विवेक निराला की कविताएँ


समकालीन कवियों में विवेक निराला अपने अलग शिल्प और सांगीतिक भाषा के लिए विशेष तौर पर जाने जाते हैं। ‘एक बिम्ब है यह’ उनका पहला कविता संग्रह था। एक अरसे बाद राजकमल प्रकाशन से विवेक का दूसरा कविता संग्रह ‘ध्रुव तारा जल में’ प्रकाशित हुआ है। कवि को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि के इस नए संकलन की कुछ चुनिन्दा कविताएँ। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं कवि विवेक निराला की कविताएँ   
       
विवेक निराला की कविताएँ
 
भाषा

मेरी पीठ पर टिकी
एक नन्हीं सी लड़की
मेरी गर्दन में
अपने हाथ डाले हुए

जितना सीख कर आती है
उतना मुझे सिखाती है।

उतने में ही अपना
सब कुछ कह जाती है।

पासवर्ड

मेरे पिता के पिता के पिता के पास
कोई संपत्ति नहीं थी।
मेरे पिता के पिता को अपने पिता का
वारिस अपने को सिद्ध करने के लिए भी
मुक़द्दमा लड़ना पड़ा था।

मेरे पिता के पिता के पास
एक हारमोनियम था
जिसके स्वर उसकी निजी संपत्ति थे।
मेरे पिता के पास उनकी निजी नौकरी थी
उस नौकरी के निजी सुख-दुःख थे।

मेरी भी निजता अनन्त
अपने निर्णयों के साथ।
इस पूरी निजी परम्परा में मैंने
सामाजिकता का एक लम्बा पासवर्ड डाल रखा है।

कहानियाँ

इन कहानियों में
घटनाएं हैं, चरित्र हैं
और कुछ चित्र हैं।

संवाद कुछ विचित्र हैं
लेखक परस्पर मित्र हैं।

कोई नायक नहीं
कोई इस लायक नहीं।

इन कहानियों में
नालायक देश-काल है
सचमुच, बुरा हाल है।


मैं और तुम

 

मैं जो एक
टूटा हुआ तारा
मैं जो एक
बुझा हुआ दीप।

तुम्हारे सीने पर
रखा एक भारी पत्थर
तुम्हारी आत्मा के सलिल में
जमी हुई काई।

मैं जो तुम्हारा
खण्डित वैभव
तुम्हारा भग्न ऐश्वर्य।

तुम जो मुझसे निस्संग
मेरी आख़िरी हार हो
तुम जो
मेरा नष्ट हो चुका संसार हो।

हत्या

एक नायक की हत्या थी यह
जो खुद भी हत्यारा था।

हत्यारे ही नायक थे इस वक़्त
और नायकों के साथ
लोगों की गहरी सहानुभूति थी।

हत्यारों की अंतर्कलह थी
हत्याओं का अन्तहीन सिलसिला
हर हत्यारे की हत्या के बाद
थोड़ी ख़ामोशी
थोड़ी अकुलाहट
थोड़ी अशान्ति

और अन्त में जी उठता था
एक दूसरा हत्यारा
मारे जाने के लिए।

विवेक निराला

मरण

वे सब अपने-अपने गाँवों से शहर आ गए थे
शहरों में प्रदूषण था इसलिए
वे बार-बार अंतःकरण को झाड़-पोंछ रहे थे।

वे अनुसरण से त्रस्त थे और अनुकरण से व्यथित इसलिए
पंक्तिबद्ध हो कर इसके खिलाफ
पॉवर हॉउस में पंजीकरण करा रहे थे।

वे निर्मल वातावरण के आग्रही थे
उनके आचरण पर कई खुफिया निगाहें थीं
वे बारहा अपनी नीतियों से मात खाते थे और भाषा से लात
क्योंकि उनके पास कोई व्याकरण नहीं था।

कई चरणों में अपनी आत्मा और स्मृतियों में बसे देहात को
उजाड़ने के बाद वे
अपनी काया में निरावरण थे बिल्कुल अशरण।
सबसे तकलीफ़देह वह क्षण था
जिसमें निश्चित था उनका मरण
और इस समस्या का अब तक निराकरण नहीं था।

मेरा कुछ नहीं

 
मेरे हाथ मेरे नहीं
उन पर नियोक्ता
का अधिकार है।

मेरे पाँव मेरे नहीं
उन पर सफ़र लिखा है
जैसे सड़क किनारे का वह पत्थर
भरवारी-40 किमी।

तब तो मेरा हृदय भी मेरा नहीं।

फिर तो कुछ भी नहीं मेरा
मेरा कुछ भी नहीं
वह ललाट भी नहीं
जिस पर गुलामी लिखा है
और प्रतिलिपि से
नत्थी है मेरी आत्मा।


स्थगित

लोग जहाँ-तहाँ रुक गए
बन्द हुआ
ईश्वर का सारा रोज़गार।

न नदियों में प्रवाह रह गया
न ज्वालामुखी में दाह
एक कराह भी थम गयी।

प्रदक्षिणा दक्षिण में ठहर गयी
और अवाम के लिए
तय बाँये रास्ते पर
बड़े गड्ढे बन चुके हैं।

एक ही भभकती लालटेन
अपने शीशे के और काले होते जाने पर
सिर धुनती निष्प्रभ पड़ी है।

क्षण भर के लिए
आसमान से कड़की और चमकी
विद्युत् में रथच्युत योद्धा
लपक कर लापता हुए।

जीवन अब भी अपठित है
मृत्यु अलिखित
समय अभी स्थगित।

सम्पर्क

मोबाईल – 09415289529

जितेन्द्र कुमार यादव की कहानी “एक गहरी और काली आँखों वाली लड़की”


जितेन्द्र कुमार यादव

उत्तर प्रदेश  के  अम्बेडकर नगर  जिले  में  स्थित  नेवादा  कलां  नामक  गाँव  में 17 दिसम्बर 1988  को  जन्म.
इलाहाबाद वि० वि० से  स्नातक, परास्नातक  तथा  कुमाउं  विश्वविद्यालय  नैनीताल  में शोधरत.

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं  में  अनेक  कविताओं   लेखों  का  प्रकाशन.

विजय गौड़ ने अपने एक आलेख में कहानी के संदर्भ में महत्वपूर्ण बात उठायी है कि कविता के शिल्प में परिवर्तन को तो लोग आसानी से स्वीकार कर लेते हैं लेकिन कहानी के क्षेत्र में ऐसा नहीं दिखायी पड़ता. कहानी के बारे में एक रूढ़ धारणा बनी हुई है कि बिना कथ्य के कहानी लिखी ही नहीं जा सकती. यह दिक्कत आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है. इसके बावजूद कहानीकार ख़ुद ही यह तय करता है कि उसे कहानी कैसी लिखनी है. उसके शिल्प के निर्धारण का फैसला भी बहुत हद तक कहानीकार ही करता है. जो कहानीकार रूढ़ियों के बैरियर को तोड़ता है वही अपनी पहचान बना पाता है. युवा कथाकार जितेन्द्र कुमार यादव की कहानी पढ़ते हुए मुझे ऐसा ही लगा. यह कहानी सुदूर पूरब के मैदानों के रहवासी उस बातूनी लड़के की है जो ऊँचे पहाड़ों पर जा कर वही करता है जिसके बारे में उसके दोस्तों और पिता ने मना किया था. और धीरे-धीरे गहरी और काली आँखों वाली लडकी के सम्मोहन के झील में डूबने लगता है.  
एक दिन जब वह बातूनी लड़का उस काली आँखों वाली लड़की, जो उसे तितली की तरह लगती थी, के परों का चित्र बनाने की बात कहता है, और उस लडकी की आवाज पर गीत लिखने की इच्छा व्यक्त करता है तो लड़की उसे दृढ़ता से मना करती है और चली जाती है कभी न लौटने के लिए. 
इस कथ्य की सघन बुनावट जिस तरह जितेन्द्र ने की है वह उस में निश्चित रूप से भविष्य के एक बेहतर कथाकार की तरफ इशारा करती है. एक प्रेम कहानी लगते हुए भी यह कहानी उस बिन्दु की तरफ भी इशारा करती है जहाँ पहाड़ और पहाड़ी लोगों का प्राकृतिक जीवन काफी कुछ अवरोधित हुआ या किया गया है, उन लोगों के द्वारा जो घूमने-फिरने का मजा लेने के लिए पहाड़ों की तरफ आते हैं और उसे मलीन बना जाते हैं. इसमें पाठकों के लिए और भी बहुत कुछ है. खासकर वह प्रकृति जो अब हमारी नजरों से कहीं न कहीं छूटती बिसरती चली जा रही है. जितेन्द्र की यह कहानी हमें उपलब्ध कराई युवा कवि शिव त्रिपाठी ने. तो आइए आज ‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं एक संभावनाशील कथाकार जितेन्द्र कुमार यादव की यह कहानी ‘एक गहरी और कालों आँखों वाली लड़की’.  
                    
“एक गहरी और काली आँखों वाली लड़की”

जितेन्द्र कुमार यादव
वह सुदूर पूरब के मैदानों में बसे एक छोटे से गाँव का एक बातूनी लड़का था। उसे शौक था ढेर सारी बातें करने का और बहुत-थोडा सा लिखने का। उसने अपने पिता से सुना था ऊँचे पहाड़ों पर एक गहरी झील के किनारे पर बसे और बड़ेबड़े देवदार के जंगलों से घिरे एक खूबसूरत शहर के बारे में और दोस्तों से उसी शहर की झील की ही तरह गहरी और काली आँखों वाली खूबसूरत लड़कियों के बारे में। उसके पिता और दोस्त इस बारे में एकमत थे कि इनमे बसता है एक जादुई सम्मोहन। दोनों ने उसे सावधान किया था कि अगर तुम्हारा कभी सामना हो उस झील से या कि उतनी ही गहरी और काली आँखों वाली उस शहर की खूबसूरत लड़कियों से तो तुम बचना उनकी गहराई में झांकने से। चेतावनी दी थी उसे कि अगर तुमने ऐसा किया तो पूरब की गांजा पीने वाली तांत्रिक योगिनियों के तंत्र-जाल की तरह उसके पाश में आबद्ध हो जाओगे। और यह कहते हुए चुप हो गये थे दोनों कि उससे मुक्ति एक असम्भव-सम्भावना बन कर रह जायेगी।
उस झील और उसकी ही तरह गहरी तथा काली आँखों वाली लड़कियों के शहर में पहुँच कर उस लड़के ने तय किया कि न तो वह उस झील के किनारे बैठ कर उसको निहारेगा और न ही कभी झील की ही तरह गहरी और काली आँखों वाली उस शहर की लड़कियों को। इस तरह रहते हुए उसने उस शहर में अपने जीवन की पहली बर्फ़बारी का आनंद लिया और ठण्ड से बचने के लिए चाय का कप लेते हुए पहली बार डरते-डरते कनखियों से उस लड़की को देखा, जिसकी आँखें झील की ही तरह गहरी और काली थीं। वह उसे एक खूबसूरत तितली की तरह लगी। उसे याद आयी पिता और दोस्तों की बातें और उनकी चेतावनी, उनके भोलेपन को याद करते हुए उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान तैर गयी।
उस गहरी और काली आँखों वाली लड़की ने जो कि उसे एक तितली की तरह लगी थी, उससे पूछाक्या तुमने कभी देखा है पहाड़ के जंगलों में खिलने वाले झक-लाल रंग के फूलों से लदा हुआ बुरांश का कोई पेड़, जिसे अकेले में देखने से पहाड़ की लड़कियों को लग जाता है छल। जिनमे बसती है उनके पिछले जन्मों के प्रेमियों की आत्माएं। उसने उस लड़के से पूछा कि क्या उसने कभी सुना है ऊँचे-नीचे पहाड़ों पर बैठ कर मुरली बजाने वाले किसी चरवाहे की मुरली की कोई उदास-धुन।
उसने अपनी बड़ी गहरी और काली आँखों को और बड़ा करते हुए आश्चर्य जताया कि कैसे उसने इतने दिनों तक नहीं देखा बर्फ से ढकी उन चोटियों को जो सूरज की रोशनी में सोने और चांदी की तरह चमकती हैं। और जिस पर सदियों से एक प्रेमी व्याकुल प्रतीक्षा कर रहा है अपनी प्रेमिका की जो उसकी ही तरह गहरी और काली आँखों वाली एक पहाड़ी लड़की थी। और जिसकी याद में पहाड़ के लोग आज भी भेजते हैं उसका डोला उन चोटियों पर। 

उसने हैरानी जताई कि उसने अभी तक पहाड़ की किसी चोटी पर बैठ कर नहीं देखा कि कैसे बादलों का दो समूह मिल कर एक होता है और तेजी से गुम हो जाता है अनन्त विस्तार लिये हुए इन पहाड़ों की घाटियों में।
आज पहली बार सुदूर पूरब के मैदानों में बसे एक छोटे से गाँव का वह लड़का जो काफी बातूनी था, पूरी तरह से चुप था और उस गहरी और काली आँखों वाली लड़की जो कि उसे एक तितली की तरह दिखती थी, उसकी आँखों में एकटक देख रहा था। शाम को उस शहर की झील के किनारे बैठ कर उस लड़की ने कहा चाहे कोई अपनी पूरी जिन्दगी इस झील के किनारे बैठ कर बिता दे इसे निहारते हुए फिर भी वह पायेगा कि यह झील कभी पुरानी नहीं लगती।
एक दिन उस लड़की ने उसे दिखाया पहाड़ की लोक-कथाओं के उस राजा का मंदिर जो अपने मरने के सदियों बाद आज भी अपने पास आने वालों का करता है न्याय। जिस के मंदिर पर बंधी थी हजारों घंटियाँ जो उसके द्वारा किये गए न्याय की गवाही दे रही थीं। वह उसे ले कर गयी वहां जहाँ से सूरज को उगते देखना दुनिया की सबसे खूबसूरत घटनाओं में से एक का साक्षी होना था। वह उसे वहां पर भी ले कर गयी जो पहाड़ की असफल प्रेम-कथाओं तथा उनके नायक और नायिकाओं का अवसान बिंदु कहा जाता है।

वह जगह उस लड़के को अधूरी प्रेम कथाओं के स्मारक की तरह लगी।

घने जंगलों में घूमते हुए उसने उस लड़के को बुरांश के पेड़ों को दिखाया। 
 
आपस में मिल कर एक होते हुए बादलों को और उसने उस चोटी को भी दिखाया जिसका नाम पहाड़ की उस झील की तरह गहरी और काली आँखों वाली लड़की के नाम पर रखा गया है जिसका प्रेमी उन चोटियों पर बैठ कर उसकी व्याकुल प्रतीक्षा कर रहा है जो सूरज की रोशनी में सोने और चांदी की तरह चमकती हैं, उन चोटियों को भी उसने उसे दिखाया।
संतरे की फांकों के मानिंद खूबसूरत अपने होठों को अनेक प्रकार से घुमाते हुए उसने बताया कि पहाड़ ऊपर से दिखतें हैं जितने कठोर उनकी आत्मा उतनी ही कोमल होती है। उसने अपनी गहरी काली आँखों की पुतलियों को नचाते हुए बताया कि आज-कल इन घाटियों में फिरता है एक दैत्य, जो खा जाता है पहाड़ की आत्मा को और खोखला कर रहा है उन्हें। उसने दबी सी आवाज में बताया कि आज-कल जंगलों में बढ़ गए हैं आदमखोर जो खून चूसते हैं सिर्फ जवान लड़कों का। इसीलिए पहाड़ की माताएँ अपने बेटों को जवान होते ही भेज देतीं हैं दूर… किसी शहर में। ऐसा कह कर वह चुप हुई थोड़ी देर और फिर दुखी मन से धीरे-धीरे गुनगुनाने लगी कोई उदास पहाड़ी गीत।
उसे उदास देख कर वह बातूनी लड़का उसे सुदूर पूरब  मैदानों में प्रचलित उन कहानियों में ले कर चला गया जहाँ हंसी ख़ुशी के छोटे-छोटे गाँव बसते थे। जिसे देख कर वह गहरी और काली आँखों वाली लड़की जो उसे एक तितली की तरह लगती थी फिर से मुस्कुराने लगी। उसने सामने से आते हुए बादलों के एक झुण्ड को दिखाते हुए कहा कि वो मैं हूँ, और दूसरे झुण्ड की तरफ इशारा करते हुए बोली वो तुम अब हम इन्हीं बादलों की तरह मिल कर एक हो जाएंगें और मुस्कुराते हुए लड़के की तरफ देखने लगी। लड़के ने भी मुस्कुराते हुए बात को आगे बढ़ाया और कहा कि फिर हम अनंत विस्तार लिए हुए इन घाटियों में गुम हो जाएँगे और दोनों हँसने लगे।
एक दिन उस बातूनी लड़के ने उस लड़की से जो उसे एक खूबसूरत तितली की तरह लगती थी। उस के खूबसूरत परों को देखते हुए कहा तुम्हारे परों के रंग कितने खूबसूरत हैं क्या मैं इन के चित्र बनाऊं? उस लड़की की गहरी और काली आँखों में आशंका की एक हल्की सी रेखा उभरी और उसने कहा .. नहीं।  तुम मेरे परों से रंग ले कर बनाओगे चित्र और एक दिन जब तुम बन जाओगे एक प्रसिद्ध चित्रकार तो फिर उन चित्रों की लगेगी सार्वजनिक प्रदर्शनी, हो सकता है कोई लगाये उनकी बोली। लड़के ने कहा जब तुम बोलती हो तो तुम्हारी आवाज की झंकार में जीवित हो जातें हैं पहाड़ के सारे लोक-राग। मैं  इन पर कुछ गीत और कविताएँ लिखना चाहता हूँ। 
 

उस लड़की की गहरी और काली आँखों में आशंका की रेखाएं और गहरी हो गयीं। उसने कहा चुप हो जाओ तुम इन पर गीत नहीं लिख सकते, नहीं कर सकते इन पर कोई कविता, ये तो मेरे पूर्वजों की अमानत है।
लड़के ने कहा – ‘अच्छा तो क्या मैं सुदूर पूरब के मैदानों में बसे एक छोटे से गाँव के एक बातूनी लड़के और एक गहरी और काली आँखों वाली पहाड़ी लड़की की कहानी लिख सकता हूँ?’
लड़की ने कहा ठीक कहती थी मेरी माँ। सुदूर मैदानों से आतें हैं तुम्हारी तरह बातूनी लड़के जो अपनी बातों का रचते हैं जाल और लगा देतें हैं छल पहाड़ की लड़कियों पर और उन्हें किसी प्रसिद्ध चित्र में स्तब्ध खड़ी किसी सुन्दरी की तरह या पहाड़ी गीतों की किसी विरहणी स्त्री या फिर किसी अधूरी कहानी की प्रसिद्ध नायिका की तरह अकेला छोड़ कर चले जातें हैं। तुम्हे भी यही करना था। अब मैं और नही रह सकती तुम्हारे साथ । यह कहते हुए वह गहरी और काली आँखों वाली लड़की चली गयी, कभी न लौटने के लिए।
वह लड़का जो काफ़ी बातूनी था और जिसे शौक था, ज्यादा बातें करने और कम लिखने का।वाक खड़ा देखता रहा उस लड़की को जाते हुए। अब उस लड़के ने धीरे-धीरे छोड़ दिया लोगों से बात करना। उसने तय किया कि आज के बाद वह तब तक कुछ भी नहीं लिखेगा, जब तक उस शहर में बिगुल की आवाज के साथ छोलिया नृत्य का आयोजन सम्पन्न न हो जाय। उसने ऊँचे पहाड़ों पर एक गहरी झील के किनारे बसे और बड़े-बड़े देवदार के जंगलों से घिरे उस शहर को छोड़ दिया और  चला गया बर्फ से ढकी पहाड़ की उन  चोटियों  पर जो सूरज की रोशनी में सोने और चांदी की तरह चमकती हैं और जहाँ सदियों से एक प्रेमी अपनी प्रेमिका की व्याकुल प्रतीक्षा कर रहा है जिसकी आँखे गहरी और काली हैं।

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

महेश चंद्र पुनेठा का आलेख ‘शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध’

मुक्तिबोध

अपने एक वक्तव्य के दौरान एक दफे नामवर सिंह ने कहा था – ‘जो युग जितना ही आत्म-सजग होता है उसके मूल्यांकन का काम उतना ही कठिन हो जाता है।’ इस वक्तव्य में युग की जगह अगर रचनाकार कर दिया जाए तो मुक्तिबोध के मूल्यांकन के संदर्भ में यह एक सर्वथा उपयुक्त वक्तव्य होगा। ध्यातव्य है कि मुक्तिबोध रचनाकार होने के साथ-साथ एक शिक्षक भी थे। इन नाते वे अपनी भूमिकाओं से अच्छी तरह वाकिफ थेवस्तुतः शिक्षा और मनोविज्ञान का रचना के साथ चोली दामन का सम्बन्ध है। स्पष्ट तौर पर कहें तो शिक्षा और मनोविज्ञान की गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति ही अपनी रचनाओं के साथ ईमानदारी बरत पाता है। मुक्तिबोध की रचनाओं में अगर यह है तो उसके पीछे उनके शिक्षा के इस समझ की बड़ी भूमिका है। उनकी रचना में ‘ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान’ की बात इन्हीं सन्दर्भों में आती है कवि महेश चन्द्र पुनेठा भी एक सजग शिक्षक हैं और इन दिनों ‘दीवार’ पत्रिका के माध्यम से शैक्षणिक क्षेत्र में विद्यार्थियों की अधिकाधिक भागीदारी के लिए के लिए ईमानदारी से सामूहिक तौर पर प्रयासरत हैं। महेश पुनेठा ने अपने एक आलेख में मुक्तिबोध के शैक्षणिक आयाम को समझने की महत्वपूर्ण कोशिश की है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख ‘शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध’      


शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध

महेश चंद्र पुनेठा

ज्ञान को ले कर बहुत भ्रम हैं। सामान्यतः सूचना, जानकारी या तथ्यों को ही ज्ञान मान लिया जाता है। इनको याद कर लेना ज्ञानी हो जाना। इस अवधारणा के अनुसार एक ज्ञान प्रदानकर्त्ता है तो दूसरा प्राप्तकर्ता, जिसे पाओले फ्रेरे बैंकिंग प्रणालीकहते हैं। इसमें शिक्षक जमाकर्ता और विद्यार्थी का मस्तिष्क बैंक की भूमिका में होता है। शिक्षक बच्चे के मस्तिष्क रूपी बैंक में सूचना-जानकारी या तथ्य रूपी धन को लगातार जमा करता जाता है। वह इस बात की परवाह नहीं करता है कि उसे लेने के लिए बच्चा तैयार है या नहीं। शिक्षक द्वारा कही बात ही अंतिम मानी जाती है। दरअसल यह ज्ञान की बहुत पुरानी अवधारणा है। यह तब की है जब शिक्षा की मौखिक परंपरा हुआ करती थी। सूचना, जानकारी या तथ्यों को रखने का रटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इनके हस्तांतरण का यही एकमात्र उपाय हुआ करता था। जो जितनी अधिक सूचना, जानकारी या तथ्यों को याद रख पाता था वह उतना ही अधिक ज्ञानी माना जाता था। ज्ञान का यह सीमित और आधा अधूरा अर्थ है। वस्तुतः जो लिया या दिया जाता है वह ज्ञान न हो कर केवल सूचना या जानकारी है।

ज्ञान कभी दिया नहीं जा सकता है। ज्ञान का तो निर्माण या सृजन होता है। इसलिए आप दूसरों को सूचना या जानकारी तो दे सकते हैं ज्ञान नहीं। ज्ञान के साथ बोध का गहरा सम्बन्ध है। ज्ञान निर्माण की एक पूरी प्रक्रिया है, जो अवलोकन, प्रयोग-परीक्षण, विष्लेशण से होती हुई निष्कर्ष तक पहुंचती है। ज्ञान द्वंद्व और संश्लेषण से उत्पन्न होता है। अनुभवों और तर्कों की उसमें विशेष भूमिका रहती है। यह माना जाता है कि मनुष्य की सारी अवधारणाएं उनके अपने अनुभवों के आधार पर बनती हैं। शिक्षा में यह ज्ञान की यह अवधारणा रचनात्मकतावाद के नाम से जानी जाती है, जो अपेक्षाकृत नई मानी जाती है। भारतीय शिक्षा में इस अवधारणा की गूंज बीसवीं सदी के अंतिम दशक से सुनाई देना प्रारम्भ होती है। लेकिन मुक्तिबोध ज्ञान को ले कर इस तरह की बातें पांचवे दशक में लिखे अपने निबंधों में कहने लगे थे। ज्ञान, बोध, सृजनशीलता, सीखने जैसी अवधारणाओं को ले कर उनके निबंधों में बहुत सारी बातें मिलती हैं। मुक्तिबोध ज्ञान और जानकारी के बीच के इस अंतर को स्पष्ट करते हैं। भले ही उनकी यह बात सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ नहीं बल्कि रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में आती है। लेकिन सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में भी वह सटीक बैठती है। 

मुक्तिबोध ज्ञान के विकास के बारे में कहते हैं- ‘‘बुद्धि स्वयं अनुभूत विशिष्टों का सामान्यीकरण करती हुई हमें जो ज्ञान प्रस्तुत करती है,  उस ज्ञान में निबद्ध स्वसे ऊपर उठने, अपने से तटस्थ रहने, जो है उसे अनुमान के आधार पर और भी विस्तृत करने की होती है। ….. ज्ञान व्यवस्था … जीवानुनभवों और तर्कसंगत निष्कर्षों और परिणामों के आधार पर होती है। …..तर्कसंगत (और अनुभव सिद्ध) निष्कर्षों तथा परिणामों के आधार पर, हम अपनी ज्ञान-व्यवस्था, तथा उस ज्ञान-व्यवस्था के आधार पर अपनी भाव-व्यवस्था, विकसित  करते हैं। …..बोध और ज्ञान द्वारा ही ये अनुभव परिमार्जित होते हैं, यानी पूर्व-प्राप्त ज्ञान द्वारा मूल्यांकित और विश्लेषित हो कर, प्रांजल हो कर,  अंतःकरण में व्याख्यात हो कर, व्यवस्था-बद्ध होते जाते हैं।’’ वह पुराने ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़कर सिद्धान्त व्यवस्था का विकास करने की बात करते हैं। यहीं पर द्वंद्व और संश्लेषण की प्रक्रिया चलती है। उनके लिए ज्ञान का अर्थ केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों का बोध नहीं, वरन् उत्थानशील और ह्रासशील शक्तियों का बोध भी है। …..ज्ञान भी एक तरह का अनुभव है, या तो वह हमारा अनुभव है या दूसरों का। इस लिए वे ज्ञान को काल-सापेक्ष और स्थिति-सापेक्ष मानते हैं। उसे जीवन में उतारने की बात कहते हैं- ‘‘ज्ञान-रूपी दांत जिंदगी-रूपी नाशपाती में गड़ना चाहिए, जिस से कि संपूर्ण आत्मा जीवन का रसास्वादन कर सके।’’

आज सब से बड़ी दिक्कत शिक्षा की यही है कि वह न संवेदना को ज्ञान में बदल पा रही है और न ज्ञान से संवेदना पैदा कर पा रही है। फलस्वरूप आज की शिक्षा एक सफल व्यक्ति तो तैयार कर ले रही है लेकिन सार्थक व्यक्ति नहीं। अर्थात ऐसा व्यक्ति जो अपने समाज के प्रति जिम्मेदार और हाशिए पर पड़े लोगों के प्रति संवेदनशील हो, जिस के लिए शिक्षित होना धनोपार्जन करने में सक्षम होना न हो कर समाज की बेहतरी के लिए सोचना हो। ऐसे में यह महत्वपूर्ण बात है कि मुक्तिबोध ज्ञान को संवेदना के साथ जोड़कर देखते हैं। चांद का मुंह टेढ़ा है कविता की ये पंक्तियां इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं- 

ज्वलंत अनुभव ऐसे
ऐसे कि विद्युत धाराएं झकझोर
ज्ञान को वेदन-रूप में लहराएं
ज्ञान की पीड़ा
रूधिर प्रवाहों की गतियों में परिणित हो कर
अंतःकरण को व्याकुल कर दे।

इस लिए वह यह आवश्यकता महसूस करते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य, अपनी पूर्ति की दिशा में सक्रिय रहते हुए, मनुष्य के बाल्य काल से ही उस जीवन-ज्ञान का विकास करे, जो संवेदनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति करे। संवेदनात्मक उद्देश्यों से उनका आशय स्व से ऊपर उठना, खुद की घेरेबंदी तोड़ कर कल्पना-सज्जित सहानुभूति के द्वारा अन्य के मर्म में प्रवेश करना है। दूसरे के मर्म में प्रवेश कर पाना तभी संभव है, जब शिक्षा दिमाग के साथ-साथ दिल से भी जुड़ी हो,  वह बच्चे की संवेदना का विस्तार करे। इसी कारण ज्ञानात्मक-संवेदना और संवेदनात्मक-ज्ञान की अवधारणा उनकी रचना-प्रक्रिया और आलोचना की आधार रही।
  
मुक्तिबोध अनुभव को, सीखने और रचना के लिए बहुत जरूरी मानते हैं। कोई भी रचना अनुभव-रक्त तालमें डूब कर ही ज्ञान में बदलती है। देखिए भूरी-भूरी खाक धूलकविता की ये पंक्तियां-

नीला पौधा
यह आत्मज
रक्त-सिंचिता हृदय धरित्री का
आत्मा के कोमल आलबाल में
यह जवान हो रहा
कि अनुभव-रक्त ताल में डूबे उसके पदतल
जड़ें ज्ञान-संविधा की पीतीं।’ 

वह अनुभव को पकाने की बात करते हैं। देखा जाय तो शिक्षा एक तरह से अनुभवों को पकाने का ही काम तो करती है। मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘‘वास्तविक जीवन जीते समय, संवेदनात्मक अनुभव करना और साथ ही ठीक उसी अनुभव के कल्पना चित्र प्रेक्षित करना- ये दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते। उस के लिए मुझे घर जा कर अपने में विलीन होना पड़ेगा।’’ वह सिद्धान्त की नजर से दुनिया को देखने की अपेक्षा अनुभव की कसौटी पर सिद्धान्त को कसने तथा विचारों को आचारों में परिणित करने के हिमायती रहे। यही है ज्ञान निर्माण या सृजन की प्रक्रिया। ज्ञान अनुभव से ही शुरू होता है। ज्ञान के सिद्धान्त का भौतिक रूप यही है। जब व्यक्ति अनुभवों से सीखना छोड़ देता है, उस में जड़वाद आ जाता है। कितनी महत्वपूर्ण बात कही है उन्होंने, आज तमाम शिक्षाविद् इसी बात को तो कह रहे हैं ‘‘यह सही है कि प्रयोगों में गलती हो सकती है। भूलें हो सकती हैं। किंतु उसके बिना चारा नहीं है। यह भी सही है कि कुछ लोग अपने प्रयोगों से इतने मोहबद्ध होते हैं कि उसमें हुई भूलों से इंकार करके उन्हीं भूलों को जारी रखना चाहते हैं। वे अपनी भूलों से सीखना नहीं चाहते हैं। अतः वह जड़वादी हो जाते हैं।’’ पर इस का अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि मुक्तिबोध प्रयोग और अनुसंधान के नाम पर अब तक मानव जाति को प्राप्त ज्ञान का अर्थात सिद्धांतों से इंकार करते हों। उनका स्पष्ट मानना था, ‘‘इसका अर्थ यह कि बदली हुई परिस्थिति में परिवर्तित यथार्थ के नए रूपों का, उन के पूरे अंतःसंबंधों के साथ अनुशीलन किया जाए उनको हृदयगंम किया जाए।’’ आज इसे ही सीखने का सही तरीका माना जा रहा है। वास्तविक अर्थों में सीखना इसी तरह होता है। यही सीखना स्थाई होता है। सीखने का मतलब कुछ जानकारियों को रट देना नहीं है। सीखना तो व्यवहार में परिवर्तन का नाम है। ऐसा परिवर्तन जो  चेतना को अधिकाधिक यथार्थ संगत बना दे, जिस के लिए मुक्तिबोध अतिशय संवेदनशील, जिज्ञासु तथा आत्म-निरपेक्ष मन की आवश्यकता पर बल देते हैं। वह अनुभवों से सीखने की ही नहीं बल्कि अनुभव-सत्य को जन तक पहुंचाने की बात भी कहते हैं-

तब हम भी अपने अनुभव
सारांशों को उन तक पहुंचाते हैं जिस में
जिस पहुंचाने के द्वारा हम, सब साथी मिल
दंडक वन में से लंका का पथ खोज निकाल सकें। (‘भूरी-भूरी खाक धूल’)

देखा जाय तो यही शिक्षा का असली उद्देश्य भी है। यदि शिक्षित होने पर हम जनहित में कुछ कर नहीं पाए तो उसकी क्या सार्थकता है?

आज शिक्षण में ‘पीयर लर्निंग’ पर बहुत बल दिया जा रहा है। एन. सी. एफ. 2005 में कहा गया है कि सहभागितापूर्ण सीखना और अध्यापन, पढ़ाई, भावनाएं एवं अनुभव को कक्षा में एक निश्चित और महत्वपूर्ण जगह मिलनी चाहिए। सहभागिता एक सशक्त रणनीति है। यह माना गया है कि समूह में या अपने साथियों से सीखना अधिक अच्छी तरह से होता है। उक्त दस्तावेज इसके पीछे यह तर्क देता है कि जब बच्चे और शिक्षक अपने व्यक्तिगत या सामूहिक अनुभव बांटते हैं,  उन पर चर्चा करते हैं और उन में परखे जाने का भय नहीं होता है,  तो इससे उन्हें उन लोगों के बारे में भी जानने का अवसर मिलता जो उनके सामजिक यथार्थ का हिस्सा नहीं होते। इससे वे विभिन्नताओं से डरने के बजाय उन्हें समझ पाते हैं। कुछ इसी तरह की बात मुक्तिबोध अपने एक निबंध समीक्षा की समस्याएंमें लिखते हैं- ‘‘जहां तक वास्तविक ज्ञान का प्रश्न है- वह ज्ञान स्पर्द्धा त्मक प्रयासों से नहीं, सहकार्यात्मक प्रयासों से प्राप्त और विकसित हो सकता है।’’ यह अच्छी बात है कि मुक्तिबोध प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्द्धा  को नकारते हैं। हो भी क्यों न! यह एक पूँजीवादी मूल्य है और मुक्तिबोध समाजवादी समाज के समर्थक रहे। प्रतिस्पर्द्धा  से कभी भी एक समतामूलक या सहकारी समाज नहीं बन सकता है। सब को साथ लेकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति ही एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकती है।

सीखने के लिए स्वतन्त्रता और भयमुक्त वातावरण का होना बहुत जरूरी है। दबाव या भय में कुछ भी सीखना संभव नहीं है। स्वतन्त्रता बच्चे को चिंतन और उसे सृजन के लिए प्रेरित करती है। बच्चे में सृजनशीलता के विकास के लिए स्वतन्त्रता का होना पहली षर्त है। कुछ इसी तरह की बात मुक्तिबोध भी कहते हैं- ‘‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य कला के लिए, दर्शन के लिए, विज्ञान के लिए अत्यधिक आवश्यक और मूलभूत है। कोई भी सृजनशील प्रक्रिया उसके बिना गतिमान नहीं हो सकती।’’ मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक हैं। उनका मानना है कि भले ही यह एक आदर्श है फिर भी मानव की गरिमा और मानवोचित जीवन प्रदान करने के लिए बहुत जरूरी है। यह जनता के जीवन और उसकी मानवोचित आकाक्षांओं से सीधे-सीधे जुड़ा है। कोई भी सृजनशील प्रक्रिया उसके बिना आगे नहीं बढ़ सकती है। यह सच भी है। हम अपने चारों ओर अतीत से लेकर वर्तमान तक दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि दुनिया में जितने भी बड़े सृजन हुए हैं, वे सभी किसी न किसी स्वातन्त्र-व्यक्तित्व की देन हैं। इन व्यक्तित्वों को यदि सृजन की आजादी नहीं मिली होती तो इतनी बड़ी उपलब्धि उनके खातों में नहीं होती। हर सृजन के मूल में स्वतन्त्रता ही है। मुक्तिबोध इस बात को बहुत गहराई से समझते हैं। 
  
इस प्रकार ज्ञान की बदली अवधारणा और बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से विष्लेशण करें तो हम पाते हैं कि मुक्तिबोध का चिंतन बहुत तर्कसंगत और प्रगतिशील है। इसमें शिक्षा और मनोविज्ञान को ले कर उनकी  गहरी समझ परिलक्षित होती है। एक लोकतान्त्रिक और वैज्ञानिक सोच से लैस समाज बनाने की दिशा में उनका यह चिंतन बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। आज जब ज्ञान को एक खास तरह के खांचे में फिट करने और तैयार माल की तरह हस्तांतरित करने की कोशिश हो रही है मुक्तिबोध के ये विचार अधिक प्रासंगिक हो उठते हैं।

महेश चन्द्र पुनेठा

संपर्क-
महेश चंद्र पुनेठा
शिव कालोनी,
न्यू पियाना,
पो. डिग्री कालेज,
जिला-पिथौरागढ़ 262502

मोबाईल- 9411707470

शेखर जी का संस्मरण ‘सेल्‍यूलाइड पर अंकित अमरकांत का स्मृति-शेष’

 

अमरकांत जी

अमरकान्त जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में नगरा कसबे के पास स्थित भगमलपुर नामक गाँव में 01 जुलाई 1925 को हुआ था. इनका वास्तविक नाम श्रीराम वर्मा था. इनके पिता सीताराम वर्मा वकील थे. इनकी माता अनंती देवी एक गृहिणी थी. बलिया से ही अमरकान्त जी ने हाईस्कूल की परीक्षा पास किया. 1942 में भारत छोडो आन्दोलन शुरू हो जाने पर अपनी इण्टरमीडिएट की पढाई छोड़ कर ये आन्दोलन में कूद पड़े. अमरकान्त जी ने फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी. ए. किया. और उसके पश्चात आगरा से अपने लेखन और पत्रकार जीवन की शुरुआत किये. इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिकामनोरमा के सम्पादन से अमरकान्त जी एक अरसे तक जुड़े रहे. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग चालीस वर्षों तक लेखन और सम्पादन करने के पश्चात अमरकान्त जी इन दिनों स्वतन्त्र रूप से लेखन कर रहे थे और बहावनामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे. जिन्दगी और जोंक‘, ‘देश के लोग‘, ‘मौत का नगर‘, ‘मित्र मिलन और अन्य कहानियाँ‘, ‘कुहासा‘, ‘तूफ़ान‘, ‘कलाप्रेमी‘, ‘एक धनी व्यक्ति का बयान‘, ‘सुख और दुःख का साथ‘, ‘जाँच और बच्चेइनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं. इसके अतिरिक्त इनकी प्रतिनिधि कहानियाँऔर सम्पूर्ण कहानियोंका भी प्रकाशन हो चुका है. कुछ यादें और बातेंएवं दोस्ती इनके प्रख्यात संस्मरण पुस्तकें हैं. अमरकान्त जी ने उपन्यास भी लिखे जिसमें सूखा पत्ता‘, ‘कंटीली राह के फूल‘, ‘सुखजीवी‘, ‘काले-उजले दिन‘, ‘ग्रामसेविका‘, ‘बीच की दीवार‘, ‘सुन्नर पांडे की पतोह‘, ‘आकाशपक्षी‘, ‘इन्हीं हथियारों से‘, ‘लहरें‘, ‘बिदा की रातप्रमुख हैं.इन्हीं हथियारों सेउपन्यास पर अमरकान्त जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया जबकि इनके समग्र लेखन पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया. अमरकान्त जी ने कुछ महत्वपूर्ण बाल साहित्य की भी रचना की जिसमें नेउर भाई‘, ‘बानर सेना‘, ‘खूंटा में दाल है‘, ‘सुग्गी चाची का गाँव‘, ‘झगरू लाल का फैसला‘, ‘एक स्त्री का सफ़र‘, ‘मंगरी‘, ‘बाबू का फैसला‘, और दो हिम्मती बच्चेप्रमुख हैं. मार्कंडेय और शेखर जी के साथ अमरकांत जी ने इलाहाबाद में रहते हुए नयी कहानी आन्दोलन की वास्तविक त्रयी बनायी. 17 फरवरी 2014 को अमरकान्त जी का इलाहाबाद में निधन हो गया.
प्रख्यात कथाकार शेखर जोशी अमरकांत के अनन्य मित्रों में से रहे हैं. शेखर जी ने हमारे अनुरोध पर अनहद के एक अंक के लिए अमरकांत पर एक संस्मरण लिखा था. आँखों की दिक्कत की वजह से शेखर जी ने यह संस्मरण हमारे मित्र अनुराग शर्मा को लिखवाया था. आज अमरकांत की पुण्य-तिथि पर पहली बार हम प्रस्तुत कर रहे हैं यह संस्मरण. 
     

सेल्‍यूलाइड पर अंकित अमरकांत का स्मृति-शेष

शेखर जोशी  
मैं सितंबर 1955 में अपनी पहली नियुक्‍त‍ि पर इलाहाबाद पहुंचा था। तब अमरकांत वहाँ नहीं थे। न जाने कैसे मेरा परिचय कहानीकार ज्ञान प्रकाश जी से हो गया। अमरकांत से तब मैं परिचित नहीं था- न उनके व्‍यक्तित्‍व से न उनके लेखन से। उम्र में वह मुझ से सात साल बडे़ थे, लेकिन हम लोगों का लेखन करीब-करीब साथ-साथ हुआ। और भैरव प्रसाद गुप्‍त के संपादन में निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के माध्‍यम से, अश्‍क द्वारा संपादित साहित्‍य संकलन ‘संकेत’ के माध्‍यम से और अमृतराय तथा बाल कृष्‍ण राव द्वारा संचयित हंस के साप्‍ताहिक संकलन से साहित्‍य जगत में हम लोगों की पहचान बनी थी। 
आदमी कब और कहाँ मिलता है, शायद उसका भी अपना असर होता हो। अमरकांत से मेरी पहली मुलाकात ज्ञान प्रकाश जी के डेरे पर गुड़ की मंडी चौक इलाहाबाद में हुई थी और वो मिठास आज तक बनी रही। फिर हम लोग वर्षों से करेला बाग कालोनी में पड़ोसी बन कर रहे। तब वह ‘कहानी’ पत्रिका में भैरव जी के सह-संपादक के रूप में काम करने लगे थे। मैं शटल ट्रेन से प्राय: सोलह-सत्रह किलोमीटर दूर अपने औद्योगिक प्रतिष्‍ठान में आता-जाता था। शाम को स्‍टेशन में गाड़ी से उतरने के बाद मैं सिविल लाइन चला जाता और भैरव जी, अमरकांत और मैं, प्राय: रोज ही मार्कण्‍डेय भी वहाँ पहुंच जाते।
इलाहाबाद के प्रारंभिक दिनों का एक रोचक प्रसंग जिस में अन्‍यत्र विस्‍तार से लिख चुका हूँ, वह अमरकांत की कविवार सुमित्रा नंदन पन्त से पहली मुलाकात का है।
पहली बार इलाहाबाद पहुंचने पर पत्रकार जयदत्‍त पन्त जी के समकक्ष सुमित्रा नन्दन पन्त जी से मिलने की अपनी इच्‍छा प्रकट की थी। जयदत्‍त जी मुझे उनसे मिलाने ले गए थे और धर्मयुग कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्‍कार प्राप्‍त मेरी कहानी का सन्दर्भ देते हुए मेरा परिचय दिया था। मैंने अपने गांव की कौसानी से भौगालिक निकटता को रेखांकित करने का भी प्रयत्‍न किया था। जिसे पन्तजी ने बहुत महत्‍व नहीं दिया। लेकिन अजमेर में हमारे रिश्‍तेदार एक पर्वतीय परिवार के बारे में बहुत आत्‍मीयता से उन्‍होंने बातें की थीं। मैं आश्‍वस्‍त था कि पन्तजी से मेरा आत्‍मीय परिचय हो गया है। हमें विदा करते हुए उन्‍होंने फिर आने के लिए भी कहा था।
अमरकांत जब बीमारी के बाद इलाहाबाद आए और श्रीराम वर्मा की जगह उनका ‘डिप्‍टी कलेक्‍टरी’ के कारण अमरकांत के रूप में अवतार हुआ तो जयदत्‍त जी से सुमित्रा नंदन पन्त जी से‍ मिलने की अपनी इच्‍छा प्रकट की। मैंने जोर देकर कहा, ‘अरे, आप को मैं ले जाऊंगा। पन्त जी से मेरा अच्‍छा परिचय है।’ फिर एक दिन हम दोनों पन्त जी से मिलने उनके घर पहुँचे। मैंने अमरकांत जी का परिचय देते हुए ‘कहानी’ पत्रिका द्वारा उनकी कहानी ‘डिप्‍टी कलेक्‍टरी’ का सन्दर्भ देते हुए उनका परिचय दिया। पन्तजी ने बताया कि श्रीपत जी उन्‍हें फोन किया था और कहानी विशेषांक भेजने का आश्‍वासन दिया था। वह पत्रिका की उत्‍सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। फिर कुछ इधर-उधर की बातें हुईं और अन्त में अमरकांत से मेरा परिचय जानने की अपनी इच्‍छा प्रकट की। मेरी अजीब स्थिति थी। लौटते हुए मैं बुझा-बुझा सा चल रहा था। अमरकांत ने मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए टिप्‍पणी की, ‘तो तुम्‍हारे रिश्‍तेदार पन्त जी ने आज तुम्‍हें नहीं पहचाना।’
’कहानी’ की साहित्यिक प‍त्रकारिता से पहले अमरकांत ‘सैनिक’ तथा ‘अमृत’ पत्रिका, शायद ‘भारत’ समाचार पत्रों में काम कर चुके थे। लेकिन एक साहित्यिक पत्रिका में काम करने का जो सुख मिलता था, उसे वह कभी-कभी हम लोगों से भी बाँट लेते थे। जैसे, एक शाम उनसे भेंट होते ही उनके मुंह से निकला- ‘छुटकी भौजी बेंगन को टेंगन क्‍यों कहेंगी।’ वह प्रतिमा लाल नाम की नई कहानी लेखिका की प्रकाशनार्थ आई कहानी का पहला वाक्‍य था। इस वाक्‍य में आकर्षण के साथ ही कहानी के प्रति पाठक की जिज्ञासा बढ़ती गई। युवोचित उत्‍साह में कहानी पढ़ कर मैंने प्रतिमाजी को पत्र लिखा था। और शायद चुपके-चुपके अमरकांत ने भी उन्‍हें प्रशंसा पत्र भेजा था। प्रतिमा जी ने मेरे पत्र का उत्‍तर तो नागार्जुन जी के हाथ भेज दिया, लेकिन अमरकांत का पत्र अनुत्‍तरित रहा। ऐसा बहुत दिनों बाद उन्‍होंने रहस्‍य खोला।  
ज्ञान प्रकाश हम दोनों के साझा मित्र थे। उन्‍होंने मुझे इलाहाबाद के सब छुटभैया लेखकों से मिलवाया, लेकिन स्‍थापित लेखकों के प्रति उनके मन में न जाने क्‍या एक दुर्वासा भाव रहता था।
‘अमृत’ पत्रिका में संपादन काल में ही अमरकांत के अभिन्‍न मित्र जय दत्‍त पन्त 23 क्‍लाइव रोड के एक पुराने बंगले में, जिसकी खपरैल की छत थी और जिस में बिजली नहीं थी, रहा करते थे। बीमारी के बाद लौटने पर श्रीराम वर्मा अमरकांत बनने से पूर्व पन्त जी के साथ रहने लगे थे। मैं अपने सहपाठियों के साथ जो दिल्‍ली से साथ आए थे, मधुवापुर में डिप्‍टी साहब के बंगले के एक खंड में मैस में रहता था। लेकिन शनिवार की शाम मैं भी क्‍लाइव रोड चला आता। यहीं मैंने अमरकांत से सद्य: लिखित उपन्यास ‘सूखा पत्‍ता’ को सुनाने का आग्रह किया था। ‘सूखा पत्‍ता’ सुनने की यह घटना बड़ी रोचक और कष्‍टमयी रही। हुआ यूं था कि एक दिन जयदत्‍त पन्तजी ने बताया कि वह घर के बाहर मैदान में चारपाई डालकर सोए हुए थे। बंगले के सामने र्इसाईयों का लंबा कब्रिस्‍तान फैला हुआ था, जिसकी आखिरी सीमा मिंटो रोड तक पहुंचती थी। कब्रिस्‍तान के एक कोने पर घर के सामने पीपल का एक बहुत बड़ा पेड़ था। पन्त जी ने बताया कि लोग कहते थे कि उस पीपल में भूतों का डेरा रहता है। उस रात जब वह सोए हुए थे तो उनकी नींद उचट गई। उन्‍हें लगा कि सिर के नीचे तकिये में हड्डियां खड़खड़ा रही हैं। वह उठे, उन्‍होंने बिस्‍तर को झाड़-झूड़ कर सोने का यत्‍न किया। लेकिन ज्‍यों ही उन्‍हें झपकी आई, तकिये में फिर वही खड़खड़ाहट शुरू हुई। अन्त में हार कर वह चारपायी उठाकर अन्दर आ गए और सो गए। दिन में यह किस्‍सा सुना कर पन्त जी अखबार की नाइट ड्यूटी पर चले गए थे। शनिवार की रात थी। मैं और अमरकांत अगल-बगल सोए थे। जब अमरकांत बाते करते-करते सो गए तो मुझे पन्त जी की कही हुई बात याद आई और पीपल के भूतों का ध्‍यान आने लगा। मैंने अमरकांत को जगा कर पूछा कि आपकी ‘सूखा पत्‍ता’ की पांडुलिपि कहाँ है। अपने पहले उपन्यास के लिए एक उत्‍सुक श्रोता पा कर उनकी भी नींद दूर हो गई। तब तक शायद उन्‍हें कोई श्रोता नहीं मिला था। उन्‍होंने उत्‍सुकता से पूछा, ‘सुनोगे।’ मेरे द्वारा हामी भरे जाने पर उन्‍होंने फटाफट लैंप जलाया और संदुकची से पांडुलिपि निकाल कर पढ़ने लगे। वह सुनाते और मैं हुंकारी भरता। एक अध्‍याय पूरा हुआ, दूसरा अध्‍याय पूरा हुआ। अमरकांत सुनाने में तल्‍लीन थे। तीसरा अध्‍याय शुरू होते-होते मुझे नींद ने आ घेरा, लेकिन अमरकांत सुनाए चले जा रहे थे। जब उन्‍हें आभास हुआ कि वह स्‍वयं अपने पाठ के एकाकी श्रोता रह गए हैं, तो उन्‍होंने खीज कर मुझे झिकझौड़ कर पूछा, ‘तुम सो गए।’ यह किस्‍सा दूसरे दिन मैंने पन्त जी को सुनाया तो वह खूब हँसे और अमरकांत का गुस्‍सा देखने लायक था।

       
इसी क्‍लाइव रोड में अमरकांत के रहते हुए मोहन उप्रेती, अल्‍मोड़ा से अपने ‘लोक कलाकार संघ’ का दल लेकर प्रदर्शन के लिए इलाहाबाद आए थे। दल के सदस्‍यों में मोहन उप्रेती के अतिरिक्‍त उनकी बहन हेमा, नईमा खान तथा एक-दो कलाकार कन्‍याएं, सुरेन मेहता तथा दो-तीन अन्‍य कलाकार शामिल थे। अल्‍मोड़ा में जय दत्‍त पन्त जी और उप्रेती जी परिवार आसपास रहते थे। इस कारण एक घरेलूपन था। सब लोग उसी बडे़ हाल में टिके थे और खाना-पीना साथ-सा‍थ होता था। साथ ही कार्यक्रम की रिहर्सल भी चालू रहता। लड़कियों का एक कोरस जिसे वह बहुत सुमधुर कंठ से लय गाती थीं, हमें बहुत आकर्षित करता था। कोरस के बोल थे-
लयाओ लयाओ चैलियो

कुकडी का फूल, मकुडी का फूल

फूल नाहती तो पाती तोड़ लायो

लयाओ लयाओ चैलियो…
.
अमरकांत का कंठ स्‍वर बहुत सुरीला था। वह भी कोरस में अपना स्‍वर जोड़ देते थे और वह गीत उन्‍हें कंठस्‍थ हो गया था।
लड़कियों ने आग्रह किया कि वर्मा जी आप भी कोई भोजपुरी गीत सुनाओ। उन्‍होंने अनमेल विवाह का गीत सुनाया, जिसमें एक विकसित युवती अपने बालक पति के साथ ओसारे में सोई हुई है। इसमें उसकी वेदना व्‍यक्‍त होती है। गीत के बोल हैं-
सबका के देहलन शिव जी अन्‍न धन्‍न सोनवा

हमका के लरिका भतार…बनवारी हो

लरिका भतार लेके सुतनी ओसरवा

चढ़ी गई ले अग्नि से कपार … बनवारी हो

चुप रहे चुप रहे लरिका नादान

मकई में बोले ला हुंडार…बनवारी हो….
अमरकांत की गायन की मस्‍ती का आनंद होली के मौके पर सुनने को मिलता था। तब गले में ढोलक डाल कर हम लोग रंगे-पुते चेहरों के साथ पहले मिंटो रोड पहुंचते, जहाँ वरिष्‍ठ पत्रकार श्रीकृष्‍ण दास, अमरकांत जी के सहयोगी पत्रकार बाबू लाल जी, मार्कण्‍डेय, अमृतराय और ओंकार शरद रहते थे। वहाँ से वह जुलूस स्‍टेनली रोड के बंगलों की तरफ लौटता, जहाँ कविवर सुमित्रा नंदन पन्त को अबीर का टीका लगा कर संगीतकार पंचानन पाठक के घर से होते हुए हम लोग भारद्वाज आश्रम में कुमाऊंनी होलियारों दल में शामिल होते। वहाँ खड़ी होली गाई जाती, आलू के गुटके, मिठाई और चाय द्वारा जगाती जी के आथित्‍य के बाद एक-दूसरे पर अबीर-गुलाल लगाते हुए हो हो हो लकरे के होली की समाप्ति का उद्घोष करते हुए हम लोग घर लौटते।
मैं बाद में लूकरगंज आ कर रहने लगा था। अमरकांत लूकरगंज आते तो मैं उन्‍हें छोड़ने गुरुद्वारे के पास चौराहे तक जाता। विश्‍वकर्मा पूजा के दिन संगीत का अनुराग उन्‍हें घंटे लौहारों की बस्‍ती में उठ रहे भोजपुरी गायन कीर्तन के स्‍वरों से बांधे रखता। ढोलक की गमक के सा‍थ लौहे की गुल्लियों की धमक एक अद्भुत स्‍वर का वितान बुनती- ‘जय हो माता अंजनी के बारे हो ललनवॉ, दुलरे हो ललनवॉ, प्‍यारे हो दुलरवॉ…’ तथा अन्‍य भक्तिपूर्ण गीत हमें बांधे रहते।
अमरकांत के कंठ में एक अनोखा माधुर्य था। किसी अन्‍य गायक के सन्दर्भ में रेणुजी ने ऐसे स्‍वर को सुनेहरी किनारी वाला स्‍वर कहा था। याद आता है, अमरकांत का कथन कि आगरा प्रवास के दिनों में वह जब काली अचकन पहन कर पत्रकार विश्‍वनाथ भटेले के साथ प्रगतिशील लेखक मंच की बैठक में जाते थे, तो एकाध बार गजल सुना देने पर लोग उन्‍हें कोई साहित्‍य प्रेमी टेलर मास्‍टर किस्‍म का आदमी समझते थे और हर बार मीटिंग की समाप्ति पर उनसे गाना सुनाने का आग्रह किया जाता। एक दिन जब उन्‍होंने स्‍व-रचित कहानी पाठ का प्रस्‍ताव रखा और ‘इंटरव्‍यू’ कहानी सुनाई तो उनका कहानीकार व्‍यक्तित्‍व उद्घाटित हुआ।
कथाकार कामता नाथ को जब लखनऊ में ‘पहल’ सम्‍मान से सम्‍मानित किया गया तो इलाहाबाद से हम दोनों भी वहाँ पहुँचे थे। जिस भव्‍य इमारत में हमें टिकाया गया, उसकी ऊंची गुम्‍बदनुमा छत के कारण कमरे में आवाज गूँजती थी। अमरकांत कुछ गुनगुना रहे थे। सोने से पहले मैंने उनसे कुछ गा कर सुनाने का यह कह कर आग्रह किया कि इस कमरे में न जाने कितने प्रसिद्ध गायकों की वाणी गूंजी होगी, आप भी कुछ सुनाओ। उन्‍होंने अपनी एक पसंदीदा गजल-
यह घटा ऊदी-ऊदी

यह मौसम सुहाना

इलाही अब ऐसे में

तौबा बचाना… सुनाई थी। 
आज भी उस कमरे में गूंजती आवाज की स्‍मृति मन को रोमांच से भर देती है।
मेरी बड़ी इच्‍छा थी, कभी अमरकांत को अपने गांव ले जा कर वन-खंडों में गूँजती चरवाहों के गीतों के स्‍वर सुनाऊं, लेकिन स्‍वास्‍थ के कारण से यात्रा भीरू अमरकांत का उन पहाड़ी दुर्गम स्‍थलों तक जाना संभव न था।

           
करेलाबाग कालोनी में हम लोगों के सा‍‍थ-साथ संस्‍कृत के विद्वान लेखक वाचस्‍पति गैराला, रमेश वर्मा, शुभा वर्मा और मेरे साथी जगदीश भाटिया का अच्‍छा सत्‍संग रहता था। जब तक मैं सदगृहस्‍थ नहीं हो गया, आगरा से कलकत्‍ता आते-जाते राजेंद्र यादव के लिए भी मेरा क्‍वार्टर सुविधाजनक आश्रयस्‍थल रहता था। और वह दो-तीन दिन इलाहाबादी लेखकों से मिलने के बाद अपने गंतव्‍य की ओर आगे बढ़ते। मन्‍नू जी के साथ विवाह हो जाने के बाद यह दंपति एक बार करेलाबाग में अमरकांत के घर भोजन के लिए आमंत्रित हुए थे। राजेंद्र के साथ अमरकांत का आगरा से दोस्‍ताना व्‍यवहार रहा था। श्रीमती अमरकांत ने उस दिन बैंगन की कलौंजी के प्रति मन्‍नू जी की अरुचि देख कर उनसे जो हास-परिहास किया था, अविस्‍मरणीय था। भाभी कभी-कभी बहुत खुल कर भदेस मजाक कर लेती थीं। और इतने मन से बनाई हुई कलौंजी के प्रति मन्‍नू जी की अ‍रुचि न उन्‍हें यह मौक दे दिया था।  
घर में खर्च के सिलसिले में उनका हाथ हमेशा तंग रहता था, लेकिन इससे घर की रौनक में कोई फर्क नहीं पड़ता था। चाय के साथ भाभी पकौडि़यां जरूर बनातीं। उनका बनाया हुआ सादा भोजन- दाल, सब्‍जी, चावल, रोटी भी इनता स्‍वादिष्‍ट होता था कि कुछ कहा नहीं जा सकता। और उनकी बातों में तो अद्भुत मिठास होती थी। मेरा ख्‍याल है- अमरकांत की अनेकों कहानियों का आधार भाभी के स्‍मृति-कोश से निकले हुए घटना प्रसंगों पर टिका होगा।
एक घटना याद आती है- दिवाली से पहले घर की पुताई का उनका आग्रह रहता था। उस बार अमरकांत जी ने तंगदस्‍ती के कारण स्‍वयं ही कमरे की पुताई का बीड़ा उठा लिया। इस काम का पहले कभी अनुभव न होने के कारण खड़ी कुंची से रिश्‍ता हुआ, चूना उनके हाथों को भिगोता रहा। और परिणाम यह हुआ कि पुताई तो जैसे-तैसे पूरी हुई, उनके हाथ बहुत दिनों तक जख्‍मी रहे और कलम पकड़ना भी दुश्‍वार हो गया।
इलाहाबाद के दशहरे की झांकियां बहुत सज-धज के साथ निकलती हैं। देर रात से शुरू हो कर भोर तक रामदल की झाकियां चौक में घुमाई जातीं। जब तक भाभी चलने-फिरने योग्‍य रहीं, वह सुबह की झांकी देखने और फूल चढ़ाने के कार्यक्रम को निभाती रहीं। बाद में उनका बच्‍चों से आग्रह रहता कि आशीष के फूल अवश्‍य ले आएँ।
हमारे तीनों घरों अमरकांत जी का, मेरा और जगदीश भाटिया जी बहुत प्रगाढ़ता थी। भाटिया दम्पत्ति बहुत ही स्‍नेही और पति-पत्‍नी दोनों हम लोगों से छोटे थे। भाभी अकसर अपने मुंहबोले देवरों की खूब खिंचाई करती थीं। एक दिन की बात है। शायद शनिवार की शाम रही होगी। मैं और अमरकांत अपनी काफी हाउस की बैठकी से लौटे नहीं थे। मैं और जगदीश तब तक अविवाहित थे और साथ-साथ रहते थे। घर के सामने एक छोटा पार्क था। चांदनी रात में भाभी वहाँ टहल रही थीं। उन्‍हें देख कर भाटिया जी वहाँ से निकल आए और बतियाने लगे। 
दूसरे दिन जब हम सब साथ-साथ बैठे थे, भाभी ने चुटकी ली, ‘अरे भई, कल हम खाना बना इन के इंतजार में पार्क में घूम रहे थे, तो भाटिया जी आ गए। तो हमने बताया कि वह अभी नहीं आए हैं। आ जाएं तो फिर खाना खाया जाए। तो भाटिया जी बडे़ उदास स्‍वर में बोले, ‘ये भी अभी नहीं आएं हैं।’ बेचारे जगदीश भाटिया झेंप से गए।
याद आता है- गोविंदपुर मोहल्‍ले में भाभी की मृत्‍यु का समाचार पा कर हम तत्‍काल वहाँ पहुँचे और अमरकांत खोए-खोए से एकलाप कर रहे थे- ‘मकान, मकान, मकान। यही एक रट लगी रही हमेशा।’ तब तक अशोक नगर वाले निजी मकान की व्‍यवस्‍था नहीं हो पाई थी। और बार-बार मकान बदलने की परेशानी की बात और भाभी की मकान की चाहत उनके मरणोपरांत उनके मन में घूम रही थी।
+                                              +                                              +                                  +         
अपनी कहानियों से ले कर अमरकांत कभी-कभी विचित्र स्थिति में पड़ जाते थे। वह एक पारिवारिक वैवाहिक समारोह में सपरिवार किसी दूसरे शहर में पहुँचे थे। वह परिवार आर्थिक रूप से अधिक संपन्‍न था और घर आए महमानों को अपने स्‍तर के अनुकूल व्‍यवहार करने का दिशा-निर्देश देती कन्‍याओं की गतिविधियों ने अमरकांत के मन में एक कहानी के बीज रोप दिए थे। कहानी में इस विडंबनापूर्ण स्थिति का बहुत रोचक और व्‍यंग्‍यात्‍मक वर्णन हुआ था। रिश्‍तेदारों के बीच कहानी प्रकाशित होने के बाद चर्चा रही होगी।
अमरकांत बताते थे कि बाद में कई मौकों पर उन्‍हें सुनने को मिला था- ‘हम तो पढ़े नहीं। लरका लोग बता रहे थे, बड़का बाबू बहुत अच्‍छी कहानियां लिखते हैं। इनका एक ढो कहानी ‘उनका आना और जाना’ की वे लोग चर्चा करते रहे।’
अमरकांत अपने कथानकों में जो विवरण देते थे, उसके प्रति पहले स्‍वयं आश्‍वस्‍त हो लेते थे। संभवत: आगरा में रहते हुए वह एक दिन के लिए बहुत पहले नैनीताल गए थे। लेकिन उस यात्रा के अनुभव उनकी याददाश्‍त से बाहर हो गए थे। अपने उपन्यास में उन्‍हें भुवाली या किसी अन्‍य हिल स्‍टेशन का चित्रण करना था। इस सिलसिले में उन्‍होंने कवि हरीश चन्द्र पांडे और मुझसे बीसियों जानकारी लीं और तब जा कर उस अध्‍याय का लेखन प्रारंभ हुआ।
इसी तरह मुस्लिम परिवेश पर आधारित उपन्यास ‘विदा की रात’ को उन्‍होंने प्रकाशन के लिए तभी भेजा, जब एक दिन विशेष रूप से आमंत्रित डॉक्‍टर अकील रिजवी, डॉक्‍टर फातिमी और असरार गांधी को पूरा उपन्यास सुना कर उसकी भाषा और आचार-व्‍यवहार के बारे में पूरी तरह आश्‍वस्‍त न हो लिए।
यों अमरकांत बहुत पारिवारिक व्‍यक्‍त‍ि थे। हमारे बडे़ बेटे प्रतुल के जन्‍म के पश्‍चात गांव से परिवार के आ जाने के कारण नामकरण संस्‍कार पूरे विधि-विधान से संपन्‍न हुआ था। मेरे पिता जी अपने पौत्र के आगमन पर बहुत खुश थे। उनकी प्रसन्‍नता को द्विगुणित करने के लिए अमरकांत जाने कहाँ से एक शहनाई वादक को पकड़ ले आए थे। और उसकी मंगल ध्‍वनि इस समारोह को और भी गरिमा दे गई थी।
+                                              +                                              +                                  +         
इलाहाबाद शहर में एक बार एक बहुत ही अनुशासनप्रिय पुलिस कप्‍तान की नियुक्‍त‍ि हुई थी। श्री बेदी रात में दस बजे के बाद अपनी जीप से शहर की गश्‍त लगाते। आवारागर्दी करते लोगों पर उनकी विशेष दृष्टि रहती। अमरकांत आफिस के बाद कभी-कभी सीधे लूकरगंज आ जाते थे। और में जब देर रात में उन्‍हें छोड़ने घर से प्राय: एक किलोमीटर दूर नरूला रोड के चौराहे तक उनके साथ आता तो हम दुनिया-जहाँ की बाते करते रहते। बातों का सि‍लसिला खत्‍म होने को नहीं आता था। चौराहे पर पान की दुकान के सामने खडे़ हो कर अब फिर देर तक बतियाते रहते थे। ऐसी स्थिति में एक दिन सड़क के उस पार पुलिस चौकी पर तैनात दरोगा की नजर हम पर लगी रही। उसके साहब के दौरे का टाइम हो रहा था। उसने एक सिपाही को हमारी ओर भेजा। सिपाही सामने आ कर कुछ देर हमें देखता रहा। फिर बोला, ‘वैसे आप लोग शरीफ आदमी लगते हैं। दरोगा जी देर से आप को देख रहे हैं। साहब के आने का टाइम हो रहा है। अब आप चलें।’ हम लोगों के चेहरे पर शराफत उसे दिखाई दे गई, हमने इसका मन-ही-मन एहसान माना और एक-दूसरे से विदा ली।
+                                              +                                              +                                  +         
भाषणकर्ताओं के रूप में मार्कण्‍डेय, अमरकांत और मैं तीनों ही विश्‍वविद्यालय के अनुभवी प्राध्‍यापकों की तुलना में कमजोर पड़ते थे। मार्कण्‍डेय अपने भाषण के बीच-बीच में ‘तो मेरे कहने का आशय यह था कि’ टेक लगाते रहते। और अमरकांत आपनी हस्‍त मुद्राओं से अपनी बात को असरदरार बनाने की कोशिश करते। गोष्ठियों-सम्‍मेलनों के बाद अमरकांत जरूर टिप्‍पणी करते, ‘भई मार्कण्‍डेय, तुम्‍हारा आज का भाषण निम्‍न कोटि की बौद्धिकता का श्रेष्‍ठ उदाहरण था।’ या ‘शेखर का स्‍फुलिंग भाषण आज की गोष्‍ठी की महान उपलब्धि रही।’
+                                              +                                              +                                  +         
अमरकांत के साथ की गई यात्राओं में से दो यात्राएं विशेष रूप से अविस्‍मरणीय रहीं। बेटी संध्‍या के विवाह के सिलसिले में वर देखने हम लोग नासिक पहुँचे थे। हम लोग एक होटल में खाना खाने बैठे। मैंने मराठी उपन्‍यासों में वहाँ के प्रिय भोज्‍य पदार्थ श्रीखंड की बहुत प्रशंसा पढ़ी थी। कभी उसका स्‍वाद लेने का मौक नहीं मिला था। मैंने अमरकांत से कहा कि मैं आज आपको यहां की विशेष डिस खिलाता हूँ।
भोजन के बाद बैरा को दो प्‍याली श्रीखंड लाने का आर्डर दे दिया। अमरकांत ने उत्‍सुकता के साथ एक चम्‍मच श्रीखंड मुंह में डाला, जिसका खट्टा-मीठा स्‍वाद उन्‍हें पसंद नहीं आया। प्‍याली मेरी ओर सरका कर उन्‍होंने कहा कि अपनी विशेष डिस तुम ही खाओ। मैं कैसे मना करता, जबकि मैंने श्रीखंड की इतनी तारीफ कर रखी थी। हालांकि मुझे भी वह रुचिकर नहीं लगा था। लेकिन मजबूरन मुझे दोनों प्‍यालियां निपटाना पड़ीं। हो सकता है, उस होटल में उस पदार्थ की वह गुणवत्‍ता न रही हो, लेकिन घर लौट कर अमरकांत ने मेरी स्‍पेशल डिस की खूब चर्चा की।
दूसरी यात्रा मुगलसराय से आगे जमनिया नामक कस्‍बे की इसी सिलसिले में रही। भावी दामाद के पिता से बातचीत कर हम लोग रात में इलाहाबाद लौटने के लिए स्‍टेशन पहुँचे तो गाड़ी आ चुकी थी। प्‍लेटफार्म और सड़क के बीच रेल लाइनों का चौड़ा जाल बिछा हुआ था। हम लोग रिक्‍शा से उतर कर अंधेरे में लाइन पार करते हुए प्‍लेटफार्म पहुँचे तो रेल के सभी डिब्‍बों के दरवाजे बंद थे। हम हर डिब्‍बे का दरवाजा पीट कर खुलवाने की कोशि‍श की। लेकिन डिब्‍बे के अन्दर बैठे यात्रियों ने हर बार हमारी अनसुनी कर दी। गाड़ी छुटने का टाइम हो रहा था। बड़ी मुश्किल से एक डिब्‍बे का दरवाजा खुल पाया और हम अन्दर घुसे ही थे कि गाड़़ी चल पड़ी।
कुछ समय पूर्व झेली गर्इ्र दिल की बीमारी के कारण अमरकांत इस तरह हड़बड़ी में रेल लाइनें कूद-फांद कर प्‍लेटफार्म तक पहुँचे और रेल छूट जाने की आशंका के बावजूद यात्रियों द्वारा दरवाजा न खोलने की विकट परिस्थिति में पड़ने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए हमारे लिए यह यात्रा एक दुस्‍वप्‍न सी बनी थी।
एक बार हम उनके गृह-नगर बलिया भी साथ-साथ गए थे। शहर की संरचना में सिविलि लाइन वाला इलाका बहुत आधुनिक ढंग का बना हुआ था। चौक का वह स्‍थल भी अमरकांत ने दिखाया, जहाँ 1942 में तिरंगा फहराते हुए लोग पुलिस की गोलियों का शिकार हुए थे। वहीं स्‍टील की पेटियों की एक दुकान में स्‍थानीय स्‍वयंभू संगीत सम्राट देबकी चाचा से हमें मिलाना भी अमरकांत न भूले। जिनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह हर वर्ष अपने नाम के आगे एक नई उपाधि स्‍वयं ही जोड़ लेते थे। समयाभाव के कारण हम उनके संगीत का आनंद नहीं ले सके।
+                                              +                                              +                                  +         
श्री रवींद्र कालिया ने इलाहाबाद में अपना प्रेस खोलने के बाद प्रति वर्ष किसी साहित्‍यकार पर ‘वर्ष’ नाम की पुस्‍तकाकार पत्रिका निकालने का निश्‍चय किया था। वर्ष-1 अमरकांत पर केंद्रित रहा। वर्ष-2 संभवत: नागार्जुन पर प्रकाशित होना था, जो किन्‍हीं कारणों से फिर संभव नहीं हुआ। वर्ष-1 के लिए भैरवप्रसाद गुप्‍त और मार्कण्‍डेय को भी अमरकांत पर लिखने के लिए रवींद्र कालिया ने आमंत्रित किया था, लेकिन उनका सहयोग नहीं मिल पाया। मेरे संस्‍मरण ‘जरी गई ले ऐरी से कपार’ की व्‍याख्‍या मित्रवत विश्‍वनाथ त्रिपाठी ने लोगों की अमरकांत के प्रति ईर्ष्‍या भावना को लक्षित करने से की थी, जो सही नहीं था। रवींद्र कालिया बहुत अग्रसिव ढंग से अमरकांत को पैरोकार बनने की मुद्रा में रहते थे अन्‍यथा अमरकांत के प्रति भैरव जी व मार्कण्‍डेय सदा सहायक और आत्‍मीय रहे।
+                                              +                                              +                                  +         
दिसंबर 1960 में कानपुर में चंद्रकला जी से मेरा विवाह संपन्‍न हुआ था। विवाह उत्‍सव में शामिल होने के लिए इलाहाबाद से भैरव जी, मार्कण्‍डेय, अमरकांत, वाचस्‍पति गैरोला तथा जगदीश भाटिया पहुँचे थे। बारात में अमरकांत को अच्‍छे वस्‍त्रों में सजा कर ले जाने की सद्इच्‍छा से स्‍नेही जगदीश भाटिया ने अपना एक जोड़ा गरम कोट-पेंट अमरकांत को पहना दिया था। अब आलम यह था कि भोजन करते या नाश्‍ता करने अन्‍न एक दाना भी उन कपड़ों पर गिरता तो जगदीश भाटिया तत्‍काल हाथ से झाड़ कर सफाई करने का उद्धत रहते। विवाह के बाद इलाहाबाद लौटने पर अमरकांत जी ने कोट-पेंट उतार कर उन्‍हें सौंपते हुए बहुत धन्‍यवाद दे कर कहा, ‘लो भई, अपना सूट संभालो। मैंने ज्‍यादा गंदा नहीं किया है।’
+                                              +                                              +                                  +         
अपने छह (या सात) भाइयों में अमरकांत ज्‍येष्‍ठ थे। दूसरे नंबर पर राधेश्याम वर्मा उर्फ केदार बाबू की तुलना यदि मैं प्रसिद्ध चित्रकार वान गोग के भाई थियो से करूं तो अतिश्‍योक्‍ति नहीं होगी। केदार बाबू उनकी प्रतिभा को पहचानते और उसकी कद्र करते थे। वह स्‍वयं बौद्धिक व्‍यक्ति थे और बडे़ अधिकारी थे। लेकिन अपने भाई के प्रति ही नहीं, उनके मित्रों के प्रति भी वह इतनी आत्‍मीयता और आदर-भाव प्रदर्शित करते थे कि कभी-कभी संकोच होने लगता था। अमरकांत अपनी रचनाओं पर उनकी सम्‍मति का बहुत महत्‍व देते थे।
+                                              +                                              +                                  +         
भाभी कभी घरेलू परिस्थितियों के कारण अपने मायके या बलिया न जा पाने पर दुख प्रकट करतीं। एक दिन ऐसी ही बातें हो रही थीं कि मेरी पत्‍नी ने उनसे आग्रह किया कि वह कुछ दिन के लिए घर हो आएं। वर्मा जी की चिंता न करें। वह हमारे साथ कुछ दिनों लुकरगंज में रहेंगे।
अमरकांत के लूकरगंज प्रवास के दौरान मैंने उन्‍हें कन्‍टोमेंट क्षेत्र के मैकफर्सन लेक की ओर घुमा लाने का प्रस्‍ताव किया। अमरकांत सहमत हो गए। और मैं अपनी मोपेड पर बैठा कर उन्‍हें प्राय: पांच किलोमीटर दूर उस रमणीक स्‍थल की ओर ले गया। घर लौटने पर उन्‍होंने अपनी कमीज उठा कर नंगी पीठ दिखाते हुए मुझ से पूछा कि उनकी रीढ़ की हड्डी में मुझे कोई खराबी तो नहीं दिख रही है। मैं देख कर दंग रह गया। रीढ़ की हड्डी की एक गुरिया किंचित खिसकी सी मुझे लगी। डॉक्‍टर को दिखाया गया और उनको पूरी तरह आराम करने की डॉक्‍टर ने हिदायत दी। निश्‍चय ही मोपेड में चलते हुए झटकों से उन्‍हें मैकफर्सन लेक जाते हुए भी पीड़ा हुई होगी, लेकिन मेरे उत्‍साह को देखते हुए वह तब कुछ नहीं बोले थे। और घर लौटने पर ही अपनी परेशानी व्‍यक्‍त की।
+                                              +                                              +                                  +         
जिंदगी में हम लोगों का 56 वर्ष का साथ रहा। न जाने कितनी खट्टी-मीठी स्‍मृतियां इस काल खंड से जुड़ीं। जब मैं 2012 में चंद्रकला जी के देहांत के बाद बच्‍चों के साथ लखनऊ में आ कर रहने लगा, तो जब भी इलाहाबाद जाता तो उनसे मिलने होता था। घंटों बात करने के बाद भी मैं जब लौटने की तैयारी करता तो वह आग्रह करते, ‘अरे, अभी थोड़ी देर और रुको।’
जब संजय अमरकांत पर डाक्‍यूमेंटरी बना रहे थे, तब इनके इरादे भांपते हुए मैंने आग्रह किया था कि अमरकांत को नाव पर मत चढ़ाना, क्‍योंकि तुम्‍हारे अति उत्‍साह से कहीं दुर्घटना न हो जाए। लेकिन संजय कहाँ मानने वाले थे और अमरकांत जी का उत्‍साह भी कम न रहा होगा कि वह बकायदा संगम में नाव की सवारी कर इंटरव्‍यू देते रहे और एक गाना भी गाया। अब सेल्‍यूलाइड पर उनकी यही स्‍मृति शेष रह गई है।


शेखर जोशी

निर्मला तोदी के कविता संग्रह ‘सड़क मोड घर और मैं’ के लोकार्पण कार्यक्रम की एक रपट

निर्मला तोदी की कविताएँ हम पहले भी ‘पहली बार’ ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं। निर्मला की कविताएँ प्रायः ऐसे विषयों को ले कर होती हैं जिनके बारे में और लोग बात नहीं करते। एक अलग किस्म की कल्पनाशीलता उन्हें औरों से अलगाती है। अभी हाल ही में कवयित्री निर्मला तोदी का एक कविता संग्रह सड़क मोड घर और मैं वाणी प्रकाशन से आया है। इसका लोकार्पण कोलकाता में वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह ने किया। इस लोकार्पण कार्यक्रम की एक रपट आपके लिए प्रस्तुत है। 
   
लोकार्पण सड़क मोड घर और मैंकाव्य-संग्रह

हमारे समय की संभावनाशील कवयित्री है निर्मला तोदी : केदार नाथ सिंह

 

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित निर्मला तोदी के दूसरे कविता संग्रह  ‘सड़क मोड घर और मैं का लोकार्पण 22 जनवरी को  भारतीय भाषा परिषद में किया गयाकार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि केदार नाथ सिंह ने कहा कि निर्मला तोदी का यह काव्य संग्रह अनोखी कल्पनाशीलता के लिए जाना जाएगाइनका संग्रह पहले संग्रह से अलग है क्योंकि इधर इनकी कुछ कहानियाँ भी आई हैं और कहानियों के साथ नयी भाषा  आई है, उस भाषा का असर इस संग्रह में भी है, ये केवल कवि की भाषा नहीं है एक गद्यकार की भाषा भी है जिसमे परिष्कार है निखार हैइनकी छोटी-छोटी कविताएं बारीकी से लिखी गयी कविताएँ हैंछोटी कविताओं का एक एलबम है उसमे एक मार्के की चीज है, छोटी कविता की अंतिम पंक्ति में वे एक टिप्पणी करती हैं जहां कविता अचानक एक नए धरातल पर पहुँच जाती हैमैं अपने से पूछता हूँ ऐसा क्या होता है जो एक कवि को विलक्षण  बना देता हैयूनिक बना देता हैऐसा कुछ जरूर होता होगा, मैं सोचने लगा इसमे नया क्या है? जो सिर्फ निर्मला तोदी का है, मेरा ध्यान गया एक ऐसी कविता पर कान तुम ही कहोपर। एक अच्छी कविता, एक बिलकुल नयी कविता, जो इस कवि ने लिखीएक नयी कल्पना जो इस कवि ने की   इसमें कवि कान से बातें करता है, अपने कान से, किसी और के कान से नहीं और वो विलक्षण बातचीत है इस संग्रह पर बात करते हुए कवि ने कहा ऐसे समय में जब कविता एक दुर्लभ चीज़ हो गयी है कविता को बचाने में थोड़ा सा योगदान  यह संग्रह देता है
आलोचक प्रोफ़ेसर शंभु नाथ जी ने कहा कि निर्मला तोदी की कविताओं में स्त्री की खामोशी ही प्रतिरोध की आवाज़ है। टेक्नोलोजी  अगर पैर है तो कविता आँखटेक्नोलोजी कविता और मनुष्यता के बगैर सभ्यता को प्रगति की ओर नहीं ले जा सकतीडॉक्टर राज श्री शुक्ला ने कहा कि निर्मला तोदी की कविताएं अनुभूति की कविताएं हैंजो अपनी परंपरा और संवेदनाओं से जुड़ी हैंआज मूल्यों के क्षरित होने का युग है, इस युग में मूल्यों को बचाए रखना इस बात पर निर्भर करता है कि हम समाज के बीच संवेदनाओं  को कितना बचाए रखते हैं इनकी कविता है लोहे का ट्रंकस्त्री लोहे के ट्रंक में जब अनुभूतियों, अनुभवों, संवेदनाओं को संभाल कर रखती है उसमें इतिहास में अपना नाम दर्ज करने की कोशिश नहीं करती बल्कि इतिहास बनाए रखती हैइसलिए लोहे का ट्रंक स्त्री हृदय के इतिहास का ट्रंक है, स्त्री का हृदय हैइस संग्रह में स्रष्टा को ले कर, कला को ले कर, बहुत सी विचार उत्पन्न करने वाली कविताएँ  हैंजिन में बहुत से सूत्र वाक्य कहे गए हैंइस संग्रह की विशेषता है सहजता, लगातार एक सकारात्मक एप्रोच है संघर्ष के बीच भी सभी प्रकार की नकारात्मकता को झाड़ते हुए सकारात्मकता सौंप देने की जद्दोजहद दिखाई  देती हैयहाँ  वाक संयम के साथ की गयी प्रतिरोध की आवाज हैईमानदारी इस संग्रह को विशिष्ट बना देती है जहाँ कोई बड़ी-बड़ी दावेदारी नहीं हैवेद रमन पांडे ने कहा कि निर्मला तोदी की कविताओं में एक स्त्री की संवेदना मैं से होते हुए पर की बेचैनी को भी शामिल किए हुए हैइस पूरे कविता संग्रह से गुजरते हुए उस स्त्री से उस स्त्री मन से उसके अनुभव से उमड़ते-घुमड़ते विचारों से आपकी मुकम्मल भेंट होगीइसका शीर्षक सड़क मोड घर और मैं संग्रह पढ़ते हुए क्रम को उलट दीजिये, सब से पहले मैं इन कविताओं के केंद्र में है, इसके बाद घर है पेड़ है प्रकृति हैनिर्मला जी ने ख़ुद रेखांकित किया है कि सबसे कठिन होता है अपने भीतर उतरनाएक स्त्री जब भीतर उतरती है उसे क्या क्या मिलता है उसने क्या क्या पाया, वही संचित राशि इन कविताओं में हैइनकी प्रकृति पर लिखी कविताएँ ध्यान खींचती हैनिर्मला जी एक अनुभव सिद्ध स्त्री के जीवन  को हमारे सामने पूरे विस्तार और गहराई के साथ लाती हैविन्यास की दृष्टि से कलात्मक रचाव की दृष्टि से अत्यंत अच्छी कविताएं हैं युवा कवि विमलेश त्रिपाठी ने कहा कि इनकी कविताएं अतिवाद से मुक्त सहज और संप्रेषणीय हैजो आमजन की संवेदना के निकट हैइस अवसर पर पलक और सलोनी  ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत कीइस लोकार्पण समारोह में कुसुम खेमानी, कवि शैलेंद्र, अभिज्ञात, नीलकमल, राज्यवर्धन, आशुतोष, निशांत,  मृत्युंजय, संजय राय, वरुण कुमार,  विजय गौड़, रितेश पांडे, मनोज  झा, सुषमा त्रिपाठी, संजय जयसवाल सहित भारी संख्या में साहित्य प्रेमी उपस्थित थेकार्यक्रम का सफल संचालन ममता पांडे और धन्यवाद ज्ञापन किशन तोदी ने किया। 
निर्मला तोदी की एक कविता

 

कान! तुम ही कहो

आज मुझे अच्छा लग रहा है
बहुत–बहुत अच्छा
मैंने अपने कान से बातें की
जिनसे आज तक कभी नहीं की
मैंने कहा-
सुनो, तुम मेरे हो
आज मेरी सुनो
दुनिया भर की सुनते हो
आज मेरी सुनो
जो मैं सुनना चाहती हूँ
वही सुना करो
सामने तरह-तरह के भोजन पड़े हो
मेरा स्वाद वही खाता है
जो खाना चाहता है
अगर कुछ और खाना पड़ भी जाए तो
दवा की तरह गटक जाता है
मेरा नाक कचरे के ढेर से
दूर रहना जानता है
तुम क्यों कचरे का डब्बा बन बैठे हो
सुन लेते हो सब कुछ
तुम्हें मालूम है
तुम्हारा सुना– मेरी कोशिकाओं में
मेरी ग्रंथियों में जम जाता है
फिर दुखता है
बहुत दुखता है
बार-बार दुखता है
पिघल कर बह नहीं जाता
आंसुओं के साथ भी नहीं
मत पहुंचाया करो उसे भीतर तक
प्लीज़…
डरावना और वीभत्स देख कर
आँखें बंद हो जाती है ना
अपने आप
क्या आग को उठा लेते हैं हाथ
हाथों में
फिर तुम क्यों सुन लेते हो सब कुछ
जो बोलता है
अपनी जुबान से बोलता है
अपनी बातें
अपनी मनपसंद बातें
अपनी सोच से बोलता है
ठीक है ज़्यादातर बिना सोचे ही बोलता है
तुम क्यों नहीं सिर्फ वही सुनते
जो तुम्हें पसंद है
सबका बोला सब कुछ क्यों सुन लेते हो
कहो आज तुम ही कुछ कहो
और मैं सुनूँ  
  
सम्पर्क

ई-मेल : nirmalatodi10@gmail.com

मनोरंजन कुमार तिवारी की कविताएँ

मनोरंजन कुमार तिवारी

स्त्रियों के प्रति पुरुषों की तमाम बनी-बनायी अवधारणायें प्राचीन समय से ही चली आ रही हैं. इसी बिना पर वह उस स्त्री को नैतिक मान बैठता है जो उसके प्रतिमानों पर खरा उतरती हैं, जब कि उस स्त्री को  अनैतिक, कुलटा और न जाने क्या-क्या उपाधियाँ देने लगता है जो उसके प्रतिमानों के इतर जा कर कोई काम करती हैं. पुरुषों को इस मामले में जैसे एकाधिकार मिला हुआ है कि वे अपने अनुसार स्त्रियों के स्तर को तय कर सकते हैं और इस मामले में स्त्रियाँ उनकी बात मानने के लिए जैसे बाध्य हैं. पितृसत्तात्मक समाज धार्मिक सत्ताओं के मार्फत यह काम आसानी से करता रहा है. वे धार्मिक सत्ताएँ जो कहीं पर स्त्री को ‘नरक की खान’ के रूप में देखती हैं तो कहीं पर ‘पुरुषों के गुलाम’ के रूप में मानती हैं. कवि पुरुषों की इस चालाक नजर को कवि परखता है और इसे अपनी कविता में दर्ज करता है. वह कवि जो स्वयं उस पुरुष वर्ग से है जिसके पास स्त्रियों के संदर्भ में पूर्वग्रह-ग्रसित और बनी-बनायी अवधारणायें हैं. लेकिन उसका कवि उसे वह संवेदना प्रदान करता है जो पुरुषवादी नजरिये को तार-तार कर के हमारे सामने रख देता है. युवा कवि मनोरंजन कुमार तिवारी  अपनी कविता ‘चरित्रहीन’ के जरिए उस सत्य को उद्घाटित करते हैं जो हमारी पुरुषवादी दुनिया के विचारों का सार्वभौम सत्य है. मनोरंजन की कविताएँ सच के प्रति उम्मीद जताती हैं. हालाँकि इस कवि के पास अपना शिल्प  विकसित करने की एक चुनौती है. लेकिन खुशी की बात है कि कवि जिस डगर पर चल पड़ा है उसमें असीम संभावनाएँ और उम्मीदें हैं. तो आइए आज ‘पहली बार’ ब्लॉग पर पढ़ते हैं युवा कवि मनोरंजन कुमार तिवारी की कुछ नयी कविताएँ.            

