स्त्री स्वातंत्र्य क्या है? क्यूँ इसकी आवश्यकता है? निस्संदेह आज़ादी की चाहत या मांग उसी की होती है जो परतंत्र होता है, इसका सीधा अर्थ है कि नारी परतंत्र है इसलिए उसके स्वातंत्र्य की चेष्टाएं, उसकी कामना की जाती है दिवस मनाया जाता है (पुरुष स्वतंत्र है इसलिए उसे दिवस की ज़रूरत नहीं) नारी क्यूँ और कैसे परतंत्र है, इसका इतिहास या ज़रूरत या कारन एक लंबी बहस है बल्कि एक एतिहासिक प्रकरण.
गौरतलब है कि स्त्री की दशा दयनीय रही, उसे दबा–कुचला कर रखा गया या वो इस पुरुष सत्तात्मक समाज में उसकी दासी बन कर रही, एक मशीन समझा गया ये सब मुद्दे किसी देश विशेष की कहानी और इतिहास नहीं हैं, बल्कि ये एक वैश्विक विडम्बना रही है- कुछ भौगोलिक व परिस्थितिगत विविधताओं के बावजूद एक सामान्य मानसिकता. 1960 तक सीमोन द बोउवार की किताब ‘’द सेकेण्ड सेक्स’’ और ब्रेत्ती फ्राईदें की ‘द फेमिनिन’ ने नारी समाज में हलचल पैदा कर दी थी और एक विश्व व्यापी आन्दोलन का रूप ले लिया था. सिमोट द बोवुआ ने अस्तित्ववाद का नारी वादी पक्ष सामने रखकर समूचे साहित्य जगत को झकझोर दिया. महिलाओं द्वारा प्रज्ज्वलित की गई 1917 की क्रान्ति ने जारशाही का तख्ता पलट दिया था. भारत की महिलाओं की बात करें तो बंगाल में ज्योतिर्मयी, महाराष्ट्र में ताराबाई शिंदे, और सावित्री बाई फुले ने स्त्रियों के बराबरी के हक, और शिक्षा की गुहार लगाईं. सरोजिनी नायडू जैसी महिलाओं की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही. मीरा गुप्ता (ऑल इंडिया वीमेंस कांफ्रेंस’’ संस्थापिका,पहला महिला संगठन), ‘भारत स्त्री महामंडल’ की संस्थापक सरला देवी जैसी जागरूक और कर्तव्यनिष्ठ महिलाओं का ज़िक्र करना यहाँ तर्कसंगत है. भारत में महिला आंदोलनों की शुरुआत 1977 के आसपास हुई. लगभग आपातकाल के घोषणा के समय. वैसे 1927 में ‘आल इंडिया वूमेंस कॉन्फ्रेंस’ ‘नेशनल फाउन्डेशन ऑफ इण्डियन वूमेन’, तथा ‘’वीमेंस इंडिया एसोसियेशन, जिन्होंने स्त्री शिक्षा, पर्दा प्रथा, मताधिकार, और व्यक्तिगत अधिकारों के मुद्दों को उठाया.
