भाविनी त्रिपाठी की कहानी ‘नेवले’


भाविनी त्रिपाठी

भाविनी त्रिपाठी बी टेक द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं। उनमें गहरे साहित्यिक संस्कार भरे हुए हैं। उनकी कहानियाँ पढ़ कर आप सहज ही इसका अंदाजा लगा सकते हैं कि भाविनी में भविष्य का एक संभावनाशील रचनाकार संचित है। ‘नेवले’ कहानी के माध्यम से भाविनी ने उन तत्वों को उजागर करने की कोशिश किया है जो छुपे रुस्तम होते हैं। ऐसे लोग मौके की ताक में रहते हैं और अवसर मिलते ही अपनी क्रूरता दिखाने से नहीं चूकते। ‘पहली बार’ पर आप पहले भी भाविनी की कहानियाँ पढ़ चुके हैं। आइए आज हम पढ़ते हैं उनकी एक और नयी कहानी ‘नेवले’   
नेवले

भाविनी त्रिपाठी
तुम्हारा प्रथम स्पर्श अब भी स्मृति-पटल पर अंकित है… सर्वथा सुरक्षित। कैसे भुला सकती हूँ मैं उस दिन को, उस सुबह को, जब तुम आई थी, मेरे घर से अधिक मेरे दिल में। याद है मुझे जेठ की वह सुबह। आसमान साफ था। सूर्य, किसी गाँव के सबसे बूढ़े व्यक्ति की तरह, अपना तेज सब पर बरसाता, प्रकृति के कण-कण के क्रिया-कलापों का निरीक्षण कर रहा था। हवा अपने हाथों के कंगन बजाती कभी किसी पेड़ को छेड़ती तो कभी किसी पुष्प के सिर पर हाथ फेर कर उसे तृप्त करती। प्रकृति अपने चिर किन्तु नित-नूतन खेल में व्यस्त थी।
मैं बरामदे में बैठी कुछ लिख रही थी। तब मुझे नहीं मालूम था कि दूर कहीं बैठा सृष्टि का वो सू़त्रधार अनोखी लीलाएं रच रहा है। एक आवाज़ ने मेरी सरपट भागती हुई कलम की गति पर सहसा विराम लगाया। नज़रें उठीं तो तुम्हारे गिरने का साक्षी बनीं। हाँ, मुझे हवा देने वाले उसी पंखे ने तुम्हारे कोमल परों को कतर कर तुम्हें धरोन्मुख कर दिया था। पंख तो तुम्हारे कट ही गए थे, पर न जाने क्यों मैने उठकर सर्वप्रथम पंखा बंद कर दिया। मुझे अपने भय का कारण अब भी ज्ञात नहीं पर तुम्हारी ओर बढ़ता हुआ मेरा हर कदम नपा और सहमा हुआ सा था। मैंने देखा, कैसे तुम अपने कटे हुए पंखों में अदम्य इच्छाशक्ति भर कर फिर आकाश नापना चाहती थी। कैसे तुम उन आधे पंखों को फड़़़फड़ाती, ज़मीन से कुछ उठती, पर फिर गिर जाती थी। तुम्हारे प्रयास, तुम्हारी जिजीविषा आज भी मेरे कठिन क्षणों में मेरी प्रेरणा बना करते हैं।
    
