पंकज पराशर का आलेख ‘गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी’

वीरेन डंगवाल
वीरेन डंगवाल हमारे समय के अनूठे और अलग मिजाज के कवि हैं। उनका यह मिजाज आप सहज ही उनकी कविताओं में देख सकते हैं भाषा का खिलंदडापन देखना हो तो आपको वीरेन की कविताओं के पास जाना होगा। आभिजात्य शब्दों को तो जैसे वे मुँह चिढाते हुए जन-सामान्य के बीच प्रचलित उन शब्दों को अपनी कविताओं में प्रयुक्त करते हैं जो बिल्कुल आत्मीय लगते हैं व्यंग्य भी इतने करीने से जैसे मन-मस्तिष्क झंकृत हो जाए। इस तरह के अलहदा कवि पर आलेख लिखा है हमारे कवि-आलोचक मित्र पंकज पराशर ने 
     
गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी
पंकज पराशर
वैश्वीकरण भाषाओं, संस्कृतियों और कविता का शत्रु है। उसका स्वप्न एक ऐसी मनुष्यता है जो उसी के गांव में बसती है, उसी तरह रहती-सोचती-पहनती, हाव-भाव रचती और खाती-पीती है। एक रसायनिक संस्कृति बोध से लैस इस मनुष्यता का आदर्श भी अंतरराष्ट्रीयवाद है मगर अपने मूल मानवीय अर्थ के बिल्कुल उल्टे अर्थ में। वह वैश्विक मनुष्य तो पारंपरिक संस्कृतियों और ज्ञान को नष्ट करने वाला और अधिनायकवादी है जो केवल बाज़ार और उपभोग को मान्यता देता है।
-वीरेन डंगवाल (फरवरी, 2005 में साहित्य अकादेमी सम्मान समारोह में दिये गये वक्तव्य से)
जैसे समय का बाहर नहीं होता, वैसे ही भाषा का भी। वह ख़ुद निरपेक्ष होती है, मगर भाषा के बरतने वाले अपनी-अपनी हैसियत और नज़रिये के अनुसार उसे नियंत्रित करने की कोशिश करते ही रहते हैं।
-वही
कविता की भाषा और जीवन की भाषा को अलग-अलग नहीं होना चाहिए।
-नाज़िम हिकमत
कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जहाँ भी मनुष्यता संकट में होती है, वहां कविता में उस संकट की ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति होती है।
-कार्ल मार्क्स
आमजन की निष्कलुष प्रसन्नता और करुणा, मनुष्यता के भीतर से निकली गहरी आकुल पुकार और हिंदी काव्य परंपरा के साथ आत्मीय/जीवंत संवाद करती वीरेन डंगवाल की कविता मनुष्यता की खांटी मातृभाषा में संभव होती है। जिसमें शब्द और कर्म के बीच न कोई द्वैध नज़र आता है, न दो अर्थों का भय। शब्दार्थ तभी अस्पष्ट और उलझाऊ होते हैं, जब दृष्टि और नीयत स्पष्ट न हो। ऐसे में भाषा और अभिव्यक्ति में चाहे जितनी सहजता लाने का प्रयास किया जाये, कविता की संबद्धता और कवि की प्रतिबद्धता दोनों अवसर और व्याख्या के अनुसार परिवर्तनशील प्रतीत होते हैं। किंतु-परंतु और दुविधा की भाषा में भविष्य की सुरक्षा और लाभ की आकांक्षा का जो समीकरण सन्निहित होता है, उसका पर्यवसान वस्तुतः संतन के सीकरी से संबंध जोड़ने से होता है, सनेह के सूधो मारग से नहीं। कहना न होगा कि सनेह और प्रेम का घर खाला का घर नहीं होता, जहां सीस उतार कर भुंई पर धर देना आवश्यक न हो। प्रेम के घर में तमाम जाल-जंजाल, गर्व-अहंकार, गुणा-गणित को परे हटा कर रख देना पड़ता है। जहां सुखिया संसार तो खा कर सो जाता है, लेकिन सुखियों के संसार में कबीरों की नियति है दुखिया दास की तोहमत झेलते हुए रातरात भर जागना और रोना! क्यों कि जिन चीज़ों को आम आँख वाले लोग नहीं देख पाते, वह कवि को सहज ही दिखाई दे जाता है। संसार के नक्कारख़ाने में तूती की जो आवाज़ अनुसुनी-सी रह जाती है, वह एक कवि के कान में पड़ने के बाद अनसुनी नहीं रहती। 
चूंकि कवि हाशिये के लोगों, दमितों-वंचितों और परेशान-हाल लोगों का अनिवार्य सहचर होता है, इसलिए जिस पर किसी की नज़र सहजता से नहीं जाती वह कवि से अलक्षित नहीं रहता। तभी तो कीचड़ में लेटी हुई मादा सूअर भी मादर-ए-हिंद की बेटी कहलाती है, नेवला जैसा जीव बेहद ख़ास हो जाता है और तोता डियर तोताराम में रूपांतरित हो जाता है। वीरेन डंगवाल की कान में जब रद्दी पेपर की आवाज़ आती है, तो उन्हें एक बच्चा कबाड़ी की आवाज़ अज़ान-सी फ़रियाद लगती है-
      सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी
एक फ़रियाद है फ़रियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से।
-वीरेन डंगवाल, कवि ने कहा, पृ.111
बच्चा कबाड़ी की लयात्मक आवाज़ एक कवि के कानों में ही अज़ान-सी पवित्र आवाज़ लग सकती है, जिसमें रोज़ी-रोटी कमाने की उम्मीद फ़रियाद के रूप में रूपांतरित हुई-सी लगती है। यह आवाज़ और किसी के दिल में भले कोई विशेष भाव पैदा न करती हो, लेकिन कवि को अवसाद और अकेलेपन से भर देती है। वैशाख की प्रचंड दोपहरी में अशोक के सजीले पेड़ कुम्हला गए हैं, गर्मी अपने चरम पर है, लेकिन चार पैसे कमाने के लिए घर से निकला एक बच्चा कबाड़ी रद्दी पेपर ख़रीदने के लिए आवाज़ें लगाता हुआ शहर में भटक रहा हैइसलिए उस बच्चा कबाड़ी की आवाज़ कवि को गहरे अवसाद और अकेलेपन से भर देती है। कवि-हृदय में प्रसूत यह करुणा जब कविता में अभिव्यक्त होती है, तो व्यापक समाज के हृदय में करुणा और सहानुभूति पैदा कर पाने में सफल होती है। इसलिए यह अकारण नहीं है कि उस बच्चा कबाड़ी की आवाज़ कवि को अज़ान-सी फ़रियाद लगती है। जिसकी पुकार के पीछे है रोटी के लिए संघर्ष करते एक परिवार की कथा, उसकी उम्मीद और आकांक्षाएं, जहां तक किसी और की नज़र नहीं जा पाती है।  
हाशिये के लोगों की व्यथा अन्य लोगों से अलक्षित रह जाती हैं, लेकिन कवि इस लिए देखने में सक्षम होता है, क्योंकि बकौल निराला मैं कवि हूं पाया है प्रकाश। इस प्रकाश के कारण कवि पूँजी और सत्ता के गठजोड़, दुरभिसंधियों आदि को अपनी बारीक और मानवीय दृष्टि से देख लेता है। जनता जिन चीज़ों को, जिन दुरभिसंधियों को अपनी भोली और सहज दृष्टि नहीं देख पाती है, उसे कवि कई बार घटित होने से भी पहले देखने में सक्षम होता है। चिनुआ अचेबे इस बात के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी कथा-कृति द थिंग्स फाल अपार्ट में जिस तरह से घटनाओं का चित्रण किया, बाद में सारी घटनाएं उसी तरह नाईजीरिया में घटित हुई। वीरेन डंगवाल की काव्य-दृष्टि की यह विशेषता लक्षित की जानी चाहिए कि उनकी भाषा में व्यंग्य की तुर्शी के साथ-साथ उन फेनिल आवरणों को अनावृत्त करने वाला ताप है। हमारा समाज में कहते हैं- 
किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.15
हमारे समाज में जो काली ताकतें सजी-बजी हैं, चमक-दमक रही हैं, उसने जिस चतुराई से कालेपन के साम्राज्य का प्रसार और विस्तार किया है, कवि के लिए वह चिंता की वज़ह है। आर्थिक उदारीकरण के बाद समाज में जिस तरह धन का माहात्म्य बढ़ा है, उसने लोगों को येन-केन-प्रकारेण धन-संग्रह और अनंत भोग-विलास के लिए उत्प्रेरित किया है। आलम यह है कि आज चीजों से अधिक उसकी ब्रांड की महिमा अधिक है, जिसे पाने के लिए अधिकांश लोग एक अंधी दौड़ में शामिल हैं। काली कमाई से पैदा होने वाला काला धन आज देश की अर्थव्यवस्था के समानांतर चलने वाली दूसरी अर्थव्यवस्था का शक्ल अख्तियार कर चुका है और उद्योगों में अपनी घुसपैठ से छोटी पूँजी निगल चुका है। इस काला-धन ने समाज की मानसिकता में जबर्दस्त परिवर्तन किया है। नतीजतन अब लोग धनिकों का धन देखते हैं, धनागम का स्रोत देखने और उसके उचित-अनुचित होने को ले कर जिरह नहीं करते। लेकिन कवि न केवल इन ताकतों को अनावृत्त करता है, बल्कि उसकी दुरभिसंधियों की ओर इशारा करते हुए आमजन से इन शक्तियों के विरोध का आह्वान भी करता है-
कालेपन की वे संतानें
हैं बिछा रही जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है?’
वही
सज्जनता, ईमानदारी, नैतिकता, वफादारी इत्यादि जैसे मूल्यों के प्रति वर्तमान समाज की आग्रहशीलता में कमी में आई है और बेईमानों, हत्यारों, आवारा और अनैतिक पूँजी के अलंबरदारों का दबाव और प्रभाव समाज में बढ़ा है। तो क्या कवि भी इन चीजों के प्रति आग्रहशीलता में नरमी ले आए? कवि, जो कि इन ताकतों का अनिवार्य प्रतिपक्षी होता है, वह भी जब इन ताकतों के प्रसारित किये हुए भ्रम का शिकार हो जाएगा तो जनता को भला रोशनी कौन दिखाएगा? इस बाजारोन्मुख राजनीतिक व्यवस्था में मसला मनुष्य का है, जो मसले जाने के लिए नहीं बना है। वीरेन डंगवाल कहते हैं-
      बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?
क़ातिल मज़े में है
तो क्या हम मान लें कि क़त्ल करना मज़ेदार काम है?
मसला मनुष्य का है
इसलिए हम तो हरगिज़ नहीं मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही
बना है मनुष्य।
-वीरेन डंगवाल, कवि ने कहा, पृ.125
सत्य का मुख म्लान है, झूठ का प्रफुल्लित, तो इसका मतलब क्या यह है कि सचाई का प्रतिदान है मलिनता और झूठ का प्रतिफल है प्रफुल्लता? लेकिन समाज में आमजन को दिखता है कि बेईमान सजे-बजे हैं और क़ातिल में बेहद मज़े में हैं, तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि उनके कर्म नैतिक, न्यायोचित और अनुकरणीय हैं! इस लिए कवि बल देकर कहता है कि मसला मनुष्य का है जो इन ताकतों के आगे झुकने और मसले जाने के लिए नहीं बना है और न इसका मतलब यह है कि इन ताकतों की कारकर्दगी ठीक है। इसलिए वीरेन डंगवाल दमकने वाले चेहरे की हकीकत को अनावृत्त करते हैं, पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है / इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है।  
समकालीन राजनीतिक और सामाजिक चिंताओं में साहित्य की चिंता भले प्रमुखता से शामिल न हो, लेकिन सार्थक साहित्य का चिंतन इन्हीं चिंताओं से शुरू होता है और सत्ता के प्रतिपक्ष में खड़े होकर अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करता है। अनुभवहीनता और जीवन की अल्प समझ के कारण जो साहित्य कृत्रिम कलात्मक उपादानों के जरिये अपनी महत्ता और अर्थवत्ता सिद्ध करने की कोशिश करता है, वह समय के साथ अप्रासंगिक होकर इतिहास के गर्त में खो जाता है। लेकिन जिस रचना की बुनियाद में जनता के प्रश्नों, आकुलताओं, आकांक्षाओं और स्वप्नों को जगह मिलती है, वह रचना नयो-नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये की तरह हमेशा अपनी अर्थवत्ता और महत्ता बनाये रखती है। ऐसी रचनाएं ही मनुष्यता की सच्ची आवाज बन कर जन-सरोकारों से आबद्ध रहती है। वीरेन डंगवाल हाशिये के उन आवाज़ों से शक्ति और प्रेरणा ग्रहण करते हैं, जो भय, अवसरवादिता और लाभ-लोभ की संक्रामक मानसिकता के भयानक प्रसार के बावजूद अपने आदर्शों को मजबूती से थामे रहती हैं, 
      कई लोग हैं अभी भी
जो भूले नहीं करना
साफ़ और मज़बूत
इनकार
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.15
यह साफ और मज़बूत इनकार जहां कवि के भीतर आशा का संचार करता है, वहीं मनुष्यता के प्रति सच्ची आस्था भी पैदा करता है। भौतिकतावादी संस्कृति के चमक-दमक में साफ़ और मज़बूत इनकार करने वाले लोगों की संख्या भले कम हुई हो, लेकिन उनकी उपस्थिति और मजबूती कवि के भीतर उत्साह और आशा का संचार करती है। वीरेन की कविता में अनुभव और संवेदना के अनेक स्तर हैं। उनके काव्य-संसार में मनुष्य से ले कर मनुष्येतर प्राणी तक सहज उपस्थिति देखी जा सकती है। स्रष्टा भले दुश्चक्र में फँसा हो, लेकिन उसकी दृष्टि, ग्राह्य क्षमता, चीज़ों की समझ प्रकृति ठप कारोबार से शुरू हो कर मनुष्य के बर्बर कारोबारों को अनावृत्त करती है- 
      नहीं निकली नदी कोई पिछले चार-पाँच सौ साल से
जहां तक मैं जानता हूं
न बना कोई पहाड़ अथवा समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं
कभी-कभार।  
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 24
धरती की संरचना और विकास से परिचिति रखने वाले लोग जानते हैं कि भौगोलिक विकास की प्रक्रिया वाकई पिछले चार-पांच सौ सालों में ठहरी हुई-सी है। इस कविता में यह बात तथ्यात्मक रूप से सच है, इसलिए इस कविता का यह अंश प्रथम प्रभाव में चमत्कृत और बाद में चिंतित करता है। लेकिन यह कविता जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे व्यंजना शब्द-शक्ति की मारकता बढ़ती चली जाती है। बाद के काव्यांश में प्राकृतिक बदलावों के ठहर जाने की चिंता प्राकृतिक आपदाओं और मनुष्य-निर्मित समस्याओं/अत्याचारों की चिंता के साथ मिल कर एक विराट् मानवीय चिंतन में रूपांतरित हो जाता है-
      बाढ़ें तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप, तूफान
ख़ून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए ख़ूब
ख़ूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गयी सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार।
-वही
पिछले चार-पांच सौ सालों में धरती पर कोई नई नदी नहीं निकली, न कोई नया पहाड़ बना, लेकिन विनाश और विध्वंस में क्रमशः बढ़ोतरी होती जा रही है-कहीं ज्वालामुखी फूटती है, बाढ़ आती है, भूकंप आता है, चट्टानें खिसकती हैं, सूनामी और समुद्री तूफान आता है, मगर कोई नई नदी नहीं निकलती, नया पहाड़ नहीं बनता! इसलिए कवि ईश्वर से यह सवाल पूछता है (जिस ईश्वर में उनकी कोई आस्था नहीं है, लेकिन वे सवाल उस अधिसंख्य जनता की ओर से पूछते हैं जिसकी ईश्वर में आस्था है) कि क्या कुछ नया रचने का काम अब पूरा हो गया भगवान? क्या अब सिर्फ विनाश और विध्वंस ही होगा? हर चीज़ को स्याह और सफेद में समझने के आदी सादा-दिमाग लोगों को वीरेन का यह काव्य-प्रश्न थोड़ा प्रश्नाकुल कर सकता है कि एक प्रतिबद्ध वामपंथी कवि किस ईश्वर से संवाद करने की कोशिश कर रहा, जिसमें न उसकी कोई आस्था है, न कोई कोई विश्वास? इस प्रश्न के झन्नाटेदार उत्तर के साथ कवि इसी कविता के अंत में उपस्थित होता है, जब वे दुश्चक्रों के स्रष्टा ईश्वर को अबे-तबे करके अपने भीतर की उस वास्तविक तस्वीर को उजागर करता है, जो वाकई कवि के भीतर है-
      अपना कारखाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन-सा है आखिर, वह सातवां आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!
वही, पृ.25
वीरेन कहते हैं कि भाषा कवि का बसेरा है और नाज़िम हिक़मत का विचार है कि कविता की भाषा और जीवन की भाषा को अलग-अलग नहीं होना चाहिए। इसलिए महज कुछ शब्दों हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!! के संबोधन से वे ईश्वर की वास्तविकता के बारे में अपने विचारों को प्रकट कर देते हैं। वीरेन विशेष रूप से धर्म उस संस्थागत स्वरूप और उससे जुड़े पाखंड को अपना निशाना बनाते हैं, जिसके प्रति संवेदनशीलता का ग्राफ समाज में निरंतर गिरता जा रहा है। अपने योगक्षेम, स्वर्गाकांक्षा, मुक्ति आदि के लिए जिस पवित्र नदी गंगा की आराधना की जाती है, वह गंगा आज विश्व की सर्वाधिक गंदी नदियों में शुमार हो गई है। लोगों के पाप धोने की क्षमता कब की खो चुकी यह नदी महोत्सवों, धार्मिक उत्सवों में तो पूजी जाती है, लेकिन पूजकों के दिल में वह स्थान नहीं अक्षुण्ण रख पाती कि अपनी मरणासन्न हालत से उबर सके। चार्ली चैप्लिन के शब्दों में कहें तो चूंकि व्यंग्य का जन्म ही घोर करुणा की कोख से होता है, इसलिए वीरेन डंगवाल की व्यंग्य की मारकता में उपहास नहीं, घोर करुणा सन्निहित होती है। परंपरागत शब्दावली स्तवन का प्रयोग करते हुए वीरेन गंगा स्तवन में लोगों के दमन-उत्पीड़न और प्रताड़ना से आहत-प्रतिहत गंगा को बेटी के रूप में संबोधित करते हुए कहते हैं-
      जा बेटी, जा वहीं अब तेरा घर होना है
मरने तक
चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना
गाद-कीच-तेल-तेज़ाबी रंग सभी पी लेना
ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुईं
देखना वे ढोंग के महोत्सव
सरल मन जिन्हें आबाद करते हैं अपने प्यार से।
– कवि ने कहा, पृ.140
ढोंग के महोत्सवों में गंगा की पूजा और महिमा का गायन अवश्य किया जाता है, उसकी सेवा और महात्म्य के लिए भक्ति-भाव का प्रदर्शन अवश्य किया जाता है, लेकिन उसी में तमाम चीज़ें उत्सर्जित भी की जाती हैं। नदियां मैली हो चुकी हैं, शहरों के साथ-साथ देहातों में भी पानी की किल्लत होने लगी है। पानी की कमी की भयावहता को बताने के लिए अक्सर यह कहा जाता है कि अब तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए ही होगा, लेकिन हमारी आस्था और अक्लमंदी का आलम यह है कि जिस नदी को हम धार्मिक रूप से भी जीवनदायिनी मानते हैं, उसे बचाने और संरक्षित रखने के लिए हमारे दिल में कोई भाव, कोई दर्द नहीं बचा है। महोत्सवों और पूजा-पाठों को ले कर समाज की प्रदर्शनप्रियता ने प्रकृति के हर वरदान को अभिशाप में तब्दील कर दिया है। संस्कृत साहित्य के क्लैसिक्स में पर्यावरण को लेकर जो सजगता, सौंदर्यप्रियता और संवेदनशीलता दिखती है, यहां तक कि छायावाद और प्रगतिवाद के दौर में भी जैसी सुंदर और मार्मिक कविताएं प्रकृति को लेकर लिखी गई हैं, वह समकालीन कविता में सिरे से नदारद दिखती है। 
वीरेन डंगवाल धार्मिक और मिथकीय चरित्रों के बहाने भी जब कोई कविता संभव करते हैं तो उसके मूल में यथार्थ की चिंताएं ही कारुणिक रूप में प्रकट होती हैं। देश को बांटने वाली और ग़रीबों-मज़लूमों का शोषण करने वाली सत्ता के विरोध में अपनी आवाज़ को ईमानदारी से बुलंद रखने की कोशिशों में मुब्तिला कवि अपनी भूमिका के प्रति हमेशा साकांक्ष दिखाई देता है- एक कवि और कर ही क्या सकता है/ सही बने रहने की कोशिश के सिवा। वीरेन के भीतर का कवि सही बने रहने के लिए निरंतर आत्मसंघर्ष करता रहता है। इंद्र शीर्षक कविता में वे जिस प्रकार इंद्र की शक्ति के बहाने समकालीन यथार्थ को अनावृत्त करते हैं वह बेहद मानीख़ेज है-
      वह समुद्रों को बजाता है सितार की तरह
मंद्र गर्जन से भरा वह दिगंतव्यापी स्वर
उफ़, वहां पानी है
सातों समुद्रों और निखिल नदियों का पानी है वहां
और यहां हमारे कंठ स्वरहीन और सूखे हैं।
-वही, पृ.47
कवि कंठ पानी के अभाव में सूखे ही नहीं, स्वरहीन भी हैं- जिसकी पुकार धार्मिक सत्ता अनसुनी कर देती है। पिछले दशकों से देश में धार्मिक कार्यक्रमों, टेलीविजन चैनलों, प्रवचनी बाबाओं और उत्सवों की भरमार हो गई है। आम लोगों को इन बाबाओं से अपने जीवन की समस्याओं का कितना निदान मिलता है यह शायद ही किसी को मालूम हो, लेकिन लोगों से इन बाबाओं पर्याप्त धन मिल जाता है। उत्सप्रियता और धर्मभीरुता की वज़ह से लोगों का कल्याण होता हो या न होता हो, लेकिन देश की नदियों, विशेष रूप से गंगा का लगातार अकल्याण होता रहता है। जिस अनुपात में देश में छोटी-छोटी नदियां मरती जा रही हैं, उसी अनुपात में समाज में उत्सवप्रियता और धर्मभीरुता बढ़ती जा रही है। फ़ैजाबाद-अयोध्या की घटनाओं ने सामासिक संस्कृति को दोफाड़ कर दिया है, लेकिन पंडों और मंगतों का कारोबार और फैला है। आर्थिक उदारीकरण के बाद से आए धार्मिक टी.वी. चैनलों और मनोरंजन चैनलों के धारावाहिकों ने समाज में धार्मिकता को धर्मांधता में तब्दील करने में एक बड़ी भूमिका है। फ़ैजाबाद-अयोध्या के दृश्यों को अंकित करते हुए वीरेन कहते हैं-
      घाटों पर तख़्त ही तख़्त
कंघी, जूते और झंडे सरयू का पानी
देह को दबाता हल्की रजाई का सुखद बोझ
चारों ओर स्नानार्थी मंगते और पंडे।
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.32
वीरेन डंगवाल भारतीय काव्यशास्त्र और हिंदी काव्य-परंपरा से जीवंत संवाद करने वाले कवि हैं, इसलिए उनकी कविता से गुजरते हुए अनेक प्रसिद्ध और लोकप्रिय पुरानी कविताओं, पुराने लोकप्रिय छंदों की याद आती है। निश्छलता, मासूमियत और सरलता उनके भीतर के कवि का स्थायी भाव है। लेकिन दुर्भाग्य से यह चीज़ वीरेन के समकालीन अधिकांश दूसरे कवियों के यहां कम दृष्टिगोचर होती है। उनके अधिकांश समकालीन कवियों की कविता में भाषिक चमत्कार, अनुभूति की गहराई, पॉलिश्ड शिल्प और प्रस्तुति की नवता तो लक्षित की जा सकती है, लेकिन किसी तरह का कोई लोकेल, काव्य-परंपरा से संवाद आदि की कोशिशें कम दिखाई पड़ती है। इसके उलट वीरेन के यहां ये सारी चीज़ें स्पष्ट और सशक्त रूप से नज़र आती हैं। मसलन वीरेन की कविता पत्रकार महोदय पढ़ते हुए अनायास ही रघुवीर सहाय याद आते हैं, जिन्होंने ख़बर की भाषा में कविताएं रच कर एक अलग ख़बरधर्मी सौंदर्यशास्त्र की रचना की है। इस कविता में वीरेन कहते हैं-
      इतने मरे
      यह थी सबसे आम, ख़ास ख़बर
      छापी भी जाती थी
      सबसे चाव से
      जितना ख़ून सोखता था
      उतना ही भारी होता था
      अख़बार।
-कवि ने कहा, पृ. 98
हर बड़ा कवि अपने पूर्ववर्ती महान कवियों की कविता और प्रतिभा के प्रति नमनीय होता है। तुलसीदास कहते हैं- जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।। तो मिर्ज़ा ग़ालिब भी अपने अग्रज कवि को नहीं भूलते- रेख़्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब/ कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था। बतर्ज़ तुलसीदास और ग़ालिब, वीरेन डंगवाल अपनी कविताओं में अनेक पूर्ववर्ती कवियों को याद करते हैं, उन्हें अपनी कविता समर्पित करते हैं। शमशेर को शमशेर की ही भाषा और अंदाज़ में याद करते हुए वीरेन अपनी शमशेर शीर्षक कविता में कहते हैं- मैंने प्रेम किया/ इसलिए भोगने पड़े/ मुझे इतने प्रतिशोध वहीं बांदा कविता के अख़ीर में सहज ही उन्हें प्रमुख प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल याद आते हैं- मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार/ मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार। 
शमशेर और केदार को याद करने वाले कवि वीरेन, निराला को याद न करें यह असंभव है। इसलिए जब वे अयोध्या-फैजाबाद पर लिखते हैं, तो उन्हें इस कविता के बेहद मार्मिक अंत के साथ ही महाकवि याद आते हैं, इसीलिए रौंदी जाकर भी/ मरी नहीं हमारी अयोध्या/ इसलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूं मैं इस/ अंधेरे में/ तेरे पगचिह्न। कवियों के साथ-साथ वीरेन ने अनेक शहरों पर भी कविताएं लिखी हैं। शहरों की विशेषता, गतिशीलता और ऐतिहासिकता को अपना काव्य-विषय बनाया है। मार्च की एक शाम में आई आई टी कानपुर में वे देखते हैं- मृत्यु का अभेद्य प्रसार/ इस उजाड़ झुटपुटे में कोई नहीं/ रास्ता बताने वाला क्योंकि कानपूरमें आदमी से ज्यादा बेकाम नहीं यहां कुछ/ऩ उससे ज्यादा काम का। उधो, मोहि ब्रज में जब वे इलाहाबाद के वर्तमान को देखते हैं, तो बेहद निराश होते हैं- अब बगुले हैं या पंडे हैं या कउए हैं या हैं वकील/ या नर्सिंग होम, नए युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील।
 
