प्रतिभा गोटीवाले की कविताएँ

प्रतिभा गोटीवाले

कविता क्या है? महज शब्दों से खेल या शब्दों के जरिए अनकहे को कह देने का माध्यम हर कवि अपने समय अपने लेखन में इस प्रश्न से अनायास ही टकराता है और कविता के माध्यम से ही इसका जवाब खोजने या देने की कोशिश करता है मानव मन की सहज अनुभूतियों को शब्दों में पिरोना भी आसान कहाँ? भागदौड़ भरी ज़िंदगी में इसके लिए समय भी तो नहीं लोगों के पासलेकिन कविता इसी मायने में हर विधा से अलग और अनूठी है कि आपाधापी में भी यह अपनी जगह बना लेती है अनुभूतियों को आखिर कब तलक रोका जा सकता हैपानी से भी तेज इसका बहाव होता है हमारी कवियित्री प्रतिभा गोटीवाले कविता लिखते लिखते हुए जैसे सहज ही शब्दों की अपार गहराईयों और संवेदनाओं की गहन परतों में उतरती चली जाती हैं  अपनी कविता ‘अच्छा लगता है’ में प्रतिभा लिखती हैं-  ‘बेबाक शब्दों में खुलना/ सहमे शब्दों में सिमटना/ अनकहे शब्दों को सुनना/ अबोले शब्दों का कहना/ बहुत अच्छा लगता है/ कभी कभी…… / यूँ ही ……/ शब्दों से खेलना ….।’ तो आइए पढ़ते हैं प्रतिभा गोटीवाले की कुछ नयी कविताओं को प्रतिभा गोटीवाले की ये कविताएँ हमें कवि-चित्रकार मित्र कुंवर रवीन्द्र के सौजन्य से प्राप्त हुईं हैं।  

प्रतिभा गोटीवाले की कविताएँ

शहर झील और चाँद 

दिन भर की धमा चौकड़ी से
थकी मांदी लहरों को
समेट कर आँचल में
जब सुला देती हैं झील
देकर मीठी थपकियाँ
थम जाती हैं …जरा देर को
भूल कर सारी हलचल
तभी आसमान से
मुस्कुराता हैं चाँद
और किनारे पर
ओढ़े जुगनुओं का दुशाला
गुनगुनाता हुआ
आता हैं शहर
किसी मनचले से शायर सा
रात भर जमती हैं महफ़िल
चलती हैं बाते
सुनकर शहर के क़िस्से
खिलखिलाती हैं झील
तो चाँद भरता हैं आहें
हाँ, ठीक आधी रात के बाद
जब सो जाता हैं जहां सारा
हौले से जागते हैं तीन दोस्त
शहर …झील और चाँद …
सवालों के घेरे

खुरच कर तर्कों की चट्टान
पहुँचते तुम तक
बहस के ऐसे
तीख़े नाख़ून
थे नहीं
मेरे मासूम सवालों के 
बस 
टकरा कर वापस
लौटते रहे 
और देखो 
कैद हूँ अब मैं 
अपने ही सवालों के
घेरे में !
बसंत की शाम

सोचती हूँ कभी
के आओ तुम
और ठहर जाओ
मन के आसमान पर
बन कर
बसंत की शाम
बहकता रहे आसमान
बहुत देर तक
तुम्हारे रंगों से
और जब घुलने लगो
काजल की तरह
स्याह रातों में
उतर आना
मेरी आँखों में
बन के विहग
प्रतीक्षा का ………..।


राजा, मंत्री, चोर, सिपाही


बचपन से आज
तक
निरंतर चलता हुआ
एक खेल
राजा, मंत्री
चोर, सिपाही
भविष्य राजा  की तरह
मन लुभाता हैं
वर्तमान मंत्री बन
सोच में पैठ जाता हैं
यादें सिपाही बन कर
ढूँढ़ती हैं
चोर पुराने दिनों को
और पुराने दिन……
उन पर जैसे ही
पड़ती हैं नज़र
शरारती बचपन
मुस्कुरा कर
गा उठता हैं कहीं
घोड़ा जमाल शाही
पीछे देखें मार खाई  ………….

समय के पार

जन्म का विज्ञान
जीवन का गणित                              
रिश्तों का इतिहास
देह का भूगोल
और स्पर्श का रसायन
इन सबको पढ़ते
उमर गई
छोड़ो ये सब
चलो ना आज रात
चाँद पर पाँव रख कर
ख़लाओं में उतरे जरा
बस आते समय
उस लाल सय्यारे को
न देखना भूल कर
इन दिनों ग़ुस्से में
रहता हैं वो
और हो भी क्यों ना
जाने कहाँ- कहाँ से खोजी
आ जाते हैं आजकल
उसका एकांत भंग करने
बचा कर उससे नज़र
चली आना
तुम सीधे बृहस्पत पर
पाँव जरा
संभल कर रखना
बहुत तेज़ घूमता हैं ये
थोड़ा और आगे बढ़ कर
उतर आना
शनि के सुनहरे छल्लों पर
वही मिलूँगा मैं तुम्हें
घूमते छल्ले पर बैठ कर
करेंगे ढ़ेरों बातें
आकाशगंगाओं  जैसी  
जिनका कोई अंत न हों
सुनो, जरा धीमी रखना आवाज़
कि जाग न जाए धरती
 उफ़ !
क्या अच्छा होता यदि
तुम्हे दो कप
चाय ले आने को कह देता !

मैं नींद में थी

वह मेरी नींद के सपने में सो रहा था
मैं उसकी नींद के सपने में क़ैद थी
विवस्त्र  
देह ढांपने की नाकाम कोशिश करती हुई
बार-बार वह मुझे विवस्त्र करता जाता था
हँसता हुआ एक विद्रूप हँसी
कहता था  – ‘खुलो’
व्यक्त करो अपने आप को
मैं देता हूँ तुम्हें आज़ादी
ख़ुद को व्यक्त करने की
पूरी आज़ादी
मैं चीख कर निकल आना चाहती थी
उसके सपने से
पर वह नींद में था
उसकी नींद मेरे सपने में थी
और मैं घबरा कर जाग गई थी।

अच्छा लगता है

अच्छा लगता हैं
कभी-कभी
यूँ ही………
शब्दों से खेलना
बेवजह शब्द उछालना
बेगाने शब्दों को झेलना
अर्थहीन शब्दों पर चढ़ना
अनजाने शब्दों से फिसलना
मुस्काते शब्दों में बांधना
मासूम शब्दों में बंधना
बेबाक शब्दों में खुलना
सहमे शब्दों में सिमटना
अनकहे शब्दों को सुनना
अबोले शब्दों का कहना
बहुत अच्छा लगता हैं
कभी कभी……
यूँ ही ……
शब्दों से खेलना ….।
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)