मेरा अपनी ओर बढ़ना जैसे तुमने भाँप लिया। तुम्हारी छटपटाहट और भी बढ़ गयी। कैसे ज़मीन पर घिसट कर ही तुमने मुझ से दूर जाने की यात्रा प्रारम्भ की थी। यह देख कर मैं ठिठक कर रुक भी गयी थी।
फिर स्थापित हुआ तुम्हारी आँखों का मेरी आँखों से संवाद। यह भाषा हम दोनों के लिए ही नई थी पर जिस कुशलता से संवाद हो रहा था, उसे देख कर यह तनिक भी नहीं लग रहा था कि हम में से कोई भी इस भाषा के लिए नया है। तुम्हारी आज तक की यात्रा किसी मंद बयार सी सीधे मेरे हृदय की ओर बह चली। मैंने देखा कि कैसे अभी हाल ही की बात थी कि तुम अपने घोंसले में अपनी माँ के पंखों के नीचे अपने छोटे से स्वर्ग में रहा करती थी। उस समय माँ की चोंच से खाया दाना और उसके पंखों के नीचे की नरमी ही तुम्हारा संसार था। फिर एक दिन आया जब उसी माँ ने तुम्हें हल्का सा धक्का दे दिया। माँ की इस कठोरता का रहस्य तुम्हे तब तक पता न चला जब तक गिरने के डर से ही तुम ने अपने पंख नहीं फैला दिये। फिर माँ के मौन आशीर्वाद और अपनी आकांक्षाओं का सहारा ले कर, चल दी तुम अपने सपनों का आकाश नापने। एक वह दिन था और एक आज का अभागा दिन है।
सिर्फ़ इसी मौन संवाद ने लाडली, मुझे तुम्हारी झिझक के बावजूद तुम्हारे पास आने की शक्ति दी। भले ही मेरा प्रथम स्पर्श तुम्हारे लिए भय को वास्तविकता का आकार देता प्रतीत हुआ हो पर मेरे लिए तुम्हारा स्पर्श आज भी कोमलता की मिसाल है। मैंने जैसे तुम्हें उठाने की कोशिश की तुम दूर छिटक गयी। दो बार असफल होने पर भी तीसरी बार मैंने तुम्हें हाथ में उठा कर तुम्हारे सिर पर हाथ फेरा। उस समय तुम्हारी विस्मय युक्त दृष्टि कैसे भूल सकती हूँ। तुम ने मुझे ऐसे देखा मानो मेरे होने पर विश्वास न हो। मैं तुम्हें सहलाती रही और न जाने क्या सोच कर तुमने फड़़फड़ाना छोड़ कर स्वयं को मेरे हाथों में सौंप दिया। अब मुझे तुम्हारे पंखों पर दवा लगाने की सुध आई।
एक हाथ में तुम्हें लिए, तुम्हारी साँसों का स्पन्दन महसूस करते हुए ही मैं रूई और दवा इत्यादि ले आई। दवा लगाते वक्त जब-जब तुम खुद को मेरी अँगुलियों से दूर खींचने का प्रयास करती थी जब-जब तुम दर्द से अपनी आँखें भींच लिया करती थी, तो सच मानो मुझे भी उतनी  ही पीड़ा होती थी।
घर की सब से बड़ी टोकरी खोल कर मैंने उसपर रूई का बिस्तर बिछाया। आह! वो क्षण रह-रह कर याद आता है जब मैं तुम्हें बिस्तर पर सुला रही थी और तुम मेरे हाथ छोड़ कर कहीं और जाने को तैयार नहीं थी। अत्यधिक कम समय में ही हम ने कैसा अटूट रिश्ता स्थापित कर लिया था।
शाम को तुमने पानी पीया था। अगले दिन सुबह मैंने तुम्हें अपने हाथों से लाई खिलाई थी। सोचती हूँ, न जाने कैसे, तुम्हें कब प्यास लगी है, कब भूख, मुझे समझ आने लगा था। घंटों हम साथ बैठा करते। घर के लोगों को आश्चर्य होता पर हमें पता था कि कितनी ही मौन बातें कर डाली थी हमने। नियमित दवा लगाने का असर दिखने लगा था। मेरे आह्लाद का ठिकाना न था जिस दिन तुमने पंख फैलाए थे।
मुझे बहुत अच्छा लगता था लाडली! जब तुम मेरे अलावा किसी और के हाथों से दाना लेने को मना करती थी। जब मेरे भाई-बहनों में से कोई तुम्हें उठाना चाहता तो कैसे तुम भाग कर मेरे हाथों में आकर सिमट गयी थी।
तुम्हें सदा बिल्ली की लालची निगाहों से बचाया था। उस दिन जब तुम्हें बाग में खुला छोड़ा था, कैसे तुम्हारे पीछे-पीछे घूमी थी। अब तुम थोड़ा-थोड़ा उड़ने भी लगी थी। मैं तुम्हें तब तक अन्दर नहीं लाई थी जब तक तुम खु़द अपनी टोकरी में वापस नहीं आ गयी थी।
उस दिन मुझे लग गया था कि अब वह दिन दूर नहीं जब तुम पूर्ण रूप से ठीक होकर फ़िर उड़ जाओगी। मुझे दुःख तो हुआ था इस ख्याल से कि तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी। परन्तु सच्चा प्रेम कभी बाँधता नहीं, यह सोच कर मैंने खुद को समझा लिया था।
मुझे क्या पता था कि अगली सुबह ने हम दोनों के लिए कुछ अलग ही सोच रखा है।
रोज़ की तरह उस दिन भी मैंने बाहर खुली हवा खाने के लिए तुम्हें आँगन में रख दिया था। थोड़ी दूर पर मैं कुछ कर रही थी। फ़िर जो इन आँखों ने देखा उसे शब्दों में उकेरने का बस प्रयत्न ही कर सकती हूँ। न जाने कहाँ से एक नेवला आया। उसने तुम्हारी टोकरी का ढक्कन हटाया। जब तक मैं पहुँचती, वह क्रूर तुम्हें अपने दाँतों में दबा कर न जाने कहाँ ले गया। मैं बदहवास दौड़ी, तुम्हें छुड़ाने के लिए जी-ज़ान से और तेज़ी से दौड़ी, पर वह पलक झपकते ही पता नहीं कहाँ निकल गया। मैं लुटी सी बैठ गयी। तुम्हारे साथ ही दुलारी! मेरे कितने सपने दम तोड़ रहे थे। तुम्हें फ़िर अंजुलि में ले कर प्यार करने को तड़प गयी। कहाँ तुम्हें कुछ दिनों में खुला उजला आसमान मिलने वाला था और किसी क्रूर की हवस ने तुम्हारे नसीब में दातों के बीच की संकीर्ण काली जगह ही लिख दी। मैंने बिल्लियों से तो हमेशा बचाया था परन्तु नेवलों पर ध्यान क्यों नहीं गया? मैं कुछ नहीं कर पायी लाडली! मैं कुछ नहीं कर पायी। मेरा प्यार हार गया। तुम चली गयी और तुम्हारे साथ ही जैसे मैंने अपना भी एक हिस्सा हमेशा के लिए खो दिया।
मैं अश्रु बहाती रही। पर अचानक एक विचार ने उन्हें रोक दिया। मेरा तुमसे नाता तो सिर्फ़ पन्द्रह-सोलह दिनों का था, और तब तुम्हारे अन्त पर मुझे इतनी पीड़ा हो रही थी। उन माँओं के दर्द की थाह कौन लेगा जिनकी नन्ही कलियों सी चिड़ियाओं को ऐसे ही नेवलों की हवस का शिकार बनना पड़ता है। पन्द्रह दिनों से जो सपने बुन डाले थे, जब उनके मसल दिए जाने पर मेरी यह गति हो सकती है तो उनकी गति कैसी होगी? उनकी गति कैसी होगी?
सम्पर्क –
ई-मेल :  jntripathi@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)  