मनोरंजन कुमार तिवारी की कविताएँ
खोगई है मेरी कविताएँ कहीं

ढूंढ रहा हूँ अपनी कविताओं को,
भाड़े के कमरे के कोनेकोने में,
जहाँ कमरे के बाहर खोले गए चप्पलों की संख्या के हिसाब से,
बढ़ जाताहै किरायाहर माह,
ढूँढ रहाहूँ अपनीकविताओं को,
चावल, दालऔर आटेके खालीकनस्तरों में,
बेटी केदूध केबोतल में,
जिसमें तीनचौथाई पानीमिला है,
ढूँढ रहाहूँ अपनीकविताओं को,
पत्नी कीबेब आँखोंमें,
माँ कीकराहों में,
साहब की गुर्राहटोंमें,
परिजनों केरहमहीन उद्गारोंमें,
ढूँढ रहाहूँ अपनीकविताओं को,
कुछ भूलेबिसरेदोस्तों केसाथ गुजारीउन खुबसूरतपलों में,
(जोगलती सेभी मय्सरनहीं होतीअब एकपल केलिए भी)

 
अभीअभीतो दिखी थीं कविताएँ,
जब सोचरहा थाउसकी बातें,
जो कभीमेरी हरख़ुशी कीवजह हुआकरती थी,
उसकी निश्छलमुस्कुराहटों में,
गुम होजाते थेहर गमऔर दुःखकी छायाभी,
पर बदलेहलात मेंबदली उसकीमुस्कुराहटों में,
गुम होगई मेरीकविताएँ फिरसे,
ढूढ़ रहाहूँ अपनीकविताएँ,
उसकी यादों के समंदर में।
चरित्रहीन
साँवली काया, भराभरा,
चेहरे पर मेहनत की चमक,
रौनक से लबरेज़,
वो लम्बी सी सब्जी वाली,
सर पर टोकरी रखे,
घरघर जा कर बेचती है मौसमी फल और सब्जियाँ,
घर के अंदर तक चली जाती है,
माँ जी, चाची, दीदी, बीबी जी पुकारती,
छोटे बच्चे, उसे देखते ही झूम उठते है,
क्योंकि, शायद सीखा नहीं उसने,
मुस्कुराहटों की कीमत वसूलना,
यों ही कुछ तरबूज़ के छोटेछोटेटुकड़ों से,
खरीद लेती है टोकरी भर कर खिलखिलाहटों को,
कभी आंगन में, कभी ड्योढ़ी पर,
तो कभी उस मर्दों की बैठको में,
रखवाई जाती है, उसकी टोकरी,
वे मर्द, जो रखते है गिद्ध-दृष्टि,
अपने ही मोहल्ले के रिश्ते में लगती बहन, बेटियों पर,
वे मर्द, जो टटोलते है अपनी नजरों से उम्र के निशां,
अपने ही आँखों के सामने पैदा हुई लड़कियों के,
वे मर्द, जो रखते है, चौकस खबर,
ऐसी ही किसी लड़की के छोटीमोटी
नाज़ुक उम्र की नादानियों पर,
ताकि साबित कर चरित्रहीन, बदनामी का डर दिखा,
बना सके रास्ता,
अपनी कुत्सित, विकृत कामनाओं को पूरा करने का,


ऐसे ही मर्द रखवाते है,
टोकरी उस सब्जी वाली का,
पूछते है भाव,
कितने में दोगी
हँस कर बोलती है वह,
किलो का आठ रुपया बाबू जी, चावलगेहूँ से बराबर,
ठीक है, पहले टेस्ट कराओ,
माल अच्छा होगा तो, मुँहमाँगी कीमत वसूल लेना,
फिर हँसती है वह और,
काट कर छोटाछोटा टुकड़ा तरबूज़ पकड़ाती है,
हाथ उठाते समय,
उन नजरों के लक्ष्य को भी बचाती है,
जानती है उन सभी शब्दों के मतलब,
फिर भी मुस्कुराती है,
शायद इसीलिए, कुछ लोग उसे चरित्रहीन कहते है,
पर लोग नहीं देख पाते,
भय से आतंकित उसके हृदय को,
उसके चेहरे को,
जो शाम ढलतेढलते बनावटी हँसीहँसतेहँसते,
थक चुके होते है,
और फिक्र से अच्छादित,
लम्बेलम्बेडग भरती,
अपने भूखे बच्चों और खेत से लौटे पति के पास,
क्षण भर में पहुँच जाने की आतुरता,
दिखती है,
इस चरित्रहीन के आँखों में।

अकविता

नहीं…..
नहीं लिख सकता मैं कोई कविता,
जब भी लिखूँगा, आवेग ही लिखूँगा,
कोरीझूठीबनावटीपन केसरोकारों कोलिखते हुए,
अँगुलियाँ काँपनेलगती हैमेरी,
मेरे अंदरमें बैठाकोई,
आ कर मेरेसामने बैठजाता है,
धिक्कारने लगताहै मुझे,
छंदरागऔर तुकबंदीमिलते देख,
ठहाका लगाकर हँसताहै और
हिक़ारत कीनजरों सेदेखता हुआकहता है,
क्योंतू भीकवि बनगया ना?”
बुज़दिल…..क़ायर…..अकर्मण्य

मेरीकविता 

एक कदम बढाते ही,
भरभरा कर बिखर जाती है कविता,
स्वार्थांधताक्षोभ और अहंकार से,
सहम जातीहै कविता,
ईर्ष्याकड़वाहटऔर जीवनके विषमताओंके अँधेरेमें,
भटक जातीहै कविता,
कविताजोअब रहीही नामुझ में,
किसी नेबड़ी बेरहमीसे,
निचोड़ लीमेरे अंतसकी सारीकविताएं,
और छोड़दिया मुझेअकेले जीवनके महासमरमें,
सहने कोअनन्त यातनाएं,
अब कानोंमें योंही किसीके फुसफुसानेकी आवाजनहीं आती,
ना कोईपरिचित गंधसांसों सेआ कर टकरातीहै,
अब तोअनगिनित शोरसंतापों औरप्रताड़नाओं के,
नीचे दफनहो जातीहै कविता,

 
कितनी कोशिशेंकरता हूँकि,
संजो करसहेज कररख सकूँउन सारेअक्षरों को,
जो मुस्कुराहटभरते हैमेरी कविताओंमें,
मगर आत्म-ग्लानिऔर पश्चातापके आँसुओंमें,
बह जातीहै कविता,
लाख जतनकरता हूँ कि,
मुरझाने सेबचा लूँअपनी कविताको,
मगर भयभूख औरदरिद्रता केलू में,
झुलस जातीहै कविता
भूल जाती हूँ मैं
अक्सर मेरे शिकायत करने पर बोलती है,
समझो ना तुम,
सच बोल रही हूँ,
भूल जाती हूँ मैं…………….
और मैं तड़प कर मूर्छित सा हो जाता हूँ,
कैसे कोई भूल सकता है,
अपने दिलअज़ीज को?
कैसे भूल सकती है वो,
कोई बात जो मुझसे जुडी हो?
कैसे भूल सकती है वो उसे,
कहती है, अपना सबसे अच्छा दोस्त जिसे,
साझा करती है,  हर छोटीबड़ी बातें जिस से,
पर पहनता हूँ जब उसका आवरण,
बन जाता हूँ एक लड़की,
तो महसूस करता हूँ,
एक लड़की,
जो महानगर की भीड़ में,
खुद को बचाए रखने को कर रही है ज़दोजहद,
जो अपना पाँव जमाए रखने को कर रही है नित-संघर्ष,
ताकि जी सके अपने सपने को,
पूरा कर सके अपने अरमान,
कर सके कुछ सार्थक,
बना सके अपनी पहचान,
और इसके लिए मिलती है रोज अनेको लोगों से,
जैसे मिलती है मुझ से,
सब उससे वैसे ही करते है बातें,
जैसे करता हूँ मैं उससे,
वो सबको बताती है अपना सबसे अच्छा दोस्त,
दे देती है अपना हाथ सबके हाथ में,
और सब पकड़ते भी है उसके हाथ को,
पर किसी एकांत जगह को ले जाने के लिए,
कोई नहीं पकड़ता उसका हाथ,
जीवन भर निभाने के लिए,
और सालों से चलता रहा है ऐसा ही,
अब उसे आदत हो गई है,
और सबके चेहरे उसे एक से ही दिखते है,
सबकी बातें एक सी ही लगती है,
तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है,
कि मुझे और मेरी कही बातों को भूल जाती है।

इस तरह खुद को बचा के रख लूँगा
दर्द नहीं ख़ुशी लिखूँगा,
आँसू नहीं मुस्कान लिखूँगा,
बेरुख़ियों, बदकिस्मतों से झुलसता जीवन नहीं,
स्नेह, सहभागिता की छाया से मिली शीतलता लिखूँगा,
लिखूँगा जीवन को,
महफिलों की रौनक लिखूँगा,
दोस्तों के ठहाकों को, उनकी महक लिखूँगा,
आत्मग्लानिअफ़सोस  और संताप नहीं लिखूँगा,
जीत का जश्न और संभावनाओं का आकाश लिखूँगा,
मैं तन्हाइयों की उबासी नहीं लिखूँगा,
सफर की उदासी भी ना लिखूँगा,
मै प्यास नहींतृप्ति लिखूँगा,
देह और दौलत की अभिव्यक्ति लिखूँगा,
मैं वियोग नहींसंजोग लिखूँगा,
विरह गीत नहीं,
मिलन क़ी सुमधुर संगीत लिखूँगा,
मैं अपनी उदासियों को,
निराशा और हताशा को नहीं लिखूँगा,
मैं उम्मीद क़ी लौआशा क़ी नई किरण लिखूँगा,
इस तरह जो नहीं लिखूंगा,
बचा कर रख लूँगा ख़ुद के गाढे वक़्त के लिए,
किसी मूल्य धरोहर के रूप में,
छुपाये रखूंगा सारा आक्रोश,
आंदोलन और विद्रोह को ख़ुद के भीतर ,
इस तरह ख़ुद को बचाये रखूँगा
नियति
 
बोझिल आँखों के पलकों पर,
लटकेतुम्हारे यादों के काले बादल, 
झरझर, झरते नहींबरसते नहीं,
बस दुखते है,
पलपल हर-पल,
मौसम बदलतेरहता है,
पर इनआँखों केबादल छँटतेनहीं,
हटते नहींएक पलके लियेभी,
अब जब कितुम भीऐसा समझनेलगी हो कि,
मैं जोकुछ भीकहता हूँ/ लिखताहूँ,
वो सबमेरी कविताओंके हर्फ़होते है,
मेरे पलकोंपर मँडरातेये कालेबादल,
बरसने काहक भीखो देतेहै,
और अबये लगताहै कि,
बिन बरसेही रहजाना,  इन कीनियति बनगई है।

        

जीवन-रोशनी

लौट जाती हैहोठों तक आ कर वो हर मुस्कुराहट,
जो तुम्हारे नाम होती है,
जो कभी तुम्हारी याद आते ही कई इंच चौड़ी हो जाया करती थी,
उन्मुक्त हँसीबेपरवाह और बेबाक बातें,
करना तो शायद मैं अबभूल ही चुका हूँ,
बारबार जाता हूँउस घास में मैदान में,
और ढूँढता हूँअपने जीवन की वो तमाम स्वच्छंदता,
जो तुमसे मिलते ही पूरे माहौल में फै़ल जाया करती थी,
मेरी आँखें चमकने लगती थीं रोशनी से,
और ज़ुबां पर ना जाने कहाँ से जाते थे,
वो तमाम किस्से मेरे जीवन के,
जो तुम्हे बताने को आतुर रहता था मैं अक्सर,
हर अंग में स्फूर्ति जग जाती थी,
जैसे पंख मिल गये हो,
मुझे अनंत आसमान में उड़ने के लिये……
अब नहीं होता कुछ भी ऐसा,
जैसे जंग लग गये होमेरे हर अंग में,
ज़ुबां पर कुछ आते ही ठहर जाता हूँ,
तुम अक्सर कहा करती थी ना कि,
बोलने से पहले सोचा करो,
सिर्फ यही एक इच्छा पूरी की है मैने तुम्हारी,
अब जब कि तुम साथ नहीं हो,
आँखों की चमक और रोशनी गुम होने लगी है,
अनजाने डर आशंकाओं की परछाइयों में उलझ कर,
अब उड़ने को पंख नहींपैरों से चलता हूँ,
अपने ही अस्तित्व का भार उठाये,
मेरे कंधे झुक जाते है,
जैसे सहन नहीं कर पा रहे है जीवन का भार,
आँखें हर व़क्त जमीं में गड़ी रहती है,
जैसे ढूँढ रही हो कोई निशान,
जो उन राहों पर चलते हुए हमने कभी छोड़ा था,
अब धूप मेंचेहरे की रंगत उड़ जाने का डर नहीं होता,
और छाया भी दे नहीं पाती ठंडक तन को,
कानों में कभी तुम्हारी अवाज़ गूँज जाती है,
जैसे पुकार रही हो तुममुझे पीछे से,
ठहर जाता हूँ कुछ पल के लिये,
देखता हूँमुड़ कर पीछे, मगर वहाँ कोई नहीं होता,
दूर, बहुत दूर जहाँ मेरी आँखों की रोशनी
बमुश्किल पहुँच पाती है,
एक अस्पष्ट सी छाया नज़र आती है,
देखती है मुझे और ठठा कर हँसती है,
जैसे व्यंग कर रही हो मुझ पर,
फिर अचानक रुक जाती है,
पोछती है अपने आँचल से वे आँसू के बूँदे,
जो उसके गालों पर लुढ़क आते है,
फिर गुम हो जाती है वो छाया भी
 
जैसे गुम हो गयी थी तुम कभी
सम्पर्क – 
स्थायी पता 
पुत्र श्री कामेश्वर नाथ तिवारी

गाँव:- भद्वर, जिलाबक्सर, बिहार


वर्तमान पता –

1096-A, हाऊसिंग कॉलोनी
सेक्टर-31, गुडगाँव
मोबाइल .- 9899018149

Email ID- manoranjan.tk@gmail.com

(इस पोस्ट की पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)  

स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ

स्वप्निल श्रीवास्तव

यह दुनिया आज जो इतनी खूबसूरत दिख रही है उसकी खूबसूरती में उन तमाम लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है जिन्होंने अनाम रह कर इसकी बेहतरी के लिए अपना जीवन खपा दिया इन लोगों ने कहीं पर भी अपने नाम नहीं उकेरेआज देखने में भले ही आग और पहिये के आविष्कार बहुत सामान्य लगें लेकिन इन आविष्कारों ने ही सही मायनों में आधुनिकता की नींव रखी जरा एक पल ठहर कर सोचिए आज भी इन आविष्कारों की हमारे जीवन में कितनी उपादेयता है अगर आज की दुनिया से इन्हें हटा दिया जाए तो हमारी आज की दुनिया कैसी लगेगी इसी तरह यायावरी की ज़िंदगी को जीने वाले नटों, मछुआरे गड़ेरियों और न जाने कितनी घुमन्तू जातियों ने भी मनुष्यता की आत्मा की आवाज को बचाए-बनाए रखने में अहम् भूमिका अदा कीएक कवि ही ऐसे अनाम लोगों की इस मानीखेज भूमिका को रेखांकित कर सकता हैयहीं पर कवि औरों (वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों) से बिल्कुल अलग खड़ा दिखायी पड़ता है  
ईश्वर एक लाठी है‘, ‘ताख पर दियासलाई‘, ‘मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए‘, ‘जिन्‍दगी का मुकदमा जैसी काव्य कृतियों के अप्रतिम कृतिकार, अस्सी के दशक से सक्रिय हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि स्वप्निल श्रीवास्तव  लेखन के क्षेत्र में आज भी चुपचाप लेकिन अपने ढंग से सक्रिय हैं मैंने पहली बार के लिए जब कुछ नयी कविताएँ स्वप्निल जी से भेजने का आग्रह किया तो उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ अपनी हालिया लिखी कुछ रचनाएँ हमें भेज दीं आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ  
   
स्वप्निल श्रीवास्तव की कविताएँ
पृथ्वी के वंशज  
पृथ्वी के वंशज हैं गड़ेरिये और मछुआरे
उनके गीत हमारी आत्मा की आवाज हैं
गड़ेरिये अपनी भेड़ों के साथ चरागाह की खोज में
धरती के सुदूर कोने में पहुँच जाते हैं
गर्मी हो या सर्दी बाधित नहीं होती उन की यात्रा
वे छतनार पेड़ो के नीचे बना लेते हैं ठिकाना
चाँद और सितारों की रोशनी के नीचे
गुजारते हैं रात
इसी तरह मछुआरे अपनी नाव के साथ
समुंदर में विचरण करते है
और तूफानों से लड़ते हैं
थल और जल के नागरिक हैं
गड़ेरिये और मछुआरे
वे हमारे आदिम राग के आलाप हैं
कुल्हाड़ियां
कुदाल और हंसिये की तरह नहीं होता
कुल्हाड़ियों का दैनिक इस्तेमाल
वे कभी-कभार काम में लायी जाती हैं
जब मैं किसी के कंधे पर कुल्हाड़ियों को
जाते हुए देखता हूँ तो लगता है कि
पेड़ों पर मुसीबत आने वाली है
कुल्हाड़ियां घर से बाहर निकल कर
कोई न कोई हादसा जरूर करती हैं
उनकी मार से नहीं बचती हैं डालियां
छोटे- मोटे पेड़-पौधे उन्हें देख कर
भय से कांपने लगते हैं
कुल्हाड़ियां सिर्फ पेड़ों को नहीं काटती
आदमी कंधों को लहुलुहान कर देती हैं
वे कंधे पर अंगोछे की जगह को काबिज
कर लेती हैं
कुल्हाड़ियों को कई हत्याओं में शामिल
पाया गया है
वे पेड़ की  नहीं आदमियों की हत्या
करती हैं 
कुछ शहरों के नाम
कुछ शहरों के नाम आकर्षक होते हैं
उसमें प्रवेश करने का मन करता है
नदियों के  नाम वाली स्त्रियां
जादूगरनी  की  तरह होती  हैं
वे  हमें अपने भीतर डुबो लेती हैं
कुछ लड़कियों के नाम फूलों के करीब होते हैं
याद  आते  ही  खुशबू  फैल  जाती  हैं 
कुछ पेड़ों के फल बहुत मीठे होते हैं
थोड़ी डाल हिलाओ तो हमारी हथेली पर
चू जाते है
तितिलियों और मधुमक्खियों से हम जरूरी
सबक ले सकते हैं
वे हमें खूबसूरत ढंग से उड़ने के तरीके
सिखाती  हैं 
पृथ्वी की सबसे छोटी जीव चींटी हमें अपने से ज्यादा
बोझ उठाने के गुर बताती है
एक ओस की बूंद में समा सकता  है
समुंदर
इसी तरह इंद्रधनुष में शामिल होते हैं
कायनात के अंग
इसलिए पृथ्वी की छोटी-छोटी चीजों  को
गौर से देखो
फिर वहां से शुरू करो जीना

 

घड़ी  में  समय
हर देश की घड़ी में बजता है
अलग-अलग समय
दिल्ली की घड़ी में जो समय है
वह रावलपिंडी की घड़ी से नहीं मिलता
हो सकता है वे समय पर नहीं
हिंसा में यकीन करते हो
वाशिंगटन और पेचिंग की घड़ियों  में
समय और विचार की दूरी है
इतिहास को ले कर कई असहमतियां हैं
हाँ, दुनिया भर के दलालों और तस्करों की घड़ियों में
एक जैसा समय बजता  है
वे समय से ज्यादा अपने इरादे पर भरोसा
करते हैं
उनके दम पर चलती है दुनियां की
अर्थव्यवस्था
बादशाह की घड़ी का समय जनता की घड़ी से
हमेशा अलग होता  है
वे समय को सुविधानुसार आगे-पीछे खिसकाते
रहते हैं
वे अपने वजीरों को भी सही समय
नहीं बताते
तानाशाह की घड़ी में समय उसकी मर्जी से
चलता है
उसके इशारे पर नाचती हैं रक्तरंजित सूईयां
गरीब मुल्कों में बच्चों के पैदा होने का
समय पढ़ना मुश्किल होता है
पर जानना आसान है कि उस के जन्म की तारीख
के आसपास होगा उस की मृत्यु का समय
झुर्रियां
इस बूढ़ी औरत की झुर्रियां
बहुत खूबसूरत हैं
जैसे किसी चित्रकार ने उसे अदम्य
कलात्मकता के साथ रचा हो
बोलती हैं उस की आँखें
कुछ कहते समय लय में
हिलते है होठ
उसकी आवाज में खनक और मिठास  है
कोई सुन ले तो भूल न पाये
अपने जमाने में सुघड़ रही होगी
यह औरत
आप पूछ सकते हैं कि कैसे मैं
इस औरत के बारे में इतना
जानता हूँ
मित्रों, यह औरत हमारी माँ है
नंगे लोग
नंगे लोग कहीं भीकिसी वक्त
नंगे हो सकते  है
उनके लिये किसी हमाम की जरूरत
नहीं होती
उनकी लुच्चई सार्वजनिक होती है
वे लाख वस्त्र पहने
अपने स्वभाव से निर्वसन होते हैं
वे भाषा को निर्वस्त्र और व्याकरण को
अश्लील बना देते हैं
कोई उन्हें टोके तो वे हमलावर
हो जाते हैं
दिखाने लगते हैं पंजे
वे किसी कबीलाई समाज  से
नहीं आते
वे हमारे बीच से निकल कर
दिगम्बर हो जाते हैं
वे साधु या कुसाधु नहीं
वे मठ-मंदिर में नहीं प्रजातन्त्र  में
रहते हैं
वे देह से नहीं आचरण से नंगे
होते हैं
उन की नंगई ढकने के लिये अभी तक
किसी वस्त्र का आविष्कार नहीं हुआ है
बाढ़
बाढ़ सब से पहले हमारे घर
आती है
अपने समय पर पहुँच जाता  है
सूखा
सबसे बुरी खबर यह है कि
राजनेता हमारे घर आने लगे हैं
उनकी शक्लों में दिखाई देते हैं
गिद्ध
वे झपट्टा मारने को तत्पर हैं
हम  बाढ़  और  सूखे  से  खुद  को
बचा लेंगे
कोई हमें इन आदमखोरों से
बचाये
मछुआरा
मछलियों से मुझे इतना प्रेम था कि
मैं बन गया मछुआरा
मैंने जाल बुनना सीखा
उसे कंधे पर रख कर
नदीनदी घूमता रहा
तालो पर डाले डेरे
हमेशा रंगबिरंगी मछलियों के बारे में
सोचता रहा
वे पानी में नहीं स्वप्न में दिखाई
देती थीं
जहां भी जाल डाले
मछलियों ने दिया धोखा
वे दूसरों के जाल में फंसती रहीं
मैं कुशल मछेरा नहीं बन पाया
अपने बनाये जाल में
फंस गया
आधाअधूरा
तुम झुके ही थे कि मुझे
दिख गया आधा-अधूरा चाँद
सिहर उठी देह
वह आधा-अधूरा इतना पूरा था कि
मुझे पूरा देखने की इच्छा न रही
चाँद पर बहुत देर तक ठहरते
नहीं बादल
शरारती हवाएँ उन्हें उड़ा देती हैं
चाँद का काम है दिखना
वह न दिखे तो पृथ्वी पर
छा जाता है अंधेरा
जीवन भर चलता रहता है
चाँद से लुकाछिपी का खेल
मुश्किल तब होती है जब आ जाती है
अमावस्या
और हम चाँद को ढ़ूढ़ते रह जाते हैं
संसद में कवि सम्‍मेलन
एक दिन संसद में कवि सम्‍मेलन हुआ
सबसे पहले प्रधान-मंत्री ने कविता पढ़ी
विपक्षी नेता ने उसका जवाब कविता में दिया
बाकी लोगों ने तालियां बजायीं
कुछ लोग हँसे कुछ लोगों को हँसना नहीं आया
आलोचकों को अपनी प्रतिभा प्रकट
करने का सुनहला अवसर मिला
टी.वी. कैमरों की आंखें चमकीं
एंकर निहाल हो गये
खूब बढ़ी टीआरपी
टी.वी. चैनलों पर हत्‍या और भ्रष्‍टाचार से
ज्‍यादा मार्मिक खबर मिली
इस लाफ्टर-शो को विदूषक देख कर प्रसन्‍न हुए
एक विदूषक ने कैमरे के सामने ही तुकबंदी शुरू कर दी
आधा पेट खाये और सोये हुए लोग हैरान थे
यह संसद है या हँसीघर
हमारी हालत पर रोने के बजाय हँसती है

सम्पर्क –

510, अवधपुरी कालोनी, 
अमानीगंज

फैजाबाद -224001

मोबाईल – 09415332326

ई-मेल : swapnil.sri510@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

प्रज्ञा की कहानी ‘मन्नत टेलर्स’

प्रज्ञा

परिचय –                                               
जन्म  28 अप्रैल 1971, दिल्ली
शिक्षा- दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पी-एच. डी.।

प्रकाशित किताबें-
कहानी संग्रह तक्सीम’ (2016)
नाट्यालोचना- नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुतिराष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से 2006 में प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से नुक्कड़ नाटक-संग्रह जनता के बीच जनता की बात’, (2008)। नाटक से संवादअनामिका प्रकाशन ( 2016)
बाल-साहित्य- तारा की अलवर यात्रा’, एन. सी. ई. आर. टी (2008)
सामाजिक सरोकारों  को उजागर करती पुस्तक- आईने के सामने’, ( 2013)

कहानियाँ
कथादेश,  हंस, पहल, ज्ञानोदय, वागर्थ, पाखी, परिकथा, जनसत्ता, रचना-समय, बनास-जन, वर्तमान साहित्य, पक्षधर, निकट, हिंदी-चेतना, जनसत्ता साहित्य-वार्षिकी, सम्प्रेषण, हिंदी चेतना, अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।

पुरस्कार –
* सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक तारा की अलवर यात्रा को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चन्द्र पुरस्कार।
* प्रतिलिपि डॉट कॉम कथा -सम्मान, 2015,  कहानी तक़्सीम को प्रथम पुरस्कार।

जनसंचार माध्यमों में भागीदारी
राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन।
आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के लिए लेखन और भागीदारी।
रंगमंच और नाटक की कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।
राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों में भागीदारी
सम्प्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में
एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।
भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने हमारी दुनिया को बहुत हद तक बदल दिया है। नव-पूँजीवाद ने इसकी आड़ में जिस तरह अपने पैर पसारे हैं उसने आम लोगों के जीवन को कठिन तो बनाया ही है उनके रोजी-रोजगार को सीमित कर दिया है। घर की जगह लोगों की पसंद अब फ्लैट्स बन गए हैं। जहाँ पहले कभी किसिम किसिम की दुकानें हुआ करती थीं वहां अब लक-दक इमारतें खड़ी हैं। महानगरों और अब तो छोटे-छोटे कस्बों तक में मॉल्स खुल गए हैं। इन मॉल्स ने रेहड़ी वालों, ठेलों वालों के रोजी-रोजगार पर सीधा असर डाला है। छोटे-छोटे सिनेमा टाकीज, दर्जियों की दुकानों पर की चहल-पहल अब बीते दिनों की बात हो गयी है। प्रज्ञा अपनी कहानी ‘मन्नत टेलर्स’ में उन दिनों के दर्जियों के जीवन और उनके सरोकारों की तरफ होते हुए उन मॉल्स तक आती हैं जहाँ बने-बनाए पैक्ड ब्राण्डेड कपड़े तुरन्त मिल जाते हैं। और दर्जी की भूमिका महज ‘अल्ट्रेशन’ तक सीमित हो गयी है। इस कहानी के ही एक अंश को देखिये – ‘फास्ट लाइफ ने बाज़ार के पुराने चलन इंतज़ार  को कब का तोड़-मरोड़ कर फेंक दिया था। अब कौन जाए कपड़े सिलवाने? ग्राहक की बेसब्री ने जहाँ अपनी आँखों पर खुद ही पट्टी बाँध ली वहीं कंटम्प्रेरी डिज़ायन ने उसकी आँखें चुंधिया दीं फिर ठप्पा ज़रा विदेशी वजन का हो तो गलती कंपनियों की कैसे हो सकती है? उस पर पुराने बाज़ार का एक और चलन कब का खत्म हुआ जहाँ दुकानदार ग्राहक को भगवान मानता था। ग्राहक के अधिकार और दुकानदार के कर्त्तव्य के छोर को थामे थी स्नेह और विश्वास की डोर। पर नये की चकाचौंध में पुराने के लिए कोई जगह नहीं थी। नए बनते बाज़ार ने सबसे पहले पुराने उसूलों को उखाड़ फेंका और कूड़े के ढेर के सुपुर्द किया।’ प्रज्ञा की इस कहानी की खूबी यही है कि इसके क्लाईमेक्स का पता अन्त में ही जा कर चलता है। प्रज्ञा ने इस कहानी में उस सांप्रदायिक मानसिकता की पड़ताल भी की है जो एक खास सम्प्रदाय के लोगों की प्रवृत्तियों पर अक्सर आधारहीन टिप्पणियाँ करता रहता है और जिसे उनके यहाँ निर्ममता के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखायी पड़ता। यही नहीं वह इन लोगों का लिंक पड़ोसी देश से जोड़ने में भी नहीं हिचकतापनी कहानी की बुनावट में ही, अतिरिक्त कुछ कहे बिना कहानीकार ने मुसलामानों में भी उस अपनत्व की भावना को बारीकी से दिखाया है जिसकी बानगी गाँवों और कस्बों में आमतौर पर आज भी देखने को मिल जाता है प्रज्ञा की इस कहानी में एक प्रवहमानता लगातार बनी रहती है। जो पाठक को कहानी के अन्त तक जाने के लिए विवश करती है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रज्ञा की कहानी ‘मन्नत टेलर्स’।         
     
मन्नत टेलर्स

प्रज्ञा
                       
‘‘यार! शिखा कहाँ हो? ये किस साइज़ की शर्ट ले आई हो? सोचा था आज के खास प्रोग्राम में इसे पहनूंगा पर…अरे! अब क्या करूँ?’’ सवाल की शक्ल में समीर की सारी झुंझलाहट शिखा के कानों के रास्ते रीढ़ की हड्डी के ऐन नीचे पहुँच कर थर्राहट पैदा करने लगी। उसे लगा अचानक शरीर के पोर-पोर में उठा दर्द जैसे वहाँ सिमट कर वहाँ जम गया है। पिछले न जाने कितने सालों से हर बार एक नई शक्ल में यह दर्द उठता रहा था और हर बार न वजह पुरानी पड़ती थी न ही तकलीफ। उसे हमेशा लगता ये आखिरी बार है पर नहीं। इस दर्द को शिखा से लगाव-सा हो गया था। समीर के रास्ते चला आने वाला यह मर्ज़ था उसके लिए खरीदे गए रेडिमेड कपड़े। परिवार के अन्य लोगों के लिए जहाँ कपड़े खरीदना एक शौक या नशे से कम नहीं था वहाँ शिखा और समीर के लिए यह बवाल-ए-जान था। समीर की नुक्ताचीनीं से दुकानदारों के सब्र का बाँध चकनाचूर हो जाता और उनकी बद्तमीज़ी का ज्वार सारे पाट तोड़ कर मनचाही दिशा में भागने लगता। उस ज्वार को भी समीर लगातार चुनौती देता। इसीलिए एक दुकान में उठा ये ज्वार आगे के तमाम रास्ते बन्द कर देता। कभी रंग, कभी कपड़े,  कभी सिलाई, कभी मार्जिन को ले कर अच्छी-खासी झिकझिक से आजिज आ गई शिखा अब खुद ही यह जोखिम उठाने लगी थी। शर्ट खरीदने की राह तो शिखा की मेहनत से कुछ आसान हो गई थी पर ट्राउज़र्स का झंझट अजाब बन चुका था। समीर को कोई न कोई नुक्स दिखाई दे ही जाता। समझौता इस बात पर हुआ कि जींस खरीद कर ही काम चलाया जाए। थोड़ी ढीली या टाइट होने पर भी जींस कई ऐब छिपा लेती है ठीक कुर्ते पायजामे की तरह। यहाँ तक कि शादी-ब्याह में भी समीर जींस ही पहनता। यों शहर में दर्जी भी थे पर दर्जियों के मानदंड समीर के लिए जरा ऊंचे थे। अच्छे दर्जी की खोज, समय की कमी और कोफ्त का बढ़ता चला जाता ग्राफ-सबने धीरे-धीरे उसे रेडिमेड कपड़ों की ओर धकेल दिया। आज तक का रिकार्ड था कि वह कभी अपने लिए लाए गए कपड़ों से खुश न हुआ और जबसे शिखा ने जोखिम उठाना शुरु किया तबसे उसके हिस्से में दर्द के अतिरिक्त कुछ नहीं आया।
‘‘मैंने कहा था ट्राई कर लो। कहीं कुछ गड़बड़ न हो, पर कोई सुने तब न?’’ जिस दिन शर्ट आई समीर को आसमानी रंग और सेल्फ में हल्की सफेद लकीरों का डिज़ायन भा गया। ऐसा भाया कि पैकिंग खोल कर वो कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था मानो अंदेशा हो कि खोलते ही कोई धमाका हो कर रहेगा। उस वक्त समीर ने शिखा की बात पर कोई ध्यान दिया ही कहाँ था। शर्ट पर बयालीस साइज़ देखकर ट्राई करने के झंझट से मुक्ति पा ली थी। वैसे उसकी देह में पेट का घेरा चालीस से अधिक और बयालीस से कुछ कम साइज की शर्ट में राहत महसूस करता था पर आज शर्ट की पड़ताल करते हुए उसने पाया बयालीस साइज़ के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा था- ‘स्लिम फिट’। अब शिखा पर भड़कने का कारण और पुख्ता हो गया।
‘‘उस समय नहीं देख सकती थीं तुम?’’ शिखा भी चुप न रही- ‘‘रेगुलर फिट अब नहीं चलता, ट्रेंड बदल रहा है… खुद ही ले आया करो तुम।’’ अपने ऊपर आफत आती देख गुस्से को विस्तार और विकराल रूप देते हुए वह शिखा की बजाय शर्ट विक्रेताओं और निर्माण कंपनियों की खाल खींचने लगा- ‘‘हर रोज़ नया फैशन बज़ार में उतारने का पैंतरा है ये- स्लिम फिट। अरे! फिट ही होते तो अड़तीस पहनते न? अच्छी शोशेबाज़ी है… चालीस के आस-पास यहाँ कितने परसेंट आदमी हैं स्लिम फिट को पहनने वाले? इस भाग-दौड़ की जिंदगी में टी.वी. चैनल्स और फिल्मों में ही सब फिट दिखते हैं और मैं उनमें नहीं हूँ जो ये मान लें कि शरीर कुछ नहीं कपड़ा ही सब कुछ है। शरीर के लिए कपड़ा है न कि कपड़े के लिए शरीर।’’
शर्ट कंपनियों की खाल का कुछ नहीं बिगड़ना था उन्हें तो हर दिन नया धमाका करके सेल को बढ़ाना था। उन्हें क्या परवाह कि कोई समीर उनसे इस कदर ख़फा है। वैसे भी हजारों तरह के ब्रेंड उतरे हुए हैं बाज़ार में उनमें भी देसी कंपनियों पर विदेशी भारी। फास्ट लाइफ ने बाज़ार के पुराने चलन इंतज़ार  को कब का तोड़-मरोड़ कर फेंक दिया था। अब कौन जाए कपड़े सिलवाने? ग्राहक की बेसब्री ने जहाँ अपनी आँखों पर खुद ही पट्टी बाँध ली वहीं कंटम्प्रेरी डिज़ायन ने उसकी आँखें चुंधिया दीं फिर ठप्पा ज़रा विदेशी वजन का हो तो गलती कंपनियों की कैसे हो सकती है? उस पर पुराने बाज़ार का एक और चलन कब का खत्म हुआ जहाँ दुकानदार ग्राहक को भगवान मानता था। ग्राहक के अधिकार और दुकानदार के कर्त्तव्य के छोर को थामे थी स्नेह और विश्वास की डोर। पर नये की चकाचौंध में पुराने के लिए कोई जगह नहीं थी। नए बनते बाज़ार ने सबसे पहले पुराने उसूलों को उखाड़ फेंका और कूड़े के ढेर के सुपुर्द किया। रही-सही कसर ऑनलाइन शॉपिंग ने पूरी कर दी। ग्राहक का रुतबा तो खत्म हो ही चला था अब उसकी शक्लो-सूरत भी मिटा दी गई। दृश्य सब अदृश्य हो गया। न मालिक, न सेल्समेन, न मोल-भाव बस एक क्लिक और दुनिया भर का बाज़ार आपके घर। ऊपर से लगे कि ग्राहकों की सुविधा के मद्देनज़र सब किया जा रहा है पर इसकी आड़ में खरीदारी के लिए ज़माने को बेसब्र बनाया जा रहा था। खरीददारी की खुजली के तुरंत समाधान के लिए दिन-रात के किसी भी लम्हे में बस एक क्लिक। फैशन की अंधी दौड़ ने कपड़ों का अंबार लगा दिया था घरों में। किसी समय घर भर के कपड़ों के लिए एक अलमारी हुआ करती थी। आज एक आदमी को एक अलमारी कम पड़ती है। इसका एक ही उपाय है अलमारी में जगह बनाने के लिए पुराने को जल्द फेंको और नए को उसमें भरो। मर्ज़ी और ज़रूरत दोनों के मायने बदल गए फिर दर्जियों की आसमान छूती सिलाई से महँगाई के हर्फ को जोड़ने वालों को पता भी न चला कि दो कमीज़ों के कपड़े और सिलाई की लागत में वे एक कमीज़ खरीद कर आसानी से ठगे जा रहे हैं। सभी बेपरवाह ‘बाय वन गेट फोर’ के शोर में झूम रहे हैं। सेल का बोर्ड दिखा नहीं कि बांछे खिल जाती हैं जब कि किसी समय दिवालिया होने पर दुकानदार सेल का बोर्ड लगा कर धंधे में लगाई अपनी मूल पूँजी बचा लेता था पर आज क्या सब दिवालिया हो गए हैं?
    
समीर के परिवार के लोग खासतौर पर उसकी माँ कहती थी- ‘‘तू सभी आदतों में बिल्कुल अपने पापा की तरह है। शक्ल तो मिलती ही है सीरत भी उन्हीं पर। उसमें भी सारे गुण एक तरफ और कपड़ों के मामले में तू भी उन्हीं की तरह मीन-मेख निकालने वाला निकला। अंतर केवल यही है वो अड़ियल किस्म के खब्ती थे तू उनसे थोड़ा कम है। नए ज़माने के साथ चलना उन्हें कभी रास न आया।’’ समीर अच्छी तरह जानता था पापा की आदतों को। जब तक जिए, कपड़ों को ले कर बेहद संजीदा रहे। अच्छे से अच्छे कपड़े सिलवाते पर नए चलन के फैशन पर जान न देते। जो उन्हें भाया उनके लिए जीवन भर वही फैशन रहा। सस्ता और टिकाऊ – कपड़े के बारे में उनके यही दो पैमाने थे। कपड़ा खरीदते समय दोनों हाथों से वह कपड़े को खींच कर देखते फिर ढीला छोड़ते और फिर खींचते। कपड़ा फट-फट की आवाज़ करता। यह आवाज़ जितनी ज़ोरदार होती पापा की मुस्कान उसी अनुपात में चेहरे पर फैलती जाती। कपड़े की मज़बूती जांचने का यह उनका अपना ही तरीका था। इसके बाद भी वह दुकानदार के कैंची छूने से पहले उसे पर्दे की तरह कपड़ा अपने हाथों की रॉड पर टांगने का आदेश देते ताकि किसी भी कमी को उनकी आँख परख सकें। मजाल है इस सबके चलते कपड़े में कोई मामूली सांट भी उनसे छिपी नहीं रहती। रही बात कपड़े सिलवाने की तो सही साइज़, अच्छा-खासा मार्जिन और मज़बूत सिलाई ही उनकी शर्तें रहतीं। बरसों बाद जब कपड़ा फटता तो वो उसके भीतर की सिलाई लोगों को दिखाते – ‘‘देख लो! कपड़ा फट गया पर सिलाई नहीं उधड़ी।’’ ऐसा कर के उन्हें न जाने कौन सी रुहानी खुशी मिला करती थी।
पापा की मीठी-सी याद के बावजूद सुबह की इस घटना ने समीर का सारा मूड खराब कर दिया। साथ ही शिखा के शर्ट को न बदलवाने के बारे में कहे मुँहफट शब्दों ने उसे और भी अधिक परेशानी में डाल दिया। आने वाली छुट्टी का पूरा दिन उसे शर्ट के झंझट में बर्बाद दिखाई देने लगा। शिखा की जान तो बच गई पर हुआ वही जिसका समीर को अंदेशा था।
‘‘कोई ढंग का डिज़ायन दिखाओ न?’’
‘‘सभी ढंग के हैं पर आपकी पसंद मेरी समझ से बाहर है सर।’’ कांउटर पर लगे डिब्बों के ढेर, छुट्टी के दिन कस्टमर्स की आमदरफ्त और सामने से घूरते बॉस की नज़रों ने सेल्समेन का सारा धैर्य खत्म कर दिया था। माल बिकवाने की सारी कवायद उसने पहले ही कर डाली थी फिर अब शर्ट बदले न बदले उसकी बला से। नए किस्म के आक्रामक बाज़ार की क्रूरताओं का वह भी एक पुर्जा बन चुका था। उसके चेहरे पर उभरती कठोर रेखाएं समीर को बर्दाश्त न कर पाने के ठोस संकेत दे रही थीं बावजूद इसके समीर पूरे साहस के साथ टिका रहा।
‘‘एक तो गलत चीज़ देते हो और बदले में कुछ अच्छा नहीं दिखाते। इतने बड़े ब्रैंड किस काम के?’’ समीर को अपने समय और शर्ट के दो हजार रुपये का नुकसान बुरी तरह खटक रहा था। झगड़े और झंझट से बचने के लिए उसने मॉल के दूसरे कांउटर से बिना किसी योजना के एक चादर खरीद ली। बाहर निकल कर उसने देखा कांक्रीट के दूर फैले इस रेगिस्तान में मॉल्स के अनगिन धोरे उठ खड़े हुए हैं। जहाँ देखो वहीं भव्य इमारतें। भव्य इमारतों में बढ़ते ग्राहक। ग्राहकों की भारी जेबों पर दुकानों की ललचाई नज़र पर ग्राहक का सुख? वो रेगिस्तान में दफ्न है या बिखरा पड़ा है चिंदी-चिंदी हो कर कदमों के नीचे और हवा में उड़ रही हैं देशी जेबें और चिंदी बराबर टैग पर सवार, उड़ते हुए सीमा पार पहुँच रही हैं भारी-भरकम जेबें। समीर मॉल से बाहर बाया और उसने स्कूटर स्टार्ट किया पर उसकी निगाह सड़क पर और मन कहीं और था।
अचानक समीर को याद आया पुरानी बस्ती का अपना वह बाज़ार जो घर से कुछ ही दूर था। पर  बचपन में वह ज़रा सी दूरी मीलों की दूरी जान पड़ती थी। नन्हें कदम बाज़ार की उस दूरी को तय करने में ही थकान से भर उठते थे। बाज़ार मतलब ज़रूरत की पंद्रह-बीस दुकानें जो घरों के नीचे सुविधा से खोल ली गईं थीं। हर मोहल्ले का छोटा-सा बाज़ार। जहाँ हर घर के बच्चे तक को दुकानदार जानता था और उधारी खाते खूब चला करते थे। दुकानें जिनमें से कई आकार में आड़ी-टेढ़ी थीं जैसे कपड़े में कोई कान निकल आया हो, जैसे घर की अतिरिक्त जगह को दुकान के लिए निकाल लिया गया हो। न आज सी कोई तड़क-भड़क, न तेज़ रौशनी और दुकानदार भी कैसे -मामूली से कपड़ों और ढीली-ढाली मुद्रा में एकदम निश्चिन्त से। कोई दुकान में तख्त डाले अधलेटा-सा तो कोई बाहर ही अन्य दुकानदारों संग कुर्सी डाले गपिया रहा होता। गप्पों में आकंठ डूबा वह ग्राहक को हाथ के इशारे से समझा देता कि वो खुद ही सामान ले ले और पैसे गल्ले में डाल दे। और कोई-कोई तो ऐसा कि दुकान से घंटों के लिए नदारद। दुकान अकेली छोड़ अन्दर सोने ही चला गया है या कहीं किसी काम से बाहर। वो आज शहर के दुकानदारों से नहीं थे। उन्हें मालूम था छोटे- से मोहल्ले में चंद दुकानें हैं, माल बिकना ही है और जब सब इतने परिचित हैं तो काहे का सजना-संवरना? पर उन्हें कहाँ मालूम था ज़माना करवट बदलेगा और मोहल्ले में दुकानें नहीं दुकानें ही मोहल्ला हो जाएँगीं। दुकान से खुद को जबरदस्ती का खरीददार बना कर, लुटा हुआ महसूस करते ही समीर को बचपन की बातें एक-एक करके याद आने लगीं। उसे लग रहा था ये यादें आज मिले ताज़ा ज़ख्म पर फाये का काम करेंगी इसलिए उसने खुद को यादों की गली के सुपुर्द कर दिया।
उन्हीं गलियों में जो चेहरा नमूदार हुआ वह चेहरा था रशीद भाई का। वे मोहल्ले में ही कहीं रहते थे। गिनती के कुल चार ब्लॉक थे मोहल्ले में पर बचपन में मुझे वह किसी शहर जितना बड़ा ही लगता था। शहर के एक पुराने बाज़ार में ‘मन्नत टेलर्स’ के नाम से मशहूर उनकी दुकान पर अक्सर जाना होता था पिताजी के साथ मेरा। उम्र मेरी अधिक नहीं तो कम भी नहीं थी। समझता सब था और मम्मी-पापा के साथ खरीददारी के चक्कर में बाज़ार के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हो गया था। वहाँ पूनम टेलर्स और आशियाना टेलर्स के होते हुए भी मन्नत टेलर्स की बात निराली थी। जैंट्स कपड़े सिए जाने की अव्वल नम्बर की दुकान थी मन्नत टेलर्स। पिता जी के लिए वो किसी मन्नत से यों भी कम नहीं थी। दुकान की चौखट पर आ कर कपड़ों की सिलाई को लेकर उनकी तमाम शिकायतें खत्म हो गईं थीं और दुकान के अन्दर बिखरा था रशीद भाई के व्यवहार का नूर। मुझे उनकी दुकान में आती कपड़ों की खुशबू बहुत पसंद थी। बाज़ार में मन्नत के दिनों-दिन निखरते हुस्न से घबरा कर पूनम टेलर ने जैंट्स के साथ लेडीज़ और बच्चों के कपड़े भी सीना शुरू कर दिया था और आशियाना टेलर्स का फिरोज़ तो पूरी मार्किट स्ट्रैटिजी बना कर लेडीज़ टेलर के रूप में ही बाज़ार में उतरा था। मम्मी उसके अलावा कहीं और न जाती थीं। लच्छेदार बातों की खाता था और काम में परफैक्ट था। पतले-लंबे जिस्म से निकलती उसकी मोटी-सी आवाज़, रंग-बिरंगी शर्ट के कुछ खुले बटन और बालों पर हर समय अटका धूप का चश्मा उसके स्टाइल की मिसाल बना इतराता। उस समय में भी बाज़ार होड़ के नियम पर चलते थे। पर होड़ लाभ-फायदे कमाने संग बेहतर काम करने की भी थी, भरोसे और गारंटी को सुनिश्चित किए जाने की भी थी। पापा बताते थे- ‘‘ कोई कुछ भी करे रशीद भाई बेपरवाह हैं। उनके ग्राहक को तोड़ना नामुमकिन है।’’ रशीद भाई कारीगर आदमी थे। हाथ किसी कपड़े को छू भर लें एक जादू-सा हो जाता। कुर्ते-पायजामे में वो सलीका उतार देते कि आदमी की चाल ही बदल जाती और साधारण से कपड़े को नये चलन की बढ़िया पेंट-शर्ट में बदल देते। कोट-पेंट तो कोई क्या खा कर उनके जैसा सिल पाता। एक नहीं हज़ार जनम भी ले कोई तो रशीद भाई का हुनर कॉपी न कर सके। किसी को छोटे पायंचे की पेंट पसंद है तो किसी को बैलबॉटम। किसी को हवा में झूलते बड़े-बड़े कॉलर की कमीज़ चाहिए तो किसी को गर्दन से चिपटा बन्द-गला। किसी को एकदम चुस्त कपड़ा चाहिए तो किसी को ढीला-ढाला-रशीद भाई सारी सेवाओं के लिए हाजिर। उनके हाथ का सिला कपड़ा ग्राहक के शरीर से लगता तो संतोष और खुशी के मिलेजुले रंग माहौल में घुल-से जाते। उस समय आज की तरह बच्चे, जवान और बूढ़े आदमी के लिए एक-सा फैशन नहीं था। पहनने वाले की पसंद पहले हुआ करती थी न कि किसी कंपनी की जबरन थोपी गई पसंद को अपनाने की मजबूरी। रशीद भाई की छोटी-सी दुकान में दीवार से लगी अल्मारियों के कांच के पल्लों के भीतर अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, जितेंद्र आदि की दिलकश पोशाकों वाली तस्वीर पर बस रशीद भाई के हाथ रखने की देर थी और ग्राहक के स्वीकृति में सिर हिलाने की हरकत, चमत्कार अलमारी से निकल कर नौजवानों के बदन पर फब जाता। जिसको जैसा रुचता। रशीद भाई ने खाओ मनभाता पहनो जगभातावाली कहावत को बदल दिया था, उनके शब्द थे- खाओ भी मनभाता, पहनो भी मनभाता। बस इन्हीं शब्दों पर पापा का मन उन से और मिल गया था। जगभाते को पापा उतनी ही तवज्जो देते जिसमें जगहँसाई न हो। पापा के हरेक शब्द पर मेरे कान रहते थे और उन अनेक शब्दों में रशीद भाई के मामले में दोहराए-तिहराए गए शब्द मेरे दिमाग में डेरा बना चुके थे। हर दोहराव-तिहराव में वही प्रशंसा और हुनरमंदी की तारीफ। वरना उस बाज़ार में यू़. पी. के दूर-दराज इलाके से आए कितने ही रशीद घूम रहे थे।
‘‘आज शाम तैयार रहना समीर। रशीद भाई के यहाँ जाना है कपड़े डालने।’’ 

उस दिन पापा के कहे शब्द मन में कितना उत्साह भर गए थे। बात उस समय की है जब बाज़ार जाना और नए कपड़े सिलवाना किसी नवाबी शान से कम न था। पर मम्मी ने कपड़ा तो दिखाया नहीं? ‘‘मम्मी! वो कपड़े तो दिखाना जो आज शाम मेरे लिए डलवाने हैं। कब गईं बाज़ार, कब लाई कपड़ा?’’ ज़माना किफायत का था जिसे आज की भाषा में कंजूसी नहीं समझा जाता था और मेरा घर ज़माने की किफायत के नक्शे-कदम पर था। ‘‘तेरे भइया की एक और पापा की दो पैंटें  निकाली हैं। सिलवाने डाल आ।’’ मेरे सवाल का जवाब मिल गया था और मैं खेल में मगन हो गया। शाम को पापा के साथ जाते हुए मैंने तीनों पैंटों पर गौर किया। पिताजी की पैंटों से मेरी पैंट निकल जाने में मुझे संदेह न था पर भाई की पैंट? खुले-खुले पांयचे की नीचे से घिस गई पेंट से कैसे बनेगी मेरी पैंट? मैं बड़ा हो रहा था कोई बच्चा नहीं था अब। पर किससे बाँटता अपनी चिन्ता को?
मुझे याद है उस दिन बाज़ार में पहुँच कर मेरी चिन्ता उन गलियों में कुछ देर को न जाने कहाँ गायब हो गयी। कितने दृश्यों से भरा था वो संसार। हमेशा की तरह मैं उसमें खो जाने को बेताब था। कितने तरह के काम एक साथ चल रहे थे। रशीद भाई की दुकान जिस गली में थी क्या रौनक थी उसकी। सड़क से कुछ पहले की दुकानें भी देखने लायक थीं। कितनी तरह की कढ़ाई के काम वहाँ चलते थे। सड़क की शुरूआत से ही दोनों तरफ कहीं हाथ की कढ़ाई का भारी काम, कहीं गोटा, कांच और सलमा-सितारे का काम,  कहीं काज-बटन का काम, कहीं मकैश की कढ़ाई और ज़री का बारीक काम। मैं बहुत देर तक उन कामों को देखता रहता। गली में घुसने पर इन कामों का हुस्न जगमगाने लगता। कोई पक्का कारीगर सुई में सितारे पिरो कर आकाश सजा रहा होता तो कोई कपड़े पर उभरी लकीरों की बेल बनाता हुआ पूरा बागीचा उस पर उतार देता। ये काम मुझे बहुत भाता। गली के शोर की धुन पर कारीगर के हाथ धीरे-धीरे अपनी मंज़िल तक पहुँचने को उठते। मेरी नज़र कभी भरवां कढ़ाई पर जाती तो कभी पैडल मशीन पर मैं दर्जियों के पैरों की गति देखता। इतना ही क्यों कपड़े के रंग से मिलती रील निकालते ही कारीगर का शटल में धागा भरना मुझे बड़ा अच्छा लगता। धारदार कैंची से कपड़े पर लगी नीली स्याही पर फिरते हुए लंबाई या गोलाई में फटाफट काट देना मुझे हैरत में डाल देता। कटे हुए नापों को कतरनों की सुतली से बाँध कर दुकान के आलों में ठूंस देना मुझे परेशान करता। कैसे पहचान होती होगी कि कौन सा कपड़ा किस का है?  सारी गली भरी पड़ी थी इन्हीं सब कामों से। छोटे-छोटे से दिखने वाले कामों की दुकानें मुझे कभी खाली न दिखती। कितना काम था वहाँ, सिर उठाने की फुर्सत नहीं। हर किसी की इच्छा को कपड़ों में उतारने का काम जोरों पर था। एक काम से जुड़ा दूसरा काम था और उससे जुड़ी थीं कितनों की रोजी-रोटी। हाथ कम पड़ सकते थे पर काम नहीं। कारण कुछ मैं जान पाता था और कुछ पापा के जरिए जान लेता था। शहरों में इन हुनरमंदों की बढ़ती माँग के चलते गाँव-देहात में बसे इनके रिश्तेदारों को भी एक ही जगह काम मिल जाता था। यहाँ काम भी था और दाम भी। कितनी ही दुकानों में नाते-रिश्तेदारों का पूरा कुनबा जुटा था। खानदान के खानदान और खानदानी काम। इन दुकानों के साथ ही साथ रील, गोटा, बटन, कतरनों, बुकरम, तमाम तरह के धागों, इंची-टेप, कढ़ाई के फ्रेम, छोटी और मोटी सुई की कई चलती दुकानें थीं। और एक दुकान पर तो सिलाई मशीनें ठीक होने आती रहतीं। उनके बड़े-छोटे कलपुर्जों से भरी थी वो दुकान। किसी की मशीन बिगड़ जाती तो कहीं और न भागना पड़ता। बाज़ार छोटे-छोटे उद्योगों में सिलाई के बड़े उद्योग को समर्पित था। मैं बड़े मज़े से सब कामों को निहारता चलता। पापा रशीद भाई के यहाँ काम निबटवाते या दुनिया-जहान की बतियाते और मैं गली में खोया रहता। उस समय आज की तरह लोगों का बेसब्र रेला बाज़ारों में नहीं भागता था कि किसी को आस-पास के संसार को निहारने की फुर्सत ही न हो। मैं इन सबमें तब तक खोया रहता जब तक पापा की मुझे पुकारती आवाज़ न आती।
‘‘रशीद भाई! दो महीने बाद घर में शादी है। सोच रहा हूँ सब लड़कों के सफारी सूट ही सिलवा लूं इस बार। मामला महँगा होगा पर शादी की बात ठहरी।’’ हाथ मेरे नाप पर और कान पिता जी की बात पर दिए वे बोले- ‘‘ऐसा कीजिए मास्साब! अलग-अलग पीस की बजाय एक थान ले लीजिए गुप्ता जी की दुकान से… मेरा नाम लेकर।’’ अचकचा कर उन्हें देखते हुए पिता जी बोले- ‘‘यार हँसी उड़वाओगे हमारी? लोग शादी को सिर्फ एक थान के परिवार की वजह से याद रखेंगे।’’ पिता जी का मायूस चेहरा देखकर मुझे बड़ी दया आई। उस वक्त रशीद भाई ने मायूसी के बादल छांटते हुए कहा- ‘‘इत्मीनान रखें आप! एक थान आपको सस्ता पड़ेगा और मैं ऐसा बना दूँगा कि कोई बता न पाएगा कि कपड़ा एक है… और दुकानदार को पैसा देने की जल्दी न कीजिएगा। शादी का मामला ठहरा, सौ खर्च होंगे घर के, मैं बात कर लूंगा।’’ अगली बार पिता जी मुझे, थान और भाइयों को ले कर वहाँ पहुँचे। मेरा दिल धड़क रहा था पिछली बार दी गई भैया की पैंट मेरे पहनने लायक होगी या नहीं? दोस्तों के बीच मज़ाक न बन जाए कहीं और ये क्या उसे देखते ही मेरा मन उस पर आ गया। वो एकदम नई पैंट लग रही थी। गली से निकलते ही मेन बाज़ार था। वहाँ कपड़ों की अनगिनत दुकानें थीं। हमारे शहर की मशहूर कपड़ा मिल की चलती दुकान के साथ देश भर की अधिकांश नामी-गिरामी मिलों का कपड़ा बाज़ार में मौजूद था। इन नामी-गिरामी मिलों को मैं रेडियो और टेलीविजन के विज्ञापनों और अखबारों के जरिए खूब पहचानने लगा था। टी. वी. तब नया ही आया था घर में इसलिए कोई सूचना, कोई कार्यक्रम चूक जाना गुनाह-ए-अज़ीम था फिर कपड़ों के विज्ञापन में अपने पसंदीदा क्रिकेट खिलाड़ियों का होना मेरे लिए काफी था। यों नायिकाओं की देह से आकाश की ओर मीलों उड़ती थाननुमा-साड़ी भी मुझे कम रुचिकर नहीं थी। उसका आसमान छूना मेरे लिए कम चमत्कारी नहीं था। 
घर की उस शादी में मैंने पहली बार रशीद भाई को परिवार के साथ शामिल होते देखा। उनकी पत्नी तो नहीं पर उनके दोनों लड़के और छोटी-सी लड़की आए थे। इसी के नाम पर ही उनकी दुकान का नाम था- ‘मन्नत’। उनके लड़के परवेज़ और असलम तो उसी सरकारी स्कूल में पढ़ते थे जिसमें हम भाई पढ़ा करते थे और रशीद भाई कभी-कभार उन्हें पापा से कुछ पढ़ने-समझने के लिए भेज भी दिया करते थे। उनसे जान-पहचान थी ही। मैंने देखा, उस दिन रशीद भाई की आँखें खुशी के इस पल में अपनी कारीगरी की दाद देती हुई कुछ ज़्यादा ही चमक रहीं थीं। पापा और हम सब भाईयों से लोगों की नज़र नहीं हट रही थी। सबकी एकटक आँखों की प्रशंसा रशीद भाई की आँखों में समा गई थी। सफारी की चुस्त फिटिंग, हर सूट में सिलाई का जुदा ढंग और उसमें निखरते हम सब। पहली बार सफारी सूट पहन कर मैं खुद को बारात का दूल्हा मान कर इतरा रहा था। यों सभी भाईयों ने और पापा ने उसी थान से सफारी बनवाए थे पर मजाल है जो कोई भी इस राज को फाश कर देता। रशीद भाई ने अपने यहाँ बनने आए सफारी सूट के कपड़ों के बचे हुए छोटे-मोटे पीस से हर सूट में कोई नया रंग खिला दिया था। दो अलग रंगों का मैच बना कर, कहीं ताना-बाना बदल कर उन्होंने सदी का सब से बड़ा चमत्कार हमारे नाम लिख दिया। उस पर हर बार की तरह पापा को इज्ज़त बख्शते हुए उन्होंने सिलाई भी कम ली थी। पापा के पढ़े-लिखे होने और शिक्षक होने की कद्र उनकी आँखों में हमेशा दिखाई देती। हमारे मोहल्ले के तिमंजिले मकान वाले मालदार कपूर साहब की वो उतनी इज्ज़त नहीं करते थे जितनी हमारे पापा की। छुट्टी के दिन या शाम को अक्सर दुकान पर बैठे तुरपाई करते अपने बच्चों से वे हमारे सामने ही कहते- ‘‘पढ़-लिख जाओ ढंग से तो मास्साब की तरह बन जाओगे। इज्ज़त की रोटी कमाना, इंसान बनना।’’ और मुझसे भी कितनी ही दफा उन्होंने कहा- ‘‘बेटा अपने अब्बा जैसे बनना।’’ पापा ने बताया था कि कॉलेज में दाखिला मिलने पर भी रशीद भाई अपने अब्बू के गुजरने के बाद पढ़ाई जारी न रख सके थे और जिम्मेदारियों में गिरफ्त अपना पुश्तैनी कारोबार संभालने लगे। सब कुछ होते हुए भी पढ़ाई के लिए उनकी खलिश न मिट सकी। न जाने उनकी दुआओं का ही असर था कि मैं भी पापा की तरह सरकारी स्कूल में टीचर लग गया। पर इस सच को रशीद भाई कहाँ जानते थे? उन्हें पता चलता तो कितने खुश होते। उन्नीस-बीस साल बीत गए थे हमें वो मोहल्ला छोड़े।
मैं सोचने लगा रशीद भाई वाकई पढ़ाई-लिखाई को कितनी तरजीह देते थे पर उनके बेटे? आखिर क्या बना होगा उनका? बड़ा परवेज़ तो कहीं क्लर्क-व्लर्क लग भी गया हो शायद पर छोटा असलम? वो तो एकदम निखट्टू था। उसके भविष्य की सूरत भांप कर ही रशीद भाई छुट्टियों में उसे तुरपाई, बखिया से लेकर कटाई का काम सिखाते थे। दूर की आँख थी उनकी। वे अपने हुनर को असलम में उतार देना चाहते थे पर उसका दीदा न पढ़ाई में लगता न सिलाई में। वे कहते थे- ‘‘दो पैसे का काम सीख लेगा, भीख तो नहीं माँगनी पड़ेगी।’’ रशीद भाई जैसा काबिल हो पाना सबके बस की बात कहाँ? फिर इन लोगों के यहाँ बच्चे पढ़ते-लिखते हैं ही कहाँ? इन में पढ़ा-लिखा तबका है ही बेहद कम इसीलिए तो इतने कट्टर… नहीं रशीद भाई ऐसे नहीं थे। रशीद भाई तो अपनी तरह के एक ही इंसान थे, निकलता है कोई-कोई इनके यहाँ भी। इस तरह के एक-आध लोग मुश्किल से पर मिल जाते हैं इनमें। आज मेरा मन बार-बार रशीद भाई की चिन्ता में घुला जा रहा था। वैसे तो बच्चों का फर्ज़ होता है माँ-बाप की सेवा करना पर उन दोनों से क्या बना होगा? फिर रशीद भाई की कमाई पूँजी तो मन्नत के निकाह में लग गई होगी, मैंने अनुमान लगाया मन्नत जवान हो चुकी होगी। शादी के लायक उम्र की। इसीलिए उसकी शादी के बाद जो रकम बाकी बची होगी उससे दो लड़कों और रशीद भाई की अपनी गाड़ी घिसट रही होगी जैसे-तैसे। जुड़ा पैसा कोई कुबेर का खजाना तो है नहीं। और मन्नत? अच्छी सूरत और ढंग की पढ़ाई न हो तो लड़की की जल्दी शादी कर देना ही भला। सीरत-वीरत को कौन पूछता है आज के समय में। मुझे अचानक मन्नत का सांवलापन याद हो आया। उसके नैन-नक्श कैसे थे बहुत दिमाग मारने पर भी यादों के रास्ते कुछ जाहिर न हो सका। कहाँ तक पढ़ी होगी? मदरसे में कुछ पढ़ा हो तो हो उसने। पर कहाँ, वहाँ कहाँ पढ़ाई-लिखाई? तालीम के नाम पर कुरान पढ़ना ही सिखाया जाता है बस। दीन के साथ दुनिया की तालीम कहाँ? यहीं तो उनमें और हममें फर्क आ जाता है। पापा बताते थे उनके घर की औरतों ने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा था।
मैं बाज़ार से घर लौट आया पर मेरी चिन्ता बराबर बनी रही- अब कैसे गुजारा होता होगा रशीद भाई का? क्या आज भी उनके वही ठाठ बरकरार होंगे? अब उतना काम तो नहीं कर पाते होंगे? ढलते शरीर ने काम का दामन कब का छोड़ दिया होगा। नौकरीपेशा आदमी की भी यह उम्र तो रिटायर होकर आराम फरमाने की है। सरकारी नौकरी के आराम के बीच अचानक रशीद भाई के बच्चों का ध्यान आते ही मैं शंका में पड़ गया कि अब भी बाज़ार में उनकी दुकान का सिक्का चलता होगा? हाथ के कितने काम अब खत्म हो चुके हैं फिर कहाँ बचीं अब वो कपड़ा मिलें? शहर की जानी-मानी मिल तो कबकी बन्द हुई। बरसों शहर की उस मिल की खाली पड़ी जमीन पर अब ग्रुप हाउसिंग सोसायटी खड़ी होने की खबरें आम हैं। अब बाज़ारों में कहाँ रहीं वो कपड़ों की पुरानी दुकानें। मेरा मन सवाल करता क्या बाज़ार की वो रौनक  अब भी बरकरार होगी? लेडीज़ टेलर्स तो फिर भी किसी तरह बचे हुए हैं पर कितने जैंट्स टेलर्स को मैंने खुद बेकार होते देखा है। हमारे नए मोहल्ले में चल रही जेंट्स टेलर्स की दुकानों को मैंने घिसटते और बन्द होते अपनी आँखों से देखा। आस-पास के मोहल्लों के चार-पाँच बाज़ारों में एक भी जेंट्स टेलर की दुकान नहीं है। रशीद भाई का चेहरा फिर से दिमाग में उभरा तो सोचने लगा, बिना पैंशन पाने वाले पिता की सही मिट्टी पलीद करती हैं संतानें। बुढ़ापे में कितना बेइज्जत होना पड़ता है अपने ही जायों से। रशीद भाई भी हो रहे होंगे। शुक्र है हम भाई नहीं बहे इस बेदर्द हवा के संग पर हम जैसे हैं ही कितने?
 ‘‘मम्मी! रशीद भाई याद हैं?’’ उस दिन रशीद भाई मेरे दिलो-दिमाग पर हावी हो चले थे।
‘‘तुझे आज कैसे याद आ गई?’’ माँ के सवाल के जवाब में बस ऐसे ही के अंदाज में मैं हल्का-सा मुस्कुराया।
‘‘पुराना घर क्या छोड़ा रशीद भाई ही छूट गए। तेरे पापा बाद तक भी जाया करते थे उनसे मिलने पर काम-धंधे में बरकत वैसी न रही थी। धीरे-धीरे आना-जाना छूट गया और फिर तेरे पापा भी …’’ मैं उनके  शब्दों की नमी पर गौर ही कर रहा था कि वे बोलीं- ‘‘पता नहीं जिन्दा भी हैं या… किस हाल में होंगे ईश्वर जाने?’’
मम्मी की बात से अचानक फिर मेरी रूह कांपी। वो तो नहीं पर मैं समझ रहा था ये समय फिर से रशीद भाई जैसों की अग्नि-परीक्षा का समय है। धारा उनके अनुकूल कहाँ? जात के कारीगर, धर्म के मुसलमान ऊपर से गरीब। उन जैसों की किस्मत तो बद से बदतर हो रही है। मन में चरम आवेग के बाद लहरें जब थमतीं तो मैं फिर रशीद भाई के साथ खुद को पाता- ‘‘कितने अलग तरह के इंसान थे। अपने सभी हिन्दू ग्राहकों की कितनी इज्जत करते थे। यों ही पापा उनकी प्रशंसा करते थे क्या?’’ मेरे अनुमान फिर से एक शक्ल गढ़ते और ज़माने के चलन में रशीद भाई का चेहरा अधिक दयनीय मुद्रा में साकार होता। अनुमान में तराशे उनके चेहरे पर बेचारेपन के अलावा मुझे कुछ न दिखाई देता। दिल-दिमाग पर हावी होते जा रहे रशीद भाई के ख्याल को मैंने बड़ी मुश्किल से कुछ देर के लिए झटका।
अगले दिन का हाल न ही पूछिए तो बेहतर। मैं रोज़ की तरह स्कूटर पर स्कूल की तरफ जा रहा था। चौराहे पर रेड लाइट ने कुछ पल आस-पास देखने की मोहलत दी। नज़र घुमाई ही थी कि ये क्या? मेरा दिल धक्क रह गया। दिमाग की सारी नसें अचानक ही मुझे बेहद तनी हुईं और गर्म महसूस हुईं। स्कूटर के हैंडल पर मेरे हाथों का दबाव अचानक पिघल कर गायब-सा होने लगा। मुझे अपने दोनों हाथ सुन्न से महसूस हुए। दाहिनीं ओर कुछ आगे की भीड़ में एक ऑटो के पीछे लिखे शब्दों ने मुझे हिला कर रख दिया।
‘‘चले ज़िंदगी की गाड़ी, इज्ज़त की रोटी
 अल्लाह करम हो, तेरे बंदे रशीद पर’’
इज्जत की रोटी और रशीद इन शब्दों ने मेरी सारी इंद्रियों को सचेत कर दिया। अतीत सामने खड़ा हो गया। रशीद भाई के शब्द स्मृतियों के खाने से सिर उठाने लगे पर ग्रीन लाइट में तीस सेकेंड का बाकी समय, ऑटो की दूरी और अपने स्कूटर को अकेले छोड़ कर जाने के ख्याल ने सभी आफतों को एक साथ मुझ पर लाद दिया। मैंने सीट पर ही तिरछा हो कर ऑटो-रिक्शा वाले को नज़र के दायरे में लाने का भरसक प्रयास किया पर सब व्यर्थ। मन की आँखों से मुझे साफ दिख रहा था कि हो न हो ये रशीद भाई ही हैं। तेजी से चौपट हो रहे सिलाई के धंधे को न संभाल पाने और अपनी गिरती ज़िंदगी को पार लगाने का ये रास्ता चुना उन्होंने। सिगनल मिलते ही मेरे स्कूटर ने रफ्तार पकड़ ली जैसे मेरे मन में लगातार इज्जत की रोटी और बंदा रशीद की धुन दुगुन-तिगुन में बजने लगी। मैं ऑटो की दिशा में भागने लगा। भागते हुए मेरी आँखें ऑटो वाले की वर्दी के भीतर रशीद भाई को बेचैनी से खोज रही थीं। उसके पीठ, कंधे और बालों का रशीद भाई की काठी और हुलिये से मिलान करता मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था। मैली-कुचैली वर्दी में ऑटो-रिक्शा वाले को जब मैंने नज़दीक से देखा तब जाना शब्द इसके भी रशीद भाई जैसे हैं पर ये रशीद भाई नहीं। दो घड़ी का समय लगा मन को स्थिर होने में। स्थिर होते ही मन ने कहा शब्द इसके भी कहाँ होंगे? वो तो किसी पेंटर के ही होंगे। मिलते ज़रूर हैं रशीद भाई के फलसफे से पर कौन जाने पेंटर कौन है? हिन्दू भी हो सकता है। पर रशीद भाई? उन्होंने भी तो कहीं कोई ऐसा ही काम?… हो भी सकता है। ज़रूरी तो नहीं परवेज़ क्लर्क ही लगा हो खरादिया भी तो हो सकता है न? और असलम वो भाग गया हो पाकिस्तान अपने किसी चाचा-ताऊ के यहाँ। एक आते तो थे कई बार उनके घर। अक्सर उन्हीं के साथ घूमता दिखाई देता था असलम। हमारी मकान-मालकिन जिन्हें हम चाची कहते थे कितना डर गईं थीं उन्हें मोहल्ले में देख कर। आज भी उनके शब्द कानों में उस दिन की तरह जिंदा हैं- ‘‘कैसी डरावनी तो आँखें हैं.. अभी चेहरे से निकल कर खून कर दें किसी का।’’ मुझे याद है पापा कितना नाराज़ हुए थे उनसे। पर उस दिन के बाद जब भी मुझे अफज़ल के चाचा दिखते मैं डर जाता। उनके चेहरे के संग चाची के शब्द किसी चेतावनी से चस्पां हो गए थे। पता नहीं उसके चचा रहते कहाँ थे? कहीं रशीद भाई शहर छोड़ कर चले तो नहीं गए उनके पास? …आखिर कैसे जी रहे होंगे रशीद भाई? मेरे मन में अचानक रशीद भाई के लिए दया का सैलाब उमड़ने लगा। 
‘‘ इसमें इतना भी क्या परेशान होना? चले जाओ किसी दिन अपने पुराने मोहल्ले या उनकी दुकान पर। यहाँ बैठे सोचते रहने से क्या हासिल होगा भला?’’ शिखा मेरी चिन्ता भांपते हुए बोली।
‘‘और मिलने पर क्या कहूँगा… क्यों आया हूँ?’’ मैंने सवाल दाग दिया।
‘‘कह देना मिलने और क्या?’’
‘‘इतने सालों में कोई खोज-खबर ली नहीं और अब अचानक…’’ शिखा सहज थी पर मैं दुविधा में फँस गया।
‘‘तो कहना कपड़े सिलवाने के लिए और क्या?’’ शिखा ने बिना देर लगाए कहा। मैं जितना उलझा हुआ वो उतनी ही सुलझी हुई। उसकी बात से जैसे मुझे सुकून और सही राह दोनों साथ मिल गए। इधर ज़रा-सा इत्मीनान हाथ आया ही था कि एक भारी ग्लानि भी उसी राह चली आई। रशीद भाई की चिन्ता में शामिल अपना कुसूर भी मुझे साफ दिखाई देने लगा। जब मैं पिता जी के नक्शेकदम पर था और रेडिमेड कपड़े मेरे लिए आफत हो रहे थे तब क्यों मैंने रशीद भाई को अब तक नहीं ढूँढा? क्यों मैंने अपने संतोष की बलि चढ़ने दी। क्यों नहीं पापा की ही तरह अपनी पसंद को तरजीह दे पाया और क्यों मैंने नए ज़माने के नए चलन की तेज़ आँधी में सब उड़ जाने दिया? अचानक मेरी आत्मा पर पिछले कई बरसों में उजड़ गए दर्जियों और ठप्प पड़ गए उनके काम-धंधों में अपना किया कुसूर बहुत नागवार गुजरने लगा। मुझ जैसे कसूरवारों ने ही रशीद भाई जैसों की हालत बदतर बना दी। कल तक मैं भव्य ब्रांड के रेगिस्तानी धोरों को कोस रहा था तो आज उन रेतीली इमारतों की ऊँचाई पर मैंने खुद को खड़ा पाया। उस ऊँचाई से जब मैंने नीचे की ओर देखा तो दर्जियों के बन्द होते धंधे और मोहल्ले में सिलाई मशीन ले कर पुराने कपड़ों को दुरूस्त करते एक-आध बेचारे-से कारीगर ही दिखाई दिए। हालत ये हो गई है कि अब घरों में भी सिलाई मशीन रखने का चलन खत्म हो गया। यूज़ एंड थ्रो के चलन ने पुरानी चीज़ों के साथ हर पुराने चलन को भी लात मार कर फेंक दिया। पुराने काम-धंधों और हुनर की ऐसी बेइज्जती से मेरा मन कांप गया। मैंने प्रण किया कुछ भी हो कल मुझे हर हालत में रशीद भाई के बारे में पता करना ही है। मन का एक कोना ये भी समझ रहा था कि पुराने सब कुछ को उड़ाती तेज़ आँधी में मेरे भावुकतापूर्ण विचार कितनी देर टिक पाएंगें? पर मन कहता कि चाहे कुछ हो डर के मारे हर बार शुतुर्मुर्ग बन कर जीने से क्या हासिल? और फिर कौन सोचेगा इनके बारे में? मैं खुद को दिलासा देता तमाम भयों पर फतह पाने के किसी पोशीदा राज में खो गया। रात भर मैं बाज़ार का पुराना नक्शा दिमाग में बनाता रहा। घूमता रहा उन गलियों में और खोया रहा अपनी चिन्ताओं में। आज पापा भी बहुत याद आ रहे थे। कितने जीवट वाले इंसान थे। अपने निर्णयों को सम्मान से जीने वाले थे, ये आज गहराई से समझ आ रहा था। जगभाता नहीं मनभाता करने वाले। उनके खब्ती स्वभाव की कद्र आज उसकी नज़र में बढ़ती ही जा रही थी। उस स्वभाव की जिसका उनके बच्चों और पत्नी दोनों ने खूब मज़ाक उड़ाया था। माँ कितनी बार कहती- ‘‘क्या तुम हमेशा बाज़ार-बाज़ार करते रहते हो। बाज़ार ऐसा हो गया। बाज़ार ने ये कर दिया।’’ खुद मुझे भी तो कितनी ही बार ऐसा ही लगता….पर आज उनके उसूलों का अर्थ कुछ अलग तरह से समझ आ रहा है। नए मकान में जब तक जिए घर में राशन रौनक स्टोर्स से ही आया। जीवन भर छोटे दुकानदारों से उनका प्यार-मोहब्बत, भाईचारे का रिश्ता बना रहा।
अगले दिन मैंने अपना स्कूटर उठाया और चल पड़ा अपने रशीद भाई को ढूँढने। कई साल पहले मौसेरी बहन की शादी में जो शर्ट-पैंट का जोड़ा मुझे मिला था उसे एक थैले में डाल कर शिखा ने मुझे दे दिया। बरसों से वो जोड़ा इसी थैले में कैद था। यों भी अब शादी-ब्याह पर हम जैसे लोगों के परिवारों में ही इस तरह के जोड़े भेंट किए जाते थे।  पुरानी रस्म की तरह यह भी रस्म अदायगी ही थी। जोड़े के साथ मैंने अपने सारे सवालों और ख्यालों को भी उस थैले में डाला और मंजिल की ओर निकल पड़ा। ज्यों-ज्यों दूरी तय होती जा रही थी मेरी धुन को भी पंख लगते जा रहे थे। नॉस्टैल्जिया दिमाग से मेरी आँखों में उतर कर बाज़ार को साकार कर रहा था और जिंदा हो रहा था दृश्यों का वह संसार जिसकी हरकतों पर मैं जान देता था।

‘‘एक बार मिल जाएँ रशीद भाई फिर अपने सभी दोस्तों, परिचितों को भी उनकी दुकान की राह दिखाऊंगा। बरसों से ठप्प उनका धंधा फिर आबाद होगा। रशीद भाई का सिक्का फिर से जम जाएगा।’’ मेरा उत्साह बढ़ता ही जा रहा था। ये उत्साह बरसों की दूरी को पाटता आनंद की लहर में था। अपनी ठीक-ठाक याददाश्त के सहारे मैं बाज़ार में पहुँचा तो उसकी सूरत बिल्कुल बदल चुकी थी। मैंने बचपन में उसे जिस रूप में देखा था उसका कोई निशान आज बाकी न था। अतीत के जादू में घिरे होने के कारण मेरे लिए बाज़ार बिल्कुल वैसा रहा जैसा मेरा बचपन। जैसे वहीं ठहर गई मेरी वो उम्र। पर इस समय वास्तविकता से टकराते ही मुझे दिखाई देने लगा मेरी दोनों उम्रों के बीच का फासला। इस फासले पर ध्यान जाते ही जादू टूटने लगा। ये बाज़ार भी तमाम दूसरे बाज़ारों में बदल गया जो मोहल्लों और मॉल्स के बीच मोहल्लों के बाज़ारों को पीछे छोड़ते मॉल्स की बराबरी करने में लगे थे। मुझे दिखने लगीं चमचमाती भव्य दुकानें, चुस्त सेल्समैन और मोटा ग्राहक। गाड़ियों से पटे रास्ते और धक्का-मुक्की करता ग्राहकों का रेला। मॉल्स जितनी जगह तो यहाँ असंभव थी पर उनकी बराबरी की धुन में हर दुकान अपनी भव्यता में निराली दिख रही थी। मेन सड़क पर कढ़ाई-सिलाई और कपड़ों की उन दुकानों का नामोनिशान तक न था जो मेरे जेहन में आज तक जीतीं थीं। वहाँ थीं तिमंजिला दुकानें, आलीशान दुकानें, रौनकदार दुकानें और मैं पॉलीथिन बैग में कपड़ा लिए उनसे गुजरता हुआ जा पहुँचा उस गली के द्वार पर जहाँ से अन्दर कुछ चालीस-पचास कदम पर ही थी मन्नत टेलर्स की दुकान। मैंने गौर किया बाज़ार की तरह गली भी बेहद बदल गयी थी। हाथ के कारीगरों के धंधे वहाँ से उठ चुके थे। कहाँ चले गए होंगे वो खानदान? क्या हुआ होगा उनके खानदानी हुनर का? कैसे कमा-खा रहे होंगे अब? शहरों में तो उनकी माँग खत्म हुई। शायद धंसे होंगे नमालूम सी कस्बाई गलियों में कहीं। कुछ को बड़े डिज़ायनर्स और कंपनियों ने मामूली वेतन पर रख लिया होगा। कुछ देश के अनेक हिस्सों में सस्ते श्रम और बिना किसी बुनियादी सुविधाओं के विदेशी कंपनियों के टेलर होकर रह गए होंगे। यानी कपड़ा हमारा, मज़दूर हमारा और मुनाफा टैगधारी कंपनी का। इनके अलावा शहर में जो बाकी बचे भी होंगे वो अपने भीतर के कलाकार को मार कर ऑलट्रेशन जैसे मामूली कामों से पेट पाल रहे होंगे। न जाने कैसे? मेरे लिए रशीद भाई की खोज आज केवल एक इंसान की खोज नहीं रह गई। आज कई सूरतें उसमें उभर कर आने लगीं। वो सवाल सर उठाने लगे जिनके बारे में मैंने कभी इस तरह सोचा ही नहीं था। सब मेरे लिए भी चलता है जैसा ही तो था। अपने सभी सवालों के साथ दिमाग में यहाँ आने का मकसद एक बार फिर कौंधा। रशीद भाई को तो ढूँढना ही था। कदम आगे बढ़े तो मैंने देखा गली के दोनों ओर कुछ गोदाम-से बन गए थे। अन्दर के मकान काफी स्टाइल में बने खड़े थे जब कि पहले कोने का खन्ना जी का खन्ना निवास का बोर्ड लगा मकान ही भव्य दिखाई देता था। उसने आज शानदार शो-रूम का रूप ले लिया था। पर ये क्या? अतीत की गली को वर्तमान से तौलते जब मैं मन्नत टेलर्स पर पहुँचा वहाँ चाय की छोटी-सी दुकान थी। मैंने ध्यान से देखा अवशेष के रूप में मन्न्त टेलर्स का बोर्ड भी नदारद था। मेरी उम्मीद पल भर में आकाश से धरती पर पटक दी गई जैसे और उम्मीद की पसलियां दर्द से कराहने लगीं।
‘‘भई! यहाँ मन्नत टेलर की दुकान थी पहले।’’ चाय वाले से सवाल कर मैंने पीढ़ा से कराहती चित उम्मीद को जैसे-तैसे खड़ा करने की कोशिश की।
‘‘होती होगी बाऊ जी, पर मैं तो तीन-चार साल पहले ही आया हूँ। मैं नहीं जानता। सारा इलाका बदल गया है। न पुराने दुकानदार रहे,  न मकान-मालिक।’’ चाय वाले के शब्दों से मिली निराशा में मैं जैसे ही पलटा वह बोला- ‘‘कोने की जो दुकान है न बाऊ जी। वो पुराने दुकानदार हैं। शायद कुछ जानते हों। थोड़ी-बहुत दुकानें मार्किट के सबसे पिछले हिस्से में चली गईं हैं। यहाँ तो बड़ी-बड़ी दुकानें हैं बस। मेन रोड है न।’’ मेरे पस्त हौसले ने फीकी-सी हँसी में उसका धन्यवाद दिया, जो दिया न दिया बराबर था। रशीद भाई को खोजने की मेरी आग पर ठंडा पानी पड़ गया था। पॉलीथिन बैग पर मेरी मजबूत पकड़ भी ढीली पड़ गई। एक आखिरी उम्मीद में, मार्किट के पिछले हिस्से की ओर जाने से पहले मैं उस कोने की दुकान की तरफ बढ़ चला कि कुछ पता चल सके रशीद भाई का। इनफिनिटी नाम की तिमंजिली दुकान के हर फ्लोर पर रंग-बिरंगे कपड़े जगमगा रहे थे। बाहर से मेरे संग आया गर्मी का पारा ए सी की ठंडक में उतरने लगा। कानों में किसी तेज़ गाने की धुन समाने लगी, उसके संग चला आ रहा था ग्राहकों का तेज़ शोर। दुकान में दाखिल हो कर मैंने मालिक को पूछा तो बेहद व्यस्त सेल्समेन ने एस्केलेटर की दिशा में तीसरी मंजिल की ओर इशारा किया। मेरा मन भले ही उदास था पर नज़र हर फ्लोर पर बच्चों, औरतों और आदमियों के कपड़ों, ग्राहकों की भीड़ और व्यस्त काउंटर्स की अनदेखी न कर सकी। तीसरी मंजिल के दो हिस्सों में एक तरफ शानदार ऑफिस था तो दूसरी ओर कपड़ों का सेक्शन। ऑफिस की शान था दीवार में जड़ा शीशे का बड़ा-सा पैनल जिससे नीचे के बाज़ार की रौनक भीतर दाखिल होती जान पड़ती थी।
‘‘जी?’’ डेस्कटॉप पर हिसाब में उलझे मालिक ने मुझे एक झलक देख कर अपनी आँखों को दुबारा डेस्कटॉप पर केंद्रित किया। उसका जी काफी वजनी महसूस हुआ मुझे। उसकी ठसक और स्टाइल से भरी उपेक्षा के बावजूद मैंने अपनी बात कही-
‘‘ कुछ जानना था आप से।’’
मेरी बात को कोई महत्व नहीं दिया गया है, ये जान कर भी मैंने पूरी बेशर्मी के साथ कुछ रूक कर कहा- ‘‘यहाँ मन्नत टेलर्स की एक दुकान हुआ करती थी। रशीद भाई की… उन्हीं के बारे में पता करना है… किसी ने बताया आप काफी पुराने बसे हैं इस जगह।’’ अचानक मालिक ने खुद को डेस्कटाप से मुक्त किया और मेरे चेहरे की ओर एकटक देखने लगा। मुझे बड़ा अजीब-सा महसूस हो रहा था… पता नहीं यह क्यों घूर रहा है? एक जानकारी के बदले में उसका इस तरह घूरना मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। शायद मेरे आने से उसके काम में कोई भारी रुकावट आ गई थी।
‘‘आप समीर हैं न? मास्साब के बेटे?’’ उस के इन दो सवालों से थैला मेरे हाथों में जकड़ा रह गया और मेरी आँखें अचरज की आखिरी सीमा तक फैल गईं।
इस से पहले कि मैं कुछ कहता मालिक बोला- ‘‘आज कैसे रास्ता भूल गए आप? इतने सालों बाद?’’ मेरा दिमाग सौ गुना रफ्तार से अतीत को खंगाल कर इस आदमी को पहचानने की कोशिश करने लगा। मेरी पेशानी पर पड़ी सिलवटों के साथ ही मेरी आँखें पहले फैलीं और अब सिकुड़ कर दूरबीन बन गईं। मैं उसके लैंस को घुमाता मालिक के चेहरे को अपने एकदम करीब ले आया। क्लोज़ अप में चेहरे की रेखाएं और नसें सब उभरने लगीं। कहाँ देखा है इसे? कौन है ये?- के सवालों से मैं जूझ ही रहा था कि वो अपनी कुर्सी से उठ कर मेरे पास आया।
‘‘ मेरा हुलिया काफी बदल गया है पर आपका चेहरा बिल्कुल वही है… मैं असलम.. समीर भाई! पहचाना?’’ असलम के शब्द गर्मजोशी से मुझे छू रहे थे। उसे अचानक पास आया देख मैं कुछ कहता कि उसने मुझे अपनी बाहों में ले लिया। उसके हाथों की पकड़ किसी गहरी दोस्ती-सी मुझे सहला रही थी और मैं खुद को उसके हवाले किए दे रहा था। अगले क्षण उसने मुझे थाम कर अपने सामने वाली कुर्सी पर बिठाया।
‘‘अब्बा आज तलक याद करते हैं आप लोगों को। मास्साब का जिक्र चलता रहता है घर में। यकीन जानिए वो दौर कब का बीता पर आप जैसे कितने लोग हमारे दिलों में बसे रहे। देखते-देखते पुराना काम सब बन्द हुआ। बाज़ार इतना तेज-रफ्तार हुआ कि हाथ से काम करने वाले बुरी तरह पिछड़ गए। एक-एक करके कई दुकानें बन्द हुईं फिर बिक गईं और कुछ सिमट गईं बाज़ार में एकदम पीछे। अब्बू कई साल संभालते रहे जैसे-तैसे। लड़खड़ाते हुए गिरे भी कई बार। बड़ा बुरा दौर था हमारा। अब्बा के लाख चाहने पर भी हम दोनों भाईयों में सिलाई का खानदानी हुनर न उतर सका पर भाईजान और मैं आपके वालिद की समझाइश पर बढ़ते रहे। मेरी हालत तो आप जानते ही थे… पर मैंने पढ़ाई नहीं छोड़ी। भाईजान तो शुरू से ही अच्छे थे पढ़ाई में अब बाहर ही सेटल हो गए और मैं एम. बी. ए. के बाद अब्बू के साथ। कपड़े का कारोबार अब्बू की जान है। उन्होंने अपने वालिद का साथ दिया और मैंने उनके साथ खड़े होना मुनासिब समझा। आखिर औलाद पर वालदेन का भी हक है न? भाईजान भी पूरी मदद करते हैं हमारी। बस अब्बू और उनकी मदद से ही धीरे-धीरे इस इनफिनिटी ने शक्ल पाई। बाकी जो है सो आप देख ही रहे हैं। हम दोनों ने अब्बू को काम से एकदम फारिग कर दिया है पर त्यौहार पर शौक से आज भी कैंची उठा लेते हैं।’’ उसकी मुस्कुराहट मुझसे छिपी न रह सकी। अतीत से आज तक का पुल बनाते असलम के शब्दों की ताज़गी मेरी मुर्दनी पर भारी थी।
‘‘और आप सुनाओ? क्या चल रहा है?’’
‘‘स्कूल में पढ़ाता हूँ।’’ चार शब्दों को बेहद ठहर-ठहर कर मैं बोल पाया। न मालूम वो किस गहरी खोह से निकल रहे थे।
‘‘आप भी मास्साब…’’ असलम के शब्द सहज थे पर वजनी हथौड़े से मेरे सीने पर पड़े। मुझे महसूस हुआ उसकी कुर्सी और मेरी कुर्सी के बीच कोई टेबल नहीं विशालकाय समुद्र लहरा रहा था। कुछ भी न कर पाने की हालत में मैं पॉलीथिन बैग को छिपाने की दिलो-जान से कोशिश करने लगा। मैं उसे जितना छिपाता वो अपनी चर्रमचूं से उतना अधिक उजागर हो रहा था।
‘‘थैला मेज पर रख दीजिए न… इत्मीनान से बैठिए आप।’’
उसके शब्दों से फिर मेरी जान सूखने लगी। मेज पर रखते ही थैला कपड़ों सहित सारा राज़ फाश कर देगा और जाहिर ये होगा कि मैं आज उनकी अपने मुताबिक सोची गिरती हालतपर रहम करने आया हूँ। धड़कते दिल से मैं दुआएं माँगने लगा ये धरती फट जाए और थैला उसमें समा जाए या फिर ऐसा अंधड़ चले कि असलम की आँखें धूल से भर जाएँ। ये थैला उड़ कर मुझसे मीलों दूर चला जाए और वो इसे देख न पाए। मुझे खुद पर और थैले पर बेहद तरस आ रहा था। मैंने उसे अपनी गोद में हाथों की ओट बना कर छिपा लिया। बाकी की कसर असलम और मेरे बीच की मेज़ ने पूरी कर दी। ओट और आड़ दोनों ने थैले को काफी ढाँप दिया। हाथों को बिना हिलाए मैंने उसकी चर्रम-चूं का रास्ता भी बन्द कर दिया।
‘‘अभी कुछ देर में अब्बा भी आते होंगे। कभी-कभार आते हैं दुकान पर। मन नहीं लगता न घर पर और फिर इस जगह से पुराना यराना जो ठहरा उनका।’’
असलम की इस बात से मुझे और धक्का पहुँचा। उससे मिल कर जितना मैंने जाना था उतने भर से ही मैं वहाँ से भागने का रास्ता खोज रहा था पर अब सारी दिशाएं मुझ पर बन्द थीं। सुबह तक जिन रशीद भाई से मिलने के लिए मैं मरा जा रहा था अब उनसे बचने का मौका तलाशने लगा। पर मौका मिलना नामुमकिन था। इससे पहले की मेरा दिमाग कोई बहाना गढ़ता या वक्त मुझे संभलने की मोहलत देता, असलम बोला-
‘‘देखिए अब्बू आ गए।’’
असलम के शब्दों और इशारे की दिशा में जब मैंने शीशे के पैनल से नीचे झांका तो एक गाड़ी दिखाई दी। ड्राइवर ने दरवाज़ा खोला और बड़े अदब से रशीद भाई को उतारा। रशीद भाई जितने इत्मीनान से ऊपर आ रहे थे उनकी धज की हल्की-सी झलक मिलने से मैं उससे चौगुनी गति से किसी तूफान में घिरता जा रहा था। मन किया मैं भी किसी अदृश्य शक्ति से अपने थैले में छिप जाऊँ, कहीं गायब हो जाऊँ। उन्हें सामने जो देखा, देखता ही रह गया। उनकी उम्र ज़रूर बढ़ी थी पर उससे ज़्यादा बढ़े थे उनके ठाठ। बालों को उन्होंने किसी खिजाब का रंग नहीं दिया था। अपनी सफेदी में उनके बाल सुंदर लग रहे थे। चेहरा एकदम सफाचट और उस पर गजब की लाली और तेज़। शरीर पहले से अधिक भारी हो गया था और उसी अनुपात में चेहरा भी भरा-भरा लग रहा था। उनके जिस्म के कपड़ों और हर चीज़ से नफासत बह रही थी और मैं उस ठाठ की बाढ़ में डूबता चला जा रहा था। परिचय के बाद माहौल में एक बुजुर्ग का अपनापन दाखिल हो गया। मुझ से मिलते ही उनके चेहरे से बयां होती खुशी और उत्तेजना की कंपकपी को मैंने महसूस किया। पापा की मौत का उन्हें बेहद अफसोस था। कुछ देर की चुप्पी के बाद ऑफिस में फैले दुख की चादर को उन्होंने अपने शब्दों से समेटा- ‘‘बेटा! ये तो उम्र भर का दुख है। जाने वाले की यादें रह जाती हैं बस।’’ बाद में उन्होंने मेरे काम-धाम के बारे में पूछा तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा-
‘‘मैं जानता था तुम भी अपने वालिद जैसे ही बनोगे। दिखते भी उन्हीं की तरह हो। चाहते तो हम भी थे बेटा! कि हमारा कोई बच्चा भी पढ़ाए… पढ़े तो तीनों खूब पर पढ़ाने वाला कोई न निकला।’’ उनके भरोसे की मोहर के नीचे मैं अब भी अपनी तमाम अटकलों में एक अदना-सा इंसान लग रहा था। कहाँ वे और कहाँ मैं? उनकी खुशी का जवाब मैंने एक फीकी-सी हँसी से दिया। अगले ही क्षण मेरे अन्दर के वहम एक बार फिर मज़बूती से उठ खड़े हुए।
‘‘मन्नत कैसी है अंकल? अब तो वो भी घर-गृहस्थी वाली हो गई होगी?’’ मेरे सवाल पर रशीद भाई मुस्कुराए।
‘‘ अरे! याद है तुमको उसकी? भई! मन की मालिक है वो। हमारी आन और शान। बानो डॉक्टर हो गईं हैं। हार्ट स्पेशलिस्ट। पहले कहती थीं निकाह अपनी पसंद से करेंगी। हम भी इंतज़ार करते रहे। अब कहती हैं निकाह के लिए अभी वक्त मुफीद नहीं। बरखुरदार आजकल तुम्हारे जैसे होनहार बच्चे खूब जानते हैं अपना भला-बुरा। हम ने तो सब उन पर छोड़ रखा है।’’
रशीद भाई ने मेरे वहम को ज़रा भी मोहलत न दी। उन्हें ज़रा तरस न आया मुझ पर… मन्नत भी?
मेरे लाख मना करने पर भी रशीद भाई ने चाय-नाश्ता मंगा कर घर के आदमी जैसी इज्ज़त मुझे दी। पूरे आग्रह से मुझे खिलाया। पापा के ज़िक्र ने उस माहौल में पुराने दिनों को लौटा दिया। उनके पास पापा से जुड़े कई किस्से थे। उनकी बातचीत और मेरे परिवार के प्रति उनके स्नेह ने मुझे हर तरह की शर्मिंदगी से उबार लिया।
 ‘‘आपके वालिद के इंतकाल के समय मैं बाहर था… परवेज़ के पास। बेटा! आज उन्हीं के फज़ल से मेरे तीनों बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं।’’ मेरे मन में रशीद भाई के लिए आदर और गहरा हुआ। चलते समय जब मैं उनके पैर छूने को झुका तो आगे बढ़ कर उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया और नम आवाज़ में कहा-
‘‘भाभी को मेरा सलाम कहना और आते रहना बेटा! आज तुम से मिल कर दिली खुशी मिली है मुझे।’’
रशीद भाई का प्यार लिए मेरे कदम दुकान से निकल रहे थे। चेहरे पर असलम की हँसी के जवाब में एक मुस्कुराहट थी। मैं खुश था कि रशीद भाई खुश हैं, उनका परिवार खुशहाल है पर दिमाग के दूसरे कोने में जारी हलचलें मुझे अशांत कर रही थीं- क्या सब रशीद इतने खुशकिस्मत हैं? अचानक मेरे हाथ में दबा हुआ थैला मुझे बहुत भारी लगने लगा।

सम्पर्क-
ई-112, आस्था कुंज अपार्टमेंट्स
सेक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-89
मोबाईल- 9811585399

ई-मेल : pragya3k@gmail.com
(इस कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

अजय कुमार पाण्डेय द्वारा संपादित कविता-संग्रह पर रामजी तिवारी की समीक्षा


बाल-साहित्य के बारे में प्रख्यात गीतकार और शायर गुलज़ार ने एक बार कहीं यह कहा था कि, ‘अच्‍छा बाल साहित्‍य वह है जिसका आनंद बच्‍चे से ले करबड़े तक ले सकें। बाल साहित्य की यह वह परिभाषा है जो उसे अब तलक बनाए गए खांचों से स्वतन्त्र करती है हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में लगभग दो हजार साल पहले प्‍लेटो द्वारा कही गयी बात को भी हमें अच्छी तरह ध्यान में रखना होगा कि, ‘बच्‍चा दरअसल बड़ों के बीच एक विदेशी की तरह होता है। जैसे किसी विदेशीसे जिसकी भाषा आपको न आती हो जब आप बात करते हैं तो आपको मालूम होता है कि मेरी कई बातें वो ठीक समझेगा, कई नहीं समझेगा या गलत समझ जाएगा। और जब वहबोलता है, अपनी भाषा में बोलता है और हमको उसकी भाषा नहीं आती तो हम उसकीपूरी बात नहीं समझ पाते। कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं, और इस तरीके से जो आदान-प्रदान होता है वह आधा-अधूरा होता है।हमें बच्‍चे को भी इस तथ्‍य को ध्‍यान में रख कर देखना और समझना चाहिए। कवि अजय कुमार पाण्डेय ने इधर बाल-कविताओं का एक उम्दा संकलन तैयार किया है जिसे साहित्य भण्डार, इलाहाबाद ने बेहतर कलेवर और साज-सज्जा के साथ प्रकाशित किया है इस संकलन में सम्पादक ने उन कुछ कविताओं को शामिल किया है जिसके केन्द्र या परिदृश्य में बच्चे हैं इस महत्वपूर्ण संकलन के लिए अजय कुमार पाण्डेय को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं इस संकलन पर कवि-यायावर रामजी तिवारी द्वारा लिखी गयी यह समीक्षा   



बेहतर दुनिया की तलाश में             

रामजी तिवारी 

आधुनिक सभ्यता ने मानव जाति को एक अजीब दोराहे पर खड़ा कर दिया है। एक तरफ हम दुनिया के साथ आगे बढ़ने की दौड़ में शामिल हैं और चाहते हैं कि अपने बच्चों के लिए सब कुछ संजो कर जाएँ। वहीं दूसरी तरफ इस सब कुछ को जुटा लेने की अंधी दौड़ के कारण हमारी पृथ्वी का जो दोहन हो रहा है, उसके चलते हमारी दुनिया का भविष्य ही प्रश्नों के दायरे में आ गया है। यानि कि हम जिस दुनिया में अपने सात पीढ़ियों के लिए भौतिक व्यवस्था जुटाने के लिए मर-कट रहे हैं, वही दुनिया हमारे इस जुटाने की हवस के कारण हमारी ही पीढ़ी के सामने अपने अस्तित्व के लिए कराह रही है। मसलन पर्यावरण का उदहारण ले लीजिए। हम सब जानते हैं कि मनुष्य की भौतिक सम्पदाएँ सीमित हैं। और साथ में यह भी कि यह पृथ्वी हमारी जरूरतों को तो पूरा कर सकती है, लेकिन हमारी इच्छाओं को नहीं। बावजूद इसके हम अपनी पृथ्वी के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो वह हमारी सारी इच्छाओं को अनंत काल पूरा करती रहेगी। हम भौतिक संसाधनों के साथ इस तरह से पेश आते हैं, गोया वे अनंत काल तक बने रहेंगे।

यह कितना बड़ा विरोधभास है कि एक तरफ तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को तमाम भौतिक सुख-सुविधाएँ दे कर जाना चाहते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए हम इस बात को भूल ही जाते हैं कि हमने उन पीढ़ियों के लिए रहने लायक परिस्थिति ही नहीं छोड़ी है। दुखद यह कि ‘पर्यावरण की इस कहानी’ को आप ‘बच्चों की कहानी’ पर भी लागू कर सकते हैं। एक तरफ हम अपने बच्चों से इतना सारा प्यार करते हैं। उन्हें दुनिया की हर ख़ुशी देना चाहते हैं। उनके सामने भौतिक संसाधनों का अम्बार लगा देना चाहते हैं। उनके लिए संपत्ति और धन का सारा संकेन्द्रण कर देना चाहते हैं। और इस कथित प्यार को देने के लिए दुनिया भर में मार काट मचाते हैं, युद्ध लड़ते हैं, दंगे करते हैं। नैतिक-अनैतिक हर तरह का व्यवहार करते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि जब इस दुनिया में मानवीय सम्बन्ध ही रहने लायक नहीं बचेंगे, तो हमारे आने वाले बच्चों का भविष्य क्या होगा। बिना दुनिया को रहने लायक छोड़ते हुए हम अपने ही बच्चों को आखिर कौन सी ख़ुशी सौंप सकते हैं…? अंततः हमारे बच्चे भी तो इसी दुनिया में रहेंगे।
इस पूरे सवाल के मद्देनजर जब हम दुनिया के भविष्य की तरफ नजर दौडाते हैं, तो हमें आशा और निराशा दोनों साथ-साथ मिलती है। आशा इसलिए कि दुनिया इस सवाल को बखूबी समझ रही है कि यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुख-समृद्धि सौंपना चाहते हैं तो हमें उन्हें एक बेहतर दुनिया भी सौपनी होगी। और निराशा इसलिए कि इस समझ के बावजूद हमारा व्यवहार अभी भी दुनिया को बेहतर नहीं बना रहा है। 
मसलन हम यह जानते हैं कि दुनिया के किसी भी कोने में होने वाली नियोजित हिंसा का सबसे अधिक प्रभाव समाज के कमजोर वर्गों पर ही पड़ता है। और इसी कमजोर वर्ग में दुनिया भर के बच्चे भी आते हैं। आधुनिक दुनिया में लड़े गए विश्व युद्धों की बात हो, दो देशों के बीच की लड़ी जाने वाली लड़ाईयां हों, समाज के आपसी झगडे हों, कबीलाई संघर्ष हों, दंगे-फसाद की त्रासदी हो, या फिर घर और समाज के कोने अतरों में पलने वाली जाले हो, इन सबमे दुनिया भर के मासूम बच्चे शिकार बनते हैं। ऐसे निरपराध बच्चे, जो यह जानते तक नहीं कि उनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों किया जा रहा है।
तो ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि जिन्हें हम दुनिया का भविष्य समझते हैं और जो सिर्फ प्यार और मुहब्बत की भाषा जानते हैं, उन पर यह अत्याचार क्यों….? इसी सवाल को रेखांकित करते हुए कवि अजय कुमार पाण्डेय ने कविता की एक किताब सम्पादित की है। जिसका शीर्षक है– “बच्चों से अदब से बात करो”। साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली इस किताब में लगभग चालीस कवियों की कविताएँ संकलित हैं। इनमें हमारी भाषा के वरिष्ठ कवि भी शामिल हैं, और नवोदित भी। ये सभी कविताएँ बच्चों पर होने वाले विभिन्न अपराधों और अत्याचारों को केंद्र में रख कर लिखी गयी है।
इस संग्रह से गुजरते हुए आप यह जान पाते हैं कि हमारी अपनी भाषा में कविताओं की रेंज क्या है। बाज दफा यह आरोप लगाया जाता है कि आजकल के कवि या हमारी भाषा के कवि बहुत आत्मकेन्द्रित हो गए हैं। वे देश और दुनिया से कट गए हैं। उनके विमर्श कुल मिला कर मध्य वर्गीय और शहराती हो गए हैं। दुनिया के सामने पैदा होने वाले महत्वपूर्ण सवालों से वे अनजान हैं। लेकिन ख़ुशी की बात है कि यह संग्रह इन जैसे कई और आरोपों का मुकम्मल जबाब देता है।
बेशक कि इस संग्रह की अपनी सीमा है। और इस नाते वह इस विषय पर लिखी जाने सभी कविताओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता। लेकिन इससे यह पता तो चलता ही है कि सिर्फ एक विषय पर हमारी अपनी भाषा में इतनी सारी अच्छी कविताएँ लिखी जा रही हैं। यह संग्रह एक बानगी दिखाता है कि हिन्दी के कवि भी देश और दुनिया के बारे में सोचते हैं। उसी गंभीरता से कविताएँ लिखते हैं, जैसा कि उनसे अपेक्षा की जाती है।
मसलन संग्रह की पहली वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह की है। इस कविता में वे ईराक युद्ध में एक घायल बच्चे को टेलीविजन पर देखकर व्यथित होते हुए लिखते हैं कि
“बंद कर दो टी. वी.
अगर जला न सको
इनकार करता हूँ कि मैं कवि हूँ
और देख रहा हूँ इन्ही आँखों से
एक शिशु-आँख हवा में झूलती हुई …..”।
इसी तरह संग्रह की तीसरी कविता में नाजी कैम्पों में मानवता के साथ किये गए जघन्य कृत्यों की दास्तान दर्ज है। यह एक ऐसा विषय है, जिस पर दुनिया भर की भाषाओँ में कलम चलायी गयी है। तमाम देशों की फिल्मों ने उन्हें सेल्युलाइड पर उतारा है। उन्हें केंद्र में रख कर दुनिया को उसका अपना ही चेहरा दिखाया है। गर्व की बात यह है कि हिन्दी कविता में भी यह प्रयास हुआ है। उसकी एक बानगी इस संग्रह में संकलित वरिष्ठ कवि सोम दत्त की कविता में देखी जा सकती है। कविता का शीर्षक है ‘क्रागुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ तीसरी क्लास की परीक्षा’। यह अद्भुत कविता है। इतनी संवेदनशील और मार्मिक कि हम इसे पढ़ना भी चाहते हैं, और पढ़ भी नहीं पाते। यह कविता हर पाठक को भीतर से झकझोरती है, रुलाती है। यह इतनी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कविता है कि इस अकेली कविता के लिए भी यह संग्रह खरीदा जा सकता है। साधारण भाषा और साधारण बिम्बों के सहारे सोमदत्त ने वह दृश्य रचा है, जो आपको यह सोचने के लिए मजबूर कर दे कि युद्धों ने हमारी दुनिया से कितना कुछ छीना है। आपके भीतर यह प्रेरणा भर दे कि दुनिया के किसी भी कोने में यह दृश्य दुबारा पैदा न हो।

अजय कुमार पाण्डेय
क्रागुएवात्स के इस कैम्प में नाजी सेना ने आठ सौ बच्चों को मौत के घात उतार दिया था। जब इस कुकृत्य के बाद जर्मनों ने उस कैम्प को छोड़ा, तो उस गाँव के बचे-खुचे लोग वहाँ पहुँचे। उन गाँव वालों को वहाँ सामूहिक कब्रें मिलीं, जिनके आसपास सूखे खून से सनी मिट्टी के बीच कुछ चिन्दियाँ बिखरी पड़ी थीं। कागज़ की वे चिन्दियाँ चिट्ठियां थी, जिनमें बच्चों ने, शिक्षकों और शिक्षिकाओं ने संदेश लिखे थे। अपने प्रिय जनों को संबोधित आखिरी संदेशे। सोमदत्त ने उन्हीं में से एक संदेसे को दर्ज करते हुए वह ‘मास्टरपीस’ कविता लिखी है।
“ममा
आठवीं क्लास वाली सिस्टर विनिच
हमारी क्लास में दौड़ती हुई आईं
बोली
“बच्चों! मेरे फूलों!”
उसने ‘मेरे फूलों’ क्यों कहा ममा?
हम कोई फूल हैं…?
बोली –“बच्चों…!
यह हमारा नया स्कूल है”
जंगल में टीन से घिरा कोई स्कूल होता है ममा…?
“कल सुबह हमारी परीक्षा होगी
तड़के शुरू हो जायेगी
हरेक की होगी
बच्चों की, टीचरों की, प्रिंसिपल की
पानी पिलाने वाली बूढी आया की
स्कूल के चौकीदार सूपिच की
घंटी बजाने वाले को भी छुट्टी नहीं मिलेगी
सब एक लाइन में खड़े किये जायेंगे
फिर एक-एक से सवाल होगा
सवाल बन्दूक पूछेगी
और हमें मुँह से नहीं
अपने सीने से जबाब देने होंगे
सिर्फ एक सवाल किया जाएगा एक से
परचा जर्मनी से आया है
कोई हिटलर है
उसने बनाया है
…………………………….”
यह कविता हर संवेदनशील पाठक को रुलाती है, व्यथित करती है और सोचने के लिए मजबूर भी कि हमें कैसी दुनिया चाहिए।
अभी सीरियाई शरणार्थियों की त्रासदी में मानव जाति की दयनीयता के दृश्य दुनिया ने देखे हैं। और दुनिया ने यह भी देखा है कि पेशावर के स्कूल में कैसे निर्दोष बच्चों को गोलियों से छलनी कर दिया गया। इस संग्रह में इस विषय पर वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय और युवा कवि संतोष चतुर्वेदी की दो कविताएँ दर्ज हैं।
वरिष्ठ कवि लाल्टू की हिरोशिमा को याद करती कविता भी आप इसमें पढ़ सकते हैं। साथ ही साथ इसमें दंगों को लेकर दो अत्यंत संवेदनशील कविताएँ भी संकलित हैं। पहली कविता वरिष्ठ कवि विष्णु खरे की ‘शिविर में शिशु’ है। और दूसरी कविता युवा कवि अरविन्द की ‘दंगों में मारे गए बच्चे’ है, जिसमें वे कहते हैं-
“दंगों में मारे गए बच्चे
इतने कोमल और मासूम थे कि
अगर वे दंगों के दिन नहीं होते
तो किसी भी संप्रदाय के लोग
उनको चूमने
प्यार करने की असीम इच्छा रखते
……………………………………..”
बाकि इस संग्रह में देश और दुनिया में बच्चों के विरुद्ध होने वाले तमाम प्रकार के दुर्व्यवहारों को केंद्र में रख कर कई अन्य महत्वपूर्ण कविताएँ भी दर्ज हैं। इनमें वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविता ‘अच्छे बच्चे’, ज्ञानेंद्रपति की कविता ‘खून का रिश्ता’, अशोक वाजपेयी की कविता ‘बर्बर और बचपन’, राजेश जोशी की कविता ‘बच्चे काम पर जा रहे है’ और चंद्रकांत देवताले की कविता ‘थोड़े से बच्चे और बाकि बच्चे’ शामिल है। तो वहीं युवा कवियों में शैलजा पाठक की कविता ‘उसके चेहरे से मिला लेती हूँ अपना बेटा’, कमलजीत चौधरी की कविता ‘तालियाँ बजाता नन्हा बिम्ब’ और अनुज लुगुन की कविता ‘तुम्हारी गति और समय का अंतराल’ भी दर्ज हैं। संग्रह की अंतिम कविता इसके संपादक अजय पाण्डेय की है। जिसमें वे कहते हैं कि ….
“कल दो बच्चों ने
खेलते हुए लड़ाई कर ली
आज फिर खेल रहे हैं
क्यों न यह दुनिया
इनके हवाले कर दें ।”
बिलकुल ….. हमारी दुनिया में मतभेद स्वाभाविक हैं। लड़ाई और झगड़े भी स्वाभाविक हैं। लेकिन उसमें इतनी गुंजाईश भी जरुर बची रहनी चाहिए कि हम फिर से दोस्ती की राह पर वापसी कर सकें। और यह गुंजाइश तभी बची रह सकती है, जब हमारे मतभेद सैद्धांतिक स्तर के हों। वे घृणा के स्तर पर न पहुँचे। जाहिर है, ऐसे में दुनिया को बेहतर बनाने का सपना बचा रह सकता है। और जब दुनिया के बेहतर होने का सपना बचा रह सकता है, तो उस दुनिया का भविष्य भी बचा रह सकता है। सलामत रह सकता है। आप चाहें तो इस बात को उलट कर भी पढ़ और समझ सकते हैं कि जिस दुनिया में बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार होगा, उस दुनिया का वर्तमान भी अच्छा होगा और भविष्य भी।
दुनिया को बेहतर बनाने के प्रयास के रूप में इस पुस्तक का स्वागत किया जाना चाहिए।
पुस्तक का नाम – बच्चों से अदब से बात करों
कविता संकलन
संपादक – अजय कुमार पाण्डेय
प्रकाशक – साहित्य भंडार, इलाहाबाद
 
रामजी तिवारी

समीक्षक 


रामजी तिवारी
बलिया, उ.प्र.

मो.न. – 9450546312 

आशीष बिहानी की कविताएँ


आशीष बिहानी

मेरा नाम आशीष बिहानी है। मैं बीकानेर से हूँ और वर्तमान में कोशिका एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र, हैदराबाद में पी-एच. डी. कर रहा हूँ। मेरा पहला संग्रह अंधकार के धागे” हिन्द-युग्म द्वारा दिसंबर २०१५ में प्रकाशित किया गया। इसके अलावा मेरी कविताएँ ‘संभाव्य’,अनुनाद’,समालोचन’,यात्रा’,गर्भनाल’ द्वारा प्रकाशित की गयीं हैं।
 
रसूल हमजातोव ने ‘मेरा दागिस्तान’ में लिखा है – ‘यह मत कहो कि मुझे विषय दो, यह कहो कि मुझे आँखें दो।’ कवि के पास यह आँख होना बहुत जरुरी होता है। युवा कवि आशीष बिहानी की कविताओं को पढ़ते हुए इस बात का स्पष्ट आभास हुआ कि उनके पास यह आँख है। हिन्दी कविता में ऐसे कवियों की फेहरिश्त में अब आशीष का नाम भी पुख्तगी से जुड़ गया है जो विज्ञान की पढाई करने के साथ-साथ कविता भी लिख रहे हैं। कल्पना के साथ यथार्थ की जमीन से जुड़े रहने की तहजीब है यह ‘विज्ञान और साहित्य का संगम’। यह सुखद है कि आशीष के पास इस संगम की समृद्ध थाती है।  

मानव द्वारा आविष्कृत महत्वपूर्ण तकनीकी चीजों की सूची अगर बनायी जाय तो उसमें रेल का स्थान शीर्ष आविष्कारों में जरुर शामिल होगा। रेल जिसने न केवल मानव जीवन को गति प्रदान किया, जिसने न केवल उसे प्रगति की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मोड़ प्रदान किया बल्कि मानव समाज और उसके सोच पर भी व्यापक असर डाला। साहित्य भला इससे अलग और अछूता कैसे रह पाता। आशीष ने ‘रेल’ शीर्षक से कई खण्डों में कुछ उम्दा कविताएँ लिखी हैं। वे जानते हैं कि रेल की आवाज उन्हें भले ही कर्कश लगे जो उसे कभी-कभार सुन पाते हैं। लेकिन उनके लिए तो यह उस सांस की तरह है जो अपनी जिन्दगी इसी के साथ या इसी के पास बिताते हैं। रेल की आवाज उनके सपने में कोई खलल नहीं डाल पाती। तो आज पहली बार पर पढ़ते हैं आशीष बिहानी की कुछ नयी कविताएँ। 
आशीष बिहानी की कविताएँ          
रेल


स्टेशन के अंत से कुछ ग़ज आगे
कई परिवार अपने अपने क्वार्टर्स के बाहर
खटियाओं पर सो रहे हैं
नींद से लदीं रेलें
ऊंघती, घरघरातीं, स्वप्नाहूत सीं
दबे पहियों प्रवेश करतीं हैं स्टेशन में
बिना उनकी नींद में ख़लल डाले


जीन्स के पाँयचों में घुसते पैरों की भांति
रेल गुजरती है शहर से
शहर की तड़क भड़क से विमुख
निहायत ही अनढके जीवन में

ब्लाउज-पेटीकोट पहने कपडे सुखातीं औरतें
जो मोहल्ले भर से सारी सुबह लड़-झगड़ कर थक चुकीं
चार दिन में एक बार आने वाले पानी के लिए

ऊर्जा से लदे मैदान को देखते फिसड्डी बच्चे
जिनकी कविताएँ कोई नहीं पढता
और जिनके घरोंदों को उनके छोटे भाइयों ने पेशाब करके ढूह दिया

अचानक आए अंधड़ में उड़ते टैण
उड़ती थैलियों के कौतुहल भरे हुजूम
जो एक ही तंत्र के घटकों की लावारिस असमान लाशें हैं

गाँव के बाहर बूढ़ी गायों के सड़ते कंकाल
जिनकी बोटियाँ खींचने वाले गिद्धों के गुर्दे
उनमें जमा डाईक्लोफीनेक से खराब हो गए

यहीं आ मिलते हैं अन्दर मोड़े किनारों के टांके
जेबों के फैलाव
एक-दूसरे को बेतहाशा चूमते जोड़े
जो रंगों सने डंडों से भय खा कर आ छुपे हैं उजाड़ में
एक-दूसरे को मलते हैं अपने-आप पर
जैसे सड़ते हुए काई-सने पानी से भरे नासूर में ख़ुद को धोते हैं गडूरे

यहाँ घुट-घुट कर रेंगता है जीवन बड़ी निपुणता के साथ
बहुत ही पतली गलियों में
जिसका होना अनर्थक है इसके बिना
 


बेशुमार रोशनी उगलती
फ्लैशलाइटों से अटी सडक
के एक तरफ
गोबर से लिपीं कच्ची छतों के अनंत फैलाव
पर सूनी रात में
अधटूटीं चारपाइयाँ और गलते तारों के ढेर
बेतरतीब बिखरे हैं
और दूसरी तरफ उनसे अभिन्न
अनंत फैलाव उघड़ी ईंटों वाली पक्की छतों के
जिन पर पसरे हुए हैं बूढ़े-फूटे डेज़र्ट कूलर
और लोहे-लक्कड़ के अथाह ख़ज़ाने

झींगुरों की आवाज़ों को कुचलती हुई रेल धड़धड़ा कर निकलती है
इन दो कुबड़ी दुनियाओं को ठीक अलग करती 
जिसकी आवाज़ सुन कर वहम होता है

बस्तियों और कॉलोनियों के स्वप्निल बाशिंदों को
जैसे धड़कन किसी शहर की
जो पाषाण काल से जा रहा है पाषाण काल की ओर
वही, जिसके सड़े-गले मुर्दे शरीर को वो केंचुओं की तरह खाते हैं
दिन की रोशनी में


खोखली हवाएं सांय-सांय कर चलती हैं
और मैं सिहर जाता हूँ
जमीन से कई फुट ऊपर मैं
तैरता हूँ बिना आधार के
और हर घटना डरा देती है मुझे
अकारण ही


होश सँभालने के बाद
पहली बार मारवाड़ से बाहर निकलने पर
मैंने देखा कि
कई रेलों के रूट दो पटरी वाले होते हैं जो
एक साथ मुड़ते हैं, एक साथ घुसते हैं
लम्बी, हलके डरावने पीले प्रकाश वाली झिलमिल सुरंगों में
खिड़की से बाहर झांकते वक़्त देखता हूँ
बगल वाली पटरी को
वो दूर क्यों चली गयी है?
क्या वो वापस आएगी?
क्या उसका होना हो गया है पूर्ण?


