मृदुला शुक्ला प्रेम की नयी परिभाषा गढ़ने वाली कवियित्री हैं. इनका मानना है कि प्रेम तो बस प्रेम ही है. सबसे अलहदा. सबसे निश्चिंत लेकिन दुश्वारियों से भरा हुआ. इसलिए बदलते समय को धता बताते हुए वे एक कवि मूल्य स्थापित करते हुए कहती हैं ” ‘प्रेम में भी’ पात्रता से ज्यादा/ न लिया जाता है /’और न ही’/ दिया जाता है. दरअसल कवि तो वही होता है जो कल्पना आकाश में पूरी उड़ान भरे लेकिन अपने यथार्थ के धरातल को कत्तई न छोड़े. तो आईए आज पढ़ते हैं कुछ इसी तरह के आस्वाद वाली मृदुला की कविताएँ जहाँ आपको शोर नहीं मिलेगा बल्कि आहिस्तगी के साथ मिलेंगी गहरे तक घर करने वाली संवेदनाएं.
मृदुला शुक्ला
पतंग
पतंगों ने जब उड़ने की सोची
बिना पंखों के,
गले में बंधी डोर भी साथ
लिए उड़ने लगी,
तमाम पतंगे निकल आई
अपने घरों से
भर गया आसमान
हवा में कलाबाजियां खाती
रंग बिरंगी पतंगों से
ये ऊँचाइयों का भरम था, या सुख
भूल बैठी वो, अब भी उनकी
डोर थाम रखी है लटाइयों ने
ये जो उनकी उड़ान है
महज ढील भर है लटाइयों की
लहराती बलखाती,
गर्वोन्मत्त,
काटने लगी एक दूसरे को ही
लटाइयों ने ढील देनी जारी रखी है
अगले दिन वो मिल जायेंगी
इसकी उसकी छतों पर
एक दूसरे की डोर में उलझी
गीली पनीली ,
रात ओस बहुत गिरी थी
आसमान जार जार रोया था …………
हम आवत नाही रह्यो
हर रोज सुबह घर से निकलते हुए
कवि के खीसे में होते हैं
कविताएं, कच्ची, अधपकी
ये सधःप्रसवा,
ये पोपले मुंह वाली
लाठी टेकती सी,
अभी अभी गिराए हैं
इसने दूध के दांत,
और ये चबाती है लोहे के चने,
ये खट्टे कर दे सबके दांत
अरे! इसके तो खुद के दांत खट्टे हैं,
ये देखो अब भी सोयी सी है
इसे देखो
अभी अभी कुनमुना कर जागी सी
ये खाई अघाई, उकताई सी
ये भूखी अकुलाई सी
घूमते हुए शहर की आड़ी टेढ़ी
वहीँ से चल वहीँ पहुंच जाने वाली
घुमावदार गलियों में
कवि के दोनों जेबें भर जाती है कविताओं से
कवितायें ताक-झांक करने लगती हैं
खीसे के बाहर,
कवि बनाता है उनकी पोटली
और बचा कर लोगो की निगाह
दबा लेता है उन्हें कांख के नीचे
सुदामा के चावलों सा,
थक जाने की अंतिम सीमा तक
कवि ढूंढता है अपना कृष्ण,
रात के किसी सुनसान पहर में
थका हारा कवि लौटता है
स्वगत कथन करता …
“हौं आवत नाही रह्यो वाही पठयो ठेल …………..
पेट और पीठ
साथ रहते हुए एक दूसरे के
तमाम उम्र ,
कभी नहीं मिलते
पेट और पीठ
रूबरू
जब भी मिले
पीठ दिए हुए
एक दूसरे की तरफ
खाली पेट के साथ
तमाम रात जागती है पीठ,
बातें कर बहलाती है
उसका मन
घंटो बतियाते हैं दोनों
बिना समझे परस्पर
एक दूसरे की भाषा
पेट ने सीखा है संवाद करना
भूख की बोली में
पीठ उलझी रहती है
बोझ के व्याकरण से …………….
ये संक्राति काल है
तेजी से बदल रहे है
भाषाई व्याकरण
पेट और पीठ ने तय किया है
दोनों सीखेंगे एक दूसरे की
भाषा की जटिलताएं
मैं भले से जानती हूँ पेट को
ये बोझ भी उसे डाल देना है
पीठ के कंधो पर,
झाड़ते हुए पल्ला
समझाते हुए बोझ से दुहरी
हो रही पीठ को,
बोझ की भाषा तो तुम्हे भले से आती है
भूख की भाषा का वैसे भी कोई व्याकरण नहीं है!
