामइकबाल के समय में लौट जाना चाहते। यह सब करते हुए हम एक आभासी दुनिया में पहुँच जाते जहाँ रामअभिलाष या रामइकबाल साक्षात हमारी आँखों के सामने खड़े हो जाते जबकि हममें से किसी ने भी उन्हें नहीं देखा था। और उनकी कोई तस्वीर भी हमारे पास उपलब्ध नहीं थी।
यह उन्हीं दिनों की बात रही होगी जब हममें से बहुतों ने यथार्थ की बजाय किस्सों में रहना शुरू किया होगा। रूखे वर्तमान की तुलना में किस्सों की दुनिया उन्हें ज्यादा हरी-भरी और रंगीन लगी होगी। और वे धीरे धीरे करके एक दिन वहीं पर बस गए होंगे। उन्हें अचंभा हुआ होगा जब उन्होंने वहाँ अपने अनेक पुरखों-पट्टीदारों को पाया होगा। और खुश हुए होंगे कि यहाँ वे अकेले नहीं पड़ेंगे।
हाशिए के किस्से और उनका यथार्थ में बदल जाना
हम बचपन से ही सुनते आए थे कि हमारे चारों ओर खजाने फैले हुए हैं। हमारे नीचे जमीन में जगह जगह पर अथाह धन गड़ा हुआ है। इस बात में सचाई थी पर आंशिक ही। हर घर में कुछ न कुछ मुश्किल वक्तों के लिए गाड़ कर रखा जाता था। सिक्के, मुहरें और जेवर ही नहीं बर्तन तक जमीन में गाड़ कर रखे जाते थे। गोपनीयता और सुरक्षा के लिहाज से घर का मालिक घर के सदस्यों को भी नहीं बताता था कि उसने धन कहाँ गाड़ रखा है। कई बार वह यह जानकारी किसी को दिए बिना ही मर जाता था। ऐसे में वह गड़ा हुआ धन जहाँ का तहाँ गड़ा ही रह जाता था। और उसका मिल पाना पूरी तरह से संयोगों पर निर्भर करता था जो कि कभी कभार ही घटित होते थे। 
      मैं जब छोटा था तो ऐसे किस्से मुझे बहुत अपने से लगते थे जिनमें खजानों का जिक्र होता था। और हमारे इलाके में ऐसे किस्सों की कोई कमी नहीं थी। यह सभी किस्से हमारे सामने यथार्थ के शिल्प में आते थे। हमारे नजदीकी पुरखे या सचमुच के लोग उसमें हमेशा चरित्रों के रूप में मौजूद रहते थे। हम अपने पुरखों से कुछ इसी तरह से परिचित हुए।
      बहुतेरे पुरखे भूतों के रूप में भी सामने आते थे। कुछ खजानों की रक्षा के लिए साँप बन गए थे। इसीलिए बचपन से ही साँप और भूत मेरे लिए दोहरे सम्मोहन की चीज रहे। एक तो डर, अनदेखे रहस्यों का सम्मोहन और दूसरे इस बात का कि मैं अपने न जाने किस पुरखे से अभी मिल रहा हूँ।
साँपों को मैं खोजता, उनका दूर तक पीछा करता। उनकी बिलों तक, पेड़ों की खोखलों तक जहाँ कि वे रहते थे, और उनके दुश्मन नेवले। साँप नेवले की लड़ाइयाँ, साँप के जहर से बचने की बूटियों के किस्से, नागमणि और उसके चमत्कारी असर के किस्से सबके सब एकदम यथार्थ की शक्ल में हमारे सामने आते। एक दूसरे से जुड़ते हुए, और खजानों का एक महावृत्तांत तैयार करते हुए।
      जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया और अगले तीन चार साल बाद जब मैंने तरह तरह के आक्रमणकारियों के बारे में जाना तो मैं हमेशा सोचता था कि वे पूरब दिशा से आए होंगे। मुझे ऐसे सपने आते जिनमें कभी अंग्रेज आक्रमण कर रहे होते तो कभी तुर्क। यह सब के सब पूरब से ही आते दिखाई पड़ते और खजानों को लूटने के बाद उसी दिशा में वापस लौट जाते।