भाषिक चमत्कार और कवि-कौशल का नमूना दिखाने के लिए कभी निराला ने यह कविता लिखी थी, ताक कमसिनवारि/ ताक कम सिनवारि/ ताक कम सिन वारी/ सिनवारी सिनवारी इस कविता में ध्वन्यात्मकता और शब्द-चातुर्य का अद्भुत प्रदर्शन है। वीरेन ने डीज़ल इंजन पर कविता लिखते हुए भारतीय रेल के अलग-अलग क्षेत्रों के संक्षिप्तीकृत रूप को लेकर इस कविता में अद्भुत प्रभाव पैदा किया है-
आओ, आओ चोखे लाल
आओ, आओ चिकने बाल
आओ, आओ दुलकी चाल
पीली पट्टी, लाल रुमाल
आओ रे, अरे, उपूरे, परे, दरे, पूरे, दपूरे
के रे, केरे?’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 63
डीज़ल इंजन शीर्षक कविता जर्मनी के गायक यान्नी के लिए लिखी गई है, जो भारत में ताज़महल के साये में एक बार अपनी अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं। वीरेन ने रेलवे के अनेक प्रकार के इंजनों को अपनी कविता का विषय बनाया है। रेलगाड़ी, डीज़ल इंजन, भाप इंजन, रेल का विकट खेल, रात-गाड़ी इत्यादि को लेकर वीरेन के भीतर बाल/ कवि सुलभ जिज्ञासा देखते ही बनती है! भाप इंजन को लेकर वे कहते हैं-
बहुत दिनों में दीखे भाई
कहां गए थे?पेरांबूर?
शनैः शनैः होती जाती है अब जीवन से दूर
आशिक जैसी बिकट उसांसें वह सीटी भरपूर।
-कवि ने कहा, पृ. 31
 
कवि भाप इंजन से इस तरह संवाद कर रहा है, जैसे वह परिचित से आगे कुछ हो-दोस्त या सखा-जैसा कुछ। इस कविता के अंत की दो पंक्तियों में जीवन से दूर शब्द-युग्म भाप इंजन की जीवन से शनैः शनैः बढ़ती दूरी का यथार्थ जहां पाठक के भीतर एक उदासी को रचने में कामयाब होता है, वहीं अंतिम पंक्ति में सीटी भरपूर की तुक इसे स्मृति का स्थायी हिस्सा बनाते हुए अतीत की अनेक अविस्मरणीय स्मृतियों से भी जोड़ता है। वीरेन डंगवाल को यदि उनके समकालीन कवियों के साथ रख कर पढ़ें तो उनकी कविता की एक प्रवृत्ति विशेष रूप से रेखांकित की जानी चाहिए कि उनकी अनेक कविताओं में भाषा, शिल्प और अंदाज़-ए-बयां के स्तर पर जो खिलंदड़ापन मिलता है, संवाद और अंदाज़ दोनों में जैसी अनौपचारिकता दिखाई देती है; वह उनके अन्य समकालीनों के यहां बमुश्किल दिखाई देता है। भाषा में जितनी अनेकरूपता, स्थानीयता और मनमौजीपने का वे मस्त-मलंग की तरह इस्तेमाल करते हैं, उससे उनकी कविता की ख़ासियत ही नहीं, ख़ास कहन और नये ढब को भी देखा जा सकता है। ब्रज, अवधी, पहाड़ी, खड़ी बोली आदि तमाम भाषाओं शब्द उनके यहां जिस सहजता से आते हैं, उससे उनकी भाषिक क्षमता और जन संवाद-क्षमता का भी पता चलता है। गप्प-सबद में वे कहते हैं-
 
      देस बिराना हुआ मगर इसमें ही रहना है
कहीं न छोड़ के जाना है इसे वापस भी पाना है
बस न तू आँधी में उड़ियो। मती ना आँधी में उड़ियो।
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 109
नव पूँजीवादी व्यवस्था में सत्ता और पूँजी के गठजोड़ के कारण जिस तरह आम आदमी बिल्कुल हाशिये पर चला गया है उसके कारण यह अकारण नहीं है कि अपना ही देस उसे अब बिराना लगने लगा है। लेकिन इस वज़ह से उदास और निराश होकर कवि पलायन की बात करते हुए संधा-भाषा में कविता रचते हुए किसी रहस्यलोक की ओर नहीं जाता। बल्कि दृढ़ता के साथ यह कहता है कि बिराने देस से पलायन करके कहीं नहीं जाना है, बल्कि इसे वापस भी पाना है- जिसके लिए आवश्यक है कि आदमी स्थिर-चित्त रहे, समय और परिस्थितयों की आंधी में मति उड़े नहीं। कुछ नयी कसमें जब वीरेन डंगवाल खाते हैं; तो उनके खिलंदड़ और मस्तमौला अंदाज़ में छिपे व्यंग्य-बाण की तुर्शी देखते ही बनती है-
      हल्दीराम भुजिया की कसम
रिलायंस के तेल की कसम
प्रमोद महाजन की कसम
आज दिन काँच के गिलास की तरह बिल्कुल साफ़ है और मेरी आत्मा निष्पाप।
मैंने घर में झाड़ू भी लगायी है खुशी-खुशी।
                                                               -वही, पृ.110     
सुप्रसिद्ध कथाकार और हिंदी के सफलतम सोप ओपेरा लेखक मनोहर श्याम जोशी ने एक स्थान पर लिखा है कि कई लोग बहुत गंभीरता से बहुत फूहड़ और हास्यास्पद बात करते हैं, जबकि कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो सहज और अनौपचारिक तरीके से से काफी गंभीर बातें कह जाते हैं। जिसके कारण गंभीर बातों की ग्राह्यता आसान हो जाती है। ऐसे लोग महानता और गंभीरता को अपने व्यक्तित्व पर ओढ़ने-बिछाने की चीज़ नहीं समझते, सहजता से जीवन जीने में यकीन करते हैं। वीरेन की पूरी काव्य-यात्रा इस बात की ताईद करती है कि मनुष्य की स्वभावगत सहजता, अनौपचारिकता और खिलंदड़पने को उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कविता दोनों पर हावी नहीं होने दिया। जबकि उनके अनेक समकालीन कवि इस चीज़ से स्वयं को नहीं बचा पाए। उनकी निराली फ़रमाइशें तो देखिये कि हर जानवर से उसका स्वभावगत गुण अपने लिए चाहते हैं, लेकिन सियार से उसका स्वभावगत गुण कवि को नहीं चाहिए। आख़िर शायरी इश्क से मुमकिन होती है, अक्ल से नहीं, सो कवि सियार को दूर से ही नमस्कार करके कहता है कि अपनी अक्ल अपने पास ही रखो, मुझे बख़्शो-
कुत्ते मुझे थोड़ा-सा अपना स्नेह दे
गाय ममता भालू मुझे दे दे यार,
शहद के लिए थोड़ा अपना मर्दाना प्यार
भैंस दे थोड़ा बैरागीपन बंदर फुर्ती
अपनी अक्ल से मुझे बख़्शे रखना यार सियार।
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 85 
कार्ल मार्क्स ने कविता की संजीदगी और संवेदना को लेकर कहा था कि जहां भी मनुष्यता संकट में होती है, वहां कविता में उस संकट की ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति होती है। मार्क्स के इस प्रतिमान पर देखें तो वीरेन की कविता मनुष्यता के संकट की ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति को संभव बनाने वाली कविताओं का सफल उदाहरण कही जा सकती हैं। जहां आम जन की तकलीफों, दुश्वारियों, सत्ता की दुरभिसंधियों, धर्म की अमानवीय कार्य-शैली के साथ-साथ रागात्मक अनुभूतियों की सहज अभिव्यक्ति पूरी सफलता से अभिव्यक्त हुई है। दुःख के बारे में वीरेन कहते हैं-
      अंधेरे में भी पहचानी जा सकती है
दुखी आदमी की आवाज़
नकली दुखी आदमी की आवाज़ में
टीन का पत्तर बजता है
मसलन मारे गए लोगों पर
राजपुरुष का रुंधा हुआ गला।
-कवि ने कहा, पृ. 28
भाषा कवि का बसेरा होती है, जिसकी विविधवर्णी छवि, पूरी शक्ति और सौंदर्य का दोहन करते हुए वीरेन डंगवाल ने जैसी कविता संभव की है उससे गुज़रते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि उनके शब्द और कर्म के बीच कोई फांक नहीं है। उनकी सहजता, अनौपचारिकता और अकुंठ भाषा उनकी बड़ी विशिष्टता के रूप में सामने आती है, जबकि उनके अनेक समकालीनों के यहां काव्य-भाषा, अंदाज़-ए-बयां आदि के स्तर पर एक अज़ीब-सी संश्लिष्टता, असहज गंभीरता दिखती है। इस वज़ह से कविता की ग्राह्यता और अभिव्यक्ति की सहजता दोनों प्रभावित होती है। किसी भी रचना की संवाद-क्षमता उसकी सहज अभिव्यक्ति से संभव होती है और संवाद क्षमता से रहित रचना और चाहे जो दावे कर ले, पठनीयता के मामले में पिछड़ जाती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि रचना की पठनीयता उसकी उत्कृष्टता की कुंजी है, बल्कि यह है कि उत्कृष्ट रचना यदि अपने आगोश में पाठकों को बांध भी न सके तो उसकी प्राथमिक गुणवत्ता ही संदिग्ध होने लगती है। वीरेन डंगवाल ने अपने आत्मसंघर्ष से इस मोर्चे पर फ़तह हासिल की है। उन्होंने अपने लिए ऐसी भाषा चुनी है, जिससे गुजरते हुए पाठकों को अपनेपन के साथ-साथ सहज संवादप्रियता का भी अहसास होता है। दूसरी ओर उनकी जन-आबद्धता का आलम यह है कि जहां भी मनुष्यता संकटग्रस्त दिखी है, वहां उनकी कविता ने सार्थक और कारगर हस्तक्षेप किया है। 
(बनास जन से साभार)
***
पंकज पराशर

सम्पर्क-

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202 002 (उत्तर प्रदेश)
फोन-+9196342-82886.

पंकज पराशर की दस कविताएँ

पंकज पराशर


इस समय के युवा आलोचकों में पंकज पराशर अपना काम चुपचाप लेकिन बखूबी कर रहे हैं. बेहतर आलोचक होने के साथ-साथ पंकज एक संवेदनशील कवि भी हैं. कवि जो आस-पास की घटनाओं को गौर से देखता ही नहीं, शिद्दत से अपने अन्दर महसूस करता है. कई बार अपने को ठगा महसूस करता है बिल्कुल उन आम लोगों की तरह ही जो अपने को हर कदम पर ठगा हुआ पाते हैं. इसे महसूस करने वाला ही तो आजिज आ कर यह पूछ सकता है – ‘मैं पूछता हूं सेठों, भाई लोगों से और दाँत निकाले नेता लोगों से/ कहाँ है मेरा देश, कौन है मेरे जीने के अधिकारों का पहरूआ?’ शिल्प के स्तर पर भी एक सधाव पंकज की कविताओं में दिखाई पड़ता है. यह सधाव अतिरिक्त सजगता की वजह से नहीं अपितु कवि द्वारा अपनी कविता को जीने और बरतने की वजह से है. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं पंकज पराशर की नयी कविताएँ.     

