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राकेश रोहित |
नाम : राकेश रोहित
जन्म : 19 जून 1971 (जमालपुर).
संपूर्ण शिक्षा कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).
कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि.
पहली कहानी “शहर में कैबरे” ‘हंस‘ पत्रिका में प्रकाशित.
“हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं” आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित. राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग में विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन.
सक्रियता : हंस, कथादेश, समावर्तन, समकालीन भारतीयसाहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला, सेतु आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपट आदि का प्रकाशन. अनुनाद, समालोचन, पहली बार, असुविधा, स्पर्श, उदाहरण आदि ब्लॉग पर कविताएँ प्रकाशित.
संप्रति : सरकारी सेवा.
राकेश रोहित हिन्दी कविता के सुपरिचित युवा हस्ताक्षर हैं। हाल ही में समावर्तन पत्रिका ने इनकी कविता को रेखांकित करते हुए इनकी कविताएँ सम्पादक निरंजन श्रोत्रिय की टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया है। आज हम राकेश रोहित की कविताओं को निरंजन जी की टिप्पणी के साथ प्रकाशित कर रहे हैं।
युवा कवि राकेश रोहित की ये कविताएँ समकालीन युवा कविता परिदृश्य में एक चौंकाने वाला बल्कि स्तब्ध कर देने वाला हस्तक्षेप है जो इस तथ्य की तस्दीक करता है कि आज का एक युवा कवि न सिर्फ अपने संवेदनों को बहुत गहराई से मानवीय सरोकारों से तदाकार किये हुए है बल्कि अपने को समकाल से लगातार अद्यतन भी किये हुए है। राकेश अपने काव्य संवेदनों के साथ अपने कथ्य को इतनी सजग बारीकी से काव्य-व्यवहार में तब्दील करते हैं कि अचम्भा होता है।प्रथम दृष्टया यह प्रयास आपको सचेष्ट, सायास और सावधानी से किया गया काव्य-प्रयास लग सकता है लेकिन जब आप कवि की मूल प्रतिज्ञा और उसकी नीयत से एक पाठकीय सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो कवि की ईमानदार मंशा को अपने भीतर स्थानांतरित होता पाते हैं। यह ऐसी कविता की खोज है जहां कविता की जगह है पर कविता नहीं।जैसे कि यहाँ प्रकाशित पहली कविता में चाँद की जगह पर चाँद नहीं है। यह युवा कवि संसार में हर उस अनुपस्थित की खोज में जुटा हुआ है जो अन्यथा हमारे संसार को मानवीय और बेहतर बनाने के लिए अनिवार्य है।मौजूदा स्थानापन्न व्यवस्था का एक गहरा विषाद इस युवा कवि के अंतर्मन को भेद कर उसकी कविता में भी पाया जा सकता है।
अब भी किसी चाँदनी रात को
चाँद पर चिड़िया की छाया साफ दिखाई देती है
और चाँद जब छुप जाता है
पृथ्वी की कक्षा से दूर
चिड़िया की आवाज से टूट जाती है
उदास लड़की की नींद!
मुझे नहीं पता कि राकेश रोहित की रचना-प्रक्रिया वस्तुतः क्या है? वह तो कवि ही बता पायेगा। लेकिन मुझे लगता है कि जब आप अपने समूचे काव्य-व्यवहार यानी भाषा, शिल्प, सौंदर्य, कथ्य वगैरह को कवि की मूल संवेदना (यानी न्यूक्लियस) तक अभिकेंद्रित करने की जिद ठान लें और वहाँ से कविता को धीमे-धीमे अपकेंद्रित करें तो शायद ऐसी कविता संभव है। यह कार्य आसान नहीं है बन्धु, लेकिन इस युवा कवि ने यह किया है और अपनी कविता में एक निःशब्द घमासान रचने की सार्थक कोशिश की है। क्या आप यह सोच सकते हैं कि ‘गज़ब कि अब भी…’ कविता जो कि हमारे समय को एक अलग तरह से खंगाल रही है, में एक जबरदस्त राजनीतिक चेतना अंतर्विष्ट है जो हमारे भीतर को एक भिन्न तरह से आंदोलित कर रही है।