कमलजीत चौधरी की कविताएँ

कमलजीत चौधरी
परिचय 

हंस‘, ‘मंतव्य‘, ‘अनहद‘, ‘नया ज्ञानोदय‘, ‘गाथान्तर‘, ‘रेतपथ‘, ‘यात्रा‘, हिमाचल मित्र,बया,अभिव्यक्ति,दस्तक,अभियान,अक्षर पर्व,परस्पर, सृजन-संदर्भ’, शब्दयोग,चिंतन दिशा,उत्तर प्रदेश,लोक गंगा,शीराज़ा,युगवाणी,शब्द सरोकार,अमर उजाला,दैनिक जागरण,दैनिक भास्कर  आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँसमीक्षाएँ और आलेख प्रकाशित

स्वर एकादश (सम्पादन) – राज्यवर्द्धन

शतदल (सम्पादन) विजेंद्र  

और


तवी जहां से गुज़रती है’ (सम्पादन) अशोक कुमार में कुछ कविताएँ शामिल हैं

‘सिताब दियारा’, ‘पहली बार‘, ‘जानकी पुल‘, ‘अनुनाद‘, ‘कृत्या’, ‘आई. एन. वी. सी.’, आओ हाथ उठाएँ हम भी’, ‘बीइंग पोएट’, ‘संवेद स्पर्श’, ‘इण्डियारी’, ‘तत्सम’, ‘खुलते किवाड़’ आदि पर भी इन्हें पढ़ा जा सकता है

अनुनाद सम्मान‘ से सम्मानित

पहला कविता संग्रह  ‘हिन्दी का नमक‘ इसी साल दखल प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ है

सम्प्रति ;- उच्च शिक्षा विभाग (जे० के०) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। 

रचनाधर्मिता ही नहीं बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में काम करते हुए भी एक स्पष्ट दृष्टि का होना आवश्यक होता है युवा कवि कमलजीत चौधरी ने अपनी कविता में इसी दृष्टि की बात की है – आँख / जो मैली न हो/ जिसमें मोतियाबिंद न हो/ जो सोते महल/ जागती झोपड़ी/ बन्दूक की मक्खी/ हल की हत्थी में फर्क जान सके।’  आज ऐसी ही दृष्टि वाले संभावनाशील कवि कमलजीत की कविताएँ आपके लिए पहली बार पर प्रस्तुत हैं 
 


कमलजीत चौधरी की कविताएँ

डिस्कित आंगमों                             

डिस्कित आंगमो!
तुम बताती हो
पिता की तन्दूरनुमा छोटी सी कब्र की विवशता
लकड़ी का कम होना
तुम बताती हो
ना जाने भाई ने क्या सोच
आरी का काम सीख लिया


मेरी दोस्त
तुम पढ़ना चाहती हो
मगर लकड़ी तुम्हारा साथ नहीं देती
देखो
मुझे छूओ
मैं लकड़ी हूँ
चलाओ आरी मुझ पर
मैं कागज़ बनूँगा
कलम बनूँगा
तुम्हारे घर का दरवाज़ा खिड़की बनूँगा
मेरे बुरादे से तुम
पौष में अलाव सेंकना
अपनी गर्महाट से
मैं तुम्हारे हाथ चुमूंगा
डिस्कित आंगमों !
 

किताबें डायरियां और कलम

किताबें
बंद होती जा रही हैं
बिना खिड़कियाँ रोशनदान
वाले कमरों में

डायरियां
खुली हुई फड़फड़ा रही हैं
बीच चौराहों में

कलम
बचा है सिर्फ
हस्ताक्षर के लिए
 

कविता की तीसरी आँख

पेड़ पर सुबह
सूरज की जगह
कर्ज़ में डूबी
दो बीघा ठण्डी ज़मीं टंगी थी
नीचे नमक बिखर रहा था

यह सामने दिख रहा था

पर तुम इसे चीर कर पार सूर्य को
उचक उचक कर
नमामि नमामि करते रहे
यह बताते हुए कि
कविता की तीसरी आँख होती है 

 


