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प्रदीप त्रिपाठी |
जन्म- 7 जुलाई, 1992
डेली न्यूज ऐक्टिविस्टमें साप्ताहिक लेखन
शैक्षणिक योग्यता- एम.ए. हिन्दी (तुलनात्मक सा.),एम. फिल. हिन्दी (तुलनात्मक साहित्य),
लोक-साहित्य,एवं कविता-लेखन में विशेष रुचि
विभिन्न चर्चित पत्र-पत्रिकाओं (दस्तावेज़, अंतिम जन, परिकथा, कल के लिए, वर्तमान साहित्य, अलाव, नवभारत टाइम्स, डेली न्यूज़ ऐक्टिविस्ट आदि) में शोध-आलेख एवं कविताएं प्रकाशित
गैर हिन्दी भाषी क्षेत्र से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कल्पना‘ का हिन्दी साहित्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। एक दौर में इस पत्रिका ने हिन्दी साहित्य को अनेक महत्वपूर्ण रचनाकार प्रदान किए। कल्पना में छपना साहित्यिक जगत में मान्यता प्राप्त रचनाकार का दर्जा प्राप्त करना होता था। कहानीकार मार्कंडेय कल्पना से जुड़े अनेक किस्से सुनाया करते थे। कल्पना के सम्पादक बदरी विशाल पित्ती से उनके सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध आजीवन बने रहे। इसी का परिणाम था कि आगे चल कर पित्ती साहब ने मार्कंडेय को ‘कथा’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका निकालने में अपना सहयोग प्रदान किया और यह क्रम आगे भी पित्ती साहब के पुत्र ने निभाया। बहरहाल कल्पना पर एक महत्वपूर्ण शोध आलेख हमें उपलब्ध कराया है युवा कवि प्रदीप त्रिपाठी ने। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रदीप का यह आलेख ‘कल्पना की साहित्यिक जमीन’।
‘कल्पना’ की साहित्यिक जमीन
प्रदीप त्रिपाठी
हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में जब हम पत्रिकाओं की महत्ता एवं उसके योगदान की चर्चा करते है तो महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित पत्रिका ‘सरस्वती’ का नाम लेना समीचीन होगा। द्विवेदी जी ने पत्रकारिता के इतिहास में एक नए युग की स्थापना की। उन्होंने ‘सरस्वती’ के जरिये जिस प्रकार से हिन्दी को एक नई दिशा एवं गति प्रदान करने की कोशिश की दुर्भाग्य से उस काम को आगे की पत्रिकाएँ उस रूप में न कर सकी। ‘सरस्वती’ ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नया आयाम प्रदान करने के साथ-साथ हिन्दी भाषा एवं साहित्य के विकास में महती भूमिका निभायी। यदि हम सीधे स्वातंत्र्योत्तर युग पर अपनी दृष्टि डालें तो इस दौर में ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘नई कहानी’, ‘आलोचना’ जैसी तमाम पत्रिकाओं का उदय हुआ लेकिन ‘सरस्वती’ जैसा रूख अब तक की किसी भी पत्रिका में न था। इसी बीच अहिन्दी भाषी क्षेत्र हैदराबाद से ‘कल्पना’ का प्रकाशन शुरू हुआ जिसका तेवर अब तक की अन्य पत्रिकाओं से भिन्न था। दूसरे शब्दों में कहें तो यह कुछ-कुछ ‘सरस्वती’ पत्रिका के कार्यों की तरफ अग्रसर दिखी।
इस पत्रिका का आरंभ 15 अगस्त, 1949 को हुआ, इसके प्रधान सम्पादक आर्येन्द्र शर्मा तथा सम्पादक मंडल में डा. रघुवीर सिंह, प्रो. रंजन, मधुसूदन चतुर्वेदी एवं बद्रीविशाल पित्ती थे। ‘कल्पना’ अपने शुरुआती दिनों में द्वैमासिक थी लेकिन तीसरे वर्ष से उसका प्रकाशन मासिक पत्रिका के रूप में होने लगा। ‘कल्पना’ का आरंभिक विकास साहित्य के साथ-साथ सांस्कृतिक और कलात्मक पत्रिका के रूप में हुआ है। इसके प्रवेशांक की शुरुआत हिन्दी के शीर्षस्थ लेखकों से हुई, यह इसकी सकारात्मक सोच एवं उपलब्धि थी। इस पत्रिका की यह प्रमुख विशेषता रही है कि इसने आद्यांत अपने प्रत्येक अंकों में साहित्य के लगभग सभी विधाओं का समायोजन करके चलने का निर्णय लिया था। यदि हम गौर करें तो इसके प्रवेशांक को देखकर यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि इसने अपने प्रथम अंक में ही कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध, गीत, पुस्तक-परिचय एवं अनुदित कृतियों आदि को प्रमुखता से स्थान दिया है। इसके प्रथम अंक में वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा ‘भारतीय ललित कला की परम्पराएँ’ एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा ‘आज भी काव्य की आवश्यकता है’ आदि महत्त्वपूर्ण निबन्ध प्रकाशित हुए जो काफी चर्चित रहे।
