वन्दना शुक्ला का संस्मरण ‘आँखों में ठहरा हुआ वो मंज़र’



इतिहास की कुछ तारीखें ऐसी होती हैं जिनका नाम आते ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसी ही एक तारीख़ थी – 2 दिसम्बर 1984. 
यह तारीख़ न केवल भोपाल बल्कि पूरे देश के लिए एक गहरे जख्म की तरह है जो रह-रह कर आज भी रिसता रहता है। यूनियन कारबाईड कंपनी से रिसी मिथायलआईसोसायनाइड नामक गैस कई लोंगों के लिए मौत का मंजर ले कर सामने आयी वैसे तो साल 1984 भारत के लिए कई आपदाएँ ले कर आया। यही वह वर्ष था जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को चरमपंथियों से आज़ाद कराने के लिए आपरेशन ब्ल्यू स्टारहुआ और जिसकी कीमत देश को अपनी प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी की जान चुका कर अदा करनी पड़ी। 
लेखिका वन्दना शुक्ला का ताल्लुक त्रासदी के साक्षी इस भोपाल शहर से ही है और वे उस मंजर की साक्षी रही हैं। इस दिन मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं वन्दना शुक्ला का यह संस्मरण आँखों में ठहरा हुआ वो मंजर

      

आँखों में ठहरा हुआ वो मंज़र 
वन्दना शुक्ला

छूटे हुए शहर उन कहानियों की तरह होते हैं जिन्हें हमने लिखते लिखते अधूरा छोड़
दिया था। लेकिन वो कहानियां कभी मरती नहीं बल्कि समय की तलहटी में
स्मृतियों के शैवाल बन डूबती उतराती रहती हैं और वहीं अपना एक अलग संसार
बसा लेती हैं। उन कहानियों को अपने मौन से छूना किसी यातना से गुजरना भी
होता है।

हर दिल में एक शहर बसता है। उस शहर में अतीत की बस्तियां होती हैं, कच्चे प्रेम की मिसालें होती हैं, खुशियों के झरने और आधी अधूरी इच्छाओं के सूखे-हरियाले खेत होते हैं, स्मृतियों की हरहराती नदियाँ होती हैं। धडकनों के तागे से बुने हर दिल में बसे शहर की राग रंगत सुर्ख शफ्फाक ही नहीं होती। इनमें समय  के दाग धब्बे, और हालातों के ज़ख्म भी होते हैं। मीठी यादें दिल को गुदगुदाती हैं तो उदास कर देने वाली मुरझा देती हैं। न जाने कितने मंज़र, कितनी अनुभूतियाँ लिए एक अव्यक्त की चीख सा वो शहर हमारी आत्मा में ताजिन्दगी कौंधता रहता है। मेरे ज़ेहन में बसी स्मृतियों के इस शहर में अट्टालिकाएं हैं, चौड़ी चमचमाती सडकें, संग्रहालय, पहाड़ियां, तालाब, उनमें तैरती रंग-बिरंगी कश्तियाँ, कश्तियों में बैठे जवान सपनों से लबालब खिलखिलाते जोड़े हैं तो छीजतीं, खँडहर होतीं पौराणिक पत्थर की इमारतें हैं, मीनारें हैं, तंग गलियाँ हैं, मंदिर-मस्जिदें हैं, नमाज़ें हैं, गलियों से गुज़रती काले बुरखे में लिपटी महिलायें हैं, उन महिलाओं की आँखों में सपने हैं और उनके सपनों में ‘’कभी आज़ाद’’ होने की उम्मीदें हैं। अलावा इसके अजाने हैं, मंत्रोच्चार हैं, कविता है, मूर्तियाँ है,शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियां हैं तो लोक संगीत की सोंधी गंध और गजलों की बेहतरीन बंदिशें भी। राजा भोज की इस नगरी में ‘’भोजपाल’’ से लेकर ’’भोपाल’’ होने तक की दास्ताँन और स्मृति चिन्ह आज भी मौजूद है। इस शहर के इतिहास में दर्ज सल्तनतों, झीलों की बिंदास झिलमिलाहट और संस्कृति की झंकार में उतराते-डूबते पृष्ठ पलटते हुए अचानक उंगलियाँ ठिठक जाती हैं। वो एक मनहूस पन्ना, जिसकी पेशानी पर एक काला सा धब्बा है और जिसका मुड़ा हुआ कोना इसकी लाचारी को और उदास बना रहा है। न चाहते हुए भी मैं उसे खोलती हूँ और एक बार फिर थरथरा जाती हूँ। इस पन्ने के माथे पर कुछ हिलती हुई सी अस्पष्ट लिखावट में तारीख दर्ज है 2 दिसम्बर 1984.। मेरी स्मृतियाँ सहसा पीछे की और दौड़ने लगती हैं और एक ख़ास ‘’वक़्त’’ पर ठिठक जाती हैं जो वक़्त घड़ी की सुइयों में हौले हौले सरक रहा है। मैं गौर से देखती हूँ ये सुइयां न आगे जा रही हैं और न पीछे। एक जगह काँप रही हैं। ये ठहरा हुआ समय है रात के बारह बज कर बीस मिनिट। मुझे याद आता है पिछले बत्तीस बरस से ये काँटा यूँ ही काँप रहा है बस अपनी जगह पर। ज़र्द दिनों की इस मनहूस तारीख का ये वक़्त लोगों की आँखों में यहीं ठहरा हुआ है।
ये ठिठुराती ठंडों की आधी रात का वक़्त है। ज़ाहिर है तमाम शहर रजाइयों में दुबका गहरी नींद में डूबा हुआ। सर्दी की ठंडी काली गहरी रात। बहुतरूपिया मौत कभी काले अँधेरे ओढ़ कर भी आती है। गहरी नींद की छाती पर मौत का तांडव बहुत भयानक होता है। ये सिर्फ हम जैसे कुछ भाग्यशाली लोग कह सकते हैं जिन्हें वो छू कर निकल गयी। जिनको वो अपने साथ ले गयी वो अपने अहसास कहने के लिए इस धरती पर नहीं रहे।

पिछले दिनों हुई कानपुर रेल दुर्घटना की विभीषिका का मंज़र कुछ ऐसा ही रहा होगा जब रात के गहरे अँधेरे में बोगियों में सोये या ‘’कल’’ की सुनहरी योजनाओं को सोचते मौत की इस ‘साजिश’ से बेखबर यात्री अचानक जोर-जोर से हिलने लगे होंगे। जब तक वो इस गर्जना को सपना नहीं सच समझ पाते तब तक बोगियां एक दुसरे पर गिरने, टूटने और चीत्कारों से पट गईं। लोग लाशें बन कर एक दूसरे पर गिरने लगे। सन्नाटे…अँधेरे …रात और हाहाकार। इन रातों की सुबहें बड़ी मनहूस और दुखदायी होती हैं। ये सुबह भी ऐसी ही थी ..सिर्फ तबाही, रुदन और चीत्कार। उन बोगियों के ध्वस्त अवशेषों के नीचे दबे अधमरे लोगों की कराहें …. तमाशबीनों का सैलाब। जो लोग ऐसी विभीषिकाओं के चश्मदीद होते हैं उनकी आँखें ताजिन्दगी ये मंजर नहीं भूल पातीं।
आँखों में अटकी दो दिसंबर की वो काली रात …
चरम पर जाड़े की ये वही मनहूस रात थी जब हम चार लोग स्कूटर पर रात के एक बजे पता नहीं कहाँ पता नहीं किस दिशा की और भागे जा रहे थे। उनींदे…रुआंसे…भयभीत से। बस भाग रहे थे। क्यूँ कौन कहाँ कैसे कुछ होश नहीं। हमें निरंतर लग रहा था जैसे मौत हमारा पीछा कर रही है क्यूँ कि सांस घुटने की वजह तब तक नदारद थी और सड़क पर कम्बल रजाई ओढ़ कर भागते लोग सड़क पर ही गिर कर मर रहे थे। आधा भोपाल जैसे युद्ध क्षेत्र बन गया था। जिसके एक और मौत थी और दूसरी और निहत्थे, लाचार, कारण से अनभिग्य भोपाल वासी। ये शिकारी द्वारा शिकार पर पीठ पीछे किये गए हमले जैसा वीभत्स था।
स्कूटर दो एक बार सांसों के थमने पर गिरते-पड़ते ऐसे लोगों से टकराता हुआ बचा। लोग चीख रहे थे, रो रहे थे, रोते हुए भाग रहे थे। कुछ लोग नींद में उसी दिशा में पैदल भागे जा रहे थे जिस दिशा में यूनियन कार्बाईड में से रिसी  मिथायलआईसोसायनाइड  नामक मौत उनका इंतजार कर रही थी। निशातपुरा, जहांगीराबाद, बरखेडी, भोपाल टॉकीज आदि की सड़कें लाशों से पटने लगीं। सब जगह अफरातफरी। जब तक कारण पता पड़ा मौत के मुह में समा जाने वालों के लिए देर हो चुकी थी।
अगली सुबह भयावह थी। अस्पतालों में पैर रखने को जगह नहीं। पूरा भोपाल डर से सिहर रहा था, कई इलाकों में लोग बेतरह खांस रहे थे, फेंफडों में भरी विषैली हवा का उनके पास निरतर खांसने के अलावा फिलहाल कोई समाधान नहीं था। जहरीली गैस ने बचे हुए लोगों के शरीर को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया था। कुछ लोगों की आँखें गहरी लाल हो कर उभर सी आई थीं। कुछ लोग हड्डियों की बीमारी के कारण चलना भूल चुके थे। झुग्गी, कच्चे घरों के सामने घोड़े, बकरे, मुर्गे-मुर्गियां न जाने कितने गूंगे विवश मवेशी मरे हुए पड़े थे। चीलें, गिद्ध  आसमान में मंडराने लगे थे। दूसरे आसपास के कस्बों, शहरों से घासलेट मंगाया जा रहा था। लाशों के ढेर फूंकने के लिए केरोसीन कम पड गया था। शहर के आसपास के ‘’सुरक्षित’’ लोग आ कर व स्वयंसेवी संस्थाएं रात दिन घायलों की सेवा कर रहे थे। मौत इस कदर भयभीत कर चुकी थी कि लोग शहर से भाग रहे थे। सरकार ने अन्य महफूज़ ठिकानों पर जाने के लिए यात्रियों को ट्रेन की फ्री सुविधा दी थी। चार पाँच दिनों तक रह रह कर अफवाह उठती कि फिर से गैस लीक हो रही है और बस भगदड़ मच जाती। लोगों को जो वाहन जहाँ आता-जाता मिलता उस पर चढ़ जाते। सरकार को इन अफवाहों पर अंकुश लगाना मुश्किल हो रहा था। स्थिति इतनी नाज़ुक थी कि लोगों को विरोध, विद्रोह या आन्दोलनों का न होश था न वक़्त। ज़िंदगी कुछ पटरी पर आई तो लोग अपने उन घरों में वापस लौटे जिन्हें ज़ल्दबाजी में वो बिना ताला लगाए खुला छोड़ गए थे। उस दौरान काफी चोरिया भी हुईं।
जब हालात सम पर आने लगे तो आंदोलनों ने जोर पकड़ा। अमेरिका में बैठे यूनियन कार्बाईड के मालिक एंडरसन के पुतले जलाये जाने लगे। जान माल के नुकसान के लिए मुआवजे की मांगें हो रही थीं। अपने आबाद, गुलज़ार और खूबसूरत शहर को यूँ जलते हुए देखना कितना भयावह और दर्दनाक था ये उन प्रत्यक्षदर्शियों के सिवा कोई नहीं जान सकता। 


सरकारें किसी व्यक्ति की चेतावनी को किस कदर नज़र अंदाज़ करती हैं। वे नहीं जानतीं कि उनका ये ignorance  शहर की कितनी जानों को लील जाएगा इस सत्य की ये औद्योगिक त्रासदी सबसे जीती जागती मिसाल है। गौरतलब है कि भोपाल के पत्रकार श्री राजकुमार केसवानी ने राष्ट्रीय अखबारों तक में कार्बाईड की इस जहरीली गैस के दुष्परिणामों के लिए पहले ही सरकार को कई बार चेताया भी था ‘’अब भी सुधर जाओ वरना मिट जाओगे’’ उन्होंने अफ़सोस और दुःख में लिखा था ये खबर इस भयावह त्रासदी से डेढ़ महीने पहले अक्टूबर में लिखी गयी थी। भोपाल गैस त्रासदी के करीब 32 साल बाद मध्य प्रदेश सरकार ने रविवार को घोषणा की कि वह दुनिया के सब से भयावह औद्योगिक त्रासदियों में शामिल इस त्रासदी के लिए स्मारक बनवाएगी।

बहरहाल, सवाल आज भी वहीं का वहीं है कि हमारी सरकारें दुर्घटना होने पर मुआवजा देने के लिए जो तत्परता दिखाती हैं उसे पहले रोकने की कोशिश क्यूँ नहीं होती? दूसरे,  अविकसित और विकासशील देशों को अपनी चारागाह समझने वाली कंपनियों को यहाँ पनाह क्यूँ दी जाती है

उन सभी बेकसूर नागरिकों को श्रद्धांजलि जिन्होंने किसी और की गलती का खामियाजा अपनी जान गंवा कर भरा

 

वन्दना शुक्ला

ई-मेल : shuklavandana46@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त तस्वीरें गूगल से साभार ली गयी हैं.)

वन्दना शुक्ला की कहानी ‘माँ’

वन्दना शुक्ला

इंसानी रिश्ते भी अजीब होते हैं। वे कब कहाँ किस के साथ जुड़ जाएँ कहा नहीं जा सकता। ‘माँ’ इन रिश्तों की पड़ताल करती एक बेजोड़ कहानी है। एक माँ जो अपने से बिछड़ गए बेटे को खोजने के लिए बावली रहती है और तरह-तरह के जतन करती है। आखिर कार उसे तेरह वर्षों के पश्चात अपना बेटा मिल जाता है। वह अपने बेटे को ले कर अपने गाँव आ जाती है। लेकिन बेटा एक पल भी वहाँ रुकने को तैयार नहीं होता और फिर वहीँ वापस जाने के लिए कहता है, जहाँ के लिए अरसा पहले उसके पिता ने एक दलाल के जरिये उसे बेच दिया था। कहानी में चीन की बहुचर्चित ‘एक संतान योजना’ की विसंगतियों और उसके कारण पैदा हुए भ्रष्टाचार और दुश्वारियों पर भी प्रहार करती चलती है। कहानी की प्रवहमानता हमें अन्त तक कहानी से जोड़े रखती है। तो आइए पढ़ते हैं वन्दना शुक्ला की कहानी ‘माँ’।            
माँ
वन्दना शुक्ला
पूर्वी चीन के च्यांगसू प्रान्त में स्थित चाओ च्वांग गाँव जो एतिहासिक सूचओ शहर से सिर्फ 35 किलो मीटर के फांसले पर है, के चौराहे पर एक करीब चालीस साला औरत बदन पर चीथड़े लपेटे एक इश्तिहार लेकर खड़ी थी जिसकी इबारत कपडे पर लिखी हुई थी औरत का चेहरा पत्थर की तरह जड़ था लेकिन औरत गूंगी नहीं थी गुहार कुछ इस तरह थी…..
‘’कोई अज़ीज़ हम  से अचानक बिछुड़ जाए तो हमारी ज़िंदगी नर्क बन जाती हैहम जीने मरने का मतलब भूल जाते हैं मैं मौजूदा वक़्त में उसी दौर से गुज़र रही हूँ ये चित्र मेरे बेटे वांग का है..इसे चार बरस की उम्र में बेच दिया गया था ये अब चौदह बरस का हैशरीफ और दयालु इंसानों, यदि किसी को उसके बारे में कोई जानकारी हो तो कृपया बताएं‘’
त्येन शान झील की और से आती ठंडी हवाएं औरत के उदास चेहरे को सहला रही थींउसके मलीन और गोरे माथे पर बाल बिखरे बल्कि छितरे हुए थेवो हर आने जाने वाले को उम्मीद से देख रही थीजिस जगह वो खड़ी थी वहां धूप की तपन बढ़ने लगी थी अतः छांह के लिए पास के बस स्टॉप पर इश्तहार लेकर खडी हो गयीदो पुलिसकर्मी वहां से गुज़रे उन्होंने उस इश्तिहार को पढ़ा, पढ़ कर हँसे बिलकुल वैसी हंसी जैसी सरकार के ‘’एक संतान क़ानून‘’ के बाद रोते चेहरों को देखकर उन्हें अक्सर आ जाती थीउन्होंने औरत से वहां से चले जाने को कहा और एक भद्दी सी गाली भी दी बिलकुल वैसे जैसे सरकारी कर्मचारी अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से निभाने के भ्रम में देते थेऔरत जगह बदल कर दूसरी जगह खडी हो गयी पुलिस वालों ने वहां से भी उसे भगा दियाहार कर वो निकट के एक पार्क में चली गयी जहाँ औरतें, आदमी, बच्चे अपनी खुशियों और सपनों के साथ आनंद में मशगूल थेऔरत ने अपने कंधे पर लटका कपडे का वो मैला सा झोला जिसमे ब्रेड और मछली के दो भुने हुए टुकड़े थे उतार कर पास में पडी लकड़ी की हरी पुती बेंच पर रख दिया और उस इश्तिहार को अपने हाथों में झंडे की तरह थामे खड़ी हो गयीकुछ लोग अनदेखा कर निकल गए कुछ लोग उसकी दुर्दशा पर हँसेकिसी ने उसे बटुए से निकाल कर कुछ फेंस दिए उसने सिर हिला कर इनकार कर दियाधूप बढ़ रही थीपार्क की रौनक घट रही थी‘’आज का दिन भी गया’’…उसने सोचाउसे भूख लगने लगी थी लेकिन उससे पहले औरत को कचरा बीनने भी जाना है जिसे घर जाते वक़्त वो कबाड़ी को देती जायेगी बदले में उसे कुछ युआन मिलेंगे जिससे वो अपने लिए कुछ खाने की सामग्री खरीदेगी अभी वो योजना बना ही रही थी कि तभी एक भारी बदन की बूढ़ी औरत जिसने घुटनों तक ढीली ढाली फ्रोक और किरमिच के जूते पहने हुए थे छोटे सफ़ेद सन जैसे बाल, चौड़ा चेहरा, सूजी सी छोटी ऑंखें ऊपर से एक बड़ा स्कार्फ अपने कन्धों पर डाल रखा था, पार्क में आई वो बुरी तरह थकी दिख रही थीबूढ़ी, उसी इश्तिहार वाली औरत के सामने की बेंच पर बैठ गयीउसने अपने काले रंग के बैग जिस पर लाल डायनोसोरस का चित्र बना था मे से एक पानी की बोतल निकाली और पानी पीयाबोतल का ढक्कन बंद करके उसने वापिस बैग में रख लियावो अब भी हांफ रही थीबूढ़ी ने चश्मे को ठीक किया उसके ढीले फ्रेम को दाहिने हाथ की उँगलियों से एहतियात से पकड़ा और औरत के हाथ में थमे इश्तिहार को गौर से पढने लगी
ओह दुखद ..उसने एक लम्बी सास खींच कर कहातुम्हारे दुःख को मैं समझ सकती हूँ मोहतरमा  .. यहाँ इस देश में यही हमारी नियति है
लेकिन मैं ये कह कर खुद को नहीं बहला सकती …कैसे भुला दूं अपने उस इकलौते बेटे को जो मेरे सपनों से गढ़ा थापेट में उसकी हलचल से ले कर जिसकी हर मुस्कान, इच्छा, अदा और जिद्द का मेरी हर सांस पर हक था ग्यारह बरस से लापता है .. नहीं भूल सकती मैं उसे
बूढ़ी औरत कुछ देर मौन रही
ठीक कहती हो …दुःख दुःख होता हैहरेक को अपना दुःख पृथ्वी से भारी लगता है…..मेरा नाम जुआन हैकुछ खाओगी? बूढ़ी ने कुछ रुक कर कहा
औरत ने नज़रें झुका लीं जो पानी से भरी हुई थीं
 
