मेरे घर की
जूठन घिसती …
तेरे हाथों की लकीरों को
देना चाहती हूँ कुछ और
तेरी जवान उम्र की
झुर्रियों को
उतरन
दया
घृणा से कुछ अलग
कुछ और देना चाहती हूँ
नारियल फल
काली दाल में कैद
परिवार की बलाओं के साथ
कुछ और भी
मैं जानती हूँ
तुम्हारी
तीस दिन की जी तोड़ मेहनत
हथेलियों पर
छन से गिरते
चन्द सिक्कों का संगीत नहीं
मैं देना चाहती हूँ
तुम्हारी
मजबूर आँखों को
एक तृप्त अहसास …
मैं जानती हूँ
तेरी उमंगों के पंछी
कहाँ कूकते हैं
मन की बगियों में
चाहते हैं
खुला आकाश
कुछ बूंदें
और आग
देना चाहती हूँ तुम्हे
गीली मिट्टी की खुशबू
छोटी छोटी आशाओं में
क्षितिज का इंतज़ार।
तेरी मैली काया में
बेबसी की धूप लिए
मैं ही झुलस रही हूँ
ऐ अजनबी
तुम
मेरे दिल में धड़कती
मेरे अक्स का रूप हो
मैं देना चाहती हूँ तुम्हे कुछ और
कुछ और भी
जो तुम चाहती हो
जो मैं चाहती हूँ
शायद
ईनाम और प्रमाण
तेरे मेरे इन्सान होने का।
वो
उसमें है आग
जो पकाती है हौसला
जलाती है लौ
चिंगारी हो जाती है
उसमें है घास
जो पीती है पानी
ओढ़ती है धूप
झेलती है आपदाएं तमाम
अजनबी आहटें उस पर से
गुजरती हैं …
वो देखती है
मिट्टी के सपने
मिट्टी उसे
वो मिट्टी को सहेजती है
जहाँ भी लगाओ उसे
वो हरी हो जाती है
वो देखती है
पर्दे का सच
और
अस्तित्व हो जाती है
उसे समेटना असम्भव हो जाता है।
मैंनउसे छुआ
मैंने उसे छुआ मैंने उसे छुआ
उसके अधखुले होठों पर
बेजुबान बातें थीं
विरासत में थे मैले दिन
बदनाम रातें
कुछ ज़िद थी
थोड़े हौसले भी
इन्सान हो पाने की कोशिश
जीने का सामान भी था …
मैंने वो सब सुना
जो उसने कभी न कहा
मैंने वो सब छुआ
जो भी उसने छुपाया।
रात
जब सो रही थी
शहर भर की थकान
तमाम बेईमानियां भी
सो रही थी
जब सो रही थीं
खुद को बचाए रखने की
ईमानदार कोशिशें
सम्बन्धों में फैलती उदासी भी
सो रही थी
निराशाएं कहीं
जब करवटें ले रही थीं
वो
धरती और आकाश बीच
चांदनी को ओढ़े
सम्पूर्ण अस्तित्व संभाले
फैल रही थी
अपनी ही तरह
सदियों से खामोश विराट
ठीक उसी समय
मैंने देखा आईना …
आज फिर
तन्हा
गर्भित
संवेदित
उम्मीद से है रात।
स्त्री
उसके आँगन की तुलसी
हेमंत में भी
हरी रहती है
चाँदनी उसे छूने को
ज़मीन तक
उतरती है
नक्षत्र
उसकी लकीरें
करीब से पढ़ते हैं
बादल
उसकी मुंडेर को
बिन सावन
तरसते हैं
हवा
उसके कानों में
पहली दस्तक देती है
उसकी
आँखों में नाचता है
बसन्त
खुशबू
मंद-मंद
सिंगार करती है …
जब
स्त्री प्रेम करती है
रूप और रंग बदलती है
गुलाबी अदा
केसरी होने लगती है
वह माँ होने लगती है
प्रेमिका से
माँ का सफर
माँ में
प्रेमिका की झलक
स्त्री
प्रेम में
तय करती है
प्रेम में
स्त्री
गज़ब करती है
स्त्री प्रेम में
प्रकृति हो जाती है।
घोषणा
नाम – अबला
जाति – लज्जा
कुल – बेबसी
गुण – पंगु
उत्पत्ति स्थान -चारदीवारी
कर्म – इंतज़ार
पर्याय – बेचारी, अकेली, कमज़ोर
उपयोगिता – सुबह से सुबह तक
ऐसी स्त्री
अब नहीं पाई जाएगी
वो आ चुकी है
लाल रंग के साथ
भुजाओं में
छातियों में
कौंध जाएगी
पहली चीख से
अनन्त गूँज तक
वो रगों में फैल जाएगी
नकाबपोश
अब नज़र नहीं आएंगे
वो चेहरों को
मौलिकता दिलाएगी
उसकी पहचान
कुछ इस तरह है –
नाम – प्राण
जाति – मानवता
कुल – जीवन
गुण – समानता
कर्म – प्रेम
पर्याय – तुलसी, अमृता, कुमारी
स्थान – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश
उपयोगिता – दूध की पहली बूँद से
अंतिम अग्नि तक।
सम्पर्क – C/O – V.C KAPOOR H.NO. – 67
Sector – 4 , Upper Roopnagar , Jammu.
J & K .
Mobile No. – 9419795296.
इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स पाब्लो पिकासो की हैं।