यद्यपि आज स्त्रियों की दशा पहले से काफी बेहतर है आज हिन्दुस्तान का एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग स्त्रियों की मुक्ति, और आज़ादी की खुलकर पैरवी करता है (जिनमे सत्तारूढ़ दलों के अतिरिक्त खुद स्त्रियों का प्रतिशत भी अच्छा खासा है), निस्संदेह उन नामी स्त्री राजनेताओं, फिल्ममेकरों, कॉर्परेट से जुडी महिलाओं, या शिक्षा, खेल, साहित्य आदि में परचम लहराने वाली स्त्रियों का दंभ भर कर. इसका एक पक्ष देखें तो इसमें गलत भी नहीं कुछ, पर बावजूद इसके कुछ सवाल तो ज़ेहन में कौंधते हैं पहला…क्या स्त्री मुक्ति के प्रश्न को यौन मुक्तिवाद तक सीमित करना उचित है? क्या स्त्री स्वातंत्र्य का आकलन सिर्फ शहरी ,साक्षर और मध्यम/उच्च वर्ग की स्त्री तक सीमित होता है/होना चाहिए? क्या संघर्षरत महिलायें अपना इतिहास दर्ज करा पाती हैं?’’ और फिर यदि (शहरी)स्त्री आज मुक्ति की दिशा में अग्रसर है, वो (वास्तविक) आजादी के कीर्तिमान सचमुच गढ़ रही है और उसके प्रति एतिहासिक पौरुशीय सोच, कुंठाओं और अवधारणाओं में वास्तव में कोई उल्लेखनीय तबदीली आई है, तो सवाल ये उठता है कि मन्नू भंडारी जैसी लेखिकाओं जिन्हें हिन्दी साहित्य की प्रमुख स्तंभ कहा जता है, को ‘’करतूते मरदा‘’ की आख़िरी में बतौर ‘’निष्कर्ष’’ ये आगाह करते हुए चेतावनी क्यूँ देनी पड़ती है कि ‘नासमझ (मूर्ख)लड़कियों औरतों से कहना है, कि, इससे आगे कभी मत बढ़ना. इन्हें (पुरुषों को) अपने पास तो कभी फटकने मत देना. भरोसे की जात बिलकुल नहीं है इनकी’. और उधर ‘’आवां’’ की लेखिका चित्रा मुद्गल नमिता यानी ‘आवाँ ’की मुख्य पात्र दैहिक उत्पीडन के प्रति मुखर आवाज़ क्यूँ नहीं उठाती, इसके ज़वाब में स्त्री को आत्मविश्लेषण और आत्म चिंतन का अवसर देते हुए लेखिका कहती हैं …’’मैंने नमिता को अपने अनुभवों से सीखने के लिए एक स्पेस मुहैया करवाया है. संघर्षों की चोटों से वो सुनिश्चित करे कि उसका प्रतिवाद क्या और कैसा होना चाहिए.’’ आज की उच्च तकनीक और विचारशील जागरूक महिला से संदर्भित कुछ सवाल
(१)- सपाद्कीय नीतियों के विषय में फैसला लेने वाले पदों पर महिलायें क्यूँ नहीं?
(२)- टी.वी. मीडिया में बाज़ार ने अपनी सहूलियत और ज़रूरतों के हिसाब से महिलाओं को जगह दी है क्यूँ ?..
इसके अलावा… ‘व्यापक जन आन्दोलनों में स्त्री की भागीदारी कितनी है? यदि नहीं तो क्यूँ नहीं?
दरअसल हर युग में नारी ‘’होने’’ के अर्थ बेहद परिवर्तनशील रहे. कभी ‘’नारी तुम केवल श्रद्धा हो’’ कभी ‘’ढोल गंवार शूद्र पशु नारी‘’, कभी ‘’अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी‘’. कवि दिनकर ने कहा ‘’नारी के भीतर एक और नारी है. जो अगोचर और इन्द्रियातीत है. इस नारी का संधान पुरुष तब पाता है, जब शरीर की धारा उछालते-उछालते उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, कभी ‘’देह नहीं है परिधि प्रणय की’’ कभी देवी ,कभी गुलाम’’ अपने अस्तित्व के इतने विरोधाभासी उद्घोषों के बीच नारी की स्थिति हमेशा ही असमंजस पूर्ण और विचित्र रही.
ना सिर्फ भारत में बल्कि फ्रांस, अमेरिका, जैसे पश्चिम देशों में भी चमड़ों, रेडीमेड कपड़ों, खेतों में काम करने वाली औरतों की भारी संख्या दिखाई देती है पूरा दिन काम, असमान वेतन, घर का काम बच्चों की देखभाल, शराबी पति से पिटाई ये सब सहन करती रहीं इसीलिए इन औरतों को अपनी स्थिति के लिए आवाज़ उठानी पडी (8 मार्च 1908 ) अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस वस्तुतः उसी आंदोलन की परिणिति और स्मृति है. इंग्लेंड में हुए एक सर्वे में पाया गया कि महिलाएं चाहती हैं कि पति परिवार चलाने के लिए कमाएँ. अर्थात इंग्लेंड की ज्यादातर आधुनिक महिलाये पारंपरिक मूल्यों की ओर लौटना चाहती हैं. पश्चिम की स्त्री को नारीवाद के ज़रूरत नहीं, ये उदाहरण ये तमाम भ्रमों को सिरे से खारिज करते हैं. आखिर सच क्या है उनका सच जो अनुभवों से गुजरी हैं या उनका जो घर की चहारदीवारी में सुरक्षित नैतिकता की वकालत करती हैं?
