हेमा दीक्षित

(   
     हेमा कुछ उन स्त्री लेखिकाओं में से एक हैं जिनके यहाँ बिना लाउड हुए स्त्री जीवन की व्यथा-कथा का चित्रण मिलता है। स्त्री जो मानव समाज और जीवन के लिए जरूरी होते हुए भी प्रायः उपेक्षित कर दी जाती है। उसकी स्त्री सुलभ जरूरतों की हंसी उडाई जाती है एवं उसे उपहास का पात्र समझा जाता है। जबकि पुरूष अपने किसी भी करतब को बेहतर बताते हुए खुद को श्रेष्ठ साबित करता है। अब स्थितियां बदल रहीं हैं। स्त्रियाँ सब कुछ समझ-बूझ रहीं हैं और अपने ही विडंबनाओं का  रहस्योद्घाटन बेबाकी से कर रही हैं। तो आईए यहाँ प्रस्तुत हेमा की कविताओं के माध्यम से ही हम स्त्री जीवन के इस सच से रू -ब-रू होते हैं। 
२१ जुलाई को कानपुर में जन्म.कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका विधिनयकी सहायक संपादिका. कानपुर से प्रकाशित  ‘कनपुरियम’ एवं ‘अंजुरि’ पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित.  नव्या ई पत्रिका, खरी न्यूज ई पत्रिका, पहली बार ब्लॉग, आपका साथ-साथ फूलों का ब्लॉग, नई-पुरानी हलचल ब्लॉग, कुछ मेरी नज़र से ब्लॉग,पर कवितायें प्रकाशित इसके अतिरिक्त बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित स्त्री विषयक कविताओं के संग्रह स्त्री हो कर सवाल करती है में भी कविताओं का प्रकाशन.


   मेरे काम के दौरान मेरे अस्पताल में मिलने वाली स्त्रियाँ …………
“मेज के उस पार …. “(यह धारावाहिक दृश्य-बिम्ब हैं. एक ही श्रृंखला की नौ कविताएं)

 
दरवाजे के बाहर खड़े
घर वाले की
अंदर बैठी घरवालियां
घरवाले हैं घोषित राजा
घरवालियों की समझ से
वो है अपनी ही मनमानी रानियाँ
पर मेज के इस पार से उस पार
आँखों के गठजोड़
परोसते है
किसमकिसम के राजाओं की
किसमकिसम की
वैधअवैध प्रजाएँ

__________________________________________________________________________________


 
अक्सर
मेज के उस पार
कर बैठती हैं
अनजान सी स्त्रियाँ
जानी सी स्त्रियाँ
सुन्दर औरतें
असुंदर औरतें
कैसी भी हों
खोलती हैं सब की सब
गाँठ दर गाँठ
अपने सद्गृहस्थ संवरे
बालो की लटो में उलझा
अपना झेला
सजाधजा
अझेल साम्राज्य ….

__________________________________________________________________________________

 
स्त्रियाँ
जाँची जाती है
आँखों से
सवालों से उँगलियों के पोरों से
पूछे गये इतिहास से
कहीअनकही
रुग्ण व्याख्याओ से
सुनी जाती है आलो से
देखी जाती है
खूब ही गहरे
जाने किनकिन ताखो से,
भांतिभांति के नमूनों से
परखी जाती है
पूरा का पूरा ही
परोस दी जाती है स्त्रियाँ
अजनबी हाथ,
फिर अभिलेखों में होती है दर्ज
यूँ ही बस
किसी पुरानी
गुम चोट के नाम
________________________________________________________________________________

 
स्त्रियाँ
कहीं भी छुई जाती है
डांटी जाती है
डपटी जाती है
कसी जाती है
गहरे बिने चोटीले मुसक्को से
पुचकारी जाती है
लात मारती गायों सी
और गरदनिया कर
बाँध दी जाती है
दुधारे खूंटो से

________________________________________________________________________________

 
स्वागत कक्ष में
समान शुल्क चुका कर आई
संदिग्ध स्त्रियाँ
असंदिग्ध स्त्रियाँ
मंगलसूत्र सिंदूर
पहन कर आई स्त्रियाँ
मंगलसूत्र सिंदूर
पर्स में रख कर लाई
छिपे कोनों में पहनती स्त्रियाँ
आखिर इनकी जरुरत ही क्यों है
_______________________________________________________________________________

