यू आर अनन्तमूर्ति : लेखक के साथ-साथ एक सक्रिय एक्टिविस्ट भी
दस दिन पहले दिल की बीमारी और स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों के कारण प्रख्यात कन्नड़ लेखक अनंतमूर्ति को बंगलुरु के मनिपाल अस्पताल में भर्ती कराया गया था। कल यानी बाईस अगस्त 2014 को अनंतमूर्ति का निधन हो गया। अनंतमूर्ति को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उन पर यह श्रद्धांजलि आलेख।
संतोष कुमार चतुर्वेदी
मूलतः अपनी मातृभाषा कन्नड़ में लिखने वाले यू आर अनन्तमूर्ति यानी उडुपी राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति की गणना भारतीय साहित्य के शीर्षस्थ साहित्यकारों में की जाती है। अपने बहुचर्चित उपन्यास “संस्कार” में उन्होंने धर्म की रुढिवादिता और प्रगतिशील सोच के द्वन्द को सशक्त रूप से व्यक्त किया है। यू आर अनन्तमूर्ति का जन्म कर्नाटक के शिमोगा जिले के मेलिगे गाँव में 21 दिसम्बर 1932 को हुआ था। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और आलोचना जैसे लगभग सभी प्रमुख विधाओं में अनंतमूर्ति ने अपनी कलम चलाई. लेखन के साथ-साथ अनन्तमूर्ति कर्नाटक में नव्या आन्दोलन के प्रवर्तक माने जाते हैं।
अनन्तमूर्ति की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत स्कूल से शुरू हुई। यूनिवर्सिटी ऑफ मैसूर से इन्होने मास्टर डिग्री प्राप्त की। इसके पश्चात कॉमनवेल्थ स्कॉलरशिप पाकर ये अपनी आगे की पढ़ाई करने इंग्लैंड चले गए। इन्होंने यूनिर्वसिटी ऑफ बर्मिंघम से 1966 में ‘पॉलिटिक्स ऐंड फिक्शन‘ पर डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। अनंतमूर्ति ने अपने शिक्षक जीवन की शुरुआत यूनिवर्सिटी ऑफ मैसूर में 1970 से की जहाँ इन्हें अंग्रेजी में प्रोफेसर नियुक्त किया गया। 1980 के दशक में अनंतमूर्ति को केरल के महात्मा गांधी यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बनाया गया। 1992 में नैशनल बुक ट्रस्ट के चेयरमैन बने।1993 में देश की सर्वोच्च साहित्यिक संस्था साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बनाए गए। जेएनयू समेत कई प्रसिद्ध संस्थानों वह विजटिंग प्रोफेसर बने।
अनन्तमूर्ति को पहली बार 1984 में कर्नाटक के राज्योत्सव पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वर्ष 1994 में अनन्तमूर्ति को प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। कन्नड में लिखने वाले अनन्तमूर्ति छठे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें भारतीय साहित्य के नोबेल माने जाने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। आगे चल कर 1998 में इन्हें पद्म भूषण सम्मान प्रदान किया गया। अनन्तमूर्ति वर्ष 2013 के मैन बुकर पुरस्कार की दौड़ में शामिल 10 लेखकों में से एक थे। इस अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार के लिए नामित किए जाने के बाद अनंतमूर्ति का लेखन पश्चिमी देशों की नजर में आया और अब वे एक अंतर्राष्ट्रीय शख्सियत के रूप में चर्चित हो गये। अनंतमूर्ति ने अपने इस नामांकन पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा था, “मैन बुकर पुरस्कार की दौड़ में मेरा शामिल होना एक शुभ संकेत है। मुझे खुशी है कि भारतीय भाषाओं में लिखी गई कृति को चुना गया है।” उल्लेखनीय है कि 66,000 पाउंड का यह मैन बुकर पुस्कार मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई या अंग्रेजी में अनूदित कृति के लिए दिया जाता है। उन्होंने कहा, “यह अंग्रेजी भाषा का उपहार है कि अनुवादित होकर भारतीय भाषा में लिखे जाने वाले साहित्य की पहुंच बढ़ जाती है।”