चित्र- टोनी मोरिस
(गूगल के सौजन्य से)
हालाकि भारत में नारीवादी आंदोलन का स्वरूप और उद्देश्य अमेरिका की अश्वेत नारीवादी राजनीति से बिलकुल भिन्न था. विदेशी लेखिकाओं ने इस आन्दोलन में एक बड़ी व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई. जैसे, अमेरिका की अश्वेत लेखिका टोनी मॉरीसन ने अपने उपन्यासों में अश्वेत लड़कियों व स्त्रियों की सामजिक स्थिति के अपने अनुभवों को व्यक्त किया. ज़िक्र करना ज़रूरी होगा. नेदीन गार्डिमर (साउथ अफ्रीका) जैसी लेखिकाओं का जिन्होंने खुद श्वेत महिला होते हुए अपना सारा लेखन रंगभेद की नीति के विरुद्ध लिखा. प्रसिद्द लेखक रमेश द्वे उन्हें बोर्खेज़ मार्खेज़ पामुक के समकक्ष खडा करते हुए कहते हैं ‘’इन लेखकों ने अपने सारे पूर्वजों के ग्लेशियर गला दीये कहानी में एक नई उष्मा का संचार किया.’’ नॉर्वे की सुप्रसिद्ध उपन्यास लेखिका सीग्रिड उन्द्सेट ने क्रिस्टिन लारेंदेतर की कहानी में दो बातें मुख्यतः स्पष्ट की हैं जो यहाँ उल्लेखनीय हैं. एक ये कि चौदहवीं शताब्दी के स्त्री –पुरुष बीसवीं शताब्दी की मानवतायुक्त स्त्री पुरुषों से मिलते जुलते थे. दूसरी यह कि सही और गलत, पाप और उसके नतीजे, उदारतावाद के आधुनिक विचारों और क्रियाओं की प्रवृत्ति से घटाए नहीं जा सकते.
पश्चिमी देशों में स्त्री मुक्ति के आंदोलनों की लहर विश्वयुद्ध के खिलाफ व तकनीकी, आर्थिक, सामाजिक ,राजनैतिक क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने का संघर्ष है, लिहाजा उनके सरोकार और हिस्सेदारी ज्यादातर राजनैतिक परिद्रश्यों और सामाजिक स्थितियों को उजागर और वर्णित करने में अधिक रही.
सुधा अरोड़ा कहती हैं ‘’स्त्री पुरुष के समाज द्वारा पोषित पौरुशीय अहम के लिये अपनी कुंठा के निकास के लिए सबसे सुरक्षित आउटलेट है जो अपनी शारीरिक अक्षमता और भावनात्मक लगाव के कारण प्रतिरोध करने में भी असमर्थ है.’’ इसमें गलत नहीं कि हमारे मीडिया और साहित्य का कम से कम पचास प्रतिशत हिस्सा ना सिर्फ नारी पुरुष संबंधों से घिरा हुआ है बल्कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो उल-जलूल सीरियलों और ख़बरों को अतिवादी बना उन रिश्तों को अधिक तोड़ मरोड़ और वीभत्स तरीके से पेश करता है (लोकतंत्र का चौथा खम्भा आखिर देश के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखता ही है इसलिए उसका कटघरे में खड़ा होना लाजमी है).
क्या विकास या मुक्ति का अर्थ ग्रामीण और निरक्षरता प्रधान क्षेत्रों में सुधार नहीं है? उल्लेखनीय है कि खेतों में काम करने वाली या शहरों में मजदूर स्त्रियाँ पुरुष के बराबर काम करती हैं, पर मजदूरी पुरुषों से कम दी जाती हैं. यदि सिर्फ ग्रामीण हिस्सों की बात करें तो ये औरतें भारतीय क़ानून से बिलकुल अनभिज्ञ हैं. जहाँ तक शहरों और शहरी विकास का मामला है. कुछ महिला संगठन बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर यंग एज्युकेतेड लोगों के शोषण की बात करते हैं. इसकी वजह वो भूमंडलीकरण के फलस्वरूप स्त्री का सरोकार बाजारवादी मानसिकता का होना बताते हैं.
