सौरभ राय ‘भगीरथ’ बिलकुल युवा कवि हैं और इनके पास कई ऐसे टटके बिम्ब हैं जो अनायास ही हमें अपनी और आकर्षित करते हैं. आज जब हमारी वरिष्ठ पीढी यह चिंता जताते थकी जा रही है कि हमारी युवा पीढी बाजार की तरफदारी कर रही है और बर्गर पिज्जा वाली पीढी है, ऐसे में हमारा यह युवा कवि जीवन की सौरभ हकीकत से न केवल वाकिफ है बल्कि उसे अपनी कविता में व्यक्त करने से भी नहीं हिचकता. यह युवा कवि बड़ी सीधी सरल भाषा में यह कहता है – ‘मेरे जूतों ने मुझे गढ़ा है/ जैसे दुनिया भर के तमाम जूतों ने मिल कर/ जोते हैं खेत/ उगाई हैं फसलें/ ढोए हैं पहाड़/ जीते हैं जंग !’ इस कविता की अगली पंक्तियों में तो कवि जैसे पूरी तरह से मेहनतकश लोगों के साथ हो लेता है यह कह कर – ‘इन बदबूदार जूतों में/ दुनिया भर की तमाम/ ख़ुशबूदार किताबों से ज़्यादा/ इतिहास लिक्खा है.’ क्या इसे छद्म बुद्धिजीविता के खिलाफ महज एक पंक्ति या बयान भर मान लिया जाय. नहीं! दरअसल यह इस कवि की सर्वहारा वर्ग के प्रति वह प्रतिबद्धता है जो आज की कविता में विरल से विरलतर होती जा रही है. और जो यह स्पष्ट तौर पर उद्घोषित करती है कि कविता वही है जो जीवन के छंद और संघर्षों से उपज कर सामने आये. तो आईये ‘पहली बार’ पर हम पढ़ते हैं युवा कवि सौरभ की जीवन से भरी हुई कुछ इसी तरह की कविताएँ-
संतुलन
मर रहे हैं पूर्वज
ख़त्म हो रही हैं स्मृतियाँ
अदृश्य सम्वाद !
किसी की नहीं याद –
हम ग़ुलाम अच्छे थे
या आज़ाद ? बहुत ऊँचाई से गिरो
और लगातार गिरते रहो
तो उड़ने जैसा लगता है
एक अजीब सा
समन्वय है
डायनमिक इक्वीलिब्रियम ! अपने उत्त्थान की चमक में
ऊब रहे
या अपने अपने अंधकार को
इकट्ठी रोशनी बतला कर
डूब रहे हैं हम ? हमने खो दिये
वो शब्द
जिनमें अर्थ थे
ध्वनि, रस, गंध, रूप थे
शायद व्यर्थ थे।
शब्द जिन्हें
कलम लिख न पाए
शब्द जो
सपने बुनते थे
हमने खोए चंद शब्द
और भरे अनगिनत ग्रंथ
वो ग्रंथ
शायद सपनों से
डरते थे । थोड़े हम ऊंचे हुए
थोड़े पहाड़ उतर आए
पर पता नहीं
इस आरोहण में हम चल रहे
या फिसल ?
न चीख़
न शांति
जैसे ठोकर के बाद का
संतुलन ।
जूते
तय किए हैं
कितने ही सफ़र !
समुद्र का खारापन
थिरके हैं ये
पहाड़ी लोकगीत पर
और फिसले हैं
बर्फ की ढलान पर
मेरे संग |
मेरे पैरों का पसीना
सही हैं ठोकरें सिर पर
गिरने से बचाया है मुझे
अनगिनत बार |
इनकी छाती पर
पहाड़ी चट्टानों की रगड़ है
इनके घुटनों में दबे हैं
दुर्गम जंगलों के काँटें |
मेरी अनगिनत यात्राओं का लेखा जोखा |
जैसे दुनिया भर के तमाम जूतों ने मिल कर
जोतें हैं खेत
उगाई हैं फसलें
ढोए हैं पहाड़
जीते हैं जंग !
दुनियाभर की तमाम
ख़ुशबूदार किताबों से ज़्यादा
इतिहास लिक्खा है |
इनके लिए मैं महज़
एक जोड़ी पैर हूँ ||
जनपथ
गुज़रता है बच्चा
बेचता रंगीन अख़बार
“आज की ताज़ा ख़बर –
फलानां दुकान में भारी छूट !