नाव का हम क्या करते

वहां
एक नदी थी
जहां हम खड़े थे
सिद्धहस्त
अपनी अपनी कलाओं में

तुम डूबने से ज्यादा
तैरना जानते थे
मैं तैरने से ज्यादा डूबना

नाव का हम क्या करते

आँख

शिक्षा के कारखाने में
जहां मैं नौकरी करता हूँ
तीन घंटों के युद्ध हेतु
जूते बनाए जा रहे हैं
जूते जो रोज़गार तलाशते
सीढ़ियाँ चढ़ते
घिस जाएंगे
उधड़ जाएंगे
मरम्मत के अभाव में
सड़क बीच टूट जाएंगे
तलवों से छूट जाएंगे
वैसे भी दुनिया जूतों से साफ़ नहीं होती
मैं समझता हूँ
जूतों से कारगर है झाड़ू
झाड़ू से कारगर है पेड़
पेड़ से बेहतर है खिड़की
खिड़की से बेहतर है आँख
आँख
जो मैली न हो
जिसमें मोतियाबिंद न हो
जो सोते महल
जागती झोपड़ी
बन्दूक की मक्खी
हल की हत्थी में फर्क जान सके
जो सूरज को पीठ पर लाद कर
कमाई हुई रोटी
और मखमली चाँदनी तले हस्ताक्षर कर
लूटी हुई दौलत में
अंतर भेद सके
कारण छेद सके

आँख ही होगी
सबसे बड़ा हथियार
उस युद्ध के लिए
युद्ध जो पैरों के लिए लड़ा जाएगा
युद्ध  जो परों के लिए लड़ा जाएगा
युद्ध जो मछली के लिए लड़ा जाएगा

युद्ध जो परों और पैरों का
बेपरों और बेपैरों से होगा
युद्ध वह अंतिम और निर्णायक होगा
जो जूतों की जगह आँख बनाएगा
वही सच्चा नायक होगा



औरत

औरत
एक डायरी होती है
इसमें हर कोई दर्ज होना चाहता है

एक किताब होती है
इसे पूरा पढ़ने के लिए
नदी से पेड़ तक की यात्रा करनी पड़ती है

बच्चे की कलम होती है
छील छील लिखती है
   
  बी  सी
   

औरत के रास्ते को कोई खींच कर
लम्बा कर देता है
सीधे सादे रास्ते का
सिर पकड़
उसे तीखे मोड़ देता है
जिसे वह उँगली थमाती है
वह बाँह थाम लेता है
जिसे वह पूरा सौंपती है
वह उँगली छोड़ देता है

औरत की चप्पल की तनी
अक्सर बीच
रास्ते में टूटती है
मरम्मत के बाद
उसी के पाँव तले
कील छूटती है
वह चप्पल नहीं बदल पाती
पाँव बदल लेती है

अनवरत यात्रा करती
एक युद्ध लड़ती है

इरेज़र से डरती
पर ब्लेड से प्रेम करती है
औरत  

हिन्दी का नमक

खेत खेत
शहर शहर
तुम्हारे बेआवाज़ जहाज
आसमान से फेंक रहे हैं
शक्कर की बोरियां

इस देश के जिस्म पर
फैल रही हैं चींटियाँ
छलांग लगाने के लिए नदी भी नहीं बची

मिठास के व्यापारी
यह दुनिया मीठी हो सकती है
पर मेरी जीभ तुम्हारा उपनिवेश नहीं हो सकती

यह हिंदी का नमक चाटती है


सीमा

उसे नहीं पता था
वह अकालग्रस्त जिस जगह रहता था
उस पर एक लीक खींच
एक सीमा घोषित कर दी गई थी
वह बोरियों से बनाई पल्ली*
कंधे पर रखे
दराती हवा में लहराते
कोसों मील आगे बढ़ते
दूसरे देश की हवा को
अपने देश की हवा से
अलग नहीं भेद सका
हलक गीला करता
कोई प्याऊ नहीं छेद सका