दूसरे, यहाँ एक स्थूल समाधान देने की बजाय वह व्यवहारिक और मानवीय सन्तोष (तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ) है जो किसी भी तरह हमारे न केवल जीवित होने बल्कि अपने समय में बने रहने का भी सबब है। राकेश की कविता, कविता न हो कर एक मनुष्य की वह लगातार आत्मीय पुकार है जो समूची दुनिया को किसी लाया में बाँध लेना चाहती है। यह दुष्कर कार्य तभी संभव है जब आपको इस बात का इल्म हो कि ‘लोरियों में साहस भरने से/ बच्चे का भय कम नहीं होता।’ यानी कवि की चिंता एक काली अँधेरी सड़क पर अकेले खड़े या अपनी नींद में किसी दुःस्वप्न से चौक जाने वाले बच्चे को थपकी में तब्दील करने की कविता चिन्ता है। ‘ऐसे तो मैं’ जैसी कविता में युवा कवि तमाम शब्दाडम्बरों को नकार कर उस आतंरिक फ़ोर्स को रेखांकित करता है जब वाकई कोई कविता संभव होती है। वह न केवल कविता बल्कि समूची दुनिया के साक्षात्कार के लिए संशय की झीनी परत को उघाड़ देना चाहता है ताकि समूचा परिदृश्य साफ़ और निर्मल रूप से दिखाई दे। कहना न होगा कि यह कवि आग्रह हमारे समय की सबसे जरुर्री पुकार है। मित्रों, सच कहना बहुत मुश्किल होता है, और कविता में सच कहना तो और भी मुश्किल।युवा कवि राकेश रोहित देवताओं की मिथकीय चमक को एक थके-हारे लेकिन वास्तविक मनुष्य के चेहरे के धूसर रंग में तब्दील कर उसकी शिनाख्त करते हैं। यह कवि साहस उन्हीं हरे पत्तों से आता है जो पूरी जिजीविषा के साथ भूरी टहनियों पर टंगे रहते हैं। यदि आप मंगल ग्रह कविता पढ़ कर विचलित होते हैं तो इसका कारण यह है कि यह कविता वैश्वीकरण के नाम पर की गयी पश्चिमी बाजारवादी कोशिशों के खिलाफ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भारतीय बल्कि मानवीय अवधारणा को सृजित करती है। अपने समय के कवियों को याद करना कोई नयी बात नहीं। लेकिन यह युवा कवि जब दुष्यन्त कुमार, मंगलेश डबराल या निलय उपाध्याय को याद करता है तो वह उनके समूचे कविता-सरोकारों को अपनी कविता में उतार देता है। यह केवल कवि-स्मरण न हो कर उनके समूचे व्यक्तित्व को कविता में गूंथ देने जैसा है। यह तभी संभव है जब आपकी कवि-दृष्टि नदी की तलहटी में पड़े सिक्के को देख सके जिस पर कई चुप प्रार्थनाएँ लिपटी पडी हैं।कविता की ताकत को पहचानते हुए भी उसके कद को मनुष्य से बड़ा न होने देने का आग्रह देखना हो तो इस युवा कवि की ‘एक दिन वह…’ पढ़ें।यहाँ एक विट है जिसके माध्यम से कवि समकालीन कविता व्यापार पर एक मार्मिक व्यंजना रचता है। युवा कवि राकेश रोहित अपने समय और उसमें व्याप्त सच को गहराई से समझने वाले कवि हैं। वे बाजार, वैश्वीकरण, राजनीति और मनुष्य के खिलाफ रचे जाने वाले हर दुश्चक्र को एक सजग और अतिसंवेदित दृष्टि से देखते हैं।आश्चर्यजनक यह कि भाषिक स्तर पर यह कवि अपनी कविता में वह सब उद्घाटित करता है जो कविता में शब्द के बतौर अनुपस्थित है। यह एक विलक्षण काव्य-प्रतिभा के कारण ही संभव है।यूं तो दावे-आपत्तियां करना बहुत आसान है लेकिन बहुत डरते-डरते लेकिन कुछ-कुछ विश्वास के साथ कहने का मन है कि राकेश रोहित एक दिन हिन्दी कविता का बड़ा नाम हो सकता है।
-निरंजन श्रोत्रिय
राकेश रोहित की कविताएँ
उदास लड़की, चन्द्रमा और गाने वाली चिड़िया
एक दिन चन्द्रमा ने लड़की से पूछा-
इजाजत दो
तो तुम्हारी आँखों में छुप जाऊँ!
लड़की मुस्कुरायी और गहरा हो गया
उसकी आँखों का रंग
और उसकी मुस्कराहटों
में बरसने लगी चाँदनी।
अकेली लड़की धरती पर सवार
करती थी आकाशगंगा की सैर
और देखती थी आकाश
जहाँ चाँद की जगह थी पर चाँद नहीं था
और हजार तारे टिमटिमाते थे
सारी – सारी रात!