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बद्री विशाल पित्ती |
हिन्दी निबन्ध विधा के बारे में जो यह आरोप लगाया जाता था कि वह हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा काफी पिछड़ी हुई है, द्विवेदी जी एवं इस दौर के अन्य निबन्धकारों ने इस कमी को पूरा किया। इस दौर के निबन्धकारों के सन्दर्भ में डॉ. सदानंद प्रसाद गुप्त ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के उद्वरण को प्रस्तुत करते हुए लिखा है- ”इन निबन्धकारों ने अपने व्यापक अध्ययन की पृष्ठभूमि पर अपनी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया को अत्यंत मार्ग स्पर्शी बनाकर अभिव्यक्त किया है। इनमें कलाकारोचित तन्मयता एवं लौकिक धरातल पर पाठकों के प्रति आत्मीयता का भाव है।”
अगस्त, 1949 में प्रकाशित हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘आज भी काव्य की आवश्यकता है’ अपने दौर के चर्चित निबंधों में से एक था। इस निबन्ध में उन्होंने काव्य के सन्दर्भ में लिखा है कि- ”काव्य ही एक मात्र ऐसी महती शक्ति है जिसके बल पर हम जगत की यावतीय सफलताओं को पा सकते हैं, ठीक नहीं है। चेतना के संपूर्ण अवयवों को उचित ढंग से विकसित करके ही मनुष्य जीवन चरित्रार्थ हो सकता है। उसे जिस प्रकार उत्तम अन्न और वस्त्र चाहिए, व्यवस्थित राजप्रणाली और सुनियोजित अर्थ-व्यवस्था चाहिए, सुपारिभाषित कानून और सुपारिचालित न्याय-व्यवस्था चाहिए उसी प्रकार काव्य भी चाहिए, संगीत भी चाहिए और विज्ञान भी चाहिए।”
इस प्रकार यह कहा जा सकता है इस दौर के साहित्य में रचनाकारों के बहुआयामी व्यक्तित्त्व की झाँकी उनके निबंधों में मिलती है। उनके व्यक्तित्त्व की यह विराटता निबंधों को विचार एवं अनुभूति दोनों पक्षों से सशक्त बनाती है।
‘कल्पना’ के प्रधान सम्पादक आर्येन्द्र शर्मा मूलत: वैयाकरण थे। उनकी पुस्तक ‘बेसिक ग्रामर ऑफ हिन्दी’ भारत सरकार ने प्रकाशित की जिसे आज भी हिन्दी का मानक व्याकरण माना जाता है। भाषा के प्रति उनकी गंभीरता और अच्छी रचनाओं को पहचानने की विवेकी दृष्टि ने ‘कल्पना’ को अपनी एक अलग जगह बनाने में मदद की। उसके प्रवेशांक में अन्य रचनाओं के अतिरिक्त लगभग एक दर्जन मौलिक निबंधों की प्रक्रिया अगले अंकों में भी निरंतर जारी रही। इनमें समालोचनात्मक, सैद्धांतिक, विवेचनात्मक, यात्रा-वर्णन, समस्यात्मक, दार्शनिक और सांस्कृतिक निबंधों की प्रमुखता रही। इस दौर के लेखकों में वासुदेव शरण अग्रवाल, चंद्र बली पांडेय, राय आनंद कृष्ण, भदंत आनंद कौशल्यायन, बाबूराम सक्सेना, बलदेव उपाध्याय, शांति प्रिय द्विवेदी, धीरेंद्र वर्मा, मन्मथ नाथ गुप्त, अगर चंद नाहटा, हजारी प्रसाद द्विवेदी और विनय मोहन शर्मा आदि प्रमुख थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहें तो- ”यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही अधिक संभव होता है इसीलिए गद्य शैली के विवेचक उदाहरणों के लिए अधिकतर निबन्ध ही चुना करते हैं।”
इस प्रकार हम देखते हैं कि उस दौर में निबंधों की एक प्रवाहमान धारा चली जिसे ‘कल्पना’ ने काफी महत्त्व दिया। इसके पश्चात् प्रत्येक अंक में लोक-साहित्य, लोक-संस्कृति, लोक-गीत एवं अन्य भारतीय ललित कलाओं पर भी निबन्ध लिखे गए। जिनमें प्रमुख हैं- ‘हमारा लोक-साहित्य लोक-विश्वास’ :श्यामचरण दूबे (जून-1950), ‘भारतीय ललित कला की परम्पराएँ’ :वासुदेवशरण अग्रवाल (अगस्त-1949), ‘प्रगति संस्कृति और लोक-कला’-शांतिप्रिय द्विवेदी (अप्रैल, 1950), ‘हमारा लोक-साहित्य-लोक कथा’: श्यामचरण दूबे (अप्रैल-1950), आदि।
इस दौर में ‘कल्पना’ ने लोक-संस्कृति से जुड़े आलेखों को प्रमुखता दी जिनसे अन्य पत्र-पत्रिकाएँ बिल्कुल अछूती दिख रही थी इसलिए ‘कल्पना’ अन्य पत्र-पत्रिकाओं से विशिष्ट थी एवं उसका अलग ही महत्त्व था।
हिन्दी भाषा के विकास में भी ‘कल्पना’ की महती भूमिका रही है। वैसे इसके प्रवेशांक की संपादकीय को देखा जाय तो यह चीजें पूर्णत: स्पष्ट है। इसके उद्देश्यों की चर्चा करते हुए सम्पादक ने यह स्पष्ट जाहिर किया है कि ‘कल्पना’ का एक मात्र ध्येय हिन्दी के स्तर को ऊँचा करना ही रहेगा।”एक प्रकार से देखें तो ‘कल्पना’ ने न सिर्फ साहित्य के विकास में अपनी भूमिका निभायी बल्कि भाषा के विकास में भी अहम योगदान दिया है।
