राकेश रोहित का आलेख संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें


राकेश रोहित

किसी भी कवि की वास्तविक पहचान उसके गद्य से होती है. कवियों द्वारा गद्य लिखने की हमारे यहाँ एक समृद्ध परम्परा रही है. निराला हों, मुक्तिबोध या फिर नागार्जुन सबने कविताओं के साथ-साथ प्रचुर गद्य भी लिखा है. यह परम्परा हमारे समय में भी कायम है. इसी क्रम में युवा कवि राकेश रोहित ने ‘एक नौसिखुआ आलोचक के रफ नोट्स’ लिखा है. यह इस कवि की विनम्रता को ही दर्शाता है क्योंकि यह न तो रफ है और न ही केवल नोट्स. बल्कि यह पूरी तरह से सधा हुआ एक मुकम्मल गद्य है. कवि राकेश ने अपने शहर के ही एक अन्य युवा कवि विमलेश त्रिपाठी के हालिया प्रकाशित कविता संग्रह  एक देश और मरे हुए लोग पर विश्लेषणपरक ढंग से लिखा है. तो आइए पढ़ते हैं राकेश रोहित का यह गद्य जिसका शीर्षक है ‘संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें’.
       
एक नौसिखुआ आलोचक के रफ नोट्स

संवेदनाओं के द्वीप और विभ्रम की उलझनें

(सन्दर्भ:युवा कवि विमलेश त्रिपाठी की कविता पुस्तक एक देश और मरे हुए लोग)
 राकेश रोहित
1.  एक देश और मरे हुए लोग युवा कवि विमलेश त्रिपाठी का दूसरा कविता संग्रह है. पूरा संग्रह पाँच खण्डों में विभाजित है- इस तरह मैं, बिना नाम की नदियाँ, दुःख-सुख का संगीत, कविता नहीं और एक देश और मरे हुए लोग. पाँचों खंड का एक अलग तेवर है और इसे पाँच स्वतंत्र कविता-संग्रह की तरह भी पढ़ा जा सकता है.
2.  इस तरह मैं में कविता की अभिव्यक्ति की उलझनें हैं तो बिना नाम की नदियाँ में कवि के उन आत्मीय संबंधों का संसार है जिससे वह और उसका व्यक्तित्व रचा गया है. दुःख- सुख का संगीत में स्मृति और उम्मीद की कविताएँ हैं. कविता नहीं कवि की आकांक्षाओं की कविता है तो पाँचवां खंड जिसमें संग्रह की शीर्षक कविता भी है कवि द्वारा यथार्थ को समझने की कोशिश है.
3. विमलेश त्रिपाठी संवेदना के कवि हैं. उनकी संवेदना ओढ़ी हुई नहीं है वरन् वह उनमें संस्कार की तरह विकसित हुई है. गांव और लोक की ललक उनकी कविताओं का मूल स्वर है. इसलिए उनकी कविताओं में जीवन में लगातार छूट रही चीजों के लिए एक बेचैनी स्पष्ट दिखती है और यथार्थ और स्मृति के बीच एक निरंतर आवाजाही संभव होती है.
4. कवि के अंदर अपने अस्तित्व की बेचैनी और अपने गांव से/ अपनी जड़ों से दूर रहकर शहर में प्रवासी हो जाने का दर्द बार-बार उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होता है. यह एक बूढा हांफता गांव है जिसकी याद कवि के मन में ऐसी बसी है कि वह कोलकाता में रहकर भी कोलकाता  का नहीं बन सका. यह जड़ों से कटने की पीड़ा है यह उस गांव के नष्ट होते जाने का दर्द है जहां कुंए में मिट्टी भरती जा रही है.
5. कवि की प्रखर संवेदना उसकी कविता को अप्रतिम बनाती है. इसी संवेदना की ताकत से कवि बिना चिड़िया के पैरों में रस्सी बांधे और बिना नोह्पालिश से उसके पंख रंगे, उसे अपना बना लेता है. संवेदना कवि का घर है और जल ही जल चतुर्दिक में उसके आश्रय का द्वीप भी.
     कवि को यह भय है कि जिस तरह दुनिया पक्षियों के माफिक नहीं रही उसी तरह एक दिन उसके रहने लायक भी नहीं रहेगी. पर यह कवि का विश्वास है कि वह कहता है-
     कोई लाख कोशिश कर ले
मैं कहीं जाऊंगा नहीं
रहूँगा मैं इसी पृथ्वी पर
बदले हुए रूप में.
6.       विमलेश त्रिपाठी की कविताओं और उनकी कवि- समझ की यह ताकत है कि वे न केवल मनुष्य के अस्तित्व पर आसन्न खतरों की परख करते हैं वरन् उसके लिए एक निरंतर लड़ाई भी भाषा के स्तर पर लड़ते हैं. और उसके लिए वे खुशी-खुशी पूरे होश-ओ-हवास में मूर्खता का वरण करने को भी तैयार हैं. यहाँ मूर्खता अचानक सहजता का पर्याय बन जाती है. यह कवि का अपने पर विश्वास है. इसलिए वे कहते हैं-
     शब्द और कितने
फलसफे कितने और
इन दो के बीच फंसे
सदियों के आदमी को
निकालो कोई.
कलम बंद करो
मंच से उतरो
चलो इस देश की अंधेरी गलियों में
सुनो उस आदमी की बात
उसको भी बोलने का मौका दो कोई.
यह कविता में विचार और वाद से पहले  मनुष्य की स्थापना है. और इसलिए कवि कह पाता है, जब कभी पुकारता कोई शिद्दत से/ दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुँचता जहाँ पहुँचने की बेहद जरूरत.

विमलेश त्रिपाठी
7.  बहनें कविता एक महाकाव्य की तरह है और इसमें संवेदना का जो पारावार है उसे एक आलेख की सीमा में बांधना कठिन है. पूरी कविता में दुःख का और समाज में स्त्री जाति के प्रति हो रहे अन्याय का मद्धिम स्वर निरंतर गूंजता है और बहनों की कोई भी हँसी उसे ढंक नहीं पाती. यह कविता अपने आप में एक संपूर्ण वक्तव्य है. इसे पढ़ना दुःख के गीलेपन को महसूसना है जिसे हवा आँखों से सुखा देती है पर दिल के अंदर वह हमेशा रिसता रहता है. इसकी एक-एक पंक्ति समाज की आधी आबादी के साथ हमारे समय की नृशंसता का करुण दस्तावेज है. देखें-

        इस तरह किसी दूसरे से नहीं जुड़ा था उनका भाग्य

सबका हो कर भी रहना था पूरी उम्र अकेले ही
उन्हें अपने भाग्य के साथ.
स्त्री के इसी दुःख की सततता होस्टल की लड़कियां कविता में दिखती है जब कवि कहता है-
वे जीना चाहती हैं तय समय में
अपनी तरह की जिंदगी
जो उन्हें भविष्य में कभी नसीब नहीं होना.
8. यथार्थ और स्मृतियों के बीच जिस आवाजाही की बात मैंने पहले की है वह तीसरे खंड की कविताओं में साफ है. फिर चाहे वह सपने कविता हो या बहुत जमाने पहले की बारिश या फिर ओझा बाबा को याद करते हुए. कविता नहीं खंड की कविताएँ कवि के आकांक्षाओं की कविता है जहाँ वह अपनी उम्मीद की जड़ें तलाशता है. इसलिए कवि कहता है-
कविता में न भी बच सकें अच्छे शब्द
परवाह नहीं
मुझे सिद्ध कर दिया जाए
एक गुमनाम बेकार कवि.
कविता की बड़ी और तिलस्मी दुनिया के बाहर
बचा सका तो
अपना सब कुछ हारकर
बचा लूँगा आदमी के अंदर सूखती
कोई नदी
मुरझाता अकेला पेड़ कोई.
9. कविता संग्रह का समर्पण कवि के शब्दों में देश के उन करोड़ों लोगों के लिए है जिनके दिलों में अब भी सपने साँस ले रहे है और संग्रह के शुरुआती पन्ने पर कवि ने मुक्तिबोध की प्रसिद्ध पंक्तियों को याद किया है- 
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम.
                        (गजानन माधव मुक्तिबोध)
10.     संग्रह के पांचवें खंड का नाम है एक देश और मरे हुए लोग जिसमें इसी नाम की एक कविता भी है. चूँकि संग्रह का शीर्षक भी यही है इसलिए मैं मान लेता हूँ कि यह कवि की सबसे  प्रिय  कविता है और इससे उसका सबसे अधिक वैचारिक जुड़ाव है.
11.     एक देश और मरे हुए लोग जिसमें कवि का आग्रह है कि हकीकत को कथा की तरह और कथा को हकीकत की तरह सुना जाए, भन्ते को संबोधित है. इस कविता में एक ऐसे राज्य का रूपक है जिसमें मंत्री, उसके कुनबे और जनता सब मरी हुई है पर राजा जिंदा है और मरी हुई जनता के बीच पहुँचाना चाहता है रोशनियाँ! मैंने इसको कई बार समझने की कोशिश की कि मुक्तिबोध की जिन पंक्तियों को कवि ने संग्रह में उद्धृत किया है उसमें देश मर जाता है और लोग बचे रहते हैं पर विमलेश जी की कविता में देश बचा है लोग मरे हुए. अब क्या है यह? यथार्थ का अंतर्विरोध या कविता का विकास? इस मरे हुए लोगों के बीच कवि, लेखक कलाकार आदि कुछ ही लोग जीवित हैं. लोकधर्मी कवि की इस हठात आत्ममुग्धता का कारण क्या है? यह कौन सा यथार्थ है और कौन सा रूपक? जहां राजा जीवित है और तंत्र मरा हुआ! क्या है यह? बुराई का अमूर्तन और आश्चर्य कि इस अमूर्तन को रचने वाली एक मशीन है जो बाहर से  आयात की गयी है जो जीवितों को लगातार मुर्दों में तब्दील  करती है. यानी यहाँ अमानवीकरण  एक प्रक्रिया नहीं है वरन् बाहर से आयातित है.
     यहाँ कवि जो पूरी जनता के मरे होने का रूपक बांधता है क्या वह कवि की हताशा है? क्या यह वही कवि है जो इसी संग्रह में अपनी अंकुर के लिए कविता में कहता है,
मेरे बच्चे मुझ पर नहीं
अपनी माँ पर नहीं
किसी ईश्वर पर भी नहीं
भरोसा रखना इस देश के करोड़ों लोगों पर
जो सब कुछ सह कर भी रहते हैं जिंदा.
तो ये करोड़ों लोग जो विमलेश त्रिपाठी की कविता में हर शर्त पर जिंदा रहते हैं अचानक मुर्दों में कैसे तब्दील हो गये? क्या अपने लोगों पर कवि का भरोसा डिग गया है? या यह एक दुस्वप्न  है एक विभ्रम? इस विभ्रम की स्थिति में इस लोकधर्मी कवि, जो लोक के प्रति अपनी संवेदना से सिक्त है, की उम्मीद सिर्फ कवियों से हैं! और विश्वास कीजिये वैसे कवियों से  जो कवच-कुंडल लेकर महानता के साथ जनमते हैं! पर  विमलेश त्रिपाठी के ही शब्दों में क्या यही कवि अभी जोड़-तोड़ से पुरस्कार पाने में नहीं जुटे हुए थे. यह है विभ्रम की मुश्किलें!
     कवि ने पूरी कविता को एक दुस्वप्न भरे रूपक की तरह रचने की कोशिश की है और इस कोशिश में उसका उस संवेदना से साथ छूट गया है जो कवि की ताकत है. संवेदना से इसी विलगाव  के कारण गालियाँ कविता में कवि गाली के पक्ष में तर्क देने लगता है उसे मन्त्र की तरह पवित्र ठहराने लगता है. इस  क्रम में वह गालियों की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने से चूक जाता है. वह भूल जाता है कि गालियाँ दी पुरूष को जाती हैं पर होती स्त्रियों के विरुद्ध  हैं कि स्त्रियों के विरूद्ध नृशंसता की वह वही सदियों पुरानी श्रृंखला है विमलेश जी की कविता जिनके खिलाफ है.
12. एक देश और मरे हुए लोग में कवि की आख़िरी कोशिश उस मशीन की खोज है जो जिंदा लोगों को मुर्दा में तब्दील कर देती है. पर कवि यह भूल जाता है कि राजा इन मशीनों से पहले से थे और कविता भी, जो तब भी मनुष्य के अमानवीयकरण की प्रक्रिया से निरंतर लड़ रही थी. पर विभ्रम की मुश्किलों के बाहर विमलेश जी की कविताओं में संवेदनाओं के जो द्वीप हैं वहाँ जीवन का पर्यावरण सुरक्षित है और अपनी आदिम ऊर्जा से भरा साँस लेता है.
सन्दर्भ पुस्तक:
कविता संग्रह एक देश और मरे हुए लोग, कवि/ विमलेश त्रिपाठी,  प्रकाशक: बोधि प्रकाशनएफ77,  सेक्टर 9, रोड नं 11, करतारपुरा  इंडस्ट्रियल एरियाबाईस गोदाम, जयपुर302006,
प्रकाशन वर्ष: 2013.