वह नदी की तरह बहती रही
और सोना बिखरता रहा झील पर
वह चंचल बहती रही
वह अल्हड़ बहती रही।
अब वह खूब भागती थी
खूब बातें करती थी
और बात – बात पर खिलखिलाती थी
पहाड़ से उतरते झरने की तरह।
पर होठों की हँसी छुपा नहीं पाती थी
आँखों का पुराना दुख
और बारिश के बाद बहती हवा की तरह
भींग जाती थी उसकी आवाज
जब वह गा रही होती थी
कोई विस्मृत होता गीत!
एक दिन अनाम फूलों के बीच गुजरते हुए
उसने अचानक
एक बच्चे को जोर से चिपटा लिया
और रोने लगी
जैसे टूटती है बांध में बंधी नदी
सारी रात की खामोश बारिशों के बाद।
इसके बाद जो हुआ वह जादू की तरह था
बच्चे ने, जिसे नहीं आती थी भाषा
अपनी नन्हीं हथेली उसके गाल पर टिका कर
साफ शब्दों में पूछा तुम रो क्यों रही हो?
यह बात वहाँ से गुजरती चिड़िया ने सुना
और गाने लगी उदासी का गीत!
अब भी किसी चाँदनी रात को
चाँद पर चिड़िया की छाया साफ दिखाई देती है
और चाँद जब छुप जाता है
पृथ्वी की कक्षा से दूर
चिड़िया की आवाज से टूट जाती है
उदास लड़की की नींद!
गजब कि अब भी, इसी समय में
गजब कि ऐसे समय में रहता हूँ
कि खबर नहीं है उनको
इसी देह में मेरी आत्मा वास करती है।
गेंद की तरह उछलती है मेरी देह
और मन मरियल सीटी की तरह बजता है
हमारी भाषा के सारे विस्मय में नहीं
समाता उनकी क्रीड़ा का कौतुक!
गजब कि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है।
गजब कि आत्मा से परे भी
बचा रहता है देहों का जीवन!
रोज मेरी देह आत्मा को छोड़ कर कहाँ जाती है
रोज क्यों एक संशय मेरे साथ रहता है
रोज दर्शन का एक सवाल उठता है मेरे मन में
आत्मा मुझमें लौटती है
या मैं आत्मा में लौटता हूँ!
क्या हमारा अस्तित्व
धुंधलके में खामोश खड़े
पेड़ों की तरह है
लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
और मैं अपने अंदर समाये हजार स्वप्न
और असंख्य साँसों के साथ
नेपथ्य में खड़ा
आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?
कैसे हारे हुए सैनिकों की तरह लौट गयी है इच्छायें,
कैसे उदासियों के पर्चे फड़फड़ा रहे हैं?
कैसे अनगिन तारों के बीच
निस्तब्ध सोयी है पृथ्वी,
कैसे कोई जागता नहीं है
कि सुबह हो जायेगी?
गजब कि ऐसे समय में, अब भी,
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है
गजब कि अब भी,
इसी समय में,
कोई कहता है
कोई सुनता है
इच्छा, आकाश के आँगन में
इच्छा भी थक जाती है
मेरे अंदर रहते– रहते
यह मन तो लगातार भटकता रहता है
आत्मा भी टहल आती है
कभी– कभार बाहर
जब मैं सोया रहता हूँ।
यह बिखराव का समय है
मैं अपने ही भीतर किसी को आवाज देता हूँ
और अपने ही अकेलेपन से डर जाता हूँ।
यह समय ऐसा क्यों लगता है
कि काली अंधेरी सड़क पर
एक बच्चा अकेला खड़ा है?
लोरियों में साहस भरने से
कम नहीं होता बच्चे का भय
खिड़कियां बंद हों तो सारी सडकें जंगल की तरह लगती हैं।
इच्छा ने ही कभी जन्म लिया था मनुष्य की तरह
इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।
मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र
उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।
ऐसे तो मैं
ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
जैसे अचानक भूल गया हूँ तुम्हारा नाम
जैसे याद करना है उसे अभी- के-अभी
पर जैसे छूट रहा है जीभ की पहुँच से
दांत में दबा कोई रेशा
जैसे पानी में डूब- उतरा रही है
किसी बच्चे की गेंद
जैसे सामने खड़ी तुम हँस रही हो
पर नहीं देख रही हो मुझे
कि जैसे तुम्हें पुकारना
है दुनिया का सबसे जरूरी काम!
ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
जैसे तितलियों के साथ नाच रहे हैं
नंग- धड़ंग बच्चे
और फूल खिलखिलाकर हँस रहे हैं
कि जैसे रंग हवा पर सवार हैं
और मन में कोई मिठास जगी है
कि जैसे वक्त की खुशी
इतनी आदिम पहले कभी नहीं हुई
कि जैसे इससे पहले कभी नहीं लगा
कि कुछ कहने- सुनने से बेहतर है
प्यार किया जाए!
ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ
कि इस बार लिखना है मन के पोर- पोर का दर्द
कि जैसे यह समय फिर नहीं आयेगा
कि जैसे न कह दूं तो कम हो जायेगी
किसी तारे की रोशनी
कि जैसे पृथ्वी ठहर कर मेरी बात सुनती है
कि जैसे बात मेरी खामोशियों से भी बयां हो रही है
कि जैसे जान गये हैं सब यूं ही
क्या है कहने की बात
कि जैसे अब दुविधा मन में नहीं है
कि जैसे कहना है कि अब कहना है!
ऐसे तो मैं कविता लिखता हूँ।
हमारे ही बीच का होगा वह, जो सच कहेगा
हमारे ही बीच का होगा वह
जो सच कहेगा
हमारे ही भीतर से आएगा!
देवताओं सी चमक
नहीं होगी उसके चेहरे पर
नहीं होगा,
वह उम्मीद की गाथाओं का रचयिता!
हो सकता है
इंद्रधनुषों की बात करते वक्त भी
उसकी आँखों से
झांक रही हो
रात की थोड़ी बची भूख
और कहीं उसके गहरे अंदर
छूट रही हो
एक नामालूम रुलाई!
एक सामान्य सी सुबह होगी वह
और रोज की तरह का दिन
जब रोज के कामों से
थोड़ा वक्त निकाल कर
जैसे सुस्ताता है कोई पथिक
वह हमसे– आपसे मुखातिब होकर
सरे राह सच कहेगा!
ऐतिहासिक नहीं होगा वह दिन
जब सूरज की तरह
चमकेगा सच
और साफ झलकेगा
भूरी टहनियों पर
हरे पत्तों का साहस।
मुझे लगता है मंगल ग्रह पर एक कविता धरती के बारे में है
मुझे लगता है मंगल ग्रह पर बिखरे
असंख्य पत्थरों में
कहीं कोई एक कविता धरती के बारे में है!
आँखों से बहे आंसू
जो आँखों से बहे और कहीं नहीं पहुंचे
आवाज जो दिल से निकली और
दिल तक नहीं पहुंची!
उसी कविता की बीच की किन्हीं पंक्तियों में
उन आंसुओं का जिक्र है
उस आवाज की पुकार है.
संसार के सभी असंभव दुःख
जो नहीं होने थे और हुए
मुझे लगता है उस कविता में
उन दुखों की वेदना की आवृत्ति है.
पता नहीं वह कविता लिखी जा चुकी है
या अब भी लिखी जा रही है
क्योंकि धरती पर अभी-अभी लुप्त हुई प्रजाति का
जिक्र उस कविता में है.
मुझे लगता है संसार के सबसे सुंदर सपनों में
कट कर भटकती उम्मीद की पतंग
मंगल ग्रह के ही किसी वीराने पहाड़ से टकराती है
और अब भी जब इस सुंदर धरती को बचाने की
कविता की कोशिशें विफल होती है
मंगल ग्रह पर तूफान उठते हैं.
मुझे लगता है
जैसे धरती पर एक कविता
मंगल ग्रह के बारे में है
ठीक वैसे ही मंगल ग्रह पर बिखरे
असंख्य पत्थरों में
कहीं कोई एक कविता धरती के बारे में है!