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कल्पना का प्रवेशांक, अगस्त 1949 |
‘कल्पना’ के दूसरे वर्ष (फरवरी 1950) का अंक भी काफी महत्त्वपूर्ण रहा। इस अंक में निबन्ध विधा को छोड़कर अन्य विधाओं (जैसे-कविता, कहानी, गीत, एकांकी आदि) की प्रमुखता रही। इस पत्रिका ने इस अंक में निराला के ‘गीत’ को महत्त्व दिया। इसके अतिरिक्त अन्य कई चर्चित कविताओं का प्रकाशन भी इसी अंक में हुआ जिनमें भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘निष्ठाओं के छोर न छोड़ो’, ‘विराट संगीत’ -जानकी वल्लभ शास्त्री, ‘स्वप्न-भय’- लक्ष्मी नारायण मिश्र, ‘वन में’- सरोजिनी नायडू आदि प्रमुख थी। मौरिस बेरिंग की एकांकी ‘घोड़ा काला था’ एवं अलेग्जेंडर पुश्किन की कहानी ‘पोस्टमास्टर’ को भी ‘कल्पना’ ने इसी अंक में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । शांतिप्रिय द्विवेदी का ‘हिन्दी कविता का विकास क्रम’ काफी चर्चित लेख रहा। इसमें उन्होंने द्विवेदी युगीन प्रतिनिधि कवियों एवं कविताओं की बड़े विस्तार से चर्चा की है। इस पत्रिका का दिसंबर,1950 का अंक भी काफी प्रतिष्ठित हुआ। इस अंक में ‘शुभ-पुरुष’ (कविता)- सुमित्रानंदन पंत, संस्कृति का अर्थ- श्यामचरण दूबे, ‘कहाँ के रुपए कैसे रुपए (कहानी)-वृंदावनलाल वर्मा, ‘कविता और रहस्यवाद’- प्रभाकर माचवे, ‘बच्चन की कविता’- नगेंद्र, ‘अभिसार’ (कविता)-टैगोर, ‘नवागात’ (कहानी)-मैक्सिम गोर्की आदि रचनाएँ प्रमुख थी।
‘कल्पना’ की यह प्रमुख विशेषता रही है कि इसने अपने प्रत्येक अंक में न सिर्फ हिन्दी साहित्य बल्कि अन्य भाषाओं की रचनाओं को हिन्दी अनुवाद के रूप में सामने लाने का पूर्ण प्रयास किया है। जैसे-रिचार्ड लैकरिज की कहानी ‘अच्छा आदमी’ (अप्रैल, 1950), ‘दो जर्मन लोकगीत’आर्येन्द्र शर्मा (अगस्त, 1949), ‘अनजन में शिशु की प्रार्थना’ (कविता)-लुई मैकनीस (नवंबर, 1952) आदि।
सन् 1952 से ‘कल्पना’ मासिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित होने लगी परंतु इसके नीति एवं उद्देश्यों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। संपादकीय की स्थितियों में कुछ बदलाव जरूर आए, उसमें गंभीरता तथा रचनात्मकता आयी। नई कविता एवं ललित निबंधों की प्रतिष्ठा हुई। पूरे वर्ष प्रत्येक अंक में 5 स्तंभ, 6 निबन्ध, 4 कहानी, 1 एकांकी, 4 कविताओं एवं 2 समालोचनाओं का औसत निरंतर बना रहा। जनवरी, 1952 में ‘कल्पना’ ने प्रमुख रचनाकारों एवं उनकी रचनाओं को प्रमुखता दी जिसमें ‘रजत-शिखर’ (कविता)- सुमित्रा नंदन पंत, ‘कोष-निर्माण’- नंददुलारे वाजपेयी, प्रयोगवादी कविता’- विनय मोहन शर्मा, ‘नस्रती’ (दखिनी कवि)– राहुल सांस्कृत्यायन, ‘संबल’ (कहानी)- विष्णु प्रभाकर आदि महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्रमुख थी। कलात्मक अभिव्यक्तियों को भी ‘कल्पना’ ने प्रारंभ से ही काफी महत्त्व दिया है। यही कारण है कि उसका रूप साहित्य के साथ-साथ कला-पत्रिका के रूप में भी सामने आया। इसमें प्रारंभ के दो वर्षों में सारदा उकील, असित कुमार हालदार, सुधीर खास्तगीर, अमृता शेरगिल, नंदलाल वसु, फिदा हुसैन जैसे शीर्षस्थ कलाकारों के बहुतायत चित्र प्रकाश में आए। बाद के वर्षों में विजयवर्गीय, विनोद बिहारी मुखर्जी और दिनकर कौशिक जैसे उत्कृष्ट चित्रकारों के भी चित्र प्रकाशित हुए। ‘कल्पना’ की यह प्रमुख विशेषता रही है कि इसने कई दुर्लभ चित्रों को भी सामने लाने का प्रयास किया। इसी दौरान इसमें ‘कला-स्तंभ’ नाम से एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ (कॉलम) को काफी प्रतिष्ठा मिली। सितंबर, 1959 में ‘कल्पना’ में कई प्राचीन चित्र जैसे-मूर्ति कला, शुंग गुप्त काल के चित्र, मौर्य कुषाणकालीन चित्र, राजधानी शैलियों के चित्रों की भरमार रही। विवेकी राय के शब्दों में कहें तो- ”निस्संदेह मकबूल फिदा हुसैन, जगदीश गुप्त, कृष्णप्रिया, शमशाद हुसैन और लक्ष्मण गौड़ के आधुनिक संवेदनाओं से वेष्ठित सजीव रेखांकन जो ‘कल्पना’ की शोभा बढ़ाते हैं और इस पत्रिका के पुराने अंकों की सज्जा-कला के नए एवं सूक्ष्म उत्कर्ष के विकासात्मक इतिहास की ओर इंगित करते हैं, वह अभूतपूर्व है।”