विदा करते हुए पतझर
स्वागत में मधुमास के
घर के पिछले आँगन में
नीम बदल रही है कपड़े,
सकुचा ना जाए लाज से
इस भय से जाती नहीं हूँ
उस ओर आजकल
जल्दी है नीम को
पहनने को गुलाबी कोंपलें
लद फंद जाने को नीम कौड़ियों
के गहनों से,
उस ने लगा दिया है ढेर
उतारे हुए कपड़ों का
पीले उदास पत्तों का
धुंधलाती शाम में
जब खडकते हैं पत्ते तो
भर जाती हूँ जुगुप्सा से
ये सोचने भर से
नाली से निकल कर
बिल्ली के बच्चों आकार के
भूरे मटमैले चूहे
व्यस्त है प्रणय क्रिया में
सिहरन पैदा करता है ये अहसास
के रेंगता हुआ कोई गेहुँवन
गुज़र गया होगा
इस पार से उस पार
तलाशता हुआ
प्रणय केलिरत चूहों का जोड़ा
आँखे मूँद, कानो को विश्राम दे
रोम रोम को बना कर श्रवण रंध्र
सुनने की कोशिश करती हूँ,
भर जाती हूँ अलौकिक प्रसन्नता
से सुनकर पत्तियों और हवा की
जुगलबंदी से पैदा हुआ संगीत
आखिर में भाग कर जाती हूँ
आदमकद आईने के सामने
ठीक करती हूँ माथे की बिंदी
कानों के पीछे खोंस लेती हूँ
उलझ कर माथे पर आ गयी
एक आवारा लट
कि आज शायद दबे पाँव
मुझे चौंकाने ,
पिछले दरवाजे से आ रहे हो तुम…………
धत्त औरतों से भी कभी प्रेम किया जाता है
जब बात चलती है प्रेम की तो आँखों में
तैर जाता है तुम्हारा चेहरा अनायास
फिर हिंडोले सा झूलता है हुआ
तुम्हार संसार
सहेजती हूँ!!
पिछली शाम
खरीद कर लाया टी सेट,
माँ की दी हुई साडी,
सासु माँ के कंगन,
वो तुलसी जो बालकनी को आँगन बनती है
संभाल कर जलाती हूँ रोज मंदिर का दिया
अंदर कुछ टूट जाता है जब
बर्तन मांजते हुए महरी से टूट जाता है
पुराने कप का हैण्डल
बेचैन रहती हूँ दिन भर
जब तुम भूल जाते हो अपना टिफिन
हड़बड़ी में
जबकि जानती हूँ कि कंटीन है
तुम्हारे केबिन के बगल में
जीती हूँ तुम्हारे रिश्ते नाते
अपनों की तरह
तुम्हारी दुनिया की परिधि में खींच लेती हूँ एक नयी वृत्त
तुम्हे केंद्र मान कर
सब से प्रेम करती हू
सिवाय खुद के
कल एक ख्याल आया की
चलो खुद से भी प्रेम किया जाए
धत्त, औरतों से भी कोई कोई प्रेम करता है
उनसे तो इश्क किया जाता है
एक दिन जियो मेरे जैसे भी
सुनो,
बहुत नाराज़ हो न?
शिकायतें तो मुझे भी
बहुत हैं तुमसे
चलो न,
एक दिन के लिए ही सही
अपनी जिंदगियां बदल ले
सुनो,
कल न तुम थोड़ा
जल्दी उठ जाना
ज्यादा नहीं
बस सुबह पाँच बजे
सुबह बहुत ठंड होती है
मुझे चाय रजाई में ही दे देना
और फिर घर में बस थोड़े से ही तो काम होते हैं
सफाई/बर्तन/खाना/नाश्ता /कपड़े
और फिर मेड तो है ही मदद के लिए
फिर
कोई तुम मेरी तरह काम चोर थोड़ी हो
तुम तो ये सब कर ही सकते हो
और हाँ मेरे कपड़े निकालना मत भूलना
मुझे मिलते नहीं तुम्हारी अलमारी में
सुनो,
जब तुम ऑफिस के लिए निकलोगे
तो वाचमैन तुम्हे नमस्ते करने के बाद
भीतर तक स्कैन भी करेगा
तो देखना क्या तुम्हे भी ऐसा लगा
कि शायद तुम कपड़े पहनना तो नहीं भूल गये
और हाँ,
जब बस का कंडक्टर टिकट देते समय
और पैसे लेते समय
जान बूझ कर तुम्हारी उँगलियों को छूएगा
तो क्या तुम्हे भी लगा?
कि हजारों हज़ार छिपकलियाँ रेंग गयी तुम्हारी देंह पर
एक और बात,
जब तुम्हारा बॉस आँखों ही आँखों
मैं तुम्हे कुछ समझाने की कोशिश करेगा
तो तुम देखना
सब कुछ समझ कर भी नासमझ बन पाते हो कि नहीं
आज तो मैं ज़िम्मेदार हूँ तुम्हारी तरह
अच्छे से मन लगाकर काम करुँगी
घर गृहस्थी भूल कर
और सुनो,
तुम ऑफिस में कामचोरी मत करना मेरी तरह
लेकिन हाँ,
बस घर पर ३-४ बार फोन कर लेना
बच्चे आये/ खाना खाया/होम वर्क किया ,
सुनो,
जब तुम वापस आओगे न
तब बच्चे तुम्हे सहमे हुए मिलेंगे
परेशान मत होना
उन्हें आदत है
मेरे मूड के सही होने का इंतज़ार करने की
और जब मै शाम को वापस आउंगी
तो वर्मा जी के साथ हुए पार्किंग के झगडे,
बॉस के साथ हुई खटपट,
कुलीग की खिट पिट,
सबकी गठरी बनाकर लाऊँगी
तुम्हारे सिर पर उस जगह रख दूँगी
जहाँ पर शायद दिमाग होता है
और फिर तुम मुझसे पूछना
थक गए हो क्या?
चाय बना दूँ?
यही तो तुम चाहते हो मुझसे
मेरी छोटी-छोटी जिम्मेदारियां तुम्हे भारी तो नहीं लगीं?
मै नहीं निभा पाऊँगी तुम्हारी बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियां
ये सब तो सिर्फ आज के लिए था
मैं तो तुमसे प्रेम करती हूँ
और ‘प्रेम में भी’ पात्रता से ज्यादा
न लिया जाता है
‘और न ही’
दिया जाता है|
सम्पर्क-
ई-मेल आई.डी: mridulashukla11@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)