संतोष अलेक्स



संतोष अलेक्स मूलतः मलयाली भाषी हैं लेकिन मलयालम के साथ-साथ इन्होने हिन्दी में भी अच्छी कवितायें लिखी हैं. इनकी कविता इस मामले में थोड़ी अलग है कि इसमें हम एक अलग स्थानीयता के साथ-साथ अलग आबो-हवा का भी साक्षात्कार करते है. संतोष अलेक्स की कविताएं आप पहले भी ‘पहली बार’ पर पढ़ चुके हैं. दैनिक जागरण, दस्तावेज, अलाव, वागर्थ, रू, जनपथ, लमही, अभिनव प्रसंगवश, मार्गदर्शक जैसी पत्र-पत्रिकाओं में संतोष की कविताओं का प्रकाशन हो चुका है. आईये एक बार फिर हम आपकों रू-ब-रू कराते हैं संतोष की कविताओं से. 
वह जिसने फूलों से प्यार किया
उसे जब
फूलों के आत्महत्या की खबर मिली
तो उसने यह खबर
स्कूल के छात्रों को
कालेज के छात्रों को
मूंगफली बेचते बच्चों को
ट्रैफिक पुलिस को
गुब्बारे बेचेने वाले बालक को
प्रेमी व प्रेमिका को
कार पार्क कर शापिंग मॉल की ओर जा रहे
दंपत्तियों को दी
किसी ने भी प्रतिक्रिया नहीं दी
मेरे आने के बाद ही आत्महत्या करना
फूलों से ऐसा कह कर वह चला गया
दूसरे दिन सुबह
उसके घर की ओर उमड रही भीड में
फूल भी शामिल हो गए
काव्य निर्माण
मैं कविता लिखने बैठा
कि अचानक दो शब्द
उतर गए अखाडे में
एक अभिधा की तरफ से
दूसरा व्यंजना की तरफ से
दोनों में जबरदस्त मल्लयुद्ध हुआ
कभी अभिधा आगे
कभी व्यंजना
मैं अकेला गवाह
समझ नहीं पा रहा था
कि क्या करूं
जैसे तैसे दोनों को समझा बुझा कर
अखाडे से बाहर निकाल
वापस भेज दिया घर
जनाब
हालत मेरा देखिए
काव्य निर्माण की प्रकिया
रह गई अधूरी
लाचार
उसने जी तोड मेहनत की इस बार भी
सब कुछ सही चल रहा था
अचानक हुई बारिश से
फसल खराब हुई
खेत के मेड से वह अचानक उठा
अंगोछे से पसीना पोंछ
नदी तट की ओर चला
वहां रेत पर
छाती के बल लेट
दोनों हाथों से
मिटटी को अपने बाहों मे समेट रो पडा
दिकपाल भी कांप उठे
उसके रूदन से
दूसरे दिन सुबह
खेलने आए बच्चों को
वहां एक गहरा गडडा और अंगोछा
दिखाई दिया
तुम
तुम्हारी अनुपस्थिति में
सब कुछ रहस्मय लग रहा है
तुम्हारे घर की ओर की
लंबी पतली गली
दोनों तरफ के पक्के मकान
खाली चबूतरे
बंद खिडकियां
उदास छतें
तुम लजाती हुई
छत पर खडी रहती
मैं नीचे तेरा इंतजार करता
हम बतियाते
बिजली की रोश्नी में तुम
हमेशा से ज्यादा सुंदर दिखती
गली मकान
चबूतरे खिडकियां छत
सब अपने स्थान पर है
कमी है तो सिर्फ तुम्हारी
लो बिजली गिर रही है
फुहार पड रही है
दीवारों और खिडकियों को
छू रही हैं बूंदें
मंै गली में
सडकी की बत्ती के नीचे
तेरा इंतजार में हूं
कि वे जल उठे
तेरे कदमों के आहट से
उम्मीद
इंटरनेट युग में
मेरे पास कलम और कागज है
साथ में कंम्यूटर
इ मेल तुरंत पहुंचाएगा मेरा संदेश
यह मैं जानता हूं
फिर भी हर बार
मैं एक चिटठी लिखता हूं
इस उम्मीद में की
चिटठी हों तो जरूर पहुँच जाएगी