      इसके पीछे एकदम निजी वजहें थीं। पूरब की तरफ ही हमारा सबसे नजदीकी बाजार था। लोगों का ज्यादातर आना जाना पूरब की तरफ से ही था। बेड़िया-बनजारे भी पूरब की दिशा से ही आते और इसी तालाब के किनारे डेरा डालते। यह बनजारों के बारे में कायदे से कुछ भी न जानने या उनके बारे में हमारे घरों में फैले तरह तरह के किस्सों का ही असर रहा होगा कि मेरे सपने में जब अंग्रेज या मुगल आक्रमण करने के लिए आते तो वह बनजारों के ही भेस में होते। वे घोड़ों की बजाय भैंसों पर बैठकर आते। और हमारी बस्तियाँ वीरान हो जातीं। लोग पेड़ों पर टँगे नजर आते। सपना खत्म होने के बाद सभी लोग पेड़ों पर से उतर आते और अपने अपने काम में लग जाते। और बनजारे वहीं तालाब के किनारे पहुँच जाते। 
      तालाब का नाम था सुखवा का ताल। यह एक बेहद छिछला ताल था। यह विस्तार में काफी बड़ा था पर इसे बरसात में भी खड़े खड़े पार किया जा सकता था। संभवत टीला यहीं की मिट्टी से बना था। हो सकता है कि कभी यह गहरा रहा हो पर अब यह एक छिछले ताल में बदल गया था। लगभग पूरे ही ताल में करेमुआ फैला हुआ था जिसका साग अक्सर हमारे घरों में बनता। 
      तालाब का नाम सुखवा क्यों है, एक बार मैंने हनुमान मिसिर से पूछा था। उन्होंने बताया कि पहले इस तरह से दुकानें नहीं होती थी जहाँ सब कुछ मिल जाए। तो बनजारे आते थे कुछ सामान बेचते कुछ खरीदते और आगे बढ़ जाते। सुखवा ऐसे ही एक बनजारों के सरदार का नाम था जो अक्सर इस ताल के किनारे डेरा डालता था। उसी के नाम पर इस ताल का नाम सुखवा का ताल पड़ गया धीरे धीरे।
        यह गर्मियों में इस कदर सूख जाता कि सूखकर इसकी मिट्टी चटक जाती। उनमें गहरी दरारें पड़ जातीं। इसी ताल के साथ एक बीजक जुड़ा था जिससे हमारे इलाके का बच्चा-बच्चा परिचित था। बीजक था, एक लाख लगाओ तो नौ लाख पाओ पता नहीं सुखवा इस पार या उस पार। इस बीजक में एक लाख खर्च करने पर नौ लाख मिलने का आश्वासन था पर पैसा खर्च करने की विधि और उसकी जगह नहीं निश्चित थी। हम सब इसमें पूरा विश्वास रखते और नौ लाख पाने के सपने देखते।
       इस तरह के बीजकों की एक लंबी व्याप्ति थी। हर दो चार गाँव के बाद कोई न कोई ऐसी जगह मिलती थी जहाँ इस तरह का कोई अमूर्त-अनिश्चित बीजक प्रचलित होता। कहते हैं कि इस तरह के धन अमूमन बनजारों के होते थे जो चोर-डाकुओं के डर के मारे वह जगह-जगह छुपा देते थे। लोग इनके बारे में सोचने से भी डरते थे। लोगों का मानना था कि बनजारे अपनी धन-दौलत को जीवधारी बना देते थे। जो उस धन की अनंत काल तक रखवाली किया करता था।
      खजाने को जीवधारी बनाने के भी अनेक किस्से थे। सबसे ज्यादा प्रचलित किस्सा यह था कि जमीन में जहाँ धन गाड़ा जाता वहीं भीतर एक बच्चे भर के बैठने की जगह बनाई जाती। कुछ इस तरह से कि जब वह जगह ऊपर से पाट दी जाय तब भी बच्चे के बैठने की जगह बची रहे। वहाँ खजाने को छुपाने से पहले आखिरी पूजा की जाती। पूजा में किसी बच्चे को भी शामिल किया जाता जिसे अफीम या कोई और नशीली चीज पहले ही खिला दी गई होती। बच्चा नशे की घातक मायावी दुनिया में खोया रहता। उसे खेलने के लिए खिलौने और खाने के लिए मिठाइयाँ दी जातीं। पूजा के बाद पूजा का दीप जलता छोड़ दिया जाता और गड्ढे को करीने से ऊपर से ढक दिया जाता। गड्ढे को ढकने के बाद भीतर दो घटनाएँ एक साथ घटतीं। इधर दिया बुझता उधर बच्चे की साँस रुकती। इसी बच्चे की आत्मा अनंतकाल तक उस गड़े हुए खजाने की रखवाली करती।
