शेखर जोशी जन्मदिन विशेष -7

शेखर जोशी जन्मदिन विशेष के क्रम में सातवीं कड़ी में आज प्रस्तुत है युवा कवि अच्युतानंद मिश्र का आलेख क्या सचमुच नौरंगी बीमार है.

अच्युतानंद मिश्र
क्या सचमुच नौरंगी बीमार है?
                                                                
शेखर जोशी नयी कहानी दौर के संभवतः अकेले ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने उपन्यास नहीं लिखा. शेखर जोशी की कहानियों में मनुष्य के नैतिक बोध की सीमाओं एवं शक्तियों की पहचान की गई है. साथ ही यह प्रश्न भी कि वर्तमान समय में मनुष्य के लिए नैतिक बने रहना संभव है क्या?. वे कौन सी ताकतें है जो किसी देश-काल में मनुष्य के नैतिक बोध को नियंत्रित करती हैं. क्या वह महज़ उसके आत्म से ही निर्मित होता है? क्या महज़ आत्म संघर्ष ही मनुष्य को किसी देश कल में नैतिक बनाये रख सकता है जैसा कि निर्मल वर्मा की कई कहानियों में होता है लेकिन शेखर  जोशी की कहानियों में यह बहुत आसानी से देखा जा सकता है कि मनुष्य का यह जो नैतिक विचलन है वह समाज प्रदत्त है. ‘नौरंगी बीमार है’ में अंततः नौरंगी समाज में पहले से मौजूद नैतिक विचलन का शिकार होता है. वह व्यक्तिगत संघर्ष की लड़ाई हार जाता है और इस तरह वह समाज के भविष्य में शामिल होता है. नौरंगी बीमार है जैसी कहानियां अखबार में छपने वाली तमाम ख़बरें भी हो सकती है जिसमें समाज में मूल्यों के विघटन को महज़ सूचना में बदल दिया जाता है .परन्तु जो बात इस कहानी को सूचना के दायरे से बाहर लती है एवं गंभीर विश्लेषण की मांग करती है वह है कहानी के अंत में नौरंगी की उपस्थिति
लेकिन सुबह नौरंगी काम पर हाज़िर था .चुस्त दुरुस्त! जैसे इस बीच कुछ हुआ ही न हो. वह सीना तान कर शॉप में घुसा और अपने ठिये पर पहुँच गया.
कहानी के अंत में नौरंगी का चुस्त दुरुस्त होना क्या इंगित करता है? नौरंगी उस बीमारी में शामिल हो जाता है समाज को अपनी गिरफ्त में ले चुका है. क्या नौरंगी की परिणति चेखव की कहानी वार्ड न. 6 के डॉक्टर की ही परिणति नहीं है. याद करिये वार्ड न. 6 में डॉक्टर अंततः उसी वार्ड में बीमार होने को बाध्य होता है जिसमे वह इलाज करता रहा है .क्या नौरंगी के साथ भी ऐसा ही नहीं होता. वार्ड न. 6 बन चुके समाज में नौरंगी अंततः शामिल हो जाता है और यही बात इस सामान्य सी लगने वाली खबर को खबर के दायरे से बाहर लाती है और गंभीर विश्लेषण की मांग करती है.
नेहरु युग के फलस्वरूप इस देश में नव निर्माण की प्रक्रिया चल पड़ी. देश के विकास का बहुआयामी लक्ष्य रखा गया. लेकिन इस लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया में वर्गों में बंटें समाज की अनदेखी की गयी. योजनाओं के निर्धारण से लेकर कार्यान्वन तक की समस्त प्रक्रियाओं में समाज के उच्च वर्ग एवं उच्च मध्य वर्ग के हितों का विशेष ध्यान रखा गया. यह दिलचस्प है कि नेहरु के शासन में यह बात तो लगातार कही गयी कि हमारी अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था है उसका लक्ष्य समाज के सभी तबकों को लाभ पहुँचाना है. परन्तु आज तकरीबन पचास वर्षों बाद यह देखना कठिन न होगा कि मिश्रित अर्थव्यवस्था की ओट ले कर इस देश में पूंजीवाद के कंधों को मज़बूत किया गया. हाँ यह जरुर है कि उसे मज़बूत करने में किसानों और मजदूरों के श्रम का इस्तेमाल किया गया. इसके लिए उनके नैतिक बोध की लगातार दुहाई दी गयी.
आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा यह दुनिया के किसी हिस्से में रह रहे मनुष्य का मौलिक अधिकार होता है. फिर ऐसा क्यों हुआ कि ये सुविधाएँ सरकारी नौकरी पेशा लोगों को आसानी से दे दी गयी और बांकी लोगों को इससे महरूम रखा गया! इस प्रक्रिया ने समाज में  पहले से मौजूद वर्गों की खाई को और चौड़ा नहीं कर दिया. सरकारी नौकरियों में भी निम्न वर्ग और निम्न मध्य वर्ग की लगातार उपेक्षा की गयी. स्वतंत्रता, समानता और साक्षरता के लक्ष्यों की प्राप्ति नेहरु युग का केंद्रीय लक्ष्य था. लेकिन क्या सचमुच यही लक्ष्य था ?
शेखर जोशी की कहानियों में यह प्रश्न बहुत शिद्दत से उठाया गया है. उनकी एक कहानी है ‘पुराना घर.’ मनुष्य की तमाम स्थितियां किस तरह उसके बंद वर्गीय दायरे में सिमट कर रह जाती है उसे इस कहानी में देखा जा सकता है मनुष्य की स्मृतियाँ भी अंततः उसके वर्गीय दायरों को ही मज़बूत करती हैं. रोटी कपडा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का संघर्ष जब मनुष्य के अकेले का संघर्ष बन जाता है तो सब से पहले जो चीज़ नष्ट होती है वह है मनुष्य का नैतिक बोध. डॉक्टर अपने बचपन के पुराने मकान को देख कर जब अपने घर लौटता है तो पाता है कि  ‘फटे पुराने कपडे पहने ,रूखे बालों वाले सहमे हुए’ चार बच्चे नीम के नीचे बैठें हैं. वह उन्हें चोर समझता है और अंत में उनमे से एक छोटा लड़का अपने पिता को बुला कर ले आता है .उन बच्चों का मजदूर पिता बताता है कि दरअसल उनका कोई घर नहीं है वे तो जहाँ काम करते हैं वहीँ रहने लगते है और काम पूरा होते ही वहां से चले जाते हैं पिछले दिनों इस कोठी को उन लोगों ने ही बनाया था और उसकी बड़ी लड़की अपने भाइयों को अपना पुराना मकान दिखाने लायी थी और अंत में-
“अच्छा बाबा ,अब जाओ ,छुट्टी करो” डॉक्टर ने घर की ओर कदम बढा लिए. फाटक से बाहर निकल कर अपने माता-पिता के पीछे जाते हुए भाई ने बहिन से कहा , “ऐ दिदिया ! ऊ हमार झूला भी तोड़ दिए हैं.”
“न रे !रस्सी ऊपर समेट कर रखें है .हम देखे थें” अधिक जानकार बनने के गौरव के साथ लड़की ने भाई को यह सूचना दी.
कहानी का यह सर्वाधिक ठंडा और गतिहीन अंश प्रतीत होता है. इस राख के भीतर छिपी चिंगारी के सन्दर्भ में लेखक अपनी ओर से कोई टिपण्णी नहीं करता है. बावजूद इसके एक पूरा परिदृश्य मूर्त हो जाता है. शेखर जोशी की कई कहानियों का अंत ऐसा ही है, चाहे ‘आशीर्वचन’ हो ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ हों या ‘गोपुली बुबु’. परन्तु कुछ कहानियां ऐसी भी हैं जैसे बदबू, दाज्यू, विडुवा, मेंटल आदि इनका अंत अचानक से यथार्थ को झटके से बदल देता है .एक तीखा आक्रोश समूची कथावस्तु को अपनी जद में ले लेता है. कहानी के अंत में बदलते हुए यथार्थ को महसूस किया जा सकता है. लेकिन इन दोनों तरह की कहानियों के अंत जो बात कॉमन रह जाती है वह है यथार्थ को बदलने की अनिवार्यता का बोध. यह बोध महज़ इन्ही कहानियों में नहीं बल्कि उनकी सभी कहानियों में मौजूद रहता है. यही वजह है की उपरोक्त दोनों तरह की कहानियों मूल उदेश्य यथार्थ का निरूपण उतना नहीं है जितना की उसे बदल देने का बोध.
आज़ादी के बाद की सामाजिक मूल्यहीनता एवं वर्ग विषमता का बढ़ना शेखर जोशी की कहानियों के केन्द्र में है. निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है की शेखर जी की तमाम कहानियों को पढ़ें तो उनके पात्रों के अन्तःसुत्र इस समाज के अन्तःसूत्रों से मिलते हैं. क्या यह संभव नहीं की इन तमाम कहानियों को एक वृहद उपन्यास की तरह पढ़ा जाये जिसमे भारतीय मनुष्य की नियति एवं स्थिति की पहचान की गयी है और उसे बदलने के अन्तः सूत्रों के शिनाख्त.

(अच्युतानंद मिश्र युवा कवि एवं आलोचक है.)
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शेखर जोशी: जन्म दिन विशेष -6

 शेखर जोशी जन्म दिन विशेष के क्रम में प्रस्तुत है शेखर दादा की एक चर्चित कहानी ‘दाज्यू’
दाज्यू
शेखर जोशी
 
चौक से निकल कर बाईं ओर जो बड़े साइनबोर्ड वाला छोटा कैफे है वहीँ जगदीश बाबू ने उसे पहली बार देखा था. गोरा-चिट्टा रंग, नीली शफ्फाक आँखें, सुनहले बाल और चाल में एक अनोखी मस्ती- पर शिथिलता नहीं. कमल के पत्ते पर फिसलती हुई पानी की बूँद की सी फुर्ती. आँखों की चंचलता देख कर उसकी उम्र का अनुमान केवल नौ-दस बरस ही लगाया जा सकता था और शायद यही उसकी उम्र रही होगी.
अधजली सिगरेट का एक लम्बा कश खीचते हुए जब जगदीश बाबू ने कैफे में प्रवेश किया तो वह एक मेज पर से प्लेटें उठा रहा था, और जब वे पास ही कोने की टेबल पर बैठे तो वह सामने था. मानों घंटे से उनकी, उस स्थान पर आने वाले व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा हो. वह कुछ बोला नहीं. हाँ नम्रता प्रदर्शन के लिए थोडा झुका और मुस्कुराया भर था, पर उसके इसी मौन में जैसे सारा ‘मीनू’ समाहित था. ‘सिंगल चाय’ का आर्डर पाने पर वह एक बार पुनः मुस्कुरा कर चल दिया और पलक मारते ही चाय हाजिर थी.
मनुष्य की भावनाएं विचित्र होती हैं. निर्जन एकांत स्थान में निस्संग होने पर भी कभी कभी आदमी एकाकी अनुभव नहीं करता. लगता है, इस एकाकीपन में भी सब कुछ कितना निकट है, कितना अपना है, परन्तु इसके विपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर-नारियों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति होती है. लगता है, जो कुछ है वह पराया है, कितना अपनत्वहीन! पर यह अकारण ही नहीं होता. इस एकाकीपन की अनुभूति, इस अलगाव की जड़े होती हैं- विछोह या विरक्ति की किसी कथा के मूल में.
जगदीश बाबू दूर देश से आये हैं. अकेले हैं. चौक की चहल-पहल, कैफे के शोरगुल में उन्हें लगता है, सब कुछ अपनत्वहीन है. शायद कुछ दिनों रह कर, अभ्यस्त हो जाने पर उन्हें इसी वातावरण में अपनेपन की अनुभूति होने लगे. पर आज तो लगता है यह अपना नहीं, अपनेपन की सीमा से दूर, कितना दूर है! और तब उन्हें अनायास ही याद आने लगते हैं अपने गाँव-पड़ोस के आदमी, स्कूल-कालेज के छोकरे, अपने निकट शहर के कैफे-होटल.!
‘चाय शाब !’
जगदीश बाबू ने राखदानी में सिगरेट झाडी. उन्हें लगा, इन शब्दों की ध्वनि में वही कुछ है जिसकी रिक्तता उन्हें अनुभव हो रही है. और उन्होंने अपनी शंका का समाधान कर लिया.
‘क्या नाम है तुम्हारा’
‘मदन’
अच्छा मदन ! तुम कहाँ के रहने वाले हो?’
‘पहाड़ का हूँ बाबूजी !’
‘पहाड़ तो सैकड़ों हैं आबू, दार्जिलिंग, मंसूरी, शिमला, अल्मोड़ा! तुम्हारा गाँव किस पहाड़ में है?’
इस बार शायद उसे पहाड़ और जिले का भेद मालूम हो गया था. मुस्कुरा कर बोला-
‘अल्मोड़ा शाब अल्मोड़ा.’
‘अल्मोड़ा में कौन सा गाँव है?’ विशेष जानने की गरज से जगदीश बाबू ने पूछा.
इस प्रश्न ने उसे संकोच में डाल दिया. शायद अपने गाँव की निराली संज्ञा के कारण उसे संकोच हुआ था इस कारण टालता हुआ सा बोला, ‘वह तो दूर है शाब अल्मोड़ा से पंद्रह-बीस मील होगा.’
‘फिर भी नाम तो कुछ होगा ही.’ जगदीश बाबू ने जोर दे कर पूछा. 
दोट्यालगों’ वह सकुचाता हुआ-सा बोला.
जगदीश बाबू के चहरे पर पुती हुई एकाकीपन की स्याही दूर हो गयी और जब उन्होंने मुस्कुरा कर मदन को बताया कि वे भी उसके निकटवर्ती गाँव के रहने वाले हैं तो लगा जैसे प्रसन्नता के कारण अभी मदन के हाथ से ट्रे गिर पड़ेगी. उसके मुंह से शब्द निकलना चाह कर भी न निकल सके. खोया खोया सा मानो अपने अतीत को फिर लौट-लौट कर देखने का प्रयत्न कर रहा हो.
अतीत- गाँव – ऊँची पहाड़ियाँ… नदी … ईजा (माँ)… बाबा…. दीदी… भूलि (छोटी बहन)… दाज्यू (बड़ा भाई)…!
मदन को  जगदीश बाबू के रूप में किसकी छाया निकट जान पडी! ईजा?… नहीं, बाबा? नहीं. दीदी… भूलि? नहीं, दाज्यू? हाँ, दाज्यू!
दो-चार दिनों में ही मदन और जगदीश बाबू के बीच की अजनबीपन की खाई दूर हो गयी. टेबल पर बैठते ही मदन का स्वर सुनाई देता-
‘दाज्यू, जैहिन्न….!’
‘दाज्यू, आज तो ठण्ड बहुत है.’
‘दाज्यू, क्या यहाँ भी ह्यूं (हिम) पडेगा?’
‘दाज्यू, आपने तो कल बहुत थोड़ा खाना खाया.’ तभी किसी ओर से ‘बॉय’ की आवाज पड़ती और मदन उस आवाज की प्रतिध्वनि के पहुँचने के पहले ही वहां पहुँच जाता. ऑर्डर ले कर जाते जाते जगदीश बाबू से पूछता- ‘दाज्यू, कोई चीज?’
‘पानी लाओ.’
‘लाया दाज्यू’ दूसरी टेबल से मदन की आवाज सुनाई देती.
मदन दाज्यू शब्द को उतनी ही आतुरता और लगन से दुहराता जितनी आतुरता से बहुत दिनों के बाद मिलने पर माँ अपने बेटे को चूमती है.
कुछ दिनों बाद जगदीश बाबू का एकाकीपन दूर हो गया. उन्हें अब चौक, कैफे ही नहीं सारा शहर अपनेपन के रंग में रंग में रंगा हुआ सा लगने लगा. परन्तु अब उन्हें यह बार-बार ‘दाज्यू’ कहलाना अच्छा नहीं लगता.और यह मदन था कि दूसरे टेबल से भी ‘दाज्यू’….!
‘मदन इधर आओ.’
‘आया दाज्यू!’
‘दाज्यू’ शब्द की आवृति पर जगदीश बाबू के मध्यमवर्गीय संस्कार जाग उठे. अपनत्व की पतली डोरी ‘अहं’ के तेज धार के आगे न टिक सकी.
‘दाज्यू’ चाय लाऊ?’
‘चाय नहीं लेकिन यह दाज्यू-दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो रात-दिन. किसी की प्रेस्टीज का ख्याल भी नहीं है तुम्हे?’
जगदीश बाबू का मुंह क्रोध के कारण तमतमा गया. शब्दों पर अधिकार नहीं रह सका. मदन प्रेस्टीज का अर्थ समझ सकेगा या नहीं, यह भी उन्हें ध्यान नहीं रहा. पर मदन बिना समझाए ही सब कुछ समझ गया था.
मदन को जगदीश बाबू के व्यवहार से गहरी चोट लगी. मैनेजर से सिरदर्द का बहाना बना कर वह घुटनों में सर दे कोठरी में सिसकियाँ भर-भर रोता रहा. घर-गाँव से दूर, ऐसी परिस्थिति में मदन का जगदीश बाबू के प्रति आत्मीयता प्रदर्शन स्वाभाविक ही था. इसी कारण प्रवासी जीवन में पहली बार उसे लगा जैसे किसी ने उसे इजा की गोदी से, बाबा की बाहों से, और दीदी के आँचल से बलपूर्वक खींच लिया हो.
परन्तु भावुकता स्थायी नहीं होती. रो लेने पर, अंतर की घुमड़ती वेदना को आँखों की राह बहार निकाल लेने पर मनुष्य जो भी निश्चय करता है वे भावुक क्षणों की अपेक्षा अधिक विवेकपूर्ण होते हैं.
मदन पूर्ववत काम करने लगा.
दूसरे दिन कैफे जाते हुए अचानक ही जगदीश बाबू की भेंट बचपन के सहपाठी हेमंत से हो गयी. कैफे में पहुच कर जगदीश बाबू ने इशारे से मदन को बुलाया. परन्तु उन्हें लगा जैसे वह दूर-दूर रहने का प्रयत्न कर रहा हो. दूसरी बार बुलाने पर ही मदन आया. आज उसके मुंह पर वह मुस्कान न थी. और न ही उसने ‘क्या लाऊ दाज्यू’ कहा. स्वयं जगदीश बाबू को ही कहना पडा, ‘दो चाय, दो आमलेट’ परन्तु तब भी ‘लाया दाज्यू’ कहने की अपेक्षा ‘लाया शाब’ कह कर वह चल दिया. मानों दोनों अपरिचित हों.
‘शायद पहाडिया है?’ हेमंत ने अनुमान लगा कर पूछा.
‘हाँ’ रूखा सा उत्तर दे दिया. जगदीश बाबू ने वार्तालाप का विषय ही बदल दिया.
मदन चाय ले आया था.
‘क्या नाम है तुम्हारा लडके?’ हेमंत ने अहसान चढाने की गरज से पूछा.
कुछ क्षणों के लिए टेबल पर गंभीर मौन छा गया. जगदीश बाबू की आँखें चाय की प्याली पर ही झुकी रह गयीं. मदन के आँखों के सामने विगत स्मृतियाँ घूमने लगीं… जगदीश बाबू का एक दिन ऐसे ही नाम पूछना… फिर… दाज्यू आपने तो कल थोड़ा ही खाया… और एक दिन ‘किसी की प्रेस्टीज का ध्यान नहीं रहता तुम्हें…’ जगदीश बाबू ने आँखें उठा कर मदन की ओर देखा, उन्हें लगा जैसे अभी वह ज्वालामुखी सा फूट पडेगा.
हेमंत ने आग्रह के स्वर में दुहराया ‘क्या नाम है तुम्हारा?’
‘बाय कहते हैं शाब मुझे.’ संक्षिप्त सा उत्तर दे कर वह मुड़ गया. आवेश में उसका चेहरा लाल हो कर और भी अधिक सुन्दर हो गया था.       .
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शेखर जोशी: जन्म दिन विशेष -5

