वन्दना शुक्ला

स्त्री मुक्ति के संग्राम

स्त्री स्वातंत्र्य क्या है?  क्यूँ इसकी आवश्यकता है?  निस्संदेह आज़ादी की चाहत या मांग उसी की होती है जो परतंत्र होता है, इसका सीधा अर्थ है कि नारी परतंत्र है इसलिए उसके स्वातंत्र्य की चेष्टाएं,  उसकी कामना की जाती है दिवस मनाया जाता है (पुरुष स्वतंत्र है इसलिए उसे दिवस की ज़रूरत नहीं)  नारी क्यूँ और कैसे परतंत्र है,  इसका इतिहास या ज़रूरत या कारन एक लंबी बहस है बल्कि एक एतिहासिक प्रकरण.

गौरतलब है कि स्त्री की दशा दयनीय रही, उसे दबा–कुचला कर रखा गया या वो इस पुरुष सत्तात्मक समाज में उसकी दासी बन कर रही,  एक मशीन समझा गया ये सब मुद्दे किसी देश विशेष की कहानी और इतिहास नहीं हैं, बल्कि ये एक वैश्विक विडम्बना रही है- कुछ भौगोलिक व परिस्थितिगत विविधताओं के बावजूद एक सामान्य मानसिकता. 1960 तक सीमोन द बोउवार की किताब ‘’द सेकेण्ड सेक्स’’ और ब्रेत्ती फ्राईदें की ‘द फेमिनिन’ ने नारी समाज में हलचल पैदा कर दी थी और एक विश्व व्यापी आन्दोलन का रूप ले लिया था. सिमोट द बोवुआ ने अस्तित्ववाद का नारी वादी पक्ष सामने रखकर समूचे साहित्य जगत को झकझोर दिया. महिलाओं द्वारा प्रज्ज्वलित की गई 1917 की क्रान्ति ने जारशाही का तख्ता पलट दिया था.  भारत की महिलाओं की बात करें तो बंगाल में ज्योतिर्मयी,  महाराष्ट्र में ताराबाई शिंदे,  और सावित्री बाई फुले ने स्त्रियों के बराबरी के हक,  और शिक्षा की गुहार लगाईं. सरोजिनी नायडू जैसी महिलाओं की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही. मीरा गुप्ता (ऑल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंस’’ संस्थापिका,पहला महिला संगठन), ‘भारत स्त्री महामंडल’ की संस्थापक सरला देवी जैसी जागरूक और कर्तव्यनिष्ठ महिलाओं का ज़िक्र करना यहाँ तर्कसंगत है. भारत में महिला आंदोलनों की शुरुआत 1977 के आसपास हुई. लगभग आपातकाल के घोषणा के समय.  वैसे 1927 में ‘आल इंडिया वूमेंस कॉन्फ्रेंस’  ‘नेशनल फाउन्डेशन ऑफ इण्डियन वूमेन’,   तथा ‘’वीमेंस इंडिया एसोसियेशन,  जिन्होंने स्त्री शिक्षा,  पर्दा प्रथा, मताधिकार,  और व्यक्तिगत अधिकारों के मुद्दों को उठाया.

यद्यपि आज स्त्रियों की दशा पहले से काफी बेहतर है आज हिन्दुस्तान का एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग स्त्रियों की मुक्ति,  और आज़ादी की खुलकर पैरवी करता है (जिनमे सत्तारूढ़ दलों के अतिरिक्त खुद स्त्रियों का प्रतिशत भी अच्छा खासा है), निस्संदेह उन नामी स्त्री राजनेताओं, फिल्ममेकरों, कॉर्परेट से जुडी महिलाओं, या शिक्षा, खेल,  साहित्य आदि में परचम लहराने वाली स्त्रियों का दंभ भर कर.  इसका एक पक्ष देखें तो इसमें गलत भी नहीं कुछ, पर बावजूद इसके कुछ सवाल तो ज़ेहन में कौंधते हैं पहला…क्या स्त्री मुक्ति के प्रश्न को यौन मुक्तिवाद तक सीमित करना उचित है?  क्या स्त्री स्वातंत्र्य का आकलन सिर्फ शहरी ,साक्षर और मध्यम/उच्च वर्ग की स्त्री तक सीमित होता है/होना चाहिए? क्या संघर्षरत महिलायें अपना इतिहास दर्ज करा पाती हैं?’’ और फिर यदि (शहरी)स्त्री आज मुक्ति की दिशा में अग्रसर है, वो (वास्तविक) आजादी के कीर्तिमान सचमुच गढ़ रही है और उसके प्रति एतिहासिक पौरुशीय सोच, कुंठाओं और अवधारणाओं में वास्तव में कोई उल्लेखनीय तबदीली आई है, तो सवाल ये उठता है कि मन्नू भंडारी जैसी लेखिकाओं जिन्हें हिन्दी साहित्य की प्रमुख स्तंभ कहा जता है, को ‘’करतूते मरदा‘’ की आख़िरी में बतौर ‘’निष्कर्ष’’ ये आगाह करते हुए चेतावनी क्यूँ देनी पड़ती है कि ‘नासमझ (मूर्ख)लड़कियों औरतों से कहना है, कि, इससे आगे कभी मत बढ़ना.  इन्हें (पुरुषों को)  अपने पास तो कभी फटकने मत देना.  भरोसे की जात बिलकुल नहीं है इनकी’.  और उधर ‘’आवां’’ की लेखिका चित्रा मुद्गल नमिता यानी ‘आवाँ ’की मुख्य पात्र दैहिक उत्पीडन के प्रति मुखर आवाज़ क्यूँ नहीं उठाती,  इसके ज़वाब में स्त्री को आत्मविश्लेषण और आत्म चिंतन का अवसर देते हुए लेखिका कहती हैं …’’मैंने नमिता को अपने अनुभवों से सीखने के लिए एक स्पेस मुहैया करवाया है. संघर्षों की चोटों से वो सुनिश्चित करे कि उसका प्रतिवाद क्या और कैसा होना चाहिए.’’ आज की उच्च तकनीक और विचारशील जागरूक महिला से संदर्भित कुछ सवाल

(१)- सपाद्कीय नीतियों के विषय में फैसला लेने वाले पदों पर महिलायें क्यूँ नहीं?