अनंतमूर्ति ने ऐसे विभिन्न मसलों पर खुल कर अपनी राय व्यक्त किये जो प्रायः वाद-विवाद का कारण बने। यह अनन्तमूर्ति का साहित्यिक-मानवतावादी मन ही था जिसकी बदौलत उन्होंने आजीवन फांसी की सजा का भी खुल कर विरोध किया। वे इसे बर्बर प्रथा मानते थे और इसी क्रम में उनका मानना था कि अब जब कि सभ्यता के इस श्रेष्ठ चरण में हम सब हैं, मौत की सजा आवश्यक रूप खत्म होनी चाहिए। इसी क्रम में अनंतमूर्ति ने 13 दिसंबर को संसद पर हुए हमले के मामले में दोषी पाए गए आतंकी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने का विरोध किया और इस पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा, “मैं व्यक्तिगत तौर पर मौत की सजा के खिलाफ हूं। ऐसे कोई अनुभवजन्य साक्ष्य नहीं हैं कि मृत्यु-दंड से संभावित अपराधी, अपराध करने के प्रति हतोत्साहित होते हैं। जब मृत्युदंड के प्रभावी विकल्प के तौर पर आजीवन कारावास जैसे प्रावधान मौजूद हैं तो सामाजिक नीति के तौर पर मौत की सजा के इस्तेमाल पर संदेह वाजिब है।” अफजल को फांसी दिए जाने के पश्चात व्यथित अनंतमूर्ति ने कहा था, “मैं राजनीतिक रूप से सजग व्यक्ति हूं और कांग्रेस सरकार के इन फैसलों से इतना संकेत मिलता है कि वह विपक्ष से होड़ में लगी है .. हालांकि मैं कांग्रेस का पक्षधर हूं।” यह पूछने पर कि क्या उन्होंने विचारधारा बदल ली है, अनंतमूर्ति ने तपाक से जवाब दिया, “नहीं मैं आज भीलोहियावादी हूं लेकिन लोहिया के शिष्य बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में जो कर रहे है उससे मैं निराश हूं।”
राजनीतिक पक्षधरता के बारे में वे अपने प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे। अनतंमूर्ति गांधी और लोहिया से गहरे तौर पर प्रभावित थे। यह प्रभाव उनके लेखन में देखा जा सकता है। यही वह प्रभाव था कि समाजवादी विचारधारा की तरफ उनका झुकाव हुआ और बाद में वे इसी के हो कर रह गए। वे न केवल एक लेखक थे बल्कि एक्टिविस्ट भी थे। अनतंमूर्ति एक्टिविज्म को लेखक की जिम्मेदारी मानते और महसूस करते थे। उनकी राजनीतिक सजगता का आलम यह था कि उन्होंने एक बार लोकसभा और एक बार राज्यसभा का भी चुनाव लड़ा था। हालांकि वे असफल रहे थे। राजनीतिक सजगता के क्रम में ही उन्होंने पूछे जाने पर यह स्पष्ट किया था, “बेंगलुरु में मतदान करने जाऊंगा तो पहले वामपंथी उम्मीदवार को ढूंढूगा, (जिसकी उम्मीद कम है) क्योंकि उनमें कहीं न कहीं एक तरह की ईमानदारी होती है। उसके बाद वोट के लिए मैं कांग्रेसी उम्मीदवार को ढूंढूगा।” अपनी कृतियों में जीवन की परिस्थितियों की मनोवैज्ञानिक पड़ताल करने वाले 80 वर्षीय अनंतमूर्ति से मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा था, “एक अजीब रुख सामने आया है कि लोग सुव्यवस्था चाहते हैं स्वतंत्रता की कीमत पर और इसका सबसे अच्छा रुपक है… गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का युवाओं की पसंद बनना।” अनंतमूर्ति नई अर्थव्यवस्था के फरेब से परिचित थे इसीलिए उन्होंने बेबाकी से यह कहा था, “मैं इससे चिंतित हूं.. नई अर्थव्यवस्था एक बड़ा मध्यवर्ग तैयार कर रही है। वह इसे कायम रखने के लिए अनचाहे ऐसी व्यवस्था चाहता है जो उसकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगा सकता है। गुजरात में मोदी के कामकाज के तरीके से इसका साफ संकेत मिलता है।”
हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के समय अनंतमूर्ति ने एक विवादित बयान दे कर यह खलबली मचा दी थी कि यदि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वह देश छोड़ कर चले जाएंगे। हालांकि, बाद में अनंतमूर्ति ने कहा था कि उन्होंने भावावेश में आकर ऐसा बयान दे दिया था।उन्होंने कहा था, वह थोड़ा ज्यादा कह दिया था क्योंकि मैं भारत के अलावा और कहीं नहीं जा सकता। चुनावों का नतीजा घोषित होने के बाद कुछ मोदी समर्थकों ने जब उन्हें कराची का टिकट कटा कर भेज दिया था तब इस मुद्दे पर अपने को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था, “उनकी यह बहुत ग़लत बात है। मैं इस देश का बहुत गंभीर लेखक हूं और अब मैं 82 साल का हो गया हूं। मेरे लिखे उपन्यासों को पूरी दुनिया जानती है। मैंने भारतीय गांव के अपने विचार को पूरी दुनिया तक पहुंचाया है। मैं एक संभ्रांत लेखक हूं। मेरा इस तरह मज़ाक नहीं बनाया जा सकता। मैं एक बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति हूं।”
मोदी के बारे में अनंतमूर्ति ने कहा था कि उनके सत्ता में आने से हमारी सभ्यता में बदलाव आ सकता है। उन्होंने कहा था, मेरा मानना है जब धौंस होगी तो हम धीरे-धीरे अपने लोकतांत्रिक अधिकार या नागरिक अधिकार खो सकते हैं। पर उससे भी ज्यादा यह है कि जब धौंस होगी तो हम कायर हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि मोदी राज में आज़ादी ख़त्म हो जाएगी, “अगर आप किसी फ़ैक्टरी के मजदूर हैं तो आपको पूरी क्षमता से काम करना होगा. मोदी कालक्ष्य देश को कम से कम चीन के स्तर तक पहुंचना है। इसलिए आपको लोगों को काम पर लगाना होगा। भारत में लोगों की क्षमताएं अलग-अलग हैं। अगर आप इंसान हैं तो पूरी क्षमता नहीं अधिकतम क्षमता की उम्मीद करेंगे। मोदी अधिकतम क्षमता से नहीं मानेंगे. आज़ादी कई तरह की होती है।” वह कहते हैं, “भारत एक अजीब देश है। आप इसके साथ ऐसा दिखावा न करें कि इसे दक्ष बनाने के चक्कर में इसे क्रूर बना दें। दक्षता क्रूरता बन जाती है।” अनंतमूर्ति को बहुत यकीन नहीं है कि मोदी राज का ‘देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप‘ पर कोई असर पड़ेगा। वह कहते हैं, “हो सकता है कि वह सारी चीज़ों को एक बारी में न उखाड़ें। वह ऐसा धीरे-धीरे कर सकते हैं। मुझे गंगा स्नान और गंगा पूजा से कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन इसे एक तरह से धूर्ततापूर्ण संस्कार के रूप में किया जाना चिंताजनक है।”
अनंतमूर्ति ने अपना साहित्यिक जीवन कथा संग्रह ‘इंडेनढ़िगु मुघियाडा कथे‘ से शुरू किया। “संस्कार”, “अवस्था”, “भारतीपुर”, “भव” और “दिव्या” अनंतमूर्ति के चर्चित उपन्यास हैं। उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं- “घटश्राद्ध”, “आकाश” और “बिल्ली”। “सन्निवेश”, “प्रज्ञे मत्तु परिसर”, “पूर्वापर”, “आवाहने” उनके प्रमुख नाटक संग्रह हैं। जबकि बावली, मिथुन प्रमुख कविता संग्रह हैं। “किस प्रकार की है यह भारतीयता’ नामक पुस्तक में उन्होंने मूलतः अपने विचारों को व्यक्त किया है। अनंतमूर्ति की रचनाओं में मानविकी और मनोविज्ञान महत्त्वपूर्ण पहलुओं के रूप में उभरते दिखायी पड़ते हैं। अनंतमूर्ति ने अपने लेखन के जरिये समय-समय पर तत्कालीन सांस्कृतिक मूल्यों को भी चुनौती दी। अनंतमूर्ति ने अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘संस्कार’ में जाति व्यवस्था, संस्कृति, धार्मिक नियम और सांस्कृतिक मूल्य और बदलते दौर के नए मूल्य के अंतर्सबंधों की बेबाकी से पड़ताल की है। उनका यह उपन्यास अनेकार्थक जटिल रूपकों से परिपूर्ण है, हालांकि इस