राकेश रोहित की कविताएँ

राकेश रोहित


नाम : राकेश रोहित
जन्म : 19 जून 1971 (जमालपुर).

संपूर्ण शिक्षा कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).

कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि.

पहली कहानी “शहर में कैबरे” हंसपत्रिका में प्रकाशित.

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं” आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित. राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओ और ब्लॉग में विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन.

सक्रियता : हंस, कथादेश, समावर्तन, समकालीन भारतीयसाहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला, सेतु आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपट आदि का प्रकाशन. अनुनाद, समालोचन, पहली बार,  असुविधा, स्पर्श, उदाहरण आदि ब्लॉग पर कविताएँ प्रकाशित.
 

संप्रति : सरकारी सेवा.
राकेश रोहित हिन्दी कविता के सुपरिचित युवा हस्ताक्षर हैं हाल ही में समावर्तन पत्रिका  ने इनकी कविता को रेखांकित करते हुए इनकी कविताएँ सम्पादक निरंजन श्रोत्रिय की टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया है आज हम राकेश रोहित की कविताओं को निरंजन जी की टिप्पणी के साथ प्रकाशित कर रहे हैं
      
युवा कवि राकेश रोहित की ये कविताएँ समकालीन युवा कविता परिदृश्य में एक चौंकाने वाला बल्कि स्तब्ध कर देने वाला हस्तक्षेप है जो इस तथ्य की तस्दीक करता है कि आज का एक युवा कवि न सिर्फ अपने संवेदनों को बहुत गहराई से मानवीय सरोकारों से तदाकार किये हुए है बल्कि अपने को समकाल से लगातार अद्यतन भी किये हुए है राकेश अपने काव्य संवेदनों के साथ अपने कथ्य को इतनी सजग बारीकी से काव्य-व्यवहार में तब्दील करते हैं कि अचम्भा होता हैप्रथम दृष्टया यह प्रयास आपको सचेष्ट, सायास और सावधानी से किया गया काव्य-प्रयास लग सकता है लेकिन जब आप कवि की मूल प्रतिज्ञा और उसकी नीयत से एक पाठकीय सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो कवि की ईमानदार मंशा को अपने भीतर स्थानांतरित होता पाते हैं यह ऐसी कविता की खोज है जहां कविता की जगह है पर कविता नहींजैसे कि यहाँ प्रकाशित पहली कविता में चाँद की जगह पर चाँद नहीं है यह युवा कवि संसार में हर उस अनुपस्थित की खोज में जुटा हुआ है जो अन्यथा हमारे संसार को मानवीय और बेहतर बनाने के लिए अनिवार्य हैमौजूदा स्थानापन्न व्यवस्था का एक गहरा विषाद इस युवा कवि के अंतर्मन को भेद कर उसकी कविता में भी पाया जा सकता है  

अब भी किसी चाँदनी रात को
चाँद पर चिड़िया की छाया साफ दिखाई देती है
और चाँद जब छुप जाता है
पृथ्वी की कक्षा से दूर
चिड़िया की आवाज से टूट जाती है
उदास लड़की की नींद!

मुझे नहीं पता कि राकेश रोहित की रचना-प्रक्रिया वस्तुतः क्या है? वह तो कवि ही बता पायेगा लेकिन मुझे लगता है कि जब आप अपने समूचे काव्य-व्यवहार यानी भाषा, शिल्प, सौंदर्य, कथ्य वगैरह को कवि की मूल संवेदना (यानी न्यूक्लियस) तक अभिकेंद्रित करने की जिद ठान लें और वहाँ से कविता को धीमे-धीमे अपकेंद्रित करें तो शायद ऐसी कविता संभव है यह कार्य आसान नहीं है बन्धु, लेकिन इस युवा कवि ने यह किया है और अपनी कविता में एक निःशब्द घमासान रचने की सार्थक कोशिश की है क्या आप यह सोच सकते हैं कि ‘गज़ब कि अब भी…’ कविता जो कि हमारे समय को एक अलग तरह से खंगाल रही है, में एक जबरदस्त राजनीतिक चेतना अंतर्विष्ट है जो हमारे भीतर को एक भिन्न तरह से आंदोलित कर रही हैदूसरे, यहाँ एक स्थूल समाधान देने की बजाय वह व्यवहारिक और मानवीय सन्तोष (तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ) है जो किसी भी तरह हमारे न केवल जीवित होने बल्कि अपने समय में बने रहने का भी सबब है राकेश की कविता, कविता न हो कर एक मनुष्य की वह लगातार आत्मीय पुकार है जो समूची दुनिया को किसी लाया में बाँध लेना चाहती है यह दुष्कर कार्य तभी संभव है जब आपको इस बात का इल्म हो कि ‘लोरियों में साहस भरने से/ बच्चे का भय कम नहीं होता’ यानी कवि की चिंता एक काली अँधेरी सड़क पर अकेले खड़े या अपनी नींद में किसी दुःस्वप्न से चौक जाने वाले बच्चे को थपकी में तब्दील करने की कविता चिन्ता है ‘ऐसे तो मैं’ जैसी कविता में युवा कवि तमाम शब्दाडम्बरों को नकार कर उस आतंरिक फ़ोर्स को रेखांकित करता है जब वाकई कोई कविता संभव होती है वह न केवल कविता बल्कि समूची दुनिया के साक्षात्कार के लिए संशय की झीनी परत को उघाड़ देना चाहता है ताकि समूचा परिदृश्य साफ़ और निर्मल रूप से दिखाई दे कहना न होगा कि यह कवि आग्रह हमारे समय की सबसे जरुर्री पुकार है मित्रों, सच कहना बहुत मुश्किल होता है, और कविता में सच कहना तो और भी मुश्किलयुवा कवि राकेश रोहित देवताओं की मिथकीय चमक को एक थके-हारे लेकिन वास्तविक मनुष्य के चेहरे के धूसर रंग में तब्दील कर उसकी शिनाख्त करते हैं यह कवि साहस उन्हीं हरे पत्तों से आता है जो पूरी जिजीविषा के साथ भूरी टहनियों पर टंगे रहते हैं यदि आप मंगल ग्रह कविता पढ़ कर विचलित होते हैं तो इसका कारण यह है कि यह कविता वैश्वीकरण के नाम पर की गयी पश्चिमी बाजारवादी कोशिशों के खिलाफ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भारतीय बल्कि मानवीय अवधारणा को सृजित करती है अपने समय के कवियों को याद करना कोई नयी बात नहीं लेकिन यह युवा कवि जब दुष्यन्त कुमार, मंगलेश डबराल या निलय उपाध्याय को याद करता है तो वह उनके समूचे कविता-सरोकारों को अपनी कविता में उतार देता है यह केवल कवि-स्मरण न हो कर उनके समूचे व्यक्तित्व को कविता में गूंथ देने जैसा है यह तभी संभव है जब आपकी कवि-दृष्टि नदी की तलहटी में पड़े सिक्के को देख सके जिस पर कई चुप प्रार्थनाएँ लिपटी पडी हैंकविता की ताकत को पहचानते हुए भी उसके कद को मनुष्य से बड़ा न होने देने का आग्रह देखना हो तो इस युवा कवि की ‘एक दिन वह…’ पढ़ेंयहाँ एक विट है जिसके माध्यम से कवि समकालीन कविता व्यापार पर एक मार्मिक व्यंजना रचता है युवा कवि राकेश रोहित अपने समय और उसमें व्याप्त सच को गहराई से समझने वाले कवि हैं वे बाजार, वैश्वीकरण, राजनीति और मनुष्य के खिलाफ रचे जाने वाले हर दुश्चक्र को एक सजग और अतिसंवेदित दृष्टि से देखते हैंआश्चर्यजनक यह कि भाषिक स्तर पर यह कवि अपनी कविता में वह सब उद्घाटित करता है जो कविता में शब्द के बतौर अनुपस्थित है यह एक विलक्षण काव्य-प्रतिभा के कारण ही संभव हैयूं तो दावे-आपत्तियां करना बहुत आसान है लेकिन बहुत डरते-डरते लेकिन कुछ-कुछ विश्वास के साथ कहने का मन है कि राकेश रोहित एक दिन हिन्दी कविता का बड़ा नाम हो सकता है
-निरंजन श्रोत्रिय                                        
राकेश रोहित की कविताएँ
उदास लड़की, चन्द्रमा और गाने वाली चिड़िया
 