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विमलेश त्रिपाठी के उपन्यास “कैनवास पर प्रेम” पर वैभव मणि त्रिपाठी की समीक्षा।

कवि एवं कहानीकार विमलेश त्रिपाठी का भारतीय ज्ञानपीठ से “कैनवास पर प्रेम” नामक उपन्यास प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास की एक बेबाक समीक्षा लिखी है वैभव मणि त्रिपाठी ने। आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा      
एक सुन्दर कोलाज सरीखी रचना कैनवास पर प्रेम
वैभव मणि त्रिपाठी 
एक कुशल नट अपने खेल में हर बार रस्सी के अलग अलग हिस्से में अपनी लय और संतुलन खोने का दिखावा करता है जिससे कि देखने वाला हर बार एक नए रोमांच से रूबरू हो प्रेम कहानी के लेखक को भी एक सधे हुए नट की मानिंद रोज़ उसी रस्सी पर चलते हुए अलग-अलग हिस्सों में अपना संतुलन खोने का नाटक करना होता है जिससे कि पाठक को हर बार एक नया खेल रचे जाने का आभास होता रहे एक सफल प्रेम कथा का कहने वाला वह है जो अपनी रचना में इस रोमांच को बनाये बसाये रखे
प्रेम की अधिकतर कहानियों में यही होता है कि अपने से आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर तबके का एक साधारण सा लड़का और बहुत ऊँचे कुल खानदान और सामाजिक हैसियत वाली लड़की खाप की भूमिका में परिवार और दोस्ती के लिए जान लुटाने को तैयार बैठे दोस्त, फिर बिछोह और दुनिया समाज से संघर्ष! अब अगर कहानीकार समर्थ है और रचना को क्लासिक बनाना चाहता है तो लड़का और लड़की बिछड़ जाते हैं, कुर्बान हो जाते हैं. और लोकप्रिय और सुखांत बनाना है तो लड़का लड़की समाज के बाहर अपनी एक नयी दुनिया बनाते हैंअब इसी बेसिक प्लाट में जो चाहे वेरिएशन कर लीजिये और एक प्रेम कहानी तैयार! बीते दिनों खासा चर्चित रहा विमलेश त्रिपाठी का भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उपन्यास “कैनवास पर प्रेम” भी इसी धारा की एक रचना है
“कैनवास पर प्रेम”, एक चित्रकार सत्यदेव शर्मा के जीवन के कैनवास पर चढ़ते, उतरते प्रेम, जुदाई और समर्पण के विविध रंगों की कहानी है सत्यदेव शर्मा को जीवन में दो बार अपने से आर्थिक और तथाकथित जातीय और सामाजिक रूप से बेहतर परिवार वाली लड़कियों से प्रेम हो जाता है पर ये मोहब्बतें दोनों बार परवान नहीं चढ़तीं एक उजाड़ बियाबान जिंदगी जीते सत्यदेव पर नज़र पड़ती है विमल बाबू की जो बकलम खुद एक चिरकुट लेखक हैं और उनके अन्दर का कथाकार, उनकी पत्नी के तमाम प्रतिरोधों पर हावी हो कर उनको सत्यदेव की कहानियाँ टुकड़ों में सुनने पर विवश सा कर देता है कहानी सुनने के क्रम में सत्यदेव के जीवन के दो असफल प्रेम प्रसंगों से कुछ हद तक उद्दविग्न विमल बाबू, कोलकाता की एक प्रसिद्द आर्ट गैलरी में चल रही प्रदर्शनी से सत्यदेव शर्मा की दूसरी प्रेमिका, रिंकी सेन को खोज निकालते हैं और इसका हासिल यह होता है कि सालों पहले के खोये प्रेम को अचानक अपने सामने देख कर आये हार्ट स्ट्रोक के कारण अस्पताल में पहुंचे सत्यदेव का हाल बयान कर कहानी एक ऐसे मोड़ पर ख़त्म होती है जहाँ से आगे हर सुखांत हर दुखांत की कल्पना करने को पाठक स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है
विमलेश त्रिपाठी

कहानी तो बहुत सामान्य सी है, दुनिया का सबसे हिट स्टोरी फार्मूला – प्रेम पर इस प्रेम-कहानी को सुनने-सुनाने का अंदाज़ जुदा है लेखक और कथाकार के साथ आप भी सत्यदेव शर्मा से टुकड़ों टुकड़ों में कथा सुनते हैं, बहुत सी चीज़ें समझते हैं और फिर जब कहानी का वो हिस्सा आता है जहाँ किस्सागोई अपने उरूज़ पर होती है वहीँ पर कथा रोक दी जाती है, और कुछ नया चलने लगता है आप पन्ना दर पन्ना, लाइन दर लाइन, शब्द दर शब्द सत्यदेव शर्मा के बारे में जानने को उत्सुक हुए जा रहे हैं, “मयना” (सत्यदेव की पहली प्रेमिका) और “सैफू” (सत्यदेव का बचपन का मित्र) का क्या हुआ? ये सवाल आपको अगला पन्ना पलटने को विवश कर रहे हैं, कि लेखक पत्नी के जाग जाने के डर का बहाना कर घर भाग आता है और सोने की असफल कोशिश करते हुए कहानी को एक विराम सा देने लगता हैआपको खीझ होती है कि ये क्या नौटंकी है भाई? पर आप आगे बढ़ते हैं कि चलो कोई नहीं संस्कारी पति है, माफ़ किया! पर तभी अचानक सत्यदेव का विचलन शुरू हो जाता है जिस बन्दे को आप पिछली मुलाकात में “मयना” के साथ गुजरात भागने को तैयार छोड़ आये थे, वो अगली मुलाकात में कोलकाता के एक शराबी वाल पेंटर की कथा लेकर बैठ गया है अचानक कहानी में रिंकी सेन आ जाती है जो पहले तो सत्यदेव के बहुत निकट आ जाती है फिर बिना बताये अचानक उससे बहुत दूर चली जाती है कोलकाता से सीधा अमेरिका इस किस्सागोई में कहीं कोई तरतीब नहीं, कोई लय नहीं 

मैंने अपनी बी. एड. की पढाई भगवान् बुद्ध की महापरिनिर्वान स्थली कुशीनगर के बुद्ध पीजी कालेज से की हैवहां पास के कसबे कसया में फसलों के मौसम में सिनेमा हाल वाले एक प्रयोग करते थेछोटी लो-बजट फिल्में 2/3 दिन के लिए लगा दिया करते और फिर हर तीसरे दिन फिल्म बदल जाती इनमे ज्यादातर दक्षिण भारतीय कन्नड़, तेलुगु मलयालम फिल्में होती जो हिंदी में डब कर के दिखाई जाती थीं एक बार एक फिल्म देखी थी मैंने भी साथियों के साथ वहाँ, ऐसे ही एक सिनेमा हाल में. उस फिल्म केपहले सीन में नायक नायिका का विवाह हुआ, दूसरे सीन में नायिका के बाप के अड्डे पर गुंडों से हीरो का संघर्ष, तीसरे हिस्से में नायक नायिका की कॉलेज में पहली मुलाकात और नोक झोंक, मध्यांतर के बाद पहले हीरो की बहन का रेप हुआ और फिर नायिका का बदमाश बाप मारा गया और फिल्म समाप्त होने से पहले नायिका ने नायक के प्रणय निवेदन को स्वीकार किया फिल्म ख़त्म होने के बाद पूछ ताछ करने पर हम लोगों को पता चला की उस दिन वहां जो सज्जन सिनेमा की रील बदला करते थे, उनकी साली की शादी थी और उनका अनाड़ी असिस्टेंट हमें उल्टा-पुल्टा सिनेमा दिखा रहा था पर सिनेमा के ख़त्म होते होते कहानी तो समझ आ ही गयी थी और यकीन जानिए मनोरंजन तो खूब हुआक्योंकि टुकड़ों टुकड़ों में बिखरी बेतरतीबी में अपनी एक तरतीब होती है, एक लुत्फ़ होता है ये बेतरतीबी कई बार तरतीब से कहीं अधिक खुशनुमा हो सकती है ये कुछ वैसा ही होता है जैसे बगिया और जंगल का भेद. “कैनवास पर प्रेम” पढ़ते समय वो फिल्म और कसया की वो शाम याद आ गयी, हाँ तमाम कोशिशों के बाद फिल्म का नाम याद नहीं पड़ सका
एक नदी की राह में आने वाला हर अवरोध, हर चट्टान उसे एक नया मोड़ और गति देने में सक्षम होते हैंविमलेश की इस रचना में कथा सरिता के प्रवाह पर ऐसे अवरोध बनाये गए जैसे किसी नदी पर कई सारे छोटे छोटे सुनियोजित से बांध, जो नदी की लय और उसके बहाव को नियंत्रित कर लेने का काम करते हैं जब और जहाँ जरूरी हुआ वहां बाँध के फाटक उठा दिए गए, कथा सरिता का वेग बढ़ चला लेखक ने जानबूझ कर बहुत सफाई से उपन्यास की भाषा के प्रवाह को उन जगहों पर एक अलग धारा में मोड़ा है जहाँ से एक सीधी सपाट प्रेम कथा को एक नयी लय मिल सके