एक कविता नदी के लिए
हम सबके जीवन में
नदी की स्मृति होती है
हमारा जीवन
स्मृतियों की नदी है।
नदी खोजते हूए हम
घर से निकल आते हैं
और घर से निकल हम
खोयी हुई एक नदी याद करते हैं।
नदी की तलाश में ही कवि निलय उपाध्याय
गंगोत्री से गंगासागर तक हो आए
अब एक नदी उनके साथ चलती है
अब एक नदी उनके अंदर बहती है।
बचपन में कभी
तबीयत से उछाला एक पत्थर*
नदी के साथ बहता है
और
नदी की तलहटी में कोई सिक्का
चुप प्रार्थनाओं से लिपटा पड़ा रहता है।
सभ्यता की शुरुआत में
शायद कोई नदी किनारे रोया था
इसलिए नदी के पास अकेले जाते ही
छूटती है रुलाई
और मन के अंदर
कहीं गहरे दबा प्यार
वहीं याद आता है।
नदी किनारे अचानक
एक डर हमें भिंगोता है
और गले में घुटता है
कोई अनजाना आर्तनाद।
कुछ गीत जो दुनिया में
अब भी बचे हुए हैं
उनमें नदी की याद है
अब भी नदी की हवा
आकर अचानक छूती है
तो पुरखों के स्पर्श से
सिहरता है मन!
दोस्तों!
इस दुनिया में
जब कोई नहीं होता साथ
एक अकेली नदी हमसे पूछती है –
तुम्हें जाना कहाँ है?
(*
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों – दुष्यंत कुमार)
एक प्रार्थना, एक भय
“कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा”*
मंगलेश डबराल की कविता पढ़ते हुए
पहले प्रार्थना की तरह दुहराता हूँ इसे
फिर डर की तरह गुनता हूँ।
डर कि ऐसे समय में रहता हूँ
जहाँ प्रार्थना करनी होती है
कवियों में मनुष्य के बचे होने की
हे प्रभु क्या बची रहेगी कवियों में थोड़ी सी लज्जा!
क्या साथ देंगी प्रलय प्रवाह में वे नावें
जिन पर हम सवार हैं?
इन बेचैन रातों में अक्सर होता है
जब मन तितली में बदल जाता है
और गुपचुप प्रार्थना करता है
कि वे जो खेल रहे हैं शब्दों से गेंद की तरह
खिलने दें उन्हें फूलों की तरह!
मैं चाहता हूँ संभव हो ऐसा समय
जिसमें यह इच्छा अपराध की तरह न लगे
कि मनुष्यों में बची रहे हजार कविता
और कविता में बचा रहे हजार मनुष्य!
(* “कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा” – मंगलेश डबराल
यह पंक्ति मंगलेश डबराल जी की इसी शीर्षक कविता की अंतिम पंक्ति है और उनसे साभार)
कविता में उसकी आवाज
वह ऐसी जगह खड़ा था
जहाँ से साफ दिखता था आसमान
पर मुश्किल थी
खड़े होने की जगह नहीं थी उसके पास।
वह नदी नहीं था
कि बह चला तो बहता रहता
वह नहीं था पहाड़
कि हो गया खड़ा तो अड़ा रहता।
कविता में अनायास आए कुछ शब्दों की तरह
वह आ गया था धरती पर
बच्चे की मुस्कान की तरह
उसने जीना सीख लिया था।
बड़ी-बड़ी बातें मैं नहीं जानता, उसने कहा
पर इतना कहूँगा
आकाश इतना बड़ा है तो धरती इतनी छोटी क्यों है?
क्या आपने हथेलियों के नीचे दबा रखी है थोड़ी धरती
क्या आपके मन के अँधेरे कोने में
थोड़ा धरती का अँधेरा भी छुपा बैठा है?
सुनो तो, मैंने कहा
…………………..!!
नहीं सुनूंगा
आप रोज समझाते हैं एक नयी बात
और रोज मेरी जिंदगी से एक दिन कम हो जाता है
आप ही कहिये कब तक सहूँगा
दो- चार शब्द हैं मेरे पास
वही कहूँगा
पर चुप नहीं रहूँगा!
मैंने तभी उसकी आवाज को
कविता में हजारों फूलों की तरह खिलते देखा
जो हँसने से पहले किसी की इजाजत नहीं लेते।
एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
हारा हुआ आदमी पनाह के लिए कहाँ जाता है,
कहाँ मिलती है उसे सर टिकाने की जगह?
आपने इतनी माया रच दी है कविता में
कि अचंभे में है अंधेरे में खड़ा आदमी!
आपके कौतुक के लिए वह हंसता है जोर- जोर
आपके इशारे पर सरपट भागता है।
एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
चमत्कार का अंगोछा झाड़ कर आपकी पीठ पर
कहेगा, कवि जी कविता बहुत हुई
आते हैं हम खेतों से
अब जोतनी का समय है।
छतरी के नीचे मुस्कराहट
छतरी के नीचे मुस्कराहट थी
जिसे उस लड़की ने ओढ़ रखा था,
उसकी आँखें बारिश से भींगी थी
और ऐसा लग रहा था जैसे
भींगी धरती पर बहुत से गुलाबी फूल खिले हों!