(२)- टी.वी. मीडिया में बाज़ार ने अपनी सहूलियत और ज़रूरतों के हिसाब से महिलाओं को जगह दी है क्यूँ ?..

इसके अलावा… ‘व्यापक जन आन्दोलनों में स्त्री की भागीदारी कितनी है? यदि नहीं तो क्यूँ नहीं?

दरअसल हर युग में नारी ‘’होने’’ के अर्थ बेहद परिवर्तनशील रहे.  कभी ‘’नारी तुम केवल श्रद्धा हो’’ कभी ‘’ढोल गंवार शूद्र पशु नारी‘’, कभी ‘’अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी‘’.  कवि दिनकर ने कहा ‘’नारी के भीतर एक और नारी है.  जो अगोचर और इन्द्रियातीत है.   इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा उछालते-उछालते उसे मन के समुद्र में फेंक देती है,  कभी ‘’देह नहीं है परिधि प्रणय की’’ कभी देवी ,कभी गुलाम’’ अपने अस्तित्व के इतने विरोधाभासी उद्घोषों के बीच नारी की स्थिति हमेशा ही असमंजस पूर्ण और विचित्र रही.

ना सिर्फ भारत में बल्कि फ्रांस,  अमेरिका,  जैसे पश्चिम देशों में भी चमड़ों,  रेडीमेड कपड़ों,  खेतों में काम करने वाली औरतों की भारी संख्या दिखाई देती है पूरा दिन काम, असमान वेतन, घर का काम बच्चों की देखभाल, शराबी पति से पिटाई ये सब सहन करती रहीं इसीलिए इन औरतों को अपनी स्थिति के लिए आवाज़ उठानी पडी (8 मार्च 1908 ) अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस वस्तुतः उसी आंदोलन की परिणिति और स्मृति है.  इंग्लेंड में हुए एक सर्वे में पाया गया कि महिलाएं चाहती हैं कि पति परिवार चलाने के लिए कमाएँ. अर्थात इंग्लेंड की ज्यादातर आधुनिक महिलाये पारंपरिक मूल्यों की ओर लौटना चाहती हैं.  पश्चिम की स्त्री को नारीवाद के ज़रूरत नहीं,  ये उदाहरण ये तमाम भ्रमों को सिरे से खारिज करते हैं. आखिर सच क्या है उनका सच जो अनुभवों से गुजरी हैं या उनका जो घर की चहारदीवारी में सुरक्षित नैतिकता की वकालत करती हैं?

                                                                  चित्र- टोनी मोरिस
                                                                (गूगल के सौजन्य से)

हालाकि भारत में नारीवादी आंदोलन का स्वरूप और उद्देश्य अमेरिका की अश्वेत नारीवादी राजनीति से बिलकुल भिन्न था. विदेशी लेखिकाओं ने इस आन्दोलन में एक बड़ी व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई. जैसे,  अमेरिका की अश्वेत लेखिका टोनी मॉरीसन ने अपने उपन्यासों में अश्वेत लड़कियों व स्त्रियों की सामजिक स्थिति के अपने अनुभवों को व्यक्त किया. ज़िक्र करना ज़रूरी होगा. नेदीन गार्डिमर (साउथ अफ्रीका) जैसी लेखिकाओं का जिन्होंने खुद श्वेत महिला होते हुए अपना सारा लेखन रंगभेद की नीति के विरुद्ध लिखा. प्रसिद्द लेखक रमेश द्वे उन्हें बोर्खेज़ मार्खेज़ पामुक के समकक्ष खडा करते हुए कहते हैं ‘’इन लेखकों ने अपने सारे पूर्वजों के ग्लेशियर गला दीये कहानी में एक नई उष्मा का संचार किया.’’    नॉर्वे की सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखिका सीग्रिड उन्द्सेट ने क्रिस्टिन लारेंदेतर की कहानी में दो बातें मुख्यतः स्पष्ट की हैं जो यहाँ उल्लेखनीय हैं. एक ये कि चौदहवीं शताब्दी के स्त्री –पुरुष बीसवीं शताब्दी की मानवतायुक्त स्त्री पुरुषों से मिलते जुलते थे.  दूसरी यह कि सही और गलत, पाप और उसके नतीजे,  उदारतावाद के आधुनिक विचारों और क्रियाओं की प्रवृत्ति से घटाए नहीं जा सकते.

पश्चिमी देशों में स्त्री मुक्ति के आंदोलनों की लहर विश्वयुद्ध के खिलाफ व तकनीकी, आर्थिक, सामाजिक ,राजनैतिक क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने का संघर्ष है, लिहाजा उनके सरोकार और हिस्सेदारी ज्यादातर राजनैतिक परिद्रश्यों और सामाजिक स्थितियों को उजागर और वर्णित करने में अधिक रही.