कुर्सी से
तशरीफ़ को बड़ी मुश्किल से उठा
पोतों की सनसनाती गेंदों,
चिलचिलाती धूप से तपे संगमरमर के फर्श,
सूखती हुई बड़ी
इत्यादि को पार कर के
रेलिंग पर पहुँच कर
दद्दी ने पोर्च से झाँका, जैसे घोंसले से पंछी
गर्मी से लाल, पसीने भरी नाक उठा कर
मौसम का जायज़ा लिया,
दूर पटरियों पर धड़धड़ाती रेल की और
लानतें उछालीं
और निराश सी दिखती
वापस जा बैठी
अपनी बोरियत की बोरी पर


मरामझिरी में जब सिकंदराबाद से जयपुर जाने वाली रेल
रुक जाती है
गाहे-ब-गाहे उसका रुकना ऐसे रास नहीं आता शयन-यान में
मक्खियाँ मार रहे यात्रियों को
जो झांकते हैं विस्फारित नेत्रों से बगल वाली पटरी पर
और बरसाते हैं करुणा
बगल वाली पटरियाँ पार करते ४-५ साल के एक बच्चे पर
वो, जो हंगामे से अभिभूत हो
आगे बढ़ता है
एक थैली में इकट्ठे करता है वृष्टि के क़तरे
पुनः पटरियां पार कर के अपने पियक्कड़ पिता के मुँह में टपकता है
उस में से कुछ
_______



मुखौटे

 
गहन अँधेरे में
लोग मुखौटे लगा
भंगिमाएँ ओढ़े घूम रहे हैं
कि यदा कदा मिनट भर होने वाले उजाले में
अँधेरे के इतिहासकार
दर्ज कर लें
मुखौटों की उपस्थिति
चेहरों के रूप में
 
बदलना

 

लोग कहते हैं कि
दुनिया बदल रही है
आगे बढ़ रही है
क्रमिक विकास के नतीज़तन
पर ये सच नहीं है
क्योंकि हम आज भी गिरते हैं
उन्ही खड्डों में
जो खोदे थे हमने
लाखों साल पहले
कानून

 

दुनिया के लोगों के हाथ बड़े लम्बे होते हैं
वे दरअसल हवा के मुख्य संघटक हैं
चारों ओर गीली जीभों की भांति
लपलपाया करते हैं
राहें उनके भय से मुड़ जातीं हैं
गुमनाम अँधेरी बस्तियों की ओर
और उतर जातीं हैं
गहरे कुओं में
जिनके पैंदों में हवाएं चलना बंद कर देतीं हैं
स्तब्ध धूसर दीवारों के बीच वे तुम्हें घूरतीं हैं
और तुम उन्हें
डूबने के इंतज़ार में
सम्पर्क –

मोबाईल – 07680885408

ई-मेल : ashishbihani1992@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

रमेश उपाध्याय का संस्मरण ‘इब्राहीम शरीफ : स्वतन्त्र लेखन की चाह का एक दुखांत’

रमेश उपाध्याय

संस्मरण केवल उस विशेष व्यक्ति, जो कि उसका लेखक होता है, की ही आपबीती नहीं होता बल्कि उसमें अपने समय का एक इतिहास भी होता है. कहानीकार और सम्पादक रमेश उपाध्याय के इस संस्मरण से हमें न केवल उस समय के उनके खानाबदोशी के जीवन, रोजगार की जद्दोजहद  बल्कि इब्राहीम शरीफ जैसे उम्दा लेखक के व्यक्तित्व के साथ-साथ समान्तर कहानी आन्दोलन और उसके पेचोखम के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं. तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रमेश उपाध्याय का यह महत्वपूर्ण और रोचक संस्मरण ‘इब्राहीम शरीफ : स्वतन्त्र लेखन की चाह का दुखान्त’.  
    

इब्राहीम शरीफ : स्वतन्त्र लेखन की चाह का एक दुखांत

रमेश उपाध्याय
प्रेम की गहराई का सम्बन्ध उसकी अवधि से नहीं होता। लम्बे समय तक प्रेम करने वाले दो व्यक्ति भी कभी यह महसूस कर सकते हैं कि उनके बीच जो था, वह तो प्रेम था ही नहीं। दूसरी तरफ केवल कुछ दिन साथ रह कर भी दो व्यक्तियों में इतना प्रगाढ़ प्रेम हो सकता है कि आजीवन भुलाये न भूले। मित्रता में भी ऐसा ही होता है। इब्राहीम शरीफ का और मेरा साथ तीन-चार वर्षों का ही रहा, पर उस थोड़े-से ही समय में उससे मेरी ऐसी दोस्ती हुई, जो मुझे लगता है कि आज भी कायम है, जब कि उसको गुजरे चार दशक हो चुके हैं।  
उम्र में इब्राहीम शरीफ मुझसे पाँच साल बड़ा था। उसका जन्म 1937 में हुआ था और मेरा 1942 में। लेकिन लिखना हमने लगभग साथ-साथ शुरू किया था। हमने 1960 के दशक में कहानी लिखना शुरू किया था, लेकिन साठोत्तरीकहलाने वाले कहानीकारों (ज्ञानरंजन, दूध नाथ सिंह, रवींद्र कालिया आदि) के बाद के युवा कहानीकारों में हमारी गिनती होती थी। हिन्दी कहानी में नयी कहानी के आन्दोलन के बाद कई कहानी आन्दोलन चले थे, जैसे साठोत्तरी कहानी (1960 के बाद की या सातवें दशक की हिन्दी कहानी), अकहानी, सचेतन कहानी, सहज कहानी आदि। हमारी कहानियाँ इन सब आन्दोलनों से सम्बन्धित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं, लेकिन हम इनमें से किसी भी आन्दोलन में शामिल नहीं थे और अपने लेखन से अपनी एक अलग पहचान बना रहे थे। अतः हमें हमारी उम्र के आधार पर युवा कहानीकार कहा जाता था। 
दिसंबर, 1970 में पटना (बिहार) से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका सिर्फ की ओर से एक युवा लेखक सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें दूसरे बहुत-से युवा लेखकों के साथ-साथ मुझे भी आमंत्रित किया गया था। उस समय मैं एम. ए. और शादी करने के बाद दिल्ली में रहता था और प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर के अंग्रेजी साप्ताहिक शंकर्स वीकली के हिन्दी संस्करण हिन्दी शंकर्स वीकलीमें काम करता था। हिन्दी शंकर्स वीकली का प्रकाशन उसी साल शुरू हुआ था। शंकर जवाहर लाल नेहरू के मित्र थे, उन से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे, इसलिए हिन्दी शंकर्स वीकली का लोकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। संयोग से उसके दोनों सम्पादक कथाकार थे और दोनों के नाम रमेश थे। प्रधान सम्पादक थे रमेश बक्षी और सहायक सम्पादक रमेश उपाध्याय। बक्षी जी नयी कहानीआन्दोलन से सम्बन्धित वरिष्ठ कथाकार थे, जबकि मैं तब तक किसी भी आन्दोलन से असंबद्ध युवा कथाकार। 
पटना में हो रहे युवा लेखक सम्मेलन में मेरा जाना तय था। दिल्ली से जा रहे कुछ अन्य लेखकों के साथ मैंने रेल-आरक्षण भी करा लिया था, लेकिन उसी समय मुझे दिल्ली छोड़ कर बंबई जाना पड़ा। बंबई से एक पत्रिका निकलती थी नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट’, जो अंग्रेजी रीडर्स डाइजेस्ट की तर्ज पर निकाली जाती थी। कुछ दिन पहले नवनीतके सम्पादक नारायण दत्त बंबई से दिल्ली आये थे। मैं कुछ समय स्वतन्त्र लेखक के रूप में बंबई में रह चुका था और नवनीतके लिए कुछ लेखन तथा अनुवाद कर चुका था, इसलिए वे मुझे जानते थे। वे मुझसे मिले। उन्हें नवनीत के लिए एक ऐसे सहायक सम्पादक की जरूरत थी, जो सम्पादन के साथ-साथ लेखन और अनुवाद भी कर सके। वे जानते थे कि मैं हिन्दी शंकर्स वीकलीसे पहले सरिता’, ‘मुक्ताऔर साप्ताहिक हिंदुस्तानके सम्पादकीय विभागों में काम कर चुका हूँ और धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘कल्पना’, ‘ज्ञानोदयआदि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में लिखने वाला चर्चित युवा लेखक हूँ। उन्होंने हिन्दी शंकर्स वीकलीके मुकाबले ड्योढ़े वेतन पर नवनीतके सहायक सम्पादक का पद सँभालने के लिए कहा, तो मैं राजी हो गया और पटना के युवा लेखक सम्मेलन में जाने के बजाय नवनीत में काम शुरू करने के लिए बंबई चला गया।
नवनीतका दफ्तर ताडदेव में एक पुरानी इमारत की ऊपरी मंजिल पर था। सहायक सम्पादक होने के नाते मुझे दफ्तर में एक अलग कमरा मिला हुआ था। एक दिन मैं अपने कमरे में अकेला बैठा कुछ काम कर रहा था कि बंबई का मेरा एक युवा कहानीकार मित्र जितेन्द्र भाटिया एक लम्बे, छरहरे, साँवले-से युवक के साथ मुझ से मिलने आया। वह युवक था इब्राहीम शरीफ। व्यक्तिगत रूप में हम पहली बार मिल रहे थे, किन्तु कहानीकार के रूप में हम एक-दूसरे को पहले से जानते और पसन्द करते थे। जितेन्द्र हम दोनों का साझा मित्र और प्रिय कहानीकार था। शरीफ उस समय कालीकट (केरल) के सर सय्यद अहमद कॉलेज में हिन्दी पढ़ाता था (एम.ए. हिन्दी की पढ़ाई उसने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से की थी) और जितेन्द्र बंबई के आइ. आइ. टी. में पढ़ रहा था।
वे दोनों पटना के युवा सम्मेलन से लौटे थे। शरीफ ने मुझसे पूछा, ‘‘आप वहाँ क्यों नहीं आये? मुझे उम्मीद थी कि आप तो वहाँ जरूर मिलेंगे। वहाँ के लोग भी कह रहे थे कि आपका आना निश्चित था। फिर क्या हुआ?’’
मैंने संक्षेप में हिन्दी शंकर्स वीकलीऔर दिल्ली छोड़ कर नवनीत में बंबई आने का किस्सा सुना कर पूछा, ‘‘पटना में क्या-क्या हुआ?’’
जितेन्द्र और शरीफ वहाँ से बहुत क्षुब्ध हो कर लौटे थे। उन्हें वहाँ पर साहित्यिक राजनीति और लेखकीय गुटबंदियों के कुछ कटु अनुभव हुए थे। दोनों ने विस्तार से अपने अनुभव सुनाये और मुझसे कहा, ‘‘अब हम लोगों को कुछ करना चाहिए।’’
‘‘क्या?’’ मैंने पूछा।
‘‘हम नये लेखकों को साठोत्तरी लोगों से अलग अपनी पहचान बनानी चाहिए, क्यों कि जिस तरह नयी कहानी वालों ने इन लोगों को ‘‘अपना ही विस्तार’’ कहा था, उसी तरह ये भी हम लोगों को ‘‘अपना ही विस्तार’’ कह कर हमारी नवीनता और भिन्नता को नकारना चाहते हैं। हमें यह मंजूर नहीं।’’ 
मैंने चाय मँगवायी, चाय की चुस्कियों के साथ कुछ हल्की-फुल्की बातें कीं और हँस कर पूछा, ‘‘तो हम लोग भी अपना एक अलग गुट बनायें?’’
शरीफ गुटबंदी की निन्दा कर चुका था, इसलिए थोड़ा अचकचा कर बोला, ‘‘नहीं, गुट तो नहीं, पर…’’
मैं शायद यही सुनना चाहता था। मैंने कहा, ‘‘तब हमें गंभीरता से एक नया कहानी आन्दोलन चलाने के बारे में सोचना चाहिए। इसके लिए पहले हमें एक सूची बनानी चाहिए कि नये लेखकों में से कौन-कौन हमारे साथ आ सकते हैं। फिर यह सोचना चाहिए कि आन्दोलन के जरिये हम करना क्या चाहते हैं। उसी उद्देश्य के मुताबिक हमें आन्दोलन का नाम रखना चाहिए और उसी नाम से एक पत्रिका निकालनी चाहिए, जो हमारे आन्दोलन का मंच बन सके।’’ 
जितेन्द्र यह सुन कर उछल पड़ा। बोला, ‘‘रमेश, तुम विश्वास नहीं करोगे, पर मैं भी ठीक ऐसा ही कुछ सोच रहा था।’’
‘‘और आप क्या सोचते हैं, शरीफ साहब?’’ मैंने शरीफ से पूछा।
‘‘पहली बात तो यह कि आप मुझे शरीफ साहब नहीं, शरीफ ही कहिए। दूसरी बात यह कि मैं आप दोनों से सहमत हूँ।’’ शरीफ ने मुस्कराते हुए कहा।
‘‘तो शाम को कहीं मिलते हैं और इस पर विस्तार से बात करते हैं।’’ मैंने कहा।
‘‘शाम को हम दोनों कमलेश्वर जी से मिलने सारिकाके दफ्तर में जायेंगे। चाहो, तो तुम भी वहीं आ जाओ। उनसे मिलने के बाद जहाँ तुम कहोगे, चले चलेंगे।’’ जितेन्द्र ने कहा और मैं राजी हो गया।
कमलेश्वर उन दिनों कहानी पत्रिका सारिकाके सम्पादक थे और हम नये कहानीकारों की कहानियाँ बड़े प्रेम से छापते थे। मैं उन्हें तब से जानता था, जब वे दिल्ली में नयी कहानियाँ पत्रिका के सम्पादक थे। वे उम्र में मुझ से बड़े थे, और बड़े साहित्यकार तो थे ही, फिर भी मुझसे मित्रवत व्यवहार करते थे।
शाम को अपने दफ्तर से मैं उनके दफ्तर पहुँचा, तो मैंने पाया कि जितेन्द्र और शरीफ एक नया कहानी आन्दोलन शुरू करने का विचार उन्हें बता चुके हैं और कमलेश्वर उसी के बारे में कुछ कह रहे हैं। कमलेश्वर ने खड़े हो कर मेरा स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आओ, रमेश! हम तुम्हारी ही बात कर रहे थे। नया कहानी आन्दोलन शुरू करने का तुम्हारा विचार बहुत अच्छा है। मैं जितेन्द्र और शरीफ से कह रहा था कि मैं तुम लोगों के साथ हूँ। तुम लोग सारिकाको अपनी ही पत्रिका समझो और इसी को अपने आन्दोलन का मंच बनाओ।’’
वे लोग चाय पी चुके थे, पर मेरे पहुँचने पर चाय का एक दौर और चला, जिसके दौरान आन्दोलन के नाम पर विचार होने लगा। उन दिनों बंबई की फिल्मी दुनिया में समांतर सिनेमा के नाम से एक नया आन्दोलन शुरू हुआ था, जिसके अन्तर्गत बंबइया सिनेमा की व्यावसायिक लीक से हटकर कुछ नये ढंग की फिल्में बनायी जा रही थीं। बातों ही बातों में कमलेश्वर ने कहा, ‘‘समांतर कहानी नाम कैसा रहेगा?’’ 
‘‘बहुत अच्छा रहेगा।’’ हम तीनों ने खुश हो कर लगभग एक साथ कहा।
‘‘तो मिलाओ हाथ।’’ कमलेश्वर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, जिस पर जितेन्द्र, शरीफ और मैंने तले-ऊपर अपने हाथ रखे और कमलेश्वर ने दूसरे हाथ से हम तीनों के हाथों को दबाते हुए कहा, ‘‘समांतर कहानी जिन्दाबाद!’’ 
शरीफ तो शायद अगले दिन अपने घर मद्रास चला गया, पर मैं और जितेन्द्र समांतर कहानी आन्दोलन की शुरुआत के लिए युवा कहानीकारों का एक सम्मेलन बंबई में कराने के काम में उत्साहपूर्वक जुट गये। कमलेश्वर से भी लगातार सलाह-मशविरा होने लगा। बंबई में उस समय जो अन्य युवा कहानीकार थे (जैसे सुदीप, अरविंद, निरुपमा सेवती, राम अरोड़ा आदि), उनसे व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क और संवाद किया गया। दूसरी जगहों के लोगों के साथ पत्राचार के जरिये बात की गयी।
अन्ततः जून, 1971 में समांतरका पहला सम्मेलन बंबई में हुआ, जिसमें भाग लेने वाले लेखक थे- कमलेश्वर, कामतानाथ, मधुकर सिंह, रमेश उपाध्याय, जितेन्द्र भाटिया, से.रा. यात्री, सुदीप, सतीश जमाली, राम अरोड़ा, दामोदर सदन, अरविंद, निरुपमा सेवती, आशीष सिन्हा, विभु कुमार, श्याम गोविंद, सनत कुमार, मृदुला गर्ग, श्रवण कुमार, प्रभात कुमार त्रिपाठी, शीला रोहेकर आदि।
इब्राहीम शरीफ को भी उस सम्मेलन में आना था, लेकिन किसी कारणवश वह आ नहीं पाया था। उसने अपना लिखित परचा भेजा था, जो एक गोष्ठी में बाकायदा पढ़ा गया था और उस पर चर्चा की गयी थी।
 
सम्मेलन बहुत सफल रहा था। पूरे हिन्दी जगत में उसकी धूम मची थी और समांतर कहानी तुरन्त चर्चा में आ गयी थी। अगले साल 1972 में कमलेश्वर द्वारा सम्पादित समांतर-1 नामक कहानी संकलन भी प्रकाशित हुआ था, जिसमें सम्मेलन की विस्तृत रपट थी और उसमें भाग लेने वाले लेखकों की कहानियाँ। 
 
समांतर सम्मेलन के बाद शरीफ के दो पत्र मुझे मेरे बंबई के पते पर मिले। उसका पहला पत्र यह था:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
                                                                                                                                         19-6-71

प्रिय भाई,
     बंबई में दुबारा आपसे मिल नहीं सका, इसका मलाल है। बहरहाल, मैं मद्रास पहुँच तो गया था, लेकिन बहुत चाह कर भी थोड़ी-सी व्यस्तता की वजह से आपको तत्क्षण लिख नहीं सका, क्षमा करेंगे।
बंबई वाली गोष्ठी में आप रहे होंगे। क्या कुछ हुआ वहाँ, लिखने की कृपा करेंगे। 
मैंने जिस योजना की बात आपसे कही थी, उस सम्बन्ध में निवेदन है कि यथाशीघ्र सुदीप का अन्तरंग परिचय भेजें। साथ ही आपके पास अपनी कहानी पुराने जूतों की जोड़ी की कटिंग हो तो भेजें, अपने चित्र के साथ। एक बात और, अपनी इस कहानी को ले कर 500 शब्दों का एक वक्तव्य भी भेजें। यह सब जितना जल्द मिल जाये उतना सुविधाजनक रहेगा मेरे लिए।
और? संभव हुआ तो मैं अगले महीने आपके लिए कोई कहानी भेजूँगा। 
सानंद होंगे।
पत्र दीजिएगा।
                                                          आपका
                                                     इब्राहीम शरीफ
शरीफ के पहले पत्र में जिस योजना का जिक्र है, वह यह थी कि मद्रास से निकलने वाली पत्रिका अंकनमें शरीफ एक स्थायी स्तंभ शुरू करेगा, जिसमें वह हर बार किसी युवा कहानीकार की एक कहानी, कहानी से सम्बन्धित एक लेखकीय वक्तव्य और किसी अन्य कहानीकार द्वारा लिखा गया उसका अन्तरंग परिचय दिया करेगा। बंबई में हुई पहली मुलाकात में ही उसने अपनी यह योजना मुझे बतायी थी। स्तंभ की शुरुआत वह सुदीप से करना चाहता था। सुदीप मेरा मित्र था, इसलिए उसका अन्तरंग परिचय शरीफ मुझसे लिखवाना चाहता था। उस स्तंभ के लिए मेरी कहानी पुराने जूतों की जोड़ीउसने पहले से ही चुन रखी थी। मेरा अन्तरंग परिचय वह सुदीप से लिखवाना चाहता था। शायद उसकी योजना यह थी कि दो कहानीकार मित्र एक-दूसरे का अन्तरंग परिचय लिखें।
‘‘अगले महीने आपके लिए कोई कहानी भेजूँगा’’ का सन्दर्भ यह है कि मैंने नवनीत में प्रकाशित करने के लिए उससे कहानी माँगी थी।
बंबई में मुझसे हुई पहली मुलाकात होने तक वह कालीकट के कॉलेज की नौकरी छोड़कर मद्रास आ चुका था और मद्रास में अपना प्रेस लगा कर आजीविका की समस्या के स्थायी समाधान के बारे में सोच रहा था। प्रेस लगाने के बाद एक पत्रिका निकालने और पुस्तकों का प्रकाशन करने की भी उसकी योजना थी, जिसकी चर्चा उसने मुझसे और जितेन्द्र से की थी। हम दोनों ने खुश हो कर उसका उत्साह बढ़ाया था। अतः उसके पहले पत्र का उत्तर लिखते समय मैंने नवनीत के लिए उसकी कहानी फिर से माँगी थी और प्रेस के बारे में पूछा था। मेरे उस पत्र के उत्तर में उसने लिखा था:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
                                                                                         5-7-71  

प्रिय भाई,
     आपका पत्र मिल गया था। उत्तर देने में देरी हुई। क्षमा करेंगे।
गोष्ठी के बारे में बहुत विस्तार से जितेन्द्र ने लिखा है। जानकर बहुत खुशी हुई कि गोष्ठी हर दृष्टि से सफल रही। 
अब तक कहानी, वक्तव्य और चित्र नहीं मिला है। कृपया जल्द भिजवा दीजिए।
अन्तरंग परिचय के बारे में आपने जो लिखा है, वही बातें कमलेश्वर जी ने भी लिखी हैं। उनकी बातें ठीक ही लगती हैं। इसलिए आप सुदीप का परिचय तो लिखिए ही, लेकिन अब बदले हुए दृष्टिकोण से। यह भी अपनी कहानी वगैरह के साथ ही भेजने की कृपा करें। यह योजना यथाशीघ्र आरंभ हो जानी चाहिए।
मैं कहानी जब भी लिख लूँगा, आप के पास अवश्य भेजूँगा। तब तक क्षमा करेंगे।
प्रेस वाली बात अभी कुछ नहीं हुई है। देखिए। 
और? पत्र दीजिएगा।
सानंद होंगे।
                                                          आपका
                                                    इब्राहीम शरीफ
मैं जुलाई, 1971 में नवनीतकी सहायक सम्पादकी और बंबई छोड़ कर दिल्ली वापस आ गया। इस बीच मैं एक बेटी का पिता बन चुका था और अब मेरा परिवार से दूर बंबई में रहना संभव नहीं था। दिल्ली आने के कुछ दिन बाद मैंने शरीफ को पत्र लिखा, जिसमें अपने बारे में बताते हुए लिखा कि जब तक कोई अच्छी नौकरी नहीं मिलती, मैं भी उसकी तरह फ्रीलांसिंग (स्वतन्त्र लेखन) करूँगा। अंकन वाली उसकी योजना के लिए उसने मेरी पुराने जूतों की जोड़ी कहानी माँगी थी, पर इस बीच मैं कई और कहानियाँ लिख चुका था, जो मेरी नजर में उससे बेहतर थीं। इसलिए मैंने उसे लिखा कि मैं उसकी योजना के लिए अपनी दो कहानियाँ भेजूँगा। उनमें से वह जिसे चाहे चुन ले।
मेरे पत्र के उत्तर में उसने लिखा:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4

18-8-71

प्रिय भाई,
     बहुत लम्बी प्रतीक्षा के बाद कल शाम को आपका पत्र मिला। जितेन्द्र ने लिखा तो था कि आप बंबई छोड़ कर दिल्ली वापस चले गये हैं। मगर चूँकि आपका दिल्ली वाला पता मेरे पास नहीं था, इसलिए मैं खुद भी आपको लिख नहीं सका। अब आप मेरी ही तरह फ्रीलांसिंग करेंगे, यह जान कर बल मिला। 
आपके विगत जीवन के बारे में जान कर, सच मानिए, आप से और ज्यादा निकटता अनुभव करने लग गया हूँ। बल्कि आपके प्रति इज्जत अनुभव करने लगा हूँ। मेरा जीवन भी कुछ इसी तरह का रहा है।
आपकी एक कहानी अपने पास रख लूँगा, दूसरी लौटा दूँगा। जो कहानी मैं अपने पास रख लूँगा, उसके बारे में आपका वक्तव्य (500 शब्दों का) भी चाहिए होगा। साथ में आपका चित्र भी।
मैं आपका Social Backgroundसुदीप को भेज रहा हूँ। वैसे, उन्होंने लिखा था कि सारा मैटर वे जल्दी ही भेजने वाले हैं। एक Reminder और दूँगा।
सारिकामें आपकी अन्तर्कथा पढ़ी थी। बहुत पसन्द आयी।
और क्या लिख रहे हैं?
दिल्ली का जीवन कैसा है? क्या भाभी जी कहीं काम कर रही हैं?
सारी बातें लिखिएगा।
मेरी ओर से भाभी जी को नमस्कार। बच्ची को ढेरों प्यार।
पत्र देते रहिएगा।
                                                                            आपका
                                                      इब्राहीम शरीफ
शरीफ के इस पत्र के उत्तर में मैंने लिखा कि मेरी पत्नी दिल्ली के एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं। वे अपनी नौकरी तथा दिल्ली छोड़ कर कहीं और नहीं जाना चाहतीं, इसलिए मुझे अब सदा के लिए दिल्लीवासी हो कर रहना पड़ेगा, जबकि मुझे दिल्ली में कोई ढंग की नौकरी मिल नहीं रही है और स्वतन्त्र लेखन मुझे रास नहीं आ रहा है। मैं दिल्ली छोड़ कर कहीं और जाना चाहता हूँ, जहाँ मुझे कोई मनपसन्द काम मिल सके। मैंने अपनी कहानियाँ और सम्बन्धित सामग्री उसे भेज दी। कुछ समय पहले अंकनमें मेरी एक कहानी छपी थी, जिसकी प्रति मेरे पास नहीं थी। मैंने उसे लिखा कि वह मेरी उस कहानी की कतरन मुझे भेज दे। शरीफ ने मेरे इस पत्र का उत्तर काफी दिनों बाद दिया।
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
2-10-71

प्रिय भाई,
     आपका पत्र मिल गया था। मैं बहुत लज्जित हूँ कि आपको लिखने में देरी कर दी। यहाँ आने के बाद से जिन्दगी इतनी अस्त-व्यस्त हो गयी है कि क्या बताऊँ। फ्रीलांसिंग ने तो हालत खराब कर रखी है। जवाब देने में जो विलम्ब हो गया, उसे आप किसी भी अर्थ में उपेक्षा के रूप में मत लीजिएगा।
अब आपको दिल्ली का जीवन भी अच्छा नहीं लग रहा है। फिर भी दिल्ली मत छोडिए। कब तक इसी तरह घूमते रहेंगे?
धर्मयुगमें आपका लेख देखा। पसन्द आया।
आजकल क्या लिख रहे हैं? अपने बारे में विस्तार से लिखिए। 
अंकन वालों से मैं बहुत दिनों से नहीं मिला हूँ। मिल कर आपकी कहानी की कटिंग जरूर भेजूँगा।
हमारी योजना तो सफल होगी ही। स्थायी स्तंभ में एक-एक कहानीकार को छापना संभव न हुआ, तो एक साथ सारे कथाकारों को अंकनके एक विशेषांक में छाप देंगे। मैं कोशिश में हूँ। अगले पत्र में इस बारे में तफसील से लिखूँगा। आपकी एक कहानी लौटा रहा हूँ। दूसरी मैंने अपने पास रख ली है। उसे तेलुगु में भी करवाने का इरादा है।
भाभी जी को मेरी तरफ से नमस्कार कहें। बच्ची को प्यार।
इस महीने के आखिर में मेरे यहाँ भी एक नये सदस्य का आगमन होगा। आपको तो लिखूँगा ही।
पत्र दीजिएगा। व्यग्र प्रतीक्षा रहेगी।
                                                   आपका
                                                इब्राहीम शरीफ
अब याद नहीं कि शरीफ की वह कौन-सी कहानी थी, जो मुझे पसन्द नहीं आयी थी और मैंने उसकी आलोचना की थी। किस पत्रिका में वह आलोचना छपी थी, यह भी मुझे याद नहीं। मैंने उसे लिख दिया था कि मैं उस कहानी पर लिख रहा हूँ। उत्तर में उसने लिखा:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
12-10-71
प्रिय भाई,
     पत्र मिला। खुशी हुई।
शायद आपको पता होगा कि आज जितेन्द्र भाटिया का जयपुर में सुधा अरोड़ा के साथ विवाह हो रहा है।
मेरी कहानी पर आपने जो भी लिखा हो, मुझे प्रसन्नता ही होगी। असल में, मैं खुद छपने के बाद उस कहानी से बेहद नाखुश हो गया था। मैंने जितेन्द्र को इस बाबत लिखा भी था। अब आगे से ऐसी रचना नहीं लिखूँगा। किसी तरह के दबाव में आ कर भी। 
श्री चंद्रभूषण तिवारी वाम निकाल रहे हैं। कल ही उनका पत्र आया है। आपको भी लिखा है। 
कहानीमें आपकी कहानी पढ़ी। क्या कहानी के दीपावली अंक में आपकी कहानी आने वाली है? मेरी एक कहानी है। पढ़ कर लिखिएगा। 
आपके उपन्यास की कैसी प्रगति है?
फ्रीलांसिंग वाली आपकी बात से मैं सहमत हूँ। जैसा कि आपने लिखा है, क्लर्क भी, अपनी जगह, हमारी तुलना में जमा हुआ इसलिए माना जाता है कि उसे हर महीने डेढ़ सौ रुपये ही सही, बँधे हुए मिलते हैं। हम लोगों के साथ ऐसी सुविधा नहीं है। और इस तरह की सुविधा न होने में, दो तकलीफें हैं– (1) रोजमर्रे की सामान्य जरूरतों का पूरा न हो पाना (2) इन जरूरतों की पूर्ति के लिए आवश्यक रूपया कमाने के लिए अक्सर न चाहते हुए भी बहुत कुछ लिखने पर विवश हो जाना।
आप जानते हैं, आर्थिक दबाव बहुत तकलीफदेह होता है और वह समझौते करने पर मजबूर करता है। और समझौते लेखक के लिए घातक तो होते ही हैं। जैसे, आपने कोई साफ कहानी लिखी, पत्रिका वाले अपनी नीति और बिक्री के हिसाब से उसे छापने के लिए तैयार नहीं हैं। अब आप क्या कीजिएगा? फ्रीलांसिंग कैसे बनाये रखेंगे? नतीजा यह होता है कि या तो आप नौकरी की खोज में लग जाते हैं या कूड़ा लिखने पर विवश हो जाते हैं। ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं, कम से कम फ्रीलांसिंग की सही ताप को हल्की कर देती हैं। और इसी कारण ले-देकर लेखक समाज के साधारण अर्थ में Second Rateनागरिक बन जाता है। बात ले-दे कर यहीं आ जाती है कि सारी चीजें बदलें, खासकर राजनीतिक व्यवस्था। 
आपके विचार जानना चाहूँगा।
भाभी जी को नमस्कार। बच्ची को प्यार।
                                                  आपका
                                                इब्राहीम शरीफ
फ्रीलांसिंग के बारे में मैंने शरीफ को एक लंबा पत्र लिखा, जिसमें मैंने उसे बताया कि सिर्फ कहानी-उपन्यास लिख कर हिन्दी का लेखक जिन्दा नहीं रह सकता, क्योंकि रचनात्मक लेखन आप नियमित रूप से और इतना अधिक नहीं कर सकते कि उससे मासिक वेतन की तरह एक बँधी हुई रकम आपको लगातार मिलती रह सके। महीनों की मेहनत से आप एक कहानी और वर्षों की मेहनत से आप एक उपन्यास लिखते हैं, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं कि आपकी रचना छप ही जायेगी और उसका उचित पारिश्रमिक भी आपकेा मिल ही जायेगा। इसलिए मैं अपने रचनात्मक लेखन को फ्रीलांसिंग से अलग रखता हूँ। फ्रीलांसिंग के तौर पर मैं साहित्येतर विषयों पर लेख लिखता हूँ, रेडियो और टेलीविजन के लिए नाटक लिखता हूँ, अंग्रेजी और गुजराती से अनुवाद करता हूँ। कहानी किसी बड़ी पत्रिका में छप जाये और उसका उचित पारिश्रमिक मिल जाये, तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं। यही कारण है कि मेरी दो कहानियाँ बड़ी पत्रिकाओं में छपती हैं, तो चार छोटी पत्रिकाओं में, जो पारिश्रमिक नहीं देतीं। 
मैंने उसे सलाह दी थी कि हो सके तो वह भी ऐसी ही फ्रीलांसिंग करे और अपने रचनात्मक लेखन को उससे अलग रखे। लेकिन मेरे पत्र का कोई उत्तर नहीं आया। बाद के पत्र से पता चला कि पत्र तो उसने लिखा था, पर किसी कारण से वह मुझ तक पहुँचा नहीं। 
मेरी पहली संतान (बड़ी बेटी प्रज्ञा) 1971 के अप्रैल महीने में पैदा हुई थी और उसी साल शरीफ अपनी पहली संतान (बडे़ बेटे राहुल) का पिता बना था। इसकी सूचना देते हुए उसने लिखा था:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
17-11-71
प्रिय भाई,
 
     आपको मेरा पिछला पत्र मिल गया होगा। उत्तर की प्रतीक्षा थी, पता नहीं क्यों अब तक आपने उसका जवाब नहीं दिया। आशा करता हूँ, आप सपरिवार सकुशल होंगे।
आज ही मैंने आपकी टिप्पणी पढ़ी। सच मानिए, आपके सही और स्पष्ट विचारों को पढ़कर मैं बहुत खुश हुआ हूँ। असल में, मैं काफी कड़े शब्दों की प्रतीक्षा में था, लेकिन लगता है कि आपने फिर भी काफी उदारता दिखायी है। जैसा कि मैं आपको लिख चुका हूँ, मैं आपके विचारों से अक्षरशः सहमत हूँ, क्योंकि मैं खुद उस कहानी से संतुष्ट नहीं हूँ। संबंधों की ऐसी चलती हुई कहानी आगे मैं लिखने की गुस्ताखी नहीं करूँगा।
26-10-71 की सुबह हमारे घर नये मेहमान का आगमन हो गया है। पत्नी और बच्चा सकुशल हैं। बच्चे का नाम रखा है राहुल शरीफ। 
आपके और क्या समाचार हैं? क्या उपन्यास वाला काम आगे बढ़ रहा है? कितना लिख लिया है? कब तक पूरा हो जायेगा? और इधर क्या लिखा है?
दिल्ली का जीवन कैसा है? पता चला है कि विश्वेश्वर, अशोक अग्रवाल वगैरह आजकल दिल्ली ही रह रहे हैं। क्या कभी उन लोगों से मुलाकात हुई है
भाभी जी को नमस्कार कहिए। बच्ची को प्यार। 
आपके पत्र की प्रतीक्षा रहेगी।    
                                                                    आपका
                                                                 इब्राहीम शरीफ
1972 के आरंभ में शरीफ दिल्ली आया और चार महीने रहा। स्वतन्त्र लेखन में होने वाले आर्थिक कष्ट से तंग आ कर उसने दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार करने वाले मोटूरि सत्यनारायण (जिनके नाम से अब केंद्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा एक पुरस्कार दिया जाता है) की संस्था हिन्दी विकास समिति में नौकरी कर ली, जिसका एक कार्यालय मद्रास में था और दूसरा दिल्ली में। इस संस्था के द्वारा हिन्दी का पहला विश्वकोश हिन्दी विश्वज्ञान संहिताके नाम से प्रकाशित किया जाने वाला था। वहाँ विश्वकोश के सम्पादन का काम दो व्यक्ति पहले से करते थे– एक दक्षिण भारतीय रवींद्रन और दूसरा उत्तर भारतीय गौरी शंकर। दफ्तरी काम करने वाले क्लर्क, टाइपिस्ट, चपरासी वगैरह तो थे ही। 
शरीफ दिल्ली आते ही मेरे घर आ कर मुझसे मिला और बोला, ‘‘मैं चाहता हूँ कि आप हिन्दी विकास समिति द्वारा निकाले जा रहे हिन्दी विश्वकोश के सम्पादक मंडल में शामिल हो कर मेरे साथ काम करें।’’ वह मद्रास में ही मोटूरि सत्यनारायण से मेरे बारे में बात कर आया था और उनसे मेरी नियुक्ति की अनुमति लेकर आया था। मुझे नौकरी की जरूरत तो थी ही, विश्वकोश के सम्पादन जैसे महत्त्वपूर्ण काम के अनुभव का आकर्षण भी था, इसलिए मैंने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
दिल्ली में हिन्दी विकास समिति का कार्यालय तिलक मार्ग पर उच्च न्यायालय के सामने की एक कोठी में था। उसमें एक छोटा कमरा था और एक बड़ा हॉल। कमरा प्रधान सम्पादक का था। मोटूरि सत्यनारायण विश्वकोश के प्रधान सम्पादक थे। वे जब दिल्ली में होते, उसी कमरे में बैठते और बाकी सब लोग हॉल में। उनकी अनुपस्थिति में शरीफ उस कमरे में बैठता था। इस प्रकार वह हम सबका बॉस था, लेकिन उसमें अफसरी अकड़ नहीं थी। उसका व्यवहार सभी के साथ दोस्ताना था। लंच के समय वह और मैं उच्च न्यायालय परिसर के एक ढाबे पर खाना खाने जाते और सर्दियों की धूप में कुछ देर सड़क पर टहलते हुए गपशप करते। शरीफ बहुत हँसमुख था और बहुत अच्छा किस्सागो। दिल्ली में उसके दो पुराने मित्र थे– उत्तर भारतीय सुधीर चौहान और दक्षिण भारतीय जे.एल. रेड्डी। वे दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक थे। शरीफ के कारण मेरी भी उनसे मित्रता हो गयी। बाद में जब मैं भी दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हो गया, तो उन दोनों से मेरी मित्रता और प्रगाढ़ हुई, जो आज तक कायम है, जबकि हम तीनों प्राध्यापकी से मुक्त हो चुके हैं। 
शरीफ मेरे घर अक्सर आया करता था। मेरे परिवार में सब लोगों से वह खूब घुलमिल गया था। हँसी-मजाक में एक दिन हम लोगों ने फिल्मी तर्ज पर तय किया कि जब हमारे बच्चे बड़े हो जायेंगे, हम उनकी शादी करके अपनी दोस्ती को रिश्तेदारी में बदल देंगे। तभी से शरीफ मेरी बेटी प्रज्ञा को बहूरानी कहने लगा और मैं उसके बेटे राहुल को दामाद जी। यह सम्बन्ध बाद में हमारे पत्राचार में भी व्यक्त होता रहा।


चार महीने बाद शरीफ वापस मद्रास चला गया, लेकिन वहाँ जा कर भी वह हिन्दी विकास समिति का काम करता रहा। उसका वेतन दिल्ली से उसे भेजा जाता था। मद्रास जाते समय वह अपनी कुर्सी और जिम्मेदारी मुझे सौंप गया। अर्थात्, जब मोटूरि सत्यनारायण और इब्राहीम शरीफ दिल्ली में नहीं होंगे, विश्वकोश के प्रधान सम्पादक के कमरे में बैठ कर दफ्तर का सारा कामकाज मुझे देखना होगा। लेकिन यह बात वहाँ मुझसे पहले से काम करने वाले रवींद्रन और गौरीशंकर को अच्छी नहीं लगी। वहाँ उनकी नियुक्ति मुझसे पहले हुई थी, इसलिए वे वरीयता क्रम में स्वयं को मुझ से ऊपर समझते थे। मेरे आदेशों का पालन करने में उन्हें अपनी हेठी लगती थी, इसलिए वे मेरे द्वारा बताये गये कामों को टाल देते थे या उनमें जान-बूझकर ढिलाई बरतते थे। इससे काम की गति तो धीमी होती ही थी, दफ्तर में एक तरह का तनाव भी पैदा होता था। शरीफ मद्रास से पत्र लिख कर पूछता था कि दफ्तर का कामकाज कैसा चल रहा है। उसका कहना था कि मोटूरि सत्यनारायण हर हफ्ते काम की प्रगति की विस्तृत रपट चाहते हैं। काम उसकी, और मेरी भी, अपेक्षा के मुताबिक तेजी से नहीं हो रहा था। मगर मैं अपने साथ काम करने वालों की शिकायत नहीं करना चाहता था, इसलिए शरीफ के पत्रों के उत्तर देना या तो गोल कर जाता, या बहुत संक्षेप में उत्तर देता। उसके दोस्त सुधीर चौहान और जे.एल. रेड्डी दफ्तर की दशा जानते थे, पर मैंने उनसे भी कह रखा था कि इस बाबत शरीफ को लिख कर उसे परेशान न करें।
उधर शरीफ इसी बात से चिंतित और परेशान रहता था। इस बीच वह मुझ से बहुत निकटता और आत्मीयता अनुभव करने लगा था, इसलिए उसके पत्रों में ‘‘प्रिय भाई’’ वाला औपचारिक संबोधन बदल कर ‘‘प्रिय रमेश’’ हो गया था। पत्र के नीचे भी अब वह ‘‘आपका इब्राहीम शरीफ’’ लिखने की जगह ‘‘तुम्हारा शरीफ’’ लिखता था। उन्हीं दिनों का उसका एक पत्र है:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
26-6-72
प्रिय रमेश,
मुझे ऐसी कोई घटना याद नहीं आ रही है जिसके अन्तर्गत मैंने तुम्हारे प्रति इस हद तक गुस्ताखी की हो कि तुम मेरे खत का जवाब देना तक गवारा न कर सको। अगर मुझसे ऐसी कोई भूल हो गयी हो तो मुझे माफ कर दो, मेरे भाई!
तुम बखूबी सोच सकते हो कि चार महीने लगातार तुम्हारी आत्मीयता पा कर मैं इतनी दूर आ जाऊँ और तुम मेरे पत्र का जवाब तक न दो, तो मुझे किस हद तक तकलीफ हो सकती है। मैं यह तो बिलकुल नहीं मान सकता कि तुम्हें इतनी भी फुर्सत न मिलती हो कि चार अक्षर तुम मुझे लिख सको। इसलिए मैं यह सोचने पर विवश हूँ कि मुझसे कोई भूल हो गयी है, जिसकी वजह से तुम भरे बैठे हो। तो मेरे भाई, गाली-गलौज ही क्यों नहीं दे लेते, जिससे पता तो चले कि मैं कितना गिरा हुआ इंसान हूँ। सिर्फ दफ्तरी पत्र पाने ही के लिए तो मैंने तुमसे दोस्ती नहीं की थी न?
मैंने अपने 16-6-72 वाले विस्तृत पत्र में तुम्हें बहुत सारी बातें लिखी थीं। तुमने उन बातों में कोई जान नहीं देखी कि चुप्पी साध गये? आखिर तुम्हें हो क्या गया है, रमेश? क्या तुम वही रमेश हो, प्यारे, भोले और आत्मीय, जिसे मैंने चार महीने जाना और चाहा था?
अगर तुम इस पत्र का भी जवाब नहीं दोगे, तो याद रखो, मैं जिन्दगी में किसी पर भी कोई विश्वास नहीं करूँगा। उस गधे चौहान से भी कहो कि उसने भी मेरे पत्र का उत्तर नहीं दिया है। 
भाभी जी के क्या हाल हैं? उन्हें मेरी नमस्ते कहो और बहूरानी को ढेरों प्यार। 
तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा में,
                                                                  तुम्हारा
शरीफ
हिन्दी विकास समिति मोटूरि सत्यनारायण द्वारा स्थापित एक गैर-सरकारी संस्था थी, जो सरकारी सहायता से चलती थी। वे दक्षिण में हिन्दी का प्रचार करने वाले एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में विख्यात थे और हिन्दी में पहला विश्वकोश निकालने की उनकी योजना बहुत प्रभावशाली थी, अतः अपनी संस्था के लिए सरकारी अनुदान प्राप्त करना उनके लिए मुश्किल नहीं था। वे संस्था के सर्वेसर्वा थे और तानाशाह की तरह उसे चलाते थे। जब जिसे चाहा, रख लिया; जब जिसे चाहा, हटा दिया। लेकिन यह काम वे सीधे नहीं करते थे, शरीफ से कराते थे और शरीफ न चाहते हुए भी उनके आदेशों का पालन करने को विवश होता था।
शरीफ उस नौकरी में खुश नहीं था, लेकिन उसे छोड़ना भी नहीं चाहता था। वह कालीकट के जिस कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक रह चुका था, वहाँ के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. मलिक चाहते थे कि वह पुनः कॉलेज में पढ़ाने आ जाये। लेकिन शरीफ की न जाने क्या मजबूरी थी कि वह वहाँ नहीं जाना चाहता था।
कमलेश्वर ने शरीफ को ही नहीं, मुझे भी यह आश्वासन दे रखा था कि वे हम दोनों को टाइम्स ऑफ इंडिया में, यानी उस प्रकाशन समूह की धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘दिनमानया परागनामक पत्रिकाओं में से किसी के सम्पादकीय विभाग में नौकरी दिला देंगे। लेकिन उनका कोई आश्वासन पूरा होने का नाम नहीं ले रहा था।
शरीफ और मैं अपने लिए कोई ढंग का ठौर-ठिकाना ढूँढ़ रहे थे, लेकिन विडंबना यह थी कि अन्य लोग हमें इतना शक्तिशाली समझते थे कि हम जिसे चाहें, हिन्दी विकास समिति में नौकरी पर रख या रखवा सकते हैं। मेरे और शरीफ के साझे मित्र कहानीकार सतीश जमाली को नौकरी की जरूरत थी और वह चाहता था कि हम उसे समिति में नौकरी दिला दें। मैंने शरीफ से सतीश के बारे में बात की, तो उसने किन्हीं डॉ. सुब्रह्मण्यम् के बारे में बताया कि उन्हें नौकरी की ज्यादा जरूरत है और शरीफ उन्हें समिति के मद्रास कार्यालय में रखवाने का प्रयास कर रहा है, इसलिए फिलहाल सतीश के लिए कुछ नहीं कर सकता।
इन सारे संदर्भों से युक्त शरीफ का एक पत्र इस प्रकार था:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
28-6-72
मेरे रमेश,
     आखिर तुम्हारा एक खत मिला, संक्षिप्त-सा। पढ़ कर तसल्ली तो हुई मगर मजा नहीं आया।
यार, चौहान और तुम्हारे नाम लिखे हुए मेरे पत्र जा कहाँ रहे हैं? और लोगों को मेरे पत्र मिल रहे हैं और तुम दोनों सालो मेरे पत्र न मिलने का बहाना कर चुप्पी साधे बैठे हो। मैंने तुम दोनों के नाम और दो पत्र लिखे हैं।
क्या कमलेश्वर जी दिल्ली आये थे? क्या बातें हुईं? वह टाइम्स वाली बात उन्होंने कुछ नहीं लिखी है। पता नहीं क्या हुआ
डॉ. मलिक कालीकट बहुत जोर देकर बुला रहे हैं, लेकिन मैं अभी तक कुछ तय नहीं कर पाया हूँ। डॉ. सुब्रह्मण्यम, जिसके बारे में मैंने बताया था कि बेचारा यहाँ सभा की नौकरी से हटा दिया गया था, उसके लिए मैंने हिन्दी विकास समिति में यहाँ के लिए इंतजाम कर लिया है। जुलाई की पहली से संभवतः वह लग जाये। अब यार, सतीश जमाली की चिन्ता है। उसके लिए कुछ करें, तभी बात बने। उसकी नौकरी छूटने वाली है और बेकारी में बेचारा कैसे घर चला पायेगा? तुम भी कुछ सोचो उस भाई के लिए। 
यहाँ से निकलने वाली पत्रिका का क्या सोचा है तुम लोगों ने? कमलेश्वर जी के साथ हुई बातचीत का ब्योरेवार परिचय मुझे दो।
मेरे वेतन में से 100 रुपये इस महीने मत काटो। मुझे घर जाना है, भाई के बच्चों के लिए कपड़े खरीदने हैं। मुझे रुपयों की जरूरत होगी।
और?
मेरी बहूरानी के क्या हाल हैं? उसे उसके वोबहुत याद करते रहते हैं। उसकी सास को तो वह बहुत पसन्द आयी है। कहती है, बहुत Sweet है।
भाभी जी को सादर नमस्कार। मेरी बीवी की ओर से तुम दोनों को प्रणाम।
उस चौहान गधे के क्या हाल हैं? लिखो।
                                                     तुम्हारा                                                                                                                                                                                            
                                                   शरीफ
जिस संस्था में तानाशाही और अस्थायित्व हो, उसमें काम करने वाले लोग असुरक्षा की मानसिकता में जीते हुए एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या और द्वेष से ग्रस्त हो जाते हैं। हिन्दी विकास समिति के दिल्ली कार्यालय में मेरे साथ काम करने वाले रवींद्रन और गौरीशंकर मेरे प्रति ऐसे ही ईर्ष्या-द्वेष से ग्रस्त थे। वे मेरे विरुद्ध शरीफ को भड़काने वाले पत्र तो लिखते ही थे, विश्वकोश से सम्बन्धित काम भी मुस्तैदी से नहीं करते थे। उधर मोटूरि सत्यनारायण का शरीफ पर और शरीफ का मुझ पर निरंतर यह दबाव रहता था कि विश्वकोश के पहले खण्ड का प्रकाशन जल्दी से जल्दी हो जाये। शायद इसी पर सरकारी अनुदान मिलना निर्भर करता था। अन्ततः मुझे एक पत्र में दफ्तर का सारा हाल शरीफ को लिखना पड़ा। मेरे पत्र के उत्तर में शरीफ के दो पत्र आये, एक दफ्तरी और दूसरा निजी। निजी पत्र इस प्रकार था: 
 
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
13-7-72                                                                                                                               
प्रिय रमेश,
तुम्हारा खत मिला। 
आज सुबह ही मैंने तुम्हारे नाम दफ्तर के पते पर एक पत्र भेजा है, जिसमें मैंने तुम तीनों को संबोधित किया है। मैंने अब तक का सारा दफ्तर का पत्र-व्यवहार सत्यनारायण जी को दिखाया है और जो कुछ मैंने तुम लोगों को लिखा है, वह सब उन्हीं के आदेशानुसार लिखा है। तुम जानते हो, मैं भी तुम लोगों की तरह ही नौकर हूँ और मुझे जो आदेश दिया जाता है, वह करना मेरा कर्तव्य हो जाता है। 
गौरी के बारे में तुमने जो बातें लिखी थीं, वे सारी सत्यनारायण जी पहले ही से जानते हैं। और उन्होंने मुझे बताया भी था। इस सबके बावजूद, हो सकता है, गौरी या रवींद्रन या तुम खुद भी मुझे गलत समझ सकते हो। लेकिन मेरे भाई, शायद तुम अपने चार महीनों के अनुभव के आधार पर इतना तो जान गये होगे कि मैं न किसी की बुराई चाहता हूँ, न किसी पर कोई अधिकार चलाना चाहता हूँ। गौरी खुद ये सारी बातें जानता है। मगर वह इतना रूखा इंसान है कि व्यक्तिगत संबंधों को कोई तरजीह नहीं देता है। खैर, मेरी असलियत मेरे साथ है, तुम लोग जो भी समझो। 
मैं खुद इस नौकरी में बहुत दिन नहीं रहूँगा। ताकि तुम लोग मुझे और ज्यादा गलत समझने का मौका न पा सको। खैर, ये तो दफ्तर की बेहूदा बातें हैं।
कमलेश्वर जी के पत्र आये। समांतरसंग्रह के लिए उन्होंने मेरी दिग्भ्रमितकहानी चाही है। उसकी कटिंग मेरे पास नहीं है। यहाँ मिलने की भी संभावना नहीं है। तुम्हारे पास धर्मयुगके पुराने अंक हों, तो (4 अक्टृबर, 1970 के अंक से) कटिंग तत्काल कमलेश्वर जी के पास भेजो। श्रवण कुमार बता रहे थे कि मेरी उस कहानी की कटिंग उनके पास भी है। उन्हें भी पूछो। उनके पास हो, तो लेकर बंबई भेज दो।
और?
सतीश के बारे में अभी कोई व्यवस्था करने की स्थिति नहीं है। पहली जिल्द निकलने के बाद ही वह संभव हो पायेगा। इसलिए इस नवंबर-दिसंबर के पहले नहीं हो पायेगा। मैंने कमलेश्वर जी को भी यही बातें सूचित की हैं। तुम भी लिख दो।
और क्या हो रहा है
भाभी जी को प्रणाम। बच्ची को प्यार। पत्र दो। कहानी बंबई भिजवाओ।
                                                तुम्हारा
                                                  शरीफ
प्रिय भाई’, ‘प्रिय रमेश’, ‘मेरे रमेशजैसे संबोधनों वाले पत्र लिखने वाले शरीफ ने एक बार मुझे अप्रिय रमेशलिखकर भी संबोधित किया था:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4
                                                        26-8-72

अप्रिय रमेश
     लगता है, मुझे भाभी जी से यह जानना पड़ेगा कि तुम अपने-आपको क्या समझते हो! यार, पत्र क्यों नहीं लिखते? दफ्तर पर पत्र लिखा, जवाब नहीं। घर के पते पर लिखा, वही मौन। लगता है, निर्दयी होते जा रहे हो। खासकर मेरे साथ। खासकर तुम्हारी प्यारी बिटिया के ससुर के साथ।
खुश हो जाओ कि अगले महीने की दूसरी तारीख तक बंदा दिल्ली पहुँच रहा है। सत्यनारायण जी भी चाहते हैं। एक तार भिजवाया था सत्यनारायण जी ने तुम्हारे नाम–मेरे द्वारा (यानी मेरा नाम रख कर) घबराने की कोई बात नहीं। संक्षेप में लिखो कि कितना काम हुआ है। उन्हें इन बातों को बार-बार जानने की लत है।
यह पत्र, ध्यान रखो कि एकदम व्यक्तिगत है, इससे बढ़कर कुछ नहीं। बाहर न जाये।
भाभी जी को प्रणाम।
बिटिया को प्यार।
तत्क्षण लिखो।
                                  तुम्हारा
                                   शरीफ
सितंबर, 1972 में शरीफ दिल्ली आ गया, तो मुझे दफ्तर की उस जिम्मेदारी से मुक्ति मिली, जिसे सँभालने के बदले में मेरा वेतन तो एक पैसा भी नहीं बढ़ा था, पर सिरदर्दी बहुत बढ़ गयी थी। शरीफ अपने कमरे में बैठने लगा और मैं वापस हॉल में अपनी पहली वाली जगह। मुझे तो इससे तनावमुक्त हो जाने की खुशी हुई, लेकिन रवींद्रन और गौरीशंकर को इस बात की खुशी हुई कि मैं अब उनका सीनियर नहीं रहा, बल्कि नियुक्ति के तिथि-क्रम के अनुसार पुनः उन दोनों से जूनियर हो गया हूँ।
मुझे इसकी परवाह नहीं थी, बल्कि खुशी थी कि मेरा बहुत-सा समय बच गया, जो शरीफ की जगह बैठने से विश्वकोश के लेखकों को टेलीफोन करके काम जल्दी करने के लिए कहने में, टाइपिस्ट को काम देने, उसके काम को जाँचने और उसे ठीक से काम करने की ताईद करने में तथा कारण-अकारण मिलने आने वालों के साथ बातचीत करने में चला जाता था। वापस अपनी जगह आ कर मैंने सम्पादन का काम तेजी से करना शुरू किया। देखा-देखी रवींद्रन और गौरीशंकर भी मुस्तैदी से काम करने लगे।
उन्हीं दिनों कानपुर में समांतरका दूसरा सम्मेलन हुआ, जिसमें शरीफ और मैं दिल्ली से साथ-साथ गये। सम्मेलन 15, 16, 17 अक्टूबर को होना था, लेकिन कमलेश्वर ने मुझे, शरीफ, जितेन्द्र और मधुकर सिंह को एक दिन पहले कानपुर पहुँच जाने के लिए कहा था, ताकि ‘‘समांतर के कोर ग्रुप’’ के लोग (अर्थात् कमलेश्वर,  मैं,  शरीफ,  जितेन्द्र,  कामतानाथ और मधुकर सिंह) पहले मिल कर तय कर लें कि सम्मेलन में क्या-क्या और किस तरह किया जाना है।
मैं और शरीफ 13 अक्टूबर को रात की गाड़ी से कानपुर गये। रास्ते में समांतर को लेकर शरीफ से मेरी लम्बी बातचीत हुई। हम दोनों के विचार से कमलेश्वर ने हमारे आन्दोलन को चालाकी से हथियाकर अपना नेतृत्व उस पर थोप दिया था। गलती हम लोगों की भी थी कि हमने अपना आन्दोलन स्वयं चलाने के बजाय उसकी बागडोर उनके हाथ सौंप दी। होना यह चाहिए था कि हम अपना आन्दोलन अपने ढंग से चलाते, उसके लिए एक नया मंच बनाते और उसके जरिये कहानी के रूप तथा वस्तु-तत्त्व में आ रहे नये बदलाव को उसके मूल्य और महत्त्व के साथ सामने लाते। उस समय हिन्दी साहित्य में पुराने प्रगतिशील आन्दोलन का जो नया उभार वाम-जनवादी लेखन के रूप में सामने आ रहा था, उससे जुड़ कर हमें एक नया कहानी आन्दोलन शुरू करना चाहिए था और पहल’, ‘वाम’, ‘उत्तरार्द्धआदि पत्रिकाओं जैसी कोई नयी पत्रिका निकाल कर उस समय लिखी जा रही वाम-जनवादी कहानी को एक नये साहित्यिक आन्दोलन का रूप देना चाहिए था। लेकिन हमने तत्कालीन सत्ता और व्यवस्था के समर्थक एक पुराने लेखक को अपना नेता तथा एक पूँजीवादी संस्थान से निकलने वाली व्यावसायिक पत्रिका को अपना मंच मान लिया था। समांतर आन्दोलन में शामिल ज्यादातर कहानीकार अराजनीतिक किस्म के लेखक थे और कमलेश्वर नयी कहानीआन्दोलन के समाप्त हो जाने पर साहित्य में अपनी साख और धाक फिर से जमाने की फिराक में थे। फिर, एक तरफ कमलेश्वर को कहानी की एक पत्रिका चलाने के लिए लगातार अच्छी कहानियों की जरूरत थी, जो नये कहानीकार ही पूरी कर सकते थे, तो दूसरी तरफ नये कहानीकारों को सारिकाजैसी लोकप्रिय पत्रिका में निरंतर प्रकाशित होने और उसके सम्पादक की निकटता का लाभ उठा कर साहित्य में अपने पैर जमाने का अवसर मिल रहा था। इस प्रकार पारस्परिक लाभ के सिद्धांत पर समांतर कहानी का आन्दोलन चल रहा था।
उस समय हिन्दी साहित्य में वाम-जनवादी लेखन का जो नया उभार आया हुआ था, उससे जुड़े लेखक तथा साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक मार्क्सवादी थे और वाम दलों के सदस्य अथवा समर्थक थे। हम साहित्य की उस नयी प्रवृत्ति से जुड़ कर अपना कहानी आन्दोलन चलाते, तो हमारे आन्दोलन की दशा और दिशा कुछ और ही होती। लेकिन समांतर आन्दोलन उस नयी प्रवृत्ति के विरोधी उन लेखकों का एक गुट बन कर रह गया, जो मार्क्सवाद तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के विरोधी थे।
मैं शरीफ से दोस्ती होने से पहले से ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थक था (यद्यपि मैं उसका सदस्य कभी नहीं रहा) और मेरी गिनती वाम-जनवादी लेखकों में होने लगी थी। कमलेश्वर चाहते थे कि समांतरी लेखक वाम राजनीति और विचारधारा से कोई सम्बन्ध न रखें। ज्यादातर समांतरी लेखक उनसे सहमत थे। उनकी दलगत संबद्धताएँ जो भी रही हों, या न रही हों, उन सब में एक चीज समान थी- सी. पी. एम. का विरोधी होना। कामता नाथ सी. पी. एम. वालों की तीखी आलोचना किया करता था, मधुकर सिंह सी. पी. एम. के ई. एम. एस. नंबूदिरिपाद जैसे नेताओं तक को गालियाँ दिया करता था, जितेन्द्र भाटिया राजनीति से अलग और ऊपर रहने की बातें किया करता था और शरीफ सभी प्रकार की राजनीति से नफरत-सी किया करता था। (यह नफरत उसकी दिग्भ्रमितजैसी कहानियों में भी दिखायी देती थी।) कमलेश्वर सी. पी. एम. की आलोचना करने और उसके नेताओं को गाली देने के बजाय उनका मजाक उड़ाने के जरिये अपना विरोध प्रकट करते थे। मसलन, ‘वामके सम्पादक चंद्रभूषण तिवारी को चंभूति कह कर वे ठहाके लगाया करते थे।
मैंने और शरीफ ने तय किया कि हम कानपुर में होने जा रहे समांतर के दूसरे सम्मेलन में अपने आन्दोलन की राजनीतिक पक्षधरता और प्रतिबद्धता स्पष्ट करने पर जोर देंगे। 
हम 14 अक्टूबर को सुबह के ढाई बजे कानपुर पहुँचे। हमें कामता नाथ के घर पहुँचना था, लेकिन इतने सवेरे उसके घर पर दस्तक देना उचित न समझ हमने स्टेशन पर अपना सामान रखा, एक रिक्शा किया और उस पर शहर में घूमते रहे। रमजान का महीना था, इसलिए मुसलमान लोग दिन भर के उपवास के लिए खा-पी कर तैयार होते दिखे। रिक्शे वाला भी मुसलमान था, पर उसने बताया कि वह रोजे नहीं रखता, क्योंकि रोजा रख कर रिक्शा नहीं चला सकता। एक जगह रुक कर हमने चाय पी, उसे भी पिलायी और वह हमारे कहने पर हमें कानपुर के मुस्लिम इलाकों में ले गया। दो कब्रिस्तानों के बीच की एकदम अँधेरी सड़क से भी हम गुजरे। सुबह की शबनमी ठंड में पाँच बजे तक घूम कर हम स्टेशन लौटे। तभी कलकत्ता से दिल्ली जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस से जितेन्द्र उतरा। वह कलकत्ता से आया था। उसके साथ हम कामता नाथ के घर गये। कमलेश्वर के बंबई से और मधुकर सिंह के आरा से आ जाने पर सम्मेलन की रूपरेखा पर विचार हुआ।
उस समय कानपुर में सी. पी. एम. का बड़ा सशक्त मजदूर संगठन था। कॉमरेड राम आसरे और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल की बेटी सुभाषिनी सहगल (जो बाद में मुजफ्फर अली से शादी करके सुभाषिनी अली और सी. पी. एम. की बड़ी नेता बनी) वहाँ के दो बड़े लोकप्रिय मजदूर नेता थे। सुभाषिनी से कुछ दिन पहले दिल्ली में मेरी भेंट हुई थी। मैंने उसे कानपुर में होने वाले समांतर सम्मेलन के बारे में बताया था। उसे यह बात याद रही और वह सम्मेलन में मुझ से मिलने आयी। मेरे कहने पर एक गोष्ठी में उपस्थित रही और बोली भी। मैंने शरीफ और जितेन्द्र को अलग ले जा कर उस से मिलवाया, तो उसने हम तीनों से बात करने के लिए हमें सम्मेलन-स्थल के निकट ही रहने वाले अपने एक कॉमरेड के घर ले जा कर चाय पिलायी और यह जान कर कि शरीफ मद्रास से एक उर्दू अखबार निकालने की सोच रहा है, उसने शरीफ को मद्रास के अपने कुछ साथियों के पते दिये, जो अखबार निकालने में शरीफ की मदद कर सकते थे।


कमलेश्वर को समांतर सम्मेलन में सुभाषिनी का आना, हम तीनों से उसका बातचीत करना और हमारा उसके साथ चाय पीने जाना अच्छा नहीं लगा। रात को कामतानाथ के घर पर हुई दारू-पार्टी में कमलेश्वर ने मुझ से कहा, ‘‘रमेश, सी. पी. एम. वाले तुम्हें ओन करने लगे हैं, यह गलत बात है।’’ उन्हें इस पर भी ऐतराज था कि मैंने शरीफ और जितेन्द्र को सुभाषिनी से क्यों मिलवाया और क्यों मैं उन दोनों को लेकर उसके साथ चाय पीने गया। मुझे यह बात बहुत बुरी लगी। मैंने पूछा, ‘‘क्या समांतर के लेखकों को यह आजादी नहीं कि वे अपनी मर्जी से अपने मित्रों के साथ कहीं चाय पीने भी जा सकें?’’ 
गंभीर बातों को हँसी-मजाक में उड़ा देने की कूट-कला में माहिर कमलेश्वर ने इस विषय पर आगे बात नहीं होने दी और शराब की चुस्कियों के साथ उनकी चुटकुलेबाजी शुरू हो गयी। मुझे यह बात आश्चर्यजनक लगी कि शरीफ और जितेन्द्र ने भी वह बात आगे नहीं बढ़ायी।
मैंने कानपुर में ही फैसला कर लिया था कि मैं समांतर में नहीं रहूँगा। लेकिन शरीफ और जितेन्द्र अपना भविष्य शायद समांतर में बने रहने में ही देख रहे थे। अतः दोनों मुझे समझाते रहे कि मैं समांतर छोड़ने की गलती न करूँ।
उन दिनों बड़ी (व्यावसायिक) पत्रिकाओं के विरुद्ध लघु (साहित्यिक) पत्रिकाओं का आन्दोलन जोर-शोर से चल रहा था और कई लेखकों ने, जो अभी तक बड़ी पत्रिकाओं में धड़ल्ले से छपते आ रहे थे, उनमें न लिखने का फैसला किया था। मैं उन दिनों धर्मयुग’, सारिका’, साप्ताहिक हिंदुस्तानआदि बड़ी पत्रिकाओं में खूब लिखता था। धर्मयुगऔर सारिका टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन से निकलने वाली बड़ी पत्रिकाएँ थीं, जिनमें मेरी कहानियाँ खूब छपती थीं। टाइम्स ऑफ इंडिया प्रेस बंबई में बोरीबंदर के पास था। बोरीबंदर के नाम से जोड़ कर रवींद्र कालिया ने मुझे कहीं ‘‘बोरीबंदर का लाडला कथाकार’’ कहा था और उसका यह जुमला खूब चला था। फिर भी मैंने लघु पत्रिका आन्दोलन में शामिल हो कर बड़ी पत्रिकाओं में न लिखने का फैसला किया। सारिका बड़ी पत्रिका थी और वह समांतर आन्दोलन की पत्रिका भी थी। इसलिए सारिकासे नाता तोड़ने का अर्थ अपने-आप ही समांतरसे नाता तोड़ना भी हो गया।
शरीफ को मेरा यह निर्णय अच्छा नहीं लगा। उसने और समांतर से जुड़े अन्य लेखकों ने भी सारिकाऔर समांतरसे जुड़े रहने में ही अपनी भलाई देखी।
कानपुर से लौटने के कुछ दिन बाद शरीफ पुनः मद्रास चला गया। हिन्दी विकास समिति में विश्वकोश का पहला खण्ड छपने चला गया था और अगले खण्ड के सम्पादन का काम शुरू होने में अभी देर थी, इसलिए मोटूरि सत्यनारायण ने शरीफ से कहा कि कुछ समय के लिए दिल्ली दफ्तर से किसी एक व्यक्ति को नौकरी से हटा दिया जाये। जब जरूरत होगी, उसे फिर से रख लेंगे। तदनुसार शरीफ ने मुझे लिखा:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4

                                                         28-10-72

प्रिय रमेश
     तुम्हारा लंबा पत्र मिल गया था। मुझे खुद लिखना चाहिए था। मगर लिख नहीं सका। इस बार तुमसे दूर होकर मुझे कुछ अतिरिक्त बेचैनी हो रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह कि जिस नौकरी पर मैंने अपनी तरफ से तुम्हें लगाया था, उसकी रक्षा मैं खुद करने की हालत में फिलहाल नहीं रह गया हूँ। तुम जानते ही हो कि अब दफ्तर में काम कम है और इसलिए किसी एक को दो-एक महीने के लिए हटाना जरूरी है। मैं चाहता, तो गौरी को भी हटा सकता था, लेकिन तुम्हारे सामने क्या छिपाना कि मैंने तुम्हें ही हटाने की बात सत्यनारायण जी से कही है। वह इसलिए कि तुम नौकरी के बगैर भी एक-दो महीने चला सकते हो, मगर वह नहीं। यह बात मैं तुम्हें साफ लिख रहा हूँ, ताकि तुम कभी भी मुझे गलत न समझो।
मैं वादा करता हूँ कि जनवरी से फिर से तुम्हें वहाँ रखवाऊँगा। श्री रवींद्रन के लिए मैंने कालीकट वाली व्यवस्था कर दी है। उन्हें निश्चित रूप से छात्रवृत्ति मिल जायेगी दिसंबर में। वे चले जायेंगे और मैं तुम्हें फिर से रखवा लूँगा। और इस बार कुछ महीनों के लिए नहीं, कई सालों के लिए, अगर तुम चाहोगे, तो। सत्यनारायण जी भी तुम्हें बहुत चाहते हैं। लेकिन अभी वे भी विवश हैं। तुम नवंबर की पहली तारीख से दफ्तर मत जाओ। मैं तुम्हें Officially न लिख कर व्यक्तिगत रूप से लिख रहा हूँ, एक भाई के नाते। तुम सत्यनारायण जी से मेरे पत्र का जिक्र करो और उन्हें बता दो कि पहली नवंबर से तुम काम पर नहीं आओगे, अगली सूचना तक। 
मेरे भाई, यह पत्र लिखते हुए मैं क्या कुछ अनुभव कर रहा हूँ, तुम्हें बता नहीं सकता। खैर, तुम मुझे गलत नहीं समझोगे, इस आशा के साथ।
मैंने कमलेश्वर जी को उर्दू पत्रिका वाली योजना भेज दी है। देखें, क्या होता है। तुम अपनी बातें लिखो।
भाभी जी को प्रणाम। बिटिया को बहुत-बहुत प्यार।
पत्र तत्काल दो।
तुम्हारा
शरीफ
हिन्दी विकास समिति की नौकरी खत्म होने का मुझे दुख नहीं हुआ, बल्कि एक बेमतलब तनाव से मुक्त होने की खुशी ही हुई। मैंने मोटूरि सत्यनारायण को अपना त्याग-पत्र तो भेजा ही, शरीफ को भी लिख दिया कि वह मेरी चिन्ता न करे, मुझे इस नौकरी में वापस कभी नहीं आना है और इस प्रसंग का हमारी दोस्ती पर कोई असर नहीं पड़ना है।
मैं फ्रीलांसिंग और अस्थायी नौकरियों के अपने अनुभव से अच्छी तरह समझ चुका था कि हिन्दी में स्वतन्त्र लेखन के सहारे जीना बहुत मुश्किल है। इसलिए मैंने प्राध्यापक बनने के वास्ते पी-एच. डी. के लिए शोध करना शुरू कर दिया था। शरीफ मुझसे पहले ही पी-एच.डी. कर चुका था। उसने आगरा विश्वविद्यालय से दक्खिनी हिन्दी के लोकगीतविषय पर पी-एच.डी. की थी। उससे मैंने कई बार कहा कि वह कोई स्थायी नौकरी खोजे और आजीविका की ओर से निश्चिंत हो कर अपना साहित्य-सृजन करे। यदि डॉ. मलिक अपने कॉलेज में प्राध्यापक बनाने के लिए उसे कालीकट बुला रहे हैं, तो उसे वहाँ अवश्य चले जाना चाहिए। लेकिन शरीफ की न जाने वह कौन-सी जिद या मजबूरी थी कि वह हिन्दी विकास समिति की नौकरी छोड़ने को तैयार नहीं था और उसमें रहकर खुश भी नहीं था। वह मद्रास में ही रह कर कोई ऐसा काम करना चाहता था, जिससे वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके। पहले उसने वहाँ प्रेस लगाने की योजना बनायी। फिर हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका निकालने की योजना बनायी। फिर उर्दू का अखबार और उसकी जगह फिर उर्दू में पत्रिका निकालने की योजना बनायी। मगर कोई योजना सफल नहीं हुई, क्योंकि ऐसा कोई काम शुरू करने के लिए जरूरी पैसा उसके पास नहीं था।
कमलेश्वर तब तक हिन्दी फिल्मों के पटकथा लेखक बन चुके थे। उन्होंने शरीफ को जिस तरह टाइम्स ऑफ इंडिया की किसी पत्रिका में नौकरी दिलाने का आश्वासन दिया था, या जैसे उसके द्वारा निकाले जाने वाले उर्दू अखबार के लिए सरकारी सहायता दिलाने का आश्वासन दिया था, वैसे ही फिल्मों में काम दिलाने का आश्वासन भी दिया। लेकिन वे सब हवाई बातें थीं, जिनके कारण अन्ततः कमलेश्वर और समांतर आन्दोलन से भी उसका मोह-भंग हुआ। फिर भी न जाने क्यों, वह मेरी तरह उससे अलग कभी नहीं हुआ। 
मैंने उससे यह भी कहा था कि वह वाम-जनवादी साहित्य और लघु पत्रिकाओं के आन्दोलन से अपना सम्बन्ध स्पष्ट कर ले। किन्तु वह सोचता था कि बड़ी पत्रिकाओं में लिखना छोड़ कर पारिश्रमिक न देने वाली लघु पत्रिकाओं में लिखने का फैसला करके वह जिन्दा नहीं रह सकेगा। समांतर आन्दोलन को भी वह शायद इसीलिए छोड़ना नहीं चाहता था। 
इधर वाम-जनवादी आन्दोलन में एक नया उभार आया देख प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लोगों ने उसे पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से 1973 में ‘‘सभी रंगतों के प्रगतिशील’’ लेखकों का एक बड़ा सम्मेलन बाँदा (उत्तर प्रदेश) में आयोजित किया। मुझे भी उसमें बुलाया गया था। मैंने शरीफ को लिखा कि वह भी उस सम्मेलन में शामिल हो। मगर वह समांतर से इतना निराश हो चुका था कि बाँदा सम्मेलन को भी समांतर सम्मेलन जैसी ही कोई चीज समझ रहा था, जिसमें रात को शराब की चुस्कियों के साथ चुटकुलेबाजी होती थी।
मैंने उसे एक विस्तृत पत्र लिख कर उसे समांतर सम्मेलन और बाँदा के प्रगतिशील साहित्यकार सम्मेलन का फर्क समझाते हुए बाँदा चलने के लिए कहा, तो उत्तर में उसने लिखा:
54, Bazar Road
Mylapore, Madras-4

                                                         9-2-73
                                                                                                                                 
प्रिय रमेश
     तुम्हारा विस्तृत पत्र कल शाम को मिला।
बाँदा वाले सम्मेलन में मैं नहीं जाऊँगा। मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं शराब पीने के लिए और चुटकुले सुनने-सुनाने के लिए उतनी दूर जाऊँ। जितेन्द्र ने भी मुझसे आग्रह किया था कि मैं चलूँ। कमलेश्वर जी ने भी लिखा था। मैंने मना कर दिया है। समांतर के अन्तर्गत हम लोग दो बार मिले हैं। कोई काम हुआ है? कोई योजना पूरी हुई है? कोई महान कहानी-उपन्यास-नाटक लिखा गया है? या कम से कम सारे समांतरीएक तरह सोच पाये हैं? एक खयाल पाल पाये हैं? या कम से कम एक-दूसरे के सही दोस्त बन पाये हैं? एक-दूसरे के आगे ईमानदार रह सके हैं? एक-दूसरे के लिए सच्ची मुहब्बत जगा पाये हैं? अब बाँदा में मिल कर कौन-सी प्रगति छाँटोगे? तुम जाओ, और सारे समाचार मुझे दो। काफी होगा। 
स्वयं प्रकाश के बारे में विस्तृत जानकारी तुमने दी, अच्छा किया। उनका एक-डेढ़ हफ्ता पहले एक पत्र आया था, तत्काल क्योंके लिए कहानी भेजने का आग्रह करते हुए। मैंने कोई उत्तर नहीं दिया है। वह इसलिए कि उन्होंने एक बार लिखा था कि उनका क्योंसे कोई सम्बन्ध नहीं है। और अब फिर कहानी माँग रहे हैं। अजीब मजाक है। पहले, ‘क्योंका समाचार पाकर, उत्साहित हो कर, एक गरीब व्यक्ति के महत्त्वपूर्ण, ईमानदार प्रयासों को उत्साहित करने के लिए मैंने तत्काल बतौर चंदा उन्हें 8 रुपये भेज दिये थे। मैं सोच रहा हूँ, मैंने गलती कर दी है। खैर छोड़ो, कोई बात नहीं।
समांतरको लेकर तुम्हारी सोच मिली। ठीक है। रमेश, मैं अब भी तहे दिल से चाहता हूँ कि समांतर हम लोगों का ठीक मंच बने। उसके जरिये हम लोग महत्त्वपूर्ण काम करें। देखो क्या होता है। मैं चाह रहा हूँ कि संभव हुआ, तो एक बार बंबई हो आऊँ। कमलेश्वर जी से, जितेन्द्र से और लोगों से मिल कर बात तो करें। देखें, कौन क्या सोच रहा है। जहाँ तक जितेन्द्र की बात है, उसे कोई क्या कह सकता है। वह खुद समझदार है। खुद सोच सकता है कि उसके लेखक और व्यक्ति की अधिक से अधिक रक्षा के लिए उसे कौन-सा रास्ता अपनाना चाहिए। हम कुछ कहें, तो हो सकता है, उससे कई जगहों में कई तरह की गलतफहमी सिर उठाये।
रमेश, मैं बेहद अजीब-सी स्थिति से गुजर रहा हूँ। मैं बहुत अकेला हो गया हूँ, रमेश, हर दृष्टि से। इस नौकरी से भी तंग आ गया हूँ। किसी भी वक्त छोड़ दूँ। मगर, मेरे यार, यह बताओ, उसके बाद बीवी-बच्चों को कैसे पालूँ? क्या तुम कोई रास्ता दिखा सकोगे? दिखा सको, तो लिखो। मेरा लिखना-पढ़ना सब समाप्त होता जा रहा है इस माहौल में रह कर।
सारी बातें विस्तार से लिखो।
भाभीजी को प्रणाम। अरे, मैं अपनी बहूरानी को कैसे भूल सकता हूँ। जब राहुल तंग करता है, तो उसकी माँ कहती रहती है कि तुझे अपनी बीवी के पास दिल्ली भेज दूँगी, जो तुझे सुधार लेगी। मैं अगले पत्र के साथ तुम्हारे दामाद का चित्र भेजूँगा।
                                        तुम्हारा
                                         शरीफ
इसके बाद हमारा पत्राचार दो-चार संक्षिप्त पत्रों से अधिक आगे नहीं बढ़ सका। वह फिर कभी दिल्ली भी नहीं आया। यदि आया भी होगा, तो मुझसे मिला नहीं। सुधीर चौहान और जे. एल. रेड्डी जैसे अपने पुराने मित्रों से भी उसने लगभग नाता तोड़ लिया था। उसके जीवन के अंतिम चार वर्ष किस अवस्था में गुजरे, हम में से कोई नहीं जान सका। 1977 में हुई उसकी असामयिक मृत्यु पर सुधीर और रेड्डी मद्रास गये थे और उसके परिवार से मिल कर आये थे। मगर वे भी मुझे इतना ही बता सके कि शरीफ के अंतिम दिन बड़े आर्थिक कष्ट में गुजरे। वह बहुत अकेला और शायद अवसादग्रस्त भी हो गया था। शायद यही चीज उसकी अचानक हुई असामयिक मृत्यु का कारण बनी।

(पहल-106 से साभार) 



सम्पर्क-
डॉ. रमेश उपाध्याय
107, साक्षरा अपार्टमेंट्स,
ए-3, पश्चिम विहार,
नयी दिल्ली-10063
मोबाईल – 09818244708

कमाल सुरेया की कविता (अनुवाद- यादवेन्द्र पाण्डेय)

कमाल सुरेया


स्त्रियों की स्थिति इस पूरी दुनिया में लगभग एक जैसी है. उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हर देश काल परिस्थिति में होता आ रहा है. कमाल सुरेया की कविता को पढ़ कर कुछ ऐसा ही लगता है.  ‘एक दिन स्त्री चल देती है चुपचाप दबे पाँव’ कविता की आख़िरी पंक्तियाँ तो जैसे हमारे मन-मस्तिष्क को झकझोर ही देती हैं.  कमाल की कविता का कमाल का अनुवाद है यादवेन्द्र पाण्डेय का, जो पेशे से तो वैज्ञानिक हैं लेकिन मन से एक उम्दा साहित्यकार. यादवेन्द्र जी पहले भी अपने उम्दा अनुवाद के माध्यम से हमें विश्व-साहित्य से परिचित कराते रहे हैं. इसी क्रम में आज पहली बार पर प्रस्तुत है तुर्की के कवि कमाल सुरेया की यह बेजोड़ कविता.
कमाल सुरेया (1931-1990) की कविता

 
एक दिन स्त्री चल देती है चुपचापदबे पाँव  
(अनुवाद – यादवेन्द्र पाण्डेय) 
कोई स्त्री रिश्तों को निभाने में सहती है बहुत कुछ ...मुश्किलें 
उसका दिमाग, दिल और रूह तक किसी का निष्ठापूर्वक साथ निभाने को 
झेलता  है इतने आघात और झटके  
कि दूसरा आदमी आता ही नहीं उसके दिलो-दिमाग  में 
वह आदमियों की तरह तुनक कर झगडा भी नहीं उठाती 
कि सूप में नमक कम क्यों है
बल्कि उलटे कहती है .. कोई बात नहीं, 
यदि कोई मुश्किल है तो इसकी बाबत बात कर लेते हैं 
और मर्द हैं कि सबसे ज्यादा इसी एक बात से खीझते आग बबूला होते हैं।
बातचीत ऐसे ही टलती जाती है
कभी मैच ख़तम होने तक ..नहीं तो फिर डिनर या दूसरी गैरजरूरी बातों के बहाने। 
स्त्रियाँ जिद्दी और बावली होती हैं
अपने प्रेम को ऐसे सीने से चिपका के रहती हैं 
जैसे जीवन हुआ खूँटी के ऊपर टिका हुआ कोई सामान हुआ  
यही वजह है कि वे चाहती हैं तफसील से  बातचीत करें 
और साझा करें अपना दुःख-दर्द 
तब तक आस नहीं छोड़तीं जब तक बन्दे को समझा लें 
और उसके पास बचे कोई और रास्ता 
स्त्रियाँ देख ही लेती हैं दूर कहीं कोई उजाला और खोल  डालती हैं 
अपनी व्यथा का पिटारा 
पर यह सब करके उनको अक्सर जवाब क्या मिलता है?
अपनी यह बकवास अब बंद भी करो
ये सब बातें उसको नाहक की चिख-चिख लगती हैं 
और वह उनकी और कभी गौर से देखता तक नहीं 
और इस तरह एक समस्या समाधान के बगैर छोड़ कर 
देखने लगता है दूसरी ओर 
आदमी को कभी एहसास ही नहीं होता 
कि यही अनसुलझी बात गोली की तरह आएगी 
और लगेगी उसके सीने पर एक दिन.
आदमियों की निगाह में यदि स्त्री करती है गिले शिकवे
या बार बार दुहराती रहती है एक ही बात  
आदमी को समझ जाना चाहिए कि उसकी आस अभी टूटी नहीं है 
और रिश्ता उसके लिए बेशकीमती है 
वो सबकुछ के बावजूद उसे निभाने को आतुर है
रहना चाहती है साथ ...सुलझा के तमाम बदशक्ल गाँठें
और इसी पर है उसका सारा ध्यान 
क्योंकि बन्दे से अब भी करती है खूब प्यार।
एकदिन स्त्री चल देती है चुपचापदबे पाँव 
यह उसके प्रस्थान का सबसे अहम् पहलू है
और जाहिर सी बात है कि आदमी इस बात को समझ नहीं पाते
बोलती, कुछ शिकायत करती और झगडती स्त्री
अचानक चुप्पी के इलाके में प्रवेश कर जाती है 
जब अंतिम तौर पर टूट जाती है रिश्ते पर से उसकी आखिरी आस 
उसका प्यार हो जाता है लहूलुहान 
मन ही मन वो समेटती है अपने साजो सामान सूटकेस के अन्दर 
अपने दिमाग के अन्दर ही वो खरीदती है अपने लिए सफ़र का टिकट 
हाँलाकि उसका शरीर ऊपरी तौर पर करता रहता है सब कुछ यथावत 
इस तरह स्त्री निकल जाती है रिश्ते के दरवाजे से बाहर।
सचमुच ऐसे प्रस्थान कर जाने वाली स्त्री के पदचाप नहीं सुनाई देते  
आहट नहीं होती उसकी कोई  
वह अपना बोरिया बिस्तर ऐसे समेटती है 
कि किसी को कानों कान खबर नहीं होती 
वो दरवाज़े को भिडकाये बगैर निकल जाती है
जब तलक सांझ को घर लौटने पर स्त्री खोलने को रहती है तत्पर दरवाज़ा 
समझता नहीं आदमी उस स्त्री का वजूद  
एकदिन बगैर कोई आवाज किये चली जाती है स्त्री चुपचाप 
फिर रसोई में जो स्त्री बनाती है खाना
बगल में बैठ कर जो देखती है टी वी 
रात में अपनी रूह को परे धर कर जो स्त्री 
कर लेती है बिस्तर में जैसे तैसे प्रेम
वह लगती भले वैसी ही स्त्री हो पर पहले वाली स्त्री नहीं होती 
स्त्रियों के कातर स्वर सेउनके झगड़ों से डरना मुनासिब नहीं 
क्योंकि वे इतनी शालीनता और चुप्पी से करती हैं प्रस्थान
कि कोई आहट भी नहीं होती।     
           
             
सम्पर्क 
Y. Pandey    
Chief Scientist
Central Building Research Institute
Roorkee( Uttarakhand)
INDIA

*Phone*: *+91  01332-283214*
*Fax*      *+91  01332-272272*
*Mob.*    *+ 09411100294*

E-mail : yapandey@gmail.com
(पेंटिंग गूगल से साभार) 

गोपी कृष्ण गोपेश की किताब ‘विदेशों के महाकाव्य की शम्सुर्रहमान फारूकी द्वारा लिखी गयी भूमिका


गोपी कृष्ण गोपेश का जन्म 11 नवम्बर 1925 को हुआ था। इन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम. ए. करने के पश्चात शोध कार्य किया। ‘किरण’, ‘धूप की लहरें’ (गीत-संग्रह); ‘तुम्हारे लिए’ (कविता संग्रह); ‘अर्वाचीन और प्राचीन से परे’ (रेडियो नाटक); ‘सोने की पत्तियां’ (विविध रचना संग्रह)

शोलोखोव के विश्व-प्रसिद्द उपन्यास ‘तीखी दोन’ के 4 खंडों के हिन्दी अनुवाद ‘धीरे बहो दोन रे’ पर 1973 में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित। 
   

4 सितम्बर 1974 को निधन। 
     
अनुवाद का काम हमेशा से एक चुनौती का काम रहा है। शब्दों के साथ-साथ भावों को जस का तस रख देने का काम भी एक रचनाकार के ही वश की बात होती है। क्योंकि हर भाषा के अपने-अपने संस्कार और संस्कृति होती है। गोपी कृष्ण गोपेश की लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से हाल ही में एक महत्वपूर्ण किताब ‘विदेशों के महाकाव्य’ नाम से प्रकाशित हुई है। दरअसल यह पुस्तक अंग्रेजी लेखिका एच. ए. गुएरकर की मूल किताब ‘द बुक ऑफ़ एपिक’ के चुनिन्दा महाकाव्यों में से आठ कथाओं का हिन्दी अनुवाद है। प्रोफ़ेसर राजेन्द्र कुमार के अनुसार ‘किसी भी भाषा की रचनात्मक समृद्धि का पता सिर्फ इतने से नहीं चलता कि उसमें मौलिक रचनाएँ कितनी हुईं। देश-विदेश की अन्यान्य भाषाओँ की कृतियों के अनुवाद से भी भाषा-विशेष समृद्ध होती है। अनुवाद से हमारी भाषा की ग्रहणशीलता का प्रमाण भी मिलता है और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता की व्यापाकता का भी। इस दृष्टि से हिन्दी के सामर्थ्य को उजागर करने में अनुवादक के रूप में जो महत्वपूर्ण भूमिका गोपी कृष्ण गोपेश ने निभाई, वह अविस्मरणीय है। उन्होंने कई भाषाओँ की क्लासिक कृतियों का हिन्दी में अनुवाद कर के हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों और साहित्यानुरागियों को यह अवसर उपलब्ध कराया है कि जिन भाषाओँ में उनकी गति नहीं है, उन भाषाओं की भी कालजयी कृतियों का आस्वादन वे कर सकें।’ आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं गोपी कृष्ण गोपेश की इस उम्दा कृति की भूमिका, जिसे लिखा है उर्दू के प्रख्यात रचनाकार शम्सुर्रहमान फारूकी ने। 
गोपी कृष्ण गोपेश
                 
गोपी कृष्ण गोपेश की किताब ‘विदेशों के महाकाव्य’

शम्सुर्रहमान फारूकी 
1960 के दशक में हिन्दी साहित्य में बहुतेरी विभूतियाँ मौजूद थीं जो हिन्दी में साहित्य को समृद्ध कर रही थींछायावाद, छायावादोत्तर और प्रगतिवाद-यथार्थवाद जैसी वैचारिक प्रवृत्तियाँ अपने-अपने मत-मतान्तर और कुनबे को ध्यान में रखते हुए लिख पढ़ और बोल रही थीं। कुल मिला कर यह हिन्दी साहित्य की सक्रियता का बेहद अहम् दौर था। वैचारिकी पर जोर कुछ ऐसा था कि साहित्य के लिए नए और ख़ास तरह के प्रतिमान गढ़े-बनाए जा रहे थे। जो कुछ भी उससे इतर था वह ग्राह्य न था। प्रेम, भावनाएं, मानवीय मूल्य, कामनाएँ, ऋतुएं और प्रकृति साहित्य की विषय वस्तु बनने की जगह प्रतीकों तक सीमित रह गए थे। पहले की, और नवागंतुक साहित्यिक प्रवृत्तियों के बीच चल रहे इस शीत युद्ध में गोपी कृष्ण गोपेश शायद अपनी तटस्थता या यों कहें कि निष्पक्षता के सहारे एक नए तरह की अनुभूतियों का साहित्य रचने का मार्ग तलाश रहे थे। भविष्य में इसे ही उनकी ताकत और कमजोरी दोनों ही बनना था। संजीदगी, बेबाकी और अपनों के लिए सदैव सुलभ रहने वाले गोपेश के बारे में परिचयात्मक तो कुछ भी कहना उचित नहीं लगता लेकिन उनकी सहजता, सज्जनता और खुलेपन की चर्चाएँ जहां-तहां सुनने को मिल ही जातीं थीं। जिस समय वैचारिक प्रतिबद्धता पर विशेष जोर था उस समय गोपेश नवागत विचारों, रचनाओं और रचनाकारों के प्रति ज्यादा उदार और सरल हृदय से उन्हें प्रोत्साहित करने वाले बने रहे। चाहें उनका रचना जगत हो या आन्तरिक जीवन, दोनों ही जगह खुलापन और ग्राह्यता सामान भाव से दिखती थी। मानों उनके व्यक्तित्व में गोपन के लिए कोई जगह ही न हो। हाँ, नापसंदगी का इजहार उनके व्यक्तित्व के कुछ प्रधान गुणों में से एक जरुर बना रहा।
‘द बुक ऑफ एपिक’ की के प्रति अनुवाद के सुझाव के साथ फ़िराक गोरखपुरी ने उन्हें सौंपा था जिसे युवा गोपेश ने पूरी तन्मयता और लगन के साथ पूरा ही नहीं किया बल्कि भाषा के प्रति अपनी जवाबदेही और संजीदगी का भी भरपूर एहसास कराया। बाद के दिनों में अनुवाद का उनका यह मिशन सतत जारी रहा और उन्होंने बहुत सी विश्व-प्रसिद्ध कहानियों-उपन्यासों सहित अन्य रचनाओं से हिन्दी के पाठकों को परिचित कराया। जहाँ उन्होंने दोस्तोव्यस्की, विक्टर ह्यूगो, अन्द्रेयस उपित्स, अनातोली कुत्झनेतत्सेव, गिसिंग और शोलोखोव आदि की प्रसिद्ध रचनाओं को हिन्दी में अनुदित किया, वहीँ निराला, पन्त और बच्चन की कविताओं का भी अंग्रेजी अनुवाद किया। शोलोखोव के अनुदित उपन्यास ‘धीरे बहो दोन रे’ को विशेष ख्याति मिली और सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार भी। 
साहित्य में गोपेश कवि और गीतकार के रूप में जाने जाते थे, उन पर रोमानियत का प्रभाव स्पष्ट था। रचना-कर्म के साथ-साथ उन्होंने साहित्यिक गोष्ठियों के संयोजन में भी महत्वपूर्ण और सफल भूमिका निभाई। जिस मानवीय गरिमा से वे स्वयं परिपूर्ण थे उसे सहज ही दूसरों में भी जहाँ-तहाँ ढूँढा। रचना और रचनाकार दोनों में समग्रता तलाशते हुए उन्होंने बेखटके अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त कीं जो किसी को अंकुश सी तो किसी को स्नेहमयी छाँह सी लगी। व्यक्तित्व की निश्छलता और बेबाकी ने साहित्य जगत में उन्हें सम्मान और अलगाव दोनों का बोध कराया। कभी निराशा की घटाटोप छाया तो कभी उम्मीद के सप्त-रंग भी चमके, परन्तु उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि राह के रोड़े उनको पथ से डिगा नहीं सकते थे। भाषा, साहित्य और समाज के प्रति उनकी चिंताएं हमेशा घनीभूत हो कर संप्रेषित होती रहीं। उनके प्रशंसकों में निराला, बच्चन, पन्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, विजय देव नारायण साही, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रघुवंश, दूध नाथ सिंह से ले कर राजेन्द्र कुमार जैसे हिन्दी जगत के कुछ बड़े नाम आते हैं। गोपेश ने ‘द बुक ऑफ़ एपिक’ की आठ कथाओं का ‘विदेशों के महाकाव्य’ नाम से अनुवाद किया जिसमें यूनानी महाकाव्य ‘इलियड’, ‘ऑडिसी’, लैटिन का ‘इनीड’, स्कैंडेनेवियन ‘वाल्संगा सागा’, इटैलियन ‘डिवाईना कामेडिया’, जर्मन ‘निबेलउंगेनलीद’, फारसी का ‘शाहनामा’ और अंग्रेजी का ‘पैराडाईज लास्ट’ शामिल थे।
 
2
महाकाव्य को समझने और चाहने के बहुत से तरीके हैं। एक तरीका जो आजकल हमारे मुल्क में लोगों ने अपनाना चाहा है वह यह है कि महाकाव्य में लिखी हुई हर बात को ऐतिहासिक सच बल्कि उससे भी बढ़ कर विज्ञान की सच्चाईयों की तरह माना जाए। लेकिन यह महाकाव्य को मानने का सबसे कमजोर तरीका है। पहली बात तो यह कि अगर हम अपने देश के महाकाव्य को सच मानें तो दूसरे देशों को हम यह दावा करने से किस तरह रोक सकते हैं कि उनके महाकाव्य भी सच हैं। बल्कि वे भी यह कह सकते हैं कि केवल हमारा महाकाव्य ही सच है बाकी सब झूठ है। 
पहली बात तो यह कि महाकाव्य के साथ झूठ-सच जोड़ना ही नहीं चाहिए। अपने चारों तरफ फैली हुई और पूर्वाग्रहों से भरी दुनिया को समझने और बयान करने के लिए मनुष्य ने सबसे पहले मिथक बनाए और कल्पित किये। इतिहास के बदलने और दुनिया का अनुभव बढ़ने के साथ मिथकों ने महाकाव्य का रूप धारण कर लिया। आज की दुनिया में महाकाव्य के दो सबसे बड़े लाभ यह हैं कि हम यह देख सकते हैं कि पुराना इंसान जीव-जगत को किस तरह समझता-देखता था? उसकी आकांक्षाएँ क्या थीं? और वह किस प्रकार अपने वातावरण को अनुकूल बनाने के बारे में सोचता था। दूसरा सब से बड़ा लाभ यह हुआ कि महाकाव्य में शब्द और साहित्य के ऐसे दृश्य और भाव मिलते हैं जिन्हें अब बनाना मुश्किल हो गया है।
यही कारण है कि आज की दुनिया पुराने महाकाव्यों की कल्पित दुनिया में अपने लिए आकर्षण महसूस करती है। गोपेश के इन अनुवादों का एक बड़ा महत्व यह भी है कि हम दूसरे देशों और राष्ट्रों की प्राचीन कल्पनाओं से किसी न किसी हद तक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
3
अनीता गोपेश को मैं बहुत दिनों से जानता हूँ लेकिन कभी यह पूछने का ख़याल न आया कि आप हमारे प्रिय मित्र गोपी कृष्ण गोपेश की पुत्री या भतीजी तो नहीं हैं। अब जब वे गोपेश जी की इस किताब की छाया-प्रति ले कर आयीं तो कुछ आश्चर्य और प्रसन्नता का अनुभव हुआ। 1960 के दशक में जब मैं यहाँ डाक विभाग में कार्यरत था तो गोपेश से कभी रेडियो स्टेशन पर, कभी किसी गोष्ठी में, तो कभी राह चलते भेंट हो जाया करती थी। मैंने उन्हें हमेशा सरल तबियत और दोस्तों से प्रेम करने वाला पाया। इलाहाबाद से स्थानान्तरण के पश्चात मेरा उनसे सम्पर्क न रहा। मुझे अपार हर्ष है कि उनकी बेटी अनीता इस किताब को पुनः साहित्य जगत में ला रही हैं।                                                                            

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ.


हरीश चन्द्र पाण्डे

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएँ प्रायः ही ऐसी साधारण बातों को ले कर शुरू होती हैं जो हमें एकबारगी अत्यन्त साधारण लग सकती हैं. लेकिन ज्यों-ज्यों हम पंक्ति दर पंक्ति उनकी कविताओं में आगे बढ़ते हैं त्यों-त्यों जैसे जीवन में आश्चर्य-लोक की सैर करते चलते हैं. यह आश्चर्य-लोक भी ऐसा जो बिल्कुल हमारे समय और समाज का होता है. इन कविताओं में विडंबनाओं को उभारने का हरीश जी का बिल्कुल अपना व्यंग्य-बोध होता है जो अन्दर तक हिला डालता है. आज जब देश अपना 68 वाँ गणतन्त्र-दिवस मना रहा है ऐसे में उनकी एक कविता ‘लाउडस्पीकर सुनना नहीं जानते’ हमारे देश ही नहीं समाज की एक ऐसी विकृति को खोल कर हमारे सामने रख देता है, जो यथार्थ है और जिसे हम अपने सामने ही रोजाना घटित होते देखते हैं. बल्कि कह लें कि हम खुद को ही उस पात्र के रूप में पाते हैं जो इस घटना के लिए उत्तरदायी है.इस कविता की ये पंक्तियाँ पढ़िए – ‘श्रम कानून कहते हैं एक बच्चे से काम नहीं कराया जा सकता है/ पर कौन रोक लेगा उसे चौराहे पर तिरंगे बेचने से/ एक उस रंग के लिए जिसका उसके जीवन में अभाव है/ वह अभी एक रुपये में तीन रंग बेच रहा है/ चीख-चीख कर बेच रहा है.’ ये कविताएँ इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ के हालिया अंक में प्रकाशित हुईं हैं और हमें वरिष्ठ साथी कामरेड के. के. पाण्डेय ने पहली बार के लिए उपलब्ध कराई हैं.तो आज प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे की दो तारो-ताज़ी कविताएँ.
हरीश चंद्र पांडेय की कविताएं
मछुआरे
मछुआरे मछलियां ही नहीं खाते
जैसे आलू की खेती वाले केवल आलू नहीं खाते
मछलियों को पहले रुपयों में बदलना होता है
इस पुल से होकर ही भूख के उस पार जाया जा सकता है
यह पुल टूटता है तो कोई नहीं कहता कि एक पुल टूट गया है
यही सुनाई देता है
एक मछुआरा डूब गया गहरे समुद्र में
नौका और जाल का ऋण पानी में रहकर ही चुकाना है
जो भागा मछुआरा तो जल-सीमा पार धर लिया जाएगा उधर
मछुआरे के कर्ज के लिए कोई बट्टा खाता नहीं होता किसी बैलेंस शीट में
कोई एयरपोर्ट मछुआरे के भागने के लिए नहीं होता…
लाउडस्पीकर सुनना नहीं जानते
लाउडस्पीकर सुनना नहीं जानते
वरना एक लड़का कब से कहे जा रहा है- झंडे ले लो, झंडे ले लो
पूर्व-संध्या पर ले आया था झंडों को उधारी पर
कि बच्चे खरीदेंगे या उन के लिए उनके मां-बाप
कोई ड्राइवर भी ले सकता है स्टेयरिंग के पास फहराने
किसी मेज या छत पर फहर सकते हैं
पर साइकिल के हैंडिल पर फहरते झंडे का जवाब नहीं
आगे जो बैठा हो नन्हा बच्चा
और नीचे गतिशील युगल-चक्रों की संगत हो
लड़के के गले में उभर आई नसें जताती हैं
कि सुबह-सुबह उसने अपने गले से कितना काम लिया है
अपने आजू-बाजू उसने दो झंडे फहरा रखे हैं
दूर से ये खुले हुए डैने लगते हैं
श्रम कानून कहते हैं एक बच्चे से काम नहीं कराया जा सकता है
पर कौन रोक लेगा उसे चौराहे पर तिरंगे बेचने से
एक उस रंग के लिए जिसका उसके जीवन में अभाव है
वह अभी एक रुपये में तीन रंग बेच रहा है
चीख-चीख कर बेच रहा है
सब सुनते हैं पर लाउडस्पीकर नहीं सुनते
पता नहीं कैसे हैं ये लाउड स्पीकर
जो बोलते तो हैं पार्षद से प्रधानमंत्री तक के लिए
पर सुनते नहीं किसी के लिए भी।
सम्पर्क

हरीश चन्द्र पाण्डे

मोबाईल- 09455623176
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है.)