भाविनी त्रिपाठी की लघु-कथा ‘तस्वीर’



साहित्यकार की चौकस निगाहें चारों तरफ रहती हैं। न जाने कौन सी घटना उसे अपने लिखे जाने के लिए बेचैन कर दे। अभी हाल ही में सोलह दिसंबर को पूरी दुनिया तब स्तब्ध रह गयी जब तालिबानी आतंकवादियों ने पेशावर के आर्मी स्कूल पर धावा बोल कर 132 मासूम बच्चों को मार डाला। समूचे विश्व में इस पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई और प्रायः सबने आतंकवाद के इस क्रूर चेहरे से जूझने का संकल्प लिया।

भाविनी त्रिपाठी जो छात्रा बी0 टेक0 की द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं, भी इस घटना से काफी उद्वेलित हुईं। पहली बार की इस युवतम रचनाकार ने ‘तस्वीर’ नाम की अपनी यह ताजातरीन लघु-कहानी जब मुझे सुनाई, तो मैं इनकी संवेदनाओं से हिल सा गया। कहानी के अन्त तक आते-आते हम सिहर से जाते हैं। आप कहानी पढ़ कर इसका अंदाजा खुद लगा सकते हैं। तो आइए पढ़ते हैं भाविनी की यह लघु-कहानी।        
    