“कैनवास पर प्रेम” में शिल्प के प्रयोग हैं, कहानी कहने का कौशल है, उतार चढ़ाव है पर कहानी तो वही है जिसे हम आप कई उपन्यासों में पढ़ चुके हैं, कई कहानियों में सुन चुके हैं अगर किसी पेंटिंग से तुलना करें तो कह सकते हैं की “कैनवास पर प्रेम” एक सुन्दर कोलाज सरीखी रचना है पर इस कोलाज को बनाते समय चित्रकार ने कैनवास पर चढ़े कागज को ढंग से नहीं परखा एक मटमैले बैकग्राउंड पर बना एक सुन्दर रंगीला कोलाज

कहानी में नयेपन के सख्त अभाव के बीच किस्सागोई की रोचक शैली, कहानी कहने का अपना एक अलहदा अंदाज़, कथा सरिता के उतार चढ़ाव “कैनवास पर प्रेम” को एक पठनीय रचना बनाते हैं और कहानी कहने के शऊर से रूबरू होने के लिए इस रचना को पढ़ा जाना चाहिए
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उपन्यास – कैनवास पर प्रेम

लेखक – विमलेश त्रिपाठी

प्रकाशक – भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली

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सम्पर्क 

वैभव मणि त्रिपाठी

फ्लैट नं. C4 ब्लॉक C, 
नारायण एन्क्लेव

हरिहर सिंह रोड
मोरहाबादी रांची झारखण्ड (834008)

मोबाईल +919471589300
सम्प्रति: झारखण्ड के लोहरदगा जिले में अवर निबंधक के पद पर कार्यरत. 

केदारनाथ सिंह पर विमलेश त्रिपाठी का आलेख ‘केदारनाथ सिंह का जीवन और सृजन-संघर्ष’


पिछले दिनों वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह को 49 वाँ ज्ञानपीठ सम्मान देने की घोषणा की गयी. कहना न होगा कि केदार जी हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं. राजधानी दिल्ली में रहते हुए भी गंवई जीवन से उनका जुड़ाव आज भी बना हुआ है. बातचीत में भी भोजपुरी बोलने के लिए हम भोजपुरी भाषियों को हमेशा प्रोत्साहित करते रहे हैं. केदार जी के जीवन और सृजन संघर्ष पर एक आलेख हमें लिख भेजा है युवा कवि-कहानीकार विमलेश त्रिपाठी ने. केदार जी को बधाई देते हुए प्रस्तुत है विमलेश त्रिपाठी का यह आलेख
    
केदारनाथ सिंह का जीवन और सृजन-संघर्ष
विमलेश त्रिपाठी
{1}
केदारनाथ सिंह के जीवन को समझने के लिए उस भोजपुरी अंचल को समझना बेहद जरूरी है जिस अंचल ने इतने बड़े कवि को जन्म देने और और पालने पोसने का गौरव हासिल किया। यह यूं ही नहीं है कि आज भी केदार की कविताओं और बातों में अपने गांव को लेकर एक अजीब सी तड़प दिखती है। मेरे समय के शब्द में एक पत्र का जवाब देते हुए अपने मित्र परमानंद श्रीवास्तव को वे लिखते हैं – कुछ दिन – कम से कम 15-20 दिन हवा-पानी बदलने के लिए गांव रहना चाहता हूं। मुझे लगता है और अब गहराई से लगने लगा है – कि गांव के सात यह जो मेरा लगातार आने-जामे का जो अटूट रिस्ता है वही मरे भीतर के कवि को जिलाए हुए है। सिर्प मेरे ही भीतर के कवि को नहीं – हम सबके भीतर के रचनाकार को जो कहीम न कहीं जो आज भी उस करइठ मिट्टी से जुड़े हैं। 1  इसे संकुचित गंवईपन या ग्राममोह कह के हमारा काम नहीं चल सकता। इसे रूढ़ अर्थों में लोकल होना तो कतई नहीं समझा जा सकता, इसे एक कवि की अपनी जमान के साथ आत्मिय संश्लिष्टता के रूप में अभिहित करना ही सटीक लगता है, जिसमें भारतीयता के साथ एक वैश्विक मर्म का जुड़ाव भी कही न कहीं शामिल दिखता है। परमानंद श्रीवास्तव को ही लिखे एक और पत्र में केदार जी कहते हैं – अब लंदन फिर कभी। इस बार इतना ही। भारत लौटने की तड़प कितनी है, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।2
यह एक तथ्य है कि केदार जी का शुरूआती जीवन – बचपन से लेकर लगभग जवानी की ढलान तक – गांव और उसके आस-पास ही बीता। चाहे बनारस हो या गोरखपुर का पडरौना – ये जगहें महानगर तो नहीं थी ठीक ढंग से नगर भी नहीं थी। ज्यादा से ज्यादा उन्हें कस्बा कह सकते हैं, जहां के लोग भी गांव के आस-पास के लोग ही थे, जो भोजपुरी बोलते थे, सुरती रगड़ते और पान खाते थे। उनके व्यक्तित्व की खासियत वह अल्लढ़पन भी है, जो नागर सभ्यता और संस्कृति के लोगो के व्यक्तित्व से सिरे से गायब दिखता है। बाद के दिनों में दिल्ली के बीच में आ जाने पीड़ा केदार  की कविता में मुखर होकर आती है। यह वह पीड़ा है जो गांव के एक आदमी के शहर में जाकर शहरी हो जाने के बाद उभरती है। बहरहाल केदार के जीवन और साथ ही साथ सृजन संघर्ष के भी तीन विंदु हो सकते हैं –
एक तो यह कि उनका जन्म बलिया जिले के एक गांव चकिया में आज से करीब 70-75 साल पहले हुआ। दुसरे शुरूआती पढ़ाई के बाद उच्च शि के लिए वे बनारस आए। और तीसरे जब वे अंततः जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में गए और दिल्ली में ही अपना निवास बनाया। इस बीच एक बात और ध्यान रखने वाली है वह कि इन स्थानों पर यायावरी करते हुए उनकी सर्जना लागातार जारी रही और उन्होने निरंतर कविता लेखन के नए-नए कीर्तिमानों को स्पर्श किया।
यह दुहराने की जरूरत नहीं है कि तारसप्तक में शामिल होना केदार जी की रचनात्मकता को एक नया मोड़ पदान करता है। यह भी बताना जरूरी नहीं कि केदार जी का शुरूआती जुड़ाव नवगीत से था और एक गीतकार के रूप में बनारस और आस-पास उनको लोग जानने लगे थे, कि कहें गीतों ने धुम मचाकर रखा था। परमानंद जी के साथ उनके शुरूआती जुड़ाव के बीच में उनके अच्छे गीत कारण बने। परमानंद श्रीवास्तव बनारस के एक कवि सम्मेलन का संदर्भ देते हुए एक संस्मरण में लिखते हैं – केदार ने गीत पढ़े जो जबान पर चढ़ गए – रात पिया पिछवारे पहर ठनका किया/ सुना नहीं तुमने क्या दिल जो धड़का किया। उन्हीं दिनों केदार के एक अन्य गीत की लय-वक्रता ने ध्यान आकृष्ट कियाः गीतों से भरे दिन फागुन के ये/गाये जाने को जी करता3
{ 2 }
आखिर केदार की कविताओं का मूल स्त्रोत क्या है। एक कवि के मन में रचनात्मकता का श्रेष्ठतम विस्फोट कैसे संभव हुआ। लोक से जुड़ा हुआ गीत लिखने वाला एक रचनाकार नई कविता को एक नई दिशा दे सकने में कैसे सफल हो पाया। कैसे एक कवि अपने बाद के आने वाली एक पीढ़ी को शिद्दत से प्रभावित कर पाया। वे कौन-कौन से तत्व हैं जो एक अंचल विशेष के भूगोल से जीवन भर मानसिक रूप से जुड़े हुए कवि की कविता को एक वैश्विक आयाम देते हैं। ये सारी बातें केदार की कविताओं का विवेचन करते समय स्वभावतया उभर कर सामने आती हैं। केदार की कविताओं को समझने के क्रम में एक और बात को ध्यान में रखना जरूरी है, जो उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार अर्पण के दौरान कही थीं – नगर केन्द्रित आधुनिक सृजनशीलता और ग्रामोन्मुख जातीय चेतना के बीच जब-तब मैंने एक खास किस्म के तनाव का भी अनुभव किया है। यह तनाव हमारे दैनिक सामाजिक जीवन की एक ऐसी जानी-पहचानी वास्तविकता है जिसकी ओर अलग से हमारा ध्यान कम ही जाता है। मेरे लिए यह अनुभव एक एस्थेटिक बोध भी है और एक गहरे अर्थ में मेरी नैतिक चेतना का एक अविच्छिन्न हिस्सा भी। अपने रचना कर्म में मेरी कोशिश यह होती है कि उसमें अनुभव के इन दोनों स्तरों की अंतःक्रिया किसी हद तक समाहित हो सके। यह किस हद तक संभव हो पाती है, यह बताना मेरे लिए कठिन है, पर वह मेरी रचना-क्रिया का एक जरूरी हिस्सा है, इसे मैं भूलना नहीं चाहता।4   कहने की जरूरत नहीं कि केदार जी की कविताएं लोक और नागर संस्कृति के बीच के एक अजृश्य सूत या कहें कि एक अदृश्य कोने में आकार पाती हैं। और यह इतना धीमे और सहजता से घटित होता है कि पाठक तो क्या कवि को भी कई बार इसका इल्म नहीं हो पाता। इसे लोक और अलोक का द्वन्द्व भी कहा जा सकता है लेकिन इस द्वन्द्व की अपनी एक साकारात्मक विशेषता है जो पकारांतर से भारतीय जमीन की सदियों पुरानी परम्परा से इसका जुड़ाव पैदा होता है। यह द्वन्द्व ठेठ भारतीयता {जिसमें भारतीय आधुनिकता की स्वरूप भी शामिल है} और प्राच्य आधुनिकता के बीच का भी द्वद्व है जिसे गहराई से समझने की जरूरत है। यहां एक कविता देखी जा सकती है –
छू लूं किसी को?