संपर्क-
मोबाईल-न 09441019410 
ई-मेल: drsantoshalex@gmail.com

पवित्रन तीकूनी

‘पहली बार’ पर पिछले महीने हमने एक नए स्तम्भ ‘भाषांतर’ की शुरूआत की थी. पहली कड़ी में आपने मलयाली कवि ए. अयप्पन की कविताओं का अनुवाद पढ़ा. दूसरी कड़ी में युवा मलयाली कवि पवित्रन तीकूनी की कविताएँ दी जा रहीं हैं. इसे प्रस्तुत किया है हमारे मित्र कवि और अनुवादक संतोष अलेक्स ने.  
युवा मलयाली कवि। 1974 में केरल के तीकूनी में जन्म। इंटर तक की पढाई की। घर की पारिवारिक स्थिति के चलते डिग्री की पढाई बीच में छोडनी पडी। 7 काव्य संग्रह प्रकाशित। कविताओं का अनुवाद हिंदी एवं अंग्रेजी भाषाओं में हुआ। कविता के लिए आशान पुरस्कार,  इंडियन जेसिस पुरस्कार, केरल साहित्य अकादमी का कनकश्री पुरस्कार से सम्मानित।
युवा मलयालम कवियों में पवित्रन तीकूनी चर्चित नाम है. पवित्रन की कविताओं का धरातल उनका जीवनानुभव है. पारिवारिक समस्याएं और गरीबी ने इस कवि को बचपन से ही पीछा किया, बडा हुआ तो बेराजगारी ने भी. इस अवस्था में उनकी पीडा कविता के रूप में बाहर निकली. पवित्रन की कविताओं में समकालीन समाज का ही चित्र द्रष्टव्य है. इसलिए पाठक बहुत आसानी से इनकी कविताओं से रूबरू हो जाते हैं.
पवित्रन के लिए कविता हीं जिंदगी है. वे कविता के संप्रेषण के लिए किसी प्रकार के रूपक या अलंकारों में विश्वास नही करते. अपनी बातों को व्यक्त करने के लिए वे साधारण शब्दों का उपयोग करते हैं.  वे इसी को कविता की ताकत मानते हैं.
दीवार
मैंने तेरे घर पर
पत्थर नहीं फेंका
कभी उस ओर झांका नहीं
 तेरे आंगन में
या घर पर आ कर
मेरे बच्चों ने कोई तोड फोड नहीं की
 मैंने तुझे पर कोई
आरोप नहीं लगाया
तेरे विश्वास पर शक नहीं की
तेरे झंडे का रंग जानने की कोशिश नहीं की
तेरे से किसी प्रकार का
झगडा नहीं किया
 चूल्हा न जलने पर भी
मैंने भूख को खा लिया
लेकिन तेरे से उधार नहीं मांगा
जब तूने तरक्की की व मशहूर हुआ
तो मुझे गर्व होता था
फिर भी मेरे प्यारे पडोसी
हमारे घरों के बीच में
दोनों परस्पर न देख पाने जैसा
इसे तूने क्यों खडा किया …?
अंधकार व बारिश
आसमान काला काला सा था
शाम होने लगी थी
राशन की दूकान में भीड कम होने पर
लडकी आधा लीटर मिटटी का तेल माँगी
दूकानदार ने कहा कि
राशन कार्ड के बिना नहीं मिलेगा
उसका घर पिछवाडे में था
अंधकार व बारिश में पगडंडी से हो कर चलने पर
उसने सोचा पिताजी, होते तो
मोड पर
बिजली उसे छू कर चली गई
भीग कर घर के बरामदे में घुसी तो
उसके इंतजार में थी
लालटेन की बुझी हुई बत्ती व मां
घाटा
पहली मुलाकात में
अथवा
प्यार के पहले पहले पर्व में
मेरी आंखे खो गई!
दूसरी मुलाकात में
अथवा
प्यार के दोपहर में
मेरा दिल खो गया
तीसरी मुलाकात में
अथवा
प्यार के परिपक्व अवस्था में
मैं खुद को खो दिया
चौथी मुलाकात के पहले
अथवा
प्यार के अंतिम पर्व के पहले
मैं आम के पेड की टहनी पर
लटक कर झूल रहा था
मुर्गी और लोमडी
मुर्गी और लोमडी
आपस में बहुत प्यार करते थे
साथ में जीने
के आग्रह के कारण व
विरोध करने के डर से
एक दिन रात को
दोनों भाग निकले
घर, गांव व जंगल पार कर
वे एक शहर
के पास थक कर बैठ गए
 ‘मेरे हर एक अणु में
तू ही तू है’  मुर्गी ने लोमडी से कहा
लोमडी इस पर भा गया
बाद में
मुर्गी को वह जिंदा खा गया !
मुर्गी और लोमडी
आपस में बहुत प्यार करते थे
डर
एक दिन शाम को
ईश्वर छडी के सहारे
जुलाहे के यहां पहुंचा
एक बंदूक
एक तलवार
एक चाकू
एक स्टील बम
जुलाहे ने बडे आदर से पूछा
क्या हुआ?
पहले जैसा
भक्ति का जमाना नहीं रहा अब
खुद की सुरक्षा के लिए
कुछ न कुछ तो इंतजाम करना पडता है
ईश्वर ने धीमी आवाज
में कहा
 ***     ***     ***
संपर्क –
संतोष  अलेक्स 
मोबाईल- 09441019410