लो ..अभी खरीदा है दस युआन का …घर ही जा रही थी…थोडा खाओ…बूढ़ी ने उस रेशमी झोले से वुफ्फा निकला और उसे खाने को दिया 
औरत ने वो कपडे का इश्तिहार बेंच से टिका कर रख दिया और बूढ़ी के हाथ से मिठाई का पेकेट ले लिया
इंसान के पास जब आसपास की समस्त परिस्थितियां उससे नकारात्मक हो जाती हैं और उसे सिर्फ और सिर्फ मौत दिखाई देती है तब जानती हो क्या काम आता है?
औरत ने वुफ्फा खाते हुए उसकी तरफ देखा
 
उसकी आत्मा की आवाज और उसकी निर्भयता…मोहतरमा, फिर भी तुम मुझ जैसी बदनसीब नहीं? बूढ़ी ने बुझी मुस्कराहट से कहा  
औरत ने बूढ़ी की तरफ फिर देखा
 
क्यूँ कि तुम एक आशा लिए जी रही हो इस इश्तिहार के रूप में ,मेरे पास तो वो भी नहीं मैं भी तुम जैसी ही हूँ सिर्फ मेरे दुःख का रंग अलग हैमेरे पति एक इमानदार और सह्रदय इंसान थे पेशे से डॉक्टर और मैं गृहणी‘’सिर्फ एक संतान‘’ के सरकारी फरमान के मुताबिक़ हमारा एक बेटा था बहुत ख़ूबसूरत चंचल और होनहारसंयोगवश मैंने दुबारा गर्भधारण कर लिया और वो गैरकानूनी संतान एक बेटी की शक्ल में मेरे गर्भ में पलने लगी जिसे मैं और मेरे पति चाह कर भी ख़त्म नहीं कर पाएजैसे-जैसे गर्भ में वो बढ़ रही थी हमारा प्रेम उससे बढ़ता जा रहा था लेकिन उससे भी ज्यादा खौफ बढ़ रहा था जो अबोध गर्भस्थ बच्ची नहीं जानती थी वो जीने की आस लिए मेरी कोख में पलती रही सरकार के कड़े नियम हम जानते थेअवैध दूसरी संतान की हमारी सज़ा से अपने तीन वर्षीय बेटे को हम परेशानी में नहीं डालना चाहते थे अतः मैंने और मेरे पति ने पुलिस के भय से उस नव शिशु को पैदा होते ही इन्हीं हाथों से मार डाला थाबदकिस्मती से कुछ वर्षों बाद वो इकलौता बेटा भी किसी रहस्यमयी बीमारी से मर गयाऔर हम दुनिया के सबसे अधिक जनसंख्या के अभिशाप को भोगते इस मुल्क के लाखों अकेले और बेसहारा बूढों की कतार में खड़े हो गएमोहतरमा …तुम अभी जवान हो और अपने इस मैले कुचैलेपन के भीतर शायद ख़ूबसूरत भीतुम नहीं जानती होगी कि यहाँ अब बूढा होना भी अभिशाप है? लेकिन मांगे से न मौत मिलती ना ज़िंदगी इस लिहाज से मेरे पति भाग्यशाली रहे वो इस दुःख का बोझ सहन नहीं कर पाए और उन्होंने  हमेशा के लिए आँखें मूंद लीं शायद यही उनका इस निष्ठुर व्यवस्था के प्रति प्रतिशोध था इस मुल्क के करोड़ों बच्चे जिनकी साँसों को उनके माँ बापों के भय हरा चुके हैं, जिनके पैदा होने से पहले ही इस क्रूर सरकार के आदेश कोख में ही उन्हें ख़त्म करने के हैंउन अज़न्मे शिशुओं की आत्मा हमारी ये दुर्दशा देख कर ज़रूर कहीं न कहीं तडपती होगी जैसे हमारी आत्मा उन बेक़सूर मासूमों की हत्या करते हुई तडपी थी खैर…
लेकिन सरकार को कुछ धन देकर आप अपनी संतान को ज़िंदा भी तो रख सकती थीं जैसा कि इस देश का नियम है? औरत ने कहा 
हाँ … लेकिन उतना धन नहीं था हमारे पास रईस लोग चार चार संतानें पैदा करके करोड़ों का जुर्माना भर के बेख़ौफ़ रह रहे हैं…..काश ,ईश्वर ने सिर्फ अमीर औरतों को ही माँ का ह्रदय दिया होतासुनो औरत, तुम्हारे आंसू अभी सूखे नहीं हैं..इन्हें संभाल कर रखो मित्र ..आंसूरहित आँखें बहुत डरावनी लगती हैं..बूढ़ी की फीकी और झुर्रीदार आँखों में एक अगाध पीड़ा थी
औरत ने अपने स्कार्फ से ऑंखें पोंछीं
हाँ अब बताओ अपनी कहानी बूढ़ी ने अपनी छडी बेंच के सहारे टिकाते हुए कहा
औरत ने अपनी व्यथा यूँ शुरू की 
मेरा नाम जिन्जियु हैमैं तब च्यांगसू प्रांत के शानहाई शहर में रहती थी अपने पति और बेटे वांग के साथखुशहाल था हमारा परिवारमेरे पति चेंग, चंग च्वांग में एक होटल मालिक थे वो रोज़ शानहाई शहर से यहाँ आते थे शराब और खाने पीने के बेहद शौक़ीन एक बिंदास पर कुछ रहस्यमयी इंसान हमारी शादी हमारे घरवालों द्वारा धूमधाम से की गयी थी हम दौनों एक दूसरे से बेइंतिहा प्रेम करते थेहमारी गिनती शहर के छोटे मोटे रईसों व् रसूखदार नागरिकों में होती थीमैं वहीं शान्शाई शहर में एक बेकरी की मालकिन थी एक सुखी दंपत्ति होते हुए भी बच्चे के मसले पर हम दौनों में मतभेद थामेरे पति को लडकी पसंद थी और मुझे लड़कामेरी पसंद यहाँ के बहुत व्यवहारिक रिवाजों व् संवैधानिक नियमों पर आधारित थीबच्चा कानूनन एक ही होना था जिसका एक सत्य ये भी था कि लडकी शादी के बाद चली जायेंगी लेकिन लड़कों को कानूनी नियम के अनुसार भी माता पिता की देखभाल करनी पड़ेगीमैं अपने आसपास हजारों बूढ़े अशक्त और अकेले दम्पत्तियों की दुर्दशा देख चुकी थीभाग्य से मेरे लड़का पैदा हुआमुझमे और मेरे पति में यहीं से दरार शुरू हुईहम दौनों में वैचारिक मतभेद ज़रूर थे लेकिन हम किसी भी कीमत पर अलग होना नहीं चाहते थेमेरे पति ने मुझ पर बेटे को किसी ज़रूरतमंद जोड़े को देश या विदेश में गोद देने का प्रस्ताव रखा जिसे मैंने खारिज कर दियाहम दौनों में अब बेटे को लेकर बेहद तनाव रहने लगामैं नहीं समझ पा रही थी कि आखिर अपने ही वो भी इकलौते बच्चे को कोई बाप किसी को गोद देने के बारे में सोच भी कैसे सकता है? लेकिन जब तनाव के दुष्परिणाम बढ़कर गली मुहल्ले तक फैलने लगे और उसका असर मेरे व्यवसाय और बेटे पर पड़ने लगा तो अंततः मैंने उन्हें इसकी अनुमति दे दी इस शर्त पर कि बेटा हमारे पास के किसी शहर में गोद दिया जाएगा और उसके मिलने के लिए हम चाहे जब जा सकेंगे लेकिन एक दिन मेरे पति ने मुझे बताये बिना बेटे को पैसे के लालच में कहीं बेच दिया वो अपना कारोबार बढ़ाना चाहते थे मुझसे कहा कि अब हम स्वतंत्र हैं दूसरा बच्चा पैदा करने के लिए तब मुझे पति की नियत का पता चला और मैं दुःख के गहरे सागर में डूब गयीमैं बच्चे के मालिक का पता ठिकाना बताने के लिए उनसे बहुत गिडगिड़ाई लेकिन उन्होंने नहीं बताया अब वो और भी ऐयाश और क्रूर हो गए मैंने उसी वक़्त अपना घर छोड़ दिया और अपने बेटे को ढूँढने निकल पडी तब से दर दर भटक रही हूँ बारह वर्ष हो गए मुझे उसे ढूंढते हुएअपना सब खो चुकी हूँ घर, रिश्ते, नौकरी, परिवार, मित्र सब  
तुमने पुलिस कार्यवाही नहीं की? बूढ़ी ने पूछा
  
बहुत की लेकिन पुलिस ने कहा यहाँ बच्चों के इतने अपहरण होते हैं कि उनको खोजने के लिए ही फुर्सत नहीं है फिर इसे तो अपहरण भी नहीं माना जा सकता खुद तुम्हारे पति ने ही अपने बेटे को बेचा है …लेकिन एक दयालु अफसर ने मेरी रिपोर्ट लिख ली और कार्यवाही करने का आश्वासन दिया है लेकिन उसको भी दो बरस हो गए और उस अफसर का तबादला भी  फंगह्वांग कसबे में हो गया
लेकिन तुम्हे लगता है कि इतने बड़े देश में जहाँ हर रोज़ हज़ारों बच्चे लापता हो रहे हैं उसे कहाँ बेचा गया होगा पता लगाना आसान है तब जब कि पुलिस फ़ाइल में भी तुम्हारी इस गुहार को अब तक एक ‘’क्लोज्ड चेप्टर’’ मान लिया गया होगा?
जानती हूँ …लेकिन जब तक जिंदा हूँ मैं अपने बेटे को खोजना जारी रखूंगी
शुभकामनाएं ..अब चलती हूँ बूढ़ी औरत अपने घुटनों पर हाथ रख उठ खडी हुई
‘’मेरा मकान यहाँ से दूसरी ही गली में है मेरा नाम लेकर पूछ सकती हो …नाम याद है न! ..जुआन …मैं भी यहाँ अकेली रहतीं हूँ ..खुदा हाफ़िज़ ..और बूढ़ी घसीटती हुई सी चली गयी
औरत जिनजीयु वहां से उठी और अपने घर की और चल दी ..अब उसे कुछ दूर चलने में हांफनी भरती है, कभी-कभी मुँह से खून के कुछ कतरे भी निकलते हैंउस दिन दिखाया था गरीबों के लिए बने खैराती अस्पताल में डॉक्टर ने एक्स रे करवाने को कहा था लेकिन यदि वहां जाती तो एक दिन चूक जाता क्या पता ये वही दिन होता जब उसके बच्चे का पता ठिकाना मिलने वाला था?
इन्ही में से एक दिन जब वो भरी दोपहरी में उस दूकान के आगे इश्तिहार ले कर भूख प्यास से बेहाल खडी थी, उसे सामने के चौराहे पर वही पुलिस अफसर दिखाई दिया जिसने दस बरस पहले उसके बेटे की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखी थीवो बाईक रोक कर खड़ा था, देह पर कुछ चर्बी उतर आई थी और चेहरा पहले से ज्यादा परिपक्व दिखने लगा थाउसने पुलिस की वर्दी पहनी हुई थी और आँखों पर धूप का चश्मा चढ़ा थापहले वो सुन्न सी उसे देखती रही फिर रास्ते से गुजरती गाड़ियों लोगों को पार करती हुई भाग कर उस पुलिस अफसर के पास पहुँची लेकिन वो अब वहां नहीं थाउसने चारों और देखा कुछ लोगों से पूछा किसी ने बताया कि वो रास्ता ‘साफ़’ होते ही चला गया हैजिनजीयु के आंसू आ गए उस दिन वो और खडी न रह सकी वहां और घर चली आईभूख और थकान से बेहाल उसने चीनी मिट्टी के उस प्याले से कुछ योहान निकाले सोचा एक ब्रेड खरीद लाये लेकिन थकान भूख पर हावी हो गयी और वो लस्त होकर वहीं लुडक गयीसो कर उठी तो शाम का धुंधलका था … वो एक बार फिर उसी चौराहे की तरफ गयी जहाँ उसे वो पुलिस अफसर मिला था लेकिन अब वहां वो नहीं था जिन वापस लौट आई
एक बार उसका मन हुआ कि शहर जा कर फिर से रिपोर्ट लिखवाये लेकिन जाने का पूरा किराया भी तो नहीं था और फिर वहां भी पुलिस वाले रिश्वत लिए बिना कोई काम कहाँ करते हैं? मन में ये भी आया कि वो अपने पति से साधिकार पैसे मांगे आखिर उनका तलाक भी तो नहीं हुआ है?’ लेकिन जिन को याद आया कि अब उसका पति किसी दूसरी औरत के साथ रहता होगा बल्कि तीसरी या चौथी वो जानती है उसके साथ कैसा सलूक किया जाएगा ..अब वो उसकी पत्नी जिन नहीं बल्कि दर दर भटक चुकी एक भिखारिन हैउसने अपना इरादा बदल दिया
उस दिन रोज़ की तरह जब जिन इश्तिहार ले कर अपने उस गंदे मुहल्ले जहाँ सूअर व् मुर्गे मुर्गियां गली में भागते फिरते थे और बेहद गरीब, मैले कुचैले और आवारा लोग लड़ते या फब्तियां कसते दिखाई देते थे छोटे कपडे पहने लडकियां अश्लील रूप से हंसती और लड़कों को फंसाती गली के नुक्कड़ या गलियों में घूमती फिरती थीं उस नर्क को पार कर जब वो मुख्य सडक तक आई तब वो सडक वाहनों व् लोगों से भरी हुई थीजिन उसके खाली होने की प्रतीक्षा करने लगी और उसने इश्तिहार के दौनों बांसों को अपनी हथेलियों में कस कर पकड रखा थातभी उसके पास एक बाईक आकर रुकी उसकी आँखों के सामने जैसे अँधेरा छा गयावो वही दयालु पुलिस अफसर वांग लिजुन था
 
सर …उसने आवाज़ दी लेकिन वाहनों के शोर में अफसर को सुनाई नहीं दिया ‘’सर’’ जिन ने कुछ पास में जाकर आवाज़ दी
अफसर ने चौंक कर देखा 
सर, आप पहचाने मुझे? आपने मेरे बेटे के गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखी थी बारह बरस पहले
 
अफसर ने अपना चश्मा निकाला और ध्यान से देखने लगा
हाँ तो? उसने रुखाई से कहा
सर, अब तक नहीं मिला है बेटा…
लेकिन अब क्या हो सकता है इतने बरस बाद, अब तो वो फ़ाइल भी बंद हो चुकी होगी?
सर प्लीज़ कोशिश कीजिये …उसे खोजने में मैं बर्बाद हो चुकी हूँ ..यकीन कीजिये मेरा
नहीं अब कुछ नहीं हो सकता ..तुम वही हो न जिसके पति ने बेच दिया था अपने बेटे को?
हाँ सर, बिलकुल सही पहचाना ..मैं वही बदनसीब हूँ 
ठीक है कल पुलिस चौकी आना देखते हैं कहकर वो चला गया
 
उस दिन औरत ने अपने में कई परिवर्तन महसूस कियेउसने खुद को छू कर देखा कि जीवन के चिन्ह वाकई बचे हैं अब तक या नहींउसने आधे टूटे आईने में अपनी शक्ल देखी बरसों बाद …क्या ये वही औरत है जो एक बेकरी कोर्नर की बेहद फुर्तीली और खुशमिजाज़ मालकिन हुआ करती थी कभी? अपने गोल मटोल बेटे को बच्चा-गाड़ी में बिठा कर पार्क में घुमाने ले जाती थी , उसके थोडा बड़ा होने पर उसके साथ पार्क में दौड़ती थी, उसे कंधे पर बिठा पार्क में बने उस विशाल मिकी माउस के कद के बराबर होने पर बेटे की खुशी को अपनी रगों में भरना चाहती थी? क्या ये वही औरत है जिसने दुनियां में सबसे प्यारे बेटे से अपने पति को दुनियां में सबसे ज्यादा नफरत करते देखा था और जिसके कारण  वो और उसका बेटा दो एक बार पिटे भी थे?
दूसरे दिन उसने स्नान किया धुले कपडे पहने बालों का जूडा बनाया और बिना इश्तिहार लिए अपने पर्स में कुछ फेंस डाल वो पैदल पुलिस स्टेशन पहुँची जो काफी दूर था लेकिन वो धन खर्च करना नहीं चाहती थी
‘’सर हैं क्या? उसने बाहर खड़े सिपाही से पूछा
नाम बताओ ..
नाम नहीं पता लेकिन शक्ल से पहचान सकती हूँ 
अंदर देख लो ..सिपाही ने कहा
 