लिपट जाऊं किसी से?

मिलूं

पर किस तरह मिलूं

और दिल्ली न आए बीच में।5
{ 3 }
केदारनाथ सिंह मेरे प्रिय कवि हैं। इसका कारण  यह नहीं है कि  मेरा शोध -कार्य केदार जी पर ही है। इसका कारण उनकी कविताएं हैं जो जादू की तरह असर करती हैं। इस जादू की पड़ताल की चुनौती भी केदार की कविताएं उपस्थित करती हैं।
केदार की कविताएं मुक्तिबोध की तरह कठिन नहीं हैं। सहज होकर गंभीर बातों को कहना और ऐसे कहना कि आपके अंदर एक हलचल और एक बेचैनी पैदा हो जाए, यह इसी एक कवि में हमें मिलता है। यह कवि आपके साथ बोलते-बतियाते हुए एक ऐसी जगह पर लेकर जाता है, एक ऐसे लोक में, जहां से यथार्थ का एक नया चेहरा आपको दिखायी पड़ने लगता है, – नया और भयावह और आपको कई बार तिलमिला देने वाला भी। श्रीप्रकाश शुक्ल की बातों पर गौर करें तो केदारनाथ सिंह की कविता एक बोरसी की आग की तरह धीरे-धीरे बढ़ती और फिर धधकती है। यह उसके आसपास की बतकही की तरह मालूम पड़ती है, जो ऊपर से बिना प्रयास के, साधारण मालूम पड़ती है, किंतु जिसके नीचे सच्चा जीवन धधक रहा होता है।6
 
एक और बात कहनी चाहिए कि केदार जी कि कविताएं  एक ताजगी लेकर उपस्थित होती हैं। उनमें बोलने बतियाने का एक गंवई ठाट है, वहां कोई बड़बोलापन नहीं है, और है भी तो इतना सहज की वह अखरता तो कतई नहीं। वे चाहे मारिशस या सुरिनाम पर कविताएं लिख रहे हों उनके पांव कहीं न कहीं अपनी मिट्टी में इतने गहरे घंसे हुए हैं कि उनकी हर कविता में उसकी सुगंध देखने को मिल जाएगी। लेकिन क्या यह इसका प्रमाण है कि केदार की कविताएं  गांव और कस्बे के इर्द-गिर्द घुमती हैं। इस तथ्य को उनकी कविताएं ही नकारती भी हैं। इसे एक तथ्य के रूप में समझा जाना चाहिए कि जिस कवि की अपनी कोई जमीन नहीं है, वह कवि भले हो जाए लेकिन केदार जी जैसा बड़ा कवि तो कहीं से भी नहीं हो सकता। डॉ. शंभुनाथ एक लेख में जिक्र करते हैं कि एक समय हिन्दी के कवियों को विश्व कविता लिखने का चश्का लग गया था। वे आगे यह भी कहते हैं कि साठ के बाद की जो भी महत्वपूर्ण कविताएं हैं उनमें से अधिकांश में विश्वबोध का यह चश्का काम करता है। शंभुनाथ एक गंभीर आलोचक हैं और कि उनके सामने इस तथ्य को कहते समय बहुत सारे कवि होंगे – जाहिर है कि केदारनाथ सिंह भी। लेकिन जिन कविताओं की मार्फत हम केदार जी को जानते हैं,  उनमें तो हमें विश्वबोध की कविताओं का चश्का नहीं दिखता। माझी का पुल केदार जी की एक प्रसिद्ध कविता है जिस कविता में कवि को लालमोहर की याद आती है और वह हल चलाते हुए दिखता है,  उसे खैनी की तलब लगी है। पानी में घिरे हुए लोग उस अंचल के लोग ही हैं जो बाढ़ की भयावहता को समय-समय पर अपने कंधे पर झेल चुके हैं। लेकिन केदार की खास विशेषता यह है कि वे गांव और जवार की बात करते हुए भी एक आधुनिक भावबोध से संवलित आधुनिक कवि हैं जिनकी कविताओं में समय की गूंज साफ-साफ सुनाई और दिखायी पड़ती है। इस संदर्ब में अरूण कमल के एक लेख को याद करना समीचीन होगा। अकाल में सारस का मूल्यांकन करते हुए वे लिखते हैं – गांव और गांव के संदर्भ बिल्कुल नए ढंग से इन कविताओं में आए हैं। गांव पर लिखी कविताएं प्रायः आंचलिक हो जाती हैं, स्वंय भी ग्रामीण लगने लगती हैं। साथ ही साथ एक प्रकार के मोह का भाव भी वहां रहता है। गांव का जीवन प्रायः नॉस्टेल्जिया के साथ कविता में आता है। केदारनाथ सिंह ने इन कविताओं के जरिए गांव को नए ढंग से, आधुनिक तरीके से देखने की कोशिश की है। संभवतः यह ऐसी पहली महत्वपूर्ण कोशिश है।7 हां, इस बात की ओर भी इशारा करने की जरूरत तो है ही कि उनके यहां लोक और नागर  के बीच, लोक संस्कृति और आधुनिकता के बीच एक द्वुन्द्व, एक क्लैश भी दिखायी पड़ता है और यह उद्देश्यहीन नहीं है। इस कवि ने कभी भी यह नहीं माना कि भारतीय आधुनिकता बाहर से आयातित की हुई कोई अवधारणा है, बल्कि उसका कहना है कि भारतीय आधुनिकता का विकास भी अपने तरीके से ठेठ  भारतीय संदर्भ में हुआ है। मेरे समय के शब्द में एक जगह वो साफ-साफ लिखते हैं जिससे हमारी उपरोक्त बातों को बल मिलता है। वे लिखते हैं – आधुनिकता के विकस की प्रक्रिया  की पहचान और पुनरावलोकन हमें  भारतीय संदर्भ में करना चाहिए।8 उनका तर्क है कि आधुनिकता संबंधी बहस खत्म हो गई है लेकिन  आधुनिकता की प्रक्रिया अपने खास ढंग से पूरे भारतीय संदर्भ में आज भी जारी है। यह स्थिति  पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसलिए ठेठ भारतीय भी। यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी खास जरूरतों का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए ।9 आगे वे अपनी आधुनिकता में लोक मूल्यों की संश्लिष्टता का  उद्घाटन करते हुए लिखते हैं कि  हमारा देश सामंतवाद के विरूद्ध एक लंबे संघर्ष के बावजूद भी, अपने  मूल्यों और आचरण में  सामंती अवशेषों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। उसी अवशेष का एक रूप है जाति व्यवस्था, जो हमारे चारों ओर है। पने सारे मानववाद के बावजूद, हम एक जाति विशेष के सदस्य माने जाते हैं। यह हमारी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे कवि की संवेदना बार-बार टकराती और क्षत-विक्षत होती है।10 वे स्वीकार करते हैं कि उनकी आधुनिकता में यह खंरोच भी शामिल है। 11
कहने का आशय सिर्फ इतना है कि उस खंरोच को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना और उसका सटिक मूल्यांकन करना लगभग असंभव है। क्योंकि लोक का ठेठपन और पूर्णतः आधुनिक होने के बावजूद उनकी आधुनिकता की एक चिंता यह भी है कि उसमें लालमोहरकहां है। लालमोहर को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना समंदर के किनारे खड़े होकर लहरें गिनने जैसा है। जाहिर है कि इस दृष्टि से जब हम केदार की कविताएं पढ़ेंगे  तो जो हमें मिलेगा, वह बकौल केदारनाथ सिंह –
इसमें तुम्हें जंगली पत्तों की खुशबू