आज की ताज़ा ख़बर – (मौका मिले तो तू भी लूट)” यह सड़क सीधी हो कर भी गोल है पैंसठ साल का सनकी बुढ्ढा इसपर चलता हुआ एक दिन अचानक पाता है इसी सड़क के बेईमान तारकोल में धंसा हुआ गरदन तक सड़क में डूबती असंख्य अपाहिज अमूर्तियाँ सड़ांध है विसर्जन तक| वहीं जनपथ के अजायबघर में सजी है क्रांति चहलकदमी चीख़ें ! दीवारों पर लटकी यातना प्रताड़ना उत्तेजना है जनपथ के अजायबघर में लाशों का फोटू खींचना मना है | जनपथ में दिन भर आग जलती है और अंधरात्री में चलती हैं प्रणय लीलाएँ | जनपथ के हर खंभे पर लिक्खा है – “यहाँ रोशनी न जलाएँ |” सड़क के इस पार जो है उस पार न होने की उम्मीद अब कोई नहीं धरता खंभे के नीचे मूतता कुत्ता भी लकड़ी मशाल कोयले में विश्वास नहीं करता | वहीं दूसरी छोर पर संसद – चर्बी का गोदाम अश्लील और सिद्धांत के बीच मेज़ें बजाते सभासद इनकी आत्मा झाग है भारतवर्ष इनके तोंद में उठी हुई आग है | पास जनपथ और राजपथ के चौराहे पर दमकती हैं विदेशी कम्पनियाँ ! (वर्चुअल बिल्डिंगों में ईट ढ़ोते भारतीय इंजीनियर) सच है – इन्डिया गेट से जनपथ तक पराधीन है राजपथ ! जनपथ पर विचरने वालों की हर यात्रा ख़त्म हो जाती है ए.सी. कमरे की टीवी में | हर जिज्ञासा ख़त्म हो जाती है इंटरनेट पर एक सर्च कर – ’32,047 रिज़ल्टस रिटरण्ड’ पढ़कर | जनपथ पर विचरने वालों के हर विचार ख़त्म हो जाते हैं जनपथ पर विचरकर | जनपथ सिकुड़ चला है जैसे निचुड़ रहा है किसी बंजर गर्भ से भविष्य | डबल लेन ट्रैफिक के नाम पर तारकोल में लथपथ गति और दुर्गति के बीच टंगा हुआ पजामा है जनपथ | जनपथ से गुज़रते हुए अहसास हो बस इतना – कि तरसे हुए इस सड़क में जीवन है शेष ! जनपथ के शोर शराबों के सन्नाटों में कितनी अनिवार्य हो जाती है दुर्घटना ||
चेहरे
इनकी हड्डियों में मज्जा
शिराओं में रक्त नहीं है | ये चेहरे खेतों में दबे हैं मशीनों के गियर के बीच घड़घड़ाकर पिस रहें हैं दुकानों में इंतज़ार कर रहें हैं ग्राहक का | यही चेहरे हैं जो दंगों में बिलबिलाते हैं हिंदू को हिंदू मुस्लिम को मुस्लिम हूँ बताते हैं यही चेहरे हैं जिनपर यूनियन कार्बाइड छिड़क दिया जाता है इत्र की तरह यही चेहरे हैं चासनाला कोलियरी में जो आज भी कोयला बन जलते हैं | ये चेहरे एक से हैं पाँच हज़ार वर्षों से बदसूरत चेहरों की मिलावट कर जैसे जबरदस्ती अलग अलग किए गए हैं ये चेहरे एक से हैं पर एक नहीं हैं इनके एक होने का ख़तरा है | इन्हीं चेहरों की भीड़ में मंत्री जी डकारते हैं – “जो चेहरे बच गए हैं देश के शत्रु हैं उनको मारो जो चेहरे कम हो रहे हैं वे दिवंगत हैं देश को उनपर नाज़ है…” मंत्री जी को नहीं पता जब चेहरों में मज्जा और रक्त नहीं होता तो ज़्यादा दबाने पर कुछ चेहरे बम की तरह फटते हैं |
लोहा
तपाक से पूछता है –
कहाँ-कहाँ है लोहा ?
हर तरफ लोहा !