जिन अन्दर गयीसामने एक कमरा था जिस पर पर्दा पड़ा था और उसके बाहर पुलिस प्रमुख वांग लिजुग कीनेमप्लेट लगी थीउसने परदे की संध से झांक कर देखा वही अफसर बैठा किसी को फोन कर रहा थाजिन ने पर्दा थोडा खिसका कर उसका अभिवादन कियाअफसर ने इशारे से उसे भीतर आने को कहावो कमरे के अन्दर जाकर खडी हो गयी सकुचाई सी
बैठो …अफसर ने इशारे से कहा ..वो अब भी फोन कर रहा था
  
जिन बैठ गयी और आसपास की दीवारों मेज़ आदि की और देखने लगीउसने अपनी तरफ की बांयी दीवार पर देखा जहाँ करींब पचास साठ बच्चों की तस्वीरें थीं जिनके ऊपर लिखा था गुमशुदा बच्चे ..उसका दिल कांप गयावो आँखें गड़ा कर अपने बच्चे वांग को उनमे ढूँढने लगीलेकिन वो गुमशुदा कहाँ है? उसे तो बेचा गया है उस हैवान द्वारा जो उसका पति था .उसने वहां से नज़रें फेर लीं
 
हाँ …तो तुम्हारा बेटा अभी तक नहीं मिला
जी …उसका अभी तक कोई पता नहीं चला
पति से क्यूँ नहीं पूछतीं उसी ने तो बेचा है न? पुलिस अफसर ने कहा
अब कहाँ है मेरा पति मैं नहीं जानतीशुरू में पूछा था तो उसने कहा था कि उसने बच्चा किसी दलाल को बेचा था और अब दलाल कहीं जा चुका है
 
अफसर ने किसी कारिंदे से कह कर करीब बारह वर्ष पुरानी फ़ाइल निकलवाई जो ‘’अनिर्णीत प्रकरणों‘’ के रैक में जा चुकी थीअफसर ने उस फ़ाइल को खोला जिसके पन्ने आपस में चिपक से गए थेउसमे तीन बरस के वांग का गोल मटोल हँसता हुआ ज़र्ज़र हो चुका चित्र निकाला और फिर पीले पन्नों पर लिखी कुछ इबारतएक पारिवारिक तस्वीर जिन के पति चेंग, जिन और वांग की भी थी
ठीक है ..मेरा ट्रांसफर अब फिर इसी कसबे में हो गया है देखते हैं अफसर ने कहा अपना फोन नंबर दो मुझे
मेरे पास फोन नहीं हैं, लेकिन पास की उस बेकरी का फोन नंबर है जहाँ मैं अक्सर ब्रेड खरीदने जाती हूँ..ये लीजिये वहां का नंबर
 
उस दिन से जिन ने इश्तिहार को लपेट कर तांड पर रख दिया अब उसका ज़िंदगी में यकीन बढ़ रहा था हताशा धीरे धीरे घट रही थीएक नई स्फूर्ति और जिजीविषा से वो पुनः अपनी उर्जा प्राप्त कर रही थीजिन ने अपने प्रयासों से उसी बेकरी में नौकरी प्राप्त कर ली थी जहाँ वो रोज़ अपने लिए ब्रेड या बत्तख के अंडे खरीदने जाया करती थीएक माह बीत गयाबेकरी का मालिक बूढा और दयालु आदमी थाजिन रोज़ सुबह वहां जाती और पुलिस अफसर के फोन का इंतज़ार करती
  
एक दिन अफसर का फोन आ गया 
तुम्हारे बेटे का पता चल गया है ..वो यी फुजहाऊ शहर में हैं
जिन को लगा जैसे उसकी साँसें थम रही हैं शब्द खो गए हैं …। 
दो बजे तक यहाँ चौकी में आ जाओ अफसर ने कहा और फोन बंद हो गयाजिन की खुशी का ठिकाना नहीं थाउसने बेकरी के मालिक से कहा कि अब वो बेकरी छोड़ देगी और अपने पुराने घर सूचाओ शहर में वापस चली जायेगी …अब उसमे दुगुनी ताकत आ गयी है और अपने उस पुश्तैनी घर को अपने पति के चंगुल से छुड़ाकर रहेगी
क्यूँ ..क्या बेटे का पता चल गया ?बेकरी मालिक ने कहा
हाँ …
तुम खुशनसीब हो जिन नहीं तो यहाँ बरसों से पुलिस रिपोर्ट्स पडी हैं बच्चे नहीं मिलते या दूसरे देशों में भेज दिए जाते हैं उनकी तस्करी की जाती है
फिर वहां क्या करोगी? बूढ़े ने पूछा
 
सूचओ शहर में मेरी अपनी बेकरी है जो बंद पडी है लेकिन मेरा रिश्ते का भाई उसकी देखरेख कर रहा हैअब वही शुरू करूंगी ..अब तो बेटा भी सोलह बरस का हो गया है मेरा हाथ बटायेगा ..उसके चेहरे पर एक नया गर्व था
बेशक …बेकरी मालिक ने कहा ..तुम अद्भुत माँ हो …तुमने अपनी ज़िंदगी के तेरह बरस इस दरिद्री और गंदे माहौल में बिता दिए और आखिरकार अपने बेटे को  पा लिया ..लो ..ये तुम्हारी पगार …बेकरी मालिक ने कहा 
शुक्रिया और अलविदा  ..जिन ने कहा और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया ..आपको कभी नहीं भूल पाउंगी आपने मुश्किल वक़्त में मेरा साथ दिया
शुभकामनायें ..बेकरी मालिक ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा
वहां से जिन सीधी उस पुलिस अफसरके पास गयी जिसने उसे एक रेस्तरां में बुलाया थाअब वो दौनों वहां कोफी पी रहे थे
‘’मुबारक हो जिन तुम्हारा बेटा मिल गया
 
आपकी मेहरबानी से सर …किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूँलेकिन अब मैं अपने बेटे से कब मिल सकती हूँ? मैं बेहद उत्साहित हूँ श्रीमान … । ईश्वर पर मेरा भरोसा बढ़ गया है और इस देश में आप जैसे दयालु लोग भी हैं ये राहत मिली है ..जिन मुस्कुरा रही थी 
आप सिर्फ मिलेंगी नहीं बल्कि अपने बेटे को लेकर भी जा सकती हैं अपने साथ …क्यूँ की जिसने उसे खरीदा था उन वृद्ध की मौत हो चुकी है और बाकी घरवालों के पास उससे सम्बंधित ज़रूरी कागज़ात नहीं हैंआपकी वो तस्वीर जो आपने ऍफ़ आई आर के वक़्त दी थी वो एक पुख्ता सबूत है पुलिस के पास
 
शुक्रिया ..जिन की खुशी मानों दिल में से फूट कर बाहर निकलना चाहती थी
मुझे दुःख है कि मैं आपको इसका मूल्य नहीं दे पाउंगी लेकिन मेरा यकीन कीजिये कुछ दिनों बाद जब मैं अपनी बेकरी का काम दुबारा शुरू कर दूंगी तब आपको आपकी पूरी फीस लौटा दूंगी 
जिन ….मैं यकीन नहीं कर पा रहा हूँ कि तुम वही औरत हो मैली कुचैली कचरे का झोला कंधे पर डाले जो उस दिन भरे बाज़ार में मुझसे बातें कर रही थीआज तुम अपने वास्तविक रूप में हो और सुन्दर लग रही हो ..और अफसर ने जिन का हाथ चूम लिया
शुक्रिया …जिन ने हिचकते हुए ज़वाब दिया
चलो अब चलते हैंआओ मेरे साथ ..अफसर ने कहावो उसके कहेनुसार उसकी बाईक पर बैठ गयीअफसर उसे गलियों से होते हुए एक मकान के सामने ले गया जो बंद था
भीतर आओ उसने जिन से कहा 
लेकिन ….हमें तो फुन्ग्फाऊ शहर जाना था ना 
हाँ जाना था लेकिन खुशी सेलीब्रेट नहीं करोगी?
जिन इस वक़्त जीवन में सबसे अधिक विवशता महसूस कर रही थीपिछले तेरह वर्षों में उस बदनाम बस्ती में उसने अपनी देह को कैसे कैसे महफूज़ रखा था वही जानती है, लेकिन अब …वो उसके पीछे पीछे आ गयी
अफसर ने उसे बैठने को कहा और शराब का गिलास और कुछ नमकीन क्रेब खाने को दिए
शराब मुझे पसंद नहीं सर 
सुहागरात पर तो पी ही होगी न ..वो तो रस्म ही है यहाँ 
हां लेकिन
पियो पियो ….ये जश्न का मौक़ा है खुलकर जश्न मनायेगे हम
और फिर जिन का निर्बल शरीर ही नहीं आत्मा तक लहूलुहान हो चुकी थी
 
चलो अब चलते हैं तुम्हारे बेटे से मिलने अफसर ने कहावो दौनों फुंगफाऊ शहर गएवो एक आलीशान कोठी थी और उस घर में रहने वाले चार लोग थे जो बहुत सभ्य और मितभाषी थेउन्होंने जिन और पुलिस अफसर का स्वागत कियावो पहले से जानते थे कि वेंग की असल माँ उसे लेने आने वाली हैं और उन्होंने वेंग को भेजने की तैयारी कर रखी थी
जब वेंग सामने आ कर खड़ा हुआ बाप की तरह लम्बा चौड़ा और माँ जिन की तरह खूबसूरत तो पुलिस अफसर और खुद जिन उसे देखती रह गयीजिन को अपने कपडे और शरीर बेटे के सामने बहुत मैले कुचैले लग रहे थे। 
‘’ये तुम्हारी माँ हैं ..तुम्हे इसके साथ जाना है उस घर के एक बुजुर्ग सदस्य ने कहा और लड़का वेंग कुछ औपचारिकता के बाद जिन के साथ चवंग च्वांग गाँव में आ गयापुलिस अफसर उन दौनों माँ बेटे को जिन के घर तक छोड़ कर चला गया
जिन वास्तव में ये विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कि सामने ये जो लम्बा चौड़ा युवक खड़ा है ये उसका वहीं बेटा है जिसको पीठ पर बैठा वो घूमती रहती थी
वेंग बैठो …जिन ने एकमात्र पुरानी कुरसी की और इशारा करते हुए कहावेंग ने एक बार अपने कपड़ों और फिर कुर्सी को देखावो अनमना सा उस पर बैठ गया और कमरे में चारों और देखने लगा.खिड़की पर जूट का पर्दा, मैली कुचैली दीवारें और बिस्तर ..एक छोटा चूल्हा और चीनी मिट्टी और एल्युमीनियम के कुछ बर्तन 
जिन कपडे से मेज़ साफ़ कर रही थी जिस पर वो बेटे के खाने का इंतज़ाम करने वाली थीअभी वो वेंग के ‘’उस‘’ घर की आलीशान डाइनिंग टेबल देख कर आई थी
बहुत स्वादिस्ट सूप लाइ हूँ तुम्हारे लिए, भोजन से पहले पियोगे?
नहीं अभी मन नहीं …वेंग ने धीरे से कहा
 
मैंने तुम्हारे लिए एग का कोरमा बनाया हैतुम्हे याद होगा वो तुम्हे बेहद पसंद था …जिन ने चेरी को पेकेट से निकालकर प्लेट में रखते हुए कहा
कुछ ख़ास याद नहीं …वेंग ने निर्भाव कहा। 
  
हां बहुत दिन हो गए नतेरह बरस कम नहीं होते बेटालेकिन अब हम साथ रहेगेअब हम सूचाओ शहर के अपने उस पुराने घर में चलेंगे और वहां सुखपूर्वक अपनी ज़िंदगी गुजारेंगेअब मुझे किसी चीज़ का न भय है न अभावतुम्हे हल्की ही सही याद तो होगी उस घर की? जिन ने मुस्कराते हुए पूछा
मॉम …एक बात कहूँ मुझे उम्मीद है आप बुरा नहीं मानेंगी 
अरे कहो न ..मैं क्यूँ बुरा मानूंगी 
मैं वहीं अपने पुराने घर और लोगों के साथ रहना चाहता हूँयहाँ नहीं 
वेंग का अनुरोध सुन कर जिन ठगी सी खडी रह गयी ..कुछ पल के लिए उसे लगा जैसे वो गूंगी बहरी हो गई है 
क्या तुम ये महसूस करते हो कि उस घर में तुम ज्यादा सुखी और संपन्न हो? वहां तुम्हारा भविष्य बेहतर है?
हाँ ..यही समझ सकती हो ..वेंग ने सर झुक कर कहा 
ठीक है लेकिन अभी तो हम आये ही हैं ..कल चले जाना मैं छोड़ आउंगी 
नहीं मॉम इस जगह मैं सचमुच रात नहीं गुज़ार पाउँगा प्लीज़ ..आपको मेरे साथ जाने की भी ज़रुरत नहींमैं इतना बड़ा हूँ कि खुद बस में जा सकूँशहर ज्यादा दूर भी तो नहीं …
ठीक है ..जिन ने अपने भीतर के तूफ़ान को छिपाते हुए सहजता से कहाचलो तुम्हे बस स्टेंड तक छोड़ आती हूँ ..अपना सामान ले लो 
बस खिसकने लगी थीजिन और वेंग एक दूसरे को हाथ हिला रहे थे। 
  
दूसरे दिन 
अरे जिन तुम तो बेकरी छोड कर चली गईं थीं वापस आ गईं? बेकरी के मालिक ने खुश हो कर कहा 
अब छोड़ने की ज़रुरत नहीं ..और ना ही बेटे को खोजने की  मैं खुश हूँ ..जिन ने मुस्कुराते हुए कहा, अपनी ड्रेस बदली एप्रिन पहना और ब्रेड बनाने में जुट गयी 
Man is not made for defeat .A man can be destroyed but not defeated —   Ernest Hemingway (The Old Man and the Sea )
सम्पर्क-

ई-मेल : shuklavandana46@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

वन्दना शुक्ला का यात्रा वृत्तांत

लेखक जब भी कहीं किसी जगह की यात्रा करता है तो औरों से इतर वह वहाँ की आबोहवा, परिस्थितियों, जलवायु, ऐतिहासिक इमारतों, दस्तावेजों, उस जगह की ऐतिहासिकता आदि को अपने लेखन का हिस्सा बनाता है। स्वयं द्रष्टा होते हुए भी उससे अलग हो कर उसे देखने का प्रयास करता है और उसे लिपिबद्ध करने की कोशिश करता है। ये यात्रा संस्मरण इस मायने में भी विशिष्ट होते हैं कि ये केवल आने-जाने-खाने, जगहों को देखने को ही नहीं बताते बल्कि उसकी एक साहित्यिक-सांस्कृतिक तहकीकात भी करते हैं। अभी हाल ही में लेखिका वन्दना शुक्ला शिमला की यात्रा पर गयीं थीं। इस यात्रा के संस्मरण उन्होंने लिख भेजे हैं पहली बार के पाठकों के लिए। तो आईये वन्दना जी के साथ-साथ हम-आप भी कुछ देर के लिए शिमला के सफ़र पर हो लेते हैं।

शिमला -एक अविस्मरणीय यात्रा …..
6 मई1821 को एक जरनल में मेज़र लॉयड ने दर्ज किया था ‘’पहाड़ की हवा एक तेज़ की तरह मेरी धमनियों में समा गई ,जिससे मुझे लगा कि मैं सबसे गहरी संकरी घाटी में कुलांचें भर सकता हूँ अथवा उतनी ही आसानी से पहाड़ के दुरारोह छोरों तक फुर्ती से उछलता जा सकता हूँ …आज का दिन मैं कभी नहीं भूलूंगा’’
पहाड़ का जादू कुछ इसी तरह आदमी के मन मस्तिष्क को अपने वश में कर लेता है
चंडीगढ़ से शिमला के लिए हम शाम करीब चार बजे रवाना हुए मनोरम दृश्यों को पीछे छोडती हुई गाडी घुमावदार घाटियों पर चढ़ रही थी हवा में थोड़ी ठंडक आने लगी थीलगभग 7300 फीट की उंचाई पर बसे और चारों और से हिमालय की पर्वतीय श्रंखला से घिरे शिमला की सरज़मी पर जब हमने कदम रखा तब शहर पर शाम की झीनी सिंदूरी चादर लिपटने लगी थी, पेड़ उनींदे और थके लग रहे थे घाटी ओक तथा रोडोडेंड्रॉन के पेड़ों से ढंकी हुई..चीड और देवदार के बेहद लम्बे दरख़्त जो गहरी घाटियों से लेकर ऊँचे पहाड़ों तक सीना ताने खड़े हुए हैं मानों पर्वतों के प्रहरी होंउनके बीच बीच में पहाड़ियों से फूटते सुर्ख लाल फूलों से लदे हुए पेड़ और गाढ़ी हरी पत्तियों से भरी झाड़ियाँ गोया वसंत के त्यौहार में जंगल ने रंग बिरंगे छापेदार वस्त्र पहने हों सुबह जल्दी ही नींद खुल गयी ..एक थकी हुई गहरी नींद के बाद की ताजगी …खिड़की का पर्दा सरकाया …चौथी मंजिल की बालकनी से सुदूर उन पर्वतों पर उतरती बिखरती गुलाबी सुबह और मीलों तक फ़ैली प्रकृति की उस अकूत संपदा को अपलक निस्तब्ध देखते रह जाना, ज़िंदगी में इससे भी बड़ा कोई आनंद होता होगा …नहीं जानतीतुरंत कैमरा निकाला बैग से और उस ख़ूबसूरत सुबह को मैंने अपने कैमरे में कैद कर लिया