तस्वीर

भाविनी त्रिपाठी
 
उस अंधेरे कमरे  में सूर्य की किरणें आरजु़ओं की सुराखों के सहारे आहिस्ता-आहिस्ता पैठ रहीं थीं। कलीम के कु़छ-कुछ फटे हुए दस्तानों से झाँकती नन्हीं अंगुलियाँ उस चीर की  लकड़ी से बने ताबूत-नुमा बक्से में शिद्दत से कुछ तलाश रही थीं। अम्मीज़ान की सबसे  कीमती शलवार  कमीज़ के नीचे उसे आखिर रंगों का वह थैला मिल ही गया। कलीम के मासूम  चेहरे  पर  बचपन की उस बेहद सस्ती या शायद  मुफ्त, मगर सबसे खूबसूरत मुस्कान का राज्य स्थापित हुआ। नन्हें कदमों की चुहलती तेज़ी से वह तोशखाने  में पहुँचा और अम्मीजान के पैरों से लिपटा हुआ अपनी तोतली ज़बान में बोला- ’’अम्मी! आज हम स्कूल में तस्वीर बनाएँगे।‘’   


प्यार से उसके काकुलों को सहला कर, माथा चूम कर माँ ने उसके झोले में टिफ़िन डाला और निकल पड़ा नन्हा कलीम, स्कूल।

स्कूल में टीचर साहिबा ने सब को कागज़दिए। सारे बच्चे अपनी पसंद की तस्वीर बनाने में मशगूल हो गए। उन रंगों से जब नन्हें हाथ कागज पर कुछ उकेरने का प्रयास कर रहे थे तो सच्चाई और वफ़ाई अपने इन नन्हें सिपाहियों पर दुआ का हाथ फेर रहे थे।

कलीम के पास लाल रंग नहीं था। उसने जब टीचर साहिबा से पूछा तो उन्होंने कहा- ‘‘जो रंग तुम्हारे पास हैं उन्हीं से तस्वीर बनाओ शहज़ादे!’’ कलीम का मुँह उतर गया। उसने सोचा- ’’लाल रंग बिना मेरी तस्वीर वैसी न बन सकेगी। शायद पूरी भी न हो सके।‘‘

उसी वक्त कक्षा में बन्दूकधारी, नकाबपोश आतंकवादियों का प्रवेश हुआ। वे बच्चों को सिर्फ इसलिए  मारने आये थे क्यों कि उनकी कौम का सरगना उस मुल्क से खफा था।

उनकी अन्धाधुन्ध गोलियाँ भी सही निशाने पर लगीं। कलीम के सिर के बीचो-बीच एक गोली धंसी और उसका ब़ेजान सिर उसकी उसी मेज़ पर लुढ़क कर रह गया।

 
सच कहते हैं- ‘‘अल्लाह बच्चों की दुआ और ख्वाहिशें ज़ल्दी सुनते हैं।’’ कलीम के तस्वीर का वह कागज़ अब लहू के लाल रंग में डूब चुका था।

 
उसकी माँ घर पर अब भी उसकी पसन्द का हलवा बना कर उसका खाने पर इन्तज़ार कर रही थीं।

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

भाविनी त्रिपाठी की लघु कहानी विडम्बना

बालपन से ही लड़कियों को यह एहसास हो जाता है कि वे इस दुनिया में बिल्कुल अलग हैं। समाज जैसे नचाये उन्हें नाचना है। उन्हें कोई सवाल नहीं करना है बल्कि सवालों के जवाब देना है। भाविनी अभी बी टेक की छात्रा हैं लेकिन इनकी रचनात्मक निगाह ने बड़ी सूक्ष्मता से स्त्री जीवन की विडम्बना की तहकीकात की है। इन्होने अपनी लघु कहानी ‘विडम्बना’ के जरिये इस दृश्य को बखूबी उभारा है। तो आईये पढ़ते हैं भाविनी की यह कहानी।
       