स्त्री मुक्ति के नारे लगा लेना, साल में एक दिन महिला दिवस मना लेना और नारियों की एतिहासिक दुर्दशा पर रचनाएं लिख लेना, इससे नारी मुक्ति के संग्राम में हमारी ओर से एक हस्तक्षेप तो माना जा सकता है. पुरुष प्रधान सत्ता पर अपना विरोध दर्ज मान सकते हैं लेकिन क्या इससे समाज या पुरुष सोच में कुछ फर्क आया है या आ रहा है? शहरों में निरंतर शिक्षा का स्तर (?) बढाने की कोशिशें जारी हैं, बोर्ड्स हर साल अपने नियमों और पाठ्यक्रमों आदि में संशोधन कर रहे हैं ,नए नए विषय नए सिस्टम्स खोजे और लागू किये जा रहे हैं, लेकिन क्या ‘’निरक्षरता बाहुल्य इलाकों (ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में)‘’ में कुछ उल्लेखनीय सुधार और संशोधन किये जा रहे हैं? क्या महिला बाल विकास द्वारा गरीबों के लिए डे स्कूल चलाना और दलिया या कुछ भोज्य पदार्थ उपलब्ध कराना भर पर्याप्त है? क़ानून में संशोधन कर (साक्षरता को प्रोत्साहित करे बगैर)‘’ निरक्षर और अनुभवहीन स्त्री को‘’ सरपंच जैसे पद दे कर अपनी पीठ ठोक लेने का कोई औचित्य है? जब कि इस देश में राजनीति का ये हाल है कि निरक्षर/अनुभवहीन मुख्यमंत्री महिला पूरे राज्य को चला जाती है (सत्य क्या है सब जानते हैं).
चित्र -महाश्वेता देवी
यदि मौजूदा परिद्रश्य की बात की जाये तो आज वैश्वीकरण के दौर में स्त्री को एक वस्तु के रूप में पेश किया जा रहा है ये पूंजीवादी व्यवस्था की देन है.’ हिंदी भाषी क्षेत्रों में महिला आन्दोलन कम ही हुए फिर भी महानगरीय महिला लेखकों के लेखन को कमतर नहीं आंका जा सकता. मन्नू भंडारी, सुधा अरोड़ा, मैत्रेयी पुष्पा, .कुसुम त्रिपाठी, कात्यायिनी, नीरा देसाई, चित्रा मुद्गल, अर्चना वर्मा, मृदुला गर्ग, शालिनी माथुर, ममता कालिया आदि लेखिकाओं ने साहित्यिक हलके में सामाजिक सरोकारों के मुद्दे उठाने का साहसिक काम किया है. यहाँ रेखांकित करने वाली बात ये हैं कि ये वो महिला लेखिकाएं हैं जिन्होंने स्त्री विमर्श से सम्बंधित निरंतर, सार्थक और सोद्देश्य लेखन बकायदा एक प्रतिबद्धता के साथ किया है यहाँ स्त्री सरोकारों की पत्रिका ‘’मानुषी ‘’की संपादक मधु किश्वर का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है. मधु किश्वर उन चुनिन्दा लेखिकाओं में से एक हैं ,जिन्होंने सत्तरवें दशक में स्त्री और ह्यूमेन राईट्स मूवमेंट्स में खुलकर हिस्सेदारी की.
पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर लिखे गए साहित्य में भी स्त्री की वास्तविक स्थिति दिखाई देती है जो कमोबेश एक दूसरे से मेल नहीं खाती. इसकी वजह सोच और काल भी हो सकता है. जैसे शरत चंद, प्रेमचंद, की रचनाओं से अलग यशपाल की रचनाओं में हमारा एक ऐसी स्त्री से साक्षात्कार होता है, जो जागी हुई औरत है, बोलने वाली औरत. पुरुष प्रधान समाज और परिवार से लगातार सवाल करती औरत, बवाल करती औरत.
आभार –
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