 


हिन्दुस्तान के मैदानी भागों में भाषा, रहन-सहन, भोजन आदि तो अलग हो सकते हैं लेकिन हम स्वयं चूँकि मैदानी इलाकों में रहने उस भौगोलिक वातावरण, मौसम, उनके गुणों वहां की समस्याओं, असुविधाओं आदि के अभ्यस्त हो जाते हैं इसलिए हमें ज्यादा भिन्नता नज़र नहीं आती लेकिन पहाडी स्थलों पर बहुत कुछ बदला और नया नया सा लगता है मसूरी, नैनीताल, कुल्लू मनाली, रोह्तान्पाश, या मध्य प्रदेश में पचमढी आदि पर्वतीय स्थल देखने के बाद इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि भले ही इन अलग अलग स्थलों की भाषा, भौगोलिक स्थिति, इतिहास, कथाएं, रहन सहन, वनस्पति आदि में फर्क हों लेकिन उनके दृश्य और स्थानीय लोगों की दिक्कतें प्रायः एक सी ही होती हैं


पहला ही दिन झडीदार और तेज़ बारिश की भेंट चढ़ गयालेकिन दूसरे दिन जब अलस्सुबह बालकनी से देखा तो कल जैसा अंधेरा नहीं घिरा था बल्कि पहाड़ों पर आसमान से धूप की मुलायम चमक बिखरने लगी थी यानी आज मौसम कुछ साफ़ होने की उम्मीद की जा सकती थी लिहाजा अपनी तीनों मित्रों सहित कुफरी जाने का कार्यक्रम बनायाशिमला से करीब सत्रह किलोमीटर दूर यह पर्यटको के लिए एक आकर्षण का केंद्र हैवाहनों को नीचे ही रोक दिया जाता है और बहुत उंचाई तक जाने के लिए यहाँ पिट्ठू उपलब्ध कराये जाते हैं कुफरी में पर्यटक स्कीइंग, टोबोगैनिंग, गो कार्टिंग आदि को इंजॉय कर सकते हैंतनी उंचाई से तलहटी में देखना रोमांचक लगता है कुफरी में पिट्ठू से ऊपर चढ़ते वक़्त यहाँ बेहद कीचड़ और अजीब चिपचिपा सा मौसम थापिट्ठू की सवारी करना यूँ भी असुविधाजनक होता हैशिखर की और चढाई के वक़्त यहाँ एक दुर्घटना भी घटीएक पिट्ठू का पैर फिसल गया और उसके ऊपर सवार एक महिला गिर पडीउसका सर एक चट्टान से टकराया और कनपटी रक्त से भीग गईउसके साथी उसे पकड़ कर और सर से बहते हुए रक्त को दुपट्टे से बाँध वापस नीचे लाने की कोशिश करने लगे इसी बीच युवाओं के दो गुटों में झगड़ा हो गया एक ने दो लड़कों को बुरी तरह पीटा और फिसलन भरी चट्टान से नीचे धकेल दियाचारों और कीचड़ और अफरातफरी का साम्राज्यहम भी मारे डर के पिट्ठुओं से उतर गए और किसी स्थानीय व्यक्ति की मदद से एक पतली सी पगडंडी से ढरकते हुए से नीचे अपने वाहनों तक पहुंचेहमारे जूते कीचड़ में लथपथ थे और मन डरे हुएये सब देखकर कुछ प्रश्न मन में उठे …यहाँ के मौसम और ऊँचाइयों को देखते हुए ये दृश्य आम ही होते होंगे लेकिन ना तो यहाँ पुलिस की कोई व्यवस्था है और ना ही फर्स्ट ऐड की..खैर ..कुल मिला कर दिन कुछ निराशाजनक गुज़रा थोड़ी कोफ़्त हुईये पहला ही दिन था …ये दोनों दृश्य आतंकित होने के लिए काफी थे

अगले दिन हम जाखू मंदिर गएसंकरे, घुमावदार रास्तों से जाते हुए बहुत उंचाई पर बना ये शिमला का एक प्रसिद्ध और पौराणिक मंदिर हैकहते हैं कि हनुमान जी यहाँ संजीवनी बूटी लाते हुए कुछ देर के लिए रुके थेकिंवदन्ती है कि यहाँ उनके पैरों की छाप भी है कुछ वर्षों पहले इस पौराणिक मंदिर के पास हनुमान जी की विशाल मूर्ति भी बनाई गई है जो घाटी के निचले हिस्सों से स्पष्ट दिखाई देती हैयहाँ के लोग बताते हैं कि इसका उद्घाटन अमिताभ बच्चन द्वारा किया गया थायहाँ बंदरों का साम्राज्य और आतंक हैहम खुद भी उनकी हरकतों के शिकार हो गए जब कार से उतरते ही मेरा सन ग्लास एक बन्दर मेरे पीछे से आकर धीरे से उतार कर ले गयामैं डरकर कांपने लगी जब मैंने अपना धूप का चश्मा उसके हाथ में देखाआसपास कम से कम सौ बन्दर थे जो इसी तरह पर्यटकों को परेशांन कर रहे थे’’अपना पर्स अन्दर रखो, चश्मे उतार लो, मोबाईल कैमरे पर्स में डालो, हाथ में डंडा रखो आदि शब्द कानों में पड रहे थेइतनी बड़ी तादाद में बन्दर मैंने पहली बार ही देखे थेएक ‘’प्रसाद वाले‘’ आदमी ने कहा कि आप परेशांन न हों, तीस रुपये के चने खरीद लो मैंने ऐसा ही किया वो आदमी मेरे खरीदे हुए चने ले कर एक खाई में उतर गया और ओझल हो गया मेरे हौसले पस्त….लेकिन कुछ ही देर में वो ग्लासेज़ ले आया ये सब इतनी जल्दी घटा कि समझ में नहीं आया कि आखिर माजरा क्या था? क्या उन बंदरों को इसकी ट्रेनिंग दी जाती है, या ये कोई चमत्कार है? खैर..इसके बाद बहुत ऊचाई पर स्थित मंदिर की और पैदल जाते वक़्त हमें अपनी सुरक्षा के लिए एक डंडा खरीदना पड़ा जिसके बूते पर हम बंदरों से बचते बचाते मंदिर तक पहुंचेइस पौराणिक मंदिर को देखना आधुनिक शानदार सर्वसुविधा युक्त इमारतों को देखने से बहुत अलग और अद्भुत अनुभव था बंदरों के भय से वहां कैमरे पर्स से नहीं निकाल सकेवहां से लौटते हुए शाम गहराने लगी थीचीड और देवदार के लम्बे पेड़ों से घिरी संकरी व घुमावदार सडकों /ढलानों पर गाड़ियों से उतरना बहुत डरावना सा लग रहा थादोनों और गहरी खाइयां …दृश्य देखने का साहस हम खोते जा रहे थेकई बार घुमावदार सडक पर सामने से आती गाडी को देख कर हमारी हल्की सी चीख भी निकल गईइस वक़्त हमारे सामने ऑंखें मींच लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था  …लेकिन वहां के वाहन चालकों की सचमुच तारीफ़ ही करनी पड़ेगी कि ऐसे रास्तों पर कितनी सधी हुई ड्राइविंग करते हैं

एक स्थानीय व्यक्ति ने हमें बताया कि यहाँ एक अंग्रेजों के ज़माने की छोटी रेल चलती है जिसे टॉय ट्रेन भी कहा जाता है। ज़ाहिर था कि उसमे यात्रा करने का लोभ संवरण करना मुश्किल था हमारे लिए लिहाजा इस आकर्षण का आनंद लेने के लिए हमने निश्चय किया कि यहाँ से कम दूरी के किसी स्टेशन तक का सफर आज इसी ट्रेन से तय करेंगे और हम टिकिट ले कर उसके लेडीज़ कम्पार्टमेंट में बैठ गए। इस प्यारी और छोटी रेल का स्टेशन भी किसी परीलोक की तरह रंगबिरंगा था। लग रहा था हम गुलीवर के देश में पहुंच गए हैं। कुछ देर में ट्रेन ने सामान्य रफ़्तार से दौड़ना शुरू किया। छोटी, ऐतिहासिक और प्यारी सी ट्रेन हरे भरे पहाड़ों, काले चौकोर पत्थरों से बनी पौराणिक व् गोलाकार सुरंगों व ढलानों पर बसे गाँवों के बीच से गुज़र रही थी। छोटी बड़ी पहाड़ियों जिन पर हरी भरी झाड़ियाँ फिसलती हुई सी लग रही थीं, लम्बे घने पेड़ों, बुरोंश के फूलों से भरे हुए दरख्तों व् पुरानी इमारतों को पार करती लहराती वो यात्रियों को लिए मंजिल की और दौड़ी जा रही थी। उस ट्रेन के यात्री पर्यटक ही नहीं बल्कि स्थानीय लोग भी थे जो शायद इस ट्रेन का सफ़र रोज़ ही तय करते होंगे क्यूँ कि उनके हाव भाव में पर्यटकों जैसी उत्तेजना और जिज्ञासा नहीं थी। मौसम सुहावना था और जंगल हरे भरे …आसमान में बादल घिरने लगे थे कुछ बूंदाबांदी भी शुरू हो गई। रेल का सफर अद्भुत रहा। उसी शाम हमने माल रोड पर शॉपिंग की हालाकि झरझरा कर बारिश हो गई और लिफ्ट से मार्केट तक पहुँचने तक धुआन्धार बारिश शुरू हो गई। कुछ देर बारिश रुकने की प्रतीक्षा करने के बाद हमने शेड के निकट की दूकान से छाते खरीदे और माल रोड की गीली सडकों पर निकल पड़े। माल रोड भी लगभग हर पर्वतीय क्षेत्र की एक सी ही होती है ..वही छोटी छोटी दुकानें, एक जैसे सामान, इफरात ऊनी कपडे, मोल भाव आदि लेकिन इनका एक ख़ास आकर्षण तो होता ही है विशेषकर स्त्रियों के लिए। लेकिन मेरी कुछ मित्र यहाँ स्थित उस चर्च को भी देखने के लिए उत्सुक थीं जहाँ (उनकी जानकारी के अनुसार) थ्री इडियट्स फिल्म की शूटिंग हुई थी। बारिश रुकने की प्रतीक्षा का कोई असर नहीं हुआ और थोड़ी शॉपिंग करके और ‘’चर्च’’ देखने का खुद से वादा करते हुए हम वापस लौट आये।

अगले दिन हम फिर अपने गंतव्य की और चले रास्ते उसी तरह ऊँचे नीचे गीले और कीचड़ भरे थेयहाँ ज्यादातर इमारतें और पक्के घर पुराने और ब्रिटिश स्टायल के बने हैं द्वार तिकोने और फ्लोर लकड़ी केभीड़, छोटी बड़ी दुकानें, काम पर जाते मर्द औरतों की आँखों में कुछ परेशानी, स्कूल जाते बच्चे, तंग सडकों पर तेज़ धीमी रफ़्तार में दौड़ते वाहन सभी दृश्य वही जिनको देखने की पिछले तीन दिनों में एक आदत सी हो गयी थीपहाडी क्षेत्र असमतल होते हैं इसलिए इन पर सुनियोजित कॉलोनी वगेरह बनाना तो कल्पनातीत ही है लेकिन ये देख कर आश्चर्य हुआ कि काफी उंचाई पर स्थित कुछ मकान जो देखने में लकड़ी के लग रहे थे काफी पुराने और ज़र्ज़र अवस्था में थे और जिनके किनारों पर गहरी खाई थी, नीचे से देखने से प्रतीत हो रहा था मानो अधपर लटके हों लगता था कि तेज़ हवाओं या तूफ़ान में ये कभी भी भरभरा कर खाई की तलहटी में समां सकते हैंउस गहरी खाई में भी (जो इलाके की निचले हिस्से थे) यहाँ पर छोटी बस्तियां थीं पहाड़ों के शिखर पर स्थित कई घरों में रेलिंग या ओट ही नहीं थी और एक दृश्य देख कर तो जैसे सांस ही थम गईबहुत उंचाई पर बिना रेलिंग के छज्जे पर एक औरत अपने बच्चे को नहला रही थी …नीचे गहरी और बड़ी खाई …मैंने जब वहां के स्थानीय कार चालक जिसमे उस वक़्त हम जा रहे थे से इस विषय में पूछा तो उसने हंस कर कहा कि ‘’नहीं मैडम ..यहाँ के लोग नहीं गिरते…उन्हें इन पर रहने की आदत हो जाती है‘’ क्या ये किसी अन्य ग्रह  के जीव हैं जो डर का मतलब नहीं जानते …? या इन्हें मौत के साथ क्रीडा करना और उसे पराजित करने की आदत पड़ चुकी है? ढलानदार सडकों पर कतारबद्ध कारें यहाँ के सामान्य दृश्य हैंइन व्यस्त या खाली, ऊँची नीची ढलान भरी सडकों के दौनों और कारों की लम्बी लम्बी कतारें देख कर यही लगा कि शायद यहाँ कार होना सम्पन्नता और अमीरी की निशानी नहीं बल्कि घर में अपनी एक अदद पर्सनल पार्किंग’’ होना रईसी का लक्षण होगा 
 
इस पूरी यात्रा का जो सबसे खुशनुमा और यादगार दिन रहा वो था वाइसरीगल लौज को देखना। टिकिट ले कर हम भीतर दाखिल हुए। ब्रिटिश स्टाईल की भव्य इमारत जिसके सामने के हिस्से में दुर्लभ और विदेशी फूल जैसे डेजी, बटरकप, रोदोड्रेगन, स्फानी आदि व् घांस की अनेकों किस्मों का लाजवाब संग्रह। बीच में वाईसरीगल लौज की भव्य इमारत, सामने शानदार बागीचा और एक तरफ एक सुव्यवस्थित लायब्रेरी। पता पड़ा कि अभी ‘’भीतर’’ दर्शक हैं इसलिए बाहर ही खड़ा होना होगा कतार में अतः मैं इस समय का उपयोग करने के उद्देश्य से सामने की लायब्रेरी में चली गई। लायब्रेरी बहुत बड़ी नहीं थी लेकिन सुव्यवस्थित थी। यहाँ कुछ हिन्दी लेखकों की किताबें भी थीं जहाँ से मैंने कृष्णा सोबती की लम्बी कहानी ‘’ए लडकी’’ पुस्तक खरीदी। और भी कुछ छोटी मोटी चीज़ें जैसे ग्रीटिंग कार्ड्स, लौज के चित्र का चाय का मग, आदि। कुछ देर बाहर लगी कतार में प्रतीक्षा करने के बाद हम इस शानदार इमारत के भीतर पहुंचे। ऑंखें चौंधियाना किसे कहते हैं ये वहां मालूम हुआ। यहाँ पहले से मौजूद गाईड’’ ने हमारी अगवानी की। ऊँची ऊँची छतें, जिनमे अखरोट की लकड़ी पे ख़ूबसूरत नक्काशी …भव्य कमरे, सामन्ती परिवेश। उन्होंने बताया कि ये इमारत और जितना भी फर्नीचर आप देख रहे हैं ये डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुराना और विदेशी डिजायन का बना हुआ है। यहाँ बेल्जियम आदि जगहों से मंगाई गई लकड़ी के फर्नीचर थे। कारीगर शिमला से कुछ दूरी पर स्थित सोलन से आते थे और संजौली से लकड़ी आदि के गट्ठे घोड़ों पर लाद कर लाये जाते थे। तब आवागमन के साधन अत्यंत सीमित थे। अखरोट की लकड़ी की नक्काशीदार छतें आज भी उतनी ही चमकदार और ख़ूबसूरत हैं। विदेशों से लाये गए लगभग डेढ़ शतक पुराने ब्रास और हाथीदांत के झाड फानूसों की सुन्दरता देखते ही बनती है। यहाँ का आलीशान सेन्ट्रल हॉल व् नृत्य कक्ष बहुत ही ख़ूबसूरत है जहाँ मेहमानों का मनोरंजन होता था दावतें होती थीं व् नृत्य के पश्चात निकट के भोजन कक्ष में भोजन की व्यवस्था होती थी। यहाँ एक १९३६ में लगाई गई दीवार घड़ी है जो आज भी काम कर रही है और ये जान कर अचम्भा हुआ कि इसे आज तक ठीक करने की आवश्यकता नहीं पडी। इसमें सात दिन में एक बार चाभी भरी जाती है। ऐसे ही एक पियानो है जिसे तत्कालीन वायसराय और उनकी पत्नियाँ उपयोग में लाते थे। उसे बजाकर बताया गया वो अब भी शानदार आवाज़ में बजता है। एनान्देल जिमखाने क्लब में पोलो, क्रिकेट और घुड़सवारी होती थी। कुछ जानकारियाँ रोचक थीं जैसे यहाँ 700 से अधिक नौकर चाकर, रसोइये, माली आदि थे जिसमें से करीब पचास लोगों की नौकरी सिर्फ बंदर भगाने की थी क्यूँ कि यहाँ बेहद बन्दर थे और बगीचों आदि को नुकसान पहुंचाते थे। गाइड ने ये भी बताया कि जलियावाला काण्ड के कत्लेआम का दोषी जनरल रेजिनाल्ड डायर शिमला से ही था और उसने व पाकिस्तान के भूतपूर्व राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने शिमला के बिशप कॉटन स्कूल से शिक्षा पाई थी।