‘कल्पना’ में ‘पुस्तक-परिचय’ नामक स्तंभ को भी काफी प्रतिष्ठा मिली है। इस कॉलम की यह विशेषता रही है कि इसमें भिन्न-भिन्न रचनाकारों की नई पुस्तकें लेखकों/समीक्षकों द्वारा प्रकाश में आती रही। यह स्तंभ इस पत्रिका में आद्यांत किसी न किसी रूप में बना रहा, यही इसकी सफलता रही। ‘कल्पना’ में तीसरे वर्ष फरवरी,1952 में भगवतशरण उपाध्याय का लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था- ‘नाटककार क्या लिखे?‘। इसमें उन्होंने नाटक के विविध सोपानों जैसे अब तक किस तरह के नाटक लिखे गए या लिखे जा रहे हैं? वे कितने प्रासंगिक हैं? आदि पर विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने अपने लेख में एक जगह लिखा है- ”समाज की स्थिति का निरूपण करने में जितना समर्थ नाटक हो सकता है, उतना अन्य कोई साहित्य नहीं। इसलिए नाटककार को चहिए कि वह सचेत होकर जन-जन की कल्याणकर प्रवृत्तियों का चरित्र रंगमंच पर प्रकाशित करे और मनोरंजन के साथ ही प्रगति की मंजिलें तय करने में सहायक हो।”
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कल्पना का सम्पादकीय पृष्ठ 1, अगस्त, 1949 |
हिन्दी एकांकी-नाटक के विकास के इतिहास का अध्ययन करने के लिए ‘कल्पना एक उपयुक्त माध्यम है। सन् 1950 के लगभग हिन्दी एकांकियों को पूर्ण विकसित कर विदेशी एकांकियों के समकक्ष खड़ा करने में ‘कल्पना’ का ठोस एवं अहम हस्तक्षेप रहा है। विवेकी राय का फरवरी, 1977 में ‘कल्पना: एक सर्वेक्षण’ शीर्षक से एक आलेख सामने आया जिसमें उन्होंने इसका जिक्र करते हुए लिखा है- ”सन् 1950 के लगभग हिन्दी एकांकी को पूर्ण विकसित विदेशी भाषा के एकांकियों के समकक्ष लाने की कोई ठोस ‘कल्पना’ सम्पादक मंडल के सामने थी और शायद इसी के आग्रह पर प्रवेशांक में ले.पी. याल्तेसेफ की एक श्रेष्ठ रूसी एकांकी और दूसरे अंक में मौरिस बैरिंग की अंग्रेजी एकांकी को प्रकाशित किया। पत्रिका के तीसरे अंक (अप्रैल, 1950) में वृंदावन लाल वर्मा की एकांकी ‘कनेर’ और फिर 5वें अंक में विष्णु प्रभाकर की एकांकी ‘रेडियो’ एवं ‘नारी’ प्रकाशित हुई। ये दोनों एकांकी नि:संदेह बहुत श्रेष्ठ और कलात्मक निखार युक्त हैं।”
विधा को मुक्त मंच दिया है। मार्च, 1952 में भी कविता, कहानी एवं कुछ अन्य विधाओं के साथ यह श्रृंखला आगे बढ़ती गई। अप्रैल, 1952 में प्रभाकर माचवे की एकांकी ‘रामभरोसे’ और महादेवी वर्मा एवं शिवमंलसिंह ‘सुमन’ के गीत प्रकाश में आए। लक्ष्मीनारायण मिश्र, उपेंद्रनाथ अश्क और विष्णु प्रभाकर इस वर्ष के प्रमुख एकांकीकार रहे। इसके साथ ही रंगमंच संबंधी समसामायिक दृष्टि और अपेक्षाओं को स्पष्ट करने के लिए निबन्ध भी प्रकाशित हुए। ‘हिन्दी नाट्य साहित्य में प्रहसन’ (रामचरण सिंह), ‘वर्तमान रंगमंच प्रवृत्तियाँ और संगठन’ (जगदीशचंद्र माथुर) इस वर्ष के इस विषय से संबंधित श्रेष्ठ निबन्ध हैं। दिसंबर, 1952 में मार्कण्डेय की कहानी ‘गुलरा के बाबा’ सर्वप्रथम ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई। इस दौर में कहानी के क्षेत्र में काफी बदलाव आया जिसे ‘कल्पना’ ने प्रमुखता दी है। ‘कल्पना’ का नवंबर, 1952 का अंक भी काफी महत्त्वपूर्ण रहा। इस अंक की प्रमुख रचनाओं में विष्णु प्रभाकर की एकांकी ‘अर्द्धनारीश्वर’ नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’, ‘बच्चन के गीत’ एवं कुछ अन्य आलेख जिसमें विनयमोहन शर्मा का ‘हिन्दी समालोचना का विकास’, शिवप्रसाद सिंह का ‘पिछले दशक की हिन्दी कविता’, प्रमुख थे।
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कल्पना का सम्पादकीय पृष्ठ 2, अगस्त, 1949 |