उमाशंकर सिंह परमार की किताब ‘प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य’ पर नासिर अहमद सिकन्दर की समीक्षा

उमा शंकर सिंह परमार


युवा आलोचक उमा शंकर सिंह परमार की हाल ही में दो महत्वपूर्ण आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुईं हैं. ये हैं – ‘प्रतिपक्ष का पक्ष’ और ‘प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य’. इन पुस्तकों, विशेष तौर पर दूसरी पुस्तक को आधार बना कर कवि-आलोचक नासिर अहमद सिकन्दर ने एक समीक्षा लिखी है. इस समीक्षा को हम पहली बार के पाठकों लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. तो आइए आज पढ़ते हैं उमाशंकर सिंह परमार की किताब पर नासिर अहमद सिकन्दर की यह समीक्षा –  ‘प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य – अध्ययन का बयान’.  

‘प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य : अध्ययन का बयान’

नासिर अहमद सिकंदर
युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार की पहली आलोचना पुस्तक ‘प्रतिपक्ष का पक्ष’, 2016 में प्रकाशित हुई थी इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने समकालीन कविता के कई महत्वपूर्ण और अलक्षित कवियों की कविताओं को तो परखा ही था, साथ ही भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी कविता के प्रतिरोध को भी रेखांकित किया था उन्होंने साठोत्तरी हिन्दी कविता की आधुनिकता की अवधारणा के बरक्स आई लोक कविता को भी वर्गीय दृष्टि से विवेचित किया था कविता के नए संकट और लोक, लोक स्वरूप और चेतना, हिन्दी भाषा का विकास और लोक की भूमिका, हिन्दी कविता- लोक और प्रतिरोध जैसे कई लेख इस पुस्तक में संकलित हैं                      
हाल ही में उनकी दूसरी आलोचना पुस्तक ‘सुधीर सक्सेना : प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य’ शीर्षक से प्रकाशित हुई है पहली आलोचना पुस्तक में जहाँ कई कवियों के माध्यम से काव्य परिदृश्य उपस्थित था, वहीं इस पुस्तक में एक कवि का चयन कर उसके समूचे कवि कर्म के माध्यम से काव्य-परिदृश्य को देखा गया है वैसे आलोचना परम्परा से जुड़ कर, मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि कोई आलोचक अपने आलोचना-कर्म  में किसी कवि का चयन कर या आधार बना कर न केवल उसकी कविता को व्याख्यायित करने का प्रयास करता है, बल्कि उसकी कविता में उपस्थित सामाजिक मूल्यों के साथ-साथ कथ्य, शिल्प, भाषा, संरचना आदि का विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है साथ ही वह अपने आलोचनात्मक मूल्यों का निर्धारण भी कविता के ही मार्फत करता हैआलोचक की इस द्विपक्षीय प्रक्रिया में कवि का व्यक्तित्व, स्वभाव, आचरण, व्यवहार, जीवन-शैली आदि भी केन्द्र में होते हैं

आलोचना कर्म का यह दायित्व हमारी हिन्दी आलोचना के प्रसिद्ध आलोचक राम चंद्र शुक्ल भी, भक्तिकालीन कवियों तुलसी-सूर-जायसी के माध्यम से निभाते हैं, तो हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर के माध्यम सेमार्क्सवादी आलोचक राम विलास शर्मा निराला और केदार नाथ अग्रवाल को केन्द्र में रखते हैं तो नामवर सिंह मुक्तिबोध को साठोत्तरी हिन्दी कविता पर दृष्टि डाली जाए तो बड़े कवि शलभ श्रीराम सिंह को केन्द्र में रख कर कवि आलोचक शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने भी यह प्रक्रिया अपनी पुस्तक ‘कविता के दुर्दिन’ में अपनाईयही स्वरूप आलोचक उमाशंकर की इस नई आलोचना पुस्तक में भी दिखलाई पड़ता हैइस पुस्तक में उन्होंने आठवें दशक के उत्तरार्ध के महत्वपूर्ण कवि सुधीर सक्सेना को केन्द्र में रखा है इस पुस्तक में उन्होंने सुधीर सक्सेना के व्यक्तित्व, कृतित्व के अलावा समकालीन कविता के परिदृश्य, काव्य प्रवृत्तियों, प्रतिरोध की कविता आदि पर भी अपने विचार प्रकट किए हैंउन्होंने अपनी इस पुस्तक को 15 उप-शीर्षकों में विभाजित किया है आलोचना-कृति होने के बावजूद इन अध्यायों के नामकरण साहित्यिक अवधारणाओं या आलोचना की प्रचलित मूल्यांकन पद्धतियों के आधार पर नहीं बल्कि सृजनात्मक वाक्यांशों के आधार पर किए गए हैं जैसे :- ‘बचा है कविता में यकीन’, ‘जानना जो कुछ है इर्द-गिर्द’, ‘मुलाकातों के दिलकश दौर में’, ‘हमारे दौर में आंसू जुबाँ नहीं होते’, ‘गझिन अनुभूतियों का अंगराग’, ‘बाबर की आंखों में था समरकंद’, ‘सुखन की शम्मा जलाओ बहुत अंधेरा है’, ‘खुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही’, ‘हर कतरे में दरिया’, ‘यह धरती के चेहरे’, ‘फलक के नजारे आदि’इन खंडों के ज्यादातर शीर्षक किसी शेर के मिसरे हैं या फिर काव्य पंक्तियांयहाँ गौर करें तो जिस पहले खण्ड का शीर्षक उन्होंने ‘बचा है कविता में यकीन’ रखा है उसका शीर्षक ‘युगबोध, विचारधारा और परम्परा’ बड़ी आसानी से रखा जा सकता था क्योंकि इस खण्ड  की शुरुआत ही यूं होती है “सुधीर सक्सेना के रचना-कर्म का मूल्यांकन युग-बोध और विचारधारा के बगैर संभव नहीं है लेकिन इसका आशय यह नहीं है इससे परम्परा को द्वितीयक बनने का खतरा है दरअसल हम परम्परा का अन्वेषण तभी कर सकते हैं जब युग-बोध और विचार-धारा के ऐतिहासिक सन्दर्भों को आलोचना के औजारों में सम्मिलित करें (पृष्ठ 9)                      
इसी प्रकार दूसरे खण्ड ‘जानना जो कुछ है इर्द-गिर्द’ के स्थान पर शीर्षक ‘समकालीन काव्य परिदृश्य’ तथा तीसरे खण्ड का शीर्षक ‘मुलाकातों के दिलचस्प दौर में’ की जगह ‘व्यक्तित्व का रचनात्मक रूपांतरण’ रखा जा सकता थाऐसा शायद इसलिए भी किया गया कि वे इस किताब को आलोचना की सैद्धांतिकी से अलग अपने अध्ययन का बयान बनाना चाहते थेउन्होंने अपनी इस पुस्तक की शुरुआत में ही इसे बड़ी विनम्रता से स्वीकार भी किया है – “यह किताब मेरे अलग-अलग समय में लिखे गए अलग-अलग नोट्स और डायरी का एकत्र मैटर है यह अध्ययन नितांत निजी है इस किताब को मेरे अध्ययन का बयान माना जाए न कि सुधीर सक्सेना की कविता का पूरा मूल्यांकन समझा जाए” (पृष्ठ-16) 

बावजूद इसके इस खण्ड में उन्होंने सुधीर सक्सेना की समस्त किताबों पर न केवल टिप्पणियां की हैं, बल्कि काव्य परिदृश्य में कलावादी और जनवादी कविता के बीच चल रहे संघर्षों की भी पड़ताल की है इस काव्य दौर में पुरस्कार, सम्मान तथा अवसरवादी प्रवृतियों का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है कामायनी, परिवर्तन, सरोज-स्मृति, असाध्य-वीणा, समय-देवता मुक्ति-प्रसंग, अंधेरे में, पटकथा जैसी लंबी कविताओं के साथ सुधीर सक्सेना की लंबी कविताओं ‘बीसवीं सदी : इक्कीसवीं सदी’ तथा ‘धूसर में बिलासपुर’ की भी चर्चा इस खण्ड में है उनकी लम्बी कविताओं पर वे लिखते हैं “निराला, मुक्तिबोध, धूमिल, विजेंद्र की परम्परा में सबसे सशक्त लंबी कविताएं सुधीर सक्सेना ने लिखी हैं सुधीर सक्सेना चरित्र युग-बोध के मामले में विजेंद्र का अतिक्रमण भी कर देते हैं और नाटकीयता भाषा बिम्ब के सन्दर्भों में मुक्तिबोध के निकट दिखते हैंधूसर में बिलासपुर’ उन्हें विजेंद्र जैसा तो ‘बीसवीं सदी और इक्कीसवीं  सदी’ धूमिल जैसा सिद्ध करती है (पृष्ठ 15)
इस पुस्तक का दूसरा अध्याय ‘जानना जो कुछ है इर्द-गिर्द ‘समकालीन कविता के लगभग चार दशकों के काव्य-परिदृश्य का आकलन प्रस्तुत करता है इस खण्ड में उन्होंने  वरिष्ठ कवियों विजेंद्र, केदार, विष्णु खरे,कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी के साथ हरीश चन्द्र पाण्डेय, एकांत श्रीवास्तव, बुद्धि लाल पाल, सुरेश सेन निशांत आदि कई कवियों की काव्य कला का जिक्र किया है इस खण्ड में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि “कवि बड़ा वही होगा जो मीडियाकर नहीं होगा, जिसकी पक्षधरता स्पष्ट होगी, जो साहित्य की अंदरुनी राजनीति से प्रभावित नहीं होगा लगभग चार दशकों के काव्य-परिदृश्य पर काव्य आंदोलनों पर तथा साहित्यिक राजनीति पर उनका यह मत बिल्कुल उचित भी लगता है उन्होंने अशोक बाजपेई, केदारनाथ सिंह, अष्टभुजा शुक्ल जैसे कवियों के बरक्स मान बहादुर सिंह, सुधीर सक्सेना, हरीश चंद्र पांडे जैसे कवियों को रखने का प्रयास किया है जो उनकी आलोचनात्मक दृष्टि के हिसाब से उचित लगता है क्योंकि वे ‘कविता में लोक की अवधारणा तथा उसके द्वंद्वात्मक तरीके’ के हिमायती है न कि ‘नास्टेल्जिया’ या ‘काल्पनिक मानवेतर सौन्दर्य’ के

    

पुस्तक का तीसरा अध्याय ‘मुलाकातों के दिलकश दौर में’ व्यक्तित्व के रचनात्मक रूपांतरण पर आधारित है। पुस्तक का तीसरा अध्याय ‘मुलाकातों के दिलकश दौर में’ व्यक्तित्व के रचनात्मक रूपांतरण पर आधारित है हालाँकि यह बहस बहुत पुरानी है लेकिन आलोचक चंचल चौहान ने ‘सापेक्ष’ संपादक महावीर अग्रवाल को दिए साक्षात्कार में इसे पुनः केन्द्र में ला दिया है वे लिखते हैं “हिन्दी आलोचना की इस बुरी आदत का मैं कटु आलोचक रहा हूँ जिसमें रचनाकार के ‘जिए गए जीवन और उनकी रचनाओं के बीच अंतर्संबंध’ की तलाश की जाती रही है जिए गए जीवन का कविता से संबंधित तलाशने वाली हिन्दी आलोचना या बायो क्रिटिसिज्म में नगेंद्र से ले कर प्रकाश चंद्र गुप्त, राम विलास शर्मा और आज के उनकी पद्धति या लोक को पीटते हुए बहुत से दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों तरह के प्राध्यापकीय आलोचक शामिल हैं” इस पुस्तक का तीसरा खण्ड इसी जिए गए जीवन और उनकी रचनाओं के बीच अंतर्संबंध से ताल्लुक रखता है आलोचक उमाशंकर कवि के व्यक्तित्व को भी महत्वपूर्ण मानते हैं वे लिखते हैं “यदि किसी कवि की पहचान करनी है तो उसके व्यक्तित्व की पहचान भी जरूरी है कविता केवल भाषा की सरंचना नहीं है बल्कि एक प्रतिबद्धता और मनुष्यता का तकाजा भी हैयदि कवि के पास एक अदद व्यक्तित्व नहीं है तो वह लंबे समय तक कवि  नहीं रह सकता” (पृष्ठ 29)
                       
इस पुस्तक का ‘हमारे दौर में आंसू जबां नहीं होता’ शीर्षक अध्याय पूर्व अध्यायों से अलग है पूर्व अध्यायों में जहाँ कवि का समय है, समकालीन काव्य परिदृश्य है, काव्य प्रवृत्तियां हैं तो इस अध्याय में वे सुधीर सक्सेना की कविताओं को विश्लेषित भी करते हैं और उनकी कविताओं के माध्यम से अपने आलोचनात्मक मूल्यों की स्थापना भी करते हैं उनके आलोचनात्मक मूल्य एक तरह से राम विलास शर्मा के आलोचनात्मक मूल्यों की तरह होते हैं जिसका सीधा रिश्ता मार्क्सवादी आलोचना से भी है जहाँ जनपक्षीय चेतना या वर्गीय दृष्टि पर आधारित सामाजिक राजनैतिक चिन्तन शामिल रहता है जैसे :-
1. आज आवश्यकता है कि हम विमर्शों को जनवादी तरीके से देखें नए हाशिये  की पहचान करें अस्मिताओं के सवालों को कविता और कथा में स्थान दे जरूरी नहीं कि हम विचारधारा को ही हाशिए पर ढकेल दें विचारधारा बेहद जरूरी औजार है (पृष्ठ-46)
2. मानव समुदाय की मूल प्रवृत्ति उत्पादनपरक है इसी के लिए वह श्रम का आधार ग्रहण करता है इन्हीं तत्वों की भूमि पर वह साहित्य और कला का सृजन करता है (पृष्ठ-47)
3. भूमंडलीकरण के परिवर्तनकारी सामाजिक दबावों ने सबसे अधिक वर्गीय चेतना का नुकसान किया है (पृष्ठ 52) इस खण्ड में वे अपने आलोचनात्मक मानों के साथ सुधीर सक्सेना की कविता को भी विश्लेषित करते चलते हैं और उन्हें लोकधर्मी कवि के रुप में स्थापित करते हैं आगे ‘गझिन  अनुभूतियों का अंगराग’ अध्याय में वे सुधीर सक्सेना की लोकधर्मी छवि को हिन्दी कविता की वैश्विक पृष्ठभूमि तथा वर्गीय दृष्टि पर ले जाते हैं वे लिखते हैं:- “सुधीर सक्सेना अपनी पीढ़ी के इकलौते कवि हैं, जिन्होंने वैश्विक चरित्र ले कर, वैश्विक सन्दर्भों व  घटनाओं पर सबसे अधिक कविताएं लिखी हैं “(पृष्ठ-59) 
सुधीर सक्सेना के अब तक 10 कविता संग्रह ‘बहुत दिनों के बाद’, ‘काल को भी नहीं पता’, ‘समरकंद में बाबर’, ‘किरच किरच यकीन’, ‘किताबें दीवार नहीं होती’, ‘ईश्वर हां नहीं तो’, ‘रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’, ‘कुछ भी नहीं है अंतिम’, ‘बीसवीं सदी और इक्कीसवीं सदी’ (लम्बी कविता), ‘धूसर में बिलासपुर’ (लम्बी कविता) शीर्षक से प्रकाशित हुए हैं इस पुस्तक के आगे के अध्यायों में प्रत्येक काव्य संग्रह की कविताओं का विश्लेषण किया गया है जैसे ‘बाबर की आंखों में था समरकंद’ नामक खण्ड में कविता संग्रह ‘समरकंद में बाबर’ ‘सुखन की शम्मा जलाओ’ में ‘किरच किरच यकीन’ ‘प्रेम को पंथ कराल महा’ में काव्य-संग्रह ‘रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी’ ‘खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही’ खण्ड में कविता संग्रह “इश्वर हाँ नहीं तो’, ‘मैं तो ख़ुद से अभी मिला नहीं’ शीर्षक खण्ड में  ‘कुछ भी नहीं अंतिम’ की कविताओं को केन्द्र में रखा गया है कवि के काव्य संग्रहों पर केन्द्रित यह अध्याय पुस्तक समीक्षा की तरह नहीं लिखे गए हैं बल्कि यहाँ भी भूमंडलीकरण, बाजारवाद, उत्तर आधुनिकता, लोक-चेतना आदि से जुड़ कर समय को रेखांकित करते हुए कविताओं की व्याख्या की गई है उनकी आलोचना-दृष्टि भक्ति काल से ले कर आज तक की कविता पर टिकती है उनकी आलोचना का विचार पक्ष सामाजिकता और यथार्थ परखता का पक्षधर है आलोचना के भीतर आंदोलनों और सौंदर्यात्मक अवधारणाओं को भी वे आम फहम भाषा में ही संप्रेषित करते हैं मैंने प्रारंभ में ही उल्लेख किया था कि कोई आलोचक किसी कवि का चयन कर न केवल उसकी कविता को व्याख्यायित करता है बल्कि अपने आलोचनात्मक मानों को भी कविता के मार्फत व्यक्त करना उसका ध्येय होता है उमाशंकर सिंह परमार इस रूप में अपनी आलोचना पुस्तक ‘सुधीर सक्सेना प्रतिरोध का स्थापत्य’ में सफल हुए हैं।
आलोचना पुस्तक : “सुधीर सक्सेना – प्रतिरोध का वैश्विक स्थापत्य “

आलोचक : उमा शंकर सिंह परमार

प्रकाशक : ‘लोकमित्र’, शाहदरा, दिल्ली –110032

मूल्य: रूपये 395/
(‘लहक’ से साभार)

                  
नासिर अहमद सिकंदर

सम्पर्क-                                         

नासिर अहमद सिकंदर

क्वार्टर न 3 /सी ,सड़क 45

सेक्टर 10 , भिलाई नगर

जिला दुर्ग , ( छ ग)

490006

मोबाईल – 9827489585

आरसी चौहान की कविताएँ


आरसी चौहान

जन्म – 08 मार्च 1979, चरौवां, बलिया,. प्र.

शिक्षा- परास्नातक-भूगोल एवं हिन्दी साहित्य, पी0 जी0डिप्लोमा-पत्रकारिता, बी. एड., नेट-भूगोल

सृजन विधा- गीत,  कविताएं, लेख एवं समीक्षा आदि

प्रसारण- आकाशवाणी इलाहाबाद, गोरखपुर एवं नजीबाबाद से

प्रकाशन-  नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कादम्बिनी, अभिनव कदम, इतिहास-बोध, कृति-ओर, जनपथ, कौशिकी, हिम-तरू, गुफ्तगू,  तख्तो-ताज, अन्वेषी, गाथान्तर, र्वनाम,  हिन्दुस्तान सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा बेब पत्रिकाओं में 

संकेत-15 के कविता केन्द्रित अंक में कविताएं प्रकाशित

अन्य-  
1- उत्तराखण्ड के विद्यालयी पाठ्य पुस्तकों की कक्षा-सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान में लेखन कार्य 

2- ड्राप आउट बच्चों के लिए, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की पाठ्य-पुस्तकों की कक्षा-छठी, सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान का लेखन व संपादन

3- भारतीयभाषा परिषद  के हिंदीसाहित्य कोश मेंलेखन,

पहला खंड: उत्तराखण्ड: लोक परम्पराएं सुधारवादी आंदोलन  दूसरा खंड: सिद्धांत, अवधारणाएं और प्रवृत्तियांप्रकृति और पर्यावरण                                                                                                          
4- “पुरवाई  पत्रिकाका संपादन    
     

किसान का नाम लेते ही हमारे सामने दीन-हीन व्यक्ति का एक बना-बनाया पुरातन चित्र हमारे सामने आ जाता है जो आज भी तमाम समस्याओं की चक्की में लगातार पिसता चला जा रहा है. विदर्भ, बुन्देलखण्ड और कालाहांडी का नाम लेते ही उतर आता है वह खौफनाक दृश्य जिसमें किसान अपनी तंगहाली से ऊब कर अपनी हत्या करने के लिए मजबूर होता है. अलग बात है कि इसे ‘आत्महत्या’ का नाम दे कर सरकारें और स्वयं सेवी संस्थाएँ अपना पिण्ड छुड़ा लेती हैं. आजादी के बाद भारत की एक छवि कृषि प्रधान देश की थी. किसानों के प्रयासों से कुछ ही दिनों में अपना देश अनाजों के मामले में आत्म-निर्भर हो गया और अब विकसित देश बनने की राह पर बढ़ रहा है. लेकिन एक सवाल तो है ही कि जिस देश की एक तिहाई आबादी गरीब हो, जिस देश के तमाम लोग दूसरे समय भूखे सोते हों, जिस देश के तमाम बच्चे अभी भी स्कूल तक न जा पाते हों, जिस देश में जाति-पाति अभी भी एक बड़ी सच्चाई हो, जिस देश में अटल धार्मिक कट्टरतायें हों, जिस देश में खाने-पीने-पहनने और रहने तक के ढर्रे कट्टरपंथी लोग तय करने लगे हों उसका विकसित हो पाना वास्तविकता के किस धरातल पर संभव है. बेशक आज का ज़माना बाजार और विज्ञापनों का है. टेलीविजन पर एक बाबा स्वदेशी के नाम पर बड़ी बेशर्मी से अपने उत्पाद बेच रहा है और हम तमाशाई बने हुए उसके डमरू पर नाचने के लिए विवश हैं. हकीकत तो यह है कि हमारी धार्मिक अवधारणायें हमें कुंद कर देती हैं. यह सुखद है कि इन परिस्थितियों पर आज का युवा कवि निरन्तर अपनी चौकस निगाह रखे हुए है और इन विषयों-मुद्दो को अपनी रचनाओं में ढालने का सफल एवं साहसिक प्रयत्न कर रहा है. एक रचनाकार का यह अहम् दायित्व भी है कि वह अपने समय की समस्याओं को प्रमुखता से अपनी रचनाओं के मार्फत उठाए और इस पर लोगों का ध्यान आकृष्ट करे. आरसी चौहान ऐसे ही युवा कवि हैं जो यह काम कर रहे हैं और जिनकी कविताओं में एक विकास लगातार दिखाई दे रहा है. यह सुखद भविष्य की आश्वस्ति है. सौभाग्यवश मैंने शुरू से ही उनकी कविताएँ देखीं-पढीं हैं और उनके अन्दर काव्यगत विकास को अनुभव भी किया है. आज ‘पहली बार’ ब्लॉग पर एक अरसे के बाद पुनः उनकी कविताएँ प्रस्तुत हैं. तो आइए आज पढ़ते हैं युवा कवि आरसी चौहान की कुछ नयी-नवेली कविताएँ.         
आरसी चौहान की कविताएँ 

अकुलाया हाथ है पृथ्वी का
उसके कंधे पर

अकुलाया हाथ है पृथ्वी का

एक अनाम सी नदी

बहती है सपने में

आंखों में लहलहाती है

खुशियों की फसल

मन हिरन की तरह भरता है कुलांचें

बाजार बाघ की तरह

बैठा है फिराक में

बहेलिया

फैला रखा है विज्ञापनों का जाल

और एक भूखे कुनबे का झुण्ड

टूट पड़ा है

उनके चमकीले शब्दों के दानों पर

पृथ्वी सहला रही है

अपने से भी भारी

उसके धैर्य को

धैर्य का नाम है किसान।
नदियां
नदियां पवित्र धागा हैं

पृथ्वी पर

जो बंधी हैं

सभ्यताओं की कलाई पर

रक्षासूत्र की तरह

इनका सूख जाना

किसी सभ्यता का मर जाना है।
एक विचार
(हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं पढ़ते हुए)
एक विचार

जिसको फेंका गया था

टिटिरा कर बड़े शिद्दत से निर्जन में

उगा है पहाड़ की तरह

जिसके झरने में अमृत की तरह

झरती हैं कविताएं

शब्द चिड़ियों की तरह

करते हैं कलरव

हिरनों की तरह भरते हैं कुलांचे

भंवरों की तरह गुनगुनाते हैं

इनका गुनगुनाना

कब कविता में ढल गया और

आदमी कब विचार में

बदल गया

यह विचार आज

सूरज-सा दमक रहा है।
कितना सकून देता है
आसमान चिहुंका हुआ है

फूल कलियां डरी हुई हैं

गर्भ में पल रहा बच्चा सहमा हुआ है

जहां विश्व का मानचित्र

खून की लकिरों से खींचा जा रहा है

और उसके ऊपर

मडरा रहे हैं बारूदों के बादल

ऐसे समय में

तुमसे दो पल बतियाना

कितना सकून देता है।
ढाई अक्षर
तुम्हारी हँसी केग्लोब पर

लिपटी नशीली हवा से 

जान जाता हूं  

कि तुम हो

तो   

समझ जाता हूं

कि मैं भी

अभी जीवित हूं 

ढाई अक्षर के खोलमें।
संपर्क    
आरसी चौहान (प्रवक्ताभूगोल)

राजकीय इण्टर कालेज गौमुख,  
टिहरी गढ़वाल,  
उत्तराखण्ड 249121

मोबाइल – 08858229760  
ईमेल puravaipatrika@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

नरेन्द्र कुमार की कविताएँ

नरेन्द्र कुमार
परिचय

जन्म – 06. 06. 1980

शिक्षाएम00 (हिन्दी)

प्रकाशनकुछ रचनाएँ विभिन्न दैनिकों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित।

सम्प्रति सरकारी सेवा

आम जनता का दुःख-दर्द वही जान-समझ सकता है जो उससे किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ हो। पञ्च-सितारा होटलों में बैठ कर इस दुःख-दर्द के बारे में नहीं जाना जा सकता। इस दुःख-दर्द को जानने के लिए सब कुछ छोड़ कर गौतम या फिर गाँधी बनना पड़ता है। अपने आभिजात्यपने से जूझते हुए उसे यह सब कुछ छोड़ना पड़ता है। सीधे शब्दों में कहें तो उसे अपने को ‘डिक्लास’ करना पड़ता है। सिद्धान्त रूप में नहीं एकदम व्यवहारिक धरातल पर वैसे ‘डिक्लास’ होना इतना आसान भी तो नहीं। खुशी की बात है कि आज का युवा रचनाकार अधिकांशतया इस आम जनता की समस्याओं से वाकिफ है और वह कोई पुराना बिम्ब उठा कर भी अपने समय की बात को पुरजोर तरीके से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त कर लेता है। वह ‘डिक्लास’ होने के धरातल तक जाने के लिए प्रयासरत है और इसी क्रम में अपनी रचनाएँ रच रहा है वे रचनाएँ जो उसके समय की महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं युवा कवि नरेन्द्र कुमार की ‘ग्लेडिएटर’ कविता कुछ इसी तरह की कविता है आज ‘पहली बार’ ब्लॉग पर हम इस संभावनाशील युवा कवि की नवीनतम कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं।           


नरेन्द्र कुमार की कविताएँ
ग्लेडिएटर
एक झटके में
होता सीना चाक ग्लेडिएटरों का
टपटप गिरता खून
रेत में जा सूखता
लगते थे ठहाके
पवित्र रोम के अभिजातों के
साक्षी है कोलोसियम
एक आश्चर्य!
सभ्यता का
एक शरीर के चूकते ही
आ जाता दूसरा शरीर
गुलामों का
मजदूरों का
सीधेसीधे कहें तो
मजबूरों का
उनकी नजर में
वे ग्लेडिएटर थे
एम्फीथिएटर के खिलौने थे
जिनके खातिर न ताबूत था
न कफन
पर दरअसल वे
हमारी दुनिया के शहीद थे
भूल चुके हम उन्हें
भूल चुके उनके विद्रोह को
उनके नेता स्पार्टकस को
रोम से कापूआ के बीच खड़े
हजारों सलीबों को
उन पर टंगे गुलामों को
बस याद रह गया है
भव्य कोलोसियम!
आज रोम का सीनेट
इसी स्मृति-लोप का फायदा उठा रहा है
पूरे ग्लोब पर छा रहा है
उनके एम्फीथिएटर बड़े होते जा रहे हैं
उसी अनुपात में ग्लेडिएटर बढते जा रहे हैं
जोड़ियाँ तय की जा रही हैं
अभिजात आज भी इन अखाड़ों में
पैसे लगा रहे हैं
पैसा बना रहे हैं
सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान जैसे
विशाल एम्फीथिएटरों में
किसानमजदूर एवं गुलामों के बेटे
लहूलुहान हो रहे हैं
यथार्थ जानने से पहले ही
चूक जा रहे हैं
हालात वही है
बस
औजार बदल गए हैं
हम राष्ट्रवाद के नारों के बीच
ग्लेडिएटरों को गिरता देख रहे हैं
रेत पर, मिट्टी पर
कहाँ देख पा रहे हैं ?
कि हर मुकाबले के बाद
हमारे बीच के लोग
कम होते जा रहे हैं
 
डीजे की धुन
डीजे की धुन पर
गंवई लड़के नाच रहे हैं
अबीर उड़ा रहे हैं
रंग मल रहे हैं
अपने हिस्से के दुख से बेखबर
उधार के शराबसिगरेट की
खुमारी में डूब रहे हैं
इस घड़ी में
बर्बाद होती फसल नहीं है
पिता के  फटे जूते नहीं है
मां की पैबंद लगी साड़ी नहीं है
अभी वे बेरोजगार नहीं है
अभी वे लाचार नहीं हैं
कुछ घड़ी बाद
डीजे की धुन धीमी पड़ती है
अंत में आखिरी सांस की तरह
टूट जाती है
रंगबिरंगी लाईटों के बुझते ही
लड़के पसीना पोंछ रहे हैं
फिर से वे बेरोजगार हैं
फिर से वे लाचार हैं
तूतू मैंमैं
तूतू मैंमैं में
न तुम थे न मैं था
बस
दोनों की जिद थी
दोनों का भय था
भूख
उनकी भूख बढ गई है
पंजे और भी तेज हुए हैं
दाँते और नुकीली
आँखों की चमक
गहरी हो गई है
हल्के पदचाप
कान खड़े
लार टपकाते
हवाओं में
शिकार की
गंध के पीछे
बढते आ रहे हैं वे
ये लोग
ये कौन लोग हैं जो
बलात्कार की घटना को
हत्या से दबाना जानते हैं
हत्या की घटना को लूट से
फिर लूट की घटना को
हड़ताल से घोटाले से..!
और इसी क्रम में
सूखे की समस्या को
अपने शोर से
दबाना जान गए हैं !
शंकित मन
उनके तिरुपति और अजमेर की
त्वरित यात्राओं को देख कर     
होने लगा है विश्वास  
कि वहीं मिलते होंगे  आज्ञा-पत्र
हत्या, अपहरण और घोटालों के
तभी तो
हर आरोप-मुक्ति के बाद
पुर्नदर्शनार्थ जाते हैं
कि काले धन के चढ़ावों के बदले
होते होंगे नवीनीकरण
उन आज्ञा-पत्रों  के
तभी  तो
उनकी वापसी पर
लोग और आशंकित होते हैं
तुम्हारा ईश्वर
तुम्हारे शपथ में
वह कौन ईश्वर होता है?
वह..!
जो षड्यंत्रों, घोटालों में
तुम्हारा साथ देता है
या वह..!
जो गरीबी, ज़हालत में
हमारे साथ होता है
हम डगमगाते हैं
हमारी आस्था भी
तुम डगमगाते नहीं
तुम्हारी आस्था भी..!
जरा हमें भी बताओ
तुम्हारा ईश्वर कहाँ रहता है ?
सड़ांध
शहर के
रिहायशी इलाके से
अलग-थलग
पड़ी  थी वह कब्रगाह
समस्या बन कर
जनजीवन की
शहर  की तरफ
हवा के झोंको के साथ
आती रहती सड़ांध
उन कब्रों से
अनेकों बार डाली गयी मिट्टी
पर, आती ही रहती
वह तीखी सड़ांध
फिर से खोदी जाती कब्रें
मुर्दे जागे मिलते हर बार
देने लगते बयान
क्षत विक्षत कर
डाल दिए जाते
और भी गहरे
कभी आये नहीं हाकिम
लिए नहीं गए उनके बयान
और वह तीखी सड़ांध
आज भी
वहां से आती है
अंधापन
उसने देखा
शहर अंधा हो चुका था
और
तेजी से बढा आ रहा था
वह कभी भी
उसकी जद में आ सकता था
शहर..!
शरीर बढा रहा था
नेहनाते निगल रहा था
धुंध पैदा कर
खुद को छुपा रहा था
तभी उसने देखा
वे सारे उपकरण
उसके इर्दगिर्द मौजूद थे
जिनका उपयोग कर
शहर अंधा हो कर भी
तेजी से
बढता आ रहा था
उसने भी उन्हें संभाला
और,
ठीकठीक इस्तेमाल किया
उन्मुक्त
सोचता हूँ
तोड़ दूं
सारे धागे
हो लूं
उन्मुक्त
डर  है
कहीं
पा न लूं
अबाध गति
अनियंत्रित
राजनीति
उसे पलायन करने से रोको
खाली दिमाग मत रहने दो
कुछ मुद्दे दो, कुछ वादे दो
वापस बुलाओ
जातिवाद तक जाने दो
अधिक खुले तो
क्षेत्रवाद पर रोको
आगे बढ न पाये
धर्म को सामने रख दो
इतने पर भी उदार बने
देश-भक्ति में आकंठ डूबा दो
उसके बाद भी अगर..?
क्या बेतुका सवाल है !
फिर हम हैं
हमारा कानून है
बीहड़
इन दिनों
मेरे अंदर भी
एक बीहड़ पल रहा है
घुप्प अंधेरा
घुस सको तो आ जाओ
कीचड़ सनी झाड़ियों के पार
पेड़ों के झुरमुटों में
चहचहाती चिड़ियों के पास
कलकल करती नदियां मिलेंगी
हरेभरे पहाड़ भी
प्यार और उसकी स्मृतियाँ
सभी मिलेंगी
पर आना होगा
उन्हीं रास्तों से
जिन्हें खोल रखा है
  
सम्पर्क :

नरेन्द्र कुमार

द्वारा- ललन कुमार सिंह

2/10, शिवपुरम, गली नं.2

विजयनगर, रुकनपुरा

पटना800014
बिहार

मो0 – 9334834308

मेल narendrapatna@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)  

लाल बहादुर वर्मा का आलेख ‘जनतन्त्र और कुलीनता’।

लाल बहादुर वर्मा



भारत दुनिया का सब से बड़ा जनतन्त्र है। जनतन्त्र की राह में सबसे बड़ा अवरोध होता है– ‘अभिजात्यता-बोध’। ‘अभिजात्यता-बोध’ का मतलब है बड़े होने का एक झूठा-बोध। एक आधार-रहित दंभ। यह दम्भ जातीय, नस्लीय, धार्मिक, विद्वता, धन-संपत्ति आदि से कुछ इस तरह निर्मित होता है, कि हमारे आत्म में गहरे तक पैठ कर जाता है और हमें इसकी भनक तक नहीं लगती। कुल मिला कर यह बोध मानवताविरोधी वह बोध है जो पूरी तरह असमानता और अवमानना की क्रूर भावना पर आधारित है। यह बोध अवैज्ञानिक होने के बावजूद तमाम लोगों में अपनी पैठ बनाए हुए है। दुनिया में इस अवैज्ञानिक और आतार्किक बोध के खिलाफ कई क्रान्तियाँ तक सम्पन्न हो चुकी हैं जिसमें फ्रांसीसी क्रांति सबसे महत्वपूर्ण है। फ्रांसीसी क्रांति जिसका नारा ही था– ‘स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व’। एक समय अंग्रजों तक ने अन्य देशों पर अपने शासन के औचित्य को तार्किक ठहराने के क्रम में ‘व्हाईट मैन्स बर्डन’ का सिद्धांत गढ़ लिया था। कई एक देशों में अंग्रेजी शासन की हकीकत आज सामने है। बहरहाल सच्चे मायने में लोकतन्त्र या जनतन्त्र ही इस नारे को अपने आप में क्रियान्वित करता है। विगत कुछ महीनों से हम पहली बार पर प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा के लेख निरन्तर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस बार उनका आलेख इस ‘जनतन्त्र और कुलीनता’ पर ही आधारित है और इसकी तहकीकात करने की एक सफल कोशिश इस आलेख में उन्होंने की है। तो आइए आज पढ़ते हैं प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का यह महत्वपूर्ण आलेख ‘जनतन्त्र और कुलीनता’।   
             
जनतन्त्र और कुलीनता

लाल बहादुर वर्मा
आज जनतन्त्र की राह में जो व्यवधान हैं, उन पर बात करना चाहता हूँ। 

कुलीनता वैसे तो व्यवधान लगती ही नहीं पर जनतन्त्र की राह में यह बहुत बड़ी बाधा है। पिछले दिनों रोहित वेमुला नाम के विद्यार्थी की आत्म-हत्या देश के सामने बहुत से सवाल छोड़ गयी। सोचने पर मुझे यह लगता है कि वह भी कुलीनता का ही शिकार हुआ। इस समय में हर वह व्यक्ति कटघरे में खड़ा है, जो कुलीनता के केवल सकारात्मक पक्ष को देखता है। कुलीनता एक सकारात्मक रूप से इतना प्रेरक शब्द लगता है कि सब लोग कुलीन हो जाये तो क्या बुरा है? लेकिन कुलीनता के मर्म में जो विभाजकता है। सब कुलीन नहीं हो सकते, क्यों कि सब कुलीन हो जायेंगे तो कुलीनता का मतलब नहीं रह जायेगा। 

कुलीन की व्याख्या करने के लिए जरूरी है कि बहुत से लोग अकुलीन हो। कुलीन की व्याख्या करने से पहले यह बता दूं कि कुलीनता का मतलब है, जन्म पर आधारित श्रेष्ठता। आप चाह कर कुलीन नहीं बन सकते। भले ही बड़े धर्मात्मा हों। जैसे-मुझे नहीं लगता कि अम्बेडकर को कोई कुलीन कहेगा, चाहें उन्हों ने कितना भी श्रेष्ठ काम क्यों न किया हो? गाँधी को भी पारम्परिक कुलीनों ने कुलीन नहीं माना, भले ही मजबूरी में पैर भी छूते रहे हो। इसका सम्बन्ध सारी दुनिया में खानदानियत से है। इस तरह के मुहावरे भी बने हैं, जैसे-अच्छे खून का मालूम पड़ता है, जब कि खून तो अच्छा या बुरा होता नहीं है। इस तरह कुलीनता या श्रेष्ठता-बोध हमारे जन-तन्त्र को कैंसर की तरह ग्रसे हुए है। जिसका हाल-फिलहाल कोई इलाज नहीं दिख रहा है।

पिछले 200 वर्षों में मानवता ने जो कुछ अर्जित किया है, वह पिछले 2,000 सालों में नहीं हो सका। आज दुनिया में जितने लोग प्रबुद्ध हैं, उतना आज से पहले की नहीं थे और यह सब जन-तन्त्र के कारण ही सम्भव हो सका। हिटलर ने भी जन-तन्त्र की दुहाई दी, एक ऐसे जन-तन्त्र की जहाँ आर्यों की श्रेष्ठता बनी रहे। उसने भी कुलीनता को ही हथियार बनाया। आर्य जाति को ही एकमात्र कुलीन जाति कहा और उसने कहा कि जो सबसे कुलीन हैं, जो सबसे श्रेष्ठ हैं, उसे ही राज करने का अधिकार मिलना चाहिए और पहलू यूरोप पर फिर सारी दुनिया पर वह अपना तन्त्र लादता रहा, लेकिन आर्यों के हित में जन-तन्त्र की ही बात करता था। नेपोलियन ने सारे यूरोप को जीतने के बाद एक राजघराने में शादी की। महज इसलिए कि वह न सही उसकी सन्तान कुलीन मानी जाये। परिवारवाद जो जनतन्त्र के मार्ग में खड़ा है। वह सारतः क्या है? अपने को कुलीन मान कर अपने ही द्वारा शासन चलाते रहने की एक बहुत बेतुकी और अलोकतान्त्रिक कोशिश है।
इलाहाबाद में जो भी छात्र सिविल सेवा की तैयारी करने आते हैं, वह एक अर्थ में कुलीन बनने आते हैं और यह कुलीनता केवल सकारात्मक अर्थों में श्रेष्ठ बनने का प्रयास नहीं है, बल्कि यह दूसरे को धक्का दे कर आगे बढ़ने वाली श्रेष्ठता है। प्रतियोगिता तो कुलीनता का ही प्रपंच है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहाँ जो जीतने के लिए साथ वालों को लंगड़ नहीं मारी जा रही।

जो लोग जन्मना कुलीन हैं, वह संस्कृति में, नीतियों, वे यह प्रयास करते हैं कि कुलीनता को नियमबद्ध करें। जाति प्रथा और क्या है? इस से भारत की प्रतिभा का कितना नुकसान हो रहा है कि हम सभी से लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।
जनतन्त्र केवल कुछ लोगों के श्रेष्ठ होने से फलीभूत नहीं हो सकता है। जन-तन्त्र का मूल तत्व है, समानता और स्वतन्त्रता और इन दोनों के समन्वय से पैदा हुआ भ्रातृत्व। जन-तन्त्र में पूरा समाज अपने को रचता है, उस में कोई राजा, कोई पुरोहित समाज को नहीं रचता है, बल्कि उसे ऐसे अवसर प्रदान किये जाते हैं कि वह रच सके। कुलीनता, संकीर्णता, अज्ञान और अंधविश्वास अवसर को खत्म करते हैं, प्रतिभा को खत्म करते हैं। राज-तन्त्र आपको आपकी सम्भावनाओं से परिचित नहीं होने देता है। जन-तन्त्र ऐसी व्यवस्था है, जो आप को, आप की सम्भावनाओं से परिचित कराती है। मैं स्थापित जन-तन्त्र का प्रवक्ता मात्र नहीं हूँ। जन-तन्त्र जीवन में, विचारों में होना चाहिए। मैं ऐसे जनतन्त्र की बात कर रहा हूँ, जो पूरी दुनिया को सर्जक बनाता है, सृजनशील बनाता है। 
सम्पर्क-
मोबाईल – 09454069645
(इस आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

अमरेन्द्र कुमार शर्मा का आलेख ‘दूसरी परंपरा की खोज’ : इनकाउंटर

नामवर सिंह

इसमें कोई दो राय नहीं कि नामवर सिंह हमारे समय के श्रेष्ठ आलोचक हैं. लेकिन ऐसा भी नहीं, कि केवल इसी बिना पर  उनकी आलोचना न की जा सके. युवा कवि-आलोचक अमरेन्द्र कुमार शर्मा ने ‘वाह-वाह’ या ‘अहो-अहो’ की परम्परा से अलग हट कर उनकी महत्वपूर्ण किताब ‘दूसरी परम्परा की खोज’ का इनकाउंटर करने की एक अहम् कोशिश की है. यह आलेख बहुवचन पत्रिका के नामवर विशेषांक में प्रकाशित हुआ है. इस आलेख की महत्ता को देखते हुए हम यहाँ पर पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं तो आइए पढ़ते हैं अमरेन्द्र कुमार शर्मा का यह आलेख  ‘दूसरी परंपरा की खोज’ : इनकाउंटर.    

दूसरी परंपरा की खोज’ : इनकाउंटर
अर्थात्
हुआ यूँ इत्तिफ़ाक,आईन: मेरे रू-ब-रू टूटा[i][i]
[1] 
अमरेन्द्र कुमार शर्मा   
छवियाँ आज वास्तविकता की सिर्फ नकल नहीं हैं. वे वास्तविकता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन चुकी हैं. वे वास्तविकता को नष्ट कर देना चाहती हैं और हम निरंतर इन छवियों के संसार में रह रहे हैं. – सूसन सौंटैग (1933-2004)
अतीत के भग्नावशेष हमेशा हमारे वर्तमान में मौजूद रहते हैं और उन आद्य बिबों का अध्ययन करते हुए वर्तमान की शक्ल बनाई जा सकती है.– वाल्टर बेंजामिन (1892-1940)

परंपरा एक सामंतवादी अवधारणा है.– थियोडोर एडोर्नो (1903-1969)
                    दूसरी परंपरा की खोजजिसे नामवर सिंह ने आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की बदल देने वाली दृष्टि के उन्मेष की खोजबताया है और यह कहा है कि, ‘संभव है, इसमें मेरी अपनी खोज भी मिल जाए’. दूसरी परंपरा के निर्माण में बदल देने वाली दृष्टिऔर अपनी खोजको बुनियादी तौर पर परखने के लिए उद्धृत सूसन सौंटैग, वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो  के उद्धरणों को मैं पहले पढ़ने की अपील करता हूँ. 
                    लिखित परंपराओं से पूर्व मौखिक परंपराओं के ताने-बाने से हमारी दुनिया की निर्मिति रही है, समय-समय पर मनुष्यों की खोज ने इन निर्मितियों को नयाबनाये रखा है. दरअसल, कोई भी परंपरा इस यकीन पर आधारित या तय होती है कि किसी समाज या समूह की विशिष्ट पहचान निर्मित करने में उस समाज या समूह का अपने सांकेतिक संदर्भों में अतीत से क्या और कितना जुड़ाव रहा है और कितना अलग हुआ है. परंपरा हमेशा एक सांस्कृतिक, दार्शनिक, राजनीतिक विमर्श का हिस्सा रही है, तब जबकि यह स्पष्ट  है कि परंपरा मुख्यतः कला माध्यमों की प्रस्तुतियों के जरिए अपने सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त होती रही है. परंपरा मुख्यतः रोमन कानून से जुड़ा हुआ शब्द रहा है. यूरोपीय चिंतन पद्धति में ज्ञानोदय युगके चिंतकों और दार्शनिकों के साथ यह शब्द आधुनिकता की अवधारणा से विकासके सवाल पर मुठभेड़ करते हुए आगे बढ़ा है. परम्पराएँ सचेत रूप से कभी नहीं बदलती है बल्कि इसमें बदलाव की निर्मिति धीरे-धीरे कई पीढ़ियों में रिसते हुए समय-अंतरालों और उस अंतराल में उभरती हुई प्रवृतियों के आधार पर निर्मित होती है. 

परंपरा की खोज (Invention of Tradition) पदबंध का  प्रयोग ब्रिटिश इतिहासकार एरिक जान होब्सबोम(1917-2012) ने नए उपायों या लक्ष्योंकी खोज का अतीत से संबंध जोड़ते हुए किया जिसकी वर्तमान के साथ जुड़े रहने की अनिवार्यता न हो. होब्सबोम ने औपनिवेशिक अफ्रीका की संरचना में निजी, वाणिज्यिक, राजनीतिक चिन्हों, ईसाई समुदाय में शादी के समय पहना जाने वाला सफ़ेद गाउन जो निश्चित रूप से रानी विक्टोरिया द्वारा शादी में पहने जाने के बाद परंपरा में शामिल हुआ, गोइथिक शैली के ब्रिटिश पार्लियामेंट और यूनाइटेड स्टेट्स के राजतंत्र के ढांचों को संदर्भित करते हुए परंपरा की खोजजैसे पदबंध का प्रयोग किया. 1948 में विज्ञान-दार्शनिक कार्ल पापर (1902-1994) ने आधारभूत समाजशास्त्र के अध्ययन में विज्ञान को रेशनल थ्योरी ऑफ ट्रेडिशनके साथ शामिल किया. कार्ल पापर यह मानते थे कि हर वैज्ञानिक में कुछ खास प्रवृतियाँ होती है जो विरासत में मिली होती है. यह विरासत कहीं न कहीं उनके अध्ययन,उनकी खोज में शामिल होती है और यह कभी-कभी आश्चर्यचकित भी कर जाती है. अकादमिक दुनिया में परंपरा मानवविज्ञान, पुरातत्व विज्ञान, जीव विज्ञान, इतिहास, दर्शन-शास्त्र,समाज-शास्त्र आदि में अलग-अलग अर्थों, संदर्भों में अभिव्यक्त होती है. साहित्य में परंपरा का अर्थ भी संदर्भ के साथ ही अभिव्यक्त होता है. 

क्या परंपरा संख्यावाची शब्द है. अगर है, तो फिर यह पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं होते हुए अनंत तक जा सकती है. यदि परंपरा दूसरी है, तो यह दूसरीक्या है? ‘पहलीकिसे कहा जाए? क्या हर समय के साथ परंपरा अपना कलेवर बदलती रहती है? जब कलेवर बदलती है तो क्या उस कलेवर में पहलीपरंपरा के तत्व शामिल नहीं होते? क्या इसे भी दूसरीपरंपरा कह सकते हैं, जब युधिष्ठिर  यक्ष के प्रश्नों का जवाब देते हुए तर्क की एक दुनिया रच रहे थे या जब नचिकेता यमराज से सवाल पूछता हुआ प्रश्न पूछने की परंपरा का निर्माण कर रहा था या सावित्री यमराज से अपने पति के प्राण वापस ले आने के संकल्प में यमराज का पीछा नहीं छोड़ रही थी या फिर एकलव्य जो अपने कौशल का विकास एक वैकल्पिक व्यवस्था की निर्मिति करके कर रहा था? इस प्रकार के और भी उदाहरण हम अपने आख्यानों से निकाल सकते हैं. आख्यानों से बाहर यदि हम जाएँ तो क्या हम पूछ सकते हैं कि दूसरी परंपरा क्या वह हो सकती है जो गौतम बुद्ध, महावीर जैन ने निर्मित की या मोहम्मद पैगम्बर ने या फिर ईसा मसीह ने. ईसा मसीह, गौतम बुद्ध, मोहम्मद पैगंबर से पहले की परंपरा को क्या  पहलीपरंपरा कहा जाना चाहिए?
दरअसल, इन सवालों की पृष्ठभूमि में नामवर सिंह की 1982 में लिखी किताब है  दूसरी परंपरा की  खोज’. आठ अध्यायों वाली इस किताब को नामवर सिंह पूरा करते हुए अपनी भूमिका में लिखते हैं, – “आज उस खोज की अंतरिम रिपोर्ट पेश करते हुए मन थोड़ा हल्का लग रहा है”. जाहिर है, यह रिपोर्ट अंतिम नहीं है. किसी भी परंपरा की रिपोर्ट अंतिम हो भी नहीं सकती. यह रिपोर्ट दरअसल नामवर जी अपने गुरू आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बननेऔर होनेको लेकर तैयार की है. इस किताब को  आचार्य द्विवेदी के बननेऔर होनेकी दास्तान के रूप में पढ़ते हुए यह बार-बार लगता है कि नामवर जी का लक्ष्यकेवल अपने गुरू को याद करना या उनके संघर्षों का आरेख भर खींचना नहीं रहा है बल्कि लक्ष्य कहीं और रहा है. भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी जब-जब सामुदायिक कार्यों की तरफ लौटते थे तो उनका उद्देश्य केवल सामुदायिक कार्य नहीं होता था बल्कि वे इस कार्य के द्वारा राजनीति के ऊपर एक दबाब तंत्र, एक अंकुश विकसित करते थे. राजनीति के ऊपर राजनीति से बाहर निर्मित दबाब तंत्र गाँधी की अपनी मौलिक विशेषता थी. नामवर सिंह का लक्ष्यइस किताब को लिखते हुए क्या रहा होगा?  इसके उत्तर में विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी के एक लेख नामवर सिंह : हक अदा न हुआके इस अंश को आपके सामने रखता हूँ, “… छायावादया कहानी- नई कहानी  के बाद आलोचक नामवर सिंह को लेखनप्रेरणा के लिए कोई न कोई ऐसा आलोचक या रचनाकार चाहिए जिसे वे खलनायक बना सकें. मूल्य का स्थान बेध्य ने ले लिया है. कविता के नए प्रतिमानमें खलनायक डॉ. नगेन्द्र थे. दूसरी परंपरा की खोजमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल.इस अंश को पढ़ते हुए यह बार-बार लगता है कि क्या नामवर सिंह अपनी इस खोज में अपने गुरु आचार्य द्विवेदी के बहाने आचार्य शुक्ल को अपना लक्ष्य बेध्य बनाये हुए हैं? क्या उन्होंने आलोचना कर्म में अपने गुरु का इस्तेमाल तो नहीं  किया?  और क्या दूसरी परंपरा की खोजवास्तव में कोई आलोचनात्मक पुस्तक है
आलोचना की क्या कोई परंपरा हो सकती है?  अगर परंपरा हो सकती है तो फिर उसका फ्रेमवर्कयानि कि रुपरेखा क्या होनी चाहिए? क्या नामवर सिंह ने अपनी खोजमें आलोचना की परंपरा का कोई फ्रेमवर्क बनाया/ बताया है? 1982 में जो नामवर सिंह ने दूसरी परंपरा की खोज की और उसकी अंतरिम रिपोर्टप्रस्तुत की, उस अंतरिम रिपोर्ट का हिंदी आलोचना की परंपरा पर क्या प्रभाव रहा है?  इस खोज ने हिंदी आलोचना और समकालीन आलोचकों पर कोई प्रभाव छोड़ा? ‘दूसरी परंपरा की खोज के चौंतीस वर्ष बीततेबीतते क्या यह सवाल बना हुआ नहीं है कि हिंदी की आलोचना पर उस खोजी हुई परंपरा का भविष्य क्या है? ऐसे कई सवाल मन में नामवर सिंह की इस किताब को पढ़ते हुए उभरते हैं, तब भी जब कि इस किताब की भूमिका में लिखा है कोशिश यही रही है कि न किंचित अमूल लिखा जाय, न अनपेक्षित”.  हिंदी आलोचना की विकास परंपरा ( यदि कोई विकास परंपरा है तो ) में यह न किंचित अमूलऔर  न अनपेक्षितकहाँ है? जाहिर है 1982में इस किताब के आने के बाद, इस किताब  में  ‘खोजी हुई दूसरी परंपराका हिंदी आलोचना पर सीधा कोई प्रभाव या उस परंपरा का निर्वाह  दिखलाई नहीं देता. कम से कम दूसरी परंपरा की खोजके प्रकाशन वर्ष के बाद से आज चौंतीस वर्ष तक के समय के बीच के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है.  यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नामवर सिंह की यह बात स्मरण है, “…यह प्रयास परंपरा की खोज का ही है, सम्प्रदाय निर्माण का नहीं”. आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को हिंदी आलोचना में एक स्कूल (संप्रदाय) की तरह उपस्थित करने की कई कोशिशें राम विलास शर्मा और नामवर सिंह ने की हैं, कभी जान-बूझ कर और कभी अनजाने में भी. नामवर सिंह की यह किताब भले ही किसी संप्रदाय निर्माण न करने की घोषणा के साथ हमारे सामने आती है, लेकिन किताब को पढ़ते हुए कई बार एक व्यक्तिवादी आलोचना को पढ़ने का अहसास होता है. यह कहते हुए हमेशा असहजता का बोध होता कि हिंदी आलोचना में  आलोचना की कोई मुक्कमल परंपरा या स्कूल (संप्रदाय) का विन्यास नहीं रचा जा सका है. हाँ, हिंदी आलोचना के छोटे-छोटे खेमे, टोली, टापू, दल, समूह आदि जरुर दिखलाई दे जाते हैं, जो वयक्तिक निष्ठाओं पर काम करते हैं न कि किसी सामूहिक साहित्यिक,सांस्कृतिक निष्ठाओं पर.  
    
विष्णु चंद्र शर्मा अपने लेख वाद-विवादके केन्द्र में नामवर सिंहमें एक महत्त्वपूर्ण बात करते हैं, नामवर जी दूसरी परंपरा की खोजलिखकर साईंट्फिक कल्चरसे च्युत होने लगे थे’. यह वाक्य पढ़ते हुए मेरे जैसे पाठक के लिए ठिठक जाना पड़ता है. इस वाक्य के सहारे यदि नामवर जी की इस किताब को देखा जाए तो कई बातें डायलेक्टिसकी विलोम लगती हैं, मसलन नामवर जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं, “इसमें न पंडित जी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास. अगर कुछ है तो बदल देनेवाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज, जिसमें एक तेजस्वी परंपरा बिजली की तरह कौंध गयी थी. उस कौंध को अपने अंदर से गुजरते हुए जिस तरह मैंने महसूस किया, उसी को पकड़ने की कोशिश की है.  मैं  “एक तेजस्वी परंपरा बिजली की तरह कौंध गयी थीको अलग से रेखांकित करना चाहता हूँ. विज्ञान और दर्शन में खोजऔर दर्शन पद्धतियाँकिसी कौंधके साथ नहीं आती बल्कि अपनी द्वन्धात्मक्ताओं के विकसनशील अवस्था के साथ आती है. परंपरा बिजली की तरह कौंधती नहीं है.  
नामवर सिंह अपनी लिखत में बढ़त हासिल करते हैं या अपने वाचिक में, यह सवाल बहुतों के मन में रहता है. उनके लिखे हुए को और उनके बोले हुए को अगर एक साथ देखा जाए तो  एकबारगी यह कहना कठिन हो जाता है कि वे, ‘मार्डन एजके प्रखर बुद्धिजीवी हैं या फिर अपने समकालीन आलोचकों पर तीखे प्रहार करते हुए गंगा किनारे पीपल के पेड़ के नीचे पैंतरा सीखते-सिखाते कोई सिद्धहस्त अखाडिया उस्ताद. नामवर सिंह व्यूह-रचनामें माहिर आलोचक माने जाते हैं, जब वे लिख रहे होते हैं तब भी और जब बोल रहे होते हैं तब भी. उनकी ख़ामोशी भी उनकी एक व्यूह-रचनाही है. इस व्यूह-रचनाका भाष्य करने की प्रतिभा कम से कम मुझ में तो नहीं है. दूसरी परंपरा की खोज 1982 में प्रकाशित हुई थी और ठीक उसके एक साल बाद 1983 में टेरी ईग्लटन (1943) की बेस्ट सेलर किताब लिटररी थ्योरी : एन इंट्रोडक्शनआई. साठ और सत्तर के दशकों में उभरे विमर्श की तमाम पेचीदगियों और उसकी अंदरूनी गुत्थियों को यह किताब खोलती है. इन दो दशकों में लेंका, फूको, देरिदा, रोलां बार्थ, जूलिया क्रिस्तोवा आदि आलोचकों ने आलोचना में जो योगदान किया, वह परिवर्तनकारी साबित हुआ. हालाँकि अमेरिकी पूंजी के नए उभार के बाद साहित्य और संस्कृति में जिस प्रकार के बदलाव आये उसको लेकर ईग्लटन ने 2003 में  एक किताब आफ्टर थ्योरीलिखी. पॉप-संस्कृति, प्रोनोग्राफी और फैशन-परेडों ने साठ और सत्तर के दशक के विमर्शों को आधारभूत ढंग से उसके आधारों को हिलाया है, ‘आफ्टर थ्योरीइन सब की पड़ताल करती है. ईग्लटन की इन दोनों किताबों के परिप्रेक्ष्य में दूसरी परंपरा की खोजके विन्यास को हिंदी साहित्य और आलोचना की परंपरामें हम देखते हैं तो लगता है कि नामवर सिंह की लिखत’, ‘वाचिकऔर ख़ामोशीएक स्वीकार्य छवि के साथ उपस्थित नहीं होती है, बल्कि उसमें कई बार एक खास तरह की आलोचना की बुर्जुआ संस्कृतिदिखलाई देती है. जो समय-प्रवाह के किसी बिंदु पर अटका हुआ दिखलाई देता है. हिंदी आलोचना के इस अटके हुए समयको इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी हम महिमामंडित करते हुए याद करते हैं, तो यह समय की गतिकी सिद्धांत के विरुद्ध है; और जिसे हम बड़े ही सहजता से सरलीकृत अंदाज में टाल जाते हैं, टालते  रहते हैं. 
    
कोस-कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और तीन कोस पर बोली का स्वरूप, बड़े ही धडल्ले  से ऐसे वाक्यों को अनेक अवसरों पर हम सुनते आये हैं, कम से गंगा-यमुना के कछारों में तो यह सही ही है. तो क्या गंगा-यमुना के कछारों में पल्लवित-पुष्पित होनेवाले हिंदी के आलोचक आचार्य शुक्ल, आचार्य द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि (सिद्धांत: हिंदी साहित्य में इस आदिका बड़ा महत्त्व है. हिंदी साहित्य में आदि विमर्शहोना चाहिए.) में हिंदी आलोचना का स्वाद और उसकी भाषा का स्वरूप भी बदल रहा था. हिंदी आलोचना का स्वाद क्या कोस-कोस पर पानी के स्वाद की तरह बदल जाना चाहिए, क्या इसे आलोचना की विविधता की खूबसूरती कह कर हमें सरलीकृत निष्कर्ष निकाल लेना चाहिए? यदि ऐसा है तो फिर गंगा-यमुना के कछारों में हिंदी साहित्य और आलोचना की कई परम्पराएं है. इस आधार पर दूसरी परंपराका मिथ टूट जाना चाहिए.
दूसरी परंपरा की खोजको पढ़ते हुए और उसके विन्यास को समझने के लिए हमने यह जानने की कोशिश की, कि नामवर सिंह की दूसरी परंपरा की खोजके सूत्र कहाँ-कहाँ बिखरे हो सकते हैं ,  और क्या ये ठीक-ठीक बिखरे ही हैं? यह भी संदेह बना रहा कि इस किताब को समझने के लिए यह कोशिश कितनी कारगर साबित हो सकती है. बहरहाल, हम इस कोशिश को आपके सामने रखना चाहते हैं. इस कोशिश में मुझे एक छोर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा शिव मंगल सिंह सुमनको लिखे पत्र में मिलता है. मैं यहाँ उसे हू-ब-हू उद्धृत कर रहा हूँ
                                                                                                                                                              रविन्द्रपुरी  / वाराणसी- 5 / 18670
प्रिय सुमन जी,
आशा करता हूँ, सपरिवार सानंदहोंगे. एक बात कई दिनों से मन में आ रही है. आप तक पहुँचा देना उचित समझता हूँ. हिंदी में प्रोफ़ेसर और डाइरेक्टर जैसे पदों के लिए अच्छे आदमी इसलिए भी नहीं मिलते कि हम लोगों ने योग्यता की कसौटी विशेष-विशेष पदों पर शिक्षक होने को मान लिया है. मुझे प्रसन्नता है कि आपने उपाध्याय जी को नियुक्त करके इस गलत कसौटी का प्रत्याख्यान किया है. भगवत शरण उपाध्याय वास्तव में पंडित हैं और सही व्यक्तियों का सही ढंग से सम्मान होना ही चाहिए. नहीं तो देश का भविष्य भगवान भरोसे ही रहेगा. इसी प्रकार डॉ. नामवर सिंह का भटकना अखरता है. यह आदमी अपनी योग्यता और परिश्रम से कहीं भी चमक सकता है पर उपेक्षित रह गया है. कभी अवसर देने का प्रयत्न करें. नामवर वामपंथी विचारधारा के हैं पर विद्या की दुनिया में विचारों की विविधता और नवीनता स्वागत योग्य समझी जानी चाहिए. इतनी सी बात आप तक पहुंचा कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. आपका समय नष्ट हुआ. उसकी कोई चिंता क्यों की जाए? परोपकाराय सतां विभूतयः. आशा है सानंद हैं.
                                                                                                                                                    आपका
हजारीप्रसाद द्विवेदी
हम जानते हैं कुछ बर्षों बाद जोधपुर विश्वविद्यालय में नामवर सिंह प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए और शिवमंगल सिंह सुमनउनके चयनकर्ताओं में थे. इस पूरी प्रक्रिया के बारे में हिंदी समाज वाकिफ़ है. गुरु आचार्य द्विवेदी का यह पत्र नामवर सिंह के लिए प्राण वायु की तरह साबित हुआ. कहना चाहिए,‘दूसरी परंपरा की खोजका एक बीज धीरे से नामवर सिंह के जेहन में उतर आया. दूसरा सूत्र मुझे नामवर जी के लेख रचना और आलोचना के पथ परमें मिला, “मेरा पहला आलोचना लेख था:  आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर. 1949 की मासिक जनवाणी में हिंदी समीक्षा और आचार्य शुक्लशीर्षक से प्रकाशित हुआ था . ….. आचार्य की आलोचना से ही मैंने आलोचना कर्म का आरम्भ किया था. क्यों? जाहिर है कि वे मेरी परंपरा हैं. एक परंपरा के रूप में मेरे अंदर हैं- अंदर रहे हैं. मुझे विरासत में सिर्फ मिले हैं-ऐसा भी नहीं. मैंने उन्हें साधना से अर्जित किया है. इसलिए मेरा उनसे टकराव भी है. एक प्रकार का आत्मसंघर्ष.मुक्तिबोध का सा आत्मसंघर्ष. उस संघर्ष को सही शब्द मिला जब मैंने दूसरी परंपरा की खोजनाम की पुस्तक लिखी 1982 में. जो यात्रा 1949 में शुरु की उसे सही नाम मिला 33 वर्ष बाद और तब यह प्रत्यभिज्ञान हुआ कि मैं इस दूसरी परंपरा के निर्माण के लिए कवि कर्म छोड़ कर आलोचना के पथ पर आ निकला. नामवर सिंह के यहाँ आचार्य शुक्ल दो तरह से आते हैं एक परंपरा के रूप में मेरे अंदर हैं’, ‘मैंने उन्हें साधना से अर्जित किया है’. यानि विरासत भी हैं और साधना के द्वारा अर्जन भी, और इसलिए मेरा उनसे टकराव भी है’. नामवर सिंह अपने इस टकराव को मुक्तिबोध की तरह का आत्मसंघर्ष बताते हैं . यह आत्मसंघर्षही दूसरी परंपरा की खोजहै. जिसमें आचार्य शुक्ल के स्थान पर आचार्य द्विवेदी नामवर सिंह के शब्दों में आकाशधर्मी गुरुके रूप में मौजूद हैं , जो हर पौधे को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता देने के विश्वासीहैं, और यह उन्मुक्तता ही उनकी परंपरा का मूल स्वर है’. यानि, नामवर सिंह जिस परंपरा की खोजकर रहे हैं, उनमें उन्मुक्तताएक केन्द्रीय शब्द है और जिसकी खोज की जाए उसकी अहर्ता आकाशधर्मी गुरुहोना है. जाहिर है,  इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, होनी भी नहीं चाहिए  हम इस नहीं होनेके लिए दूसरी परंपरा की खोजकिताब के थोड़े और निकट जाने की कोशिश करते हैं, और जानने की कोशिश करते हैं कि वह कौन सी बात है, जिसे दूसरी परंपरा की खोजकहा जाय.
इस किताब के पहले अध्याय का शीर्षक है दूसरी परंपरा की खोज’. इस खोजमें नामवर सिंह ने आचार्य द्विवेदी के ऊपर पड़ने वाले प्रभाव और उनकी मौलिक स्थापनाओं का एक संक्षिप्त आरेख खींचा है. नामवर जी पहले आचार्य द्विवेदी को उद्धृत करते हैं, “…द्रविड़ तत्त्वज्ञानी नहीं थे. पर उनके पास कल्पना-शक्ति थी, वे संगीत और वास्तु-कला में कुशल थे. सभी कला-विद्याओं में वे निपुण थे,” और फिर इससे वे निष्कर्ष निकालते हैं, “द्विवेदी जी ने इस रास्ते चल कर गंधर्वों, यक्षों और नागों जैसी आर्येतर जातियों के कलात्मक अवदान की खोज की,” (पृष्ठ 12). द्विवेदी जी की इस खोज को नामवर जी एक मौलिक खोज बताते हैं. दूसरी बात नामवर जी कहते हैं, “द्विवेदी जी को भारतीय संस्कृति और साहित्य की परंपरा रवीन्द्रनाथ के माध्यम से मिली.” (पृष्ठ 12) वे आगे कहते हैं, “द्विवेदी जी ने कम-से-कम हिंदी को रवीन्द्र नाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था.” (पृष्ठ 13 ) यह गौरतलब है कि भारतीय संस्कृति और साहित्य की परंपराआचार्य द्विवेदी जी को रवीन्द्रनाथ टैगोर के माध्यम से प्राप्त हुई , और इसी आधार पर द्विवेदी जी ने हिंदी को वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था’. यानि, नामवर सिंह यहाँ इस बात को स्वीकार करते हैं कि द्विवेदी जी के भीतर जो परंपरा निसृत हो रही है वह टैगोर के माध्यम से है. यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि यह परंपरा टैगोर के पास कहाँ से आई, किस परंपरा से आई. खुद टैगोर किस तरह के आत्मसंघर्ष और वैचारिक संघर्ष से गुजर रहे थे. इसे बताने के लिए वसुधामें प्रकाशित स्वयं के लिखे लेख नवजागरण की यात्रा में रवीन्द्रनाथ टैगोरके अंश को उद्धृत करना चाहता हूँ, “उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर में लिखे उनके लेख और बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक समय में लिखे उनके लेख अगर देखे जाएँ तो हमें रवीन्द्र नाथ के विचार में होते हुए परिवर्तन दिखलाई देते हैं, खासतौर से पूरब और पश्चिम; प्राच्य और पाश्चात्य चिन्तन के मसलों पर. 1887 में ए करेस्पोंडेंसनामक लेख में उन्होंने लिखा-जान पड़ता है कि आधुनिक विज्ञान के सारे अन्वेषण शांडिल्य, भृगु और गौतम ऋषियों को मालूम थे. दुःख है कि वेदपुराण का युग बीत  गया है. 1888  में प्रीचिंग  नामक लेख में; ‘ईसाई धर्म गिरा कर हमें अपने हिंदू धर्म की रक्षा करनी है.रवीन्द्र नाथ का यह विचार उनके 1901 के पूर्वी और पश्चिमी सभ्यतावाले लेख में और भी अधिक तीक्ष्ण होकर सामने आता है; ‘चाहे हम स्वतन्त्रता प्राप्त कर लें अथवा पराधीन ही रहें, किन्तु हमें अपने समाज में हिंदू सभ्यता को पुनर्जीवन देने की आशा कभी नहीं त्यागनी चाहिए. हमारे इतिहास, धर्म, समाज या गार्हस्थ्य जीवन में राष्ट्र निमार्ण को स्वीकार नहीं किया है.  यह विचार सरणी 1907 के बाद से परिवर्तित होता हुआ दिखलाई पड़ता है. दरअसल प्राच्यवाद से पाश्चात्यवाद की ओर रवीन्द्र नाथ का आकर्षण प्राच्यवाद की प्रबल संकीर्णता और सामंती मूल्यबोधों के कारण  कम हो रहा था और विज्ञान के विकास के साथ पाश्चात्यवाद ने तर्क की एक सरणी विकसित कर ली थी जिसमें रवीन्द्रनाथ को जनता की मुक्ति की आशा दिखलाई पड़ रही थी. दरअसल, रवीन्द्र नाथ के सामने एक बुनियादी समस्या थी कि, ‘हमारा देश सर्वदा शास्त्रों और पंडों से निर्देशित हुआ है, इसलिए विदेश से आये हुए सिद्धांतों को वेदवाक्य समझने की ही प्रवृति हममें है, क्योंकि हमारा मन आसानी से मुग्ध हो जाता है.जिसे उन्हें अपनी रचनाओं के माध्यम से हल करना था. इस लंबे उद्धरण के पीछे यह उद्देश्य है कि, जब स्वयं टैगोर के चिंतन में बदलाव और परिवर्धन के लिए संघर्ष चल रहा था, स्वयं टैगोर के प्रेरणा स्रोत में प्राच्य और पाश्चात्य की अलग-अलग बहसें थीं तो फिर उनके प्रभाव से नामवर जी के अनुसार द्विवेदी जी ने कम-से-कम हिंदी को रवीन्द्रनाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था.वह कितना मौलिक और कितना किसी दूसरी परंपराकी निर्मिति करने वाला होगा, सहज ही मन में प्रश्न उठता है. टैगोर के बाद नामवर सिंह कहते हैं कबीर के माध्यम से जाति-धर्म निरपेक्ष मानव की प्रतिष्ठा का श्रेय तो द्विवेदी जी को ही है. एक प्रकार से यह दूसरी परंपरा है . (पृष्ठ 13)  टैगोर में जाति और हिंदू धर्म को लेकर एक खास तरह श्रेष्ठता बोध रहा है , कबीर में यह नहीं है. यदि आचार्य द्विवेदी में भारतीय संस्कृति और साहित्य की समझ टैगोर से आई है और नामवर जी ऐसा मानते भी हैं तो फिर संस्कृति में शामिल धर्म और जाति का प्रश्न आचार्य द्विवेदी में टैगोर से क्यों नहीं आया होगा, इसके लिए कबीर को याद करना दरअसल आचार्य द्विवेदी को लेजिटिमेसी प्रदान करना जैसा लगता है. नामवर जी लिखते हैं, “सच कहें तो द्विवेदी जी उस तरह से हिंदी वाले थे भी नहीं” (पृष्ठ 13). यदि आचार्य द्विवेदी उस तरह से हिंदी वाले होते तो क्या, उनके संदर्भ में परंपरा की खोजका आशय कुछ और निकलता. अध्यापन के विषय अलग हो जाने और अध्ययन के विषय अलग हो जाने से क्या विचारों की निर्मिति में अंतर आ जाता है, और इस प्रकार के अंतर को साहित्य की परंपरा निमार्ण में छूट मिलनी चाहिए?
 
ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूतइस शीर्षक वाले अध्याय के तहत नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी के काशी में आने की दास्तान कही है. दास्तान कहने में उन्होंने तुलसी दास को बार-बार याद किया है. काशी ने जो पीड़ा तुलसी दास को दी वही पीड़ा आचार्य द्विवेदी को भी मिली. नामवर जी लिखते हैं. हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी अंतिम पुस्तक तुलसी दास पर लिखना चाहते थे. महाकवि का जीवन-संघर्ष उन्हें अपने ही जीवन-संघर्ष जैसा लगता था. तुलसीदास का स्मरणशीर्षक निबंध में उन्होंने इसकी और संकेत करते हुए लिखा है , “मुझे तुलसीदास का स्मरण करने में विशेष आनंद आता है.”” (पृष्ठ 20). यह जानना बेहद दिलचस्प है कि आचार्य द्विवेदी अपने शुरूआती लेखन में कबीरको रखते हैं और उनके फक्कड़पन को खुद से संदर्भित करते हैं, और अपनी अंतिम पुस्तक लिखने के लिए तुलसी दास को चुनते हैं और अपने जीवन-प्रणाली का साम्य  तुलसी दास में ढूंढते हैं. हम जानते हैं कि जिनमें वे अपने जीवन का साम्य तलाश करना चाहते हैं उनकी भक्ति संबंधी अवधारणा से खुद को अलगाते भी हैं. नामवर जी दर्ज करते हैं, “जो द्विवेदी जी को निकट से जानता है वही जानता है कि तुलसीदास की यह दुखद जीवन-कथा बहुत कुछ हजारी प्रसाद द्विवेदी की ही आत्मकथा है. बचपन की वही दरिद्रता, जवानी में काशी के पंडितों का वही घृणित विरोध और अंत में थोड़े दिनों की महंती भी वैसी ही. (पृष्ठ 21) दरअसल, यह अध्याय आचार्य द्विवेदी की व्यक्तिगत पीड़ाओं से निर्मित है जिसमें उनके द्वारा ढ़ेरों उदाहरण शिव मंगल सिंह सुमन को लिखे आचार्य द्विवेदी के पत्रों का है. मैं यहाँ नामवर जी के हवाले से आचार्य द्विवेदी द्वारा 30/05/1950 को शिव मंगल सिंह सुमन को लिखे पत्र का एक छोटा अंश उधृत करना चाहता हूँ, “रुपया तो मुझे चाहिए ही. आपको इस विषय में क्या बताऊँ. शायद आपको यह बताने की जरूरत नहीं कि यदि बिना रुपये के काम चल जाता तो मैं रुपये-पैसे के लेन-देन के चक्कर में कभी नहीं पड़ता. पर गरीब का सबसे भयंकर शत्रु उसका पेट होता है .गरीब का दूसरा दुश्मन उसका सर है जो झुकना नहीं चाहता. जो झुकना चाहता है वह भी शत्रु ही है.” (पृष्ठ 27) दूसरी परंपरा की खोजके संदर्भ से इन प्रसंगों का कोई महत्त्व मुझे समझ में नहीं आता सिवाय इसके कि आचार्य द्विवेदी किस प्रकार के द्वंद में थे. निजी और सामाजिक जीवन में द्वंद तो सभी मनुष्यों में होते हैं, लेकिन इस प्रकार के द्वंद कोई परंपरा की निर्मिति नहीं करते. अपनी किताब के इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी को, उधृत करते हैं, “1955 में अपनी पहली कृति सूर साहित्यके पुनर्मुद्रण के अवसर पर निवेदन करते हुए लिखा : पुरानी बातों को पढ़ता हूँ तो हृदय में एक प्रकार की पीड़ा का अनुभव करता हूँ. कहाँ से शुरू किया और कहाँ आ गिरा हूँ. जो होना चाहा था वह नहीं हो सका; जो सोचा भी नहीं था, उसके चक्कर में फँस गया हूँ.जाहिर है, आचार्य अपने काशी के कटु अनुभवों का स्मरण कर रहे हैं, और जैसा कि मैंने पहले कहा है यह अमूमन सभी मनुष्यों के जीवन में स्थान, काल और उसकी आवश्यकताओं के संदर्भ से कटु और मधुर अनुभव होता है. लेकिन, नामवर जी यहाँ दूसरी परंपरा की खोजमें इसे किस प्रयोजन से और क्यों क्यों शामिल कर रहे हैं. क्या व्यक्ति के होने’, ‘बननेकी दास्तान किसी परंपरा के निर्माण के लिए आवश्यक है. नामवर जी का परंपरा की खोजके संदर्भ से दूसरा तर्क द्विवेदी जी द्वारा काशी के हिंदी विभाग की बनी-बनाई परंपरा को तोड़ने की घटना से जुड़ा हुआ दिखलाई देता है. एम्. ए. के पाठ्यक्रम में निराला की कविता तुलसीदासको शामिल करने और बी. ए. की कक्षाओं के सामान्य छात्रों को प्रेमचंद के पढ़ाए जाने की बात का नामवर जी उल्लेख करते हैं. आचार्य द्विवेदी, आचार्य शुक्ल के विरोधी थे, इस प्रकार के भ्रम फैलने की बात का भी उल्लेख नामवर जी करते हैं, नामवर जी शुक्ल जी के समर्थक को रूढ़िवादी शुक्ल पूजक’ (पृष्ठ 32) कहते हैं और रामविलास शर्मा की किताब आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचनाको आड़े हाथ लेते हैं. हम नामवर जी के इस हेतु को समझ सकते हैं. परंपरा की खोजकी सार्थकता के संदर्भ से नामवर जी के इस उद्धरण को देखा जाना चाहिए जो उन्होंने आचार्य द्विवेदी द्वारा सुमन जी को लिखे पत्र के  हवाले से उधृत किया है , “मैं अच्छा आस्तिक कभी नहीं रहा हूँ. परन्तु बुरा नास्तिक भी नहीं रहा हूँ. बुरा आस्तिक दंभी होता है और बुरा नास्तिक अहंकारी. मैं तो सुमन जी, एक अद्भुत मिश्रण हूँ. मुझमे थोड़ा दंभ है, पर अहंकार कम है. कभी-कभी सोचता हूँ कि अहंकारी होता तो अच्छा था. अहंकारी अच्छा, दंभी नहीं.इस उद्धरण को पढ़ते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि संभवत: अहंकार और दंभ के इस द्वैत में कोई परंपरा निसृत होती हो, मुझे तो नहीं पता. 
              
अस्वीकार का साहस वाले अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की कबीरपर लिखी किताब और उस किताब में कबीर के फक्कड़पनको अपनी दूसरी परंपराके विश्लेषण में धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं. नामवर जी कबीरके प्रकाशन वर्ष 1942 (चौथे दशक) के इर्द-गिर्द हिंदी साहित्य में बिखरे फक्कड़पनऔर मस्तीको  बालकृष्ण शर्मा नवीन, भगवतीचरण वर्मा , हरिवंशराय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर की रचनाओं में रेखांकित करते हुए  साबित करते हैं. नामवर जी लिखते हैं, “कबीर की इस अभूतपूर्व और अभिनव कवि-प्रतिभा को ध्यान से देखे तो स्पष्ट हो जायेगा कि यह द्विवेदी जी के मनोवांछित विद्रोही कवि की अपनी कल्प-श्रृष्टि है, जिस पर बहुत हद तक चौथे दशक के फक्कड़पन की गहरी छाप है. (पृष्ठ 47) नामवर जी अपनी फक्कड़पनऔर मस्तीवाली बात को साबित करने के लिए आचार्य द्विवेदी  के निबंधों, उपन्यासों की तरफ बार-बार जाते हैं. आचार्य द्विवेदी के निबंध प्रेमचंद का महत्त्व’ (नवम्बर 1939, वीणा) में गोदान के एक मौजीपात्र मेहता के संदर्भ के सहारे नामवर जी फक्कड़पनऔर मस्तीको साबित करते हैं. वे आचार्य द्विवेदी जी के बारे में दर्ज करते हैं, “गोया वे प्रेमचंद के रूप में आधुनिक कबीर की प्रतिमा गढ़ रहे हों.” (पृष्ठ 49) आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों के पात्र वाणभट्ट, ‘चारु चंद्रलेखके सीदी मौला पुनर्नवाके माढव्य शर्मा और सुमेरु काका, ‘अनामदास का पोथाके गाड़ीवान रैक्य में फक्कड़पनऔर मस्तीके तमाम संदर्भ और उदाहरण देते हुए नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी को दूसरी परंपरामें शामिल किया है. आचार्य द्विवेदी ने अपने लेख मेरी जन्मभूमिमें अपने इलाके के निवासियों के फक्कड स्वभाव की चर्चा की है. आचार्य द्विवेदी के  निबंधों में अशोक, शिरीष, देवदारु, कुटज आदि के मस्ती में झूमते स्वभाव को नामवर जी ने फक्कड़पनऔर मस्तीकी धुरी पर कसा है. नामवर जी आचार्य द्विवेदी के लिए इस धुरी को समझाने के लिए निराला की कुकुरमुत्ता (1940), राहुल सांकृत्यायन की बोल्गा से गंगा’ (1942) को शामिल करते हुए दर्ज करते हैं, “वस्तुत बीसवीं सदी के चौथे दशक में विद्रोह फक्कड़पन के ही किसी-न-किसी रूप को लेकर साहित्य में प्रकट हुआ था.”(पृष्ठ 53 ) नामवर जी आचार्य द्विवेदी के जीवन और रचना-कर्म के सहारे फक्कड़पनको दूसरी परंपराकी विशेषता मानते हुए लगते हैं. तो क्या साहित्य का यह फक्कड़पन दूसरी परंपराका निर्माण कर रहा था?   
 
दूसरी परंपरा की खोजका चौथा अध्याय प्रेम के पुरुषार्थ का है, ‘प्रेमा पुमर्थो महान’. आचार्य द्विवेदी का यह प्रेम कृष्ण भक्ति से ग्रहण किया हुआ है. आचार्य द्विवेदी की सूरदास  सम्बन्धी स्थापना को नामवर जी प्रेम की धुरी पर घुमाते हुए उसे दूसरी परंपरा की खोजकी चाक पर चढ़ाते हैं. नामवर जी भक्तिकाव्य के सूरदास में कृष्ण के प्रति प्रेम को आचार्य द्विवेदी की रचनाधर्मिता में शामिल प्रेम के तत्व को तलाशते हैं  और इस तलाश में जगह-जगह आचार्य शुक्ल को प्रश्नांकित करते चलते हैं. वे लिखते हैं, हिंदी भक्ति-काव्य के अनेक लोकवादी मूल्यों के प्रशंसक आचार्य शुक्ल ने भी भक्तिकाव्य के प्राण प्रेमको अभारतीय कहा” (पृष्ठ 64) नामवर जी का मानना है कि ऐसा शुक्ल जी प्रेम के माधुर्य भाव को फ़ारसी परंपरा का मान लेने के कारण कहते हैं. शुक्ल जी ऐसा इसलिए भी कहते है कि, “… तुलसीदास को छोड़ कर प्राय: सभी भक्त कवियों का प्रेम एकांतिकहै.” (पृष्ठ 65) नामवर जी का मानना है कि आचार्य द्विवेदी ने प्रेम की लोकवादीभूमिका को रेखांकित किया और, “प्रेम के इसी लोक-आधार पर द्विवेदी जी ने हिंदी के भक्ति काव्य की स्वीकृतिपरक व्याख्या की है.” (पृष्ठ 67) इस तरह से आचार्य द्विवेदी एक दूसरी परंपरा का निर्माण करते हैं. प्रेम का एक लोकवादी रूप. प्रेम पाप के अर्थों में नहीं बल्कि मनुष्य के स्वभाव के अर्थों में, इस स्वभाव की स्वीकृति से ही चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है. लेकिन यह चरम लक्ष्यक्या है? कम से कम इस पुस्तक को पढ़ते हुए मालूम नहीं होता है. 
भारतीय साहित्य की प्राण-धारा और लोक-धर्ममें नामवर जी आचार्य द्विवेदी द्वारा भक्तिकाव्य की निर्मिति में शामिल प्राण तत्वों की खोजको सामने लाने का काम करते हुए दिखलाई देते हैं. इस खोज के लिए  नामवर जी दो धुरी आविष्कृत करते हैं, एक भारत में इस्लाम का प्रभावतथा दूसरा शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व’. इस्लाम के प्रभाव के संदर्भ में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की किताब हिंदी साहित्य की भूमिकासे बहुप्रचलित/ बहुउद्धृत  तर्क को प्रस्तुत करते हैं, “मैं जोर देकर कहाँ चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस (हिंदी) साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है.” (पृष्ठ 70) आचार्य द्विवेदी अपने इस तर्क को साबित करने के लिए तुलसी दास और सूर दास की कविता को आधार बनाते हैं ( स्मरण रहे यहाँ वह अपने प्रिय कवि कबीर को सामने नहीं ला रहे हैं ), नामवर जी ने इसे उधृत किया है, सूरदास और तुलसीदास आदि वैष्णव कवियों की समूची कविता में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया का भाव नहीं है.” (पृष्ठ 71). आचार्य द्विवेदी इस्लाम को प्रभावकी तरह तो स्वीकार करते हैं लेकिन प्रतिक्रियाकी तरह नहीं. नामवर जी आचार्य द्विवेदी के पक्ष में राम विलास शर्मा के तर्क को काटते हुए इरफ़ान हबीब के लेख का हवाला देते हैं . राम विलास शर्मा का मानना रहा है कि तुर्कों ने भारत में आ कर कोई युग परिवर्तन का काम नहीं किया, न उसने सामंतवाद को खत्म कर गण-व्यवस्था कायम की, न पूंजीवादी व्यवस्था. नामवर जी इसके लिए इरफ़ान हबीब के 13वीं और 14वीं सदी के संदर्भ में प्रोद्योगिकीय परिवर्तन और समाजशीर्षक शोध निबंध के ठोस तथ्यों को सामने रखते हैं, “…तुर्कों के शासन के समय भारत में वस्त्र उद्योग, सिंचाई, कागज, चुम्बकीय कुतुबनुमा, समय-सूचक उपकरण तथा घुड़सवार सेना-प्रोद्योगिकी आदि के क्षेत्रों में उल्लेखनीय विकास हुआ.” (पृष्ठ 75) नामवर जी आचार्य द्विवेदी की मान्यताओं को मजबूती से स्थापित करते हैं, वे कहते हैं, “मध्य-युग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वन्द्ध है, न कि इस्लाम और हिंदू धर्म का संघर्ष.” (पृष्ठ 78). नामवर जी इस लोक संघर्ष को वर्ग-संघर्ष के रूप में देखे जाने के लिए जान इर्विन  के लेख द क्लास स्ट्र्गिल इन इंडियन हिस्ट्री एंड कल्चरको देखे जाने की वकालत करते हैं. हम जानते हैं कि लोक-धर्म शब्द का प्रयोग आचार्य शुक्ल के बाद आचार्य द्विवेदी ने किया था , लेकिन नामवर जी आचार्य शुक्ल के लोक-धर्म को बहुत कुछ वर्णाश्रम धर्मकी तरह का मानते है और आचार्य द्विवेदी के लोक धर्म को साधारण जनों के विद्रोह की विचारधारा की तरह देखते हैं. नामवर जी अपने इस तर्क को पैना करने के लिए अंतोनियो ग्राम्शी के नोट बुक का सहारा लेते हैं, वे ग्राम्शी के किसानों और कारीगरों जैसे परम्परित वर्गों की वैचारिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखने के आग्रह को स्वीकार करते हैं और इसे आचार्य द्विवेदी के तर्क के समर्थन में खड़े कर देते हैं. दूसरी परंपरा की खोजके संदर्भ से यह एक महत्त्वपूर्ण तर्क है.  
दूसरी परंपरा की खोजका छठा अध्याय संस्कृति और सौंदर्यहै. इस अध्याय के केंद्र में नामवर जी ने आचार्य द्विवेदी के निबंधों को रखा है. इसके माध्यम से नामवर सिंह सामासिक संस्कृतिअथवा मिश्र संस्कृतिकी खोज को दूसरी परंपरा की खोजमें शामिल करते हैं. अशोक के फूलके संदर्भ में आचार्य द्विवेदी को नामवर जी दर्ज करते हैं, “एक-एक फूल, एक-एक पशु, एक-एक पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार ले कर हमारे सामने उपस्थित है . अशोक की भी अपनी स्मृति-परंपरा है . आम की भी है,बकुल की भी है, चम्पे की भी है. सब क्या हमें मालूम है? ” (पृष्ठ 86) नामवर सिंह इस निबंध के बारे में खुद कहते हैं कि यह निबंध द्विवेदी जी के शुद्ध पुष्प-प्रेम का प्रमाण नहीं, बल्कि संस्कृति-दृष्टि का अनूठा दस्तावेज है.” (पृष्ठ 87). नामवर जी इस क्रम में दिनकर की  संस्कृति के चार अध्याय’, गोविन्द चंद्र पांडे की किताब भारतीय परंपरा के मूल स्वर’, जय शंकर प्रसाद के निबंध रहस्यवादमें सामासिक संस्कृति के तत्व की तलाश करते हुए उसे आचार्य द्विवेदी की चिंतन परंपरा के विस्तार के रूप में देखते हैं. संस्कृति और सौंदर्य के सवाल पर नामवर सिंह आचार्य द्विवेदी के कुछ मौलिक निष्कर्षों को दूसरी परंपराके लिए दर्ज करते चलते हैं, वे अजंता, साँची, भरहुत के चित्रों को आर्येतर सभ्यता की समृद्धि के तौर पर देखते हैं. नामवर जी आचार्य द्विवेदी की किताब प्राचीन भारत का कला-विलास’ (1940) का जिक्र करते हुए सौंदर्यबोध की संस्कृति का उल्लेख करते हैं साथ ही उनके उपन्यासों में आये हुए तमाम नारी पात्रों के सौंदर्य के वैभव, नृत्य-कला के रूप, उसकी शोभा, सुषमा, सौभाग्य, चारुता, लालित्य, लावण्य को सौंदर्य की परंपरा में अभिहित करने के तर्क को स्थापित करते हैं. नामवर जी अपने इस अध्याय में  खोज को पुष्ट करने के लिए आचार्य द्विवेदी के तर्कों की एक कड़ी निर्मित करते हैं कि कैसे आचार्य द्विवेदी सौंदर्य को सौंदर्य न कह कर लालित्य कहना चाहते हैं. लालित्य की धारणा को आचार्य द्विवेदी भरतमुनि के नाट्य-शास्त्र से ग्रहण करते हैं. नामवर जी ने अपनी इस किताब में बताया है कि आचार्य द्विवेदी अपने अंतिम दिनों में  सौन्दर्यशास्त्र पर लालित्य-मीमांसा नाम से एक पूरी किताब लिखना चाहते थे, उस किताब के लिए केवल पांच ही निबंध पूरे हो सके थे. जाहिर है, आचार्य शुक्ल सौंदर्य और संस्कृति को ले कर एक लोकवादी धारणा लेकर चलना चाहते थे, यह उनकी लोकधर्मी परियोजना का हिस्सा था, जिसे नामवर जीदूसरी परंपराकह रहे हैं. जो लोगइतिहास को नीचे से देखने की दृष्टि के संदर्भ से बात करते हैं या गायत्री स्पिवाक अपने निबंधों में सबाल्टर्न को निरुपित करती हैं , क्या वे सभी एक भिन्न किस्म की परंपरा की बात नहीं कर रहे होते हैं.
  
साहित्य में विचारधारात्मक संघर्ष को केंद्र में रख कर नामवर जी दूसरी परंपरा की खोजकरते हैं. त्वं खलु कृति वाले अध्याय में नामवर जी शिष्ट संप्रदाय की अलंकारशास्त्रीय चिंतन पद्धति को दर्शाते हुए इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि कैसे प्रभुत्वशाली वर्ग साहित्यिक मान्यताओं को पूरे साहित्यिक समाज पर लागू करते हुए प्रभुत्व कायम कर लेता है. गौरतलब है कि इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी की आत्म समीक्षा की क्रीड़ाशीलताको ‘परंपरा की खोजके लिए धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं . नामवर जी कहते हैं,  उन के (आचार्य द्विवेदी) हाथों शास्त्र भी साहित्य बन जाता है और समीक्षा सर्जना . … किसी छंद के साथ वे इस तरह खेलते हैं जैसे अर्थक्रीड़ा में उन्हें एक मजा मिल रहा हो . ”(पृष्ठ 109 ). आचार्य द्विवेदी की किताब मेघदूत-एक पुरानी कहानी को इसी क्रीड़ा के तहत देखा जाना चाहिए.  हम जानते हैं कि देरिदा ने भीअर्थक्रीड़ाओं  या अर्थलीला की बात कही है, मैं यहाँ देरिदा के संदर्भ से विस्तार में जाना नहीं चाहूँगा, बस इतना कहना चाहूँगा कि साहित्य में शब्दों के खेल आचार्य द्विवेदी के आने से बहुत पहले से ही प्रचलन में रहा है. बस उसे कहने के तरीके और उसके संदर्भ बदलते रहे हैं.  इस तरह यह कोई दूसरी परंपराका निर्माण नहीं करता है बल्कि अध्ययन और विचार की एक अलग दृष्टि देता है. 
व्योमकेश शास्त्री उर्फ हजारी प्रसाद द्विवेदी, इस अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी के शास्त्री बन जाने की प्रक्रिया का खुलासा करते हैं, और इसके लिए स्वयं आचार्य द्विवेदी की स्वीकारोक्तियों को उद्धृत करते चलते हैं. अपने ज्योतिष गुरु के मत की आलोचना में एक लेख लिखा. अपने नाम से छपाने की हिम्मत न थी. इसलिए नाम छिपाने के लिए एक छद्म नाम चुना- व्योमकेश शास्त्री.” (पृष्ठ 111). कहते हैं कि इस लेख के बाद आचार्य द्विवेदी को एक शास्त्रार्थ के लिए बुलाया गया, भेद खुल जाने के भय से आचार्य द्विवेदी इसके समाधान के लिए रवीन्द्र नाथ टैगोर के पास गए, गुरुदेव ने क्षण-भर आँखों में देखा, फिर सहज भाव से कहा – न जाओ. तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है, उससे कहीं अधिक भय और संकोच. तुमने अपना नाम छिपाया, वहीं से गलत रस्ते पर चल पड़े.” (पृष्ठ 112 ). नामवर जी बताते हैं कि इस घटना के बाद भी कुछ ललित लेख आचार्य द्विवेदी ने व्योमकेश शास्त्री के नाम  से लिखे जो विचार और वितर्कमें संकलित है. हम जानते हैं कि वाणभट्ट की आत्मकथा और  चारु चन्द्रलेख उपन्यासों के साथ व्योमकेश शास्त्री का नाम आबद्ध है. आचार्य द्विवेदी के इस नाम के बचाव के पक्ष में नामवर जी एक महत्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत करते हैं, जो गौरतलब है,  “जब अपने छद्म नाम की समस्या को ले कर द्विवेदी जी रवीन्द्र नाथ के पास गए तो उन्होंने उनसे क्यों नहीं पूछा कि आपने भानु सिंह नाम से अपनी आरंभिक रचनाये क्यों छपवायी? रवीन्द्र नाथ ने जिस भय और संकोच का जिक्र किया था, क्या वह स्वयं अपना अनुभव था? ” (पृष्ठ 112) हम जानते हैं कि न केवल भारतीय साहित्य में बल्कि विश्व साहित्य में भी कई बार छद्म नाम से लिखने की परंपरा मिलती है. छद्म नाम से लेखक कई बार कई तरह की बात कहने का छूट ले लेता है जो वह सीधे-सीधे अपने नाम के साथ नहीं कह सकता. नामवर जी रेखांकित करते हैं कि, छद्म नाम का अगर आचार्य द्विवेदी के पास मुखौटा न होता तो क्या वे वाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा, चारु चंद्रलेख जैसे उपन्यासों मे सुकुमार-संवेदना वाली साहसिक प्रेम कहानियां लिख पाते. दरअसल , समाज में मुखौटों का एक खास महत्त्व रहा है. भरतमुनि के नाटयशास्त्र में भी मुखौटों का जिक्र प्रतिशीर्षकनाम से आया है. मुखौटों के संदर्भ में नामवर जी आस्कर वाइल्ड को याद करते हैं, “किसी सभ्य समाज में लोगों के बारे में दिलचस्प चीज है वह मुखौटा है जो उनमें से प्रत्येक धारण करता है, न कि मुखौटे के पीछे की वास्तविकता. उनकी यह धारणा थी कि मनुष्य जब स्वयं बोलता है तो अपने असली रूप में नहीं होता.” (पृष्ठ 115) आचार्य द्विवेदी द्वारा छद्म नाम धारण करना दरअसल, हिंदी साहित्य में लेखन के औजारों का एक प्रतिसंसार रचता है, एक ऐसी दुनिया की निर्मिति जिसमें कहने की छूट का अवकाश हमेशा बना रहे, लेकिन यह यहाँ कहना जरुरी है कि मात्र इस आधार पर इसे दूसरी परंपराकहा जाए, एक सरलीकृत बयान भर होगा, और कुछ नहीं.  
दूसरी परंपरा की खोजमें आचार्य द्विवेदी के बदल देने वाली दृष्टि के उन्मेष की खोजको साबित करने के लिए नामवर जी आठ अध्यायों की इस पुस्तक में हर अध्याय के लिए एक धुरी आविष्कृत करते हैं.  धुरी पर नामवर जी अपने  चिंतन के चक्र को आचार्य द्विवेदी के इर्द-गिर्द घुमाने की सुविधा अर्जित करते हैं. पहले अध्याय में आचार्य द्विवेदी  के बनने’,  ‘होने में  रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रभावों  और शांति निकेतन  के महत्त्व को धुरी की तरह रेखांकित किया है तो दूसरे अध्याय में आचार्य शुक्ल के निजी जीवन के संघर्षों, अनुभवों को (विशेषकर काशी के संदर्भ में) स्थापित करने के लिए नामवर जी तुलसी दास के संघर्षों को अपने विश्लेषण के लिए धुरी बनाते हैं. नामवर जी, तीसरे अध्याय में आचार्य द्विवेदी की रचनाओं और उनके जीवन की दास्तान कहने के लिए कबीर को याद करते हैं; और कबीर के फक्कड़पन को आचार्य द्विवेदी के फक्कड़पनसे जोड़ते हैं. नामवर जी  के लिए फक्कड़पनएक अगली धुरी है. आचार्य द्विवेदी की रचनाओं में प्रेम के लोकवादी स्वरूप को जिसका आधार वे कृष्ण के प्रेम का लेते हैं. यह प्रेम वह है  जिसे सूर दास ने अपनी रचनाओं में दर्ज किया है . नामवर जी इसी प्रेमको अपनी एक और धुरी बनाते हैं. आचार्य शुक्ल की भक्ति काव्य की उद्भव सबंधी धारणाओं को समझाने के लिए नामवर जी दो धुरी बनाते हैं, एक इस्लाम के प्रभाव को और दूसरा शास्त्र तथा लोक के बीच के द्वंद्व को. द्विवेदी जी की रचनाओं में निसृत सामासिक संस्कृति की समझ को दूसरी परंपराकी कोटि में लाने  के लिए  नामवर जी द्विवेदी जी के सौंदर्य/ लालित्य को धुरी बनाते हैं. साहित्य और जीवन में विचारधारात्मक संघर्ष को द्विवेदी जी की रचना से जोड़ते हुए नामवर जी आचार्य द्विवेदी की क्रीड़ाशीलताको ‘दूसरी परंपरा के विश्लेषण के लिए धुरी बनाते हैं. अपने अंतिम अध्याय में नामवर जी आचार्य द्विवेदी के व्योमकेश शास्त्री बन जाने की  साहित्यिक मज़बूरी और जरुरत को रेखांकित करने के लिए मुखौटे की धारणा को धुरी की तरह इस्तेमाल करते हैं. इन धुरियों का निर्माण नामवर सिंह की आलोचना का रण-कौशल है, व्यूह रचना है. तमाम सहमतियों और असहमतियों के बाद भी आलोचना में एक उस्तादकी तरह नामवर जी का बर्ताव उनकी खासियत है और उनकी सीमा भी.
         