और एक जानवर के रोओं की गरमाहट मिलेगी

तुम्हे एक मजबूत पत्थर मिलेगा

जिसपर तुम बैठ सकते हो

पत्थर को छुओ

तुम्हें पानी का संगीत सुनाई पड़ेगा

एक पत्ता उठा लो

और तुम पाओगे तुम उसकी नसों में 

खून की तरह बह रहे हो

तुम बाहर निकलोगे 

और तुम्हे सूरज मिल जाएगा। 12
….. 
{ 4 }
केदार जी की कविताएं पढ़ते समय हमें यह कभी नहीं लगता कि हम कोई लयमुक्त या  छंदहीन कविता पढ़ रहे हैं। कहने की बात नहीं कि केदार जी ने लिखने की शुरूआत छंदबद्ध कविताओं से की थी और एक समय उनके गीत सुनने के लिए लोग सभागारों में बैठे इंतजार करते रहते थे। उन गीतों में क्या था कि नवगीत के पुरोधा कवियों के बीच भी केदार को अलग से सुनने का मन करता था। मेरी समझ से केदार जी के गीतों में एक तरह की भाषिक नवीनता तो थी ही, साथ ही उसमें अपने लोक, अपने अंचल की वाणी भोजपुरी की मिठास भी शामिल थी। अलावा इसके केदार जी के पास सर्वथा नूतन एक आधुनिक दृष्टि थी जो उनकी कविता में एक तरह की नवीनता के साथ जादू जैसा कुछ पैदा करती थी। 
केदार जी एक इंटरव्यू में याद करते हैं कि कविता से पहला परिचय उन्हें गांव में औरतों के द्वारा गाए जाने वाले गीतों की मार्फत हुआ। वे कहते हैं कि सुबह-सुबह अधनींदी अवस्था में कई बार कानों में भोजपुरी के लोक गीत सुनने को मिलते थे – उन गीतों का असर आज भी मेरे लेखन में है, इसे मैं कितना भी चाहूं, अस्वीकार नहीं कर सकता। उन गीतों में क्या जादू है, यह तो वही समझ सकता है, जो गांव में रहा हो और उस जिंदा जादू को पत्य देखा-सुना हो। केदार की कविताओं में एक तरह की सहजता के साथ जो जादू है, कहीं न कहीं उसका उत्स वे लोक गीत ही हैं, जिन्होंने केदार को कहीं गहरे प्रभावित किया है।
उनकी बोलने-बतियाने और उसी दौरान कोई गूढ़ बात कह देने की शैली भी रेखांकित करने लायक है। कई बार वे पाठकों से बातचीत के लहजे में कविता की शुरूआत करते हैं, कई बार पाठक से सवाल करते हैं कि अब क्या किया जाए, कि अब आप ही बताएं कि  अब  तो यह तय करना मुश्किल है इत्यादि। तात्पर्य यह कि उनके लिए पाठक कविता के बाहर की कोई वस्तु नहीं है, वे हर कविता के साथ पाठक को शामिल करते चलते हैं, जैसे कोई बच्चा इधर-उधर न जाए इसलिए उसका अभिभावक अपनी उंगली पकड़ा देता है। एक बार बच्चे ने उंगली पकड़ ली तो अभिभावक अपनी रौ  में अपनी राह चलता जाता है। केदार की कविता की रचना प्रक्रिया को इसी तरह समझने की जरूरत हमें महसूस होती  है। इस संदर्भ में याद करना चाहिए कि केदारनाथ सिंह का अपना व्याकरण और अपना काव्य तर्क है। वे लिखते हैं – मैं बोलता हूं इसलिए लिखता हूं। मनुष्य के इतिहास में लिखना बोलने का अनुवर्ती है – लगभग यही बात रचना प्रक्रिया पर भी लागू होती है। मुझे लगता है कि जब मैं लिख रहा हूं तो असल में मैं बोल रहा हूं।13
उपर केदार जी के लोक गीतों से जुड़ाव की बातें कही गई हैं। भोजपुर अंचल में रहने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो लोक गीतों से अपना जुड़ाव न रखता हो। यह अलग बात है कि अब वे परंपराएं मिट रही हैं और लोक गीतों के नाम पर कुछ फूहड़ और अश्लील गीत ही बाजार में रह गए हैं। लेकिन केदार जी का जो समय रहा है, उस समय भोजपुरी लोकगीतों  में एक समृद्ध साहित्यिक एवं काव्यात्मक  तत्व दिखायी पड़ता है। भोजपुरी लोक गीतों के महानायक भिखारी ठाकुर के बारे में केदार जी के संस्मरणों को पढ़ने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि केदार जी का लोक और लोक गीतों से कितना गहरा जुड़ाव रहा है। यह गौर तलब है कि अपनी कविता की किताब उत्तर कबीर व अन्य कविताएं में केदार जी ने भिखारी ठाकुर 14 नाम से एक बहुत ही मार्मिक कविता भी लिखी है। 
नई कविता के मंच पर भिखारी ठाकुर  नामक संस्मरणात्मक लेख उपरोक्त बातों की पुष्टि करता है।15 तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केदार जी की शुरूआती कविताएं लयबद्ध हैं, उनमें गीतात्मकता है। यहां इस बात को रखने का हमारा मतलब बस इतना ही है कि इस लयात्मकता और गीतात्मकता की गूंज हमें केदार जी की हर कविता में सुनाई पड़ती है। इसलिए जब हम आज की उनकी  कविताएं पढ़ते हैं, तब भी हम लोकगीतों की लय और गीत की मिठास की गूंज उनकी कविताओं में सुन पाते हैं। यही केदार की कविता का जादू है तो सिर चढ़कर बोलता है और यही कारण है कि एक पूरी पीढ़ी उनकी कविताओं से प्रभावित है और पाठकों के बीच उनकी कविताएं असाधारण रूप से लोकप्रिय हैं।
संदर्भ ग्रन्थः
1.            मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, पृष्ठ- 68, 
       संस्करण-2008
2.            लोकः परम्परा, पहचान एवं प्रवाह, डॉ. श्यामसुंदर दुबे, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम
       संस्करण, पृष्ठ – 45-46
3.            जमीन पक रही है, प्रकाशन संस्थान, पंचम संस्करण, पृष्ठ – 95
4.            वही, पृष्ठ – 95
5.           कुमार कृष्ण का लेख, कवि केदारनाथ सिंह, संपादक भारत यायावर, राजा
      खुसगाल, पृष्ठ 114
6.           मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, (देवेन्द्र चौबे से 
       बातचीत) पृष्ठ- 109, संस्करण-2008
7.           मेरे साक्षात्कार, संपादक-केदार नाथ सिंह, किताबघर प्रकाशन, (कृपाशंकर चौबे से  
      बातचीत) पृष्ठ- 105, संस्करण-2008
8.           पानी में घिरे हुए लोग, यहां से देखो – केदारनाथ सिंह
9.           पानी में घिरे हुए लोग, यहां से देखो – केदारनाथ सिंह
10.                        उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएं, केदारनाथ सिंह पृ. 11
11.                        वही, पृ. 11
12.                        मिट्टी की रोशनी, सं. अनिल त्रिपाठी (डॉ. विजयमोहन सिंह का लेख- थोड़ी सी 
      रोशनी में बचा कर,) पृ. 19
13.                        मिट्टी की रोशनी, सं. अनिल त्रिपाठी (डॉ. विजयमोहन सिंह का लेख- थोड़ी सी
          रोशनी में बचा कर,) पृ. 19
14.                        न होने की गंध, अकाल में सारस, केदारनाथ सिंह, पृ. 45
15.                        प्रतिनिधि कविताएं, केदारनाथ सिंह, पृ. 104
 
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विमलेश त्रिपाठी के कविता संग्रह ‘एक देश और मरे हुए लोग’ पर मिथलेश शरण चौबे की समीक्षा

सुपरिचित युवा कवि-कहानीकार विमलेश त्रिपाठी का बोधि प्रकाशन से हाल ही में एक नया कविता संग्रह आया है- ‘एक देश और मरे हुए लोग’. इस संग्रह पर एक समीक्षा लिख भेजी है युवा कवि मिथलेश शरण चौबे ने, तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा – ‘सबसे कम आदमी रह जाने की होड़ के विरुद्ध’
सबसे कम आदमी रह जाने की होड़ के विरुद्ध
मिथलेश शरण चौबे
           एक ऐसे समय में जबकि जनविमुख व दूषित राजनीति की केन्द्रीयता ने जीवन के सारे आयामों को अपनी तरह पतनोन्मुख बनाने की कुत्सित चेष्टा की हो, हाशिए का हिस्सा बना दिए गए साहित्य की सुन्दर-खुरदुरी और फौरी किस्म की कार्यवाहीविहीन भूमि से निरुपायता की आत्ममुग्ध छवि को ध्वस्त कर एक लम्बे विलाप से उबरते हुए, अपने समय व उसमें घटित को प्रश्नांकित करने, सही और गलत का वाजिब फ़र्क जताने और साहित्य की वास्तविक हिस्सेदारी को सघन बनाने के कर्तव्य निर्वहन की दिशा में युवा कवि विमलेश त्रिपाठी के संग्रह ‘एक देश और मरे हुए लोग’ की कविताएँ असन्दिग्ध प्रमाण हैं| पैसठ बरस पहले स्वाधीन हो चुके लोगों की कर्तव्यविमुखता के आत्माभियोग से यह संग्रह शुरू होता है जिसे मुक्तिबोध के शब्द स्वर देते हैं-
‘अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
ज्यादा लिया और दिया बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गए तुम|’
           पाँच उपशीर्षकों में संयोजित सैतालीस कविताओं में कवि संवेदना का विस्तार मिलता है| ’इस तरह मैं’ खण्ड में शीर्षक कविता के अलावा शेष अपेक्षाकृत छोटी कविताएँ हैं जिनमें अपने परिवेश के प्रति कवि संवेदना की झलक मिलती हैं| खुद कुछ सार्थक नहीं करने वालों से भरी इस दुनिया में बेहतर के लिए अपनी तरह से किंचित यत्नों में लगे मनुष्यों के लिए अवरोध का काम करने वालों के प्रति कवि आत्मसजग है-
‘न चल सको तुम
बेशक न चलो
पर मेरे क़दमों की रफ़्तार
न रोको कोई|’
अपने घर, गाँव, आसपास, वृक्षों आदि से गहरा आत्मीय लगाव भी कविताओं में आत्ममुग्धता से विलग एक ज़रूरी चिन्ता की तरह आता है-
‘पेड़ की जगह
उग आएगी एक शानदार इमारत
मैं देखता खड़ा रहूँगा
घर की अकेली खिड़की से|’
यही चिन्ता अपने लिए और भी जवाबदेह बनाती है अपने परिवेश के प्रति, सच के प्रति और बहुत सारी उन बेमानी चीज़ों से खुद को एक नैतिक मनुष्य की तरह बचा लेने की सार्थक कोशिश के प्रति, जिनके निरर्थक व्यामोह में बहुसंख्यक जन संलग्न हैं-
‘जब कभी कोई पुकारता शिद्दत से
दौड़ता मैं आदमी की तरह पहुँचता जहाँ पहुँचने की बेहद ज़रूरत’,
‘इस तरह मैं आदमी एक
इस कठिन समय का
जिन्दा रहता अपने से इतर
बहुत सारी चीज़ों के बीच
अशेष|’
         ‘बिना नाम की नदियाँ’ उपशीर्षक के अन्तर्गत शामिल सात कविताएँ बहन, माँ, आजी, होस्टल की लड़कियों के जीवन की चुनौतियों, नरम-गर्म अहसासों को प्रतिकृत करती हैं| इन कविताओं में स्त्री संवेदना का अनूठा संस्पर्श मिलता है| बहन व होस्टल की लड़कियों पर केन्द्रित कविता में यह अनूठापन अपनी सहजता व स्त्री जीवन की मार्मिक सच्चाइयों के रूप में व्यक्त होता है| परिवार में लडकियों का होना पढ़े-लिखे व समझदार घोषित किए जाते लोगों के बीच आज भी एक दवाब की तरह मायने रखता है, जबकि भले ही उनकी अपनी आकांक्षाएँ लगभग स्थगित हों-
‘उन्हें अब कुछ भी बनना ना था
एक ऐसे देश और समय में पैदा हुईं थी वे
जहाँ उनके होने से कन्धा झुक जाता था’,
यदि किंचित कामना इन लड़कियों की है भी तो वह स्त्रियों के शाश्वत बन्धन से मुक्ति की ही है-
‘भेजना मुझे तो भेजना मेरे बाबुल
उस लोहार के पास भेजना
जो मेरी सदियों की बेड़ियों को पिघला सके|’
         घर के सुरक्षित दायरे व अनियन्त्रित निगाहों से दूर हास्टल में रहने वाली लड़कियों के जीवन पर, उनकी इस समय की दुबारा न सम्भव रहने वाली स्वतन्त्रता पर, उनके मौलिक जीवन व्यवहार पर और स्वयं को पुनर्रचित करने की जिजीविषा पर ’वे अमराइयों में पहली बार आई बौर हैं’ कहना दरअसल उन्हें निश्छल व प्राकृतिक नजरिये से देखना है| और यही नजरिया उनके कृत्रिम नियंत्रणों से मुक्ति का सार्थक मार्ग भी देख पाता है-
‘उन्हें ज़रूरत उस मृत्यु की
जिसके बाद सचमुच का जीवन शुरू होता है|’
         ‘दुःख-सुख का संगीत’ उपशीर्षक की ग्यारह कविताओं में संगीत की किसी धुन की तरह कवि का स्मृति संसार व स्वप्नलोक फैला हुआ है, वहीं शोक व प्रार्थना जैसे निजी राग भी प्रकट हुए हैं| बेहद जटिल दुनियावी समय में जहाँ हम कठोर भौतिक सच्चाइयों तक सीमित हो चुके हैं, हमारे जीवन में सपनों के होने का मुकम्मल जीवनदायी अर्थ कविता जाहिर करती है –
‘सपने अँधेरे में एक जोड़ी आँख थे’,
’सूखते खेतों में मानसून की पहली बूँद’|
सम्बन्धों के विरल होते समय में कवि  ‘सम्बन्धों को नदी के पानी की तरह बचाना’ जैसी समझाइश भी देना चाहता है| दूसरों को नसीहत देने को तत्पर कविता समय में कविता में आत्मावलोकन की प्रश्नांकित मुद्रा से स्वयं की जाँच-पड़ताल करने का बेहद नैतिक दायित्त्व भी कवि-कर्म की उल्लेखनीयता प्रकट करता है-
‘हमने किया वही आज तक
जिसको दूसरे करते हैं
तो बुरा कहते हैं हम
हमने ही एक साथ
जी दो जिन्दगियाँ
और इतने बेशर्म हो गए
कि खुद से अलग हो जाने का
मलाल नहीं रहा कभी|’
          रचनात्मकता और कविकर्म के सूक्ष्म आशयों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में टटोलती आठ कविताएँ ‘कविता नहीं’ उपशीर्षक में शामिल हैं| कवि के लिए कविता पूरी उम्र के सन्धान का परिणाम है, यथार्थ का निपट साक्षात्कार करते हुए कुछ विशिष्ट अनुभव बोध को पाने का जरिया है, वीराने में एक प्रार्थना है, आने वाली पीढ़ियों को देने लायक नैतिक जीवन विवेक है| और इन सबके साथ ही कविता प्रतिरोध की वह उर्वर जगह है जहाँ विनम्रता से, चीख से, ललकार से जब जैसी दरकार हो उस तरह से अपने समय की सच्चाई को व्यक्त किया जा सकता है| किसी भी तरह के षड़यंत्र के विरुद्ध कविता की ताकत का भरोसा कवि को है-
‘सुनो,मेरे साथ करोड़ों आवाज़ों की तरंग से
तुम्हारी तिलिस्मी दुनिया की दीवारें काँप रही हैं’ 