शेखर जोशी जन्म दिन विशेष की पांचवी कड़ी में प्रस्तुत है शैलेय का आलेख ‘कोसी का घटवार यानी प्रेम नदी का सागर’
शैलेय
कोसी का घटवार
यानी
प्रेम नदी का सागर
प्रेम जहां सघन हो जाता है तो उसमें सहज ही एक प्रकार की आत्मीय सादगी आ जाती है। सादगी का यह औदार्य ही शेखर जोशी कृत कोसी का घटवारकहानी का मूल उत्स है। कहानी जिस तरह अपने समूचे परिवेश के साथ उठ खड़ी होती है वह कहानीपन को तो उठान देता ही है, पाठक की संवेदना का परिष्करण भी साथ-साथ करती चलती है। यही कारण है कि कहानी अपने चरम पर पहुंच कर एक ऐसी टीस पैदा करती है जो पाठक की संवेदना और चेतना को एक गहरे प्रेमाकुल भावबोध से भर देती है। यहां यह महत्वपूर्ण तथ्य भी है कि इस प्रेमाकुल भावबोध में कहानी सामाजिक विसंगतियों तथा व्यक्तिगत जीवन की विडंबनाओं की पोल खोलती हुई पाठक को एक सहज स्वातंत्र्यपूर्ण वातावरण निर्मित हेतु प्रेरित भी करती है।
एक अच्छी कहानी सर्वप्रथम अपने परिवेश को लेकर सर्वाधिक संवेदनशील और सतर्क होकर चलती है। ताकि मूल कथा के विकास के विभिन्न सोपान भी पाठक को सहज बोधगम्य होते रह सकें। इस दृष्टि से कोसी का घटवारवातावरण निर्माण एवं संचयन का उत्कृष्ट उदाहरण है। कहानी अपने केन्द्रीय विषय तक पहुंचने की यात्रा को अपने समूचे वातावरण के साथ क्रियाशीलता के साथ बांधते हुए चलती है। यथा-‘‘चक्की के निचले खण्ड में छच्चिर-छच्चिर की आवाज के साथ पानी को काटती हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाज! अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज्यादा शोर करती है। इसी मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात सुनाई नहीं देती और अब तो भले नदी पार कोई बाले, तो बात यहां सुनाई दे जाय।’’
वातावरण निर्माण की यह क्रियाशीलता कोसी का घटवार  के अंत तक कथासूत्र का साथ दिये चलती है। यहां तक कि कहानी ही उसके परिवेश की विशिष्ट गतिविधि के साथ अपने अंतिम सोपान को ग्रहण करता है –‘‘घट के अंदर की काठ की चिड़िया अब भी किट-किट की आवाज कर रही थी, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज आ रही थी, और कोई स्वर नहीं, अब सुनसान, निस्तब्ध!’’
अच्छी कहानी वातावरण निर्माण के साथ-साथ के समानान्तर रूप से अपने पात्रों को भी खड़ा करती चलती है। कोसी का घटवारकहानी में पात्रों की नींव इतनी सहज रूप से पड़ती है मानो पाठक को जैसे स्वयं की जड़ें मिल रही हों- ‘‘घुटनों तक उठी हुई पुरानी फौजी पैंट के मोड़ को गुसाईं ने खोला। गूल के चलते हुए थोड़ा भाग भीग गया था। पर इस गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी। पैंट की सलवटों को ठीक करते-करते गुसाईं ने हुक्के की नली से मुंह हटाया। उसके होठों पर बांये कोने पर हल्की सी मुस्कान उभर आयी। बीती बातों की याद ….गुसाईं सोचने लगा,  इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है।……नहीं,याद करने का मन नहीं करता।…………
….वैसी ही पैंट पहनने की महत्वाकांक्षा लेकर गुसाईं फौज में गया था।पर फौज से लौटा ,तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया।’’
तब आती हैं जीवन स्थितियां और पात्रों का विकासक्रम। कोसी का घटवारमें अपने पात्रों के विकासक्रम को लेकर विलक्षण सजगता है। जीवन समाज में आई हलचल के सुख-दुख पात्रों की मनःस्थिति का निर्धारक होती हैं। इस आरोह-अवरोह के मध्य पात्र समय सापेक्ष स्वरूप और व्यक्तित्व ग्रहण करते चले जाते हैं। कोसी का घटवारमें व्यक्तित्व गठन की यह प्रक्रिया बहुत ही सहज और सजीव है। यथा –‘‘सर पर पिसान रखे एक स्त्री उससे यह पूछ रही थी। गुसाईं को उसका स्वर परिचित सा लगा। चौंक कर उसने पीछे मुड़ कर देखा। कपड़े में पिसान ढीला बंधे होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ गया था। गुसाईं उसे ठीक से नहीं देख पाया। लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के लिए वह बाहर की ओर मुड़ा, लेकिन तभी फिर अंदर जा कर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा। काठ की चिड़िया किट-किट बोल रही थी और उसकी गति के साथ गुसाईं को अपने हृदय की धड़कन का आभास हो रहा था।
घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे  हुए अन्न का चूर्ण फैला हुआ था, जो अब तक गुसाईं के पूरे शरीर पर छा गया था। इस र्कतिम सफेदी के कारण वह बृद्ध सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।’’
इसी मरह एक अन्य उदाहरण-‘‘हताश सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाता हुआ देखता रहा और फिर अपने हाथ तथा सिर पर गिरे हुए आटे को झाड़ कर एकदो कदम आगे बढा। उसके अन्दर किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया।’’
मनोविज्ञान की दृष्टि से कोसी का घटवारके पात्र अत्यंत पारदर्शी हैं। जटिल से जटिल संवेदनात्मक उद्धेलन के क्षणों में भी पात्रों की मनःस्थिति और कार्यव्यापार पाठक के लिए सहज बोधगम्य है। यथा- ‘‘इतनी देर बाद सहसा गुसाईं का ध्यान लक्षमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में काला चरेरू-सुहाग चिन्ह- नहीं था। हतप्रभ सा गुसाईं उसे देखता रहा। अपनी अव्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुंझलाहट हो रही थी।’’……….‘‘गुसाईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल सहानुभूति की  दृष्टि से उसे देखता भर रहा। दाडि.म के वृक्ष से पीठ टिकाये लक्षमा घुटने मोड़ कर बैठी थी। गुसाईं सोचने लगा, पन्द्रह-सोलह साल किसी की जिन्दगी में कोई कम नहीं होते। पर उसे लगा,  उस छाप के नीचे वह आज भी पन्द्रह वर्ष पहले की लक्षमा को देख रहा है।’’
हमारे किसी भी कार्यव्यापार के लिए हमारी जीवन दृष्टि ही अंतिम रूप से जिम्मेदार होती है। निर्णायक तथ्य। इसी से हमारी संवेदनात्मक गहराई और चेतनागत उदात्ता का परिचय मिलता है। इस दृष्टि से कोसी का घटवारदर्शन के उस उच्चतम शिखर को स्पर्श करती है जहां मनुष्यता ही जीवन का सर्वोत्तम मूल्य है –‘‘गुसाईं को लक्षमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज में बोला- ‘‘दुख-तकलीफ के वक्त ही आदमी-आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूंका हमने इस जिंदगी में। है कोई हिसाब! पर क्या  फायदा! किसी के काम नहीं आया। पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी !’’
परन्तु गुसाईं के इस तर्क के बावजूद भी लक्षमा अड़ी रही,  बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गम्भीरता से कहा, ‘‘गंगानाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो,  कम हो जाय। अपने-पराये प्रेम में हंस-बोल दें, तो वही बहुत है दिन काटने के लिए।’’
इस तरह कहानी कोसी का घटवारअपने समापन पर पाठक को एक ऐसे शांत विरेचन पर पहुंचाती है जहां जीवन के क्षणिक आवेगों की निस्सारता पर एक हल्की स्मित के साथ एक गहरे धैर्य में उतरा जा सकता है। शायद इसीलिए-‘‘गुसाईं ने गौर से लक्षमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफान का वहां कोई चिन्ह शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बंध कर शान्त हो चुका था।’’
शैलेय के अभी तक दो कविता संग्रह ‘या’ और ‘तो’ प्रकाशित हो चुके हैं और पर्याप्त चर्चित रहे हैं. सम्प्रति उत्तराखंड के सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रूद्रपुर में हिन्दी के प्राध्यापक हैं.
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मोबाईल- 09760971225
 e-mail: shailey66@gmail.com  

शेखर जोशी: जन्म दिन विशेष-4

शेखर जोशी: जन्म दिन विशेष पर प्रस्तुति के क्रम की चौथी कड़ी के अंतर्गत आज पढ़िए गायत्री सिंह का आलेख ‘कृषि, कृषक और शेखर जोशी’   

