पंखुरी सिन्हा

जन्म —18 जून 1975
शिक्षा —एम ए, इतिहास, सनी बफैलो, 2008,

पी जी डिप्लोमा, पत्रकारिता, S.I.J.C. पुणे, 1998,  बी ए, आनर्स, इतिहास, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1996

अध्यवसाय—-BITV, और ‘The Pioneer’ में इंटर्नशिप, 1997-98,
        —- FTII में समाचार वाचन की ट्रेनिंग, 1997-98,
        —– राष्ट्रीय सहारा टीवी में पत्रकारिता, 1998—2000

प्रकाशन———हंस, वागर्थ, पहल, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कथाक्रम, वसुधा, साक्षात्कार, अभिव्यक्ति, जनज्वार, अक्षरौटी, युग ज़माना, बेला, समयमान, आदि पत्र पत्रिकाओं में रचनायें  प्रकाशित,
किताबें —– ‘कोई भी दिन’ , कहानी संग्रह, ज्ञानपीठ, 2006
                  ‘क़िस्सा-ए-कोहिनूर’, कहानी संग्रह, ज्ञानपीठ, 2008
                   कविता संग्रह ‘ककहरा’, शीघ्र प्रकाश्य,

पुरस्कार—पहले कहानी संग्रह, ‘कोई भी दिन’ , को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान,
             —–‘कोबरा: गॉड ऐट मर्सी’, डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू जी सी, फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला

————-‘एक नया मौन, एक नया उद्घोष’, कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार,

जीवन सदैव चलायमान रहने का ही दूसरा नाम है। पंखुरी सिन्हा जिंदगी की इस ट्रेन की कैफियत को पहचानती हैं और उसे सलीके से अपनी कविताओं  में ढालतीं हैं। अगर हम अपनी भाषा में कहें तो पंखुरी सात समुन्दर टप्पू पार रहती हैं। वह देश जहां पर उत्तर आधुनिकतावाद और बाजारवाद ही सब कुछ है। ऐसे में पंखुरी वहाँ की स्थानीयता और परिवेश को ही अपना विषय बनाते हुए उसे एक भारतीय और मूलतः कवि नजरिये से भी देखतीं हैं। फलतः उनकी कविता संस्कृतियों के उस संगम को सृजित करती हैं जो सामान्यतया दुर्लभ है। तो आईये रू-ब-रू होते हैं पंखुरी की तरोताजी कविताओं से।  

ज़िन्दगी की ट्रेन

छूट गयी हो ज़िन्दगी की ट्रेन जैसे,
गुज़र गए हों वो तमाम स्टेशन,
जिन पर होने की सम्भावना हो उसके,
जिन पर अब भी मुलाक़ात हो सकती हो,
जहाँ से रास्ते मुड़ सकते हों,
अब पटरियां हो सिर्फ आगे भागती हुई,
और रेल भाड़े की सूची,
बल्कि वह ट्रेन ही छूट गयी हो,
जिस पर सवार हों सब,
टूट गया हो जैसे जिंदगी की लय से नाता,
गति से उसकी, ताल से,
जिसमे बच्चे हर रोज़ बड़े होते हैं,
स्कूल जाते हैं,
लिखावट की उनकी एक कॉपी होती है,
और उनकी अपनी एक लिखावट भी,
जो हर रोज़ बदलती है……………………….

शहर के हाईवे
शहर जैसे पीछे छोड़ गया हो उसे,
इतने हाईवे बन गए हों,
लोकल ट्रेनें
तेज़ दौड़ती हुई,
जगमग दुकानें,
और वह बस घडी के पाट पुर्जे बनाता,
छूट गया हो,
अपनी घडी की दुकान में,
एक पुरानी देशी घडी की कम्पनी की दुकान में,
और रास्ता न पार किया जा रहा हो उससे,
उस विदेशी कम्पनी तक का
जबकि कहीं वफादारी का कोई सवाल नहीं हो,
और हाजमे की गोली बेचने वाली,
परचून की दुकान भी बंद हो गयी हो,
नुक्कड़ पर की।

पानी उलीचना

अगर तुम नाँव से उतरना चाहो,
आवाज़ देना,
डाकना, पुकारना,
जोर से,
विभोर से, देर तक,
हाथ माँगना,
बढ़ाना,
पकड़ मत छोड़ना,
जदी नाँव डोलती है।
रस्सी फेंकना,
पानी रेतना,
धार काटना,
पास ही ज़मीन है।
जदी पानी बढ़ता है,
चढ़ता है,
लहर बनती है,
उलीचना,
उलीचना पानी,
क्योंकि नाँव डूबती है,
झील में भी।
समुद्र लीलता है,
मछली लीलती है,
निगलती है झील,
नाँव डूबती है,
झील में भी।

संपर्क—
पंखुरी सिन्हा
 510, 9100, बोनावेंचर ड्राइव, 

कैलगरी, SE, कैनाडा, T2J6S6सेल फ़ोन – 403-921-3438

ई-मेल—-sinhapankhuri412@yahoo.ca, 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं।)