नामवर जी जब आलोचनापत्रिका का पहली बार जुलाई-सितम्बर 1968 में  संपादन कर रहे थे, तब उन्होंने अपने पहले सम्पादकीय में लिखा था दरअसल विरोध की राजनीति का भी क्रमशः एक अपना रेटारिकबन जाता है- फिर वह विरोध चाहे जितना निजीहो; और नहीं तो अपनी ही आवृति होने लगती है.दरअसल, ‘रेटारिकका अपना एक वजूद होता है, मोटे तौर पर रेटारिकको  अठारहवीं सदी के बाद नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा था. टेरी इग्लटन इसकी पुनर्स्थापना करते हैं, वे मानते हैं कि ‘रेटारिक भाषा में अनुरोध,मनाने और बहस करने की गुणवत्ता का अध्ययन किया जाता थाउसे हमें एक नया संदर्भ देना होगा. हमें इस विश्वास की और लौटना होगा कि आधुनिक विमर्श मानवीय नियति के बदलाव की चिंताओं से जुड सकता है. तमाम तरह के विमर्श, संकेत-चिन्हों का अध्ययन और संरचनात्मक चीर-फाड़एक जरुरी कार्य है. और यह कार्य बदलाव से जुड़ा है. इसलिए कोई भी विरोध और प्रतिरोध को इन्हीं बदलावों के संदर्भ से समझा जाना चाहिए न कि किसी प्रकार के हमले की तरह.  आचार्य दिवेदी की कबीरपर लिखी किताब निश्चित ही हिंदी साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, आचार्य शुक्ल से भिन्न यह कबीर पर सोचने और तक करने की नई दृष्टि देता है लेकिन इस आधार पर नामवर सिंह का यह कहना, “‘कबीरके साथ एक भिन्न परंपरा ही नहीं आती, साहित्य को जांचने-परखने का एक प्रतिमान भी प्रस्तुत होता है.और यह भी कहते हैं, “इस चिंतन क्रम में द्विवेदी जी जहाँ परंपरा से प्राप्त हिंदी साहित्य के इतिहास के मानचित्र को बदलकर एक दूसरा मानचित्र प्रस्तुत करते हैं.” (पृष्ठ-17) तो सहज ही मन में प्रश्न उठता है कि क्या हिंदी साहित्य की सम्पूर्ण विकसनशील पद्धति को किसी एक व्यक्ति के चिंतन-ढांचे के आधार पर संकुचित कर दिया जाना चाहिए, और यह भी सवाल उठता है कि यह दूसरा मानचित्र क्या है? यह मानचित्र वही तो नहीं जो नामवर जी ने आठ अध्यायों में कही है. ऊपर आठ आध्ययों के बारे में लिखते हुए मन में यह विचार बार-बार आता रहा कि यह एक शिष्य का अपने गुरु के प्रति आदर दर्शाने का माध्यम मात्र है; जैसे १९८२ के लगभग तीस वर्षों बाद २०१२ में विश्वनाथ त्रिपाठी ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण करते हुए व्योमकेश दरवेशलिखी. नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी दोनों आचार्य द्विवेदी के शिष्य रहे हैं. भिन्न समय में लिखी दूसरी परंपरा की खोज’  और व्योमकेश दरवेशका तुलनात्मक अध्ययन करना संभव है हमें आचार्य द्विवेदी को ले कर एक भिन्न किस्म का निष्कर्ष प्रदान करे.
इस लेख को अंत करने से पहले मैं फिर से लौटना चाहता हूँ इस किताब की भूमिका की तरफ, लेकिन इससे पहले टेरी ईग्लटन की इस बात की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूँ, “…साहित्यक अध्ययन में पद्धतिके बजाय वस्तुमहत्त्वपूर्ण होती है. वस्तु ही विमर्श को विशिष्ट और असीमित बनाती है. आज कृति में हम वस्तुको स्थिर कर जीवन-वृत्त की पद्धति से मिथकों की पद्धति तक और वहाँ से वाक्य-संरचना की पद्धति तक आ-जा रहे हैं लेकिन हासिल कुछ नहीं होता.भूमिका में नामवर सिंह अपनी इस किताब के बारे में लिखते हैं, कि इसमें न पंडितजी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास.तो इसमें क्या है , इसमें है एक व्यक्ति के बदल देने वाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज यानि एक व्यक्ति का जीवन-वृत्त. जाहिर है इस कृति में वस्तु  आंशिक रूप में ही आया. कहा भी जाता है कि यदि किसी भी कला-रूप से/ में  वस्तुऔर विचारके स्थान पर ध्वनिऔर विचार अभिव्यक्त होने लगें तो ऐसे में वह कला-रूप चाहे जो कुछ भी रहे, एंटी डायलेक्टिककलहो जाता है. कहते हुए थोड़ा भयभीत होता हूँ कि क्या नामवर जी की दूसरी परंपरा की खोज’ ‘एंटी डायलेक्टिकल है? क्या आचार्य द्विवेदी की ऐसी छवि प्रस्तुत की गई है जो वास्तविकता से दूर है. मैं एक बार फिर से सूसन सौंटैग, वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो  के ऊपर दिए उद्धरणों को पढ़ने की अपील करता हूँ.  
माफ कीजियेगा यदि मेरा यह लेख नामवर सिंह की दूसरी परंपरा की खोज  के संदर्भ में आह-आह’, ‘वाह-वाह’, ‘अरे-अरे’, ‘अहो-अहोकी श्रेणी में न आ सका हो. 
आखिर में दूसरी परंपरा की खोजपर अपनी बात खत्म करते हुए निम्न पंक्ति को उद्धृत करता हूँ, बिना कोई संदर्भ कहे – 
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी
प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है
मेरे लिए अन्न है
अमरेन्द्र कुमार शर्मा

सम्पर्क –
अमरेन्द्र कुमार शर्मा  09422905755
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा


(इस पोस्ट में प्रयुक्त नामवर जी के चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं.)



[i][i] कहाँ आते मुयस्सर , तुझसे , मुझको खुदनुमा इतने
हुआ यूँ इत्तिफ़ाक , आईन: मेरे रु-ब-रु टूटा ; दीवाने-ए-मीर; संपादक- अली सरदार जाफरी,राजकमल प्रकाशन,पहली आवृति 2003 ,पृष्ठ 101

समीर कुमार पाण्डेय की कविताएँ।


समीर कुमार पाण्डेय

महान बांग्ला कवि चंडीदास ने कहा था ‘सबसे ऊपर मानव-सत्य है, उस से ऊपर कोई नहीं।’ एक कवि के साथ-साथ किसी भी समय-समाज के मनुष्य के लिए इससे बड़ा सत्य और कुछ हो भी नहीं सकता। लेकिन इस संसार में होता है ठीक इसका उलटा। सारे ताम-झाम में मनुष्यता सबसे पीछे हो जाती है और मानवीय दम्भ ऊपर हो जाता है। कहीं यह दम्भ ज्ञान का है, तो कहीं आभिजात्यता का। कहीं (जातीय/नस्लीय) बड़प्पन का झूठा दम्भ है तो कभी संपत्ति का अहमकपना। यह सुखद है कि हमारे युवा कवियों में चंडी दास की बात आज भी सूत्र-वाक्य की तरह सुरक्षित है। तभी तो युवा कवि समीर कुमार पाण्डेय लिखते हैं ‘किसी भी देश से बड़ा है/ एक मनुष्य/ जैसे कि भविष्य से बड़ा है/ एक वर्तमान।’ समीर गाँव में रहते हुए अध्यापन से जुड़े हैं और अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं। समीर की कविताएँ आप पहले भी ‘पहली बार’ ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं। आइए आज एक बार फिर पढ़ते हैं संभावनाशील युवा कवि समीर कुमार पाण्डेय की कुछ बिल्कुल नयी कविताएँ।

             
समीर कुमार पाण्डेय की कविताएं

 
बड़ा होना

बड़ा वो नहीं
जो दिखाई दे बड़ा
जैसे-पहाड़, आसमान और देश….
किसी भी देश से बड़ा है
एक मनुष्य
जैसे कि भविष्य से बड़ा है
एक वर्तमान
पर तभी
जब मनुष्य देश का
और वर्तमान भविष्य का बोझ लिए
घर से निकले तो
जमीन पर धूप के बारे में जरूर सोचे….
पूरी दुनियां में सबसे बड़ा है
मेहनतकश मजूर
जो याचक नहीं
लुटेरा नहीं
कहीं अड़ा नहीं
बस अपने छोटे पैरों पर खड़ा है…..।

जरुरी नहीं है


जो उड़ते हैं
जरुरी नहीं पंछी ही हों
जो तैरते हैं
जरूरी नहीं मछली ही हों
जो तेज दौड़ते हैं
जरुरी नहीं चीते ही हों
जो जन की बात करते हैं
जरुरी नहीं जन-हितैषी ही हों
जो समर्थन में हैं
जरुरी नहीं सब देश-भक्त ही हों
जो विरोध में हैं
जरूरी नहीं सब देश-द्रोही ही हों….।

मरना


मरे हुए देश में
यूँ तो रोज ही मरते हैं लोग
पर उसका मरना बर्दाश्त से बाहर था
उसी के सहारे
बचा था यह देश
टिकी थी माँ की सूखी आँखे
खड़ा था लाठी टेकता बूढ़ा बाप
वह मासूम बच्चा
उसकी जलती नव-व्याहता…।


ईमान के बिना


कोई भी नक्शा खींचें
अगर उसमें
एक तरफ अँधेरा हो
दूसरी तरफ लकलक उजाला
नदी, पहाड़ और झरने हों
तो नयी दुनिया गढ़ने की बात गल्प ही है
मुग़ालते में न रहें
साँप सी आड़ी-तिरछी
रेखाओं को खींचने से पूर्व
सारा जहर उगल अहमक बनना होगा
अन्यथा पहचान भूल जाओगे
आग, रोटी, कविता छोड़ो
गाँव-घर का पता भी भूल जाओगे…।

सम्भावना


उल्टी हवाओं में भी
जूतों पर नहीं
अपने पाँवों पर भरोसा हो
दर्द छलकता हो
जिन कुनमुनाती छातियों में
आँखें बची हों
सुर्ख लाल डबडबा कर कर भी
मौत के ठीक पहले
मरीज को बेहोश किये बगैर
जिंदगी के लिए ऑपरेशन कर दिया गया हो
जहाँ विद्रोह नहीं
खून देख कर दर्ज होती हो सूची
खाली आँखों से नहीं
आँसुओं से देखा जा रहा हो फलक को
जहाँ अनुवाद में नहीं
आँसुओं में तैरते हों हत्यारे
वहीं कुछ न कुछ बचा रहता है हमेशा
और उन्हीं आँखों में
रोशनी की सम्भावना भी बनी रहती हैं….।

साधारण असाधारण के बीच

मैं धरती पर
एक साधारण किसान मजूर के घर जन्मा
एकदम साधारण जीवन जिया
साधारण लोक-धुनों को भीतर तक उतारा
साधारण पानी की बूँदों
और साधारण फूलों की गंध को महसूस किया
एक-एक निवाले और साधारण भूख की भूख को समझा… ।
जिसे मैंने
आजाद मुल्क समझा
जिसकी असाधारणता से बौराया
कौशल से अपनी मिट्टी को भुला कर
मन को गिरवी रख उजाले की तरफ भागा
वहाँ पहुँच कर
मुझे भय मिश्रित आश्चर्य हुआ
वहाँ भाषा नहीं सिर्फ असाधारण शोर था
और तो और उस उजाले के भीतर घोर अँधेरा भी था….।
साहस

साथियों!
यह युद्ध
सतयुग का युद्ध नहीं है
पर अब भी युद्ध
सत्य के भरोसे
भ्रष्ट और चोर समय से
पूँजी नामक राक्षस के रचे असत्य-व्यूह से है…
पर जितना
यह समय इन क्रूर लोगों का है
उतना ही
हमारा अपना भी है….
याद रखो
मौसम नहीं बदलना है
साहस से मैदान में डटे रहना ही
सत्य और शांति के पक्ष में सबसे बड़ा युद्ध है…।

लड़ाई

हमें पता था
हम हार जायेंगे
क्यों कि
हवाओं का रंग धूसर था
कद बढ़ाने खातिर
अपने-अपने दर्शन गढ़ लिए थे लोगों ने
आदमी ही आदमी का सबसे बड़ा शत्रु था
और तो और इस झूठ को ही
वर्तमान का सबसे बड़ा सच माना जाता था….
क़ानूनी मलवों में
क्षुद्र शब्दों के भार से
चिचियाता रहता था संविधान
बोलने के पहले
दूसरों का मुँह देखने का चलन था
फिर भी
अपनी ही कविताओं से
धारा के विरुद्ध जा कर
मामूली लोगों के लिए लड़े
ऐसे झूठे समय में
पागलपन ही कहा था साथियों ने
कि उम्र भर की पूंजी
रिश्तों और काबिलियत को दाँव लगा कर
रण-भूमि में झोंक देना चतुराई नहीं होती…….।

पराजय के वक्त


वह दौड़ में
आगे निकल चुका था
उसकी शक्ल से
चिपटी पड़ी थी लोभ की संस्कृति
होठों से रिस रही थी शातिर हँसी
जिसमें रह-रह कर झलक जाता था खून
वह मरोड़ सकता था इतिहास का सिर
क्योकि उसका दायां हाथ पूँजी था
और बायां भय-मिश्रित चाटुकारिता….।
यहाँ कुछ नया नहीं था
पराजय पहले भी हुई थी
पहले भी अन्याय
सामर्थ्य के सिंहासन के नीचे दुबका पड़ा था
पहले भी झूठ पर हुआ था जयघोष
पहले भी कुत्ते दुम ही हिलाया करते थे
मनुष्यों के चरित्र को देख कर
पहले भी गिरगिटों ने की थी आत्महत्या….।
शायद
वे भूल रहे थे कि
यह धरती बाँझ नहीं है
भ्रष्ट दलदल में फँसे होने के बावजूद
कर्म और श्रम का मामूली संघर्षशील बीज
किसी वक्त निकल आएगा
भाग्य या करिश्मे से नहीं
केवल तन कर खड़े भर हो जाने से ही…..।

  धरती का संगीत


जब इच्छाओं का घेरा
चमड़ी के नीचे
नसों के चटकने तक का तनाव दे रहा हो
मन बहक चला हो आकाश में
पैरों तले खिसकने लगी हो उर्वर जमीन
तब मन को थिर कर के
मिट्टी में
अपने ही पैरों पर
नाखून गड़ा कर खड़े रहो…..।
धरती को
ऊसरता या कठोरता से
मत आँको
धीरे-धीरे महसूस करो
यह सजल धरती कैसे हाँफ रही है… ।
सुर्ख शोर से
खुद को बचा कर
धरती के भीतर की आवाज
बस कान लगा कर सुनो-
थके बैलों के खुरों का संगीत
बच्चों की किलकारियों की गूँज
किसानों की अधूरी उम्मीदों का आख्यान
अपने पुरखों के दर्द का आर्त-स्वर
जल का अनुनाद
मिट्टी से बाहर आने को आतुर
बीज की कसमसाहट का स्नेहिल संगीत….।

किसान : खुद के खिलाफ


धरती पर
जैसे बच्चों के लिए
थनों में उफ़न उठता है दूध
वैसे ही आसमान में
बादल निचुड़ कर
बुझाते हैं धरती की प्यास….
इस मधुर रस से
निर्मल हास भर जाता है बच्चों
किसानों, चिरई-चुरुंग, ताल-तलैयों में
ताल के धान
पानी में खड़े हो कर
पानी के ही खिलाफ
सिर उठाये अडिग खड़े रहते हैं
उत्सवी माहौल में….
फसलों के
झुक जाने पर
झुक जाता है किसान
खुद के ही खिलाफ चिलम की आग पर
नगाड़े की धुन पर
लहक उठता है किसान धुप्प अँधेरे में….।

सम्पर्क

ई-मेल : samirkr.pandey@gmail.com

मोबाईल – 9451509252

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

रमाशंकर सिंह का आलेख ‘उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि’

रमाशंकर सिंह

घुमन्तू जातियाँ जो आमतौर पर मानव के प्रचेनतम रूप को अभिव्यक्त करती हैं, मनुष्यता की धरोहर हैं इनकी अपनी एक पुष्ट संस्कृति और भाषा होती है आधुनिकता की मार से ये जातियां सर्वाधिक प्रभावित हुईं हैं और प्रभावित हुई है इनकी संस्कृति और भाषा भी तुर्रा यह कि दुनिया की तथाकथित सभ्य जातियों ने इन्हें आपराधिक जातियों की सूची में रख कर इनके साथ सदियों से अमानवीय व्यवहार किया और ये लोग इसे सहते रहे। हमारी मानवता को विकसित करने और एक नयी दिशा प्रदान करने में इनकी भूमिका असंदिग्ध हैयुवा साथी रमाशंकर सिंह ने हाल ही में इन घुमन्तू जातियों पर एक महत्वपूर्ण शोध-कार्य सम्पन्न किया है उनके शोध का क्रम अनवरत अभी भी जारी है। वैसे भी इस दुनिया में ‘परफेक्ट’ जैसा कुछ होता नहीं है। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं रमाशंकर सिंह का महत्वपूर्ण शोध आलेख ‘उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि’।       


उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा और उसकी विश्व-दृष्टि

रमाशंकर सिंह  

भाषा एक आवाज में नहीं होती है। विभिन्न आवाजें मिल कर भाषा का निर्माण करती हैं। इन आवाजों को विभिन्न समयों में सुनने का प्रयास किया जाता रहा है लेकिन यह श्रवण चयनात्मक रहा है। आधुनिक समय में मुद्रण, संसाधन और वितरण की तकनीक की सुलभता के कारण उन समुदायों का ही साहित्य और इतिहास प्रकाश में आ पाया है जिन तक औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक बौद्धिक समुदाय पहुँचे हैं। घुमन्तू समुदाय इस पहुँच से दूर रहे हैं। उत्तर भारत के साहित्य में स्त्री साहित्य, दलित साहित्य और आदिवासियों के साहित्य की बात की जाती रही है लेकिन इस सबके बीच घुमन्तू समुदायों के बारे में लगभग न के बराबर लिखा गया है। इसका एक कारण अकादमिक उपेक्षा तो है ही इन समुदायों की लिखित ज्ञान’ से दूरी भी है। इसलिए सुविधाजनक तरीके से मान भी लिया गया है कि इन समुदायों की अपनी कोई संख्या पद्धति, संसार के प्रति नजरिया, भाषा और साहित्य नहीं है।

उत्तर प्रदेश के घुमन्तू समुदायों की भाषा

उत्तर प्रदेश में कई ऐसे समुदाय हैं जो सदियों से घुमन्तू जीवन जीते हैं। ये समुदाय हैं- नट, चमरमंगता, पथरकट और महावत। इसमें नट, चमरमंगता और महावत में एक समानता है कि वे भैंस-भैंसों का व्यापार करते हैं और जड़ी-बूटी का काम करते हैं। चमरमंगता बारहों महीने भिक्षावृत्ति करते हैं। पथरकट पत्थर का सिल लोढ़ा बना कर बेचते हैं और वे जंगलों आदि से शहद निकाल कर बेचते हैं। नट और महावत कुश्ती भी सिखाते रहे हैं। महावत औरतें दाँत झाड़ने का काम और कान साफ करने का काम करती हैं। वे भैंस और भैंसो के व्यापार और उनके गर्भाधान का काम अभी भी करते हैं। पिछले कुछ वर्षां में गाँवों के अंदरूनी इलाकों में भी सरकारी पशु अस्पतालों और बाएफ के प्रवेश ने उनके इस रोजगार को प्रभावित किया है। जिम, शक्तिवर्द्धक दवाओं तथा फिल्मी सितारों से प्रभावित युवा कुश्ती में कोई रूचि नहीं रखते हैं और लाठी को पिस्तौल या बन्दूक ने निष्प्रयोज्य बना दिया है।

घुमन्तू समुदायों की भाषा का आंतरिक परिसर

प्रत्येक समुदाय अपनी अंदरूनी दुनिया में एक भाषाई परिसर में जीवित होता है। पढे लिखे और स्थायी जीवन जीने वाले समुदाय प्रिंट-कल्चर में मुद्रित ज्ञान और भाषा को न केवल अपना ज्ञान और भाषा बना लेते हैं बल्कि इसके द्वारा एक संरचनात्मक श्रेष्ठता बोध भी स्थापित करने का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर घुमन्तू समुदाय अपना ज्ञान और अपनी भाषा अपने गीतों, कथाओं और किंवदंतियों में सुरक्षित और परिवर्धित करता चलता है। इसमें समुदाय की महिलाएँ और वृद्ध एक सांस्कृतिक क्यूरेटर की भूमिका निभाते हैं। महावत समुदाय में महिलाएँ कथा कहती हैं। प्रायः वे दस के समूह में गोल घेरा बना कर बैठती हैं। सबसे सयानी महिला कथा शुरू करती है। कथा के मध्य में अन्य महिलाएँ भी इसमें कथा-सूत्रों को जोड़ती रहती हैं। इसके लिए वे अपने आपको तैयार करती हैं। एक दूसरे को न्यौता भेजा जाता है। आपस में गुड़ या मिठाई बँटती हैं। इन कथाओं को एक विशेष अवसर पर सबको सुनना होता है तो बिना अवसर के इन्हें सुनना या सुनाना गुनाह माना जाता है। प्रिंट कल्चर आने के बाद कुछ कथाएँ छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में भी छपने लगी हैं। उत्तर प्रदेश में महावत इस्लाम धर्म को मानते हैं। इसलिए इनकी कथाओं में मोहम्मद साहब और उनसे जुड़े पवित्र कथानकों के अंदर महावत कथा-वाचक स्थानीय कथाओं को पिरो देते हैं। इसलिए यह कथाएँ रस्सी की एक लट के ऊपर दूसरी लट के लिपट जाने जाने जैसी प्रतीत होती है। यह कथाएँ एक ही समय में दो कथाएँ कहती हैं- एक मोहम्मद साहब की तो दूसरी इस समुदाय की।

उत्तर प्रदेश के नटों में कथा कहने और सुनने की दूसरी व्यवस्था है। समुदाय का पुरोहित, सोखा या कोई बड़ा-बूढ़ा कथा कहता है। महिलाएँ भी कथा कहती हैं। बहेलिया समुदाय और पारधी समुदाय में भी लगभग ऐसी ही व्यवस्था होती है। यह दुनिया कैसे बनी? इस दुनिया को कौन लोग चलाते हैं? समुदाय का नामकरण कैसे हुआ या जिस स्थान पर इस समय बसे हुए हैं, वहाँ पर कैसे आये? इस बात पर कथाएँ सुनायी जाती हैं। इन कथाओं में एक विश्व-दृष्टि होती है जिसमें परिवार, समुदाय या दुनिया को बचाने, उसे अधिक समतापूर्ण बनाने, संपत्ति के न्यायपूर्ण वितरण, मित्रता और आपसी भाईचारे की अविभाज्यता के संकेत छिपे होते हैं। इन कथाओं के अंदर इन घुमन्तू समुदाय के अस्तित्व में बने रहने की जुगत भी छिपी होती है। यह कथाएँ समूह में सुनी और सुनाई जाती हैं इसलिए एक ही समुदाय के अंदर इसके कई वर्जन होते हैं। एक ही कथा अलग-अलग समुदायों में पायी जा सकती है विशेषकर उन घुमन्तू समुदायों में जो दूसरे समुदायों से आर्थिक क्रिया कलापों से जुड़े होते हैं। जैसे उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति में शामिल किये गये बहेलिये और मध्य प्रदेश के मोघिया आपस में जुड़े हैं, विशेषकर दोनों प्रदेशों के सीमावर्ती जिलों में। उत्तर प्रदेश के बहेलिया समुदाय के लोग कंजर समुदाय के लोगों से पशुओं और पक्षियों का व्यापार करते हैं। इस प्रकार एक ही कथा मोघिया, बहेलिया और कंजर समुदाय में थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ पायी जा सकती है।
 
मित्रता और आपसी सौहार्द्र के लिए सुनाई जाने वाली इन कथाओं में पंचतन्त्र के कथा-शिल्प की झलक मिल सकती है जो जो इन कथाओं की एक लंबी श्रुति परम्परा की ओर इशारा करती हैं। उत्तर प्रदेश के नट समुदाय में एक कथा मिलती है। कथा कुछ यों सुनाई जाती है कि एक मोर था। एक तीतर था। दोनों हमेशा साथ रहते थे। एक बार दोनों में इस बात पर झगड़ा हो गया कि किसके पंख सबसे सुंदर हैं। जब कोई निपटारा नहीं हुआ तो वे अलग हो गये। अलग होकर दोनों दुःखी रहने लगे। इसी बीच एक दिन कुछ महिलाएँ जा रही थीं। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो वह मोर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह मोर नहीं है। यदि वह मोर होता तो उसके पास में तीतर भी होता। मोर को बहुत दुःख हुआ। उसने महिलाओं से कहा कि उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना मोर का मन नहीं लगता। उसने महिलाओं से कहा कि यदि उसे कहीं तीतर दिखाई पड़े तो यह बात उसे बता दें। महिलाओं को कुछ दूर आगे जाने पर तीतर दिखाई पड़ा। एक महिला ने दूसरी से कह कि देखो वह तीतर है। दूसरी महिला ने कहा कि नहीं वह तीतर नहीं है। यदि वह तीतर होता तो उसके पास में मोर भी होता। अब तीतर को बहुत दुःख हुआ। तीतर ने महिलाओं से कहा कि उसने अपने मित्र को रूष्ट करके ठीक नहीं किया। उसके बिना तीतर का मन नहीं लगता। जब महिलाओं ने बताया कि मोर के साथ भी ऐसा ही है तो तीतर मोर के पास चला गया। दोनों ने एक दूसरे से माफी मांगी। वे साथ-साथ रहने लगे। इस सामान्य सी कथा को कह कर समुदाय के बड़े-बूढ़े समुदाय के आपसी संबंधों और दोस्तियों को बचाने की जुगत खोजते हैं। वास्तव में आदिवासी और घुमन्तू समुदाय अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए न केवल कथा-कहानी और गीतों की रचना करते हैं बल्कि अपने सामुदायिक जीवन में एक दूसरे को स्वीकारने की विधियां भी ईजाद कर लेते हैं।
घुमन्तू समुदायों के भाषाई परिसर का विस्तार 

उत्तर प्रदेश में घुमन्तू समुदाय स्थायी रूप से बस रहे हैं। महावत, नट, पथरकट और कंकाली कहे जाने वाले समुदाय ऐसे समुदाय हैं जिन्हें स्थानीय प्रभुत्वशाली जातियों ने बागों, खाली पड़ी जगहों, ग्राम-समाज की जमीनों और चकबंदी से निकली जमीनों पर बसाया है। 1992 के बाद पंचायती राज व्यवस्था के आने के बाद वे ग्रामीण उत्तर प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण हो गये हैं। उत्तर फैजाबाद जिले में एक जगह है बड़ागाँव। यहाँ महावतों का एक बड़ा डेरा है। यहाँ से वे समीपवर्ती जिलों में आते जाते रहते हैं। उनका एक जत्था आज से कोई 80 वर्ष पहले गोण्डा जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर आदमपुर गाँव में बस गया। वहाँ के एक जमींदार ने उन्हें माफी के रूप में कुछ बीघे जमीन दी थी। जब यहाँ इनकी जनसंख्या बढ़ने लगी तो घुमन्तू स्वभाव के होने के कारण वे वहाँ से लगभग 14 किलोमीटर दूर सिसई ग्राम सभा में एक बाग में बसना प्रारम्भ हो गये। यह लगभग 40 साल पहले की बात है। सन् 2005 में जब उत्तर प्रदेश में पंचायतों के चुनाव हो रहे थे तो उनका मतदाता पहचान पत्र सिसई ग्राम सभा के निवासी के रूप में बना। वे ग्राम सभा की बंजर जमीन पर बसे हैं। पानी पीने के लिए एक इण्डिया मार्का पंप लगा है। अभी उनको इन्दिरा आवास योजना, जिसे सामान्य बोल-चाल की भाषा में कालोनी कहा जाता है, की सरकारी स्वीकृति के इन्तजार में है। उनके टोले में 20 से अधिक वोट होने के कारण उन्हें लगता है कि देर-सवेर गाँव का कोई न कोई प्रधान उनकी बात सुनेगा और उनके लिए कुछ न कुछ करेगा। उनकी बस्ती में ही दो सरकरी स्कूल हैं। एक प्राथमिक विद्यालय और दूसरा लघु माध्यमिक विद्यालय, फिर भी महावतों के कुछ बच्चों का स्कूल में नामांकन होने के बावजूद वे स्कूल नहीं जाते हैं। अध्यापक कहते हैं कि वे आना नहीं चाहते और महावत कहते हैं कि अध्यापक उनके बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। बच्चे कहते हैं कि उन्हें स्कूल अच्छा नहीं लगता। आखिर उन्हें स्कूल की दुनिया अपने डेरे से अच्छी क्यों नहीं लगती? स्कूल के अन्य बच्चों की तुलना में वे बहुत गरीब हैं और उनके माता-पिता अभी समझ को हासिल करने में सक्षम नहीं हो पाए हैं कि शिक्षा से ही उनकी आर्थिक और सामाजिक अपवंचना को न्यूनतम किया जा सकता है। इस के अतिरिक्त एक कारण यह है कि इन बच्चों की दुनिया उस दुनिया से बहुत अलग है जहाँ से स्कूल के अन्य बच्चे सम्बन्ध रखते हैं। इनकी दुनिया में मुर्गे, कुत्ते, भैंस-भैंसा और इससे सम्बन्धित चीजें हैं जिन से वे अपनी बोली के द्वारा बहुत गहरे तक जुड़े हैं। प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री और प्रशासक के. एस. सिंह के सम्पादन में प्रकाशित इण्डियाज कम्युनिटीज तो कहती है कि वे हिन्दी बोलते हैं और देवनागरी लिपि का प्रयोग करते हैं  लेकिन अधिकांश महावत पढ़े लिखे नहीं हैं और वे हिन्दी से भिन्न एक अलग प्रकार की भाषा का अपने दैनिक जीवन में बरताव करते हैं।

भाषा जीविका का हथियार है। उपेक्षित और परिधीय समुदाय अपनी जीविका के लिए विशिष्ट कूट भाषाओं की भी रचना करते हैं। इलाहाबाद और बनारस के निषादों तथा पंडों ने अपनी एक कूट भाषा विकसित कर ली है। इस बात पर विवाद हो सकता है कि यह भाषा है कि नहीं लेकिन इतना स्पष्ट है कि अपने दैनिक जीवन में वे इसका प्रयोग अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए करते हैं। यदि कभी आप इलाहाबाद में गंगा-यमुना के संगम पर जाएं और थोड़ा ध्यान से सुनें तो पाएँगे कि पंडे और नाव चलाने वाले अपने समुदाय के अंदर बहुत ही मद स्वर में कुछ वाक्यों या वाक्य खंडों में बातचीत करते हैं। इस बातचीत में दो समानांतर धाराएँ होती हैं। एक धारा वह होती है जब वे समझ में आ सकने वाली स्थानीय हिन्दी भाषा में बात करते हैं- बाबू जी….संगम-संगम….. पूरी नाव किराये पर लेंगे कि अन्य सवारियों के साथ चलिएगा….आने जाने का 200 रूपया….. बिल्कुल संगम तक चलेगें…… त्रिमुहानी तक….. अरे आप कम दे दीजिएगा…. जो समझ में आएगा वही दीजिएगा। यह भाषा हमें समझ में आती है। बिल्कुल इसी समय वे एक दूसरी भाषा में आपस में बातचीत करते हैं। इसका स्वर धीमा होता है। इस बातचीत में निषाद सवारियों के बारे में आपस में बात करते हैं। जो निषाद पहले किसी सवारी के पास पहुँचता है, वह सवारी से मोल-भाव करता है। यदि सवारियों का कोई बड़ा समूह आ पहुँचता है तो कई लोग एक पूर्वनिश्चित पेशेवराना समझ के अनुसार बात करने लगते हैं। इस बातचीत को यदि सुनें तो कुछ इस प्रकार की वाक्य संरचना सामने आती हैः- चौकड़ मांजी…. चौकड़ मांजी… फुलान पखियारी…. हातो सुनरैया कछान कर। बहुत ही ठीक ठाक सवारी है…. ठीक सवारी …… समृद्ध महिला है…… इस से पाँच सौ रूपया तक का भाड़ा तो मिल ही जाएगा)। लच्चड़ हय…… धानी मांजी…… तोय बोसाय ले (लाचार किस्म की सवारी है…… ठीक सवारी नहीं है (उसकी ठीक से किराया देने की क्षमता नहीं है….. तुम्हीं सौदा पटा लो)। सवारियों से कितना किराया लेना है, कितना कमीशन आपस में तय करना है, इस के लिए उन्होंने अपने हिसाब से संख्याओं का निर्माण किया है। कहते हैं कि भाषा और लिपि के विकास के आरम्भिक चरण में संख्याओं का निर्माण सबसे पहले होता है। उन्हों ने भी संख्याओं से शुरूआत की होगी क्योंकि घाट पर संख्याएँ उनकी जीविका से जुड़ी हैं। संख्याओं के नाम के पीछे उनके अपने व्यवहारिक और अनुभवसिद्ध तर्क हैं। संख्या एक (1) के लिए वे सांग/सान का प्रयोग करते हैं तो सौ (100) के लिए सुं/सुन का प्रयोग करते हैं। निषादों के बीच सौ के लिए सुन या सुं का प्रयोग सम्भवतः इसलिए प्रचलित हुआ होगा कि सौ के अन्त में दो शून्य होते हैं। इसके अतिरिक्त एक से लेकर दस तक की संख्यायें परम्परागत 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11, …का पालन नहीं करती हैं। उन्होंने इसे अपनी सुविधा के अनुसार बनाया है। रूपया के लिए वे रैया शब्द प्रयुक्त करते हैं।

शब्द  संख्या    
सांग/सां एक 1         
जो छो 2      
रख /सिंघाड़ा तीन 3          
फोक चार 4           
हातो  पाँच 5           
हातो सान छह 6    पाँच में एक जोड़ कर = छह
हातो जो सात 7     पाँच में दो जोड़ कर= सात
हातो रख आठ 8 पाँच में तीन जोड़ कर = आठ
हातो फोक नौ 9 पाँच में चार जोड़ कर = नौ
सलाय दस  10      
रख पंजा पन्द्रह 15          
कोरी बीस 20        
मासा      पच्चीस 25  
रख सलाय  तीस  30 तीन को दस से गुणा कर के
रख सलाय हातू पैंतीस 35 तीन को दस से गुणा करके और उसमें पाँच जोड़ कर
फोक सलाय चालीस 40 चार को दस से गुणा
फोक सलाय हातू  पैंतालीस 45 चार को दस से गुणा करके और उसमें पाँच जोड़ कर
टाली पचास 50     
टाली सलाय साठ  60 पचास धन दस = साठ
टाली मोरी  सत्तर 70 पचास धन बीस = सत्तर
टाली रख सलाय अस्सी 80 पचास धन तीस (तीन को दस से गुणा करके) = अस्सी
टाली फोक सलाय नब्बे  90 पचास धन चालीस (चार को दस से गुणा कर के) = नब्बे
सुनरैया सौ 100    
सलाय सुनरैया एक हजार 1000          
इसी प्रकार महावतों और नटों में भी है। आपसी बातचीत में महावत या नट विशेष वाक्यों या वाक्य खंडों का प्रयोग करते हैं जिसे उनका ग्राहक समझ नहीं पाता है या इस बातचीत से उसका कोई सीधा जुड़ाव नहीं दीख पड़ता है। जब उन्हें ग्राहकों से ज्यादा पैसा लेना होता है तो इस प्रक्रिया को खोभना यानी ऐंठना कहते हैं।

‘सुआब देमा आवा है रे बपई, पक्की खम्मिस खुभाड़ ल्य तोय’
यानी ओ पिता, मनमाफिक ग्राहक आया है, इससे पाँच सौ रूपये ऐंठ लो।

महावतों के पास पक्के घर या तिजोरी तो होती नहीं इसलिए वे धन को बहुत ही सुरक्षित रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। प्रायः वे इसे कथरी में या अपने वस्त्रों के आंतरिक भागों में बनी जेबों में रखते हैं। धन को छुपा कर रखने को ‘नसिया रखा हय’ कहा जाता है। जिस प्रकार निषाद और पंडे रूपये और संख्याओं को विशिष्ट नामों से जानते हैं, उसी प्रकार महावत भी रूपयों को गिनने की एक प्रणाली विकसित करने में सफल रहे हैं।

रूपए का हिन्दी में नाम महावतों और नटों की भाषा में नाम

रूपया कहीला
एक रूपया – एक कहीला
दो रूपया – दो कहीला
तीन रूपया –     तीन कहीला
चार रूपया –     चार कहीला
पाँच रूपया- पाँच कहीला
छह रूपया – छह कहीला
सात रूपया – सत्ता
आठ रूपया – आठ कहीला
नौ रूपया – नौ कहीला
दस रूपया – टसिल
बीस रूपया – दुइ लांग
तीस रूपया – टेढ़वा
चालीस रूपया – रावा
पचास रूपया – खम्मिस
सौ रूपया – लांग कहीला
पाँच सौ रूपया –  पक्की खम्मिस
एक हजार रूपया –     पक्की
पाँच हजार रूपया –     पाँच पक्की
दस हजार रूपया – असिल पक्की
दुनिया के सभी घुमन्तू समुदायों में कुत्ते का महत्वपूर्ण स्थान है। महावतों के डेरे में और उससे बाहर कुत्ता सदैव साथ में रहता है। लड़के को ‘बटरो’ और लड़की को ‘बटरी’ कहा जाता है। पत्नी को ‘गिहारी’ कहा जाता है। बटरो कुकुर बांधसी हय यानी – लड़का कुत्ता बाँध रहा है। सम्बोधन सूचक उच्चारणों में पुल्लिंग के लिए रेऔर स्त्रीलिंग के लिए री का प्रयोग किया जाता है-

बुआ हियाँ आरी। आव चली रे बजार- बुआ यहाँ आइए। आओ बाजार चलते हैं।
क्रियासूचक शब्दों के लिए महावत डरिमा, करिमा, चलिजाई का प्रयोग करते हैं- 
खाई लीमा? भोजन कर लिया है?
चलि जाई घाय छीलन को? घास छीलने को चलोगी?
अब्बै तोंहके मारि डरिमा- मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा।
कहीं-कहीं उनकी बोली में भोजपुरी का पुट भी देखने को मिलता है-
दुकान खुलल है आटा ली अउबे? दुकान खुली है आटा ले आओगे?
ऐसा इसलिए है कि कुछ महावतों के वैवाहिक सम्बन्ध भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में हैं।

महावतों के आपसी सामुदायिक सम्बन्ध बहुत ही प्रगाढ़ होते हैं लेकिन वे बात-बात में लड़ भी सकते हैं क्योंकि हर व्यक्ति कुछ न कुछ काम करता है और कोई किसी की धौंस-पट्टी नहीं सुनता। रूपए-पैसे के लेन देन में अगर विवाद हो गया तो वे आपस में इस प्रकार झगड़ भी सकते हैं-तोर हमरे ऊपर लइमी लगाय दिहिस? (तुमने मुझ पर चोरी का इल्जाम लगा दिया?) अथवा किसी ग्रामीण किसान, जमींदार या पुलिस ने उन पर चोरी का इल्जाम लगा दिया तो वे कह सकते हैं- हमरे ऊपर लइमी न लगाऊ।  वास्तव में अभी भी भारतीय समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग और पुलिस इस औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है कि गरीब और घुमन्तू जातियाँ पेशेवर तौर पर चोर होती हैं। इस निर्मिति ने इन वर्गों के खिलाफ सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण तैयार किया और उन्हें हाशियाकृत कर देने का एक छद्म नैतिक आधार तैयार किया।

इस प्रकार प्रकार हम पाते हें कि जब हम भाषाओं या बोलियों के बारे में बात कर रहे होते हैं तो हम केवल उन भाषाओं या बोलियों के बारे में बात कर रहे होते हैं जो दृश्यमान हैं या जो दृश्यमान समूहों द्वारा बोली जाती हैं। इसे हमारी भाषाई चेतना की अल्प दृष्टि कहें या असहिष्णुता कि हमारा मानस यह मानने को प्रस्तुत नहीं हो पाता कि ठीक हमारे इर्द-गिर्द एक बोली या भाषा सांस ले रही है। उसे सुनने की जरूरत है। उस दुनिया के नागरिकों से परिचय की जरूरत है। हम अपने देश को प्यार करने का दावा करते रहते हैं। जब तक हम उसकी सभी भाषाओं को प्यार नहीं कर पाएँगे तब तक उसे पूरा का पूरा कैसे प्यार करेंगे?

(आभार : इस लेख के कुछ हिस्से बद्री नारायण(2016), संपादकउत्तर प्रदेश की भाषाएंओरिएंट ब्लैकस्वाननई दिल्ली में छपे थे जबकि एक हिस्सा गणेश नारायण देवी द्वारा सितंबर 2015 में इंडिया इंटरनेशनल सेटर के एक तीन दिवसीय सेमिनार में पढ़ा गया था।)
सम्पर्क –

मोबाईल – 08953479828

अनुपम मिश्र की (ब्रज रतन जोशी की किताब ‘जल और समाज’ पर) भूमिका


अनुपम मिश्र

अभी हाल ही में युवा रचनाकार ब्रज रतन जोशी की एक महत्वपूर्ण किताब प्रकाशित हुई है ‘जल और समाज’ नाम से छपी इस महत्वपूर्ण पुस्तक की भूमिका लिखी है अनुपम मिश्र जी ने। दुर्भाग्यवश अनुपम जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन जल संरक्षण के लिए उन्होंने जो काम किया है उससे वे हमारे स्मृतियों में हमेशा जगह बनाए रहेंगे। इस महत्वपूर्ण किताब की उपादेयता इसी बात से समझी जा सकती है कि अनुपम जी ने इसे ‘एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक काम’ कहा है। अनुपम जी की तारीफ़ के कारण आप इस किताब को पढ़ कर तलाश सकते हैं। इस किताब के लिए मित्र ब्रज रतन जोशी को बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं अनुपम जी द्वारा लिखी गयी इस किताब की भूमिका। यह अवसर अनुपम जी को नमन करने का भी है। पहली बार की तरफ से अनुपम जी को श्रद्धांजलि देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनके द्वारा लिखी गयी यह भूमिका
ब्रज रतन जोशी
         
एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक काम 

अनुपम मिश्र 

श्रद्धा के बिना शोध का काम कितने ही परिश्रम से किया जाए, वह आंकड़ों का एक ढेर बन जाता है। वह कुतूहल को शांत कर सकता है, अपने सुनहरे अतीत का गौरवगान बन सकता है, पर प्रायः वह भविष्य की कोई दिशा नहीं दे पाता।
ब्रज रतन जोशी ने बड़े ही जतन से जल और समाज में ढ़ेर-सारी बातें एकत्र की हैं और उन्हें श्रद्धा से भी देखने का, दिखाने का प्रयत्न किया है, जिस श्रद्धा से समाज ने पानी का यह जीवनदायी खेल खेला था।
प्रसंग है रेगिस्तान के बीच बसा शहर बीकानेर। देश में सब से कम वर्षा के हिस्से में बसा है यह सुन्दर शहर। नीचे खारा पानी। वर्षा जल की नपी-तुली, गिनी-गिनाई बूंदें। आज की दुनिया जिस वर्षा को मिली-मीटर/सेंटी-मीटर से जानती हैं उस वर्षा की बूंदों को यहां का समाज रजत बूंदों में गिनता रहा है। ब्रज रतन जी उसी समाज और राज के स्वभाव से यहां बने तालाबों का वर्णन करते हैं। और पाठकों को ले जाते हैं एक ऐसी दुनिया, काल-खण्ड में जो यों बहुत पुराना नहीं है पर आज हमारा समाज उस से बिलकुल कट गया है।
ब्रज रतन इस नए समाज को उस काल-खण्ड में ले जाते हैं जहां पानी को एक अधिकार की तरह नहीं एक कर्तव्य की तरह देखा जाता था। उस दौर में बीकानेर में कोई 100 छोटे-बड़े तालाब बने हैं। उन में से दस भी ऐसे नहीं थे, जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो। नरेगा, मनरेगा के इस दौर में कल्पना भी नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप से संचित, कमजोर माने गए, बताए गए समाज के लोगों ने भी अपनी मेहनत से तालाब बनाए थे। ये तालाब उस समाज की उसी समय प्यास तो बुझाते ही थे। यह भू-जल एक पीढ़ी, एक मोहल्ले, एक समाज तक सीमित नहीं रहता था। ऐसी असीमित योजना बनाने वाले आज भुला दिए गए हैं।
ब्रज रतन इन्हीं लोगों से हमें दुबारा जोड़ते हैं। वे हमें इस रेगिस्तानी रियासत में संवत् १५७२ में बने संसोलाव से यात्रा कराना शुरू करते हैं और ले आते है सन् १९३७ में बने कुखसागर तक। इस यात्रा में वे हमें बताते चलते हैं कि इसमें बनाना भी शामिल है और बड़े जतन से इनका रख-रखाव भी। उसके बड़े कठोर नियम थे और पूरी श्रद्धा से उनके पालन का वातावरण था जो संस्कारों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी चलता जाता था।
लेकिन फिर समय बदला। बाहर से पानी आया, आसानी से मिलने लगा तो फिर कौन करता उतना परिश्रम उन तालाबों को रखने का। फिर जमीन की कीमत आसमान छूने लगी। देखते ही देखते शहर के और गांवों तक के तालाब नई सभ्यता के कचरे से पाट दिए गए हैं। पर आसानी से मिलने वाला यह पानी आसानी से छूट भी सकता है। उसके विस्तार में यहां जाना जरूरी नहीं।
इसलिए ब्रज रतन जोशी का यह काम एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक है। यह शहर का इतिहास नहीं है। यह उसका भविष्य भी बन सकता है।
सम्पर्क – 

ब्रज रतन जोशी 
मोबाईल – 09414020840

श्रद्धा मिश्रा की कविताएँ

श्रद्धा मिश्रा
प्यार जीवन की गहनतम अनुभूति होती है दुनिया में ऐसा कोई रचनाकार नहीं होगा जिसने प्रेम को आधार बना कर कविताएँ न लिखीं हो। अक्सर नए रचनाकार अपने लेखन की शुरुआत ही प्रेम-कविताओं से ही करते हैं। प्रेम जो एक विद्रोह होता है अपने समय और समाज से। प्रेम जो अपने मन-मस्तिष्क के मुताबिक़ की गयी बात होती है। सहज-सरल लगते हुए भी प्रेम पर कविता लिखना आसान नहीं होता श्रद्धा मिश्रा ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए कुछ कविताएँ लिखीं हैं। बेहतरी की गुंजाईशें लिए ये कविताएँ हमें आश्वस्त करती हैं एक युवा कवि के हिन्दी कविता संसार में आगत की आहट को। श्रद्धा का कविता की दुनिया में स्वागत करते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ कविताएँ।   


श्रद्धा मिश्रा की कविताएँ
बदले में
ये तो उम्र थी
उस के
गिरने
और
सम्भलने की,
इसी उम्र में
उसे
पिंजरे के हवाले कर दिया,
मैंने अक्सर
लोगो को कहते सुना
कि
माँ
प्रेम की मूरत होती है,
मगर
मैं
ये कैसे मान लूँ,
उसी ने आज
सौगंध दे कर
मुझे मेरे प्यार से
दूर कर दिया,
कैसे कह दूँ
निःस्वार्थ
होता है जग में
माँ का प्यार,
जब कि उसे
उम्मीद है मुझ से
कि
मुझे उसके त्यागों
के लिए
उस की मेरे लिए
जागी गयी रातों के लिए
मेरे लिए सहे गये
दर्द के बदले
समाज में उस की
इज्जत के लिए
छोड़ना
होगा,
मेरे प्यार को।।।
तू और तेरा साथ…
तुम ही तुम हो हर जगह
तुम्हारी चाहत
तुम्हारी आहट
तुम्हारी खुबू
हवाओ में बसी है,

धूप कुनकुनी सी
तुम्हारी गर्म छुअन सी,
तुम्हारे हाथ अब भी
मुझे सहारा देते है
ठीक उसी तरह
जैसे
सम्भाल लेते हो
पेड़ पथिक को
धूप से,

समझ नहीं आता
तुमसे प्रभावित हूँ या
तुम्हारे रूप से,

कारण कुछ भी हो मगर
तुम हो तो
खूबसूरत लगता है
धूप का सफर भी
तुम महसूस करते भी हो
या नहीं करते

ये सफर जो इतना कठिन
लगता था,
अब आसान सा
लगने लगा है,
तुम हो तो दर्द भी
पल दो पल
का मेहमान
लगने लगा है…



मेरे ही रहना जनम-जनम
न गठबंधन हुआ न फेरे हुए,
फिर भी सनम हम तेरे हुए।

मेरी खुशिया तेरी हुईं,
और तेरे सब गम मेरे हुए।

तन के रिश्ते टूट सकते है जानम,
मन का बंधन है हमारा,

साथ चाहिए अब सांसो को भी तुम्हारा,

तुम सोच भी नहीं सकते
कितनी चाहत है तुमसे,
अब तो मेरी
हर इबादत है तुम से,

राहत की बात
तुम न ही करो
तो बेहतर है,
तुम्हारे लिए ही
हाल बद से बदत्तर है,

सुकून तुममे ही नजर आया है मुझे,
तुमने भी यु ही नहीं पाया है मुझे,

मैंने दुआए माँगी थी टूटते तारो से,
गंगा के किनारो से,
सोलह सोमवारों से,
मंदिर से गुरुद्वारों से,

तब जा के

तुम और मैं 
मिले है हमसफ़र,
अब तो हर जगह 
तुम ही आते हो नजर,

बस एक गुजारिश है 

ये प्यार न करना कम,
मेरे ही रहना जनम-जनम।।।
यादों की डायरी…
वो खामोश है तो शहर में सन्नाटा छाया है,
सुबह जो गया था यहाँ से,
परिंदा अब तलक लौट कर नहीं आया है,
कई दिनों से सूरज नहीं निकला,
लगता है कोहरा घना छाया है,
आज फिर खोली एक पुरानी डायरी…..
फिर वही पेज बार-बार पढ़ा,
जिसमे तुम्हारा जिक्र आया है…
प्यार ही होगा…
खाक छान के आयी हूँ  
कई गलियों की
तुम्हारे साथ,
तुम्हे भी नहीं मालूम
की क्या पायी हूँ  
तुम्हारे साथ,
कौन कहता है
कि कुछ नहीं कर सकी,
मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है
तुम्हारा साथ…

आसमान को भी कभी
गम होता होगा क्या
सितारों का,
फर्क ही क्या पड़ा होगा,
केशकंबली” को
वीणा के तारों का
स्वर तो यूँ ही फ़ैल गये होंगे
जब मिला होगा,
प्यार को प्यार का
प्यारा साथ…

प्यार किसी भी हाल में
प्यार ही निकलेगा,
फिर चाहे हाथ कुछ न लगे,
बेशुमार होगा सितारों की तरह,
रस घुल ही जायेगा
कैसे भी साधो वीणा,
कुछ तो होगा ही बेहतर,
जब है
हमारे साथ तुम्हारा साथ
तुम्हारे साथ
हमारा साथ…

जाने दो तुम नहीं समझोगी…

कई बार जब तुम ने
मेरे हाथों से
छुड़ा लिया था
अपना हाथ,

तब भी जब तुम ने
फेर ली थीं
आँखे
और घंटो देखते रहे थे
पेड़ की
शाखों को…

याद करो
जब पहली बार
तुम्हारे दिए
ब्रेसलेट का
एक नग निकल कर
कही गिर गया
और मैं खूब रोई
तब भी…

और जानते हो
तुम जब भी
मेरे पास एक ही बैंच में
बैठते थे
और मैं धीरे-धीरे
आ जाती थी
तुम्हारे करीब
तब तो और भी ज्यादा…

दिल ही दिल में बेइंतिहा सा
मैंने बार-बार कहा
प्यार है तुम से
जब भी तुमने ये पूछा है
कि  
क्या है
मैंने हर बार कहा था
जानते हो तुम
सिर्फ सताते थे मुझे

आज वही जब तुम
बात बात पे
कह देते हो,
जाने दो
तुम नहीं समझोगी,
और मैं समझ के भी
न समझ बनती हूँ,
मगर सच तो ये है मैं खूब
समझती हूँ इन
बातों का मतलब… 

पता- 
मातादीन का पूरा,  
शान्तिपुरम, फाफामऊ,   
इलाहाबाद
 
ई-मेल – mishrashraddha135@gmail.com

 (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

प्रियदर्शन का आलेख ‘और अंत में उदय प्रकाश’.


उदय प्रकाश

उदय प्रकाश हमारे समय के चर्चित कवि-कथाकार हैं. वे अपनी हर रचना के साथ कुछ नया प्रयोग करने की कोशिश करते हैं. व्यक्तित्व को ले कर कई एक कहानियों का जो ताना-बाना उन्होंने बुना है उसमें बकौल उनके वे खुद भी गहराई से शामिल होते हैं. और रचना भी तो वही कालजयी होती है जो अपने में अपने समय के संदर्भ को समेटते हुए चले. हमारे प्रिय कहानीकार प्रियदर्शन ने उदय प्रकाश के व्यक्तित्व-कृतित्व को परखने का प्रयास किया है अपने इस आलेख में. पहली बार के पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ हम आज प्रस्तुत कर रहे हैं प्रियदर्शन का यह आलेख ‘और अंत में उदय प्रकाश’.     

और अंत में उदय प्रकाश

प्रियदर्शन

उदय प्रकाश से मेरा व्यक्तिगत परिचय 1994 की गर्मियों में हुआ। तब तक एक बड़े लेखक के रूप में उनकी ख्याति नए क्षितिज छू रही थी। तिरिछ और टेपचू से लेकर छप्पन तोले का करघनऔर दरियाई घोड़ा तक दूसरी कई कहानियां उस दौर में धूम मचा चुकी थीं। और अंत में प्रार्थना कुछ ही दिन पहले प्रकाशित हुई थी। इन सारी कहानियों ने उदय प्रकाश को हिन्दी का स्टार कथाकार बना डाला था। यह कथा-कीर्ति इतनी चमकती हुई थी कि यह तथ्य अक्सर भुला दिया जाता था कि उदय प्रकाश प्राथमिक तौर पर या समानंतर एक कवि भी हैं। तब तक सुनो कारीगर और अबूतर कबूतर काव्य-संग्रह आ चुके थे और भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार भी उन्हें प्राप्त हो चुका था। सच तो यह है कि आज भी उदय प्रकाश पहले कथाकार के रूप में ध्यान में आते हैं और उसके बाद उनके कवि रूप का खयाल आता हैजबकि उनकी कई कविताएं मुझे उनकी कई कहानियों से ज़्यादा प्रिय हैं। यही नहीं, इस बीच उनके कुछ और कविता संग्रह, ताना-बाना और एक भाषा हुआ करती थी प्रकाशित हो चुके हैं। फिर कवि और कथाकार की यह साझा कीर्ति इतनी प्रबल है कि यह और भी कम याद रह जाता है कि उदय प्रकाश एक बीहड़ अध्येता भी हैं और समसामयिक संदर्भों और विचारों की दुनिया में भी उनका हस्तक्षेप काफी सक्रिय और समृद्ध है। यानी बाकी बात शुरू करने से पहलेमैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि उदय प्रकाश हिन्दी में अपनी तरह के अनूठे लेखक हैं जो जब भी कुछ भी लिखते हैं,  उसे ध्यान से पढ़ने की इच्छा और ज़रूरत दोनों महसूस होती है। 
अब उस पहली मुलाकात का ज़िक्र जो  एक मशहूर लेखक से एक अनजान पाठक के बीच हुई थी। मैं नया-नया दिल्ली आया था और फ्री-लांसिंग के नाम पर सांस्कृतिक समाचारों से ले कर आलेख तक लिखा करता था जो दिल्ली के अखबारों में कभी-कभी छपा करते थे। इसके अलावा परिचय के तौर पर मेरे पास बताने को मेरी रांची वाली पृष्ठभूमि थी जिसे मैं झारखंडी अस्मिता से जोड़ना कभी नहीं भूलता था। रांची के ज़िक्र ने भी उदय प्रकाश और मेरे बीच एक धागा सुलभ करा दिया। उदय प्रकाश ख़ुद छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके की पृष्ठभूमि से आए थे। इसके अलावा उनके भाई कुमार सुरेश सिंह झारखंड में काम कर रहे थे और उनका समाजशास्त्रीय अध्ययन झारखंड की संस्कृति को समझने में काफी सहायक हो रहा था।
 यह 1994 के आख़िरी महीनों की कोई शाम रही होगी जब मैं रोहिणी के तरुण अपार्टमेंट के उनके फ्लैट में पहुंचा।
मैं आजकल’ के लिए महात्मा गांधी पर केंद्रित एक परिचर्चा कर रहा था- उन लेखकों से जो गांधी के निधन के बाद पैदा हुए। कई लेखकों से मेरी बात हो चुकी थी और फिर मैं उदय प्रकाश से बात कर रहा था। ब भी याद है कि यह बहुत सार्थक और सारगर्भित बातचीत थी। उदय प्रकाश बहुत एहतियात और सतर्कता के साथ गांधी की विचार-दृष्टि का विश्लेषण कर रहे थे- गांधी व्याख्या के जाने-पहचाने स्टीरियोटाइप्स से अलग उदय प्रकाश ने उस शाम गांधी को देखने की कई दृष्टियां सुलभ कराई थीं। आजकल के उस अंक में जो गया सो गया, लेकिन उस मुलाकात का बहुत कुछ मेरे भीतर बचा रह गया। उस शाम उदय प्रकाश से बहुत सारे मसलों पर बातचीत हुई। मशहूर लेखक और अनजान पाठक का फासला मिटने में बहुत वक़्त नहीं लगा। जब मैं वहां से निकलने लगा तब तक रात हो चुकी थी। उदय प्रकाश ने बाकायदा अपनी गाड़ी से मुझे बस स्टॉप तक छोड़ा। यही नहीं, उन्होंने बताया कि उनके पास बहुत सारा काम है और मैं चाहूं तो उनकी मदद कर सकता हूं। लेकिन दरअसल वे मदद मांग नहींकर रहे थे। रांची से बिल्कुल नए आए एक फ्री-लांसर को अपने काम का कुछ हिस्सा दे रहे थे। आने वाले दिनों में मैंने उनकी ही मदद से दो या तीन डॉक्युमेंटरीज़ पर काम किया।
  
इसी दौरान व्यक्ति उदय प्रकाश को भी समझने का मौका भी मिला, लेखक उदय प्रकाश को भी। ऐसा नहीं कि दोनों में कोई ज्यादा फर्क था- आखिर दोनों की बुनावट बिल्कुल एक थीकुछ मामलों में प्रतिक्रियाओं का ढंग- निजता और सार्वजनिकता के बीच- कुछ भले बदलता हो। उन की बहुत सारी कहानियों पर हमारी बात हुई। उन विवादास्पद कहानियों पर भीजिनको लेकर उदय प्रकाश पर आरोप लगे थे। मसलन, मैंने उनसे पूछा कि उन्होंने गोरख पांडेय को ले कर ‘रामसजीवन की प्रेम कहानी’ क्यों लिखी। उदय प्रकाश का उत्तर बहुत साफ था। उनके मुताबिक इस कहानी में जितना गोरख पांडेय थे, उससे ज्यादा वे खुद थे। उनका कहना था कि दरअसल गांव से शहर आने पर जो सांस्कृतिक अपरिचय और आघात खुद उन्हें भी झेलना पड़ा, उसकी उन्होंने कहानी लिखी- कुछ अनुभव भले दूसरों के शामिल किए।
मैं जानता हूं कि बहुत सारे संदेहवादियों को इस सफ़ाई में शक की बहुत सारी गुंजाइश दिख रही होगी। लेकिन मेरी सीमा कहें या नासमझी, मेरे सोचने का अभ्यास किसी और ढंग से विकसित हुआ है। मैं लेखक पर भरोसा करता हूं- इसलिए नहीं कि वह सोच-समझ कर कोई ईमानदार जवाब दे रहा है, बल्कि इसलिए कि हमारे जाने-अनजाने हमारे लेखन में और हमारे वक्तव्यों में कहीं न कहीं हमारे व्यक्तित्व की छाप और छाया चली आती है। दूसरों पर लिखते हुए हम कई बार ख़ुद पर लिख रहे होते हैं और इसे पहचान भी नहीं पाते। उदय प्रकाश अगर इस बात को कई दूसरे लोगों से बेहतर और साफ ढंग से समझ या रख पाते हैं तो इसलिए भी कि अपने लेखन के तंतुओं से उनकी पहचान बहुत गहरी है।
इत्तिफाक से उन्हीं दिनों वे पाल गोमरा का स्कूटर लिख रहे थे। एक तरह से इस कहानी को विकसित होते मैंने देखा था, क्योंकि उसके अलग-अलग पाठ मेरे सामने खुले थे। एक लेखक किस तन्मयता के साथ अपनी कहानी लिखता है, आत्मीय तरलता और पेशेवर तराश को किस तरह फेंटता है और कैसे उसे अंतिम रूप देता है, यह मैं देख रहा था। फिर इस कहानी पर कुछ जाने-पहचाने किरदारों की छाया थी और फिर मेरे सवाल पर उदय प्रकाश की सयानी हँसी और मासूम सफाई थी कि वे तो ज़माने की कहानी लिख रहे हैं।
बहरहाल, यह कहानी उदय प्रकाश की कई दूसरी कहानियों की तरह काफी लोकप्रिय हुई। लेकिन मेरे लिए इसका आलोचनात्मक महत्त्व कुछ दूसरा है। मैं इस कहानी को उदय प्रकाश की पुरानी और नई कहानियों की बीच की कड़ी की तरह देखता हूं। शायद यह पहली कहानी थी जिसमें उदय प्रकाश समकालीन ब्योरों और प्रवृत्तियों को मूल कथा के समानांतर रख रहे थे और यह काम वे कुछ इस कौशल से कर रहे थे कि कहानी पढ़ते हुए कहीं बाधा नहीं होती थी, बल्कि एक पूरी पृष्ठभूमि में चीजों के घटित होने का भान होता था। बाद में वारेन हेस्टिंग्स का सांड़ और मैंगोसिल से लेकर मोहन दास तक में उदय प्रकाश यह युक्ति बड़ी सहजता के साथ इस्तेमाल करते दिखाई पड़ते हैं।
दरअसल यह जो कुछ मैं लिख रहा हूं, वह उदय प्रकाश के कथा संसार के सम्यक मूल्यांकन की कोशिश नहीं है। यह उदय प्रकाश से निजी और लेखकीय मुठभेड़ों के दौरान मेरे भीतर बनने वाले प्रभावों और प्रश्नों का सिलसिला भर है। इन में से जो सबसे बडा प्रश्न मुझे घेरता है, वह ये कि आखिर उदय प्रकाश की लोकप्रियता का राज़ क्या है। ऐसे आलोचकों की कमी नहीं है जो उदय प्रकाश में कृत्रिमता, सपाटपन और दूसरों की नकल तक ढूढ़ने की कोशिश करते हैं। दुर्भाग्य से ज़्यादातर ऐसे आलोचक ख़ुद एक सपाट और अनुकरणशील दृष्टि के अभ्यस्त हैं, क्योंकि वे कहानी के बने-बनाए खांचे के बाहर जाकर देखने को तैयार नहीं हैं।
दरअसल जिसे उदय प्रकाश की कमज़ोरी बताया जाता है, वही उनके कथा-लेखन की ताकत है। वह बहुत सहज ढंग से कहानियां लिखते हैं – कई बार लगता है कहानी नहीं लिख रहे, अपने या दूसरों के बारे में कोई बात बता रहे हैं। पाठकों को भरोसा दिलाने या उन्हें भरोसे में लेने की यह शैली उनके यहां बिल्कुल प्रारंभ से दिखाई पड़ती है। वे लिखते नहीं, जैसे बात करते हैं या कोई बीता हुआ किस्सा सुनाते हैं। किसी किस्से तक पहुंचने के लिए पहले कुछ और सुनने और समझने की शर्त लगाते हैं। कहानी भी किसी शास्त्रीय ढंग से नहीं कहते, बिल्कुल ब्योरों में कहते हैं। तिरिछ शुरू ही होती है एक घटना के बयान से, जिसका वास्ता पिता जी से है। पिता जी भी बिल्कुल ऐसे हैं जिनकी उपस्थिति को कई लोग पहचानते होंगे। फिर पिता जी को तिरिछ काटता है जिसे वे मार डालते हैं, लेकिन जला नहीं पाते, इसके बाद वे शहर के लिए निकलते हैं, रामऔतार पंडित के कहे में आ जाते हैं और उसके बाद शहर में जो कुछ घटता है, उसे झेलते हैं। ये जो कुछ घट रहा है, उसके तमाम अंशों को हम अपने अलग-अलग अनुभव संसार में पहचानते हैं। वे सारी घटनाएं हम सबके जीवन में न जाने कितनी बार गुज़री हैं। लेकिन नितांत मामूली और जाने-पहचाने ब्योरों को जोड़ते हुए, उनके बीच की खोई हुई संगति की तलाश करते हुए, या फिर इन सबके बीच घट रही त्रासदी को बिल्कुल क्लोज़ अप में दिखाते हुए, उदय प्रकाश जो रचते और साझा करते हैं, वह एक सिहरा देने वाली कहानी होती है जो हमारे सपनों तक में दाखिल हो जाती है, जो हमारी स्मृति से जाने का नाम नहीं लेती।
दरअसल उदय प्रकाश जीवन के इन ब्योरों को बहुत करीब से देखते हैं और उनके भीतर के विद्रूप और उसकी त्रासदी को पकड़ते हैं। जीवन से संग्राम करते उनके पात्र अक्सर ऐसी विडंबनाओं से घिर जाते हैं जो उनका बहुत सख्त इम्तिहान लेती हैं- वे विक्षिप्त हो जाते हैं, वे मारे जाते हैं, वे खो जाते हैं। उदय प्रकाश की कई बड़ी और महत्त्वपूर्ण कहानियों के नायकों का अंत ऐसा क्यों होता है? क्या इसलिए कि वे इस आपाधापी भरे जीवन में, इस तनाव के बीच ख़ुद को बचाए रखने में असमर्थ हैं? फिर वह सामर्थ्य कहां से आती है जो दूसरों को अवेध्य बनाती है? यहां इन कहानियों की मार्फत समझ में आता है कि बचे रहने की युक्ति के नाम पर जो सयानापन, जो समझौतापरस्ती, जो संवेदनविहीन सपाटपन चाहिए, अपने कम मनुष्य होने की जो शर्त चाहिए, उसे नकार कर ही ये पात्र अपनी नियति का वरण करते हैं। वे प्रोफेसर वाकणकर की तरह अपने वक़्त का सही और सच्चा पोस्टमार्टम करने को मजबूर ऐसे पात्र होते हैं जिन्हें उन्हें नतीजे मालूम होते हैं।
अपनी काया और अपने वितान में लगभग औपन्यासिकता को छूने वाली उनकी ऐसी लंबी कहानियां शेक्सपियर की शोकांतिकाओं की याद दिलाती हैं- इस फर्क के साथ कि आधुनिक समय से मुठभेड़ करते उदय प्रकाश के नायक मामूली लोग हैं जिनकी सांघातिक कमज़ोरी- फेटल फ्लॉ- बस यह है कि वे बहुत संवेदनशील हैं और जीवन को बहुत गहराई से लेते हैं। इसी एक कमज़ोरी की वजह से उन्हें मारा जाना है।
मारे जाने से पहले ये किरदार निहायत कोमलता से नितांत क्रूरता के बीच कई बार आवाजाही को मज़बूर होते हैं। पीली छतरी वाली लड़की और छतरियां जैसी कहानियों में इस सफर को बहुत करीब से महसूस किया जा सकता है। छतरियां में कहानी जैसे ख़त्म होने को होती है, लेखक अपने समकालीन हस्तक्षेपके साथ अंत बदल डालता है। शायद उसे लगता है कि बलात्कार और छलात्कार से आहत हमारे समय में किसी रचना का ऐसा कोमल पाठ संभव नहीं है।
लेकिन फिर भी उदय प्रकाश कोमलता को बचाए रखते हैं। समकालीनता के उनके पाठ-उप पाठ- अपनी तरह के सरलीकरण भी रचते हैं और जटिलीकरण भी- इसमें उनकी राजनीति पर भी सवाल उठते हैं और उनके सरोकारों पर भी, लेकिन सारी चीज़ों के बावजूद पाठक इन कहानियों से बहुत गहराई से जुड़ता है, वह अपनी छीन ली गई पहचान को नए सिरे से हासिल करता है- कभी ख़ुद को ‘मोहन दास’ के साथ खड़ा पाता है और कभी पाल गोमरा के साथ।
प्रियदर्शन

तो हम पाते हैं कि जो बात यथार्थ के सूक्ष्म रूपों के प्रति बहुत स्थूल किस्म का आकर्षण रखने वाली आलोचना दृष्टि को सतही और सपाट, फिल्मी और रोमानी, सुनियोजित और कृत्रिम जान पड़ती है, पाठक उसे सहर्ष स्वीकार ही नहीं करता, उसमें साझा भी करता है। इस लिहाज से उदय प्रकाश हिन्दी के उन विरलतम लेखकों में हैं जो सीधे पाठकों से अपनी मान्यता हासिल करते हैं। उनकी एक छोटी सी कहानी है- डिबिया। इस डिबिया में उन्होंने धूप का टुकड़ा बचा कर रखा है जिसे वे कभी खोलते नहीं। एक स्तर पर उदय प्रकाश यह डिबिया अपने पाठकों को भी पकड़ाते चलते हैं- सबको मालूम है कि शायद इसके अंदर कोई ठोस चीज़ न बची हो। लेकिन इस डिबिया में उनके सपने हैं, उनका भरोसा है और उनकी कहानी है। आलोचक ऐसी ही डिबिया खोल कर साबित करना चाहते हैं कि यह तो खाली है- उन्हें उनका यह यथार्थ-बोध मुबारक हो। हिन्दी कहानी को उदय प्रकाश की कहीं ज़्यादा ज़रूरत है।

                                                                                                     

राजेश उत्‍साही का आलेख – बाल साहित्य : चुनौतियाँ और संभावनाएँ :

राजेश उत्‍साही

हमारे यहाँ बच्चों की शिक्षा के मायने सिर्फ यही है कि वह स्कूल जाए। पाठ्यक्रम की किताबें पढ़े। होम-वर्क करे। और अच्छे नम्बरों से परीक्षा पास करे। इस बंधी-बधाई दुनिया में थोड़ा मोड़ा टेलीविजन के कार्यक्रम, थोड़ा फेसबुक और व्हाट्स-अप भी अपनी जगह बना लेते हैं। लेकिन इस दुनिया में बाल-साहित्य के लिए प्रायः कोई जगह नहीं होती। अगर कोई बच्चा बाल साहित्य पढने में अपनी उत्सुकता दिखाता है तो (अभिभावकों की समझ के अनुसार) समझिए, बिगड़ने की राह पर चल पड़ा है। जबकि सच इसके बिल्कुल उलटा है। बाल-साहित्य बच्चों की मौलिक सोच को आगे बढाता है और उनके कल्पना के दायरे को ऐसे रंगों से भरने में कामयाब होता है जिससे वह सच्चे अर्थों में एक बेहतरीन इंसान बन सके। मेरा खुद का यह अनुभव रहा है। सौभाग्यवश बचपन में मुझे ‘नंदन’, ‘पराग’, ‘चम्पक’, ‘चंदामामा’, ‘लोट-पोट’, ‘सुमन-सौरभ’ और ‘बाल-भारती’ जैसी उम्दा बाल पत्रिकाएँ पढने को नियमित रूप से मिलीं जिससे मुझे मौलिक रूप से कुछ सोचने-समझने और लिखने के लिए प्रेरणा मिली। मेरी निर्मिति में इन बाल पत्रिकाओं का एक बड़ा योगदान है

आज के समय में बदलते संदर्भों में बाल-साहित्य के समक्ष खडी चुनौतियों और इनकी संभावनाओं पर राजेश उत्साही ने एक बेहतर भाषण दिया है
। इसे पहली बार के लिए उपलब्ध कराया है कवि महेश पुनेठा ने तो आइए आज पढ़ते हैं राजेश उत्साही के इस महत्वपूर्ण व्याख्यान को                   

बाल साहित्य : चुनौतियाँ और संभावनाएँ  

राजेश उत्‍साही
 


साहित्‍य क्‍या है? पुराना कथन है कि साहित्‍य समाज का दपर्ण है। जैसा समाज में होता है, साहित्‍य में वही प्रतिबिम्बित होता है। सही मायने में साहित्‍य का रिश्‍ता हमारे जीवन से है। हमारे जीवन में, हमारे आस-पास जो घटता है, उसे देख कर या उसे भोग कर हम दुखी या सुखी होते हैं। खुश होते हैं या उदास होते हैं। गुस्‍सा होते हैं या क्रोधित होते हैं। हँसते हैं, खिलखिलाते हैं, रोते हैं, चीखते हैं। और जब कभी इस सबका आख्‍यान हम कहीं लिखा हुआ पढ़ते हैं तो हमें वैसा ही महसूस होता है जैसा उसे देखते या भोगते हुए महसूस करते हैं।

जिस कविता, कहानी, नाटक, उपन्‍यास आदि को पढ़ते हुए हम ऐसा महसूस करते हैं कि उसने हमें अतीव आनंद दिया या कि हम उसमें डूब गए, दरअसल उसने हमें पाठक के रूप में वह स्‍वतंत्रता प्रदान की जो हमें मनुष्‍य होने के नाते हासिल होनी चाहिए। साहित्‍य वास्‍तव में हमें उन जंजीरों से मुक्‍त करता है, जिन में हम अमूमन जकड़े होते हैं।

शिक्षाविद् कृष्‍ण कुमार के शब्‍दों में, ‘साहित्‍य एक अपेक्षित अर्थ को जानने का जरिया है उसके जरिए कुछ रूपाकारों को, कुछ रूपकों को प्रचारित करने का माध्‍यम है।

मेरा अपना मानना है कि बाल साहित्‍य जैसा अलग से कुछ नहीं होता है। हो सकता है कि मेरा यह कथन आपको चौंकाए, यह भी संभव है कि आप मुझ से सहमत न हों। बरसों से यह अवधारणा चली आ रही है और तमाम विद्वान इसे मानते भी हैं। पर मुझे लगता है कि इस पर एक अलग नजरिए से विचार किया जाना चाहिए। इसलिए मुझे जब भी मौका मिलता है मैं इस सवाल को सामने रखता हूँ। आज भी रख रहा हूँ। 


इस संदर्भ में एक वाक्‍या 2011 का है। भोपाल में मशहूर बाल विज्ञान पत्रिका ‘चकमक’ के 300 वें अंक के विमोचन समारोह का आयोजन था। इस अवसर पर वहाँ भीबाल साहित्‍य की चुनौतियाँशीर्षक से एक विमर्श रखा गया था। इसमें कई अन्‍य लोगों के अलावा जाने-माने फिल्‍मकार गुलज़ार साहब और कवि, लेखक प्रयाग शुक्‍ल जी भी मौजूद थे। चकमक की संस्‍थापक सम्‍पादकीय टीम का सदस्‍य होने के नाते मैं भी इस विमर्श में शामिल था। वहाँ मैंने यही बात कही। प्रयाग जी ने इसका प्रतिवाद किया। बहस आगे बढ़ कर बाल साहित्‍य की गुणवत्‍ता पर पहुँची। गुलज़ार साहब ने इसका समाधान एक बहुत सुंदर कथन से किया। उन्‍होंने कहा कि, ‘अच्‍छा बाल साहित्‍य वह है जिसका आनंद बच्‍चे से ले कर बड़े तक ले सकें।अब आप सोचिए कि ऐसे साहित्‍य को आप किस श्रेणी में रखेंगे।

चलिए अब हम थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि बाल साहित्‍य जैसा अलग से कुछ होता है। तो वह अच्‍छा क्‍या होगा? गुलज़ार साहब की बात मानें तो निश्चित ही वह जिसमें बच्‍चों से ले कर बड़े तक अपने को देख सकें। पर दिक्‍कत यहीं से आरम्‍भ होती है। हम ज्‍यों-ज्‍यों बड़े होते हैं या बड़े होने लगते हैं, जीवन को देखने का हमारा स्‍वतंत्र बाल-सुलभ नजरिया गायब होने लगता है। हम जीवन को स्‍वतंत्रता से देखने की बजाय प्रचलित मान्‍यताओं, नियमों और प्रतिबंधों के साथ देखने लगते हैं। तथाकथित नैतिकता और उसके आदर्श हमारे सामने आ खड़े होते हैं। ऐसे में जब हम किसी भी रचना को यह मान कर रचते हैं कि वह बच्‍चों के लिए है, तब तो हमारे सामने तमाम और बंदिशें और शर्तें भी आन खड़ी होती हैं। जैसे रचना किस उम्र के बच्‍चे के लिए लिखी जा रही है, भाषा क्‍या होगी, परिवेश क्‍या होगा। जो हम कहने जा रहे हैं, उसे समझ पाने के लिए जरूरी अवधारणाएँ बच्‍चे में विकसित हो गई होंगी या नहीं आदि आदि। जाहिर है ऐसा नियंत्रित लेखन जो रचेगा वह कितना प्रभावी होगा कहना मुश्किल है।

मुश्किल यह भी है कि जब बच्‍चों के लिए कह कर लिखा जा रहा होता है तो ज्‍यादातर लेखक अपने अंदर के अतीत के बच्‍चेको याद कर के, ध्‍यान रख कर लिख रहे होते हैं। बिरले ही होते हैं जो अपने आसपास के समकालीन बच्‍चे को देख कर, सुन कर, समझ कर, उसके स्‍तर पर उतरकर उसे अभिव्‍यक्‍त या संबोधित कर रहे होते हैं। मैं अपनी बात को और अधिक स्‍पष्‍ट करने के लिए अगर यह कहूँ कि प्रेमचंद ने ईदगाहकहानी बाल साहित्‍य कह कर तो नहीं लिखी थी। लेकिनईदगाहएक ऐसी कहानी है जो आज की तारीख में बच्‍चों के बीच खूब पढ़ी जाती है। या मैं यह याद करूँ कि प्रेमचंद की ही पंच परमेश्‍वरतो मैंने पाँचवी कक्षा की पाठ्य-पुस्‍तक में पढ़ी थी। यानी केवल ग्‍यारह साल की उम्र में। तो क्‍या आप उसे बाल साहित्‍य की श्रेणी में रख देंगे। इसमें आप चंद्रधर शर्मा गुलेरी की मशहूर कहानी उसने कहा था..को भी जोड़ लें जो मैंने दसवीं या ग्‍यारहवीं में पढ़ी थी, तो क्‍या वह किशोर साहित्‍य कहलाएगी। कुल मिला कर मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि साहित्‍य केवल साहित्‍य होता है, उसे श्रेणियों में बाँटने से हम साहित्‍य का भला कम, नुकसान ज्‍यादा कर रहे होते हैं। इसलिए एक विचारवान, गंभीर और सर्तक लेखक का यह दायित्‍व है कि पहले वह केवल लिखे। ठीक है कि आज के बाजार की मांग है कि वह पाठक को ध्‍यान में रखे, पर उसे अपने ऊपर हावी न होने दे। तो एक तरह से पहली चुनौती यही है। और यह एक शाश्‍वत चुनौती है। इसका मुकाबला हर दौर में हर पीढ़ी को करना होगा। बाल साहित्‍यकार का टैग भी मुझे पसंद नहीं। उसको ले कर भी वही आपत्ति है जो बाल साहित्‍य कहने में है। साहित्‍यकार, साहित्‍यकार होता है, वह बाल, किशोर या फिर वयस्‍क साहित्‍यकार नहीं होता। बहरहाल यह आपके विचारार्थ है, आप भी इस पर विचार करें। मेरी बात से इतनी जल्‍दी सहमत या असहमत होने की आवश्‍यकता नहीं है।

अब मैं जो भी कहूँगा, आप की सुविधा के लिए उसे यह मान कर ही कहूँगा कि वह बाल साहित्‍य के लिए ही कहा जा रहा है।

बाल साहित्‍य का सरोकार जिन तीन लोगों से है या जिसे अंग्रेजी में कहते हैं जो उसके स्‍टेकहोल्‍डरहैं उनमें लेखक के अलावा पाठक या उसका उपयोग करने वाले के तौर पर बच्‍चा, बच्‍चे के अभिभावक या वे लोग जो इस साहित्‍य को बच्‍चे को उपलब्‍ध कराते हैं।

आइए इन पर एक-एक करके बातचीत करते हैं।

बच्‍चे हमारे साहित्‍य के पाठक हैं। पर बच्‍चों के बारे में या किसी भी बच्‍चे के बारे में हम वास्‍तव में कितना जानते हैं, इस पर हमें विचार करना चाहिए। पहली बात पाठक होने के लिए बच्‍चे का साक्षर होना आवश्‍यक है। बच्‍चों को साक्षर करने के लिए यानी उन्‍हें शिक्षा देने के लिए जिस स्‍तर पर प्रयास हो रहे हैं, वे सब हमारे सामने हैं। यहाँ थोड़ा-सा विषयांतर होगा, लेकिन हमें हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था को इस संदर्भ में टटोलना होगा, उस का परीक्षण और आकलन करना होगा। वास्‍तव में वह बच्‍चों को किस तरह से शिक्षित करती है। बल्कि कई मायनों में यह कहना ज्‍यादा बेहतर होगा कि वह बच्‍चे को शिक्षित होने से एक हद तक रोकती है।

इस संदर्भ में कृष्‍ण कुमार कहते हैं कि, ‘बाल साहित्‍य की व्‍याप्ति के रास्‍ते में सबसे बड़ी रुकावट हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था का यह चरित्र है कि वह पाठ्यपुस्‍तक केन्द्रित है और पाठ्य-पुस्‍तक के इर्द-गिर्द ही सारी शिक्षा व्‍यवस्‍था घूमती है। अध्‍यापक का सारा प्रयास उसके आसपास ही होता है, उसको लेकर ही रहता है। और शिक्षा व्‍यवस्‍था की जो धुरी है वह तो बिलकुल ही पाठ्यपुस्‍तक से चिपकी हुई चलती है। पाठ्य-पुस्‍तक स्‍वयं परीक्षा-व्‍यवस्‍था से पैदा होने वाले भावों से आवेशित हो उठती है। जो डर परीक्षा के बारे में सोच कर बच्‍चों को लगता है, वही डर शिक्षकों को पाठ्य-पुस्‍तकों को देख कर लगने लगता है। क्‍योंकि उनको मालूम होता है कि यह वह चीज है जो मुझे उस समूह से, मेजोरिटी से बात करवाएगी। और वही चीज है जो पढ़ने का मन नहीं होता लेकिन फिर भी मुझे पढ़नी ही पड़ेगी। पाठ्य-पुस्‍तक ऐसा प्रतीक बन गई है कि जिसके सामने दुनिया भर में फैला हुआ अनुभव-जगत, बच्‍चे का ज्ञान, बच्‍चे को मिलने वाली अपने जीवन की खुराक, उन सब का कोई मायना नहीं रहा। इसके जरिए ही हर चीज का परीक्षण होगा। इसके जरिए ही स्‍कूल चलेंगे, इसकी धुरी पर चलेंगे। और अगर आप सरकार की इन कोशिशों को देखें तो बहुत बड़ी कोशिश यही रहती है कि पाठ्य-पुस्‍तक समय पर पहुँच जाए और उसकी पढ़ाई शुरू हो जाए।


यहाँ यह बात रेखांकित करने की भी आवश्‍यकता है कि पिछले कुछ वर्षों में बच्‍चों को पाठ्य-पुस्‍तकों के आतंक से मुक्‍त करने की तो नहीं, पर पाठ्य-पुस्‍तकों को ऐसी बनाने की कोशिश जरूर हुई है जो बच्‍चों को कम आतंकित करें। हालाँ कि मौजूदा दौर में यह प्रयास कहाँ तक जाएगा, कह नहीं सकते।

तो मूल बात यह है कि हमारा जो पाठक है, वह पाठ्य-पुस्‍तक के आंतक से भरा हुआ होता है। इस बात को ठीक से और संवेदनशीलता के साथ समझने की जरूरत है। यहाँ उसके सामने चुनौती होती है कि कुछ और पढ़ना यानी पाठ्य-पुस्‍तक से या फिर अपनी स्‍कूली शिक्षा से विमुख होना। लेकिन अगर पाठ्य-पुस्‍तकों से इतर साहित्‍य उसे ऐसा कुछ दे रहा हो, जो उसे अपनी नीरस शिक्षा को और रोचक बनाने में भी काम आए तो फिर उसकी रुचि उसमें बढ़ेगी। लेकिन जाहिर है कि उसकी रुचि ऐसा कुछ पढ़ने में कतई नहीं होगी,जो उसे उन्‍हीं तमाम बंदिशों, उपदेशों, तथाकथित नैतिक मूल्‍यों की और घिसी-पिटी अवधारणाओं की ओर ले जाए, जो वह घर से लेकर स्‍कूल तक में लगातार सुनता और पढ़ता ही रहता है।

मैं यहाँ एक बार फिर कृष्‍ण कुमार जी को याद करना चाहूँगा, वे कहते हैं कि, ‘हम सब लोग बाल साहित्‍य के शौकीन हैं, सोचते रहते हैं कि यह क्षेत्र क्‍यों लगातार दिक्‍कत पैदा करता है। मामला सिर्फ बाल साहित्‍य का नहीं है, कई और चीजों का भी है। कलाओं का मामला है। स्‍कूल में कलाओं की भी व्‍याप्ति नहीं हो सकी है। पुस्‍तकालय की व्‍याप्ति नहीं हो सकी है। हम बनाते जरूर हैं, इस में पैसा भी खर्च होता है, लेकिन वह चीज दिखती नहीं है।

मुझे लगता है इस दिशा में और जगह भी काम हुआ होगा, लेकिन पिछले दो-एक वर्ष से उत्‍तराखंड के स्‍कूलों में इस दिशा में उल्‍लेखनीय प्रयास हुए हैं, जिनके परिणाम भी बेहतर रहे हैं। शिक्षक और कवि महेश पुनेठा और उनके साथियों की पहल से स्‍कूलों में दीवार पत्रिकाका एक आंदोलन ही खड़ा हो गया है। मेरा मानना है कि इस पहल ने साहित्‍य और बच्‍चों के बीच की जड़ता को तोड़ने का काम किया है। ‘चकमक’ बाल विज्ञान पत्रिका में सत्रह बरस तक संपादकीय जिम्‍मेदारी निभाने से प्राप्‍त अनुभव से मैं यह कह सकता हूँ कि बच्‍चे अपने हम-उम्र साथियों का लिखा हुआ पढ़ना कहीं अधिक पसंद करते हैं। यह पसंद उनमें न केवल पढ़ने की, बल्कि अच्‍छा पाठक बनने की आदत को विकसित करती है। वह उनमें अपने को अभिव्‍यक्‍त करने के लिए भी प्रेरित करती है। दीवार पत्रिका शायद उन्‍हें यह मौका दे रही है। जहाँ वे खुद लिखते हैं, पढ़ते हैं, चर्चा करते हैं, समीक्षा करते हैं। वास्‍तव में यह प्रक्रिया उनमें एक पाठक के साथ एक लेखक के संस्‍कार भी रोप रही है। बच्‍चे की समझ के बारे में कई और बातें कही जा सकती हैं।

पर मैं यहाँ केवल वह कहूँगा, जो प्‍लेटो ने लगभग दो हजार साल पहले कहा था कि, ‘बच्‍चा दरअसल बड़ों के बीच एक विदेशी की तरह होता है। जैसे किसी विदेशी से जिसकी भाषा आपको न आती हो जब आप बात करते हैं तो आपको मालूम होता है कि मेरी कई बातें वो ठीक समझेगा, कई नहीं समझेगा या गलत समझ जाएगा। और जब वह बोलता है, अपनी भाषा में बोलता है और हमको उसकी भाषा नहीं आती तो हम उसकी पूरी बात नहीं समझ पाते। कुछ समझते हैं, कुछ नहीं समझते हैं, और इस तरीके से जो आदान-प्रदान होता है वह आधा-अधूरा होता है।हमें बच्‍चे को भी इस तथ्‍य को ध्‍यान में रख कर देखना और समझना चाहिए।

अब हम दूसरे स्‍टेकहोल्‍डर की बात करें। वे हैं साहित्‍य के वाहक यानी बच्‍चों के अभिभावक या फिर स्‍कूल। थोड़ी देर पहले हमने पाठ्य-पुस्‍तकों की चर्चा के बहाने अपरोक्ष रूप से स्‍कूल की बात कर ही ली है। स्‍कूल की अपनी सीमाएँ और मजबूरियाँ हैं। उन पर और भी चर्चा हो सकती है।

अब यहाँ अभिभावक की बात करें। सीधे-सीधे साहित्‍य यानी किताबों तक बच्‍चों की पहुँच न के बराबर होती है। यानी एक तरह से किताब या साहित्‍य का चुनाव अभिभावक या फिर स्‍कूल के शिक्षक कर रहे होते हैं। मेरा अब तक अपना अनुभव यह कहता है कि अमूमन अभिभावक वह चुनते हैं जो उन्‍हें अच्‍छा लगता है, न कि बच्‍चे को। अभिभावक वह चुनते हैं जो उनके अपने संस्‍कार, मूल्‍य और विश्‍वासों को बल देता है, उनकी कसौटी पर खरा उतरता है। आमतौर पर ऐसा साहित्‍य जो बच्‍चों को कुछ नया करने, नया सोचने, सवाल उठाने या लीक से हट कर सोचने के लिए प्रेरित करे, मौका दे उसे अभिभावक पसंद नहीं करते। उन्‍हें लगता है उनके बच्‍चे उसे पढ़ कर बिगड़ जाएँगे। बाल साहित्‍य की महत्‍ता, उसकी जरूरत और प्रासंगिकता पर अभिभावकों के बीच काम करने, उनकी संवदेनशीलता बढ़ाए जाने की जरूरत है। जैसे हम कहते हैं कि बच्‍चे की पहली पाठशाला घर है, तो उसी तर्ज पर बच्‍चे का दूसरा घर पाठशाला है। इस नाते में यहाँ शिक्षकों को भी इसमें शामिल करना चाहूँगा। अंतत: वे भी अभिभावक ही हैं।

उधर स्‍कूल में भी पुस्‍तकालय के माध्‍यम से जो बच्‍चों तक पहुँचता है, वह भी एक खास ढर्रे का साहित्‍य होता है। ऐसा नहीं है कि इस दिशा में कुछ काम नहीं हुआ है। पिछले सालों में एन.सी.ई.आर.टी. में ही कृष्‍ण कुमार जी के निर्देशन में अच्‍छे बाल साहित्‍य के लिए एक सेल गठित किया गया था। जिसने बहुत मेहनत के बाद अच्‍छी किताबों की एक सूची जारी की थी। विभिन्‍न राज्‍यों में स्‍कूलों में उसके अनुरूप उन किताबों की खरीद भी हुई, वे पुस्‍तकालयों में पहुँची भी। तमाम स्‍कूलों में उनका उपयोग हो भी रहा है, हो भी रहा होगा। लेकिन जितना हुआ है, वह नाकाफी है। उस पर ध्‍यान देने की जरूरत है। इसे भी हमें एक चुनौती के रूप में सामने रख सकते हैं। जो सकारात्‍मक अनुभव हमें विभिन्‍न जगहों से प्राप्‍त होते हैं, सफलता की कहानियाँ सुनाई देती हैं, उन्‍हें केवल प्रसारित करने की नहीं बल्कि व्‍यवहारिक रूप में दुहराने की आवश्‍यकता है।

आइए अब तीसरे स्‍टेकहोल्‍डर यानी लेखक की बात करें। एक बार फिर ‘चकमक’ के अपने अनुभव से ही यह कहना चाहूँगा कि ऐसे लोगों की संख्‍या अच्‍छी खासी है जो यह मानते हैं कि बच्‍चों के लिए लिखना तो उनके लिए बाएँ हाथ का खेल है।फेसबुक’ जैसे माध्‍यम ने इस संख्‍या में केवल बाल साहित्‍य ही नहीं अन्‍य क्षेत्रों में भी ऐसे लिक्‍खाड़ों की संख्‍या में इजाफा किया है। वास्‍तव में ऐसा है नहीं। जैसा कि मैंने आरंभ में कहा, अगर उसे दोहराऊँ कि गुलज़ार साहब के शब्‍दों में अच्‍छा बाल साहित्‍य वह है जिसे पढ़ते हुए बच्‍चे से ले कर वयस्‍क तक आनंद महसूस करें। तो ऐसा साहित्‍य लिखने के लिए केवल बाएँ या दाएँ हाथ से काम नहीं चलेगा। अपने कान, अपनी आँखें, अपना दिमाग, अपनी समझ, अपनी सोच और अपना हृदय भी खुला रखना पड़ेगा।

इस संदर्भ में बाल साहित्‍य पर ऐसे आयोजन में पहली भागीदारी की एक याद मेरे मस्तिष्‍क में अब तक बसी हुई है। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है यह 1987 की बात है। जाने-माने लेखक और पत्रकार मस्‍त राम कपूर जी ने अखिल भारतीय जुवेनाइल लिटरेचर फोरमके बैनर तले बाल साहित्‍य पर चर्चा का एक आयोजन दिल्‍ली में किया था। मैं ‘चकमक’ की ओर से इसमें भाग लेने पहुँचा था। तब चकमक आरम्‍भ हुए मात्र दो साल ही हुए थे। आयोजन में निरंकार देव सेवक, डॉ. श्री प्रसाद और डॉ. हरि कृष्‍ण देवसरे जैसे दिग्‍गज मौजूद थे। देवसरे जी उन दिनों पराग का संपादन कर रहे थे। देवसरे जी ने अपने संबोधन में एक महत्‍वपूर्ण बात कही। उन्‍होंने कहा कि, बच्‍चों को गौतम- गॉंधी बनने का उपदेश, सदा सच बोलो, मेरा देश महान, देश की राह में प्राणों की दो आहुति, मैं मातृभूमि पर कुर्बान जैसे जुमलों ही नहीं उसकी अवधारणा से बाहर निकलने की भी जरूरत है। बहुत हुआ। एक समय था जब सच में हम को इन सब जुमलों और इस अवधारणा की जरूरत थी। लेकिन अब उस से कहीं आगे बढ़ना है।

खैर मेरे लिए तो उनकी यह बात लाइटहाउस के समान थी, जिसका पालन मैंने चकमक में किया। पर लगभग तीस-पैंतीस साल बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि अपने लेखन में इस तरह के जुमलों और अवधारणाओं का उपयोग करने वालों की संख्‍या में कमी नहीं आई है। या कहूँ कि इन्‍हें दरकिनार कर के बेहतर सकारात्‍मक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण साहित्‍य रचने वालों की संख्‍या में पर्याप्‍त इजाफा नहीं हुआ है। यहाँ उदय किरौला जी बैठे हैं। वे एक बरसों से एक बाल पत्रिका बाल प्रहरीका संपादन कर रहे हैं। वे भी इस समस्‍या से जूझते होंगे। मेरा मत है कि इसमें केवल इस तरह का लेखन करने वालों की ही कमजोरी नहीं है, उसे छापने वाले भी बराबरी के जिम्‍मेदार हैं। तमाम लघु बाल पत्रिकाएँ निकल रही हैं, अखबारों में रचनाओं को जगह दी जा रही है। लेकिन क्‍या उनमें व्‍यक्‍त किए जा रहे विचारों, मूल्‍यों और अवधारणाओं पर पर्याप्‍त विमर्श किया जा रहा है। यह मेरे लिए एक सवाल है। क्षमा करें, पर बच्‍चों के लिए लिखी गई ऐसी दस कविताओं में से मुझे कोई एक या दो ही उपयोगी लगती हैं। यही हाल कथा साहित्‍य का है। तो चुनौती लेखक की अपनी क्षमता-वृद्धि की भी है। केवल लिखना ही नहीं, उसे पढ़ना भी होगा। और पढ़ने से आशय केवल बाल साहित्‍य से नहीं है, हर तरह के साहित्‍य से है।

मैं दो और बातें संक्षेप में रखना चाहूँगा।

पहली बात, मेरा मानना है कि लेखक की अपनी एक राजनैतिक समझ भी होनी चाहिए, तभी वह अपने लेखन के साथ न्‍याय कर सकता है। असल में हम जिन मुद्दों पर लेखन में कमी देखते हैं, दरअसल वह अपरिपक्‍व या अधकचरी राजनैतिक समझ के कारण ही उपजती है। यहाँ राजनैतिक समझ का मतलब पार्टी राजनीतिनहीं है। लेखक को जाति, जेंडर, समानता, धर्म, संप्रदाय, राष्‍ट्र, गरीब होने का अर्थ, आर्थिक गैर-बराबरी आदि अवधारणाओं पर अपनी एक सुचिंतित समझ बनाने की जरूरत है।

दूसरी बात, साहित्‍य की तमाम छोटी-बड़ी पत्रिकाएँ निकलती हैं, उनमें से कई आला दर्जे की हैं, लेकिन उनमें भी बाल साहित्‍य को ले कर कोई चर्चा नहीं होती। कोई लेख नहीं छपते। बच्‍चों की किताबों की कोई समीक्षा नहीं होती। कायदे से जो लोग बच्‍चों के लिए नहीं लिख रहे हैं, उन्‍हें कम से कम बच्‍चों के लिए लिखे जा रहे समकालीन साहित्‍य पर अपनी टिप्‍पणी तो करनी ही चाहिए। क्‍योंकि उनकी पत्रिकाओं के लिए भी कल के पाठक आज के बच्‍चे ही होंगे। अगर उन्‍हें अच्‍छा साहित्‍य पढ़ने को नहीं मिलेगा, तो वे कल इन पत्रिकाओं तक भी नहीं पहुँचेगे। दूसरी तरफ अगर हमें हमारे बाल साहित्‍य को अधिक सार्थक और ऊर्जावान बनाना है तो इस दिशा में प्रयास करने होंगे, साहित्यिक पत्रिकाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी। वहाँ बाल साहित्‍य पर विमर्श बढ़ाना होगा।

मुझे लगता है चर्चा आरंभ करने के लिए इतना पर्याप्‍त है। बाकी और जो तमाम सवाल हैं, वे आप सब उठाएँगे ही, जोड़ेंगे ही।

अच्युतानंद मिश्र का आलेख ‘शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है’


मुक्तिबोध

आजाद भारत, जिसके सपने बुनते हमारे तमाम सेनानी अपनी आहुति दे बैठे, उनके लिए एक यूटोपिया ही साबित हुआ जिन्होंने उससे तमाम उम्मीदें पाल रखीं थीं.  शासकों के रंग-रूप तो जरुर बदल गए, लेकिन उनका चरित्र नहीं बदला. कुल मिला कर वह लोकतंत्र ही लहुलुहान होता रहा जिसे आजाद भारत का आधार बनाया गया था. मुक्तिबोध ने इस विरोधाभास को महसूस करते हुए इसे अपनी काव्यात्मक संवेदना में ढालने की एक ईमानदार कोशिश की थी. उनके यहां लम्बी कविताओं का एक लंबा सिलसिला यूं ही नहीं मिलता. चुकि दुःख और पीड़ा का सिलसिला इतना लम्बा, कह लें अंतहीन है इसलिए उनके यहाँ काव्यात्मक वितान भी अक्सर लम्बा दीखता है. युवा कवि अच्युता नन्द मिश्र ने मुक्तिबोध की लम्बी कविता  ‘अँधेरे में’ को  समझने के क्रम में   यह आलेख लिखा है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.

 

शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है 
अच्युतानंद मिश्र 
मुक्तिबोध की कविता की मूल संवेदना स्वातंत्र्योत्तर भारत की चेतना से निर्मित है, यानि उसके भूगोल को हम पचास के दशक के भारत में इंगित कर सकते हैं। पचास के पूर्व राष्ट्रीय संघर्ष न सिर्फ हमारे राजनीतिक जीवन, अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के केंद्र में भी मौजूद था। वहाँ व्यक्ति से राष्ट्र की ओर, एक दृष्टिकोण, सतत प्रेरणा की तरह मौजूद था। इसे हम तमाम जटिलताओं के साथ निराला की कविता में देखते हैं, जहाँ वे अपने निजी संघर्षों को राष्ट्रीय संघर्ष की चेतना से जोड़ते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात हमारे जीवन में एक विराट शून्य प्रवेश करता है। राष्ट्रीय संघर्ष की परिणति और निजी जीवन के संकट दोनों में एक बड़ा फांक संभवतः पहली बार मुक्तिबोध देखते हैं। इसलिए मुक्तिबोध की कविता में भयवाह दृश्य हैं, आशंकाएं हैं, चेतावनी है लेकिन निराला की तरह उनके पास राष्ट्रीय मुक्ति का विकल्प मौजूद नहीं था। मुक्तिबोध की कविताओं को हम निराला की कविताओं की क्रमिकता में नहीं पढ़ सकते। वहाँ एक क्रम भंग है। निराला की कविताओं से जैसा रिश्ता त्रिलोचन या नागार्जुन या केदारनाथ अगरवाल का बनता है, वैसा मुक्तिबोध का नहीं। मुक्तिबोध राष्ट्र से व्यक्ति की तरफ आते हैं और पाते हैं कि 
शून्यों से घिरी हुयी पीड़ा ही सत्य है

शेष सब अवास्तव यथार्थ मिथ्या है भ्रम है

सत्य केवल एक जो कि

दुखों का क्रम है 
मुक्तिबोध का यह दुःख निराला के दुःख से एकदम भिन्न हैवहाँ निजता का सार्वजनीकरण है। यहाँ निज और सार्वजनिक के बीच कोई सरलीकृत सम्बन्ध नहीं 
लोगों एक ज़माने में

तुम मेरे ही थे

बहुत स्वप्नद्रष्टा चिन्तक थे कवि थे

क्रन्तिकारी रवि थे!!

अब कहाँ गये वे स्वप्न

उन्हें किसी कचरे के ढूह में

यत्नपूर्वक जला दिया

उदरम्भरी बुद्धि के मलिन तेल में

स्वयं को गला दिया धातु-सा 
मुक्तिबोध निज की तलाश में भटकते हैंमुक्तिबोध की कविता यह प्रश्न पूछती है कि देश का मतलब क्या? व्यक्ति और देश के बीच कौन सा सम्बन्ध है?
कामायनी में वे व्यक्ति, राष्ट्र और समाज के बीच त्रिकोणात्मक सम्बन्ध की बात करते हुए प्रसाद की विश्व-दृष्टि की और इशारा करते हैं। उन्हें लगता है कि यह त्रिकोणात्मक सम्बन्ध संकटग्रस्त हो गया है।  लेकिन इसे किसी एक की तरफ से नहीं कहा जा सकता। मुक्तिबोध न तो व्यक्ति की उपेक्षा करते हैं न समाज की और न ही राष्ट्र की। फिर अभिव्यक्ति का तरीका क्या होगा? अचानक उनके मन में एक फैंटसी जगती है, वे कहते हैं –
अरे! जन-संग-ऊष्मा के

बिना व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते

प्रयासी प्रेरणा के श्रोत

सक्रिय वेदना की ज्योति

सब साहाय्य उनसे लो।  

तुम्हारी मुक्ति उनसे प्रेम में होगी

कि तद्गत लक्ष्य में से ही

ह्रदय के नेत्र जागेंगे,

व जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त

करने की क्रिया में से

उभर-उभर

विकसते जायेंगे निज के

तुम्हारे गुण

कि अपनी मुक्ति के रास्ते

अकेले में नहीं मिलते 
लेकिन यह मुक्तिबोध द्वारा उठाये गए प्रश्नों का उत्तर नहीं है। यह तो उस क्रम में समाज और राष्ट्र की और से उनके मन में आई एक बात है, मुक्तिबोध का मन कई तरह के विरोधाभासों और द्वंद्वों से भरा है। उनके पास कोई सीधा सादा समाधान नहीं है – कि अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।  
प्रसाद अपने मन की बात को ऐतिहासिक पात्रों चरित्रों द्वारा कहलवाते हैं। कामायनी में इड़ा, मनु और श्रद्धा को प्रसाद के मानसिक के विभाजन के रूप में देखा जा सकता है। मुक्तिबोध इसके लिए फंतासी को रचते हैं। मुक्तिबोध का मूल संकट है व्यक्ति -राष्ट्र और समाज के परस्पर सम्बन्धों का आज़ादी के बाद अर्थ। मुक्तिबोध की समूची कविता इसी प्रश्न का जवाब तलाशती है। मुक्तिबोध वस्तुतः प्रक्रियाओं के कवि हैं। आज़ादी के उपरांत हमारे सामाजिक जीवन में घट रहे बड़े परिवर्तनों को मुक्तिबोध उसकी संपूर्ण जटिलता के साथ देखने का प्रयत्न करते हैं
मुक्तिबोध हिंदी कविता में क्रमभंग को रचते हैं। इसके सामानांतर आज़ादी के बाद हमारे सामाजिक जीवन में भी एक क्रमभंग आता है। ऐसा नहीं है कि उसकी शुरुआत आजादी के बाद ही होती है। यह टूटन समाज में पहले से ही मौजूद था लेकिन राष्ट्रीय संघर्ष के विराट लक्ष्य में वह ओझल हो गया था।  आज़ादी के बाद यह संकट गहरा हो गया। व्यक्ति और समाज के बीच मौजूद सेतु टूट गया। ‘अँधेरे में’ कविता व्यक्ति और समाज की इस टूटन को बेहद जटिलता एवं संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है।  आज जिस तरह की स्थितियां हैं, जो कुछ घट रहा है, उसकी आशंका मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता में पहले ही व्यक्त किया था। अक्सर मुक्तिबोध पर बात करते हुए कुछ सूत्र गढ़ लिए जाते हैं जैसे मध्य वर्ग की आलोचना का प्रश्न, दरअसल मुक्तिबोध एक खास तरह के वर्ग द्वंद्ध को रचते हैं। मुक्तिबोध न तो किसी के पक्ष में खड़े हैं और न ही विरोध में। मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में में जो अपराध-बोध है, आत्मग्लानि है वह दरअसल मुक्तिबोध के भीतर का अंतर्द्वंध ही है जिसके आलोक में वे बाहर की दुनिया को देखते हैं, इसीलिए मुक्तिबोध को दीवारों पर झड़े हुए पलस्तरों में मानवीय आकृतियाँ नज़र आती हैं। वे उनसे संवाद करते हैं। वे एक तार्किक विपर्यय को रचते हैं। मुक्तिबोध स्वप्न के भीतर स्वप्न को इसलिए लाते हैं ताकि उसमे समय की एकरैखिकीय अनुशासनात्मकता को भंग किया जा सके। एक व्यक्ति के भीतर एक समाज एक राष्ट्र की खोज और उस सबमे मौजूद वर्तमान की तलाश। मुझे लगता है मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में इसे खोजने की कोशिश करती है। वहाँ व्यक्तित्व की खोज का अर्थ पर्सनल की तलाश नहीं है, बल्कि मुक्तिबोध के लिए व्यक्तित्व का संदर्भ बहुत व्यापक है। वे उसे समाज और राष्ट्र का प्रतीक बना देना चाहते हैं। लेकिन ऐसा न कर सकने की जटिलता उन्हें एक अबूझ रहस्यमयता की और ले जाती है, जिसके अलोक में यानि अँधेरे में के विराट प्रकाश में वे उसे व्याख्यायित करते हैं। 
वह रहस्यमय व्यक्ति

अब तक न पाई गयी मेरी अभिव्यक्ति है,

पूर्ण अवस्था वह निज–संभावनाओं, निहित प्रभाओं, प्रतिभाओं की

मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,

ह्रदय रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,

आत्मा की प्रतिमा। 
यह है मुक्तिबोध के उस व्यक्तित्व की पहचान, लेकिन ज्ञान का तनाव इंगित करता है कि ज्ञान और संवेदना के संतुलन का निर्वाह कर पाना उसके लिए कठिन होता जा रहा है। मुक्तिबोध के लिए मूल संकट है ज्ञान और संवेदना का की युगीन द्वंद्वात्मकता। वे युग को इस द्वंद्व के आलोक में चिन्हित करते हैं। 
इसी ज्ञान के दवाब में एक दिशा निकलती है, आत्मविकास एक मार्ग खुलता है और उस ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति-
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,

उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,

उनके लेख देखे थे, यहाँ तक कि कवितायेँ भी पढ़ी थी

भाई वह !