गायत्री सिंह
कृषि, कृषक और शेखर जोशी
स्वतंत्र भारत में भी विकास की लंबी-चौड़ी योजनाओं से जनता को विकास के मोह में बांधने की कोशिश की गयी, परन्तु जल्द ही जनतंत्र भारत का वास्तविक चेहरा उभर कर सामने आ गया।
                1962 ई. में हुए हिन्द-चीन युद्ध ने पंचशील सिद्धान्तों की धज्जियां उड़ा दी। रही-सही कसर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान युद्ध ने पूरी कर दी। चारों तरफ अविश्वास,  भय और संशय का माहौल व्याप्त हो गया। बाहरी सुरक्षा व्यवस्था के लिए सरकार ने सीमा पर सैनिकों का जमावड़ा शुरु किया, परन्तु देश की आंतरिक अव्यवस्था को सुव्यवस्थित करने में वह नाकाम रही।
                आर्थिक स्तर पर अव्यवस्था के चलते सबसे पहले देश प्रभावित हुआ, उसके बाद सामाजिक संरचना। सामाजिक संरचना में पहले परिवार टूटा, फिर व्यक्ति-व्यक्ति भी बिखराव, बेरोजगारी और अकेलेपन का शिकार हुआ। संघर्ष की नित नयी स्थितियाँ जन्म लेने लगीं। संबंधो में बदलाव (स्त्री-पुरुष, पिता-पुत्र सहित अन्य संबंधो में भी) आए और मूल्यों का क्षरण भी हुआ।
विभिन्न साहित्यकारों ने देश से जुड़ी विभिन्न समस्याओं को अपनी कहानियों में निरूपित किया है। व्यक्तिनिष्ठ कथाकारों ने व्यक्ति स्तर पर हो रहे बदलावों का चित्रण अपनी कहानियों में किया है। वस्तुनिष्ठ कथाकारों में प्रेमचन्द के बाद शेखर जोशी ने अपनी कहानियों में सामाजिक समस्याओं को गहराई के साथ चित्रित किया है।
पूस की रातमें प्रेमचन्द्र ने हल्कू को किसान से श्रमिक बनते दिखाया है, ‘आखिरी टुकड़ामें शेखर जोशी ने उसके आगे की कहानी लिखी है। संक्रान्ति काल अधिक पीड़ादायी होता है, जहाँ मूल से अलगाव और नवीन की समस्या व अनिश्चितता का माहौल रहता है। स्वतंत्रता उपरान्त किसानों के जीवन में यही स्थितियाँ बन रही थी। आखिरी टुकड़ाका प्रथम वाक्य किसान मंगरू की दुहरी विवशता और पराजय को सफलता से अभिव्यक्त करता है- ‘‘मंगरू ने जलती आँखो से सूरजा को देखा।’’  जलती आँख का ज्यादातर दुःख किसान का अपना दुःख है। अपनी आँखों के सामने ही अपनी जमीन पर कारखाने का बनना वह रोक नही सकता, पिता का भूमि के लिए अपनी जान गंवाना (हांलाकि वह स्वतंत्रतापूर्व की कहानी है, जिसे प्रेमचन्द्र ने उच्च जातियों के शोषणकारी रूप में पहले ही चित्रित किया है) वह भूल नही सकता। पण्डित मंगरू की कृषि जमीन को हथियाना चाहता था, जिसका विरोध उसके पिता ने किया था, फलतः उसे अपनी जान गँवानी पड़ी थी। जिसका प्रत्यक्ष गवाह मंगरु की आँखें रही हैं। वही आँखें अपने पुत्र के भिन्न दृष्टिकोण को भी देख रही हैं। पुत्र का कारखाने के प्रति अपनत्व भाव रखना, पिता के दुःख से अनजान होना, सब कुछ एक के बाद एक घटित होता जाता है, और कृषक वर्ग देखता रह जाता है। यह परिणति स्वाभाविक रूप से इस तरह घटित हो रही है जैसे यही उस किसान की नियति है। इसलिए इस विपत्ति को स्वीकारने के सिवाय जैसे उनके पास कोई विकल्प शेष ही नहीं। मनुष्य के सामने सदा ही अस्तित्व का संकट रहा है कभी प्राकृतिक कारणों से तो कभी सजातीय संघर्षों से। इन दारुण परिस्थितियों ने किसान के जीवट को भी कमजोर किया है। कृषक लगातार समस्याओं से जूझ रहे हैं,  उन्हें श्रमिक जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। यह समस्या स्वतंत्रता पूर्व दूसरे रूपों में विद्यमान थी। स्वतंत्रता उपरान्त अन्य रूप में आयी है। किसान वर्ग जानता है कि कभी भी किसी भी सत्ता में उनकी स्थिति बदलनें वाली नहीं है। फिर भी वह संघर्ष कर रहा है। पहले अपने व्यवस्था के स्तर पर फिर अस्तित्व संकट के रूप में।
                आखिरी टुकड़ा में कृषक जीवन के अस्तित्व की उपस्थिति है, परन्तु अन्ततः वह लोहारखाने की सीमा में आ जाती है। बैलों के प्रति किसानों का प्रेम जगजाहिर है, और बैल भी अपनी ममता भरी भाषा में किसान के प्रति अपना लगाव अभिव्यक्त करते हैं। किसानों के जीवन में सर्वाधिक कष्टकारी क्षण वह होता है जब उसकी जमीन हथिया ली जाती है, और उससे भी भयंकर कष्ट तब होता है, जब बैलों से भी उनका अलगाव हो जाता है। बैल किसान-जीवन के अभिन्न अंग होते हैं। यह अभिन्नता भंग होते ही कृषक स्वयं को अकेला और असहाय महसूस करता है। कृषक वर्ग की बैलों के प्रति यही संवेदना आखिरी टुकड़ामें चित्रित हुई है। ‘‘जिस दिन अपने बैलों के कंधे पर जुआ रखने के बजाय उसने दिन-दिन भर ईंट ढोने के लिए गाड़ी में जोता था, उस दिन सूरजा की माई रोने लगी थी।’’  कृषक पत्नी का रोना किसान के भयंकर कष्ट की सूचना देता है। अपने जीवन साथी के कष्ट की अनुभूति कर रोना परस्पर प्रेम की संलिप्तता को अभिव्यक्त करता है। परन्तु संभवतः इस कहानी में शेखर जोशी ने कृषक को प्रत्यक्ष रूप से रोते हुए इसलिए प्रदर्शित नहीं किया है, क्योंकि उनका उद्देश्य उसकी संघर्ष क्षमता को उजागर करना है, जिसे वे टूटते हुए या कमजोर नहीं दिखाना चाहते। कृषक पत्नी के रूदन के माध्यम से कृषक के कष्ट की अनुभूति करानें में वे सक्षम हुए हैं। ऐसी विपरीत  परिस्थिति में भी किसान की जीवट भरी संघर्ष चेतना का पता मिलता है।
                ‘‘सूरजा की माई फिर नही रोई- तब भी नहीं, जब धान गेहूँ की बालियों की जगह सिर में ईटें उठा कर वह एक सिरे से दूसरे सिरे तक ले आने लगी थी, और तब भी नहीं जब पाँच-सात वर्ष के लछमी-सूरजा किलकते हुए, खाद की जगह गारे सीमेन्ट के तसले इसी धरती पर उलटने लगे थे।’’ 
                वास्तविकता को स्वीकार करने के बाद जीवन में कष्टकारी परिस्थितियों को सहन करने की क्षमता विकसित होने लगती है, और संघर्ष की दिशा बदल जाती है। कृषक परिवार ने अच्छी तरह यह महसूस कर लिया कि अब बदलते हालातों में कृषक जीवन जीना उनके लिए संभव नहीं। वे चाहें जितना प्रयत्न कर लें, ना ही जमीन मिलने वाली है, ना ही उतनी आय, कि जिससे नई जमीन खरीद लें। दूसरे के खेतों पर काम करते हुए  भी उन्हे वही जीवन जीना है, जो कारखानों में जीना पड़ रहा है। इसलिए अब उनके लिए बेहतर हालातों की गुंजाइश या उम्मीद रखना भी बेमानी है। हालांकि हालातों से उपजे कष्ट को मिटा पाना असंभव है, पर इससे जीवन के प्रति बेरूख होना भी उनके स्वभाव में नहीं। अपने सामने आ खड़ी नयी परिस्थिति से जूझने में वे अपनी ताकत लगा देते हैं।
                किसानों के जीवन में औद्योगिक कारखानों ने दखल दी है, साथ ही ग्रामीण माहौल व परिवेश के सहज स्वाभाविक रूप को शहर की कृत्रिमता की तरफ धकेला है। इसका परिणाम यह हुआ कि गाँव के लोग गाँव में रह कर भी अपनी स्वभावगत विशेषताएँ और प्रकृति प्रदत्त आजीविका को स्वयं छोड़ रहे हैं। निर्णयमें श्रीधर गाँव में स्थायी रूप से रह कर विकास का कार्य करना चाहता है, और इसकी सूचना जब अपने परिवार वालों को देता है तो सभी उसके निर्णयका विरोध करतें हैं। अन्ततः वह अकेला ही गाँव जाता है। गाँव वालों के बीच जाकर उसे लगता है कि अब वह क्या करें ? कोई ग्रामीण इस सहज व्यवहार को नहीं जान पाता और सभी उसके शहर से स्थायी रूप से गाँव में रहने के पीछे अपना-अपना तर्क देते हैं। अन्ततः एक बृद्ध अपनी व्यावहारिक बुद्धि का परिचय देते हुए कहता है- ‘‘बेटा, कोई घूसखोरी, गबन का मामला तो नहीं हुआ? घबराना नहीं। सब ठीक हो जायेगा। देवी रक्षा करेंगी।’’
                श्रीधर अवाक् उनके चेहरे की ओर ताकता ही रह गया। फिर उसने सोचा और एहसास किया कि ‘‘मन-प्राणों में बसी गाँव की धरती का यह अंधकार ही उसे यहाँ खींच लाया है और इसी अंधकार से उसे जूझना है।’’ 
                शेखर जोशी सम्भवतः पहले कथाकर है जिन्होंने शहरी जीवन के अभ्यस्त व्यक्ति को गाँव की तरफ भेजा है। श्रीधरगाँव में रह कर वास्तविक विकास कार्य करना चाहता है। इसके लिए श्रीधर स्वयं अपने भीतर लड़ता है, परिवार के दबावों से जूझता है और ग्रामीण जनों के तर्को,  संशयों और अविश्वास को भी झेलता है।
                स्वतंत्रता पूर्व से ही हमारे देश में जो जाति आधारित शोषण व्यवस्था थी,  स्वतंत्रता उपरान्त वह नयी चुनौती के रूप में सामने आयी। सभी जातियों को अपनी तरह से संघर्ष करना पड़ रहा था। जो जातिगत समस्या सदियों से भारतीय समाज में चली आ रही थी, जिसे स्वतंत्र भारत में समाप्त करने की कोशिश की गयी और सभी को काम चुनने की स्वतंत्रता दी गयी। ज्यादातर कार्य निम्न जातियों द्वारा ही कराया जाता था और उँची जातियाँ उनका शोषण करती थीं। काम चुनने की स्वतंत्रता मिलते ही अब कोई भी कार्य व्यवसाय अपनाने के लिए सभी स्वतंत्र हो गये थे, जिसका ज्यादातर लाभ उँची जातियों वाले लोग या पूँजी से सम्पन्न लोग ही उठा पा रहे थे। सामाजिक व्यवस्थाओं में आकस्मिक परिवर्तन असंभव है। धीरे-धीरे ही रूढ़ियाँ टूटती हैं। जातियों का संस्कार तो सदियों पुराना था, इसलिए मानसिकता में आकस्मिक परिवर्तन संभव नही था। ऊँची जातियों के लोग स्वतंत्र भारत में भी अधिक सामर्थ्यवान थे। इसलिए उन्हे जो भी व्यवसाय लाभकर लगा, उन्होने उसे अपना लिया। नीची जाति का व्यक्ति उनसे टक्कर नहीं ले सकता था। अपनें कामों में विशेष रूप से दक्ष होने के बावजूद उनके पास शक्ति व धन दोनों का अभाव था। इसलिए अगर राजपूत धुलाई केन्द्र खोलने में अपना लाभ देखता, तो वह इसे व्यवसाय के रूप में अपनाता तो था, परन्तु गरीबों की कमी तो नही थी। वह उन्हे दिन भर का पारिश्रमिक दे कर ज्यादातर लाभ स्वयं प्राप्त करता था। इससे विशेष कार्य से सम्बद्ध जातियाँ अपना व्यवसाय तो खो ही रही थी, साथ ही उनका जीवन जटिलतर हो रहा था। सभी जातियों में संघर्षरत ज्यादातर वही लोग थे, जिनके पास आर्थिक कमी थी या प्राचीन व्यवस्था को तोड़ने की विवशता या जातिगत संकीर्णता थी। शेखर जोशी ने दोनों का चित्रांकन अपनी कहानियों में किया है। उच्च जातियाँ जो पहले अपनी जातिगत श्रेष्ठता के आधार पर निम्न जातियों से सेवा कराना अपना अधिकार समझती थीं, उन्हें भी अपनी श्रेष्ठता त्यागनी पड़ रही थी। इसका कारण भारत देश में प्रत्येक नागरिक को मिली व्यक्तिगत स्वतंत्रता थी। कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से कोई काम अपना सकता था या छोड़ सकता था। परन्तु उच्च जातियाँ जो निम्न जातियों से काम लेने की अभ्यस्त थी, उन्हें यह बदलाव कष्टकारी साबित हो रहा था।
                पहले जमींदारों, सामन्तों के पास हजारों एकड़ तक जमीनें हुआ करती थी। और हलवाहाआदि कामगारों के माध्यम से वे खेती-बारी का काम मजदूरों से कराते थे। बदले में इच्छानुसार अनाज, भोजन या पारिश्रमिक दे कर उनके अधिकारों से वंचित कर रहे थे। पारिश्रमिक का कोई निश्चित प्रावधान न होने के कारण कोई आपत्ति भी नही कर सकता था। कभी-कभी बेगारी में भी काम कराया जाता था। स्वतंत्रता बाद जब सड़कें, पुल, टॉवर आदि का निर्माण जोरों पर होने लगा तो सरकार ने मजदूरों को काम देना आरम्भ किया, जहाँ उन्हे नकद आमदनी मिलने लगी। प्रत्यक्ष आमदनी मिलने के कारण मजदूरों का ध्यान इन कामों की तरफ होने लगा। 