सुधा अरोड़ा कहती हैं ‘’स्त्री पुरुष के समाज द्वारा पोषित पौरुशीय अहम के लिये अपनी कुंठा के निकास के लिए सबसे सुरक्षित आउटलेट है जो अपनी शारीरिक अक्षमता और भावनात्मक लगाव के कारण प्रतिरोध करने में भी असमर्थ है.’’ इसमें गलत नहीं कि हमारे मीडिया और साहित्य का कम से कम पचास प्रतिशत हिस्सा ना सिर्फ नारी पुरुष संबंधों से घिरा हुआ है बल्कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो उल-जलूल सीरियलों और ख़बरों को अतिवादी बना उन रिश्तों को अधिक तोड़ मरोड़ और वीभत्स तरीके से पेश करता है (लोकतंत्र का चौथा खम्भा आखिर देश के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखता ही है इसलिए उसका कटघरे में खड़ा होना लाजमी है).

जब भी स्त्री सशक्तीकरण का मुद्दा उठता है हम ‘इंडिया शाइनिंग’ की बात करते हैं. लेकिन गांव और उनके सरोकार भी भारत का एक अहम हिस्सा हैं इसे नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. ये सच है कि महिलाओं ने आज अपनी एक जगह बनाई है महत्वपूर्ण पदों पर वो आसीन हैं राजनीति में देखें तो आज राष्ट्रपति से मुख्य मंत्री, लोक सभा की स्पीकर, अपोजिशन की लीडर तक स्त्रियाँ हैं. मेधा पाटकर (नर्मदा बचाओ आंदोलन ), शोभा दे, अरुंधती राय, अनिता देसाई जैसी लेखिकाएं हैं, करणं मल्लेश्वरी जैसी ओलम्पिक अवार्ड विजित स्त्रियाँ है, पुनीता अरोरा भारतीय फ़ौज की पहली महिला जैसी औरतें हैं. वृंदा करात CPI(M) की प्रथम महिला सदस्य और भूतपूर्व वाइस प्रेसिडेंट (All India Democratic Women’s Association (AIDWA) , अम्रता प्रीतम साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्राप्त करने वाली पहली महिला, वंदना शिवा पर्यावरण ईकोफेसिनिस्ट आदि हैं.  फेहरिस्त लंबी और स्वागत योग्य है लेकिन प्रश्न अब भी वही है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जहाँ लगभग 36 प्रतिशत हिंदू स्त्री खेतों में काम करती है या उसके जैसी एक्टीविटीज़ में, 19 प्रतिशत नौकरी पेशा और 12.5 प्रतिशत इंडस्ट्री सेक्टर में. 35 प्रतिशत महिलाएं निरक्षर और गरीबी रेखा के नीचे हैं. (२००० का आकलन के आधार पर), अब ये प्रतिशत बढ़ा है.
                                                                                                     
चित्र-  ग्रामीण महिलाएं
 (गूगल के सौजन्य से)

क्या विकास या मुक्ति का अर्थ ग्रामीण और निरक्षरता प्रधान क्षेत्रों में सुधार नहीं है? उल्लेखनीय है कि खेतों में काम करने वाली या शहरों में मजदूर स्त्रियाँ पुरुष के बराबर काम करती हैं, पर मजदूरी पुरुषों से कम दी जाती हैं.  यदि सिर्फ ग्रामीण हिस्सों की बात करें तो ये औरतें भारतीय क़ानून से बिलकुल अनभिज्ञ हैं. जहाँ तक शहरों और शहरी विकास का मामला है. कुछ महिला संगठन बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर यंग एज्युकेतेड लोगों के शोषण की बात करते हैं. इसकी वजह वो भूमंडलीकर के फलस्वरूप स्त्री का सरोकार बाजारवादी मानसिकता का होना बताते हैं.

स्त्री मुक्ति के नारे लगा लेना,  साल में एक दिन महिला दिवस मना लेना और नारियों की एतिहासिक दुर्दशा पर रचनाएं लिख लेना,  इससे नारी मुक्ति के संग्राम में हमारी ओर से एक हस्तक्षेप तो माना जा सकता है. पुरुष प्रधान सत्ता पर अपना विरोध दर्ज मान सकते हैं लेकिन क्या इससे समाज या पुरुष सोच में कुछ फर्क आया है या आ रहा है?  शहरों में निरंतर शिक्षा का स्तर (?) बढाने की कोशिशें जारी हैं, बोर्ड्स हर साल अपने नियमों और पाठ्यक्रमों आदि में संशोधन कर रहे हैं ,नए नए विषय नए सिस्टम्स खोजे और लागू किये जा रहे हैं, लेकिन क्या ‘’निरक्षरता बाहुल्य इलाकों (ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में)‘’ में कुछ उल्लेखनीय सुधार और संशोधन किये जा रहे हैं? क्या महिला बाल विकास द्वारा गरीबों के लिए डे स्कूल चलाना और दलिया या कुछ भोज्य पदार्थ उपलब्ध कराना भर पर्याप्त है?  क़ानून में संशोधन कर (साक्षरता को प्रोत्साहित करे बगैर)‘’ निरक्षर और अनुभवहीन स्त्री को‘’ सरपंच जैसे पद दे कर अपनी पीठ ठोक लेने का कोई औचित्य है? जब कि इस देश में राजनीति का ये हाल है कि निरक्षर/अनुभवहीन मुख्यमंत्री महिला पूरे राज्य को चला जाती है (सत्य क्या है सब जानते हैं).