उनमे कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण

मंत्री भी उद्योगपति और विद्वान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

डोमाजी उस्ताद

बनता है बलबन  
यह सब कुछ मुक्तिबोध के उस रहस्यमय व्यक्ति की परिणति है। इसलिए उसमे एक आत्मग्लानि है। अपनी आत्मा के आईने में आत्मविकास को देख कर मुक्तिबोध का मन डर जाता है। वे भागते हैं। और फिर अचानक कुछ और घटने लगता है। 
मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ एक विशाल अनिश्चयात्मकता को रचती है, यह अनिश्चयात्मकता ही हमारा वर्तमान है। 
अच्युतानंद मिश्र
सम्पर्क – 

G-12/1

FIRST FLOOR

MALVIYA NAGAR

NEW DELHI- 110017
MOBILE 9213166256  

दारियो फ़ो की मृत्यु पर उनके कलाकार लेखक पुत्र जकोपो फ़ो का वक्तव्य (अनुवाद : यादवेन्द्र)

दारियो फ़ो


1997 के साहित्य नोबेल पुरस्कार विजेता महान इतालवी नाटककार और वामपंथी सांस्कृतिक ऐक्टिविस्ट दारियो फ़ो का इटली के मिलान में 13 अक्टूबर 2016 को निधन हो गया। जीवन की विसंगतियों पर वे जिस तरह से व्यंग्य करते थे वह अपने आप में बेजोड़ होता था। दारियो फ़ो ने चालीस से ज्यादा नाटक लिखे जो मंचित होने के साथ-साथ दुनिया भर में काफी लोकप्रिय भी हुए। एन एक्सीडेन्टल डेथ ऑफ़ एन एनार्किस्ट,  ‘कैन नाट पे? वुड नाट पे’ (चुकाएँगे नहीं), ए मैड हाउस फॉर द सेन, मिस्तेरो बुफ़ो, पैशन प्ले, टू हेडेड एनोमली (दो मस्तिष्कों की अनियमितताएँ), फर्स्ट मिरेकल ऑफ इन्फैंट जीसस’ (‘शिशु यीशु का पहला चमत्कार’), पोप एंड द विच, द पीपुल्स वार इन चिली जैसे नाटकों ने फ़ो को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलायी दारियो फ़ो को अपने लेखन की कीमत भी चुकानी पड़ी और उनके खिलाफ पैतालीस से ज्यादा मुकदमे दायर किये गए। इसी क्रम में वे पुलिसिया बर्बरता के शिकार बने और जेल भी गए। मसखरेपन को फ़ो ने अपने लेखन का आधार बनाया, यह जानते हुए भी कि ऐसा करना उन के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। नोबेल पुरस्कार लेने के समय दिए गए अपने वक्तव्य की शुरुआत ही दारियो फ़ो ने तेरहवीं सदी के एक इतालवी क़ानून की याद दिलाते हुए की जिस में विदूषकों के लिए एक सीमा के बाद मौत की सजा मुकर्रर की गयी है। दारियो फ़ो की मृत्यु पर उन के कलाकार लेखक पुत्र जकोपो फ़ो ने जो वक्तव्य दिया, उसका अनुवाद किया है यादवेन्द्र जी ने। दारियो फ़ो जैसे अप्रतिम रचनाकार कलाकार को श्रद्धांजलि देते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं जकोपो फ़ो का यह महत्वपूर्ण वक्तव्य।

 

दारियो फ़ो की मृत्यु पर उनके कलाकार लेखक पुत्र जकोपो फ़ो का वक्तव्य
(प्रस्तुति एवं अनुवाद – यादवेन्द्र)
यहाँ उपस्थित सभी लोग, बरसों पुरानी अपने बचपन की एक घटना आपको सुनाता हूँ। मेरे पिता उस समय बाथरूम में शेव कर रहे थे, उन को किसी नाटक के लिए बाहर निकलना था। मैं बाथरूम के दरवाज़े पर ही बैठ गया और वे मुझे एक किस्सा सुनाने लगे। सदियों पुरानी बात थी जब बोलोन्गो में युद्ध चल रहा था और हज़ारों उसकी बलि चढ़ चुके थे। इस युद्ध से हो रहे विनाश से लोग-बाग तंग आ गए और शासन के खिलाफ़ उन्होंने बग़ावत कर दी – शासन चलाने वाले हुक्मरान भाग कर पहाड़ी पर बने एक किले के अन्दर घुस गए ….. इसकी बनावट ऐसी थी कि कोई उसके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकता था, अभेद्य। किले में शरण लेने वाले हुक्मरान केपास महीनों तक चलने वाला अन्न-पानी था जब कि विद्रोही आम जनों के पास किले पर आक्रमण करने के लिए  हथियार तक नहीं थे। यहाँ तक कहानी सुनाने के बाद पिता ने मुझ से पूछ दिया : “अब तुम बताओ, इतने मज़बूत और सुरक्षित किले के अन्दर छुपे हुए हुक्मरानों पर  निहत्थे लोगों ने आखिर कैसे काबू किया होगा?” मेरे पास इस का कोई जवाब नहीं था, बल्कि मुझे तो यह विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मेरे पिता जो कह रहे हैं वास्तव में यह हुआ भी था। मुझे निरुत्तर देख उन्हों ने बताया : “बगावती लोगों में से किसी एक बन्दे को एकदम मामूली और बुनियादी सा ख्याल आया – इस किले को इंसानी शौच से पूरी तरह से क्यों न ढँक दिया जाए। फिर क्या था लोग-बाग अपने घरों से गाड़ियों में शौच भर कर लाते और किले के ऊपर उड़ेल जाते। घरों से निवृत्त होने के बदले लोग किले के बाहर आ कर निवृत्त होने लगे – यह किले पर चढ़ाई करने की उनकी शैली थी। धीरे-धीरे शौच की दीवार ऊँची और मोटी होती गयी… हालत यहाँ तक पहुँच गयी कि अन्दर छुपे हुक्मरानों का हौसला और धैर्य दोनों जवाब दे गया और उन्होंने इस अनूठे हमले का जवाब देना भी छोड़ दिया और अन्ततः बगावती जनता के सामने हथियार डाल दिए।”  मुझे लगता है कि मेरे पिता और माँ दोनों जीवन भर जो कहते करते रहे उन में यही एक स्थायी भाव था। वे उन लोगों के किस्से ही सुनाते रहे जिनके पास बचाव का कोई साधन नहीं था पर वे महान और अजेय ताकतों से लोहा लेते रहे… उन कहानियों में यही होता था कि शक्तिहीन ताकत पर विजय प्राप्त करते थे, वे जीवन की गरिमा का परचम लहराते थे और इसके लिए वे नायाब रास्ते निकालते थे। मेरे पिता ने अपनी हर कहानी में ऐसे अद्वितीय और शानदार रास्ते सुझाये हैं जिन से अजेय शक्तियों पर काबू किया जा सके। जब तक हम सामान्य ढंग से यही सोचते रहेंगे कि मोटी दीवारों और मज़बूत सुरक्षा तन्त्र वाले किले अपराजेय हैं तब तक ऐसे अजूबे बेतुके और कभी कभी हास्यास्पद पर कारगर रास्ते नहीं सूझेंगे। कई बार ऐसे उपायों पर आप खुद ही हँसते-हँसते लोटपोट हो जायेंगे। एक दूसरा किस्सा भी है – “मिस्तरो बफ़ो” (दारियो फ़ो की सर्वाधिक लोकप्रिय नाट्य प्रस्तुति जिस ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप और लैटिन अमेरिका में धूम मचा दी थी) की पहली कहानी भी यही है – यह बेहद खूबसूरतबीवी वाले एक गरीब किसान की कहानी है। एक दिन एक बड़ा अफ़सर उसके घर धमकता है, किसान की पिटाई करके हाथ पाँव बाँध देता है, उस की बीवी के साथ बलात्कार करता है और उस के बच्चों को मौत के घात उतार डालता है। जब वह किसान को मरा हुआ समझ कर चला जाता है तो दर्द से कराहता हुआ किसान किसी तरह उठता है … पहला ख्याल उसके मन में ख़ुदकुशी का आता है। जैसे तैसे वह रस्सा उठाता है –उसके घर में और कुछ बचा ही नहीं था – एक स्टूल घसीट कर उसके ऊपर खड़ा होता है कि अचानक एक बेहद मासूम सा खूबसूरत बच्चा कमरे में प्रवेश करता है …..वह ख़ुदकुशी को तैयार किसान के पास आ कर उसको चूम लेता है। वह बच्चा और कोई नहीं खुद ईसा मसीह थे …. उनके चूमने ने किसान को अन्दर तक झकझोर दिया , उस में कुछ ऐसा असर था कि किसान के मन में यह इच्छा जग गयी कि वह जिन्दा रहे और सारे समाज में घूम घूम कर लोगों को अपने साथ हुए अन्याय अत्याचार की कहानी सुनाये। वह विदूषक बन गया और यही विदूषक के जन्म लेने की कहानी भी है – यही मेरी माँ और पिता के काम की कहानी भी है, उन का यह काम बिलकुल इसी बिन्दु पर शुरू हुआ। किसी प्रतिकूल हालात को बदलने का पहला चरण होता है कि उस के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोगों को बतलाया जाये – हमारे अपने जीवन के उतार चढ़ाव लोगों के साथ साझा किये जायें। उनके जीवन की सब से शानदार बात यह रही कि उन्होंने बड़ी बेबाकी के साथ अपने जीवन में घटी बातों को लोगों के साथ साझा किया। चाहे वे कारखाने के मज़दूर हों या विद्यार्थी – उन्हों ने उन की कहानियाँ भी अपनी कहानियों के साथ जोड़ दीं और स्टेज पर प्रस्तुत कीं। जो कुछ भी उन्होंने स्टेज पर दिखाया वह महज़ उनकी योग्यता या प्रतिभा का प्रदर्शन नहीं था। लोगों ने दारियो और फ्रैंका को उनके ऐसे नायाब कामों के लिए प्यार भी खूब किया – मुझे यकीन है कि यहाँ जो विश्व समुदाय उपस्थितहुआ है वह मेरी बातों से बिलकुल इत्तेफ़ाक रखता है – आप ने स्टेज पर न सिर्फ़ एक प्रतिभावान ऐक्टर देखा बल्कि एक ऐसे कलाकार को देखा जो स्टेज पर प्रस्तुत कहानियों का भुक्तभोगी और हिस्सेदार भी रहा है।
दारियो फ़ो
मेरे पिता जो कभी भाषण देने में यकीन नहीं करते थे,  उन्हों ने एक दिन मुझे बुलाया और कहा :  तुम्हारे मन में जो कुछ हो उसको पूरा करो, इस से तुम्हारा जीवन दीर्घायु होगा। पर दम्भपूर्ण या बेपरवाह बन कर नहीं – अपने सपनों को साकार करने के लिए लक्ष्यों का अन्तिम साँस तक और तब तक पीछा करो जब तक वे साकार न हो जाएँ। दरअसल मेरी माँ और पिता ने खुद किया भी ऐसा ही – वे आगे कदम बढ़ाते गए चाहे कितनी भी मुश्किलें पेश आयी हों, उन्हों ने अपने सिर कभी नहीं झुकाये। जिन लोगों ने उनके ऊपर पत्थर फेंके, अन्त में उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा। उन्हों ने अपना जीवन शानदार  ढंग से जिया, उन्हें प्यार भी बेशुमार मिला। मैं यहाँ खड़ा हो कर उन सबको सलाम और शुक्रिया भेजता हूँ जो मेरे पिता को सैल्यूट करने यहाँ आये। सब के पास कहने को कोई न कोई बात है –तुम्हारे पिता ने मेरे लिए यह किया .. वह किया। कब्ज़े में लिए गए कारखानों के मज़दूर यहाँ आये … जिन्हों ने पिता से घंटों बातें कीं और मेरे पिता ने बड़े धैर्य से जिन की तमाम बातें सुनीं, वे यहाँ आये हैं। हम लोग पिता को भुलक्कड़ इंसान माना करते थे पर वे उन लोगों की व्यथा घंटों सुन सकते थे जिन के साथ किसी न किसी तरह का अन्याय हुआ है। मैं इस से पहले कि आप इस जन सैलाब में विलीन हो जाएँ यहाँ अन्त में कहना चाहता हूँ कि हमें जुलाई में ही यह एहसास हो गया था कि वे जीवन की अन्तिम साँसें ले रहे हैं। हमारे लिए यह बेहद मुश्किल समय था – पिता ने मुझ से कहा कि वे बब्बर शेर की तरह मौत से लड़ने को तैयार हैं। अगले महीने अगस्त में उन्हों ने दो घंटे का एक नाटक तीन हज़ार दर्शकों के सामने खेला … इतना ही नहीं उन्हों ने नाटक के अन्त में एक गीत भी गाया। मैंने जब उन के डॉक्टर से कहा : “आप को मालूम है कि पिता ने क्या किया? अभी अभी उन्हों ने एक लंबा नाटक किया है …. और अन्त में खुद एक गीत भी गाया। “ डॉक्टर ने जवाब दिया कि जेकोपो, मैं वैसे तो नास्तिक हूँ। पर अब चमत्कारों में विश्वास करने लगा। “इन बातों के माध्यम से मैं यह बताना चाहता हूँ कि कला के लिए जूनून, लोगों के लिए प्यार और उन के सुख दुःख, के साथ साझापन – ये दरअसल औषधियाँ हैं। ये सही मायनों में स्वास्थ्य सुधार के अनिवार्य चरण हैं जिन का हम सब को अनुसरण करना चाहिए। डॉक्टरों को पुर्जे पर दवाओं के साथ-साथ यह भी नुस्खा लिखना चाहिए : भोजन के बाद किसी न किसी कला में प्रवृत्त हों  ….. और किसी दूसरे के हित के लिए कोई न कोई काम जरूर करें।” हम पिता की मृत्यु के बाद उन की स्मृति में उसी तरह का आयोजन कर रहे हैं जैसी उन की  ख्वाहिश थी – मुझे मालूम है उनके कई मित्र और कॉमरेड उन के बारे में कुछ बोलने की इच्छा रखते हैं पर पिता की ऐसा ही आयोजन करने की इच्छा थी …. किसी ने मुझ से पूछा कि “मेरी कलाइयों को कस कर अपने हाथ से थामो”** वाला गीत यहाँ क्यों बजाया जा रहा है? यह गीत मेरे पिता ने माँ के लिए लिखा था और उन्हों ने अपनी मृत्यु पर इसको बजाने के बारे में मुझ से कहा था। हम कम्युनिस्ट और नास्तिक लोग हैं पर मैंने देखा कि मेरी माँ की मृत्यु के बाद भी पिता उन से बतियाते रहे, अलग अलग मौकों पर उन से मशविरा लेते रहे …. मुझे लगता है हम थोड़े जीववादी (एनिमिस्ट) भी हैं …. हमारे मन में यह विचार बना रहता है कि किसी के शरीर छोड़ देने से उस का नाश हो जाए वास्तव में ऐसा नहीं होता। आइये हम यह ही मान कर चलें … मेरे पिता मेरी माँ से मिल गए, अब दोनों साथ साथ हैं। जितने सन्देश मुझे मिले उन में से एक ने मुझे भावुक बना दिया – एक पिता जिसका छोटा बेटा अभी-अभी उस से बिछुड़ गया, पर पिता उसको अनुपस्थित न मान कर हर रोज़ उसको एक चिट्ठी लिखता है। कल उस पिता ने अपने बेटे को चिट्ठी लिख कर विस्तार से बताया दारियो फ़ो कौन था। 
मुझे यकीन है मेरी माँ और पिता एक बार फिर से मिल गए – दोनों मिल कर किसी न किसी बात पर हँसते हैं। शुक्रिया कॉमरेड …. आप का बहुत बहुत आभार।     
** मेरी कलाइयों को कस कर अपने हाथ से थामो
    हाँ, अपने हाथ से थामो 
    और यदि मेरी आँखें मुँदी भी रहें 
     मैं अपने दिल की आँखों से तुम्हें पहचान लूँगा ….. 
दारियो फ़ो का यह गीत अनेक लोकप्रिय गायकों ने गाया और टी. वी. तथा सिनेमा में भी खूब इस्तेमाल हुआ। 
यादवेन्द्र पाण्डेय
सम्पर्क – 

मोबाईल – 09411100294 
  

तुषार धवल की कविताएँ

तुषार धवल
जिन्दगी के चलने का ढर्रा बेतरतीब होता है अपनी बेतरतीबी में ही यह वह तरतीब रचती है जिसे कवि, चित्रकार और समाज विज्ञानी अपनी-अपनी तरह से उकेरने का प्रयास आजीवन करते रहते हैं। एक अर्थ में कलाकार जो ललित रचनाओं से जुड़े होते हैं समाज के सजग पहरेदार होते हैं। अपनी रचनाओं के द्वारा वे विसंगतियों का खुलेआम विरोध करते हुए वह प्रतिपक्ष रचते हैं जिस पर आम जनता को पूरा और पक्का भरोसा होता है। यह भरोसा ही किसी भी कृतिकार की कृति को कालजयी बनाता है। इसी भरोसे की रक्षा के लिए दुनिया के बर्बर आतंकवादी संगठन अल कायदा को निर्भीकता के साथ सीख देते हुए कवि तुषार धवल कहते हैं – ‘अल-क़ायदा?/ तू भी आ यार/ इन्सान हो ले।’
  
तुषार धवल को पढ़ते हुए यह स्पष्ट तौर पर लगा कि वे अपनी तरह के अलग बनक के कवि हैं। आज जब कविताओं के कवि के पहचान के संकट की बात की जाने लगी है ऐसे में तुषार धवल की कविताएँ पढ़ कर हम उस में उनका अक्स अलहदा तौर पर पहचान सकते हैं। हमने जब ‘पहली बार’ ब्लॉग के लिए उनसे कविताएँ भेजने का आग्रह किया तो अरसे तक संकोच में पड़े रहे। मेरे बार-बार आग्रह के मद्देनजर तुषार धवल ने ‘पहली बार’ के लिए अपनी लम्बी कविता की सिरीज ‘मरीन ड्राईव : मुम्बई’ और कुछ अन्य कविताएँ भेजीं। साथ ही छोटा सा एक आत्म-कथ्य भी, जो इस प्रकार है – ‘इधर कुछ दिनों से अपनी सामाजिक-राजनैतिक चिन्तन से हट कर भाव और अनन्त की तरफ मुड़ गया हूँ। दृश्यात्मकता और भाव-सहजता को कविता में जीने की कोशिश कर रहा हूँ।’ यह आत्म-कथ्य अपनी संक्षिप्तता में ही जैसे सब कुछ कह देता है ‘पहली बार’ पर उनकी ये सारी कविताएँ एक साथ प्रस्तुत की जा रही हैं जिस से पाठक एक समग्रता में उनकी कविताओं का आस्वाद ले सकें और इस बारे में ख़ुद कोई निर्णय ले सकें। हमेशा की तरह हम आपकी अमूल्य और बेबाक टिप्पणियों का बेसब्री से इन्तजार करेंगे
   
तो आइए आज ‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं कवि तुषार धवल की कुछ नयी कविताएँ                

तुषार धवल की कविताएँ

बदमाश हैं फ़ुहारें  (मरीन ड्राइव, मुम्बई)
बदमाश हैं फ़ुहारें
नशे का स्प्रे उड़ा कर होश माँगती हैं
गरम समोसे सी देह पर
छन्न्
उंगली धर देती है आवारा बूँद
जिसकी अल्हड़ हँसी में
होंठ दबते ही आकाशी दाँत चमक उठते हैं
हुक्के गुड़गुड़ाता है आसमानी
सरपंच
खाप की खाट पर
मत्त बूँदों की आवारा थिरकन
झम झम झनन ननन नन झन झनझन
नियम की किताबें गल रही हैं
हो रहे
क़ायदे बेक़ायदा!
अल-क़ायदा?
तू भी आ यार
इन्सान हो ले
और यह पेड़ जामुन का
फुटपाथ पर!  
बारिश की साँवली कमर पर
हाथ धर कर उसकी गर्दन पर
रक्त-नीलित चुम्बनों का दंश जड़ कर
झूमता है
कुढ़ा करिया कुलबुलाया बादल
गला खखारता फ्लैश चमका रहा है
क़ाफिया कैसे मिलाऊँ तुमसे
जब कि मुक्त-छन्द-मौसम गा रहा है
अपनी आज़ाद बहर में
चलो भाप बन कर उड़ जायें
मेघ छू आयें
घुमड़ जायें भटक जायें दिशायें भूल जायें
नियम गिरा आयें कहीं पर
मिटा दें अपनी डिस्क की मेमोरी
अनन्त टैराबाइट्स की संभावना के
नैनो चिप के वामन बन
चलो कुकुरमुत्ते तले छुप जायें
बारिश को ओस के घर चूम आयें
शाम की आँख पर सनगॉग्स रख दें
बरगद के जूड़े में कनेर टाँक
चलो उड़ चलें
अनेकों आयाम में बह चलें
झमकती झनझनाहट के बेकाबूपन में
देह को बिजली सी चपल कर
चमक जायें कड़क जायें लरज़ जायें
बरस जायें प्रेम बन कर
रिक्त हो जायें
तुम इसे अमृत कहो
और मैं आसव
यहाँ पर सब एक है
बदमाश हैं फुहारें
मरीन ड्राइव पर
वाइट वाइन बरसाती हुईं।
जब सूरज सेल्फी लेता है
(मरीन ड्राइव, मुम्बई)
सँझियारे पानी के कैमरे से
सेल्फी लेता
तंदूरी सूरज
मुस्कान टिकाये रखने की जतन में
थोड़ा लुक-कौन्शियसहुआ है
तमाशाई कोई मेघ
जाते जाते ठहर गया है
उसे देख कर
हवा ने हौले से खींचा है उसे,
अब चल्लो ना!”
थोड़ी हरकत हुई वहाँ।
सड़क से गाड़ियों का धुआँ
अपने संग धूल भी ले उड़ा
आसमानी पिकनिक पर
जहाँ
उड़ती मैना की टोली ने छेड़ा उन्हें
लजाई धूल कणों का माँगटीका
सुनहरी छटा में दमक उठा
मकानों पर उग आये मोबाइल टावर्स पर
चढ़ कर एक पतंग टाँग दी जाये
कुछ कंदील रोशनी के लटका दिये जायें
पटाखे छोड़े जायें पैराशूट में लहराते हुए
अभी यही खयाल आया है
उस जोड़े को
जिसके
चुम्बन में सम्मोहित होंठ
पिघलते मक्खन पर
नरम शहद का स्वाद बन रहे हैं
हिंसा हवस होड़ की
अपच से अनसाई
उकताई उबकाई से
उबरने को आतुर दुनिया
दृश्य-गन्ध-स्पर्श-स्वाद-स्वप्न के
पंचकर्म से
काया-कल्प की ललक लिये
ऐसी ही मिलती है
जब कि
देखा जाये तो
हर एक दृश्य
हर एक चेहरे के पीछे
भीषण घमासान
विदारक हाहाकार
मचा होता है।
जीवन दर-रोज़ का कारोबार नहीं
प्रतिबद्धता बन जाता है, इसी जगह।
39*C
(मरीन ड्राइव, मुम्बई)
काई के सँवलाये गाढ़े हरे रंग का
अलसाया समन्दर
अनमने हाथों से
किनारे पर
आदिम पत्थरों के गंजे सिर की
सुस्त चम्पी करता हुआ
देखता है
किरणों से मिटमिटाई आँख से
धुल कर धूप में टँगे
बदन से पानी टपक रहा है
उमस ऐसी कि भरे नालों सा पसीना
उफनता है
सूरज को सर चढ़ा रखा है
प्रेमियों ने
समन्दर को मुँह लगा रखा है
दुनिया का स्वाद खारा इनकी जीभ पर
प्यार का नमक चख रखा है
धूप इन पर नहीं पड़ती
39*C की उमस भरी गर्मी
इनके लिये नहीं है
नहीं हैं समय के खाँचे
बहते बोध में
ये दुनिया पर पीठ किये
समन्दर को देखते हैं
खोजते अपनी लहर को
स्क्रीनशॉट सा यह दृश्य जिसमें
इमॉटिकॉनकी तरह वे
रह-रह कर हँसते-हिलते हैं
एक अटकी हुई जम्हाई है यह
दोपहर, जिसमें
उनके ठीक पीछे
जैज़ बाय द बेके
शीशेदार एयरकन्डीशन्ड माहौल में
पिट्जा और लेजर बियर की चुस्कियों सा
मरीन ड्राइव थोड़ा हाई मूडमें चलता हुआ
लाल सिग्नल पर मन मार कर ठहर गया है
ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर वैतरणी की तरह सड़क पार करते
हड़बड़ाये लोगों का झुण्ड
अपनी बिखरी बिन्दुओं को समेट लेने की अकुलाहट में
उस पार लपका जा रहा है
मरे साँप सी सुस्त सड़क पर
व्यस्त चीटियों की दौड़ती लहर सा ट्रैफिक
उफ़न पड़ा है
और इस दौड़ते दृश्य में
सिर जोड़े जोड़ों के कन्धों से
नीचे की तरफ सरक आये हाथों में एक कम्पन
उग कर टिक गई है
बदन सिहरन का स्थाई पता है
न दर है, न डगर, न बसर
मछली की गंध उड़ाती
इस भीगी भारी हवा में
सब कुछ एक खिंची हुई अंगड़ाई है
आपसी नाभियों से उगे
इन सभी दृश्यों में
धूप उमस या 39*C का अर्थ नहीं है
और ना ही समन्दर पर सफेद पाल तानी
उन नौकाओं के लिये
जो लहरों पर थिरक रही हैं
इस सबसे अलग-थलग और उकताया हुआ
राग-रिक्त आदमी
उचाट आँखों से देखता है
इन प्रेमियों को
रेस्त्राँ में निथरती चुस्कियों को
सड़क पर व्यस्त भागते लोगों को।
वह मरीन ड्राइव पर छाँह खोजता
नारियल के पेड़ पर पंख खुजाते कौवे को देखता है
कॉलर ढीली कर
पसीना पोंछता आसमान देखता हुआ कहता है
उफ्फ! 39*C की यह उमस यह धूल यह धुआँ
जीना मुहाल हुआ जाता है
इस गर्मी में!

आधी रात का बुद्ध

यह मोरपंखी सजावट की  गुलाबी मवाद
जिसे तुम दुनिया कहते हो
नहीं खींच सकी उसे
उसने डुबकियाँ लगाई जिस्म-ओ-शराब में
मरक़ज़-ओ-माहताब में
मशरिक-ओ-मग़रिब में
लेकिन रात ढले उग आया वह
अपने पश्चिम से
वह अपने रीते में छलक रहा है
बह रहा है अपने उजाड़ में
वह अपने निर्जन का अकेला बाशिंदा
अपने एकान्त में षडज् का गंभीर गीत है
रात के चौथे आयाम की अकेली भीड़ है वह
अपने घावों में ज्ञान के बीज रोपता
रंगता है बेसुध
बड़े कैनवास के कालेपन को
काले पर रंग खूब निखरता है
वह जान चुका है
रिश्तों की खोखल में झाँक कर
वह जोर से “हुआऽऽहू” चिल्ला कर मुस्कुरा देता है
हट जाता है वहाँ से
असार के गहन सार में उतर कर
उभरता है वहाँ से
निश्चेष्ट निष्कपट निष्काम
दुख प्रहसन की तरह मिलते हैं उससे  इस पहर
पीड़ाएँ बहनों की तरह मुँहजोर
उसे मतलब में छुपा बे-मतलब
मिल जाता है अचानक
लिखता है वह अपना सत्य
अपनी कविता उपेक्षित दिन हुए
वह कहता है सच्चे मन की अपनी बात
दिन चढ़े उसे गलत समझ लिया जाता है
दिन भर दोस्तों और दुनिया के हाथों ठगा जा कर
चोट खाया
आधी रात गये बुद्ध हुआ वह मुआफ़ कर देता है सबको।
जगत की लघुता पर मुस्कुराता है वह
और उसे भूल जाता है।
लौटता हूँ 
लौटता हूँ उसी ताले की तरफ
जिसके पीछे
एक मद्धिम अन्धेरा
मेरे उदास इन्तजार में बैठा है
परकटी रोशनी के पिंजरे में
जहाँ फड़फड़ाहट
एक संभावना है अभी
चीज-भरी इस जगह से लौटता हूँ
उसके खालीपन में
एक वयस्क स्थिरता
थकी हुई जहाँ
अस्थिर होना चाहती है
मकसद नहीं है कुछ भी
बस लौटना है सो लौटता हूँ
चिंतन के काठ हिस्से में
एक और भी पक्ष है जहाँ
सुने जाने की आस में
लौटता हूँ
लौटने में
इस खाली घर में
उतार कर सब कुछ अपना
यहीं रख-छोड़ कर
लौटता हूँ अपने बीज में
उगने के अनुभव को होता हुआ
देखने
लौटता हूँ
इस हुए काल के भविष्य में

जीवन, मैं और तुम
यह रात बीतते हुए बीत जायेगी
इसमें छुपा बीता हुआ दिन भी मिट जायेगा
संवाद के घेरे में कहा सुना
सब मिट जायेगा
एक सूखी हुई छाप सा रह जायेगा
यह दिन
मेरी उमर की गिनती में ऐसे ही बढ़ता है
झुर्रियों की तरफ समय
वहाँ
जहाँ मृत्यु और प्रेम
तुम्हारा नाम ओढ़
अपना फ़र्क खो देते हैं
जीवन और मैं
अपने अन्त का अद्वैत
तुम्हें कहते हैं
असंग 
इस उजाड़ में भटकता
असंग का प्रेत कहता है
देखो मुझे
पहचानो खुद को
आई हुई रोशनी
लौट जाती है
मिली हुई नेमतें
खो जाती हैं
मिट्टी का ढेला पोखर में घुल जाता है
मरी मछली के नाम
कोई संदेसा नहीं आता
मैं ही हूँ तुम और तुम्हारी यात्रा
एकल
चलूँगा साथ तुम्हारे
तुम्हारी साँसों के उस पार तक
ढकोसलों का बाजार गिरा कर
बत्ती बुझा देता हूँ
ऐसे ही इस क्षण
रोशनी पर आँख स्थिर किये
मैं अपनी मृत्यु की घोषणा करता हूँ

समय बदला पर
यह ताकतवरों के हमलावर होने का समय है
और निशाना इस बार सिर पर नहीं
सोच पर है
मैं हमलों से घिरी हुई ज़ुबान का
कवि हूँ जिसके
पन्नों से घाव रिसते हैं
मेरी सोच का वर्तमान
अपनी ज़मीन पर अजनबी हो कर
अनजानी सरहदों में खो गया है
 उधार की भाषा नहीं समझ पाती है मेरी बात
सदी दर सदी
वे मारते ही जाते हैं
अलग-अलग तरीकों से मुझे
अपनी मुट्ठी में जकड़ लेना चाहते हैं
मेरा आकाश।
जिन्हें मिट जाने का भय है
उनकी प्यासी देवी
मेरी बलि माँगती है हर बार।
न मैं थकता हूँ
न वे
और यह खेल खेलते हुए हम
पिछली सदियों से निकल आये हैं
इस सदी में
समय बदला पर
न जीने की जिद्दी ज़ुबाँ बदली
न ताकत के तरीके।
कविता नहीं वह सीढ़ियाँ लिखता है
नाहक ही होती है कविता
नाहक ही छपती है
नाहक के इस उर्वर प्रदेश में जो बस गया
अकेला रह जाता है
मत बसो इस खतरनाक मौसम वाली जगह में
पर्यटक की तरह आओ और निकल जाओ
शिखर की तरफ
कविता के साधन पर सवार
मत लिखो
मत पढ़ो कवितायें
वह बड़ा कवि झूठा है
कविता नहीं वह सीढ़ियाँ लिखता है
इस यात्रा में
इस दूर तक पसरे बीहड़ में
रह-रह कर मेरी नदी उग आती है
तुमने नहीं देखा होगा
नमी से अघाई हवा का
बरसाती सम्वाद
बारिश नहीं लाता
उसके अघायेपन में
ऐंठी हुई मिठास होती है
अब तक जो चला हूँ
अपने भीतर ही चला हूँ
मीलों के छाले मेरे तलवों
मेरी जीभ पर भी हैं
मेरी चोटों का हिसाब
तुम्हारी अनगिनत जय कथाओं में जुड़ता होगा
इस यात्रा में लेकिन ये नक्शे हैं मेरी खातिर
उन गुफाओं तक जहाँ से निकला था मैं
इन छालों पर
मेरी शोध के निशान हैं
धूल हैं तुम्हारी यात्राओं की इनमें
सुख के दिनों में ढहने की
दास्तान है
जब पहुँचूँगा
खुद को लौटा हुआ पाऊँगा
सब कुछ गिरा कर
लौटना किसी पेड़ का
अपने बीज में
साधारण घटना नहीं
यह अजेय साहस है
पतन के विरुद्ध

सम्पर्क –
मोबाईल – 09769321331

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

मुक्तिबोध के संबंध में विनोद कुमार शुक्ल से घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार की बातचीत

मुक्तिबोध
मुक्तिबोध जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं द्वारा मुक्तिबोध विशेषांक निकाले जा रहे हैं। यह स्वाभाविक होने के साथ-साथ हम सब का दायित्व भी है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने  वाली पत्रिका ‘समकालीन जनमत’ का अभी-अभी मुक्तिबोध अंक आया है। इस अंक में मुक्तिबोध के नजदीक रहे कवि विनोद कुमार शुक्ल से साक्षात्कार लिया है घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर रु-ब-रु होते हैं इस महत्वपूर्ण बातचीत से       

मुक्तिबोध के संबंध में विनोद कुमार शुक्ल से घनश्याम त्रिपाठी और अंजन कुमार की बातचीत
प्रश्न: मुक्तिबोध से आपकी मुलाकात कब और किस तरह हुई?
विनोद कुमार शुक्ल : सन् 1958 में मुक्तिबोध जी से मेरी मुलाकात राजनांदगांव में हुई। मेरे परिवार से उनके संबंध पहले से थे, चचेरे बड़े भाई बैकुण्ठ नाथ शुक्ल उनके पिता याने मेरे चाचा शिवबिहारी जी बैकुण्ठपुर में जंगल के ठेकेदार थे। उन्हीं दिनों मुक्तिबोध जी ‘हंस’ में बनारस में थे। हंस के ग्राहकों की सूची में बैकुण्ठ नाथ का नाम भी था। मुक्तिबोध जी हंस के ग्राहकों की सूची देखते थे तो उनको ये बड़ा अजीब लगता था कि एक ग्राहक बैकुण्ठ नाथ शुक्ल जिसका शहर बैकुण्ठपुर है यह उन्हें याद रहा।
जब वे सन् 1958 में नांदगांव (राजनांदगांव) आये और मेरी उनसे कई बार मुलाकात हो चुकी थी कुछ समय बीत गया था तब उन्होंने ही मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई से मेरा परिचय था। बैकुण्ठ नाथ जिनको हम रज्जन दादा कहते थे, नागपुर वकालत पढ़ने चले गए उन्हीं दिनों मुक्तिबोध जी भी नागपुर आ गए। बैकुण्ठ नाथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन दिनों अंडरग्राउंड भी रहे। इस कारण भी उनका परिचय मुक्तिबोध जी से हो गया। कम्युनिस्ट पार्टी में एक पारसी लड़की कैटी’, बैकुण्ठ नाथ से विवाह करना चाहती थी। मैंने सुना था मुक्तिबोध जी ने मध्यस्थता भी की पर विवाह नहीं हो सका। बैकुण्ठ नाथ के साथ मुक्तिबोध जी के पत्र व्यवहार सहित मिलने-जुलने की लम्बी घनिष्टता थी। इन को 32-33 की उम्र में ब्लड कैंसर हो गया। शादी हुए कुछ महीने ही हुए थे भाभी के पेट में छः महीने का बच्चा था कि उनकी मृत्यु हो गई। तब तक मैं मुक्तिबोध जी को नहीं जानता था और तब तक जब तक यानि वे नांदगांव नहीं आये। एक कवि के रूप में मैंने उनका नाम भी नहीं सुना था लेकिन बाबू जी से यानि बैकुण्ठनाथ के पिता से मैंने कई बार सुना। एक टिन की पेटी ले कर वे बैठे थे और मुक्तिबोध जी की चिट्ठियाँ जो उन्होंने बैकुण्ठ नाथ को लिखी थी, फाड़ते जाते थे और मुक्तिबोध जी को कोसते कि मेरे बेटे को कम्युनिस्ट बना कर बिगाड़ दिया, लेकिन वे पहले से ही कम्युनिस्ट थे। अगर मेरा मुक्तिबोध जी से पहले परिचय हो जाता तो उनकी चिट्ठियों को बचाने की जतन करता।
सन् 1958 में मुक्तिबोध जी नांदगांव आये। उनके चाहने वालो ने उन्हें दिग्विजय महाविद्यालय लाने की कोशिश की। मेरे सबसे छोटे चाचा किशोरी लाल शुक्ल दिग्विजय महाविद्यालय की स्थापना में जिनका योगदान था अवैतनिक प्राचार्य थे। मुक्तिबोध जी ने आवेदन किया था और बैकुण्ठ की पत्नी जो उनकी मृत्यु के बाद मायके लखनऊ लौट कर चली गई थी हिन्दी में एम. ए. पहले से थी वहीं रहते हुए बाद में पी-एच. डी. भी कर ली थी। मुक्तिबोध केवल एम.ए. थे। भाभी ने भी उसी पद के लिए आवेदन किया था। जब यह बात मुक्तिबोध जी को मालूम हुई वे चाचा जी से आकर मिले, उन्होंने कहा कि मैं अपना आवेदन पत्र वापस लेना चाहता हूँ, बैकुण्ठ की पत्नी ने भी आवेदन किया है ऐसा मैंने सुना है, उन्हें अधिक आवश्यकता है नौकरी की। पर चाचा जी ने उनका आवेदन नहीं लौटाया और उन्होंने कहा मैं जानता हूँ कि कौन योग्य है, और मुक्तिबोध जी नियुक्त हुए।
मेरे बड़े भाई संतोष उनके विद्यार्थी थे। बड़े भाई के कारण उन्हें मेरे परिवार की जानकारी हो गई थी कि मेरे पिता नहीं हैं। मैं कविताएं मुक्तिबोध जी के मिलने से पहले भी लिखता था क्योंकि एक चचेरे बड़े भाई भगवती प्रसाद भी कविता लिखते थे, सभी बड़े भाई कविता लिखते थे। भगवती प्रसाद ने भाभी के गहने बेचकर अपने दो खण्ड काव्य इलाहाबाद से छपवाये थे। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगती थी। जब मेरे बड़े भाई संतोष ने मुक्तिबोध जी से कहा कि मेरा भाई भी कविताएं लिखता है तब उन्होंने कहा कि वह मुझ से आकर मिल ले। मुक्तिबोध जी को मैं जानता नहीं था इक्के-दुक्के हिन्दी के कवियों को जिनके नाम नांदगांव तक पहुँच गए थे, जैसे भवानी प्रसाद मिश्र को जानता था। बड़े भाई के दो-तीन बार कहने के बाद मैं मुक्तिबोध जी से मिलने गया। मैं जबलपुर के कृषि महाविद्यालय के द्वितीय वर्ष में था। छुट्टियों में घर आया था जब मुक्तिबोध जी से मिला जैसा कि उन्होंने बड़े भाई से कहा था कि कविताएं ले कर मिलूँ। कविताएं देखने के पहले मुक्तिबोध जी ने कहा कविता लिखते जाना सबसे कठिन काम होता है तुम बाद में सोचना पहले अच्छी तरह से अपनी पढ़ाई करो नौकरी करो, घर की सहायता करो बस इतना ही मिलना था, उनसे यह पहला मिलना। जब नांदगांव में शुरू-शुरू में आये थे तो बसंतपुर में रहते थे, जो नांदगांव से लगा हुआ था अब नांदगांव का हिस्सा है। धुँधलके शाम का समय था अंधेरा अधिक था जब मैं उनसे मिला। जहां वे रहते थे सामने के बरामदे में जाफरी लगी थी मुक्तिबोध आये तो उनके हाथ में जलती हुई कंदील थी वहां तब या तो बिजली नहीं थी या बिजली चली गई थी। मुक्तिबोध जी के आने के पहले कंदील का हिलता-ढुलता उजाला पहले आया फिर उनके साथ-साथ आया। एक बारगी उस दृश्य को जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि कंदील का उजाला उनके साथ था जैसे कोई पालतू उनके साथ होता है। मुक्तिबोध से मिलने पर हर मुलाकात के बाद मैं अपने आपको बदला हुआ महसूस करता था। मुझे लगता कि मुक्तिबोध के पास होने से सोच को संजीवनी मिलती हो, मेरी दृष्टि में कुछ दूरबीन के तत्त्व आ जाते। जब मैं बाहर की ओर देखता, मैं दूर-दूर तक देख सकता था। कभी मन में झांकता तो माइक्रोस्कोपिक दृष्टि आ जाती। मैं बहुत सूक्ष्मता से मन के खरोंच के कई स्लाइड देख पाता था। मनुष्य को पहचानने की समझ अपने पहचानने से शुरू होती है। मुक्तिबोध जी बड़े भाई से पूछते थे कि मैं छुट्टियों में कब नांदगांव आ रहा हूँ और उनसे कहते जब आये नई कविताएं साथ ले कर आये। सब कविताएं लेकर आये। मुक्तिबोध से जब मिलता तो अपनी कविताओं के साथ मिलता जब तक कविताएं नहीं होती मैं मुक्तिबोध जी से मिलने में संकोच करता था। मुझे लगता था कुछ अधिक कविताओं के साथ उनसे मिलूँ और जा नहीं पाता था। जबलपुर में रहते हुए तथा छुट्टियों में घर आने पर कविताएं लिखता था। लिखी कविताएं दिखाने योग्य हैं, यह मुझे कभी नहीं लगा। कई बार कविताएं दिखाने के बाद एक बार कविताओं में से उन्होंने आठ कविताएं कृति के संपादक श्रीकांत वर्मा को भेजी और पत्र लिखा कि मैं युवा कवि विनोद कुमार शुक्ल की कृतिके लिए कुछ कविताएं भेज रहा हूँ उन्हें स्क्रीनिंग करके देख लेना आज कल लिखी जा रही कविताओं से मैं दूर हूँ छापने योग्य लगें तो छापना। फिर ये आठ कविताएं कृतिमें प्रकाशित हुई। मेरे पास अंक नहीं आया था। एक दिन जैसे ही मैं उनके घर गया उन्होंने शांता जी को पुकार कर कहा ’’विनोद आया है इसका संग्रह छपा है कुछ मीठा बना दो’’ मुझे समझ में नहीं आया। शांता जी ने रवे का हलवा बनाया, उन्हों ने बताया कृतिमें मेरी आठों कविताएं प्रकाशित हुई है उन आठ कविताओं को उन्होंने संग्रह कहा था। आज जब इस बात का स्मरण करता हूँ कि संग्रह उनकी आंतरिक इच्छा थी जो वे अपनी कविताओं के देख नहीं सके थे। मैं उनकी लम्बी कविताओं को सोचता हूँ, उन की एक-एक लम्बी कविता, कविता संग्रह की तरह होती थी। एक लम्बी कविता, कविता से ही लम्बी होती है, मैंने अपनी लम्बी कविताओं के संग्रह को भी कविता से लम्बी कविता कहा। वैसे मैं यह मानता हूँ कि एक जिन्दगी मिलती है और एक जिन्दगी की कविता कविताएं नहीं होती केवल एक कविता होती है। कविता या रचना कभी भी रचनाकार के घर में सुरक्षित नहीं होती। हमेशा पाठकों के बीच ही सुरक्षित होती है। लिखी जाने के बाद कविता रचनाकार के घर की नहीं होती वह पाठकों के घर की होती है। अपनी लिखी कविताओं के साथ रचनाकार बार-बार लिखने को तत्पर रहता है। वह जब भी अपनी रचना को देखता है उसे फिर सुधार लेना चाहता है। मुझे लगता है रचनाकार को आलोचक की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए, मेरी रचना को कोई अगर खराब कहता है तो मैं उस स्वीकार कर लेता हूँ। इसका कारण है कि मैं हमेशा एक अच्छी कविता लिखने की कोशिश करता हूँ जो लिखी नहीं गई है, और अच्छी कविता हमेशा लिखे जाने को बची रहती है यही कारण है हमारा छोड़ा हुआ रास्ता आने वाली पीढ़ी का रास्ता नहीं होता। जीवन का पठार बहुत ऊबड़-खाबड़ है आने वाले रचनाकार अपना रास्ता खुद बनाते हैं लेकिन उन्हें ताकत हमेशा लिखी जा चुकी रचनाओं से मिलती है क्योंकि लिखी जा चुकी रचना आगे आने वाली रचना को रास्ता दिखाती है और रास्ता दिखाना ही कविता की परंपरा बनाती है। दूसरे की रचना का प्रभाव जरूर पड़ता है, मुक्तिबोध जी से जब भी मैं मिलता, वे यह जरूर पूछते थे कि मैंने क्या पढ़ा। रचनाकार को दूसरे की रचना का ईमानदार पाठक होना चाहिए। बिना ईमानदार पाठक हुए आलोचक की आलोचना भी गलत होती है। रचना तो संसार के अनुभवों का अपना संसार होता है और किताब पढ़ना दूसरों के अनुभवों को अपना अनुभव बना लेना है। 

प्रश्न: मुक्तिबोध भी अपनी कविता आपको सुनाते थे?
विनोद कुमार शुक्ल : बाद-बाद में मुक्तिबोध जो को शायद ऐसा लगने लगा कि मुझे वे अपनी कविताएं सुना सकते हैं, मुक्तिबोध जी कविता लिखने की जहां टेबिल थी ऊपर की मंजिल में वहां खिड़की थी जिसमें मुर्गी जाली (बड़ी लोहे की जाली) लगी थी। उससे रानी तालाब दिखाई देता था। मुक्तिबोध जी के टेबिल के चारों तरफ उनके कविता लिखे कागज बिखरे रहते थे बड़े अक्षरों में लिखे, लम्बी-लम्बी कविताएं लिखते थे। आस पास ढेर सारे बिखरे कागज कविताओं से भरे हुए। जब भी मैं मुक्तिबोध जी के घर जाता तो इस तरह का दृश्य बार-बार का दृश्य होता था। नांदगांव में रहते हुए मुक्तिबोध जी ने बहुत कविताएं लिखी एक-दो बार उनसे मैंने सुना भी कि ऐसी स्थितियाँ बनी कि लम्बी होने के कारण एक-दो पत्रिकाओं ने उन्हें लौटा दिया। मुक्तिबोध कहते, विनोद सुनो! मैं तुम्हें कविता सुनाता हूँ, वे कहते सुनाने में छंद की लय बनती है कि नहीं? मैंने देखा है शास्त्रीय गायक जब गाते हैं तो जांघ पर ताल देते हैं। मुक्तिबोध जी भी सुनाते हुए एक जांघ में हाथ धीरे-धीरे ठोकते हुए ताल में लयबद्ध होते थे। मुक्तिबोध के कविताओं के शब्द मुक्तिबोध जी के उच्चारण में धातु की झनझनाहट की तरह होते थे और मैं जब उनके चेहरे की तरफ देखता था तो उनके सांवले चेहरे में इस्पाती चमक होती। मैंने मुक्तिबोध जी को तीखे नाक-नक्श का कहा है। उनके चेहरे की चमक में इस्पात का मेकअप या यह कह ले कि लोहे के चेहरे में एक अच्छे मनुष्य का प्राण रहता है। मुक्तिबोध जी एक बहुत अच्छे मनुष्य थे, उनको देखकर अच्छी कविता लिखने के मापदंड में मैं यह शामिल करना चाहता हूँ कि अच्छा कवि होने के लिए अच्छा मनुष्य भी होना चाहिए, अच्छा कवि, अच्छा पिता, अच्छा पति, अच्छा पड़ोसी, अच्छा भाई। ऐसा भी हुआ कि मुक्तिबोध जी के माता-पिता भी आये थे और मैं उनसे मिलने गया। और उन्होंने कहा मुझे अपने पिता को समय देना है आज तुम जाओ।

प्रश्न: वर्तमान समय में आप हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण एवं बड़े कवि के रूप में    स्थापित हैं, यहां से आप हिन्दी कविता में मुक्तिबोध जी का क्या स्थान देखते है? 
विनोद कुमार शुक्ल : कविता में कोई स्थायी और महत्वपूर्ण स्थान कम से कम मेरा नहीं है। मैं एक घर-घुसवा आदमी कविता में खानाबदोश हूँ लोगों से बात करने का मेरे पास यही तरीका है कि कविता लिखूँ। यह जरूर है जैसा मैंने पहले भी कहा है कि मैं मिट्टी का लोंदा था और मुक्तिबोध सबसे बड़े कुम्हार थे और उनके हाथों छुआ गया, अपने बड़े भाई संतोष का केवल एक ही सबसे बड़ा बड़प्पन जानता हूँ कि उन्होंने मुझे मुक्तिबोध जी से मिलवाया। यह संयोग था कि कविता के संसार में डरते-डरते संभवतः भटकते हुए मैं सबसे पहले जिन से मिला वे मुक्तिबोध थे उन्होंने मुझे अंदर बुलाया उन्हीं के कारण मेरा परसाई जी से जबलपुर में मिलना-जुलना हुआ। मैंने श्रीकांत वर्मा के बारे में उन्हीं से सुना। शमशेर जी का उनसे मिलने नांदगांव आते सुना। मैंने यह कहा भी है कि बीते हुए साल की तरफ 50 वर्षों तक मैं अपना दाहिना हाथ फैलाता हूँ और आने वाले पचास वर्षों तक मैं अपना बांयाँ हाथ फैलाता हूँ मैंने मुक्तिबोध को समीप से देखा और इस बीते पचास वर्ष और आने वाले पचास वर्ष में मैं मुक्तिबोध जी को अकेला पाता हूँ कि वे ही हैं और मुझे कोई दूसरा नहीं दिख रहा। मैं दूसरा नहीं देख पाया।

प्रश्न: मुक्तिबोध जी की बीमारी के विषय में बताइ?
विनोद कुमार शुक्ल : मुक्तिबोध जी के साथ मैं किले के आसपास घूमता भी था। उन्हें टिपरिया होटल में चाय पीना बहुत अच्छा लगता था वे सिंगल चाय बुलवाते थे और कहते थे चाय बिलकुल गर्म देना और साथ में पानी भी। चाय पीने के पहले वे पानी जरूर पीते थे फिर गर्म-गर्म चाय एक दो लोगों ने कहा भी इतना गर्म चाय मत पिया करो दांत खराब हो जायेगें। वे चाय पीते मुझे भी पिलाते थे। एक-दो बार घूमने वे केवल नीम की पत्ती तोड़ने गए। रानी सागर की तरफ नीम के पेड़ थे नीचे के नीम की पत्तियों को मैं तोड़ लेता था ऊपर तोड़ नहीं पाता था तो मुक्तिबोध तोड़ते थे, वे मुझसे लंबे थे। उनके पैरों में एग्जिमा था। नीम की पत्तियों को पीस कर उसका लेप लगाते थे कोमल पत्तियों को पीस कर उसकी गोलियाँ भी खाते थे। वे एग्जिमा से बहुत परेशान थे।
जबलपुर में रहते हुए उनके गिर पड़ने की बात भी मैंने सुनी थी फिर यह भी सुना था जबलपुर में ही रहते हुए कि उन्हें मेनोन्जाइटिस हो गया है। तब शायद मैं नौकरी करने लगा था। वे भोपाल फिर दिल्ली गये मैं शायद ग्वालियर में था। नांदगांव से सोचो तब ग्वालियर भोपाल इंदौर पास लगते थे लेकिन ग्वालियर से भोपाल दूर था। मैं जिन परिस्थितियों में नौकरी कर रहा था उसमें छुट्टिया ले कर जाना भी कठिन था उनकी बीमारी के समय उनसे मैं नहीं मिल सका लेकिन उनका बीमारी के समाचार रेडियों में आया करते थे तथा समाचार पत्रों में। सुनता था किस तरह श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी और परसाई जी उनकी चिन्ता कर रहे हैं। मुझे लगने लगा था जिस तरह उनकी फिक्र हो रही है और जैसी चिन्ता है और अच्छे से अच्छा उनका इलाज हो रहा है वे अच्छे हो जायेगें।

विनोद कुमार शुक्ल
सम्पर्क-
घनश्याम त्रिपाठी
मोबाईल – 07587159660

अंजन कुमार 
मोबाईल – 09179356307


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

भारत भूषण जोशी की कहानी ‘गौरदा’

भारत भूषण जोशी


संस्कृति मनुष्य को जोड़ने में एक बड़ी भूमिका अदा करती आयी है। हमारे यहाँ धर्म भी इस संस्कृति का अटूट हिस्सा रहा हैयह अटूट पना कुछ इस प्रकार का है कि एक दूसरे को अलगा कर इन्हें जाना और समझा ही नहीं जा सकता धर्म जिसके अंतर्गत तीज, त्यौहार, परम्पराएँ एक दूसरे से आबद्ध दिखायी पड़ती हैं। इनमें भी हिन्दू तीज-त्यौहारों से जुड़े हैं – लोक गीत, लोक-नृत्य, लोक-नाट्य जैसे राम लीला और रास-लीला। होली के अवसर पर गाये जाने वाले फाग को आधार बना कर भारत भूषण जोशी ने एक उम्दा कहानी लिखी है ‘गौर दा’। जोशी जी इलाहाबाद में ही रहते हैं और पहली बार पर यह उनकी पहली कहानी है आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं भारत भूषण जोशी की यह कहानी
          

गौरदा


भारत भूषण जोशी
फाग का महीना चल रहा था। ठण्ड अभी दिल्ली में पाँव पसारे थी। सुबह शाम मजे़ की सिहरन हो जाती थी। गरम कपड़े छूटे न थे। बसंत के आगमन की सूचना झड़ते पत्तों से मिलने लगी थी। हरीश जोशी दफ़्तर से निकल कर सीधे आई. टी. ओ. के मुख्य बस स्टॉप पर आता है। उसकी कलाई घड़ी शाम के पौने छः बजा रही है। उसे हौज़ खा़स जाना है। आज शाम से किशोरदा के घर पर कुमाऊँनी होली की बैठक है। वो कुछ गुनगुना रहा है। उसके चेतन में किसी गीत के बोल सुर-ताल में चल रहे हैं। सड़क पर सुरक्षित चलने में अवचेतन में बसा पुराना अनुभव और अभ्यास ही उसका मार्गदर्शन कर रहे हैं।
रोज़गार की तलाश में कुमाऊँ के पर्वतीय अंचलों से कई परिवार दिल्ली आ बसे। जनता कॉलोनियों से ले कर पॉश इलाक़ों तक में इन्होंने अपने आशियाने बना लिये। ये परिवार कुमाऊँ की अन्य लोक-परम्पराओं के साथ दशहरे में रामलीला के मंचन की तथा फागुन में होली की बन्दिशें गाने की अत्यन्त समृद्ध परम्परा को साथ ले कर आये। दशहरे और फागुन के दौरान कुमाऊँनी परिवारों में आन्चलिक रस से भरपूर एक अजब सा उत्साह छा जाता। फागुन में राधा-कृष्ण के प्रेम से सम्बन्धित विभिन्न राग-रागिनियों में निबद्ध श्रृंगार रस की होली की बंदिशों को रात भर किसी न किसी के घर पर महफ़िल सजा कर गाने की परम्परा थी।
कहा जाता है कि जो दिल्ली गया सो दिल्ली का हो गया। प्रवासी कुमाऊँनी परिवारों को भी दिल्ली भा गयी। वे इसमें रच-बस गये। अधिकांश का दशहरे-होली के दौरान अपने-अपने शहरए क़सबे, गाँव जाना धीरे-धीरे कम हो गया। उन्होंने दिल्ली में ही पहाड़ बसा लिया। होली के दौरान होली गायकी की महफ़िलें दिल्ली में ही सजने लगीं। कुमाऊँ के युवा-बुज़ुर्ग होलियार कहीं न कहीं मिल बैठते और होली गा कर अपनी हुड़क मिटाते।
इस समय हर साल की तरह हरीश पर कुमाऊँनी होली गायकी की बैठकी का नशा बुरी तरह चढ़ा हुआ था। रोज़ कहीं न कहीं बैठक हो ही रही थी। आज किशोरदा के घर पर है। अचानक गुनगुनाना छोड़ चैतन्य हो, हरीश अब हौज़ ख़ास की ओर जाने वाली बस पकड़ने के लिये आने वाली बसों पर पैनी निगाह रखने लगा।
अचानक उसे लगा कि जो बस अभी-अभी आगे जा कर रुकी है, उससे अन्य लोगों के साथ गौरदा भी उतरे हैं। हाँ, गौरदा! यानी गौरी दत्त तिवारी। कुमाऊँनी होली गायकी के अप्रतिम नायक!
गौरदा लगभग पचास की उम्र के सामान्य कद और गौर वर्ण के पिचके गालों वाले अधेड़ व्यक्ति थे। तथापि, पास से देखने पर उनकी आँखों से एक कच्ची उम्र का कल्पनाशील व्यक्ति झाँकता दिखाई देता था। शरीर दुबला-पतला, बाल हल्के घुंघराले, पीछे की ओर काढ़े हुए। ओठों के दोनों किनारे पतली लकीर बन कर गालों में थोड़ा अन्दर चले गये थे। हरीश उनसे लगभग दस वर्ष छोटा रहा होगा।
स्वेटर, मफ़लर और चाल से हरीश को गौरदा को पहचानने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई। इन दिनों गौरदा होली की बैठकों में दिखाई नहीं पड़ रहे थे। उनके बिना सारी बैठकें नमक बिना व्यंजन जैसेहाल पर चल रही थीं। दिल्ली जैसे बड़े शहर में उनकी अनुपस्थिति के कारण का पता न चल पा रहा था। खोज जारी थी। अनुमान था शायद अल्मोड़ा चले गये इस बार। अप्रत्याशित रूप से गौरदा से टकरा जाने पर उत्पन्न उत्साह को नियन्त्रण में रख भीड़ को हटाते हुए तेजी से चलकर हरीश ने गौरदा को लपक लिया, और ज़ोर से ललकारा गौरदा ऽ..ऽ…ऽ……..! ओ गौर दा ऽ..ऽ..!गौरदा ने अन्यमनस्क भाव से पीछे मुड़ कर देखा। अब हरीश उनके बराबर से चल रहा था। बेबाक़ी से उसने उलाहना दी। हद कर दी गौरदा, आपने। फाग बीतने को आ रहा है। एक भी बैठक आपने अटेन्ड नहीं की। हम तो समझ रहे थे कि आप शहर में ही नहीं हैं। ऐसी भी क्या नाराज़गी? ख़ैरियत तो है?’ पर गौरदा के चेहरे की मायूसी देख कर उसका उत्साह थोड़ा ठण्डा पड़ गया था।
गौरदा ने कुछ क्षण हरीश के चहरे की ओर देखा, जैसे उसे पहचानने की कोशिश कर रहे हों। फिर अभिवादन में धीरे से मुस्करा कर बोले। उनकी आवाज़ में हताशा थी। क्या कहूँ, बड़दा की तबियत ठीक नहीं है। कहो तो बिस्तर ही लग गये हैं। डाक्टर कहते हैं कि लिवर खराब है, पीलिया के लक्षण हैं, कुछ भी हो सकता है। अभी बायोप्सी की रिपोर्ट नहीं आयी है। आजकल शनिवार को दफ़्तर से सीधे बड़दा के पास चला जाता हूँ और इतवार को वहीं रहता हूँ। दोनों भाई सुख-दुःख कर लेते हैं। नानदा पहले ही चला गया! पता नहीं क्या-क्या देखना है अभी। ऐसे में कैसा फाग कैसी होली की बैठक।इतना कह कर गौरदा ने गहरी साँस भरी और दूसरी ओर ताकने लगे।
थोड़ी देर के लिये दोनों के बीच मौन ने स्थान ले लिया। फिर गौरदा सकुचाते हुए हरीश की ओर देखकर बोले-हरीश, तू ही सोच, क्या मेरा मन नहीं करता होगा बैठकों में गाने को। तू तो कल का बना होलियार हुआ। मैं तो बचपन से होलियों को जी रहा हूँ। और क्या कुछ नहीं खोया मैंने इस संसार में, इन्हीं होलियों को जीने के लिए। सुन मेरे यार! अब सुनता है, तो सुन! मैं तो बी0 एस-सी0 ही नहीं कर पाया, इस होली की दीवानगी में! इधर इम्तहान का सीज़न शुरू उधर अल्मोड़ा में होली की बैठकों का सीज़न शुरू। तीन बार फ़ेल हुआ। ग्रेज्युएट न हो पाया। टूट गया था मैं। वो तो बड़दा की सूझबूझ थी, मुझे अल्मोड़ा से दिल्ली अपने पास ले आये और स्टेनोग्राफी सिखाकर यहाँ नौकरी दिलवा दी। नहीं तो कौन पूछ रहा था इण्टर पास को। तभी तो मैं बड़दा को इतना मानता हूँ। उनकी बीमारी के आगे क्या हुई ये होली की बैठक-वैठक! अगर उनके लिये जान भी दे दूँ तो भी उऋण नहीं हो पाऊँगा उनके उपकार से।गौरदा का चेहरा वेदना से भरा हुआ था।
थोड़ी देर उनके बीच फिर वार्तालाप ठप रहा। दोनों सड़क के किनारे फ़ुटपाथ पर खड़े थे। हरीश इस समय गौरदा और उनके बड़दा के आपस के सम्बन्ध में नहीं जाना चाहता था। अभी उस पर होली की बैठक का भूत सवार था। हरीश चाहता था गौरदा कम से कम आज तो होली की बैठक में ज़रूर गाएं। हरीश ने चुप्पी तोड़ी, ‘गौरदा सब ईश्वर का विधान है। अपने भाग्य को इस तरह न कोसिये। ये देखिए कि ईश्वर ने आपको उपहार में क्या दिया है। शायद आपको इस बात का अहसास न हो, पर मैं आपको बताता हूँ। सुनिये! आप इस जगत में केवल होली गाने के लिए पैदा हुए हैं। ज़रा सोचिये! आज कुमाऊँ में है कोई आपके जैसा होली गाने वाला? आप कुमाऊँ के रत्न हैं! रत्न! गौरदा! अपने भाग्य को कम न आँकिये।हरीश बोलते-बोलते आवेश में आ चुका था। थोड़ी देर चुप रह कर उसने फिर बात बढ़ाई। अभी उसका आवेश पूरी तरह शान्त नहीं हुआ था। भाषा में अतिरंजना शामिल थी ही। क्या बताऊँ गौरदा! बैठकों में आपकी कमी कितनी खल रही है। हमें तो लगता है हारमोनियम-तबला भी रो रहे हैं, आपके लिये इस फाग में।
हरीश के आवेश भरे आलाप से गौरदा हिल गये थे। उनके भीतर के कलाकर ने जैसे करवट ली। वे बोले, ‘हरीश यार! क्या कहूँ, अन्दर-अन्दर तो मैं भी रो रहा हूँ। इधर बड़दा की बीमारी, उधर होली न गा पाने की कसक! क्या बताऊँ बन्धु! कितनी पीड़ा है। मैं तो जन्म से ही सुर का मारा हुआ।
वार्तालाप ने दोनों के बीच अब एक भावात्मक सेतु बना दिया था। हरीश को गौरदा की स्थिति से संवेदना हो आई। अब वो उनके मुँह से होली सुनने की जुगत करने के साथ यह भी सोचने लगा कि आज गौरदा किसी न किसी प्रकार होली गा लें ताकि उनके मन की भी भड़ास निकल जाये। कुछ देर सोचने के बाद वो बोला।ऐसा करते है गौरदा, सुनिए! आज हौज़ ख़ास में किशोरदा के घर पर होली की बैठक है। पहले वहाँ चलते हैं। वहाँ से आपके बड़दा का घर पास ही है। बस एकाध घंटा आप वहाँ अपनी पसंद की कुछ  होलियाँ सुना दीजिए, उसके बाद दस बजे से पहले किशोरदा का लड़का आपको बड़दा के घर छोड़ देगा। आपके दोनों काम हो जायेंगे। फिर ऐसा कोई बुरा भी तो नहीं हुआ है आपके घर जो फाग में होली न गा कर घर के लिए असगुन करें?’’
किशोरदा की पत्नी कुसुम गौरदा की मौसेरी बहन लगती थी। अच्छी होली गाने के कारण गौरदा को बहन-बहनोई के घर अतिरिक्त स्नेह मिलता था। किशोरदा भी पक्के रसिक मन के थे। होली मर्मज्ञ। गौरदा भी अपनी बहन के घर बड़े मनोयोग से होली गाते थे। दिल्ली के होलियारों को किशोरदा के घर की होली की बैठक के लिये विशेष उत्साह रहता था।
हरीश की बातों से गौरदा की आँखों के आगे किशोरदा के घर की होली की बैठक का पूरा दृश्य घूम गया– एक बड़े सुसज्जित कमरे में दीवारों पर लगे पीले बल्बों की रोशनी से जमीन पर बिछा वॉल-टू-वॉल गाढे़ रंग का कालीन खिला हुआ है। कुछ दीवारों से टिके और कुछ बीच में हारमोनियम-तबले के इर्द-गिर्द, फाग की मस्ती में चूर गुलाल से रंगे-पुते  मर्मज्ञ श्रोता, होलियार बैठे हैं। अन्दर के दरवाजे से ट्रे में भर-भर कर आलू के गुटके और चटनी पत्तों के दोनों में कमरे में लाये जा रहे है। किन्तु हारमोनियम पर होली गाने वाले का चेहरा स्पष्ट नहीं है। गौरदा को लगा हारमोनियम और तबले की जोड़ी उन्हें घुटे-घुटे स्वर से पुकार रहे हैं। उनको लगा उनके कानों में कहीं से आवाज़ आई, ‘गौरदा! गौरदा!

गौरदा अपने ही बनाये दृश्य को बरदाश्त नहीं कर सके। उनकी बेचैनी अत्यधिक बढ़ गयी और साँस गहरी चलने लगी। उन्हें अपने अन्दर कुछ पिघलता सा महसूस होने लगा जिसे बाहर आने से रोकने में वो अपनी पूरी सामर्थ्य लगाये हुए थे। उनकी एक पसंदीदा होली के शब्द सुरों के साथ उनके मन-मस्तिष्क को आन्दोलित किये जा रहे थे। सहसा कल्पना में वे अपने को किशोरदा की महफ़िल में गाता हुआ देखने लगे।

सारी डार गयो मो पे रंग की गागर
मैं जो भूल से देखन लागी उधर,
बड़ा धोखा हुआ
बिन होरी खेले जाने ना दूंगी
जाते कहॉं हो छैला आओ इधर
गौरदा अपनी ही कल्पना के विकास-क्रम में फंसते जा रहे थे। अंगुलियाँ जाँघ पर ऐसे चल रही थीं जैसे हारमोनियम पर। मन में लय-ताल चलने लगी थी। उन्हें लगा कि कहीं वो सड़क पर ही न गाने लगें। उन्होंने अपने को सम्भालने की कोशिश की। तत्काल उनकी आँखों से होली की महफ़िल का दृश्य हट गया और बिस्तर पर पड़े कृषकाय बड़दा का चेहरा आ गया। उन्होंने हरीश की ओर एक दुख भरी नज़र डाली और उसके प्रस्ताव पर नहीं की शैली में अपना सिर यूँ हिलाया जैसे चलती ताल में समआने पर संगीतकार अपना सिर हिलाते हैं।
वे भर्राये गले से बोले- नहीं हरीश नहीं। मुझे तेरा प्रस्ताव मंजू़र नहीं।ऐसा कहते-कहते उन्हें लगा कि जैसे उनके पेट के अन्दर से कोई गोल सा पदार्थ पूरे दबाव के साथ ऊपर उनके गले की तरफ़ उठ रहा हो। उन्हें लगा कि वे अपनी रुलाई शायद ही रोक पायेंगे। उन्होंने दोनों जबड़ों को परस्पर ज़ोर से भींच कर किसी तरह गले की ओर उठती लहर को पेट की ओर वापस ढकेला। ए लम्प रोज़ इन हिज़ थ्रोट।बड़दा ने उन्हें अंग्रेज़ी पढ़ाई थी। गौरदा को बड़दा से मिलने की इच्छा यकायक बलवती हो गयी। उन्हें ध्यान आया, बड़दा उन्हें कितने मनोयोग से पढ़ाते थे।
पर हरीश तो जैसे आज हार मानने को तैयार ही न था। उसने थोड़ा समय गौरदा को सहज होने के लिये दिया फिर एक मनोवैज्ञानिक की तरह बोला- गौरदा! मैं आपका असमंजस और पीड़ा दोनों को अच्छी तरह समझता हूँ। पर मुझे लगता है आप इस मामले में थोड़ा ज्य़ादा ही सेन्सिटिव हो गये हैं। ज़रा समग्रता से सोच कर देखिये- अगर थोड़ी देर आप किशोरदा के घर पर होली गाने के बाद बड़दा के घर जाते हैं, तो इसमें क्या हानि-लाभ हैं। मुझे तो लगता है कि इसमें कोई हानि नहीं। बल्कि लाभ ही लाभ हैं। बड़दा के घर आप जा ही रहे हैं। रास्ते में सगुन भी हो जायेगा। और समाज के प्रति भी तो आपका कुछ दायित्व है? ईश्वर की दी हुई प्रतिभा का लाभ समाज को भी मिलना ही चाहिए।हरीश ने देखा उसकी बातों का गौरदा पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है। उसने अवसर देख कर बलपूर्वक गौरदा से पूछा, ‘बताइये? गौरदा बताइये? क्या मैं कुछ ग़लत कह रहा हूँ?’
गौरदा अब अपने को हरीश के आगे बेबस सा महसूस कर रहे थे। हरीश की बातों को काटने के लिये उनको कोई जबाब सूझ नहीं रहा था। उनके अन्दर ज़बर्दस्त उहापोह चल रहा था। उनको हरीश की सामाजिक दायित्ववाली दलील में दम नज़र आने लगा। वे सोचने लगे अगर ईश्वर ने उन्हें कुछ विशिष्ट दिया है तो उन्हें इसे समाज में बाँटना ही चाहिये। और फिर वो बड़दा को छोड़ भी कहाँ रहे हैं। किशोरदा के घर थोड़ी देर होली गा कर लोगों का मनोरंजन कर वे बड़दा के पास देर रात तक चले जायेंगे। सामाजिक दायित्वऔर व्यक्तिगत दायित्वउन्हें यकायक परस्पर पूरकऔर सम्पूरकलगने लगे थे।
गौरदा के चेहरे के भावों में हुये परिवर्तन को पढ़ कर हरीश समझ गया कि गौरदा ढीले पड़ गये हैं। उत्साहित हो कर उसने इसे अपनी विजय मान लिया और बोला, ‘गौरदा प्लीज़! अब फ़ालतू सोच कर समय न ख़राब करिये। प्लान के मुताबिक़ हम किशोरदा के घर तुरन्त निकल चलते हैं।
वैसे गौरदा सांसारिक विषयों में थे पक्के संयमी। किसी रूपसी का खुला निमंत्रण भी उनको बड़दा के पास जाने से नहीं रोक सकता था। पर कहाँ राधा-कृष्ण के मस्त-मस्त प्रेम की रंगीन फुहार से भीगती-भिगाती, सुर, लय, ताल और कविता भरी होली की बैठक, जिसकी अमिट ख़ुमार मृत्युपर्यन्त चले, और कहाँ रूपसी के प्रेम के ज्वार का क्षणिक नशा!
हरीश की आत्मीय और सशक्त दलीलों के आगे गौरदा परास्त हो चुके थे। जिस फागुन की दस्तक की अनसुनी वे इन दिनों लगातार सफलतापूर्वक करते आ रहे थे, वही फाग उनके मन का दरवाज़ा तोड़ हँसता-खेलता, अपनी पूरी छटा के साथ धड़धड़ाता अन्दर घुस कर उनकी पोर-पोर में समा चुका था। बड़दा की बीमारी का तनाव शिथिल हो कर सामान्य स्तर पर आ गया था। उनके मन में अब फाग की रंग-बिरंगी फुहार भरी होलियों के शब्द और सुर आकार लेने लगे थे। तभी हवा का एक ख़ु़शबू भरा झौंका आया, और गौरदा ने उस वर्ष की फागुनी बयार को पहली बार अपने अन्तर्मन तक महसूस किया। नव-बसंत की बयार ने उनके क्लेश की परत को जैसे उड़ा दिया। वे फागुनी मस्ती के हाथों बिक गये। उनका मन पुलक उठा और आँखों में बसंत उमड़ आया। आयो नवल बसंत, सखी, ऋतुराज कहाए।हरीश समझ गया कि गौरदा की आँखों में गुलाल पूरी तरह झुंक चुका है और अब वे वहाँ नहीं हैं। तभी उसकी नज़र हौज़ ख़ास जाने वाली बस पर पड़ी जो उनकी ओर स्टॉप पर आ रही थी। उसने लगभग चिल्लाते हुए गौरदा को झिंझोड़ा, ‘गौरदा देखिये! वो हौज़ ख़ास वाली बस आ रही है। दौड़िये! जल्दी!गौरदा को पीछे-पीछे आने का संकेत कर हरीश रुकती हुई बस की ओर दौड़ा। हरीश के झिंझोड़ने से गौरदा तन्द्रा से बाहर आ गये। वे अब अपने को बेहिचक महसूस कर रहे थे। रही-सही बहस को हरीश द्वारा बस की और दोड़ने के संकेत ने अर्थहीन कर दिया था। उन्होंने भी अब आव देखा न ताव और बेतहाशा हरीश के पीछे बस की ओर भागे।
हौज़ ख़ास की ओर दौड़ती बस में दोनों के बीच सम्वाद न हुआ। हरीश कनखियों से बीच-बीच में गौरदा की ओर देख कर गद्गद् हो रहा था। जैसे वो कोई इन्सान न होकर हरीश द्वारा जीती गयी ट्रॉफी हों। वो अपनी इस महान उपलब्धि पर मन ही मन इठला रहा था और सोच रहा था कि किशोरदा उसके इस अप्रत्याशित उपकार को क्या कभी भुला पायेंगे? उसने देखा अब गौरदा आत्म विश्वास से भरपूर दिख रहे थे। उसको विश्वास हो चला था कि आज की शाम गौरदा होली की बैठक में रस की बरसात ही कर देंगे। उसने मन ही मन अपने और आज के होलियार श्रोताओं के भाग्य को सराहा। 
किशोरदा के घर जाने में गौरदा का मन प्रफुल्लित सा हो रहा था। किशोरदा न केवल साहित्य के मर्मज्ञ थे बल्कि एक पक्के रसिक होलियार भी थे। अपने ऊँचे ओहदे और पैसे का सदुपयोग वे अपने घर पर साहित्यिक गोष्ठियाँ करवाने और संगीत की महफिलें सजाने में करते। फाग में उनके घर की होली की बैठक का एक अलग ही रंग होता, एक अलग ही छटा होती थी। उनके घर के ऊपर का पूरा हॉल और लगा हुआ बरामद दिल्ली के रसिक पर्वतीय होलियारों से भरा रहता। कुमाऊँ के बड़े-बड़े अफ़सरान भी किशोरदा के घर की होली में शिरकत करने से नहीं चूकते थे।
आखि़र हौज़ ख़ास के स्टॉप पर बस रुकी और वे दोनों उतर कर किशोरदा के घर की ओर लपके। किशोरदा का घर मुख्य सड़क से थोड़ी ही दूर पर था। घर के दुतल्ले की सीढियाँ चढ़ते गौरदा के कान में बैठक से आती गाने की आवाज़ पड़ी। बैठक अभी शुरूआती दौर में थी। कोई नौसिखिया अपना गला मॉंज रहा था।
मुरली नागिन सों
कहा विधि फाग रचाऊँ
मोहन मन लीन्हो री।”
गौरदा अचानक ठिठक कर सीढ़ी के मोड़ पर रूक गये। हरीश भी रुका रहा। नौसिखिये की होली की बन्दिश ने गौरदा को कुमाऊँ के सुप्रसिद्ध कलाकार मोहन उप्रेती की याद दिला दी। उन्होंने ये होली उन्हीं के श्रीमुख से दिल्ली में भारतीय कला केन्द्रमें ठेठ कुमाऊँनी अन्दाज़ में सुनी थी। वो उसी दिन से मोहन उप्रेती की प्रतिभा के क़ायल हो गये थे। नौसिखिया डूब कर गाये जा रहा था।
ब्रज बावरो मोसे बावरी कहत है
अब हम जानी-
बावरो भयो नन्दलाल,
मोहन मन लीन्हो री’
गौरदा के अब तक रोंगटे खड़े हो चुके थे। कुमाऊँ की उपत्यकाओं से कोई गंधर्व उतर कर उनकी रूह पर क़ाबिज़ हो चुका था। उनके चहरे पर एक अलौकिक आभा छा गयी और आँखों में एक चमक सी आ गयी थी। ओठों के झुके हुए किनारे स्मित हास का आभास देने लगे थे। गौरदा ने बची हुई सीढ़ियाँ लपक कर नापीं और बरामदे में पहुँच गये।
गौरदा ने होली की बैठक में ऐसे प्रवेश किया, जैसे वह स्थान उनका सहज साम्राज्य हो। कई पर्दों वाले बढ़िया हारमोनियम और तबले की जोड़ी देख कर उनका मन प्रमुदित हो उठा। मानहु मीन मरत जल पायो। गौरदा के लिये अब होली गाने के अतिरिक्त इस संसार मे कुछ भी अपेक्षित नहीं था। पत्नी, बच्चे, भूख, प्यास……….ईश्वर……….और हाँ! बड़दा भी! सारा ऊबड़-खाबड़ समतल हो गया था। दृष्टि अर्जुन की तरह साफ़ थी। लक्ष्य था- होली गायकी के रस में डूबना-डुबाना।
गौरदा को देखते ही बैठक में उपस्थित समस्त रसिक जनों के दिल बाग़-बाग़ हो गये। सबने आवाज़ देकर उनका स्वागत किया। किशोरदा उम्मीद के विपरीत गौरदा को अपने घर में प्रकट देख उल्लास से भर गये। उनको विश्वास हुआ कि उनका आज का आयोजन सफल होना ही है। आगे बढ़कर उन्होंने गौरदा को सीने में भींच लिया। किसी ने आगे बढ़कर गौरदा के माथे पर गुलाल का एक बड़ा टीका खींच कर बालों में गुलाल भर दिया। अब गौरदा एक दम पक्के होलियार लग रहे थे। नौसिखिया गाने वाले ने गौरदा का हाथ पकड़कर उन्हें बड़े आदर से हारमोनियम वाली पीठिका पर बिठा दिया। गौरदा ने बैठक में उपस्थिति होलियारों पर एक नज़र डाली। चिर-परिचित सुधी रसिक-मण्डली को उपस्थित देख उनका उत्साह दूना हो गया। गौरदा थोड़ी ही देर में हारमोनियम पर हाथ रख सन्नद्ध हो गये। तबला वादक ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। बैठक में पूर्ण शान्ति छा गयी।
गौरदा अब अपने मन में गाने के लिये होली की किसी सटीक बन्दिश का चुनाव कर रहे थे। विविध राग-रागिनियों में निबद्ध अनेक होलियाँ उनके मधुर कण्ठ का रस पीने के लिए उनके मन-मस्तिष्क में कौंध-कौंध कर अपने चुने जाने का आग्रह सा करने लगीं। वैसे गौरदा को सभी होलियों से समान अनुराग था। वे जिस होली को गाने के लिए उठाते उसका सच्चे सुरों से पूरा श्रृंगार करके ही छोड़ते। उनमें विलक्षण सांगीतिक सौंदर्य-बोध था।
इस बीच उनकी अंगुलियों का जादुई स्पर्श पा कर हारमोनियम जीवन्त हो उठा था। गौरदा की होली की बन्दिश चुनने की दुविधा यदि कोई थी, तो जैसे हारमोनियम के स्वरों से अनायास उभरी धुन ने उसको स्वयं ही हल कर दिया। गौरदा के कण्ठ से विलम्बित लय में होली की बन्दिश के बोल फूटे-
बहुत दिनन के रूठे, कन्हैया,
एजी रूठे कन्हैया,
होरी में मनाये लाऊँगी
तबला वादक ने पूरे आवेश और सतर्कता के साथ टुकड़ा बजाते हुए लाऊँगीके गीपर ताल का समदिखाया। श्रोताओं के मुँह से सराहना की आहऔर वाहनिकलने लगी। सभी श्रोताओं ने सजग हो कर अपने-अपने स्थान पर अपनी-अपनी मुद्रा बदली और अधिक सतर्कता और आनन्द के साथ गौरदा की होली गायकी का लुत्फ़ लेने लगे।
गौरदा की होली गायकी में ऐसी अद्भुत दमदारी और तबीयतदारी थी, कि पूरी की पूरी महफ़िल बोल, सुर, ताल और लय में बंध-बिंध जाती थी। उनकी गायकी में रस, भक्ति, अध्यात्म, संगीत की सूझबूझ और कुमाऊँनी अंचल के लटकों-झटकों का ऐसा अनेाखा संगम था कि श्रोताओं के मन आह्लाद से भर उठते। अन्दर के कमरों में महिलाएं बातचीत बन्द कर देतीं और आलू, चटनी, चाय की तैयारी करते-करते कान गौरदा की गायकी को दिये रहतीं। पूरे श्रोतागण मस्ती से सराबोर हो जाते। बन्दिश के मुखड़े को कितनी देर गाना है, अन्तरा को कब उठाना है, किसी पंक्ति को कितनी बार दुहराना है, कब तक तार सप्तक के स्वर रेऔर पर टिक कर अप्रत्याशित रूप से स्वर को छूते हुए मध्य सप्तक में आ कर पद को पूर्ण करना है- ये सब गौरदा बख़ूबी जानते थे। श्रोताओं के मन को जानने और उसे तृप्त करने में जैसे उन्हें सिद्धि प्राप्त थी। अब गौरदा अन्तरा गा रहे थे।
श्री वृंदावन की कुंज गलिन से,
गोदी में उठाये लाऊँगी,
बहुत दिनन के रूठे कन्हैया
होरी में मनाये लाऊँगी
गौरदा ने पहली होली लगभग आधे घण्टे तक गायी। इसे समाप्त करते-करते उनके मन में अगली होली पैठ बना चुकी थी। उन्होंने अगली होली का मुखड़ा तुरन्त उठाया-
नवल चुनरिया फारी
बिरज जसोदा लाल को अपने
तोड़्यो हार हजारी,
मोती बिखर गये कुंज गलिन में
चुन रही सखियाँ सारी।
मोरी नवल चुनरिया फारी
श्रोतागण मस्ती में झूम रहे थे। जिन्होंने भांग आदि का नशा किया था वो अपने गलों से सराहना में अजीबोग़रीब आवाज़ें निकाल रहे थे। कोई वाह गौरदा!कहता। कोई जियो गौरदा!कहता। कोई क्या बात है!कहता।
होली गाते-गाते गौरदा को लगभग बीस मिनट हुए होंगे। तभी सामने लगी दीवार-घड़ी ने उन्हें अचानक ध्यान दिलाया कि उन्हें बड़दा के घर जाना है। वे व्यग्र हो उठे और उन्होंने जल्दी से होली को द्रुत लय में लाकर समाप्त कर दिया। वे क्षमा माँग कर उठने का उपक्रम करने ही वाले थे कि किशोरदा के लड़के ने अवसर देखकर उनके कान में कुछ कहा। संदेश यह था कि बड़दा के घर जाकर उनका हाल ले लिया गया है। उनका स्वास्थ्य सामान्य है और उनका यह विचार है कि गौरदा किशोरदा के घर होली गाएं और रात वहीं सो कर दूसरे दिन सुबह उनके पास आएँ

संदेश की सत्यता की पुष्टि के लिये गौरदा ने किशोरदा की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। किशोरदा ने आश्वस्त भाव से इस प्रकार सिर हिलाया जैसे कह रहे हों संदेह मत करो बन्धु! बस अब गाये जाओ।
बड़दा का संदेश सुन कर गौरदा के मन से रहा-सहा खटका जाता रहा। वे अब पूर्णतः निःशंक हो कर नई ऊर्जा से भर उठे थे। उन्होंने मन ही मन बड़दा का स्मरण करके उनकी प्रिय होली उठाई।
श्रवण सुनत कटि जात पाप
जहाँ राम-सिया खेलें होरी
किसी के विशेष आग्रह पर खाई मिठाई में कुछ मिला था कि होली गायकी का नशा-गौरदा अब पूरी तरह होलियाँ गाने में डूब चुके थे। कोई उन्हें छेड़ना न चाहता था। काव्य, संगीत और आँचलिक परम्परा के इस अनोखे प्रदर्शन से सभी विमुग्ध थे। कभी-कभी अन्दर के दरवाजे के परदे का हिलना गवाही दे रहा था कि अन्दर महिलाएं भी पूरे कौतूहल के साथ इस अभूतपूर्व प्रदर्शन की साक्षी बन रही थीं।
रात कैसे गुजर गई पता न चला। बैठक में अन्य जितने कलाकार थे, उन्होंने न गाना ही बेहतर समझा। पूरी रात गौरदा गाते रहे और सुबह चार बजे उन्होंने सामने दीवार-घड़ी की ओर देखा और सभा समाप्ति का संकेत देते हुए भैरवी उठाई-
होरी खेरैं कन्हैया झुकि झूम-झूम
वो तो लेते कमल मुख चूम-चूम।
और फिर पारम्परिक मुबारकबाद से समापन किया-
‘‘मुबारक हो मंजिल फूलों भरी
बरादरी में रंग भरो है
राधेश्याम खेलें होरी
होली की बैठक अपनी पूर्णता प्राप्त कर समाप्त हुई। तृप्त श्रोतागण गौरदा की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए विदा हुए। हरीश, गौरदा और कुछ अन्य लोगों को सुबह तक किशोरदा के घर पर ही रूकना था। मेहमानों के जाते ही गौरदा की बहन कुसुम ने बैठक में प्रवेश कर कहा, ‘गजब ही कर दिया गौरदा आज तो तुमने! कैसे गा लेते हो, तुम इतना अच्छा? पिछले जनम में तुम जरूर कोई गन्धर्व रहे होगे।
गौरदा अब तक बुरी तरह थक चुके थे। समाधि से जागने के बाद की जैसी थकान उन पर हावी थी। बैठक में कालीन के ऊपर अब तक चादरें बिछा दी गयी थीं। गौरदा ने स्नेह भाव से बहन का अभिनन्दन स्वीकार किया और बैठक के एक कोने में दीवार की ओर मुँह कर करवट ले कर सो गये। धराशायी होते ही गौरदा को निद्रा ने घेर लिया।
सुबह सात बजे राजधानी के क्षितिज पर उभरते सूरज की गुनगुनी किरणें खिड़की की जाली से छन-छन कर गौरदा को जैसे दुलार कर जगा रही थीं। गौरदा ने करवट बदलने का प्रयास किया। दुःखते शरीर ने प्रतिरोध किया। नींद उचट कर कच्ची हो गयी। गौरदा कच्ची नींद में स्वप्न देखने लगे-
गौरदा के पुश्तैनी चार तल्ले के मकान में होली की बैठक जमी है। दस-ग्यारह साल का नन्हा गौरी कमरे के बीचो-बीच कालीन पर बैठे पूरे आँचलिक लटके-झटके के साथ बुज़़ु़र्ग होलियारों की तरह होली गा रहा है। बड़दा तबला बजा रहा है। श्रोतागण बड़े ध्यान और कौतूहल के साथ गौरी  की हैरतअंगेज़ गायकी का मज़ा ले रहे हैं।
तभी बरामदे वाले दरवाजे़ से गौरदा के दिवंगत पिता झक्क सफेद कुर्ता-धोती में शाल लपेटे कमरे में प्रवेश करते हैं। उनके पीछे-पीछे व्हील चेयर में सफेद कपड़े पहने कृषकाय बड़दा भी हैं। नन्हा गौरी गाना छोड़ कर उठता है और दोनों के पैर छू कर पूछता है, ‘बौज्यू तुम? तुम तो परके साल मर गये थे ना? और बड़दा! तुम इतने बूढ़े और कमज़ोर क्यूँ लग रहे हो?’
दोनों बुजुर्ग कोई जवाब न दे कर उसकी ओर स्नेह के साथ आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाते हैं।
पहेली जैसा स्वप्न अभी चल ही रहा था कि नन्हे गौरी को दूर से किसी स्त्री के करुण विलाप का स्वर सुनाई देता है। गौरी पूछना चाहता है कि स्त्री के रोने की आवाज़ कहाँ से आ रही है? तभी गौरी को लगता है कि कोई स्त्री करुण क्रन्दन करते-करते उसके बिल्कुल समीप आ गई है। वो उसे पहचानने की कोशिश करता है। ठीक इसी समय गौरदा की नींद खुल जाती है।
गौरदा आँख खोल कर देखते हैं कि उनकी बहन कुसुम ज़ोर-ज़ोर से विलाप करती हुई उन्हें जगा रही है।
गौरदा….ऽ…ऽ..ऽ! गजब हो गया! बड़दा नहीं रहे। रात मौत हुई। अभी-अभी खबर आयी है।
गौरदा को वस्तुस्थिति को अपने स्नायु तन्त्र में जज़्ब करने में थोड़ी देर लगी। थोड़ी देर तक वो कुछ न बोले और सोचते रहे। फिर उन्हें बड़दा का खेल समझते देर न लगी। रात उन्हें होली गाते रहने का संदेश भिजवाना और सुबह मौत की सूचना मिलना। उन्होंने अनुमान लगाया कि जब उन्हें बड़दा का रात संदेश मिला था लगभग उसी समय बड़दा की मौत हुई होगी। गौरदा अपार दुख में डूब गये। मन में गहरी हूक उठी। ओ बड़दा! तूने ऐसा क्यों किया? आखि़री समय मुझे दूर कर दिया।गौरदा की आँखों से अनायास अविरल आँसू झरने लगे। उन्होने आँसुओं को रोकने का ज़रा भी प्रयास नहीं किया। कुसुम ज़ोर-ज़ोर से विलाप किये जा रही थी। किशोरदा मौन खड़े थे। बस एक ही बात गौरदा को तसल्ली की लग रही थी कि उन्हें यह महसूस हो रहा था कि इस पूरे प्रकरण में बड़दा का सहमति भरा हाथ है, और उन्हें अपराधबोध से ग्रस्त होने की कोई आवश्यकता नहीं। गौरदा अब उठ कर बैठ चुके थे। पूरी घटना उनके मन में जज़्ब हो चुकी थी। कुछ पूछना समझना बाक़ी न था। उन्होंने बैठक में नज़र दौड़ाई। रात सोने वाले जा चुके थे। केवल हरीश बचा था। उसने गौरदा से एक बार नज़र मिलाई, फिर नज़र झुका कर धीरे से सीढ़ी से बाहर उतर गया।
गौरदा थोड़ी देर सोचते रहे फिर उठ कर सीधे बाथरूम की ओर लपके। बाथरूम के शीशे में उन्हें अपना चेहरा और बाल गुलाल से रंगे नज़र आये। उधर बड़दा की मौत, इधर गुलाल की छटा! आह! कैसी दारूण विडम्बना है!गौरदा ने सोचा और घुटी-घुटी आवाज़ में बड़दा ऽ ऽ! बड़दा ऽ ऽ!कह कर सीने पर हाथ रख कर फफक पड़े।
     ×       ×       ×     ×       ×       ×       ×     ×  
      
लगभग 30-31 वर्ष पश्चात् गौरदा कुमाऊँ की पहाड़ियों में बसे अल्मोड़ा शहर के अपने चार तल्ले के पुश्तैनी मकान के सबसे ऊपर के मुख्य सड़क से लगे कमरे में बीमारी और वृद्धावस्था से अशक्त पड़े हैं। पिछले दो-तीन महीनों से शरीर की ऊर्जा जैसे शनैः-शनैः समाप्त होती जा रही है। फाग का महीना चल रहा है। आधी खुली खिड़की से बासंती हवा कमरे में प्रवेश कर गौरदा के नथुनों में भर जाती है। ठण्ड के बावजूद गौरदा इस चिरपरिचित बयार को मन ही मन सलाम करते हैं। बरसों का नाता जो ठहरा। गौरदा की आवाज़ अशक्तता के कारण बैठ चुकी है। इस बार वे मन ही मन होलियाँ गा रहे हैं। मन बार-बार हुलस जाता है।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी अल्मोड़े में होली की बैठकों का भूत लोगों के सिर पर सवार है। हर रात कहीं न कहीं होली की बैठक होती ही है। पुराने होलियार इन दिनों गौरदा से लगभग रोज़ ही मिलने आते हैं। ये होलियार इन दिनों हो रही बैठकों की उनसे चर्चा करते है।
गौरदा का इकलौता लड़का सुहास इन दिनों उनकी सेवा में दिनरात लगा रहता है। गौरदा के लाख समझाने पर भी वो इस वर्ष होली की बैठकों में कहीं गाने नहीं गया। जबकि वह भी होली गायकी का एक समर्पित कलाकार था। उसका कहना था, ‘बाबू! डॉक्टर ने कहा है कि आपको अधिक देर के लिये अकेला न छोड़ा जाय। अब होली की बैठक में गया तो फिर आप जानते ही हैं-वहाँ समय-सीमा का कोई मतलब नहीं रह जाता। रात को किसी बैठक में जाओ तो सुबह ही दिखाई देती है इससे अच्छा है कि जाओ ही मत। अपने प्रति पुत्र के त्याग और प्रेम को देख कर गौरदा का दिल भर-भर आता था। पर वो पुत्र की दलीलों के आगे चुप रह जाते।
दूसरे दिन छरड़ि थी, यानी रंग खेलने का दिन। आज गौरदा यद्यपि कुछ अधिक अशक्त महसूस कर रहे थे पर अन्दर से उनका मन काफी उल्लसित था। आज उनके बगल वाले मकान में होली की बैठक होनी है। होलियार शाम से ही होली की बैठक में जाने से पहले उनके पास हाज़िरी देकर हाल-चाल पूछ कर उनका आशीर्वाद लेकर जा रहे थे।
गौरदा को इसी बात की टीस थी, कि उनका लड़का इस बार फाग में अपना गला एक बार भी नहीं गरमा पाया है। गौरदा का लड़का उन्हीं की तरह होली गायकी का दीवाना था। उसमें प्रतिभा भी थी। गौरदा चाहते थे कि उनका लड़का उन्हीं की तरह होली गायकी में जो अनिवर्चनीय अलौकिक आनन्द है, सुख है, उसका जीवन भर लाभ ले। पर इस बार उनका लड़का उनकी बीमारी की वजह से फाग की मस्ती में डूब नहीं पाया था।
गौरदा से मिलने के लिए आने-जाने वालों का सिलसिला थम चुका था। शाम के सात बजे थे। गौरदा झपकी ले रहे थे। तभी कमरे के दरवाजे़ का पल्ला खुलने की आवाज़ ने उन्हें जगा दिया। उनका लड़का सुहास था।
 बाबू! कैसे हो? ठीक लग रहा है?’ सुहास ने पूछा।
बिल्कुल ठीक! आनन्द हो रहा है! बल्कि आज तो कुछ ज्यादा ही अच्छा लग रहा है। मिलने-जुलने वाले भी आये थे। पड़ोस में होली की बैठक है ना।
वही मैं भी कह रहा था बाबू! अगर तुम्हें ठीक लगता है तो मैं एकाध घंटे के लिये होली में बैठ आता हूँ। कहीं दूर तो जाना नहीं है। बिष्टजी बड़ा निहोरा कर रहे थे। नीचे आंगन में मिले थे।
गौरदा को तो मानो, मन माँगी मुराद मिल गयी। वो तो ऐसा चाहते ही थे। झट से मुस्करा कर बोले-भाऊ! यही तो मैं भी चाह रहा था। बिष्टजी मेरे पास भी आये थे। उनका कहना था कि उनके घर पर बैठक में आज की रात तू मेरी जगह भरेगा। जा! जा! अब देर न कर।
थोड़ी देर सुहास पिता के बगल में बैठ कर बात करता रहा, फिर उठकर पड़ोस में चला गया। लड़के के होली की बैठक में जाने के बाद गौरदा ने असीम शान्ति का अनुभव किया। संतोष की आभा उनके म्लान मुख पर तिर गयी।
कच्ची नींद में गौरदा स्वप्न देखते हैं- बचपन के बड़दा अकेले, हारमोनियम की धौंकनी को पैर से धकेल कर स्वर देते हुए तबला मिला रहे हैं। बड़दा की कठिनाई को आसान करने के निमित्त नन्हा गौरी बरामदे से चिल्ला कर कहता है, ‘बड़दा! रूको! मैं आता हूँ सुर देने। नन्हा गौरी हारमोनियम के स्वर सापर अंगुली रखकर धौंकनी चलाता है। पर ये क्या? हारमोनियम से कोई ध्वनि नहीं निकलती। नन्हा गौरी बेचैन हो उठता है। गौरदा बेचैनी में नींद से जागते हैं।
पड़ोस के मकान के निचले तल्ले से होली गाने की हल्की-हल्की पर स्पष्ट आवाज़ आ रही है। गौरदा इस कंठ को अच्छी तरह पहचानते हैं। उनका लड़का सुहास गा रहा है। बिल्कुल वैसा ही जैसा वे स्वयं गाते थे। बन्दिश सूफियाना थी, और करूण राग में निबद्ध थी।
कर ले श्रृंगार चतुर अलबेली,
साजन के घर जाना होगा।
माटी ओढ़न माटी बिछावन
माटी का सिरहाना होगा
पुत्र के कंठ से सुमधुर स्वर में होली सुनते-सुनते गौरदा की आँखें आनन्द मग्न हो कर बन्द हो जाती हैं।
तभी पत्नी की आवाज से उनकी तन्द्रा टूटती है।
लो दवा खा लो। सुहास तो होली की बैठक में चला गया। जाते-जाते कह गया कि दस बजे बाबू को दवा दे देना।
दवा हाथ में लेते हुए गौरदा ने स्नेह से अपनी पत्नी की ओर देखा। बीते बरसों का सुख-दुःख का साथ एक मिश्रित भाव बन कर उनके दिल और दिमाग़ पर छा गया। एकदम भोली निर्मल स्त्री, जिसकी निश्छलता के आगे सभी नाते-रिश्तेदार निःशस्त्र होकर समर्पण कर देते थे। गौरदा का मन पत्नी के प्रति स्नेह से लबालब भर आया। मन में भावना का एक ज्वार उठा। एकाएक वो अपने को अधिक अशक्त महसूस करने लगे। उन्हें झूम सी आ गयी। तन्द्रा में वे देखते हैं- इतिहास की किताब लेकर गौरी रज़ाई में दुबका बैठा है। बड़दा हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ़’, के माने समझा रहे हैं। गौरी ध्यान से सुन रहा है। गौरदा की तन्द्रा टूटती है। दार्शनिक अंदाज में पत्नी से पूछते हैं-
तूने इतिहास पढ़ा है? इतिहास?’
मैनें? क्यूँ मजाक करते हो इस उमर में? तेरह साल की थी, छठवीं क्लास में पढ़ती थी, जब तुम ब्याह लाये थे। आगे फिर पढ़ाया तुमने?’
जानती है? इतिहास अपने को दोहराता है।
तो मैं क्या करूँ? दोहराता रहे। खूबऽऽऽब दोहराता रहे। मुझे इससे क्या फरक पड़ने वाला। कोई ऐसी बात बताओ जो मुझसे मतलब रखती हो।
गौरदा का गला भर आता है।
पगली है तू! नहीं समझेगी। मैंने कभी कोई ऐसी बात तेरे से की, जो तुझसे मतलब न रखती हो? ख़ैर! भगवान तुझे ख़ुश रखे।
पत्नी उन्हें ओढ़ा कर चली गई। गौरदा के यही आखिरी शब्द थे।
सम्पर्क-

71बी/2बी, कमलानगर,

स्टेनली रोड, इलाहाबाद-211002
मो. नं. -91-9450595197

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

शिरोमणि महतो की कविताएँ


शिरोमणि महतो

जीवन-वृत
नाम – शिरोमणि महतो
जन्म – 29 जुलाई 1973
शिक्षा – एम. ए. (हिन्दी) प्रथम वर्ष
सम्प्रति – अध्यापन एवं ‘‘महुआ‘‘ पत्रिका का सम्पादन
प्रकाशन – ‘कथादेश’,हंस’,कादम्बिनी’,पाखी’,वागर्थ’,परिकथा’,कथन’,समकालीन भारतीय साहित्य’,समावर्तन’,द पब्लिक एजेन्डा’,सर्वनाम’,जनपथ’, युद्धरत आम आदमी’,शब्दयोग’,लमही’,   नई धारा’,  पाठ’,पांडुलिपि’,  अंतिम जन’,  कौशिकी’,  दैनिक जागरण’, पुनर्नवा विशेषांक,दैनिक हिन्दुस्तान’, जनसत्ता विशेषांक’, छपते-छपते विशेषांक’,राँची एक्सप्रेस’, प्रभात खबर’ एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
रचनाएँ – ‘उपेक्षिता’ (उपन्यास) 2000; ‘कभी अकेले नहीं’ (कविता संग्रह) 2007;         ‘संकेत-3’ (कविताओं पर केन्द्रित पत्रिका) 2009; ‘भात का भूगोल’       (कविता संग्रह) 2012 प्रकाशित।
करमजला (उपन्यास) अप्रकाशित।
सम्मान – कुछ संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
        डॉ रामबली परवाना स्मृति सम्मान
        अबुआ कथा कविता पुरस्कार
        नागार्जुन स्मृति सम्मान 

यह दुनिया आज जो इतनी खूबसूरत दिख रही है उसमें तमाम ऐसे लोगों की भूमिका है जो परदे के पीछे रह कर काम करने के आदी रहे हैं। ऐसे लोग विरक्ति की हद तक अपने नाम को उजागर करने से बचते हैं प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत की तमाम उम्दा कलाकृतियाँ इस की गवाह हैं जिस पर कहीं भी इसको बनाने वाले का नाम नहीं मिलता ‘अनुवादक’ की भूमिका भी कुछ इसी तरह की होती है। हालांकि किसी भी रचना का अनुवाद अपने आप में एक बड़ा रचनात्मक कार्य है इसके बावजूद रचना के अनुदित होने पर जो चर्चा कृतिकार की होती है वह चर्चा अनुवादक की प्रायः नहीं हो पातीकवि शिरोमणि महतो की नजर ऐसे लोगों पर जाती रहती है और वे इन्हें अपनी कविता का विषय बनाते रहे हैं। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि शिरोमणि महतो की कविताएँ   
शिरोमणि महतो की कविताएँ
चाँद का कटोरा
बचपन में
भाइयों के साथ
मिल कर गाता था-
चाँद का गीत
उस गीत में
चंदा को मामा कहते
गुड के पुआ पकाते
अपने खाते थाली में
चंदा को परोसते कटोरे में
कटोरा जाता टूट
चंदा जाता रूठ।
उन दिनों
मेरी एक आदत थी-
मैं अक्सर अपने आंगन में
एक कटोरा पानी ला कर
कटोरे के पानी में
-चाँद को देखता
बडा सुखद लगता –
कटोरे के पानी में
चाँद को देखना
मुझे पता हीं नहीं चला
कि चंदा कब मामा से
कटोरा में बदल गया……?
तब कटोरे के पानी में
चाँद को देखता था
अब चाँद के कटोरा में
पानी देखना चाहता हूँ ….!
अनुवादक
मूल लेखक के
भावों के अतल में
संवेदना के सागर में
गोते लगाते हुए
अर्थ और आशय को
पकडने की कोशिश
करता है – अनुवादक
कहीं किसी शब्द को
खरोंच न लग जाये
या किसी अनुच्छेद का
रस न निचुड़ जाये
इतना सतर्क और सचेत
रहता है हरदम – अनुवादक
तब जा के सफल होता
अनुवादक का श्रम
श्रेष्ठ सिद्ध होता अनुवाद
अब अनुदित कृति पर
हो रहे खूब चर्चे
मानो मूल लेखक के
उग आये हों पंख
छू रहा आसमान।
मंच पर बैठा मूल लेखक
गर्व से मुस्करा रहा
फूले न समा रहा –
पाकर मान-सम्मान
और दर्शक-दीर्घा में बैठा:
अनुवादक तालियाँ बजा रहा…!
चापलूस
वे हर बात को ऐसे कहते जैसे –
लार के शहद से शब्द घुले हों
और उनकी बातों से टपकता मधु
चापलूस के चेहरे पर चमकती है चपलता
जैसे समस्त सृष्टि की ऊर्जा उनमें हो
वे कहीं भी झुक जाते हैं ऐसे –
फलों से लदी डार हर हाल में झुकती है:
और कही भी बिछ जाती है मखमल-सी उनकी आत्मा!
चपलूसों ने हर असंभव को संभव कर दिखया है
उनकी जिह्वा में होता है मंत्र- खुल जा सिम-सिम
और उनके लिए खुलने लगते हैं- हर दरवाजे
अंगारों से फूटने लगती है- बर्फ की शीतलता
चापलूस गढें हैं- नई भाषा नये शब्द
जरूरत के हिसाब से रचते हैं- वाक्जाल
जाल में फंसी हुई मछली भले ही छूट जाये
उनके जाल से डायनासोर भी नहीं निकल सकता
उनके बोलने में, चलने में, हँसने में, रोने में
महीन कला की बारीकियाँ होती हैं
पतले-पतले रेशे से गँढता है- रस्सा
कि कोई बंध कर भी बंधा हुआ नहीं महसूसता
चापलूस बात-बात में रचते हैं- ऐसा तिलिस्म
कि बातों की हवा से फूलने लगता है गुब्बारा
फिर तो मुश्किल है डोर को पकडे रख पाना
और तमक कर खडे हो उठते है निति-नियंता
यदि इस धरती में चापलूस न होते
तो दुनिया में दम्भ का साम्राज्य न पसरता!
 