पंकज पराशर की दस कविताएँ
खेत
कितनी हत्याएँ हुई कितने काग़ज हुए स्याह-सफेद
इस महाभारत में दोनों घरों के आठ जन रहे खेत

कोई भागा दिल्ली कोई पंजाब कोई गया पूरब मुलुक बंगाल
पीछे-पीछे भागती रही पुलिस गिरफ्तारी का वारंट लिए
कुर्की-जब़्ती में चला गया वह भी
जो कुछ मिला था खेत से

बीजों की बाट जोहता हुआ खेत रहा वहीं का वहीं
खेतिहर की आस में खेत से जंगल में बदलते हुए  

जमीन से इतना लगाव और मनुष्य से इतना अलगाव!
मैंने देखा कुरुक्षेत्र की जीत हिमालय की ओर प्रस्थान कर रही थी  

खेत के पीछे खेत होते परिवार के दुर्योधनो-युधिष्ठरो-
दाव-पेंच सत्य-असत्य नीति-अनीति तमाम दाव-पेंचों से विजयी होकर
जब लौटोगे इन खेतों पर सांझ के अंधेरे में तो तुम्हें
खेत के पीछे खेत रहे परिजन बेतरह याद आएँगे
और क्या जाने इस विजय का रास्ता भी हिमालय की ओर मुड़ जाए!                                 
फसल
जो फसल उगाना नहीं जानते वे उगाते हैं हथियार
फिर हथियारों से लूट लाते हैं खेतों में उगी फसल।

कपास
जिस सफेदी के पीछे घर भर के चेहरे हो गए सफेद
और दस्तावेजों पर अंगूठा लगाते-लगाते स्याह हो गया भविष्य
उस कपास की सफेदी बारिश में मलिन हो रही है

मोल-तोल की दुनिया में तोल कर बोलना तो जानता है
मोल करना नहीं जानता किसान चुपचाप सहता हुआ
कीटनाशकों से नाश करता स्याह भविष्य के सफेद कर्जों को।

बाढ़

बाढ़ जब आती है शहर में तबाही के तमाम हरबे-हथियारों के साथ 
तो बचने की पूरी छटपटाहट के साथ डूबने लगती हैं-
गाय-बैल मुर्गे-मुर्गियां कुत्ते बिल्ली अपने तईं पूरी कोशिशों करने के बावजूद

जब कभी शहर में आती है बाढ़ तो पानी में गिरे लोहे की तरह
बहुत तेजी से डूबती है मानवता पूरी निर्लज्जता के साथ

डूबती हुई ज़मीन पर खड़ा इनसान देखता है आसमान की ओर
जिसकी कृपा से जल-थल हुई धरती और डूबती चली जाती है
आसमानी कृपा-जल से

अल्ला मेघ दे पानी दे की पुकार सृष्टि के अंतिम छोर तक चली जाती है 
पानी बीच मीन पियासी की तरह
दो घूँट पानी के लिए ताकते आसमान की ओर

बाढ़ के जाने के बाद लौट आते लोग
लौट आती हैं चीजें धीरे-धीरे घरों में
मगर उस मरे हुए कुत्ते की लाश कांटे की तरह चुभती रहती है
नींद भरी आंखों में जब रात के सन्नाटे में कुत्ते तक नहीं भौंकते
और बर्बादी की गंध में लिथड़े हुए लोग जागते रहते हैं सुबह तक
सोने की कोशिश में करवटें बदलते हुए। 

टिकट 

सुबह से खड़े-खड़े सिर पर आ गई धूप 

तब कहीं पहुंच सके टिकट खिड़की तक


नोट गिनते हुए बहुत सफाई से एक नोट नीचे गिराते
डपट कर पूछा टिकट बाबू ने-कहां का टिकट?
-अमरितसहर बाबू जी, जनसेवा से अमरितसहर

सुबह से खड़े हैं लाइन में एक दाना नहीं डाला मुंह में
बाबू ने फिर डपटा जोर से-सौ रुपये कम हैं
सौ रुपये और ला जल्दी से देहाती भुच्च,
चले आते हैं मुंह उठाए न जाने कहां-कहां से

दस रुपये सैकड़ा सूद की दर से मिला वह नोट
वज्र की तरह गिरा उसके कलेजे पर
वह वहीं गिरा जैसे तरु गिरा हहाकर
कुल्हाड़ी से कटने के बाद।

मां के निधन के बाद गाँव
जहां पहुंचते ही भूल जाता था रास्ते की थकान
इस बार यही भूल गया कि यह वही गांव है
जहां की धूल-मिट्टी से पोषित हुआ यह शरीर

अब गांव में बहुत कम रह गए हैं लोग 
कुछ कम बची है संबंधों की उष्मा
कम हुई है मनुष्यता के प्रति आस्था
बहुत कम बचा है लोगों से लोगों का सरोकार
और अब कम है लोगों से लोगों का संवाद,

लेकिन मनुष्यों की मनुष्यता भले कम हुई हो
लेकिन पशुओं की पशुता अब भी है अक्षुण्ण

अब चितकबरी गाय की ही कथा सुन लीजिए-
जिसकी सानी में जब तक नहीं मिलाती थी मां दो चार-मुट्टी आटा
और नहीं फेरती थी पीठ पर दो-चार बार हाथ
वह मुंह उठाए खड़ी रहती मां के इंतज़ार में, 
अब इतना ही खाती है कि बस खड़ी है-
डबडबायी आंखों से कहते हैं पिता
मिनट-मिनट पर आंगन की ओर मुंह उठा कर करती है-
…बां…बां…बां…

…और ससुरा यह झबड़ा कुत्ता भी कुछ कम पाजी नहीं
जिसे बरसों से आदत थी मुट्ठी भर भात और दो-चार रोटियों की
जो उसे मिलता रहा बिला-नागा जब तक जिंदा रही मां

अब कुछ भी हो वह नहीं लपकता खाने पर
न भौंकता है उस तरह ऊंची आवाज में 
रोज रात के तीसरे पहर उठाता है रुदन की तान
जिसे डांटते हुए कांप जाते हैं पिता किसी अनहोनी की आशंका से 

मां कहती थी-घर बनाता है पुरूष मगर बसाती है स्त्री
जिसकी उपस्थिति में पुरुष नहीं जान पाता स्त्री ही होती है घर

लोगों ने बहुत जल्दी कर लिया कलेजे को पत्थर
बहुत जल्दी रम गए अपनी-अपनी दुनिया में
आखिर मरे हुए के पीछे कौन मरता है संसार में

मनुष्य होता है समझदार और व्यवहारिक
जो बिछुड़ते ही भूल जाता है जीवन भर का साथ,
मगर इन जानवरों का क्या करूं जो अपनी बां…बां…बां…
और रात्रि रुदन से चीरते रहे मेरा कलेजा

मैंने देखा मनुष्य भले अब नहीं रहे उतने मनुष्य 
लेकिन पशु अब भी हैं उतने ही अधिक पशु 

सो मैंने तय किया इस बार
कि पशुओं की खातिर भी मैं जाता रहूंगा गांव। 

  
ग़रीब रथ

पुष्पक विमान से उतरे लोकतंत्र के पहरुए दिन में दिखाते हैं सपने
ग़रीब अंतड़ियों से अमीर आवाज़ निकालने की कोशिशों में नाकाम
ग़रीब-जन मज़दूरों को गांठानुकूलित जनरल बोगियों के समानांतर
वातानुकूलित ग़रीब रथ में तीव्रगामी सफर के

जिनके सपनों को लील कर लौट गई कोसी
जिनकी आंखों में खचित हैं महज पांच बीस सात रूपये की दवा के बग़ैर 
दम तोड़ते बच्चों की अंतिम पुकार 
उनकी आंखों में वे बोते हैं-सहरसा-अमृतसर-सहरसा
वोटांतरण की आस में ग़रीब रथ में सफर के सपने 

बाढ़ से बचकर आया मनुष्य नहीं
उसकी आँखें बोलती हैं-चलो दिल्ली चलो पंजाब,
भैया जहां भी मिले पांच कौर भात
पकड़ो वह ट्रेन जिसका मासूल हो सबसे कम 
समय की कौन कमी भले बीत जाए रास्ते में ही दो रात

जिसने आंखों के सामने तबाह हुआ घर-दुआर, खेत-पथार
जिसके परिजनों का न हो सका अंतिम संस्कार
उसकी आंखों में कहां उग सकेगी सपनों की फसल!

पैंतीस किलो के पिता से पूछता है मानव कंकालवत बच्चा
किधर बंधेगा ग़रीब रथ का इंजन-घोड़ा
किधर फहराएगा गाट बाबू लाल-हरा झंडा
शीशमहल बने गरीब रथ से कैसे बुलाओगे पूड़ी-सब्ज़ी वाले को
हाथ निकाल कर खिड़की से बार-बार

ग़रीब रथ के अमीर बोगियों में सवार बाबू-भैयों का दूर तक
पीछा करती हैं शीशमहल-सरीखे बोगियों में बैठ पाने की हसरतें
और आश्वासनी चाशनी में फंसी मक्खी की तरह
फड़फड़ा  कर शांत हो जाती हैं।

मरण जल
रात एक नदी की तरह बह रही है
और बढ़ती जा रही है अंधेरों की बाढ़ 
लगता है झींगुरों के अलावा और कोई नहीं है गांव में,

उससे पूछो कि वह कौन है
जो मेरे गांव पर बुलडोजर चलवाता है
वह कौन है मुझे बताओ जो अपने हम्माम के लिए
बड़े-बड़े बाँध बनवाता है?

रात की इस नदी में बार-बार गूँजती है
उस आदिवासी औरत की आवाज़
जिसके मुँह में जब आवाज़ आई तो कहने को
कुछ भी नहीं बचा उसके पास
जो कुछ था वह देश की जम्हूरियत की भेंट चढ़ गया

जिसका देश शहर नहीं जंगल है 
उसे नगर में तुमने जगह नहीं दी
और जंगल से विस्थापित करके बन बैठे माई-बाप,

किसने तुम्हें ये हक दिया कि तुम मुझे सभ्य बनाओ
मुझे जीना सिखाओ
जैसे तुम हो सभ्यता की साबुन और तहज़ीब के अलंबरदार

मेरा बेटा जब मरा तो उसके हाथ में तुम्हारा ही झंडा था
मेरे बाप को जो फाँसी हुई वह जुर्म तुमने किया था
और मैं विधवा आज इसलिए हूँ कि मेरे पति ने
तुम्हारा ज़रख़रीद गुलाम बनने से इनकार कर दिया था

तुम्हीं बताओ तुम्हारे लोकतन्त्र को और क्या-क्या चाहिए मेरा? 
मेरी आँखें, मेरा गुरदा, मेरे स्तन, मेरी जाँघें
एक जंगल की औरत पूछ रही है तुमसे
विकास के अलंबरदारों और लोकतंत्र के पहरुओं से 
     
अफसोस, मेरे पूरे वजूद में लेकिन कुछ भी नही बचा है अब
सिवाए मरण जल के और कुछ नहीं!

सब हँसता है अपुन को देख कर
ये कायकू कैता है मेरे कू बोलने का नइ
अपुन नइ बोलेंगा तो और कोन बोलगा मेरे वास्ते
तू इदरीच आके मेरे कू जास्ती बोलने से रोकता है भिडु
कि ये साला भाई लोग जरूर खल्लास करेगा मेरे को किसी दिन

ये साले भँडुवे ठुल्ले रोज आकर वसूलते हैं अपना हिस्सा
और फिर भी दाँत दिखा के कैसा एहसान दिखाता है नेता के माफिक
भाई तो कभी भी आ जाता है हफ्ता वसूलने पूरे लश्कर के साथ
अपुन कैसा चूतिया के माफिक खाली देखता रह जाता है,

ये भड़ुँवागिरी तो भिडु मरवाने से भी बुरा है
मगर सेठ लोग जो साला मार-मार के लोगों को माल बनाता है
और कमाठीपुरा में अपुन लोगों पर धौंस दिखाता है
कभी पोलिस का तो कभी नोटों के बंडल का ताबड़तोड़

ये जो पेज थ्री पार्टियों में डीलिंग करते हैं बड़े-बड़े धंधों का
हार्लिक्सी नस्ल की लौंडियों को पेश करके रोशनी के भीतर के अंधरे में
सेठ लोग ये साला बड़ी-बड़ी फैक्ट्री चलाता, पैसा बनाता और इज्जतदार हो जाता है
भंडुवागिरी कर के वह साला समाज और सरकार दोनों का बाप बन जाता है

अब तो हमारा यह सरकारी और सामाजिक बाप
कमाठीपुरा को उजाड़ने का ले आया है आर्डर
चलाएगा बुलडोजर और साफ करके खेत बना डालेगा हमारी खोली को
जहाँ बनने वाले बड़े-बड़े मॉल में आएंगी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में
बड़े-बड़े सेठों के घर में सप्लाई की जाने वाली हाई क्लास की सोशलाइटें

हमारा काम ताबड़तोड़ करेंगे सेठ लोग बिल्कुल पेशेवर की माफिक
दस पेटी, बीस पेटी माल इधर से उधर होगा मिनटों में
अपुन गटर के कीड़े की माफिक कुलबुलाते हुए जीने के लिए भी
गिड़गिड़ाता रह जाएगा और आक्खा मुंबई से बुहार कर फेंक दिया जाएगा

हमारा कौन-सा देश है भिडु?
साला तुम भी नहीं बोलता कुछ

वह देश ढूँढ़ कर ला दे मेरे कू सारे जहाँ से अच्छा गाता है
बच्चा लोग म्यूनिस्पेलिटी के स्कूल में
अपुन को न कोई जीते जी जीने देता न मरने पर श्मशान में जगह देता
जिंदगी भर साला हरामी, आवारा सुन-सुन कर लात खाते हुए जीना….

मैं पूछता हूं सेठों, भाई लोगों से और दाँत निकाले नेता लोगों से
कहाँ है मेरा देश, कौन है मेरे जीने के अधिकारों का पहरूआ?

बोलता कोई नहीं, साला सब हँस कर निकल जाता है
अपुन को अकेला चीख़ता छोड़ कर।

बाजार-हाट
सावन-भादों की बारिश में धान रोपते हुए लगनी तक भूल गया इस बार
इतनी उमर हुई अभी तक नहीं देखी कभी
ऐसी वर्षा और ऐसा समय विकराल-
कहते हैं पिता विगत समय से त्राण पाने का निःश्वास छोड़ते हुए

किस तरह की मेड़ों की रखवाली किस तरह लाया ब्लैक में उर्वरक
किस तरह की है जन-मज़दूरों की चिरौरी जी ही जानता है
किस तरह खलिहान तक पहुंची है फसल

तीन दिनों से चिरौरी कर-करके हार गया धान लिवालों के
हर बनिये से पूछा हर बाज़ार से गुज़रा हर ख़रीदार तक पहुंचा
बाज़ार का तलबग़ार हूं लेकिन ख़रीदार नहीं बिकवाल हूं
किसी तरह ये धान बिके तो प्राण जुड़े

बाज़ार को चाहिए दस रूपये किलो हमारा धान
साढ़े नौ रुपये किलो हमारा गेहूं मिट्टी के मोल गन्ना
बाज़ार को चाहिए हमारा अन्न हमारा ख़ून-पसीना
हमारा जीना हमारा होना सब कुछ चाहिए बाज़ार को

बाज़ार को चाहिए कुछ ख़रीदने के लिए आया हुआ ख़रीदार
अपने माल की कीमत सुन कर असहज किसान
नहीं चाहिए बाज़ार को।

सम्पर्क-
ए-203, ग्रीन पार्क अपार्टमेंट,
पो. देवी नगला, क्वार्सी-एटा बाईपास रोड,
अलीगढ़-202001 (उत्तर प्रदेश) 

फोन- 09634282886

ई-मेल : dr.ppamu@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

भारत यायावर की किताब पर पंकज पराशर की समीक्षा


हिन्दी आलोचना के जीवित किंवदंती बन चुके नामवर सिंह के जीवन पर भारत यायावर की हाल ही में एक किताब आई है – ‘नामवर होने का अर्थ’. इस किताब की एक आलोचकीय पड़ताल की है. युवा कवि-आलोचक मित्र पंकज पराशर ने. आइए पढ़ते हैं पंकज की यह समीक्षा.
   

मुझमें ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
पंकज पराशर
उम्र के इस पड़ाव पर भी नामवर जी हिंदी में हर जगह मौज़ूद होते हैं। जहां मौजूद होते हैं वहां तो वे चर्चा/कुचर्चा/सुचर्चा इत्यादि के केंद्र में होते ही हैं, जहां वे भौतिक रूप से मौज़ूद नहीं होते वहां भी उनके अफ़साने पहले से उनकी नुमाइंदगी कर रहे होते हैं। …मुझसे पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए की मानिंद! जिस शख़्स की वे बात करते हैं वे अक्सर खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन की तरह अपने को नामवरी नज़र से देखे जाने की कथा-वाचन में मुब्तिला मिलते हैं। जिनकी ओर सायास या अनायास उनकी नज़र नहीं जाती, वे नामवर-(कु)चर्चा में ऐसी-ऐसी चीजें ढूंढ़कर ले आते हैं, जिससे हिंदी लोकवृत्त में नामवर की क्लासिकल किस्म की निंदा सहज संभाव्य हो जाती है। वे कुछ कहें तो विवाद, कुछ न कहें तो विवाद! किसी वाद की बात करें तो सहज ही विवाद, कभी संवादकी इच्छा से कुछ कहें तो भी विवाद। किसी प्रतिबद्ध रचनाकार की उत्कृष्ट रचनात्मकता पर रीझकर कुछ कहें तो पार्टीलाइन पर प्रशंसा करने के आरोप, किसी कलावादी किस्म के रचनाकार की रचना पर दिल आ जाए तो प्रगतिशील छड़ीदार-मुलगैन बेचैन! न यों कल, न वों कल। वे पॉलिमिक्स के उस्ताद हैं, वे राजनीति करते हैं, वे आए दिन किसी को दोयम दर्जे कवि को दूसरा मुक्तिबोध बता देते हैं आदि-आदि। कमाल यह है कि यह सब वे कह तो देते हैं, लिखते नहीं। बकौल प्रेमचंद बोलने से ज़बान भले न कटती हो, लेकिन लिख देने से हाथ जरूर कट जाता है। मैंने नत होकर बार-बार सोचा है कि आखिर नामवर जी में ऐसा क्या है कि उनके कट्टर-से-कट्टर आलोचक भी ये कहने का साहस नहीं जुटा पाते कि वे कुछ नहीं जानते, या उनको कुछ नहीं आता-जो कि हर दूसरे आलोचक के बारे में लेखकगण अक्सर कहते हुए पाए जाते हैं। 

मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर हैः हुस्ने फ़रोग़े शम-ए सुख़न दूर है असद/ पहले दिले गुदाख़्ता पैदा करे कोई…यकीन मानिए, इसके बिना शायरी ही नहीं, आलोचना भी असंभव है। अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाए बगैर न बेहतर कविता संभव है, न बेहतर आलोचना। ज़माने से दो-दो हाथ वही लेखक कर सकता है जिसके पास वाकई दिले गुदाख़्ता हो। नहीं तो हर भाषा में बहुतेरे रचनाकार कई बार तो अपने जीते-जी ही अप्रासंगिक हो जाते हैं, मगर पश्चिमी लेखकों की तरह ईमानदारी से यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि उनके पास जितना देना था दे चुके, अब कुछ बचा नहीं है। जितना लिख सकते हैं, उतना लिखकर ईमानदारी यह स्वीकार कर लेते हैं कि उनके पास अब लिखने को कुछ नहीं बचा। रोमांटिसिज़्म के बड़े पैरोकार विलियम वर्ड्सवर्थ ने निधन से काफी पहले ही लिखना छोड़ दिया था और इधर जीवित रचनाकारों में वी.एस.नॉयपाल ने ईमानदारी से स्वीकार कर लिया कि उन्हें जितना लिखना था वे लिख चुके, अब और नहीं लिख सकते। ऐसी सूरत में हिंदी में लेखक साध चुके शिल्प, भाषा और विषय को लेकर निरंतर स्वतोव्याघात और पिष्टपेषण में लगे रहते हैं। जिससे हिंदी का भला होता हो न होता हो, लेकिन पुस्तकों की भीड़ में सार्थक और निरर्थक में भेद करने का पाठकों का विवेक जरूर प्रभावित होने लगता है।   
नामवर जी अपनी चूक को स्वीकार करने वाले आलोचक हैं। समय के साथ उनके विचारों में यदि कोई परिवर्तन आया, तो वे उसे स्वीकार करके नई दृष्टि से सोचने के हामी आलोचक हैं। कुछ ही वर्ष पहले अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बिल्कुल मुक्त मन से यह स्वीकार किया था कि अमर कथा-शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की प्रतिभा को पहचानने में उनसे चूक हुई। रेणु ने आगे चलकर यह साबित किया कि वे कितने बड़े पाए के लेखक हैं। पर जिसकी पहचान उन्होंने शुरू में ही की, उसे बाद में कोई कमजोर या दोयम दर्जे का रचनाकार साबित नहीं कर सका। न निर्मल वर्मा, न मुक्तिबोध कोई आगे चलकर कमजोर लेखक साबित नहीं हुए। पर यह देखकर अजीब लगता है अन्य आलोचकों ने जिन लेखकों को महानतम रचनाकारों की पंक्ति में रखकर उन्हें उनसे भी बड़ा सिद्ध करने की कोशिश की, उन्हें इतिहास का पहिया बेहद निर्ममतापूर्वक रौंदकर आगे बढ़ गया और आज उनका नामो-निशां तक बमुश्किल मिलता है। कहना न होगा कि समय से बड़ा न्यायाधीश शायद ही कोई होता हो और उसकी अदालत में जो जितने का हकदार होता है, उसे उतना ही प्राप्त होता है। कोई आलोचक कुछ समय तक किसी को उठा या गिरा सकता है, बाद में मामला जब समय की अदालत में पहुंच जाता है, तो पासंग और डंडीमार तरीका बहुत पीछे छूट जाता है।
 
नामवर जी ने अपना काम अपभ्रंश साहित्य से शुरू किया था, मगर बाद में क्रमशः वे समकालीन रचनाशीलता की ओर बढ़ते गए। जबकि समकालीनता से शुरू करने वाले कई आलोचक क्रमशः पीछे की ओर लौटते-लौटते इतना पीछे चले गए कि कभी दोबारा समकालीनता की ओर लौट पाना उनसे मुमकिन न हुआ। इतिहास की ओर लौटते-लौटते ऐतिहासिक तो हुए, समकालीन और सार्थक रचनाशीलता के पैरोकार न हुए। जबकि नामवर पढ़ाकू तो बड़े हुए, लिक्खाड़ बड़े न हुए। नामवर लिखते नहीं बस बोलते हैं, पिछले कई सालों से वे बोली की कमाई खा रहे हैं, लिखना तो उनसे छूट ही गया आदि-आदि जुमलों से उन पर तोहमत की बारिश करने वाले लोग अब चुप हैं, जब पिछले दो-तीन वर्षों में उनकी सात-आठ किताबें प्रकाशित हुई हैं। हालांकि यह उनके लिखे की नहीं, बोले हुए की किताब है, मगर बोले हुए कि भाषा ऐसी है कि लिखे हुए की भाषा अपनी फूहड़ता पर सिर धुनें। एक भाषण को तो इधर मैंने अंग्रेजी से ढूंढ़कर अनुवाद किया जिसके मूल टेप को पाने में असफल होकर अनुवाद ही एकमात्र विकल्प बच गया था और स्वयं नामवर जी उस व्याख्यान को भूल चुके थे। लगभग एक मिशन की तरह देश के कोने-कोने में उन्होंने बहुत तैयारी के साथ सुचिंतित तरीके से व्याख्यान दिए हैं। इतने कि मेरा अनुमान है कि जगहों और विषयों के नाम उन्हें याद न होंगे। आज से लगभग चौदह-पंद्रह साल पहले पटना में उनका एक व्याख्यान हुआ था, जिसका विषय था शताब्दी का संक्रमण। साहित्य से इस विषय का दूर-दूर तक कोई संबंध नज़र नहीं आता, मगर नामवर जी ने जिस अधिकार और तैयारी के साथ लगभग एक-सवा घंटे तक वह व्याख्यान दिया, वह मुझे आज भी याद है। पूरे हॉल में पिन ड्रॉप साइलेंस तारी रहा और लोग बिल्कुल सम्मोहित तरीके से उन्हें सुनते रहे। मुझे नहीं मालूम कि उनका वह व्याख्यान वहां टेप हो रहा था या नहीं या उसका संकलन कहीं हुआ है या नहीं, पर मेरा अनुमान है कि वह व्याख्यान पटना के लोगों को आज भी याद होगा। हालांकि उनकी अधिकांश चीजें इधर संकलित हो गई हैं, मगर उन्होंने जितने व्याख्यान दिए हैं, उस परिमाण के हिसाब से ऐसा लगता है अभी भी कुछ-न-कुछ असंकलित रह गया हो।
     छियासी वर्ष की आयु पूरी कर चुके नामवर जी लगभग छह दशक से आलोचना में सक्रिय हैं। इतने व्यापक कालखंड में उनकी निर्मिति, उनके जीवन-संघर्ष और रचनात्मक संघर्ष की आलोचकीय पड़ताल करना कोई आसान काम नहीं है। मगर इधर हाल में तीन सौ चवालीस पृष्ठों में भारत यायावर ने नामवर होने का अर्थनामक एक पुस्तक लिखी है, जिसमें बाकायदा उनके बारे में साक्ष्यों, लेखों और अन्य सूचनाओं के आधार पर उन्होंने उनके आलोचकीय व्यक्तित्व की निर्मिति को लक्षित करने की कोशिश की गई है। फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली और महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली का संपादन कर चुके भारत यायावर ने इस पुस्तक हेतु सामग्री जुटाने में काफी श्रम किया है। लेकिन स्पष्टीकरणशीर्षक से पुस्तक की भूमिका में वे बिल्कुल साफगोई से लिखते हैं, प्रस्तुत पुस्तक नामवर सिंह के जीवन एवं साहित्य का एक पार्श्वचित्र या प्रोफाइल है। इसे सही मायनों में जीवनी भी नहीं कहा जा सकता। कोशिश यह रही है कि उनके जीवन एवं साहित्य का एक सामान्य परिचय इस पुस्तक के द्वारा प्रस्तुत हो जाए। बहरहाल, पुस्तक के बारे में कुछ सूचनात्मक बातें करके आगे बढ़ा जाए। आलोचक नामवर सिंह का महत्व से शुरू करके उन्होंने कुछ लेखकों के वक्तव्य तक कुल पैंतीस लेखों में उनके व्यक्तिगत और रचनात्मक जीवन को पाठकों के सामने रखने का प्रयत्न किया है। 
तो पुस्तक पर बात पहले नामवर जी के नाम से ही शुरू करते हैं। नामवर नाम ऐसा है जो समाज में आमतौर पर न के बराबर सुनने में आता है। पुराने लोग तो प्रायः भगवान के नाम पर अपने बच्चों के नाम रखते थे। कुछ माता-पिता पवित्र धार्मिक स्थानों के नाम पर भी बच्चों के नाम रखते थे। निराला का नाम उनके पिता ने सूर्जकुमार तेवारी रखा था, जिससे बाद में वे सूर्यकांत त्रिपाठी हुए और निराला उपनाम तो बाद में मिला/रखा। तो नामवर का नाम नामवर किसने और कैसे रखा इस जिज्ञासा को शांत करने की नीयत से भारत यायावर ने उसकी गाथा बयान की है। पिताजी नाम रखा-रामजी। किंतु पड़ोस की एक महिला ने इनका नाम नामवर रखा। जब इन्हें रामजी कहकर बुलाया जाता तो रोने लगते और नामवर कहकर बुलाने से चुप हो जाते।(पृ.32) बाद में रामजी नाम रखने की उनके पिताजी की साध उनके दूसरे भाई का नाम रखकर पूरी हुई। नामवर जी से छोटे भाई का नाम रामजी सिंह है।
  
1948 ईस्वी में नामवर जी का पहला आलोचनात्मक लेख तुलसीदास पर छपा था, जिसे पढ़ कर शमशेर बहादुर सिंह ने भैरव प्रसाद गुप्त से कहा था, भैरव भाई, हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक नई प्रतिभा ने पदार्पण किया है। शमशेर ने नामवर की प्रतिभा को लेकर टिप्पणी करते हुए लिखा था, बहुत लोग लिखते हैं तुलसी पर। मगर इसमें ख़ास बात यह पाई थी कि बातों को थोड़े में कहा गया था, हालांकि बातें बहुत-सी कही गई थीं, और तर्कसंगत, स्पष्ट शैली लेखक के व्यवस्थित अध्ययन का पता देती थी। साथ ही यह भी स्पष्ट था कि यह विद्यार्थी पीछे नहीं, आगे के युग की ओर देख रहा है।(पृ.106) इस पुस्तक में भारत यायावर ने वस्तुनिष्ठ तरीके से नामवर जी के आलोचनात्मक लेखन की शुरुआत से लेकर आज तक उनके लेखन को सामने रखा है। 
   
उनके अनुज और सुप्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह ने गरबीली ग़रीबीऔर घर का जोगी जोगड़ा शीर्षक संस्मरण में नामवर जी के जीवन-संघर्ष, आर्थिक अनिश्चतताओं के बीच भी लगातार अध्ययन-मनन और आलोचकीय व्यक्तित्व के निर्माण काल का बहुत मार्मिक चित्रण किया है। संघर्ष के वे दिन उनके रचनात्मक रूप से उत्कर्ष के दिन भी हैं। जिसका जिक्र करते हुए काशीनाथ जी ने लिखा है कि उन दिनों नामवर जी सुबह लेख लिखने की शुरुआत करते और शाम तक लेख तैयार कर लेते। नामवर जी जब लोलार्क कुंड वाले मकान में वे रहते थे तब की उनकी जीवन-चर्या, अध्ययनशीलता और अकादमिक तैयारियों का जिक्र करते हुए काशीनाथ जी ने लिखा है कि अक्सर कर्माइकल लाइब्रेरी, बी.एच.यू. की लाइब्रेरी छान रहे होते थे। कभी संस्कृत साहित्य की किसी चीज पर बात करने के लिए किसी महामहोपाध्याय से बात कर रहे हैं। अद्भुत यह है कि नामवर जी की यह ज्ञान-पिपासा आज भी उसी तरह कायम है, जैसा उन दिनों था। मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान ने उम्र के अंतिम पड़ाव पर एक साक्षात्कारकर्ता के प्रश्न के उत्तर में कहा था कि काश! कभी एक सच्चा सुर लग जाता! जबकि तब तक उस्ताद बिस्मिल्ला खान न केवल कई रागों को पुनर्नवा कर चुके थे, बल्कि कई चीजें भारतीय शास्त्रीय संगीत को उनकी देन मानी जाती है। बनारस घराना की यह विनम्रता पंडित राजन-साजन मिश्र के यहां भी है-जहां साधना के चरम पर भी अहंकार और गर्वोक्तियों की कोई जगह नहीं है। लेकिन दिले गुदाख़्ता के धनी लेखकों की गर्वोक्तियां हर मामले में अजीब ही नहीं, सच्ची और स्वयं पर आत्मविश्वास से लबरेज लगती है, जिसे कबीर हम न मरैं मरिहैं संसारा कहते हैं और मिर्जा ग़ालिब करते हो मना मुझको कदमबोश के लिए/ क्या आसमां के भी बराबर नहीं हूं मैं कहते हैं। 
आलोचना शुरू करने से पहले नामवर जी ने अपनी रचनात्मक यात्रा कविता से शुरू की थी। उपनाम रखने का रिवाज था, सो उन्होंने अपना उपनाम रखा पुनीत। नामवर सिंहपुनीत की पहली कविता की अंतिम पंक्ति है-चढ्यौ बरतानिया पर हिटलर पुनीत ऐसे/ जैसे गढ़ लंक पर पवनसुत कूदि गौ। कवि पुनीत का जन्म के बारे में लिखते हुए भारत यायावर ने एक महत्वपूर्ण जानकारी साझा की है। जिस नामवर सिंह की आलोचकीय प्रतिभा का हिंदी साहित्य में लोहा माना गया वे बचपन के दिनों से ऐसे प्रतिभाशाली नहीं थे कि आप सहसा कह उठें होनहार बिरवान के होत चिकने पात। भारत याचावर ने लिखा है, 1940 ईस्वी में नामवर मिडिल की परीक्षा में बैठे और इतिहास के पत्र में शिवाजी पर इतना लंबा लिखा कि बाकी प्रश्न छूट गए और वे फेल हो गए। पुनः 1941 ईस्वी में मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। उनके पिताजी चाहते थे कि नामवर उन्हीं की तरह मिडिल के बाद ट्रेनिंग कर लें और प्राइमरी स्कूल में शिक्षक हो जाएं।(पृ.38) आज जब आम तौर पर पंद्रह साल की उम्र में बच्चे मैट्रिक पास कर जाते हैं, तब नामवर जी को जब आगे की पढ़ाई के लिए बनारस भेजा गया तो उनका नामांकन सातवीं कक्षा में हुआ। जुलाई 1941 ईस्वी में नामवर का नामांकन हीवेट क्षत्रिय स्कूल, बनारस में हो गया, किंतु कक्षा आठ में नहीं कक्षा सात में। अर्थात् पंद्रह वर्ष की उम्र में भी वे कक्षा सात में ही थे। कारण यह था कि ग्रामीण स्कूलों में पढ़ी हुई अंग्रेजी नाकाफी थी।(पृ.वही)
काशी को लेकर भारतेंदु ने बनारस में व्याप्त पाखंड, धूर्तता और ठगी को लेकर देखी तुमरी कासी लिखकर गंभीर व्यंग्य किया है। बनारस अपने आप में एक अद्भुत शहर है-तरह-तरह के मंदिर, गंगा के अनेक घाट, पंडे-पुरोहित और पाखंडी, पतली-पतली गलियां और सनातन काल से अपने पांडित्य, शास्त्रीयता के लिए प्रसिद्ध लोग। कोई भी रचनाकार जब किसी चीज या स्थान को संपूर्णता में देखता है तभी उसके साथ न्याय कर पाता है। काशी पर बहुत लोगों ने लिखा है, मगर ऐसे रचनाकार कम हैं जिनके लेखन में बनारस को लेकर पर्याप्त संतुलन भी हो। नामवर जी ने बनारस के बारे में लिखा है, काशी पंडे-पुरोहित और धार्मिक लोगों की है, किंतु उसमें कबीर और तुलसीदास की भी उपस्थिति है। उसी काशी में प्रेमचंद, प्रसाद हुए, इसलिए हमें भूलना नहीं चाहिए कि काशी केवल पुरातनपंथी शहर ही नहीं बल्कि उसके विरोधी लड़ने वाले विचारक भी हुए। उसी काशी में सारनाथ भी है और विश्वनाथ भी है। काशी में क्वींस कॉलेज है जो कभी अंग्रेजियत का गढ़ था और गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज हुआ करता था जिसमें संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान हुआ करते थे, जिसे अंग्रेजों ने बनाया था और वहीं मदनमोहन मालवीय जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित किया। वहीं बाबू शिवप्रसाद गुप्त और आदरणीय नरेंद्रदेव ने काशी विद्यापीठ स्थापित किया। उस काशी में आया तो एक ओर नागरी प्रचारिणी सभा और दूसरी ओर प्रगतिशील लेखक संघ था। एक तरह से कहूं तो काशी में तरह-तरह के मत-विचार और सह-विश्वास अस्तित्व में रहते थे।(पृ.41)
मनुष्य के सोच, व्यक्तित्व और जीवन-जगत के बारे में उसकी समझ और दृष्टिकोण के निर्माण में उसके गुरुओं की भूमिका बेहद अहम होती है। महज यह काफी नहीं कि कोई विद्यार्थी पढ़ने-लिखने में बहुत अच्छा है। यदि गुरू अच्छे मिल जाएं तो फिर क्या कहना! नामवर के जीवन-जगत के प्रति दृष्टिकोण के निर्माण में शुरूआत में उदय प्रताप कॉलेज, बनारस के अंग्रेजी के अध्यापक जे.पी.सिंह और हिंदी के अध्यापक मार्कण्डेय सिंह और जब वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय अध्ययन के लिए गए तो वहां आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि गुरुओं के सानिध्य में रहे। नामवर जी ने अपने गुरुओं को याद करते हुए कहते हैं, यदि गुरु के रूप में पंडित विश्वनाथ जी न मिले होते तो रीतिकालीन परंपरा की अनेक भाषिक रुढ़ियों की जानकारी से वंचित रह जाता। किशोरावस्था के ब्रजभाषा काव्य के अकाल परिचय को उन्होंने प्रत्यभिज्ञान में बदल दिया, जो आगे चलकर बहुत काम आया।(पृ.105) आचार्य केशव प्रसाद मिश्र अद्भुत प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। उन्होंने स्वाध्याय के दम पर बंगला, गुजराती, फारसी, पालि, जर्मन, लैटिन आदि भाषाओं में दक्षता प्राप्त की थी। वे 1928 ईस्वी में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए थे और 1941 ईस्वी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। इस पुस्तक की एक बड़ी ख़ूबी यह नोट करने लायक है कि जिस प्रकार अमृत राय ने प्रेमचंद को संपूर्णता में समझने के लिए कलम का सिपाही में प्रेमचंद के समय की राजनीतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक परिवर्तनों की गहराई से पड़ताल की है, ठीक उसी तरह भारत यायावर ने भी इस पुस्तक में नामवर जी की निर्मिति को सटीक रूप से समझने के लिए उनके गुरुओं, उनके शिक्षा संस्थानों और तत्कालीन परिवेश की गहरी पड़ताल की है। वे एक-एक ब्यौरे को ठीक से विश्लेषित करने के लिए उसकी बारीकी, उत्पत्ति और उसके इतिहास में जाते हैं। इस कड़ी में सौभाग्य से गुरु मिले नामक अध्याय में वे नामवर जी के गुरुओं की विद्वता और विशेषताओं का अच्छी तरह उल्लेख करना नहीं भूलते। 
वर्तमान में आधुनिकता पसंद हिंदी जमात में परंपरा और ख़ास तौर से साहित्यिक परंपरा को कुछ अधिक ही त्याज्य समझने का फैशन है। यह सोचकर बहुत अजीब लगता है कि कई बार लोग परंपरा को सिरे से ख़ारिज कर देने को ही आधुनिकता मान लेते हैं। हिंदी आलोचना की वह सारस्वत परंपरा आज लोगों को अत्यंत विनम्रतापूर्वक याद करना चाहिए जिसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रतिभा एंट्रेस पास होने या बी.ए., एम.ए., पी-एच.डी. जैसी डिग्रियों में महदूद नहीं की जा सकती थी। जिन्हें अपने समय में रीडिंग मशीन माना जाता था और तत्कालीन अंग्रेजी की पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक विषयों पर लेख लिखा करते थे, उन आचार्य रामचंद्र शुक्ल को उनकी वास्तविक प्रतिभा के कारण हिंदी अध्यापन जगत में उचित मान-स्थान से वंचित करना संभव न था। उस दौर में प्रतिभा की पूछ थी, डिग्रियों की नहीं। वरना ज्योतिष में महज शास्त्री किए हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा को उचित डिग्री के अभाव में विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद शायद नसीब न होता। स्वाध्याय और अध्ययन-अध्यापन के प्रति निष्ठा के कारण उन लोगों ने हिंदी आलोचना और उच्च स्तर पर हिंदी शिक्षण में अमूल्य योगदान दिया। आचार्य केशव प्रसाद मिश्र संस्कृत में धाराप्रवाह भाषण देते थे, दूसरी तरफ अंग्रेजी भी उनकी बहुत अच्छी थी। उन्होंने अंग्रेजी में कई निबंध लिखे थे। इंडियन एंटीक्वेरी में अपभ्रंश पर उनका एक शोधपूर्ण निबंध छपा था जिसकी प्रशंसा कई देशी-विदेशी विद्वानों ने की थी।(पृ.104) नामवर जी आचार्य केशव प्रसाद मिश्र को याद करते हुए लिखते हैं, वह बहुत सफल अध्यापक थे। एम.ए. में वह कामायनी पढ़ाते थे, भाषाविज्ञान और अपभ्रंश भी। बी.ए. में उन्होंने रसायन नाम से हिंदी की पुरानी व आधुनिक कविताओं का बहुत अच्छा चयन किया था। उनकी ही प्रेरणा से मैंने हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग नाम से एम.ए. के लिए लघु शोध-प्रबंध तैयार किया। उनसे मैंने शब्द-विवेक पाया। उन्हीं के मुख से मैंने पतंजलि का यह कथन पहली बार सुनाः एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्ग लोके च कामधुक् भवति। इस प्रकार गुरु के प्रसाद से मेरे हृदय में शब्द के प्रति श्रद्धा का भाव पैदा हुआ।(पृ.105)
भारत यायावर ने इस पुस्तक में नामवर के समकालीनों, सतीर्थों और हिंदी के विद्वानों के विचारों को यथास्थान जगह दी है। जिन दिनों नामवर जी हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अस्थायी प्रवक्ता के पद पर कार्यरत थे, उन दिनों नामवर जी की आर्थिक स्थिति, अध्ययनशीलता और शिष्य वत्सलता की चर्चा करते हुए डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है, वे नए-नए लेक्चचर लगे थे, टेंपरेरी। उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां थीं। कितनी तनख्वाह उनकी रही होगी उस वक्त-1954 में। वातावरण में नामवर जी के विरोध की भी गूंज थी। लोग तरह-तरह की बातें करते। टुच्ची और ओछी बातें। लेकिन नामवर जी हमारे हीरो थे। हम वही ठीक समझते जो वे हमें बताते। यह तो कोई नहीं कह सकता कि वे प्रतिभाशाली नहीं हैं। और उनके भाषण तब आज से भी ज्यादा कारगर होते थे। एक दिन अलस्सुबह उनके घर पहुंचा। मुझे होस्टल की फीस देनी थी। मैं इस अधिकार से उनके यहां पहुंचा कि उन्होंने ही मुझे होस्टल में रहने के लिए कहा था। वे सो रहे थे। आंखें मींचते हुए उठे। मैंने कहा-मुझे फीस देनी है, मेरे पास पैसे नहीं हैं। उन्होंने बक्सा खोला। साठ रुपये निकाले, मुझे दिए-ले जाइए! और फिर सो गए।(पृ.195) यहां यह याद करना ग़ैर-मुनासिब न होगा कि जिस वक्त नामवर जी ने विश्वनाथ त्रिपाठी की सहायता की थी उस वक्त उनका विवाह हो चुका था, दोनों छोटे भाई बेरोजगार थे, गांव में पैसे की तंगी रहती थी और वे खुद स्थायी पद पर नहीं थे। लेकिन एक जरूरतमंद छात्र से जो वादा किया था, उसे निःसंकोच पूरा किया। बिना किसी तरह का चेहरे पर शिकन लाए हुए। तो ऐसे शिष्य वत्सल हैं नामवर!
सुप्रसिद्ध कथाकार और आलोचक विजयमोहन सिंह बनारस में नामवर सिंह के उन दिनों की अध्ययनशीलता को याद करते हुए लिखा है, उनके यहां मार्क्स, एंगेल्स आदि की पुस्तकें ही नहीं, क्रिस्टोफर कॉडवल, रैल्फ फॉक्स, जॉर्ज लुकाच आदि की पुस्तकें भी बिखरी रहती थीं, जिनका वे देर रात तक जागकर अध्ययन करते और नोट्स लेते रहते थे। टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट, एनकाउंटर, लंदन मैगजीन आदि पत्रिकाएं पढ़कर नई समीक्षा के आधार स्तंभों डॉन क्रोरैनसम, क्लिंथब्रुक्स, आइवर विंटर्स, एलेन टेट तथा ब्लैक मर आदि की पुस्तकें भी मंगवाते थे। उन्हीं के संपर्क तथा प्रेरणा से हमने उन्हीं दिनों इनके नाम ही नहीं सुने, बल्कि पढ़ने की शुरुआत भी की थी।(पृ.200) विजयमोहन जी की यह स्वीकारोक्ति नामवर जी की न सिर्फ गंभीर एकेडमिक तैयारी की सूचना देती है, बल्कि इससे यह भी पता चलता है कि नामवर जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अपने आचार्यों क्रमशः रामचंद्र शुक्ल, केशव प्रसाद मिश्र और आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की सारस्वत साधना की परंपरा को किस तरह और किस रूप में ग्रहण किया था। अपने समकालीनों की तुलना में आचार्य केशव प्रसाद मिश्र ने बहुत कम लिखा, इसके बावजूद आज भी लोग उन्हें बहुत श्रद्धा और प्रेम से याद करते हैं। इन आचार्यों ने जिस तरह अनेक भाषाएं सीखीं, अनेक भाषाओं के साहित्य का अवगाहन किया और अध्ययन के मामले में ज्ञान के किसी भी अनुशासन को व्यर्थ न समझा-क्या उस परंपरा को आधुनिकों और परंपरावादियों में से किसी ने उसी तरह निभाया?
  भारत जी ने प्रतिभा के दो स्वरूप साथ चल रहे थे नामक अध्याय में बताया है, 1955 ईस्वी में रामविलास शर्मा की पुस्तक आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना प्रकाशित हुई। उनका शुक्ल जी पर पहला निबंध साहित्य और लोक-जीवन नवंबर 1954 के नया पथ में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह, रांगेय राघव, धीरेंद्र वर्मा एवं शिवनाथ के आलोचना पत्रिका में प्रकाशित निबंधों से उद्धरण देकर उन्हें रामचंद्र शुक्ल विरोधी सिद्ध किया।(पृ.231) इस वाद-विवाद के दौर में नामवर जी की पुस्तक प्रकाशित हुई इतिहास और आलोचना। 1957 ईस्वी तक नामवर सिंह आलोचक के रूप में चर्चित हो गए थे और उनकी प्रतिभा के दो स्वरूप साथ-साथ चल रहे थे। एक कवि-मन और दूसरा तीक्ष्ण तर्क-वितर्क वाला आलोचक-मन। वह एक और मन रहा राम का जो न थका की भांति आरोप और विरोध उन्हें उनके उद्देश्यों से तनिक भी नहीं डिगा पाए। श्रीनारायण पांडेय को लिखे पत्र में नामवर जी ने अपनी निज-व्यथा को व्यक्त करते हुए लिखा है, जिंदगी वहां से शुरू होती है जहां से विरोध शुरू होते हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं-मेरे सीने की वे तमाम चोटें कह रही हैं जो पिछले सात-आठ साल के सधे प्रहारों में लगी हैं और जिनका घाव अब भी ताजा है। आरोप करने वालों को करने दें, क्योंकि जिनके पास करने को कुछ नहीं होता, वही दूसरों पर आरोप करता है। अपनी ओर से आप अधिक-से-अधिक वही कर सकते हैं कि आरोपों को ओढ़ें नहीं। आरोप ओढ़ने की चीज नहीं, बिछाने की चीज है-वह चादर नहीं, दरी है। ठाठ से उस पर बैठिए और अचल रहिए। (पृ.235)
उनके पूरे आलोचकीय और अकादमिक जीवन को देखकर लगता है जैसे विरोध और विवाद उनका पर्याय बन गया। लेकिन वे निराला के राम की तरह इस बात के लिए स्वयं को कोसते नहीं कि धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध। नौकरी के मोर्चे पर उनका बनारस, सागर और जोधपुर में विरोध हुआ और साहित्यिक मोर्चे पर दक्षिणमार्गी और परंपरावादियों की तो छोड़िये, वामपंथियों ने भी कम विरोध नहीं किया। सो कहीं जमकर रहना और जमकर लिखना बाधित होता रहा। नवंबर 1974 में जब वे भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में नियुक्त होकर आए तब उन्हें थोड़ा विश्राम मिला। यहां उन्हें काम करने के लिहाज से मनोनुकूल वातावरण और संसाधन मिला जिसके कारण उन्होंने हिंदी का जैसा पाठ्यक्रम तैयार किया, जैसी शिक्षण पद्धति विकसित की वह पूरे भारत में अपने ढंग का अनूठा पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति साबित हुआ। जेएनयू में उन्हें जब जरा-सा सुकून मिला और पढ़ने-लिखने का माहौल मिला तो उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना की परंपरा की गहराई से पड़ताल करते हुए पुस्तक लिखी दूसरी परंपरा की खोज। जो अपने ढंग की हिंदी की अकेली पुस्तक है। भारत यायावर की यह पुस्तक नामवर होने का अर्थ काफी डिटेल्स के साथ लिखी गई एक ऐसी पुस्तक है, जिसमें नामवर जी के बारे में अब तक की अद्यतन जानकारी ही नहीं, उनकी लिखी चीजों की आलोचकीय पड़ताल करने की कोशिश भी की गई है। बीच-बीच में कई स्थानों पर उनके कुछ ऐसे निष्कर्ष हैं जिनसे सहमत होना कठिन है-पर वादे-वादे जायते तत्वबोधः भी तो एक बड़ा सच है।