 
एक दिन चन्द्रमा ने लड़की से पूछा-

इजाजत दो
तो तुम्हारी आँखों में छुप जाऊँ!
लड़की मुस्कुरायी और गहरा हो गया
उसकी आँखों का रंग
और उसकी मुस्कराहटों
में बरसने लगी चाँदनी।
अकेली लड़की धरती पर सवार
करती थी आकाशगंगा की सैर
और देखती थी आकाश
जहाँ चाँद की जगह थी पर चाँद नहीं था
और हजार तारे टिमटिमाते थे
सारी – सारी रात!
वह नदी की तरह बहती रही
और सोना बिखरता रहा झील पर
वह चंचल बहती रही
वह अल्हड़ बहती रही।
अब वह खूब भागती थी
खूब बातें करती थी
और बात – बात पर खिलखिलाती थी
पहाड़ से उतरते झरने की तरह।
पर होठों की हँसी छुपा नहीं पाती थी
आँखों का पुराना दुख
और बारिश के बाद बहती हवा की तरह
भींग जाती थी उसकी आवाज
जब वह गा रही होती थी
कोई विस्मृत होता गीत!
एक दिन अनाम फूलों के बीच गुजरते हुए
उसने अचानक
एक बच्चे को जोर से चिपटा लिया
और रोने लगी
जैसे टूटती है बांध में बंधी नदी
सारी रात की खामोश बारिशों के बाद।
इसके बाद जो हुआ वह जादू की तरह था
बच्चे ने, जिसे नहीं आती थी भाषा
अपनी नन्हीं हथेली उसके गाल पर टिका कर
साफ शब्दों में पूछा तुम रो क्यों रही हो?
यह बात वहाँ से गुजरती चिड़िया ने सुना
और गाने लगी उदासी का गीत!
अब भी किसी चाँदनी रात को
चाँद पर चिड़िया की छाया साफ दिखाई देती है
और चाँद जब छुप जाता है
पृथ्वी की कक्षा से दूर
चिड़िया की आवाज से टूट जाती है
उदास लड़की की नींद!

गजब कि अब भी, इसी समय में
गजब कि ऐसे समय में रहता हूँ
कि खबर नहीं है उनको
इसी देह में मेरी आत्मा वास करती है।
गेंद की तरह उछलती है मेरी देह
और मन मरियल सीटी की तरह बजता है
हमारी भाषा के सारे विस्मय में नहीं
समाता उनकी क्रीड़ा का कौतुक!
गजब कि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है। 
गजब कि आत्मा से परे भी
बचा रहता है देहों का जीवन!
रोज मेरी देह आत्मा को छोड़ कर कहाँ जाती है
रोज क्यों एक संशय मेरे साथ रहता है
रोज दर्शन का एक सवाल उठता है मेरे मन में
आत्मा मुझमें लौटती है
या मैं आत्मा में लौटता हूँ!
क्या हमारा अस्तित्व
धुंधलके में खामोश खड़े
पेड़ों की तरह है
लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
और मैं अपने अंदर समाये  हजार स्वप्न
और असंख्य साँसों के साथ
नेपथ्य में खड़ा
आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?