रिहर्सल
दुनिया के रंगमंच पर
जीवन का नाटक होता है
जो कभी दुखांत होता
तो कभी सुखांत भी होता है …
किन्तु, इस नाटक में
कैसा अभिनय करना है?
कौन सा संवाद बोलना है?
कौन-सा गीत गाना है?
कितना हँसना है?
कितना रोना है?
कुछ भी पता नहीं होता…
कल क्या होगा?
आज क्या होगा?
पल भर बाद क्या होगा?
कुछ भी पता नहीं होता
सब कुछ – अनिश्चित-अज्ञात
जीवन जीने का रिहर्सल नहीं होता
और न ही रि-टेक होता है …
सौ साल का जीवन भी आदमी
बिना रिहर्सल के जीता है!

दरिद्र
भला मैं तुम्हें क्या दे सकता
मैं दरिद्र कुछ भी तो नहीं मेरे पास
हाथ बिल्कुल खाली कुछ दोषयुक्त रेखाएँ
जो भविष्य की भी आस बंधाता
माथे में असंख्य बाल मगर बेकार
ऐसे में दिन हमारे कटेंगे कैसे साथ
पेट भरने को रोज कितना लहू पानी बनाता
और खोदता चुँआ तो कंठ भिगोता
गालों के कोटर में पसीने की बास
थोडा भी मांस नहीं-अस्थियों का आवरण
गले भी लगाऊँ तुम्हे तो होगे हतास
दुःखेंगे बदन के पोर-पोर
अब तुम्हीं करो निर्णय क्या करना है
गले की हड्डी उगलना है या निगलना!
हिजड़े
न नर है न मादा बीच का आदमी
उसने जीवन में कभी नहीं जाना-
सहवास के अंतिम क्षणों का तनाव
न गर्भ-धारण के बाद की प्रसव-पीड़ा
अक्सर लोकल ट्रेन में वे मिल जाते
दोनों हथेलियों को पीटते- चौके छक्के लगाते
शायद इसीलिए लोग उन्हें कहते भी हैं –छक्के
लोगों को रिझाने के लिए उनसे पैसे निकलवाने को
अजीब-अजीब हरकतें करते – भाव भंगिमा दिखाते
कभी साडी उठा युवाओं को ढँकने लगते
तो कभी सलवार-समीज खोलने का ड्रामा
बांकी चितवन चमकाते -छाती के उभारो को मटकाते
कुछ लोग रिझते दस-बीस रूपये दे भी देते
कुछ खीझते और दो-चार गालियाँ भी देते
वे भी प्रत्युत्तर देना भली-भाँति जानते
खुश हुए तो सारा-वारा-न्यौरा’ कर देते
वरना मुँह बिचका कर भाव-भंगिमाओं से मजाक उड़ाते
कौन जाने उनकी नियति ऐसी क्यों हुई
किसी देवता का श्राप या पूर्वजों का पाप
जिसका वे ज्यादातर समय करते परिहास
जो भी हो इसके लिए वे तो दोषी नहीं
शायद इसीलिए वे करते रहते हैं- मनुष्यता का उपहास!
डेढ बजे रात
अभी डेढ बजे रात
मैं जगा हुआ
और बल्ब जला हुआ है
मैं खाट पर लेटा-लेटा
देख रहा हूँ –
चूहे किस कदर
भूख से बिलबिला रहे हैं…..
आज करवा-चौथ की रात
कार्तिक का महीना
मेरी पत्नी और बेटी सोई हुई
और मैं घंटा भर से देख रहा
चूहे किस कदर बिलबिला रहे हैं….
चूहे भूखे कभी इधर-उधर दौडते
कभी खाली डब्बों का टटोलतें
कभी कागज को कुतरते-खाते
मुँह में बन जाता – झाग
मन कसेला कर देता स्वाद
यह वो समय है-
जब बीटे झडे दडाम खाली
घर में अनाज बिल्कुल नहीं
वैसे अधिकतर घरों में नहीं होता
लोग खरीद-खरीद कर खाते हैं…
जिसे डब्बों टिनों में बन्द रखते है
अभाव में भाव समझ में आता है!
आजकल चूहे ज्यादा मर रहे हैं
शायद भूख से मर रहे है….
खेतों में धान रस भर रहे हैं
अभी दाने भरने में समय लगेगा
तब तक इसी कदर
चूहों को बिलबिलाना होगा
माटी कागज साबुन खा कर जीना होगा…!

 

स्कूटी चलाती हुई पत्नी
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
किसी मछली-सी लगती है
जो आगे बढ रही है-
समुन्दर को चीरती हुई
और मेरे अंदर
एक समुन्दर हिलोरने लगा है
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
जब स्कूल जाती है
लोग उसे देखते हैं-
आँखे फाड़-फाड़ कर
गाँव की औरते ताने कसती हैं-
मैडम, स्कूटी चलाती है,
भला कहाँ की जैनी’ स्कूटी चलाती है?’
स्कूटी चलाती हुई
मेरी पत्नी को देख कर
औरतों की छाती में सांप
मर्दो के ह्रदयमे हिचकौले….
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
जब स्कूल जाती है
मेरी माँ बेचैन रहती है-
देखती रहती- उसका रास्ता
कि- कब लौटेगी वह
कहीं कुछ हो न जाये!
मेरी पत्नी ने बहुत मेहनत से
सीखा है- स्कूटी चलाना
उसने कभी साईकिल नहीं चलाई
उसके लिए स्कूटी चलाना कठिन था
और उससे भी ज्यादा कठिन था
अपने भीतर के डर को भगाना-
जो सदियो से पालथी मारे बैठा था!
अब तो
मेरी पत्नी के हौसले बुलंद हैं
माप लेने को-देस दुनिया
पंख उग आये-उसके पावों में
पत्नी स्कूटी चलाती है-
अपने मन की गति से
अब मैं उस के पीछे बैठ कर
देख सकता हूँ-देस-दुनिया!
इस जंगल में
पलाश के फूलों से
लहलाहाते इस जंगल में
महुए के रस से सराबोर
इस जंगल में
कोई आ कर देखे-
कैसे जीते है-जीवन
आदिमानव-आदिवासी!
जिनके लिए जीवन
केवल संघर्ष नहीं
संघर्ष के साज पर
संगीत का सरगम है
और कला का सौन्दर्य
उनके बच्चे खेलते कित-कित
गुल्ली डंडा दुबिया रस-रस
और चुनते लकड़ियाँ
तोड़ते पत्ते-दतुवन
जिसे बाजार में बेच कर
वे लाते-नमक प्याज और स्वाद
अब जब पूरा विश्व
एक ग्राम में बदल रहा है
इस जंगल की फिजाओ में
बारूद की गंध भर रही है
कोरइया के फूल खिलते
वन प्रांत इंजोर हो जाता है
चाँदनी उतर आती है- प्रांतर में
सहसा भर जाता-धमाकों का धुआँ
दम धुटने लगता- इस जंगल में
खिलते हुए पलाश के फूल-से
जंगल में आग लहक उठती है
महुए के फूल से चू रहा-
घायल पंडुक का रक्त
मांदर की थाप पर
थ्री नॉट थ्री की फायरिंग
सिहर उठता समुचा जंगल
खदबद करते पशु-पक्षी
कोयल की कूक, पंडुक की घू-घू चू
सुग्गे की रपु-रपु, पैरवे की गुटरगू
बंदर की खे-खे, सियारो का हुआँ-हुआँ
सात सुरों व स्वरो को घोट रही
छर्रो की सांय-सांय, गोलियों की धांय-धांय
शहर वाले कहते हैं-
जंगल में मंगल होता है
फिर इस जंगल में क्यो
फूट रहा मंगल का प्रकोप!
इसके लिए दोषी है कौन
पूछ रहे सखुए शीशम के पेड
सरकार है मौन-संसद भी मौन!
पिता की मूँछें
पिता के फोटो में
कडप-कडप मूंछे हैं
पिता की मूंछे
ऊपर की ओर उठी हुई हैं….
शुरू से ही पिता
कडप-कडप मूंछे रखते थे
जिसकी नकल कई लोग किया करते थे
पिता बीमार पडते
उनका शरीर लत हो जाता
पीठ पेट की ओर झुक जाती
लेकिन उनकी मूंछे उपर की ओर उठी-हुई
उनकी मूछों की नकल कर
लोग मुझे चिढाते
मैं खीझ कर रोता
और सोचता-
पिता मूंछे कटवा क्यो नहीं देते?
उनके लिए
क्या थीं- मूंछे?
कोई नहीं जानता
मेरी माँ भी नहीं
शायद पिता भी नहीं….!
मैंने उन से कभी नहीं कहा-
मूंछे कटवाने को
मालूम नहीं
कभी माँ ने कहा भी या नहीं
कभी-कभी देखता-
पिता मूंछों को सोटते हुए
उन्हे ऐंठते हुए
बडे निर्विकार-निर्लिप्त लगते
एक बार मेले में
पिता के साथियों की
कुछ लोगों से लड़ाई हुई
पिता लाठी ठोकते हुए
मूंछों पर ताव देने लगे
लडाई करने वाले
दुम दबाके खिसक गये
यह कहते हुए कि-बाप रे बाप
कडप-कडप मूंछ वाला मानुष!
फिर क्या –
पूरे इलाके में
पिता की मूछों की धाक जम गई
पिता को मूछों से
कभी कोई शिकायत नहीं रही
उन्होंने चालीस साल
मुंछो को सोटते हुए काटे….
दुखों को चिढाते हुए….
पिता नौकरी से निवृत्त हुए
और गुमसुम-गुमसुम रहने लगे
दूर क्षितिज को ताकते
घण्टों मूछों को सहलाते-चुपचाप
और एक दिन
बिना कुछ बोले
पिता ने मूंछें कटवा लीं…..
अब मैं रोज ढूँढता हूँ-
पिता के चेहरे पर-पिता की मूंछे!
बंदरिया
अपने मालिक के इशारे पर
नाचती है बंदरिया
करती- उसके इशारों का अनुगमन
जैसे कोई स्त्री करती है –
अपने पुरुष के आदेशों का पालन।
बंदरिया के गले में लगा सीकड़
खींचता बंदरिया वाला
हांथ में डंडा लिए उसे नचाता
उछल-उछल नाचती बंदरिया
जैसे वह समझती है- सब कुछ
अपने मालिक की बातों को इशारों को
डंडे की मार खाने से बचती:
और वह नाचती…..
बंदरिया वाला गाता-
‘‘असना पातेक दोसना
कोरठया पातेक दोना।
दोने-दोने मोद पीये
हिले कानेक सोना।।
बंदरिया मोद पीने का अभिनय करती
अपने कानों को पकडती
जैसे सचमुच उसके कानों में हो
-सोने की बाली।
बंदरिया वाले के डंडे के इशारे पर
वह नाचती रूठती रोने का स्वांग करती
जिसे देख कर- सभी खुश हो रहे –
बच्चे, बूढे, जवान और औरतें
औरतें तो ज्यादा खुश:
वे खिलखिला कर हँसती हैं-
देख कर अपने ही- दुःख का स्वांग!

पानी
पानी खीरे में होता है
पानी तरबूजे में होता है
पानी आदमी के शरीर में होता है
धरती के तीन हिस्से में पानी ही तो है…..
हम पानी के लिए
अरबों-खरबों खरच रहे
धरती-आकाश एक कर रहे
हम तरस रहे-
अंतरिक्ष में बूंद भर पानी के लिए
शायद कहीं अटका हो- बूंद भर पानी
किसी ग्रह की कोख में
किसी नक्षत्र के नस में
या आकाश के कंठ में
पारे-सा चमक रहा हो- पानी!
पानी जरूरी है
चाँद पर घर बनाने के लिए
चाँद पर सब्जी उगाने के लिए
चाँद पर जीवन बसाने के लिए
जिस दिन मिलेगा-
बूंद भर पानी
मानो हमने पा लिया –
आकाश-मंथन से – अमृत!
सम्पर्क
नावाडीह, बोकारो,
झारखण्ड – 829144
मोबाईल – 09931552982 
(इस पोस्ट में वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की पेंटिंग्स प्रयुक्त की गयी हैं.)

अनिल कुमार सिंह का आलेख ‘जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता’

मुक्तिबोध


मध्यवर्गीय विडम्बनाओं को देखने-पहचानने के लिए आपको जरुरी तौर पर मुक्तिबोध के पास जाना पड़ेगा। उनके लेखन के गहन आशय हैं। जीवन की तल्ख़ अनुभूतियाँ हैंयह वर्ष मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष है। हमारी कोशिश है कि इस महाकवि को याद करते हुए हर माह कम से कम एक आलेख ‘पहली बार’ पर प्रस्तुत किया जाए कवि अनिल कुमार सिंह ने मुक्तिबोध की कविता के बहाने से एक आलेख लिखा है। आज इसी क्रम में पहली बार पर पढ़िए अनिल कुमार सिंह का यह आलेख – ‘जीवन-संघर्ष का यथार्थ : मुक्तिबोध की कविता’  
    

जीवन-संघर्ष का यथार्थ: मुक्तिबोध की कविता

अनिल कुमार सिंह
मुक्तिबोध की अपेक्षाकृत कम चर्चित कविता है मैं तुम लोगों से दूर हूँ। यह डायरी शैली में लिखी कविता है, जिसे पढ़ते हुए एक साहित्यिक की डायरीके आत्मपरक, सुचिन्तित निबन्धों की याद सहज ही आ जाती है। फिर भी यह गद्य नहीं है। गहन आशयों से लैस यह कविता मुक्तिबोध की एक नागरिक और कवि के रूप में बेचैनियों का सख्त दस्तावेज़ है। निम्न मध्य वर्गीय जीवन की  विसंगतियाँ जहाँ व्यक्ति को तोड़ देती हैं, वहीं इसी उर्वर जमीन से नए आदर्श एवं बदलाव की आकांक्षाओं के अंकुर भी फूट निकलते हैं। यह काँपता हुआ आत्मविश्वास अपनी अकिंचनता और पार्थिवता में भी मुक्ति के सपने दिखा जाता है। आकस्मिक नहीं कि मुक्तिबोध की अधिकांश कविताएँ उनकी स्वप्न-कथाओं का ही विस्तार लगती हैं। निम्नवर्गीय मानवीय जीवन के रक्ताल’, भयावह यथार्थ को उसके नंगे रूप में प्रस्तुत करने को मुक्तिबोध कला नहीं मानते, ‘‘अपने को पीसने वाली परिस्थितियों और प्रवृत्तियों को उनके नंगे पाशविक रंग में पेश मत करो। यह कला नहीं है।’’1 इसीलिए उनकी काव्य अभिव्यक्ति में जीवन संघर्ष का यथार्थ उनकी कलात्मक अभिरुचि से रगड़ खाता ही रहता है। इस प्रक्रिया में विचार स्फुलिंग’ ‘चकमक की चिंगारियोंकी तरह हवा में उड़ते रहते हैं। मुक्तिबोध अपनी शब्दावली में इसे संवेदनात्मक ज्ञान कहते हैं। यहाँ संवेदना और ज्ञान का संतुलन है। यह ज्ञान सहज हासिल नहीं है, बल्कि शमशेर के शब्दों में ‘‘भावना के कुदाल से अनुभव की कड़ी धरती को अनथक गहरे’’2 खोदते हुए मिला है।
विचार स्फुलिंगो से मुक्तिबोध की कविता बनती है। उसका अपना अँगूठा स्थापत्य है जो किसी भी दूसरे की तरह नहीं है। उसमें व्यक्त यथार्थ सबका है किन्तु उसकी सबसे प्रामाणिक और सशक्त अभिव्यक्ति मुक्तिबोध ही संभव कर पाये हैं; वह जमीनी है, ठोस है, पथरीली घाटी में बहती नदी का शोर तथा व्याप्ति है उसमें। पहाड़ के अनगढ़, भारी भरकम पत्थरों की तरह बिम्ब और प्रतीकों का मूल सन्दर्भ उनका अपना ही जीवन और परिवेश है। इसीलिए वह अर्थ से इतना प्रदीप्त है कि पाठक को सहज ही अपनी रौ में बहा लिए जाता है। शमशेर के शब्दों में ‘‘वे बहुत जागे हुए होश के चित्र हैं।’’3 शब्द उसके बहाव में घिस कर एकदम सही जगह पर जम जाते हैं। इस कविता की जमीन मुक्तिबोध की जीवन स्थितियों की तरह ही उबड़खाबड़पन लिए हुए हैं। चूंकि यह भारतीय जीवन का यथार्थ है। इसलिए उस में हम अपनी शक्लें फौरन पहचान लेते हैं। मुक्तिबोध जैसे कवि की जटिल संवेदनाओं के साधारणीकरण का यही रहस्य है। वे हमारी अपनी बातें ही हमारे कान में फुसफुसाती हैं। हम उन्हें अनसुना करते हुए भी उनके बेचैन दंश को झेलते रहते हैं। कविता की मुक्ति व्यक्ति की मुक्ति से एकमेक हो जाती है। ये उड़ते हुए विचार स्फुलिंग जीवन की गहरी घाटियों में उतर कर हासिल किए गए अनुभव के प्रत्यक्षीकरण हैं।
मुक्तिबोध आजाद भारत के सबसे महत्वपूर्ण कवि एवं विचारक हैं। यद्यपि तारसप्तक का प्रकाशन 1943 में हुआ था और उसमें संकलित कविताएं उसी दौर की हैं; फिर भी मुक्तिबोध जैसे विचारक और कवि पर राजनैतिक, गुलामी का कोई दबाव नजर नहीं आता। इसमें साबित होता है कि जनचेतना राजनैतिक-आर्थिक दमन व गुलामी के दौर में भी अपनी कूबत और आजादख़्याली से लोगों का नेतृत्व कर सकती है। औपनिवेशिक या आज के दौर में पूंजीवादी और पुनरुत्थानवादियों के गठजोड़ द्वारा प्रायोजित फासिस्ट राजनैतिक दमन जनता को पस्तहिम्मत नहीं करते बल्कि वह ‘‘हठ इनकार का सिर तान…खुद मुख्तार’’ परिवर्तन और आजादी के संघर्ष की इक नई मुहिम में शामिल हो जाती है। 1942 के आंदोलन ने भारतीय अवाम की इस स्वातंत्र्य चेतना को एक नया तात्कालिक आत्मविश्वास दिया था। वह मानसिक रूप से स्वंतत्र हो चुकी थी; भले ही आजादी 1947 में मिली हो। यही दौर है जब मुक्तिबोध मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होते हैं। इसीलिए मुक्तिबोध पर इसका असर अलग तरीके से दिखाई पड़ता है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर से ही वे देख रहे थे कि अंग्रेजी शासन के कमजोर पड़ते जाने के साथ ही देश में प्रतिगामी ताकतों का एक नया समूह उभर कर सामने आ रहा है। इस देशी बुर्जुवाजी का पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान एक तरफ तो कांग्रेस के नेताओं से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है और दूसरी तरफ पुनरुत्थानवादियों से। एक तरह से कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं को इस बुर्जुवा वर्ग का संरक्षण प्राप्त है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर में इस वर्ग को जो संरक्षण विदेशी शासन से था वह आजाद भारत में कांग्रेस शासन से मिलने लगा। आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का रूमानी समाजवाद अपनी अनथक कोशिशों के बावजूद इस प्रतिगामी बाढ़ को रोकने में उत्तरोत्तर निष्प्रभावी होता गया। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बना उनका विराट नैतिक और सामाजिक व्यक्तित्व प्रतिरोध की एक क्षीण आवाज बन कर रह गया था। इसकी बड़ी वजह खुद कांग्रेस के भीतर मौजूद प्रतिगामी सोच की ताकतें ही थी। नेहरू की 1964 में हुई मृत्यु के बाद पार्टी के भीतर मौजूद इन प्रतिगामी ताकतों ने मुनाफाखोर पूँजीपतियों से समझौता करने में जरा सी देर न की। देश को आजाद कराने के संघर्ष के दौरान अर्जित उच्च नैतिक आदर्शों का स्थान कोटा परमिट राज ने ले लिया। यही मुक्तिबोध की रचनाशीलता का दौर भी है। आदर्शों के पतन तथा लूटखसोट के अंधेरे समय में मुक्तिबोध को मार्क्सवादी दर्शन में मुक्ति का रास्ता दिखाई पड़ा। लेकिन यह उनके लिए केवल फैशन के रूप में नहीं था, जैसा कि प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है ‘‘मुक्तिबोध ने एक व्यवस्थित विश्व-दृष्टि अर्जित करने के लिए गहन आंतरिक संघर्ष के फलस्वरूप मार्क्सवादी दर्शन को अपनाया था।’’4 कोई भी रचनाकार गहन आंतरिक संघर्षके बिना नये जीवनानुभवों से लैस नहीं हो सकता। इस आंतरिक संघर्ष के ताप पर तपे हुए निजी अनुभव अभिव्यक्ति के नए रास्ते तलाशते हैं। निजी अनुभवों की आत्मपरकता भी सार्वजनीन हो सकती है, व्यक्तिगत नहीं। इसीलिए वह पूरे समाज पर लागू होती है। क्यों कि ‘‘मुक्तिबोध अनुभूति की ईमानदारी को सुव्यवस्थित और अनुशासित करने वाली अनुभूति की सच्चाई को महत्वपूर्ण मानते हैं; इसलिए वे आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यपरायणताकी बात करते हैं।’’5 मुक्तिबोध के लिए व्यक्ति और समाज का विरोध बौद्धिक विक्षेपहै। उनका मत है कि ‘‘हमारा सामाजिक व्यक्तित्व ही हमारी आत्मा है। आत्मा का सारा सार-तत्व प्राकृत रूप से सामाजिक है।’’6
आत्मा या आत्मपरकता वाली शैली की आड़ लेकर कुछ आलोचक मुक्तिबोध को अस्तित्ववादी सिद्ध करने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन मुक्तिबोध को सावधानी से पढ़ने वाला पाठक जानता है कि यह आलोचकों का बौद्धिक विक्षेपमात्र है। मुक्तिबोध का जीवनानुभव उनके सौन्दर्य अनुभव से अभिन्न है। जीवनानुभवों से अर्जित दृष्टि कभी थोपी हुई नहीं रहती बल्कि अंतर का निजतेजस्व आलोकबन कर अभिव्यक्त होती है।

मैं तुम लोगों से दूर हूँ’, मुक्तिबोध की अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है। इस कविता में मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया तथा काव्य व्यक्तित्व की बनावट को समझने के भी महत्वपूर्ण सुराग मिलते हैं। 1943 में अज्ञेय के संपादन में ‘तारसप्तक’ का प्रकाशन हुआ था। सप्तक के कवि प्रयोगशील होते हुए भी विचारों में गहरी मतभिन्नता लिए हुए थे। अज्ञेय स्वयं आधुनिकतावादी होने के साथ अंग्रेजी के कवि टी.एस. इलिएट के विचारों से प्रभावित थे। वे इलियट के प्रसिद्ध निबंध ^Tradition and Individiual Talent* से खास तौर पर प्रेरित थे। टी. एस. इलियट का मानना था कि भावनाओं की अभिव्यक्ति सीधे न होकर वस्तुनिष्ठ सम्बद्धताओं के जरिए होनी चाहिए। इसे वे कलाकार का व्यक्तित्व से पलायन ¼Escape From Personality½ कहते थे। अज्ञेय उनके कविता सम्बन्धी विचारों को हिन्दी में ला रहे थे। अज्ञेय की वैयक्तिक स्वतंत्रता और व्यक्तिवाद एवं मुक्तिबोध के निज ¼Self½ में भारी अंतर है। आधुनिकतावाद से मुक्तिबोध भी प्रभाविात थे, किन्तु उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा का संबल मिल गया था। इसलिए मुक्तिबोध ने व्यक्तिवादी अनुभूति की ईमानदारी के भावगत तथा आत्मगत पक्ष का विरोध करते हुए कहा कि ‘‘अनुभूति की ईमानदारी का नारा देने वाले लोग, असल में, भाव या विचार के सिर्फ सब्जेक्टिव पहलू, केवल आत्मगत पक्ष के चित्रण को ही महत्व दे कर उसे भाव-सत्य या आत्मसत्य की उपाधि देते हैं। किन्तु भाव या विचार का एक ऑब्जेक्टिव पहलू अर्थात् वस्तुपरक पक्ष भी होता है।’’7 मार्क्सवाद और आधुनिकतावाद का सबसे ज्यादा सधा हुआ संतुलन पूरे आधुनिक हिंदी साहित्य में हमें सिर्फ मुक्तिबोध में ही प्राप्त होता है। मार्क्सवादी विचारधारा को आलोक ने ही मुक्तिबोध को आधुनिकतावाद की आड़ में चल रहे शीतयुद्ध के प्रभावों को लक्षित कर लेने की दृष्टि प्रदान की। उन्होंने समझ लिया कि नयी कविता का व्यक्तिवाद, प्रगतिवाद तथा समाज-विरोधी है। नयी कविता के व्यक्तिवादी आभिजात्य में हाशिये पर पड़े लोग सिर्फ अन्य है। इस अन्य के अपने निजी कष्टों, जीवन संघर्ष का व्यक्तिवादियों के लिए कोई मूल्य नहीं है। इसी लिए मुक्तिबोध इन लोगों से खुद को अलगाते हुए लिखते हैं-
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।8
तुम्हारे और मेरे के बीच की यह खाई बढ़ती ही गई है। मुक्तिबोध के समय में इसके आशय कहीं ज्यादा स्पष्ट थे। आज न्यस्त स्वार्थों के बैंड दल अपनी ही धुन पर थिरक रहे हैं। उन्हें किसी की परवाह नहीं; इसीलिए मुक्तिबोध की यह घृणा हमें बिलकुल असली और अपनी लगती है। पूंजीवादी व्यवस्था ने नई कविता के व्यक्तिवाद को आज के सामाजिक विलगाव में बदल दिया है। हर कोई सिर्फ और सिर्फ अपना है। सबका अपना व्यक्तिगत संघर्ष है, एक तरफ पद और प्रतिष्ठा के लिए तो दूसरी तरफ रोटी के टुकड़े के लिए। अस्मिता की राजनीति ने कोढ़ में खाज का काम किया है। न्याय और अधिकार के सामूहिक संघर्षों की जगह जातियों और धर्म संप्रदायों के संघर्ष में ले ली है। लेकिन मुक्ति तो पीड़ितों के साहचर्य और सामूहिक संघर्ष में ही मिलने वाली है। इसलिए मुक्तिबोध का मैं अकेला नहीं महसूस करता। वह जानता है कि अपने लोगों के बीच चलते-फिरते साथके साथ-साथ साहचर्य का बढ़ा हुआ हाथ हमेशा उपस्थित रहता है। यह साहचर्य मध्यवर्गीय सुख-सुविधाओं और झूठ में डूबे लोगों के लिए गर्हित है; क्यों कि उनके लिए यह असुविधा उत्पन्न करता है। ईमानदारी और नैतिकता, सामान्य जन का साहचर्य किसी को भी दुनियावी अर्थ में अकेला और अभिशप्त बना सकती है। मुक्तिबोध को अनुभव है कि मध्यवर्गीय समझौतों की दुनिया से दूरी बना कर तथा पीड़ित और दुखियारे लोगों को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर उनका मैंदूसरों के सतत आघात के लिए निरापद हो गया है। यह आघात सार्वजनिक ही नहीं अकेले में भी हैं। क्योंकि हमलावर सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठान से ही परिचालित नहीं है बल्कि वे हमारे अपने बीच के समझौतावादी लोग हैं। जनपक्षधरता और साहचर्य का जो अन्न-जल हमारे लिए जीवनदायिनी है वह उनके लिए किसी विष से कम नहीं। यह द्वन्द्व सिर्फ समाज में नहीं व्यक्ति के भीतर भी है; जहाँ अपने मध्यवर्गीय संस्कारों से लड़ कर मुक्ति पाने के संघर्ष में व्यक्ति लहूलुहान हो रहा है। दुश्मन भीतर भी हैं। इस संघर्ष में महाकाव्यात्मकता का औदात्य नहीं बल्कि गहरा टुच्चापन संगुम्फित है। इस झमेले से बाहर आने की व्याकुलता कवि को छलनी किए डाल रही है। मुक्तिबोध के लिए ‘‘सच्चा व्यक्ति-स्वातंत्र्य अगर किसी को है तो धनिक वर्ग को है, क्योंकि वह दूसरों की स्वतंत्रता खरीद कर अपनी स्वतंत्रता बढ़ाता है, और अर्थव्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था-सम्पूर्ण समाज व्यवस्था का पदाधीश बन कर, प्रत्यक्षतः और अप्रत्यक्षतः स्वयं या विक्रीता आत्माओं द्वारा अपने प्रभाव और जीवन को स्थायी बनाता है।9
मुक्तिबोध विक्रीता आत्माओं में बदल जाने से बेहतर असफल हो जाने को मानते हैं। छल-छद्म धनके चक्करदार जीनोंपर मिलने वाली सफलता के शीर्ष पर चढ़ने की बजाय वे जीवनकी सीधी-सादी पटरीपर दौड़ने में विश्वास रखते हैं लेकिन उन्हें हमेशा लगता है कि उनके प्रयास अपर्याप्त हैं। वे खिन्न होते हैं अपने कर्मों की सार्थकता पर भी-
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज कोई भीतर, चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता 10
    
जाहिर है कि ऐसे में जनसमाज की कर्मनिष्ठा भी अन्य हो जाती है। इससे बच निकलने की छटपटाहट या आत्म-संघर्ष ही हमें आगे ले जा सकती है, नए रास्ते दिखा सकती है। हम जैसे भी हैं उससे बेहतर होने की आकांक्षा ही हमें भविष्योन्मुख बना सकती है।
कवि को लगता है कि रेफ्रिजरेटरों, विटैमिनों तथा रेडियोग्रैमों की सुविधा के बाहर भी एक अलग दुनिया गतिशील है; जहाँ भूखी बच्ची मुनिया को माँ की छाती से भी खुराक नहीं मिलती। जहाँ चारों तरफ दिमाग को सुन्न कर देने वाली भयानक गरीबी तथा भूख है। इस नंगे यथार्थ में कवि महसूस करता है कि-
          शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
          शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम हैं
          सत्य केवल एक है जो कि
          दुःखों का क्रम है। 11
यह दुख सत्य है क्यों कि यह सबका है। उन सब का जिसे यह व्यवस्था अन्यसमझती आयी है। चूंकि यह दुख सबका और सत्य है इस लिए इससे बाहर ले जाने वाला रास्ता भी सबका होगा। इस रास्ते की तलाश कवि को खुद करनी  होगी। अपने मध्यवर्गीय सुरक्षित खोल से बाहर आ कर जन सामान्य में घुल मिल जाना होगा; वर्ना तो स्थितियाँ जस की तस ही रहेंगी-
          मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
          शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ
          तेलिया लिबास में, पुर्जे सुधारता हूँ
          तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।12
सन्दर्भ:

1.   सड़क को लेकर एक बातचीत, एक साहित्यिक की डायरी, अप्रैल 1957
2.   भूमिका, शमशेर,चाँद का मुंह टेढ़ा है।‘
3.   वही।
4.   अनभै साँचा, प्रो. मैनेजर पाण्डेय
5.   अनभै साँचा, प्रो. मैनेजेर पाण्डेय. पृ. 228
6.   नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध, पृ. 28
7.   एक साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृ. 133
8.   चाँद का मुंह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृ. 133
9.   नयी कविता का आत्मसंघर्ष, मुक्तिबोध, पृष्ठ 179
10.  चांद का मुंह टेढ़ा है, मुक्तिबोध, पृष्ठ 121
11.  वही, पृ. 122
12.  वही, पृ. 122

अनिल कुमार सिंह

सम्पर्क –

मोबाईल – 08188813088










लाल बहादुर वर्मा का आलेख – ‘भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य’।


लाल बहादुर वर्मा

भूमंडलीकरण अपेक्षाकृत एक आधुनिक टर्म है जिसने समूची दुनिया को कई अर्थों में सीमित कर दिया है। इस आधुनिकता ने एक तरफ जहाँ दुनिया को एकरूप बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है वहीँ इसने कई दिक्कतें भी पैदा की हैं। कहना न होगा कि आज के ताकतवर और साम्राज्यवादी मानसिकता के देश इसका अपने पक्ष में उपयोग कर रहे हैं। इन्हीं सन्दर्भों में इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का मानना है कि ‘साम्राज्यवाद के प्रतिकार का भी भूमंडलीकरण होना चाहिए।’ पहली बार पर हम प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा के आलेखों को श्रृंखलाबद्ध रूप से प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है उनका यह आलेख – ‘भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य’। 
भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा
आजकल भूमंडलीकरण का प्रतिकार सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरोध से ज्यादा होता लग रहा है। तो क्या भूमंडलीकरण उसी श्रेणी की परिघटना है और उतनी ही जन विरोधी, ‘आउट ऑफ डेट’ और प्रतिकार्य? प्रायः समझा यही जा रहा है। पर यह गलत है।
क्या भूमंडलीकरण- सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की तरह गलत है और उसे भी सिद्धान्त और व्यवहार में नकारा जा सकता है? नहीं, कतई नहीं और यही समझना जरूरी है। भूमंडलीकरण न तो पूरी तरह गलत है न तो चाह कर भी, सारी ताकत लगा कर भी, उसे समाप्त किया जा सकता है। ऐसा करना न केवल संभव नहीं, वांछित भी नहीं है।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, बाजारीकरण आज के पूँजीवाद की प्रकृति को चिन्हित करने के सरलीकृत सूत्र मात्र है। यह सब तो पूँजी की प्रकृति में निहित है- जब से पूँजीवाद का प्रादुर्भाव हुआ यह सब होता रहा है। आज भूंमडलीकरण का विशेष अर्थ पूँजी का भूमंडलीकरण है पर इतना ही कहना पर्याप्त नहीं। आज का पूँजीवाद पहले से अधिक जटिल, अधिक आक्रामक, अधिक ग्लैमराइज्ड, अधिक व्यापक तथा अधिक सूक्ष्म और सांस्कृतिक हो गया है और इसी लिए पहले से अधिक खतरनाक और इतिहास विरोधी हो गया है।
भूमंडलीकरण वास्तव में आधुनिकता की लाक्षणिकता है और आधुनिकता पूँजीवाद ही नहीं समाजवाद में भी चरितार्थ हुई है। इसलिए भूमंडलीकरण पूँजीवाद के लिए ही नहीं, समाजवाद के लिए भी अनिवार्य है। दूसरे, भूमंडलीकरण को न केवल रोका नहीं जा सकता, भूमंडलीकरण आर्थिक ही नहीं राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी चरितार्थ होता है और होगा ही। मुद्दा यह है कि वह किसके द्वारा किसके हित में कार्यान्वित होता है। तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि भूमंडलीकरण और केन्द्रीयकरण न पर्यायवाची हैं न अनिवार्यतः पूरक। ऐसा भी भूमंडलीकरण संभव है जो विकेन्द्रीकरण और संघवाद (फेडरलिज्म) के सार को प्रोन्नत करे। समाजवादी भूमंडलीकरण का यही लक्ष्य होना चाहिए।
भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का विश्लेषण करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि विश्व संस्कृति का- अपने तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं के साथ, निर्माण नई विश्व व्यवस्था के साथ पिछले दशक में शुरू नहीं हुआ। वह पांच सौ वर्षों से जारी है।
उसकी गति विज्ञान और टेक्नालॉजी के विकास के साथ-साथ तेज होती गई है। शासक वर्ग की संस्कृति का वर्चस्व बनता-बढता गया है। आधुनिक काल के प्रारंभ में जब राष्ट्र-राज्य यूरोप में विकसित हुए, संस्कृति राष्ट्रीय होने लगी और सत्ता का चरित्र जब अन्तर्राष्ट्रीय हुआ तो संस्कृति भी अंतर्राष्ट्रीय हो गई। आज शासक वर्ग वैश्विक होता जा रहा है इसलिए बदनीयत और बाजारू शासकों की संस्कृति का वैश्वीकरण भी बाजारू और बनावटी है। नतीजे में संस्कृति के मर्म-सृजनशीलता और उदारीकरण का क्षरण उजागर होता जा रहा है।
एक एकांगी और विकृत भूमंडलीकरण के रू-ब-रू व्यक्ति-समुदाय-राष्ट्र सभी असहाय होते जा रहे हैं। स्थानीय, राष्ट्रीय और बाहुल (प्यूरल) यथार्थ के सामने जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो गया है।
पूँजीवाद के व्याख्याकार इसी भूमंडलीकरण को अनिवार्य ही नहीं निर्द्वन्द्व, सर्वशक्तिमान और रामबाण की तरह उद्धारक करार देने में लगे हुए हैं। सिद्धान्ततः ऐसी स्थिति में धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता को अप्रासंगिक होते जाना चाहिए था। पर पूँजीवाद उसके पोषण को मजबूर है। आखिर क्यों? इस लिए जिस तरह से अपने इतिहास के सर्वोत्तम काल फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान सामन्तवाद से क्रान्तिकारी ढंग से सत्ता छीन लेने के बाद भी पूँजीवाद ने सामन्तवाद से समझौता कर लिया था और दो सौ वर्षों से उसे जिलाए रखे हुए है। उसे पता है कि सामन्तवाद की मौत हो गई तो मेहनतकशों से उसकी सीधी टकराहट होगी जिसे सम्भालना असंभव हो जाएगा। अभी तो सामन्ती संस्थाओं और संस्कारों में जकड़ा मेहनतकश भी व्यक्ति और वर्ग के रूप विभाजित रहता है और अपने नैसर्गिक शत्रु पूँजीवाद पर भरपूर संगठित प्रहार नहीं कर पाता। आज पूँजीवाद के तथाकथित  और घोषित एकक्षत्र वर्चस्व के दौर में फंडामेंटलिज्म’, तरह-तरह की संकीर्णताओं और जादू-टोने अंधविश्वासों को बढ़ावा मिलना- यहाँ तक कि उनका राजनीतिक इस्तेमाल, क्या अनायास हो रहा है? व्यक्ति और समाज में ज्यों-ज्यों तर्कशीलता और विवेकशीलता बढ़ती जा रही है रूढिग्रस्तता, नियतिवादिता और प्रतिक्रियावादिता को कमजोर होते जाना चाहिए। ऐसे तो जन विरोधी शक्तियों का प्रभुत्व ध्वस्त हो जाएगा। इसलिए तात्कालिक लाभ के लिए आत्मघाती पिछड़ेपन को भी प्रोन्नत किया जाता है। पूँजीवाद ऐसा पहली बार नहीं कर रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उसी के द्वारा पैदा की गई स्थितियों में जब इटली, जर्मनी और स्पेन में फासीवाद उभरा तो उसे इस लिए पोसा गया था ताकि रूस की समाजवादी क्रान्ति के विरुद्ध उसका इस्तेमाल किया जा सके। जब हिटलर ने फ्रांस और इंगलैण्ड को हड़पने के लिए आक्रमण शुरू किया तब जा कर उन्हें भस्मासुर के जन्म की अर्थवत्ता समझ में आई।
आज भूमंडलीकरण के बाढ़ में सबसे सुगठित संस्था राष्ट्र-राज्य पूँजीवादी बांध में भी दरार पड़ने लगी है। सोलहवीं शताब्दी से ही राष्ट्र-राज्य पूँजीवाद के गढ़ के रूप में मजबूत होता गया था। उसकी दमनकारी भूमिका बढ़ती गई। उसके विरुद्ध क्रान्तियां तक हुई,  पर समाजवादी क्रान्ति के बाद भी राज्य, जिसे विलुप्त होते जाना था, कमजोर नहीं हुआ। पर आज भूमंडलीकरण और अमरीकी वर्चस्व के जमाने में राज्य की सार्वभौमिकता लड़खड़ाने लगी है। भारतीय राज्य भी कितनी ही बार अपनी सार्वभौमिकता के साथ समझौता करता लगता है। व्यक्ति की बढ़ती आत्मकेन्द्रिता अजनबियत और बढ़ने न पाये इसके लिए विघटनकारी शक्तियों को पोसा जा रहा है। बढ़ती उद्धतता और बेहया आक्रामकता का प्रतिकार वर्तमान जीविता हर तरह की सामुदायिक और सामाजिकता को कमजोर कर रही है। समाज में सृजनशीलता का क्षरण हो रहा है। अनिवार्य और नैसर्गिक अन्तर-संबंध विकृत और विरूपित होते जा रहे हैं। समाज में सृजनशीलता का क्षरण हो रहा है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी, जो प्रगति के सूचक और वाहक हैं, आज प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
परन्तु दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि मनुष्य सामाजिक ही नहीं सांस्कृतिक प्राणी भी है जैसे मनुष्य नैसर्गिक रूप में सामाजिक है वैसे ही सांस्कृतिक भी। संस्कृति प्रबुद्ध और भद्रलोगों की बपौती नहीं। वह हर व्यक्ति की नैसर्गिक लाक्षणिकता है। संस्कृति मानव समाज का नैसर्गिक सम्बल है। वहीं अश्वमेध के घोड़ों की रास थाम ली जाती है। राम कितना ही आततायी हो लव-कुश का दमन-दलन संभव नहीं। मतलब यह कि संस्कृति के क्षेत्र में प्रतिकार को रोका नहीं जा सकता। तो फिर बीड़ा उठाने के लिए क्या करना होगा?
सबसे पहले तो यह समझ लेना होगा कि इतना जोर जानने पर क्यों है। सारी सूचना क्रान्ति का मन्तव्य क्या है? जाहिर है कि बौद्धिक प्रक्रिया-सूचना, ज्ञान, विवेक में सूचना सबसे निम्न स्तर का काम है। जानने को सर्वोतम प्राप्य के रूप में स्थापित करने का उद्देश्य यह है कि समझने की अर्थवत्ता समझ में न आवे। समझने से निर्णय ले पाने यानी विवेक का द्वार खुलता है और विवेक शासकों के लिए खतरनाक सिद्ध होता है। तभी तो अगर इर्न्फोरमेशन से बात आगे जाती भी है तो नॉलेज पर रोक लगा दी जाती है- कहा जाता है – नालेज इज पावर। पूछा जा सकता है कि विजडम इज पावरक्यों नहीं। सारांश यह कि सांस्कृतिक मोर्चे पर सूचना के वर्चस्व और केन्द्रीकरण का विरोध होना चाहिए। कार्यभार के रूप में क्विज कल्चरके मर्म को समझना चाहिए और उसके स्वरूप को बदलने और वैकल्पिक माध्यम विकसित करने के प्रयास होने चाहिए।
दूसरा मुद्दा सुख और आनंद का है। आज सारी दुनिया में, विशेष कर भारत जैसे देशों में, उन्हें सम्पति और भोग-विलास से जोड़ कर ही देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। कुछ लोग इससे ऊब कर पराभौतिक आनन्द की तलाश में जुटते हैं जैसे- यूरोप, अमरीका के कुछ लोग जिनका मोहभंगहो जाता है। कुछ लोग दान-दक्षिणा-भजन-कीर्तन- तीर्थ-यात्रा में अपराध-बोध से रास्ता तलाशते हैं- जैसे भारत का मध्य वर्ग। दोनों ही अतिरेकपूर्ण रास्ते मीडिया के प्रिय विषय हैं और इनको तरह-तरह से प्रोन्नत किया जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि आज सम्पत्ति, सुख, आनन्द आदि की अर्थवत्ता स्पष्ट की जानी चाहिए और समाजशास्त्र में, शिक्षण जगत में, इस पर जोर दिया जाय कि विकास वैयक्तिक है और आनन्द सामुदायिक तथा भौतिक आनन्द का सबसे बड़ा उत्सव सहभागिता है।
एक बड़ी सांस्कृतिक चुनौती आज की विडम्बनाओं से उबरने की है। आज आतंकवाद के विरुद्ध सबसे ऊंची आवाज उस की है जो दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी है। आज मानवाधिकार हनन का मुद्दा वह उठाता है जो सबसे व्यवस्थित और नियोजित ढंग से उसका हनन करता है। आज जनवाद का सबसे बड़ा हिमायती होने का दावा और दलील वह देश करता है जो दूसरे देशों में ही नहीं स्वयं अपने देश की भी उन जनवादी परम्पराओं का उल्लंघन कर रहा है, जिन्हें पूँजीवादी से बहुत गर्व से संजोया है। जो जनवाद आधुनिकता का अनिवार्य लक्षण है, जिसका विकास मानव की मुक्ति-कामना से अंतरंग रूप से जुड़ा हुआ है, जिसके लिए संघर्ष से मानव समाज ने नई बुलंदियां दी है। वह न केवल ठहराव का शिकार है बल्कि उसका क्षरण हो रहा है। इसलिए साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के खिलाफ सबसे बड़ा मोर्चा जनवाद का है। यह न केवल पूँजीवादी-साम्राज्यवादी विकृतियों के विरुद्ध है अपितु समाजवादी भटकावों के भी खिलाफ जरूरी आधार प्रस्तुत करता है। इस से भी सामान्य जन के लिए कार्यभार निकलता है। आज जनवादी परिवार विकसित करना एक आधारभूत कार्यभार है, किसी भी तरह के नवजागरण और सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए।
भूमंडलीकरण के संदर्भ में एक सांस्कृतिक संकट भाषा को ले कर भी पैदा हो रहा है। आज अंग्रेजी भूमंडलीकरण का उपकरण बन रही है। इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी ही बनती जा रही है। पर यह संयोग ही है कि अंग्रेजी अमरीका की भी भाषा है। इसमें अंग्रेजी का क्या दोष? ऐतिहासिक कारणों से अंग्रेजी का विश्वव्यापी प्रचार हुआ। पहले न अंग्रेजों के राज्य में कभी सूरज डूबता था न अंग्रेजी के। अंग्रेजों का राज तो खत्म हुआ पर अंग्रेजी का बना रह गया। इसमें अंग्रेजी भाषा-साहित्य की प्रकृति का भी योगदान है। आज भी अंग्रेजी दुनिया की सबसे लचीली और जज्ब करने वाली भाषा है। हर साल सारी दुनिया की भाषाओं में सैकड़ों शब्द और मुहावरे अंग्रेजी में आत्मसात किए जाते हैं और शब्द कोशों का विस्तार होता जाता है। अब अंग्रेजी को नकारा नहीं जा सकता पर अपनी-अपनी भाषा-साहित्य के समुचित विकास में जुट जाने की चुनौती स्वीकारी नहीं जा सकती है। उदाहरण के लिए हिन्दी या तो पिछलग्गू और पिछड़ी होने को स्वीकार ले या फिर बीड़ा उठा ले। वर्तमान स्थिति में हिन्दी के साहित्यकार और बुद्धिजीवी इस चुनौती और उससे निकलने वाले कार्यभार की अर्थवत्ता के अहसास, समझ और संकल्प से लैस नहीं दिखाई पड़ते। आज विश्व के श्रेष्ठ लेखन का हिन्दी में अनुवाद मौलिक रचना से कम महत्वपूर्ण नहीं है– कभी-कभी तो वह श्रेष्ठ और आवश्यक मौलिक रचना की पूर्व शर्त लगाता है। हिन्दी मनीषा की गहराई-ऊंचाई-विस्तार के लिए अनिवार्य है कि वह दुनिया के अधुनातन और श्रेष्ठतम से परिचित हो। यह अंग्रेजी अनुवादों की घटिया अनुवादों यहाँ-वहाँ से उड़ाए गये उदाहरणों और ‘अंधों में कनवा राजा’ की मानसिकता से संभव नहीं।
कुल मिला कर आज का विकृत और एकांगी भूमंडलीकरण लोगों में परायापन और असहायता भर रहा है- विकल्पहीनता (THERE IS NO ALTERNATIVE, TINA FACTOR) की ओर ले जा रहा है। ऐसे में पहला जरूरी काम तो यही है कि अपने को, अपनों को, सब को विश्वास दिलाया जाय कि विकल्प बाकी है, एक और संसार संभव है और उसे रचना आवश्यक है और उसे हम ही रच सकते हैं।
संकट आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का है।
मानवता के शत्रु भूमंडलीकरण को अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका जवाब राष्ट्रवाद पर जोर नहीं, समाजवादी भूमंडलीकरण की दिशा है। साम्राज्यवाद के प्रतिकार का भी भूमंडलीकरण होना चाहिए। आज सृजन और संघर्ष दोनों का परिप्रेक्ष्य विश्वव्यापी होना चाहिए।
अगर भारत केन्द्रित कोई रणनीति बनती हो तब भी यह जानना आवश्यक है कि भारत प्राचीन काल में संसार में किसी क्षेत्र में पिछड़ा नहीं था मध्य काल में दुनिया के मुकाबले न यहाँ की अर्थव्यवस्था पिछड़ी थी, न राजनीति, न संस्कृति, विषमता और अमानवीयता के बावजूद फिर आधुनिक काल में यह क्यों पिछड़ता चला गया? इसके लिए सामन्ती जकड़ पर्याप्त व्याख्या प्रस्तुत नहीं करती। मुख्यतः सामन्ती रूस में पूँजीवादी क्रान्ति के तत्काल बाद समाजवादी क्रान्ति हुई। सामन्ती चीन में नाजीवादी, फिर समाजवादी क्रान्ति और फिर पूँजीवादी प्रति क्रान्ति हुई। भारत ‘न तीतर न बटेरबना रहा। आखिर क्यों? क्योंकि यहाँ यही घातक जाति व्यवस्था थी और अठारहवीं शताब्दी में ही औपनिवेशिक राज्य कायम हो गया। और धीरे-धीरे विदेशी शासकों को भारत में माई-बाप मान लिया गया। यहाँ मध्य वर्ग और पूँजीवाद भी पनपा पर पंगु और पराधीन ही बना रहा। भगत सिंह के पहले किसी ने पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो कर व्यवस्था परिवर्तन की बात भी नहीं उठाई। यहाँ कांग्रेस ही नहीं कम्युनिस्ट भी प्रायः परमुखापेक्षी बने रहे- नेतृत्व के लिए कभी इंग्लैण्ड तो कभी रूस तो कभी चीन का मुंह ताकते रहे।
आज के हालात में बची-खुची स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता भी छिन जाने का नहीं, समर्पित कर दिए जाने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसलिए आज के सांस्कृतिक आन्दोलन को व्यापक सृजनशीलता, संघर्ष और साझेदारी विकसित करना पडे़गा। ऐसी चेतना और कार्यक्रम आज जीवन के लिए पूर्व-शर्त से बन गए हैं।
सम्पर्क –

मोबाईल- 09454069645
(इस आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
    

रामजी तिवारी का आलेख ‘अब्बास किआरोस्तमी….’

किआरोस्तमी
रान को विश्व सिने पटल पर स्थापित करने वाले फिल्मकारों में अब्बास किआरोस्तमी का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। ईरान जैसे देश में उपलब्ध कमतर स्पेस में भी उन्होंने ‘अपनी नई धारा’ का विकास कर अपने को साबित तो किया ही साथ ही यह भी सिखाया कि अगर आप में हुनर है तो आप विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लिए राह बना सकते हैं विगत 4 जुलाई को पेरिस में किआरोस्तमी का निधन हो गया। रामजी तिवारी ने किआरोस्तमी को श्रद्धांजलि देते हुए यह आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं रामजी तिवारी का यह आलेख ‘अब्बास किआरोस्तमी ….’   

        

अब्बास किआरोस्तमी …..
रामजी तिवारी

गत 4 जुलाई 2016 को महान ईरानी फिल्मकार अब्बास किआरोस्तमी का निधन हो गया। उन्होंने 76 वर्ष की अवस्था में फ़्रांस की राजधानी पेरिस में अंतिम सांस ली, जहाँ वे पिछले कुछ समय से रह रहे थे। उनके निधन के साथ ही ईरानी सिनेमा के एक युग का अवसान हो गया। एक ऐसा युग, जिस पर न सिर्फ ईरान को, वरन दुनिया के सभी कला-प्रेमियों को गर्व रहता था। बेशक कि पिछले कुछ समय से वे लीवर के संक्रमण से जूझ रहे थे, लेकिन हाल-फिलहाल तक वे काफी सक्रिय जीवन भी जी रहे थे, इसलिए उनके दुनिया से जाने की खबर ने सभी सिने-प्रेमियों को अवसन्न कर दिया।
अब्बास किआरोस्तमी का जन्म 22 जून 1940 को तेहरान में हुआ था। वहीं से उन्होंने ‘फाइन आर्ट्स’ में स्नातक की पढाई की। आरम्भ से ही बेहद प्रतिभाशाली ‘अब्बास’ एक चित्रकार बनना चाहते थे, जिसमें उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत भी की। लेकिन जल्दी ही यह तय हो गया कि उनके लिए एक ऐसी विधा इन्तजार कर रही है, जिसमें कई कलाओं का मिश्रण हो। जाहिर है, फिल्म की विधा इस नाते सबसे मुफीद थी। उस समय ईरान में अमेरिका परस्त ‘शाह’ का शासन चल रहा था, जिसमें कला के लिए थोड़ी जगह दी गयी थी। बेशक कि वह जगह कई तरह से निगरानी की स्थिति में ही रहती थी। सन 1969 में इसी शाह शासन ने ईरान में ‘इंस्टीट्यूट आफ इंटेलेक्चुअल डेवलपमेंट आफ चिल्ड्रन्स एंड यंग’ की स्थापना की, जिसमें अब्बास किआरोस्तमी भी सक्रिय रूप से जुड़े। इस संस्थान ने वहाँ विभिन्न कलाओं को न सिर्फ प्रोत्साहित किया, वरन उन्हें दुनिया में अपना स्थान बनाने लायक बौद्धिक आधार भी प्रदान किया। 

किआरोस्तमी ने बतौर फिल्मकार 1970 में अपनी लघु फिल्म ‘ब्रेड एंड एलाय’ से शुरुआत की। और फिर वह सिलसिला अभी चला ही था, कि ईरान में सत्ता पलट हो गया। वहाँ पर शाह की सरकार के स्थान पर इस्लामी क्रान्ति वाली सरकार पदस्थापित हुई। इसी मध्य ‘किआरोस्तमी’ का सिने युग विधिवत रूप से आरम्भ हो रहा था । 1977 में अपनी पहली फीचर फिल्म ‘रिपोर्ट’ के कारण वे कुछ चर्चा में आये, लेकिन 1980 में बनी ‘कोकर-त्रयी’ की पहली फिल्म ‘व्हेयर इज द फ्रेंड्स होम’ ने उन्हें दुनिया भर में स्थापित कर दिया। बाद में इस त्रयी की दो अन्य फिल्मों ‘एंड लाइफ गोज आन’ और ‘थ्रू द ओलिव ट्रीज’ ने तो उन्हें दुनिया के महान सिनेकारो में स्थापित ही कर दिया। इन्हें ‘कोकर त्रयी’ के नाम से इस लिए जाना जाता है कि ये तीनों फिल्मे उत्तरी ईरान के एक गाँव ‘कोकर’ की तरफ जाती हैं, और उसे केंद्र में रख कर आगे बढती हैं। 
इससे पहले कि हम ‘किआरोस्तमी’ के सिनेमा की परख करें, हमें यह जरुर देख लेना चाहिए कि उस समय ईरान में सिनेमा बनाने के लिए कैसा वातावरण मौजूद था। सिनेमा जैसी स्वतन्त्र विधा के लिए ईरान में कितनी स्वतंत्रता हासिल थी? और फिर इस परिप्रेक्ष्य में दुनिया की नजर में, खासकर पश्चिम द्वारा बनायी गयी छवि में ईरान की क्या तस्वीर उभरती थी? जब इन आधारों पर हम अब्बास के सिनेमा को देखते हैं, तो शायद हम उनके प्रति न्याय भी कर सकते हैं और उनके वास्तविक योगदान को भी समझ सकते हैं।

The wind will carry us

मसलन शाह के शासन के भीतर भी और उसके बाद इस्लामी क्रान्ति के बाद भी ईरान में सिनेमा के लिए कोई बहुत मुफीद समय नहीं था। सेंसर बोर्ड राजनैतिक फिल्मों पर सख्त तो था ही, उसके यहाँ प्रेम संबंधों, सामाजिक कुरीतियों, नौकरशाही, सेना, धार्मिक आडम्बर और व्यवस्था की विद्रूपताओं को ले कर भी तमाम तरह के बंधन और दिशा-निर्देश होते थे। यानि कि आप पश्चिम लोकतंत्रों की सिने-स्वतंत्रता तो भूल ही जाईये, ईरान में भारतीय सिनेमा के मुकाबले भी काफी कमतर स्पेस उपलब्ध था। दूसरी तरफ इस्लामी क्रान्ति के बाद खासकर और फिर ईराक से उसके युद्ध को ले कर भी ईरान के बारे में पश्चिम ने दुनिया में ऎसी छवि गढ़ी थी, कि उसमे हमें ईरान का समाज एक दानव के जैसा ही दिखाई देता था। जो अतिशय रूप से कट्टर था, जो बहुत धर्मांध था, जो हर आधुनिकता से घृणा करता था, जो केवल लड़ना और मरना ही जानता था। और जो दुनिया के लिए एक बड़ा ख़तरा भी था।
‘किआरोस्तमी’ ने इन परिस्थितियों के बीच से अपने सिनेमा के लिए जगह बनाई। उन्होंने कुछ तो यूरोपीयन ‘नई धारा’ से ग्रहण किया, जिसमें इटेलियन ‘नई धारा’ की बहुत ख़ास भूमिका थी। लेकिन उन सबसे प्रभाव ग्रहण करते हुए भी उन्होंने ईरान की अपनी ‘नई धारा’ को विकसित किया। यह धारा ‘डाक्यूमेंट्री तरीके’ से बनाई गयी थी, जिसमें विवरणों के आधार पर ईरान के आम जन जीवन को दर्शाया जाता था। जाहिर है कि जब सेंसर की तलवार इस कदर ऊपर लटक रही हो, तो ऐसे में कला को अपने लिए थोड़ा ‘संगठित’ होना अनिवार्य ही था। अब्बास ने इसके लिए अपनी फिल्मों में ईरानी कविता का उपयोग करना शुरू किया। वे पहले ही ‘डाक्यूमेंट्री तरीके’ को अपना कर अपनी फिल्मों को भव्यता और तामझाम से बचा ले गए थे। और एक चित्रकार के रूप में अपनी क्षमता का सार्थक उपयोग कर उन्होंने ऐसे ‘लांग शाट’ विकसित किये, जिसमें ईरान का भूगोल भी दुनिया के सामने नुमाया हुआ और दर्शकों ने चित्रकला के जरिये भी सिनेमा को देखा, पढ़ा।

Taste of cherry
अपने सिनेमा में ईरान के गाँवों की तरफ लौटने और आम आदमी से जुड़ाव की उनकी समझ ने उन्हें वे दोनों हथियार उपलब्ध करा दिए, जिससे वे अपने देश के सेंसर बोर्ड से भी मुकाबला कर सकते थे और दुनिया के सामने ईरान की वास्तविक छवि को भी प्रस्तुत कर सकते थे। मसलन वे अपनी फिल्मों में ईरान के सामान्य आदमी से बातचीत करते हुए किसानों और मजदूरों की समस्या से भी रूबरू हो रहे थे। बच्चों के जरिये वे उन तहों तक पहुँचे, जिसमें ईरानी वयस्क व्यक्ति नहीं खुलना चाहता था। चुकि उनकी अधिकतर फिल्मों में ‘मूविंग तकनीक’ का इस्तेमाल हुआ है, इसलिए जाहिर है कि उसमें बहुत कुछ चित्रों के माध्याम से भी देखा और समझा जा सकता है और बहुत कुछ राहगीरों की बातचीत से भी। मसलन अपनी प्रसिद्द फिल्म ‘टेस्ट आफ चेरी’ में किआरोस्तमी ने दिखाया है कि एक गरीब मजदूर जो पैसे के लिए बहुत जरूरतमंद है, और एक कुर्द सैनिक जो किसी के साथ लड़ने के लिए कुख्यात है, जब उसके सामने नैतिक सवाल खड़े होते हैं, तो वे दोनों ही पैसे और लड़ाई की जगह पर मानवीयता की पक्ष में मुड़ते हुए दिखाई देते हैं।
इस तरह से ‘किआरोस्तमी’ की फिल्मों में ईरान का वह चेहरा भी दिखाई देता है, जो ‘अयातुल्लाह खुमैनी’ के फतवों और तेहरान की चकाचौंध से अलग और वास्तविक है। और फिर वे दुनिया को ईरान का वह चेहरा भी दिखाने में कामयाब होते हैं, जिसमें ईरान की पश्चिम द्वारा गढ़ी गयी दानव की छवि भी टूटती है। अपनी फिल्मों में आम जनमानस से सीधे जुड़ाव और ईरानी गाँवों के भीतर जा कर कहानी कह सकने की सलाहियत ने उन्होंने दुनिया को यह समझने के लिए मजबूर किया कि ईरान के लोग भी दुनिया के अन्य लोगों की तरह ही एक साधारण इंसान हैं। जो अपनी तमाम समस्याओं से जूझते हुए भी शान्ति चाहते हैं, नैतिक बल रखते हैं और दुनिया के किसी भी हिस्से के इंसान की तरह विवेकशीलता और मनुष्यता से समृद्ध हैं। 

Ten
किआरोस्तमी की फिल्मों में सिर्फ एक फिल्मकार ही दिखाई नहीं देता है, वरन उसमें उनकी बहुमुखी प्रतिभा भी दिखाई देती है, जो कई रूपों में फैली हुई है। निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक, चित्रकार, कवि, पेंटर, कथावाचक और ग्राफिक डिजाइनर जैसे तमाम फन में माहिर ‘किआरोस्तमी’ ने अपनी फिल्मों में उन सबका प्रभाव छोड़ा है। और यह प्रभाव उन फिल्मों को किसी भी तरह से बोझिल नहीं बनाता। वरन इसके विपरीत उन्हें और अधिक समृद्ध करता है। 
चालीस से अधिक फिल्मों में अपने निर्देशन से लोहा मनवाने वाले अब्बास किआरोस्तमी को कोकर त्रयी की तीन फिल्मों ‘ह्वेयर इज फ्रेंड्स होम’, एंड लाइफ गोज आन’ और ‘थ्रू द ओलिव ट्रीज’ के लिए तो जाना ही जाता है। लेकिन ‘द टेस्ट आफ चेरी’, ‘क्लोज अप’, ‘सर्टिफाईड कापी’, ‘द विंड विल कैरी अस’, ‘टेन’ और ‘होमवर्क’ जैसी कालजयी फिल्मों के लिए भी जाना जाता है। और मजेदार तो यह भी कि जिस अब्बास किआरोस्तमी को हम ‘मूविंग सिनेमा’ के लिए जानते हैं, वही अब्बास किआरोस्तमी जब ‘शिरीन’ जैसी नारीवादी फिल्म बनाते हैं, तो उसमें उनका एक भी पात्र एक भी मूवमेंट नही दिखाता।

Where is my friends home
कहते है कि किसी कलाकार का मूल्यांकन इस बात से भी होना चाहिए कि वह अपने आसपास में कला के लिए कैसा माहौल विकसित करता है। या उसके प्रभाव से बनने वाले माहौल में कैसी कला विकसित होती है। इस आधार पर उनका महत्व और भी बढ़ जाता है। क्योंकि जब हम किआरोस्तमी साथ ईरान के सिनेमा को देखते हैं, तो वह गर्व करने के अनेकानेक अवसर उपलब्ध कराता है। माजिद मजीदी के ‘चिल्ड्रेन्स आफ हैवेन’, जफ़र पनाही के ‘आफ साइड’, मोहसिन मखलमबाफ के ‘कंधार’, बहमन गोबादी के ‘टर्टल कैन फ्लाई’ और असग़र फरहादी के ‘सेपरेशन’ जैसी फिल्मों से मिलकर जो ईरान का सिनेमा बनता है, उसमें अब्बास किआरोस्तमी भूमिका भी शामिल रहती है। इन फिल्मकारों के माध्यम से ईरान का सिनेमा दुनिया के सामने उस ईरान को प्रस्तुत करता है, जो शायद वहाँ के तमाम लेख, तमाम किताबें, तमाम कूटनीतिकार और तमाम राजनेता नहीं कर सके हैं। कहना न होगा कि अब्बास किआरोस्तमी ईरानी सिनेमा के इस बेटन को थामने वाले अग्रिम धावक थे।
अब्बास को दुनिया भर में कई महत्वपूर्ण पुरस्कार हासिल भी हुए है। विश्व सिनेमा में उन्हें कुरुसोवा, सत्यजीत राय और डे-सिका के साथ शामिल कर के देखा भी जाता है। खुद कभी कुरुसोवा ने उनके बारे कहा था कि “सत्यजीत राय के मरने पर मैं बहुत दुखी हुआ था। लेकिन जब मैंने अब्बास की फिल्मों को देखा, तो मुझे लगा कि यह सही आदमी है, जो उनकी जगह ले सकता है।” 

विडम्बना देखिए कि उसी अब्बास की कुछ फिल्मों को ईरान में प्रतिबन्ध भी झेलना पड़ा। और प्रतिबन्ध की सूची में उनके प्रिय सहयोगी फ़िल्मकार ‘जफ़र पनाही’ और मखलमबाफ की फ़िल्में भी शामिल रहीं। लेकिन उन्हें अपना मुल्क इतना प्यारा था कि इन प्रतिबंधों के बावजूद उन्होंने अपनी फिल्मों की तकनीक में बदलाव करके ईरान में बने रहने का विकल्प ही चुना। यह अनायास नहीं था कि वे अपनी फिल्मों में कई बार स्क्रीन को डार्क छोड़ दिया करते थे। शायद इसलिए भी, कि दर्शक उसे अपनी कल्पनाओं से भरें। बाद में कुछ समय के लिए उन्होंने बाहर रह कर भी फिल्मे बनायी। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि वे अपनी फिल्मों में कभी भी लिखी हुई स्क्रिप्ट पर ही नहीं बने रहते। वरन उसे फिल्म बनाते समय जीवन की तरह परिवर्तित भी करते रहते हैं।   

किआरोस्तमी की मृत्यु पेरिस में हुई, जहाँ से उन्हें दफनाने के लिए ईरान लाया गया। उनके अंतिम दर्शन के लिए तेहरान में जमा हुई भीड़ यहाँ गवाही दे रही थी कि वे सही मायनों में ईरानी जनता के दिलों पर राज करते थे। उनका योगदान इन अर्थों में बहुत ख़ास माना जाएगा कि उन्होंने न सिर्फ ईरान के सिनेमा को दुनिया भर में एक महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुंचाया। न सिर्फ अपने पीछे ईरान में फिल्म निर्माण की एक अत्यंत समृद्धशाली परंपरा छोड़ी। वरन दुनिया के सिने परिदृश्य पर यह स्थापना भी दी, कि हर देश और समाज का अपना विशिष्ट महत्व होता है, और कला का महत्व इस बात में है कि वह उसे उस देश और समाज की विशिष्टता के साथ दर्शाए। इस लिहाज से ‘अब्बास किआरोस्तमी’ सच्चे मायनों में एक जन-फिल्मकार थे, जिसने दुनिया के शास्वत मूल्यों की स्थापना के लिए अपनी कला का उपयोग किया। बेशक कि यह एक साधारण बात है। लेकिन इस दौर के लिए कोई कम असाधारण बात भी नहीं, जिसमें कला का उपयोग आम जनता के हितों के खिलाफ धड़ल्ले से किया जाने लगा है।
उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि …… ।
रामजी तिवारी

सम्पर्क –

रामजी तिवारी
बलिया, उत्तर-प्रदेश
मो.न. 09450546312   

वन्दना शुक्ला का संस्मरण ‘आँखों में ठहरा हुआ वो मंज़र’



इतिहास की कुछ तारीखें ऐसी होती हैं जिनका नाम आते ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसी ही एक तारीख़ थी – 2 दिसम्बर 1984. 
यह तारीख़ न केवल भोपाल बल्कि पूरे देश के लिए एक गहरे जख्म की तरह है जो रह-रह कर आज भी रिसता रहता है। यूनियन कारबाईड कंपनी से रिसी मिथायलआईसोसायनाइड नामक गैस कई लोंगों के लिए मौत का मंजर ले कर सामने आयी वैसे तो साल 1984 भारत के लिए कई आपदाएँ ले कर आया। यही वह वर्ष था जब अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को चरमपंथियों से आज़ाद कराने के लिए आपरेशन ब्ल्यू स्टारहुआ और जिसकी कीमत देश को अपनी प्रधान मंत्री इन्दिरा गांधी की जान चुका कर अदा करनी पड़ी। 
लेखिका वन्दना शुक्ला का ताल्लुक त्रासदी के साक्षी इस भोपाल शहर से ही है और वे उस मंजर की साक्षी रही हैं। इस दिन मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं वन्दना शुक्ला का यह संस्मरण आँखों में ठहरा हुआ वो मंजर

      

आँखों में ठहरा हुआ वो मंज़र 
वन्दना शुक्ला

छूटे हुए शहर उन कहानियों की तरह होते हैं जिन्हें हमने लिखते लिखते अधूरा छोड़
दिया था। लेकिन वो कहानियां कभी मरती नहीं बल्कि समय की तलहटी में
स्मृतियों के शैवाल बन डूबती उतराती रहती हैं और वहीं अपना एक अलग संसार
बसा लेती हैं। उन कहानियों को अपने मौन से छूना किसी यातना से गुजरना भी
होता है।

हर दिल में एक शहर बसता है। उस शहर में अतीत की बस्तियां होती हैं, कच्चे प्रेम की मिसालें होती हैं, खुशियों के झरने और आधी अधूरी इच्छाओं के सूखे-हरियाले खेत होते हैं, स्मृतियों की हरहराती नदियाँ होती हैं। धडकनों के तागे से बुने हर दिल में बसे शहर की राग रंगत सुर्ख शफ्फाक ही नहीं होती। इनमें समय  के दाग धब्बे, और हालातों के ज़ख्म भी होते हैं। मीठी यादें दिल को गुदगुदाती हैं तो उदास कर देने वाली मुरझा देती हैं। न जाने कितने मंज़र, कितनी अनुभूतियाँ लिए एक अव्यक्त की चीख सा वो शहर हमारी आत्मा में ताजिन्दगी कौंधता रहता है। मेरे ज़ेहन में बसी स्मृतियों के इस शहर में अट्टालिकाएं हैं, चौड़ी चमचमाती सडकें, संग्रहालय, पहाड़ियां, तालाब, उनमें तैरती रंग-बिरंगी कश्तियाँ, कश्तियों में बैठे जवान सपनों से लबालब खिलखिलाते जोड़े हैं तो छीजतीं, खँडहर होतीं पौराणिक पत्थर की इमारतें हैं, मीनारें हैं, तंग गलियाँ हैं, मंदिर-मस्जिदें हैं, नमाज़ें हैं, गलियों से गुज़रती काले बुरखे में लिपटी महिलायें हैं, उन महिलाओं की आँखों में सपने हैं और उनके सपनों में ‘’कभी आज़ाद’’ होने की उम्मीदें हैं। अलावा इसके अजाने हैं, मंत्रोच्चार हैं, कविता है, मूर्तियाँ है,शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियां हैं तो लोक संगीत की सोंधी गंध और गजलों की बेहतरीन बंदिशें भी। राजा भोज की इस नगरी में ‘’भोजपाल’’ से लेकर ’’भोपाल’’ होने तक की दास्ताँन और स्मृति चिन्ह आज भी मौजूद है। इस शहर के इतिहास में दर्ज सल्तनतों, झीलों की बिंदास झिलमिलाहट और संस्कृति की झंकार में उतराते-डूबते पृष्ठ पलटते हुए अचानक उंगलियाँ ठिठक जाती हैं। वो एक मनहूस पन्ना, जिसकी पेशानी पर एक काला सा धब्बा है और जिसका मुड़ा हुआ कोना इसकी लाचारी को और उदास बना रहा है। न चाहते हुए भी मैं उसे खोलती हूँ और एक बार फिर थरथरा जाती हूँ। इस पन्ने के माथे पर कुछ हिलती हुई सी अस्पष्ट लिखावट में तारीख दर्ज है 2 दिसम्बर 1984.। मेरी स्मृतियाँ सहसा पीछे की और दौड़ने लगती हैं और एक ख़ास ‘’वक़्त’’ पर ठिठक जाती हैं जो वक़्त घड़ी की सुइयों में हौले हौले सरक रहा है। मैं गौर से देखती हूँ ये सुइयां न आगे जा रही हैं और न पीछे। एक जगह काँप रही हैं। ये ठहरा हुआ समय है रात के बारह बज कर बीस मिनिट। मुझे याद आता है पिछले बत्तीस बरस से ये काँटा यूँ ही काँप रहा है बस अपनी जगह पर। ज़र्द दिनों की इस मनहूस तारीख का ये वक़्त लोगों की आँखों में यहीं ठहरा हुआ है।
ये ठिठुराती ठंडों की आधी रात का वक़्त है। ज़ाहिर है तमाम शहर रजाइयों में दुबका गहरी नींद में डूबा हुआ। सर्दी की ठंडी काली गहरी रात। बहुतरूपिया मौत कभी काले अँधेरे ओढ़ कर भी आती है। गहरी नींद की छाती पर मौत का तांडव बहुत भयानक होता है। ये सिर्फ हम जैसे कुछ भाग्यशाली लोग कह सकते हैं जिन्हें वो छू कर निकल गयी। जिनको वो अपने साथ ले गयी वो अपने अहसास कहने के लिए इस धरती पर नहीं रहे।

पिछले दिनों हुई कानपुर रेल दुर्घटना की विभीषिका का मंज़र कुछ ऐसा ही रहा होगा जब रात के गहरे अँधेरे में बोगियों में सोये या ‘’कल’’ की सुनहरी योजनाओं को सोचते मौत की इस ‘साजिश’ से बेखबर यात्री अचानक जोर-जोर से हिलने लगे होंगे। जब तक वो इस गर्जना को सपना नहीं सच समझ पाते तब तक बोगियां एक दुसरे पर गिरने, टूटने और चीत्कारों से पट गईं। लोग लाशें बन कर एक दूसरे पर गिरने लगे। सन्नाटे…अँधेरे …रात और हाहाकार। इन रातों की सुबहें बड़ी मनहूस और दुखदायी होती हैं। ये सुबह भी ऐसी ही थी ..सिर्फ तबाही, रुदन और चीत्कार। उन बोगियों के ध्वस्त अवशेषों के नीचे दबे अधमरे लोगों की कराहें …. तमाशबीनों का सैलाब। जो लोग ऐसी विभीषिकाओं के चश्मदीद होते हैं उनकी आँखें ताजिन्दगी ये मंजर नहीं भूल पातीं।
आँखों में अटकी दो दिसंबर की वो काली रात …
चरम पर जाड़े की ये वही मनहूस रात थी जब हम चार लोग स्कूटर पर रात के एक बजे पता नहीं कहाँ पता नहीं किस दिशा की और भागे जा रहे थे। उनींदे…रुआंसे…भयभीत से। बस भाग रहे थे। क्यूँ कौन कहाँ कैसे कुछ होश नहीं। हमें निरंतर लग रहा था जैसे मौत हमारा पीछा कर रही है क्यूँ कि सांस घुटने की वजह तब तक नदारद थी और सड़क पर कम्बल रजाई ओढ़ कर भागते लोग सड़क पर ही गिर कर मर रहे थे। आधा भोपाल जैसे युद्ध क्षेत्र बन गया था। जिसके एक और मौत थी और दूसरी और निहत्थे, लाचार, कारण से अनभिग्य भोपाल वासी। ये शिकारी द्वारा शिकार पर पीठ पीछे किये गए हमले जैसा वीभत्स था।
स्कूटर दो एक बार सांसों के थमने पर गिरते-पड़ते ऐसे लोगों से टकराता हुआ बचा। लोग चीख रहे थे, रो रहे थे, रोते हुए भाग रहे थे। कुछ लोग नींद में उसी दिशा में पैदल भागे जा रहे थे जिस दिशा में यूनियन कार्बाईड में से रिसी  मिथायलआईसोसायनाइड  नामक मौत उनका इंतजार कर रही थी। निशातपुरा, जहांगीराबाद, बरखेडी, भोपाल टॉकीज आदि की सड़कें लाशों से पटने लगीं। सब जगह अफरातफरी। जब तक कारण पता पड़ा मौत के मुह में समा जाने वालों के लिए देर हो चुकी थी।
अगली सुबह भयावह थी। अस्पतालों में पैर रखने को जगह नहीं। पूरा भोपाल डर से सिहर रहा था, कई इलाकों में लोग बेतरह खांस रहे थे, फेंफडों में भरी विषैली हवा का उनके पास निरतर खांसने के अलावा फिलहाल कोई समाधान नहीं था। जहरीली गैस ने बचे हुए लोगों के शरीर को अलग-अलग तरह से प्रभावित किया था। कुछ लोगों की आँखें गहरी लाल हो कर उभर सी आई थीं। कुछ लोग हड्डियों की बीमारी के कारण चलना भूल चुके थे। झुग्गी, कच्चे घरों के सामने घोड़े, बकरे, मुर्गे-मुर्गियां न जाने कितने गूंगे विवश मवेशी मरे हुए पड़े थे। चीलें, गिद्ध  आसमान में मंडराने लगे थे। दूसरे आसपास के कस्बों, शहरों से घासलेट मंगाया जा रहा था। लाशों के ढेर फूंकने के लिए केरोसीन कम पड गया था। शहर के आसपास के ‘’सुरक्षित’’ लोग आ कर व स्वयंसेवी संस्थाएं रात दिन घायलों की सेवा कर रहे थे। मौत इस कदर भयभीत कर चुकी थी कि लोग शहर से भाग रहे थे। सरकार ने अन्य महफूज़ ठिकानों पर जाने के लिए यात्रियों को ट्रेन की फ्री सुविधा दी थी। चार पाँच दिनों तक रह रह कर अफवाह उठती कि फिर से गैस लीक हो रही है और बस भगदड़ मच जाती। लोगों को जो वाहन जहाँ आता-जाता मिलता उस पर चढ़ जाते। सरकार को इन अफवाहों पर अंकुश लगाना मुश्किल हो रहा था। स्थिति इतनी नाज़ुक थी कि लोगों को विरोध, विद्रोह या आन्दोलनों का न होश था न वक़्त। ज़िंदगी कुछ पटरी पर आई तो लोग अपने उन घरों में वापस लौटे जिन्हें ज़ल्दबाजी में वो बिना ताला लगाए खुला छोड़ गए थे। उस दौरान काफी चोरिया भी हुईं।
जब हालात सम पर आने लगे तो आंदोलनों ने जोर पकड़ा। अमेरिका में बैठे यूनियन कार्बाईड के मालिक एंडरसन के पुतले जलाये जाने लगे। जान माल के नुकसान के लिए मुआवजे की मांगें हो रही थीं। अपने आबाद, गुलज़ार और खूबसूरत शहर को यूँ जलते हुए देखना कितना भयावह और दर्दनाक था ये उन प्रत्यक्षदर्शियों के सिवा कोई नहीं जान सकता। 


सरकारें किसी व्यक्ति की चेतावनी को किस कदर नज़र अंदाज़ करती हैं। वे नहीं जानतीं कि उनका ये ignorance  शहर की कितनी जानों को लील जाएगा इस सत्य की ये औद्योगिक त्रासदी सबसे जीती जागती मिसाल है। गौरतलब है कि भोपाल के पत्रकार श्री राजकुमार केसवानी ने राष्ट्रीय अखबारों तक में कार्बाईड की इस जहरीली गैस के दुष्परिणामों के लिए पहले ही सरकार को कई बार चेताया भी था ‘’अब भी सुधर जाओ वरना मिट जाओगे’’ उन्होंने अफ़सोस और दुःख में लिखा था ये खबर इस भयावह त्रासदी से डेढ़ महीने पहले अक्टूबर में लिखी गयी थी। भोपाल गैस त्रासदी के करीब 32 साल बाद मध्य प्रदेश सरकार ने रविवार को घोषणा की कि वह दुनिया के सब से भयावह औद्योगिक त्रासदियों में शामिल इस त्रासदी के लिए स्मारक बनवाएगी।

बहरहाल, सवाल आज भी वहीं का वहीं है कि हमारी सरकारें दुर्घटना होने पर मुआवजा देने के लिए जो तत्परता दिखाती हैं उसे पहले रोकने की कोशिश क्यूँ नहीं होती? दूसरे,  अविकसित और विकासशील देशों को अपनी चारागाह समझने वाली कंपनियों को यहाँ पनाह क्यूँ दी जाती है

उन सभी बेकसूर नागरिकों को श्रद्धांजलि जिन्होंने किसी और की गलती का खामियाजा अपनी जान गंवा कर भरा

 

वन्दना शुक्ला

ई-मेल : shuklavandana46@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त तस्वीरें गूगल से साभार ली गयी हैं.)

प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताएँ

प्रद्युम्न कुमार सिंह

युवा कवि प्रद्युम्न कुमार सिंह ने कविता की राह पर चलना अभी शुरू ही किया है पहले भी मैंने उनकी कविताएँ देखी थीं तब उबड़-खाबड़ पन ज्यादा था लेकिन अब एक तरतीब उनकी कविताओं में दिखाई पड़ रही है इन कविताओं को देख कर अब एक आश्वस्ति है कि उनके अन्दर एक बेहतर कवि के अंकुर फूट चले हैं उनकी एक कविता है ‘हत्यारा मुस्कुरा रहा’ – इस कविता की पंक्तियाँ देखिए : ‘चोट दे कर/ लहा लोट हो कर/ जीवन राग के बीच/ जीवन गीत हो कर/ हत्यारा मुस्कुरा रहा यह खुशी की बात है कि प्रद्युम्न में एक विचार है, विचारों को व्यक्त करने वाला एक भाव है और भाव को कविता में तब्दील करने वाला हुनर भी उनमें है कविता की दुनिया में इस नवागत का स्वागत करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रद्युम्न की बिल्कुल टटकी कुछ कविताएँ

प्रद्युम्न कुमार सिंह की कविताएँ         

तुम बारबार कहते हो
तुम बारबार कहते हो
बदल कर रहूंगा
कब आयेगा वह 
समय
जब बदल जायेगी 
हकीकत की 
चहलकदमी
और बदल जायेगी
फितरत
दुःख के सायों की
पगडंडियां भी हो जायेंगी
तब्दील
मुख्य रास्तों में
कब मुक्त हो 
सकेंगे 
सिकन भरे 
चेहरे
भय की सिकन से
 
सपने जब मरते है

सपने जब मरते हैं
खत्म हो जाता है
सब कुछ
भूत और भविष्य का

खत्म हो जाते है
वो सुनहरे पल
जिन्हे याद कर 
कभी होंठ मुस्काये थे
डबडबा गईं थी
सुर्ख सी आँखें
खुशी के अश्रुओं से
झनझना गया था
तन बदन 
तड़ित विद्युत के
प्रभाव सा

मिट गया था अंधेरी 
राहों का
स्याह अंधेरा
सपने जब मरते हैं
खत्म हो जाता है
बहुत कुछ


 
अस्तित्व को अपने ही
अस्तित्व को अपने ही
चीख रही थी 
थमी हुई गुमनाम 
आवाजें  
कैद की

शिकन की धारियां 
जो मौजूद थीं
ललाट पर
दे रही थीं 
गवाही
परेशानियों के सबब का 

आ रही रह रह कर जो 
सिसकियाँ 
खो जाती हैं 
जो चाहारदीवारियों के 
कैदखाने में 

टूटकर बिखर चुके 
सपने जो बुने गए
और उनमें तिरोहित होती
गुमनाम आत्मायें! 
जो एक अनाम 
अँधेरे  में 
धूमिल हो जाती है 
जहां से आवाजें  
निकल जाती हैं 

शान से ताव देते हुये 
मूछों पर 
कई रसूखदार 
और समाज के तथाकथित 
ठेकेदार 
जो बात बात पर झाड़ देते हैं 
लच्छेदार व्याख्यान!
रंगजमी महफिलों में 
और बुझ जाते हैं 
उम्मीदों के 
धूमिल चराग भी 
तिरोहित होने लगा है

तिरोहित होने लगा है 
अंधेरा
भीगने लगी है रात की 
चादर
और टूटने लगे हैं 
झालरों के 
मोती

सूनी होने लगी है 
महफिलें
मिटने लगी हैं 
खद्योतो की हस्तियाँ
बजने लगी हैं
प्रकाश की घंटियों की 
रूनझुन
 
विहाग गाने लगा है 
भोर का पक्षी
तिरोहित होने लगा है
रात का अंधेरा

रात का घना अंधेरा
रात का घना अंधेरा 
अपना स्याह चेहरा ले कर
सामने जब खड़ा हो जाता है
बढने लगता है डर
और सियारों और ऊदविलावों की
आवाज के बीच
झांकने लगते हैं
बहुत से अनजाने अनपहिचाने चेहरे
जिन्हें पहले कभी देखा था
ठीक से याद नहीं आ रहा
फिर भी यह एहसास होता  है
इनसे पहले कभी मुलाकात हो चुकी है
ये डरे सहमे लोग 
जिनकी हड्डिया ही शेष हैं
चेहरे की रंगत पूरी तरह से
बिगड़ चुकी है
इन सब के बावजूद अभी भी शेष
एक जिजीविषा
जिन्दा रहने की और जीवित है
संघर्ष का दरिया
जो मानो सियारों और बिडालों की
आवाज का प्रतिकार कर रहा है। 

उन्होंने बदल लिये हैं

उन्होंने बदल लिए है
रास्ते
जीने के 
हंसने
उत्सव मनाने के
लूट के
मृत्युदण्ड देने के
खाने के
पीने पिलाने के
खिलाने के
चीन्हने के
चीन्हने के चिन्हों के
चिन्हवाने
चिन्हवाने के नियमों के
नहीं बदला तो
इन सबके मध्य नहीं बदला तो
अपना इरादा अपनी नियति
 
नीली फ्राक वाली लड़की

नीली फ्राक वाली 
लड़की एक
खिलखिलाती धूप सी 
झांक रही थी
वातायनों से बारबार
बच गया हो जैसे कोई 
नवल पत्ता
आखिरी अवशेष
रह गया जो झड़ने से 
पतझर में शेष
करता हो जैसे अब भी 
इंतजार वह
खुद की बारी का
धूप के महीन 
कतरन सी 
चिलक रही वह 
शाख के बीच
भटके राही सा 
अलमस्त अटका 
उसके पथ का रथ
चिपका हो जैसे
मकड़ी के जालों सा 
दीवारों का जर्जरपन 
टूट चुकी है उसके ख्वाबों की 
पगडंडी
स्वर विश्रंखलित हुये 
राहों की उसके
भग्न हुये जागृत उसके 
स्वप्न
भारित यात्राओं के फूल 
दे रहे उसके मन को शूल 
विचलित हुआ है मन
उसका आज
पर आशाओं के हरसिंगार
खिले
ठोकरों से मरहम ले
खिल उठे जीवन के राग
कर रहे वे जीवन में 
सुख का संचार

चिलमन की अलगनी में
 चिलमन की 
अलगनी में
कर ताक झांक 
देता संकेत साफ 
राहों की कुंजी है
अभी भी है पास
भ्रम के पर्दे को ढांप
मिटा देते हो
राहों के निशान
बातों के बहुटों बीच
रोक लेते हो अधीर बन
भूल चूक के मसा
करते तुम
जिद से पूर्ण
भूल रहे शायद तुम
सागर से मजबूत 
होता है
सागर का तट
लोट पोट हो 
चाहे जितना शोर 
मचाये 
वापस के अतिरिक्त
उसके राह नहीं कोई 
टूट फूट बन्दूक की बट
हो जायेगी 
एक दिन बेकार सब
मुंह चिढ़ायेगी तब यही
चिलमन की अलगनी 
हो चुकी होगी 
देर तब बहुत
चाह कर भी नहीं 
अलग कर पायेगा 
तू खुद को
खिड़की, अलगनी 
और राहों की
डरावनी सूरत से

हत्यारा मुस्कुरा रहा

हत्यारा मुस्कुरा रहा
अपनी काबिलियत पर
अपनी हूकूमत पर
अपनी नियति पर
और अपने नुमाइन्दों की
मौकापरस्ती पर
बहते लहू के कतरों से
खुद को तोल कर
विषबुझे बचनों को बोल कर
हत्यारा मुस्कुरा रहा
चोट दे कर 
लहा लोट हो कर
जीवन राग के बीच
जीवन गीत हो कर
हत्यारा मुस्कुरा रहा
लाशों पर लाश देख कर
गमों के साथ हो कर
मौत की खोज कर के
खुद से बात कर के
आसन्न खतरों के अंदाज देख कर
चेहरों के फैले भाव देख कर 
हत्यारा मुस्कुरा रहा
सम्पर्क –
मोबाईल – 08858172741
ई-मेल : pksingh1895@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

सोनी पाण्डेय के कविता संग्रह पर राहुल देव की समीक्षा


सोनी पाण्डेय

युवा कवयित्री सोनी की कविताएँ लोक संवेदनाओं से जुड़ी हुईं हैं। उनकी कविताओं में अनुभवजनित जीवन दिखायी पड़ता हैयही नहीं सोनी समकालीन समय के विडम्बनाओं से रु-ब-रु होते हुए उसे अपनी कविता का विषय बनाने का साहस भी करती हैं। ‘बदनाम औरतें’ इसी तरह की कविता है जो इस समय के तमाम सवालों से टकराने का साहस करती है। सोनी पाण्डेय का पहला कविता संग्रह ‘स्त्री मन की खुलती गिरहें’ पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है युवा कवि राहुल देव ने। तो आइए पढ़ते हैं राहुल देव की यह समीक्षा।  
        
स्त्री मन की खुलती गिरहें
राहुल देव
समकालीन कविता समय में कई सारे स्त्री स्वर एक साथ सृजनरत हैं। डॉ सोनी पाण्डेय भी उनमें शामिल हो रही हैं। वह एक सक्रिय युवा कवयित्री और संपादक हैं। ‘मन की खुलती गिरहें’ उनके पहला कविता संग्रह का नाम है जिसमें उनकी कुल 61 कविताएँ संग्रहित हैं। संग्रह की पहली कविता से ही कवयित्री अपने पक्ष को स्पष्ट कर देती है। चार भागों में लिखित ‘बदनाम औरतें’ शीर्षक यह कविता अपने तेवरों में खास है। बदनाम औरतों का सच बयां करते हुए वह लिखती हैं–
“कैसी होती हैं ये औरतें
क्या ये किसी विशेष प्रक्रिया से रची जाती हैं
क्या इनका कुल-गोत्र भिन्न होता है
क्या ये प्रसव वेदना के बिना आती हैं या मनुष्य होती ही नहीं?” 

इस कविता के दूसरे भाग में वह स्पष्ट कहती है कि –

“बेटियां कभी बदनाम होती ही नहीं
बेटे ही बनाते हैं इन्हें बदनाम औरतें”
कविता के तीसरे भाग में कवयित्री अपने स्वानुभूत अनुभव के माध्यम से विषय को खोलकर हमारे सामने रख देती है। और अंत में वह बदनाम होने के लिए सिर्फ और सिर्फ दृष्टि को उत्तरदायी ठहराती है।
अगली कविता ‘तीसरी बेटी का हलफनामा’ भी एक लम्बी कविता है। इस कविता का अंतिम भाग सबसे सशक्त है। उम्र के चालीसवें पायदान पर बैठ कर जब कोई संवेदनशील स्त्री अपने जीवन के मध्य का इतिहास लिखती है तब ‘उम्र के चालीसवें पायदान पर’ जैसी कविताएँ लिखी जाती हैं। इस चालीस साला इतिहास को साहित्य के कई कवयित्रियों ने अपने अपने तरीके से देखने की कोशिश की है। अगली कविता ‘चौराहा’ भी थोड़ी लम्बी है। इसे मैं एक औसत कविता कहूँगा। अपने कथ्य के बनिस्पत कई कविताएँ थोड़ा ज्यादा फैलाव का शिकार हो गयी हैं ऐसा लगने लगता है। इसी तरह की ही कविताएँ ‘मृत्यु’ और ‘रात भर रोते हैं कतारबद्ध लोग’ भी है। कविता में शब्द व्यय अधिक होने से भाव सांद्रण कम होने का अंदेशा बना रहता है। इस लिहाज से ‘चौराहे पर स्त्री विमर्श’ और ‘औरत’ शीर्षक कविताएँ ज्यादा बेहतर कविताएँ हैं। स्त्री विमर्श को देह विमर्श में रिड्यूस करने की साजिश को लेकर वह पूछती भी है-
`औरत
तुम कब तक लिखी जाओगी जिस्म?”
तो वहीँ पुरुष सत्ता के छल को उसके पौरुष की हार बताते हुए उसके असली चेहरे को पहचाने जाने की बात उठाती है ‘छल’ शीर्षक एक छोटी सी कविता। स्त्री मन के कोने-अतरे तक इनकी कविता जाती है। वह शोषण की नहीं प्रेम की आकांक्षी है। इसी अतिशयता में अपनी ‘दुधारू गाय’ शीर्षक कविता में वह कह उठती है –
“मैं भी पुरुष की मुक्ति कामना का
प्रतीक बन
टांक दी गयी हूँ
खजुराहो के शिल्प में
सुबह से आधी रात तक
मैं केवल एक मशीन हूँ
काश पड़ोसी की गैराज में खड़ी
सुन्दर गाड़ी होती
या अल्मारी में सजा टेडी होती”
इनके यहाँ शताब्दियों की पीड़ा आक्रोश का रूप धरकर पाठक को आंदोलित करती है और व्यापक स्त्री विमर्श करती हुई कविता के माध्यम से अपनी अभी व्यक्ति करती है। उसकी अभिव्यक्ति की यह तो महज एक शुरूआत है हो सकता है इस लड़ाई में उसके औजार अभी उतने पैने नहीं हैं लेकिन जिस तरह वह तमाम वर्जनाओं को तहस-नहस करते हुए आगे बढ़ती है वह निश्चित रूप से नयी उम्मीदें जगाता है।
      क्या जीवन में ‘रोटी’ का होना ही सबकुछ है? इस प्रश्न को कभी अर्थपूर्ण तो कभी अर्थहीन लगते हुए संवाद स्थापित करने की कोशिश के द्वन्द्ध में कविता आती है और लगता है कि ‘अभी शेष है’ ऐसी कविता लिख पाना जिसमें जीवन और मृत्यु की तमाम पहेलियों के हल मिल सकें। जीवन की कही-अनकही ‘अकथ’ कहानी के उजले और स्याह दोनों पन्नों को देखते हुए ये जो पर्दा है’ शीर्षक कविता में उसका साहस के साथ पूछना बहुत सारे प्रश्न पीछे छोड़ जाता है कि –
“तुम क्यों नहीं रखते
कल्याण कामना के लिए
असंख्य निर्जला व्रत?
क्या ये सारे ठेके औरत के हिस्से हैं?”
       