मिट्टी जो कुछ कोस पीछे
गर्म तवा थी
अब पैरों को टखनों तक
ठण्डे अधरों से चूम रही थी
उसकी नज़र और दराती
सामने की हरियाली देख झूम रही थी
वह घास काटता खुश था
पर पण्ड# बनने से पहले 
वह सुरक्षा एजेंसियों द्वारा
गिरफ्तार एक जासूस था
मीडिया के लिए एक भूत था
विपक्ष के लिए आतंकी था
दुश्मन देश का फौजी था
जेलर के लिए अपराधी था
नम्बर एक कैदी था

यह लोकतंत्र का दौर था
सच कुछ और था


भूख से तड़पते उसके गाँव में
मवेशी ही अंतिम आस थी
देश की अपनी सीमा थी
पर उसकी सीमा घास थी
बस्स घास थी !!
  ———————

*पल्ली – घास ढोने की चादर 
#पण्ड – गठरी

लोकतन्त्र की एक सुबह

आज सूरज निकला है पैदल
लबालब पीलापन लिए
उड़ते पतंगों के रास्तों में
बिछा दी गई हैं तारें
लोग कम मगर चेहरे अधिक
देखे जा रहे हैं
नाक हैं, नोक हैं, फाके हैं
जगह-जगह नाके हैं

शहर सिमटा-सिमटा है
सब रुका रुका सा है

मुस्तैद बल पदचाप है
पैरों तले घास है
रेहड़ी खोमचे फुटपाथ सब साफ है

आज सब माफ है!

बेछत लोग
बेशर्त बेवजह बेतरतीब
शहर के कोनों
गटर की पुलियों
बेकार पाईपों में ठूंस दिए गए हैं
जैसे कान में रूई

शहर की अवरुद्ध की गयी सड़कों पर
कुछ नवयुवक
गुम हुए दिशासूचक बोर्ड ढूँढ रहे हैं
जिनकी देश को इस समय सख्त जरूरत है
बंद दूकानों के शटरों से सटे
कुछ कुत्ते दुम दबाए बैठे हैं चुपचाप
जिन्हें आज़ादी है
वे भौंक रहे हैं

होड़ लगी है
तिरंगा फहराने की
वाकशक्ति दिखलाने की



सुरक्षा घेरों में
बंद मैदानों में
बुलेट प्रुफों में
टीवी चैनलों से चिपक कर
स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है

राष्ट्र गान गाया जा रहा है
सावधान!
यह लोकतंत्र की आम सुबह नहीं है
 

  ००००

सम्‍पर्क  

काली बड़ी, साम्बा
जम्मू एवं कश्मीर 
पिनकोड – 184121

दूरभाष 09419274403

ई-मेल kamal.j.choudhary@gmail.com


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

कमलजीत चौधरी के कविता संग्रह पर रश्मि भारद्वाज की समीक्षा ‘‘भूख और कलम अब भी मेरे पास है’ : भाषा का सौम्य औज़ार लिए अपने समय से जूझती कविताएँ।

रश्मि भारद्वाज


अपनी प्रारम्भिक कविताओं से ही ध्यान आकर्षित करने वाले युवा कवि कमलजीत चौधरी का पहला कविता संग्रह दखल प्रकाशन से छप कर आया है – ‘हिन्दी का नमक।’ इधर के छपे कविता संग्रहों में यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कमलजीत ने अपने इस पहले संग्रह में ही अपनी भाषा और शिल्प को परम्परागत प्रतिमानों से अलग रखते हुए बेहतर कविताएँ हिन्दी साहित्य समाज को देने की कोशिश की हैं। इस कवि के बिम्ब भी बिल्कुल अपने हैं – ताजगी का अहसास कराने वाले। इसीलिए कमलजीत की कविताओं से गुजरते हुए वह टटकापन महसूस होता है जो हमें सहज ही आकर्षित करता है। वह प्रकृति से तो जुड़ा ही है लेकिन आज की समस्याओं पर भी उसकी पैनी नजर है कमलजीत के इस नए संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है कवयित्री रश्मि भारद्वाज ने। तो आइए पढ़ते हैं रश्मि भारद्वाज की यह समीक्षा ‘भूख और कलम अब भी मेरे पास है : भाषा का सौम्य औज़ार लिए अपने समय से जूझती कविताएँ।  
     