 (विमलेश त्रिपाठी)
और शब्दों की दृढता से किसी भी तरह के बेमानी वर्चस्व को नकार देने का रचनात्मक उद्यम भी प्रकट है-
‘और
सबसे
अंत में
लिखूँगा सरकार
और लिखकर
उस पर कालिख पोत दूँगा’|
कविता की आत्मशक्ति की पहचान व उससे गहरी सम्बद्धता कवि में है इसलिए उसे ऐसे दुर्दिनों की कल्पना मात्र भी असह्य लगती है जब कविता उसके पास न हो|
        अंतिम खण्ड में शामिल सभी पाँच लम्बी कविताएँ हैं| लम्बी कविताएँ लिखना कविकर्म के सघन अध्यवसाय से ही सम्भव होता है| इन सभी कविताओं के विषय कवि के व्यापक सामाजिक सरोकारों और गहरी संवेदनशीलता के प्रमाण हैं| निराश हो कर अकर्मण्य बैठे प्रतिरोधविहीन मनुष्य, आत्महत्या करने विवश किसान और उनसे बेखबर तृप्त-सुविधासम्पन्न व व्यर्थ की बहसों में उलझे लोग यदि कवि की चिन्ता का विषय हैं तो शोषित-वंचितों की नियति व याचक भावों पर शोषकों के अट्टहास और इससे निजात पाने की दुष्कर उम्मीद से उपजी बेचैनी कविताओं में विडम्बना के रूप में सामने आती है-
‘क्रांतियाँ जब दम तोड़ देती हैं
जनता जब हार जाती है
बेशर्मी जब देश के माथे पर करती है नृत्य
मैं अकेले घर में बैठकर
देता हूँ गालियाँ इन सबके लिए जिम्मेदार लोगों को|’
        इन कविताओं में ‘एक पागल आदमी की चिट्ठी’ अपने समय की खौफ़नाक सच्चाई के मार्मिक दस्तावेज की तरह है जिसमें एक ऐसे व्यक्ति का प्रलाप है जिसे गहरी सामाजिक प्रतिबद्धता और बेचैन प्रश्नाकुलता के चलते आमतौर पर दुनियादार मनुष्यों से अलग घोषित कर दिया जाता है| वह है भी अपनी सुविधाओं को हासिल करने में ही पूरे जीवन भर लगे रहते मनुष्यों से अलग| समाज, देश, सही-गलत, नैतिक-अनैतिक पर सुचिन्तित विचार सामर्थ्य रखने वाला, शोषण पर, जाति-धर्म की श्रेष्ठता के दम्भ पर होती हिंसा का  मुखरता से विरोध करता हुआ, सत्ता की करतूतों और दशा को निडरता से प्रश्नांकित करने वाला| हाँ उस पागल आदमी की चिट्ठी में यही सब तो लिखा होगा-
‘सन चौरासी का डर
गुजरात की शर्म
और उस औरत का पेट लिखा होता है
जिससे निकालकर एक बच्चे को
एक कभी न बुझती हुयी
आग में झोंक दिया गया था’|
यह उल्लेखनीय है कि आमतौर पर अभियोग और प्रश्नचिह्न सत्ताओं पर ही लगाए जाते हैं जो सच ही ज्यादा जवाबदेह होती हैं, लेकिन यहाँ ये अभियोग और प्रश्नचिह्न उस जनता के ऊपर भी हैं जिसने अपने को निरुपाय मान लिया है कारगर प्रतिरोध के बजाए एक नियतिबोध से भरा समर्पण जिसकी स्थायी मुद्रा बन जाती है-
‘पागल आदमी की चिट्ठी में
देश की जनता की जगह भेड़
और सरकार की जगह गड़ेरिया लिखा होता है|’
यह कविता अपने समय की सम्यक जाँच-पड़ताल और बेहद अर्थपूर्ण विश्लेषण क्षमता के मद्देनजर बार-बार पढ़ने के लिए आकर्षित करती है|
         शोषित-वंचितों की पक्षधरता, उन्हीं के आत्मालाप से स्थितियों की भयावहता का चित्रण इन कविताओं का विशिष्ट राग है| इन स्थितियों के लिए कविताओं में इस समूची व्यवस्था और उसके सूत्रधारों के पतन पर विलाप भी मिलता है|यह बार-बार दूसरों को उनकी जवाबदेही के लिए प्रश्नांकित करता कवि क्या किसी तरह अपनी स्वयं की नैतिक जवाबदेही के लिए व्याकुल है? क्या रचनात्मक सामर्थ्य कोई उम्मीद का पर्याय बन सकती है? अपने ही शब्दों की सामर्थ्य को जीवन की कठोर सच्चाइयों के विलोम में परखना अपने बेचैन आत्म से किसी सार्थक रूपक की कामना करना ही तो है-
‘कि मेरा एक भी शब्द उतना ताकतवर नहीं
कि एक किसान की आत्महत्या के पहले
अनाज में बदल जाए|’
यह आत्मस्वीकार की वंचना अत्यंत मानवीय और कवि की ही एक काव्यपंक्ति के सहारे कहें तो ‘सबसे कम आदमी रह जाने की होड़’ के विरुद्ध कविता की जिजीविषा का प्रबल साक्ष्य है|
          अपने निजी और सामाजिक बोध के प्रति अत्यंत सजग व संवेदनशील, कविकर्म के प्रति अध्यवसायी, अपने स्वप्नों-प्रार्थनाओं के लिए प्रतिबद्ध और शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए संकल्पित व आम मनुष्य के हक में लड़ाई लड़ने के दायित्त्व को स्वीकार कर प्रश्नांकित करने में मुखर विमलेश त्रिपाठी की कविताएँ संग्रह के पिछले पृष्ठ पर उल्लिखित मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह के इस कथन को चरितार्थ करती हैं- ‘विमलेश आत्मचेतस तथा आत्मसजग होने के साथ ही गहरे दायित्त्वबोध के कवि हैं|’                         
समीक्ष्य संग्रह
एक देश और मरे हुए लोग – विमलेश त्रिपाठी

कीमत – 99 रूपये

बोधि प्रकाशन, जयपुर
सम्पर्क 

ई-मेल : sharan_mc@rediffmail.com

विमलेश त्रिपाठी

बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म (7 अप्रैल 1979 मूल तिथि)। प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।


सम्मान
सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से काव्य लेखन के लिए युवा शिखर सम्मान।
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार, सूत्र सम्मान, राजीव गांधी एक्सिलेंट अवार्ड

पुस्तकें
 “हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
एक देश और मरे हुए लोग (कविता संग्रह) बोधि प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य

2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
देश के विभिन्न शहरों  में कहानी एवं कविता पाठ
कोलकाता में रहनवारी।

परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में सहायक निदेशक (राजभाषा) के पद पर कार्यरत।

विमलेश त्रिपाठी युवा रचनाकारों में एक ऐसा नाम है जिन्होंने प्रायः कई विधाओं में समान अधिकार से लेखन किया है। इन दिनों एक उपन्यास ‘कैनवास पर प्रेम’ लिखने में लगे हैं। पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है इस उपन्यास का एक अंश।                            

कैनवास पर प्रेम
(उपन्यास अंश)
                           