(‘बनास जन’ के जुलाई 2014 अंक से साभार)  

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पंकज पराशर


हमारे समय के कुछ युवा आलोचकों ने समकालीन कहानी पर बेहतर काम किया है। युवा आलोचकों में पंकज पराशर एक ऐसा ही नाम है जिन्होंने शिद्दत से इस काम को शुरू किया है। इसी क्रम में पंकज ने हमारे समय की चर्चित कहानीकार अल्पना मिश्र की कहानी ‘स्याही में सुरखाब के पंख’ पर यह विस्तृत पड़ताल की है. पिछली पोस्ट में आपने अल्पना के उपन्यास अंश पढ़े। इस पोस्ट में  पहली बार पर पढ़िए पंकज पराशर का आलेख ‘पितृसत्ता, स्त्री और समकालीन जीवन यथार्थ‘       
पितृसत्ता, स्त्री और समकालीन जीवन-यथार्थ
(संदर्भः अल्पना मिश्र की कहानी स्याही में सुर्खाब के पंख)


समकालीन कहानी पर यदि हिंदी आलोचना की गुरु-गंभीर और पारंपरिक भाषा में (जिसे उपहास में प्रायः प्राध्यापकीय आलोचना कहा जाता है और संयोग से यह लेखक भी प्राध्यापक नामक जीव ही है) बात शुरू की जाए, तो कुछ इस तरह शुरू कर सकते हैं-बीसवीं सदी के अंतिम दशक के उत्तरार्द्ध से हिंदी कहानी में जिन कथाकारों का प्रवेश होता है, उन्होंने उदारीकरण के बाद पैदा हुए नए जीवन-यथार्थ की संशिलष्टता को न केवल पूरी गहराई और संवेदनशीलता से पकड़ा, बल्कि हिंदी कहानी में नई कथा-भाषा की रचना भी संभव की। बीसवीं सदी के अंतिम दशक के पूर्वार्द्ध में अर्थव्यवस्था की पारंपरिक व्यवस्था को तिलांजलि, नई-नई तकनीकों के आमद और मुक्त बाजारवादी व्यवस्था ने अचानक शहरी और कस्बाई भारतीय मध्यवर्ग के जीवन और मानस दोनों को कंपायमान कर दिया। परिवर्तन की गति पहले के मुकाबले अधिक हो गई। राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ही नहीं, नैतिक और मानवीय मूल्यों की कसौटी और दृष्टि में भी परिवर्तन आया। यही वह दौर है जब हिंदी में दलित और स्त्री-विमर्श की शुरुआत होती है। जिसके बाद साहित्य के प्रतिमान और सौंदर्यबोध दोनों में बदलाव आने लगते हैं। नये जीवन-यथार्थ और संघर्ष की जैसी प्रामाणिक और ठोस अभिव्यक्ति उस दौर से शुरू हुई, वैसी पहले की रचनाओं में कम मिलती है। स्त्री और दलित-विमर्श की शुरुआत के साथ ही स्वानुभूति और सहानुभूति की कसौटी पर रचना के यथार्थ की प्रामाणिकता और अनुभूति की शुद्धता दोनों की आलोचनात्मक जांच-परख शुरू हुई। 
       

स्वानुभूति और सहानुभूति के मुद्दे को लेकर हिंदी आलोचना में थोड़ी तल्ख चर्चाएं भी हुई हैं, मगर यह बात अपनी जगह आज भी बदस्तूर कायम है कि दलितों के जीवन-यथार्थ और जीवन-संघर्ष की जैसी प्रामाणिक अभिव्यक्ति दलित कथाकारों के यहां मिलती है, वैसी ग़ैर दलित कथाकारों के यहां नहीं मिलती। क्योंकि मानवीय उदारता और साहित्यिक संवेदनशीलता के बावजूद वर्ण-व्यवस्था से संचालित समाज में हाशिये के दर्द को मुख्यधारा के लोग उस रूप में नहीं समझ सकते, जिसे उन्होंने सिर्फ बाहर से देखा है। लोहे का स्वाद लोहार नहीं, वह घोड़ा जानता है जिसके मुंह में लगाम है। बाढ़ग्रस्त गांव का जैसा चित्रण फणीश्वरनाथ रेणु ने ऋणजल-धनजल में किया है, वैसा प्रामाणिक चित्रण बाढ़ग्रस्त गांवों का हवाई सर्वेक्षण करके कोई शायद नहीं लिख सकता। वह उस संवेदना को पकड़ ही नहीं सकता कि नाव पर मेरा कुत्ता नहीं जाएगा, तो मैं भी नहीं जाऊंगा। मुसीबत में घनिष्ठतम सगे-संबंधियों और सहयोगियों तक का साथ छोड़ देने वाले आत्मकेंद्रित शहरी मानस में यह बात आ ही नहीं सकती कि मनुष्य तो मनुष्य, मुसीबत में ग्रामीण लोग पशु-पक्षियों तक का साथ नहीं छोड़ते हैं।

वेश्याओं के जीवन को केंद्र में रखकर लिखे गए उपन्यास मुर्दाघर में बंबई (अब मुंबई) के जीवन-संघर्ष, पुलिसिया तंत्र, पितृसत्तात्मक मानसिकता और स्थानीय भाषा को उपन्यासकार जगदंबा प्रसाद दीक्षित ने अच्छी तरह पकड़ा है। पर जब हम देह-व्यापार में धकेली गई महिला नलिनी जमीला की मलयालम में लिखित एक सैक्स वर्कर की आत्मकथा पढ़ते हैं, तो जगदंबा प्रसाद दीक्षित की वेश्याओं के साथ तमाम सहानुभूति के बावजदू वह फांक साफ दीख जाती है, जो नलिनी जमीला की स्वानुभूति में सहज ही दृष्टिगत होती है।[1]इसी प्रकार दलितों को हरिजन कहकर दलितोत्थान की बात महात्मा गांधी ने भी थी, लेकिन दलितों के यथार्थ और संघर्ष की जैसी पहचान बाबासाहब अंबेडकर को थी, वह गांधीजी की दृष्टि से सर्वथा भिन्न थी। क्योंकि दलितों के जीवन को महात्मा गांधी बाहर से देख-समझ रहे थे, जबकि बाबासाहब अंबेडकर दलितों के दारुण जीवन-यथार्थ को न केवल अंदर से जानते थे, बल्कि वह उनका भोगा हुआ यथार्थ था। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से लेकर बिल्कुल आज लिखी गई कहानियों में मोहक भाषा, आकर्षक शैली और सुगठित शिल्प के बावजूद सहानुभूति और स्वानुभूति की फांक साफ नज़र आती है-दलित और स्त्री-विमर्श दोनों नजरिये से। दलित जीवन से अनभिज्ञता के कारण गैर दलित कथाकार उनके जीवन-यथार्थ को ठीक से नहीं जानते, पर स्त्रियों के साथ पले-बढ़े और प्रेम (?) के बावजूद क्या वे स्त्री जीवन के यथार्थ से उसी तरह परिचित हैं, जिससे सहज ही महिला कथाकार  परिचित हैं? कहना न होगा कि अनुभूति की शुद्धता के सामने यहीं शिल्प-सिद्धता की दरार दिखाई देने लगती है, जिसे कहन और गढ़न की कुशलता से बहुत अधिक पाटा नहीं जा सकता।

समकालीन हिंदी कहानी में जिन युवा कथाकारों ने अपनी रचनाओं से ध्यान आकृष्ट किया है और एक मुकम्मल पहचान बनाई है, उनमें से कुछ कथाकारों ने बीसवीं सदी के अंतिम दशक में लिखना शुरू किया था, तो कुछ कथाकारों ने इस शताब्दी के पहले दशक की शुरुआत से। सामाजिक स्तर पर इन कथाकारों का अयोध्या-विवाद के कारण हुए सांप्रदायिक उभार, मंडल कमीशन के बाद बने जातिगत समीकरण और नव साम्राज्यवाद के नये रूपों से सामना हुआ। मुक्त बाजारवादी व्यवस्था के पैरोकारों की ट्रिकिल डाउन थियरी से भारतीय ग्रामीण यथार्थ में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। एक तरफ धन के पहाड़ की ऊंचाई बढ़ती चली गई, तो दूसरी तरफ किसानों की आत्महत्याएं, मजदूरों का पलायन और भुखमरी/कुपोषण के शिकार मनुष्यों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। धन-पहाड़ों से कोई झरना, कोई सोता नहीं फूटा, जिसका लाभ हाशिये के लोगों को होता। हिंदी कहानी से मुसलमान ही नहीं, गांव के जीवन-यथार्थ की समझ और उपस्थिति दोनों कम होती जा रही है। यह अनायास नहीं है कि हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों के साथ ही समकालीन हिंदी कहानी में शाइनिंग इंडिया की चमक में फीलगुड करने वाले किरदार अधिक नजर आते हैं। यह भी भारतीय समाज का एक यथार्थ है, लेकिन इस सच के आवरण में बड़े और अप्रिय सच से किनाराकशी करना नैतिकता और सामाजिक दायित्वबोध ही नहीं, साहित्यिक ईमानदारी के भी विपरीत है। मगर व्यवहारिकता और समझदारी को सफलता का मूलमंत्र मान लेने के बाद ईमानदारी को भला कौन महत्व देता है! ये सब मूल्य अब पुराने हुए। 

पिछले दो दशकों की कहानियों को देखें तो पुरुष और महिला कथाकारों की स्त्री अलग-अलग दिखती है। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बदलावों के बाद आए परिवर्तनों ने स्त्री के जीवन-यथार्थ को किस प्रकार प्रभाववित किया है-इसकी समझ के मामले में जो फांक नजर आती है, वह शायद इसलिए भी कि दोनों के सच अलग-अलग हैं। क्योंकि शिल्प-सिद्ध भाषा में सहानुभूति का सच अनगढ़ शिल्प और अटपटी भाषा के बावजूद स्वानुभूति के सच के समक्ष प्रभावहीन हो जाता है। इतिहास गवाह है कि प्रगतिशीलता, संवेदनशीलता और बाकी अन्य तमाम शीलताओं के बाद भी पुरुष स्त्री-जीवन को ठीक से नहीं समझ पाता। तमाम बंधनों और पाखंडों पर चोट करने के बावजूद कबीर स्त्री को कितना समझ पाए? स्त्री-जीवन के दारुण यथार्थ को मीराँबाई ने जिस तरह देखा, उस तरह मीराँ के समकालीन पुरुष-संतगण तमाम संतत्व के बावजूद देख पाए? यहां तक कि छायावाद में भी अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी के द्रष्टा प्रसाद हों, श्याम तन के तत्काल बाद भर बंधा यौवनको लक्षित करने वाले निराला हों या स्त्रियों को सखी, सहचरि, प्राणका दर्जा देने वाले पंत हों-क्या वे महादेवी वर्मा की तरह स्त्रियों के पराधीनता के यथार्थ और इतिहास को समझ पाए?