 
स्त्रियाँ
दिखाती है
संकोच,शर्म और मुस्कान
इच्छाएँ
अपनीतुम्हारी
दर्द, कष्ट और बेशर्मी
शारीरिक, मानसिक और सामाजिक ,
विस्तार पटल पर
क्या कहूँ
और क्या दूँ
उनकी खंदको में
धरतीआसमान
जमींदोज पाताल
या फिर तीनो ही ….
__________________________________________________________________________________

 
स्त्रियाँ
आँखों में भर लाती है
पुरुष इच्छाओं और
सुसंस्कारो की
चौड़ी अँधेरी छाती
बाहुबली,पक्के
अवैध कब्जों की मनमानी
कराती है उनसे
खुले हाथ
किन्नरों सा
जबानी जमा खर्च बस ….

__________________________________________________________________________________

 
छोटेमोटे
लंबेपतले
मेलबेमेल
खूबसूरतगैर खूबसूरत
कैसे भी हो जोड़े
सब को हां
सभी को चाहिए है
राजकुमारों की
परजीवी अमरबेल
किसी की भी चाहना में
है ही नहीं
अक्षय वटवृक्ष सी घनी
पोषक राजकुमारियाँ
झूलते है
जिनकी लटो में
पासे फेंकते ये ही
शकुनि राज कुमार …..
__________________________________________________________________________________

 
स्त्रियाँ
अपने साथ
कितना कुछ बटोर लाती है
और सब उलट देती है
बहुत जल्दीजल्दी
फिर खाली हो जाती है
दुबक जाती है
भरी कुर्सियों पर बैठे
खालीपन के हाथो में
परती पड़ी उनकी आँखें
बिठाती है
अपनेअपने हिसाबो की पंगत,
और बिछाती है
मांगो की अपनीअपनी पत्तल
मेज के इस पार से जाते है
आँखों,शब्दों और
थामी हुई उँगलियों के
बड़ेबड़े निवाले
वो सब परोसा खा जाती है
बहुत जल्दीजल्दी
भुक्खड़ भिखारी की तरह
और बजती है किसी ….
…..
नैनसुख के कटोरे में
खनखनाते खोटे सिक्को की तरह ……

सम्प्रति, प्रबंध-निदेशक गौरी हॉस्पीटल‘, कन्नौज.
E-mail: hemadixit21@gmail.com

हेमा दीक्षित

२१ जुलाई को कानपुर में जन्म.कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि.

विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका ‘विधिनय’की सहायक संपादिका.

सम्प्रति, प्रबंध-निदेशक ‘गौरी हॉस्पीटल’, कन्नौज.

आज के कविता की खूबसूरती यह है कि इसने अलग-अलग कोनों से बिलकुल अलग अलग ऐसी आवाजें उठाईं हैं जो बिलकुल हमारे आस-पास की आवाजें लगतीं हैं. इसमें आया सुख-दुःख, इसमें आया अवसाद, इसमें आयी समस्याएं बिलकुल अपनी समस्याएं लगतीं हैं. बिना किसी बनावट के बिलकुल सहज अंदाज में बुनी गयी ये कवितायें मन के अंदर गंभीर घाव करती हैं और हमें सोचने के लिए विवश करती हैं. हेमा दीक्षित स्त्री कवियों में ऐसा ही नाम है जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से स्त्री जीवन की विडम्बनाओं को करीने से उभारा है. उदाहरण के तौर पर ‘हरी हो मन भरी हो’ कविता में हेमा ने बिलकुल अदनी सी इलायची को बिम्ब के रूप में ले कर बड़ी खूबसूरती से स्त्री जीवन के यथार्थ को सहज अंदाज में उकेर दिया है. वह इलायची जिसे सिलबट्टे पर बारीकी से पीस कर उसके खूबसूरत से अस्तित्व को ही बार-बार नष्ट कर कर दिया जाता है. वह इलायची जो बार-बार अपना अस्तित्व खोने के बावजूद अपने सुगंध से खाद्य या पेय को सुवासित बनाती रहती है. इस निर्मम समय में चुप्पी भी जब अपना वजूद खोने लगी हो, उसके साथ तमाम लानत-मलानत की जा रही हो, उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह उठने लगा हो, तो यह हेमा का ही हुनर है जो उसे शहादत के अंदाज में पेश कर उसकी आवाज को बचा लेती हैं.







अबकी बार पहली बार पर प्रस्तुत हैं इसी अंदाज वाली हेमा दीक्षित की कवितायें.