पहले यानी १८१४-१६ के आसपास सैनिक टुकड़ियों के सुरक्षित जगह पर आराम के लिये इस स्थान का उपयोग किया जाता था। शिमला की ठंडी जलवायु, सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों, हिमाच्छादित पहाड़ी दृश्यों, चीड़ और देवदार के जंगलों और शहरी भूदृश्य से आकर्षित हो ब्रिटिश शासकों का ध्यान इस क्षेत्र की और गया। ठंडी जलवायु में रहने के अभ्यस्त व् मैदानी इलाकों की गर्मी से अघाए अंग्रेजों ने इसे अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया ये १८६४ का वर्ष थाइसके बाद जितने वाइसराय नियुक्त किये गए उन्होंने इसे अपनी शौकों व् सुविधाओं के मुताबिक़ आगे बनाए जाने का काम कियायहाँ एनान्देल जिमखाने क्लब में पोलो,क्रिकेट और घुड़सवारी होती थी इसमें मनोरंजन, रंगमंच, नाच गृह, पिकनिक, जिमखाना, कांफ्रेंस हौल, जहाँ बैठकर भारत की कई अगली नीतियों पर गंभीर चर्चायें की गई ..यहीं पर १९४५ में ‘’शिमला कॉन्फ्रेंस‘’ हुई इसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अंग्रेजी शासकों के मध्य त्रिपक्षीय वार्ता हुई थीजिसमे गांधी जी, पंडित नेहरु, मौलाना आज़ाद, मुहम्मद अली जिन्ना आदि उपस्थित थेयहाँ बेल्जियम से मंगाई गई एक लकड़ी की मेज है जिसके पास चार कुर्सियां बिछी हुई हैंहमें बताया गया कि यह शांति वार्ता असफल हो गयी और हिन्द पाक विभाजन का ऐतिहासिक और दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय यहीं पर हुआ थाउस मेज़ के बीच में एक दरार है जिसे अंधविश्वासियों द्वारा विभाजन का निर्णय होते ही मेज़ के दो टुकड़े हो जाना माना गयाये दरार स्पष्टत आज भी दिखाई देती है लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि उस समय इतने बड़ी मेज़ एक ही लकड़ी से नहीं बनाई जा सकती थी इसलिए इसमें दो लकड़ियों का उपयोग हुआ थाइस तरह ये इमारत एक एतिहासिक दस्तावेज है एक सबूत भारत के उथल पुथल भरे दौर का

 

सन १९४७ यानी आज़ादी के बाद यह एस्टेट भारत के राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आ गया और इसका नाम रखा गया ‘’राष्ट्रपति निवास‘’ जिसका विधिवत उदघाटन तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्णन ने कियाआजकल इसमें इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी (भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान) है।

 

आँखों व ज़ेहन में इस अप्रतिम एतिहासिक दस्तावेजों व् सौन्दर्य को भरे हम वापस लौटेकुछ और छोटे मोटे स्थानों को देख कर हम उस ‘’घाटी’’ से मैदानी भाग में उतर रहे थेचंडीगढ़ पहुंच कर हमने पिंजोर गार्डन, रोज़ व् रोक गार्डन देखा सुगंध रहित ख़ूबसूरत गुलाबों की असंख्य किस्में और रंगइससे आगे मार्ग में हमने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुछ ऐतिहासिक स्थल भी देखेकरनाल में भारत की पहली अंतरिक्ष महिला यात्री कल्पना चावला की स्मृति में बना प्लेनेटोरियम देखना बहुत अच्छा और अद्भुत अनुभव था कल्पना चावला यहीं की निवासी थींवे अंतरिक्ष शटल मिशन विशेषज्ञ थीं और कोलंबिया अंतरिक्ष यान आपदा में मारे गए सात यात्री दल सदस्यों में से एक थींअत्याधुनिक तकनीक से बने इस प्लेनेटोरियम में बाहर वृत्ताकार दीवारों पर सौर मंडल की कुछ जानकारियाँ, कल्पना चावला का सचित्र जीवन एवं उनकी उपलब्धियां दर्शाई गई हैंवे नेशनल एरोनौटिक्स एंड एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के कोलंबिया अंतरिक्ष यान में जाने वाली भारतीय मूल की प्रथम महिला थीं गुम्बद के भीतर दर्शकों को आरामदायक कुर्सियों पर बिठाया गयाघटाटोप अँधेरे में डिज़िटल व् प्रोजेक्टरों के माध्यम से अंतरिक्ष यान व् यात्रियों से सम्बंधित जीवंत दृश्य दिखाए गए जो अद्भुत थेउन तीस मिनटों में ऐसा महसूस हुआ जैसे हमारा संपर्क भी पृथ्वी से टूट चुका है और हम भी अंतरिक्ष यान में सफर कर रहे हैं
इस फिल्म में अन्तरिक्ष में जाने वाले यात्रियों की समुद्री तल व् आकाश के दुरूह वातावरण में अत्यंत कठिन ट्रेनिंग और अंतरिक्ष में जाने के बाद की जटिल परिस्थितियों, गुरुत्वाकर्षण विहीन स्थितियों का शरीर पर दुष्प्रभाव आदि को बहुत बारीकी और प्रभावी तरीके से बताया गया है इस वृत्ताकार कमरे में मानव की खोज और अंतरिक्ष की ये सच्चाईयां देखना एक चमत्कार था यह अपने ज्ञानकोष को सम्रद्ध करना व हिन्दुस्तान की इस जाबाज़ और दुस्साहसी युवती के इस जुनून और हिन्दुस्तान की स्त्री की अंतर्राष्ट्रीय उपलब्धि को पुनः आदर और गर्व से नमन करने का मौक़ा भी थापितृसत्तात्मकता, अबला व अधीन जैसे शब्दों की ज़ेहन पर जमी बर्फ शायद पिघल रही थी जिस स्त्री की बहादुरी और ज़ज्बे को हमने अभी देखा उसकी रोशनी ने कितने धुंधले और अस्तित्वविहीन और बौने कर दिए थे स्त्री मुक्ति व् विमर्शों के तर्क …? कितना सरल होता है आरामदायक घरों में बैठ नारी की दुर्दशा पर विलाप कर लेना और पुरुषों को कोसना और कितना कठिन है एक सम्पूर्ण मानवता के हित में अपनी जान की बाज़ी लगा कर स्त्री की चिर परिचित छवि को खारिज करते हुए इतिहास के पन्नों मेंदर्ज हो जाना जिन एतिहासिक दस्तावेजों को देख कर अभी लौट रहे थे तुम भी भारत के उन्हीं महत्वपूर्ण दस्तावेजों का हिस्सा रहोगी कल्पना चावला
कुल मिला कर कह सकते हैं कि इन सात दिनों को मेरे जीवन की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियों एवं यादगार दिवसों में शामिल किया जा सकता है
(वन्दना शुक्ला पिलानी में रहती हैं मूलतः कहानीकार और कवियित्री हैं। अभी हाल ही में इनका एक उपन्यास मगहर की सुबह प्रकाशित और चर्चित हुआ है।)  

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ई-मेल : shuklavandana46@gmail.com

वन्दना शुक्ला के उपन्यास ‘मगहर की सुबह’ का एक अंश


वन्दना शुक्ला ने थोड़े ही समय में कहानीकार के रूप में अपनी पहचान बना ली है। जीवन की उष्मा से भरी हुई उनकी कहानियाँ सहज ही हमारा ध्यान आकृष्ट करती रही हैं। आधार प्रकाशन से वन्दना का पहला उपन्यास ‘मगहर की सुबह’ आने वाला है। इस उपन्यास में भी ग्रामीण और कस्बाई जीवन के रंग अपनी पूरी आभा के साथ मौजूद हैं। इसी उपन्यास का एक अंश आपके लिए प्रस्तुत है।       
उपन्यास अंश 
                  

मगहर की सुबह
इस गांव में एक सरकारी विद्यालय हुआ करता थामिसिर जी की प्राथमिक शिक्षा दीक्षा इसी सरकारी विद्यालय में संपन्न हुईजाड़ों और गर्मियों के मौसम में कक्षाएं खुले मैदान में पेड़ों के नीचे या धूप में लगा करतीं धूप जो सीधी और कभी घूम फिर के नीम, बरगद, पीपल, कचनार, झडबेरी आदि पेड़ों के झुरमुट में से रास्ता बनाती हुई पत्तों के सायों को ओढ कर पेड़ों के नीचे बिछ जाती थी चार छः भद्रंग छोटे कमरे जिनके ऊपर एक जंग खाई लोहे की टीन पर उतना ही मैला कुचैला ‘’डा डी टोला ऊ. मा (उच्चतर माध्यमिक) विद्यालय ‘’लिखा था कमरे प्रायः बंद ही रहते कमरों में टाट पट्टियां अलबत्ता पक्तिबद्ध सुगढ़ता से बिछीं, कोने में एक मिट्टी का घडा जिसका पानी कमरा खुलने पर ही बदला जाता था और कमरे की छत पर लटकता वो सौ वाट का लट्टू भी जो अँधेरे में अलसाया ऊंघता सा लटका रहता और किवाड़ खुलने का ही मोहताज़ था जैसे ही द्वार खुलता काला खटका दब जाता और लट्टू ऑंखें झप झपाता हुआ जल उठता दीवार में जड़े एक श्यामपट पर गणित का कोई सवाल किया रहता ये कमरा किसी ऑडिट इन्स्पेक्टर के आने की खबर के साथ ही खुलता और पहन ओढ साफ़ सुथरा और आबाद हो जाताशेष दो तीन कमरे भी प्रायः बंद रहते और बारिश या किसी अन्य आपदा के वक़्त बरते जाते जिनमे से एक कमरा प्राचार्य जी का था जो गजोधर पांडे ही थे

सामने एक बड़ा मैदान था जो विद्यालय क्षेत्र में ही आता था बुजुर्ग और घनेरे पेड़ों से भरापूरास्कूल बाउंड्री की टूटी फूटी पलस्तर उधड़ी दीवारें देखकर लगता जैसे पुरातत्व विभाग की कोई खोजी खुदाई चल रही हो विद्यालय में प्रवेश व निकास के लिए यद्यपि एक लोहे के पौराणिक टूटे गेट वाला सांकेतिक द्वार था जिसके अधबने खम्बे पर नीले अक्षरों में ‘’प्रवेश द्वार’’ लिखा था लेकिन विद्यार्थी उन खंडहर दीवारों को कूद फांद कर आना ही पसंद करतेसांकेतिक प्रवेश द्वार, विद्यार्थियों के लिए अनुपयोगी होने के बावजूद अन्यान्य प्रयोगों में आताजैसे बहुधा छात्रों की उन माओं के जो यदा कदा चली आतीं चलती कक्षाओं के बीच में ‘बेटे को सेर भर सक्कर’ जैसी कोई चीज़ लेने बाज़ार भेजनेएक भंगी जात का बनोरी जो स्कूल में साफ़ सफाई के लिए नियुक्त था, अन्य कामों के अलावा उन चौपायों के गोबर उठा कर भी ले जाता था जो इसी ‘’प्रवेश द्वार’’ से आ कर स्कूल क्षेत्र के मैदान में मौसम के हिसाब से कभी धूप कभी पेड़ों की छांह के नीचे बिंदास बैठे पगुराते रहते यूँ तो विद्यालय की ध्वस्त ऊबड़ खाबड़ चौहद्दी की टूटी दीवारों पर काले टेढ़े मेढे अक्षरों में “यहाँ पिसाब करबे की सख्त मनाही है’’ लिखा हुआ था जिस पर निर्भयता और धृष्टता से राहगीर मूतते हुए दिखाई देतेकभी कभी संझा को कोई दारूखोर भूला भटका उन टूटी दीवारों की उघरी ईंटों पर आकर बैठ जाता और झूमता रहता निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि विद्यालय की वो ‘’दयनीय’’ चौहद्दी गरीब की जोरू सी थी जिस पर जो चाहे जैसा चाहे सुलूक करने को आज़ाद था। 
   

छात्र अपना अपना ‘’बिठौना’’ घर से लेकर आते और उन ‘खुली कक्षाओं’’ में बैठे धूप के हिसाब से उन्हें इधर उधर खिसकाते रहतेछोटी कक्षाओं को लक्खूराम मास्टर पढाते जिनका समय सुबह सात से दस तक होता और बड़ी कक्षाओं को गजोधर उर्फ गज्जू मास्साब इनका समय दस से चार होताउक्त विद्यालय का टोटल स्टाफ यही था प्रधान अध्यापक, अध्यापक, लिपिक और चपरासी भी सब वहीनीम के घने पेड़ पर लटकी पीतल की थाली जैसी ठोस घंटी भी उन दौनों ‘मास्साबों’’ में से कोई एक बजा देता था धूप की ‘’चढन” के हिसाब से(कालांतर में जैसे जैसे आसपास का कोई शहर टहलता हुआ खेतों के रस्ते गांव में घुस जायेगा तब सिर्फ रस्सी लटकती रह जायेगी) खैर, बात हो रही थी गजोधर मास्साब कीगज्जू मासाब ‘’भय बिनु प्रीत ना होय’’ के प्रबल समर्थक यानी हद्द दर्जे के अनुशासन प्रिय मास्टर, लिहाजा स्कूल में प्रार्थना संपन्न होते ही वो सब सीनियर छात्रों को पंक्तिबद्ध खड़ा कर के उन की हथेली पर बिना किसी गलती के एक एक संटी जड़ते जो वो घर से आते बखत तालाब के बगल की कनेर से तोड़ कर अपनी सायकिल के केरियर में फंसा कर लाते(पाठकों को बता दें कि उन उजड्डों की गद्लियाँ लाल करना कनेर की हरी संटी के बस की ही बात थी) और फिर पढ़ाई शुरू होतीइस ‘’आयोजन” में कक्षा की शर्मीली छात्राएं मुहं छिपा कर खिल खिल करती रहतींछात्रों को अब प्रार्थना के पश्चात इस नियम की आदत हो गयी थी लिहाजा वो भी कक्षा में आते ही हाथ आगे करके खड़े हो जाते और मुस्कुराते रहते पर गजोधर मास्साब की त्योरियां हमेशा चढी रहतीं, उनके चेहरे पर हंसी एक ही बार नमूदार होती थी (ये ‘’वयस्क छात्र’’ भली प्रकार जानते थे) जब सुरेंदर सिंह की गोरी चिट्टी भरी पूरी अम्मा माथे तक ‘पर्दा’ किये कभी कभी चौदहवीं के चाँद की तरह अवतरित होतीं विद्यालय में, बेटे को रुमाल या छूटी हुई पेन-पेन्सिल देने के बहाने तब उनके सामने ना जाने क्यूँ मास्साब की रिरियाहट छूट जाती पर ये छोटी-मोटी कमजोरी उनकी दबंगियायी में आड़े नहीं आ पाती थी

गजोधर मास्साब वैसे पढ़ाते तो तल्लीनता से थे समझाने से ज्यादा रटाने में उनका भरोसा थाविद्यार्थियों को गणित के सवालों के उत्तर तक रटा डालते हांलाकि छात्रों का तो भला ही होता लेकिन इसके पीछे एक पोल थी उनकी या कह लो कमजोरी वो ये कि उन्हें बीडी की ज़बरदस्त लत थी लेकिन थे नैतिकतावादी और सभ्य… बच्चों के सामने बीडी पीना बुरा समझतेनीम के घने पेड़ के नीचे लकड़ी की छोटी मेज पर तने से टिके ब्लैक बोर्ड पर वो छात्रों को लघुत्तम महत्तम या औसत के सवाल निकालने को दे देते या फिर हिन्दी के पीरियड में महात्मा गांधी या गाय पर निबंध लिखकर छात्रों को उसकी नक़ल करने को दे खुद ब्लेक बोर्ड के पीछे कुर्सी डाल छात्रों से पीठ किये बीडी फूंकते रहतेपीरियड तब तक खिंचता रहता जब तक बीडी फुंक नहीं जातीबीडी खत्म होने से पहले यदि कोई बच्चा चिल्लाता ‘’मास्साब हे गओ” तो मास्साब खीझ कर कहते ‘’दस बेर लिखो जाए” …और बच्चे लिखते रहते शैतान बच्चे मेज के पायों में झुक कर ब्लेक बोर्ड के नीचे से झांक कर देखते और कहते ‘’कौआ बीडी फूंक रा है।“ और मुँह पर हाथ रख कर खूब खी खी करके हँसते ‘’बोर्ड पीछे’’ उन्हें कौआ कहा जाता था नीम के पेड़ पर बैठे कई कौओं की शक्ल छात्रों को मास्साब से मिलती थीइस चमत्कार पर ध्यानाकर्षण का श्रेय मिसिर जी को ही जाता था, मिसिर जी उन शैतान बच्चों के द्रोणाचार्य थेस्कूल तो दसवीं तक था पर गाँव के ज्यादातर लड़के सात आठ कक्षा तक पढ़ने के बाद खेती गृहस्थी संभाल लेते और लड़कियां ससुराल की हो जातींगांव में ऐसी भी लडकियां थीं जो स्कूल का मुहं नहीं देख पाती थीं उन्हें पढाने की ज़रूरत नहीं समझी जाती थी क्यूँकि उन्हें पराया होना होता था और चौका बासन, कंडे थापना, झाडू बुहारू जैसे ‘’धंधों’’ के लिए  साक्षरता की ज़रूरत नहीं थीदसवीं से आगे पढ़ना हो तो निकटवर्ती कसबे रामपुर के स्कूल में भरती होना होता थापढ़ाई जारी रखने वाली लड़कियों की अधिकतम शिक्षा भी दसवीं तक ही हो पाती थी उसके पहले ही उनके लिए वर की खोज प्रारम्भ हो जाती और दसवीं होते ही वो दूसरे घर की हो जातींजो फेल हो जातीं दसवीं कक्षा में तो उनकी क्वालिफिकेशन मेट्रिक फेल कही जाती जिसे वर पक्ष दसवीं पास के समतुल्य ग्रहण करता