पिछले दो दशक में दलित कथाकारों ने अपने भयावह जीवन-यथार्थ को स्वानुभूति की प्रामाणिकता के साथ लिखकर द्रष्टा और भोक्ता के अंतर को बेहतर ढंग से दिखाया। लेकिन दलित लेखिका कौशल्या वैसंत्री ने दोहरा अभिशाप में सामाजिक और पारिवारिक दोनों मोर्चे पर जीवन और अस्मिता के लिए संघर्षरत दलित स्त्रियों के जिस जीवन-यथार्थ को अभिव्यक्त किया, उस तरह कोई पुरुष दलित लेखक देख/लिख पाए? दलित लेखक शायद इसलिए भी कौशल्या वैसंत्री की तरह स्त्री-मन की पीड़ा को नहीं देख/लिख पाए कि पुरुषों ने वर्ण-व्यवस्था की क्रूरताओं को तो झेला था, लेकिन पितृसत्ता की क्रूरताओं और दमन से उनका कभी कोई साबका नहीं पड़ा। इसे एक स्त्री ही जान सकती है कि पितृसत्ता की बेड़ियों ने कहां-कहां और किस तरह अपनी जकड़बंदियों में स्त्रियों को बांध रखा है।

बीसवीं सदी के अंतिम दशक से हिंदी कहानी में अपनी पहचान बनाने वाली युवा कथाकार अल्पना मिश्र की कहानी स्याही में सुर्खाब के पंख में पितृसत्ता की क्रूरताओं और कुलीनता की हिंसा की नृशंसता को लक्षित किया जा सकता है। पूर्वजन्म के पाप-पुण्य को ध्यान में रखकर विधाता मनुष्य का भाल लिखते हों या नहीं, इसे परम आस्तिकजन भी आज ठीक-ठीक नहीं बता सकते। मगर सदियों से स्त्रियों को अपनी ऑक्टोपसी जकड़ में जिस पितृसत्ता ने मजबूती से जकड़ रखा है, वह अवश्य स्त्रियों के जीवन-मरण, घृणा-प्रेम, पाप-पुण्य और उदय-अस्त को तय करता है। सुप्रसिद्ध कथाकार यशपाल ने अपने उपन्यास दिव्या में बेहद मार्मिकता से दिखाया है कि दिव्या के जीवन की हर सांस को कैसे समाज और परिवार के अलग-अलग पुरुष तय करते हैं। स्त्रियों की कुलीनता और अकुलीनता का पैमाना पितृसत्ता की सुविधा और सत्ता से निर्मित होता है, जिसमें कई सदियां गुजर जाने के बाद भी बेहद कम रद्दोबदल मुमकिन हो सका है। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि अल्पना मिश्र सुर्खाब के पंख को स्याही में डुबोकर धर्म-ज्ञान और साहित्य लिखने वाली सभ्यता की उस क्रूरता और असभ्यता को अनावृत्त करती हैं, जो आज भी उसी तरह स्त्रियों की जीवन-कथा लिख रही है। पितृसत्ता की परतों को जाने बगैर प्रत्यक्ष सत्ता के व्यवहारों का विश्लेषण भी ठीक-ठीक संभव नहीं है।

अल्पना मिश्र की इस कहानी में मुख्य कथा के बीच कुछ उपकथाएं आती हैं-कुछ वैसे ही जैसे फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम की मुख्य कथा के बीच महुवा घटवारिन की छोटी-सी उपकथा। छोट-छोटे उपशीर्षकों के प्रयोग से वे इस कहानी में और अधिक अर्थवत्ता भर देती हैं। सोनपती बहन जी और उनकी चारों लड़कियों की मुख्य-कथा के बीच में वैशाली सारस्वत और निरुपमा दी की छोटी-छोटी उपकथाएं हैं। जिनमें से हर कथा की स्त्री का भाग्य दमन और शोषण की स्याही से पितृसत्ता ने लिखा है। इस संदर्भ में याद आया कि युवा कहानीकार पंकज सुबीर ने महुवा घटवारिन की उस छोटी-सी उपकथा को अपनी कल्पना शक्ति से अद्भुत विस्तार देकर एक नई मार्मिक कहानी की रचना संभव की है। कहानी की नैरेटर द्रष्टा और भोक्ता के साथ कई जगह अपने घर-परिवार और अपनी मां के साथ होती बहसों का जिक्र भी करती है।

नैरेटर के माध्यम से यह भी पता चलता है कि इस कथा-उपकथा से अलग जो दुनिया है उसमें एक तरफ जहां पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, वहीं दूसरी तरफ उन लड़कियों से सहानुभूति भी है। जिन घरों से लड़कियां नहीं भागती हैं, उन घरों में यह भय पलता रहता है कि भागी हुई लड़कियों के प्रति उनके घर की लड़कियों के मन में जो सहानुभूति है वह कहीं विद्रोह में न रुपांतरित हो जाए। नैरेटर सोनपती बहन जी का जिक्र आते ही तत्काल उन्हें एक जरूरी पाठ इसलिए बताती हैं कि सोनपती बहन जी लड़कियों को पितृसत्ता के टैंक में अच्छी तरह बंद करके रखना जानती हैं। सोनपती बहन जी के व्यवहार की सामाजिक स्वीकार्यता का आलम यह है कि इसके बाकी घरों में उनकी तारीफ होती है और अपनी लड़कियों को अनुशासित रखने में उनकी मिसाल दी जाती है,वे लड़कियों को कितनी अच्छी तरह नियंत्रित करती थीं, यह आदर्श मेरी मां पर छाया रहता था। वह हमें डांटते-डपटते याद दिलाती रहती थीं कि अगर हम बातों से नहीं माने तो उन्हें लातों का इस्तेमाल सोनपती बहनजी की तरह करना पड़ जायेगा। वे यह भी याद दिलाती रहतीं कि वह कितनी महान हैं, क्योंकि वे सोनपती बहनजी की तरह छाते को छड़ी में नहीं बदलतीं। यह भी कि वे सोनपती बहनजी से एक दर्जा आगे तक पढ़ी हैं, इसलिए हमें आदर्श लड़की बना देने के मामले में भी वे एक दर्जा पीछे नहीं होना चाहती थीं। घरों में बात-बात पर सोनपती बहन जी की मिसाल उन्हें जरूरी पाठ बना देती है-जिसका नैरेटर बार-बार जिक्र करती हैं।
  

कहानी की शुरुआत बेहद दिलचस्प तरीके से नैरेटर करती हैं, सोनपती बहनजी को भूला नहीं जा सकता था। वे शिक्षा के सबसे जरूरी पाठ की तरह याद रखने के लिए थीं। वे बहुत पहले निकली थीं नौकरी करने, जब औरतें किन्हीं मजबूरियों में निकलती थीं। वे भी मजबूरी में निकली थीं, ऐसी जनश्रुति थी। सोनपती बहन जी में ऐसा क्या है कि उन्हें शिक्षा के सबसे जरूरी पाठ की तरह याद किया जाए? इस सवाल का जवाब नैरेटर को देने की जरूरत ही नहीं पड़ती, कहानी अपने-आप दे देती है। सोनपती बहिन जी ही नहीं, अल्पना जिस क्षेत्र की कहानी बयान करती हैं, आम तौर पर उस क्षेत्र की औरतें किन्हीं मजबूरियों में ही नौकरी करने के लिए घर से बाहर निकलती हैं।[2] पर सोनपती बहन जी जिन मजबूरियों के कारण नौकरी करने के लिए घर से बाहर निकलती हैं, वह देखिए, उनके पति की मृत्यु के बाद चार लड़कियों की जिम्मेदारी और रिश्तेदारों की हृदयहीनता ने उन्हें नौकरी करने के लिए प्रेरित किया था। यह आम भारतीय जीवन का सच जैसा था और इसी रूप में स्वीकृत सच की तरह भी था। यानी पति की मृत्यु न हुई होती और सिर पर चार लड़कियों की जिम्मेदारी न होती तो ऐसा कोई सामाजिक उत्प्रेरक तत्व न था, जिसके कारण सोनपती बहन जी नौकरी के लिए घर से बाहर निकलतीं।  

सोनपती बहन जी हों या उस समाज की कोई भी बहन जी, वे बिना किसी मजबूरी के इसलिए घर से बाहर नहीं निकलती हैं कि समाज की जड़ता, सामंती मानसिकता और पितृसत्ता पग-पग पर उनकी राहों में अवरोध उत्पन्न करती है। अपने पास हरदम माचिस रखने वाली सोनपती बहन जी जिस क्षेत्र और जिस दौर की पैदावार हैं, उस दौर में लड़कियों के जीवन-यथार्थ और संघर्ष की एक झलक देखिए, जहां लड़कियां शिक्षा के उजाले से दूर अंधेरे कोने में खड़ी अपने से छोटे बच्चों की नाक पोंछ रही थीं,  टट्टी धो रही थीं, बरतन मांज रही थीं, रोटी थाप रही थीं। कहीं कहीं घास काटने गई थीं, कहीं गोबर पाथ रही थीं। ऐसे में उन्होंने समझाया कि शिक्षा के उजाले से कैसे घास और गोबर की गंहाती दुनिया से निकल कर बल्ब की धवल रोशनी में आया जा सकता है? सोनपती, जो आगे चल कर बहन जी बनीं, स्कूल नहीं जाना चाहती थीं।मजबूरी की यह शिक्षा उन्हें बहन जी तो बना देती है, लेकिन पितृसत्ता से अनुकूलित मानसिकता शिक्षित होने के बाद भी उन्हें पितृसत्ता के प्रतिनिधि में रूपांतरित कर देती है।

सोनपती बहन जी का चरित्र-चित्रण लेखिका ने जिस खिलंदड़े अंदाज़ में किया है, उससे पता चलता है कि पितृसत्ता की इस प्रतिनिधि स्त्री-चरित्र के प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं है। शायद इसलिए कि अपनी चारों लड़कियों सहित स्कूल की लड़कियों को जिस हृदयहीनता से वह प्रताड़ित करती हैं और अंत में जिस लोमहर्षक तरीके से उनकी चारों लड़कियों की मौत होती है, उसके कारण नैरेटर का यह भाव स्वाभाविक है। लेकिन इस प्रत्यक्ष यथार्थ को भेदकर जब आगे बढ़ें, तो पता चलता है कि सोनपती बहन जी खुद पितृसत्ता की मानसिक कंडीशनिंग की शिकार एक मोहरा-भर हैं। किसी व्यक्ति के व्यवहार की पड़ताल करते समय उसके पालन-पोषण की पृष्ठभूमि और उसकी सोच की निर्मिति की जब हम पड़ताल करते हैं, तब उसके व्यवहार और गुनाह की असलियत कुछ अलग रूप में ही सामने आती है। बहरहाल, सोनपती बहन जी के बारे में कुछ सूचनाएं देखते चलें, 

‘‘वे अक्सर नीले सफेद प्रिंट की साड़ी पहनतीं। हाथ में एक छोटा झोला होता, जिसमें उनका बटुआ खूब अंदर धंसा कर रखा रहता। उसी में एक माचिस की डिबिया पन्नी में लपेट कर धरी होती। गाहे-बगाहे काम आ जाने की उम्मीद इस डिबिया में छिपी होती।’’

‘‘एक लम्बा काला छाता रहता, जो कई वक्तों पर कई तरह से काम आता। मक्खी भगाने, पंखा झलने, रास्ता बनाने, रास्ता दिखाने, मेज थपथपाने, किसी विद्यार्थी को प्वाइंट करने, ठेले वाले को बुलाने, चपरासी को डांटने आदि आदि से लेकर दुर्वासा की छड़ी के रूप तक यह छाता डटा रहता। इस तरह हाथ का छाता अपने से कुछ गज आगे बढ़ातीं, कंधे पर झोला टांगे, बाजार हाट निपटाती, ग्वाले से दूध लिए सोनपती बहन जी घर पहुंचतीं।’’ और इस तरह सोनपती बहिन जी जब घर पहुंचती हैं तो घर में हिलती-डुलती लड़कियां उन्हें देखते ही सावधान की मुद्रा में खड़ी हो जातीं। रात में सोते समय सोनपती को लोहे की कढ़ाई में औंटा हुआ दूध पीने को मिलता है। पितृसत्ता के प्रतिनिधि उत्तर भारत के किसी पुरुष को याद करें, तो सोनपती बहन जी विशुद्ध रूप से उसका महिला संस्करण नजर आती हैं। पितृसत्ता की पारंपरिक व्यवस्था को याद करें तो घर के कमाऊ पुरुष के घर लौटते ही बाकी तमाम सदस्य एक अघोषित अनुशासन से अनुशासित होने लगते हैं और भोजन में सुस्वादु भोजन की अधिकता और परोसने की मुलामियत प्रायः उन्हीं तक सीमित होकर रह जाती है। इसलिए हमने शुरू में उल्लेख किया है कि सोनपती की मानसिकता की निर्मिति को बेहद ध्यान से देखने की जरूरत है।

घर से निकलने के बाद बाहरी दुनिया में स्त्रियों को पितृसत्ता के साथ-साथ व्यवस्था के अवरोधकों से भी दो-चार होना पड़ता है। जो सोनपती बहन जी बचपन में स्कूल नहीं जाना चाहती थीं और नौकरी में भी मजबूरियों के कारण ही आई थीं, उनका व्यवस्था के दाव-पेंच से किसी भी रूप में कभी साबका नहीं पड़ा था। इसलिए वे सीधी, सरल भाषा तो समझती हैं, लेकिन व्यवस्था के व्यंगार्थऔर अन्यार्थ नहीं समझ पाती हैं। कामयाबी की भाषा में शामिल चढ़ावा, सुविधा शुल्क, पान-पत्ते के लिए, डाली जैसे शब्दों से अपरिचय के कारण बेसिक शिक्षा अधिकारी के अन्यार्थ का अर्थ वे यह समझती हैं कि उनकी कर्मठता पर शक किया जा रहा है। यही नहीं, दोबारा जब दूसरे तरीके से उन्हें कहा जाता है, बहनजी, चपरासी का तो ख्याल रखा करिए। बेचारा इसी नौकरी के भरोसे है। कुछ खिलापिला दिया करिए। तो भी वे इस वाक्य के सही अर्थ तक पहुंचने में सफल नहीं हो पाती हैं और द्विवेदीयुगीन कवि गुरुभक्त सिंह भक्त की नायिका की तरह पहला कबूतर कैसे उड़ा, इसे बताने के लिए बाकी बचे एक कबूतर को भी उड़ाकर पहले कबूतर के उड़ने का उदाहरण देती हैं। बेसिक शिक्षा अधिकारी के अन्यार्थ को समझने की जगह वे अभिधा में इसे लेती हैं और उन्हें लगता है कि चपरासी भूखा है। सो सोनपती बहन जी ने तुरंत अपने झोले के अंदर से टिफिन निकाला और चपरासी को दे दिया। चपरासी ने हाथ में पकड़ा टिफिन साहब की मेज पर पटक कर रखा और बाहर चला गया।बाद में पीछा करती हुई व्यंग्यार्थ भरी भाषा वे समझती हैं, औरतों को लेकर की गई उपहास और मखौल वाली टिप्पणियों को भी समझ जाती हैं।

बाहरी दुनिया और व्यवस्था के दाव-पेंच को जानने के बाद उत्पन्न अवसाद के कारण उनके व्यवहार में क्या-क्या तब्दीलियां आती हैं, इसे देखने के बाद सोनपती बहन जी के मानस को और अच्छी तरह समझा जा सकता है। लड़कियां इस थकान और परेशानी से बेखबर होतीं। घर में हिलती हुई डोलती फिरतीं। तब सोनपती बहनजी को छाते को छड़ी में बदलना पड़ता। लड़कियां अनुशासित थीं। तुरत-फुरत लाइन लगा कर खड़ी हो जातीं। सोनपती बहनजी सट्ट-सट्ट पीटती जातीं और बताती जातीं कि किसे क्या क्या नहीं आता है? किसी को दाल में नमक ठीक से डालने नहीं आता था, कोई उनके घर आने पर तुरंत पानी ले कर नहीं आया था, कोई अब तक चाय ठीक नहीं बना पाता था, किसी से आलू एकदम वैसा नहीं कटता था, जैसा कटना चाहिए था। इस तरह बहुत कमियां थीं, जिनकी सजा एक दिन तय थी। सोनपती बहन जी के इस व्यवहार से पीड़ित उनकी लड़कियों इस बात से पूरी तरह बेखबर हैं कि उनकी मां का यह व्यवहार किस अपमान और आहत दर्प से संचालित है। इसलिए यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से से इस स्थिति की व्याख्या नहीं करने पर स्थिति एक होते हुए लड़कियों और पाठकों की दृष्टि में सोनपती बहन जी बेहद क्रूर और संवेदनहीन नजर आती हैं। जबकि व्यवस्था की शिकार सोनपती घर से बाहर स्कूल और ऑफिस की दुनिया में स्वयं लड़कियों वाली स्थिति में जीने को विवश हैं। स्त्रियों के प्रति समाज की मानसिकता, नौकरी की मजबूरी और बाहर की दुनिया से लड़ न पाने के कारण उपजे आक्रोश के कारण पैदा हुई कुंठाओं का विस्फोट कहीं और होता है।

लेखिका ने कहानी की शुरुआत में उपशीर्षक दिया है- सोनपती बहन जी माचिस लिए रहती हैं। कहानी की शुरुआत में इस उपशीर्षक से पाठकों के मन में जिज्ञासा और आश्चर्य दोनों एक साथ पैदा होता है कि सोनपती बहन जी आखिर माचिस क्यों लिए रहती हैं? पितृसत्ता की प्रताड़ना के तमाम तौर-तरीके और कुलीनता की हिंसा की क्रूरता भी इस सवाल के जवाब में अंतर्निहित है। माचिस लिए रहने की वजह देख लीजिए, सोनपती बहन जी की लड़कियां किसी लड़के को खिड़की से देख रही थीं, कि उनकी लड़कियां खिलखिला कर बड़ी जोर से हँसी थीं, कि बड़ी लड़की का दुपट्टा किसी बड़े बुजुर्ग के सामने खिसक कर नीचे गिर गया था…ऐसे ही किसी घोर अपराध पर सोनपती बहनजी ने अपने झोले से माचिस की डिबिया निकाली थी और लड़कियों के पैरों पर छुआ-छुआ कर उसका महत्व असंदिग्ध किया था। ऐसा नहीं है कि माचिस साथ में लिए रहने और वक्तन-बेवक्तन उसका महत्व असंदिग्ध करते रहने का सोनपती बहन जी यह कोई व्यक्तिगत आइडिया हो, वे जिस समाज और पितृसत्ता की एक प्रतिनिधि के रूप में यह कार्य करती हैं, उस समाज का यह एक स्वीकार्य और आम सच है। वैशाली सारस्वत उसी रोज भाग गयी थीं। भागने के बाद वे चड्ढा हो गयी थीं। नगर के, घर के घर अपनी लड़कियों को ले कर सतर्क हो उठे थे। कोई लड़का कहीं था, जिसके साथ भागने की संभावना छिपी हुई थी। कई और तरह के लोग इस संभावना का लाभ अपनी अपनी तरह उठा लेना चाहते थे। लोग इससे और भी डर रहे थे। क्या पता मेरी मां भी अब अपने झोले में माचिस की डिबिया रखें!अपनी मां को लेकर नैरेटर का यह भय उस समाज की तमाम लड़कियों का सामूहिक भय है।