यह तो सर्वविदित है कि बैलों के प्रति किसान को अगाध प्रेम होता है। वह अपने भोजन की पहली रोटी बैलों को देता है। बैल भी इस प्रेम का प्रतिफल देते हैं। जब विवश हो कर प्रेमचन्द के किसान ने अपने बैल बेच दिये थे, बैलों ने चारा-पानी तक छोड़ दिया और एक दिन भाग कर अपने मालिक के पास चले आये। बैलों के दुःख से दुःखी किसान स्त्री का क्रन्दन उसके लगाव व दर्द को बड़ी गहराई से अभिव्यक्त करता है। पूस की रातका हल्कू जिस तरह ठण्ड से बचने के लिए झबरे कुत्ते के पास लेट जाता है, वह कुत्ते और हल्कू के अपनत्व का सूचक है। यह लेखक की संवेदना है, जो जानवरों की मूक प्रतिक्रिया को भी अर्थवान बना देती है। शेखर जोशी ने इसका चित्रण हलवाहाकहानी में किया है जहाँ जीवानन्द खेती के लिए हलवाहान मिल पाने के कारण चिंतित है, और इसी उधेड़ बुन में पहली बार पशुशाला में घुसता है। वह जीवन में पहली बार बैलों को प्यार से सहलाता है। बैल भी अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, जैसे कह रहे हों, दुःख की इस घड़ी में हम तुम्हारे साथ हैं, तुम जो भी कहो,  हम सब करने को तैयार हैं। तुम बदलाव को स्वीकार करो,  तो हम साथ देने को तैयार हैं। जीवानन्द को जैसे समाधान मिल गया हो। अगली सुबह वह स्वयं अपने खेत में हल चलाने को प्रस्तुत हो जाता है। कितनी अजीब बात है कि जीवानन्द के इस फैसले में किसी मनुष्य की सार्थक उपस्थिति नहीं है, जबकि जानवर होते हुए भी बैल जीवानन्द के नौसिखिएकदम के साथ भी कदम मिलाकर चलते हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि जहाँ पशुओं में अभी भी अपनी सहज वृत्ति कायम है, वहीं मनुष्य अपने स्वभाव को खोता जा रहा है। पशु अपने मालिक के प्रति अभी भी वही संवेदना व्यक्त करता है, जो पहले से करता आ रहा है, परन्तु मानव अपने स्वार्थ के वशीभूत हो कर हर कार्य व परिस्थिति में अपना व्यक्तिगत लाभ देखने लगा है। यही कारण है कि पद्म बार-बार बुलाये जाने पर भी जीवानन्द का हल चलाने नही आता। सड़क निर्माण या सरकार द्वारा प्रायोजित अन्य कार्यों में उसे नकद आमदनी मिलती है, जिससे वह अपने परिवार का भरण-पोषण आसानी से कर लेता है, यहाँ तक कि वहाँ वह अपनी पत्नी और बच्चों को साथ ही काम में लगा कर अपनी आमदनी बढ़ा सकता है। परन्तु हलवाहा रह कर उसे यह फायदा नहीं मिलता। जीवानन्द भले ही उन दिनों की याद करें, जब पद्म एक ही आवाज में दौड़ा चला आता था, परन्तु पद्म उन दिनों को भुला चुका है। या वह याद नहीं करना चाहता। परिवर्तन उसके जीवन में थोड़ा सुखमय बदलाव लाया है, इसके विपरीत जीवानन्द के सामने समस्याएं और जटिल रूप में बढ़ गयी हैं। बड़ी प्रधान की नजर उसकी जमीन पर है, जो पहले ही झूठी संवेदना दिखा कर शहर में नौकरी दिलाने का लालच दे चुके हैं, और साथ ही मथुरा जैसे अवसरवादी चापलूस को भी उसके पीछे खबरिया बना चुके हैं। पद्म बार-बार बुलाने पर भी नहीं आता। चारों तरफ से हताश है जीवानन्द। वह गोठ में जाता है, जहाँ उसे निराशा नहीं मिलती, और जो दुःख में साथ दे वही सच्चा साथी होता है। बैल किसानों के सच्चे मित्र होते हैं। जहाँ किसान उनसे अपनत्व व लगाव प्रदर्शित करता है, वहीं बैल भी अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं।
‘‘जीवानन्द ने गोठ में घुसकर अपने बैल को थपथपाया। बहुत दिनों बाद उसने इतने ध्यान से अपने इस पशु को देखा था। . . . मालिक का दुलार पा कर खैरा जुगाली करता हुआ टुकुर-टुकुर उसे ताकने लगा जैसे कह रहा हो,  तुम जो कहो, मैं करने को तैयार हूँ। जीवानन्द देर तक उसकी पीठ और गर्दन सहलाता रहा और फिर सिर झुका कर सकरे दरवाजे से बाहर निकल आया। गोठ में प्रवेश करते समय खैरा के प्रति वह जितना विरक्त था, बाहर निकलने तक उतनी ही आत्मीयता से भर उठा था।’’ 
इसी अपनत्व ने उसे साहसिक कदम उठाने का हौसला दिया और जीवानन्द ने स्वयं अपने खेत में हल चलाने का अन्तिम फैसला लिया। बद्री प्रधान को उसके इस कदम से निराश हुई। परन्तु जो आशा न दे,  उसकी निराशा से भी क्या मतलब? जीवानन्द बिना किसी की परवाह किये हल की मुठिया स्वयं थाम लेता है। यहीं से उसके किसान (श्रमिक) जीवन की शुरूआत होती है।
‘‘जो कुछ उन्होंने देखा उसे देख कर उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ और क्रोध, घृणा तथा ग्लानि के कारण उनका सारा शरीर कांपने लगा. कुलघातक जिबुआ स्वयं हल चला रहा था। फाल की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें उसके नौसिखियेपन की गवाही दे रहीं थी।’’  
जिबुआ नाम अपनत्व सूचक है, परन्तु यह अपनत्व उसे मिलता क्यों नहीं? क्यों अपनत्व का दिखावटी रूप ही समाज में सर्वत्र व्यवहृत हो रहा है। नगरीय जीवन में तो यह रूप पहले ही दिखायी देता था, परन्तु ग्रामीण जीवन में इसकी पहुंच कैसे हुई? क्यों हुई? गाँव का सहज, सरल जीवन व सीधे-सादे लोगों की मूल छवि तो प्रेमचन्द के समय में ही तोड़ दी गयी थी, फिर भी उनमें ‘‘पंच परमेश्वर’’ यानि सार्वजनिक सहभागिता का विश्वास बचा हुआ था, न्याय की उम्मीद बची हुई थी। स्वतन्त्र भारत से प्रत्येक व्यक्ति को कुछ मिला हो या न मिला हो, परन्तु स्वतंत्रता अवश्य मिली जहाँ सभी अपना रोजगार चुनने के लिए स्वतंत्र हुए। निम्न-मध्यम जातियों को जो विशेष आरक्षण मिला, उससे कुछ तो बदलाव अवश्य आए। हालांकि उन्हें वहाँ भी अधिसंख्य उच्च जातियों की बहुल आबादी में कठिनाईयां और कई तरह के संघर्ष झेलने पड़े, परन्तु धीरे-धीरे वहाँ भी बदलाव आया। इन बदलावों ने उनके जीवन स्तर और सोच को प्रभावित किया। 
पद्म खुली चुनौती नहीं देता, परन्तु जिस तरह मुस्करा कर उसने उस दिन साली के पेट में दर्द उठने की बात कही थी, क्या वह बात पहले कभी पद्म कह लेता? पद्म का यह बहाना ही नहीं, साथ ही कोठरी के अन्दर से किसी के खिस्सहँसने की आवाज जीवानन्द को कहीं अन्दर तक बेध गयी थी।
यह खिस्सहँसने की आवाज जीवानन्द की असहाय स्थिति को और अधिक कष्टप्रद बना देती है। भले ही स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा गया, परन्तु अस्पष्ट संकेतो में जीवानन्द की मजबूरी पर व्यंग्य किया गया था, जिसके प्रभाव ने जीवानन्द को विचलित किया।
‘‘कभी-कभी जीवानन्द का मन होता कि वह सड़क पर जाकर ही पद्म को रंगे हाथों पकड़ ले और जलील करे, लेकिन फिर उसके कानों में सहसा कोठरी के अन्दर से आती हुई खिस्सकी आवाज गूँज  उठती और वह बीच चौराहे पर अपनी हास्यास्यपद स्थिति की कल्पना कर सिहर उठता।’’
यह सिहरनजीवानन्द को बेचारगी की स्थिति में ला देती है, परन्तु चौतरफा घेराव के कारण जीवानन्द द्वन्द्वात्मक स्थिति में पड़ जाता है। वह इन परिस्थितियों का मुकाबला कैसे करे? वह पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा को खेता रहे? या परिवर्तन को स्वीकार कर ले और डट कर मुकाबला करे? अगर वह परम्परा को ढ़ोता है तो दिन-प्रतिदिन परेशानियां बढ़ती ही रहेंगी। पद्म एक दिन आ कर खेत जोत भी जाय, परन्तु वह पहले जैसा हलवाहामिलना अब असंभव ही है। फिर वह कब तक दूसरों के घर का चक्कर लगा पाएगा? अपने आत्मसम्मान व स्वाभिमान पर कब तक वह खिस्स हंसी की आवाज बर्दाश्त कर सकेगा?
अगर वह परिवर्तन को स्वीकार कर लेता है तो परिस्थितियों का मुकाबला बेहतर तरीके से कर सकता है। भले ही इसके लिए उसे अपने अतीत की परम्परा को तोड़ना पड़े परन्तु इससे उसका वर्तमान जीवन सुधर सकता है। सबसे पहले तो उसे पदम के घर का चक्कर नही लगाना पडे़गा और खिस्सहँसी के आतंककारी अनुभव को झेलना नही पड़ेगा। बद्री प्रधान, कमला सिंह और मथुरा जैसे लोगों के स्वार्थी प्रस्तावों से भी छूट जाएगा। शहर में नौकरी का आकर्षण भले ही न छूटे, परन्तु अन्धा होकर वह नौकरी के पीछे नही भागेगा। अपने ही पुश्तैनी जमीन को सींचकर वह अपना जीवन व्यतीत कर सकता है। नौकरी का क्या भरोसा? मिले न मिले ? फिर दूसरों की इच्छा पर बंधना पड़ेगा। अपने घर में तो वह अपना मालिक है, जमीन भी उसकी अपनी हैं जीवानन्द के मन में हजारों तरह की बातें उभरती हैं। परन्तु इस मानसिक संघर्ष का मूल इसी द्वन्द्व में समाहित हैं कि वह क्या करे? पीढ़ियों की परम्परा को स्वयं ढ़हा दे? या परिवर्तन को स्वीकार कर ले? परिस्थितियाँ परिवर्तन को स्वीकार करने के पक्ष में हैं और जीवानन्द भी अन्ततः नये पथ पर अग्रसर हो जाता है। 
शेखर जोशी स्वयं बदलाव को स्वीकार करने के पक्षधर हैं और यही विचारधारा जीवानंद के व्यवहार में दिखायी पड़ती है। उनकी संवेदना में बदलाव के कारण किसानों के जीवन में आये संकट के प्रति  ममत्वपूर्ण हैं, फिर भी जीवन-राग उनसे छूटता नही। भयंकर कष्ट के बावजूद नवीनता को आत्मसात कर जीवन को जीना और जीते चले जाना ही जिजीविषा है। किसानों के जीवन में भले ही कष्टकारी परिवर्तन आए है, ‘हलवाहाजीवानन्द ने जीवन के लिए किसान-जीवन अपना लिया हैं, और यही स्वतन्त्र भारत में परिवर्तन के स्तर को स्वीकारने की संघर्षशील परिस्थितियाँ हैं। जिजीविषापूर्ण किसान जीवन की आत्मनिर्भर व कठिन श्रम करने की अपनी मूल छवि की नवीन स्वीकार्यता भी है।
                हलवाहा  में जीवानन्द के सामने यह समस्या चुनौती के रूप में आयी है। वह जाति से ब्राह्मण है,  इसलिए हल नहीं चला सकता। शेखर जोशी ने इस कहानी में ब्राह्मण को किसान बनते दिखाया है। यह परिवर्तन परिस्थितियों की अनिवार्य परिणति थी, परन्तु  किसान जीवन के सारे अवलम्बों का सही प्रयोग कर व्यावहारिकता का परिचय दिया गया है। इस प्रकार शेखर जोशी के लिए वर्ग और वर्ण से उभरती जटिलताएं संवेदना के स्तर पर ऐसे कथानकों के रूप में आती हैं। जातिगत प्रभुता और वर्चस्व के आधारों का खिसकना वे यहाँ लक्ष्य करते हैं।
इस तरह शेखर जोशी अपनी कहानियों में संवेदनशील मुद्दो को उठाते हैं और तत्कालीन सामाजिक यथार्थ में चाहे जितनी निराशाजनक परिथितियाँ हो, उनके बीच से ही रास्ता निकालने का मार्ग भी प्रशस्त करतें हैं। सम्भवतः यही कारण है कि शेखर जोशी अपने समकालीन कथाकारों से भिन्न दिखायी देतें हैं। जहाँ नयी कहानी के कहानीकार अकेलेपन के मनोविज्ञान तथा स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के नये आयामों को अभिव्यक्त करने में मशगूल थे, और मध्यवर्गीय चरित्रों की स्थापना में लगे हुए थे, वहीं शेखर जोशी का ध्यान मुख्य रुप से मनुष्य की बुनियादी समस्याओं की ओर केन्द्रित था। उनकी कहानियों के कई पात्र जीवन के संघर्ष में कहीं बेहद अकेले पड़ जाते हैं। निश्चित ही अकेलापन आज की सामाजिक सच्चाई भी है और इस रुप में एक सामाजिक समस्या भी। इसके बावजूद भी शेखर जोशी ने इस मनोभाव को किसी चरित्र पर आरोपित नहीं किया है, बल्कि यही सच्चाई नैसर्गिक सच्चाई बन कर उनकी कहानियों में सहजता का रुप ले लेती है, और यही विशेषता उन्हे अन्य कहानीकारों से बिल्कुल भिन्न व्यक्तित्व के रुप में स्थापित भी करती है।
 