ग्रामीण स्त्रियों के लिए स्त्री विमर्श की बातें कितनी महत्व रखती हैं और कैसे?  जिसकी इन्हें ना तो समझ है ना सरोकार?   कारपोरेट जगत, मीडिया, लेखिकाएं, कलाकार, बड़े घरानों/सरकारी अनुदान प्राप्त स्वयंसेवी संस्थाएं चलाने वाली जागरूक(?) महिलाओं से इतर भी है भारत, यानी हिन्दुस्तान का वो अन्धेरा हिस्सा जहाँ दो वक़्त का भोजन जुटाना और परिवार को ज़िंदा रख पाने की ज़द्दोजहद जीवन का एकमात्र अर्थ होता है. जागरूकता का दावा करने वाले कितने लोग हैं ऐसे जिन्होंने वास्तव में झुग्गियों, नमक प्लांट, खूबसूरत कपड़ों के बुनकरों, बंजारों, फेक्ट्रियों, घरों में काम करने वाली महिलाओं, दलित और आदिवासी परिवारों को जीवन से जूझते हुए देखा है? हिन्दी साहित्य में जिन महिला लेखिकाओं ने वास्तव में स्त्री दशा से सरोकार रखते हुए लेखन किया उनमे महाश्वेता देवी का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने आदिवासी और गरीब औरतों के बीच जाकर उन्हें देखा और लिखा.

                                चित्र -महाश्वेता देवी

 (गूगल के सौजन्य से)

यदि मौजूदा परिद्रश्य की बात की जाये तो आज वैश्वीकरण के दौर में स्त्री को एक वस्तु के रूप में पेश किया जा रहा है ये पूंजीवादी व्यवस्था की देन है.’ हिंदी भाषी क्षेत्रों में महिला आन्दोलन कम ही हुए फिर भी महानगरीय महिला लेखकों के लेखन को कमतर नहीं आंका जा सकता. मन्नू भंडारी, सुधा अरोड़ा, मैत्रेयी पुष्पा, .कुसुम त्रिपाठी, कात्यायिनी, नीरा देसाई, चित्रा मुद्गल, अर्चना वर्मा, मृदुला गर्ग, शालिनी माथुर, ममता कालिया आदि लेखिकाओं ने साहित्यिक हलके में सामाजिक सरोकारों के मुद्दे उठाने का साहसिक काम किया है. यहाँ रेखांकित करने वाली बात ये हैं कि ये वो महिला लेखिकाएं हैं जिन्होंने स्त्री विमर्श से सम्बंधित निरंतर, सार्थक और सोद्देश्य लेखन बकायदा एक प्रतिबद्धता के साथ किया है यहाँ स्त्री सरोकारों की पत्रिका ‘’मानुषी ‘’की संपादक मधु किश्वर का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है. मधु किश्वर उन चुनिन्दा लेखिकाओं में से एक हैं ,जिन्होंने सत्तरवें दशक में स्त्री और ह्यूमेन राईट्स मूवमेंट्स में खुलकर हिस्सेदारी की.

पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर लिखे गए साहित्य में भी स्त्री की वास्तविक स्थिति दिखाई देती है जो कमोबेश एक दूसरे से मेल नहीं खाती. इसकी वजह सोच और काल भी हो सकता है. जैसे शरत चंद, प्रेमचंद, की रचनाओं से अलग यशपाल की रचनाओं में हमारा एक ऐसी स्त्री से साक्षात्कार होता है, जो जागी हुई औरत है, बोलने वाली औरत. पुरुष प्रधान समाज और परिवार से लगातार सवाल करती औरत, बवाल करती औरत.

                                                                                                                                           

चित्र- मन्नू भंडारी 

  (गूगल के सौजन्य से)

 

संभवतः सिर्फ पुरुषों या इतिहास को दोषी ठहराते हुए उन्हें अपनी मौजूदा स्थिति का ज़िम्मेदार मानना और विवशता का पारंपरिक रोना रोकर अपना विरोध दर्ज करना (किसी भी माध्यम के द्वारा ) या उनके खिलाफ घटनाओं ब्योरों को  प्रस्तुत  कर सहानुभूति या (शिल्पगत) वाहवाही प्राप्त करना ये नारी आंदोलन का ना तो प्रारूप है ना स्वरुप. हाँ, एक अच्छी रचना ज़रूर मानी जा सकती है. मन्नू भंडारी जी का ये कथन बिलकुल तर्क संगत है कि ‘’दरअसल स्त्री विमर्श एक निरंतर गतिशील परिवर्तन की प्रक्रिया है स्त्री आंदोलनों के लिए ये ज़रूरी है कि आपके पास अपने कार्यक्रम की एक स्पष्ट रूपरेखा हो,कोई ब्लू प्रिंट हो.
’’

आभार –

ममता कालिया, कुसुम त्रिपाठी, मन्नू भंडारी, सुधा अरोड़ा, चित्रा मुद्गल, मृणाल वल्लरी

संपर्क-

ई- मेल- shuklavandana46@gmail.com 

वंदना शुक्ला

वन्दना शुक्ला ने प्रस्तुत आलेख ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के अवसर के लिए भेजा था। लेकिन होली की व्यस्तताओं और और इधर उधर की भागदौड़ के कारण यह लेख प्रकाशित नहीं कर पाया था। आलेख पढ कर ऐसा लगा कि यह तो आज के दौर में कभी भी प्रासंगिक है। और इसे ‘पहली बार’ के अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। वन्दना ने आज के समय में कविता और कहानी दोनो क्षेत्रों में बराबर का हस्तक्षेप किया है। इनके सुविचारित आलेख भी इनकी सुसम्पन्न दृष्टि का परिचय देते हैं। नारी की मुक्ति का प्रसंग हर समय के लिए एक यक्ष प्रश्न रहा है। पितृसत्तात्मक समाज में कदम कदम पर नारी को छोटी छोटी बातों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उसे हर समय अपने परिवार के ही पुरूष सदस्यों के सन्देह का सामना करना पड़ता है। ऐसे में यह समस्या अगर नारी लेखन का मुख्य केन्द्र बनती है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं।