      कई बार खजाने के मालिक बिना रखवाला नियुक्त किए ही मर जाते। तब उनकी आत्मा ही खजाने के आसपास मँडराने लगती और उसकी रखवाली करती। कई बार खजाने की रखवाली कर रही आत्मा का उससे कोई सीधा रिश्ता नहीं होता पर वह खजाना देखते ही उस पर कुंडली मार कर बैठ जाती।
      कई बार बनजारे अपने धन को जहाँ छुपाते उसके आसपास कहीं कोई पत्थर वगैरह लगा देते। और उसके साथ कोई पहेलीनुमा चीज प्रचलित कर देते। जिसके अर्थ में उस धन का राज छुपा होता। इन पहेलियों को बीजक कहा जाता। ये बीजक हम जैसे हजारों की लालसाओं के साथ जनम-जनम तक खेलते पर उनका अर्थ न खुलता। लाखों में कोई बिरला ही होता जिसे उन खजानों के करीब जाने का मौका मिलता। याकि उसमें से कुछ हासिल हो पाता। 
      
      इस तरह के किस्सों में बहुत सारे साँप भी थे। साँपों को धन-दौलत से बहुत प्यार था। वे अक्सर खजाने में ही रहते। ये साँप बड़े मायावी होते थे। सोना चाँदी हीरा मोती के बीच रहते रहते खुद उनका शरीर भी वैसा ही हो जाता। उनके बदन पर हीरे मोती जड़े होते। आँखें ऐसा चमकदार हीरा होतीं कि जो उनमें एक बार देख लेता वह कुछ और देखने के काबिल ही नहीं बचता। वह हमेशा के लिए अंधा हो जाता। उसे बस वही वही चमकदार आँखें ही अपने चारों तरफ दिखाई देतीं।
      हमारे आसपास ऐसे हजारों किस्से तैर रहे थे। कई बार लोग ऐसे ही किसी किस्से से टकरा जाते। किस्सों से टकराने की इस घटना के बाद कई बार वे हमेशा के लिए बदल जाते। कई बार वे खुद भी किस्सों में ही समा जाते और वहाँ से उनकी वापसी कभी भी मुमकिन न हो पाती।
      तो दूसरी तरफ ऐसे भी अनेक किस्से थे जहाँ किसी की समृद्धि या आगे बढ़ने को किसी न किसी किस्से से जोड़कर देखा जाता। खुद हम भी अपने पुरखे रामअभिलाष की समृद्धि को ऐसे ही किस्सों से जोड़कर देखते थे।
      मैं खुद भी ऐसे किस्सों का हिस्सा बनना चाहता था और इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार था। मैं खजानों का कोलंबस बनना चाहता था। इसके लिए मैंने बहुत सारे किस्सों में अपनी आवाजाही बना रखी थी। इस मामले में मैं काफी सामाजिक व्यक्ति था। मैं अकेला नहीं था मेरे जैसे दूसरे भी अनेक थे। 
      खजाना पारस पत्थर था। जो कहीं भी हो सकता था। एक पल की लापरवाही भी हमें उस खजाने से इतनी दूर फेंक सकती थी जहाँ से दुबारा कई जन्मों तक शायद ही हम लौट पाते। किसी को भी दुबारा मौका नहीं मिलना था। इसलिए मौकों को पहचानना बेहद जरूरी था।
      एक बार जब घर के लोग कहीं बाहर गए हुए थे और मैं घर में अकेला था मैंने घर के पश्चिम की ऊँची नीची जमीन की अकेले ही खुदाई की थी। मेरा पक्का अंदाजा था कि वहाँ कुछ न कुछ जरूर निकलना चाहिए।
      मैं बिना रुके लगभग दोपहर तक खोदता रहा। मेरे पास समय बहुत कम था। शाम तक घर के लोग वापस आ जाने वाले थे। मेरी पिटाई भी लगभग तय थी पर मैं किसी भी कीमत पर अपने अनुमान की जाँच करना चाहता था।