कसूर – हरी हों … मनभरी हों …

………………………………

पीतल की मजबूत – खूब मजबूत
खल्लर में डाल कर
कुटनी से कूटी जायेगी …
खूबसूरत गठीली …
छोटी इलायची…
नुकीले संवरे नाखूनों से
छील ही डाला जाएगा …
उसका नन्हा चोला …
कचरे का डिब्बा
या खौलता पानी
या सिलबट्टे की खुथरी बटन है
उसके हरैले ताजे चोले का ठिकाना …
हाथ में हाथ फँसाये…
गलबहियाँ डाले
सारे बचुआ दाने …
छिटका दिये जायेंगे …
बरसायी जायेंगी
बेमौसम की मारें …
क्या फर्क है …
अश्रु गैस के हों हठीले गोले …
या हों बेशर्म उतरे हुए
पानियों की मोटी पैनी धारें …
कूट-कूट कर पीसी जायेगी …
बारीक ,चिकनी खूब ही चिकनी ,
और जबर खुशबूदार …
अरी …!!! पग्गल …!!!
काहे का रोना …
काहे का कलपना …
सारा कसूर
तेरे चोले में छिपी
तेरी ही महक का है …

सुंनो ये उठती ध्वनियाँ

यह प्रारंभ के दिवस है
धूप फेंकी है सूरज ने
मेरी जड़ी खिड़की पर छपाक,
चौड़ी मुसी सफेदी
किनारी पतली लाल
अंध केशो पर टिकी
तुमको कैसे मालुम
अन्दर बेचैन अंधेरो में
रौशनी की भूख
जाग आई है
सुनो, देखो
उतार फेंको
कमल के फूलो का खूबसूरत
यह आबनूसी चोला
सुनो-
इस हलकी चमक से
उठती ध्वनियाँ
स्थगित मत कर निरखना
धूप की मुस्कान
साध तू व्याप्त आज्ञापकों का अराध्य
यह प्रारंभ के दिवस है
तुमको नहीं मालुम
यह मेरे – तुम्हारे
वशीकरण के दिन है !!

 रोज…

तीन सौ पैसठ अंको के
हर कोण पर
उठता है
वर्चस्व और सर्वशक्तिमानता का
निर्मम सैलाब,
सर तक रोज डूबता है
एक अस्तित्व का
दूसरे की सत्ता में
कैसे तो भी
बचे रहने का
छटपटाता द्वंद्व ,
उस में समंदर है भयावह बदरंग
दाँतो की किटकिटाहट
अकल्पनीय दृश्य, वीभत्सता,विद्रूपता
और लात- घूंसों की
आसुरी मुद्रा के मध्य
लपकती है अष्टभुजी
मादरी गालियों की दबंगई
दैनिक सुनामी गर्जना में
रोज…

सुना है…

सुना था
चुप बोलती है
हम है वहां अब
जहाँ चुप्पी भी
कुछ नहीं बोलती है
अपनी आवाज के
ताले नहीं खोलती है
निरंकुश आँखों के सवार
देखो हत्यारे
काट कर ले गए आज
चुप्पी की भी जबान
हाथ-पाँव बांध कर
घुटनों के बल
चौक पर सरेआम
जलाई जायेगी
उसकी शब्दहीन आवाज
सुना है
शहादते भी
रखती है जबान !!

 ‘गंतव्य’

चीखने को तैयार
जड़ो में कसी माटी तुम
शब्द कोमलतम ,
चुभन इतनी
पूछो मत ऐसे
कहाँ-कहाँ
चिनगारियो की भीड़,
तमाम फफोले,
दाग नहीं पड़ते कहीं यहाँ
कब तक रहेगा
यही तुम्हारे श्रृंगार का सामान
घनी काली पलकें, अँधेरी
कब तक समेट पाएंगी, धुआं
गंतव्य एक ही बिंदु
शीर्ष है जहाँ अग्निशिखा
यह मौन का गर्भाशय
और पनपता धुँआ
ऊँचे और ऊँचे
फैलो और फैलो
हो तुम आकाश से विराट
चुभो और इतना चुभो
आँखों में यहाँ
की महसूस हो तीखापन
जले हुए मेरे सम्मान की
रुलाई का कसैलापन
ले कर फफोले और
तुम्हारा कराया श्रृंगार
जीना है मुझे बिना किसी दाग!!