नारी मुक्ति के संघर्ष में लेखिकाओं की भूमिका

‘पुरुष स्वर्ग का प्रतिनिधि है,और सर्वोपरि है नारी उसकी आज्ञाकारिणी होती है’ -(कन्फ्यूशियस)

ये नारी-पुरुष संबंधों की एक पुरातन व्याख्या है, पर क्या भूमंडलीकरन की चकाचौंध में इसे सिर्फ एक‘’पौराणिक पुरुषवादी सोच ‘’’कह खारिज कर देने योग्य विचार माना जा सकता है? यथार्थ गतिमान होता है, इकहरा है. समय के साथ स्थितियां, विचार, मान्यताएं बदलते हैं बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत समय का सिद्धांत है कि दीर्घ अवधि तक किये गए प्रयास धीरे ही सही पर परिवर्तित होते हैं (सफल या असफल ये भी समयपरिधि के वशीभूत है) स्त्री सदा से ही पुरुष के अधीन रही है. उसकी अनुचारिका और ‘आज्ञाकारिणी’(अपेक्षित रूप से)और पुरुष प्रधान समाज में पुरुष सत्ता से मुक्ति की चाहत और श्रम उसकी एक दीर्घ कालीन कोशिश है

इतिहास गवाह है कि समय समय पर स्त्री ने तयशुदा उसूलों और नियमों से बाहर जाकर अदम्य साहस का परिचय दे मुक्ति संघर्ष किये हैं इनमे से सबसे अधिक प्रयास लेखन के द्वारा किये गए शायद इसलिए कि वो उनके सबसे सन्निकट और सुविधाजनक सम्प्रेषण-माध्यम था. नारी –मुक्ति की आकांक्षा और प्रयास ना सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व का एक साझा प्रयास रहा समय और परिस्थियों के अनुसार 1960 तक सीमोन द बोउवार की किताब द सेकेण्ड सेक्स और ब्रेत्ती फ्राईदें की द फेमिनिन ने नारी समाज में हलचल पैदा कर दी थी और एक विश्वव्यापी आन्दोलन का रूप ले लिया था ,लेकिन क्या आज स्थितियां वाकई बेहतर कही जा सकती हैं? क्या हम आधुनिक हो पाए हैं?क्या नारी के प्रति पुरुष की मनोवृत्तियाँ और सोच बदली हैं? आज चहुँओर भूमंडलीकरण का शोर है ,भले ही इसके कसीदे पढ़े जा रहे हों, ’नए’युग की आवश्यकता बता कर महिमामंडित किया जा रहा हो इसे ,पर सच तो यह है कि वैश्वीकरण ने सिर्फ राष्ट्रीयता की सीमा को ही नहीं तोडा है बल्कि विचार, धर्म, शिक्षा,  स्त्री पुरुष संबंधों तक को प्रभावित किया है. संभवतः इसी विसंगतिजन्य उत्कंठा को  विनोद तिवारी ने सुप्रसिद्ध कहानीकार-कवि उदय प्रकाश की कहानी मेंगोसिल से उद्धृत किया है जो वर्त्तमान समय और स्थितियों के बीच निरुपायता और छटपटाहट की कथा है ,जो वैश्वीक साम्राज्यवादी अर्थ तंत्र और मानवीय परिणितियों की कहानी है.

यदि वस्तुस्थिति विशेषतः भारतीय लेखिकाओं के सन्दर्भ में देखी जाये तो निस्संदेह आज जितनी लेखिकाएं लिख रही हैं पहले इतनी कभी नहीं रहीं ,इसके अनेक कारन गिनाए जा सकते हैं जिनमे महिला साक्षरता और जागरूकता के अतिरिक्त कुछ तकनीकी सुविधाओं और सोच के खुलेपन का होना भी है. लेकिन साथ ही ये कहना भी गलत नहीं होगा कि जहाँ पिछली पीढ़ी तक की महिलाओं का साहित्य मील का पत्थर माना जाता रहा, आज भी रूचि के साथ पढ़ा जाता है, वहीँ नयी लेखिकाओं में कुछेक को छोड़ दे तो कोई अपना एक अलग स्थान नहीं बना सकी हैं हालाकि इसके अन्यान्य भी कारन हो सकते हैं पर स्थिति यही है महिला लेखन के इतिहास पर नज़र डाली जाये तो पुरुष वर्चस्व और राजनैतिक अराजकता के विकट माहौल की मज़बूत दीवार और कैद के भीतर भी कुछ जुझारू स्त्रियाँ (लेखिकाएं)अपने उद्वेलन को लेखन के अलग अलग माध्यमों के द्वारा व्यक्त करने के लिए कटिबद्ध दिखाई देती हैं

आत्म सम्मान की प्यास और तेज होती है. लगातार किसी के इशारे पर नाचने का मन नहीं करता कम खाओ, कम ही पियो, कम कम हँसो-बोलो, ये करो ये नहीं अब सोओं अब उठो अब इस प्रश्न का ज़वाब दो, अब चुप्पी ही साध जाओ …….अनामिका के उपन्यास ‘दस द्वारे का पिंजरा से उद्धृत पंक्तियाँ.