      तो मैं जब लगभग निराश ही हो जाने वाला था कि मेरा फावड़ा किसी पत्थर से टकराया। मैं आहिस्ता आहिस्ता मिट्टी हटाने लगा। सारी मिट्टी हटाने के बाद मैंने देखा कि वहाँ जाँत के दो बराबर बराबर टुकड़े मौजूद थे। उनको मैंने बाहर निकाल लिया। और खोदा तो मिट्टी की एक समूची मटकी मिली जो उल्टी पड़ी थी। उसे उठाया तो उसके नीचे एक हरे रंग का गोजर था। मैंने मटकी को जस का तस रख दिया और मिट्टी पाटने लगा। अब यहाँ कुछ और मिलना मुश्किल था। हरे गोजर ने मेरी उम्मीद खत्म कर दी थी।
      शाम को घर पर मेरी खासी खबर ली गई। पर जाँत का वह आधा हिस्सा सिल के रूप में बहुत दिनों तक प्रयोग किया जाता रहा। जाँत का दूसरा हिस्सा बगल के ही बालगोविंद मिसिर उठा ले गए। पर इस घटना ने मुझे इस बात का भरोसा दिला दिया कि धरती के भीतर बहुत कुछ छुपा हुआ है। मैं अगर उसका थोड़ा-सा भी हिस्सा खोज निकालूँ तो मुझे जीवन भर कुछ और करने की जरूरत ही न पड़े।
      मैं अकेला नहीं था। बहुत सारे मैं थे जो जीवन भर कुछ भी नहीं करना चाहते थे।

खजाने की खोज उर्फ अभिलाषपुर की अभिलाषाएँ
हमारी चमड़ी के सबसे भीतरी तहखानों में छुपी हुई कंगाली ही वह निर्णायक चीज रही होगी जिसने हमारी आँखों में इस कदर खजाने की चमक भर दी होगी। हमारे घरों के सबसे भीतरी तहखानों में छुपी कंगाली ने ही हमसे एक दूसरे के घर खुदवाए होंगे। जो जितना ही ज्यादा कंगाल उसकी आँखों में अमीरी के उतने ही बड़े सपने। उसके सपनों की उतनी ही लंबी उड़ान। और इस उड़ान का मेहनत या श्रम से कोई दूर का भी नाता नहीं।
      श्रम को लेकर हमारे भीतर दोहरी बातें थीं। एक तो यह कि श्रम करने की हमारी कोई आदत ही नहीं रही थी। रामअभिलाष और रामइकबाल के शुरुआती दिनों को छोड़ दें तो हम श्रम करना कब का भूल चुके थे। इन दोनों की समृद्धि में भी उनके श्रम से बड़ा योगदान दान की जमीन और बाद में बेगार के श्रम का था। हमने अपने ऐसे किसी भी पुरखे के बारे में नहीं सुना था जो श्रम करके अमीर बन गया हो। हमने अपने आसपास ऐसे किसी को देखा भी नहीं था।
      हमारे आसपास जो तमाम खेतिहर या श्रमिक जातियाँ थीं, वे सुबह से शाम तक पसीने में डूबी रहती थीं। फिर भी अक्सर वे नंगे बदन ही दिखाई देतीं। कपड़े उनके शरीर पर कभी कभार ही दिखते। इसके बावजूद वे अक्सर हमारे बाप दादाओं के पास आते। अनाज के लिए, रुपयों के लिए, कर्ज माँगते, गिड़गिड़ाते। अक्सर उन्हें यह कर्ज मिल भी जाता। जिसे वे एकमुश्त शायद ही कभी वापस कर पाते। हम चाहते भी नहीं कि वे हमसे पूरी तरह मुक्त हों कभी। उन्हें उनकी इस स्थिति की कीमत चुकानी पड़ती। यह समझने लायक हम जरा बाद में ही हो पाए। तब हमने भी कीमत वसूलना सीखा।
पर कीमत वसूलने के दिन बीत चुके थे। अब कीमत चुकाने के दिन थे और हम भरपूर कीमत चुका रहे थे। हम शायद किसी तरफ भाग निकलते। यहाँ पर फिलहाल ऐसा कुछ भी नहीं था जिसका लालच हमें रोके रखता। स्थितियाँ दिन पर दिन और भयावह होने की तरफ बढ़ रही थीं। ऐसे में हमारी काहिली के अलावा यह खजाना ही था जिसकी चमक ने हमें रोके रखा। हममें से हर एक को लग रहा था कि खजाना मिलते ही हमारी सारी समस्याएँ सदा सदा के लिए खत्म हो जाएँगी।
      खजाना हमारी मरी आँखों का सपना था। जो अपने छोटे से छोटे रूप में मिल जाता तो भी शायद हम बच जाते। क्या सचमुच?