कथा का वन और अंतहीन रास्ते का सफर

आंख खुली तो सुबह चुचुहिया बोल रही थी। मैं पुआल पर अकेला था। उपर मेरे पिता का गमछा था। मैंने एक बार गमछे को देखा – वह जले हुए हाथ के फफोले में चिपक गया था। मैंने कोशिश की उसे छुड़ाने की लेकिन दर्द इतना हो रहा था कि मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी। मेरे हाथ मजबूत थे, पीठ मजबूत थी। गाल मजबूत थे। पीठ ने सैकड़ों सोटे की मार सही थी। गाल ने तमाचे सहे थे। हाथ ने घास काटे थे, चारा काटा था और खेत की खूंटिया साफ की थी फावड़े से।

पर यह दर्द पहली बार महसूस हो रहा था। ऐसा लगता था मानों मेरे हाथ में सैकड़ों विषैली सूइयां एक साथ चुभाई जा रही हैं। मुझे कुछ समझ में नहीं आया – मेरे आस-पास कोई नहीं था। मुझे पता नहीं कब मैं दर्द की छटपटाहट में उस कमरे की ओर बदहवास भागा जहां मैंने कोयले से मां की तस्वीर बनाई थी।

दीवार पर रोशनी के कतरे उपर की छोटी खिड़की से छनकर आ गए थे। मैंने देखा जिस जगह मैने मां की तस्वीर बनाई थी वहां एक स्याह और गहरा काला निशान था। उसपर किसी ने खूब गुस्से में कालिख पोती होगी। मां के चित्र के साथ ही मयना की तस्वीर थी। उसे किसी तेज धार वाले चाकू से किसी ने खुरचकर मिटा दिया होगा।
मैं धम्म से बैठ गया। मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था – मैंने मां को पुकारा। वह नहीं आई। उसका दूसरी बार कत्ल किया जा चुका था।

मेरे आस-पास गोबर के बने उपले थे, कोयले के टुकड़े थे और अंधेरा था जिसके बीच मैं अपने लिए जमीन का एक टुकड़ा खोज रहा था। अचानक किसी के कदमों की आहट मेरे कानों के भीतर बजने लगी। मैंने आंखें उठाकर देखा – मेरे सामने धवल वस्त्र में सफेद दाढी से भरे चेहरे वाला एक साधु खड़ा था। साधु स्थिर नदी की तरह चुप था। चुप और गंभीर।

मैं एक गहरी दृष्टि से उस साधु की ओर देखे जा रहा था। दादा ने बचपन में एक कथा सुनाई थी उस कथा में इसी तरह का एक बूढ़ा साधु प्रकट हुआ था और चारों ओर उजाला फैल गया था – गड़ेरिए का बच्चा उसे देखता रह गया था। साधु ने उसे वरदान मांगने को कहा था – उसने अपनी मां को वापिस करने की इच्छा व्यक्त की। साधु ने मां को तो वापिस करने में असमर्थता जाहिर की, लेकिन गड़ेरिए के बच्चे को ऐसा वरदान दिया कि उसके सारे कष्ट दूर हो गए थे। फिर वह कथा वन में चली गई थी और सत्यदेव सोचता रह गया था अपने मन में। बाद के दिनों में वह साधु हर रात सपने में आने लगा था – लेकिन धीरे-धीरे उसके आने के बाद का उजाला कम होता गया था और मयना के सपने में आना शुरू होने के बाद वह फिर से वन में कहीं लौट गया था।

वन से चलकर कथा का साधु यहां, इस वक्त किसलिए प्रकट हुआ था? – मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैं उससे बहुत कुछ कहना चाहता था लेकिन हलक से एक भी शब्द बाहर नहीं निकल रहे थे। वह धीरे-धीरे मेरे नजदीक आता जा रहा था। उसके प्रकाश से मेरी आंखे मिचमिचा गई थीं। मैने अपनी आंखें बंद कर लीं। कुछ पल बाद उसकी आवाज आई – उठो वत्स। अब यहां का जीवन समाप्त हुआ।

मैंने घबरा कर आंखें खोल दीं। देखा उसके हाथ आगे की ओर बढ़े हुए थे।
दादा – मैंने पहचान लिया था।
मैंने अपना एक हाथ उनकी ओर आगे कर दिया था।
किरण फूटने लगी थी। आगे-आगे एक बूढ़ा साधु और पीछे-पीछे तेरह साल का एक किशोर खेतों की पगडंडियों पर चल रहे थे। शीत पड़ी घास पैरों को सहला रही थी – हम लागातार चलते जा रहे थे। बहुत दूर कहीं किसी खोह से कोई एक मद्धिम तान कानों से टकरा रही थी – पिया मोर गवनवा कइलें जालें बदरी में…। ( मेरे पिया गौना कराकर मुझे बादलों में लिए जा रहे हैं..।)
भोर का उजास आहिस्ता-आहिस्ता पूरी धरती पर फैल रहा था और किसी पागल बूढ़े फकीर की वह तान धीरे-धीरे पीछे छूटती जा रही थी। दो और दो चार कदम एक नई यात्रा पर लागातर आगे बढ़ते जा रहे थे।

पूरी तरह होश में आने के बाद मैंने फिल्मों की तरह यह नहीं पूछा था कि मैं कहां हूं।
वह एक झोपड़ी थी जो बहुत साफ-सुथरी थी। गंगा का एक किनारा था जो खिड़की से दिखता था। मैंने अजनबी आंखों से चारों ओर देखा। बाहर कोई बहुत मधुर स्वर में मंत्रों का पाठ कर रहा था। आवाज पहचानी हुई लग रही थी। मेरे हाथ का दर्द कम था। उसपर एक सफेद पट्टी बंधी हुई थी। मेरे शरीर का ताप कम हो गया था।
मुझे धीरे-धीरे सारी बातें याद आ रही थीं। लगता था कि एक भयानक यातना शिविर से मुक्त होकर यहां किसी देवदूत ने मुझे पहुंचा दिया है।

मैं बाहर निकला। सामने एक पत्थर का चबुतरा था जिसपर बैठकर एक बूढ़ा आदमी मंत्र पढ़ रहा था।
दादा – मैं उस बूढ़े को पहचान गया था।

मंत्र पढ़ते हुए ही उन्होने मेरी ओर देखा और फिर अपने पूजा में लीन हो गए। उनकी आंखों में एक सकून था एक आग्रह जिसे देखकर मैं वहीं मिट्टी पर बैठ गया। और उनकी पूजा के खत्म होने का इंतजार करने लगा।
दादा की पूजा खत्म हो गई थी। वे अक्सर कम ही बोलते थे। बहुत कुछ जो वे नहीं कहते उनकी आंखें कहती थीं। उनकी आंखों की भाषा वह सब कहती थीं जिसे वो शब्दों में नहीं कह पाते थे।

कथाकार चुपचाप है। सत्यदेव पता नहीं और क्या-क्या बड़बड़ाते जा रहे हैं। मुझे फिकर हो रही है। मैं बार-बार एक पुरानी घड़ी की तरफ देख रहा हूं जिसका समय पता नहीं कितने समय से रूका हुआ है। छत के टपकने से उसके अंदर तक सीलन भर गई है। मुझे पता है कि वह घड़ी रूकी हुई है सदियों से। सत्यदेव भी वहीं कहीं उसी के साथ ठहर गए हैं।
और मैं…?
कथाकार जानता है यह सब। लेकिन फिर भी इतना जिद्दी कि वह मुझे भटकाए जा रहा है – मेरी पत्नी की तीखी बहसों के बीच वह कहीं गायब हो जाता है और रात के एकांत में प्रकट होता है – मुझे आवारा की तरह भटकाता हुआ।

पूछो सत्यदेव से आगे क्या हुआ। – वह गंभीर स्वर में कहता है।
उसके बाद क्या हुआ? – मैं सत्यदेव से पूछता हूं। उनका चेहरा बेचारगी से भरा हुआ है। वे अचानक उद्विग्न हो जाते हैं। एकदम बेचैन जैसे उनके भीतर कुछ रासायनिक परिवर्तन जैसा घटित हो रहा हो।
देखिए विमल बाबू मेरे नाक में जले हुए मोर के पंख की एक चिरायंध जैसा कुछ घुस रहा है। एक इंसान के जलते हुए शरीर की गंध आ रही है। आप गए हैं कभी भूतनाथ? वहां लाशों के जलने से जैसी गंध आती है – बिल्कुल वैसी ही।

मैं देखता हूं- उनकी सांसें तेज-तेज चलने लगी हैं। वे उठकर इघर-उधर उस छोटे से कमरे में टहलना शुरू कर चुके हैं। खिड़कियां धड़-धड़ बंद करना शुरू कर देते हैं। चौकी पर बिखरे समान और कुछ अधूरे चित्रों को सम्हालना शुरू करते हैं।

मैं परेशान-हैरान सत्यदेव को देख रहा हूं। कथाकार अविचलित है –निर्विकार।
अब? – मैं कथाकार की ओर देखता हूं। उसके अगले आदेश की प्रतीक्षा में।
विचलित न होओ कवि महोदय। अब कथा के असली जड़ों तक की यात्रा का वक्त आ रहा है। धीरज रखो।
यह तो पूरा पागल और सनकी आदमी है। क्या तुम्हें ऐसी कोई गंध आ रही है?
हां, आ रही है।
आ रही है? क्या वकवास कर रहे हो। मुझे तो कोई गंध नहीं आ रही है।
तुम अब तक सत्यदेव की कथा में प्रवेश नहीं कर पाए हो वत्स। शायद इस वजह से। जिस दिन तुम सत्यदेव को समझ लोगे और उनकी आत्मा में प्रवेश कर जाओगे, उस दिन तुम्हें भी वह गंध महसूस होगी। तब शायद मेरी जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम अकेले ही इस कथा को लिख पाओगे।

सत्यदेव एक फटा हुआ गमछा अपने टिनहे संदूक से निकालते हैं। नहीं, वह गमछा नहीं है। वह दुपट्टा जैसा कुछ है। अपने पुरानेपन में एकदम जर्जर।
निकलो, चलो विमल बाबू। – सत्यदेव की विवश आवाज है। ऐसी विवश और फटी हुई उनकी आवाज मैं पहली बार सुन रहा हूं।
कहां?
बाहर। निकलो इस कमरे से। बाहर निकलो अब बर्दाश्त नहीं हो रहा है।
चलो। उनकी बात सुनो। – कथाकार वैसे ही कहता है जैसे बीमार के सामने एक डॉक्टर बोलता है।