ये नारी मन का उद्वेलन,कुलबुलाहट उसकी आतंरिक वेदना का ताजातरीन रूप है जो दर्शाता है कि आज भी नारी कमोबेश उसी दुविधा और पीड़ा में है जो पच्चीस- तीस बरस पहले थी बस स्वरूप बदल गया है. जहाँ आजादी के कुछ बाद तक वो घोषित रूप से पीडिता थी, इस बाजारवादी संस्कृति में उस पर आजादी के भ्रमों का चमकीला आवरण चढ गया है (या चढ़ा दिया गया है ),जिसके भीतर भी एक कुंठित छटपटाहट है जो उसके साहित्य, जन आन्दोलनों जैसे संप्रेषणों से छन कर बाहर आती रहती है.

नारी मन और उसकी पीडाओं को ना सिर्फ कहानी उपन्यासों कविता स्त्री विमर्श (और अब नुक्कड़ नाटकों) आदि के माध्यम से स्त्री ने अपनी दबी कुंठाओं को बाहर निकाला, बल्कि सच और उद्वेलित करने वाली आत्मकथाएँ भी लिखीं जिससे समाज में एक तरह की वैचारिक हलचल का माहौल पैदा हुआ. निस्संदेह ये एक दुस्साहसी कदम था जो प्रमुखतः पुरुष सत्ता और उसकी स्त्री के प्रति मनोवृत्ति को उजागर तो करता ही था. उनकी अपनी अस्मिता के लिए भी संकट का विषय रहा
1975 में अंग्रेज़ी की मशहूर कवियत्री कमला दास की आत्मकथा माय स्टोरी नाम से छपी
इसमें एक विवाहेत्तर सम्बन्ध की आकांक्षा रखने वाली ऐसी सभ्रांत मलियाली परिवार की लड़की की कहानी है जो वैवाहिक जीवन के नाकाम हो जाने पर किसी बाहरी प्रेम की तलाश करती है.
गौरतलब है कि उस समय में विवाहेतर संबंधों की तलाश और समाज द्वारा स्वीकार्य एक बड़ी बात थी. हलाकि उन्होंने काफी बदनामी और जोखिम का सामना किया लेकिन अपनी बात बेबाकी और निर्भयता से कहने में सफल रहीं. उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा ‘मै चाहती थी कि स्वयं को उंडेल दूँ ,कोई सा भी रहस्य लुका छुपी ना रहने दूँ ,ताकि जब समय आये मेरे कूच का, तो विदा हो सकूँ एकदम से निर्मल अन्तः करन लिए’ (उमेश चतुर्वेदी –कादम्बिनी से साभार) लेकिन आत्मकथा के सन्दर्भ में प्रसिद्द लेखिका मालती जोशी का मानना है, ‘हम जिंदगी अकेले नहीं जीते कई लोगों की जिंदगियां हमसे जुडी रहती हैं. जब हम बेबाक होकर अपनी दास्तान कहने लगते हैं ,तो अपने साथ और भी लोगों को बेपर्दा कर देते हैं .हर कोई इस तरह अनावृत होकर जीना पसंद नहीं करता.’

इसके अतिरिक्त अम्रता प्रीतम, मन्नू भंडारी, कृष्णा अग्निहोत्री, मैत्रेयी पुष्पा, कुर्तुएल ए हैदर, तस्लीमा नसरीन आदि लेखिकाओं ने भी अपनी आत्मकथाएँ लिखीं, इन में से कुछ की आत्मकथाएँ  वास्तविक और संकोचवश बचा ली गई घटनाओं की मर्यादित अमर्यादित धूप छाँव से गुजरती हैं.
तस्लीमा मानती है कि शिक्षित और स्व निर्भर होने के बावजूद इस नारी विरोधी समाज में स्त्रियाँ शारीरिक गुलामी से मुक्ति नहीं पा सकतीं.

ये धारणा गलत है,कि दूसरे देशों में स्त्री अपेक्षाकृत इन विडंबनाओं से मुक्त है क्यूँ कि वह आजाद है. इतिहास साक्षी है, कि महिलाओं की स्थिति कमोबेश सभी देशों में दयनीय रही, उन्हें हर जगह दोयम दर्जे का नागरिक माना गया. गौरतलब है कि 8 मार्च को महिला दिवस की शुरुआत भी ऐसे ही एक स्त्री मुक्ति के आन्दोलन के रूप में हुई. 1908 को न्यूयार्क कि एक टेक्सटाइल फेक्ट्री में काम करने वाली हज़ारों महिलाओं ने पहली बार एक विशाल रैली निकाली,  जिसमे उन्होंने अपने काम कि स्थितियां परिवर्तित करने की मांग की थी! तभी से हर वर्ष इसी दिन ‘’अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ‘’मनाया जाता है!  कामगार महिलाओं की लड़ाई को वैचारिक मुद्दों से जोड़ते हुए ब्रेटी फ्रायड मैन ,सिमोम द बुवा की किताबो में शारीरिक श्रम में गैर बराबरी के और कम वेतन के मुद्दों के साथ साथ पितृसत्तात्मक समाज और सामाजिक परिद्रश्य पर स्त्री के प्रति दोयम दर्जे की अवधारणाओं पर खुलकर विरोध दर्ज किया गया. ऐसा नहीं है कि भारत या विदेशी लेखिकाओं ने सिर्फ स्त्री समस्याओं पर ही लेखन को केंद्रित किया है बल्कि उन्होंने नारी अधिकारों को भी रूपायित किया. इस सन्दर्भ. में मेरी वालास्तान्क्राफ्त ने विन्दीकेशन ऑफ द राईट्स वीमेन  लिखा तो हिन्दुस्तान में भी ताराबाई शिंदे ने स्त्री पुरुष तुलना लिखी.