      खजाने के लिए हमने बहुतेरी कोशिशें कीं। इन कोशिशों में आत्माओं से टकराना था। इसलिए उनको खुश करना बहुत जरूरी था। वह खजाने की खोज में हमारी मदद तो कर ही सकती थीं। दूसरी आत्माओं के खिलाफ सुरागरशी भी कर सकती थीं। इस रास्ते पर तमाम दुष्ट आत्माएँ भी मिल सकती थीं इसलिए बजरंगबली की सिद्धि भी जरूरी थी। और तो और इस सिद्धि को छुपा के भी रखना जरूरी था नहीं तो आत्माएँ निकट ही न आतीं।
      इस तरह की बहुतेरी कोशिशें साथ साथ चल रही थीं। जैसे एक कोशिश के रूप में मैं पैरों को धमकाता हुआ चलता था। लगातार कूदते हुए चलने जैसा। इससे जमीन के ठोस, कम ठोस या पोपली होने का पता चलना था। जहाँ भीतर कुछ होता वहाँ से धातुओं जैसी खनकन की उम्मीद थी। जहाँ भीतर जमीन खोखली होती वहाँ दूसरी तरह की गूँज सुनाई देती। कम से कम इतना तो पता चल ही जाता कि यहाँ कुछ हो या न हो पर जमीन कभी न कभी खोदी जरूर गई है।
      हर आदमी अपने तई कोशिश कर रहा था। और हम एक दूसरे की नकल भी कर रहे थे। कूदते हुए, जमीन की टोह लेते हुए चलने की नकल भी बहुतेरे लोगों ने की। हमारी चालें कुछ इस कदर बदल रही थीं कि किसी पड़ोसी गाँव का कोई आदमी हमें देखता तो हमें इनसानों से भिन्न किसी और प्रजाति का समझ सकता था। हमारी आँखें अमूमन नीचे की तरफ होतीं। सर और हाथ नीचे झुके होते। हम एक दूसरे की बगल से निकल जाते और हमें पता भी न चलता क्योंकि दोनों ही पैर धमकाते हुए नीचे देखते, जमीन में कुछ खोजते हुए आगे बढ़ रहे होते।
      मुश्किल यह थी कि जिस टीले पर अभिलाषपुर बसा हुआ था उसी टीले में धन-दौलत छिपे होने की सबसे ज्यादा संभावनाएँ थीं। हमारी मुश्किल यह थी कि हम ऐसा नहीं कर सकते थे कि एक तरफ से खुदाई शुरू कर दें और दूसरी तरफ तक खोदते चले जाएँ। यह असंभव था।
      हमें दूसरी हिकमतों से काम लेना था। और दूसरों से छुप कर काम लेना था। यह तभी संभव था जब वे आत्माएँ हमारा साथ दें जो न जाने कब से खजानों की रखवाली में लगी हुई थीं। उन्हें वैसे भी सिद्ध करना था हमें। 
      हमने तमाम टोने-टोटकों का सहारा लिया। तमाम काली और लाल किताबें खरीदीं। वृहद इंद्रजाल के पन्ने पलटे। पाखाने से लौटते हुए बचा हुआ पानी बेर और बबूल के पेड़ों पर इक्कीस दिन तक चढ़ाया और भूतों-प्रेतों के प्रकट होने की कामना की। इस तरह से काम सिद्ध न होते देखकर अनेक तांत्रिकों और ओझाओं की शरण में गए। अनेक घरों में रिश्तेदार के रूप में ओझा-तांत्रिक आ बिराजे।
      हम किनसे झूठ बोल रहे थे आखिर! छोटा सा तो था अभिलाषपुर। हम एक दूसरे के सारे रिश्ते-नाते जानते थे। उन सब के साथ उठना बैठना था हमारा। फिर अचानक इतनी बड़ी संख्या में इतने सारे रिश्तेदार कहाँ से प्रकट हो गए थे। कौन थे वे हमारे जो हमने उन्हें अपने घरों के भीतर पनाह दी थी? वे क्या करने वाले थे आखिर?
घर घर हवन हो रहे थे। अंडे कट रहे थे। बलियाँ दी जा रही थीं। और इस तरह वे उन जगहों को खोजने की कोशिश कर रहे थे जहाँ खजाना छुपा हो सकता था। उन सबने बताया कि अभिलाषपुर के नीचे इतनी धन-दौलत दबी हुई है कि उसके आगे सरकारी खजाने की दौलत भी पानी भरे। उसे निकालना ही होगा। खुद वह दौलत भी बाहर आने के लिए बेकरार है। उनके रखवाले अब अपने काम से मुक्ति चाहते हैं। वे चाहते हैं कि नए रखवाले उनकी जगह लें और उन्हें मुक्त करें।
      और हैरत की बात है कि हममें से ज्यादातर रखवाले बनने के लिए राजी थे। पूरे इलाके की हवा ही जैसे बदल गई थी। हम उस हवा में सिर से पैर तक डूबे हुए थे। कई बार उस हवा के असर से बचे हुए लोग हमें बाहर निकालना चाहते। वे हमारा मजाक बनाते। हम पर लानत भेजते। हमें गालियाँ बकते पर हम उनकी भाषा भूल गए थे। कई बार हम ऐसा मुँह बनाते जैसे हमें उनकी बातें समझ में ही न आ रही हों। और यह पूरी तरह से झूठ भी नहीं था। हमको खजाने के अलावा कोई और बात नहीं समझ में आ रही थी इन दिनों। 