कैसे हारे हुए सैनिकों की तरह लौट गयी है इच्छायें,
कैसे उदासियों के पर्चे फड़फड़ा रहे हैं?
कैसे अनगिन तारों के बीच
निस्तब्ध सोयी है पृथ्वी,
कैसे कोई जागता नहीं है
कि सुबह हो जायेगी?
गजब कि ऐसे समय में, अब भी,
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है
गजब कि अब भी,
इसी समय में,
कोई कहता है
कोई सुनता है

इच्छा, आकाश के आँगन में
इच्छा भी थक जाती है
मेरे अंदर रहतेरहते
यह मन तो लगातार भटकता रहता है
आत्मा भी टहल आती है
कभीकभार बाहर
जब मैं सोया रहता हूँ।

यह बिखराव का समय है
मैं अपने ही भीतर किसी को आवाज देता हूँ
और अपने ही अकेलेपन से डर जाता हूँ।
यह समय ऐसा क्यों लगता है
कि काली अंधेरी सड़क पर
एक बच्चा अकेला खड़ा है?

लोरियों में साहस भरने से
कम नहीं होता बच्चे का भय
खिड़कियां बंद हों तो सारी सडकें जंगल की तरह लगती हैं।
इच्छा ने ही कभी जन्म लिया था मनुष्य की तरह
इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।

मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र
उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।

ऐसे तो मैं
ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
जैसे अचानक भूल गया हूँ तुम्हारा नाम
जैसे याद करना है उसे अभी- के-अभी
पर जैसे छूट रहा है जीभ की पहुँच से
दांत में दबा कोई रेशा
जैसे पानी में डूब- उतरा रही है
किसी बच्चे की गेंद
जैसे सामने खड़ी तुम हँस रही हो
पर नहीं देख रही हो मुझे
कि जैसे तुम्हें पुकारना
है दुनिया का सबसे जरूरी काम!

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
जैसे तितलियों के साथ नाच रहे हैं 
नंग- धड़ंग बच्चे
और फूल खिलखिलाकर हँस रहे हैं
कि जैसे रंग हवा पर सवार हैं
और मन में कोई मिठास जगी है
कि जैसे वक्त की खुशी
इतनी आदिम पहले कभी नहीं हुई
कि जैसे इससे पहले कभी नहीं लगा
कि कुछ कहने- सुनने से बेहतर है
प्यार किया जाए!

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
कि इस बार लिखना है मन के पोर- पोर का दर्द
कि जैसे यह समय फिर नहीं आयेगा
कि जैसे न कह दूं तो कम हो जायेगी
किसी तारे की रोशनी
कि जैसे पृथ्वी ठहर कर मेरी बात सुनती है
कि जैसे बात मेरी खामोशियों से भी बयां हो रही है
कि जैसे जान गये हैं सब यूं ही
क्या है कहने की बात
कि जैसे अब दुविधा मन में नहीं है
कि जैसे कहना है कि अब कहना है!

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ।

हमारे ही बीच का होगा वह, जो सच कहेगा
हमारे ही बीच का होगा वह
जो सच कहेगा
हमारे ही भीतर से आएगा! 

देवताओं सी चमक
नहीं होगी उसके चेहरे पर
नहीं होगा,
वह उम्मीद की गाथाओं का रचयिता!
हो सकता है
इंद्रधनुषों की बात करते वक्त भी
उसकी आँखों से
झांक रही हो
रात की थोड़ी बची भूख
और कहीं उसके गहरे अंदर
छूट रही हो
एक नामालूम रुलाई!


एक सामान्य सी सुबह होगी वह
और रोज की तरह का दिन
जब रोज के कामों से
थोड़ा वक्त निकाल कर
जैसे सुस्ताता है कोई पथिक
वह हमसेआपसे मुखातिब होकर
सरे राह सच कहेगा!

ऐतिहासिक नहीं होगा वह दिन
जब सूरज की तरह
चमकेगा सच
और साफ झलकेगा
भूरी टहनियों पर
हरे पत्तों का साहस।

मुझे लगता है मंगल ग्रह पर एक कविता धरती के बारे में है
मुझे लगता है मंगल ग्रह पर बिखरे
असंख्य पत्थरों में 
कहीं कोई एक कविता धरती के बारे में है!
आँखों से बहे आंसू
जो आँखों से बहे और कहीं नहीं पहुंचे
आवाज जो दिल से निकली और
दिल तक नहीं पहुंची!
उसी कविता की बीच की किन्हीं पंक्तियों में
उन आंसुओं का जिक्र है
उस आवाज की पुकार है.
संसार के सभी असंभव दुःख
जो नहीं होने थे और हुए
मुझे लगता है उस कविता में
उन दुखों की वेदना की आवृत्ति है.
पता नहीं वह कविता लिखी जा चुकी है
या अब भी लिखी जा रही है
क्योंकि धरती पर अभी-अभी लुप्त हुई प्रजाति का 
जिक्र उस कविता में है.
मुझे लगता है संसार के सबसे सुंदर सपनों में
कट कर  भटकती  उम्मीद की पतंग
मंगल ग्रह के ही किसी वीराने पहाड़ से टकराती है
और अब भी जब इस सुंदर धरती को बचाने की
कविता की कोशिशें विफल होती है
मंगल ग्रह पर तूफान उठते हैं.
मुझे लगता है
जैसे धरती पर एक कविता
मंगल ग्रह के बारे में है
ठीक वैसे ही मंगल ग्रह पर बिखरे
असंख्य पत्थरों में
कहीं कोई एक कविता धरती के बारे में है!
एक कविता नदी के लिए
हम सबके जीवन में
नदी की स्मृति होती है
हमारा जीवन
स्मृतियों की नदी है।

नदी खोजते हूए हम
घर से निकल आते हैं
और घर से निकल हम
खोयी हुई एक नदी याद करते हैं।

नदी की तलाश में ही कवि निलय उपाध्याय
गंगोत्री से गंगासागर तक हो आए
अब एक नदी उनके साथ चलती है
अब एक नदी उनके अंदर बहती है।

बचपन में कभी
तबीयत से उछाला एक पत्थर*
नदी के साथ बहता है
और
नदी की तलहटी में कोई सिक्का
चुप प्रार्थनाओं से लिपटा पड़ा रहता है।

सभ्यता की शुरुआत में
शायद कोई नदी किनारे रोया था
इसलिए नदी के पास अकेले जाते ही
छूटती है रुलाई
और मन के अंदर
कहीं गहरे दबा प्यार
वहीं याद आता है।

नदी किनारे अचानक
एक डर हमें भिंगोता है
और गले में घुटता है
कोई अनजाना आर्तनाद।


कुछ गीत जो दुनिया में
अब भी बचे हुए हैं
उनमें नदी की याद है
अब भी नदी की हवा
आकर अचानक छूती है
तो पुरखों के स्पर्श से
सिहरता है मन!