विडम्बना

भाविनी त्रिपाठी

सिर का घूँघट सम्हाले, रूपा घर की बड़ी बहू होने का उत्तरदायित्व निभाने का अथक प्रयास कर रही थी। ननद का ब्याह हो तो एकमात्र  भाभी के कार्यभार का अनुमान लगाना कठिन नहीं। कभी रसोई में आगन्तुकों के जलपान का प्रबन्ध करती, तो कभी दौड़ कर हलवाई की माँगें पूरी करती। कभी नाईन पूजन-सामग्री माँगती तो कभी मोहल्ले की औरतें बन्ना-बन्नी गाने में सहयोग चाहतीं। बेचारी बडी देर से चाहती कि एक बार ननद उर्मिला के पास जा कर उसका भी हाल पूछ आये, पर अवकाश ही न मिलता था।

कुछ ही देर में उर्मिला की सहेलियाँ आ पहुँचीं। रूपा अगले कुछ देर सत्कार में व्यस्त रही। फिर कन्या के दही-चावल की रस्म का समय आया। सात कुमारियों को उर्मिला के साथ भोजन करना था। उसकी छः सहेलियाँ तो झट पाँत में बैठ गयीं। पर सातवीं कुमारी नहीं मिल रही थी। तभी रूपा की सास की नज़र उर्मिला की सहेली प्रतिभा पर पड़ी। वह मण्डप से दूर, अकेली खड़ी थी। उनके बहुत कहने पर भी प्रतिभा पाँत में नहीं बैठी। रूपा ने किसी अन्य लड़की को ला कर पाँत में  बिठा दिया। असल प्रतिभा की मनोदशा सबसे छिपी थी। उस इक्कीस वर्ष की अवस्था ने उसे अपनी उम्र से बहुत अनुभवी बना दिया था। प्रतिभा बस उस दिन को याद भर ही कर पाती थी। नौ वर्ष की प्रतिभा का जीवन जब बाल्यावस्था की मासूम उम्मीदों से परिचालित होता था। आज बरबस ही उसे वह दिन अपने समग्र रूप में याद आने लगा। कैसे वह अपनी नन्हीं कलाइयों के कड़े बजाती उस पतली पायल के दो अदद घुँघुरु छनकाती, हाथ में अपने गुड्डे को लिए, दौड़ती हुई सीधे माँ की गोद में समा गयी। माँ ने स्नेह से अपनी बेटी की चञ्चल, बेफिक्र हँसी को बढ़ावा दिया। फिर पूछा- ’’कहाँ थी रे, अब तक।‘‘ इस प्रश्न ने प्रतिभा के गौरव में वृद्धि की। इठलाते हुए उसने उत्तर दिया-  ’’आज मेरे गुड्डे का उर्मिला की गुडि़या के साथ ब्याह हो गया। उसी की बारात ले कर गयी थी।‘‘ माँ ने वास्तविक चिन्तन का अभिनय करते हुए बोला- ‘‘पर बहू कहाँ है ?’’ प्रतिभा ने उत्तरदिया- ’’अभी विदाई थोड़े ही कराई है। मेरा गुड्डा कुछ दिनों बाद अपनी दुल्हन की विदाई करा उसे घर ले आयेगा।’’ वाक्य पूरा करते ही वह फिर आँगन की ओर भागी।


शाम को प्रतिभा माँ को दिखाने के लिए, सिर्फ माँ को दिखाने के लिए, अपनी किताब पढ़ रही थी। तभी माँ एक नयी जोड़ी लहँगा लेकर उसके कमरे में आयी। माँ ने अपनी गुडि़या को लहँगा पहनाया। लाल चुनर ओढ़ाई, लाल चूडि़याँ और पाज़ेब भी पहनाई। प्रतिभा की खुशी का ठिकाना न था। दर्पण देखकर चहकते हुए बोली-  ‘‘माँ! मैं तो बिल्कुल दुल्हन सी लग रही हूँ।’’ माँ ने बड़ी गम्भीरता से उत्तर दिया-  ‘‘तूँ दुल्हन ही है।’’ इसका आशय प्रतिभा को तो तनिक भी पल्ले न पड़ा परन्तु घण्टे-दो घण्टे में अवश्य समझ गयी।