चिमटा छेनी हथौड़ा संडासी
दिल होने से ज्यादा गुंडा होना ज़रूरी है |
जहां ‘सत्य’ शब्द का इस्तेमाल
केवल अर्थी ले जाने पर किया जाता है |
जहां का राष्ट्रीय पशु कीचड़ में रहता है |
और राष्ट्रीय पुष्प भी कीचड़ में ही बहता है |
जहां के डॉक्टर थर्मामीटर पढ़ना नहीं जानते
और कुत्ते अपने बच्चों को नहीं पहचानते |
जहां का हर चोर प्रधानमंत्री बनना चाहता है |
और हर नेता अभिनेता; और हर अभिनेता नेता |
जहां की आज़ादी का जशन
ढोल ताशों संग मनाया जाता है
और अगले रोज़ गटर में बहता तिरंगा पाया जाता है |
जहां टीवी, रेडियो, फ्रीज रिश्ते तय करते हैं
और लड़की के हाथ की लकीरों को फाड़कर
उसमे खून की मेहंदी रच दी जाती है |
जहां के सरहद निर्दोषों के खून से रंग दिए जाते हैं
सीज़फायर के लिए |
जहां के श्रेष्ठ अस्पताल में मरीज़ मर जाता है
क्योंकि उसे रक्तदान करने वाला सूई से डर जाता है |
जहां के मजूर भूखे पेट मर जाते हैं
और उसके मालिक के कुत्ते बिस्कुट खाने से मुकर जाते हैं |
जहां के मध्यम वर्गीय लोग साले मरते न जीते हैं
खूंटे पर अपनी इज्ज़त को टांग, अपना ही खून पीते हैं |
जहां का बेटा प्यार में औन्धे मुंह इस कदर गड़ जाता है
माता पिता के सपनों से खेल, काठ सा अकड़ जाता है |
जहां लड़की के जन्म पर शोकगीत गाई जाती है
फिर उसके मौत पर गरीबों में कचौड़ी खिलाई जाती है
जहां मिट्टी के कीड़े, मिट्टी खाकर, मिट्टी उगलते हैं
फिर उसी मिट्टी पर छाती के बल चलते हैं |
जहां कागज़ पर क्षणों में फसल उगाए जाते हैं |
और उसी कागज़ में आगे कहीं वे
गरीबों में जिजीविषा भी बंटवाते हैं |
जहां चीख की भाषा छिछोरी हो गयी है
लेटेस्ट फैशन गालियों का है |
उस नपुंसक किन्तु सभ्य समाज में
कुछ कुत्तों के बीच घिरा अकेला कुत्ता
फिर भी चीखता है –
” घिन्न होती है सोचते हुए कि
छुटपन में मैंने कभी गाया था –
सारे जहाँ से अच्छा… “
चप्पल से लिपटी चाहतें
एक पुरानी डायरी
कविता लिखने के लिए
एक कोरा काग़ज़
चित्र बनाने के लिए
एक शांत कोना
पृथ्वी का
गुनगुनाने के लिए |
नीली – कत्थई नक्शे से निकल
हरी ज़मीन पर रहूँ |
चाहता हूँ
भीतर के वेताल को
निकाल फेकूं |
खरीदना है मुझे
मोल भाव करके
आलू प्याज़ बैंगन
अर्थशास्त्र पढ़ने से पहले |
चाहता हूँ कई अनंत यात्राओं को
पूरा करना |
बादल को सूखने से बचाना चाहता हूँ |
गेहूं को भूख से बचाना चाहता हूँ
और कपास को नंगा होने से |
रोटी कपड़े और मकान को
स्पंज बनने से बचाना चाहता हूँ |
इन अनथकी यात्राओं के बीच
मुझे कीचड़ से निकलकर
जाना है नौकरी मांगने…||
मोबाईल -09742876892
ई-मेल- sourav894@gmail.com
(कविताओं के साथ प्रयुक्त पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं.)
एक शिद्दत, एक ईमानदारी सारी कविताओं में देखने को मिल जाती हैं, कविताओं की खासियत तनाव है, तनाव ही सौन्दर्य है.
बहुत गजब की कविताएँ , शानदार |. हर रचना का एक अलग रंग | . बहुत बधाई सौरभ राय जी को , आपका बहुत -बहुत आभार संतोष भैया .
-नित्यानंद गायेन
Padte hue dumil ki yaad ho aai. Acchi kavitain. Badhai ho bhai. Abhaar santosh ji. – kamal jeet choudhary ( j n k )
भाई बहुत संभावनाशील कवि है सौरभ जी ..पढ़कर एक आश्वस्ति का भाव जागा ..हर कविता स्तरीय है 'जूते' मुझे बहुत पसंद आयी ..यद्यपि जूते को लेकर बहुत सारे कवियों ने कवितायें लिखी हैं बहुत सारी मैंने पढ़ी और सुनी भी हैं …मगर इस कविता का कैनवस बहुत व्यापक है !
बहुत्व ऊँचाई से गिरो
और लगातार गिरते रहो
तो उड़ने जैसा लगता है ….मुझे अक्सर यह स्वप्न आता है
Badi imandari or hosle ke sath likha hai badhai
धन्यवाद । आप मेरी और भी कवितायेँ यहाँ पढ़ सकते हैं – http://souravroy.com/poems/