(गायत्री ने अभी हाल ही में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से चन्द्रकला त्रिपाठी के निर्देशन में अपना शोध कार्य ‘कहानीकार शेखर जोशी: कथ्य और शिल्प’ पूरा किया है.)
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शेखर जोशी: जन्म दिन विशेष-3

शेखर दादा ने आज के दिन अपनी उम्र का अस्सीवाँ पड़ाव पूरा कर लिया. संयोगवश अभी कल ही दादा के नए कविता संग्रह ‘न रोको उन्हें शुभा’ का इलाहाबाद में विमोचन हुआ साथ ही उन्हें उल्लेखनीय साहित्यिक सेवाओं के लिए ‘मीरा स्मृति सम्मान’ से नवाजा गया. इलाहाबाद का समूचा साहित्यिक तबका इस समारोह का साक्षी बना. दादा न केवल लेखन बल्कि अपने जीवन के जरिये भी सतत रचनाशील रहे हैं. रचनाशीलता दादा के लिए हमेशा एक जीवन मूल्य की तरह रही है. हिंदी कथा साहित्य के इस बेमिसाल शिल्पी का जीवन इतनी सादगी और विनम्रता से भरा है कि एकबारगी हमें यकीन ही नहीं होता कि हमारे समय का एक बेजोड़ रचनाकार ऐसा भी हो सकता है. जन्मदिन के अवसर पर दादा के शतायु होने की कामनाओं के साथ प्रस्तुत है दादा द्वारा ‘पहली बार’ के लिए लिखा गया यह विशेष संस्मरण.  
यायावर की डायरी
(1) भुवालीः वैकल्पिक मार्ग की जरूरत
मई के अन्तिम सप्ताह में पारिवारिक कारणों से दो दिन के लिए हल्द्वानी जाना पड़ा तो हम पहाड़ छू आने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। अन्य मैदानी शहरों की तरह ही हल्द्वानी में भी आसमान से आग बरस रही थी। कई मित्रों,  परिचितों से मिलने का मन था लेकिन मौसम की मार ने घर पर ही पंखे की गर्म हवा में झुलसने को मजबूर कर दिया। सिर्फ स्वर्गीय शेर दा और मटियानी जी के परिजनों के साथ सुबह दो-ढाई घण्टे मुलाकात हो पायी।
तीसरे दिन सुबह ही हम भुवाली के लिए चल पड़े। भुवाली में भी गर्मी से राहत नहीं मिली। अपनी आतिथेय उषा से मैंने कहा कि एक पैडस्टल पंखा अब खरीद ही लो। क्यों कि आने वाले वर्षों में गर्मी और भी प्रचण्ड रूप धारण कर सकती है। तब शायद कूलर और ए सी का सहारा लेना पड़े।
भुवाली बाजार में सड़क पार करना अब सबके बूते की बात नहीं रही। इतनी कारें, मोटर गाड़ियॉ  और मोटर साइकिल सड़क पर आते-जाते रहते हैं कि पैदल चल पाना कठिन हो गया है।
एक परिचित दुकानदार ने शिकायत के स्वर में मुझे बाजार न आने का उलाहना दिया तो मैंने कहा, ‘साह जी, पहले लोग टी बी के इलाज के लिए दूर-दूर से भुवाली आते थे लेकिन अब यहॉ इतना वायु प्रदूषण हो गया है कि अच्छा भला आदमी दो-चार दिल कुछ घण्टे यहॉ गुजार ले तो वह मरीज हो जायेगा।
आप भी गलत नहीं कह रहे होसाह जी ने सहमति जताई। हमारी तो मजबूरी है, कहॉ जाएँ।घण्टों जाम लगा रहता है और गाड़ियों के धुएँ से हवा जहर बन जाती है।
संकरे बाजार में भीमताल रामगढ की ओर से जाने वाली गाड़ियों के लिए अन्य कोई वैकल्पिक मार्ग (पी डब्ल्यू डी परिसर से हो कर आगे गधेरे के उपर पुल बना देने से इसकी संभावना हो सकती है।) अथवा फ्लाई ओवर की कल्पना की फुरसत किसे है। दिल्ली मेट्रो के स्थापत्य को देखने के बाद किसी प्रकार के फ्लाई ओवर की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जब तक यह नहीं होता तब तक जहरीली हवा में सांस लेना और प्रदूषित खाद्य पदार्थों का सेवन करना भुवाली के नागरिकों की बाध्यता है।
(2) प्रणम्य जनसेवक
लोगों ने बताया कि नैनीताल में भी अब दो-दो घण्टे का जाम लगा रह रहा है। एक दिन जोखिया आश्रम (भूमियाधार के उपर नैनीताल-भुवाली मोटर मार्ग पर) जाने का प्रोग्राम बनाया। भुवाली और नैनीताल के बीच चलने वाली बस के चालक बुजर्ग सज्जन जिस कौशल और धैर्य के साथ गाड़ी चला रहे थे वह देखने लायक था। यात्रा समाप्ति पर उनसे बतियाने का मन हुआ।
कितने फेरे लगते हैं दिन भर में ?’ मैंने पूछा।
सात तो हो ही जाते हैं।उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में बताया।
रिटायरमेण्ट भी अब होने ही वाला होगा?’ मैंने अपना अनुमान जताया।
न न, अभी पॉच साल हैंकह क रवह भेद भरी मुस्कान के साथ बोले जैसे इस तथ्य के पीछे कोई रहस्य छिपा हो।
मैंने विदा लेते हुए उनसे हाथ मिलाया और उनके स्वस्थ जीवन की कामना की।
याद आया, पिछले बरस पुणे प्रवास के दौरान महाराष्ट्र परिवहन निगम की ओर से लम्बी अवधि तक दुर्घटनामुक्त सेवा के लिए वहॉ अनेक सार्वजनिक वाहन चालकों को एक समारोह में नागरिक सम्मान दिया गया था। उन प्रौढ और वृद्ध चालकों  की संतोष और गर्व से दीप्त छवियॉ आज भी ऑखों के सामने तैर जाती है। क्या हमारा उत्तराखण्ड परिवहन निगम इस प्रथा का अनुकरण कर अपने उन चालकों को कभी याद करेगा जो खतरनाक मोड़ों, धॅसकते पहाड़ों, टूटी सड़कों और लापरवाह वाहन चालकों से बचाते अपनी सवारियों को वर्षों से निरापद ढंग से उनके गंतव्य तक पहॅुचाते रहे हैं ?
संयोग से जोखिया आश्रम में उस दिन नैनीताल के के के साह जी से भेंट हो गयी। साह जी के संबंध में सुनता आया था कि पहाड़ की बैठकी होली की परम्परा को संरक्षित रखने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। सुप्रसिद्ध ध्रुपद गायक पं चन्द्रशेखर पन्त जी, प्रख्यात होली गायक तारादत्त पाण्डे, हेमदा से ले कर नयी पीढी के नामवर गायकों ने उनके घर की बैठकी होली में अपना योगदान दिया है और यह क्रम आज भी चल रहा है। साह जी ने आगामी होली के अवसर पर नैनीताल आने का निमन्त्रण दिया जो मेरे लिए एक सुखद आमन्त्रण था।
(3) मुक्तेश्वरः केवल विज्ञापनों में ही पर्यटक स्थल
विगत सात दशक से प्रायः प्रतिवर्ष कुछ दिनों के लिए भुवाली जाते रहने के बावजूद मैंने अभी तक मुक्तेश्वर नहीं देखा था। इस बार निश्चय किया कि इस संक्षिप्त प्रवास में एक दिन मुक्तेश्वर जरूर जायेंगे।
मेरी कल्पना थी कि आकर्षक पर्यटन स्थल होने के कारण उत्तराखण्ड प्रशासन ने वहॉ आने जाने के लिए अच्छी व्यवस्था कर रखी होगी। लेकिन स्थिति बिल्कुल विपरीत निकली। भुवाली से एक बस प्रातः 9-10 बजे मुक्तेश्वर के लिए जाती है जो हमारे पहॅुचने तक भर चुकी थी। एक साझा टैक्सी में प्रायः घण्टे भर तक अन्य सवारियों का इन्तजार करने के बाद हम रवाना हुए। भुवाली की सीमा पर श्याम-खेत के निकट निर्माणाधीन भवनों की संख्या देख कर भविष्य में जलआपूर्ति की समस्या से निपटने के लिए प्रशासन की क्या योजना है यह जानने की उत्सुकता बनी रही। अनियन्त्रित आवासीय निर्माण भविष्य में नागरिकों के लिए कई प्रकार की समस्याएँ पैदा कर सकता है यह हम मैदानी क्षेत्रों के अनुभव से जानते हैं।
उत्तरोतर चढाई पर आगे बढती जीप और मनोरम चीड़ बनों के मध्य रामगढ मल्ला और रामगढ तल्ला के आकर्षक दृश्यों के बीच मैं महादेवी जी के साहित्यकार आवासके साथ ही उस स्थल को खोजने का भी प्रयास कर रहा था जहॉ मेरी जिद के कारण लखनऊ दूरदर्शन की टीम को वास्तविक घट की तलाश करनी पड़ी थी जब वे लोग कोसी का घटवारफिल्म की शूटिंग के लिए वहॉ 
पहॅुचे थे।
यद्यपि इन दिनों पहाड़ में दावानल का प्रकोप हो रहा था और धुएँ के कारण दृश्य स्पष्ट नहीं हो रहा था तो भी ज्यों ज्यों जीप उपर जाती रही एक अद्भुत अनुभूति होती रही।परस्पर हम विनोद में इस स्थिति को पाण्डवों के स्वर्गारोहण से जोड़ रहे थे यद्यपि मार्गदर्शक कोई श्वान वहॉ नहीं था।
अन्ततः जीप भटेलिया नामक बस्ती और छोटे बाजार के पास पहॅुची तो अधिकांशतः यात्री उतर गए। हमें और आगे मुक्तेश्वर जाना था। ड्राइवर ने जीप आगे बढायी। अब दृश्य और भी अधिक मनोरम हो गया। देवदार के जंगल के बीच आई. वी. आर. आई. का क्षेत्र और अन्त में सबसे उॅचाई वाले स्थान जी. आई. सी. के पास हमें गाड़ी से उतार कर जीप लौट गयी।
भोजन का समय हो गया था और भूख लग आयी थी। निकट ही एक छोटे रेस्त्रां में हमें साफ सुथरे परिवेश में सुस्वादु भोजन ही नहीं बढिया आइसक्रीम का स्वाद लेने का अवसर भी मिल गया।
इधर-उधर घूमने की अपेक्षा अब हमारी चिन्ता लौटने के लिए उपलब्ध वाहन के निर्धारित समय की थी। लोगों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि तीन बजे के आसपास एक छोटी सी गाड़ी शिक्षकों को लेने आती है। उसमें यदि जगह हुई तो शायद आपको ले जाए। यह अनिश्चितता वाली स्थिति थी। आवश्यक नहीं कि उस छोटी सी गाड़ी में हमारे लिए जगह निकल ही आए।
उस ऊँचाई वाले स्थान से, बावजूद दावानल के कारण फैले धुंधलके के, बहुत मनोरम दृश्य दिखायी पड़ रहा था। यदि यह धुंधलका न होता तो शायद अल्मोड़ा नगर का दृश्य भी दिखायी न दे जाता। पर अब मुख्य चिन्ता लौटने के साधन की थी। एक टैक्सी वाला पास ही अपनी गाड़ी की साफ-सफाई कर रहा था। वह शायद भांप गया था कि ये तीनों साठोत्तरी वाले पर्यटक भटेलिया के 6 किमी मार्ग को पैदल नहीं नाप पायेंगे। भटेलिया में कोई  साधन मिल जायेगा ऐसा लोगों ने बताया था।
अन्ततः 6 किमी दूर स्थित भटेलिया पहुँचाने के लिए 150 रुपये पर सौदा तय हुआ और हमने मन मसोस कर मुक्तेश्वर से विदा ली। मैं किसी को ठगता नहीं साब! देशी हो या पहाड़ी हो।टैक्सी वाले ने अपना स्पष्टीकरण दिया। भटेलिया में भुवाली जाने वाली टैक्सी में हमे बिठा कर वह चला गया था। थोड़ी देर बाद वही टैक्सी हमारी गाड़ी के निकट आ कर रूकी और उसकी टैक्सी में छूट गए कैमरा को हमें लौटाते हुए उसने केवल इतना ही कहा आपका कैमरा मेरी गाड़ी में रह गया था।हमने उसके पूर्वकथित वक्तव्य को याद कर उसके जज्बे को सलाम किया। वह जा चुका था।
जिस अनुपात में उत्तराखण्ड का पर्यटन विभाग पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापनों की भरमार कर देता है उसी अनुपात में यदि परिवहन की सुविधा, सस्ते दर पर पर्यटन स्थलों पर आवासीय एवम भोजन की सुविधा भी सुनिश्चित कर दे तो स्थानीय जनता ही नहीं बाहरी लोग भी हमारे इस सुरम्य प्रदेश को देखने का सुख ले सकते हैं। मुझे याद है मेघालय में शिलांग से चेरापॅूजी तक पर्यटकों को ले जाने के लिए ‘कण्डक्टेड टूरिज्म’ की व्यवस्था है। जिसके अन्तर्गत दर्शनीय स्थलों को दिखाने के अलावा पैक्ड लंच की भी व्यवस्था रहती है और टूरिस्ट लोगों के लिए उनकी वह यात्रा जीवन भर स्मरणीय बन जाती है। ऐसे ‘कण्डक्टेड टूरिज्म’ के लिए उत्तराखण्ड में न जाने कितने आकर्षक स्थल हैं। क्या यह कभी संभव होगा ?
(4) हमारे ये पूर्वज
दो-तीन वर्ष पूर्व तक भुवाली में घर के आस पास सीढीदार खेतों में कई तरह के फलों के पेड़ थे। सेब, प्लम, खुबानी, आड़ू से ले कर एक पेड़ बादाम का भी था। पहाड़ी नीबू और कुछ पेड़ नारंगी के थे। बीच बीच में बुलाने पर हार्टीकल्चर विभाग के लोग आ कर उनकी छंटाई कर जाते थे। फलों की तैयारी के बाद आने -जाने वालों को घर वाले उपहार में छोटी टोकरी या प्लास्टिक का थैला भर कर फल देते थे। धीरे -धीरे पेड़ों की संख्या कम होती गई। कुछ पेड़ों के नष्ट होने का कारण बर्फबारी भी रही होगी। इस बार जा कर देखा सभी पेड़ काट दिये गये हैं। देख कर बुरा लगा। पूछने पर भाई ने बताया ये सामने काफल का पेड़ देख रहे हो ? अभी फल हरे ही हैं लेकिन बन्दरों की डार आ कर इन्हें भी उजाड़ जा रही है। पहाड़ी नीबू के फलों को तोड़ कर उनका मोटा छिलका कुतर जाते हैं। और शेष गूदे से हरभजन सिंह की तरह बालिंग कर देते हैं। कुछ न मिलने पर गुलाब की कलियॉ ही नोच खाते हैं।
एक दिन प्रत्यक्ष देखा, दो तीन भीमाकार बन्दरों की अगुवाई में बच्चों को छाती से चिपकाए बन्दरियां और छोटे आकार के बन्दरों का झुण्ड काफल के पेड़ पर चढा है और चुन चुन कर कच्चे-पक्के काफज खा रहा है। पालतू कुतिया घर के अन्दर छिपने की कोशिश कर रही है। मुझे कुतिया का यह व्यवहार अस्वाभाविक लगा, उसे तो भूंक-भूंक कर आसमान सिर पर उठा लेना चाहिए। पता चला कि कुछ दिन पहले एक बन्दर सरदार ने उसे जम कर झापड़ रसीद कर दिया था तब से सहमी हुई है। बदकिस्मती से पड़ोसियों का कुत्ता अपना कर्तव्य निभाने बाहर निकला तो एक बन्दर ने दौड़ा लिया।
ये हमारे शाकाहारी पूर्वज भी क्या करें.  जंगल सिकुड़ रहे हैं। आग का प्रकोप अलग है। काफल जैसे उत्पाद बाजार की मांग की आपूर्ति कर रहे हैं। उनके लिए पेट की आग बुझाने के लिए वहॉ कुछ नहीं है इसलिए बस्ती में आ कर भोजन की तलाश करते हैं।
बन विभाग यदि वृक्षारोपण के दौरान केवल चीड़ के पौधे तक सीमित न रह कर काफल बेड़ू ,मिहल, बमौर, हिस्यालू, घिंघारू जैसे फलदार वृक्षों का रोपण जंगलों में प्रचुर मात्रा में कर दे तो हमारे ये बिरादर अपने ही इलाके में रहें और हम लोगों के लिए परेशानी का कारण न बनें। अरुणाचल प्रदेश में मैंने जंगलों में प्रचुर मात्रा में केले के पेड़ देखे हैं। शायद वहॉ के निवासियों में पशु जगत के लिए अधिक मित्रभाव है इसलिए उन्होंने यह व्यवस्था कर रखी है।  

   

शेखर जोशी : जन्म दिन विशेष-2

 
शेखर जोशी इस १० सितम्बर को अपने जीवन के अस्सी वर्ष पूरा करने वाले हैं. इस अवसर पर पहली बार उन पर कुछ विशेष आलेख प्रस्तुत कर रहा है. इसी क्रम में दूसरी कड़ी में प्रस्तुत है रमाकांत राय का आलेख ‘शेखर जोशी: मजदूर जीवन के अप्रतिम कथाकार
 