माँ और पिता जी उसे शिव जी के मन्दिर ले गये। वहाँ एक गुड्डे से सजे लड़के के साथ प्रतिभा ने फेरे लिये। इस गुड्डे ने प्रतिभा की माँग भरी और फिर कुछ देर बाद प्रतिभा वापस  घर आ गयी। रात हुई तो न जाने क्यों प्रतिभा की आँखें सजल हो उठीं। आँखें मुलकाते हुए  उसनें माँ से पूछा- ’’माँ गुड्डा मुझे अपने घर क्यो नहीं ले गया?‘‘ माँ ने कहा- ’’कुछ दिनों बाद वह अपनी दुलहन की विदाई करा, उसे घर ले जाएगा।‘‘

उस दिन के बाद से प्रतिभा ने गुड्डे-गुडि़यों का खेल छोड़ दिया। वह अब गम्भीर, एकान्तप्रिय और लज्जाशील हो गयी। समय बीता, प्रतिभा के बचपन का अल्हड़पन, तरुणायी के आलस्य में परिवर्तित हो गया। वह ’गुडि़या‘ अपने ’गुड्डे‘ के सपने देखती पर उसका कहीं पता न था।


    माँ ने उसे समझाया था कि सिन्दूर बाल के नीचे छिपा लिया करे और किसी से कभी ये न बताये कि उसका विवाह हो गया है। अतः जब से होश सम्भाला था, प्रतिभा ये राज़ भी छुपाये हुए थी।

    अचानक प्रतिभा को लगा कि उसे कोई झकझोर रहा है। उसकी सहेली ने उसेपुनः वर्तमान में ला दिया था। बरात आयी, उर्मिला का विवाह हुआ।

    सवेरा हुआ, सूर्य की पहली किरणें धरती का स्पर्श कर रहीं थीं। उस बेला पर उर्मिला की माँग में एक मोटी, गाढ़ी रेखा थी। ऐसा लग रहा था मानो उसके माथे पर सुन्दर सूर्य उदित हुआ हो। रस्म के अनुसार कुछ सुहागिनों ने उर्मिला के गाढ़े सिन्दूर को और गाढ़ा किया। अब उर्मिला के साथ सात सुहागिनों को खाना था। अनायास ही प्रतिभा पाँत में बैठने को उद्यत हुई। रूपा की सास ने कहा- ’’वहाँ नहीं प्रतिभा, वह जगह सुहागिनों की है।‘‘ प्रतिभा चल पड़ी। उसे अपनी इस विडम्बना का ज्ञान हो गया था कि न तो वह कुमारी है और न ही ब्याहता . . . . ।


(सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय की बी॰टेक॰(प्रथम वर्ष) की छात्रा। हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषाओं समान रूप से लेखन। विश्वविद्यालय स्तर पर निबन्ध-लेखन हेतु पुरस्कृत।)

भाविनी त्रिपाठी

भाविनी त्रिपाठी का जन्म 1995 में इलाहाबाद में हुआ। भाविनी इंटरमीडिएट की छात्रा हैं। अंगरेजी माध्यम में पढाई होने के बावजूद भाविनी हिन्दी में कविताएँ और लघुकथाएँ लिखती हैं।भाविनी त्रिपाठी ने अपनी ये लघुकथाएं अपने पितामह स्वर्गीय पं राम अधार तिवारी को समर्पित की हैं। जिनसे कि भाविनी ने लिखने की प्रेरणा प्राप्त की। अभी हाल ही में लिखी गयी अपनी दो लघुकथाएं भाविनी ने मुझे बड़े हिचक के साथ सुनाईं। जिसे मैंने उनसे पहली बार के लिए मांग लिया। आप के लिए प्रस्तुत हैं भाविनी की दो लघुकथाएं   