हमने शुरू में इस बात का जिक्र किया था कि इस मुख्य कथा में कुछ उपकथाएं हैं, जिसके कारण मुख्य कथा की मार्मिकता और अधिक उभरकर सामने आती है। सोनपती बहन जी की माचिस-कथा के साथ जिस वैशाली सारस्वत की उपकथा का मुख्य कथा में प्रवेश होता है, उस वैशाली सारस्वत के पिता सुनयनधीर सारस्वत के व्यक्तित्व, कार्य-शैली और पैथालॉजी सेंटर का खाका जिस भाषा और अंदाज में लेखिका अल्पना मिश्र खींचती हैं, वह अद्भुत है। उनके पास भाषा का विशाल रेंज है, जिसके अनेक स्तर हैं और भाषा को बरतने का जो उनका व्यक्तिगत कौशल है, उसके कारण वह समकालीन महिला कथाकारों में अलग से रेखांकित की जा सकती हैं। उनकी भाषा इस्पात की तरह ठोस, लेकिन लचीली है, जिसके कारण चरित्र और कथा-संदर्भ बदलते ही उनकी भाषा बदल जाती हैं और कमाल यह कि कथा-प्रवाह में कोई अवरोध पैदा नहीं होता। तो यहां यह देखते चलें कि पैथालॉजी सेंटर वाले डॉक्टर सुनयनधीर सारस्वत को अल्पना किस दिलचस्प अंदाज में कहानी में प्रवेश कराती हैं, उनके निकलने के पहले खुशबू का झोंका आता। इंतजार करता आदमी बिना उन्हें देखे ही उठ कर खड़ा हो जाता। डॉक्टर सारस्वत आ कर दरवाजा खोलते, अपने टेबल, जिस पर शीशे का कवच उन्होंने लगा रखा था, उसके पीछे की कुर्सी पर बैठ जाते। बिना उनके बोले ही बारामदे का उठ कर खड़ा हुआ आदमी अंदर चला आता और आ कर उनके पास रखे स्टील के स्टूल पर बैठते हुए माचिस की डिबिया या शीशी, जो भी वह ले कर बैठने को था, बैठने की क्रिया के बीच में ही डॉक्टर साहब की तरफ बढ़ा देता।
 

वैशाली इन्हीं डॉक्टर सारस्वत की लड़की थी जो, सगाई की अंगूठी पहने-पहने चली गयी थीं। और उनके घर में एक उनका लड़का था। जिसकी अपनी कोई व्यक्तिगत नहीं पहचान थी और न उसके व्यक्तित्व को देखकर इसकी कोई संभावना ही नज़र आती थी। डॉक्टर सारस्वत का लड़का है, इसी से सब उसे पहचानते थे। लेखिका ने सोनपती बहन जी के घर और उनके व्यवहार के संदर्भ में अनेक बार जनश्रुतिशब्द का इस्तेमाल किया है। शायद इसलिए कि नैरेटर कई चीजों की द्रष्टा होने के बावजूद अपने सच के साथ-साथ उस समाज का सच भी बेहद कुशलता से गूंथती जाती हैं। डॉक्टर सारस्वत के लड़के के संदर्भ में भी वे जनश्रुति का शब्द को किस रोचक तरीके से लाती हैं, देखिए, जनश्रुति इस मामले में यह थी कि वह हमारी सीनियर निरूपमा दी को प्रेमपत्र भेजता है। रोज। स्कूल के इसी पते पर। तेल-फुलेल लगाकर पैथालॉजी सेंटर में प्रवेश करने वाले सुनयनधीर सारस्वत (ख़ुदा जाने सुनयन के नयन सुनयन थे भी कि नहीं) की भागी हुई लड़की वैशाली तो चड्ढा बनकर भाग जाती हैं। अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जीने का साहस उसमें है, जिसके कारण वह भाग जाती है, लेकिन लड़के के मामले में बड़ा व्यंग्यार्थ यह है कि सूरज कुमार अपने प्रकाश का इस्तेमाल खुद को प्रकाशित करने में भी नहीं कर पाता।

इस कहानी में एक तरफ सोनपती बहन जी की लड़कियां हैं, जो मां के व्याकरण से जरा भी हटने पर माचिस से दग्ध होती हैं, निरुपमा दी हैं जो निरुपमा से ख़राब और बुरी लड़की की उपमा बन जाती हैं। दूसरी तरफ वैशाली जैसी लड़की है, जो अपने आगत भविष्य के लिए भाग सकती हैं! सचमुच की भागी लड़कियों से उन लड़कियों की संख्या बड़ी है, जो भागती है अपनी डायरी में, अपने रतजगे में। जो समाज लड़कियों को दग्ध करने की मानसिकता पैदा करता है, भाग जाने की सूरत में तरह-तरह की जनश्रुतियों को गढ़ता है, प्रेम को व्यभिचार में तब्दील कर देने में एक प्रकार का खल-सुख पाता है, वही समाज शक्ति की उपासना का वार्षिक, अर्द्ध-वार्षिक स्वांग भी करता है! इस पितृसत्तात्मक समाज में ग्रामीण और कस्बाई मानसिकता के कारण मां-बाप सिर्फ इसीलिए लड़कियों को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजने से नहीं डरते कि लड़की किसी के साथ भाग सकती है, बल्कि उनके मन में डर इस बात को लेकर भी होता है कि इस शक्ति-उपासक समाज का आंतरिक सच भयावह है। कॉलेज आती-जाती लड़कियों को प्रतिदिन लगभग वैतरणी को पार करना पड़ता है, गोरकी पतरकी रे, मारे गुलेलवा जियरा उड़ि उड़ि जाय…कोई न कोई, कहीं न कहीं से यही गाता और उसकी कंठ ध्वनि से निकला यह गीत लड़कियों के कान से जरूर टकराता। और कई मनचले उनके पीछे मद्धिम स्वर में यह भी कहते-चमक रहा है तेज तुम्हारा बन कर लाल सूर्य मंडलया फिर सजनी हमहूं राजकुमारया फिर इक नजर तेरी मेरे मसीहा काफी है उम्र भर के लिए…। जिस समाज में लड़कियां पराई अमानत मानी जाती हैं, उस समाज में ऐसे माहौल में भला कौन मां-बाप अमानत में ख़यानत और अपनी पगड़ी से बेपरवाह रहने की सोच सकता है?

अल्पना मिश्र के भीतर करुणा ही नहीं, सामाजिक विद्रूपता, हास्य-व्यंग्य और सेंस ऑफ ह्यूमर भी गजब का है। लोगों की उथलेपन, काइयांपन के अलावा जब वे गऊ-सी लड़कियों को सर्कसिया घोड़े में तब्दील कर देने के आकांक्षी मां-बाप की हरकतों का वर्णन करती हैं, तो उनके भीतर का खिलंदड़ापन देखते ही बनता है। मसलन, लड़की ने सा…रे…ग…म…. बजा कर दिखाया। कोई भी गीत चलता, वह सा….रे….ग…म…बजाती रहती। इस हास्य में करुणा का गजब पुट है कि बेचारी निरीह लड़की आधुनिक और होशियार दिखने की होड़ में कैसे हास्यास्पद होती चली जाती है। एक और प्रसंग देखें, सोनपती बहन जी को छोड़ कर न्यौता लिखने वाले आदमी के पास अपना अपना न्यौता लिखवाने दौड़े। जो लोग पहले ही अपना न्यौता सोनपती बहन जी को सौंप चुके थे, वे भी कॉपी में अपना नाम लिखवाने दौड़े। लिखवा देना एक पक्का सबूत था। लोग दिए न्यौते का सबूत रखना चाहते थे। ताकि सनद रहे! पुरबिया लोग जिस तरह लहककर खाने पर टूटते हैं और खाते समय जिस परमानंद में डूबते-उतराते हैं, उसका वर्णन तो और भी दिलचस्प है। कोहड़े की सब्जी क्या सिझा-सिझा कर बनाया है, खटाई डाल कर। खाना इतना स्वादिष्ट की अंगुलियां चाटते रह जाओ। साग कितना बढ़िया बना है। कोई कोफ्ते पर फिदा है। रायता अलग बड़ा स्वादिष्ट है।
 

हालांकि कॉलेज आते-जाते वक्त फब्तियां कसने और छेड़छाड़ करने वाल लड़कों के प्रति निरुपमा सख्ती भी दिखाती है, मगर उन लड़कों पर इसका कोई ख़ास असर नहीं होता। एक दिन निरुपमा को जब लड़के छेड़ रहे थे, तभी उस नामुराद वक्त में निरूपमा दी का बड़ा भाई उधर से गुजरा। उसने दौड़ कर एक लड़के को खींचा। किसी की कॉलर पकड़ी, किसी को थप्पड़ मारा। लड़के भी बेल्ट, जूता, बैग…जो मिला लेकर युद्ध में उतर गए। निरूपमा दी को थोड़ा-सा मौका मिला, तो वे अपना तोड़ कर गिरा दिया गया रैकेट लेकर भाई की तरफ से भांजने लगीं। तभी उनमें से किसी लड़के ने सड़क पर पड़ा ईंटे का अद्धा उठाकर निरूपमा दी के भाई पर उछाल दिया। अद्धा उछल कर उसके कपाल के बीचों-बीच लगा। निरूपमा दी का भाई बिना चक्कर खाये एकदम धड़ाम से नीचे गिर गया।कहानी में इसके बाद समाज का जो चेहरा सामने आता है, उससे स्त्रियों के प्रति समाज, कानून-व्यवस्था और पितृसत्ता के दृष्टिकोण की क्रूरता, भयावहता और सामंती तौर-तरीकों को भी स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है।

16 दिसंबर, 2012 की रात देश की राजधानी दिल्ली में अपराधियों ने एक लड़की के साथ बलात्कार करके उसके दोस्त सहित उसे सुनसान सड़क पर फेंक दिया, मगर पुलिस और कोर्ट-कचहरी के डर से बुरी तरह घायल और निर्वस्त्र युवक-युवती की मदद किसी राहगीर ने नहीं की। यही सच इस कहानी में भी सामने आता है जब निरुपमा के भाई लड़कों की मारपीट से घायल होते हैं। उन्होंने चिल्ला कर कहा-कोई अस्पताल ले चलो रे! ऐ, हटो हटो, जाओ सामने वाली दुकान से पुलिस को बुलाओ! मुझे पुलिस के चक्कर में न फंसाओ! एक तो समाज में आत्मकेंद्रित लोगों की बढ़ती हुई संख्या, ऊपर से घायल की मदद करने के बाद सहायता करने वाले व्यक्ति से पुलिस का सवाल-जवाब-ऐसी बाधा है जिसके कारण लोग मदद करने से डरते हैं। पुलिस में जब इस घटना की रिपोर्ट दर्ज़ होती है, तो पुलिस के काम करने का अपना ही अंदाज़ है, हवलदार ने सारे मनचले लड़कों को पकड़ कर थाने में पीटने का अभियान चला दिया। पुलिस की गाड़ी, पुलिस की ट्रक धड़धड़ाते हुए सड़कों पर घूमने लगी। जिसकी भी मोटरसाइकिल दुकानों के आगे खड़ी मिली, लाद ली गयी, स्कूटर उठा ली गयी। लाठी भांजते पुलिस वाले पान की दुकानों, एस.टी.डी. बूथों, मोबाइल फोन की दुकानों पर से लड़कों को उठा-उठा कर ट्रक में ठूंसा जाने लगा। इसी क्रम में अद्धा फेंक कर मारने वाले लड़के भी पकड़े गए। वे बड़े इत्मीनान से पान की दुकान पर खड़े पान मसाला चबा रहे थे और किसी ब्लू फिल्म की कहानी पर बहस छेड़े थे।
 

इन मनचले लड़कों को पुलिस पकड़कर जब ले जाती है, तो नगरपालिका के चेयरमैन ठाकुर बलवान सिंह, निरुपमा या उनके घायल भाई के प्रति कुछ नहीं कहते। इसके उलट वे उन मनचले लड़कों को पकड़ने वाली पुलिस के रवैये के प्रति उग्र हो जाते हैं और उल्टे पुलिस को ही सबक सिखाते हैं, जीप से सबसे आखिर में ठाकुर बलवान सिंह उतरे। उतर कर खड़े हो गए। तब नाटक शुरू हुआ। हथियार बंद लोग कूद-कूद कर, उछल-उछल कर हवलदार को तरह तरह से पीटने लगे। जब हवलदार जमीन पर पूरा चित्त गिर कर तड़पने लगा, तब चेयरमैन ठाकुर बलवान सिंह ने अपनी तोंद पर हाथ फेर कर अपनी बेल्ट उतारी और हँस कर कहा, हमारे लल्ला को छूने चले थे। तेरा क्या बिगाड़ रहा था बे? चलो, अब हम तोहें नाटक का रिहर्सल करा देते हैं।इसके बाद सटासट आठ दस बेल्ट मारा और मुड़ कर गाड़ी में आ कर बैठते हुए चिल्लाए, उठाओ साले को। थाने छोड़ आओ। बोल देना सबेरे चार बजे से पहले नगर छोड़ के चला जावे। दिन में इसका मुंह न दिखाई पड़े। इस कार्रवाई के बाद पुलिस के मनोबल और आत्मविश्वास की स्थिति क्या हो सकती है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। 

सरकारी अस्पताल की सुविधाहीनता और संवेदनहीनता से परेशान निरुपमा को जब अपने प्रेमी सूरज कुमार की कायरता का पता चलता है, तो वह टूट जाती है। कस्बाई माहौल में पली-बढ़ी, भावुकता और रुमानी दुनिया में जीनेवाली निरुपमा सूरज कुमार को ख़ून से ख़त लिखती है और सूरज कुमार से यह इसरार करती है कि महीने भर के भीतर हम लोग यहां से भाग चलें। मगर यह पत्र लड़के के पिता के हाथ लग जाता है, जिसे कुपित डॉक्टर सारस्वत सार्वजनिक दर्शन के लिए अपने गेट पर बाकायदा चिपकवा देते हैं। उधर इस कार्रवाई और सूरज कुमार की बेवफाई से बेख़बर निरुपमा अपने किसी फोन का जवाब न देने वाले प्रेमी से सीधे मुखामुखम के लिए पहुंच जाती है, तो प्रेमी सूरज कुमार, जिसकी बहन वैशाली सारस्वत किसी चड्ढा लड़के के साथ घर से भाग चुकी है, निरुपमा को टका-सा जवाब देता है, मैं अब माता पिता को और मुसीबत में नहीं डाल सकता। इसका जो भी अर्थ लगाना है, लगाओ। नौटंकी जा कर कहीं और करो जाओ, यहां से!

भाई की हालत, परिवार की स्थिति और खुद के साथ हुए छलावों से निरुपमा बिल्कुल हताश हो जाती है। लेकिन उनके साथ पितृसत्ता की दरिंदगी यहीं नहीं रुकती। आखिर उसी के कारण उन मनचले लड़कों की पुलिस के हाथों पिटाई हुई थी। सो सूरज कुमार के यहां से लौटते हुए रास्ते में वही मनचले लड़के दोबारा सरेराह उसका दुपट्टा खींचते हैं, कपड़े फाड़ डालते हैं और उन लड़कों में से एक ठाकुर बलवान सिंह का लड़का उसकी मांग में सिंदूर डाल देता है। उसके बाद हिंस्र पशु की तरह निरुपमा को चींथने लगते हैं, मांग में सिंदूर डालने का का उत्सव शुरू हो गया। लड़के हाथ, पैर, नाक, मुंह छू-छू कर देखने लगे। उनका दुपट्टा किसी ने खींच कर दो टुकड़े कर दिए, फिर दो लोगों ने उसे अपने अपने सिर पर बांध लिया। जब कपड़े फट गए। कुर्ते के अंदर से ब्रा झांकने लगी। फिर ब्रा के अंदर से शरीर झांकने लगा। सलवार का नाड़ा खींच लिया गया।

यह इस कहानी की उपकथा है, जिसमें निरुपमा की मुखरता और साहसिकता की हिकमत की यह परिणति होती है। वैशाली घर से भागने को विवश होती है। लेकिन मुख्य कथा की सोनपती बहन जी, जिन्हें जरूरी पाठ की तरह याद रखने की जरूरत है, उनकी बेटियां बचपन से सामूहिक रूप से दग्ध होकर बड़ी होते हुए एक दिन पूरी तरह दग्ध होकर जीवन का किस्सा ही तमाम करने का कदम उठा लेती है। कौमार्य-प्रिय पितृसत्ता को शीघ्रातिशीघ्र पराई अमानत सौंपने को बेचैन सोनपती बहन जी की लड़कियां जिस पारिवारिक और सामाजिक माहौल में बड़ी होती हैं, उसमें एक स्त्री का पूरा जीवन अर्थहीन है। शायद इन वजहों से भी सोनपती बहन जी की लड़कियों को अपने जीवन का कोई अर्थ नहीं नजर आता और परिणति सामूहिक दाह तक पहुंच जाती है।

उपकथाओं की नदियां आगे चलकर जब मुख्यधारा में मिलती है, तो कथांत पाठकों को गहरी बेचैनी और स्त्री-अश्रु के वर्तमान और इतिहास के समुद्र में डूबो देती है। सोनपती बहन जी की लड़कियां आत्मदाह को प्रेरित होती हैं, पर निरुपमा और वैशाली जैसी लड़कियां जीना चाहती हैं-कहीं भी। निरुपमा भी भागती है, लेकिन स्टेशन की तरफ अकेले-यथार्थ में। इस विंदु पर आकर लेखिका अल्पना मिश्र ने फैंटेसी का इस्तेमाल करके कथांत को बेहद मार्मिक बना दिया है। जिसमें यथार्थ और स्वप्न एक-दूसरे में मिलकर यथार्थ की दारुणता को और बढ़ा देते हैं। सचमुच की भागी निरुपमा के यथार्थ में दर्जनों वे लड़कियां शामिल हो जाती हैं, जो भागी हैं अपने स्वप्न, अपनी डायरी, अपनी कुंठा और अपनी असफलताओं में। पितृसत्ता और समाज की हिंसा के सामने खड़े होने की हिम्मत करने वाला निरुपमा का भाई एक आम भाई और आम पुरुष से उस वक्त ख़ास पुरुष में रूपांतरित हो जाता है, जब कथांत की फैंटेसी में निरुपमा और निरुपमा जैसी अन्य लड़कियों के रक्षक और सच्चे सहायक के रूप में एकमात्र वही दिखाई देता है।