हम बाहर निकल आते हैं। आगे-आगे सत्यदेव। पीछे-पीछे मैं और मेरे साथ वह कथाकार जिसे देख कर अब मुझे कोफ्त हो रही है। आखिर यह चाहता क्या है मुझसे। ठीक है कि कभी मैंने सोचा था कि सत्यदेव पर कोई कहानी लिखूंगा। लेकिन यह बहुत पहले की बात है। नहीं भी लिखता तो क्या फर्क पड़ जाता। इस सनकी आदमी की कथा को पढ़ेगा कौन? कथाकार मेरी एक-एक सोच से जैसे वाकिफ है। वह मेरी ओर देखता हुआ शरारत से मुस्कुरा रहा है। मैं चिढ़ जाता हूं।

पूरे रास्ते सत्यदेव कुछ नहीं बोलते। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं जैसे कि उनके साथ मैं भी चल रहा हूं।
टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुजरते हुए वे उसी जगह पहुंचते हैं – उसी पेड़ के नीचे जहां पहली बार उन्हें मैंने बारिश में भीगते हुए देखा था। वह पेड़ बहुत पुराना है। पेड़ के सामने एक खुला मैदान है जहां काली मां का एक मंदिर है। सत्यदेव मंदिर के चबुतरे पर बैठ जाते हैं।

कथाकार की ओर देख रहा मैं पूछता हूं – अब?
इंतजार करो। तुम्हारे अंदर बिल्कुल धैर्य नहीं है। एक लेखक के लिए धैर्य सबसे बड़ी पूंजी है।
मुझे इस तरह लेखक नहीं बनना। मेरी पत्नी मेरा खाना बंद कर देगी। आप नहीं जानते कि किस तरह के तनाव से मैं गुजर रहा हूं। मेरे एक-एक शब्द उसके जीवन के लिए अभिशाप की तरह हैं- वह ऐसा ही समझती है।
ऐसा नहीं है। यह तुम्हारा भ्रम है। वह तुम्हें प्यार करती है।

यह कैसा प्यार है? क्या प्यार करने वाले इस तरह किसी के कला का गला घोंट सकते हैं। मेरा लिखना उसके लिए असहनीय है। वह मेरी कॉंपियां फाड़ चुकी है खूब गुस्से में। मेरी कविताओं को शाप दे चुकी है। अगर इस तरह मैं रात में घर से बाहर घूमता रहा तो वह जरूर घर छोड़कर चली जाएगी। मुझे जाने दो – अभी भी सुबह होने में बहुत वक्त है।
बैठो। शान्त होओ। हम इस मुद्दे पर बात करेंगे। फिलहाल सत्यदेव पर ध्यान केन्द्रित करो। कथा पर। कथा से भी अधिक सत्यदेव पर…।

मैं अपनी उद्विग्नता में सत्यदेव की ओर देखता हूं। वे अपनी नाक पर दुपट्टा लिए रो रहे हैं। मैं कथाकार की ओर आश्चर्य से देखता हूं। वह गंभीर है।
रोने दो इन्हें।
लेकिन ये रो क्यों रहे हैं?
पूछो इनसे। मुझसे क्यों पूछ रहे हो?
कथाकार तटस्थ है और कोई एक है जो रोए जा रहा है। इस तरह इसे कभी नहीं देखा। मुझे खुद पर ग्लानिबोध जैसा कुछ होता है।
साधुजी..!! शर्मा जी!!! साधु खान!!!
……
सुनिए, देखिए आप प्लीज रोइए मत।
लोग मुझे सोने नहीं देते। कोई एक आता है और मेरे सीने के अंदर घुस जाता है। फिर वह मेरे अंदर रात भर टहलता रहता है। विमल बाबू…। ढेर सारे लोग हैं जो मेरे कमरे में घूस आते हैं। वे कहां से आते हैं मुझे पता नहीं चलता। घर में घुसने के बाद मैं तुरंत दरवाजे की कुंडी लगा देता हूं। घर की एक अकेली खिड़की को मजबूती से बंद कर देता हूं। फिर भी…..।

वे धीरे-धीरे संयत हो रहे हैं। बहुत देर की चुप्पी के बाद उनकी यह मुखरता उस सन्नाटे में इतिहास से आती हुई किसी मंद्धिम रोशनी की तरह लगती है। कथाकार सक्रिय हो जाता है और वैसे ही उछल-कुद करना शुरू करता है जैसे फिल्म का कोई निर्देशक किसी लंबे दृश्य को शुट करने के पहले करता है। लाईट..कैमरा….एक्शन….. कैनवास..कैनवास….। ….।।

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संपर्क: 
साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
Email: bimleshm2001@yahoo.com
 

Mobile: 09748800649

विमलेश त्रिपाठी

 

विमलेश का जन्म 7 अप्रैल १९७७ को  बिहार के बक्सर जिले के हरनाथपुर नामक गाँव में हुआ.प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही । प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत। “हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन। “हम बचे रहेंगे” कविता संग्रह नयी किताब, दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य।कहानी संग्रह ‘अधूरे अंत की शुरूआत’ पर युवा ज्ञानपीठ नवलेखन, 2010 पुरस्कार.



2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक में प्रकाशित ‘अधूरे अंत की शुरूआत’ और ‘परदे के इधर-उधर’ और 2010 में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी ‘चिंदी-चिंदी कथा’ विशेष तौर पर चर्चित।

परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।

विमलेश आज के उन कुछ विरल रचनाकारों में से हैं जिनका कविता के साथ-साथ कहानी विधा पर भी समान अधिकार है. समवेदनाओ से पुरमपूर भरा यह कवि, बेबाकी से यह कहने में नहीं हिचकता कि वह अपने गाँव के खेतों से शब्दों को लेता है. विमलेश के देशज शब्दों से इस बात की तस्दीक जा सकती है कि वह अपने लोक से जुड़ा हुआ है. विमलेश की कविता में भोजपुरी के देशज शब्द अपनी प्रवहमानता में आते हैं और कविता की खूबी बन जाते हैं. यह कवि कविता लिख कर खुश हो चुप बैठ जाने वाले कवियों में से नहीं है बल्कि यह कवि मन चाहता है कि उसकी कविता के शब्द उससे सवाल पूछें.
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,

1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.

ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com/

Email: bimleshm2001@yahoo.com

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सपने

सपने अंधेरे में एक जोड़ी आंख थे
स्पर्श प्रेमिकाओं के नरम हाथों के
आंसू थे पलकों पर ढुलके अनजाने

सूखते खेतों में मानसून की पहली बूंद

ददरी के मेले से खरीदे गए मिट्टी के रंगीन खिलौने
नदी के पानी में तैरते-हिलते पत्तों की डोंगियां थे सपने

कभी-कभी आशीर्वाद के लिए

पितरों के उठे हुए निर्दोष हाथ
मां के परोसे हुए मक्के की रोटी
और प्याज की फारी

हमें सही राह की ओर ले जाने के मन से से लैस

पिता की फटकार थे सपने

बहुत जमाने पहले बारिश के पानी से भींगते
 
जेब में नौकरी की अर्जियां थे
दफ्तर की सिढ़ियों पर बेमन
दौड़ते एक जोडी जूते
सामान्य अध्ययन की मोटी किताब के पन्ने में छुपे
एक लड़की के लिखे
आखिरी खत के कांपते शब्द थे

धुंधलाए-से
एक स्त्री की आंख में किसी छूट गए समय का इंतजार थे सपने
मेरे पुरूष को एक आभासी गर्व से लिलते

सब कुछ थे और कुछ भी नहीं थे सपने

बहुत जमाने बाद के एक समय में

वे रात के घनघोर अंधेरे में आते थे
और हमारा सब कुछ लूट कर चले जाते थे…
बहुत समय पहले और बाद की नींद में सपना

बहुत समय पहले की नींद में
सुबह एक कौआ उचरता
और सोचता मैं
कोई खबर आएगी
या आ जाएगा वह आदमी

वही जो मुझे धूल में लोटता छोड़ चला गया था
एक हाथ से पेट और दूसरे से एक सपने को थामे

वही दूर देश से आएगा

हाथ में चाभियों वाले खिलौने ले कर
गीली मिट्टी के खिलौनों की जगह

होंगे मेरे पास भी
हमारी तरह बोलते हंसते खिलौने सजीव
बहुत सारे इतने सारे
बहुत समय पहले की नींद में

समय की इतनी लंबी पगडंडियों के पार
जानता हूं कि खिलौनों की दुनिया से
निकल आया हूं बहुत आगे
कि लौटना
संभव
नहीं
लगता
अब

फिर भी बहुत समय बाद की एक नींद में

सोचता हूं  कि लौटूंगा इस बार तो

दो जोड़ी पथरायी आंखों के लिए ले जाऊंगा
दो जोड़े ऐनक
खादी की एक खूब उज्जर धोती
और तांत की एक गुलाबी साड़ी

सोचता हूं शहर की

एक     ऊंची इमारत

पर खड़ा सपने की एक सुबह
हर तीसरे दिन
सपने में एक सुबह होती
और हर सुबह
एक कौआ उचरता

कौआ एक सुबह उड़ते-उड़ते
मेरे गांव के नीम पर बैठ जाता
और उस दिन मेरा इंतजार करतीं
दो जोड़ी पथरायी आंखों की नींद में

एक-एक दुधिया सुबह होती

सिर्फ लिखता हूं कविताएं

चाहता तो हूं कि एक शब्द मेरी कविता से निकल कर

खड़ा हो जाए मेरे सामने
पूछे मुझसे निर्मम सवाल

कर जाय मेरी त्वचा को लहूलुहान
अपने तेज पंजों से

निकल जाए मेरे घेरे से बाहर
आग-जैसे सवालों के साथ
पूरी दुनिया में अवतार की तरह

लेकिन एक भी शब्द नहीं निकलता बाहर
मेरी कविता के तहखाने से

और अपने कवि होने पर बार-बार
आती है मुझे ही शर्म

चाहता तो हूं कि शब्दों की इस दुनिया से दूर
चला जाऊं अपने छूटे हुए खेतों में
वहीं जहां से पच्चीस साल पहले चला आया था

वहीं जहां से आते हैं मेरी कविता में शब्द
और एक तहखाने में होते जाते हैं कैद

चाहता तो हूं कि चाहूं और उस चाहने पर
कायम रह सकूं पूरी उम्र

लेकिन फिलहाल मैं
सिर्फ लिखता हूं कविताएं…

उस दिन

कभी पुरानी किताब की जिल्द में
डर से छुपाई हुई

एक कविता  मिल जाती

और अचानक मेरी उम्र
सत्रह वर्ष की हो जाती

उस दिन मेरे एक हाथ में रात
और एक हाथ में दिन होता

उस दिन मैं देर दिन तक हंसता
उस दिन मैं देर रात तक रोता

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