      हमने वैसे लोगों से बचने का सीधा रास्ता निकाला कि कटने लगे उनसे। पहचानना ही बंद कर दिया उन्हें। ऐसे रास्तों से चलना बंद कर दिया जहाँ कि वे मिल सकते थे। हम अपने किस्सों में खो गए। वे मिलते भी तो हम अपने अपने किस्सों से बतियाते हुए आगे बढ़ जाते।
      हममें से हर कोई अकेला था। हम अलग अलग काम कर रहे थे। इसके बावजूद हम सब के भीतर एक ही तरह के सपने घर कर रहे थे। हममें से हर किसी को भरोसा था कि उसके हाथ एक बड़ी दौलत लगने वाली है। हम लगातार इस बात की योजनाएँ बनाते कि हम अपने हिस्से की दौलत कैसे खर्च करेंगे और दौलत थी की इन सारी योजनाओं के बाद भी बची रह जा रही थी।
      सब कुछ बदल रहा था। आत्माएँ तक अपनी दौलत वापस माँगने लगी थीं। जैसे सास के मरने के बाद उसकी करधन, हँसुली या हार किसी बहू ने पहन रखा होता तो अक्सर सास की आत्मा उस पर सवार होकर चिल्लाती उतार मेरी करधन… उतार मेरी हँसुली और बहू बेबस करधन या हँसुली उतार फेंकती। थोड़े दिन ओझाई होती और उसके बाद बहू का भी उन जेवरों से लगाव इतना गहरा होता कि वह दुबारा उन्हें पहने नजर आती और वही घटना फिर फिर से दोहराई जाती। कोई भी पीछे हटने को न तैयार होता।
      कोई नींद में ही किसी से न जाने क्या बात करते हुए चलाता दिखाई देता तो कोई सोते सोते अचानक से कुछ चिल्लाते हुए जाग उठता। जैसे कोई आग सी धधकती रहती हमेशा। लोग व्याकुल बेचैन हमेशा कुछ खोजते तलाशते दिखते। आँखें हमेशा कटोरों में बिछलती रहतीं। लोगों की नींद गायब हो गई थी। लगातार जागते रहने से सबकी आँखें सूज रही थीं। और वहशत से भरी लाल-लाल आँखें कुछ इस तरह से लगती थीं जैसे उनमें से खून टपक रहा हो। उनमें एक भयानक रेगिस्तानी चमक थी।
ढाई सौ साल पुराने सपने का अंत
एक दिन अफवाह उड़ी कि सजीवन दुबे को एक गगरी भर सोने की मुहरें मिली हैं। अगले ही दिन सजीवन दुबे के यहाँ डकैती पड़ी। डकैतों ने सजीवन दुबे को बहुत तड़पाया पर चाँदी के दो-चार सिक्कों से ज्यादा कुछ नहीं पा सके। हवा में यह बात खुलेआम तैर रही थी कि सारे के सारे डकैत अभिलाषपुर के ही थे और तो और उनमें एक बाप-बेटे का जोड़ा भी शामिल था।
      अगले दिन राधेश्याम के घर के पीछे की दीवाल खुदी पाई गई। सुबह देखा तो वहाँ मिट्टी के पुराने बर्तनों के टुकड़े मिले और दो-चार चाँदी के सिक्के भी। अगले दिन रामजस का पिछवाड़ा खुदा हुआ था। वहाँ सुबह सोने का एक सिक्का गिरा हुआ मिला। हालत यह हुई कि रोज किसी न किसी तरफ से चिल्लाहट मचती कि कोई उसका घर खोद रहा है। और जब तक लोग वहाँ पहुँचते तब तक किसी दूसरे का अगवाड़ा-पिछवाड़ा खुद जाता। फावड़े और कुदालों को उपयोग बदल गया था। अब वे खेतों में नहीं घरों में चल रहे थे।
      उधर तांत्रिकों की अपनी दुनिया थी जो हमारे पीछे पीछे काम कर रही थी। बल्कि अब उसने हमारे आगे आगे चलना शुरू कर दिया था। कई तांत्रिकों ने बताया कि पूरे किले की ही खुदाई करनी पड़ेगी। पर अगर रखवालों को साध लिया जाय तो कम खुदाई से भी काम चल सकता है। पर यहाँ रखवाले बहुत ज्यादा हैं। सैकड़ों की संख्या में। उनमें से हर किसी की एक अलग माँग है जिसे पूरा करना ही पड़ेगा।
      ये शर्तें बेहद अजीबोगरीब थीं। कहीं बेटे की कुर्बानी माँगी जा रही थी कहीं बेटी की। कहीं बेटी के पहले मासिक का खून माँगा जा रहा था तो कहीं पहले संभोग का। उसे हिंदुओं से गाय की कुर्बानी चाहिए थी, मुसलमानों से सूअर की। कहीं वह पड़ोसी के बच्चे की बलि माँग रहा था तो कहीं कोई अपने ही किसी विकलांग बच्चे की बलि देकर संपन्न होने का ख्वाब देख रहा था जिनकी कि अभिलाषपुर में कोई कमी नहीं थी। 