 चौथा कन्धा

    वह अविचलित लेटी थी। गाढी लाल साड़ी में लिपटी, चुनरी ओढ़े वह नवब्याहता दुल्हन- सी जान पड़ती थी। सोलह श्रृंगार में  से एक भी शेष न रह गया। उसके ओठों पर स्मित की रेखा नाच रही थी, आँखें मुंदी जैसे दिव्य ध्यान में लीन हों। मुख से तेज बरस रहा था। साथ ही मुख पर शान्ति की पराकाष्ठा भी थी। वह शान्ति अटूट थी। रागिनी की माँ के पार्थिव शरीर को पंचतत्त्वों के सुपुर्द करने की तैयारी चल रही थी। रागिनी के तीन भाई थे परन्तु वर्षों पूर्व एक भाई जो रागिनी से एक वर्ष बड़ा था, न जाने कहाँ गायब हो गया था। आज रागिनी के पिता के समक्ष विराट् समस्या  थी,- ‘तीन तो हैं, पर चौथा कन्धा कौन देगा?’ रागिनी निर्निमेष सब देख रही थी। उसकी पथराई आँखों से आँसू भी रूठ चले थे। जिस माँ ने आँचल में ले कर हर आँसू पोछ डाले थे, आज उसके ही चले जाने पर आँसू बाहर कैसे आ सकते थे ? कुछ देर बाद लोगों के ढूँढ़ने पर भी रागिनी का कहीं पता न था। लोगों ने कहा- ‘बेचारी कमजोर है। माँ को जाते नहीं देख सकती। इसीलिए कहीं जा कर छुप रही होगी।’ लोगों के इसी उहा-पोह के बीच घर में एक नवयुवक ने प्रवेश किया। आह! यह तो वही तीसरा बेटा था। वही खोया बेटा ……। माँ को कन्धा देने आ ही गया। आखिर चौथा कन्धा मिल ही गया। वह अखण्ड सौभाग्यवती शान से अपने अन्तिम धाम को विदा हुई।

    घाट से जब सब लोग लौट आए तो रुदन के बीच एक कोने में रागिनी अपनी नकली दाढ़ी-मूँछ उतार रही थी। बस एक आह के साथ कुछ बूँदें छलक ही आयीं।

              
बारिश

    तरुणाई भरे बादल पागल बने जल बरसाने की होड़ में थे। ऐसा लग रहा था मानों किसी ने कोई बाँध खोल दिया हो। मिस्टर राठौर अपने आलीशान  बंगले के बरामदे में बैठे सामने वाले बगीचे के मनोरम दृश्य का लुत्फ उठा रहे थे। राठौर साहब का दरवाजों का कारोबार था और ईश्वर की कृपा से उनके घर के सारे कोने भरे थे। मिसेज राठौर फोन पर अपनी सहेली के साथ ‘किटि-पार्टी’ आयोजित करने का दिन निश्चित कर रहीं थीं। इस बार वह हर बार से अधिक उत्साहित थीं। और हों भी क्यों न, जब इस बार की ‘होस्ट’ वही थीं। बात खत्म कर के वे अपने पति के पास पहुँच कर उन्हें खरीददारी की लिस्ट बताने लगीं। कुछ देर बाद वह रसोई में श्यामा को पकौडि़याँ बनाने का आदेश देने गयीं। बाहर निकलते समय उनकी नज़र बरामदे के दूसरी ओर  की छत पर गयी, वहाँ सीलन थी और कुछ बूँदें रिस रही थीं। मिसेज राठौर बौखला उठीं। उनकी इज़्जत पर आँच आ सकती थी। कुछ दिनों बाद उनके क्लब की सारी औरतें उनके घर पार्टी पर आने वाली थीं। तुरन्त मोहन को ‘एम-सील’ लाने का आदेश हुआ। ‘एम-सील’ लगा देने के बाद पानी टपकना रुक गया। ज्यों ही बारिश थमी, मोहन को मिस्त्री बुलाने का हुक्म हुआ। मोहन बेचारा अगले कुछ घण्टे मिस्त्री को बुला कर छत ठीक कराने में व्यस्त रहा। मिस्टर और मिसेज राठौर खाना खा कर सो गए। शाम के पाँच बज गए और अब छत भी ठीक हो चुकी थी। सोकर उठने के पश्चात् मिस्टर राठौर को मोहन पर दया आ गयी, उन्होंने कहा- ‘‘मोहन अब तुम घर जा कर खाना खा सकते हो।’ परन्तु उत्तर मिला- ‘नहीं साहब, कल की बारिश में मेरे घर में रसोई की छत गिर गयी। आज घर में खाना नहीं बना होगा, आज भी बारिश हो रही थी न।’