जैसे पलकों की ओट में
छिपा था उसका मन
वैसे छतरी ने छिपा रखा था
उसके अतीत का अंधेरा।
पतंग की छांव में एक छोटी सी चिड़िया
एक बहुत बड़े सपने के आंगन में खड़ी थी।
मेरी कविता में जाग्रत लोगों के दुःख हैं
मेरी कविता में जाग्रत लोगों के दुःख हैं.
मैं कल छोड़ नहीं आया,
मेरे सपनों के तार वहीं से जुड़ते हैं।
मैं सुबह की वह पहली धूप हूँ –
जो छूती है
गहरी नींद के बाद थके मन को।
मैं आत्मा के दरवाजे पर
आधी रात की दस्तक हूँ।
जो दौड कर निकल गए
डराता है उनका उन्माद
कोई आएगा अँधेरे से चल कर
बीतती नहीं इसी उम्मीद में रात।
मैं उठाना चाहता हूँ
हर शब्द को उसी चमक से
जैसे कभी सीखा था
वर्णमाला का पहला अक्षर।
रुमान से झांकता सच हूँ
हर अकथ का कथन
मैं हजार मनों में रोज खिलता
उम्मीद का फूल हूँ।
मेरी कविता में हजारों लोगों की
बसी हुई है
एक जीवित-जागृत दुनिया।
मैं रोज लड़ता हूँ
प्रलय की आस्तिक आशंका से
मैं उस दुनिया में रोज प्रलय बचाता हूँ।
मेरी कविता में उनकी दुनिया है
जिनकी मैं बातें करता हूँ
कविता में गर्म हवाओं का अहसास
उनकी साँसों से आता है।
बाज़ार के बारे में कुछ विचार
ख़ुशी अब पुरानी ख़ुशी की तरह केवल ख़ुश नहीं करती
अब उसमें थोड़ा रोमांच है, थोड़ा उन्माद
थोड़ी क्रूरता भी।
बाज़ार में चीज़ों के नए अर्थ हैं
और नए दाम भी।
वो चीज़ें जो बिना दाम की हैं
उनको लेकर बाज़ार में
जाहिरा तौर पर असुविधा की स्थिति है।
दरअसल चीज़ों का बिकना
उनकी उपलब्धता की भ्राँति उत्पन्न करता है।
यानी यदि ख़ुशी बिक रही है
तो तय है कि आप ख़ुश हैं (नहीं तो आप ख़रीद लें)
और यदि पानी बोतलों में बिक रहा है
तो पेयजल संकट की बात करना
एक राजनीतिक प्रलाप है।
ऐसे में सत्ता के तिलिस्म को समझने के कौशल से बेहतर है
आप बाज़ार में आएँ
जो आपके प्रति उतना ही उदार है
जितने बड़े आप ख़रीदार हैं।
बाज़ार में आम लोगों की इतनी चिन्ता है
कि सब कुछ एक ख़ूबसूरत व्यवस्था की तरह दीखता है।
कुछ भी कुरूप नहीं है
इस खुरदरे समय में
और अपनी ख़ूबसूरती से परेशान लड़की
जो थक चुकी है बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बेचकर
अब ख़ुद को बेच रही है।
यह है उसके चुनाव की स्वतंत्रता !
सब कुछ ढक लेती है बाज़ार की विनम्रता।
सारे वाद-विवाद से दूर बाज़ार का एक खुला वादा है
कि कुछ लोगों का हक़ कुछ से ज़्यादा है
और आप किस ओर हैं
यह प्रश्न
आपकी नियति से नहीं आपकी जेब से जुड़ा है।
यदि आप समर्थ हैं
तो आपका स्वागत है उस वैश्विक गाँव में
जो मध्ययुगीन किले की तरह ख़ूबसूरत बनाया जा रहा है
अन्यथा आप स्वतंत्र हैं
अपनी सदी की जाहिल कुरूप दुनिया में रहने को।
बाज़ार वहाँ भी है
सदा आपकी सेवा में तत्पर
क्योंकि बाज़ार
विचार की तरह नहीं है
जो आपका साथ छोड़ दे।
विचार के अकाल या अंत के दौर में
बाज़ार सर्वव्यापी है, अनंत है।
सम्पर्क –
ई–मेल – rkshrohit@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
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