मई, 1953 तक आते-आते ‘कल्पना’ के स्ट्रक्चर में कुछ बदलाव जरूर आए। इस वर्ष सम्पादक मंडल में दो नए नाम शामिल हुए जिसमें भवानी प्रसाद मिश्र, मुनींद्र एवं कला-सम्पादक के रूप में जगदीश मित्तल प्रमुख थे। इस अंक से ‘कल्पना’ को निबन्ध, कहानी, कविता एवं स्तंभ चार भागों में बाँट दिया गया। इस दौर के कहानीकारों में राम कुमार वर्मा, गुरुवचन सिंह, श्रीकृष्ण विलियम फाकनर, कुमारी कल्पना, मनोहर श्याम जोशी, भीष्म साहनी आदि प्रमुख लेखकों की कहानियों को ‘कल्पना’ ने प्रकाशित किया। इसके अलावा रघुवीर सहाय, केदार नाथ सिंह, निराला, विजयदेव नारायण साही, प्रभाकर माचवे, भवानी प्रसाद मिश्र, वीरेंद्र मिश्र, कीर्ति चौधरी, दुष्यंत कुमार, नरेश मेहता आदि कवियों की कविताओं को भी ‘कल्पना’ ने तरजीह दी। इसके अतिरिक्त इस दौर के निबन्धकारों में मुख्य रूप से डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, भगीरथ मिश्र, चन्द्रबली, कन्हैयालाल सहल, गिरिजादत्त शुक्ल, रामशंकर भट्टाचार्य, अज्ञेय, शिवदान सिंह चौहान, डॉ. मंगलदेव शास्त्री आदि प्रमुख रहे। इस वर्ष स्तंभों को भी काफी प्रतिष्ठा मिली जिसमें प्रमुख है-‘साहित्यधारा’, ‘कला-प्रसंग’, ‘सांस्कृतिक टिप्पणियाँ’, ‘समालोचना’ आदि। पाँचवें वर्ष में (1954) ‘कल्पना’ का रूप-रंग एक बार फिर बदला। निबंधों की केंद्रीय साहित्येत्तर गंभीरता कम हुई साथ ही कहानियों की संख्या में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई। पाँचवें वर्ष में मंगलदेव शास्त्री के भारतीय संस्कृति पर 5 निबन्ध और रमाशंकर भट्टाचार्य के चार निबन्ध संस्कृत भाषा और व्याकरण से संबंधित प्रमुखता से आए। जनवरी, 1955 में दुष्यंत कुमार का निबन्ध ‘नई कविता परम्परा और प्रयोग’ काफी चर्चित रहा। इसमें उन्होंने ‘नासिकेतोपाख्यान’ एवं रानी केतकी की कहानी’ से गुजरते हुए प्रेमचंद एवं प्रसाद के बाद की पीढ़ियों पर बड़े विस्तार से चर्चा की है। यदि हम गौर करें तो कुमार कृष्ण ने अपनी पुस्तक ‘कहानी के नए प्रतिमान’ में इसी सन्दर्भ को उद्धृत करते हुए लिखा है- ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में ‘नई कविता’ के बाद कहानी ही ऐसी विधा है जिसने युगीन चेतना को उसकी समग्र जटिलताओं के साथ चित्रित करने की चेष्टा की है।… नए संदर्भों की खोज ने ही पचास के आस-पास सामने आने वाली कहानी को ‘नई कहानी’ की संज्ञा देने पर विवश किया है। ‘नई कहानी ‘ से संबद्ध वाद-विवाद सबसे पहले पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही सामने आया, जिनमें ‘कहानी’, ‘लहर’, ‘विनोद’, ‘कल्पना’ के नाम विशेष रूप से लिए जा सकते हैं।”
सन् 1955-56 में ‘कल्पना’ में कुछ स्थिरता दिखायी दी। इस दौरान ‘कल्पना’ का ध्यान नए रचनात्मक मौलिक साहित्य पर केंद्रित रहा। पूरे वर्ष में लगभग 100 लेखकों की 125 रचनाएँ प्रकाशित हुई। वास्तव में इस समय लंबी रचनाओं की एक श्रृंखला ही चली। कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी, मोहन राकेश, रमेश वक्षी, राजेन्द्र यादव, रामदरश मिश्र, हृदयेश जैसे कथाकारों की एक-एक कहानियाँ प्रकाशित हुई। इस वर्ष से ‘कल्पना’ में नए कवियों के रूप में मधुकर गंगाधर, मलयज, श्रीकांत वर्मा, भारतभूषण अग्रवाल, कुँवर नारायण, दुष्यंत कुमार, अज्ञेय, रघुवीर सहाय एवं कीर्ति चौधरी आदि प्रमुखता से आए। अप्रैल, 1955 में अज्ञेय की कविता ‘टेसू’ एवं दिनकर की ‘समर शेष है’ काफी चर्चित रही। जुलाई,1955 में हंसराज रहवर द्वारा रचित ‘प्रगतिवाद बनाम यथार्थवाद’ निबन्ध काफी महत्त्वपूर्ण रहा। ‘अंधा युग’ धर्मवीर भारती द्वारा रचित गीति-नाट्य भी ‘कल्पना’ में इसी वर्ष प्रकाशित हुआ।
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कल्पना का सम्पादकीय पृष्ठ-3, अगस्त, 1949 |
‘कल्पना’ के 56 वें अंक में बालकृष्ण राव का निबन्ध ‘नई कविता’ का प्रकाशन कई किस्तों में होता रहा। इस वर्ष सम्पादक मंडल में रघुवीर सहाय भी शामिल हुए जिन्होंने कविता विधा के उत्तरोत्तर विकास में काफी योगदान दिया।
सन् 1957 में ‘यह बेचारी हिन्दी’ शीर्षक से एक स्तंभ शुरू हुआ जिसकी उस समय जरूरत भी थी। नामवर सिंह ने अपने साक्षात्कार में ‘‘कल्पना’के संबंध में कहा है कि -”भाषा के विकास में ‘सरस्वती’ पत्रिका द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो भूमिका निभायी उसे आर्येन्द्र शर्मा ने पूरा किया जिसकी तरफ अन्य पत्रिकाओं का ध्यान नहीं जा रहा था। साहित्यिकता के स्तर पर यदि देखा जाय तो उस दौर में ‘कल्पना’ से बेहतर अन्य कोई पत्रिका नहीं थी।”