समय ने पलटी खाई….गांव हाट बाजारों का दायरा बढ़ने लगा और पूरा बाजार विश्वव्यापी मंडी में तब्दील होने का दौर शुरू हुआ एक अनोखी चमक-दमक, रंगीनियों और सपनों से भरा बाज़ार जहाँ इच्छाओं की खेती होनी थीअचानक “अन्नदाता” ‘’गांव की हरियाली, खाद्यान, रीति रिवाज, वार त्यौहार, सब बेरौनक प्रतीत होने लगे मानो साफ़ चमकती धूप में किसी ने मुठ्ठी भर सिंदूरी शाम भुरक दी हो इस धुंधलाहट में जो सबसे अधिक बैचेनी और उकताहट महसूस कर रहा था वो था ग्रामीण युवा वर्ग 

उधर, देश में खेतिहर हाथ कम और खाने वाले मुहं ज्यादा होने लगे, लोभ अन्याय बेईमानी का वर्चस्व होने लगा ‘’पढ़े लिखे चतुर’’ बढ़ रहे थे और सीधे साधे मेहनती किसान ठगा सा महसूस करने लगे थे लिहाज़ा खेती किसानी में उचित सरकारी मूल्य निर्धारण ना होने या थोक खरीद व्यापारी द्वारा उचित मूल्य ना मिल पाने का मलाल और मौसम की मार जैसी विपदा से व्यथित हो कुछ दूरदर्शी व प्रगतिशील किसानों ने अपने लड़कों को नौकरी की गरज़ से निकटवर्ती रामपुर में आगे पढ़ने भेजना शुरू कर दिया थागांव के वो दो चार बच्चे शहर के स्कूल कॉलेज से गाँव लौटते बखत अपने खीसे में शहर के फैशन, सोच, सपने भी भर लाते और उसे गाँव की नई रोप के आसपास छिडक देते देखते ही देखते बच्चों की एक ऐसी नस्ल तैयार हो गई जिसने शहरों का रुख करने का मन बना लिया जिनमे मिसिर जी भी एक थेमिसिर जी ने दसवीं की परीक्षा दी थीउनकी योजना अगले बरस रामपुर के इंटर कालेज में एडमीशन लेने की थी मिसिर जी को शहर लुभाते थे अब सिनेमा की दीवानगी भी धीरे धीरे बढ़ रही थी उनकीइधर मिसिर जी शहरों, बड़ी पक्की सड़कों, शानदार घरों, सिनेमाओ, सिनेमा की हीरोइनों के सपने देखने लगे और उधर उनके सयाने बाप दादा उनकी अधूरी नींद को तोड़ने का उपाय खोजने लगे। हांलाकि मिसिर जी अपने दादा और पिता के रौब दाब व योजनाओं से बखूबी परिचित थे पर उन्हें अपनी जिद्द और धमकियों पर भी कम भरोसा नहीं था

तब बड़े बुजुर्ग ना सिर्फ रोबीले बल्कि सयाने भी होते थे बच्चों की नज़र ‘’टिकने’’’ के पहले वो उनके कंधे पर गृहस्थी टिका देतेसीधे साधे लड़के ‘’ब्याह के लिए’’ हुए इस रिश्ते को प्रेम जैसा कुछ मान कर अपना वंश वर्धन करते रहते वहीं कुछ असंतुष्ट नौजवान ब्याह के बाद ‘’जाने कहाँ गए वो दिन’’ या ‘’चाहूँगा मै तुझे सांझ सवेरे” जैसे उदासी से लथपथ सिनेमाई गीत खेत में ट्रेक्टर चलाते, घर के कुन्नों, दीवारों की ओट में सुबकते गाते फिरतेपर मिसिर जी इन दोनों प्रकारों से अलग थे अनोखे

गांव में एक मात्र सिनेमा घर जिसकी बदरंग ज़र्ज़र दीवारों ने अब तो गिनना भी छोड़ दिया था कि उन्होंने कितनी और कैसी-कैसी बारिशें झेलीं कितने बगलगीर घने पेड़ों ने उन की छतों पर अपनी पुरानी पत्तियां झाड़ी कितनी झड़ीदार बारिशों के पानी को उसकी छतों की बंद मोरियों ने उधड़े फर्श को पिला दियाअब तो उनकी सूरत ऐसी हो गई थी मानों दीवारों पर गाँव डाडीटोला का इतिहास लिखा हो …दुःख भरा इतिहास। हांलाकि उस पौराणिक सिनेमाघर का नाम उसके मालिक स्वर्गीय सेठ सुन्दरलाल के नाम पर “सुन्दर सिनेमा हाल’’ था जिसका ‘सुं’ बारिश में धुल गया था उसकी जगह किसी ने ‘बं’ लिख दिया था अब उसके ऊपर ‘’बंदर सिनेमा हाल’’ लिखा था और उसका प्रचलित और लोकप्रिय नाम ‘’बंदर’ हो गया थाकल बंदर में ‘देबदास’ फिलिम देखी क्या भेरंट फिलिम थी गुरु मजा आ गया’’ नौजवानों में ऐसी चर्चाएं सहज ओर आम होतीं जो लड़के शहर के विद्यालयों में नहीं जा पाते वो शहर में पढ़ने वाले गांव के बच्चों से वहां की रंगीनियाँ, फिल्मों के किस्से, हीरों हीरोइनों की देह-गाथाएं आदि उनकी मुँह  जबानी रस ले लेकर सुनते और सुनकर बैचेन हो हो जाते स्कूल से पीरियड गोल करके या आधी छुट्टी में पनवाड़ी शम्भु चौरसिया की दूकान जो ‘बंदर’ सिनेमाघर की दीवार से सटी हुई थी में ‘’लौट कर सिगरेट खरीदने का लालच दे कर ‘’अपना बस्ता दूकान पर खोखे के नीचे पटक चुपचाप घुस जाते ‘’बंदर’’ मेंउस सिनेमा घर में सात आठ साल पुरानी रोमांटिक और कभी कभी मारधाड वाली फ़िल्में लगतीं देवानंद और युसूफ भाई उर्फ दिलीप कुमार की फिल्मों में हाउसफुल होतालकड़ी की प्राचीनकालीन आधे टूटे हुए हत्थों और दरारों वाली कुर्सियों जिनमे उनकी हाफ पेंट में से भी कुर्सी ‘’काट‘’ लेती थी पता नहीं चलता था कि जिसने खाल खींची वो कुर्सी की दरार थी या खटमलों की कारिस्तानी …पर ‘’देवानंद और उनकी हीरोइनों ‘के आगे सब क़ुबूल ‘बंदर’ में एक विशेष सुविधा थी जो शहरी टॉकीज़ में भी नहीं थी जब कोई गाना या डायलोग किसी दर्शक को पसंद आ जाता तो ‘’अबे रोक” ’वो वहीं से चिल्लाता या जाकर ‘’मशीन’’ चलाने वाले से रिवाइंड करवाता बाज बखत कई गाने कई बार रिवाइंड होते

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ई-मेल: shuklavandana46@gmail.com

वन्दना शुक्ल के कहानी संग्रह ‘उड़ानों के सारांश’ और कैलाश वानखेड़े के संग्रह ‘सत्यापन’ पर भालचन्द्र जोशी की समीक्षा।

इधर दो युवा कहानीकारों के महत्वपूर्ण कहानी संग्रह आये हैं। पहला संग्रह है वन्दना शुक्ल का ‘उड़ानों के सारांश’ जबकि दूसरा संग्रह है ‘सत्यापन’ जिसके कहानीकार हैं कैलाश वानखेड़े। यह संयोग मात्र नहीं कि ये दोनों कहानीकार हमारे समाज के उन वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सदियों से  दमन और उत्पीडन का सामना करते आये हैं। स्वाभाविक रूप से ये अभिव्यक्तियाँ इन कहानीकारों की रचनाओं में बेबाकी और एक लेखकीय गरिमा के साथ आयीं हैं। दोनों कहानी संग्रहों में बातें या घटनाक्रम सहज रूप में आये हैं। इन दोनों संग्रहों की एक समीक्षा लिखी है हमारे प्रिय कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने। तो आईये जानते हैं इन संग्रहों के बारे में।     
आश्वस्ति की उड़ान और रचनात्मक धैर्य का सत्यापन
भालचन्द्र जोशी

हिन्दी कहानी में नवलेखन खासकर नई सदी की पीढ़ी के कहानीकारों की इधर खासी चर्चा है। सूचना और संचार माध्यमों के फैलते संजाल ने इस चर्चा को गति दी है। लेकिन यह भी हुआ है कि इस गति में प्रायः रचना छूट जाती है और रचनाकार को केन्द्र में रखने की कोशिश होती है। प्रायः तो लेखक भी यही चाहता और करता है। इन कहानीकारों के साथ दुखद स्थिति यह है कि इस आभासी संसार ने एक ऐसा घटाटोप तैयार कर दिया है जिसमें यह सोच पुख्ता हो रहा है कि रचना को रचना कौशल से नहीं प्रचार से महत्वपूर्ण बनाया जा सकता है। ऐसी रचना लेकिन दूर तक और देर तक साथ नहीं देती है। ऐसे समय में जब हिन्दी कहानी में एक समृद्ध कथा -परम्परा मौजूद है तब ऐसे आग्रह और धारणा को बल मिलना दुखद है।
एक और बात जो प्रमुख रूप से नजर आती है वह शिल्प के प्रति जिद की हद तक आग्रह और रुझान! भूमण्डलीकरण के इस दौर मे जिस तेजी से स्थितियाँ बदल रही हैं। उसमें शिल्प के प्रति अतिशय आग्रही होना, संकेत और प्रतीकों के प्रति रुझान के अर्थ को समझा जा सकता है। लेकिन यह आग्रह कहानी के फॉर्म में बदलाव को प्रयोगशीलता की जिद में प्रस्तुत करें तो इसका क्या अर्थ है?

यह अचरज तब और बढ़ जाता है। जब इस प्रयोगशीलता को लेखक के साथ आलोचक और समीक्षकों की सहमति भी मिल जाती है। इन सब धतकरम में रचना और यहाँ तक कि कहानी की संभावित हानि की अनदेखी हो रही है।

इन सब उत्साह और उपक्रमों के बावजूद कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो चुपचाप धैर्य से रचना कर्म में जुटे हैं। जिनके लिए रचना ही अभीष्ट है। ये इस भीड़ का हिस्सा हैं लेकिन इसलिए भी भीड़ से अलग हैं कि इनके पास रचनात्मकता के लिए जरूरी धैर्य शेष है। अनेक ऐसे नए लेखक हैं जो इस बाजार समय में अधिक तटस्थता और लेखकीय ईमानदारी के साथ अपनी रचनात्मकता के प्रति निष्ठावान हैं।

कई बार अनायास ऐसी रचनाएँ भी सम्मुख आ जाती हैं जो इसी लेखकीय धैर्य का परिचय देती हैं। इन रचनाओं में परम्परा से अलगाव की उदग्रता नहीं समान्तर सहमति की राह होती है। पिछले दिनों कैलाश वानखेड़े का कहानी संग्रह सत्यापनऔर वंदना शुक्ल का कहानी संग्रह उड़ानों के सारांशपढ़ कर लगा कि नई पीढ़ी के भीड़ भरे माहौल में आश्वस्ति देने वाले नाम शेष हैं। इन दोनों संग्रह का उल्लेख करने का कारण है। कैलाश वानखेड़े के संग्रह की अधिकांश कहानियाँ दलित उत्पीड़न की कहानियाँ हैं बावजूद इसके इन कहानियों में उस तरह की आक्रामकता नहीं है जिसने दलित लेखन से सम्बद्ध अनेक नवोदित कहानीकारों का अहित किया है।

  (चित्र : वन्दना शुक्ल)

वंदना शुक्ल के संग्रह में स्त्री स्वतन्त्रता को लेकर प्रचलित ओर कुख्यात तलवारें नहीं खींची गई हैं। साथ ही स्त्री लेखन के चिर-परिचित घर-परिवार के परम्परागत कथानक नहीं हैं जिसमें स्त्री शोषण या स्त्री के त्याग की कथित करूण और महान कथाएँ होती हैं। प्रसंगवश याद आ रहा है कि कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका ने कहीं लिखा था कि एक युवा लेखिका ने उनसे जिज्ञासा प्रकट की थी कि क्या सेक्स का तड़का लगाने से रचना लोकप्रिय हो जाती है?‘ यह बाजार इच्छा इधर की अधिकांश लेखिकाओं की रचनाओं में नजर आती है।

वंदना शुक्ल की कहानियाँ यह तसल्ली देती हैं कि इन कहानियों में प्रेम दृश्यों की जरूरत में गहरे रसवाद में डूबे गैर जरूरी वर्णन नहीं हैं।

वंदना शुक्ल के कहानी संग्रह की एक कहानी शहर में अजनबीएक ओर शिक्षा पद्धति और भाषा के दखल की कहानी है लेकिन इसी के समान्तर पीढ़ियों के सोच और उस सोच के हस्तान्तरण की कहानी भी है। वर्तमान में जिस तरह बच्चों पर माता-पिता की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का दबाव है उसकी अनुगूँज भी इसमें मौजूद है लेकिन उस इच्छा के विस्तार में जहाँ उस दबाव का दुष्परिणाम है तो दूसरी ओर साधनहीन लेकिन मेधावी बच्चों तक ज्ञान की पहुँच बनाने की इच्छा के परिणाम का संकेत भी है।

हालाँकि इसी कथानक के आसपास वंदना शुक्ल की एक कहानी युग‘ (कथादेश – अक्टूबर 2012) भी है जो इस संग्रह में तो नहीं है लेकिन शहर में अजनबीके आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से थोड़ा आगे जाकर इस परम्परागत यथार्थ की छवि को किंचित ध्वस्त करती है। शहर में अजनबीका आदर्श के प्रति आस्थावान पिता युगतक आते-आते गरीबी और अभाव से परास्त हो जाता है। लेकिन उनके परास्त होने में जो हड़बड़ी है वह थोड़ी असहज लगती है। हालाँकि लेखिका ने उसके लिए पृष्ठभूमि पर्याप्त तैयार भी की थी लेकिन निर्णय एक छलाँग लगाने की भाँति है। जहाँ पिता अपने पुराने संस्कारों को तिलांजलि देकर बेटी को मेले-ठेले और चुनावों में गायकी के लिए भेजने को तैयार हो जाता है। यह मूल्यों की गिरावट है जो शहर में अजनबीके पिता से चलकर युगके पिता तक आते-आते स्पष्ट होती है। इसी तरह यह वंदना शुक्ल के लेखन के यथार्थ की यात्रा भी है। शहर में अजनबीके सामाजिक सन्दर्भ और एक किस्म का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद युगमें दाखिल होकर बौद्धिक आत्म सजगता की पैरवी के बहाने अपने समय के सच की तस्वीर बनाने लगता है।

शहर में अजनबीका पिता श्री माधव सच्चिदानंद जोशी एम.ए. बी.एड. की पारिवारिक परम्परा एक आदर्शवादी धरोहर रही …… अपने दोनों पुत्रों को गाँधी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश दिलाया था जहाँ बिल्कुल हिन्दी माध्यम में शिक्षा दी जाती थी। …..खास बात यह थी कि यहाँ नैतिक शिक्षा का एक अलग पीरियड का प्रावधान था (शहर में अजनबी – पेज 75) नैतिक शिक्षा का प्रबल पक्षधर यह पिता युगमें हिन्दी का शिक्षक है और बेटी के अंग्रेजी स्कूल में दाखिले से ग्लानि से भर जाते हैं क्योंकि मास्साब के रक्त में गाँधीवाद के कीटाणुओं की प्रवाहशीलता उनकी प्रतिष्ठा का प्रमाण पत्र थी और गर्व की वजह भी।युग के मास्साब के रक्त में गाँधीवाद के कीटाणुहैं यानी बदलाव की भूमिका लेखिका की निजी सहमति से तैयार हो रही है। शहर में अजनबीका यथार्थवाद युगके यथार्थवाद में निषेध की ध्वनि रखता है और हम अगली कहानी जल कुम्भियाँपढ़ते हैं तो वह ध्वनि एक बड़ा आकार ग्रहण करती है। लगभग एक से पात्रों के साथ कथानक में भिन्न धरातल दोनों कहानियों में मौजूद हैं।

जलकुम्भियाँमें लेखिका के पास स्थितियाँ ज्यादा स्पष्ट हैं बल्कि ऐसा मन बना लिया। माँ-बाप द्वारा बेटे की मर्जी के खिलाफ एक अपढ़ लड़की से विवाह का दबाव और बेटे की प्रेमिका का विद्रोह के लिए दबाव। यह अन्तर्द्वन्द्व दूसरी दिशा में जा सकता था लेकिन नायक की प्रेमिका स्वाति के चरित्र की प्रस्तुति में ऐसी कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई कि पाठक की सहानुभूति स्वाति के जरिये नायक के अन्तर्द्वन्द्व तक पहुँचे। स्वाति को जिस तरह चतुर, चालाक और स्वार्थी बताया गया है वहाँ से नायक के भीतर उस तरह के अन्तर्द्वन्द्व की जगह नहीं बन पाती है। लेकिन यह जगह बहुत खूबसूरती से दूसरी जगह तैयार होती है। मूरिया जिससे नायक की शादी जबरन की जाती है, उसके अपढ़ होने से और उसकी असहाय उपस्थिति से वह अन्तर्द्वन्द्व तैयार होता है। यह एक कठिन काम था जिसमें एक दुनियादार नायक जो शहरी चमक-दमक से प्रभावित और उसी चमक में रहने का आकांक्षी है। उसी नायक की शादी एक अपढ़ लड़की से, वह भी जबरन, अपहरण करके कर दी जाती है। ऐसी परिस्थितियों में अपढ़ और गँवार पत्नी के प्रति घृणा, पहले करूणा में फिर प्रेम में तब्दील होती है। यह एक क्रमिक परिवर्तन था जिसमें लेखकीय धैर्य के साथ भाषा के उस कौशल की दरकार थी जो नायक में जरूरी अन्तर्द्वन्द्व के बगैर अधूरा रह जाता।