संग्रह में कुछ छोटी छोटी लेकिन सशक्त कविताएँ भी हैं। जैसे ‘एक खुला पत्र मां के नाम’ शीर्षक कविता। इनकी कविता में ‘अम्मा’ बार-बार आती है; उसकी स्मृतियाँ और संघर्ष कवयित्री को स्त्री के भावी रूप और जीवन के पन्नों की इबारत लिखने में प्रेरक बनते हैं। ‘मां और चाँद’ भी ऐसी ही एक मार्मिक कविता है। ‘समर्पित स्त्री की व्यथा’ एक पारिवारिक स्त्री की कहानी सी कविता है जिसमें 11 छोटे-छोटे भाग हैं। इसकी 10वीं कविता मुझे सबसे अच्छी और प्रभावी लगी। कुछेक शब्दों के हेर-फेर के साथ बिलकुल उसी कविता की पुनरावृत्ति भी संग्रह में देखने को मिली जिसे (देखें पृष्ठ 54 और पृष्ठ 68) अच्छा नहीं माना जाता। अन्य छोटी लेकिन उल्लेखनीय कविताओं में ‘सीमारेखा’, ’प्रेम’, ‘मौन’, ‘नए मूल्य’, ‘आशा’ और ‘हँसती हुई लड़कियां’ जैसी कविताओं को रखा जा सकता है। श्रम सौन्दर्य की कुछ बेहतरीन पंक्तियाँ दृष्टव्य है –
“खुली हुई धूप की तरह
खिलखिला कर हँसती हुई लड़कियां
अब खेतों में रोपते हुए धान
सिर पर लादे हुए बोझ
निपटा कर घर का पूरा काम
निकाल ही लेती हैं समय
हँसने के लिए
चुरा ही लेती है कुछ पल अपने लिए”
भावातिरेक में कुछेक कविताएँ असंगत कथनों का भी शिकार हो गयी हैं जैसे कि ‘पिता’ शीर्षक कविता तो कुछ कविताएँ इसके साथ साथ बेहद सपाट हो गयी हैं जैसे ‘तर्जनी की नोंक’ और ‘हाँ मैं एक प्रश्नचिन्ह हूँ’ शीर्षक कविताएँ। फिर भी अपने ईमानदार कथ्य के कारण यह कवितायेँ पाठक का ध्यान आकृष्ट करने में सफ़ल सिद्ध होती हैं।
इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए कवयित्री की प्रखर विचार दृष्टि और भाव सम्पन्नता का पर्याप्त परिचय मिल जाता है। कवयित्री के पास सधी हुई अच्छी भाषा और शिल्प है। संग्रह की अधिकांश कवितायेँ स्त्री मन की कसक को लिए हुए समाज को प्रश्नांकित करती हैं जहाँ प्रेम, ममता और मानवता का सुन्दर संसार बनाये जाने की परिकल्पना मूर्त होती दिखाई पड़ती है। कुल मिलाकर यह एक विचारणीय और उल्लेखनीय कविता संग्रह है।
  

* मन की खुलती गिरहें/ कविता संग्रह/ डॉ सोनी पाण्डेय/ 2015/ किताबनामा प्रकाशन, नयी दिल्ली/ पृष्ठ 112/ मूल्य 120/-

राहुल देव

राहुल देव
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर 261203 उ.प्र.
मो. 09454112975
ईमेल – rahuldev.bly@gmail.com

प्रदीप त्रिपाठी का आलेख ‘कल्‍पना’ की साहित्यिक जमीन


प्रदीप त्रिपाठी



जन्म-  7 जुलाई, 1992

डेली न्यूज ऐक्टिविस्टमें साप्ताहिक लेखन
शैक्षणिक योग्यता- एम.ए. हिन्दी (तुलनात्मक सा.),एम. फिल. हिन्दी (तुलनात्मक साहित्य)
लोक-साहित्य,एवं कविता-लेखन में विशेष रुचि 
विभिन्न चर्चित पत्र-पत्रिकाओं (दस्तावेज़, अंतिम जन, परिकथा, कल के लिए, वर्तमान साहित्य, अलाव, नवभारत टाइम्स, डेली न्यूज़ ऐक्टिविस्ट आदि) में शोध-आलेख एवं कविताएं प्रकाशित
  

गैर हिन्दी भाषी क्षेत्र से प्रकाशित होने वाली पत्रिका कल्पना का हिन्दी साहित्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। एक दौर में इस पत्रिका ने हिन्दी साहित्य  को अनेक महत्वपूर्ण रचनाकार प्रदान किए। कल्पना में छपना साहित्यिक जगत में मान्यता प्राप्त रचनाकार का दर्जा प्राप्त करना होता था। कहानीकार मार्कंडेय कल्पना से जुड़े अनेक किस्से सुनाया करते थे। कल्पना के सम्पादक बदरी विशाल पित्ती से उनके सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध आजीवन बने रहे। इसी का परिणाम था कि आगे चल कर पित्ती साहब ने मार्कंडेय को कथाजैसी महत्वपूर्ण पत्रिका निकालने में अपना सहयोग प्रदान किया और यह क्रम आगे भी पित्ती साहब के पुत्र ने निभाया। बहरहाल कल्पना पर एक महत्वपूर्ण शोध आलेख हमें उपलब्ध कराया है युवा कवि प्रदीप त्रिपाठी ने। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रदीप का यह आलेख कल्पना की साहित्यिक जमीन


‘कल्‍पना’ की साहित्यिक जमीन

प्रदीप त्रिपाठी
हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में जब हम पत्रिकाओं की महत्ता एवं उसके योगदान की चर्चा करते है तो महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित पत्रिका ‘सरस्‍वती’ का नाम लेना समीचीन होगा। द्विवेदी जी ने पत्रकारिता के इतिहास में एक नए युग की स्‍थापना की। उन्‍होंने सरस्वती के जरिये जिस प्रकार से हिन्दी को एक नई दिशा एवं गति प्रदान करने की कोशिश की दुर्भाग्य से उस काम को आगे की पत्रिकाएँ उस रूप में न कर सकी। ‘सरस्‍वती’ ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नया आयाम प्रदान करने के साथ-साथ हिन्दी भाषा एवं साहित्य के विकास में महती भूमिका निभायी। यदि हम सीधे स्‍वातंत्र्योत्तर युग पर अपनी दृष्टि डालें तो इस दौर में ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, नई कहानी’, ‘आलोचना’ जैसी तमाम पत्रिकाओं का उदय हुआ लेकिन ‘सरस्‍वती’ जैसा रूख अब तक की किसी भी पत्रिका में न था। इसी बीच अहिन्दी भाषी क्षेत्र हैदराबाद से कल्पना का प्रकाशन शुरू हुआ जिसका तेवर अब तक की अन्‍य पत्रिकाओं से भिन्‍न था। दूसरे शब्‍दों में कहें तो यह कुछ-कुछ ‘सरस्‍वती’ पत्रिका के कार्यों की तरफ अग्रसर दिखी।
इस पत्रिका का आरंभ 15 अगस्‍त, 1949 को हुआ, इसके प्रधान सम्पादक आर्येन्द्र शर्मा तथा सम्पादक मंडल में डा. रघुवीर सिंह, प्रो. रंजन, मधुसूदन चतुर्वेदी एवं बद्रीविशाल पित्ती थे। ‘कल्‍पना’ अपने शुरुआती दिनों में द्वैमासिक थी लेकिन तीसरे वर्ष से उसका प्रकाशन मासिक पत्रिका के रूप में होने लगा। ‘कल्‍पना’ का आरंभिक विकास साहित्य के साथ-साथ सांस्‍कृतिक और कलात्‍मक पत्रिका के रूप में हुआ है। इसके प्रवेशांक की शुरुआत हिन्दी के शीर्षस्‍थ लेखकों से हुई, यह इसकी सकारात्‍मक सोच एवं उपलब्धि थी। इस पत्रिका की यह प्रमुख विशेषता रही है कि इसने आद्यांत अपने प्रत्‍येक अंकों में साहित्य के लगभग सभी विधाओं का समायोजन करके चलने का निर्णय लिया था। यदि हम गौर करें तो इसके प्रवेशांक को देखकर यह पूर्णत: स्‍पष्‍ट हो जाता है कि इसने अपने प्रथम अंक में ही कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध, गीत, पुस्‍तक-परिचय एवं अनुदित कृतियों आदि को प्रमुखता से स्‍थान दिया है। इसके प्रथम अंक में वासुदेवशरण अग्रवाल द्वारा ‘भारतीय ललित कला की परम्पराएँ’ एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा ‘आज भी काव्‍य की आवश्‍यकता है’ आदि  महत्त्वपूर्ण निबन्ध प्रकाशित हुए जो काफी चर्चित रहे।

बद्री विशाल पित्ती


हिन्दी निबन्ध विधा के बारे में जो यह आरोप लगाया जाता था कि वह हिन्दी साहित्य की अन्‍य विधाओं की अपेक्षा काफी पिछड़ी हुई है, द्विवेदी जी एवं इस दौर के अन्‍य निबन्धकारों ने इस कमी को पूरा किया। इस दौर के निबन्धकारों के सन्दर्भ में डॉ. सदानंद प्रसाद गुप्‍त ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के उद्वरण को प्रस्‍तुत करते हुए लिखा है- ”इन निबन्धकारों ने अपने व्‍यापक अध्‍ययन की पृष्‍ठभूमि पर अपनी संवेदनात्‍मक प्रतिक्रिया को अत्‍यंत मार्ग स्‍पर्शी बनाकर अभिव्‍यक्‍त किया है। इनमें कलाकारोचित तन्‍मयता एवं लौकिक धरातल पर पाठकों के प्रति आत्‍मीयता का भाव है।”[1]

अगस्त, 1949 में प्रकाशित हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘आज भी काव्‍य की आवश्‍यकता है’ अपने दौर के चर्चित निबंधों में  से एक था। इस निबन्ध में उन्होंने काव्‍य के सन्दर्भ में लिखा है कि- ”काव्‍य ही एक मात्र ऐसी महती शक्ति है जिसके बल पर हम जगत की यावतीय सफलताओं को पा सकते हैं, ठीक नहीं है। चेतना के संपूर्ण अवयवों को उचित ढंग से विकसित करके ही मनुष्‍य जीवन चरित्रार्थ हो सकता है। उसे जिस प्रकार उत्तम अन्‍न और वस्‍त्र चाहिए, व्‍यवस्थित राजप्रणाली और सुनियोजित अर्थ-व्‍यवस्‍था चाहिए, सुपारिभाषित कानून और सुपारिचालित न्‍याय-व्‍यवस्‍था चाहिए उसी प्रकार काव्‍य भी चाहिए, संगीत भी चाहिए और विज्ञान भी चाहिए।”[2]

इस प्रकार यह कहा जा सकता है इस दौर के साहित्य में रचनाकारों के बहुआयामी व्यक्तित्त्व की झाँकी उनके निबंधों में मिलती है। उनके व्‍यक्तित्त्व की यह विराटता निबंधों को विचार एवं अनुभूति दोनों पक्षों से सशक्‍त बनाती है।

‘कल्‍पना’ के प्रधान सम्पादक आर्येन्द्र  शर्मा मूलत: वैयाकरण थे। उनकी पुस्‍तक ‘बेसिक ग्रामर ऑफ हिन्दी’ भारत सरकार ने प्रकाशित की जिसे आज भी हिन्दी का मानक व्‍याकरण माना जाता है। भाषा के प्रति उनकी गंभीरता और अच्‍छी रचनाओं को पहचानने की विवेकी दृष्टि ने ‘कल्‍पना’ को अपनी एक अलग जगह बनाने में मदद की। उसके प्रवेशांक में अन्‍य रचनाओं के अतिरिक्‍त लगभग एक दर्जन मौलिक निबंधों की प्रक्रिया अगले अंकों में भी निरंतर जारी रही। इनमें समालोचनात्‍मक, सैद्धांतिक, विवेचनात्‍मक, यात्रा-वर्णन, समस्‍यात्‍मक, दार्शनिक और सांस्‍कृतिक निबंधों की प्रमुखता रही। इस दौर के लेखकों में वासुदेव शरण अग्रवाल, चंद्र बली पांडेय, राय आनंद कृष्‍ण, भदंत आनंद कौशल्‍यायन, बाबूराम सक्‍सेना, बलदेव उपाध्‍याय, शांति प्रिय द्विवेदी, धीरेंद्र वर्मा, मन्‍मथ नाथ गुप्‍त, अगर चंद नाहटा, हजारी प्रसाद द्विवेदी और विनय मोहन शर्मा आदि प्रमुख थे।

आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल के शब्‍दों में कहें तो- ”यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही अधिक संभव होता है इसीलिए गद्य शैली के विवेचक उदाहरणों के लिए अधिकतर निबन्ध ही चुना करते हैं।”[3]

 इस प्रकार हम देखते हैं कि उस दौर में निबंधों की एक प्रवाहमान धारा चली जिसे ‘कल्‍पना’ ने काफी महत्त्व दिया। इसके पश्‍चात् प्रत्‍येक अंक में लोक-साहित्य, लोक-संस्‍कृति, लोक-गीत एवं अन्‍य भारतीय ललित कलाओं पर भी निबन्ध लिखे गए। जिनमें प्रमुख हैं- ‘हमारा लोक-साहित्य लोक-विश्‍वास’ :श्‍यामचरण दूबे (जून-1950), ‘भारतीय ललित कला की परम्पराएँ :वासुदेवशरण अग्रवाल (अगस्‍त-1949), ‘प्रगति संस्‍कृति और लोक-कला’-शांतिप्रिय द्विवेदी (अप्रैल, 1950), ‘हमारा लोक-साहित्य-लोक कथा’: श्‍यामचरण दूबे (अप्रैल-1950), आदि।

इस दौर में ‘कल्‍पना’ ने लोक-संस्‍कृति से जुड़े आलेखों को प्रमुखता दी जिनसे अन्‍य पत्र-पत्रिकाएँ बिल्कुल अछूती दिख रही थी इसलिए ‘कल्पना’ अन्‍य पत्र-पत्रिकाओं से विशिष्ट थी एवं उसका अलग ही महत्त्व था।

हिन्दी भाषा के विकास में भी ‘कल्‍पना’ की महती भूमिका रही है। वैसे इसके प्रवेशांक की संपादकीय को देखा जाय तो यह चीजें पूर्णत: स्‍पष्‍ट है। इसके उद्देश्‍यों की चर्चा करते हुए सम्पादक ने यह स्‍पष्‍ट जाहिर किया है कि ‘कल्‍पना’ का एक मात्र ध्‍येय हिन्दी के स्‍तर को ऊँचा करना ही रहेगा।”[4]एक प्रकार से  देखें तो ‘कल्‍पना’ ने न सिर्फ साहित्य के विकास में अपनी भूमिका निभायी बल्कि भाषा के विकास में भी अहम योगदान दिया है।

कल्पना का प्रवेशांक, अगस्त 1949



 

‘कल्‍पना’ के दूसरे वर्ष (फरवरी 1950) का अंक भी काफी महत्त्वपूर्ण रहा। इस अंक में निबन्ध विधा को छोड़कर अन्‍य विधाओं (जैसे-कविता, कहानी, गीत, एकांकी आदि) की प्रमुखता रही। इस पत्रिका ने इस अंक में निराला के ‘गीत’ को  महत्त्व दिया। इसके अतिरिक्‍त अन्‍य कई चर्चित कविताओं का प्रकाशन भी इसी अंक में हुआ जिनमें भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘निष्‍ठाओं के छोर न छोड़ो’, ‘विराट संगीत’ -जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री, ‘स्‍वप्‍न-भय’- लक्ष्‍मी नारायण मिश्र, ‘वन में’- सरोजिनी नायडू आदि प्रमुख थी। मौरिस बेरिंग की एकांकी ‘घोड़ा काला था’ एवं अलेग्‍जेंडर पुश्किन की कहानी ‘पोस्‍टमास्‍टर’ को भी ‘कल्पना’ ने इसी अंक में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । शांतिप्रिय द्विवेदी का ‘हिन्दी कविता का विकास क्रम’ काफी चर्चित लेख रहा। इसमें उन्‍होंने द्विवेदी युगीन प्रतिनिधि कवियों एवं कविताओं की बड़े विस्‍तार से चर्चा की है। इस पत्रिका का दिसंबर,1950 का अंक भी काफी प्रतिष्ठित हुआ। इस अंक में ‘शुभ-पुरुष’ (कविता)- सुमित्रानंदन पंत, संस्‍कृति का अर्थ- श्‍यामचरण दूबे, ‘कहाँ के रुपए कैसे रुपए (कहानी)-वृंदावनलाल वर्मा, ‘कविता और रहस्‍यवाद’- प्रभाकर माचवे, ‘बच्‍चन की कविता’- नगेंद्र, ‘अभिसार’ (कविता)-टैगोर, ‘नवागात’ (कहानी)-मैक्सिम गोर्की आदि रचनाएँ प्रमुख थी।
‘कल्‍पना’ की यह प्रमुख विशेषता रही है कि इसने अपने प्रत्‍येक अंक में न सिर्फ हिन्दी साहित्य बल्कि अन्‍य भाषाओं की रचनाओं को हिन्दी अनुवाद के रूप में सामने लाने का पूर्ण प्रयास किया है। जैसे-रिचार्ड लैकरिज की कहानी ‘अच्‍छा आदमी’ (अप्रैल, 1950), दो जर्मन लोकगीतआर्येन्द्र शर्मा (अगस्‍त, 1949), ‘अनजन में शिशु की प्रार्थना’ (कविता)-लुई मैकनीस (नवंबर, 1952) आदि।
सन् 1952 से ‘कल्‍पना’ मासिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित होने लगी परंतु इसके  नीति एवं उद्देश्‍यों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। संपादकीय की स्थितियों में कुछ बदलाव जरूर आए, उसमें गंभीरता तथा रचनात्‍मकता आयी। नई कविता एवं ललित निबंधों की प्रतिष्‍ठा हुई। पूरे वर्ष प्रत्‍येक अंक में 5 स्‍तंभ, 6 निबन्ध, 4 कहानी, 1 एकांकी, 4 कविताओं एवं 2 समालोचनाओं का औसत निरंतर बना रहा। जनवरी, 1952 में ‘कल्‍पना’ ने प्रमुख रचनाकारों एवं उनकी रचनाओं को प्रमुखता दी जिसमें ‘रजत-शिखर’ (कविता)- सुमित्रा नंदन पंत, ‘कोष-निर्माण’- नंददुलारे वाजपेयी, प्रयोगवादी कविता’- विनय मोहन शर्मा, ‘नस्रती’ (दखिनी कवि) राहुल सांस्‍कृत्‍यायन, ‘संबल’ (कहानी)- विष्‍णु प्रभाकर आदि  महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्रमुख थी। कलात्‍मक अभिव्‍यक्तियों को भी ‘कल्‍पना’ ने प्रारंभ से ही काफी महत्त्व दिया है। यही कारण है कि उसका रूप साहित्य के साथ-साथ कला-पत्रिका के रूप में भी सामने आया। इसमें प्रारंभ के दो वर्षों में सारदा उकील, असित कुमार हालदार, सुधीर खास्‍तगीर, अमृता शेरगिल, नंदलाल वसु, फिदा हुसैन जैसे शीर्षस्‍थ कलाकारों के बहुतायत चित्र प्रकाश में आए। बाद के वर्षों में विजयवर्गीय, विनोद बिहारी मुखर्जी और दिनकर कौशिक जैसे उत्‍कृष्‍ट चित्रकारों के भी चित्र प्रकाशित हुए। ‘कल्‍पना’ की यह प्रमुख विशेषता रही है कि इसने कई  दुर्लभ चित्रों को भी सामने लाने का प्रयास किया। इसी दौरान इसमें कला-स्तंभ नाम से एक महत्त्वपूर्ण स्‍तंभ (कॉलम) को काफी प्रतिष्‍ठा मिली। सितंबर, 1959 में ‘कल्‍पना’ में कई प्राचीन चित्र जैसे-मूर्ति कला, शुंग गुप्‍त काल के चित्र, मौर्य कुषाणकालीन चित्र, राजधानी शैलियों के चित्रों की भरमार रही। विवेकी राय के शब्‍दों में कहें तो- ”निस्‍संदेह मकबूल फिदा हुसैन, जगदीश गुप्‍त, कृष्‍णप्रिया, शमशाद हुसैन और लक्ष्‍मण गौड़ के आधुनिक संवेदनाओं से वेष्ठित सजीव रेखांकन जो ‘कल्‍पना’ की शोभा बढ़ाते हैं और इस पत्रिका के पुराने अंकों की सज्‍जा-कला के नए एवं सूक्ष्‍म उत्‍कर्ष के विकासात्‍मक इतिहास की ओर इंगित करते हैं, वह अभूतपूर्व है।[5]
‘कल्‍पना’ में ‘पुस्‍तक-परिचय’ नामक स्‍तंभ को भी काफी प्रतिष्‍ठा मिली है। इस कॉलम की यह विशेषता रही है कि इसमें भिन्‍न-भिन्‍न रचनाकारों की नई पुस्‍तकें लेखकों/समीक्षकों द्वारा प्रकाश में आती रही। यह स्‍तंभ इस पत्रिका में आद्यांत किसी न किसी रूप में बना रहा, यही इसकी सफलता रही। ‘कल्‍पना’ में तीसरे वर्ष फरवरी,1952 में भगवतशरण उपाध्‍याय का लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था- ‘नाटककार क्‍या लिखे?‘। इसमें उन्‍होंने नाटक के विविध सोपानों जैसे अब तक किस तरह के नाटक लिखे गए या लिखे जा रहे हैं? वे कितने प्रासंगिक हैं? आदि पर विस्‍तार से चर्चा की है। उन्‍होंने अपने लेख में  एक जगह लिखा है- ”समाज की‍ स्थिति का निरूपण करने में जितना समर्थ नाटक हो सकता है, उतना अन्‍य कोई साहित्य नहीं। इसलिए नाटककार को चहिए कि वह सचेत होकर जन-जन की कल्‍याणकर प्रवृत्तियों का चरित्र रंगमंच पर प्रकाशित करे और मनोरंजन के साथ ही प्रगति की मंजिलें तय करने में सहायक हो।”[6]

कल्पना का सम्पादकीय पृष्ठ 1, अगस्त, 1949

हिन्दी एकांकी-नाटक के विकास के इतिहास का अध्‍ययन करने के लिए ‘कल्‍पना एक उपयुक्‍त माध्‍यम है। सन् 1950 के लगभग हिन्दी एकांकियों को पूर्ण विकसित कर विदेशी एकांकियों के समकक्ष खड़ा करने में ‘कल्‍पना’ का ठोस एवं अहम हस्तक्षेप रहा है। विवेकी राय का फरवरी, 1977 में कल्‍पना: एक सर्वेक्षण शीर्षक से एक आलेख सामने आया जिसमें उन्‍होंने इसका जिक्र करते हुए लिखा है- ”सन् 1950 के लगभग हिन्दी एकांकी को पूर्ण विकसित विदेशी भाषा के एकांकियों के समकक्ष लाने की कोई ठोस ‘कल्‍पना’ सम्पादक मंडल के सामने थी और शायद इसी के आग्रह पर प्रवेशांक में ले.पी. याल्‍तेसेफ की एक श्रेष्‍ठ रूसी एकांकी और दूसरे अंक में मौरिस बैरिंग की अंग्रेजी एकांकी को प्रकाशित किया। पत्रिका के तीसरे अंक (अप्रैल, 1950) में वृंदावन लाल वर्मा की एकांकी ‘कनेर’ और फिर 5वें अंक में विष्‍णु प्रभाकर की एकांकी ‘रेडियो’ एवं ‘नारी’ प्रकाशित हुई। ये दोनों एकांकी नि:संदेह बहुत श्रेष्‍ठ और कलात्‍मक निखार युक्‍त हैं।”[7]

विधा को मुक्‍त मंच दिया है। मार्च, 1952 में भी कविता, कहानी एवं कुछ अन्‍य विधाओं के साथ यह श्रृंखला आगे बढ़ती गई। अप्रैल, 1952 में प्रभाकर माचवे की एकांकी ‘रामभरोसे’ और महादेवी वर्मा एवं शिवमंलसिंह ‘सुमन’ के गीत प्रकाश में आए। लक्ष्‍मीनारायण मिश्र, उपेंद्रनाथ अश्‍क और विष्‍णु प्रभाकर इस वर्ष के प्रमुख एकांकीकार रहे। इसके साथ ही रंगमंच संबंधी समसामायिक दृष्टि और अपेक्षाओं को स्‍पष्‍ट करने के लिए निबन्ध भी प्रकाशित हुए। ‘हिन्दी नाट्य साहित्य में प्रहसन’ (रामचरण सिंह), ‘वर्तमान रंगमंच प्रवृत्तियाँ और संगठन’ (जगदीशचंद्र माथुर) इस वर्ष के इस विषय से संबंधित श्रेष्‍ठ निबन्ध हैं। दिसंबर, 1952 में मार्कण्डेय की कहानी ‘गुलरा के बाबा’ सर्वप्रथम ‘कल्‍पना’ में प्रकाशित हुई। इस दौर में कहानी के क्षेत्र में काफी बदलाव आया जिसे ‘कल्‍पना’ ने प्रमुखता दी है। ‘कल्‍पना’ का नवंबर, 1952 का अंक भी काफी महत्त्वपूर्ण रहा। इस अंक की प्रमुख रचनाओं में विष्‍णु प्रभाकर की एकांकी ‘अर्द्धनारीश्‍वर’ नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’, ‘बच्‍चन के गीत’ एवं कुछ अन्य आलेख जिसमें विनयमोहन शर्मा का ‘हिन्दी समालोचना का विकास’, शिवप्रसाद सिंह का ‘पिछले दशक की हिन्दी कविता’, प्रमुख थे।


कल्पना का सम्पादकीय पृष्ठ 2, अगस्त, 1949


मई, 1953 तक आते-आते ‘कल्‍पना’ के स्‍ट्रक्‍चर में कुछ बदलाव जरूर आए। इस वर्ष सम्पादक मंडल में दो नए नाम शामिल हुए जिसमें भवानी प्रसाद मिश्र, मुनींद्र एवं कला-सम्पादक के रूप में जगदीश मित्तल प्रमुख थे। इस अंक से ‘कल्‍पना’ को निबन्ध, कहानी, कविता एवं स्‍तंभ चार भागों में बाँट दिया गया। इस दौर के कहानीकारों में राम कुमार वर्मा, गुरुवचन सिंह, श्रीकृष्‍ण विलियम फाकनर, कुमारी कल्‍पना, मनोहर श्‍याम जोशी, भीष्‍म साहनी आदि प्रमुख लेखकों की कहानियों को ‘कल्‍पना’ ने प्रकाशित किया। इसके अलावा रघुवीर सहाय, केदार नाथ सिंह, निराला, विजयदेव नारायण साही, प्रभाकर माचवे, भवानी प्रसाद मिश्र, वीरेंद्र मिश्र, कीर्ति चौधरी, दुष्‍यंत कुमार, नरेश मेहता आदि कवियों की कविताओं को भी ‘कल्‍पना’ ने तरजीह दी। इसके अतिरिक्‍त इस दौर के निबन्धकारों में मुख्‍य रूप से डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, भगीरथ मिश्र, चन्‍द्रबली, कन्‍हैयालाल सहल, गिरिजादत्त शुक्‍ल, रामशंकर भट्टाचार्य, अज्ञेय, शिवदान सिंह चौहान, डॉ. मंगलदेव शास्‍त्री आदि प्रमुख रहे। इस वर्ष स्‍तंभों को भी काफी प्रतिष्‍ठा मिली जिसमें प्रमुख है-साहित्यधारा, कला-प्रसंग, सांस्‍कृतिक टिप्‍पणियाँ, समालोचना आदि। पाँचवें वर्ष में (1954) ‘कल्‍पना’ का रूप-रंग एक बार फिर बदला। निबंधों की केंद्रीय साहित्‍येत्तर गंभीरता कम हुई साथ ही कहानियों की संख्‍या में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई। पाँचवें वर्ष में मंगलदेव शास्‍त्री के भारतीय संस्‍कृति पर 5 निबन्ध और रमाशंकर भट्टाचार्य के चार निबन्ध संस्‍कृत भाषा और व्‍याकरण से संबंधित प्रमुखता से आए। जनवरी, 1955 में दुष्‍यंत कुमार का निबन्ध ‘नई कविता परम्परा और प्रयोग’ काफी चर्चित रहा। इसमें उन्‍होंने ‘नासिकेतोपाख्‍यान’ एवं रानी केतकी की कहानी’ से गुजरते हुए प्रेमचंद एवं प्रसाद के बाद की पीढ़ियों पर बड़े विस्‍तार से चर्चा की है। यदि हम गौर करें तो कुमार कृष्‍ण ने अपनी पुस्तक ‘कहानी के नए प्रतिमान’ में इसी सन्दर्भ को उद्धृत करते हुए लिखा है- ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य में ‘नई कविता’ के बाद कहानी ही ऐसी विधा है जिसने युगीन चेतना को उसकी समग्र जटिलताओं के साथ चित्रित करने की चेष्‍टा की है।… नए संदर्भों की खोज ने ही पचास के आस-पास सामने आने वाली कहानी को ‘नई कहानी’ की संज्ञा देने पर विवश किया है। ‘नई कहानी ‘ से संबद्ध वाद-विवाद सबसे पहले पत्र-पत्रिकाओं के माध्‍यम से ही सामने आया, जिनमें ‘कहानी’, ‘लहर’, ‘विनोद’, ‘कल्‍पना’ के नाम विशेष रूप से लिए जा सकते हैं।”[8]

सन् 1955-56 में ‘कल्‍पना’ में कुछ स्थिरता दिखायी दी। इस दौरान ‘कल्‍पना’ का ध्‍यान नए रचनात्‍मक मौलिक साहित्य पर केंद्रित रहा। पूरे वर्ष में लगभग 100 लेखकों की 125 रचनाएँ प्रकाशित हुई। वास्‍तव में इस समय लंबी रचनाओं की एक श्रृंखला ही चली। कमलेश्‍वर, निर्मल वर्मा, मन्‍नू भंडारी, मोहन राकेश, रमेश वक्षी, राजेन्द्र यादव, रामदरश मिश्र, हृदयेश जैसे कथाकारों की एक-एक कहानियाँ प्रकाशित हुई। इस वर्ष से ‘कल्‍पना’ में नए कवियों के रूप में मधुकर गंगाधर, मलयज, श्रीकांत वर्मा, भारतभूषण अग्रवाल, कुँवर नारायण, दुष्‍यंत कुमार, अज्ञेय, रघुवीर सहाय एवं कीर्ति चौधरी आदि प्रमुखता से आए। अप्रैल, 1955 में अज्ञेय की कविता ‘टेसू’ एवं दिनकर की ‘समर शेष है’ काफी चर्चित रही। जुलाई,1955 में हंसराज रहवर द्वारा रचित ‘प्रगतिवाद बनाम यथार्थवाद’ निबन्ध काफी  महत्त्वपूर्ण रहा। ‘अंधा युग’ धर्मवीर भारती द्वारा रचित गीति-नाट्य भी ‘कल्‍पना’ में इसी वर्ष प्रकाशित हुआ।

कल्पना का सम्पादकीय पृष्ठ-3, अगस्त, 1949

‘कल्‍पना’ के 56 वें अंक में बालकृष्‍ण राव का निबन्ध ‘नई कविता’ का प्रकाशन कई किस्‍तों में होता रहा। इस वर्ष सम्पादक मंडल में रघुवीर सहाय भी शामिल हुए जिन्‍होंने कविता विधा के उत्तरोत्तर विकास में काफी योगदान दिया।

 

सन् 1957 में ‘यह बेचारी हिन्दी’ शीर्षक से एक स्‍तंभ शुरू हुआ जिसकी उस समय जरूरत भी थी। नामवर सिंह ने अपने साक्षात्‍कार में ‘‘कल्पनाके संबंध में  कहा है कि -”भाषा के विकास में ‘सरस्‍वती’ पत्रिका द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो भूमिका निभायी उसे आर्येन्द्र  शर्मा ने पूरा किया जिसकी तरफ अन्‍य पत्रिकाओं का ध्‍यान नहीं जा रहा था। साहित्यिकता के स्‍तर पर यदि देखा जाय तो उस दौर में ‘कल्‍पना’ से बेहतर अन्‍य कोई पत्रिका नहीं थी।”[9]

मार्च, 1959 में शिव प्रसाद सिंह की कहानी ‘नन्‍हों’ काफी चर्चित रही तथा इसी अंक में राजेन्द्र यादव ने रेणु के उपन्‍यास परती-परिकथा पर ‘परती-परिकथा की ताजमनी’ शीर्षक से उसके महत्त्व को प्रतिस्‍थापित करने का पूरा प्रयास किया जिसे ‘कल्‍पना’ ने  महत्त्वपूर्ण स्‍थान दिया है। जून, 1959 में हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित उपन्‍यास ‘चारु चंद्रलेख’ का (क्रमश: अंशत:) प्रकाशन सर्वप्रथम ‘कल्‍पना’ में  ही हुआ । इस उपन्‍यास के सन्दर्भ में विवेकी राय ने लिखा है- चारु चंद्रलेख मध्‍यकालीन राजनीतिक, सांस्‍कृतिक, साहित्यिक और धर्म साधना की पृष्‍ठभूमि पर सृष्‍ट एक अत्‍यंत ही गंभीर किंतु मनोरंजक और गत्‍यात्‍मक उपन्‍यास है। कुल मिलाकर इसे सांस्‍कृतिक उपन्‍यास की कोटि में उच्‍च स्‍थान पर रखा जा सकता है।[10]

‘कल्‍पना’ के मई, 1959 के अंक को देखें तो यह भी कई स्‍तरों से काफी प्रतिष्ठित हुआ। इसमें मुख्‍य रूप से भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘तुम और मैं’ बच्‍चन की कविता ‘मिट्टी से हाथ लगाए रह’ एवं भागीरथ मिश्र का एक आलेख ‘कामायनी की प्रतीकात्‍मकता’ काफी  महत्त्वपूर्ण रहे। इस दौर के प्रमुख रचनाकारों में श्रीकांत वर्मा, मंगलदेव शास्‍त्री, विद्यासागर नौटियाल, मोहन राकेश (यात्रा-रोमांस, फरवरी1957), बच्‍चन, सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना, देवी शंकर अवस्‍थी, नेमि चंद्र जैन, निर्मल वर्मा, पुरुषोत्तम खरे, दुष्‍यंत कुमार, शिव प्रसाद सिंह, रघुवीर सहाय, बालस्‍वरूप राही, अशोक वाजपेयी, प्रभाकर माचवे, मन्‍नू भंडारी, भारत भूषण अग्रवाल, शांति प्रिय द्विवेदी, धर्मवीर भारती, रमेश कुंतल मेघ, शिवदान सिंह चौहान आदि प्रमुख थे।

 

सन् 1958 में ‘कल्‍पना’ ने जब विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका का रूप धारण कर लिया तो उसके निबंधों की चयन प्रक्रिया में भी काफी बदलाव आया। ‘कल्‍पना’ ने जितनी भी विधाओं को महत्त्व दिया है वह अपने समय में गंभीर एवं चर्चित रही। उसमें समालोचना का भी प्रमुख स्‍थान है। साहित्य समीक्षा से जुड़े  गंभीर, स्‍थाई एवं मौलिक समालोचना को ‘कल्‍पना’ ने प्रमुख स्‍थान दिया है। नवंबर,1952 में विनय मोहन शर्मा का लेख ‘हिन्दी में समालोचना का विकास’ इस दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है।
अगस्‍त, 1959 में पत्रिका का 100 वाँ अंक पूरा हुआ तो इस अंक को एक विशेषांक के रूप में ‘कल्‍पना के 100 अंक’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया। इस विशेषांक में दसवें वर्ष तक यानी 1 से 100 अंक तक में छपने वाली सामग्री की एक लंबी सूची प्रकाशित हुई। ‘कल्‍पना’ के सौ अंक’ विशेषांक का ब्‍यौरा देते हुए विवेकी राय ने लिखा है- ”कल्‍पना के सौ अंक’ विशेषांक में प्रकाशित सूची के अनुसार इस अवधि में आकाशवाणी स्‍तंभ में 12 रचनाएँ,  कमलाकांत जी ने कहा’ स्‍तंभ में 16, ‘कलाप्रसंग’ में 12, मूर्तिकला के अन्तर्गत 41 चित्र, प्राचीन कला के 12, राजस्‍थानी कला के 19, मुगल कला के 7, पहाड़ी कला के 6, समसामयिक 61 चित्रकारों के 158 चित्र, 76 विषयों पर टिप्‍पणियाँ, ‘निबन्ध चिंतन’ स्‍तंभ में चार रचनाएँ, 956 पुस्‍तकों की समीक्षा, विदेशी साहित्य का सर्वेक्षण 17 संपादकीय, 59 विषयों पर पाठकीय पत्र और ‘साहित्यधारा’ में सैकड़ों-सैकड़ों संज्ञाएँ जुड़ी, कुल 531 लेखकों की 1525 रचनाएँ ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई।”[11]
इस प्रकार हम कह सकते हैं अब तक के ‘कल्‍पना’ के 100 अंकीय यात्रा को रेखांकित करने में यह विशेषांक काफी महत्त्वपूर्ण रहा है। 1960 में कल्पना में कुछ नए रचनाकार भी सामने आए जिनमें प्रमुख हैं- राज कमल चौधरी, दूध नाथ सिंह, मुक्तिबोध, मुद्राराक्षस आदि। नवंबर, 1963 में पहली बार नेमिचंद्र जैन ने ‘कल्‍पना’ में नवलेखन की विस्‍तृत व्‍याख्‍या एक निबन्ध के रूप में की। इसी वर्ष ‘उर्वशी’ की समीक्षा पर लगातार कई अंकों में एक लंबी बहस चली। इनमें प्रमुख रूप से रामस्‍वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्‍मी कांत वर्मा, शिवप्रसाद सिंह, सुमित्रा नंदन पंत, ओम प्रकाश, दीपक, मैथिली शरण गुप्‍त, राम विलास शर्मा, विद्या निवास मिश्र जैसे प्रतिष्ठित रचनाकारों ने ‘उर्वशी’ के संबंध में अपने विचार प्रस्‍तुत किए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ‘कल्‍पना’ ने समीक्षा के क्षेत्र में हमेशा संवादों एवं बहसों के न्‍यायिक परिप्रेक्ष्‍य को प्रस्‍तुत करने में अहम भूमिका अदा की है।

मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘आशंका के द्वीप अंधेर में’ सर्वप्रथम ‘कल्‍पना’ (नवंबर, 1964) में प्रकाशित हुई। यह अंक अन्‍य कई दृष्टियों से भी महत्त्वपूर्ण रहा। केदारनाथ अग्रवाल का एक आलेख ‘आधुनिकता, नई कविता: समस्‍या और समाधान’ इसी अंक में प्रकाशित हुआ। उन्‍होंने इस आलेख में नई कविता के सन्दर्भ में लिखा है- ”आज कोई भले ही कह ले ‘नई कविता’ एक उपलब्धि है, एक सिद्धि है, एक ईकाई है किंतु वस्‍तु-स्थिति इसके विपरीत है। वह न उपलब्धि है, न सिद्धि है और न जीवंत ईकाई। वह खंडित मानव मन की मनोदशा की खंडित अभिव्‍यक्ति मात्र है।”[12]

दिसंबर, 1964 में कीर्ति चौधरी की कविता ‘वे कैसे दिन थे, विनोद कुमार शुक्‍ल की कविता टुकड़ा आदमी एवं अन्य रचनाकारों की रचनाएँ प्रमुख रूप से प्रकाशित हुई। 15 वें वर्ष में (1964) औसतन 10 स्‍तंभ, 10-12 रचनाएँ जिसमें मुख्‍य रूप से 4 कहानियाँ, 4 कविता एक निबन्ध और एक समीक्षा का प्रकाशन होता रहा। यदि गौर करें तो 10 वर्ष पहले ‘कल्‍पना’ का जो रूप था, यहाँ तक आते-आते उसमें काफी हल्‍कापन दिखने लगा। निबंधों का ह्रास और कविता-कहानी का नवोन्‍मेष होने लगा। यहाँ तक कि इसके स्तंभों में भी अपेक्षाकृत काफी गिरावट आयी। इस दौर के सम्पादक मंडल में एक-दो और नए नाम जुड़े। इस समय कुल मिला कर कल्पना के सम्पादक मंडल में छ: सदस्‍य थे जिनमें मधुसूदन चतुर्वेदी, बद्री विशाल पित्ती, मुनींद्र, जगदीश मित्तल, गौतम राव, ओम प्रकाश निर्मल प्रमुख थे। चौदहवें वर्ष के अन्त में प्रधान सम्पादक डॉ. आर्येन्द्र शर्मा के पदत्‍याग के बाद नया नाम प्रयाग शुक्‍ल का जुड़ा। कुछ दिनों तक भवानी प्रसाद मिश्र एवं वृंदावन बिहारी मिश्र ने भी इस पत्रिका के संपादन में अपनी महती भूमिका निभायी।

1968 तक आते-आते पाठकों की ‘कल्‍पना’ के गिरते स्‍तर संबंधी कई प्रतिक्रियाएँ आयी। जुलाई, 1967 में ‘निराला का आधुनिक बोध’ शीर्षक से बच्‍चन सिंह का लेख काफी महत्त्वपूर्ण रहा। इस अंक के सम्पादक मंडल में एक नया नाम मणि मधुकर का भी जुड़ा। ‘कथा-साहित्य की भाषा’ शीर्षक से सितंबर, 1967 राजेंद्र यादव का लेख चर्चा में रहा। उन्‍होंने कथा साहित्य की भाषा के सन्दर्भ में लिखा है- ”अनुभूति और अभिव्‍यक्ति के बीच भाषा निश्‍चय ही एक तीसरी जीवित और स्‍वतंत्र सत्ता है। वह हमें औरों से मिली है और हमें औरों से जोड़ती है।”[13]

नवंबर, 1967 के अंक को अगर देखें तो ‘कल्‍पना’ यहाँ तक आते-आते बिल्‍कुल क्षीण लगी थी। कुल मिला कर इस अंक में 2-3 कविताएँ और 2 से 3 आलेख प्रकाशित हुए। जनवरी-फरवरी, 1967 में लक्ष्‍मी कांत वर्मा के लेख ‘हिन्दी साहित्य के पिछले बीस वर्ष’ का प्रकाशन क्रमश: कई अंकों में हुआ। उन्‍होंने अपने इस सर्वेक्षण में यह बताने की पूरी कोशिश की है कि हिन्दी साहित्य ने अपने पिछले 20 वर्षों में कितनी प्रगति की है। रघुवीर सहाय की कविता ‘आत्‍महत्‍या के विरूद्ध’ सबसे पहले ‘कल्‍पना’ (मई, 1967) में ही प्रकाशित हुई। इस दृष्टि से यह अंक काफी चर्चित और महत्त्वपूर्ण रहा। जनवरी, 1968 में लक्ष्‍मीकांत वर्मा ने साठोत्तरी पीढ़ी और विसंगतियों के सन्दर्भ में काफी विस्‍तार से चर्चा की है। फरवरी, 1968 में एक साथ कई रचनाकारों द्वारा ‘समकालीन कविता: एक परिचर्चा’ शीर्षक से एक सार्थक बहस सामने आयी। इसमें मुख्य रूप से इंद्रनाथ मदान, गंगा प्रसाद विमल, गजेंद्र तिवारी, परमानंद श्रीवास्‍तव, श्रीराम वर्मा, राजीव सक्‍सेना आदि रचनाकार शामिल हुए । जून, 1968 में विपिन कुमार अग्रवाल ने ‘युवा लेखन को समझने की एक दकियानूसी कोशिश शीर्षक से आलेख लिखा जिसको ‘कल्‍पना’ ने प्रमुख स्‍थान दिया है। गौरतलब है कि ‘कल्‍पना’ ने अपने प्रवेशांक में ही इस तरफ संकेत किया है कि वह रचना को रचनाकार के प्रसिद्धि के आधार पर महत्त्व न दे कर सिर्फ रचना को महत्त्व देगी, इसका ‘कल्‍पना’ ने आद्यांत निर्वहन किया है। अगस्‍त,1968 में भी ‘कल्‍पना’ में कई महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्रकाशित हुई जिनमें प्रमुख हैं- मुक्तिबोध की कविता ‘भूत का उपचार’, शमशेर बहादुर सिंह की चार कविताएँ, विद्यानिवास मिश्र की ‘परम्परा: आधुनिक भारतीय सन्दर्भ’ आदि। इसी क्रम में सितंबर, 1968 में राम स्‍वरूप चतुर्वेदी का लेख समकालीन उपन्‍यास: भाषिक प्रयोग के नए स्‍तर’, काफी चर्चित रहा। अक्‍टूबर,1968 में कुछ महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाएँ प्रकाश में आयी जिनमें प्रमुख हैं- लक्ष्‍मीकांत वर्मा, नागार्जुन, अशोक वाजपेयी, परमानंद श्रीवास्‍तव आदि। ‘रचना और आलोचना का समकालीन सन्दर्भ’ जगदीश नारायण श्रीवास्‍तव का यह लेख अक्‍टूबर-दिसंबर, 1969 में प्रकाशित हुआ जिसमें उन्‍होंने रचना और आलोचना के बीच अन्तर्संबंधों पर बड़े विस्‍तार से चर्चा की है। अगस्‍त-सितंबर, 1969 में शिवकुमार मिश्र का लेख ‘नवलेखन के सामाजिक यथार्थ: सन्दर्भ कविता कासन्दर्भ कथा साहित्य का’, प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने नवलेखन और सामाजिक संदर्भों की बड़े विस्‍तार से व्‍याख्‍या की है। अगस्‍त-सितंबर, 1969 में लगभग 200 पृष्‍ठों में यह नवलेखन विशेषांक के रूप में भी सामने आया। इस अंक के अतिथि सम्पादक शिवप्रसाद सिंह ने नवलेखन की स्थितियों, समस्‍याओं एवं उसके स्‍वरूप का विश्‍लेषण संपादकीय में किया है। इस वर्ष सम्पादक मंडल में दो-तीन नए नाम सामने आए जिनमें प्रमुख हैं- कांता, आलम खुंदमीरी एवं सईद मोहम्‍मद।

अक्‍टूबर, 1970 में अलग-अलग वैतरिणी-कितना माटी कितना पानी (शशि भूषण शीतांशु) एवं जुलाई, 1972 में ‘प्रसाद की कविता: जागरण के सन्दर्भ में’ (युगेश्‍वर) महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाश में आए। कुल मिलाकर देखें तो 1970 के बाद से ‘कल्‍पना’ का स्‍वरूप पहले की अपेक्षाकृत कमजोर होने लगा एवं 1975 तक आते-आते वह पूरी तरह निष्क्रिय हो गई।

हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में ‘कल्‍पना’ एक ऐसी ऐतिहासिक पत्रिका है जिसने साहित्य के लगभग सभी विधाओं (कविता, निबन्ध, आलोचना, कहानी आदि) के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इतना ही नहीं बल्कि इसने समय-समय पर कई साहित्यिक हस्‍तक्षेप भी किए। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्‍वातंत्र्योत्तर युगीन पत्रिकाओं में ‘कल्‍पना’ अन्‍य पत्रिकाओं से कई मायने में भिन्‍न है या हम यह कहें कि जिस तरह की साहित्यिकता ‘कल्‍पना’ में आद्यांत बनी रही वह हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में अविस्‍मरणीय है।

संदर्भ –


[1] हिंदी साहित्‍य विविध परिदृश्‍य: सदानंद प्रसाद गुप्‍त, पृ.- 56
[2] कल्पना (पत्रिका) अगस्‍त, 1949 पृ.-15
[3] हिंदी साहित्‍य का इतिहास: आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल, पृ.- 346
[4] कल्पना (पत्रिका) अगस्‍त, 1949, संपादकीय से
[5] कल्‍पना और हिंदी साहित्‍य: विवेक राय, पृ.- 27
[6] कल्‍पना (पत्रिका), फरवरी 1952, पृ.-110
[7] कल्पना (पत्रिका),फरवरी, 1977, पृ.-197
[8] कहानी के नए प्रतिमान: कृष्‍ण कुमार पृ.-24
[9] साक्षात्‍कार: नामवर सिंह, परिशिष्ट से उद्धृत 
[10] कल्पना (पत्रिका), फरवरी,1977, पृ. 37
[11] कल्‍पना और हिंदी साहित्‍य: विवेकी राय, पृ.13
[12] कल्पना (पत्रिका), नवंबर,1964, पृ.-43 
[13] कल्पना (पत्रिका), सितंबर,1967, पृ.-67
संपर्क-     
हिंदी एवं तुलनात्मक  साहित्य विभाग,  
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
स्थायी पता – 
महेशपुर, आजमगढ़
उ.प्र., 276137 
संपर्क-सूत्र-  08928110451

Email- tripathiexpress@gmail.com

 

              (कल्पना का आवरण चित्र और कल्पना के सम्पादकीय पृष्ठ ‘हिन्दी समय डॉट काम’ से साभार.)  

रणविजय सिंह सत्यकेतु की कहानी ‘सुबह के गीत’


14 नवंबर को शहर में साहित्यिक हलचल रही। अवसर था मीरा स्मृति सम्मान और पुरस्कार समारोह का। खुशी की बात है कि इस बार मीरा स्मृति पुरस्कार शहर के ही कथाकार रणविजय सिंह सत्यकेतु को उनकी पांडुलिपि मंडी का महाजालके लिए दिया गया। मीरा स्मृति सम्मान जिन पांच मनीषियों को दिया गया उनमें प्रो. सैयद अकील रिजवी भी इलाहाबाद के हैं। इनके अलावा मृदुला गर्ग, सुधा अरोड़ा, प्रो. यदुनाथ प्रसाद दुबे को सम्मानित किया गया। पांचवें मनीषी अग्निशेखर किसी कारणवश समारोह में शामिल नहीं हो सके।

मीरा फाउंडेशन और साहित्य भंडार के संयुक्त तत्वावधान में एन.सी.जेड.सी.सी. सभागार में आयोजित समारोह के पहले सत्र में मुख्य अतिथि सुधा अरोड़ा, अध्यक्ष प्रो. राजेन्द्र कुमार और सतीश चन्द्र अग्रवाल ने सत्यकेतु को मीरा स्मृति पुरस्कारप्रदान किया। इसके तहत उन्हें स्मृति चिह्न, शॉल, श्रीफल और 25 हजार रुपये का चेक प्रदान किया गया। युवा आलोचक आशीष त्रिपाठी और ने सत्यकेतु के कथा लेखन, वैचारिकी और सामाजिक सरोकार का विश्लेषण किया। दामोदर दीक्षित ने संग्रह की कहानियों की व्याख्या की। इस मौके पर शहर और बाहर के तमाम लेखक, संस्कृतिकर्मी मौजूद रहे।

उल्लेखनीय है कि इस बार मीरा स्मृति पुरस्कार के निर्णायकों में दूधनाथ सिंह, चित्रा मुदगल, राजेश जोशी, डॉ. विजय अग्रवाल और अशोक त्रिपाठी शामिल थे। यह पुरस्कार एक वर्ष कहानी और दूसरे वर्ष कविता के लिए दिया जाता है। 
पुरस्कृत संग्रह में शामिल कहानी ‘सुबह के गीत’ 2005 में ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। यह दो सहेलियों की कहानी बेहद खूबसूरत कहानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले ग्यारह सालों में स्त्रियों की वैचारिकता ज्यादा प्रखर हुई है लेकिन यह भी सच है कि उनकी पारिवारिक और सामाजिक हालत और खराब हुई है। बेहद शालीनता से अपनी बात कहती कहानी ‘सुबह के गीत’ आलोचकों और विमर्शकारों की नजरों से प्रायः ओझल ही रही। लेकिन अपनी अस्मिता के लिए लड़ रही स्त्रियों को यह सुकून और साहस जरूर देगी। कथाकार रणविजय सिंह सत्यकेतु को मीरा सम्मान की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह कहानी। 
सुबह के गीत

रणविजय सिंह सत्यकेतु
वेटिंग रूम में रोमी के बताए टेबल पर कुली ने सामान रख दिया। सामान के ऊपर पर्स फेंककर रोमी धम्म से कुर्सी पर बैठ गई। एक कठिन यात्रा पूरी कर लेने के बाद की तसल्ली महसूस की। 
केशू उसकी गोद में बैठना चाहा तो उसने मना किया, ‘अभी रुको बेटा, थोड़ा सुस्ता लेने दो।’ 
बैठने के लिए सामने वाली कुर्सी को रूमाल से पोछ रहे रॉकी ने केशू को अपने पास बुलाया, ‘आ जाओ केशू मेरे पास, मेरी गोद में बैठो।
रॉकी की तरफ केशू बढ़ गया तो रोमी को राहत मिली, ‘हां, ठीक है बेटा, अभी उसी के पास जाओ। मैं थक गई हूँ।’ 
थोड़ी देर चुप रहकर लंबी सांस छोड़ते हुए बोली, ‘उफ्, कोई टाइम टेबल नहीं है ट्रेनों का। बताओ, रात नौ बजे पहुंचने का समय नियत है और ट्रेन अभी आई है..सुबह तीन बजे..श्शिट। ऊपर से इतनी गर्मी में इतने लोग चढ़ जाते हैं। पता नहीं क्या समझते हैं अपने आपको। रिजर्वेशन का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। जनरल बॉगी बना दिया चोट्टों ने।
अरे गाली क्यों दे रही हैं! मजबूरी में क्या करेंगे लोग, जनरल बॉगी में पिसने से तो बढ़िया है कि स्लीपर में बैठ कर जाएं।रॉकी मुस्कुराया।
बॉगी में चार-छह लोग बैठ जाएं तो कोई बात नहीं, चल जाएगा। नहीं, हर बर्थ पर चार-छह बैठेंगे, वह भी रौब के साथ। ये मजबूरी में नहीं, सीट को बपौती मान कर बैठते हैं।’ 
ऐसा नहीं है।
ऐसा ही है।रोमी थोड़ी तेज आवाज में बोली, ‘उनमें से आधे तो बिना टिकट के होते हैं। देखा नहीं, पूरे टाइम उन्हीं लोगों से उलझा रहा टीटीई। सौ-पचास वसूला और बैठा दिया।’ 
मम्मी… पेप्सी!कैशू ऊबा हुआ लग रहा था। 
रुको याररोमी झल्लाई हुई थी। 
हां हो जाए एक-एक। बहुत गर्मी है।रॉकी को केशू का पस्ताव विषय परिवर्तन के लिहाज से अच्छा लगा। पूछा, ‘चलें?’ 
नहीं, मैं नहीं जाऊंगी तुम ले आओ।रोमी वाकई थक चुकी थी। 
मैं भी जाऊंगा।केशू पहले से तैयार बैठा था।
हां, इसे भी प्लेटफॉर्म पर हवा खिला दो।रोमी राहत चाहती थी।
रॉकी केशू का हाथ पकड़े वेटिंग रूम से निकल गया। रोमी सामने वाली दीवार को ताकती सुस्ताने लगी। थोड़ी देर में सीधी हुई और पर्स खोलकर कंघी निकाल ली। बाईं तरफ की दीवार पर बड़ा-सा आईना लगा हुआ था। उसके सामने खड़ी होकर बालों को सीधा करने लगी। 
दाएं-बाएं एंगिल से चेहरे को निहारते हुए उसने देखा कि उसकी हमउम्र एक महिला पीठ तरफ की दीवार से सटी सीट पर बैठी उसी को निहारे जा रही है। उसने गौर से देखा, जब आशंका पक्की हो गई तो उसके  आसपास की चीजों और व्यक्तियों का मुआयना किया। उसके सामने दो अटैची और एक बैग थे। अगल-बगल दो बच्चियां सोई हुई थीं। आसपास कोई मर्द नहीं दिखा। 
रोमी भी बालों में कंघी करने के बहाने उसे ही घूरती रही। उसके जैसे चेहरे-मोहरे वाली किसी परिचित महिला को याद करने लगी। इसी उलझन में फंसी थी रोमी कि वह महिला उसकी तरफ आती दिखाई दी। उसके माथे पर बल पड़ गए। फिर सोचा, शायद बाथरूम जा रही होगी। लेकिन जब वह ठीक उसके पीछे आ गई तो रोमी तुरंत पलट गई। 
रोमी.. तुम रोमी ही हो न?’ बिलकुल सामने खड़ी महिला ने सवाल किया। 
अचरज में थी रोमी। सोचने लगी कि कौन हो सकती है यह जो बिलकुल ठीक-ठीक पहचान रही है उसे। फिर जैसे कुछ-कुछ याद आ रहा हो, उसने अपनी स्मृति पर जोर डाला। 
नहीं पहचाना?’ सामने वाली मुस्कुरा रही थी।
एक हद तक पहचानते हुए उसकी तरफ उंगली दिखाते हुए फुसफुसाई ‘..आ..आम्ना!
ओ येस।रोमी से लिपट गई आम्ना खुशी से झूमती हुई गोया इतना करीबी इंसान पहले कभी नहीं मिला हो। 
रोमी को भी उतनी ही खुशी का अहसास हो रहा था। साथ ही झेंप भी हो रही थी कि उसने आम्ना को पहचानने में इतनी देर लगा दी। लेकिन यूनिवर्सिटी वाली और आज की आम्ना में बहुत फर्क आ गया था। थुलथुल नहीं कही जा सकती, लेकिन देह पूरी तरह भर आया था। चेहरे पर वह ताजगी नहीं थी, आंखों के नीचे काले धब्बे उभर आए थे।
रोमी, वाकई दस साल बाद भी तुम जस-की-तस हो यार।बहुत खुश थी आम्ना। बोली, ‘वही डील-डौल, चेहरे पर वैसी ही ताजगी। हां, आंखों से शक्की जरूर हो गई हो।’ 
दोनों के ठहाके लगे तो वेटिंग रूम में आराम फरमा रहे कई लोग उचककर उनकी ओर देखने लगे। वे दोनों झेंप गईं।
 रोमी उसे अपनी कुर्सी पर बैठाने लगी तो आम्ना ने कहा, ‘बेटियों को नहीं देखोगी?’
हां, क्यों नहीं। बच्चियों को देखकर लगा कि वे तुम्हारी ही होंगी।
मगर अभी वे सोई हुई हैं।
कोई बात नहीं, अभी निहार ही लेंगे। परिचय बाद में कर लेंगे। और ..तुम्हारे मियां?’  
बताएंगे भई, उसके बारे में भी बताएंगे। मगर वो तुम्हारे शौहर जैसा हैंडसम नहीं है।आम्ना का इशारा प्लेटफार्म की तरफ गएरॉकी की ओर था। 
रोमी को आम्ना का इशारा समझने में देर नहीं लगी। उसके चेहरे पर एक ठहराव सा आ गया। बोली, ‘आम्ना, वो मेरा हसबैंड नहीं है।
ओ..सॉरी यार।आम्ना सकुचा गई। 
कोई बात नहीं, आओ बैठते हैं।रोमी ने हाथ पकड़ कर आम्ना को बैठा लिया। फिर पूछी, ‘इधर कैसे आना हुआ, कोई रिलेशन है या ..?’
नहीं, कोई रिलेशन नहीं है। बस, बच्चों को घुमाने ले आई थी। अब छुट्टियां खत्म हो गईं, सो वापस जा रही हूँ।
अभी रहना कहां हो रहा है?
पटना में।
कहां-कहां घूमी?’
पहाड़ों की ओर निकल गई थी। नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत हो आई।आम्ना ने बताया, ‘देर रात लौटी हूँ। किसी होटल में रुकने से बेहतर समझी कि वेटिंग रूम में ही टिक लें ताकि सुबह-सुबह पटना के लिए ट्रेन पकड़ी जा सके। लेकिन बेकार हो गया। ब्रह्मपुत्र मेल और मगध एक्सप्रेस दोनों चार से पांच घंटे लेट चल रही हैं।
ट्रेन लेट होने से मैं खुद बहुत परेशान थी, लेकिन अब लगता है अच्छा ही हुआ।तसल्ली से बोली आम्ना, ‘मेरी ट्रेन समय से आ जाती तो रात में ही मैं घर चली गई होती। और तुमसे भेंंट नहीं हो पाती।’ 
हां ये तो है।रोमी की आशावादिता पर मुस्कुराई आम्ना। फिर पूछा तुम गई कहां थी?’
हिमाचल गई थी’, रोमी ने जवाब दिया, ‘जम्मू भी जाने का मन था लेकिन संयोग बन नहीं सका। और छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं।’ 
हो यहीं?’
हां, फिलहाल यहीं हूँ शादी के बाद से। अगले दो-चार दिन तुम भी अब यहीं रहोगी, मेरे साथ।
अरे नहीं, फिर कभी रुक लूंगी।’ 
वो दिन फिर कब लौटेगा, कौन जानता है। तुम्हें तो रुकना ही पड़ेगा।भावुक हो गई रोमी। 
आम्ना ने हाथ बढ़ा कर उसका गाल छुआ, ‘जिद न करो रोमी। घर पर कई काम निपटाने हैं। पंद्रह दिनों से बाहर हूँ। फिर मेरी ट्रेन आने में अभी बहुत लेट है, मन भर बातें तो यहीं बैठे-बैठे कर लेंगे।
ये कोई बात नहीं हुई आम्ना।चेहरा उतर आया रोमी का, ‘मुझे अच्छा नहीं लगेगा अगर यहां तक आने के बावजूद तुम मेरे मकान तक नहीं जा सकोगी तो।’ 
अहमियत मिलने की है रोमी।आम्ना ने समझाने की कोशिश की, ‘बाकी सारी जिंदगी पड़ी है एक-दूसरे के यहां आने-जाने के लिए। सोचो, दस साल बाद बिना पता-ठिकाना के हमारी मुलाकात हो गई…अब तो होती ही रहेगी। आगे हम एक-दूसरे के संपर्क में रहेंगे।’ 
जरूर रहेंगे आम्ना, जरूर रहेंगे।रोमी ने आम्ना का दोनों हाथ अपनी हथेलियों में दबा लिया। बोली, ‘उन दिनों को कैसे भूल सकती हूँ कि हमारा साथ उठने-बैठने, खाने-पीने, घूमने-फिरने तक ही नहीं था, जीवन की कई अहम बातें, जाती परेशानियां हमने आपस में शेयर की हैं।’ 
वाकई रोमी’, आम्ना ने स्वीकार किया, ‘जिंदगी के सबसे हसीन वक्त गुजारे हैं हमने साथ-साथ। बंदिशों से आजाद वे लम्हे कभी लौट कर वापस नहीं आ सकते। सही मायने में वो हमारी आजादी के दिन थे। अपने मन की करने की पूरी छूट थी तब। बहुत याद आता है वो गुजरा हुआ जमाना।
थोड़ी देर दोनों के बीच चुप्पी रही। पहल आम्ना ने की। अपनी अन्य सहेलियों, सहपाठियों के बारे में रोमी से पूछा, ‘और किसी से मुलाकात होती है? कविता, वैशाली, रितु, जस्सी, मेहानी, कुलसुम से? और वो, क्या नाम था उसका नीली आंखों वाली का?’
कौन?’ 
अरे वही…जो याकूब के साथ गुटरगूं किया करती थी हर वक्त!
ओ…नीरू?’ याद आ गया रोमी को।
हां-हांं, नीरू…नीरू चौधरी।आम्ना ने तस्दीक की।
 
इंटीरियर डेकोरेटर हो गई है। हसबैंड पुणे में एक्साइज ऑफीसर है। एक बार मिली थी। बता रही थी कि हसबैंड उसे बहुत मानता है।’ 
वेरी लकी गर्ल शी इज’, खुशी जताते हुए आम्ना ने पूछा, ‘हसबैंड मतलब याकूब न?’
नहीं यार, वो तो बस ऐसे ही…टाइम पास था।
आम्ना ने अचरज में कंधे उचका दिए। 
मुस्कुराते हुए अपने चेहरे को एक तरफ झटका रोमी ने, फिर बताने लगी, ‘और का तो पता नहीं। वैशाली कभी-कभार मिल जाती है पार्लर में। उसने शादी नहीं की और जस्सी जैसे-तैसे परिवार की गाड़ी खींच रही है।’ 
वैशाली ने शादी क्यों नहीं की?’ आम्ना की जिज्ञासा बढ़ गई। 
बस ऐसे ही। कहती है किसी मर्द को चौबीसों घंटे ढोना मुश्किल है उसके लिए।रोमी के कहने का अंदाज बिलकुल सपाट था।
आम्ना को इस खबर पर जैसे विश्वास नहीं हुआ, ‘..लेकिन उसने तो तीन-चार लड़कों से दोस्ती बना रखी थी!’ 
हां, वही तो। फिर पता नहीं क्या हुआ। हो सकता है उन्हीं लड़कों की सोहबत से मिले अनुभव से मन फिर गया हो।चिंतित स्वर था रोमी का, ‘बताती भी तो नहीं है खुलकर। यह जरूर कहती है बार-बार कि मरने के पहले अपनी आत्मकथा लिख छोड़ेगी।’ 
तब तो जरूर दिल पर चोट खाई है उसने, शर्तिया।आम्ना ने अपनी बात पर जोर डाला। 
लगता तो ऐसा ही है।रोमी भी इसे सच मान रही थी। 
और जस्सी?’
वह अपने हसबैंड के पीने से परेशान है। बहुत पीता है। इतना कि पीने के बाद देह के कपड़ों का भी खयाल नहीं रहता।सहेली के लिए अफसोस कर रही थी रोमी, ‘सूख कर कांटा हो गई है बेचारी। यूं समझो कि बस जीए जा रही है।’  
चुप हो गई दोनों। कोई ट्रेन सामने वाले प्लेटफार्म पर लग रही थी। कुलियों की आवाजाही और वेंडरों की आवाज तेज हो गई। निस्पृह भाव से दोनों उधर देखने लगी। 
मैं तो बिलकुुल कट गई सब से। किसी के बारे में कोई जानकारी नहीं मुझे’, धीमे-धीमे शब्दों पर जोर देते हुए बोली आम्ना। फिर जैसे याद आया, रोमी से पूछ बैठी, ‘अच्छा ये तो बताओं.. तुम क्या कर रही हो?’
सीएमएस कॉलेज में लेक्चरर हूँ।
अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई’, खुशी में आम्ना ने रोमी का हाथ पकड़ लिया, ‘चलो हमने न सही, तुमने तो पढ़ाई-लिखाई को सार्थक किया। तुम्हारे हसबैंड क्या करते हैं?’
पत्रकार हैं..पथराई आवाज थी रोमी की। 
बहुत खूब। बुद्धिजीवियों का मिलन.. बड़ा मजा आता होगा न?’
मम्मी…केशू ने आम्ना की जिज्ञासा को अधबीच छोड़ दिया। 
रोमी को केशू की एंट्री पसंद आई। वह अपने पति की चर्चा से शायद बचना चाह रही थी। 
रॉकी का हाथ छुड़ा कर केशू रोमी के पास चला आया। वह कुछ बोलना चाहता था लेकिन सामने अपरिचित महिला को देख कर सकुचा गया और रोमी के पीछे जा कर खड़ा हो गया।
रोमी और आम्ना हंसने लगीं। 
केशू बेटे, आइए सामने आइए। अपनी आंटी से मिलिए। ये मेरी दोस्त हैं। कॉलेज में मेरे साथ पढ़ती थीं। जैसे बिट्टू, बेबो, जोजो तुम्हारे साथ पढ़ते हैं।रोमी ने हाथ पकड़कर केशू को सामने किया। 
केशू ने आम्ना को नमस्ते किया। आम्ना उसे अपने पास खींचते हुए बोली, ‘महज नमस्ते से काम नहीं चलेगा। आंटी से दोस्ती भी करनी होगी।
केशू के गालों पर लाज गुलाबी हो गई। होंठ मुस्कुरा उठे। बिना कुछ बोले वह लगातार अपनी मां को देखे जा रहा था। 
रोमी ने रॉकी का परिचय कराया, ‘ये हैं रॉकी, हमारे रिश्तेदार…फिलहाल जे.आर.एफ. के तहत पी-एच.डी. में लगे हैं। वैसे इनका अच्छा-खासा बिजनेस है कागजों का।
आम्ना और रॉकी ने एक-दूसरे को नमस्ते किया।
पेप्सी की एक ही बोतल लाया था रॉकी। बोला, ‘अभी दूसरा ले आता हूँ।’ 
आम्ना ने रोका, ‘नहीं, रहने दीजिए। इसी में हम दोनों पी लेंगे। सालों बाद यह मौका मिला है।’ 
नहीं, अब हम दोनों चलेंगे न प्लेटफार्म की तरफ। वहीं ले लेंगे।रोमी इस मौके का पूरा लुत्फ उठाना चाहती थी। वह केशू से बोली, ‘आप तो घूम आए, अब हमलोग जाएंगे घूमने। तब तक आप शांति से बैठिएगा।’ 
केशू ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
रोमी को लेकर आम्ना अपनी टेबल की तरफ आई। दोनों बच्चियां अभी भी सोई हुई थीं। रोमी ने प्यार से बच्चियों को निहारा। हल्के हाथ से उनके बालों को सहलाती हुूई बोली, ‘बहुत प्यारी बच्चियां हैं…फूल सी कोमल और खूबसूरत।
बड़ी का नाम नूरी है और छोटी का जूही।आम्ना ने परिचय देना उचित समझा। 
क्या बात है। जैसी सूरत वैसा नाम।प्रशंसा के भाव से बोली रोमी।
सीरत भी इनकी उतनी ही अच्छी है।आम्ना खुद मुग्ध थी। 
जरूर होगी। जगने पर खूब बातें करूंगी दोनों से।रोमी ने आम्ना का हाथ दबाया।
रॉकी से नूरी और जूही का खयाल रखने और उनके जागने पर तुरंत बुला लाने को कहकर रोमी आम्ना के साथ वेटिंग रूम से बाहर निकल आई। 
बाकी बातें छोड़ो, अपने बारे में कुछ बताओ’, रोमी ने एक तरफ चलने का इशारा किया। 
क्या बताऊं अपने बारे में। कुछ भी अच्छा नहीं है। सुनकर मन खट्टा हो जाएगा तुम्हारा।आम्ना के चेहरे से लग रहा था कि बीती बातों को याद कर उसका जख्म फिर से हरा हो जाएगा। 
फिर भी..दुुख-दर्द बांट नहीं सकते, लेकिन आपस में चर्चा करके अपने मन को हल्का तो कर ही सकते हैं।रोमी को इतना समझ में आ गया कि आम्ना खुश नहीं है अपनी पारिवारिक जिंदगी से। 
तय नहीं कर पा रही कि कहां से शुरू करूं अपनी कहानी।आइसक्रीम स्टॉल की ओर बढ़ते हुए आम्ना ने कहा, ‘टुकड़ों में बता रही हूँ, पूरी कहानी के लिए ढेर सारा वक्त चाहिए। और एक-एक बात को याद भी नहीं करना चाहती।’ 
स्ट्रॉबरी के दो कप लेकर वे दोनों प्लेटफार्म के आखिरी छोर पर एक खाली बेंच पर जाकर बैठ गईं। 
रोमी, औरत की आजादी और अधिकारों की बातें जोर-शोर से की जा रही हैं। सभाएं, गोष्ठियां, रैलियां, नेतागीरी और पता नहीं क्या हो रहे हैं इसके नाम पर। लेकिन समाज के बंधन और घरों की दीवारें कितनी कठोर और मारक हैं औरतों के लिए, इसका अंदाजा हम खुद नहीं लगा सकतीं।आम्ना का स्वर अवसाद ढो रहा था। 
रोमी ने स्वीकृति में सिर हिलाया, होंठों पर दांतों का दबाव बनाया। आम्ना के शब्द उसे अपने लग रहे थे। लेकिन वह कुछ बोली नहीं। वास्तव में अभी बस आम्ना को सुनना चाहती थी। 
मेरा सारा आदर्श, सारी हेकड़ी मेरे घरवालों की वजह से ही टूट गई।धरती पर नजर टिकाए बोल रही थी आम्ना, ‘छोटी थी तो लगता ही नहीं था कि कभी अब्बू-अम्मी का साथ छूटेगा। थोड़ी सयानी हुई तो समझने लगी कि हर लड़की तरह मेरे लिए भी एक अलग घर तलाशा जाएगा। लेकिन यह नहीं समझती थी कि अब्बू-अम्मी से सालों-साल के लिए अलग हो जाऊंगी।  
निकाह के बाद नए घर में जा बसी। कई तरह की खुशियां, कई तरह के सपने साथ ले गई थी। लेकिन जल्द ही अहसास हो गया कि वह अब्बू-अम्मी के घर जैसा नहीं है। मायके में कम-से-कम अपने मन से हंस-बोल तो सकती थी। ससुराल के नियम-कायदों में जल्द ही घुटन महसूस करने लगी थी। मेरे घर में पर्दा न के बराबर था। इसके उलट ससुराल में बेमुरौव्वत पर्दा था। 
हमारी भौजाइयां आई थीं तो इतना जरूर जान गई कि बहुओं को बेटियों की बनिस्बत अधिक खबरदार रहना होता है। लेकिन कभी खयाल भी नहीं आया था कि ससुराल में हंसने-रोने पर भी अपना काबू नहीं रहेगा। हालत यह हो गई कि अगर अपने मन से कभी हंस पड़ी तो गुनाह माना गया और उनके हंसे में साथ नहीं दिया तो आफत आ पड़ी। मेरे आंसुओं तक की पहरेदारी की जाती रही। 
हर काम में खोट निकाला जाता, हर घड़ी पहरे जैसी हालत होती। मेरी सुंदरता, मेरी पढ़ाई, मेरी अक्लमंदी दो कौड़ी की होकर रह गई। दिन भर महरी की तरह खटना और रात तो शौहर के लिए सज-धज कर तैयार हो जाना ही कायदा था। पर यह सब हमसे अधिक दिनों तक नहीं हो सका। घर में कामकाज तो करती रही लेकिन रात को सजने-संवरने में मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। शायद वह भी कर जाती अगर इरफान उस लायक होता। मगर उसके पास तो कोई तमीज ही नहीं थी। बात करने, पुकारने और बाकी व्यवहार का उसका तरीका बड़ा ही बर्बर था। वैसा कोई अपनी रखैल या फिर गुलाम के साथ ही कर सकता है। 
परफेक्शन होता तो औरत को लेकर इरफान की निहायत घटिया सोच को फिर भी बर्दाश्त कर जाती। लेकिन उसके दिल-दिमाग का कोई कोना रोशन न था। पढ़-लिखकर भी जाहिल था।’ 
कैसे मुलाकात हुई इरफान से तुम्हारी?’ रोमी ने पूछा।
पहले नकार में सिर हिलाया फिर बोली आम्ना, ‘मुलाकात नहीं, महज इत्तेफाक कह सकती हो उसे। लखनऊ में हमारी बड़ी खाला की मंझली लड़की सकीना आपा की ससुराल है। एमए की परीक्षा के बाद कुछ महीने मैं उनके पास रही थी। वहां इरफान का आना-जाना था। वहीं रहते रिश्ते की बात पक्की हो गई।’ 
निकाह से पहले उससे बात नहीं की थी, जिंदगी के बारे में उसके विचारों को जानने की कोशिश नहीं की थी?’  रोमी का प्रश्न सहानुभूति से लबरेज था। 
अब क्या बताऊं…अफसोस कर रही थी आम्ना, ‘पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो बड़ी कोफ्त होती है खुद पर कि उस इंसान को पहचानने में इतनी लापरवाही क्यों कर गई जिससे रिश्ते की बात चल रही थी। उस दरम्यान मुझसे मिलने, बातें करने और सिर्फ मुझे देखने के बहाने हफ्ते-दस दिन में सकीना आपा के घर आ पहुंचता था इरफान। सकीना आपा और उनके शौहर इन मामलों में पूरी तरह शहराती थे, बावजूद इसके उन्होंने मुझे कभी भी इरफान के सामने आने, उससे बात करने की जिद नहीं की। यहीं उनसे भूल हुई और यहीं मैं चूक गई। एक-आध दफा चाय-नाश्ता रख आने के सिवा शायद ही कभी मैं उसके पास बैठी या बातें की। इसलिए चिकनी-चुपड़ी बातों से सकीना आपा को बरगलाने वाले उनके शौहर के दूर के रिश्तेदार को निकाह से पहले परखने से रह गई। खामियाजा सालों तक भुगतना पड़ा।’ 
आम्ना थोड़ी देर के लिए चुप हो गई, लेकिन अबकी रोमी ने कोई प्रश्न नहीं किया। 
आम्ना ने फिर कहना शुरू किया, ‘निकाह के तकरीबन तीन साल बाद नूरी पैदा हुईं, पांचवें साल जूही। नूरी के वक्त ससुुराल वालों को लगा कि चलो बहू का बांझपन तो टूटा, लेकिन जूही के आने पर तो उनके सब्र का बांध ही टूट गया। लानतों की बौछार होने लगी हम पर। कोई कुछ बोलता, उससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जब इरफान के ताने बढ़ने लगे तो बहुत तकलीफ होने लगी। फिर मैंने फैसला कर लिया कि ज्यादा सहूँगी नहीं।
एक दिन इरफान जैसे मूड बना कर आया था। कोई सस्ती शराब पी कर। शायद देसी या ठर्रा। आते ही लगा बकने। जोर-जोर से गालियां देने। बेटा न पैदा कर सकने के लिए। जब तक इरफान बोलता रहा, घर के सभी लोग चुप थे। लेकिन जब मैं पलट गई तो सभी अपनी खोहों से निकल-निकल कर आ जमे। उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा था कि सिर्फ बेटियां पैदा करने वाली औरत उनके खानदान के चिराग से बतकही करे। उनकी आंखें गुर्रा रही थीं, होंठ बुदबुदा रहे थे। लेकिन मैंने भी किसी की परवाह नहीं की और चीख पड़ी, ‘तुम जो पैदा कर सकते हो, वही पैदा हो रहा है। अलहदा अरमान हैं तो डॉक्टरों से जांच करवा कर तसल्ली कर लो।
फिर?’ रोमी रोक नहीं पाई खुद को मानो वह परिणाम से वाकिफ हो। 
फिर क्या…इरफान समेत तमाम लोगों को जैसे काठ मार गया। अपनी खीझ मिटाने के लिए इरफान मारने दौड़ा, बाकी सब उसे ललकारने लगे। इरफान नशे में था या उसका ईमान जवाब दे गया था, कह नहीं सकती, लेकिन डंडा खोजने के बहाने पलंग के नीचे झुका तो पौवे से टकरा कर गिर पड़ा और फिर उठ न सका। थोड़ी देर में बाकी लोग भी खिसक लिए। 
मैंने इरफान को किसी तरह उठा कर बिछौने पर लिटा दिया। चीख-चिल्लाहट सुन कर नूरी और जूही जाग गई थीं। बेहद डरी-सहमी बच्चियों को छाती से लगाकर वहीं जमीन बैठ गई मैं। फिर हम तीनों कब सो गए, पता ही नहीं चला। सुबह नींद खुली तो इरफान वैसे ही बेसुध पलंग पर पड़ा हुआ था। मैं घर के कामों में लग गई।’ 
मेल-मिलाप कर लिया होगा उसने?’ रोमी ने संभावना जताई। 
नहीं, हमारे बीच तनाव बढ़ते ही चले गए।आम्ना की आवाज सख्त थी, ‘बाद में मेरे चाल-चलन को लेकर फब्तियां कसी जाने लगीं। इसके लिए इरफान ने योजना बना ली थी। वो कई दोस्तों को ले आता। वक्त-बेवक्त चाय-नाश्ते का आर्डर दे देता। दोस्तों की खातिरदारी का पूरा खयाल रखने की हिदायत देता। बाद में परिवार वालों के सामने कहता, ‘वे लड़के इसकी वजह से ही यहां आते हैं। यह जानबूझकर उनके सामने जाती है, मटकती है।परिवार वाले भी बुरा-सा मुंह बनाते और चबा-चबा कर अल्फाज निकालते, ‘अब तो सबर ही करो बेटा। हमारी ही गलती थी। ठोक-बजाकर जांच-परख लिया होता तो आज बाईजी के नखरे न उठाने पड़ते। जानते कि ब्याह कर तवायफ ही लानी है तो ढूंढकर कोई ढंग की लाते।’ 
अब तुम्हीं बताओ रोमी, कैसे बर्दाश्त कर पाती मैं यह सब। क्या तुम कर पाती?’ आम्ना का प्रश्न आवेग भरा था। 
रोमी ने नकार में सिर हिलाया और अपने होंठ भींच लिए। 
मैं अपने ईमान और शख्सियत को लेकर कितनी चौकन्नी रही हूँ, तुमने तो देखा है। बावजूद इसके कि अपनी खूबसूरती को मजे में भुना सकती थी। यूनिवर्सिटी में देवू, सलीम और सरवन ने कौन-कौन से जतन नहीं किए अपनी बात मनवाने के लिए, लेकिन सबको मेरी झिड़की ही मिली। वे सभी पढ़े-लिखे थे, खाते-पीते घरों के थे और सबसे ज्यादा..मेरी खातिर हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार थे। अब सोचती हूँ कि जब पाक साफ रहते हुए भी लानत-मलामत ही झेलनी थी तो एक ही आदमी से निभाने की जिद क्यों पकड़े रही।’ 
थोड़ा रुकी, फिर एक लंबी सांस लेने के बाद आम्ना बोली, ‘तीसरी औलाद न हो, इसके लिए मैं पूरी तरह चौकन्ना थी। चुपके से गोलियां ले लेती। लेकिन जब दो साल यूं ही खाली गुजर गए जूही के आने के बाद तो मेरी सास ने इरफान से अपना शक जताया। इरफान ने मुझसे बात की। मैंने साफ कह दिया, तीसरी औलाद की दरकार नहीं है मुझे और जल्द ही मैं नसबंदी कराने वाली हूूं। बस फिर क्या था, इरफान ने मेरी वो पिटाई की कि मैं सह नहीं पाई। जब होश आया तो खुद को हॉस्पिटल में पाया।’ 
फिर?’ रोमी सिमट कर और करीब आ गई। बहुत दुख हो रहा था उसे आम्ना का जिंदगीनामा सुनकर। 
दस दिन तक अकेली हॉस्पिटल में बेड पर पड़ी रही।आम्ना के होंठों पर तिक्त हंसी उभर आई, ‘न ससुराल से कोई देखने आया न मायके से। घर लौटी तो बच्चियां सूखकर कांटा हो गई थीं। रोते-रोते और मार खाते उनका बुरा हाल था।’  
तुमने कुछ नहीं कहा?’ रोमी को गुस्सा आ रहा था। 
वहां कहने-सुनने जैसी हालत नहीं थी।आम्ना संयत थी। बोली, ‘उसके अगल ही महीने इरफान ने मुझे तलाक दे दिया।
सच कह रही हो?’ रोमी को वाकई विश्वास नहीं हो रहा था। वह सोच रही थी कि अधिक से अधिक दोनों के बीच तकरार और बढ़ गया होगा। 
हां रोमी, इन्हीं दो बच्चियों तक मेरी दुनिया आबाद है।एक खालीपन लिए हुए थे आम्ना के बोल। 
गुजारे के लिए कुछ दिया उसने?’ रोमी कुछ ज्यादा ही चिंतित हो उठी थी।
उसकी मैंने परवाह नहीं की।भावुकता पर काबू रखने की कोशिश करती बोली आम्ना, ‘मैं नहीं चाहती थी उन पचड़ों में पड़ना। बेटियों को अपने दम पर पालना चाहती थी, वही कर रही हूँ। मेरे पास अब्बू-अम्मी के दिए जेवरात थे ठीक-ठाक। उनमें से कुछ के बदले बैंक से लोन ले लिया पचास हजार रुपये।
घर के किसी मेंबर ने साथ नहीं दिया तुम्हारा?’
इरफान से अलगाव के पहले एक बार मैं गई थी उसके बपौती गांव रहमतगंज कि शायद कोई इंसाफ पसंद हो खानदान में। कोई तो होगा जो इंसानियत का पक्ष लेगा। लेकिन किसी ने मेरी बातों पर कान नहीं दिया, उल्टे कुछ अटपटा ही सुना दिया। यहां तक कि देवर रिजवान ने भी, जिसे मैंने ससुराल रहते खूब प्यार और इज्जत दी। एक बार पूछा तक नहीं कि आगे कहां और कैसे रहूँगी।
सकीना आपा और उनके शौहर हमसे सहानुभूति रखते थे, मगर उनकी भी अपनी दुनिया थी, अपने मुश्किलात थे। फिर उनके प्रति एक तरह की नाराजगी घर कर गई थी मेरे भीतर, इरफान से रिश्ता जुड़ने के तईं।
मायके लौट जाती?’
मायके मैं लौटना नहीं चाहती थी। अब्बू-अम्मी होते तो फिर भी हिम्मत कर लेती, लेकिन भाइयों की तंग दुनिया में मेरा गुजारा आसान न था। वहां जाकर अपना स्वाभिमान खोना मुझे गवारा न था।’  
इरफान कभी पलट कर नहीं आया?’
आया, कई बार आया।पटरी पार झगड़ते कुत्तों पर नजर गड़ाए बोली आम्ना, ‘..लेकिन दर्द सहलाने नहीं, बल्कि जिंदगी में और भी ज्यादा जहर घोलने के लिए। कई बार खुद आया डराने-धमकाने के लिए, कई बार दूसरों को भेजा।
वो क्यों भला?’
बस यूं ही, परेशान करने के लिए। मुझसे या मेरी बेटियों से कोई हमदर्दी तो थी नहीं उसे। बस, दिखाना चाहता था कि उसके बगैर स्टैब्लिश करना आसान नहीं होगा मेरे लिए। हुंह..!हिकारत से कंधे को एक झटका दिया आम्ना ने। बोतल से दो घूंट पानी हलक के नीचे डालने के बाद बोली, ‘मेरे संघर्ष के दिनों में उसने बेहयाई का नंगा नाच किया। जिसे अपनी बेटियों की आबरू का भी खयाल न हो, उसकी बेहूदगी के बारे में सोचकर ही घिन आती है। फिर भी बताती हूँ तुम्हें।
तलाक के बाद शुरू में हमने सड़क किनारे ही एक कमरा ले लिया था किराए पर। उसी में परचून की दुकान चलाती और तीनों मां-बेटियां रहती भी थीं। गुसलखाना अंदर कॉमन था। कई परिवार रहते थे। तीन तल्ला बड़े मकान में जन्मी-बढ़ी आम्ना कैसे एक छोटे से कमरे में बेटियों सहित रहती-कमाती थी…काश, तुम अपनी आंखों से देख पाती! 
दो पुलिस वाले अक्सर मेरी दुकान पर आते और बिस्कुट, दालमोट या टॉफी लेने के बहाने घूरते रहते। उनकी बातें भी बेहयाई से भरी होतीं। हालांकि वे अपने में बतियाते लेकिन इशारा हमारी तरफ ही होता। खैर, लड़कियों-औरतों के लिए फिकरेबाजी कोई नई बात नहीं है। सब समझते हुए अनजान बनी रही। 
एक दिन उन हरामजादों ने मेरे अलावा नूरी और जूही को समेटते हुए ऐसी बात कह डाली कि मैं सावन-भादों की नदी की तरह उफना गई। खूब चीखी-चिल्लाई, गंवार औरत की तरह उन दोनों को भद्दी-भद्दी गालियां दी। आस-पड़ोस और सड़क पर आ-जा रहे सैकड़ों लोग जमा हो गए। अपनी फजीहत होते देख वे दोनों वहां से खिसक लिए। उसके बहुत बाद तक मैं बोलती-चीखती उनकी करनी लोगों को बताती रही। बाकी लोगों ने तो अपनी राह पकड़ी, लेकिन पड़ोसियों ने हमारी परेशानी जरूर समझी।   
कोई घंटे भर बाद सब कुछ शांत हो गया। लेकिन मैं भीतर ही भीतर खौलती रही। रात को जल्दी दुकान समेट कर सो गई। करीब दो बजे रात को किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया। पहले तो मैं समझी कि हवा के झोंके से दरवाजा हिल रहा होगा। लेकिन बार-बार खट-खट होने और उसकी लय से समझ गई कि कोई खटखटा रहा है। मेरा तो सर्वांग सिहर उठा। अकेली औरत…आधी रात…और बाहर किसी अजनबी की उपस्थिति। मेरी धड़कनें तेज हो गईं… धौंकनी हुई छाती को काबू में करने के लिए मैंने अपने होंठ भींच लिए। नूरी और जूही को छाती से जकड़ लिया। कई बार खटखटाने के बावजूद जब हमने कोई आवाज नहीं दो तो बाहरवाले ने किवाड़ जोर से भड़भड़ाना शुरू कर दिया। तेज-तेज आवाज में गालियां बकते हुुए दरवाजा खोलने के लिए कहने लगा। उसकी आवाज की लड़खड़ाहट से स्पष्ट था कि उस पर शराब चढ़ी हुई थी। 
मुझे लगा कि आज मेरा सारा सत नाश होकर रहेगा। रात के अंधेरे में कोई मेरा दरवाजा भड़भड़ाए तो मोहल्ले वाले क्या सोचेंगे-कहेंगे। कितनों को मैं समझा पाऊंगी कि बाहर कौन था, मुझे पता नहीं। इतना तो तब होगा जब सुबह होगी। उसके पहले ही बाहर खड़ा शैतान दरवाजा तोड़कर भीतर घुस आए तो मैं क्या करूंगी। अकेली जान उससे मुकाबला करूंगी या दो नन्हीं जान की हिफाजत। 
मैं बुरी तरह कांप रही थी। मेरी आंखों से जार-जार आंसू निकल रहे थे। अब्बू-अम्मी की बेतहाशा याद आ रही थी। 
कयामत की रात थी वह। मैं जीना चाहती थी और बाहर खड़ी हैवानियत मेरा दरवाजा खटखटा रही थी। एक-एक लम्हा मौत बन गया था।’ 
आम्ना की व्यथा-कथा से सकते में थी रोमी। चेहरे को हथेलियों से दबाया और दुख में डूबी सहेली को टुकुर-टुकुर ताकने लगी।
आम्ना बोलती रही, ‘बच्चियां उठ न जाएं, इसलिए मैं दम साध कर रो रही थी लेकिन दरवाजा पीटे जाने से बच्चियां जाग गईं और मुझे रोती देख खुद जोर-जोर से रोने लगीं। 
यह अच्छा ही हुआ। अड़ोसी-पड़ोसी जो अब तक जाग गए थे और शायद हालात का मन-ही-मन जायजा ले रहे थे, बच्चियों के बेतहाशा रोने से बाहर निकल आए। बाहर कौन है.. क्या बात है.. पूछने वाली कई आवाजें आने लगीं तो मुझे तसल्ली हुई। मैंने अपनी उखड़ती सांस को काबू किया और साहस बटोरकर दरवाजा खोल दिया। 
वही दोनों पुलिस वाले थे। शराब के नशे में धुत अंट-शंट बक रहे थे। अपनी ही आवाज पर उनका वश नहीं था। जुबान और शरीर दोनों से लड़खड़ाते हुए मेरे मकान मालिक को हड़का रहे थे, ‘रंडी को घर में रखते हो? धंधा करवाते हो? अभी…और इसी वक्त अंदर कर दूंगा।
मकान मालिक को काटो तो खून नहीं। आग बबूला होकर दोनों सिपाहियों को जुबान संभालने की हिदायत दे रहे थे। दूसरे पड़ोसी भी उन्हें दुत्कार रहे थे। लेकिन वो बदजात अपनी खीझ मिटाने के लिए जोर-जोर से गालियां बके जा रहे थे। 
इसी बीच किसी ने फोन से थाने पर सूचना दे दी। दस मिनट के भीतर पुलिस की एक जीप वहां आ लगी। दरोगा के कड़ाई से पूछने पर उन सिपाहियों ने सच उगल दिया। हम मां-बेटियों को परेशान करने के लिए इरफान ने उन्हें पैसे दिए थे।
ओह नो…!!रोमी का मुंह खुला रह गया। आंखें फैल गईं। उसने अपने मुंह पर हाथ रख लिया। 
हां रोमी, यही सच है।आम्ना के होठों पर हंसी विकृत हो गई। 
आदमी इतना घटिया हो सकता है, विश्वास नहीं होता।अवसादग्रस्त थी रोमी। 
फिर भी मैं मानती हूँ कि सब वैसे नहीं होते। हां, उस घटना के बाद से इरफान नामक शख्स के बारे में सोचती भी नहीं।’  
लेकिन उसका हुआ क्या?’ 
बेहूदों को शर्मो-हया तो होती नहीं। सुना है तीसरी शादी करने जा रहा है।’ 
और दूसरी?’
दूसरी उम्र में बहुत छोटी थी। मारपीट से आजिज होकर कहीं भाग गई।’ 
अरे, कितनी शादियां करेगा। किसी को तो दिल से अपनाए?’ 
देह उसका आखिरी मुकाम है। वहीं से शुरू होकर वहीं खत्म होता है। देह की सीमा जो पार नहीं कर सका वो दिल की भाषा कैसे समझ सकता है भला।दार्शनिक अंदाज में अपनी बात खत्म कर चुप हो गई आम्ना।
बेंच पर सिर टिका कर आंखें मूंद ली रोमी ने। सोचने लगी कि कैसे बताऊं आम्ना से कि उसने भी कम जलालत नहीं झेली है। कि वह खुद अपने हसबैंड से अलग रहती है। आखिरी सवाल पूछने के लिए वह आम्ना की ओर मुखातिब हुई, ‘आगे क्या अकेले रहने का इरादा है?’
आम्ना को इस सवाल का जैसे पहले से इलहाम था। छूटते ही बोली, ‘किसी और पर विश्वास करने का दांव अब नहीं खेलना चाहती। वैसे भी अकेली हूँ कहां। दो-दो बेटियां हैं साथ में। उनकी और अपनी जिम्मेदारी निभाते जिंदगी कट जाएगी।’ 
हमारी तकदीर किसी लिजलिजे और डरपोक किस्म के देवता ने लिखी होगी आम्ना!गंभीर हो उठी थी रोमी। बोली, ‘इसलिए तमाम काबिलियत और खूबियों के बावजूद हम जिंदगी की दौड़ में मर्दों के हाथों पिट जाती हैं।
रोमी को गौर से देखने लगी आम्ना। मुस्कुरा कर पूछा, ‘क्या बात है, पत्रकार महोदय से पटरी नहीं बैठ रही?’ 
पटरी बैठने का सवाल ही नहीं उठता।तेज बोल रही थी रोमी, ‘जिसकी कथनी-करनी में मेल नहीं हो, जो दिखावे की जिंदगी जी रहा हो। जो अपनी कमियां ढंकने के लिए दूसरों के चरित्र पर कीचड़ उछालता हो, उसके साथ पटरी कोई धर्मभीरू और पतिपरायण महिला ही बैठा सकती है। मुझसे संभव नहीं था, सो दोनों अलग-अलग हो गए।
अरे, पत्रकार हैं तो इंटेलेक्चुअल होंगे यार!आम धारणा के तहत अपना मंतव्य रखा आम्ना ने।  
सुअर की नेड़ी हैं।फनफना उठी रोमी, ‘शो तो ऐसा करता है जैसे बहुत बड़ा इंटेलेक्चुअल हो लेकिन उसकी हकीकत मैं जानती हूँ। वे सब जानते हैं जो उसके करीब रह चुके हैं। छंटा हुआ बदमाश है। सफेदपोश।
क्या हो गया?’ बुजुर्ग की तरह पूछ रही थी आम्ना, ‘क्या नाम है उनका?
नागों का इंद्र…नागेन्द्रबुरा सा मुंह बनाया रोमी ने। 
अरेंज थी या लव मैरिज?’ आम्ना जड़ से ही तकरार के सूत्र पकड़ना चाह रही थी। 
अफसोस इसी बात का है कि लव मैरिज की थी मैंनेरोमी भुनभुनाई, ‘जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी।
मैं तो चलो अरेंज मैरिज की वजह से समझ नहीं सकी इरफान को। शादी से पहले हमने इसकी कोशिश भी नहीं की, मगर तुम्हें तो जांचने-परखने का मौका मिला था यार?’ आम्ना ने टहोका। 
अब क्या बताऊं आम्ना। गलती पर महज अफसोस ही कर सकती हूूं।बहुत दुखी हो गई रोमी, ‘दरअसल हम लड़कियां अपनी भावुकता की वजह से कदम-कदम पर ठोकरें खाती हैं। किसी ने चिकनी-चुपड़ी बातें की नहीं कि हम सपनों के समुुद्र में तैरने लगती हैं। इसका पूरा फायदा मर्द जात उठाती है। तुम्हारा सवाल जायज है आम्ना, हमें उसके नेगेटिव्स को प्वाइंट करना चाहिए था शादी से पहले। उसकी बातचीत और व्यवहार के तरीकों में ही कई संकेत मौजूद थे जिससे खबरदार हुआ जा सकता था। मगर क्या है कि जब किसी से बेइंतहा प्यार करो तो उसके बारे में नेगेटिव प्वाइंट को ढूंढने वाला तंतु पता नहीं कहां गायब हो जाता है या क्षीण हो जाता है।’ 
एक छोटी सी चुप्पी के बाद रोमी ने कहना शुरू किया, ‘सेमिनारों, गोष्ठियों में आते-जाते नागेन्द्र से मेरी मुलाकात नजदीकी में बदल गई। उसके प्रगतिशील विचारों और औरतों के प्रति खुले सोच पर मैं लट्टू होती चली गई। शहर के एक संपन्न और चर्चित अखबार का फीचर एडीटर शादी का ऑफर कर रहा हो तो कोई अपरिचित लड़की भी शायद ना न करती, मैं तो खैर उसके प्रेम पाश में जकड़ जुकी थी। बेइंतहा प्यार करने लगी थी उससे। उस झोंके में इतना भी सब्र नहीं रहा कि तसल्ली से उसके घर-परिवार की खोज-खबर ली जाए। मम्मी-पापा को अपने फैसले के बारे में सूचना दे दी जाए। विवेक को ताक पर रख कर उससे शादी कर ली। बाद में मम्मी-पापा को बताया।  
मम्मी-पापा की दरियादिली थी कि उन्होंने ज्यादा विरोध नहीं किया। दुख जरूर हुआ उन्हें, लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि चलो बेटी ने लड़का ठीक ही चुन लिया है। नागेन्द्र को बुलाया, उसका उचित सम्मान किया। तब तक नागेन्द्र का बर्ताव भी ठीक-ठाक ही था। मुश्किल तब पैदा हुई जब मैंने ससुराल जाने की इच्छा जताई। वह मुझे अपने घर ले जाने से मुकरने लगा, मेरे बार-बार कहने पर झंुझलाने लगा। उसका यह बर्ताव अखरने वाला था। मैंने इसकी वजह जानना चाहा तो उसने यह जताने की कोशिश की कि घरवालों से उसके संबंध अच्छे नहीं हैं। उसने अपने दम पर पढ़ाई पूरी की है और नौकरी पाई है। अब फिर उस जंजाल में लौटना नहीं चाहता है। 
उसने अपनी बातों का झांसा दे कर तत्काल मुझे मना लिया। लेकिन बहुत जल्द उसकी असलियत पर से पर्दा उठने लगा। उसके कई तरह के फोन आते। लड़कियों के उलाहने होते, पैसों की वापसी का तगादा होता। पूछती तो नागेन्द्र कहता कि उसके यार-दोस्त जानबूझकर फोन करते हैं मुझे चिढ़ाने के लिए भाभी के रिश्ते के तईं। लेकिन उसकी बातों से मुझे संतोष नहीं हुआ। 
शक तो मुझे हो ही गया था। उसकी तह तक जाने के लिए मैं उसके फोन पर नजर रखने लगी। कुछ ऐसे फोन सुनने को मिले कि मैं बौखला गई। मैंने पापा को चुपके से उसके गांव भेजा। जब वह लौट कर आए तो तूफान खड़ा हो गया मेरी जिंदगी में। नागेन्द्र पहले से शादीशुदा था। अपनी पहली पत्नी को गांव में ही छोड़ रखा था। वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, इसलिए उसके पास फटकता भी नहीं था। 
धत् तेरी की..इन मर्दों की ऐसी की तैसीगुस्से में दांत किटकिटाया आम्ना ने।
मेरे दिल पर क्या गुजरी क्या बताऊं आम्ना।दिल की गहराइयों से बोल रही थी रोमी, ‘गलती खुद की थी मैंने, इसलिए मन-ही-मन घुटने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकती थी। दो-चार दिन बंद कमरे में जी भर कर रोयी-धोयी। 
मुझे समझाने-बरगलाने की खूब कोशिश की नागेन्द्र ने, लेकिन मैं उसे और मौका देने के पक्ष में कतई नहीं थी। जब उसने देखा कि मैं अपनी जिद से हटूंगी नहीं तो पलटवार करते हुए रॉकी को लेकर मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालने की कोशिश की।’ 
इस रॉकी को लेकर?’ आम्ना की जिज्ञासा बढ़ी।
हां…इसी रॉकी को लेकर’, ठंडी सांस ली रोमी ने।
क्या रिलेशन है तुम्हारा इससे?’ स्वाभाविक सवाल था आम्ना का।
रॉकी नागेन्द्र का चचेरा भांजा है।पहलू बदलते हुए रोमी ने कहा, ‘लेकिन हमउम्र होने की वजह से दोस्ताना था उनमें। नागेन्द्र से मेरी दोस्ती को शादी में बदलवाने में रॉकी का अहम हाथ रहा था। बिलकुल घुले-मिले रहे हम शुरू से। कभी मामी-भांजा रिश्ते को लेकर तो कभी दोस्ताना मजाक हो जाता था हमारे बीच। इसी को आड़ लेकर नागेन्द्र ने उसका नाम मेरे साथ गलत ढंग से जोड़ दिया।’ 
क्या यार! पढ़ा-बेपढ़ा सबका खयाल बराबर है औरतों के मामले में।खीझ गई आम्ना।
ऐसोंं की संख्या सौ में नब्बे जरूर होगीरोमी ने समर्थन किया, ‘नागेन्द्र को ही लो। बातचीत में, लेखों में, सभा-गोष्ठियों में संवेदनशीलता, वैचारिक क्रांति, लैंगिक समानता, मानवतावाद और पता नहीं कैसे-कैसे गरिष्ठ, शिष्ट शब्दों की जुगाली करता रहता है, लेकिन हकीकत में जस्ट रिवर्स। कथनी-करनी में कोई मेल नहीं। …दुष्चरित्र और बेहूदा।
फिर क्या किया तुमने?’ आम्ना निर्णय सुनना चाहती थी।
नागेन्द्र से सब दिन की खातिर नाता तोड़ लिया।रोमी की आवाज में हिकारत थी, ‘मेरे और उसके बीच किसी तरह का साझा या अपनापा नहीं है। न आना न जाना, न बातचीत न भेंट-मुलाकात। कुछ भी नहीं।
अच्छा किया’, आम्ना को अपनी ससुराल वाली हालत याद आ गई, ‘घुट-घुट कर जीने वाली नेक बहू बनने की कोई जरूरत नहीं है। जीने के लिए हम किसी के मोहताज नहीं हैं यार। रोटी-कपड़ा जुटाने की कूव्वत है हममें।…ताली सुननी हो तो दूसरे को भी चोट सहने के लिए बराबर से तैयार रहना होगा।’ 
बिलकुल’, रोमी ने आम्ना की बातों का समर्थन किया, ‘दो साल भी नहीं टिक सका मेरा और नागेन्द्र का वैवाहिक जीवन। अलग होते वक्त केशू पेट में ही था, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह मेरे साथ है। उसके लिए मुझे कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी। और नागेन्द्र अपनी संतान को पाने के लिए बहुत इच्छुक भी नहीं था। कुछ दिन तो पापा के यहां रही। फिर अपना घर तैयार हो गया तो उसमें शिफ्ट कर गई। जब भी कहीं आना-जाना होता है या कोई बड़ी जरूरत आ पड़ती है तो रॉकी को बुला लेती हूँ। उसकी पत्नी भी आ जाती है। अभी वह गर्भ से है, डॉक्टर ने बड़ी यात्राएं करने से मना किया है, वरना आज उससे भी तुम्हारी मुलाकात हो जाती।
अच्छा होता, उस खुशनसीब से भी मिल लेती। मां बनने के लिए मेरी ओर से बधाई देना उसे।’ 
जरूर’, आम्ना को आश्वस्त किया रोमी ने। 
देखने से ही रॉकी कायदे का आदमी लगता है।यार्ड की तरफ से आ रहे इंजन को देखते हुए आम्ना ने कहा, ‘विश्वास बड़ी चीज है उसे चाहे शौहर निभाए या दोस्त।
रोमी ने आकाश की ओर देखा। सुबह दस्तक देना चाह रही थी। आम्ना ने कहा, ‘बच्चियां जाग गई होंगी।’ 
उन्हें अब जाग ही जाना चाहिए।आश्वस्ति से बोली आम्ना। 
बेंच छोड़कर दोनों ने अंगड़ाइयां लीं। वेटिंग रूम की तरफ बढ़ीं तो देखा सामने से नूरी, जूही और केशू हमजोली बनाए उनकी तरफ ही चले आ रहे थे मुस्कुराते हुए। 
रोमी और आम्ना ने एक-दूसरे को देखा और सुखद अहसास से भर उठीं। कौवे सुबह के गीत गाने लगे, कुत्तों ने भोजन की तलाश शुरू कर दी। प्लेटफॉर्म पर कोई ट्रेन लगने जा रही थी। चाय-पान वालों की आवाजें तेज हो गईं, गमछी झाड़ कर पगड़ी बनाते कुली बोगियों की तरफ दौड़ने लगे। 

सम्पर्क –  

एचएमवीएल, शीशमहल टावर
24/30, महर्षि दयानंद मार्ग,  
सिविल लाइंस, इलाहाबाद-211001.


मोबाइल : 9532617710


ई-मेल : iamsatyaketu@gmail.com 

हरबंस मुखिया की नज्में

हरबंस मुखिया
     

कविता अपने आप में एक दस्तावेज होती है. उसमें समकालीन समय की आहट के साथ-साथ उस की विडम्बनाओं और विषाद की अनुगूंज भी स्पष्ट तौर पर पढी देखी जा सकती है. कवि अपने समय का पहरेदार होता है. हमेशा सजग-सतर्क-जागरुक. संवेदनशीलता उसे इस कदर परेशान कर देती है कि कबीर कह उठते हैं – सुखिया सब संसार है  खावै और सोवै। दुखिया दास कबीर है जागै अरू रोवै॥ आज के कवि रह भले ही इक्कीसवीं सदी में रहे हों, उनकी दिक्कतें भी कबीर से कम नहीं हैं. हरबंस मुखिया अपनी एक नज्म में लिखते हैं –मुझे अब/ हर वक़्त परेशान रहने की/ आदत पड़ चली है/ मैं सदर ओबामा की/ अफ़ग़ान पालिसी पर परेशान रहता हूँ/ और बसड्राइवर के बेहद हॉर्न बजाने पर.हरबंस मुखिया की नज्में आप पूर्व में भी पहली बारपर पढ़ चुके हैं. आइए आज पढ़ते हैं उनकी दो बिल्कुल नयी नज्में.

     


हरबंस मुखिया की नज्में

वक़्त

 

मैं सदियों की तारीख 
मुट्ठी में बंद किये 
वक़्त की तलाश में निकला हूँ 
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मैं ने 
वक़्त को ढूंढा  
हक़ की हर सलेब पर 
जहाँ किसी बाग़ी के ख़ून के दाग़ 
अब तक मौजूद हैं 
ज़हर के प्याले में 
जहाँ किसी सवाल करने वाले के 
लबों के निशान बाक़ी हैं 
हर आशिक़ की क़ब्र पर 
जिस में अनगिनत अरमान दफ़्न हैं 
हर जगह मैं ने वक़्त की तलाश की 
जो मुझे बता सके 
कि बग़ावत का अंजाम मौत क्यों होता है ?
सवाल पूछना गुनाह क्यों होता है ?
इश्क़ हमेशा नाकाम क्यों होता है ?



परेशानी 

मुझे अब 
हर वक़्त परेशान रहने की
आदत पड़ चली है 
मैं सदर ओबामा की 
अफ़ग़ान पालिसी पर परेशान रहता हूँ 
और बसड्राइवर के बेहद हॉर्न बजाने पर 
मैं रात भर आराम कर 
सुबह परेशान उठता हूँ 
और अख़बार में 
हादसों की खबरें पढ़ 
गुस्से से भर जाता हूँ 
मैं दुनिया भर में एटम बमों 
और प्लास्टिक की थैलियों की तादाद,
बढ़ती हुई गर्मी 
और मज़दूर बच्चों के हालात से 
परेशान हो जाता हूँ 
मुझे यक़ीन है 
कि मेरी परेशानी में ही 
इन सब मसाइल का हल है।

संपर्क-
हरबंस मुखिया
बी-86, सनसिटी, सेक्टर-54,
गुडगाँव, 122011,
(
हरियाणा)

मोबाईल- 09899133174

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)