भूख और कलम अब भी मेरे पास है

भाषा का सौम्य औज़ार लिए अपने समय से जूझती कविताएँ
रश्मि भारद्वाज
कवि ने कहा

बची रहे घास

एक आस

घास ने कहा

बची रहे कविता

सब बचा रहेगा

छब्बीस की उम्र में अपनी पहली कविता रचने वाला कवि जब यह कहता है कि सिर्फ़ कविता के बचे रहने से सब कुछ बचा रहेगा तो उसके पीछे जीवन का सघन अनुभव, लंबे संघर्ष और हर तरह की परिस्थियों से गुजरने के बाद पायी गयी सघन अंतर्दृष्टि और परिपक्व संवेदनशीलता होती है जो जानती है कि कविता की तरलता ही हमारे आस पास की शुष्क होती जा रही मानवता को सहेज सकती है। कविता अधिक कुछ नहीं कर सकती बस इंसान को इंसान बनाए रखने का प्रयत्न करती है जो पृथ्वी के पृथ्वी बने रहने के लिए जरूरी है। 2016 के अनुनाद सम्मान से सम्मानित संग्रह हिन्दी का नमक में युवा कवि कमलजीत चौधरी ने अपनी  संवेदनशील लेखनी द्वारा उसी पृथ्वी को सहजेने के सपने बुने हैं। यहाँ हमारे समय का सशक्त चित्रण मिलता है तो उसकी विसंगतियों पर करारा प्रहार भी लेकिन उस प्रहार में भी एक सजग चिंता है, एक दूरदृष्टि है और है आकर्षक, तरल भाषा जो अपने प्रवाह में हमें दूर तक ले जाती है और कविताओं से गुजरने के बाद उसका प्रभाव हृदय पर बना रहता है।  एक सार्थक कविता का उद्देश्य भी यही है कि वह दिलोदिमाग को छूए और अपने आस पास के वातावरण को देखने-परखने के लिए एक सम्यक, संतुलित दृष्टि दे। सिर्फ़ भाषाई चमत्कार में नहीं उलझाए बल्कि जीवन के ठोस धरातल पर मजबूती से खड़ी हो और मानवता के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करे, एक कर्णकटु चीख की तरह नहीं बल्कि निरंतर किए गए सौम्य और दृढ़ प्रतिकार के रूप में। कमलजीत की कविताओं का स्वर और उद्देश्य उसी परिवर्तन के आगाज़ के लिए प्रतिबद्ध है।

कवि कमलजीत चौधरी

  

हम एक लहूलुहान समय में जी रहे हैं, जहां हर मानवीय भावना पर बाज़ार हावी है, विकास की अंध दौड़ में जो कदमताल नहीं कर पाते, बुरी तरह कुचल दिये जाते हैं और दुनिया एक छोटा गाँव तो हो गयी है लेकिन दिलों की दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं, ऐसे में एक कवि ही यह कह सकता है:

तुम रखती हो हाथ पर हाथ

नदी पर पुल बन जाता है….

मेरा विश्वास है

एक सुबह तुम्हारी पीठ पीछे से सूर्य निकलेगा

तुम पाँव रखोगी मेरे भीतर

और मैं दुनिया का राशिफल बदल दूंगा। (कविता के लिए)।

यह कविताएँ सपने देखती हैं, यहाँ उम्मीदों की उड़ानें हैं लेकिन अपने कठोर,खुरदुरे यथार्थ की सतह को कभी नहीं छोडने का संकल्प भी है। यहाँ लोक की सुगंध है, अपनी मिट्टी, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के लिए गहन लगाव है और उसके लिए कुछ कर गुजरने का उत्साह और अदम्य इच्छा है। यही भाषा और संस्कृति के लिए प्रेम लार्ड मैकाले तेरा मुंह काला हो जैसी कविताओं में परिलक्षित होता है जहां कवि इस बदलते दौर से चिंतित भी नज़र आता है जब उसका बच्चा अपनी बारहखड़ी की शुरुआत अपनी मातृभाषा में नहीं करके एक उधार की भाषा में करता है लेकिन उसे अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति पर भरोसा है:

बच्चे! रो क्यों रहे हो

तुम आश्वस्त रहो

मैं दौर और दौड़ के फ़र्क को जानता हूँ

फिलहाल तुम कछुआ औए खरगोश की कहानी सुनो और सो जाओ

सामूहिक सुबह तक जाने के लिए जो पुल बन रहा है

उसमें तुम्हारे हिस्से की ईंटें मैं और मेरे दोस्त लगा रहे हैं…

रसूल हमज़ातोव मेरा दागिस्तान में लिखते हैं विचार वह पानी नहीं है, जो शोर मचाता हुआ पत्थरों पर दौड़ लगाता है, छींटें उड़ाता है, बल्कि वह पानी है जो अदृश्य रूप से मिट्टी को नाम करता है और पेड़ पौधों की जड़ों को सींचता है। कविताएँ भी ऐसी ही होनी चाहिए। यहाँ शब्दों के भीतर बड़ी ही सफाई और कलाकारी से विचारों को बुनना पड़ता है ताकि वहाँ कविता का एक आवश्यक बहाव उपस्थित रहे। कमलजीत अपनी कविताओं में यह काम बहुत दक्षता से करते हैं। विचार यहाँ नमक की तरह हैं, बिलकुल अपनी सही मात्रा में सूझ बूझ से डाला गया। मसलन यह कविता देखिए:

जीवन में एक न एक बार हर आदमी को खिड़की से ज़रूर देखना चाहिए

खिड़की से देखना होता है अलग तरह का देखना

चौकोना देखना

थोड़ा देखना

मगर साफ़ देखना

 

एक ईमानदार कवि प्रकृति के विभिन्न तत्वों के साथ अपने अस्तित्व को एकाकार करता है क्योंकि वह यह भलीभांति जानता है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाने और उसकी अस्मिता के सम्मान से ही पृथ्वी पर जीवन का सामान्य रह पाना संभव है। इन कविताओं से गुजरते आपको क़दम क़दम पर बोलते चिनार, तितली और मधुमक्खी की व्यथाएँ, ओस में भीगा सुच्चा सच्चा लाल एक फूल, पहाड़, नदी, पेड़, मछली जैसे प्रतीक मिलते हैं जिनकी ख़ुशबू से मन एकाएक तरोताज़ा हो उठता है, वहीं एक आशंका भी मन में आकार लेने लगती है, जब कवि चेतावनी देते हुए कहता है: 

पक्षी, मछली और सांप को भून कर

घोंसले, सीपी और बाम्बी पर तुम अत्याधुनिक घर बना रहे हो

पेड़ नदी और पत्थर से तुमने युद्ध छेड़ दिया है

पाताल, धरती और अंबर से

तुम्हारा यह अश्वमेधी घोडा पानी कहाँ पीएगा

कमलजीत बहुत रूमानी प्रेम कविताएँ नहीं लिखते। यह कहा जा सकता है कि प्रेम यहाँ अंडरटोन लिए है लेकिन वह अपनी पूरी शिद्दत के साथ मौज़ूद भी है। प्रेम यहाँ विश्वास है, वह आश्वस्ति है जो हर विपरीत परिस्थिति में भी आपके साथ अविचल खड़ा रहता है, आपकी उँगलियाँ थामे दुरूह रास्तों पर भी हँसते-हँसते गुजर जाता है। कवि आश्चर्य करता है कि

वे कहते हैं,

प्रेम कविताएँ लिखने के लिए प्रेम कविताएँ पढ़ो

वे यह नहीं कहते प्रेम करो। 

कवि का प्रेम तो कुछ ऐसा है जो आगे बढ़ते जाने के लिए संबल देता है, जो मैं–तुम का फ़र्क भूलकर सर्वस्व समर्पण की बात करता है, जो दर्द को समझता है और उसको अभिव्यक्त कर सकने की हिम्मत देता है:

मैं घाव था तुमने सहलाया भाषा हो गया

मैं क्या था क्या हो गया

मैं मैं था तुमको सोचा, तुम हो गया

स्त्री मन की अद्भुत समझ है कवि के पास। स्त्री हृदय की, उसके अबूझ संसार की बहुत ही संवेदनशील झलक इन कविताओं में मिलती है और उनसे गुजरते जहां एक ओर मन कहीं कराह भी उठता है तो कहीं एक दर्द भरी वाह भी होंठों से अनायास ही निकलती है। हालांकि कवि ने पारंपरिक स्त्री की उस सदियों से गढ़ी गयी छवि को तोड़ने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई है और ना ही आधुनिक नारी का प्रतिबिंब यहाँ मिलता है लेकिन इन्हें पढ़ते हुये यह जरूर आभास होता है कि ये शब्द लिखने वाला कवि कहीं मन से ख़ुद स्त्री हो उठा होगा, तभी लिख पाया होगा ऐसा:

औरत के रास्ते को कोई खींचकर लंबा कर देता है

सीधे साधे रास्ते का सिर पकड़ उसे तीखे मोड़ देता है

जिसे वह उंगली थमाती है, वह बांह थम लेता है

जिसे वह पूरा सौंपती है, वह उंगली छोड़ देता है

औरत की चप्पल की तनी अक्सर बीच रास्ते में टूटती है

मरम्मत के बाद उसी के पाँव तले कील छुटती है

वह चप्पल नहीं बदल पाती, पाँव बदल लेती है…..

इरेज़र से डरती पर ब्लेड से प्रेम करती है औरत ….

आज़ के इस भागते हुए समय में जो कुछ भी हाशिये पर  छूट रहा, जिसकी आवाज़ तकनीकी और विकास के तेज़ शोर में दब गयी है, ये कविताएँ उनकी आवाज़ बन जाने के लिए बेचैन दिखती हैं। उनके दर्द यहाँ पंक्तियों के बीच से कराह उठते हैं, उनका भय यहाँ मुखर हो उठता है। हमारे समय की यह विडम्बना है कि हम आँखें बंद किए बस आगे भागते जाना चाहते हैं और हमारी इस दौड़ में किनका हाथ हमारे हाथों से छूटा जा रहा, कौन हमारे साथ भाग नहीं सकने के कारण घिसट कर गिर पड़ा है, कौन हमारे महत्वाकांक्षी पैरों के नीचे कुचला जा रहा, हमें इसकी जरा भी सुध नहीं। यूं कहें कि इस आत्मकेंद्रित समय में जो कुछ भी हमारी स्वार्थ लिप्सा की राह में आ रहा, हम उसे मिटा देने को कटिबद्ध हैं। आते हुये लोग,डिस्कित आंगमो, राजा नामग्याल, लद्दाख, पहाड़ के पाँव, सीमा जैसी कविताओं में उन्हीं छूट रही उँगलियों को मज़बूती से थामे रखने की कामना है, उनके अनसुने दर्द को दुनिया के सामने लाने का संकल्प है। यह इच्छा है कि अब भी बचे रह पाएँ, किताब, डायरियाँ और कलम’, पिता के उगाये आम के पेड़, माँ के कंधे और दादी का मिट्टी का घड़ा। और कवि के अंदर यह संकल्पशक्ति, यह जिजीविषा बची है तो वह इसलिए कि उसकी जीभ किसी मिठास के व्यापारी का उपनिवेश नहीं, वह हिन्दी का नमक चाटती है


(साभार-बाखली)
सम्पर्क –

ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com 

कमलजीत चौधरी की कविताएँ

कमलजीत चौधरी

हमारे युवा कवि मित्र कमल जीत चौधरी ने अपनी हाल ही में लिखी कुछ कवितायें भेजी हैं जिसमें अपने ही किस्म की रवानी है। हिंदी दिवस के विशेष अवसर पर हम पहली बार पर कमलजीत की कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं. तो आईये पढ़ते हैं कमल जीत की कविताएँ।  