पश्चिमी देशों में स्त्री मुक्ति के आंदोलनों की लहर विश्वयुद्ध के खिलाफ व तकनीकी, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने का संघर्ष है, लिहाजा उनके सरोकार और हिस्सेदारी ज्यादातर राजनैतिक परिद्रश्यों और सामाजिक स्थितियों को उजागर और वर्णित करने में अधिक रही. सार्दीनियाँ (इटली) की नोबेल पुरूस्कार विजेता ग्रेजिया देलेदा का 1926 में लिखा गया एक अंश ….. उन्होंने लिखा है  मैंने आरम्भ में ( 13 वर्ष की उम्र में) इटली का सही चित्र अपनी रचना में प्रस्तुत किया था ये सोचकर कि इसे पढकर इटली वासी बहुत खुश हो जायेंगे क्यूँ कि ये उनकी अपनी त्रासदियों का चित्र है लेकिन इसे ज्यादा लोगों ने पसंद नहीं किया मेरी सारी अभिलाषाओं पर पानी फिर गया स्थिति यहाँ तक हो गई कि पुस्तक प्रकाशित होने पर मै पिटते पिटते बची. ये एक उदाहरण है लगभग नौ दशकों पहले की स्थिति का पोलेंड की प्रसिद्द कवियत्री विश्वावा ज़िम्बोर्सका की आरम्भिक कवितायें पूंजीवादी सभ्यता की विरोधी तथा मेहनत कश मजदूर वर्ग के समर्थन की कवितायेँ हैं (लगभग 1954 के आसपास उन्होंने प्रेम कवितायेँ लिखना प्रारम्भ किया) उन्होंने स्पष्ट किया कि मेरी कवितायेँ मुख्यतः लोगों और उनकी ज़िंदगी के बारे में होती हैं.

परिस्थितिजन्य लेखन वस्तुतः स्व – स्फूर्ति से ज़न्मा साहित्य है. सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया कहती हैं मेरी कहानियों के पीछे वे समस्त विसंगतियाँ हैं ,जिनकी मूक दर्शक बनकर बैठना मुझे गंवारा ना हुआ. ममता जी के बारे में सुप्रसिद्ध लेखक उपेन्द्र नाथ अश्क लिखते हैं ममता रूमानी या काल्पनिक कहानियां नहीं लिखतीं. उनकी कहानियां ठोस जीवन धरातल पर टिकी हैं.
(पढते लिखते रचते –ममता कालिया ‘’पुस्तक से साभार)

हालाकि पश्चिम की लेखिकाओं ने भी अपने देश की स्त्री की दुर्दशा को लिखा है पर चूँकि उनकी समस्याएं स्वाभाविकतः अलग थीं इसलिए उसे उस द्रष्टि से लिखा गया जैसे अमेरिका की अश्वेत लेखिका टोनी मॉरिसन का स्वयं का जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा. उनके पिता किसान थे. परिवार का जीवन बहुत गरीबी में बीता था. उन्होंने अपने विश्व विख्यात उपन्यास बिलवेड  में एक स्त्री की मनोदशा का मार्मिक चित्रण किया है ,जिसका सारांश है , ‘’एक अश्वेत महिला मार्गरेट गार्नर दासी के रूप में काम करती है. एक दिन छुटकारे की मंशा से वह चुपचाप भाग जाती है, और सबसे पहले अपनी जान से अधिक प्यारी बेटी की हत्या कर देती है ताकि बेटी को गुलामी की यंत्रण ना भोगनी पड़े स्थिति की पराकाष्ठा ये, कि उस पर मुकदमा बेटी की हत्या का नहीं बल्कि एक भावी गुलाम की चोरी का चलाया जाता है उनके लेखन को नोबेल पुरूस्कार काले लोगों के जीवन अनुभव के लिए ही प्रदान किया गया जो स्वयं उन्होंने एक अश्वेत महिला होने के नाते देखा था संघर्ष किया था
इस के विपरीत नदीं गौर्दीमर दक्षिण अफ्रीका की श्वेत उपन्यास लेखिका थीं ,और ‘’श्वेत’’ होने के नाते उन्हें सब सुविधाएँ प्राप्त थीं बावजूद इसके उनका सारा लेखन रंग भेद की नीति के विरुद्ध है
पाकिस्तान की प्रसिद्द लेखिका नाहीद ने वहां की स्त्री को लेकर आत्मकथा में कुछ गंभीर मुद्दे उठाये हैं. नार्वे की सुप्रसिद्ध लेखिका सीग्रित उन्द्सेट की कहानियों के मुख्य विषय भी स्त्री प्रसंग ही रहे.
इनकी कहानियों /उपन्यासों में प्रमुखतः मातृत्व और स्त्री दशा का बहुत जीवंत वर्णन मिलता है.
नार्वे की नागरिक होने के बावजूद इनकी रचनाओं में ज्यादातर डेनिश माता का ही चित्रण मिलता है गौरतलब है कि सीग्रिड की माता डेनिश थीं. उनका सबसे चर्चित उपन्यास है जैनी
उसकी कहानी यह है, ‘नायिका अध्ययन करने के लिए नॉर्वे छोड़कर रोम चली जाती है वहां उसका परिचय हेल्ज़ से होता है जो मानसिक और नैतिक साहस में दुर्बल है. वह उसके साथ ऐसा स्नेह रखती है,  जो पत्नी और माता के प्रेम का सम्मिश्रण होता है. वापस नॉर्वे आ कर वो उसे भूल नहीं पाती. अंततः वो फिर रोम चली जाती है जहाँ हेल्ज़ उसे नहीं मिलता. कुछ दिनों तक कला में अपने आप को डुबोना चाहती है पर नहीं भुला पाती इसका अंत दुखद है. ‘ उन्होंने अपने नोबेल पुरूस्कार की आधी राशि और अपनी किताबों से होने वाली पूरी आय सभी धर्मों के अनाथ बेसहारा बच्चों के लिए दान कर दी थी

हिन्दी की सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लेखिका कृष्ण सोबती कहती ‘you can take liberties with yourself only if you create a large space for yourself…A vast sky….

