संध्या नवोदिता

कवि ,अनुवादक ,व्यंग्य लेखक और पत्रकार , छात्र राजनीति में सक्रिय भूमिका ,छात्र- जीवन से सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर लेखन , आकाशवाणी में बतौर एनाउंसर -कम्पीयर जिम्मेदारी निभाई . समाचार-पत्र,पत्रिकाओं ,ब्लॉग और वेब पत्रिकाओं में लेखन..  . 
कर्मचारी राजनीति में सक्रिय, कर्मचारी एसोसियेशन में दो बार अध्यक्ष .जन आन्दोलनों और जनोन्मुखी राजनीति में दिलचस्पी.

स्त्रियाँ चाहें जहाँ और जिस भी समाज की हों, उनकी स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है। इसीलिए उन्हें दलितों में भी दलित कहना अनुचित नहीं। हमारे बीच की कुछ कवियित्रियों ने अपनी रचनाओं में अब उन उत्पीड़नों को, उस आपबीती को बताने का साहस किया है। सन्ध्या नवोदिता वह कवियित्री हैं जिनकी रचनाओं में बिना किसी हल्ले-गुल्ले के वह स्त्री स्वर अभिव्यक्त होता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। उनमें स्वीकार का साहस है तभी तो वे यह कहने से नहीं हिचकतीं कि ‘संतृप्त/ऊबे हुए मेरे साथी पुरुष/अब कुछ बचा ही नहीं/ तुम्हारे लिए/जहाँ/जिस दुनिया में/चीज़ें शुरू होती हैं/वहीं से/मेरे लिये।’ इस आत्मविश्वास के चलते ही संध्या और कवियित्रियों से अलग खड़ी नजर आती हैं।  पहली बार पर प्रस्तुत है संध्या की कुछ इसी स्वर की कविताएँ।   



लड़कियाँ
लड़कियाँ
बिलकुल एक-सी होती हैं
एक-से होते हैं उनके आँसू
एक-सी होती हैं उनकी हिचकियाँ
और
एक-से होते हैं उनके दुखों के पहाड़
एक-सी इच्छाएँ
एक-सी चाहतें
एक-सी उमंगें
और एक-सी वीरानियाँ ज़िन्दगी की
सपनों में वे तैरती हैं अंतरिक्ष में
गोते लगाती हैं समुद्र में
लहरों सी उछलती-मचलती
हँसी से झाग-झाग भर जाती हैं वे
सपनों का राजकुमार
आता है घोड़े पर सवार
और पटक देता है उन्हें संवेदना रहित
बीहड़ इलाके में
सकते में आ जाती हैं लड़कियाँ
अवाक् रह जाती हैं
अविश्वास में धार-धार फूटती हैं
बिलखती हैं
सँभलती हैं,
फिर लड़ती हैं लड़कियाँ
और यों थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ती हैं
ज़िन्दगी की डोर
अपने हाथ में थामने की कोशिश करती हैं