बहुत धन था पर बिना कुछ अवांछित किए, बिना किसी गर्हित कर्म में लिप्त हुए उसका एक छोटा सा हिस्सा भी मिल पाना चमत्कार था। और हम किसी भी कीमत पर यह सब कुछ करने के लिए तैयार थे। हमें वह सारी दौलत चाहिए थी भले ही वह किसी भी कीमत पर क्यों न मिले।
      रखवालों की आत्माएँ ढाई सौ साल से सो रही थीं। ढाई सौ साल पुरानी नींद ने उनके भीतर अतृप्ति का सागर भर दिया था। उनकी वासनाएँ विकृति के चरम पर थीं। वह आत्माएँ अपनी उन सारी वासनाओं की तृप्ति चाहती थीं। पर उनके पास शरीर नहीं था। उन्हें हमारा शरीर चाहिए था। उसके बाद उनकी सारी शर्तें माफ थीं क्योंकि शरीर मिलते ही वह खुद इतनी सक्षम हो जाने वाली थीं कि वह अपना मनचाहा कुछ भी हासिल कर लेतीं।
      हमने अपनी चेतना पहले से ही उनके नाम कर रखी थी। शरीर देने में हमें भला क्या एतराज होता। इसके बाद चारों तरफ वह हाहाकार मचा कि आसपास के गाँवों के लोग भी अपना घरबार छोड़ कर भागने लगे। कुछ भी अप्रत्याशित कभी भी घट जाता। एक दिन रात में नारा लगा ‘आज रात जो सोएगा पत्थर का हो जाएगा’। नींद वैसे भी आजकल किसे आ रही थी! हम एक बौखलाई हुई उत्सुकता के साथ बाहर आ गए। चारों तरफ बेहद धीमे स्वर में अजीबोगरीब ध्वनियाँ तैर रही थीं। जैसे कराह, चीख, सिसकारी और प्रलाप मिला दिए गए हों आपस में।
      जब यह आवाजें थोड़ी मद्धिम पड़ीं तो हम अपने घरों में लौटे। हमारे घर बदल चुके थे हमेशा के लिए। घरों में सुरंगें खुदी हुई थीं। उन रास्तों से आया बहुत सारा धन हमारे घरों में था। उसकी चमक हमें अंधा कर रही थी। इसी चमक पर हमनें अपना जीवन वार दिया था।  पूरी रात हम उस दौलत का हिसाब लगाने की कोशिश करते रहे। पर यह हमारी क्षमता के बाहर की बात थी। 
      सुबह हुई। कई सुबहें हुईं। कई रातें बीतीं। हम रात और दिन से निरपेक्ष हो गए थे। हमें यह भी नहीं पता था कि हमारे पड़ोसियों के घरों में क्या चल रहा है। हमें तो यह भी नहीं पता था कि खुद हमारे ही घरों में हमारे साथ क्या हुआ है। हमें नहीं पता चल पाया कि उन सुरंगों में हमारे ही घरों से कोई कराह रहा है।
      कई दिनों बाद हमें यह सूझी कि हम उन सुरंगों में भी झाँकें जिनके रास्ते यह ऐश्वर्य हमारे घरों में आया है। उन सुरंगों में किसी की बेटी तड़प रही थी तो किसी की बहन। अनेक सिर और धड़ कटे हुए पड़े थे। वे अभी भी जिंदा थे। ऐसे भी थे जो जल्दी ही पैदा होने वाले थे, पर उसके पहले ही उन्हें खींच बाहर किया गया था। उनकी कराह से पूरी सुरंग भरी हुई थी। अभी थोड़े समय पहले तक वे सशरीर हमारे साथ थे। पर हम उन्हें पहचान ही नहीं पाए। उनकी कराहें हमें एक मदहोश करने वाले संगीत की तरह सुनाई पड़ीं। हम सुरंग में आगे बढ़ गए। भीतर एक गजब की रोशनी दिखाई दे रही थी।
      खजाने के नए रखवालों की नियुक्ति हो चुकी थी।
सुरंग के भीतर और बाहर
खजाने के साथ बहुत सारे किस्से भी बाहर निकल आए थे। और वे हमारे जीवन में इस तरह से घुलमिल गए थे कि किस्से और हकीकत के बीच का अंतर हमेशा के लिए खत्म हो गया था। वह दीवार जो दोनों के बीच एक संतुलित दूरी बनाकर चलती थी वह हमने कब की ढहा दी थी। हमारा खुद पर कोई जोर नहीं बचा था। अब यह हमारे हाथ से निकल गया था कि कब हम किस्सों की दुनिया में रहेंगे और कब हकीकत की दुनिया में। किस्से भी अनेक थे। हर आदमी एक अलग किस्से की गिरफ्त में था। 