मार्च, 1959 में शिव प्रसाद सिंह की कहानी ‘नन्हों’ काफी चर्चित रही तथा इसी अंक में राजेन्द्र यादव ने रेणु के उपन्यास परती-परिकथा पर ‘परती-परिकथा की ताजमनी’ शीर्षक से उसके महत्त्व को प्रतिस्थापित करने का पूरा प्रयास किया जिसे ‘कल्पना’ ने महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। जून, 1959 में हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित उपन्यास ‘चारु चंद्रलेख’ का (क्रमश: अंशत:) प्रकाशन सर्वप्रथम ‘कल्पना’ में ही हुआ । इस उपन्यास के सन्दर्भ में विवेकी राय ने लिखा है- “चारु चंद्रलेख मध्यकालीन राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और धर्म साधना की पृष्ठभूमि पर सृष्ट एक अत्यंत ही गंभीर किंतु मनोरंजक और गत्यात्मक उपन्यास है। कुल मिलाकर इसे सांस्कृतिक उपन्यास की कोटि में उच्च स्थान पर रखा जा सकता है।”
‘कल्पना’ के मई, 1959 के अंक को देखें तो यह भी कई स्तरों से काफी प्रतिष्ठित हुआ। इसमें मुख्य रूप से भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘तुम और मैं’ बच्चन की कविता ‘मिट्टी से हाथ लगाए रह’ एवं भागीरथ मिश्र का एक आलेख ‘कामायनी की प्रतीकात्मकता’ काफी महत्त्वपूर्ण रहे। इस दौर के प्रमुख रचनाकारों में श्रीकांत वर्मा, मंगलदेव शास्त्री, विद्यासागर नौटियाल, मोहन राकेश (यात्रा-रोमांस, फरवरी1957), बच्चन, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, देवी शंकर अवस्थी, नेमि चंद्र जैन, निर्मल वर्मा, पुरुषोत्तम खरे, दुष्यंत कुमार, शिव प्रसाद सिंह, रघुवीर सहाय, बालस्वरूप राही, अशोक वाजपेयी, प्रभाकर माचवे, मन्नू भंडारी, भारत भूषण अग्रवाल, शांति प्रिय द्विवेदी, धर्मवीर भारती, रमेश कुंतल मेघ, शिवदान सिंह चौहान आदि प्रमुख थे।
सन् 1958 में ‘कल्पना’ ने जब विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका का रूप धारण कर लिया तो उसके निबंधों की चयन प्रक्रिया में भी काफी बदलाव आया। ‘कल्पना’ ने जितनी भी विधाओं को महत्त्व दिया है वह अपने समय में गंभीर एवं चर्चित रही। उसमें समालोचना का भी प्रमुख स्थान है। साहित्य समीक्षा से जुड़े गंभीर, स्थाई एवं मौलिक समालोचना को ‘कल्पना’ ने प्रमुख स्थान दिया है। नवंबर,1952 में विनय मोहन शर्मा का लेख ‘हिन्दी में समालोचना का विकास’ इस दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है।
अगस्त, 1959 में पत्रिका का 100 वाँ अंक पूरा हुआ तो इस अंक को एक विशेषांक के रूप में ‘कल्पना के 100 अंक’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया। इस विशेषांक में दसवें वर्ष तक यानी 1 से 100 अंक तक में छपने वाली सामग्री की एक लंबी सूची प्रकाशित हुई। ‘कल्पना’ के सौ अंक’ विशेषांक का ब्यौरा देते हुए विवेकी राय ने लिखा है- ”कल्पना के सौ अंक’ विशेषांक में प्रकाशित सूची के अनुसार इस अवधि में ‘आकाशवाणी’ स्तंभ में 12 रचनाएँ, ‘कमलाकांत जी ने कहा’ स्तंभ में 16, ‘कलाप्रसंग’ में 12, मूर्तिकला के अन्तर्गत 41 चित्र, प्राचीन कला के 12, राजस्थानी कला के 19, मुगल कला के 7, पहाड़ी कला के 6, समसामयिक 61 चित्रकारों के 158 चित्र, 76 विषयों पर टिप्पणियाँ, ‘निबन्ध चिंतन’ स्तंभ में चार रचनाएँ, 956 पुस्तकों की समीक्षा, विदेशी साहित्य का सर्वेक्षण 17 संपादकीय, 59 विषयों पर पाठकीय पत्र और ‘साहित्यधारा’ में सैकड़ों-सैकड़ों संज्ञाएँ जुड़ी, कुल 531 लेखकों की 1525 रचनाएँ ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई।”