स्त्री विमर्श संदर्भित कहानी /आलेख में कुछ लेखिकाएं जो हिंदी साहित्य की अग्रणी महिलाएं हैं. उनकी कहानियां/उपन्यास /आलेख अत्यंत सारगर्भित और हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ कहे जा सकते हैं. जैसे मात्र देह नहीं औरत ….(मृदुला सिन्हा )! आम औरत जिंदा सवाल (सुधा अरोड़ा)…. औरत अपने लिए (लता शर्मा )….. जीना है तो लड़ना सीखो (वृंदा करत)…. इस्पात में ढलते स्त्री’’(शशिकला राय)…’’स्त्री का आकाश’’(कमला सिंघवी )….आदि!

हिंदी जगत से अलहदा यदि उर्दू में देखें तो सर्वोपरि सर्व सम्मत से उत्कृष्ट लेखिका इस्मत चुगताई का नाम ही ज़ेहन में आता है !किसी ने कहा है ‘उर्दू अदब में एक दुस्साहसी स्त्री का नाम खोजना हो तो इस्मत चुगताई …उनकी बेबाक बयानी ,चाहे स्त्री मुद्दों पर हो या कुरीतियों पर उनका बेबाक लेखन स्त्रियों के हक में बुलंदी से आवाज़ उठता और उनके हालातों को बखूबी उजागर करता !’

उनकी जागरूकता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि वो पहली मुस्लिम महिला थीं जिन्होंने स्नातक उपाधि हासिल की थी. इतना ही नहीं उन्होंने ”प्रोग्रेसिव रायटर्स ऑफ़ एसोसिएशन की बैठक अटेंड की थी. उन्होंने उसी वक़्त बैचुलर ऑफ़ ”एज्युकेशन” की डिग्री भी हासिल की.
कहने का मकसद सिर्फ इतना कि आज के समय में ये सब सामान्य घटनाएँ हैं लेकिन जिस काल की बात की जा रही है वो भी एक मुस्लिम परिवेश में वो एक मिसाल से कम नहीं और यही प्रोग्रेसिव्नेस उनके लेखन की एक न सिर्फ विशेषता है बल्कि अन्य लेखिकाओं से उनको विशिष्ट भी बनाती है!

हिंदी लेखिकाओं में जो एक और नाम साहित्य आकाश में तारे की तरह जगमगाता है वो है प्रसिद्द लेखिका मन्नू भंडारी! मन्नू भंडारी को ‘’कहानी आन्दोलन की प्रमुख स्तंभ कहा गया है! इसी क्रम में प्रख्यात और बेबाक, स्त्रियों की दशा को दिशा देती लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का नाम लेना ज़रूरी है! आत्म कथाएं समाज की सच्ची कथाये ‘’में उन्होने लिखा समाज के पारंपरिक मिजाज़ के बिगड जाने की परवाह रचनाकार करते तो, परिवर्तनकारी रचनाओं का ज़न्म कैसे होता? नासिरा शर्मा,सूर्यबाला,मृदुला गर्ग,कुर्तुएल ए हैदर,कृष्ण सोबती ,सुधा अरोड़ा आदि इसी कोटि की लेखिकाएं हैं मधु किश्वर उन चुनिन्दा लेखिकाओं में से एक हैं ,जिन्होंने सत्तरवें दशक में स्त्री और ह्यूमेन राईट्स मूवमेंट्स में खुलकर हिस्सेदारी की. मधु स्त्री सरोकारों की पत्रिका मानुषी की संपादक रहीं

भोगे हुए यथार्थ का लेखन ह्रदय और विचारों को अपेक्षाकृत अधिक उद्वेलित करता है. युद्ध की स्थितियों में लिखा गया लेखन सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला साहित्य है. भीष्म साहनी, ,मोपांसा, मेक्सिम गोर्की, इमरे कर्तेज़, आदि इसके उदाहरण हैं. कुछ महिलाओं ने भी अपने साहित्य में इस का वर्णन किया है. सेल्मा लागर्लेफ़ स्वीडिश महिला थीं, उन्होंने नरसंहार का वर्णन किया तथा युद्ध की कारुणिक स्थिति और विभीषिका की घोर निंदा की! उन्हें छः से ज्यादा भाषाओं का ज्ञान था.
उल्लेखनीय है कि जर्मन यहूदी कवियत्री Nelly Sachs ने द्वतीय विश्व युद्ध में यहूदी लेखकों से कहा था कि वे अपने साथियों के कष्टों की ओर ध्यान दें. नेली का प्रसिद्द कविता संग्रह जर्नी इंटू ए डस्टलेस रेल्म  में जर्मन में यहूदियों पर जो भयंकर अत्याचार हुए थे, उनका वर्णन किया गया है

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