कई लेखिकाओं में स्त्री-विमर्शवादी उत्साह का अतिरेक इतना होता है कि उनकी कहानियों में तमाम पुरुष पितृसत्ता के संरक्षक ही नजर आते हैं। जबकि अल्पना मिश्र की कहानियों में तमाम पुरुषों के बीच ऐसे पुरुष भी हैं, जो वाकई स्त्री के सच्चे सहायक और सच्चे मित्र साबित होते हैं। वे पुरुषवादी मानसिकता के विरोध में तो हैं, लेकिन तमाम पुरुषों को स्त्रियों का दुश्मन मान लेने वाली मानसिकता से असहमत भी-जिस सच को सीधे न बोलकर भी वह अपनी रचना में अनुस्यूत सत्य के रूप में कह जाती हैं।
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[1] नलिनी जमीला एक पूर्व सैक्स वर्कर होने के साथ-साथ एक बेटी, पत्नी, मां, व्यावसायिक महिला और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। राजपाल एंड संस से हाल ही में हिंदी में प्रकाशित उनकी पुस्तक एक सैक्स वर्कर की आत्मकथा के मलयालम में अब तक छह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
[2] अल्पना मिश्र के दूसरे कहानी-संग्रह क़ब्र भी क़ैद औ ज़ंजीरें भी की पहली कहानी ग़ैरहाज़िरी में हाज़िर की नायिका जिन स्थितियों में नौकरी के लिए घर से निकली है और अपने पीछे की पारिवारिक स्थितियों को याद करके जिस तरह नौकरी करती है-वह बेहद हौलनाक है। 
सम्पर्क-
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग,

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,

अलीगढ़-202002 (उ.प्र.),
फोन- 096342 82886

पंकज पराशर

  (नरेश सक्सेना)
नरेश सक्सेना हमारे समय के ऐसे कवि हैं जिन्होंने अत्यंत कम लिख कर भी कविता के परिदृश्य में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है। उनका पहला संग्रह ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ काफी चर्चा में रहा था। अभी-अभी भारतीय ज्ञानपीठ से उनका दूसरा कविता संग्रह ‘सुनो चारुशीला’ प्रकाशित हुआ है। इस महत्वपूर्ण संग्रह पर युवा आलोचक पंकज पराशर ने बड़ी बारीकी से निगाह डाली है। इसी क्रम में हम प्रस्तुत कर रहे हैं ‘सुनो चारुशीला’ पर पंकज का समीक्षात्मक आलेख। 

 

अरथ अमित अरू आखर  थोरे


आचार्य रामचंद्र शुक्ल  ने अपने सुप्रसिद्ध निबंध कविता क्या है?’ में लिखा है, ‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण चढ़ते जायेंगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि कर्म कठिन हो जाएगा।’ मनुष्य की वृत्तियों पर सभ्यता के नये-नये आवरण आज इस कदर चढ़ गए हैं कि कविताओं की बढ़ती संख्या के बीच ‘शुद्ध कविता की खोज’ करना बहुत श्रमसाध्य कार्य हो गया है। हिंदी काव्य-आलोचना में लोक-चक्षु गोचर करने का महती दायित्व जिन कंधों पर था/है उनकी अपनी पसंद-नापसंद और सच्ची और खरी बात कहने से बचने की रणनीति के कारण काव्य-विवेक और जीवन-विवेक की पहचान निरंतर क्षीण हो रही है। तुरंता-प्रशंसा-आकांक्षी कवि-समाज में असहिष्णुता और अधैर्य इतना बढ़ गया है कि साहित्यिक असहमति और आलोचना को लेकर अप्रसन्नता अब असाहित्यिक तरीके से व्यक्त होने लगी हैं। यह अकारण नहीं है कि अब कवि-समाज में सच्चे कवि की पहचान और महत्ता के प्रतिष्ठापन का कार्य कम हो रहा है, जैसे काव्याभास-भर लगने वाली कविताओं के बीच सच्ची कविता की पहचान और उसकी महत्ता का रेखांकन कठिनतम कार्य हो गया है। इसका दूसरा पहलू भी कम दारुण नहीं है। शिल्प-सिद्ध और भाषा-सिद्ध कवियों पर आज परिदृश्य में बने रहने का दबाव इतना बढ़ गया है कि वे संपादक-प्रिय और परिदृश्य-प्रिय बने रहने के लिए निरंतर कविताएं लिखते रहते हैं-शायद यह जानते हुए भी कि वे ऐसी और इतनी कविताएं लिख कर अपनी ही बेहतर कविताओं के अवमूल्यन और निम्न-स्तरीय काव्य-भीड़ में खो जाने का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। ऐसे में मुझे रीतिकालीन कवि ठाकुर की ये पंक्तियां अत्यंत प्रासंगिक लगती हैं,  
‘सीखि लीन्हों मीन मृग खंजन कमल नैन
सीखि लीन्हों जस औ प्रताप को कहानौ है
ढेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच, 
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।’
समकालीन काव्य-परिदृश्य में आज अनेक पीढ़ी के कवि सक्रिय हैं, परंतु यह एक निराशाजनक सचाई है कि अनेक तरह की काव्य-भूमि और भाव-भूमि की कविताएं कवियों के निजी कंठ-स्वर की पहचान के साथ हिंदी कविता में बेहतर ढंग से संभव नहीं हो पा रही हैं। यकसांपन का साम्राज्य आज हिंदी कविता की सचाई के रूप में लक्षित की जा सकती है। परंतु प्रसन्नता की बात यह है कि समकालीन काव्य परिदृश्य में कुछ युवा कवियों के यहां उनकी निजता, उनकी भाषा-शैली और निज कंठ-स्वर पाने की आकांक्षा सशक्त रूप में दिखाई देती है। कविता की उत्कृष्टता और स्तरहीनता को ले कर एक सामान्य-सी समझ लेखन की संख्या को लेकर है कि जो कवि ज्यादा लिखते हैं वे प्रायः बुरी कविताएं अधिक संख्या में लिखते हैं। तो क्या यह माना जाए कि कम लिखना बेहतर लिखने की कुंजी है? या यह कि यदि कोई कवि कम लिखता है तो वह अनिवार्य रूप से अच्छी कविताएं ही लिखेगा? इस बहस का दूसरा पक्ष यह है कि यदि कोई अधिक कविताएं लिखता है तो क्या यह मान लेना उचित है वह बुरी कविताएं अधिक लिखेगा? या यह कि अधिक लिखने वाला कवि बुरी कविताएं अधिक लिखता है? जर्मन के महान कवि राइनेर मारिया रिल्के तकरीबन पचास-बावन साल की उम्र तक ही जिंदा रहे और उनकी तीस से ऊपर काव्य-कृतियां हैं। इसके बावजूद उनकी शायद ही कोई ऐसी कविता हो जिसे आप कमतर ठहरा सकें। वहीं उर्दू शायर मिर्ज़ा ग़ालिब महज एक ही दीवान है और उनका एक दीवान सैकड़ों दीवान पर भारी है। जिन लोगों ने कम लिखा उनमें ऐसे अनेक कवि हैं जिन्होंने कम लिखने के बावजूद कमजोर रचना की। जबकि कुछ कवियों ने अधिक लिखने के बाद भी दमदार लिखा। इसलिए कम लिखना बेहतर लिखने की शर्त नहीं हो सकती और न अधिक लिखना घटिया लेखन होने की कोई शर्त या पहचान है। मुझे लगता है बजाय यह देखने के कि किसी कवि ने अधिक लिखा है या कम, रचना को देखने का सामान्य और पल्लवग्राही तरीका यह होना चाहिए कि उसने जो लिखा है वह कैसा और किस स्तर का लिखा है?
हिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने अपनी उम्र और विराट् जीवनानुभव के मुकाबले कम लिखा है। उनके समकालीनों में शायद ही कोई ऐसा कवि हो जिन्होंने इतना कम लिखा हो। कम लिखने के मामले में आलोक धन्वा ने भी कम लिखा है और उनका भी अब तक एक ही संग्रह ‘दुनिया रोज़ बनती है’ है, मगर वे उम्र में नरेश जी से छोटे हैं। तिहत्तर साल की उम्र में अभी हाल में उनका दूसरा संग्रह ‘सुनो चारुशीला’ शीर्षक से आया है। इसमें आम तौर पर किसी काव्य-संग्रह में जितनी कविताएं होती हैं उस हिसाब से कम कविताएं हैं, मगर जितनी हैं वह गुणात्मक रूप से काफी हैं। यहां भी एक आम प्रचलित समझ की बात करते चलें। किसी कविता संग्रह को लेकर यह कहा जाता है कि जिसे वाकई कविता कहा जा सके वह किसी भी कवि के संग्रह में दस-बारह से अधिक नहीं होती। तो इस हिसाब से देखें तो नरेश सक्सेना के दूसरे संग्रह में शायद ही कोई कविता ऐसी हो जो काव्य-आस्वादकों को प्रभावित करने की क्षमता न रखती हों। नरेश जी ने संग्रह के पूर्वकथन में लिखा है कि इस संग्रह की अधिकांश कविताएं सन् 2000 के बाद की हैं, किंतु कुछ कविताएं 1960-62 के आसपास की भी हैं। यानी कालखंड के हिसाब से भी चार-पांच दशक की कविताओं को यहां संकलित किया गया है। केदारनाथ सिंह का दूसरा कविता-संग्रह ‘अकाल में सारस’ जब लगभग बीस बरस बाद आया था तो काव्य-आस्वादकों ने उसे बहुत उत्सुकता से देखा था। नरेश जी का आलम यह है कि उनके नाम ‘पहल सम्मान’ जब घोषित हुआ था तो उस समय तक उनका पहला कविता-संग्रह भी प्रकाशित नहीं हुआ था। पहला संग्रह आया तब जब पहल सम्मान देने के लिए पुरस्कार समारोह आयोजित किया गया। 
‘समुद्र पर हो रही बारिश’ नरेश सक्सेना का पहला काव्य-संग्रह है, जो बेहद चर्चित हुआ। जब हिंदी के अंतवादी-उद्घोषक आलोचक अटल आत्मविश्वास के साथ यह कह रहे थे कि हिंदी कविता के पाठक नहीं है, कविता कोई पढ़ना नहीं चाहता, कविता की किताबें बिकती नहीं आदि-आदि तब नरेश सक्सेना के संग्रह को पाठकों ने बेहद पसंद किया और कई काव्य-रसिकों को उनकी अधिकांश कविताएं याद हो गईं। ‘सुनो चारुशीला’ की पहली कविता है ‘रंग’। नरेश जी की दृष्टि में सामाजिक विघटन का यथार्थ किस तरह प्रकृति के रंग की व्याख्या भी सांप्रदायिक रंग में रंगीन हो कर प्रकट हुआ है, देखिए,
‘सुबह उठ कर देखा तो आकाश
लाल, पीले, सिंदूरी और गेरुए रंगों से रंग गया था
मजा आ गया ‘आकाश हिंदू हो गया है’
पड़ोसी ने चिल्ला कर कहा
‘अभी तो और भी मज़ा आएगा’ मैंने कहा
बारिश आने दीजिए/सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।’ 
यानी रंगों से यदि प्रकृति का हिंदू और मुसलमान होना निर्धारित हो रहा हो तो फिर प्रकृति का ही दूसरा रंग हरा देखें जिसके बाद फिर पूरी धरती मुसलमान हो जाएगी। इस्लामिक देशों में हरे रंग का अपना ही महत्व है। क्योंकि अरब में रेगिस्तान के कारण हरियाली न के बराबर है और जीवन में जिस चीज का अभाव अधिक हो, उस चीज की चाहत अधिक होती है। तो अरब में हरियाली के अभाव ने इस्लामिक मुल्कों में हरियाली की चाहत को पैदा की और प्रकृति में हरियाली की संभावना बारिश से बनती है। तो जब बारिश आएगी तो हरियाली पैदा होगी और धरती हिंदू से मुसलमान हो जाएगी। ‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला कहते हैं, ‘आराधन का दो दृढ़ आराधन से उत्तर’ तो उसी अंदाज़ में कवि प्रकृति के सांप्रदायीकरण का उत्तर प्रकृति के ही दूसरे रंग की मिसाल से देते हैं। हिंदू धर्म में विभेदीकरण के प्रतीक-रंगों की मिसाल आकाश के बदले हुए रंग से देने वाले पड़ोसी इस बात से बेख़बर हैं कि बारिश में सारी धरती जल-थल हो कर एक हो जाएगी उसके बाद पैदा होने वाले हरे की हरियाली को देखकर हिंदू प्रतीक रंगों को वे कहां और कैसे ढूंढ़गें?
एक और रंग  देखें-प्रेम का रंग। संग्रह की शीर्षक कविता ‘सुनो चारुशीला’ के रंग के कुछ आयाम देखना उचित होगा, 
‘सुनो चारुशीला! / 
एक रंग और एक रंग मिल कर एक ही रंग होता है
एक बादल और एक बादल मिलकर एक ही बादल होता है
एक नदी और एक नदी मिल कर एक ही नदी होती है।’ 
एक और एक मिलकर अनेक की बात तो की जाती है परंतु एक और एक मिलकर वस्तुतः वह एक ही रहता है, दो नहीं होता। दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है, शायद इसीलिए एक शायर मौला से सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी देने की प्रार्थना करता है। लियो टॉल्सटाय के बारे में विद्वानों ने कहा है कि वे किसी भी विषय पर लिख सकते थे और कमाल यह कि जिस भी विषय को उठाते उसी में जान डाल देते थे। हिंदी कवियों में नागार्जुन का जवाब नहीं है कि वे गुलाबी चूड़ियां से ले कर मादा सूअर तक पर लिख सकते थे और ऐसी काव्य-दृष्टि उन्हें प्राप्त थी, जिसकी वजह से वे उस कविता को यादगार कविता बनाने की कूव्वत रखते थे। इस बात को ठीक से लक्षित किया जाना चाहिए कि नरेश सक्सेना भी इस क्षमता के धनी हैं कि वे किसी भी विषय पर कविता लिख सकते हैं और यह उन्होंने ‘सुनो चारुशीला’ की कई कविताओं में लिखकर ज़ाहिर किया है। उन्होंने ऐसी-ऐसी चीजों को अपनी कविता का विषय बनाया है, जिस पर कविता संभव हो सकती है और वह भी बेहतरीन कविता, यह एकबारगी यकीन करना मुश्किल लगता है। पर यही सच है। उनकी एक कविता है ‘दाग़ धब्बे’। बकौल नरेश जी दाग़ धब्बे साफ़-सुथरी जगहों पर आना चाहते हैं। क्योंकि
 ‘गंदी-गंदी जगहों पर कौन रहना चाहता है
दाग़ धब्बे भी साफ़-सुथरी जगहों पर आना चाहते हैं।’ 
कमाल यह है कि साफ़-सुधरी जगहों पर आने की आकांक्षा रखने वाले दाग़-धब्बे ज़िंदा लोगों को चुनते हैं, न कि मुर्दों को। इस तरह के जिंदा लोग जिनके बारे में पंजाबी में कहते हैं, 
‘सौ मुर्दा संतां कोलो / इक जिंदा ज़ालिम चंगा-ए।’ 
 तो ऐसे ज़िंदा ज़ालिमों के पास आना चाहते हैं दाग़ धब्बे। जहां जीवन होगा, जीवन की हलचल होगी, जीवन-संघर्ष होगा, जिंदादिली होगी वहां अनिवार्य रूप से दाग़-धब्बे आएंगे। नरेश जी कहते हैं,
‘जीवन से जूझते जवान हों
या बूढ़े और बीमार
दाग़-धब्बे किसी को नहीं बख्शते
महापुरुषों की जीवनियों में
उनके होने का होता है बखान
कौन से बचपन पर
यौवन पर या जीवन पर वे नहीं होते
हां कफ़न पर नहीं होना चाहते / दाग़-धब्बे मुर्दों से बचते हैं।’ 
ज्यों-त्यों धर दीनी चदरिया वाले आदर्शवादी जीवित मुर्दों से भी बचते हैं दाग-धब्बे-जीवनहीन-प्राणहीन माहौल में दाग-धब्बे कैसे पैदा हो सकते हैं भला!
नरेश जी की कविता की शुरुआत विशुद्ध  अभिधात्मक अर्थों से शुरू होती है, एक वैज्ञानिक चेतना संपन्न सार्वभौम सत्य से।  उसके बाद की उनकी कविता उस सत्य के सहारे मनुष्य की सुषुप्त संवेदना को जाग्रत करती है-कई बार तो बेहद मार्मिक तरीके। अजीब बात यह है कि हिंदी आलोचना में इन दिनों ‘विमर्श रचने’ पर जिस प्रकार अधिक ध्यान दिया जा रहा है, उसी प्रकार लगता है बौद्धिक कवियों ने ज्ञान के आतंक में अभिधा शब्द-शक्ति को चलन से बाहर करने का बीड़ा उठाया लिया है। शायद इसीलिए आज पुरस्कारों के शोर में चारों ओर अच्छी-बुरी का परीक्षण किए बगैर इनाम तो मिल रहा है, सजा नहीं मिलती कवि को। जबकि हरिशंकर परसाई ने कवि से एक निजी बातचीत में कहा था कि अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है। नाईजारियाई कवि केन सारो वीवा इस बात का एक बड़ा उदाहरण है, गदर और वरवर राव इस बात के उदाहरण हैं कि अच्छी कविता पर इनाम से अधिक सजा मिलती है। जबकि कवि ने कहा है,
 ‘अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है
जब सुन रहा हूं वाह, वाह/मित्र लोग ले रहे हैं हाथों-हाथ
सजा कैसी कोई सख्त बात तक नहीं कहता
तो शक होने लगता है/परसाई जी की बात पर नहीं-
अपनी कविताओं पर।’  
यह शक उसी कवि को हो सकता है, जो इनाम-ओ-इकराम की नहीं कविता की सचाई और कविता की ताकत को व्यापक जनहित के निमित्त प्रयोग करता है। 
नरेश सक्सेना के इस संग्रह में अनेक ऐसी कविताएं हैं जिसमें एक-एक कविता पर मुकम्मल तौर पर एक स्वतंत्र आलोचनात्मक लेख की जरूरत है। भाषा को लेकर नरेश जी के काव्य-चिंतन को देखना यहां जरूरी है। शब्द, अर्थ और भाषा को लेकर आम लोगों की जो राय है, जो सोच है उसके उलट नरेश जी ने बिल्कुल अलग नजरिये से इस चीज पर सोचते हैं, 
‘शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है।’ 
इस बात को तभी आप ठीक से समझ सकते हैं जब आप शिशु के भाषिक विकास को देखें। वास्तव में शिशु अर्थ पहले समझता है, भाषा तो वह बाद में सीखता है, अर्जित करता है। भाषा को लेकर उनकी एक और कविता है ‘भाषा से बाहर’ जिसमें वे कहते हैं, 
‘बेहतर हो
कुछ दिनों के लिए हम लौट चलें
उस समय में
जब मनुष्यों के पास भाषा नहीं थी
और हर बात
कह के नहीं, कर के दिखानी होती थी।’ 
 जब हम इस प्रक्रिया को ध्यान और उस पर सोचें तब हम भाषा अर्जन की प्रक्रिया, अर्थ समझने की प्रक्रिया को शब्द-शक्ति के तीनों रूपों में बेहतर तरीके से समझ सकेंगे। ‘समुद्र पर हो रही बारिश’ के बाद नरेश जी का यह संग्रह हिंदी कविता में एक नया प्रस्थान-विंदु ही नहीं, कविता को लेकर चल रहे ‘विमर्श’ को एक सार्थक और सही दिशा में किया गया हस्तक्षेप भी साबित होगा।
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नरेश सक्सेना-सुनो चारुशीला! (कविता-संग्रह),
भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, संस्करण-2012,
मूल्य-100 रुपये, पृष्ठ-82.
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202002 (उ.प्र.)
फोन- 096342-82886
(आलेख में प्रस्तुत पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं। )
 

                               (पंकज पराशर)