  
रमाकांत राय

शेखर जोशी : मजदूर जीवन के अप्रतिम कथाकार

भारतीय परंपरा में साहित्यकार का दर्ज़ा अतिविशिष्ट है. उसे ब्रह्मा के समानांतर रचनाकार कहा गया है. रचनाकार, जो रचनाएं करता है. पुनर्रचना. इसी क्रम में आधुनिक साहित्य में उपन्यास और कहानी को मध्यवर्ग की विधा मानी गयी है. और इसका रचयिता भी नए समाज की पुनर्रचना करता है. हिंदी में अगर कहानी विधा को लें तो सर्वसम्मति से यह बात मान ली जायेगी कि प्रेमचंद इस विधा के न सिर्फ बड़े रचनाकार हैं बल्कि बहुत बड़े फलक के आधार निर्माता भी. उन्होंने किसानों, दलितों, महिलाओं और पोंगा पंडितों पर जिस अधिकार और प्रमाणिकता पर लिखा है वह तमाम अत्याधुनिक दृष्टियों और विमर्शों के नकार के बावजूद मूल्यवान है और सच्ची तस्वीर उकेरने वाला है. प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में जिस किसान जीवन को रचा है, उसकी चुनौतियों और दुश्वारियों से वे वाकिफ हो गए थे. 
यहाँ यह बताना जरूरी है कि प्रेमचंद ने जिन किसानों के बारे में लिखा है वे छोटे और सुविधाविहीन किसान हैं, जो गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए भी थे. ये वे किसान नहीं हैं जो बड़े पैमाने पर खेती करते हैं और जिनके लिए किसानी फायदे का सौदा है. उत्तर प्रदेश और बिहार के जिन किसानों से प्रेमचंद परिचित थे वे छोटे खेतिहर ही हैं. प्रेमचंद इसलिए बड़े नहीं हैं कि उन्होंने किसान जीवन पर लिखा बल्कि इसलिए कि उन्होंने चुनौतियों को पहचाना था. यह अनायास नहीं है कि पूस की रात का हल्कू अपनी खड़ी फसल को नष्ट देख कर भी ज्यादा दुखी नहीं होता बल्कि इस अहसास से संतुष्ट दीखता है कि कम से कम जाड़े की रात में बगीचे में रखवारी नहीं करनी पड़ेगी. इसी तरह “गोदान” का गोबर भी खेती छोड़कर मजदूर बन जाता है. होरी को जबरन बेदखल होना पड़ता है और वह मजदूर बनने को विवश है. प्रेमचंद ने अनेकशः यह दिखाने का प्रयास किया है कि कैसे एक किसान मजदूर के रूप में बदल जा रहा है. उनकी कहानियों के कई पात्र खेती से बेदखल होने के बाद- खेती से बेदखल होने के कई कारण हैं जिनमे शोषण सर्वप्रमुख है- मजदूर बन जा रहे हैं. सही भी है. सर्वहारा वर्ग की अवधारणा भी इसी से है. खोने के लिए कुछ भी नहीं और पाने के लिए सारा जहाँ. 
प्रेमचंद ने किसान जीवन की चुनौतियाँ जहाँ अपने साहित्य में प्रस्तुत कीं वहीँ उन्होंने उनकी आखिरी परिणति मजदूर और श्रमिक जीवन में की. कई बार वे इसके लिए जैसे संतोष प्रकट करने की मुद्रा में दिखते हैं कि किसान जीवन के खतरों से ज्यादा आरामदेह जीवन मजदूर बनकर जीने में है. यह अलग बात है कि अपने उत्तरवर्ती लेखन में वे मजदूरी के जीवन को भी मानने लगे थे कि यह भी कुछ बदलाव नहीं ला सकता. कफ़न कहानी के घीसू-माधव इसकी मिसाल हैं जो भले कामचोर हैं लेकिन इतना ज्ञान तो रखते ही हैं कि ज्यादा श्रम कर लेने से कुछ ज्यादा बदलने से रहा. आखिर माधव की पत्नी जियादा श्रम के कारण ही अल्पायु को प्राप्त होती है.
प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कुछ गिने-चुने कहानीकारों में हमारे प्रिय कहानीकार शेखर जोशी भी हैं. इलाहाबाद का समूचा साहित्यिक समाज उन्हें शेखर दादा के रूप में जानता है. उन्होंने साहित्यिक समाज में अपनी छवि बेहद मितभाषी, मधुर और मिलनसार व्यक्ति के रूप में बने है. वे अपनी गरिमामय उपस्थिति से सभाओं, गोष्ठियों और बैठकियों की जान बने रहते हैं. शेखर दादा ने बहुत कम कहानियां लिखी हैं, लगभग साठ. उन्होंने लोकप्रिय और चर्चित विधा उपन्यास में हाथ तक नहीं आजमाया है. यदा कदा साहित्यिक बिरादरी को उनके लेख या सभाओं-गोष्ठियों में उनके वक्तव्य सुनने को मिल जाते हैं. ऐसा भी नहीं है कि वो हर उपस्थिति में वक्ता होते हैं बल्कि सही यह है कि वे अक्सर श्रोता होते हैं. शालीन और विशिष्ट श्रोता. हम लोगों ने दादा को अनेकशः सभाओं या गोष्ठियों में ही देखा या जाना है.
शेखर जोशी हमलोगों के लिए “बदबू” के कहानीकार हैं..
अपने शुरुआती दिनों में जब भी शेखर जोशी को देखना होता था, बदबू के कहानीकार को देखना होता था. हम जब उन्हें देखते थे तो अवश्य इस पहचान को दुहराते थे- बदबू के कहानीकार. सुनने वाला पहले चौंकता था फिर अगले ही क्षण तादात्म्य स्थापित कर लेता था. दरअसल, राजेंद्र यादव ने नयी कहानी के बाद कहानी के लिए जो नया नामकरण किया- समानांतर कहानी, उसके लिए एक किताब भी बाकायदा सम्पादित की- एक दुनिया समानांतर. उसमे उन्होंने कई नामचीन कहानियों के साथ “बदबू” को भी शामिल किया. कहानीकार- शेखर जोशी. अलग-अलग मूड की कहानियों में एक अछूते विषय को लेकर बेहद मार्मिक कहानी थी- बदबू. न सिर्फ मजदूर जीवन पर केंद्रित बल्कि इस अहसास को भी झकझोर देने वाली कि जल्दी ही हम व्यवस्था का हिस्सा बन जाते हैं. व्यवस्था हमें अपने रंग में ढाल लेने के लिए तमाम हथकंडे अपनाता है और हमारा प्रतिरोध धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है. बदबू इसी अहसास को उकेरती है. कथानायक –जो है उससे बेहतरी के लिए- सबसे ज्यादा जरूरी यह समझता है कि पहले अपने आप को बचाया जाए. इस क्रम में वह न सिर्फ जागरूक करना चाहता है बल्कि यह भी चाहता है कि लोग संगठित बनें. इस अभियान में उसे दुष्कर कार्य के लिए नियुक्त कर दिया जाता है. उसे बुलाकर पहले तो समझाया जाता है. लेकिन अपनी निस्संगता और ठोस तर्कों से वो चीफ़ साहब को लाजवाब कर देता है. कहानीकार ने बेहद सधे अंदाज में इस प्रक्रिया को उभारा है. चीफ़ साहब भी उसी व्यवस्था का अंग है. वो कहता भी है- “मैं तो भाई, तुम्ही लोगों की तरह एक छोटा-मोटा नौकर हूँ.” लेकिन जब वह देखता है कि यह सारी कवायद बेअसर है तो धमकी भी देता है. शेखर दादा बहुत सहजता से और बेहद सजगता से सचाई को उकेरते हैं. वो यह तो देख ही रहे हैं कि श्रमिकों का एक वर्ग आदती हो गया है तो दूसरा वर्ग कुछ बदलने के लिए कोशिश भी करता है लेकिन डरता भी है. खतरनाक है, आदती होना. इसीलिए कथानायक का आखिर में हाथ से आनेवाली बदबू से हर्षित होना ज्यादा मानीखेज हो जाता है. यहाँ बदबू से युक्त होना जीवन को बचाए रखना है. मशीन में तब्दील होना नहीं है,जैसा कि घासी की कहानी के पात्रों का बदल जाना है या कि खुद घासी का भी. बदबू इसीलिए बड़ी कहानी बनती है कि वो तमाम झंझावातों के बावजूद स्वत्व को बचाए रखने में सफल रहती है. और तब, जब हम शेखर दादा को बदबू का कहानीकार कहते हैं तो यह उसी मानी को बचाए रखने के लिए होता है.
यहाँ यह अवश्य ध्यान देने की बात है कि शेखर जोशी उन गिने-चुने कहानीकारों में हैं जिन्होंने मजदूरों के जीवन को आधार बनाकर कहानियां लिखी हैं. मैं जब उन्हें प्रेमचंद की परम्परा का कहानीकार कहता हूँ तो इसीलिए कि वे प्रेमचंद के छोड़े हुए सिरे से कहानी उठाते हैं. प्रेमचंद ने किसान जीवन से मजदूर जीवन में जो रूपांतरण दिखाया है उसके बरक्स शेखर जोशी मजदूर जीवन की चुनौतियों को रखते हैं.
अगर थोड़ी देर के लिए विषयान्तर करते हुए यह देखा जाय कि हिंदी में क्यों किसान जीवन पर तो खूब लिखा गया है और आज भी लिखा जा रहा है लेकिन मजदूरों के जीवन पर आधारित बहुत कम. मजदूरों के जीवन पर प्रामाणिक तरीके से कुछ ही लोगों ने लिखा है- शेखर जोशी, सतीश जमाली और इसराइल इनमे प्रमुख हैं. आखिर क्या कारण है? मुझे लगता है- कहानीकार की पृष्ठभूमि. हमारे अधिकांश कहानीकार जिन्होंने किसान जीवन पर लिखा है, वे या तो ग्रामीण परिवेश के हैं या किसी न किसी तरह से उस परिवेश से जुड़े हैं. और तमाम असहमतियों के बावजूद यह कहना पड़ेगा कि किसान का जीवन आज भी सामंती जीवन है. राजशाही ठाठ वाला. हमारे माँ या दादी या नानी की कहानियों का राजा यों ही नहीं गरीब भी हो सकता था. वह जमीन-जायदाद से नहीं अपने मन से राजा हुआ करता था. मजदूर जीवन पर लिखने के लिए सर्वहारा होना पड़ेगा. उनकी व्यथा-कथा को न सिर्फ महसूस करना होगा बल्कि सर्वहारा का सा जीवन जीना होगा. मेरा आशय कतई स्थूल रूप में न लिया जाय. मैं यह कहना चाहता हूँ कि मजदूर जीवन पर लिखने के लिए वैसा मानस तैयार करना पड़ेगा. इस हिसाब से शेखर जोशी सही अर्थों में सर्वहारा हैं और यह सबसे बड़ी नेमत है.
लोहा नहीं गल रहा है, जाति और वर्ण की व्यवस्था गल रही है- गलता लोहा….
शेखर जोशी की एक कहानी है- गलता लोहा. शेखर जोशी की इस कहानी में एक मेधावी बालक मोहन के गाँव से बेहतर भविष्य के लिए शहर जाने और वहाँ के कुचक्र में फंस जाने और वापस गाँव लौट आने की कथा है. मोहन को शहर लिवा जाने वाले उसके अपनी जाति के रिश्तेदार उसके साथ नौकर की तरह व्यवहार करते हैं और अन्ततः वह मेधावी बालक कुछ नहीं कर पता. वह वापस गाँव लौट आता है. कहानी में वह अपने बचपन के लोहार मित्र के यहाँ हँसिया पर धार लगाने के लिए जाता है. कहानी बहुत धीमे से जाति की स्वीकार्यता को तोड़ने के बाद वर्ण के व्यवस्था को ध्वस्त करती है जब मोहन निम्न मानेजाने वाले धनराम की बस्ती में जाता है और बैठता है. कहानीकार संकेतित करता है कि कोई उस बस्ती में बैठता नहीं है लेकिन मोहन बैठता ही नहीं है बल्कि जब धनराम अपना काम कर रहा होता है, वह हथौड़ा उठाकर घन की लगातार चोट करता है. मोहन का घन उठाना और लगातार मारना मात्र लोहे को मनमाफिक स्वरुप देना नहीं है बल्कि वर्ण और जाति की व्यवस्था को चोट पहुँचाना है. यहाँ हमें प्रेमचंद की कहानी सद्गति की सहज याद आ जाती है जिसमें दुखी चमार पंडित जी के यहाँ लकड़ी की गाँठ चीरने के लिए लगातार कोशिश करता है. व्याख्याकारों ने दुखी के उस कार्य को जाति के व्यवस्था को तोड़ने वाला कहा था. लेकिन कहानी में दुखी मर जाता है. गलता लोहा में मोहन भी वही करता है और चूंकि समाज में यहाँ मामला मजदूरी से सम्बंधित है बेगारी से नहीं, इसलिए चीजें बदल जाती हैं. आप देखें कि कहानी के अंत में मोहन अपने किये से बहुत खुश है और उसने जो निर्माण किया है वह धनराम के प्रयास से बेहतर है. गलता लोहा इस तरह से एक जरूरी और महत्त्वपूर्ण कहानी बन जाती है. यह जरूर ध्यान देने की बात है कि कहानीकार ने सारा आख्यान बहुत सहज तरीके से बयान कर दिया है.
अरे! कोसी के घटवार का नायक भी मजदूर है?……
शेखर जोशी की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है कोसी का घटवार. यूं तो यह रोमानियत से भरी हुई एक प्रेम कहानी है लेकिन अलगाने वाली बात यह है कि इस कहानी का नायक गुसाईं सिंह फौजी रह चुका है और फ़ौज से लौटने के बाद गेँहू पीसने की मशीन लगाता है. मैंने जब इसे रोमानियत से भरपूर कहा तो इसलिए भी कि उसका प्रेम परवान तो नहीं चढ़ पाता पर मरता भी नहीं और जब लछमा यानि उसकी प्रेमिका मिलती है तो वह प्यार कुलांचे भरने लगता है. कहानी का नायक गुसाईं सिंह का मजदूर बनना या यों कहें कि श्रम के क्षेत्र में उतरना शेखर जोशी के जनवादी सोच का ही परिणाम है.
शेखर जोशी वास्तव में मजदूर जीवन के रचनाकार हैं और इस तरह कहीं ज्यादा जनवादी. उनकी कहानी – ‘नौरंगी बीमार है’- कारखाने और श्रमिकों की कहानी का अच्छा उदहारण है. “दाज्यू” छोटी किन्तु मार्मिक कहानी है. इस कहानी में भी वर्गांतरण कर गए दाज्यू को यह बुरा लगता है कि बेयरा उन्हें इस तरह संबोधित करे. वे इसके लिए उसे डांटते हैं. बेयरा इस बात से ज्यादा दुखी होता है और कुछ ज्यादा ही प्रौढ़ और समझदार बन कर प्रस्तुत होता है इसीलिए नए आगंतुक के सामने दाज्यू की उपस्थिति में वह कुछ यूं उत्तर देता है- “बॉय कहते हैं शाब मुझे.” कहानीकार की टिप्पणी ज्यादा मार्मिक हो जाती है-“संक्षिप्त-सा उत्तर देकर वह मुड़ गया. आवेश में उसका चेहरा लाल होकर और भी अधिक सुन्दर हो गया था.”
संजीव कुमार ने नेशनल बुक ट्रस्ट की ओर से हाल में ही प्रकाशित शेखर जोशी की कहानियों की भूमिका लिखते हुए शेखर जोशी को “दबे पाँव चलने वाली कहानियों के सृजेता” कहा है और मूल्यांकन करते हुए सही ही लिखा है कि –“मूड को आधार बनाने की बजाय घटनाओं और ठोस ब्यौरों में किस्सा कहने वाले शेखर जोशी ने इन सभी विषयों को लेकर ऐसी कहानियां लिखी हैं जो एक ओर विचार केन्द्रित कृत्रिम गढ़ंत से मुक्त हैं, तो दूसरी ओर ‘अनुभव की प्रमाणिकता’ और ‘भोगा हुआ यथार्थ’ के संकरे आशय से भी. इस लिहाज से वे अमरकांत और भीष्म सहनी की तरह घातक अतियों से कहानी का बचाव करने वाले रचनाकार हैं.”
हमारे प्रिय रचनाकार को हाल में ही दूसरे श्रीलाल शुक्ल सम्मान से नवाजे जाने की घोषणा हुई है. सूर्यनारायण जी, जो मेरे गुरु भी हैं, ने इस अवसर पर जो टिप्पणी की है उसे साभार आपके सामने रख रहा हूँ- “आज हमारे शहर- इलाहाबाद की साहित्यिक दुनिया केलिए एक प्रसन्नता की खबर है- वरिष्ठ कहानीकार आदरणीय शेखर जोशी, जिन्हें हमलोग प्यार और सम्मान से “जोशी दादा” कहते हैं, को दूसरा श्रीलाल शुक्लसम्मान मिला है. श्रीलाल शुक्ल के निधन के बाद इस सम्मान/पुरस्कार की स्थापना हुई.पहला सम्मान विद्या सागर नौटियाल को मिला था. इलाहाबाद के ४  बुजुर्ग महान व्यक्तित्वों- भैरव दादा, मार्कंडेय दादा, अमरकान्त जी और जोशीदादा ,में सबसे सौम्य, सबसे कम विवादास्पद, किसी भी प्रकार के ताल-तिकड़म से परे, नए लोगो को अतिशय प्यार और स्नेह करने वाले, अपने व्यवहार में भी जनवादी दिखने वाले जोशी दादा ही हैं. इसे बाकी लोगों की तौहीन के रूप में न समझा/पढ़ा जाय. जितना सहज, सरल व्यक्तित्व उनका है, उतना सबका नहीं है. वे हिंदी जगत के अजातशत्रु हैं. लेकिन अपने विचारों, अपनी पक्षधरता में अडिग और दृढ हैं उतने ही. कोई लोभ-लाभ उन्हें डिगा नहीं सकता. भारतीय भाषा परिषद्, म.प्र.साहित्य परिषद्, राही मासूम रज़ा अकादमी की ओर से भी उन्हें पुरस्कार/सम्मान मिल चुका है. सबसे पहले उन्हें पहल पत्रिका ने “पहल सम्मान” से नवाज़ा था. यह साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसी साहित्यिक संस्थाओं की नासमझी है या दुर्बुद्धि कि इतने महत्वपूर्ण रचनाकारों को आज तक सम्मानित नहीं किया! जबकि एक से एक नमूनों को यह सम्मान/पुरस्कार बांटे गए हैं. क्या यह संस्थाएं इतनी जड़ हैं कि इन महान लेखकों का मूल्यांकन नहीं कर पा रही हैं! जब हिंदी विभागों के कूढ़मगज मास्टर और विभागाध्यक्ष ही निर्णायक होंगे तो और क्या होगा! शेखर जोशी, ज्ञानरंजन और इसी कद के कई बड़े लेखक जिस भाषा में हों/ सक्रिय रहे हों- उस भाषा और साहित्य के लिए गर्व और गौरव की बात है. लेकिन हिंदी की संस्थाओं की मूढमति के कारन यह दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे ये वरिष्ठ और महत्वपूर्ण रचनाकार इन पुरस्कारों से आज तक वंचित हैं. ईश्वर, यदि कहीं  है तो इन मूढमति संस्थाओं को सद्बुद्धि दे-इसी कामना के साथ जोशी दादा और उनको प्यार करने वाले पाठकों को बहुत-बहुत बधाइयाँ!”
सितम्बर की १०वीं तारीख को शेखर दादा का जन्मदिन है. हम सबकी तरफ से दादा को बहुत-बहुत बधाइयाँ और शुभकामनायें. वे हमारी विरासत और धरोहर हैं. उनको हमारा प्रणाम…