दोस्तों!
इस दुनिया में
जब कोई नहीं होता साथ
एक अकेली नदी हमसे पूछती है
तुम्हें जाना कहाँ है?

(*एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों – दुष्यंत कुमार)

एक प्रार्थना, एक भय

कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा”*
मंगलेश डबराल की कविता पढ़ते हुए
पहले प्रार्थना की तरह दुहराता हूँ इसे
फिर डर की तरह गुनता हूँ।
डर कि ऐसे समय में रहता हूँ
जहाँ प्रार्थना करनी होती है
कवियों में मनुष्य के बचे होने की
हे प्रभु क्या बची रहेगी कवियों में थोड़ी सी लज्जा!
क्या साथ देंगी प्रलय प्रवाह में वे नावें
जिन पर हम सवार हैं?
इन बेचैन रातों में अक्सर होता है
जब मन तितली में बदल जाता है
और गुपचुप प्रार्थना करता है
कि वे जो खेल रहे हैं शब्दों से गेंद की तरह
खिलने दें उन्हें फूलों की तरह!
मैं चाहता हूँ संभव हो ऐसा समय
जिसमें यह इच्छा अपराध की तरह न लगे
कि मनुष्यों में बची रहे हजार कविता
और कविता में बचा रहे हजार मनुष्य!

(* “कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा” – मंगलेश डबराल
यह पंक्ति मंगलेश डबराल जी की इसी शीर्षक कविता की अंतिम पंक्ति है और उनसे साभार)

कविता में उसकी आवाज
वह ऐसी जगह खड़ा था
जहाँ से साफ दिखता था आसमान
पर मुश्किल थी
खड़े होने की जगह नहीं थी उसके पास।
वह नदी नहीं था
कि बह चला तो बहता रहता
वह नहीं था पहाड़
कि हो गया खड़ा तो अड़ा रहता।
कविता में अनायास आए कुछ शब्दों की तरह
वह आ गया था धरती पर
बच्चे की मुस्कान की तरह
उसने जीना सीख लिया था।
बड़ी-बड़ी बातें मैं नहीं जानता, उसने कहा
पर इतना कहूँगा
आकाश इतना बड़ा है तो धरती इतनी छोटी क्यों है?
क्या आपने हथेलियों के नीचे दबा रखी है थोड़ी धरती
क्या आपके मन के अँधेरे कोने में
थोड़ा धरती का अँधेरा भी छुपा बैठा है?
सुनो तो, मैंने कहा
…………
………..!!
नहीं सुनूंगा
आप रोज समझाते हैं एक नयी बात
और रोज मेरी जिंदगी से एक दिन कम हो जाता है
आप ही कहिये कब तक सहूँगा
दो- चार शब्द हैं मेरे पास
वही कहूँगा
पर चुप नहीं रहूँगा!
मैंने तभी उसकी आवाज को
कविता में हजारों फूलों की तरह खिलते देखा
जो हँसने से पहले किसी की इजाजत नहीं लेते।
एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
हारा हुआ आदमी पनाह के लिए कहाँ जाता है,
कहाँ मिलती है उसे सर टिकाने की जगह?

आपने इतनी माया रच दी है कविता में
कि अचंभे में है अंधेरे में खड़ा आदमी!
आपके कौतुक के लिए वह हंसता है जोर- जोर
आपके इशारे पर सरपट भागता है।

एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
चमत्कार का अंगोछा झाड़ कर आपकी पीठ पर
कहेगा, कवि जी कविता बहुत हुई
आते हैं हम खेतों से
अब जोतनी का समय है।
छतरी के नीचे मुस्कराहट
छतरी के नीचे मुस्कराहट थी
जिसे उस लड़की ने ओढ़ रखा था,
उसकी आँखें बारिश से भींगी थी
और ऐसा लग रहा था जैसे 
भींगी धरती पर बहुत से गुलाबी फूल खिले हों!
जैसे पलकों की ओट में
छिपा था उसका मन
वैसे छतरी ने छिपा रखा था
उसके अतीत का अंधेरा।
पतंग की छांव में एक छोटी सी चिड़िया
एक बहुत बड़े सपने के आंगन में खड़ी थी।
मेरी कविता में जाग्रत लोगों के दुःख हैं
मेरी कविता में जाग्रत लोगों के दुःख हैं.
मैं कल छोड़ नहीं आया,
मेरे सपनों के तार वहीं से जुड़ते हैं।
मैं सुबह की वह पहली धूप हूँ
जो छूती है
गहरी नींद के बाद थके मन को।
मैं आत्मा के दरवाजे पर
आधी रात की दस्तक हूँ।
जो दौड कर निकल गए
डराता है उनका उन्माद
कोई आएगा अँधेरे से चल कर
बीतती नहीं इसी उम्मीद में रात।
मैं उठाना चाहता हूँ
हर शब्द को उसी चमक से
जैसे कभी सीखा था
वर्णमाला का पहला अक्षर।
रुमान से झांकता सच हूँ
हर अकथ का कथन
मैं हजार मनों में रोज खिलता
उम्मीद का फूल हूँ।
मेरी कविता में हजारों लोगों की
बसी हुई है
एक जीवित-जागृत दुनिया।
मैं रोज लड़ता हूँ
प्रलय की आस्तिक आशंका से
मैं उस दुनिया में रोज प्रलय बचाता हूँ।
मेरी कविता में उनकी दुनिया है
जिनकी मैं बातें करता हूँ
कविता में गर्म हवाओं का अहसास
उनकी साँसों से आता है।
बाज़ार के बारे में कुछ विचार
ख़ुशी अब पुरानी ख़ुशी की तरह केवल ख़ुश नहीं करती
अब उसमें थोड़ा रोमांच है, थोड़ा उन्माद
थोड़ी क्रूरता भी।
बाज़ार में चीज़ों के नए अर्थ हैं
और नए दाम भी।
वो चीज़ें जो बिना दाम की हैं
उनको लेकर बाज़ार में
जाहिरा तौर पर असुविधा की स्थिति है।
दरअसल चीज़ों का बिकना
उनकी उपलब्धता की भ्राँति उत्पन्न करता है।
यानी यदि ख़ुशी बिक रही है
तो तय है कि आप ख़ुश हैं (नहीं तो आप ख़रीद लें)
और यदि पानी बोतलों में बिक रहा है
तो पेयजल संकट की बात करना
एक राजनीतिक प्रलाप है।
ऐसे में सत्ता के तिलिस्म को समझने के कौशल से बेहतर है
आप बाज़ार में आएँ
जो आपके प्रति उतना ही उदार है
जितने बड़े आप ख़रीदार हैं।
बाज़ार में आम लोगों की इतनी चिन्ता है
कि सब कुछ एक ख़ूबसूरत व्यवस्था की तरह दीखता है।
कुछ भी कुरूप नहीं है
इस खुरदरे समय में
और अपनी ख़ूबसूरती से परेशान लड़की
जो थक चुकी है बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बेचकर
अब ख़ुद को बेच रही है।
यह है उसके चुनाव की स्वतंत्रता !
सब कुछ ढक लेती है बाज़ार की विनम्रता।
सारे वाद-विवाद से दूर बाज़ार का एक खुला वादा है
कि कुछ लोगों का हक़ कुछ से ज़्यादा है
और आप किस ओर हैं
यह प्रश्न
आपकी नियति से नहीं आपकी जेब से जुड़ा है।
यदि आप समर्थ हैं
तो आपका स्वागत है उस वैश्विक गाँव में
जो मध्ययुगीन किले की तरह ख़ूबसूरत बनाया जा रहा है
अन्यथा आप स्वतंत्र हैं
अपनी सदी की जाहिल कुरूप दुनिया में रहने को।
बाज़ार वहाँ भी है
सदा आपकी सेवा में तत्पर
क्योंकि बाज़ार
विचार की तरह नहीं है
जो आपका साथ छोड़ दे।
विचार के अकाल या अंत के दौर में
बाज़ार सर्वव्यापी है, अनंत है।
सम्पर्क –
मेल – rkshrohit@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

राकेश रोहित का आलेख संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें


राकेश रोहित

किसी भी कवि की वास्तविक पहचान उसके गद्य से होती है. कवियों द्वारा गद्य लिखने की हमारे यहाँ एक समृद्ध परम्परा रही है. निराला हों, मुक्तिबोध या फिर नागार्जुन सबने कविताओं के साथ-साथ प्रचुर गद्य भी लिखा है. यह परम्परा हमारे समय में भी कायम है. इसी क्रम में युवा कवि राकेश रोहित ने ‘एक नौसिखुआ आलोचक के रफ नोट्स’ लिखा है. यह इस कवि की विनम्रता को ही दर्शाता है क्योंकि यह न तो रफ है और न ही केवल नोट्स. बल्कि यह पूरी तरह से सधा हुआ एक मुकम्मल गद्य है. कवि राकेश ने अपने शहर के ही एक अन्य युवा कवि विमलेश त्रिपाठी के हालिया प्रकाशित कविता संग्रह  एक देश और मरे हुए लोग पर विश्लेषणपरक ढंग से लिखा है. तो आइए पढ़ते हैं राकेश रोहित का यह गद्य जिसका शीर्षक है ‘संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें’.
       