इसी संग्रह में आवाजेंकहानी बहुत ही खूबसूरत बुनावट की कहानी है। स्मृतियों के भीतर ठहर गए छुट्टन मियाँ ऐसे उलाहनों से वक्ती तौर पर सिर्फ हड़बड़ा जाते हैं, मुक्त नहीं होते, ‘अब इस कदर दीवाने ना होइए अब्बू कि धूप छाँव का मतलब ही भूल जाइएगा।‘ (आवाजें – पेज 73) लेकिन छुट्टन मियाँ भूलते नहीं। स्मृतियों में दुःख के कारण भी छिपे हैं लेकिन वह छुट्टन मियाँ भूलने के विरूद्ध हैं। स्मृतियों की धुँध में तैरती आवाजें उन आवाजों से उपजती बेबसी अकेलापन और इस अकेलेपन में यह अफसोस कि धीर-धीरे सब चले गए बुजुर्ग, रस्मों-रिवाज, मिरासिनें, महफिलें, रौनक, ठाठ-बाट, इज्जत, मेहमाननवाजी, किस्से, बतौले, गम्मतें।‘ (आवाजें – पेज 68) दरअसल यह कहानी इस धारणा को पुख्ता करती है कि जो कलाकार जीवन भर कला में जीता है उसी में मरना चाहता है। संगीतकार के लिए संगीत से बड़ा कोई साथी नहीं। संगीत की कोरी रूमानियत से बाहर आकर एक मानवीय मार्मिकता में कहानी तब दाखिल होती है जब भाषा की बुनावट और बनावट स्मृतियों की उन्हीं गलियों में साथ निकल पड़ती हैं जहाँ कलात्मक लय एक उदात्त मानवीयता से संलग्न होती है।

यह कम अचरज नहीं है कि गहरी पीड़ा, अकेलेपन का बोझ और बेबसी से भरी इस कहानी को पढ़ कर मन हल्का हो जाता है। कहानी हमें एक ऐसा अकेलापन सौंप देती है जिसके साथ कुछ देर रहना भला लगता है। 

दरअसल वंदना की ये कहानियाँ महिला लेखन में अन्तर्वस्तु के विस्तार का खूबसूरत उदाहरण है। बारीक बुनावट और करूणा के मानवीय पक्ष को एक नैतिक दार्शनिकता में बदलने के लिए कहानियों में परम्परागत यथार्थ के निषेध का आग्रह गैर जरूरी नहीं लगता है।

कैलाश वानखेड़े की कहानियों में भी यही लौटनाहै। इसी वापसी में अन्तर्वस्तु प्रकट होती है। कई बार तो यह मोह इतना अधिक है कि कुछ कहानियों को साथ जोड़ दें तो थोड़े कथानक विस्तार में उपन्यास हो सकता है। वंदना के पास कथा की भिन्नता है लेकिन कैलाश के पास कथ्य को लेकर एक सामाजिक पीड़ा जिसे एक किस्म का दायित्व-बोझ भी कह सकते हैं, उसका दबाव है। प्रश्न यह हो सकता है क्या इस तरह रचना संसार व्यापक और सम्पन्न बन पाएगा? कैलाश वानखेड़े को अपने जीवनानुभवों को कथा-यथार्थ में रूपान्तरण के लिए जिस रचना-कौशल की जरूरत है उसके संकेत कहानियों में नजर आते हैं।
 

  (चित्र : कैलाश वानखेड़े)

सत्यापितकहानी में नायक को महज अपना प्रमाण पत्र अपना फोटो परिचय सत्यापित कराना है। यह एक बेहद मामूली काम है लेकिन एक दलित युवक के लिए यह अपने अस्तित्व के पहचान का प्रश्न हो जाता है। निरन्तर अस्वीकार का अपमान उस वर्ग बोध से जुड़ता है। जहाँ दलित अपनी पहचान और प्रतिष्ठा के लिए संघर्षरत् है। उस संघर्ष का अहम हिस्सा यही है कि जो हमें नहीं जानता, नहीं पहचानता, वही हमें सत्यापित करता है।‘ (सत्यापित – पृष्ठ 17) यहीं से विचार और अनुभव के द्वन्द्व का दृश्य बनता है। यही संघर्ष तुम लोग‘, ‘घण्टी‘, ‘स्कॉलरशिप‘, कितने बुष कित्ते मनुऔर खापामें भी मौजूद है। खापाकहानी में नायक की पीड़ा और संघर्ष का एक मूक साझीदार वह आम बेचने वाला बूढ़ा भी है। यह साझा पीड़ा कहानी का ऐसा धरातल तैयार करती है जिसमें निज का संघर्ष बहुलता की ओर विस्तार लेने के उपक्रम दर्शाता है। नानक दुनिया सब संसारकहावत इसी कहानी का अदृश्य हिस्सा है। जिसे नायक समझता है। पीड़ा, अपमान और संघर्ष के अकेलेपन में उसे अपना दिलासा बनाता है। कितने बुष कित्ते मनुका नायक भी अपने आक्रोश की दिशा खोज रहा है लेकिन तसल्ली की बात है कि वह अबूझ आक्रोश के हिस्से में जाने से पहले उसके कारक तत्व तलाशने इतिहास में दाखिल होना चाहता है। वह अपमान की अंधी सुरंग में भटक नहीं रहा है। वह अपमान की आवाज को उसके मूल अर्थों में खोजना चाहता है। लेकिन जबान कहीं खो गई है। किसी पुराने सड़ते हुए ग्रंथों के किसी श्लोक में। दब गई किसी मंदिर के गर्भगृह में।‘ (कितने बुष कित्ते मनु – पेज 97)

कैलाश वानखेड़े दलित लेखन की धारा में इसलिए थोड़े अलग हटकर उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं कि उनके पास दिशाहीन और अकारण आक्रोश नहीं है। प्रायः दलित पक्षधरता की कहानियों में आक्रोश वर्ग के लिए नहीं, व्यक्ति के लिए है। कैलाश के पास एक संयत आक्रोश है जो अनुभव और विचार के द्वन्द्व में जड़ों को टटोलकर चीजों और स्थितियों को विश्लेषित कर रहे हैं। इन कहानियों में पीड़ा के साथ एक ऐसी लेखकीय आत्मीयता संलग्न है जो पूरी सामाजिक संरचना के प्रति आक्रोश रखती है जहाँ दलित के अस्तित्व को अर्थहीन बनाए जाने का षड़यंत्र है। लेखक का जोर प्रतिशोध की अपेक्षा अस्तित्व और प्रतिष्ठा की स्थापना के संघर्ष पर है। इसलिए यह एक भावुक आक्रोश की अपेक्षा संयत बौद्धिक और संवेदन प्रतिकार है।

थोड़े बदलाव के साथ एक प्रमाण पत्र की उम्मीद घण्टीमें भी है। यह जाति के लिए नहीं, श्रम, निष्ठा और समर्पण की निरन्तरता के लिए प्रमाण पत्र चाहिए। वही सबसे कठिन काम है। लेकिन बेगारी की तरह किए जा रहे काम को जो धरमकी तरह स्वीकार कर चुका था वहीं वृद्ध चपरासी अपने बेटे की प्रतिष्ठा के लिए अफसर को तमाचा मार देता है। यह तमाचा एक निजी अपमान का प्रतिकार भर नहीं बल्कि यह वर्ग की प्रतिष्ठा की रक्षा में संचित क्रोध का उद्घाटन है।

इसी संग्रह की कहानी अन्तरदेशीय पत्रअपने गठन और ट्रीटमेंट में पठनीय है। यह कहानी स्मृतियों में सेंध लगाती है। अन्तर्देशीय पत्र जो आज सूचना एवं संचार माध्यमों के सैलाब में एक अचरज की भाँति लगता है। वह कहानी के साथ-साथ हमारी स्मृतियों को भी टटोलकर उसके नए रूप प्रकट करता है। यह कहानी बेहद कोमल और प्रभावी है।

कैलाश वानखेड़े की रचनात्मकता में लोकतंत्र के लिए एक ऐसा उदार स्पेस है जहाँ न्याय, समता और मानवीयता को साँस लेने में सुविधा है। यह ऐसी दलित पक्षधरता है जिसमें एक किस्म की उत्तेजना तो है लेकिन प्रतिशोध की उदग्रता नहीं है। दलित चेतना और संवेदना के युग्म में कहानियाँ उस मानवीय मार्मिकता की खोज करती है जेा यथार्थ से नाता नहीं तोड़ती है। सामाजिक संरचना की विसंगतियों से बेहद अमानवीय परिणाम सामने आए हैं उस पीड़ा की अभिव्यक्ति के बेहद कारूणिक दृश्य इन कहानियों में हैं। कैलाश वानखेड़े की सफलता यही है कि उनका दृष्टिकोण समाज सापेक्ष है लेकिन वो निजकी अवहेलना भी नहीं करते हैं। वे दलित चेतना को पूरी पक्षधरता और रक्षा संकल्प के साथ यथार्थ से सम्बद्ध करते हैं। यथार्थ जीवन के परिवेश से असंतृप्त होने के खतरे वे जानते हैं। यही कारण है कि पक्षधरता, सम्बद्धता और नैतिक उत्तरदायित्व के द्वन्द्व का वे एक रचना दृष्टि में विलय करते हैं। जाहिर है कि रचना अंततः एक क्रिएटिव-विजन का ही परिणाम है। जरूरी है कि कैलाश इस विजन के लिए धैर्य बनाए रखे। इन कहानियों को पढ़कर लगता है कि वे धीरे-धीरे एक असरदार भाषा विकसित कर रहे हैं। किंचित अचरज जरूर होता है कि इन कहानियों में राजनीतिक चेतना की उपस्थिति नहीं है जो दलित उत्पीड़न का एक बड़ा कारण रही है। फिर भी कैलाश वानखेड़े अपने पहले संग्रह से अपनी रचनात्मकता में आश्वस्ति को सत्यापित करते हैं।

कैलाश वानखेड़े की अधिकांश कहानियों में दो कहानियाँ समानान्तर चलती हैं। संभवतः यह हर पात्र के साथ न्याय रखने की इच्छा भी है और विचारों के समस्त आवेग को एक ही कहानी में रखने का मोह भी।
                                                                                                
समीक्ष्य संग्रह-

उड़ानों के सारांश – लेखक: वंदना शुक्ल

प्रकाशकअंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद

मूल्य रु. 250/-

वर्ष 2013

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सत्यापन (कहानी संग्रह)- लेखक: कैलाश वानखेड़े

प्रकाशक – आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा

मूल्य- रु 80/-

वर्ष – 2013

समीक्षक-

भालचन्द्र जोशी

13, एच.आय.जी. ओल्ड हाउसिंग बोर्ड

कॉलोनी, जैतापुर खरगोन 451001 (म.प्र.)

मोबाइल नम्बर – 08989432087
(कथादेश के दिसंबर 2013 अंक से साभार)

वन्दना शुक्ला


हमारे समय के कहानीकारों में वन्दना शुक्ला अब एक सुपरिचित नाम है। इधर की पत्र-पत्रिकाओं में वन्दना ने अपनी कहानियों के जरिये अपनी एक सुस्पष्ट पहचान बना ली है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है वन्दना शुक्ला का की लम्बी कहानी ‘किस्सों में कोलाज’ का एक अंश।  

चौथा किस्सा  

मै चला जा रहा था एक अनजान से रास्ते पर निहायत नामालूम सडकों पर से होता हुआ। मै इस वक़्त मनुष्य के जीवन की आदिम अवस्था में था बिलकुल एक खानाबदोश जिसे खुद नहीं मालूम कि उसका अगला ठिकाना कहाँ होगा? वैसे भी एक किस्सागो और खानाबदोश में बहुत कम फर्क होता है। हाडतोड़ जाड़ा, धूसर बेरंग ऊंघता आकाश, हर चीज़ अपने में धुंधलाहट लपेटे हुए कहीं जंगल, कहीं खेत, कहीं इमारतों की भीड़ जिनकी चिमनियों से मटमैला गाढा धुआं बलखाता हुआ निकल रहा था। तब मुझे याद आई उस बुद्धिजीवियों के देस की …जो उस दुकान वाले आदमी ने मुझे बताया था और मैं अपने किस्सों की पोटली लिए चल पड़ा उस दिशा में। लडकी की गीली स्मृति मेरे किस्सों की गठरी में सबसे ज्यादा भारी थी। उस वक़्त मुझे महसूस हुआ कि कुछ चीज़ें खो जाने के बाद अधिक बोझिल हो जाती हैं। जीवन में कुछ दिन खुशियों भरे पा लेना भी तो चमत्कार से कम नहीं होता? पता नहीं वो लडकी की याद थी या मेरे प्रायश्चित जिनकी अँधेरी सुरंग में मै प्रवेश कर रहा था या शायद लडकी अपनी ख़ूबसूरत आँखों की घनी बरौनियाँ झुका कर मुस्कुरा रही थी। मेरा शरीर रोमांच से भर गया। मै चलता गया चलता गया उसकी यादें जो मेरी उदासी के घुप्प अँधेरे में लालटेन लिए मेरे आगे आगे चल रही थीं। मेरे किरमिच के जूते घिस गए तलवे धुप में सुलगने लगे पर मै चलता गया। मेरे बाल दाड़ी और नाख़ून बढ़ गए मुझे खुद से कोफ़्त होने लगी। सडकें युगों से लम्बी थीं। रास्ते के जंगल में लगे शहतूत, आंवले, अमरुद जैसे पेड़ों के फल खा कर मै अपना पेट भरता और किसी भी पेड़ के नीचे पोटली सर के नीचे रख कर सो जाता और आखिरकार मै वहां पहुँच ही गया। वहां के लोगों की पोशाकें कुछ अलग किस्म की थीं। लम्बे कुरते और पाजामे कंधे पर झोला और चेहरा बालों से भरा हुआ। कुछ लोग नदी किनारे बैठे नदी पहाड़ों व् आसमान में उड़ते पक्षियों की तरफ एकटक देख रहे थे और फिर कुछ लिख रहे थे। मैंने अपना किस्सों का झोला टटोला शायद इन्हें पक्षियों या बारिश के किस्सों की ज़रुरत है मै किनारे बैठ कर उन्हें ध्यान से देखने लगा। मुझे प्यास लगी थी जब तक मैंने अंजुली में नदी से भर कर पानी पीया वो मनुष्य गायब हो गए।

‘यहाँ के लोगों के पास वक़्त की बहुत कमी है। ये मेरी पहली राय थी इस देश के नागरिकों के बारे में। |मैंने अपने छोटे किस्सों को गठरी में ऊपर की तरफ सहेजकर रख लिया।
कुछ दूरी पर एक समूह में लोग खड़े हुए कुछ चर्चा कर रहे थे। |मैं उनके पास गया …मैंने कहा
‘’जनाब …मै किस्सों के देस से आया हूँ किस्सागो हूँ किस्से बेचता हूँ क्या आप खरीदेंगे मेरे किस्से? हलाकि मै बहुत भूखा था और उनसे घिघिया कर अपनी हालत बयान और किस्सा खरीदने का अनुरोध करना चाहता था मुझे यकीन था कि मेरी हालत पर वो पिघल जाते और कुछ भोजन की व्यवस्था करा देते लेकिन अपनी पुश्तैनी खुद्दारी का क्या करूँ बताइए जो वक़्त-बेवक्त कहीं भी ढीठ बालक की तरह अड़ जाती थी! वो लोग कुछ देर मुझे घूरते रहे उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा …अब मुझे इस प्रतिक्रिया की आदत हो चुकी थी।
ठीक है खरीद सकते हैं।

मैंने देर से बचाई अपनी अधूरी सांसें पूरी कीं और दबोची हुई भूख को ज़रा खुला छोड़ दिया।
निस्संदेह तुम हमारी ही बिरादरी के हो। हम लिखते हैं तुम उन्हें कहते हो बस विधा का ही फर्क है श्रीमान। वैसे आपके साहित्य रचने का उद्देश्य क्या है?
साहित्य शब्द मेरे लिए उतना ही आक्रान्तक और नया था जितना उद्देश्य।
मुझे असमंजित  भाव-मुद्रा में देख उन्होंने कहा
‘हमारा तात्पर्य कौन सी विचारधारा के किस्से हैं आपके पास?  मार्क्सवादी या दक्षिण पंथी? प्रगतिशील किस्सागो हो या जनवादी? प्रेमचन्द से प्रभावित हो या अज्ञेय से? उनमे से एक ने जिसके चेहरे पर सयानेपन का तेज़ दिपदिपा रहा था कहा
ये क्या होता है जनाब… हम तो केवल जीवनधारा समझते हैं विचारधारा का मतलब भी नहीं जानते सरकार। हम तो बस यूँ ही सुने सुनाये किस्से  ….

अरे आप कैसे किस्सागो हैं भाई? विचारधारा का मतलब तक नहीं जानते?
मैं आत्म ग्लानी से बुझा सा आँखों से ज़मीन खोदने लगा।
बिना विचारधारा के आखिर जिंदा कैसे हैं आप और क्यूँ? उनके चेहरे पर हिकारत के भाव देख कर मेरी रही सही आशा भी टूटती दिखाई देने लगी।
मै फिर मुहं बाए उनकी और देखता रह गया।  काश पहले पता होता कि इस प्रश्न से दो चार होना पड़ेगा  तो दादी से बचपने में ही पूछ लिया होता विचारधारा का मतलब ..वही तो हैं मेरी सबसे पहली गुरु थीं …किस्सों की खदान मेरी दादी ..दुनियां की सबसे बड़ी किस्सागो…
अचानक उन साहित्य मनीषियों में से एक स्वर फिर गूंजा
चलो कोई बात नहीं …कई लेखक भी सौन्दर्य बोध को विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। वैसे भी सोवियत संघ के टूटने के बाद अब तो विचारधाराओं की चौखटें भी तड़क रही हैं। अमेरिकी विद्वानों ने तो इस दौर को एंड ऑफ़ आईडीयोलोजी तक कह ही दिया है!…..