जिस्म ही नहीं हूँ मैं
जिस्म ही नहीं हूँ मैं
कि पिघल जाऊँ
तुम्हारी वासना की आग में
क्षणिक उत्तेजना के लाल डोरे
नहीं तैरते मेरी आँखों में
काव्यात्मक दग्धता ही नहीं मचलती
हर वक्त मेरे होंठों पर
बल्कि मेरे समय की सबसे मज़बूत माँग रहती है
मैं भी वाहक हूँ
उसी संघर्षमयी परम्परा की
जो रचती है इंसानियत की बुनियाद
मुझमें तलाश मत करो
एक आदर्श पत्नी
एक शरीर- बिस्तर के लिए
एक मशीन-वंशवृद्धि के लिए
एक गुलाम- परिवार के लिए
मैं तुम्हारी साथी हूँ
हर मोर्चे पर तुम्हारी संगिनी
शरीर के स्तर से उठकर
वैचारिक भूमि पर एक हों हम
हमारे बीच का मुद्दा हमारा स्पर्श ही नहीं
समाज पर बहस भी होगी
मैं कद्र करती हूँ संघर्ष में
तुम्हारी भागीदारी की
दुनिया के चंद ठेकेदारों को
बनाने वाली व्यवस्था की विद्रोही हूँ मैं
नारीत्व की बंदिशों का
कैदी नहीं व्यक्तित्व मेरा
इसीलिए मेरे दोस्त
खरी नहीं उतरती मैं
इन सामाजिक परिभाषाओं में
मैं आवाज़ हूँ- पीड़कों के खि़लाफ़
मैंने पकड़ा है तुम्हारा हाथ
कि और अधिक मज़बूत हों हम
आँखें भावुक प्रेम ही नहीं दर्शातीं
शोषण के विरुद्ध जंग की चिंगारियाँ
भी बरसाती हैं
होंठ प्रेमिका को चूमते ही नहीं
क्रान्ति गीत भी गाते हैं
युद्ध का बिगुल भी बजाते हैं
बाँहों में आलिंगन ही नहीं होता
दुश्मनों की हड्डियाँ भी चरमराती हैं
सीने में प्रेम का उफ़ान ही नहीं
विद्रोह का तूफ़ान भी उठता है
आओ हम लड़ें एक साथ अपने दुश्मनों से
कि आगे से कभी लड़ाई न हो
एक साथ बढ़ें अपनी मंज़िल की ओर
जिस्म की शक्ल में नहीं
विचारधारा बन कर
  

उम्मीद
बड़ी उम्मीदों से
मैं तुममें तलाशती हूँ एक साथी
और
नाउम्मीद हो जाती हूँ
हर बार
एक पुरुष को पाकर
औरतें -1
कहाँ हैं औरतें?
ज़िन्दगी को रेशा-रेशा उधेड़ती
वक्त की चमकीली सलाइयों में
अपने ख़्वाबों के फंदे डालती
घायल उंगलियों को तेज़ी से चला रही हैं औरतें
एक रात में समूचा युग पार करतीं
हाँफती हैं हफ्-हफ्
लाल तारे से लेती हैं थोड़ी-सी ऊर्जा
फिर एक युग की यात्रा के लिए
तैयार हो रही हैं औरतें
अपने दुखों की मोटी नकाब को
तीखी निगाहों से भेदती
वे हैं कुलांचे मारने की फिराक में
ओह, सूर्य किरणों को पकड़ रही हैं औरतें
औरतें – 2
औरतों ने अपने तन का
सारा नमक और रक्त
इकट्ठा किया अपनी आँखों में
और हर दुख को दिया
उसमें हिस्सा
हजारों सालों में बनाया एक मृत सागर
आँसुओं ने कतरा-कतरा जुड़कर
कुछ नहीं डूबा जिसमें
औरत के सपनों और उम्मीदों
के सिवाय
मैं हूँ मानवी
मैं हूँ
समर्पण हैं, समझौते हैं
तुम हो बहुत करीब
मैं हूँ
हँसी है, खुशी है
और तुम हो नज़दीक ही
मैं हूँ
दर्द है, आँसू हैं
तुम कहीं नहीं
मैं हूँ मानवी
ओ सभ्य पुरुष
जिस दुनिया में
संतृप्त
ऊबे हुए मेरे साथी पुरुष
अब कुछ बचा ही नहीं
तुम्हारे लिए
जहाँ
जिस दुनिया में
चीज़ें शुरू होती हैं
वहीं से
मेरे लिये
ग़लती वहीं हुई थी
तुम्हारे अँधेरे मेरी ताक में हैं
और मेरे हिस्से के उजाले
तुम्हारी गिरफ़्त में
हाँ
ग़लती वहीं हुई थी
जब मैंने कहा था
तुम मुझको चाँद ला के दो

और मेरे चाँद पर मालिकाना तुम्हारा हो गया