इस प्रकार हम कह सकते हैं अब तक के ‘कल्पना’ के 100 अंकीय यात्रा को रेखांकित करने में यह विशेषांक काफी महत्त्वपूर्ण रहा है। 1960 में ‘कल्पना’ में कुछ नए रचनाकार भी सामने आए जिनमें प्रमुख हैं- राज कमल चौधरी, दूध नाथ सिंह, मुक्तिबोध, मुद्राराक्षस आदि। नवंबर, 1963 में पहली बार नेमिचंद्र जैन ने ‘कल्पना’ में नवलेखन की विस्तृत व्याख्या एक निबन्ध के रूप में की। इसी वर्ष ‘उर्वशी’ की समीक्षा पर लगातार कई अंकों में एक लंबी बहस चली। इनमें प्रमुख रूप से रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मी कांत वर्मा, शिवप्रसाद सिंह, सुमित्रा नंदन पंत, ओम प्रकाश, दीपक, मैथिली शरण गुप्त, राम विलास शर्मा, विद्या निवास मिश्र जैसे प्रतिष्ठित रचनाकारों ने ‘उर्वशी’ के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत किए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ‘कल्पना’ ने समीक्षा के क्षेत्र में हमेशा संवादों एवं बहसों के न्यायिक परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करने में अहम भूमिका अदा की है।
मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘आशंका के द्वीप अंधेर में’ सर्वप्रथम ‘कल्पना’ (नवंबर, 1964) में प्रकाशित हुई। यह अंक अन्य कई दृष्टियों से भी महत्त्वपूर्ण रहा। केदारनाथ अग्रवाल का एक आलेख ‘आधुनिकता, नई कविता: समस्या और समाधान’ इसी अंक में प्रकाशित हुआ। उन्होंने इस आलेख में नई कविता के सन्दर्भ में लिखा है- ”आज कोई भले ही कह ले ‘नई कविता’ एक उपलब्धि है, एक सिद्धि है, एक ईकाई है किंतु वस्तु-स्थिति इसके विपरीत है। वह न उपलब्धि है, न सिद्धि है और न जीवंत ईकाई। वह खंडित मानव मन की मनोदशा की खंडित अभिव्यक्ति मात्र है।”
दिसंबर, 1964 में कीर्ति चौधरी की कविता ‘वे कैसे दिन थे, विनोद कुमार शुक्ल की कविता ‘टुकड़ा आदमी’ एवं अन्य रचनाकारों की रचनाएँ प्रमुख रूप से प्रकाशित हुई। 15 वें वर्ष में (1964) औसतन 10 स्तंभ, 10-12 रचनाएँ जिसमें मुख्य रूप से 4 कहानियाँ, 4 कविता एक निबन्ध और एक समीक्षा का प्रकाशन होता रहा। यदि गौर करें तो 10 वर्ष पहले ‘कल्पना’ का जो रूप था, यहाँ तक आते-आते उसमें काफी हल्कापन दिखने लगा। निबंधों का ह्रास और कविता-कहानी का नवोन्मेष होने लगा। यहाँ तक कि इसके स्तंभों में भी अपेक्षाकृत काफी गिरावट आयी। इस दौर के सम्पादक मंडल में एक-दो और नए नाम जुड़े। इस समय कुल मिला कर ‘कल्पना’ के सम्पादक मंडल में छ: सदस्य थे जिनमें मधुसूदन चतुर्वेदी, बद्री विशाल पित्ती, मुनींद्र, जगदीश मित्तल, गौतम राव, ओम प्रकाश निर्मल प्रमुख थे। चौदहवें वर्ष के अन्त में प्रधान सम्पादक डॉ. आर्येन्द्र शर्मा के पदत्याग के बाद नया नाम प्रयाग शुक्ल का जुड़ा। कुछ दिनों तक भवानी प्रसाद मिश्र एवं वृंदावन बिहारी मिश्र ने भी इस पत्रिका के संपादन में अपनी महती भूमिका निभायी।
1968 तक आते-आते पाठकों की ‘कल्पना’ के गिरते स्तर संबंधी कई प्रतिक्रियाएँ आयी। जुलाई, 1967 में ‘निराला का आधुनिक बोध’ शीर्षक से बच्चन सिंह का लेख काफी महत्त्वपूर्ण रहा। इस अंक के सम्पादक मंडल में एक नया नाम मणि मधुकर का भी जुड़ा। ‘कथा-साहित्य की भाषा’ शीर्षक से सितंबर, 1967 राजेंद्र यादव का लेख चर्चा में रहा। उन्होंने कथा साहित्य की भाषा के सन्दर्भ में लिखा है- ”अनुभूति और अभिव्यक्ति के बीच भाषा निश्चय ही एक तीसरी जीवित और स्वतंत्र सत्ता है। वह हमें औरों से मिली है और हमें औरों से जोड़ती है।”
नवंबर, 1967 के अंक को अगर देखें तो ‘कल्पना’ यहाँ तक आते-आते बिल्कुल क्षीण लगी थी। कुल मिला कर इस अंक में 2-3 कविताएँ और 2 से 3 आलेख प्रकाशित हुए। जनवरी-फरवरी, 1967 में लक्ष्मी कांत वर्मा के लेख ‘हिन्दी साहित्य के पिछले बीस वर्ष’ का प्रकाशन क्रमश: कई अंकों में हुआ। उन्होंने अपने इस सर्वेक्षण में यह बताने की पूरी कोशिश की है कि हिन्दी साहित्य ने अपने पिछले 20 वर्षों में कितनी प्रगति की है। रघुवीर सहाय की कविता ‘आत्महत्या के विरूद्ध’ सबसे पहले ‘कल्पना’ (मई, 1967) में ही प्रकाशित हुई। इस दृष्टि से यह अंक काफी चर्चित और महत्त्वपूर्ण रहा। जनवरी, 1968 में लक्ष्मीकांत वर्मा ने साठोत्तरी पीढ़ी और विसंगतियों के सन्दर्भ में काफी विस्तार से चर्चा की है। फरवरी, 1968 में एक साथ कई रचनाकारों द्वारा ‘समकालीन कविता: एक परिचर्चा’ शीर्षक से एक सार्थक बहस सामने आयी। इसमें मुख्य रूप से इंद्रनाथ मदान, गंगा प्रसाद विमल, गजेंद्र तिवारी, परमानंद श्रीवास्तव, श्रीराम वर्मा, राजीव सक्सेना आदि रचनाकार शामिल हुए । जून, 1968 में विपिन कुमार अग्रवाल ने ‘युवा लेखन को समझने की एक दकियानूसी कोशिश’ शीर्षक से आलेख लिखा जिसको ‘कल्पना’ ने प्रमुख स्थान दिया है। गौरतलब है कि ‘कल्पना’ ने अपने प्रवेशांक में ही इस तरफ संकेत किया है कि वह रचना को रचनाकार के प्रसिद्धि के आधार पर महत्त्व न दे कर सिर्फ रचना को महत्त्व देगी, इसका ‘कल्पना’ ने आद्यांत निर्वहन किया है। अगस्त,1968 में भी ‘कल्पना’ में कई महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्रकाशित हुई जिनमें प्रमुख हैं- मुक्तिबोध की कविता ‘भूत का उपचार’, शमशेर बहादुर सिंह की चार कविताएँ, विद्यानिवास मिश्र की ‘परम्परा: आधुनिक भारतीय सन्दर्भ’ आदि। इसी क्रम में सितंबर, 1968 में राम स्वरूप चतुर्वेदी का लेख ‘समकालीन उपन्यास: भाषिक प्रयोग के नए स्तर’, काफी चर्चित रहा। अक्टूबर,1968 में कुछ महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाएँ प्रकाश में आयी जिनमें प्रमुख हैं- लक्ष्मीकांत वर्मा, नागार्जुन, अशोक वाजपेयी, परमानंद श्रीवास्तव आदि। ‘रचना और आलोचना का समकालीन सन्दर्भ’ जगदीश नारायण श्रीवास्तव का यह लेख अक्टूबर-दिसंबर, 1969 में प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने रचना और आलोचना के बीच अन्तर्संबंधों पर बड़े विस्तार से चर्चा की है। अगस्त-सितंबर, 1969 में शिवकुमार मिश्र का लेख ‘नवलेखन के सामाजिक यथार्थ: सन्दर्भ कविता का…सन्दर्भ कथा साहित्य का’, प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने नवलेखन और सामाजिक संदर्भों की बड़े विस्तार से व्याख्या की है। अगस्त-सितंबर, 1969 में लगभग 200 पृष्ठों में यह नवलेखन विशेषांक के रूप में भी सामने आया। इस अंक के अतिथि सम्पादक शिवप्रसाद सिंह ने नवलेखन की स्थितियों, समस्याओं एवं उसके स्वरूप का विश्लेषण संपादकीय में किया है। इस वर्ष सम्पादक मंडल में दो-तीन नए नाम सामने आए जिनमें प्रमुख हैं- कांता, आलम खुंदमीरी एवं सईद मोहम्मद।
अक्टूबर, 1970 में ‘अलग-अलग वैतरिणी-कितना माटी कितना पानी’ (शशि भूषण शीतांशु) एवं जुलाई, 1972 में ‘प्रसाद की कविता: जागरण के सन्दर्भ में’ (युगेश्वर) महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाश में आए। कुल मिलाकर देखें तो 1970 के बाद से ‘कल्पना’ का स्वरूप पहले की अपेक्षाकृत कमजोर होने लगा एवं 1975 तक आते-आते वह पूरी तरह निष्क्रिय हो गई।
हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में ‘कल्पना’ एक ऐसी ऐतिहासिक पत्रिका है जिसने साहित्य के लगभग सभी विधाओं (कविता, निबन्ध, आलोचना, कहानी आदि) के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इतना ही नहीं बल्कि इसने समय-समय पर कई साहित्यिक हस्तक्षेप भी किए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वातंत्र्योत्तर युगीन पत्रिकाओं में ‘कल्पना’ अन्य पत्रिकाओं से कई मायने में भिन्न है या हम यह कहें कि जिस तरह की साहित्यिकता ‘कल्पना’ में आद्यांत बनी रही वह हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में अविस्मरणीय है।
संदर्भ –
[1] हिंदी साहित्य विविध परिदृश्य: सदानंद प्रसाद गुप्त, पृ.- 56
[2] कल्पना (पत्रिका) अगस्त, 1949 पृ.-15
[3] हिंदी साहित्य का इतिहास: आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृ.- 346
[4] कल्पना (पत्रिका) अगस्त, 1949, संपादकीय से
[5] कल्पना और हिंदी साहित्य: विवेक राय, पृ.- 27
[6] कल्पना (पत्रिका), फरवरी 1952, पृ.-110
[7] कल्पना (पत्रिका),फरवरी, 1977, पृ.-197
[8] कहानी के नए प्रतिमान: कृष्ण कुमार, पृ.-24
[9] साक्षात्कार: नामवर सिंह, परिशिष्ट से उद्धृत
[10] कल्पना (पत्रिका), फरवरी,1977, पृ. 37
[11] कल्पना और हिंदी साहित्य: विवेकी राय, पृ.13
[12] कल्पना (पत्रिका), नवंबर,1964, पृ.-43
[13] कल्पना (पत्रिका), सितंबर,1967, पृ.-67
संपर्क-
हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग,
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
स्थायी पता –
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उ.प्र., 276137
संपर्क-सूत्र- 08928110451
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(कल्पना का आवरण चित्र और कल्पना के सम्पादकीय पृष्ठ ‘हिन्दी समय डॉट काम’ से साभार.)