एक नौसिखुआ आलोचक के रफ नोट्स

संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें

(सन्दर्भ:युवा कवि विमलेश त्रिपाठी की कविता पुस्तक एक देश और मरे हुए लोग)
 राकेश रोहित
1.  एक देश और मरे हुए लोग युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का दूसरा कविता संग्रह है. पूरा संग्रह पाँच खण्डों में विभाजित है- इस तरह मैं, बिना नाम की नदियाँ, दुःख-सुख का संगीत, कविता नहीं और एक देश और मरे हुए लोग. पाँचों खंड का एक अलग तेवर है और इसे पाँच स्वतंत्र कविता-संग्रह की तरह भी पढ़ा जा सकता है.
2.  इस तरह मैं में कविता की अभिव्यक्ति की उलझनें हैं तो बिना नाम की नदियाँ में कवि के उन आत्मीय संबंधों का संसार है जिससे वह और उसका व्यक्तित्व रचा गया है. दुःख- सुख का संगीत में स्मृति और उम्मीद की कविताएँ हैं. कविता नहीं कवि की आकांक्षाओं की कविता है तो पाँचवां खंड जिसमें संग्रह की शीर्षक कविता भी है कवि द्वारा यथार्थ को समझने की कोशिश है.
3. विमलेश त्रिपाठी संवेदना के कवि हैं. उनकी संवेदना ओढ़ी हुई नहीं है वरन् वह उनमें संस्कार की तरह विकसित हुई है. गांव और लोक की ललक उनकी कविताओं का मूल स्वर है. इसलिए उनकी कविताओं में जीवन में लगातार छूट रही चीजों के लिए एक बेचैनी स्पष्ट दिखती है और यथार्थ और स्मृति के बीच एक निरंतर आवाजाही संभव होती है.
4. कवि के अंदर अपने अस्तित्व की बेचैनी और अपने गांव से/ अपनी जड़ों से दूर रहकर शहर में प्रवासी हो जाने का दर्द बार-बार उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होता है. यह एक बूढा हांफता गांव है जिसकी याद कवि के मन में ऐसी बसी है कि वह कोलकाता में रहकर भी कोलकाता  का नहीं बन सका. यह जड़ों से कटने की पीड़ा है यह उस गांव के नष्ट होते जाने का दर्द है जहां कुंए में मिट्टी भरती जा रही है.
5. कवि की प्रखर संवेदना उसकी कविता को अप्रतिम बनाती है. इसी संवेदना की ताकत से कवि बिना चिड़िया के पैरों में रस्सी बांधे और बिना नोह्पालिश से उसके पंख रंगे, उसे अपना बना लेता है. संवेदना कवि का घर है और जल ही जल चतुर्दिक में उसके आश्रय का द्वीप भी.
     कवि को यह भय है कि जिस तरह दुनिया पक्षियों के माफिक नहीं रही उसी तरह एक दिन उसके रहने लायक भी नहीं रहेगी. पर यह कवि का विश्वास है कि वह कहता है-
     कोई लाख कोशिश कर ले
मैं कहीं जाऊंगा नहीं
रहूँगा मैं इसी पृथ्वी पर
बदले हुए रूप में.
6.       विमलेश त्रिपाठी की कविताओं और उनकी कवि- समझ की यह ताकत है कि वे न केवल मनुष्य के अस्तित्व पर आसन्न खतरों की परख करते हैं वरन् उसके लिए एक निरंतर लड़ाई भी भाषा के स्तर पर लड़ते हैं. और उसके लिए वे खुशी-खुशी पूरे होश-ओ-हवास में मूर्खता का वरण करने को भी तैयार हैं. यहाँ मूर्खता अचानक सहजता का पर्याय बन जाती है. यह कवि का अपने पर विश्वास है. इसलिए वे कहते हैं-
     शब्द और कितने
फलसफे कितने और
इन दो के बीच फंसे
सदियों के आदमी को
निकालो कोई.
कलम बंद करो
मंच से उतरो
चलो इस देश की अंधेरी गलियों में
सुनो उस आदमी की बात
उसको भी बोलने का मौका दो कोई.
यह कविता में विचार और वाद से पहले  मनुष्य की स्थापना है. और इसलिए कवि कह पाता है, जब कभी पुकारता कोई शिद्दत से/ दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुँचता जहाँ पहुँचने की बेहद जरूरत.

विमलेश त्रिपाठी
7.  बहनें कविता एक महाकाव्य की तरह है और इसमें संवेदना का जो पारावार है उसे एक आलेख की सीमा में बांधना कठिन है. पूरी कविता में दुःख का और समाज में स्त्री जाति के प्रति हो रहे अन्याय का मद्धिम स्वर निरंतर गूंजता है और बहनों की कोई भी हँसी उसे ढंक नहीं पाती. यह कविता अपने आप में एक संपूर्ण वक्तव्य है. इसे पढ़ना दुःख के गीलेपन को महसूसना है जिसे हवा आँखों से सुखा देती है पर दिल के अंदर वह हमेशा रिसता रहता है. इसकी एक-एक पंक्ति समाज की आधी आबादी के साथ हमारे समय की नृशंसता का करुण दस्तावेज है. देखें-

        इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य

सबका हो कर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही
उन्हें अपने भाग्य के साथ.
स्त्री के इसी दुःख की सततता होस्टल की लड़कियां कविता में दिखती है जब कवि कहता है-
वे जीना चाहती हैं तय समय में
अपनी तरह की जिंदगी
जो उन्हें भविष्य में कभी नसीब नहीं होना.
8. यथार्थ और स्मृतियों के बीच जिस आवाजाही की बात मैंने पहले की है वह तीसरे खंड की कविताओं में साफ है. फिर चाहे वह सपने कविता हो या बहुत जमाने पहले की बारिश या फिर ओझा बाबा को याद करते हुए. कविता नहीं खंड की कविताएँ कवि के आकांक्षाओं की कविता है जहाँ वह अपनी उम्मीद की जड़ें तलाशता है. इसलिए कवि कहता है-
कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाए
एक गुमनाम बेकार कवि.
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सब कुछ हारकर
बचा लूँगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला पेड़ कोई.
9. कविता संग्रह का समर्पण कवि के शब्दों में देश के उन करोड़ों लोगों के लिए है जिनके दिलों में अब भी सपने साँस ले रहे है और संग्रह के शुरुआती पन्ने पर कवि ने मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पंक्तियों को याद किया है- 
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम.
                        (गजानन माधव मुक्तिबोध)
10.     संग्रह के पांचवें खंड का नाम है एक देश और मरे हुए लोग जिसमें इसी नाम की एक कविता भी है. चूँकि संग्रह का शीर्षक भी यही है इसलिए मैं मान लेता हूँ कि यह कवि की सबसे  प्रिय  कविता है और इससे उसका सबसे अधिक वैचारिक जुड़ाव है.
11.     एक देश और मरे हुए लोग जिसमें कवि का आग्रह है कि हकीकत को कथा की तरह और कथा को हकीकत की तरह सुना जाए, भन्ते को संबोधित है. इस कविता में एक ऐसे राज्य का रूपक है जिसमें मंत्री, उसके कुनबे और जनता सब मरी हुई है पर राजा जिंदा है और मरी हुई जनता के बीच पहुँचाना चाहता है रोशनियाँ! मैंने इसको कई बार समझने की कोशिश की कि मुक्तिबोध की जिन पंक्तियों को कवि ने संग्रह में उद्धृत किया है उसमें देश मर जाता है और लोग बचे रहते हैं पर विमलेश जी की कविता में देश बचा है लोग मरे हुए. अब क्या है यह? यथार्थ का अंतर्विरोध या कविता का विकास? इस मरे हुए लोगों के बीच कवि, लेखक कलाकार आदि कुछ ही लोग जीवित हैं. लोकधर्मी कवि की इस हठात आत्ममुग्धता का कारण क्या है? यह कौन सा यथार्थ है और कौन सा रूपक? जहां राजा जीवित है और तंत्र मरा हुआ! क्या है यह? बुराई का अमूर्तन और आश्चर्य कि इस अमूर्तन को रचने वाली एक मशीन है जो बाहर से  आयात की गयी है जो जीवितों को लगातार मुर्दों में तब्दील  करती है. यानी यहाँ अमानवीकरण  एक प्रक्रिया नहीं है वरन् बाहर से आयातित है.
     यहाँ कवि जो पूरी जनता के मरे होने का रूपक बांधता है क्या वह कवि की हताशा है? क्या यह वही कवि है जो इसी संग्रह में अपनी अंकुर के लिए कविता में कहता है,
मेरे बच्चे मुझ पर नहीं
अपनी माँ पर नहीं
किसी ईश्वर पर भी नहीं
भरोसा रखना इस देश के करोड़ों लोगों पर
जो सब कुछ सह कर भी रहते हैं जिंदा.
तो ये करोड़ों लोग जो विमलेश त्रिपाठी की कविता में हर शर्त पर जिंदा रहते हैं अचानक मुर्दों में कैसे तब्दील हो गये? क्या अपने लोगों पर कवि का भरोसा डिग गया है? या यह एक दुस्वप्न  है एक विभ्रम? इस विभ्रम की स्थिति में इस लोकधर्मी कवि, जो लोक के प्रति अपनी संवेदना से सिक्त है, की उम्मीद सिर्फ कवियों से हैं! और विश्वास कीजिये वैसे कवियों से  जो कवच-कुंडल लेकर महानता के साथ जनमते हैं! पर  विमलेश त्रिपाठी के ही शब्दों में क्या यही कवि अभी जोड़-तोड़ से पुरस्कार पाने में नहीं जुटे हुए थे. यह है विभ्रम की मुश्किलें!
     कवि ने पूरी कविता को एक दुस्वप्न भरे रूपक की तरह रचने की कोशिश की है और इस कोशिश में उसका उस संवेदना से साथ छूट गया है जो कवि की ताकत है. संवेदना से इसी विलगाव  के कारण गालियाँ कविता में कवि गाली के पक्ष में तर्क देने लगता है उसे मन्त्र की तरह पवित्र ठहराने लगता है. इस  क्रम में वह गालियों की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने से चूक जाता है. वह भूल जाता है कि गालियाँ दी पुरूष को जाती हैं पर होती स्त्रियों के विरुद्ध  हैं कि स्त्रियों के विरूद्ध नृशंसता की वह वही सदियों पुरानी श्रृंखला है विमलेश जी की कविता जिनके खिलाफ है.
12. एक देश और मरे हुए लोग में कवि की आख़िरी कोशिश उस मशीन की खोज है जो जिंदा लोगों को मुर्दा में तब्दील कर देती है. पर कवि यह भूल जाता है कि राजा इन मशीनों से पहले से थे और कविता भी, जो तब भी मनुष्य के अमानवीयकरण की प्रक्रिया से निरंतर लड़ रही थी. पर विभ्रम की मुश्किलों के बाहर विमलेश जी की कविताओं में संवेदनाओं के जो द्वीप हैं वहाँ जीवन का पर्यावरण सुरक्षित है और अपनी आदिम ऊर्जा से भरा साँस लेता है.
सन्दर्भ पुस्तक:
कविता संग्रह एक देश और मरे हुए लोग, कवि/ विमलेश त्रिपाठी,  प्रकाशक: बोधि प्रकाशनएफ77,  सेक्टर 9, रोड नं 11, करतारपुरा  इंडस्ट्रियल एरियाबाईस गोदाम, जयपुर302006,
प्रकाशन वर्ष: 2013.

सम्पर्क-

ई-मेल : rkshrohit@gmail.com

राकेश रोहित की कविताएँ


राकेश रोहित
जन्म : 19 जून 1971.

संपूर्ण शिक्षा कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).

कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि.

पहली कहानी “शहर में कैबरे” हंसपत्रिका में प्रकाशित.

हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं” आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित. राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन.

सक्रियता : हंस, समकालीन भारतीयसाहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपट आदि का प्रकाशन.


संप्रति : सरकारी सेवा.
किसी भी कवि के लिए कविता लिखना दरअसल उस प्रकृति के साथ होना है जिसमें रंग हवा पर सवार होते हैं और जिसे जीते हुए लगता है कि ऐसी आदिम ख़ुशी पहली बार मिली है।  हर जमाने में बार-बार होते हुए भी यह पहली बार जैसा अहसास वाकई अनूठा होता है।  कविता लिखना वस्तुतः उस अनकहे को जीना-लिखना होता है जिसे लिखा जाना कहा जाना जरुरी था और है। यह लिखा और कहा जाना मनुष्यता को बचाए रखने के लिए है।  प्रकृति का मतलब सिर्फ पेड़-पौधे, फूल-तितली, बादल-बारिश ही नहीं, बल्कि प्रकृति के वे स्वभावगत गुण भी होते हैं, जो हमेशा मानवता के पक्ष में खड़े होते हैं।  जो एक साथ अधिकाधिक लोगों को ख़ुशी का अहसास कराते हैं।  राकेश रोहित प्रकृति पर लिखते हुए हमें सजग करते हैं ‘कुछ कहने- सुनने से बेहतर है/ प्यार किया जाए‘  यहाँ प्रकारान्तर से मानवता के पक्ष में खड़े होने की बात की गयी है।  आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं युवा कवि राकेश रोहित की कुछ नयी कविताएँ।  
        

राकेश रोहित की कविताएँ 
ऐसे तो मैं
ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
जैसे अचानक भूल गया हूँ तुम्हारा नाम
जैसे याद करना है उसे अभी- के-अभी
पर जैसे छूट रहा है जीभ की पहुँच से
दांत में दबा कोई रेशा
जैसे पानी में डूब- उतरा रही है
किसी बच्चे की गेंद
जैसे सामने खड़ी तुम हँस रही हो
पर नहीं देख रही हो मुझे
कि जैसे तुम्हें पुकारना
है दुनिया का सबसे जरूरी काम!