उपन्यास की संरचना जिस दार्शनिक दृष्टि से की गई है, वह ब्राह्मणवादी मूल्यों और सामाजिक व्यवस्था की भर्त्सना करती है। अनंतमूर्ति की रचनाओं पर अगर एक पैनी निगाह डालने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि शुरू की रचनाओं में उनके अन्दर जो एक युवकोचित आक्रोश था वह आगे चल कर उस गंभीर और जिम्मेदार लेखक में तब्दील हो गया जो रुढियों और पाखंडों से मुक्त एक मानवतावादी मूल्यों में विश्वास करता है। अपनी रचनाओं में उन्होंने यथार्थ को अभिव्यक्त करने को प्राथमिकता दी। उनके गद्य को पढ़ते हुए हमें पद्य जैसा आनंद मिलता है। आगे चल कर उनकी रचनाओं के अनुवाद हिंदी, बांग्ला, मराठी, मलयालम, गुजराती सहित अनेक भारतीय भाषाओं सहित अंग्रेजी, रूसी, फ्रेंच, हंगेरियन आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी प्रचुर मात्रा में हुए हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर बहुचर्चित फिल्में बनी हैं, और अनेक नाट्य–प्रस्तुतियाँ खेली गई हैं। वह विश्व के कई विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। साहित्य के अनेक अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में हिस्सेदारी की है।
हिन्दी के प्रख्यात कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने अनंतमूर्ति को अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा कि “अनंतमूर्ति से मेरी बहुत पुरानी मित्रता थी। अनंतमूर्ति इस समय भारतीय साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकारों में से एक थे। सिर्फ कन्नड़ के कारण नहीं, अपनी अखिल भारतीयता के कारण बहुमान्य थे। और उन्होंने अपने साहित्य में, गल्प में और कथा शिल्प में जो कुछ भी किया, वह अपनी जगह है और बेहद मह्त्वपूर्ण भी है। लेकिन उसके अलावा वो एक आत्मविश्वास से भरे हुए भारतीय भाषाओं के प्रवक्ता भी थे।” उन्होंने ही भारतीय भाषाओं के लिए अंग्रेजी के मुकाबले भाषा शब्द चलाया और भाषा की इस समय जब फिर से सुगबुगी है और भाषाओं का संघर्ष एक नए मुकाम पर पहुँच रहा है। अनंतमूर्ति का न होना एक बहुत बड़ी क्षति है। लेकिन अनंतमूर्ति ने जीवन भर अपनी आस्था के तहत, उनकी एक व्यापक समाजधर्मी आस्था थी लेकिन उनका व्यक्ति की गरिमा में भी विश्वास था और उनका ये भी विश्वास था कि साहित्य को हमारे समय में जब जरूरी हो हस्तक्षेप करना चाहिए और वो हस्तक्षेप वे जीवन भर करते रहे।
हमारे समय के ज्यादातर बड़े साहित्यकार किसी न किसी रूप में एक्टिविस्ट भी रहे हैं। यानी सिर्फ अनंतमूर्ति ही नहीं सभी भारतीय भाषाओं में देखें तो उनके बड़े लेखकों में किसी न किसी किस्म का एक्टिविज्म जरूर रहा है।
चूंकि अनंतमूर्ति एक प्रखर वक्ता और एक बुद्धिजीवी थे। उन्होंने हम पर भारतीयता की जो संकीर्ण परिभाषा लादी जाती रही है, उसका प्रतिरोध करते हुए उसकी एक अधिक समावेधी अवधारणा पेश की थी। वे वैचारिक हस्तक्षेप करने वाले व्यक्ति थे, एक्टिविस्ट थे. वे सिर्फ नारे लगाने वाले, जुलूस निकालने वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने कमर्ठता का एक नया आयाम पेश किया था कि हम वैचारिक हस्तक्षेप करेंगे और जो संकीर्णता और घृणा हम पर थोपी जा रही है, उसका विरोध करेंगे।”
अशोक वाजपेयी की अनंतमूर्ति के प्रति यह श्रद्धांजलि अपने आप में बहुत कुछ व्यक्त कर देती है। खासकर अनंतमूर्ति की वैचारिकता और सक्रियता के सन्दर्भ में। कलम के इस अद्भुत और बेबाक शिल्पी को पहली बार परिवार की श्रद्धांजलि।
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