      यह गिरफ्त बहुत भयानक थी। हम इस गिरफ्त के अलावा बाकी सब कुछ भूल गए थे। हम बगल से गुजर रहे अपने पड़ोसी तक को नहीं पहचान पा रहे थे। हम अपने दोस्तों को भूल गए थे। हम अपने माँ-बाप-भाई-बहन-बेटा-बेटी सब को भूल जा रहे थे। कभी कभार भूले-भटके हम उन्हें पहचानते भी तो तुरंत ही कुछ इस तरह से फिर भूल जाते जैसे आधी रात को देखा गया कोई धुँधला सपना।
      लोग हवा में ही किसी किस्से से बात करते दिखाई देते। शून्य में ताकते और ठहाका लगाते। हवा में न जाने किससे हाथापाई करते। कई बार दुखी और उदास होते, रोते। तब भी उन्हें सचमुच के किसी दोस्त की जरूरत न महसूस होती।
      मेरे पिता खुद को ही अपना पिता मान बैठे थे। उनका मेरे प्रति व्यवहार बदल गया था। वह मुझसे इस तरह से बात करते थे कि मैं उनका बेटा न होकर पोता होऊँ। मेरे पिता बीच से न जाने कहाँ गायब हो गए थे। वह कौन सा किस्सा था जो उनको लील गया था। कि उनके शरीर में पिता के पिता आ बैठे थे। ऐसा करके शायद वह अपने पिता और दादा से संवाद कर रहे थे, इस उम्मीद में कि वह वहाँ से कुछ सुराग लेकर लौटें खजानों के बारे में! या फिर क्या पता। उन्हें कुछ पता चल भी जाता तो क्या पता वह खुदाई कहाँ पर करते, वर्तमान में या फिर उन्हीं किस्सों की दुनिया में। 
बलदेव मिसिर ने खजाने से मिले हुए धन से एक चमचमाती कार खरीदी। जब वह कार लेकर सुरंग से बाहर निकले तो अपने घर का रास्ता ही भूल गए। पूरे अभिलाषपुर का हार्न बजाते हुए उन्होंने बीसों चक्कर लगाया। कई जगहों पर उतरकर हवा में न जाने किन लोगों से रास्ता पूछा पर उन्हें अपने घर का रास्ता नहीं मिला तो नहीं मिला। वह अभी भी हार्न बजाते हुए चक्कर पर चक्कर काट रहे हैं और न जाने किससे किससे अपने घर का रास्ता पूछ रहे हैं। 
उनका घर उनके इंतजार में कई सालों से बंद है। दुआर और आँगन में झाड़-झंकाड़ उग आए हैं। आँगन में एक न जाने कौन सा पेड़ उग आया है जिसकी डालियों पर फलों की तरह चमगादड़ लटकते रहते हैं। उस घर की तरफ कोई नहीं जाता। लोगों ने उसे अभिशप्त घर मान लिया हैं।
      वही क्या पूरा का पूरा टीला ही अभिशप्त मान लिया गया है। अब टीले पर सिर्फ वही लोग आते-जाते दिखाई देते हैं जिन्होंने खजानों वाले किस्सों की दुनिया में अभी भी जबर्दस्त आवाजाही बना रखी है। वे किसी को भी नहीं पहचानते। हमारे बगल से न जाने क्या बुदबुदाते हुए निकल जाते हैं और हमारी तरफ देखते भी नहीं। हमारे राम राम और सलाम का जवाब नहीं देते। उनके लिए हम और हमारी दुनिया अदृश्य हो चुके हैं। शायद हमेशा के लिए।
      मेरे जैसे जो लोग किस्सों की दुनिया से निकलने में कामयाब रहे या किसी दूसरे किस्से के द्वारा ही बाहर खींच लिए गए, उन सबने टीला हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया। कुछ ने अपने घरों को गिरा दिया। कुछ ने उन्हें जस का तस रहने दिया। ज्यादातर तो पहले ही खोदे-पाटे जा चुके थे।
टीला उस समय की तुलना में बहुत ज्यादा वीरान दिखाई देता है जबकि रामअभिलाष ने उस पर अपना घर बनाया था। टीले पर नए नए पैदा खंडहरों के बीच तमाम झाड़-झंखाड़ उग आए हैं। उस तरफ देखना ही एक भुतहा एहसास से भर देता है। रातों में अभी भी वहाँ से अजीब अजीब आवाजें आती हैं जो हमें अपनी तरफ खींचती हैं। उन आवाजों में एक पागल सम्मोहन है।
सुरंग में जाने से बचे हुए लोग आसपास के गाँवों और शहरों में फैल गए हैं। कई नए अभिलाषपुर बसने की राह पर हैं। आसपास के तमाम लोग जिन्होंने अपने को खजानों के प्राणघातक सम्मोहन से बचा रखा था हम पर हँसते हैं। थोड़ी देर की एक शरमीली चुप्पी के बाद हम भी उनके साथ हँसने लगते हैं।
     
सम्पर्क-

फोन : 08275409685
ई-मेल : chanduksaath@gmail.com

(कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)