अच्छा ठीक है (एक पांडित्य पीड़ित ने कहा )-….तो ये बताइए कि किर्केगाद और एलेन की तरह आप आस्थावादी दार्शनिक हैं अथवा  सार्त्र कामू की तरह अनीश्वरवादी? फेंटेसी या यथार्थवादी …कवि भी हैं साथ में तो छायावादी हैं या मुक्त छंद की कवितायेँ लिखते हैं? ये तो पता ही होगा कि आज के ज़माने में लेखक सिर्फ एक विधा का खूंटा पकड लेखक नहीं बन सकता वो कवी/कथाकार /आलोचक/निबंधकार/दार्शनिक/ प्रकाशक,संपादक आत्म कथाकार अगड़म-बगड़म अल्लम वल्लम सब का कॉकटेल होता है …नहीं तो टुच्चा लेखक कहाता है।
मैं किंकर्तव्य विमूढ़ता की हदों को लांघता भोंचक …।

लगता है ये महाशय आधुनिकता और विकास का ककहरा भी नहीं जाते …अरे श्रीमान आपने बाजारवाद, ग्लोबल कल्चर , विश्व ग्राम, यानी ग्लोबल विलेज जैसे नाम सुने हैं ? दूसरा स्वर मेरे कानों में आ कर गिरा
उनके उलाहने मूर्खता बन मेरे चेहरे से टप-टप निचुड़ रहे थे।

अब मुझसे प्रश्न करने वाला खीझ गया बोला -अरे भाई कोई तो विषय होते होंगे तुम्हारे किस्सों के …कोई ख़ास जैसे वामपंथी आन्दोलन,स्त्रियों पर अत्याचार के ,सर्वहारा वर्ग और दलितों की दुर्दशा के साहित्यिक संगठनों या फिर राजनैतिक अव्यवस्थाओं के ,पर्यावरण,भूमंडलीकरण और उसका प्रभाव या निखालिस प्रेम के किस्से। जैसे इन दिनों यहाँ दलितों ,स्त्री विमर्शों ,पर्यावरण ,के किस्से खूब बिकाऊ हैं ऊँची कीमत में बिक रहे हैं। फिर तुम जैसे दलित साहित्यकारों को तो आजकल ख़ास नोटिस किया जाता है।

‘जनाब ..हम आदमी की नहीं किस्सागों की संतानें हैं और किस्सों का कोई मज़हब कोई जात नहीं होती। हम लोग मेहनत करते हैं अपने किसान भाइयों,और अन्य पेशे वालों का सहयोग करते हैं और किस्सागोई तो मुख्य काम है ही हमारा !
“ठीक है, ठीक है कोई बात नहीं आजकल साहित्य में जाति के अलावा और भी कई ज्वलंत मुद्दे हैं’’ उस आदमी ने माहौल को शांत करने के लिए एक वाक्य जड़ा।
मुझे लग रहा था जैसे मै किसी पौराणिक हडप्पा मोहनजोदड़ो जैसी गुफाई सभ्यता से सीधा यहाँ आ गया हूँ और मेरे और इनके बीच में हजारों युगों का अंतराल है।
‘लगता है अभी तक महाभारत रामायण काल के झाड पर ही अटके हुए हो श्रीमान’ एक आदमी ने मखौल किया
तो उस काल को फोलो करने में बुराई ही क्या है? (एक बुजुर्ग, बकरी कट दाढ़ी होठ पान से रंगे हुए, लखनवी कुरता पजामा पहने जिनका पहनावा और रंग रूप चीख चीख कर उनके उर्दू शायर होने का एलान कर रहा था)  पान की पीक थूक कर उन्होंने जो सांकेतिक तीन बिंदु अपने वाक्य के आगे छोड़ दिए थे जो बात के अभी अधूरी होने के धोतक थे उनके आगे उन्होंने अपने शब्द फिर टिका दिए (चरित्रगत पोस्टमार्टम यानी चीर फाड़ के अनुभव जीवन में पहली मर्तबा ही हो रहे थे मुझे।)

‘गालिबन ये जनाब ऋग्वेद के रचयिताओं के खानदान से ताल्लुक रखते हैं या फिर कबीर रैदास की परिपाटी के क्यूँ कि उस वक़्त में लेखक कडा श्रम भी करते थे और खाली वक़्त में ऋचाएं या साखियाँ /दोहे लिखा करते थे। सूरदास तो थे ही ‘सूरदास’ लिख पढ़ भी नहीं पाते थे और नियति (हम गरीब लेखकों की विडंबना की तर्ज़ में)  देखों कि सैकड़ों वर्षों बाद आज भी उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में ठाठ से जमे बैठे हैं। बताओ.ज़रा ..उसने दूसरे विद्वान् की और करुना से देखा ..सहमति का दुःख जिसके चेहरे पर खेल रहा था…फिर अचानक स्वर बदल कर कहा जो मुझसे सम्बंधित था ‘लेकिन बरखुरदार आपको इत्तला दे देवें कि अब ऐसा नहीं है ज़माना करवट ले चूका है। अब राइटर साहित्य का फुल टाईमर है। वैसा श्रम नहीं करता सिर्फ लिखता है।..वो बुद्धिजीवी है … वैसे आपकी सूचनार्थ श्रमजीवियों का हमारे यहाँ एक अलग वर्ग है जिन पर साहित्य रचना अब किसी ख़ास विचारधारा को मानने का संकेत भी है और उस पर बड़े बड़े आयोजन लेखन और बहस मुहाव्से करना एक फैशन भी …समझे के नहीं?

मैंने कहा -जनाब आप लोग क्या कह रहे हैं हमें सचमुच कुछ समझ में नहीं आ रहा है। हम तो आप जितने पढ़े लिखे विद्वान नहीं सधारण से गंवई किस्सागो हैं। कल्पना के पंखदार घोड़े उड़ाते हैं। उसी के पीछे बिठा लेते हैं। अपने हुन्कारियों (किस्से सुनने वालों) को खिला आते हैं एकाध चक्कर यथार्थ से दूर किसी सपने की दुनिया का बस लोग भी खुश हम भी। भरे पेट में ये हलके फुल्के किस्से मन को ठंडक देते हैं और खाली पेट में भूख को राहत। जहाँ तक मुझ जैसे किस्सागो का सवाल है पेट भर खाना और देह पर कपडे के लिए इतना बहुत है। ज़िंदगी और सपनों में फर्क रखते हैं हम श्रीमान एक दूसरे पर अतिक्रमण नहीं करने देते। कद से ऊंचे सपनों का ज़िंदगी में दाखिल हो जाना बहुत डराता है हमें दरअसल हमारा मकसद आप बड़े पढ़े लिखे बुद्धिमानों जैसा कोई समाज सुधार या अन्याय से मुठभेड़ ,या कोई पर्दाफ़ाश करना नहीं।

 (अरे स्टिंग ओपरेशन की बात कर रहा है …एक ने अपने निकटस्थ साथी को कुहनी मारते फुसफुसाते हुए कहा।)  मैंने अपना कहना जारी रखा .’सच पूछिए सरकार तो हमारे देस में इन सबकी ज़रुरत ही नहीं पड़ती। सब अपना काम करते हैं मेहनत मजदूरी करके पेट पालते हैं। कोई छोटा बड़ा नहीं। एक दूसरे की फ़िक्र करते हैं। जब कभी कोई तनाव या दुःख होता है तो हमसे हलके फुल्के किस्से सुन संतुष्ट हो जाते हैं। ज़िंदगी जैसी भी मिली है खुशी २ जीते हैं और मौत को प्रकृति का एक ज़रूरी नियम मान उसका स्वागत करते हुए विदा होते हैं न ज़िंदगी पा लेने की खुशी ना मौत पर हाहाकार। हमारे किस्से ‘’भाषाई कुसंस्कार, स्त्री मुक्ति आन्दोलन, या विचारधाराओं की माथापच्ची से मुक्त जादुई कालीन, बोलने वाली नदी, बेताल पचीसी, रूप बसंत, केतकी और कुंवर भान की कहानी, सिंहासन बतीसी विक्रमादित्य का न्याय जैसे सीधे साधे होते हैं।

मेरी बात सुन कर वो लोग कुछ देर एक दूसरे की और देखते रहे। फिर एक ने कहा अरे भैये एक ही बात है। लो मिलाओ हाथ …। हम तो समझे थे कोई बड़ा फर्क है हम्मे तुममे …। अरे तुम जो किस्से सुनाते हो उन्हें हमारे यहाँ फेंटेसी कहते हैं। ‘क्लौड ईथरली और ब्रम्हराक्षस का शिष्य का नाम तो खैर पहुंचा नहीं होगा तुम तक। काफ्का का ‘’मेतामोर्फोसिस’’तो क्या ही सुना होगा इन्होने! एकाध हालीवुडाना फिल्म भी देखे होते तो हमारा मंतव्य भांप लेते ये…. है के नहीं! आदमी ने अपने साथियों की और कन्खियाते हुए कहा। फिर मेरी और मुखातिब होते हुए बोला ‘खैर बस इतना जान लो कि साहित्य के बाज़ार में आजकल लेटेस्ट इन्ही की मांग है लेटेस्ट फैशन जानते हो न बस वही …इसे इनोवेटिव फिक्शन भी कह सकते हैं। आज मुक्तकों, व्यंजनाओं, क्षेपकों का युग है। खैर अभी आप ये जटिल शब्द नहीं समझेंगें। आप तो महाशय साहित्य के खुदरा उत्पाद हैं वो क्या कहते हैं उसे !…हाँ … प्रतिभा का कच्चा माल …आपके प्रोडक्ट को तराशना ,बेचना मोल भाव लगाना हम साहित्य के महाजनों का काम है …। हीरा जब तक तराशा ना जाये ज़मीन के पेट में सोया कोयला ही तो होता है किस काम का बताइए तो ज़रा? उसने शायद कोई लतीफा कहा था क्यूँ कि बाकी सब लोग इस बात पर हो हो हो हो करके हंसने लगे थे। न जाने मुझे ऐसा क्यूँ लग रहा था कि उन विद्वानों का हर हंसना मुझ पर ही ख़त्म हो रहा था खैर।

मै कुछ कहता इससे पहले ही उस बुजुर्ग ‘’मॉनीटर’’ टाइप बुद्धिजीवी ने कहा जो संभवतः उस ‘जमात’ का ‘’वेदव्यास’’ था।   
‘’श्रीमान वैसे आपकी भाषा में काफी वाग्दोष (व्याकरण संबंधी दोष )भी हैं, यू नो साहित्यकार की भाषा में एक कसावट होनी चाहिए एक सधी हुई सम्प्रेश्नीय भाषा होनी चाहिए …एक ‘मेटालिक इफेक्ट’ समझ रहे हैं ना आप?

जी नहीं कुछ नहीं समझ रहे ना समझना चाहते ..मैं बिफर पड़ा .। हम जो हैं वही बने रहना चाहते हैं। हमें नहीं चाहिए आपकी वो विचारधारा ,मेटालिक इफेक्ट,सधी हुई भाषा? मैंने खीझकर कहा …अपने देश वापिस जाना चाहते हैं बस। हमें जाने दीजिये …? मै सचमुच बहुत भूखा और थका हुआ था।

कुछ देर वहां एक आक्रान्त सी चुप्पी छाई रही। अब वो सुती देह का लंबा बुज़ुर्ग व्यक्ति जो धोती कुर्ता पहने आँखों पर ऐनक लगाये सबके बीच में खड़ा था जिसकी प्रसिद्धि के कसीदे कुछ देर पहले ही पढ़े गए थे यही कि लेखक /आलोचक/विमोचन कर्ता भाँती २ से ख्यात है कि इन्होने दो ढाई दशक पूर्व साहित्य में अपने पराक्रम का झंडा गाढ दिया था लेकिन बरसों पहले लिखना छोड़ चुके हैं (निहितार्थ- बुढापे में अपनी ‘पूर्व –प्रसिद्धि’ की उपलब्धि कमाई खा रहे हैं और अब भी साहित्यिक राजकुमारों के द्रोणाचार्य हैं) उसने कहा।

श्रीमान किसी ने लिखा है अपने को और भाषा को बचाने के लिए हो सकता है तुम्हे उस आदमी के पास जाना पड़े जो इस वक़्त नमक भी नहीं खरीद पा रहा है।  ‘…वो आदमी तुम हो …सिर्फ तुम ..’ उसके साथ खड़े सभी विद्वान उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे। न जाने क्यूँ लगा कि मै किन्ही आदिवासियों के गिरोह में फंस गया हूँ और मुझे बलि पर चढाने की कोशिशें की जा रही हैं भांति २ के प्रलोभन दिए जा रहे हैं …। उन लोगों ने अपने वाक् बाणों के तीर मुझ पर तान लिए हैं और मै एक निरीह पशु सा उनके बीच खड़ा थरथरा रहा हूँ। (अपने अद्रश्य सींगों का प्रहार कर मैंने खुद को उनके चंगुल से बचाने का अंतिम प्रयास किया।)

नहीं सरकार …हमें जाने दीजिये …हमारे देशवासी परेशान हो रहे होंगे …मैंने पीछा छुडाने की गरज से कहा
अरे आप तो नाहक बुरा मान गए जी।
पहला आदमी (फिर से ) -अरे ये आपकी बुराई नहीं कर रहे बंधूवर बल्कि आपका भाषाई परिष्कार करने की चेष्टा कर रहे हैं। आप अभी साहित्य में नए नए मौलवी हैं जानते नहीं न उनके कील औजार। जनाब एक बेसिक पाठ पढ़ाये दे रहे हैं आपको कि अब आपके पुराने किस्सों की तरह यहाँ रचना के कथानक पर जोर आज़माइश/ कसरत नहीं की जाती बल्कि भाषा के चमत्कारों में अपने कमज़ोर कथानक को भी खोटे सिक्के की तरह चला दिया जाता है। याद रखो चाहे संगीत हो,साहित्य या कला नए फैशन का पल्लू कस कर पकड़े नहीं चलोगे तो पल्लू खुद से तुम्हे छुडा लेगा। बहुत पीछे छूट जाओगे …समझ रहे हो न! अब मै वहां खड़ा नहीं रह सका खुद को अब इससे ज्यादा मूरख सिद्ध होते हुए देखते जाने का माद्दा ख़त्म हो चूका था मुझमे अब। वहां बड़े बड़े पुरोधा थे उनके हाव भाव चेहरे मोहरे से पांडित्य टप टप टपक रहा था उनके सामने मै अपनी खंडहर ठेठ किस्सागोई को लटकाए घूम रहा था …। मै अकेला था … मै अक्षौहीनी (चतुरंगी सेना ) से घिरा था। मै बड के पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगा। वो कुछ दूरी पर एक गुट बनाकर खड़े हो गए …मैंने ऑंखें बंद कर लीं।

मैं भी बुद्धिमान होना चाहता हूँ।
शास्त्रों में बताया गया है बुद्धिमत्ता क्या होती है।
संसार के झमेलों से बच कर रहना
जो थोडा समय बचा है उसे ठीक से गुजार देना
किसी से डरे बिना, बिना हिंसा किये
हर बुराई का ज़वाब अच्छाई से देना
कामनाओं को पूरी करने के बजाय भुला देना
यही सब बुद्दिमत्ता के लक्षण हैं
इनमे से कोई चीज़ मेरे बस की नहीं
सचमुच मैं अँधेरे दौर में जीता हूँ (बर्तोल्ड ब्रेख्त-अनुवाद असद जैदी )

मैं अब वापिस अपने देस, अपने घर लौटने का मन बना चुका था और जल्दी से जल्दी लौटना चाहता था  सो मैंने अपनी पोटली कंधे पर रखी और फिर चलना शुरू किया लेकिन मैंने बहुत जल्दी ये महसूस किया कि भटक गया हूँ …दिशा ज्ञान खो चुका हूँ। भूख और थकान के मारे निढाल था। मै कुछ दूर चला लेकिन थकावट के कारण लडखडाने लगा और वहीं छाया दार पेड़ के नीचे बैठ गया। मुझे पता ही नहीं पड़ा कि कब मैंने अपने किस्सों की पोटली सर के नीचे रखी और कब चेतना खो बैठा। मै सपनों की एक अजीब और रहस्यमयी दुनियां में पहुँच गया जहाँ मै एक निर्जन सुनसान रास्ते पर चला जा रहा था।  मेरे कन्धों पर किस्सों की पोटली नदारत थी मै घबरा गया। परदेस जा रहा हूँ किस्से खो गए तो क्या खाऊंगा पीऊंगा कहाँ कैसे रहूंगा उस अनजान देस में? मैंने पीछे मुड़ कर देखा वो धूप में चौंधियाता हुआ सिलवटी रेत का अथाह समुद्र था दूर दूर तक जीवन का कोई चिन्ह नहीं। मै एक ऐसे रेगिस्तान में घुस गया था जिसका वापसी का कोई मार्ग नहीं था। विशाल अपरिमित रेगिस्तान। रेत ही रेत…धूप में जलती देह से नमी की एक एक बूँद पीती ..मेरे पीछे छूटती जा रही वो अंतहीन सडक जिस पर मै चला जा रहा था उस पर किस्से बिखरे हुए थे मेरी पोटली में शायद छिद्र हो गया था मुझे पता ही नहीं चला और वो पोटली में से रिसते गए। मै पसीने से तरबतर हो गया। प्यास से मेरा गला तडक रहा था। काश कोई मुझे नींद से जगा देता …मेरे सपनों को छिन्न भिन्न कर देता मै आत्मा में तडप रहा था एन उसी वक़्त मुझे लगा कि मेरे भीतर किसी परकाया ने प्रवेश किया …एक झटका लगा जैसे स्पीड ब्रेकर आ जाने पर गाडी में लगता है।

मैंने मिचमिचाते हुए ऑंखें खोलीं जैसे बच्चा माँ के गर्भ से बाहर आकर किसी नई दुनियां में ऑंखें खोलता है।
दो आदमी मेरे सामने खड़े थे। वो लोग मेरे सामने अलादीन के चराग की तरह नमूदार हुए। मैंने ऑंखें मीडीं और उठ बैठा। 

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