रमाकान्त राय
प्रवक्ता, हिंदी
राजकीय इण्टरमिडीएट कालेज. कोन, सोनभद्र,
जन्म- २३ दिसंबर, १९७७. गाजीपुर में.
प्रारम्भिक शिक्षा- पश्चिम बंगाल से. उच्च शिक्षा 
(डी.फिल.- राही मासूम रज़ा के उपन्यासों में 
हिन्दू-मुस्लमान सम्बन्ध और उनकी रचना दृष्टि)
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से.
ई पता-royramakant@rediffmail.com
 mobile-09838952426

शेखर जोशी के नाम एक खुला पत्र

हम सब के शेखर दादा इस १० सितम्बर को ८० बरस के हो जायेंगे. हिन्दी कथा साहित्य को कई अप्रतिम कहानियाँ देने वाले कोसी के घटवार के जन्मदिन पर पहली बार उन पर केन्द्रित कुछ नवीनतम सामग्री श्रृंखलाबद्ध ढंग से प्रस्तुत करने जा रहा है. यह सुखद है कि शेखर जी पर लिखने वाले सभी साथी युवा हैं और उनके मन में शेखर जी के प्रति गहरा आदर और सम्मान है. इस यादगार अवसर के लिए हमारे आग्रह पर शेखर दादा ने पहली बार के लिए एक संस्मरण भी लिखा है जिसे हम उनके जन्म दिन १० सितम्बर को प्रस्तुत करेंगे.
इस क्रम में पहली कड़ी के रूप में प्रस्तुत है युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा का शेखर जी के नाम खुला पत्र.    
 

आदरणीय शेखर जोशी जी ,
               मेरा पहाड़के प्रथम संस्करण के प्रकाशन के लगभग दो दशक बाद पिछले दिनों एक बार पुनः मैंने आपके इस कहानी संग्रह की कहानियाँ पढ़ी। बहुत मार्मिक और यथार्थपरक कहानियाँ हैं जो देर तक कहीं भीतर गूँजती रहती हैं। इनमें कुमाउँ का समाज और प्रकृति जिस तरह जीवंत हो उठते है उससे आपकी अपनी जमीन के प्रति गहरी संपृक्ति का पता चलता है। इन कहानियों में आए पात्रों और उनकी जीवन-स्थितियों से लगभग रोज ही मिलना हो जाता है, कभी घर के भीतर तो कभी घर के बाहर। उनसे बातें भी होती हैं। उनके दुःख-दर्द तथा हर्ष-उल्लास का हिस्सा भी बनता हूँ। आज मन हुआ कि आपको एक पत्र लिखूँ और बताऊँ कि आपका देखा-भोगा पहाड़ आज कैसा है? आपकी कहानियों में आए पात्र आज किन हालातों में हैं और उनकी परिस्थितियाँ कितनी बदली हैं। शायद आप भी इन बातों को जानने के इच्छुक हों।
    इस कोण से जब मैंने इन कहानियों का पाठ किया तो शेखर जी आपको आश्चर्य होगा कि अभी भी पहाड़ की परिस्थितियाँ और समस्याएं बहुत अधिक नहीं बदली हैं, जब कि इन कहानियों को लिखे जाने और पढ़े जाने के बीच एक बड़ा परिवर्तन घटित हुआ है -उत्तराखंड एक पृथक राज्य का दर्जा पा चुका है। जैसा कि आप पृथक राज्य आंदोलन के संघर्ष और उससे जुड़ी स्थानीय जनता की आशाओं-आकांक्षाओं और स्वप्नों से अवगत ही हैं। लोगों को लगा था कि यदि पृथक राज्य बन जाएगा तो सरकार जनता के करीब आएगी। वह जनता की भावनाओं और जरूरतों को अच्छी तरह समझेगी। पहाड़ की परिस्थितियों के अनुसार योजनाएं बनेंगी। रोजगार के नए अवसर सृजित होंगे। फलस्वरूप जनता के हालातों में अंतर आएगा। जनता के स्वप्नों का उत्तराखंड कैसा होगा ? उत्तराखंड आंदोलन के दौरान हमारे जन कवि गिर्दा के स्वरों में इस प्रकार व्यक्त हो रहा था – ‘बैंणी फाँसी नी खाली जाँ रौ नि पड़ाल भाई /मेरी बाली उमर नि माजौ तलिउना कढ़ाई ।……दुःख-बिमारी में मिली जौ दवाई-अस्पताल।….जात-पात ,नान-ठुल को नी होलो सवाल।……मैंसन हुँ घर कुड़ि हौ, भैंसन हुँ खाल /गोरू-बाछन हुँ गोचर हौ, चाड़-प्वाथन हुँ डाल।‘ पर सारे सपने धरे के धरे रह गए।
   शेखर जीभले ही एल0पी0जी0 के प्रभावों से देश के अन्य हिस्सों की तरह पहाड़ भी अछूता नहीं है। चाउमिन,  पिज्जा,  पेप्सी-कोकाकोला, मोबाइल का नेटवर्क, बाइक के शो रूम और कार के सर्विस सेंटर दूर-दराज तक पहुँच गए हैं पर यहाँ के लोगों की पीठ से बोझअभी भी नहीं उतरा। यात्रियों का सामान पीठ में लाद पहाड़ों की चढ़ाईयाँ नापते हुए आपकी कहानियों में आए उम्मेद सिंह या सोबन सिंह आज भी दिख जाते हैं। हाँ! कुछ सोबन घोड़िया जरूर टैक्सी या जीप के ड्राइवर बन गए हैं। बनी-अधबनी कच्ची सड़कों में अपनी जान-जोखिम में डाल कभी यात्री तो कभी सामान ढो रहे हैं। रोजगार की तलाश में मदनों का होटलों में जाकर भाने-माँजने या कोई अन्य छोटी-मोटी नौकरी करने का सिलसिला भी नहीं रूका है। सिर्फ नगर-महानगर बढ़ गए हैं। दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, इलाहाबाद के साथ-साथ अब नैनीताल, हल्द्वानी, कोटद्वार, हरिद्वार, देहरादून उनके आश्रयस्थल बन रहे हैं। आपकी कहानी दाज्यूकी तरह नौ-दस साल के मदन पढ़ने-लिखने की उम्र में होटल में भाने-माँजते हुए अभी भी बहुत सारे दिख जाते हैं जहाँ अब उन्हें जगदीश बाबू जैसा कोई ऊपरी सहानुभूति दिखाने और नाम-गाम पूछने वाला भी नहीं मिलता। मदन और जगदीश बाबू के बीच का वर्ग अंतराल और बढा है। देबिया सुनिश्चित रोजगार के अभाव के चलते आए दिनों नए-नए रोजगार के मंसूबे बांधने के लिए मजबूर है। देबियाकहानी में आपके द्वारा किया गया चरित्र-चित्रण आज के ग्रामीण बेरोजगारों में भी सटीक बैठता है। ज्वान-जवान जितुवा आपको आज भी मोटर सड़क के किनारे की दुकानों में गजेड़ियों की संगत में मिल जाएगा। दिन-रात गाँजे की दम लगा के टुन्न। बाट-घाट में अनाप-शनाप बकता। अब तो वह गाँजे-अत्तर के साथ शराब भी पीने लगा है। अलग राज्य बनने के बाद तो शराब का प्रचलन यहां बढ़ गया है। छोटे-छोटे कस्बों में शराब विरोधी आंदोलन करते-करते महिलाएं थक चुकी हैं। आंदोलन के बदौलत कहीं शराब की दुकान बंद हो जाती है तो वहां तस्करी बढ़ जाती है। अंततः इस तस्करी से परेशान लोग शराब की दुकान खोलने की मांग करने लग जाते हैं।      
  शेखर जी, पहाड़ की खेती अभी भी घाटे का सौदा ही बनी हुई है। आधुनिक कृषि विधियों का कोई विशेष लाभ नहीं दिखाई दे रहा है। मिट्टी के साथ जिंदगी मिट्टी हो गयी। रात-दिन हाय-हाय करो, फिर भी पूरा नहीं पड़ताआपकी कहानी के ये स्वर और तीव्र हुए हैं। गाँव के लोग खेती-बाड़ी की माया छोड़ कर शहर में जा कर कोई छोटा-मोटा धंधा करना अधिक श्रेयस्कर समझ रहे हैं। जो थोड़े-बहुत मजबूरीवश खेती-बाड़ी करना भी चाह रहे हैं. बंदर-लंगूर-सुअर जैसे जंगली जानवरों के खेती पर बढ़ते आक्रमण के सामने असहाय हैं। नित्यानंद ज्यू के लिए अपने बीस-पच्चीस सेव-वृक्ष का बगीचा बचाना भी कठिन हो गया है। अब वे और उनकी बुढ़िया उसकी देखभाल करने के लिए गांव में अकेले रह गए हैं। बहू-बेटे तो नौकरी और बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए  शहर जा चुके हैं। अभी भी गाँवों में अच्छी शिक्षा की सुविधाएं कहाँ।
  आप जिस बाह्मण किसान को हलवाहाकहानी में हल चलाते हुए दिखाते हैं वह किसान दकियानूसी और झूठी शान के चलते आज भी उन्हीं शब्दों को दुहराने के लिए विवश है- भैय्या, कोई दूसरी जात का आदमी होता तो खुद ही जोत-बो लेता लेकिन हम लोगों के लिए तो इसका भी निषेध है, बिरादर लोग जात-बाहर कर देंगे। बाल-बच्चे वाले आदमी को रोटी-बेटी दोनों का ही ख्याल रखना पड़ता है। इतना पैसा पास में नहीं कि मजदूरी पर हलवाही करवाओ। तब चारा क्या?’’ पिरमुंवा और जमनिया ने हल की मूँठ छोड़ जीप-ट्रक का स्टेरिंग पकड़ लिया है अब हलवाहाकी उपलब्धता और कठिन हो गई है। आपने इस कहानी में गरीब ब्राह्मण की पीड़ा और धार्मिक जकड़बंदियों को बहुत गहराई से व्यक्त किया है। इसके पास ब्राह्मण होने की झूठी शान के अलावा कुछ नहीं है। उसकी  आर्थिक स्थिति किसी दलित सर्वहारा से भिन्न नहीं है। आपकी गलता लोहाकहानी इसका सशक्त उदाहरण है। आपने हलवाहाकहानी में इस विडंबना को बहुत सटीक ढंग से व्यक्त किया है कि एक व्यक्ति की सामजिक-धार्मिक मान्यताओं पर आस्था न होने के बावजूद भी वह उनसे बाहर नहीं निकल सकता है। उन मान्यताओं को छोड़ नहीं सकता है। यह सामाजिक बदलाव में बहुत बड़ा वैरियर है। जात-बाहर होने का डर और सामाजिक कहलाने का मोह हमें उन मान्यताओं को मानने के लिए भी बाध्य करता है जिन पर हमारी कोई आस्था नहीं होती। शेखर जी,  मेरी दृष्टि में एक प्रतिगामी बात और हुई है कि जो ब्राह्मण कभी हल चलाते थे आज कुलीन ब्राह्मणों की देखा-देखी और जातीय श्रेष्ठता की आकांक्षा में उन्होंने भी हल चलाना छोड़ दिया है।  
   शेखर जी, यहाँ पर मुझे एक बात सकून देती है कि भले ही एक ओर हलवाहाकी कम उपलब्धता के चलते गरीब ब्राह्ण किसान की परेशानी बड़ी है लेकिन दूसरी ओर हलवाहे, तेली-ढोली, बढ़ई, लोहार आदि की गुंसाई राठों में निर्भरता कम हुई है। फलस्वरूप इनका एक स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित हो रहा है। अपनी तरह से जीना सीख रहे हैं, जो स्वागत योग्य है। पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि यहाँ छुआ-छूत समाप्त हो गया हो। अभी भी घर के बाहर आँगन के किसी कोने में उलटे रखे खाना खाने के बर्तन,  सवर्ण नौलों में पानी पाने के इंतजार में खड़े लोग, स्कूलों में अलग पाँत में बैठ भोजन करते बच्चे तथा मंदिर के कपाट एक जाति विशेष के लोगों के लिए बंद दिख जाएंगे। शहरों तक में किराया के कमरे देने से पहले जाति पूछने का फिनोमैना आम है।
 आपकी समर्पण कहानी के बचुवा का जाति असमानता के विरुद्ध संघर्ष अभी भी जारी है। उसने और उसकी जाति विरादरी ने जनेऊ भी डाल लिया है। संध्या-पूजा भी करने लगे हैं। पर सवर्णों की नजर में वही हैं जो पहले थे। छुपते-छुपाते ही सही उनके स्पर्श के दोष से मुक्त होने के लिए अभी भी शुद्धि-शुद्धिकह कर जल के छींटे डालने के उदाहरण दिख जाएंगे। उसकी जाति-बिरादरी के मजदूर अभी भी दरवाजे तक ही प्रवेश पा सकते हैं। हाँ, कानून की डर से होटलों या अन्य सार्वजनिक स्थलों पर चाय-पानी के गिलास या खाने के बर्तन धो कर अलग से नहीं रखने पड़ते हैं। गाँवों में शिल्पकारों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति में बहुत अधिक अंतर नहीं आया है। बी0पी0एल0 के अन्तर्गत सबसे अधिक संख्या उन्हीं की है। आपकी कहानी के सेवक जी का यह विश्वास कि यदि अछूत लोग भी यज्ञोपवीत धारण कर लेंगे तो वे उच्च वर्ग के धरातल पर आ जाएंगे,  झूठा साबित हुआ है। ऐसा होना ही था क्योंकि सेवक जी का जाति मुक्ति का यह प्रयास गलत दिशा में था। आपने इस कहानी में सवर्ण मानसिकता पर बहुत गहरा व्यंग्य किया है। जाति से ऊपर उठ कर ही ऐसा व्यंग्य संभव है। यह कहानी जहाँ समाप्त होती है उससे यह बात निकल कर आती है कि आर्थिक स्वालंबन के बिना जाति सम्मान की लड़ाई लड़ना संभव नहीं है। मुझे लगता है बचुवा की जाति-बिरादरी के लोग आत्मनिर्भर होते तो उन्हें इस तरह अपने मालिक राठों के यहाँ समर्पणनहीं करना पड़ता। वे अपनी लड़ाई को मजबूती से लड़ सकते थे। आपने गलता लोहा कहानी में सवर्ण-दलित सर्वहारा की जिस एकता का सपना देखा था उस दिशा में आज भी कोई प्रगति नहीं दिखाई देती है। बल्कि एक नए तरह का तनाव उनके बीच पैदा हो गया है। सवर्णों को लगता है दलितों को मिलने वाले आरक्षण से उनकी परेशानियाँ बड़ी हैं और उनके अवसर छिने हैं। पदोन्नति में आरक्षण समाप्त करने को ले कर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के सामने आने के बाद तो यह तनाव मुखर होकर सामने आ गया है। इन दिनों आरक्षण के समर्थन और विरोध में दो अलग-अलग आंदोलन चल पड़े हैं जो दलित-सवर्णों के बीच एक नयी वैमनस्यता को जन्म दे रहे हैं। आने वाले समय में किसी अप्रिय घटना की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।   
  शेखर जी, आप गोपुली बुबुके हाल-समाचार जानना चाह रहे होंगे। वह आज भी अपने पुरखों का घर देखने पहाड़ आने वाले भाई-भद्यौओं को पुराने दिनों के किस्से सुना रही है। आज भी वह यही कह रही-दूध-दही का रोज ही अकाल हुआ हमारे गाँव में।……इन डाँडों-टीलों वाले बज्जर देहात में क्या हो सकता था, न दवा न डाँक्टर ! ओ माँ-ओ बबा करती जाती रही बेचारी। मेरी कुंतुली भी ऐसे ही छटपटाती हुई गई। (एक सौ आठ या खुशियों की सवारी चल गई हैं भला पर उन्हीं स्थानों तक है इनकी पहुँच जहाँ तक सड़क है।) उसका तकिया कलाम ही हो गया है- काल आ गया होगा, जाती रही। (ये काल भी कितना निर्दयी है गरीब-गुरबों के लिए ही आता है।) शेखर जी, अस्पताल जरूर खुल गए हैं जो उस समय ही खुल चुके थे जब आप यहीं थे लेकिन उनमें डॉक्टर और दवाइयाँ अभी तक नहीं पहुँची। गोपुली बुबु उसी के इंतजार में बैठी है। अभी तक उसको यह संतोष नहीं मिल पाया है  ’’हमारी तो कट गई ,अब जो बाल-बच्चे हैं वे अच्छे दिन देख लेते यही हमारा संतोष था।’’  माफियाओं के बढ़ते प्रभाव के चलते पर्यावरण पहले से अधिक खराब हो चुका है जिसने गोपुली बुबु की चिंता और अधिक बढा दी है- ’’पहाड़ सब खोखले कर दिए हैं। पेड़-पौधों का कहीं नाम नहीं है। जहाँ जिसके हाथ लग जाता है वह डाल-पात नोच-काट ले जाता है। छोटे-छोटे लोग छोटे पेड़ों को उजाड़ते हैं बड़े लोग बड़ों को। अजीब गदर मचा रखा है रे! ’’ इसी गदर का फल है शेखर जी कि कहीं बादल फटता है या सामान्य से कुछ अधिक बारिश हो जाती है तो उससे होने वाला नुकसान पहले से कई गुना बढ़ जाता है। पिछले दिनों उत्तर काशी के बारे में तो आपने मीडिया में सुना-देखा ही होगा। एक दो-साल पहले यदि आप अल्मोड़ा आए होंगे तो गरमपानी से काकड़ीघाट के बीच का दृश्य देखा ही होगा? पर क्या किया जाय गोपुली बुबु की कौन सुनता है।       
 गोपुली बुबु के माध्यम से आपने पहाड़ के साथ-साथ पहाड़ की स्त्री के दुःख-दर्द और संघर्ष को भी बहुत बारीकी और मार्मिक ढंग से व्यक्त किया है। कोसी का घटवार  भले ही एक प्रेम कहानी के रूप में अधिक चर्चित है पर मुझे उसमें भी उस पहाड़ी औरत का संघर्ष दिखाई देता है जो कम उम्र में ही विधवा हो कठिन संघर्ष कर अपने बच्चों को पाल-पोस रही हैं। चाहे आज पहाड़ों में घट बहुत कम रह गए हों पर लछमाओं की कमी नहीं है। कथा-व्यथाकी जीवंती की व्यथा-कथा कहाँ कम हुई। उसकी पीढ़ियाँ गुजर गई है सत्यनारायण की कथा इस आशा में सुनते हुए  कि- ’’उसका जीवन दुःख-दारिद्रय, रोग-शोक से मुक्त हो कर सुखमय व्यतीत होगा।’’ अभी भी वह इन्हीं कल्पनाओं में खोई हुई है कि-  भगवान उसे स्वप्न में दर्शन देकर कहेंगे-जीवंती! अब तेरे जीवन में रोग-शोक, दुःख दारिद्रय मिट गए हैं! तेरी भगवती को मैं पुत्ररत्न दूँगा। तेरे जमाई को देश में रोजगार मिल गया है! दाजी के पास गिरवी पड़े अपने खेत तू इस वर्ष छुड़ा लेगी!-तेरे गोठ में दो बैल बँध जाएंगे। पर सत्यनारायण की कथा में इतना दम जो होता तो पहाड़ की व्यथा कब के खतम हो चुकी होती। हर पूर्णमासी या संक्रांति को घर-घर में यह कथा आम है।
 शेखर जी, आप सोचते होंगे कि अब पहाड़ों में शिक्षा का बहुत प्रचार-प्रसार हो गया है। लोग पढ़-लिख गए हैं। अंधविश्वास और रूढ़िवादिता खत्म हो चली होगी। पर ऐसा नहीं है आपको आश्चर्य होगा कि आपकी रंगरूटकहानी की ये पंक्तियां आज भी उतनी ही प्रमाणिक हैं जितनी उस समय जब यह कहानी लिखी गई होगी गांव में रोग-व्याधि फैल जाए, सूखा पड़े या वर्षा-पाले की तबाही हो, लोग फूल-पाती, भेंट-चढ़ावा या मुर्गा-नारियल ले कर झाऊ बाबा के थान पहुंच जाते। आज भी झाऊ बाबा के चमत्कार जिंदा हैं बल्कि गांव से शहर बस चुके लोगों के साथ शहर आ चुके हैं। गण्त-पूछबदस्तूर जारी है। अंधविश्वास कहीं से भी कम हुआ नहीं लगता है। अब हाइटेक हो चुका है। दिल्ली में बसे किसी व्यक्ति को पहाड़ के किसी गांव से ही विभूति लगा दी जाती है। आपने सुना होगा पिछले साल मंदिरों में कटरा की बलि न देने के संबंध में कोर्ट का आदेश आया था जिसका स्वागत होना चाहिए था। एक ऐसे पशु को जिसका माँस कोई भी नहीं खाता उसे काट कर फेंक देना कहाँ तक उचित है? पर इस निर्णय को ले कर लोगों में गहरी नाराजगी है। आपने अपनी कहानी में पहाड़ी समाज में व्याप्त अंधविश्वास का जिस सूक्ष्मता से चित्रण किया है कहीं से नहीं लगता कि वह दो-तीन दशक पूर्व लिखी कहानी है। वह आज की ही कहानी लगती है और बिल्कुल सच्ची। इधर इसमें एक विकास यह हुआ है कि पहले लोग झाऊ बाबा के चमत्कारों के कायल थे अब सद्गुरु बाबा के चमत्कार भी गाँव-गाँव तक पहुँच चुके हैं। खासकर महिलाओं में इनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। खेती-बाड़ी का जरूरी काम छोड़ महिलाएं इनके प्रवचन सुनने को सत्संग केंद्रों की ओर उमड़ पड़ रहीं हैं।
 शायद आपको उत्सुकता होगी कि आदमी का डरकहानी का हुणिया अब कहीं दिखता है या नहीं। आपकी तरह अपने बचपन में हमने भी हुणियों को देखा था लेकिन अब ये कहीं नहीं दिखते। अब-ले जंबूकी हाँक कहीं नहीं सुनाई देती हैं। आपने इस कहानी में बच्चे के मनोविज्ञान का जो जीवंत चित्रण किया है वह लाजबाब है। मुझे अपना बचपन याद हो आया। पर आज के बच्चों के लिए वह बीते जमाने की बात हो चुकी है।
 कुल मिला कर आपकी कहानियों ने एक बार पुनः पूरे पहाड़ के अतीत और वर्तमान को देखने का अवसर दे दिया। मैं समझता हूँ इस रूप में ये कहानियां हमेशा प्रासंगिक बनी रहेंगी। ये दलितों-वंचितों-स्त्रियों के जीवन की प्रामाणिक प्रस्तुति हैं। मुझे यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि पहाड़ को जानने-समझने के लिए आपकी ये कहानियां महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। इन कहानियों में पहाड़ का जन-जीवन ही नहीं बल्कि मानवीय संवेदनाओं और अंतर्द्वंद्वों का बारीक चित्रण भी बहुत कुशलता से हुआ है। आप अपने पात्रों के अंतरतम में प्रवेश कर जाते हैं। साधारण बातचीत की भाषा में जीवन की गहरी व्यंजनाओं को उभार देते हैं। आपकी भाषा-बोली जीवंत और पात्रानुकूल है। भाषा में भी पूरा कुमाउँनी परिवेश उपस्थित हो उठता है।  आपको यह जान कर दुःखद आश्चर्य होगा कि इन कहानियों में आए लोक बोली के बहुत सारे शब्द आज लुप्त हो चुके हैं। आपकी इन कहानियों में मुझे एक बात बहुत अच्छी लगी आपके तमाम पात्र स्वाभिमान से भरे हुए हैं। गरीबी और अभावों के बावजूद वे झुकते नहीं हैं। अंतिम हद तक संघर्ष करते हैं। साथ ही इन कहानियों में आपकी, दुनिया के तलछट में पड़े लोगों के प्रति गहरी उष्मा और आत्मीयता दिखाई देती है। 
  वागर्थ के अप्रैल 1996 के अंक में चंद्रा पांडेय ने आपकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि ’’शेखर जोशी की कहानियाँ सहज सीधे कथानक के सहारे विकसित अति जटिल और सघन आंतरिक बुनावट की कहानियाँ हैं जो किसी निष्कर्ष का आग्रह नहीं करती बल्कि आरंभ में एक आभास देकर ज्यों-ज्यों आगे बढती है, घनीभूत और संवेदनापूर्ण होती जाती हैं।’’ मैं उनकी इस टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ। आपका बिना शोरगुल के बहुत कुछ कह देना और जबरदस्ती का कोई निष्कर्ष न प्रस्तुत करना प्रीतिकर लगता है। इसलिए ये कहानियाँ बार-बार पढ़ने पर भी ऊब नहीं पैदा करती हैं। मुझे विश्वास है इनकी यह ताजगी हमेशा बनी रहेगी। अभी इतना ही अधिक फिर कभी……..यह सुखद संयोग है कि मैं यह पत्र लिख ही रहा था समाचार मिला है कि आपको श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान प्रदान किया जाएगा। निश्चित रूप से आप इस सम्मान के अधिकारी हैं। यह हाशिए में खड़े उन तमाम पात्रों का सम्मान है जो आपकी कहानियों में आए हैं। बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
                                              आपका
                                            महेश चंद्र पुनेठा
                                            जोशी भवन
                                            निकट लीड बैंक
                                            पिथौरागढ़ 262501
 