जन्म :- 13 अगस्त 1980 काली बड़ी , साम्बा (जम्मू एवं कश्मीर) में एक विस्थापित जाट परिवार में
माँ  :-  श्रीमती सुदेश
पिता :- मेजर {सेवानिवृत} रत्न चन्द
शिक्षा :- जम्मू विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक (स्वर्ण पदक प्राप्त) और एम० फिल०
लेखन :- 2007-08 में कविता लिखना शुरू किया
प्रकाशित :- संयुक्त संग्रहों ‘स्वर एकादश’ {स० राज्यवर्द्धन} तथा ‘तवी जहाँ से गुजरती है’ (स० अशोक कुमार)  में  कुछ कविताएँ
नया ज्ञानोदय, सृजन सन्दर्भ, परस्पर, अक्षर पर्व, अभिव्यक्ति, दस्तक, अभियान, हिमाचल मित्र, लोक गंगा, शब्द सरोकार, उत्तर प्रदेश, दैनिक जागरण, अमर उजाला, शीराज़ा, अनुनाद, पहली बार, आदि में भी प्रकाशित।


सम्प्रति :-  उच्च शिक्षा विभाग, जम्मू एवं कश्मीर में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत



कमलजीत चौधरी की कविताएँ 
     
 
भाषा

घर गोबर से लीपता हूँ
चिड़िया, कौआ और पितर देखता हूँ
मैं इनकी भाषा बोलता हूँ।

मेरे पास माँ है

जिस भाषा में तुमने
पहला शब्द माँकहा
जिसने तुम्हें गोद में भरा
जिस भाषा में तुमने
पूर्वजों को सपुर्दे ख़ाक किया
अस्थियों को
गंगा में प्रवाहित किया –
आज उसी मिट्टी पर बहती
गंगा को बोतलों में बंद कर
पानी पी-पी कर
तुम उसी भाषा को
उसी भाषा में गालियां दे रहे हो
तुम आज उस भाषा में
राष्ट्रवादी गीत गा रहे हो
उस भाषा के आंगन में जा रहे हो
जहाँ कभी लिखा रहता था –
भारतीयों और कुत्तों का प्रवेश निषेध
उस भाषा की पीठ थपथपा रहे हो
जिसने सटाक-सटाक
तुम्हारे पूर्वजों की पीठ पर कोड़े बरसाए
ऑर्डर-ऑर्डर कह कर
कई बार 13 अप्रैल 1919
23 मार्च 1931 दोहराए
तुम भी ऑर्डर-ऑर्डर सीख
अस्सी प्रतिशत जनता को
बॉर्डर पर रखना चाहते हो
जो आज भी 15 अगस्त 1947 का मुंह जोह रही है
तुम रोब झाड़ उस भाषा में
कह रहे हो –
मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है
उस भाषा में
जो भाषा नहीं अंकल सैम की जेब है
खालिस जेब… 
तुम पूछ रहे हो-
तुम्हारे पास क्या है?
मेरे पास …
मेरे पास वही पुराना फ़िल्मी संवाद-
मेरे पास माँ है।

    

समूह की आँख

लोकतंत्र के दरबारी कवियों!
तुम्हारे दांत और पंजों तले हैं
मरे हुए जानवर की टांगें
बिस्तर जितनी छलांगें
तुम्हारी आँख में है
बग्गी की आरामदायक गद्दी
तुम्हारी भाषा से लार टपकती है
मेरी आँख में है
घोड़ी की पीठ छीलता चाबुक
मेरी भाषा से लहू टपकता है
मैं सुखों के कामुक
गोरे हरामी हाथों का
कांटा छुरी नहीं
मिट्टी जोड़ते-तोड़ते
काले मेहनती हाथों का
पैना सनसनाता बाण बनना चाहता हूँ
मैं झुण्ड की नहीं
समूह की आँख बनना चाहता हूँ।

  

तुम हो गया

मैं सड़क पर था

तुमसे मिला
सड़क हो गया
मैं खिड़की था
तुमने देखा
आकाश हो गया
मैं पत्थर था
तुमने छुआ
नदी हो गया
मैं पेड़ था
तुमने काटा
नाव हो गया
मैं दाना था
तुमने बोया
चोंच हो गया
मैं घाव था
तुमने सहलाया
भाषा हो गया …
मैं क्या था
क्या हो गया
मैं मैं था –
तुमको सोचा
तुम हो गया।

****

सम्पर्क :-
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा  184121
जम्मू व कश्मीर { भारत }


दूरभाष – 09419274403 

E-mail: kamal.j.choudhary@gmail.com