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
जैसे तितलियों के साथ नाच रहे हैं 
नंग- धड़ंग बच्चे
और फूल खिलखिला कर हँस रहे हैं
कि जैसे रंग हवा पर सवार हैं
और मन में कोई मिठास जगी है
कि जैसे वक्त की खुशी
इतनी आदिम पहले कभी नहीं हुई
कि जैसे इससे पहले कभी नहीं लगा
कि कुछ कहने- सुनने से बेहतर है
प्यार किया जाए!

ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
कि इस बार लिखना है मन के पोर- पोर का दर्द
कि जैसे यह समय फिर नहीं आयेगा
कि जैसे न कह दूं तो कम हो जायेगी
किसी तारे की रोशनी
कि जैसे पृथ्वी ठहर कर मेरी बात सुनती है
कि जैसे बात मेरी खामोशियों से भी बयां हो रही है
कि जैसे जान गये हैं सब यूं ही
क्या है कहने की बात
कि जैसे अब दुविधा मन में नहीं है
कि जैसे कहना है कि अब कहना है!


ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ।

 एक कविता नदी के लिए

हम सबके जीवन में
नदी की स्मृति होती है
हमारा जीवन
स्मृतियों की नदी है।

नदी खोजते हूए हम
घर से निकल आते हैं
और घर से निकल हम
खोयी हुई एक नदी याद करते हैं।

नदी की तलाश में ही कवि निलय उपाध्याय
गंगोत्री से गंगासागर तक हो आए
अब एक नदी उनके साथ चलती है
अब एक नदी उनके अंदर बहती है।

बचपन में कभी
तबीयत से उछाला एक पत्थर*
नदी के साथ बहता है
और
नदी की तलहटी में कोई सिक्का
चुप प्रार्थनाओं से लिपटा पड़ा रहता है।

सभ्यता की शुरुआत में
शायद कोई नदी किनारे रोया था
इसलिए नदी के पास अकेले जाते ही
छूटती है रुलाई
और मन के अंदर
कहीं गहरे दबा प्यार
वहीं याद आता है।

नदी किनारे अचानक
एक डर हमें भिंगोता है
और गले में घुटता है
कोई अनजाना आर्तनाद।


कुछ गीत जो दुनिया में
अब भी बचे हुए हैं
उनमें नदी की याद है
अब भी नदी की हवा
आकर अचानक छूती है
तो पुरखों के स्पर्श से
सिहरता है मन!

दोस्तों!
इस दुनिया में
जब कोई नहीं होता साथ
एक अकेली नदी हमसे पूछती है
तुम्हें जाना कहाँ है
?

(*एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों – दुष्यंत कुमार)
एक अच्छी कविता लिख कर उदास हो जाता है कवि 

जो सपने नहीं देखते
वे कविता का क्या करते हैं?

अंततः एक कवि को स्वप्न-द्रष्टा होना होता है।
आश्चर्य नहीं,
एक अच्छी कविता लिख कर उदास हो जाता है कवि
वह जानता है बहुत कठिन होता है
अच्छी कविता का जीवन!
आसान नहीं होती राजपथ पर
हजार सपनों से सजे बचपन की राह।

अंधेरे ब्रह्मांड में जो तारों को
हजार सूरज की तरह चमकाता है
कोई नहीं जानता इस कृष्ण- विवर में
कवि इतनी ऊर्जा कहाँ से लाता है?

उम्मीद से भरे शब्द
कवि के लिए
कविता में एक सपना बुनते हैं!
जब दिल देता नहीं साथ,
गहन निराशा में
हम कविता की सुनते हैं।
है ऐसे में सहज यह अचरज
जो सपने नहीं देखते
वे कविता का क्या करते हैं

सोयी हुई स्त्री, कविता में 

दोस्तों गजब हुआ,  यह अल्लसबेरे…
मैंने पढ़ी एक कविता स्त्रियों के बारे में। 
कविता थी पर सच-सा उसका बयान था,
कविता सोयी हुई स्त्रियों के बारे में थी।

सोये हुए के बारे में बात करना अक्सर आसान होता है
क्योंकि एक स्वतंत्रता-सी रहती है
कथ्य बयानी में,
पता नहीं कवि को इसका कितना ध्यान था
पर कविता में नींद का सुंदर रुमान था।

बात सोये होने की थी
समय सुबह का था
अचरज नहीं कविता में एक स्वप्न का भान था.
मैं पढ़कर चकित होता था
पर यह तय नहीं था कि मैं जगा था।

सुबह-सवेरे देखे  गए सपने की तरह
कविता का अहसास  मेरे मन में है
पर सोच कर यह बार-बार बेचैन होता हूँ –
सोयी हुई स्त्री जब कविता में आती है 
तो क्या उसकी नींद टूट जाती है?

कविता और जादू
कविता है या जादू?

सौ जादू होते हैं कविता में
पर सबसे बड़ा जादू
कविता के बाहर होता है
जब हरे पत्तों पर
कोई पीला फूल खिलता है।

मैं हर बार ताजे रंग ले कर
लौटता हूँ कविता में
मैं जानता हूँ
हर बार जादू बाहर रह जाता है।

सम्पर्क-

ई-मेल : rkshrohit@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)