(महेश चंद्र पुनेठा एक जाने-माने युवा कवि और आलोचक हैं.)

शेखर जोशी

हमारे पसंदीदा कहानीकार शेखर जोशी ‘कोसी का घटवार’, ‘दाज्यू, ‘बदबू’ जैसी कालजयी कहानियों के लिए जाने जाते हैं। इधर पिछले दिनों शेखर दा बीमार पड़े। पता चला मस्तिस्क में दो जगह ब्रेन हैमेरेज है। आपरेन के सिलसिले में अस्पताल में रहे।
जैसा कि शेखर दा ने बताया कि अस्पताल मे उनके बगल में अवध के एक मुस्लिम किसान भी थे। शेखर दा उनसे बात करने के लिए कोई सूत्र ढूढ रहे थे जो आखिर मिल ही गया। इस कविता में पहाड़ के एक किसान की अवध के किसान से दिलचस्प बतकही है जिसमें कहानी का आनन्द भी है। वैसे यह कविता ‘कथन’ पत्रिका के जनवरी-मार्च 2012 अंक में प्रकाशित हुई है, लेकिन शेखर दा से हुई बातचीत के आलोक में ‘पहली बार’ में इस कविता को साभार प्रस्तुत करने का मोह संवरण नहीं कर पाया। एक और महीन-सी बात जो किसी भी रचनाकार के लिए एक सबक हो सकती है। पहले इस कविता की पॉचवीं पंक्ति में शेखर दा ने ‘बेटी का विवाह’ लिखा था। लेकिन बाद में सम्पादक संज्ञा जी को फोन कर इसमें एक सुधार करवा कर उन्होंने इसे ‘बेटी का निकाह’ करा दिया, जिससे कि जिन्दगी भर यह घटना एक याददास्त के तौर पर तरोताजी बनी रहे। यह एक उदाहरण है कि किस तरह एक रचनाकार एक एक ब्द के लिए जद्दोजहद करता है और अपने को अपनी ही रचना में प्रतिस्थापित करता है।

आभार,  न्नप्रसवा!

वे मौन हैं
अपने ही दुख से दुखी
शायद असाध्य बता दिया हो किसी ने उनका रोग
शायद चिन्तित हों बच्चों के बेसहारा हो जाने की आशंका से
बेटी का निकाह, बेटों की पढाई
घर की मरम्मत, पड़ोसी का स्वभाव
कुछ भी हो सकता है चिन्ता का कारण।

संवाद तो होना चाहिए, मैंने सोचा
वार्ड में पास पास पड़े अपने बिस्तरों पर हम दोनों
कब तक झेलेंगे यह सन्नाटा
बोल बतिया कर अपना दुख तो बांट सकते हैं।

मैंने शुरू किया मौसम से:
‘गर्मी बहुत है इस साल, न जाने कब पानी बरसे?’
‘हॅू’  उन्होंने कहा
मैंने छेड़ा राजनीति का रागः
‘चुनाव से पहले खूब दल-बदल हो रहा है’
‘बेहया हैं’  उन्होंने टिप्पणी की, फिर मौन की चादर ओढ ली
‘मास्साब, खेती बाड़ी तो होगी गॉव में?’  मैंने तुरूप का पत्ता फेंका
‘हॉ थोड़ी बहुत है, खाने भर को हो जाता है’
वे कुछ खुले, जैसे मैंने किसी दुलरूआ का जिक्र कर दिया हो
‘अच्छा बताएँ, धान भी होता है इधर?’
‘हॉ, हॉ वही तो सहारा है’
उनकी ऑखों में मैंने देखी रोपाई वाले खेतों की तरलता।
‘बेहन तो अब तैयार हो गया होगा?’
मैंने अपना किसानी गोत्र दर्शाया 
‘हॉ, इत्ता-इत्ता हो चला है’ उन्होंने एक हथेली के उपर
दूसरी हथेली की छॉव कर बताया
जैसे किसी बढवार बच्चे के कद को नाप रहे हों।
मैंने उनकी ऑखों में वैसा ही वात्सल्य भाव देखा।

अब संवाद चल पड़ा था
जैसे खेतों में नहर का पानी फैल रहा हो।
वह अवध का किसान
मुझसे पहाड़ की फसलों की जानकारी ले रहा था।
उनके खेतों के लहराते
‘मसूरी’, ‘सरजू बावन’, ‘नरेन्द्र’, ‘भदई’
और जलमग्न धानों की बालियों की गन्ध
मुझ तक पहुँच  रही थी
और शायद पहाड़ के ‘अंजनी’, ‘जड़िया’ और ‘बासमती’ की खुशबू
उनके नासापुटों में पहुँच चुकी थी।

हम दोनों बतिया रहे थे
अपनी हारी बीमारी भूल कर
अपने दुख और अपनी चिन्ताएँ बिसरा कर।

आभार, हमारी अन्नप्रसवा धरती!
माध्यम बनी तुम
हमारे बीच पसरा मनहूस सन्नाटा टूटा।

सम्पर्कः 100, लूकर गंज, इलाहाबाद, उ0 प्र0