संतोष अलेक्स

संतोष अलेक्स की पहचान एक बेहतर अनुवादक की रही है. लेकिन वे एक बेहतरीन कवि भी हैं. अपनी भाषा मलयालम में कविताई करने के साथ-साथ संतोष हिंदी में भी बेहतर कवितायेँ लिख रहे हैं. लोक और अपनी मिट्टी से जुड़ाव संतोष की कविताओं में सहज ही देखा और महसूस किया जा सकता है. ‘मिट्टी की कोई जात धरम नहीं होती/ जो भी गिरे वह थाम लेती है/ जैसे माँ बच्चे को थामती है’ जैसी पंक्ति मिट्टी से जुड़ा रचनाकार ही लिख सकता है.

 

 मिट्टी

गांव से शहर पहुंचने पर
मिट्टी बदल    जाती है
गमलों में सीमित है
शहर की मिटटी
गांव की मिट्टी चिपक जाती है
मेरे हाथों एवं पांवों में

मिट्टी को धोने पर भी
उसकी सोंधी गंध रह जाती है
मिट्टी सांस है मेरी
उर्जा है मेरी
पहचान है मेरी

मेरे पांव तले मिट्टी को
अरसों से बचाए रखा हूं
मिट्टी का न कोई जात है
न धर्म

मैं तुम
वह वे
जो कोई भी गिरे वह थाम लेती है
जैसे मां  बच्चे  को थामती है

सूखा

हंसिए, सरौते व खुरपियों में
जंग लग गयी है
हमरते हुए घर लौटते बैल
नहीं है अब
खेतों के सूखे मेड ढह गए हैं

क्यारियां सूख गयी हैं
फूल मुरझा रहे हैं
पीपल के पत्ते खामोश हैं
नान तेल लकडी के लिए
निकला घ्रकवाला
लोट आया है पुडिया लिए
जिसमें से झांक रहे थे बलसाकू 1

1. आंध्रप्रदेश के बंजर भूमि में उगनेवाले पत्ते जिसे अकाल के समय खाकर
   भूख मिटाई जाती है

वापसी

अचानक नींद खुली
और मां की पुकार सुनाई दी
आ जाओ यहां

बादलों को चीर कर
हांफते हुए कदम रखूंगा
स्वर्ग     में

उनके चरणों पर बैठकर
दूंगा सारे सवालों का जवाब

सब कुछ ठीक ठाक है
जरा आराम करने दो कह
घुटनों पर सिर रख कर
बैठा रहूंगा मैं
लेकिन पार किए रास्ते के बारे में
उन्हें बताउं कैसे

सुई

इसका एक छोर नुकीला
और दूसरा छोर सपाट है

स्वर्ग में पहुंचने
के लिए
मैंने सुई के छेद से घुसने की कोशिश की
मुझे पीछे छोड
पहुंच गया उंट वहां

कभी-कभी कविता नुकीला और सपाट होती है
सभी नुकीले और सपाट चीजों को
सुई नहीं कही जाती
वैसे ही सभी अनुभूतियों से
कविता नहीं बनती

शरण

सोने के पहले
दिन की घटनाओं को याद करता हूं

किसने चोट पहुंचाई
किसने मदद   की
किसकी मदद कर पाया
किसकी पदोन्नति होनी थी
किसकी हुई
आज भी सिगनेल पर
भिखारी को देख
किसने कार का शीशा उठा दिया

एक के बाद एक
घटनाएं प्रकट होती गई

जाग जाता हूं तो
नया दिन
नया सवेरा
नए प्रश्न
नई परेशानियां
सोमवार से इतवार तक
यही सिलसिला चलता

सो एक दिन
मैंने कविता की शरण ली
उसने मुझे रात दिन
फूल कांटे
चांद तारे
खेत खलिहान
झोपडी अटटालिका
घुमा-कर
जाते-जाते
मुझे शब्द दे गया
तब से
शब्द की शरण में हूं

मैंने शब्द को
देखा
परखा
समझा

अब मैं
उस कुबडे शब्द की तलाश में हूँ
जो कहता है
चलो, पहुंचा दू घर 1

1. केदारनाथ सिंह की चर्चित कविता “ शब्द ” की पंक्ति